Friday, March 1, 2024

फ़रवरी २४

१/२/२४ आत्मा और शरीर के मध्य में ये मन अपने खेल दिखाये। जो इस मन में शिव को बसाए वो बस में करे मन को योगी हो जाए। यत् गच्छति न कालं न जीवनम्। अकार आदि वर्णो के समुदाय को क्रम या व्‍यतिक्रम से उच्‍चारण करने पर जो वस्‍तु प्रकाशित होती है, उसे ‘शब्‍द’ जानना चाहिये और उस शब्‍द से जिस अभिप्राय की प्रतीति हो, उसका नाम ‘अर्थ’ है। श्वेतकेतु कहते हैं- शब्‍द और अर्थ में एक प्रकार से कोई नियत सम्‍बन्‍ध नहीं है। कमल के पत्‍ते पर स्थित जल की भाँति शब्‍द एवं अर्थ का अनियत सम्‍बन्‍ध है, ऐसा जानो। सुवर्चला बोली- महाप्राज्ञ! अर्थ पर ही शब्‍द की स्थिति है, अन्‍यथा उसकी स्थिति नहीं हो सकती। साधु शिरोमणे! यदि बिना अर्थ का कोई शब्‍द हो तो उसे बताइये। श्‍वेतकेतु ने कहा- अर्थ के साथ शब्‍द का वाचकत्‍वरूप सम्‍बन्‍ध है और वह सम्‍बन्‍ध नित्‍य है। यदि शब्‍द है तो उसका अर्थ भी सदा है ही। विपरीत क्रम से उच्‍चारण करने पर भी शब्‍द का कुछ-न-कुछ अर्थ होता ही है (जैसे नदी, दीन इत्‍यादि)। सुवर्चला बोली- शब्‍द अर्थात् वेद का आधार है अर्थभूत परमात्‍मा। २/२/२४ घटनाओं में सुख, सौंदर्य और सफलता नहीं है, घटनाओं के प्रस्तुतीकरण में सौंदर्य सुख है, आह्लाद है। प्रस्तुतीकरण किसी पक्ष का हो, अगर उसमे रंजकता और स्थायित्व है तो वह ध्यानाकर्षक ही होगा। घटनाएँ होती रहती हैं, आप हम घटना के किसी पक्ष में खड़े होते हैं या विरोध में होते हैं, वह अच्छी या बुरी लगती है, उसका कुल कारण यही है कि उसका प्रस्तुतीकरण कैसे हुआ है या उसे हमने कैसे समझा है। ५/२/२४ साधनानाम् अनेकता’ अर्थात् साधना अनेक प्रकारकी होती है । गुरुकृपा हि केवलं शिष्यपरममङ्गलम् ।’ ६/२/२४ किं कुर्वन्ति ग्रहा सर्वे यस्य केन्द्रो बृहस्पतिः। मत्तमातंगयूथानां भिनत्तयेकोऽपि केशरी। (मानसागरी) ज्योतिष जीपीएस की तरह है, गंतव्य की दिशाएं सुझाता है। वह अंतिम और एकमेव पथ नहीं, संभावना मात्र है। काल में ज्योतिष रहता है, महाकाल से जुड़ने पर काल की अनुकूलता हो जायेगी। Vशून्य ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ एक अवधारणा शून्य > जो है , जो नहीं है , लेकिन जो . है . भी नहीं है और जो . नहीं . भी नहीं है । जो >>है और नहीं << का निषेध भी नहीं है । >>>आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी प्रकृति में मन बुद्धि शरीर सब एक लय में रहते हैं, विकृति में इनमें गड़बड़ हो जाती है। प्रकृति की लय बनी रहे, इसके लिए संस्कृति होती है। छोड़ना नहीं, छूटना वैराग्य है। मंत्र की तरंग होती है, अर्थ समझ आए, न आए। तरंग में अर्थ होगा ही। मंत्र अगर जागृत हो तो उसका असर अवश्य होगा। मोबाइल है, बैटरी है, पर वह रिचार्ज न हो तो वह नहीं चल पाएगा। श्लोक का अर्थ होता है। शिव समूचे अस्तित्व की पहचान है, लिंग उसका विग्रह है या मूर्तमान स्वरूप है। बाद में उसकी पहचान जननेन्द्रिय से जोड़ दी गई। कहानी या कथा से हम मंत्र के अर्थ को जानने का प्रयत्न करते हैं। ७/२/२४ जैसे कोई प्रकाश कौंधता है, शब्द उसी तरह होता है। उस प्रकाश में जो कुछ दिखता है, वह उस शब्द का अर्थ है। प्रकाश के कौंधने में जो आवाज होती है, वह ध्वनि या स्फोट है। कौंधता हुआ प्रकाश आकाश का एक हिस्सा है। शब्द आकाश का ही तो गुण है। कोई वस्तु हो, उसका आकाश अवश्य होगा। निराकाश में या बिना आकाश के किसी वस्तु का होना संभव नहीं है। घट का आकाश उसका आयतन है। शब्द की आवाज ध्वनि है, इसे सुनना दुष्कर है। आकाश को सुनना शब्द सुनना है। आभास जहां शुरू होता, वहाँ से शब्द की सत्ता आरंभ होती है। यह ध्वनि कौंधते हुए प्रकाश की आवाज के मानिंद है। स्थूल कानो से इसे नहीं सुन पाते। वायु की आवाज स्थूल कानों से सुनी जा सकती है। अग्नि की ध्वनि और स्थूल होती है, जल और पृथ्वी की ध्वनियाँ भी सुनी जा सकती हैं। हर वस्तु का अपना आकाश है, अपना शब्द है। परम शब्द में सब शब्दों का समाहार है। उस परम् या तत्व से सब शब्दों का निर्गमन होता है। तत्व ही उसे इसीलिए कहा गया कि बस वह है, क्या है, कैसे है, उसका निर्वचन संभव नहीं। ध्यान के दौरान पाँचों महाभूतों का सही मिश्रण तैयार हो जाता है, इस मिश्रण के परिणामस्वरूप दैनन्दिन कार्यों पर उसका सकारात्मक असर पड़ना स्वाभाविक है। एक सामरस्य बन जाने से जीवन समस्वर हो जाता है। ९/२/२४ जो व्यक्ति जितनी बड़ी राजधानी में निवास करता है, वह उतने बड़े हृदय का होता है, या कहें उसे ऐसा होना चाहिए। बड़ी राजधानी के व्यक्ति में डाह और ईर्ष्या का स्तर उतना कम होना चाहिए। कोई ज़िला मुख्यालय जनपद वासियों की राजधानी है। तहसील मुख्यालय तहसील वासियों की राजधानी है तो जो जितनी छोटी बड़ी प्रशासनिक इकाई है वह उतने समूह की राजधानी है। राजधानी का अर्थ है व्यक्ति उतनी बड़ी संख्या में प्रत्यक्ष तौर पर दूसरों के आने जाने और व्यवहार बर्ताव को देखता समझता है। इस प्रकार विभिन्न व्यक्तियों की रहनी से उसे जीवन जीने का सीधा ज्ञान प्राप्त होता है। बिना पुस्तकों को पढ़े, यह एक प्रकार का सत्संग है। ९/२/२४ आज ध्यान में आया श्लोक, जो खोजने पर पता चला श्वेताश्वतर उपनिषद की ऋचा है। वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्‌।
तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥ मैं उस परम पुरुष को जान गया हूँ जो सूर्य के समान देदीप्यमान है और समस्त अन्धकार से परे है। जो उसे अनुभूति द्वारा जान जाता है वह मृत्यु से मुक्त हो जाता है। जन्म-मरण के चक्कर से छुटकारा का कोई अन्य मार्ग नहीं है। ११/२/२४ अपना क्या है इस जीवन में सब तो लिया उधार सारा लोहा उन लोगों का अपनी केवल धार॥ अरुण कमल प्रकृति नित्य परिवर्तनशील है। आज का विकास कल बासी हो जाता है, उसकी जगह कोई नया प्रतिरूप बन जाता है। हम समझते हैं, उसका अच्छा हो गया। उसने उत्थान कर लिया। नित्य बदल रही प्रकृति में यह सब होना स्वाभाविक है। राधा उल्लसित है, हम उससे प्रेम करें। हम उल्लसित राधा को देखकर आनंदित हों कि अतीत से उपजे अवसाद और भविष्य की झूठी कल्पनाओं के ज्वार में डूबे रहें। मौन के अतिरिक्त सब कल्पना ही है। Silence is essential. We need silence just as much as we need air, just as much as plants need light. If our minds are crowded with words and thoughts, there is no space for us. ~Thich Nhat Hanh १२/२/२४ प्रेम चेतना का परम विस्तार है। परम तक पहुँचने के बाद यह प्रेम रीतता नहीं है। यह क्षीण नहीं होता, अपितु दिन दिन बढ़त सवायो। सांसारिक प्रेम उस परम तक पहुँचने का माध्यम है। संसार के संबंधों के प्रेम से परम प्रेम का विस्तार उपलब्ध होता है। संसार का प्रेम किसी से हो, वह अपनी आत्यंतिक दशा तक पहुँच जाए तो परम उपलब्ध हो जाता है। आत्यंतिक दशा के प्रेम में प्रेमी की भी आवश्यकता नहीं रह जाएगी, सब कुछ प्रेममय हो जाएगा। उस प्रेम में जो अपने हैं, वे हैं, जो नहीं हैं, वे पराये नहीं रह जाएँगे। हमें अब आलंबन की आवश्यकता नहीं, हर क्षण उद्दीपन है, यह उद्दीपन ही आलंब हो गया है। हम सदा स्थायी भाव में हो जाते है। केवल वासनागत शारीरिक भूख मिटाने के लिए बनाये गये संबंध प्रेम नहीं है। किसी भी तरह की भूख की इच्छा से पार जाये बिना प्रेम स्थायी नहीं हो सकता। स्त्री और पुरुष अथवा दो प्रेमियों को उस परम प्रेम को उपलब्ध होने की दिशा में सतत प्रयत्न करना चाहिए। संसार में दो प्रेमियों को रहते हुए किसी से कोई माँग और शिकायत नहीं करनी चाहिए। वासनागत प्रेम और वास्तविक प्रेम में अंतर करना कोई मुश्किल नहीं है। यदि दो में से कोई एक वास्तविक प्रेम का पुजारी हुआ तो दूसरे के वासनागत प्रेम को तुरंत भाँप जाएगा। वास्तविक प्रेम के पुजारी के लिए वासनागत प्रेम से कोई घृणा नहीं होगी, करुणा ही बरसेगी। १३/२/२४ जो देव में बस गया या जिसमें देव बस गया, वह वासुदेव है। भगवान की यह अद्वैत सूचक उपाधि है। 'परा' शब्द परमात्म तत्व है। 'पश्यन्ति' शब्द आत्म तत्व है। 'मध्यमा' का आधा अंश मनस्तत्व है। ये सभी तत्व मध्यमा के शेष आधे रूप 'बैखरी' शब्द में आकर व्यक्त होते हैं। इस प्रकार तीसरा तत्व भी पूर्ण हो जाता है। मौलिक रूप से तीन तत्व हैं और तीन वर्ण (अक्षर या ध्वनियाँ) हैं। बैखरी तो तीनों की स्थूल अभिव्यक्ति मात्र है। वेदों में इन तीनों को 'त्रयी विद्या' के नाम से विभूषित किया गया है। त्रयी विद्या युक्त तत्व 'ॐ' है जो 'अक्षरब्रह्म' का स्वरुप समझा जाता है जिसे मंत्र-शास्त्र में 'प्रणव' की संज्ञा मिली है। उसी के अनुसार 'परा' घोर तुरीयावस्था है और पश्यन्ति, मध्यमा और बैखरी क्रमशः सुषुप्ति, स्वप्न और जाग्रत अवस्थाएं हैं। आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मानसिक अवस्था का जो सूक्ष्म अर्थ है, वह एक प्रकार का संस्कार या प्रतिबिम्ब है, जब मनुष्य सुषुप्ति अवस्था के संस्कारों अथवा प्रतबिम्बों के माध्यम से विगत बातों का स्मरण करता है। प्रश्न यह है कि उन संस्कारों अथवा प्रतिबिम्बों का कारण क्या है ? क्योंकि संस्कार जब कार्य है तो उसका कोई न कोई कारण अवश्य होना चाहिए। इसका कारण है शब्द या नाम। सम्पूर्ण जगत शब्द, अर्थ और नाम रूप है। यही वह स्थान है जहाँ से मंत्र-शास्त्र का आविर्भाव होता है। इस बात को गहराई से समझने के लिए निम्न तथ्य जानना आवश्यक है- मध्यमा वाणी और उसका अर्थ दोनों सूक्ष्म हैं। वह लिंग शरीर से सम्बद्ध है। किसी शब्द के अर्थ को ग्रहण करने की दिशा में मन दो कार्य करता है। उसका एक अंश तो सूक्ष्म शब्द के साथ एकाकार होता है दूसरा अंश बाह्य वस्तु के रूप में आकार ग्रहण करता है। यही सूक्ष्म अर्थ है। क्योंकि जैसे ही हम कोई शब्द सुनते है और उसका अर्थ सामने आता है, वैसे ही वस्तु का आकार प्रकट हो जाता है। इस प्रकार सूक्ष्म शब्द और सूक्ष्म अर्थ दोनों मन के ही दो रूप हैं। इसे एक उदाहरण से और समझा जा सकता है। किसी ने कोई शब्द या शब्द समूह या वाक्य बोला और दूसरे ने सुना। लेकिन उसकी समझ में नहीं आया। इसका मतलब यह हुआ कि उसके मन से उसका तादात्म्य ठीक से नहीं जुड़ पाया या उसने उसे ठीक से पकड़ नहीं पाया। तो वहाँ पर अर्थ के रूप में किसी वस्तु का आकार नहीं बनेगा। मनुष्य के शरीर में षट्चक्र हैं जिनमें पचास दल हैं। प्रत्येक दल पर संस्कृत वर्णमाला का एक-एक अक्षर है जो सूक्ष्म है और शरीर के भीतर स्थित कण्ठ, तालु आदि स्थानों के आघात से बैखरी आधार ग्रहण करता है। उन्हीं सूक्ष्म अक्षरों को 'मातृका' कहा गया है। 'मातृका' पराशक्ति या परावाक् के पचास रूप समझी जाती है। अतः पचास वर्ण मातृका बीजरूप भी हैं। जिस चक्र के दलों पर जितनी बीजरूप वर्ण-मातृकाओं की स्थिति है, वे आपस में मिलकर बीजाक्षर मन्त्र कहलाते हैं। प्रत्येक बीजाक्षर मन्त्र से शरीर में मन्त्र-तत्वों में से एक-एक तत्व का उदय होता है। बाद में उस बीजाक्षर मन्त्र को उसी तत्व से सम्बंधित बतलाया जाता है। जब कोई बीजाक्षर बैखरी का रूप धारण करेगा तब अपने से उत्पन्न होने वाले तत्व को भी साथ साथ व्यक्त करेगा। तंत्र-शास्त्र में केवल छः चक्रों की चर्चा की गयी है। किन्तु योग पर जो तंत्र आधारित है, उसने छः चक्रों के आलावा एक सातवें चक्र की भी कल्पना की है जिसे 'सहस्रार' कहा जाता है। सहस्रार चक्र में एक हज़ार दल हैं। किन्तु उन दलों पर मातृकाओं की स्थिति नहीं है, बल्कि मातृकाओं से सम्बंधित लोकों, देवताओं और तत्वों के दर्शन होते हैं। सहस्र दलों के बीच जो कर्णिका है, वह विश्वब्रह्माण्ड का केंद्र है। वहाँ पहुँचने पर मन पूर्ण स्थिर, निर्विकार और शान्त होकर आत्मा में विलीन हो जाता है, मन का अस्तित्व ही एक प्रकार से ख़त्म हो जाता है और उसके बाद मन से मुक्त आत्मा परमात्म तत्व में विलीन हो जाती है जिस विलिनीकरण प्रक्रिया के लिए आचार्य, इष्ट और परमात्म तत्व की पूर्व स्वीकृति अनिवार्य है। री का अर्थ गति, ऊर्जा या संभावना है। स्त्री शब्द का विकास इसी से हुआ है। १५/२/२४ ओशो के प्रति निरादर न रखते हुए भी यह बात कहना चाहता हूँ कि अमेरिका गये शुरुआती सन्यासियों के दिखाए मार्ग में अगर खोट है या झूठ है तो कौन सा मार्ग हमारा पाथेय बन सकता है। ओशो की एक रील पर टिप्पणी जननी सम जानहिं परनारी। धनु पराव बिष तें बिष भारी।।
जे हरषहिं पर संपति देखी। दुखित होहिं पर बिपति बिसेषी।। 
जिन्हहि राम तुम्ह प्रानपिआरे। तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे।। जो पराई स्त्री को माता के समान समझते हैं और पराया धन जिन्हे विष से भी भारी विष है । जो दूसरों की संपत्ति को देख कर खुश होते हैं और दूसरे की विपत्ति देख विशेष रूप से दुखी होते हैं और हे राम जी ! जिन्हे आप प्राणों के समान प्यारे हैं उनके मन आप के लिए रहने योग्य शुभ भवन हैं । रस को बनते हुए जानने की एक पद्धति है और दूसरी रस का पुनरुत्पादन करके उसे भोगने की प्रवृत्ति है। पहली पद्धति भारत की है तो दूसरी पश्चिम की है। दोनों का होना सामरस्य के लिए आवश्यक है। हैं तो दोनों एक, पर विकसित दो में होते हैं। मूलाधार और सहस्रार जब मिल जाते हैं तब इसकी अनुभूति होती है। १६/२/२४ बद्ध चित्त का लक्षण तदा बन्धो यदा चित्तं किंचिद्वांछति शोचति । किंचिन्मुंचति गृह्णाति किंचिद हृष्यति कुप्यति ! [अष्टावक्र गीता ] किसी से याचना करना , किसी से कुछ अपेक्षा करना , किसी से कुछ चाहना ,किसी बात पर दु:खी होना , किसी बात पर गुस्सा होना , किसी बात पर हर्षित होना , मैं ग्रहण कर रहा हूँ या मैं त्याग कर रहा हूँ , यह भाव मन में आना बद्ध-चित्त के लक्षण हैं ! मुक्त चित्त का लक्षण है >>> तदा मुक्तिर्यदा चित्तं न वांछति शोचति ! न मुंचति न गृह्णाति न हृष्यति कुप्यति ! [अष्टावक्र गीता ] अर्थात् चाह गयी ,चिन्ता मिटी मनुआँ बेपरवाह ! जाकों कछू न चाहिये , सो ई शाहंशाह ! यदा नाहं तदा मोक्षो यदाहं बन्धनं तदा ! मत्वेति हेलया किंचिन्मा गृहाण विमुंच मा ! अष्टावक्र जब न तो चित्त संग्रह में ही आसक्त होता है और न त्याग में ! मैं त्याग कर रहा हूँ , त्याग करने वाला >> मैं << हूँ , यह भी बन्धन है ! अहंकार अपने विविध बंधनों से चित्त को बाँधता है , इसलिए अहंकार बंधन है ! अहंकार जब बर्फ की तरह पिघल जाय , तब जल में लहरें आने लगती हैं , वह लहर ही मौज है और वही मुक्ति का स्वरूप है ! १७/२/२४ राधा प्रकृति का प्रतीक आश्रय है, नाम है, उसका हृदय कृष्ण है। कृष्ण को चोर कहा गया, क्योंकि वे प्रकृति के हृदय हैं और चित्त चुराते हैं। यह चोर न हो, आकर्षण न हो तो राधा जड़ हो जाएगी, शव ही रहेगी। दूसरी तरफ़ राधा यदि न हो तो वह लीला भूमि ही निर्मित नहीं होगी, जिस पर यह सारा अभिनय घटित हो रहा है। कृष्ण प्रकाश है और राधा पर्दा है। दोनों में से कोई एक न हो तो संसार का चलचित्र चल नहीं सकता। कोई पूछे फिर प्रकाश को प्रक्षेपित करने वाला या निर्देशक कौन है, वह भी कृष्ण ही है। निर्देशक कृष्ण है तो राधा उस लीला की उत्प्रेरक या उद्भाविका शक्ति है। १९/२/२४ रात में ध्यान के दौरान आज्ञा चक्र में गुदगुदी हो रही थी कि अचानक पूरा कपाल ठंडा होने लगा, जैसे किसी ने बर्फ का टुकड़ा डाल दिया हो। वह ठंडक पूरे ध्यान सत्र में बनी रही। सिर अचानक झटके से ऊँचा उठा। और इस प्रकार ध्यान पूरा हुआ। कोई क्रिया नहीं, कोई विधि नहीं। माटी मूक हो गई, पर स्वामी विद्यासागर महाराज जी महावीर होकर बोलते रहेंगे। ॐ शांति शांति। पूज्य महाराज जी का हंसता हुआ सौम्य चेहरा सदा याद रहेगा। उनका मूक माटी अनुभूतियों का महाकाव्य है, हम सबका पाथेय बना रहेगा। यदि तुम्हारा हृदय, प्रेम और करुणा से ओतप्रोत है तो तुम बहुत शक्तिशाली हो! श्रीश्री रविशंकर २२/२/२४ अक्सर, हम जो सोचते हैं, वह लिख नहीं पाते, कह भी नही पाते। एक लेखक उसे लिखता है, इसलिए वह बड़ा है। २३/२/२४ सुनो सहिष्णु बनकर देखो करुणा से और बोलो प्रेम से। २६/२/२४ A wise woman who was traveling in the mountains found a precious stone in a stream. The next day, she met another traveler who was hungry, and the wise woman opened her bag to share her food. The hungry traveler saw the precious stone and asked the woman to give it to him. She did so without hesitation. The traveler left, rejoicing in his good fortune. He knew the stone was worth enough to give him security for a lifetime. But a few days later he came back to return the stone to the wise woman. "I've been thinking," he said, "I know how valuable the stone is, but I give it back in the hope that you can give me something even more precious. Give me what you have within you that enabled you to give me the stone." २८/२/२४ कोई परम् सूक्ति का बार बार दोहराव कर्णकटु लगने लगता है। उत्तम संगीत को भी बार बार श्रवण करना अरुचिकर हो जाता है। किंतु ऐसे ऐसे कोई नाम बन जाये, उसे जप की भाँति अजपा तक पहुँच जाया जाए तो परमानंद की अनुभूति होने लग जाती है। वह आनंद तरह तरह का सौंदर्य बनकर हर अभिव्यक्ति में कौंध रहा है। नया नया बनकर व्यक्त हो रहा है, उसमें दोहराव नहीं, नवता है। वह स्रोत है, वह कोई एक वस्तु, व्यक्ति या अभिव्यक्ति नहीं है, पर उसमें वह समाया हुआ है। वह सबमें समाकर भी उनसे बाहर है। उसे पकड़कर क़ैद नहीं किया जा सकता, किसी विधि, मंदिर, मंत्र और ऋचा में भी। हाँ इनसे हम उसे अनुभव में अवश्य उतार सकते हैं। उस तत्त्व को अनुभव में उतारने के ही सभ्यतागत सारे जतन अपनाए जाते हैं। मानव इन युक्तियों की बार बार और अलग अलग खोज करता आया है और करता भी जा रहा है। २९/२/२४ ध्यान में कभी कभी किसी समस्या पर चिंतन चलता रहता है। उस पर सोचते सोचते भी कोई निष्कर्ष नहीं निकलता। फिर अचानक सब भूल जाते हैं। यानी वह कोई समस्या है ही नहीं। जैसा समय और परिस्थिति के अनुरूप बने, कर जायें। बस यही समाधान है। ध्यानोत्तर किए गए कार्यों में किसी प्रकार की समस्या नहीं रह जाती। ऐसा बहुधा होता है कि काम करते करते किसी अन्य के मुख से करणीय कर्तव्य व्यक्त हो गया, तदनुसार कार्य संपन्न करने से वह समस्या जाती रही। ध्यानोत्तर कार्य और कार्योत्तर ध्यान एक दूसरे को संपुष्ट करते हैं। MANTRA & PRANAYAMA Pranayama [controlled breathing] and mantra naturally go together and work best in combination. Using a mantra along with pranayama unites the mind and prana, drawing our attention and awareness into the breathing process. It can turn pranayama into meditation, as well as bring energy, vitality and wakefulness into the repetition of the mantra. Uniting prana (our power of action) with the mind (our power of knowledge) integrates us back into the source of our being. Prana gives shakti to the mantra and makes it alive and vibrating within our entire body. The sound of the breath is our most natural and constant outer mantra, we could say. The sound of our heartbeat, which is connected to the sound of the breath, is our most natural internal mantra. An important goal of mantra practice is to get one’s mantra to resonate with the breath, so that it is naturally repeated, strengthened and deepened along with every breath that we take—and then to get it to resonate with every heartbeat, so that our heartbeat is the beat of the mantra.§ वामदेव शास्त्री

Wednesday, January 31, 2024

दिसंबर २३

१/१२/२३ श्री हरिवंश गुसांई भजन की रीति सकृत कोऊ जानि है।
श्री राधाचरण प्रधान हृदै अति सहृद उपासी।
कुंज केलि दंपति तहाँकी करत खबासी॥
सर्व सुमहा प्रसाद प्रसिधिता के अधिकारी।
विधि निषेध नहिं दास अनन्य उत्कट व्रतधारी॥
श्री व्यास सुवन पथ अनुसरै सोई भलैं पहिचानि है।
श्री हरिवंश गुसांई भजन की रीति सकृत कोउ जानि है॥ २/१२/२३ मथुरा को ऐसी प्रसिद्धि न मिली होती अगर वृंदावन न हुआ होता और वृंदावन को भी हम नहीं जान पाते अगर वहाँ ऐसे महात्मा न हुए होते। यह आश्चर्यजनक बात ही है कि भाष्य आदि की रचना न करने पर भी महाप्रभु चैतन्य को एक बड़े भारी सम्प्रदाय का प्रवर्तक माना गया। समय समय पर उनके रचे मात्र आठ श्लोक शिक्षाष्टकम् नाम से प्रसिद्ध हैं। चैतन्य चरितामृतम जैसी रचनाएँ तो उनके कृष्णदास जैसे शिष्यों ने की हैं। १५१५ ई में चैतन्य महाप्रभु वृंदावन आये और इसे पुनर्स्थापित किया। इसी समय देवबंद निवासी महात्मा हितहरिवंश भी यहाँ हुए, हितहरिवंश ने ८४ वैष्णवों की वार्ता लिखी, हित चौरासी नाम से यह प्रकाशित है। इसे गोकुलनाथ की रचना भी कहा जाता है। सनातन धर्म में चौरासी एक विशिष्ट संख्या है। इसका प्रयोग और निदर्शन कई जगह और बार बार होता आया है। ब्रज भाषा में यह हिंदी गद्य की पहली रचनाओं में गिनी जाती है। राधावल्लभ सम्प्रदाय के आकर ग्रंथ हित चौरासी के इस पद से उसकी रीति-नीति का पता चलता है - श्री हरिवंश गुसांई भजन की रीति सकृत कोऊ जानि है।
श्री राधाचरण प्रधान हृदै अति सहृद उपासी।
कुंज केलि दंपति तहाँकी करत खबासी॥
सर्व सुमहा प्रसाद प्रसिधिता के अधिकारी।
विधि निषेध नहिं दास अनन्य उत्कट व्रतधारी॥
श्री व्यास सुवन पथ अनुसरै सोई भलैं पहिचानि है।
श्री हरिवंश गुसांई भजन की रीति सकृत कोउ जानि है॥ एक अन्य पद दृष्टव्य है- "जोई जोई प्यारों करे सोई मोहि भावे, भावे मोहि जोई, सोई सोई प्यारे।“ वृंदावन में हरित्रयी नाम के तीन बड़े महात्मा हुए हैं, राधावल्लभ सम्प्रदाय के प्रवर्तक श्रीहितहरिवंश जी, इसी संप्रदाय के ओरछा का राज़दरबार छोड़कर गए पंडित हरिराम व्यास और तानसेन के गुरु स्वामी हरिदास। आजकल इसी संप्रदाय के स्वामी प्रेमानंद जी के दर्शन और प्रवचन हम सबको मिल रहे हैं। पीले वस्त्रों में रहने वाले, सदा प्रसन्नचित्त और ऊर्जस्वित इन बाबा की विगत सत्रह अठारह वर्षों से दोनों किडनी ख़राब हैं। हर दो दिन या नियमित अंतराल पर उनका डायलिसिस किया जाता है। बाबा की दिनचर्या रात दो बजे से प्रारंभ हो जाती है। यह एक प्रत्यक्ष चमत्कार है। बाबा जी लंबी कथा और आख्यान नहीं सुनाते, न भजन और गीत ही। साधारण और विशेष हर तरह के व्यक्तियों के प्रश्नों और टिप्पणियों को सुनते और उन पर अपना बेलाग होकर उत्तर देकर मार्गदर्शन करते हैं। उनकी एकांतिक वार्ता में विभिन्न शास्त्रों और ग्रंथों के संदर्भ एवं कथाओं की झलक आती है। वे कोई लंबी चौड़ी साधना और उपासना करने को नहीं कहते, किसी भौतिक दुःख दर्द निवारण करने का दावा नहीं करते। नाम जप एकमात्र उनका मंत्र है। सभी धर्मों के लोग उनकी बातों को ध्यान से आत्मसात् करते हैं। रीति रिवाजों का विधि निषेध - यह करना, यह न करना - उनके यहाँ नहीं पाया जाता। नशा और व्यसन से दूर रहने का निर्देश रहता है। उनकी बातों से युवा प्रभावित हो रहे हैं। यह देखना आश्वस्तिदायक है। सोशल मीडिया पर उनकी जो छोटी छोटी रील चलती हैं, उनकी आवृत्ति और पसंद व टिप्पणियों को देखकर हमें लगता है वर्तमान में आध्यात्मिक नेताओं में वे सबसे अधिक देखी जाने वाली रीलें होंगी। इन्द्रियों के माध्यम से की जाने वाली भक्ति जीव के हृदय में भगवत प्रेम को जागृत करती है। इसीलिए इसको साधन भक्ति कहा जाता है। भाव प्रेम की प्रथम अवस्था का नाम है, अत: भक्ति मार्ग की प्रक्रिया में भाव भक्ति का दूसरा स्थान है। जब भाव घनीभूत हो जाता है, तब वह प्रेम कहलाने लगता है। साधन भक्ति के दो भेद हैं- वैधी और रागानुगा। शास्त्रीय विधियों द्वारा प्रवर्तित भक्ति वैधी और भक्त के हृदय में स्वाभाविक रूप से जागृत भक्ति रागानुगा कहलाती है। Yoga is the art of doing everything with the consciousness of God. Not only when you are meditating, but also when you are working, your thoughts should be constantly anchored in Him...If you think of God while you perform your duties in this world, you will be mentally united with Him. Cease to think that you are working for yourself. Find God by striving to make your daily activities less identified with "me" and "mine" and more identified with God. Paramahansa Yogananda ३/१२/२३ लक्ष्मी के साथ स्वाभाविक क्रम में बहकर उन्हें आने दो, सरस्वती को अर्जित करते हुए बहाकर उन्हे जाने दो और काली के साथ काल अबाधित रहकर उन्हे आने और जाने दो। हमारी हर वृत्ति ब्रह्माकार हो जाये। ब्रह्म में स्थित हो जाना ब्रह्मचर्य कहलाता है। मात्र जननेंद्रिय के निग्रह को ब्रह्मचर्य नहीं माना जा सकता, निग्रह या संयम तो पाँचों कर्मेन्द्रियों - वाक्, हाथ, पैर, उपस्थ या जननेंद्रिय और पायु या मलोत्सर्गेंद्रिय का हो, परंतु पाँचों ज्ञान इंद्रियों श्रोत्र, नेत्र, नासा, जिह्वा और त्वक् का प्रत्याहार हो जाए, वे ब्रह्म में तद्रूप हो जाएँ, तब सच्चा ब्रह्मचर्य होता है। अखंड ब्रह्मचर्य का अर्थ है ज्ञानेंद्रियों का सदा के लिए ब्रह्म में स्थित हो जाना। पाँच कर्मेन्द्रियों का संयम होगा, वे कर्मशील रहेगी, पर अपने लिए नहीं, ज्ञानेद्रियों की तद्रूपता के बाद ब्रह्मचारी होकर वे बस ईश्वर के काम में लग जायेंगी। कर्मेन्द्रियाँ कर्म से पृथक् नहीं रह सकती, पर वे ब्रह्मचर्य के बाद अकर्म दशा को उपलब्ध हो जायेंगी। उपस्थ का अर्थ लिंग ही नहीं, योनि भी है। यह शब्द देते समय किसी लिंग विशेष का अर्थ नहीं ग्रहण किया गया है। प्रेम आत्मा में छिपी परमात्मा की ऊर्जा है। जैसे शरीर और आत्मा को श्वाँस जोड़ती है, वैसे ही बल्कि उससे भी गहरे प्रेम आत्मा को परमात्मा से जोड़ता है। प्रेम दूसरे की आँख में दिखायी देता है, यह अपने आपको दर्पण में देखने जैसा है। बृहदारण्यक उपनिषद् 6.2.13 योषा वा अग्निर्गौतम; तस्या उपस्थ एव समित्, लोमनि धूमः, योनिरार्चिः, यदन्तः करोति तेंगाराः, अभिनन्द विस्फुल्लिङ्गाः; तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवा रेतो जुह्वति; तस्या आहुत्यै पुरुषः संभवति; स जीवति यावज्जीवति, अथ यदा मृयते ॥ 13 ॥ 13. हे गौतम, नारी अग्नि है। इस अग्नि में देवता बीज अर्पित करते हैं। उस प्रसाद से मनुष्य का जन्म होता है। वह तब तक जीवित रहता है जब तक उसका जीना नियत है। फिर, वह मर जाता है। ५/१२/२३ क्रिया योग अर्थात् योग में क्रिया और क्रिया में योग हो जाना। जीवन की हर क्रिया योग से हो और योगसंवित होकर सारे कर्म संपन्न होते रहें। योग में आरूढ़ होकर किए गए कर्म ही यज्ञ हैं। इसलिए सच्चा यज्ञ क्रियायोग ही है। जब हम सृष्टि के कण कण को यज्ञमय देखते हैं तो परमात्मा का साक्षात होने लगता है। इस यज्ञ की अग्नि को समझना होता है और ध्यान से अपने विचारों में आत्मसात् करता होता है। गीता 4:23-24 पर कहा गया है :
गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयतेII
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥
अर्थ : जिसकी आसक्ति सर्वथा नष्ट हो गई है, जो देहाभिमान और ममता से रहित हो गया है, जिसका चित्त निरन्तर परमात्मा के ज्ञान में स्थित रहता है- केवल यज्ञसम्पादन के लिए कर्म करने वाले ऐसे मनुष्य के सम्पूर्ण कर्म भलीभाँति विलीन हो जाते हैं।
जिस यज्ञ में अर्पण अर्थात स्रुवा आदि भी ब्रह्म है और हवन किए जाने योग्य द्रव्य भी ब्रह्म है तथा ब्रह्मरूप कर्ता द्वारा ब्रह्मरूप अग्नि में आहुति देना रूप क्रिया भी ब्रह्म है- उस ब्रह्मकर्म में स्थित रहने वाले योगी द्वारा प्राप्त किए जाने योग्य फल भी ब्रह्म ही हैं। पंचाग्नि का वर्णन उपनिषदों में आया है, उसी से यह सृष्टि यज्ञ की क्रिया चल रही है। इस पंचाग्नि में अलग अलग स्तरों पर कोई समिधा है, कोई ज्वाला है, कोई आग है तो कुछ धुंआ है। बृहदारण्यक उपनिषद में आया है- श्लोक 6.2.9: असौ वै लोकोऽग्निर्गौतम; तस्यादित्य एव समित्, रश्मयो धूमः, अहरचिर, दिशोङ्गाराः, अवन्तरदिशो विस्फुल्लिङ्गास्; तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवाः, श्रद्धां जुह्वति; तस्या आहुत्यै सोमो राजा संभवति॥ 9 ॥ 9.हे गौतम, वह संसार (स्वर्ग) अग्नि है, सूर्य उसका ईंधन है, किरणें उसका धुआं है, दिन उसकी ज्वाला है, चारों ओर उसकी भस्म है, और मध्यवर्ती उसकी चिंगारी है। इस अग्नि में देवता श्रद्धा (सूक्ष्म रूप में द्रव्य आहुतियां) देते हैं। उस तर्पण से राजा चंद्रमा का जन्म होता है (बलिदान करने वाले के लिए चंद्रमा में एक पिंड बनाया जाता है)। पर्जन्यो वा अग्निर्गौतम; तस्य संवत्सर एव समित्, अभ्राणि धूमः, विद्युदर्चिः, अशनिरङ्गाराः, ह्रदयोयो विस्फुलिंगाः; तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवाः सोमं राजानं जुह्वति; तस्या आहुत्यै विष्टिः सम्भवति ॥ दस ॥  10. हे गौतम, पर्जन्य (वर्षा के देवता), अग्नि हैं, वर्ष इसका ईंधन है, बादल इसका धुआं है, बिजली इसकी लौ है, गरज इसकी राख है, और गड़गड़ाहट इसकी चिंगारी है। इस अग्नि में देवताओं ने राजा चंद्रमा का तर्पण किया। उस प्रसाद से वर्षा उत्पन्न होती है। अयं वै लोकोऽग्निर्गौतम; तस्य पृथिव्येव समित्, अग्निर्धुमः, रात्रिरार्चिः, चन्द्रमा अंगाराः, नक्षत्राणि विषफुलिङ्गाः; तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवा वृष्टिं जुह्वति; तस्या आहुत्या अन्नं संभवति ॥ ॥ 11. हे गौतम, यह संसार अग्नि है, पृथ्वी इसका ईंधन है, अग्नि इसका धुआं है, रात्रि इसकी ज्वाला है, चंद्रमा इसकी राख है, और तारे इसकी चिंगारी हैं। इस अग्नि में देवता वर्षा करते हैं। उस प्रसाद से अन्न उत्पन्न होता है। पुरुषो वा अग्निर्गौतम; तस्य व्यत्तमेव समित्, प्राणो धूमः, वागर्चिः, चक्षुरङ्गाराः, श्रोत्रं विस्फुल्लिङ्गाः; तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवा अन्नं जुह्वति; तस्या आहुत्यै रेतः संभवति ॥ 12 ॥ 12. हे गौतम, मनुष्य अग्नि है, खुला मुख उसका ईंधन है, प्राण उसका धुआं है, वाणी उसकी ज्वाला है, आंख उसकी भस्म है और कान उसकी चिंगारी है। इस अग्नि में देवता भोजन अर्पित करते हैं। उस प्रसाद से बीज उत्पन्न होता है। नारी अग्नि है, यज्ञ के पात्र के रूप में काम करने वाली यह पांचवीं अग्नि है। उस अग्नि में देवताबीज अर्पित करें. उस प्रसाद से मनुष्य का जन्म होता है। इस प्रकार पानी (तरल पदार्थ), जिसे 'विश्वास' के रूप में नामित किया गया है, क्रमशः स्वर्ग, वर्षा-देवता, इस दुनिया, पुरुष और महिला की अग्नि में अर्पित किया जाता है, जो क्रमशः विश्वास, चंद्रमा, बारिश, भोजन और बीज के अधिक से अधिक स्थूल रूपों में होता है। जिसे हम आदमी कहते हैं. चौथा प्रश्न, 'क्या आप जानते हैं कि कितनी आहुति देने के बाद जल मनुष्य की आवाज के साथ ऊपर उठता है और बोलता है?' इस प्रकार उत्तर दिया गया है, अर्थात कि जब पाँचवीं आहुति स्त्री की अग्नि में अर्पित की जाती है, तो जल, बीज में परिवर्तित होकर, एक मानवीय आवाज़ से युक्त हो जाता है। वह , वह आदमी, इसी क्रम में पैदा हुआ, रहता है। कितनी देर? जब तक उसका जीवित रहना नियत है , अर्थात् जब तक उसके पिछले कर्मों का फल, जिसके कारण वह इस शरीर में रहता है, जीवित रहता है। फिर , उस थकावट पर, जब वह मर जाता है। छाँदोग्य उपनिषद में भी ऐसा ही निरूपण मिलता है- योषा वाव गौतमाग्निस्तस्या उपस्थ एव समिद्यदुपमन्त्रयते स धूमो योनिरर्चिर्यदन्तः करोति तेऽङ्गारा अभिनन्दा विस्फुलिङ्गाः॥१॥ (छान्दोग्य).
अर्थ : हे गौतम ! स्त्री ही अग्नि है। उसका उपस्थ(गुप्तांग) ही समिध्(यज्ञ की लकड़ी) है, पुरुष जो उपमंत्रण(आमंत्रण) करता है वह धूम(धूंआ) हैं, योनि ज्वाला है, जो भीतर की ओर काम क्रिया है वह अंगार हैं और उससे जो आनन्द होता है वह विस्फुलिंग(चिंगारी) हैं।
तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवा रेतो जुह्वति तस्या आहुतेर्गर्भः संभवति॥२॥ (छान्दोग्य). अर्थ : उस इस अग्नि में देवगण वीर्य का हवन करते हैं । उस आहुति से गर्भ उत्पन्न होता है एषां वै भूतानां पृथिवी रसः पृथिव्या आपोऽपामोषधयः ओषधीनां पुष्पाणि, पुष्पाणां फलानि फलाना पुरुषः, पुरुषस्य रेतः।
~ बृहदारण्यक उपनिषद (६ । ४ । १)
भूतों का रस पृथ्वी है। पृथिवी का रस जल है। जल का रस औषधियाँ हैं। औषधियों का रस पुष्प है। पुष्प का रस फल है। फल (अन्न) का रस पुरुष है। पुरुष का रस रेत (वीर्य) है। शुक्र के दो रूप हैं :
१. रेत
२. रज
रेत पुरुष में होता है। रज स्त्री में होता है। रेत में तेज होता है। रज में ज्योति होती है।
रेत के कारण पुरुष तेजस्वी होता है। रज के कारण स्त्री ज्योतिर्मयी होती है। शुक्र (वीर्य) का रज (अण्ड) से मिलने पर प्रजा की उत्पत्ति होती है। जब तक गृहस्थ पांच अग्नि या सत्य-ब्राह्मण का ध्यान नहीं जानते, तब तक वे स्त्री की अग्नि से पैदा होते हैं जब आस्था से शुरू होने वाली पांचवीं आहुति (तरल पदार्थ) क्रम से दी जाती है, और फिर से परलोक प्राप्ति की दृष्टि से अग्निहोत्र आदि संस्कार करें। उन संस्कारों के माध्यम से वे फिर से पितरों की दुनिया में जाते हैं, धुएं आदि के देवता को पार करते हुए, औरफिर से लौटें, वर्षा-देवता इत्यादि के क्रम में गुजरें। फिर वे फिर से स्त्री की अग्नि से जन्म लेते हैं, फिर से संस्कार करते हैं, इत्यादि, इस प्रकार इस दुनिया और अगले दुनिया के बीच अपने आगमन और प्रस्थान द्वारा एक रहट की भाँति लगातार घूमते रहते हैं। जो लोग यज्ञ, दान और तपस्या के माध्यम से संसारों को जीतते हैं, वे धुएँ के देवता तक पहुँचते हैं, उनसे रात्रि के देवता, और उनसे पखवाड़े के देवता तक पहुँचते हैं।जिसमें चंद्रमा क्षीण होता है, उससे छह महीने के देवता, जिसमें सूर्य दक्षिण की ओर यात्रा करता है, उनसे पितरों की दुनिया के देवता, और उससे चंद्रमा। चंद्रमा पर पहुंचकर वे भोजन बन जाते हैं। वहां देवता उनका आनंद लेते हैं, जैसे पुजारी चमकदार सोम रस पीते हैं (धीरे-धीरे, कहते हैं, जैसे कि), 'फूलो, क्षीण हो जाओ।' और जब उनका पिछला कार्य समाप्त हो जाता है, तो वे आकाश से वायु, वायु से वर्षा और वर्षा से पृथ्वी तक पहुँचते हैं। पृथ्वी पर पहुँचकर वे भोजन बन जाते हैं। फिर उन्हें फिर से पुरुष की अग्नि में अर्पित किया जाता है, फिर स्त्री की अग्नि में, जहां से वे दूसरी दुनिया में जाने के उद्देश्य से जन्म लेते हैं (और संस्कार करते हैं)। इस प्रकार वे घूमते हैं। जबकि दूसरे जो इन दोनों तरीकों को नहीं जानते वे कीट-पतंगे और बार-बार काटने वाली चीजें (कीट-मच्छर) बन जाते हैं। शरीर छोड़ने के बाद अर्चि मार्ग और धूम्र मार्ग से गमन की प्रक्रिया को पंचाग्नि क्रम से समझा जा सकता है। ब्राह्मण वही है, जो इस पंचाग्नि को तपे या जाने, ऐसे ब्राह्मणों को अग्निहोत्र कहा गया है। ऐसे व्यक्ति पुनर्जन्म को जानते हैं, जीवों के निर्माण, संवहन और ध्वंस की प्रक्रिया से अवगत रहते हैं, इस अर्थ में वे त्रिकालज्ञ होते हैं और समाज की सर्वविधि भलाई करते हैं। शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खा *शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खा*
     *यस्तु क्रियावान् पुरूष: स विद्वान् ।*
*सुचिन्तितं चौषधमातुराणां*
       *न नाममात्रेण करोत्यरोगम् ॥* *भावार्थ -* *वास्तव में विद्वान् और सफलतम् व्यक्ति बनने के लिये  अच्छी पुस्तकों और शास्त्रों का केवल अध्ययन करना पर्याप्त नहीं, अपितु जीवन में उनका अनुकरण करना आवश्यक होता है, जैसे रोग दूर करने के लिए दवा की अच्छी जानकारी होना या दवा का नाम ले लेना पर्याप्त नही अपितु दवा का नियमित सेवन करना आवश्यक एवम् लाभदायक होता है।* ६/१२/२३ अगर व्यक्ति आध्यात्मिक हुए तो वे सच्चे अर्थों में धार्मिक होंगे। ऐसा धार्मिक व्यक्ति नैतिक भी होगा। यह धार्मिकता और नैतिकता जीवन और समाज के उन्नयन के लिए अपरिहार्य है। नैतिकता तो धार्मिक हुए बिना भी प्राप्त हो सकती है, पर वह स्खलित या दिशा विहीन हो सकती है। अगर व्यक्ति नैतिक बना रहा तो वह भी अंततः धार्मिक ही होगा। धर्मनिरपेक्ष होने का अर्थ है, उसकी संकीर्णताओं से दूर रहना। यद्यपि धर्म है तो संकीर्णता कैसी! परंतु अपनी रीति और नीति का दुराग्रह संकीर्णता ही मानी जाएगी। इन रीतियों को ही तो अज्ञानी व्यक्ति धार्मिकता समझ लेते हैं। कोई अच्छी रीति है, वह नीति हो गई तो भी उसका आग्रह करना आवश्यक नहीं। वही नीति वह अपनी रीति से प्राप्त कर लेगा, ऐसा भरोसा करना चाहिए। हम अपनी रीति को नीति में परिणत होते हुए तो देखें। व्यक्ति यदि आध्यात्मिक होकर धार्मिक है तो उसमें संकीर्णता का लेश नहीं होगा। इसे अधिक से अधिक अपनाया जाना श्रेयस्कर है। तब जीवन और राजकाज में शुचिता का उदय होगा। व्यक्ति नाहक होड़ लगाने से बचेंगे। वे आलसी नहीं बनेंगे। जीवन में संतुष्टि तो होगी, पर अकर्मण्यता नहीं होगी। ऐसी स्थिति देश के आध्यात्मिक होने से अवश्य आएगी। आध्यात्मिकता में कोई पाखंड और दिखावा नहीं है, जो है, वह हृदय से है। ऐसी दशा में व्यक्ति का चरित्र धवल बनता है, फिर समाज में कदाचार कम होते हैं और राष्ट्र सर्वतोभावेन उन्नति करता है। स्वामी रामतीर्थ 1902-03 में अमेरिका में रहे, उन्होंने वेदान्त पर वहाँ अनेक भाषण दिये। वे कहा करते थे, तुम सब वेदांत के परिपोषक हो, बिना वेदान्त को ग्रहण किए हुए इतनी उन्नति कर ही नहीं सकते। जो कुछ और ज़रूरी है या कमी है, वह भी वेदान्त के ही आराधन से प्राप्त हो जाएगा। पश्चिम ने थोड़े समय में ही भौतिक संसाधनों का अपूर्व उत्थान कर लिया है, आध्यात्मिकता की गहराइयों तक भी वे पहुँच सकते हैं। दुर्भाग्य से, भारत ने वेदान्त को जन्म देकर भी उसे भुला दिया। उसके अवशेष स्पष्ट रूप में यहाँ उपस्थित हैं। एक समय भारत अपने सर्वविध उत्कर्ष पर था, इसी कारण तो उसने दुनिया को वेदान्त या ऐसे दर्शन दिये जो मनुष्य की अंतिम खोज सिद्ध हुए, पर उसने उन्हें स्वयं धारण करना छोड़ दिया, और लौकिक और पारलौकिक दोनों तरह के विकास से वह दूर होता गया, जितने जल्दी भारत सच्चे अर्थों में वेदान्त या आध्यात्मिकता को धारण कर ले, उतने जल्दी वह आगे बढ़ता जाएगा। यहाँ वेदान्त का अर्थ किसी संप्रदाय विशेष से ग्रहण नहीं करना चाहिए, वरन जिस सीढ़ी से व्यक्ति तत्व की छत पर पहुँच जायें, वह सीढ़ी ही वेदान्त समझी जा सकती है। इस दर्शन में परम् का समाहार हो जाता है। Don't joke all the time with each other. Be happy and cheerful inside. Why dissipate in useless talk the perceptions you have gained? Words are like bullets: when you spend their force in idle conversation, your supply of inner ammunition is wasted. Your consciousness is like a milk pail: when you fill it with the peace of meditation you ought to keep it that way. Joking is often false fun that drives holes in the sides of your bucket and allows all the milk of your peace to run out. - Sri Paramahansa Yogananda, in a talk to disciples 8/12/23 दीयते ज्ञान सद्भावः क्षीयते पशुभावना। दानक्षपण संयुक्ता दीक्षा तेनेह कीर्तिता॥ जिसके द्वारा ज्ञान दिया जाता है और पशु भावना का क्षय होता है। इस प्रकार के दान और क्षपणयुक्त क्रिया का नाम दीक्षा है। यह आत्मसंस्कार का ही दूसरा रूप है। एको नादात्मको वर्णः सर्ववर्णाविभागवान। सोsनस्तमित रूपत्वात् अनाहत इवोदित॥ ९/१२/२३ शक्ति को शैवीमुख करना होगा, अन्यथा वह जैवीमुख रहने से ख़ुद को ही ग्रस लेगी। १४/१२/२३ 'Croatia' has numerous lakes and rivers and waterfalls and one such river is the 'Drava' a name possessing 'Dra' a root in Sanskrit meaning to 'run' and this expands as 'Drava' meaning to 'flow' to 'trickle' to 'stream' and the source of this Croatian river. james robinson cooper १५/१२/२३ सुख दूर दिखाई देता है, उस तथाकथित सुख के जितने भीतर प्रवेश करते जाते हैं, उसकी परत दर परत से सामना होता जाता है। उसकी वास्तविकता ज्ञात होती जाती है कि वास्तव में यह सुख नहीं था। जैसे अमेरिका में रह रहे एशियन प्रायद्वीप के सभी निवासी अपने लगने लगते हैं, फिर जब उनसे उनके देशों में मिलते हैं तो वही सुख दुःख में परिणत होने लगता है। जितना समीप आते जाते हैं प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या, प्रतिशोध और हड़पकर या येन केन प्रकारैन उसे पीछे करने, उसके जैसे होने या उससे आगे जाने की कामना बलवती होती जाती है। और समीप जाते हैं तो रक्त संबंधियों में भी यह भावना घर करती जाती है। और भीतर और गहरे, गहनतम जाने पर पता लगता है कि यह अपने मन में ही उठ रही हिलोरें हैं। जैसे दूर से देखने पर माना गया सुख दुःख हो गया, वैसे ही निकट से देखने पर वह दुःख भी सुख हो जाता है, जब हम उसे परम गहराई से देखने लग जाते हैं। परम गहराई से देखने पर उस यथार्थ से सामना हो जाता है कि न वह था, न यह है। एक के होने पर दूसरा है और दूसरे के होने पर पहला है, वास्तव में वे एक भी नहीं हैं। संसार की दृष्टि से देखें तो उससे दूर होने पर सुख है और निकट जाने पर दुःख है। इसका विपरीत भी उतना ही वास्तविक लग सकता है। दूर बैठे व्यक्ति को निकट जाने में और निकट बैठे व्यक्ति को दूर जाने में सुख प्रतीत होता है। इसी तरह निकट के व्यक्ति को दूर जाने पर और दूर के व्यक्ति को पास आने पर दुःख लगता है। एक छोर को फैला देना और उसका संकोच कर लेने जैसा यह खेल है। परमार्थ में दोनों कुछ नहीं हैं, संसार में दोनों का आभास तो होता है, पर वे एक सूत्र से गुँथे हुए हैं। वास्तव में उनका अस्तित्व नहीं है। हम यदि संसार के सुख को पाने का प्रयत्न करेंगे तो दुःख भी या तो पहले मिलेगा या बाद में, बिना दुःख के सुख की संभावना नहीं है। यह केवल दूर से या निकट से देखने भर की क्रिया है। क्रिया एक ही है, उसकी दृष्टि के परिणाम दो हैं। क्रिया का सूत्रपात जहां से हो रहा है, वहाँ अवस्थित रहना आ जाए तो शीशे की तरह सुख और दुःख पारदर्शी लगने लगेंगे। सुख और दुःख ही जीवन हैं। जब जीवन है तो मृत्यु अवश्यंभावी है। प्रकृति का मूल स्वभाव देना है, छीनना भी उसका एक परिणाम है। हम बिना दिये रह नहीं सकेंगे। कुछ नहीं तो स्वस्थ होने की मंगलकामना करेंगे ही। क्या यह शुभकामनाएँ काम नहीं करती हैं? क्या शरीर वाक् से बाहर है? भावना बड़ी है, शरीर उसके सामने अति लघु है। स्वास्थ्य कामना किसके लिए नहीं करेंगे, जो पथच्युत हैं, क्या उनके लिए सन्मार्ग की कामना नहीं करेंगे, नहीं रह पायेंगे आदरणीय! रामेश्वर मिश्र पंकज की पोस्ट पर १६/१२/२३ किसी तत्व को स्वीकार कर लेने से उस पर ध्यान नहीं जाता। ध्यान नहीं जाने का अर्थ है वर्तमान में अवस्थित हो जाना। ध्यान न होने का ही नाम है। न होना में होना भी है और न भी। युगपत्। अंतर्लक्ष्यो बहिर्दृष्टि निमेषोन्मेष वर्जिता। इयं सा भैरवीमुद्रा सर्व तंत्रेषु गोपिता। तस्यै नमः कल्पितसृष्टिमुक्त्यै नक्तं दिवं मोहविवेकधात्र्यै। सुखप्रदायै ह्यसुखप्रहत्र्यै देव्यै च काल्यै कलनात्मिकायै।। महामहोपाध्याय आचार्य रामेश्वर झा विरचितः उस परम शक्ति को नमस्कार अर्पित हो, जिसने सृष्टि तथा मुक्ति दोनों की कल्पना की है, जो दिन - रात (सर्वदा) मोह और विवेक को धारण करने वाली है, सुखदायिनी तथा दुःखहारिणी है और जो अपनी ही कलना रूप काली है। I praise the Shakti (cosmic energy) that imagined creation and liberation; that night and day (constantly) bears ignorance (delusion, inaccurate knowledge) and wisdom (True knowledge, discernment); who is provider of joy and alleviates suffering and that which manifests itself as Kali Mahamahopadhyaya Acharya Rameshwar Jha १७/१२/२३ ध्यान में जब विचारों की जकड़न हो जाती है तो उसी समय आँख खुलने पर वह जकड़न जाती रहती है। तब हम उस संघर्ष से बाहर हो जाते हैं। इसी तरह आँख खोलने पर विषयाकर्षण बढ़ता है तब उसे आँख बंद करते हुए ध्यान की प्रक्रिया से लुप्त कर दिया जाता है। आँख से दिखाई दे रहे बाहर के विषयों का आकर्षण तीव्र होने पर हाँग सौ ध्यान उसकी निवृत्ति करा देता है और आँखें बंद होने के समय मन की यायावरी और उसके संघर्ष से उपराम आँख खोलते हुए प्राप्त होता है। वह क्षण भी कभी आता है जब चाहे आँख खुली हो या या बंद, मन से पार जाकर आत्मानंद की अनुभूति होती है। वह क्षण अपूर्व और विरल है, वह हर क्षण न भी उपलब्ध रहे, पर उसकी स्मृति बनी रहती है या घटनाओं के घटाटोप के बीच वह स्मृति घटित हो जाती है, तब उस क्षण के समान ही उस समय आनंद प्राप्त होता है। सत्य है वाचा यथार्थ कथितम ऋत है मनसा यथार्थ कल्पितम शिव बिंदु है, शक्ति बीज। दोनों से मिलकर नाद बनता। नाद वाक् में परिणत हुआ। नाद ताल के साथ उतरता है। ताल ही सृष्टि करता है। सुख दुःख के द्वंद्व में उच्छलित न होना तपस है। स्वस्य अध्ययनम् स्वाध्यायः। inner awakening ईश्वर प्रणिधान सीधे संभव नहीं। प्रकृष्ट रूप से जितने कर्म हैं, उनका फल अर्पित करना होता है, फिर जो प्रसाद मिले, उसे पाना ईश्वर प्रणिधान है। आसन अपनी शक्ति में अवस्थित होने का नाम है। आस्यते स्थीयते अस्मिन इति आसनं । ह्रदय प्रतिष्ठा स्थान है, जिसमें सब हो रहा है। हृदयो दीपवत् प्रभु- याज्ञवल्क्य। वक्ता श्रोता बहुत हैं, मथि काढ़े ते और। प्रकाश और विमर्श के सामरस्य का नाम संवित है। प्रकाश शिवावस्था है तो विमर्श शक्तिरूपा है। मध्यविकासाद्चिदानंदलाभः। प्रकाश का स्पंद विमर्श कहलाता है। वर्ण संवित का स्वरूप है, जो नाना रंगों में अभिव्यक्त होता है। सूर्य की कोई रश्मि बादल बनती है तो कोई जल का अवशोषण करती है। अग्निसोमात्मकं जगत्। प्राप्त को पहचानना। यह पहचान एकरूप होती है गुरुतः शास्त्रतः और स्वतः। स्व का बोध गुरु और शास्त्र से होता है। इसका आभास अहंरूप में होगा, अन्यथा निराभास है। हो जाना ही भाव का अर्थ है। यह नोइंग नहीं रेकग्निशन है। चेतना इसे कह सकते हैं- चेतयते इति चेतना। every knowledge is self recognitive in nature. recognition पूरा होता है। नॉलेज की भाँति खंड खंड नहीं। शब्द तो पहचान हैं, उनकी फ्रीक्वेंसी या ट्रांसमिशन को पकड़ना है। शब्दः कश्चन् यो मुखादुदयते मंत्रः। प्राणस्य स्वरसेन यत् प्रवहणं योगस्यादभ्युदयः। जब शब्द लगता है तो वैयाकरण पुत्रोत्सव की भाँति आह्लादित होते हैं। आत्मा का छंद ही पुत्र है। छंद गति है। पुत्र जन्म यानि अपनी आत्मा से एकाकार हो जाना। चित्शक्ति - मन स्वातंत्र्य शक्ति- आनंद (अहंकार- बुद्धि) इच्छा शक्ति - प्राण का आविर्भाव- पाँच ज्ञान- पंच ज्ञानेद्रियाँ कर्म- पंच कर्मेन्द्रियाँ कुल अठारह। यह स्वच्छन्दनाथ का स्वरूप है। सूक्ष्म शरीर में एक साथ चक्र भेदन होता है, स्थूल में क्रमशः। भेदन के बाद देह दिव्य बनेगा, फिर वह चिन्मय होने लगेगा, तब आधार भूमि निर्मित होती है। नामृतं इति अमृतं। नाद के बाद ज्योति का उदय होगा। वृत्ति का अर्थ है वर्तन। नित्य विमर्शन। श्रद्धा योगी की माँ है। आचार्य अग्नि का आधान करते हैं, पुत्रजन्म की भाँति उस समय वे गाते है, फिर उसमें घृत की आहुति करते हैं, कामना करते हैं कि अग्नि हमारी आहुति देवताओं तक पहुँचा दें। अंदर की अग्नि को प्रज्वलित करने के लिए बाहर की अग्नि जलाई जाती है। श्रद्धा सत्तर्क की जननी है, यह विचलित नहीं होने देगी। विद्याओं का संपूर्ण विकास सत्तर्क में समाहित होता है। योगी की सारी साधना सत्तर्क को उत्पन्न करने के लिए है। संकल्प पूजा का मूल है। संकल्पो भावनाप्रोक्ता। भावैस्तु व्यापार विशेष - भावना। संकल्प मूलाधार में बैठी अग्नि को उत्पन्न करेगा। सही संकल्प कर लेना योग में प्रवेश करना है। संकल्प करते समय जल लेते हैं, जल में रचना तत्व प्रधान है। समं सर्वेषु भूतेषु आधानं - समाधान विषय असुर हैं, वे इंद्रियों या देवताओं को पराजित करते हैं यही देवासुर संग्राम है। असुर भौतिकता है, यह विजयी बनती है। Ek kahu to hai nahi, do kahu to gari Hai jaisa taisa rahe, kahe Kabir vichari "एक कहूँ तो है नहीं, दो कहूँ तो गारी | है जैसा तैसा रहे, कहे कबीर विचारी ||" If I say one, It is not, if I say two, it will be a violation Let 'It' be what 'It' is, says Kabir upon contemplation There is a oneness behind the apparent diversity. But oneness is not seen. Yet if I accept duality, it would be a violation, a false acceptance. Let it be, whatever it is - I'll drop the analyzing. गारी ही ते ऊपजे कलह कष्ट और मीच। हारि चले सो साधु है, लागि चले सो नीच॥ आवत गारी एक है उलटत होइ अनेक। कह कबीर नहि उलटिये वही एक की एक॥ कर्मी व्यवस्था देता है। वह काल का उत्पादक है। क्रिया कालस्य बोधकः। बलि का अर्थ है जो आपका प्रिय है उसका अर्पण। प्राणायामस्तथाध्यानं प्रत्याहारोsथ धारणा। तर्कश्चैव समाधिश्च षडंगो योग उच्यते॥ तंत्रसार अध्याय ४ प्राप्ते च द्वादशे भागे जीवादित्य स्वबोधके। मोक्षः स एव कथितः प्राणायामो निरर्थकः॥ तंत्रालोक ४/९० सृष्टि के दुःखों का मूल परिवर्तन है। परिवर्तन शिव की क्रिया शक्ति के अधीन है। काली सदा नृत्य कर रही है। क्रिया ही काली है। कलयति कलयते कलते वा इति कालः। जिससे सब कुछ कलित होता है। यं न क्षीयते ते नक्षत्रं। जो क्षीण न हों। गृहीता इति ग्रहाः। जो ग्रहण किए गए हों। यमस्वरूपा सकला निवृत्ति नियमस्वरूपा सकला प्रवृत्ति। सत्य सदा मधुर होता है, अप्रिय सत्य कुछ नहीं। सम्यक् वेदन संवेदन है। अविधेयं विधेयं वा मौनं किं न विधीयते। शौचात् स्वांगजुगुप्सा १८/१२/२३ दो लोगों के बीच नहीं होता प्रेम वह होता है दो लोगों के भीतर अलग-अलग जैसे दो नदियों के बीच नहीं होता पानी वह होता है दो नदियों में अलग-अलग एक जैसे प्रेम को अपने भीतर लिए हुए मिलते हैं दो लोग जब हो जाते एक जैसे घुलमिल जाती हैं नदियाँ समन्दर के अंदर हो जातीं एक चिड़िया के बिना अधूरा नहीं हो जाता पेड़ जन्मा वह धरती की कोख से न चिड़िया अधूरी होती पेड़ के बिना पंखों में उसके आकाश भरा है पाना प्रेम की भाषा नहीं है; देना भी प्रेम की भाषा नहीं कोई बड़ी व्याकरणिक त्रुटि हो गई है प्रेम की कविताई में जिससे बेख़बर गाता है पेड़ और हरी हो जाती चिड़िया चन्द्रमा की बीन पर लहटती हैं समंदर के सीने में नदियाँ और फिर मनुष्य है - इमारतें बनाता है, सड़कें बनाता है ढूँढ़ता है दूसरे ग्रहों में जीवन, कविता लिखता है और मर जाता है _____________ बाबुषा दिसम्बर,२३ बहुत खूब बाबुशा❤️❤️ प्रेम पाना नहीं, यह तो खूब कहा गया, प्रेम देना भी नहीं, यह नयी कहन है। बेख़बर होकर रहना, पूरे होशोहवाश में पेड़ और चिड़िया के मानिंद। दोनों ले रहे हैं, दे रहे हैं, पर दोनों इससे बेख़बर और तारी एक दूसरे में। क्या खूब।लव यू मच बाबुशा। यत्र वाचो निमित्तानि चिह्नानीवाक्षरस्मृतेः। शब्दपूर्वेण योगेन भासंते प्रतिबिंबवत्॥ वाक्यपदीयम १/२० १९/१२/२३ अव्यक्त अन् है और व्यक्त अंत। सत् अव्यक्त है और य उसकी यात्रा, उसे पाने की, जानने की, समझने की। ध्यान भाषा में लिखी कविता या कविता में उतरा ध्यान। क्या कहें। प्यारी। बाबुशा अरणिष्थं यथा ज्योतिः प्रकाशांतरकारणं। तद्वच्छब्दोsपि बुद्धिस्थः श्रुतीनां कारणं पृथक्॥ आत्मरूपं यथा ज्ञाने ज्ञेयरूपं च दृश्यते। अर्थरूपं तथा शब्दे स्वरूपं च प्रकाशते॥ वाक्यपदीयम श्रीमद्भगवद्गीता के पात्रों और उनके शंखों के प्रतीकार्थ DhritRashtra- the blind Mind Sanjay - Impartial Introspection Kurus- the wicked impulsive mental & Sense tendecies Dharmakahetra- holy plain Kurukshetra - "the bodily field of activity Duryodhana - material desire Drona- Samskaras - preceptor of evil & good tendencis. past habits. विपाक Arjun - Self Control मणिपुर चक्र Bhim - Life control Anahata Chakra yuyudhan- Divine devotion. Virata- Samadhi Drupada- Extreme dispassion- तीव्र संवेग Dhrishtaketu- Power of mental Resistence -यम Chekitana- Spiritual Memory Kashisaja- Discriminative Intelligence, Purujit - Mental Interiorization - Pratyahar - प्रत्याहार Kuntibuoja - Right posture ! Asana Shaibya- Power of Mental Adherence - नियम Yudhamanya- Life force Control - Pranayama Ultamaujas- Son of vital Celebacy i-e Abhimanya -- Self Mastery - संयम Sons of Draupadi- five awakened spinal Centres. - कुंडलिनी Sahadera - Power to stay away from evil Nakul Rower to to obey Good Rules. Swadhishthana Yudhishthira- Divine Calmness Vishuddhi chakra Bhishma - Inner Seeking Ego आस्मिता Karna- Attachment राग Kripa - Individual delusion अविद्या Ashwatthama. Latent Desire - आशय Vikarna. Repulsion - द्वेष Somadatti - Bharishrawas_ Son of Somadalta) power of Material action कर्म भूरी बहुलम श्रवः क्षरणंThat flow which frequently. Jayadrath- Body Attachment अभिनिवेश Dhananjaya - winner of wealth- Arjuna- Devdatt conch Bhima-Paundra- anahat chakra Aum that which disintegrates Yudhishthira - Anantvijaya - Conquers infinity Nakul- Sughosha Sounds clearly and sweetly swadhishthan Sahadeva - Manipushpaka- manifest by its sound muladhar Pandava- the soulful powers of descrimination। २०/१२/२३ The great Urdu poet Mirza Ghalib wrote: उम्र भर ग़ालिब यही भूल करता रहा धूल चेहरे पे थी, आईना साफ़ करता रहा। “All through his life Ghalib made this error, The dirt was on his face, And he kept wiping the mirror.” The Upaniṣads say: “The Creator created the senses outward-looking. Hence they see other things and not the Inner Being, the ātman, Self.” - Kaṭhopaniṣad, 2.1.1. In the next verse, he asks, “How may one see the Self? As the Self is without a second, it is impossible to see it. And how may one see God? To see Him is to be consumed by Him.” The scriptures say, ‘īśvaro guru atmeti mūrtibheda vibhāgine’, that is, God, Guru and ātman are one; only the forms are different. - Dakṣiṇāmūrtti Stōtram, Prefatory verse, Adi Sankara. If, therefore, to see God means to become the food of the Divine, we cannot claim to have seen the Satguru till our ego has melted away in the fire of love and knowledge. लोकसाक्षी जगच्चक्षु: पुण्य़चारित्रकीर्तन: । कोटिमन्मथसौन्दर्यो जगन्मोहनविग्रह: ॥101॥ जगन्नाटकवैभव: ॥122॥ २२/१२/२३ सम् में जिसका अंत हो जाए, वह संत है। गुरुप्रदत्त ध्यान से मंगल होना अवश्यंभावी है और मंगलमय होने का लक्षण है ध्यानस्थ होकर रहना। ध्यानमंगलम परस्पर पूर्वापर और उत्तरपूर्व का संबंध रखते हैं। 23/12/23 श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते |
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् || 12-12|| निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा

अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।

द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञै

र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्।।15.5।।
 प्रकाश ही प्रकाश है। प्रकाश का भान कैसे होता है। एक छाया के माध्यम से। देह एक छाया ही है, जैसे दर्पण के पीछे अगर उसका लेप न लगा रहे तो शीशा आरपार हो जाएगा और अपना स्वरूप दर्शन नहीं होगा। देह की उपयोगिता इसीलिए है कि उसमें रहकर हम प्रकाश दर्शन कर सकते हैं। अन्यों के आकर्षण विकर्षण भी साधक के मन पर आघात प्रतिघात करते हैं। साधक का मन साफ़ हो गया, पर उसके मन पर संसार और उसके निवासियों का प्रभाव पड रहा है, यह सब बातें ध्यान में आती हैं, किंतु जब वे निर्मूल होती हैं, उनसे असंगता हो जाती है तो आनंद का सोता झर उठता है। इसलिए ध्यान दशा में बने रहना तब तक अपरिहार्य है, जब तक संसार किसी न किसी रूप में हमारे भीतर मौजूद है। २४/१२/२३ यदि तुम हर हाल में अपने ही विचारों की पूर्ति में जुटे रहोगे तब तुम कभी ख़ुश नहीं रह पाओगे, क्योंकि जीवन तुम्हारे व्यक्तित्व को संतुष्ट करने के लिए नहीं है। बुद्धिमान इस कोशिश की फलहीनता को पहचान कर, गहरे आत्मसमर्पण में लीन हो जाता है और "जो है" उसके साथ मनोहर समक्रमिकता अनुभव करता है। हमें आध्यात्मिक रूप से इतना विकसित होना है जब तक यह हमारा स्वाभाविक अनुभव ना हो जाए। मूजी बाबा 26/12/23 सोकर जागने पर, सोने के लिए जाने पर, स्वप्न में और कार्य करते समय श्वास पर ध्यान बना रहे बस फिर क्या शेष रह जाता है! ध्यानमंगलं.... श्रीमद्भागवतम् में सबसे बड़ा स्कंध या कैंटो दशम स्कंध है। यह स्कंध इतना बड़ा है कि अध्यायों के असंतुलन को दूर करने के लिए इसे पूर्वार्ध और उत्तरार्ध में विभाजित करना पड़ा। इस स्कंध के पूर्वार्ध के २९वें से ३३वें अध्याय के पाँच अध्यायों को रास पंचाध्यायी कहा गया है। यह रास पंचाध्यायी भागवतम् का प्राण है। श्रीकृष्ण की दिव्य लीला के माध्यम से प्रेम और समर्पण की प्रतिष्ठा इसमें की गई है।रास पंचाध्यायी की व्याख्या संस्कृत परंपरा में तो विस्तार से और लंबे कालखंड में वर्णित हुई ही है, उसके विभिन्न दर्शनो के मूर्धन्य आचार्य इसके रहस्य को अपने अपने ढंग से सुलझाने में प्रवृत हुए हैं। श्री वल्लभाचार्य, श्री श्रीधर स्वामी, श्री जीव गोस्वामी आदि ने इस आध्यात्मिक तत्त्व की व्याख्या बड़े विस्तार से की है। हिंदी में भी श्री सूरदास और अनेक कृष्ण भक्त परंपरा के बड़े कवियों के यहाँ पूरे ठसक के साथ यह विद्यमान है। वृंदावन रस इस रास पंचाध्यायी में समाया हुआ है। गोपी गीत के प्रारंभ में ही कहा गया है- जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि । हे प्यारे ! तुम्हारे जन्म के कारण वैकुण्ठ आदि लोकों से भी व्रज की महिमा बढ गयी है। तभी तो सौन्दर्य और मृदुलता की देवी लक्ष्मीजी अपना निवास स्थान वैकुण्ठ छोड़कर यहाँ नित्य निरंतर निवास करने लगी है , इसकी सेवा करने लगी है। भारत के आध्यात्मिक रहस्य को समझते हुए रास पंचाध्यायी को लिखने पढ़ने के काल के प्रारंभ से ही हमारे महात्मा जन उसमें डुबकी लगाते आ रहे हैं। रास पंचाध्यायी नाम से स्वतंत्र ग्रंथ भी महात्माओं ने लिखे हैं, भागवत् कथावाचक इस प्रसंग को अपने शब्दों में खोलते हैं, कतिपय इसके रहस्य को लेकर बहुत खुलकर न कहते हुए संकोच कर जाते हैं। उनकी अपनी सीमा भी हो सकती है। रास रहस्य का ही अपर रूप है। रहस्य यानि जिसे लिखा या बोला नहीं जा सकता, बल्कि इसे अनुभव में उतरकर मात्र जाना जा सकता है। रहस्य यानि होना या being। आगे इसे देखा जाता है, साक्षी भाव आगे का है। पहले पहल यह या वह मात्र होता ही है। यह कोई प्रश्न नहीं कि इसका उत्तर हो। हाँ प्रश्नोत्तरी इसके अनुभव में उतरने में सहायक अवश्य हो सकती है। अन्य कोई उपाय भी सहायक हो सकता है। वह सब उपायों से जाना जा सकता है, क्योंकि उस रहस्य के सूत्र ही तो वे उपाय हैं। श्रद्धावान व्यक्ति में यह उपाय घटित होते हैं। श्रद्धा तो इन उपायों की माँ है। इस रहस्य को जानने के उपरांत जीवन में जानने, पाने और करने के लिए कुछ शेष नहीं रह जाता। इस रहस्योद्घाटन का एक उपाय भागवतकार ने इसी रासपंचाध्यायी में निरूपित किया है। वह है ध्यानमंगलं। वैसे तो कोई तात्विक निरूपण करता हुआ ग्रंथ एक ही निष्कर्ष पर पहुँचेगा, क्योंकि तत्व एक ही है, जो सर्वांतर्यामी है, विभु है। एक तत्व की ही प्रधानता कहो उसे जड़ या चेतन। अपने रचना काल के बाद से जिस ग्रंथ और उसकी परंपरा की छाप भारतीय समाज पर बहुत गहरे रूप में छूटी है, वह श्रीमद्भागवतम् ही है। इस प्रकार भारतीय परंपरा का प्रधान ग्रंथ अगर देखना हो तो वह भागवतम् ही ठहरेगा। भागवतम् का प्राण जैसा कहा गया कि रास पंचाध्यायी है, और इसी को आगे बढ़ाकर कहा जा सकता है कि रास पंचाध्यायी का प्राण गोपीगीत है और गोपीगीत का प्राण ध्यानमंगलं है। ध्यान में उतरकर गोपियों और कृष्ण के रास के रहस्य को जाना जा सकता है, और तब ही यह हम सबका मंगल करेगा। ध्यान उस रहस्य को अनुभव में लाने का सटीक और शीघ्रगामी उपाय है। भागवतकार ने इसका संकेत निदर्शन रासपंचाध्यायी के ३१वें अध्याय गोपीगीत में इस प्रकार किया है- प्रहसितं प्रिय प्रेमवीक्षणं विहरणं च ते ध्यानमङ्गलम् । रहसि संविदो या हृदिस्पृशः कुहक नो मनः क्षोभयन्ति हि ॥ १०॥ (हे प्यारे ! एक दिन वह था , जब तुम्हारे प्रेम भरी हंसी और चितवन तथा तुम्हारी तरह तरह की क्रीडाओं का ध्यान करके हम आनंद में मग्न हो जाया करती थी । उनका ध्यान भी परम मंगलदायक है , उसके बाद तुम मिले ।....) ध्यानमंगलम् भागवतम् का बीज शब्द है। कामकेलि में दो प्राणियों का मिलन शरीर के स्तर पर होता है। प्रेम में दो का मिलन मन के स्तर पर होता है, प्रार्थना में दोनों होना भर रह रह जाते हैं, अभी भी दो का अस्तित्व उपस्थित है, क्योंकि उन दो को एक होते हुए देखने वाला कोई है। ध्यान में वह देखने वाला भी नहीं रह जाता, इस क्रिया के बाद फिर मंगल ही शेष रहता है। सब मंगलमय हो जाता है। यह आत्यंतिक मिलन है। यहाँ दो नहीं हैं। इसे एक भी नहीं कह सकते, क्योंकि एक को कहने के लिए दूसरे का आसरा लेना पड़ेगा। यहाँ कबीर गाते हैं- एक कहूँ तो है नहीं, दो कहूँ तो गारी | है जैसा तैसा रहे, कहे कबीर विचारी॥ गीता में कहा गया है....ज्ञानाध्यानं विशिष्यते...शास्त्रज्ञानसे ध्यान श्रेष्ठ है। २७/१२/२३ श्रद्धा को योगी की माँ कहा गया है। जिस किसी ने अपनी आत्मा के मंदिर में ईश्वर को स्थापित कर लिया है, वह योगी है। शब्दार्थ:-
श्रद्धा=सत्य का धारण करना
अन्तःज्ञात= हृदय से जाना हुआ
क्षालन=शुद्धता, शुद्ध करने का कार्य। श्रद्धा, मूल रूप से एक संस्कृत शब्द है, जो दो शब्दों का संयोजन है "श्रत्'' जिसका अर्थ है सत्य, हृदय या विश्वास और "धा" जिसका अर्थ है जिसकी ओर मन प्रवृत्त हो। श्रत् के उक्त अर्थ में तीन शब्द अवश्य दे दिये गए हैं, पर यह तीनों भारतीय मेधा के महत्वपूर्ण शब्द हैं। यह वे शब्द भी हैं जो संस्कृत ही नहीं द्रविड भाषाओं में भी पाये जाते हैं। हृदय वह स्थान है, जिसमें सबकुछ घटित होता है, विश्वास उस घटन को देखने वाला होता है; वह साक्षी है। श्रद्धा ही वह जननी है, जिसके उत्पन्न होने पर हम अपने स्रोत को जान पाते हैं। कितने ही उपायों से हम जानना चाहें, हम जान लें तो भी हम वहाँ टिक नहीं सकते, यदि श्रद्धा का उदय न हुआ हो। श्रद्धा का उदय भी श्रद्धा से होता है, उसका उदय हमें श्रद्धावान बनाने के लिए होता है। यह श्रद्धा अंततः श्रद्धा में ही पर्यवसित हो जाती है। श्रद्धा परम् शक्ति है, उसके उदय होने पर वह इतनी तीव्र असरकारी है कि उसमें भक्ति और ज्ञान एकमेक हो जाते हैं, उसके बाद कर्म अकर्म हो जाते हैं। हमारी निष्ठा का जन्म हो जाता है। श्रद्धा कोई अंधे विश्वास का नाम नहीं है, बल्कि वह जाग्रत और प्रमाणित आस्था है, जो हमें प्रेम और करुणा से आप्लावित रखती है। श्रद्धा स्व को समझने का आत्यंतिक लक्ष्य है। श्रद्धा और प्रेम के योग को भक्ति कहा गया है। श्रद्धा का ठीक ठीक समानांतर कोई शब्द अन्य भाषाओं में नहीं मिलता, संस्कृत में भी इसका ठीक ठीक पर्यायवाची शब्द नहीं पाया जाता। यह अनोखा शब्द हमारे ऋषियों ने अवश्य समाधिसुख में रचा होगा। परम् सत्य का जब बोध होगा, श्रद्धा स्वयमेव उदित हो जाएगी, क्योंकि श्रद्धा के बिना परम सत्य का बोध हो ही नहीं सकता। यह दोनों युगपत् घटना हैं। गोस्वामी तुलसीदास एक श्लोक में लिखते हैं- ...श्रद्धा विश्वास रुपिणौ। भवानी और शंकर को क्रमशः श्रद्धा और विश्वास के रूप में समझा गया है। जिनके बिना सिद्ध पुरुष भी अपने हृदय में स्थित ईश्वर का दर्शन नहीं कर पाते। श्रद्धा हम सबके भीतर होती है, पर वह आवरण में रहती है। श्रद्धा मन का निर्देशन मन के पार रहकर करती है। संस्कार और वासना की छिपी गहराइयों से यह आती है। श्रद्धा अगर धारण किए होंगे तो हम मूल स्मृति से जुड़ जाएँगे। जहां श्रद्धा होगी, वहाँ व्यक्ति असफल होने पर निराश नहीं होगा। श्रद्धावान व्यक्ति यह जानेगा कि असफलताओं से उसका उत्साह चुकने वाला नहीं है। श्रद्धा एक अनुभूति या एहसास है, इसे बौद्धिक रूप में व्यक्त नहीं किया जा सकता। यह एक संपूर्णता है, जिसमें व्यक्ति को व्यक्त होने का अर्थ ज्ञात हो जाता है। श्रद्धा मनुष्य के भीतर सदा आवरण में नहीं रहती, वह बाहर प्रकट होगी ही। श्रद्धा एक आत्मविश्वास है, जो अपने स्रोत से उदय होकर उपलब्ध होती है। श्रद्धा सत्य का विश्वास पूर्वक अनुसरण करने का नाम है। श्रद्धा को पढ़ाया नहीं जा सकता, पर उसे सुलगाया जा सकता है। श्रद्धा से रहित कोई व्यक्ति नहीं होता, अगर कोई अश्रद्धा जता रहा है तो वह उसी श्रद्धा के प्रभाव से ही। यह एक सकारात्मक ऊर्जा है, जो स्वयं के भीतर से ही प्रकट होती है। श्रद्धा अटल और दृढ़ विश्वास है। करुणा और प्रेम इसके लक्षण हैं। अज्ञात को जानने की तत्परता को हम श्रद्धा कहते हैं। अज्ञेय को जानना श्रद्धा के कारण संभव हो पाता है। पुराणों में श्रद्धा के जो वर्णन आये हैं, उनमें से कुछ इस प्रकार हैं। इन कहानियों से हमारे संस्कारों के अनुसार कुछ सूत्र ग्रहण किए जा सकते हैं। श्रद्धा दक्ष प्रजापति और प्रसूति की चौबीस पुत्रियों में एक है। इन चौबीस पुत्रियों में से तेरह धर्मदेव को ब्याही थी। श्रद्धा भी उन तेरह में से एक हैं। इनसे काम नामक पुत्र हुआ। सूर्य की पुत्री का नाम श्रद्धा है, इसके दूसरे नाम सावित्री, प्रसवित्री, वैवस्वती आदि हैं। सावित्री को गायत्री भी माना गया है। भागवत् के अनुसार - कर्दम प्रजापति और देवहूति की पुत्री श्रद्धा हुई, जो अंगिरस की पत्नी थी। उनके दो पुत्र उतथ्य और वृहस्पति, इनकी चार पुत्रियाँ- सिनीवाली, कुहू, राका और अनुमति हुई। वैवस्वत मनु की पत्नी का नाम श्रद्धा है। मनु स्वायंभुव और शतरूपा की दो पुत्रियों में से एक श्रद्धा है। बौद्ध साहित्य में श्रद्धा एक महिला श्रावक है। हिंदी के सुप्रसिद्ध महाकाव्य कामायनी की प्रमुख पात्र श्रद्धा है। कामायनी का श्रद्धा सर्ग भी विश्रुत ही है। बाईस इंद्रियों में से एक श्रद्धा है। इद या इन्द का अर्थ है नियंत्रण युक्त महान शक्ति। श्रद्धा का अर्थ विश्वास बुद्धकाल से प्रारंभ हुआ। ऋग्वेद में श्रद्धा सूक्त मिलता है, जिसमें पाँच ऋचाएँ हैं। कतिपय देखें- श्रद्धां देवा यजमाना वायुगोपा उपासते । श्रद्धां हृदय्ययाकूत्या श्रद्धया विन्दते वसु ॥ ऋग्वेद १०/१५१/४ Gods, worshippers, and those who are protected by Vāyu, solicit Śraddhā, (they cherish) Śraddhāwith heartfelt desire, through Śraddhā a man acquires wealth.” श्रद्धां प्रातर्हवामहे श्रद्धां मध्यंदिनं परि । श्रद्धां सूर्यस्य निम्रुचि श्रद्धे श्रद्धापयेह नः ॥ १०/१५१/५
śraddhām prātar havāmahe śraddhām madhyaṃdinam pari | śraddhāṃ sūryasya nimruci śraddhe śrad dhāpayeha naḥ || English translation: “We invoke Śraddhā at dawn, and again at midday, and also at the setting of the sun; inspire us inthis world, Śraddhā, with faith.” श्रद्धयाग्निः समिध्यते श्रद्धया हूयते हविः । श्रद्धां भगस्य मूर्धनि वचसा वेदयामसि ॥ १०/१५१/१
śraddhayāgniḥ sam idhyate śraddhayā hūyate haviḥ | śraddhām bhagasya mūrdhani vacasā vedayāmasi || English translation: “Agni is kindled by Śraddhā, by Śraddhā is the oblation offered; with our praise we glorify Faith, of the family of Love; cf. Nirukta 9.31].” श्रद्धा में अग्नि को प्रदीप्त किया जाना संभव होता है। अर्थात् आत्मज्ञान की अग्नि श्रद्धा द्वारा हविष्यान्न का हवन किया जाता है, अर्थात् आत्मा सत्ता को परमात्मा सत्त में विलय कर पाना श्रद्धा द्वारा ही संभव हो पाता है। श्रद्धा भग (ऐश्वर्यादिक) के सिर पर होती है अर्थात् सभी ऐश्वर्यों का परिणाम श्रद्धा का ही सत्परिणाम है। याज्ञिक और योगी सर्वप्रथम श्रद्धा की ही उपासना करते हैं। श्रद्धा अपनी चरम परिणति ईश्वर साक्षात्कार के रूप में प्रकट करती है। श्रद्धा की अग्नि का हवन जब विश्वास में होता है तो हम अपने उत्स तक जा पहुँचते हैं। यहीं सगर्भ या सबीज़ और निर्गर्भ या निर्बीज प्राणायाम का अन्तर ज्ञात होता है। गुरु न हुए, श्रद्धा न हुई, मंत्र न हुआ तो मछली की भाँति श्वास लेना हो जाएगा। षडंग एवं अष्टांग योग से पार सत्तर्क समाधि यह श्रद्धा ही है। यजुर्वेद में है व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षयाप्नोति दक्षिणाम्। दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यत। 1⁄4यजुर्वेद 19/301⁄2 अर्थात् व्रत धारण करने से मनुष्य को श्रेष्ठ अधिकार व योग्यता की प्राप्ति होती है इससे मनुष्यों का आदर सत्कार बढ़ जाता है।सम्मान प्राप्त होने से सत्य कर्मों के प्रति श्रद्धा और विश्वास उत्पन्न होता है। अतः सत्याचरण ही हमारे चरित्र की प्राण शक्ति है। श्रद्धा की महानता के गुण गीता में भी गाये है - ‘श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः। ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति’।। ‘योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना। श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः’।। श्वेताश्वतरोपनिषद् में वर्णित है- यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ।  तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः।। (श्वेताश्वतरोपनिषद्-6.23)  "सभी प्रकार के वैदिक ज्ञान की महत्ता उन्हीं मनुष्यों के हृदय में प्रकट होती है जिनकी भगवान और गुरु के प्रति अगाध श्रद्धा होती है।" यह श्रद्धा अपने भीतर ही उपस्थित है, ईश्वर, गुरु और आत्म तीनों में यह श्रद्धा तुरीयवत रहकर इन तीनों को एक रखती है। दुनिया में सब कुछ विश्वास के सहारे ही कार्य संपन्न हो रहा है। रोगी का चिकित्सक के प्रति, विक्रेता का क्रेता के प्रति भरोसा ही उनकी प्रक्रिया को गति देता है। हम कितनी ही अपनी विधियाँ और संहिताएँ तैयार कर लें, बिना विश्वास आगे नहीं बढ़ सकते हैं। विश्वास अगर शब्द है तो श्रद्धा उसका अर्थ है। विश्वास और श्रद्धा का संबंध शब्द और अर्थ की भाँति है, जल और लहर की तरह है। श्रद्धा परिचालिका शक्ति है और विश्वास उसका आधार। श्रद्धा यजमान है, पुरोहित भी और उपास्य ब्रह्म भी। विश्वास की शक्ति से श्रद्धा का अभ्युदय होता है। श्वास की विशिष्ट दशा से होकर जाने का मार्ग ही विश्वास है। श्रद्धा मूलतः सत्व से उत्पन्न होती है। श्रद्धा धर्म का मूल है। Bhagavad Gita: Chapter 17, Verse 3 सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत |
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्ध: स एव स: || 3|| हमारी श्रद्धा का गुण हमारे मन की प्रकृति द्वारा निर्धारित होता है। सभी लोगों में श्रद्धा होती है चाहे उनकी श्रद्धी की प्रकृति कैसी भी हो। यह वैसी होती है जो वे वास्तव में है। सत्त्वं विशुद्धं वसुदेवशब्दितं यदीयते तत्र पुमानपावृत: । सत्त्वे च तस्मिन्भगवान्वासुदेवो ह्यधोक्षजो मे नमसा विधीयते ॥ भागवतम् 4/3/२३ ॥ सत्त्वम् – चेतना; विशुद्धम् – शुद्ध; वासुदेव – वासुदेव; शब्दितम् – जाना जाता है; यत् - क्योंकि; इयते - प्रकट होता है; तत्र – वहाँ; पुमान – परम पुरुष; अपावृत्तः – बिना किसी आवरण के; सत्वे – चेतना में; च- और; तस्मिन – उसमें; भगवान - परम व्यक्तित्व का परम व्यक्तित्व; वासुदेवः – वासुदेव; हाय - क्योंकि; अधोक्षजः - दिव्य; मैं - मेरे द्वारा; नमसा – नमस्कार सहित; विधीयते - पूजा की जाती है । अनुवाद मैं सदैव शुद्ध कृष्णभावनामृत में भगवान वासुदेव को नमस्कार करने में लगा रहता हूँ। कृष्ण चेतना हमेशा शुद्ध चेतना होती है, जिसमें भगवान के परम व्यक्तित्व, जिन्हें वासुदेव के नाम से जाना जाता है, बिना किसी आवरण के प्रकट होते हैं। वासुदेव का अर्थ सर्वव्यापी या स्थानीयकृत भगवान का परम व्यक्तित्व है। सब कुछ पाकर भी हासिल-ए -जिंदगी कुछ भी नहीं मैंने देखे हैं एक से एक सिकंदर खाली हाथ जाते हुए..!! २८/१२/२३ जम्हाई काल की अधिकता का स्वाभाविक समायोजन है। जैसे कैलेंडर सेट किया जाता है, कैलेंडर सेट करना तो कृत्रिम कार्य है, मानवकृत है, चंद्रमा की गति को तिथि की अधिकता या लघुता से नापा जाता है, क्योंकि बनी बनाई नाप में वह गति नहीं समाएगी। जम्हाई भी आती जाती श्वास का समायोजन ही है। राम राम कहि जे जमुहाहीं। तिन्हहि न पाप पुंज समुहाहीं॥ यह तौ राम लाइ उर लीन्हा। कुल समेत जगु पावन कीन्हा॥ काल को समेटा नही जा सकता। वह जंभाई में आकर स्वयं समायोजित होने की अनुभूति कराता है। काल की षोडशी कला यही है। वह पंद्रह के गुणन में भी समाहित नहीं रहता, वह किसी संख्या में नहीं आ पाता। किसी वर्ष में अधिक मास पड़ने का लक्षण है, वह काल निश्चित संख्या में नहीं गिना जा सकता। फरवरी 29 दिन की हर चौथे वर्ष करके भी काल को बराबर भागों में नहीं बांटा जा सका। उसे भी कई वर्षों बाद कोई दिन आगे करके फिर जीवन संचालन के लिए कैलेंडर सेट करना पड़ता है। काल की ऐसी गति को देखते हुए हम महाकाल और महाकाली को मानते हैं, वही इसकी नियंता हैं, मनुष्य इन्हे पूरे रूप में नहीं जान पाता। अधिकमास को पुरुषोत्तम मास कहा गया है, इस मास में शुभ कार्य अधिक होने लगते हैं। जैसे जँभाई आने के बाद आराम मिलता है। वैसे ही अधिकमास में किए गए उपासना कार्य अधिक फलदायी होंगे ही। राशियाँ और नक्षत्रों की गति को शरीर की सूक्ष्म हलचल के माध्यम से बोधगम्य किया गया है। जो बाहर है, वह भीतर ही है। भीतर का ही बाहर सर्वत्र प्रकट होता है। ३०/१२/२३ अंग्रेज़ी नववर्ष प्रारंभ होने के समय कैलेंडर बदलने का उत्साह अवश्य रहता है। दिनांक तो हर दिन बदल रहा है, पर नये वर्ष का दिनांक पूरी तरह बदल जाता है। नया कैलेंडर टाँगना और पुराना हटाना प्रतीक है पुराने दुःस्वप्नों से बाहर आने का और नये संकल्प लेने का। पुराने से बाहर आने का अर्थ यह नहीं कि वह दूषित था, नये संकल्प के उत्साह का अर्थ भी यह नहीं कि जीवन में सब अच्छा होने वाला है। नए वर्ष में हम अच्छा और सुंदर होने की उम्मीद करने के सुख से अवश्य जुड़ जाते हैं। अच्छा का अर्थ है, अ इच्छा। इच्छा न होना इसका आशय नहीं। इच्छा न होने का अर्थ है उनका संपूर्ण हो जाना अथवा उनका होना और न होना ; बराबर हो जाना। जो कार्य हो रहे हैं, वे मात्र पारलौकिक इच्छारूप होने से चल रहे हैं, इसे जीना। अच्छा हुए बिना नया कुछ नहीं घटित होता, वह मात्र उम्मीद बनकर रह जाता है। उम्मीद इस नाते संतोषजनक मानी जा सकती है कि उसके बाद कुछ अच्छा घटेगा। अच्छा घटना ही मुख्य है, वह चाहे नाउम्मीदी में ही क्यों न घटित हो जाए। जो अच्छा है, वह सुंदर है। सुंदर में भी सम् की यात्रा चल रही है। ३१/१२/२३ अन्नं ब्रह्मेति व्यजानात्‌। अन्नाद्‌ध्येव खल्विमानि भुतानि जायन्ते। अन्नेन जातानि जीवन्ति। अन्नं प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति। तद्विज्ञाय।पुनरेव वरुणं पितरमुपससार। अधीहि भगवो ब्रह्मेति।तं होवाच। तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व। तपो ब्रह्मेति।स तपोऽतप्यत। स तपस्तप्त्वा॥ उन्होंने जाना कि अन्न ही 'ब्रह्म ' है। क्योंकि ऐसा प्रतीत होता है कि अन्न से ही समस्त प्राणी उत्पन्न होते हैं तथा उत्पन्न होकर ये अन्न के द्वारा ही जीवित रहते हैं तथा अन्न में ही ये पुनः लौटकर समाविष्ट हो जाते हैं। जब उन्होंने यह जान लिया तो वे पुनः अपने पिता वरुण के पास आये और बोले ''हे भगवन् मुझे 'ब्रह्म' की शिक्षा दीजिये।'' उनके पिता ने उनसे कहा, ''तप के द्वारा तुम 'ब्रह्म' को जानने का प्रयास करो, क्योंकि मनन में एकाग्रता ही 'ब्रह्म' है।'' भृगु अपने मनन में एकाग्र हो गये तथा अपने मनन की तपऊर्जा से... अन्नं न निन्द्यात्‌। तद् व्रतम्‌। प्राणो वा अन्नम्‌।शरीरमन्नादम्‌। प्राणे शरीरं प्रतिष्ठितम्‌। शरीरे प्राणः प्रतिष्ठितः। तदेतदन्नमन्ने प्रतिष्ठितम्‌।स य एतदन्नमन्ने प्रतिष्ठितं वेद प्रतितिष्ठति। अन्नवानन्नादो भवति। महान् भवति प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन। महान्‌ कीर्त्या॥ तुम अन्न की निन्दा नहीं करोगे; कारण, वह तुम्हारे श्रम का व्रत है। वस्तुतः प्राण भी अन्न है, तथा शरीर भोक्ता है। शरीर प्राण पर प्रतिष्ठित है तथा प्राण शरीर पर प्रतिष्ठित है। अतएव यहाँ अन्न पर अन्न प्रतिष्ठित है। जो इस अन्न पर प्रतिष्ठित अन्न को जानता है, वह स्वयं सुदृढ प्रतिष्ठा प्राप्त करता है, वह अन्न का स्वामी (अन्नवान्) एवं उसका भोक्ता बन जाता है। वह प्रजा (सन्तति) से, पशुधन से, ब्रह्मतेज से महान् बन जाता है, वह कीर्ति से महान् बन जाता है। यो मा ददाति स इदेव मा३वाः। अहमन्नमन्नमदन्तमा३द्मि। अहं विश्वं भुवनमभ्यभवा३म्‌।सुवर्न ज्योतीः। य एवं वेद। इत्युपनिषत्‌॥ जो मुझे देता है, वस्तुतः वही मेरी रक्षा करता है क्योंकि मैं ही अन्न हूँ, अतः जो मेरा भक्षण करता है मैं उसी का भक्षण करता हूँ। मैंने इस सम्पूर्ण विश्व को विजित कर लिया है तथा इसे अपने अधीन कर लिया है, सूर्य के ज्योतिर्मय रूप के समान है मेरा प्रकाश।" जो यह जानता है वह इसी प्रकार गान करता है। वस्तुतः यही है उपनिषद् यही है वेद का रहस्य।
वह हम दोनों की एक साथ रक्षा करे, वह हम दोनों को एक साथ अपने अधीन कर ले, हम दोनों एक साथ शक्ति एवं वीर्य अर्जित करें। हमारा अध्ययन हम दोनों के लिए तेजस्वी हो, प्रकाश एवं शक्ति से परिपूर्ण हो। हम कदापि विद्वेष न करें। अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।

यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः।। गीता 3.14।।
  Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka ।।3.14।।इसलिये भी अधिकारीको कर्म करना चाहिये क्योंकि कर्म जगत्चक्रकी प्रवृत्तिका कारण है। कैसे सो कहते हैं भक्षण किया हुआ अन्न रक्त और वीर्यके रूपमें परिणत होनेपर उससे प्रत्यक्षही प्राणी उत्पन्न होते है। पर्जन्यसे अर्थात् वृष्टिसे अन्नकी उत्पत्ति होती है और यज्ञसे वृष्टि होती है। अग्निमें विधिपूर्वक दी हुई आहुति सूर्यमें स्थित होती है सूर्यसे वृष्टि होती है वृष्टिसे अन्न होता है और अन्नसे प्रजा उत्पन्न होती है इस स्मृतिवाक्यसे भी यही बात पायी जाती है। ऋत्विक् और यजमानके व्यापारका नाम कर्म है और उस कर्मसे जिसकी उत्पत्ति होती है वह अपूर्वरूप यज्ञ कर्मसमुद्भव है अर्थात् वह अपूर्वरूप यज्ञ कर्मसे उत्पन्न होता है। स्वामी तेजोमयानंद द्वारा किया हुआ अर्थ- समस्त प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं अन्न की उत्पत्ति पर्जन्य से। पर्जन्य की उत्पत्ति यज्ञ से और यज्ञ कर्मों से उत्पन्न होता है।। बिना अग्नि उत्पन्न हुए ज्ञान प्राप्ति संभव नहीं। जब तक रगड़ नहीं होगी, चिंगारी उठेगी नहीं। इसलिए तपस् ब्राह्मण के लिए अनिवार्य विधान है। ब्राह्मण को अग्निमुख कहा गया, क्योंकि वह अग्नि को उत्पन्न करता है। वह पुरोहित है क्योंकि अपने शरीर रूपी यजमान का वह अग्न्याधान करके हित करते है। यज्ञ क्रिया में देखा जाता है कि अग्न्याधान होने पर पुरोहित नाच उठते है, वे मानो पुत्रोत्सव मनाते हुए गाने लगते है। ज्ञान अग्नि आधान करना ही पुत्र जन्म है। इसके बिना जीवन की गति नहीं। वरना यह ऋण जातक पर बना ही रहेगा। यजमान वह है जो यज्ञ करे। यज्ञ बड़ा व्याप्तिपूर्ण शब्द है। यजन करने को यज्ञ कहते हैं, यज्ञ का उच्चार यज़्न किया जाता है, इस उच्चार में उसका अर्थ अधिक स्पष्ट रूप में उद्भासित होता है। इज्यते भी यज्ञ का ही शब्द विस्तार है। इज्यते का अर्थ है संपन्न करना। यज़्न कर्मों के समुद्भव का नाम है। सम्यक् कर्म से यज्ञ का उद्भव होता है। कर्म जब अकर्म हो जाए तब वह सम्यक् कर्म बनता है। अकर्म तब बनता है, जब व्यक्ति योग को उपलब्ध हो जाए, योग्य हो जाये। फिर व्यक्ति जो करेगा वह योगदान ही होगा। वह योग फिर दान हो जाएगा। असल दान योग्य होने के बाद, अकर्म दशा प्राप्त करने पर या यज्ञ कर्म समुद्भव होने के बाद किया जाता है। इस प्रकार किए हुए यज्ञ से पर्जन्य बनते हैं, जिनका पर्यायवाची बादल किया गया है, परंतु यह प्रजा का ध्वनिवाची भी है। यजन करने से समुत्पन्न पर्जन्य या प्रजा ही वृष्टि करती हैं। वृष्टि है प्रजा के सामूहिक मन का उद्गार। सामूहिक मन का सूचक ही भौतिक रूप में चंद्र है, जिसका स्रोत सूर्य है। उसके द्वारा की गई वृष्टि से उत्पन्न हुए अन्न से सभी प्राणी जन्म लेते हैं। अन्न है, जिसका प्रवाह कभी रुद्ध न हो। 'न' सतत प्रवाहित होने का नाम है।अ भाव एवं अभाव दोनों का बोधक है। अन्न बनने का क्रम बहुत गूढ़ है। अन्न से हम जन्म लेते है, उसी से पोषित होते हैं और उसी में अन्न ही बन जाते हैं। इसलिए अन्न को ब्रह्म जाना गया है। तैत्तिरीय गाता है- यो मा ददाति स इदेव मा३वाः। अहमन्नमन्नमदन्तमा३द्मि। अहं विश्वं भुवनमभ्यभवा३म्‌।सुवर्न ज्योतीः। य एवं वेद। इत्युपनिषत्‌॥ जो मुझे देता है, वस्तुतः वही मेरी रक्षा करता है क्योंकि मैं ही अन्न हूँ, अतः जो मेरा भक्षण करता है मैं उसी का भक्षण करता हूँ। मैंने इस सम्पूर्ण विश्व को विजित कर लिया है तथा इसे अपने अधीन कर लिया है, सूर्य के ज्योतिर्मय रूप के समान है मेरा प्रकाश।" जो यह जानता है वह इसी प्रकार गान करता है। वस्तुतः यही है उपनिषद्, यही है वेद का रहस्य। वहाँ भाषा काम नहीं करती। भाषा में कहना ही पड़े तो वह उल्टी पुल्टी हो जाती है। फिर भी उनके कोई सूत्र मिल ही जाते हैं। तत्त्वमीमांसा सब भौतिक ज्ञानों का उत्स है, यह वैसे ही न है कि चीनी पानी में घुल गई, अब बताने वाला कौन रहा। हाँ चीनी को पानी में जाते हुए और उसकी मिठास का पहले के पानी से अंतर समझने देखने वाला कोई जो होगा, वही हम सबका सहायक होगा। डी एस मणि त्रिपाठी की पोस्ट पर शिक्षा जीवन की एक सतत् प्रक्रिया है, मार्ग है, वह गंतव्य नहीं है। उम्मीद करें, बेहतर करें, करते जाएँ, और कोई उपाय नहीं है! जीवन को सुंदर बनाने में जो मॉडल उपयुक्त हो, शिक्षा पद्धति में उसका आश्रय लेना श्रेयकर है। अभी उस पूरे मॉडल की खोज शेष है। सबसे पहले शिक्षा के उद्देश्य पर ही हम सब एकमत हो जायें। मनुष्यता के लक्ष्य को पाने के लिए हमें वास्तविक अर्थों में अंदर से भारतीय और बाहर से दुनिया के हो जाना आवश्यक है। जो लोग शिक्षा को केवल यूरोपीय दृष्टि का साधक समझते हैं, वे दुविधा में रहते हैं। यद्यपि यूरोपवासी भी भारतीय मन के हैं, इसमें पूर्वग्रह नहीं रखा जा सकता। पर यह अवश्य है और जैसी आपकी चिंता है कि भारतवासी पूरे रूप में भारत के नहीं रह गए हैं....जयशंकर तिवारी की पोस्ट पर

जनवरी २४

नववर्ष के आगमन के साथ सीमितताओं के सभी बंद द्वार खोल दिये जाएँगे, और उनसे होकर मैं और विशाल क्षेत्रों में जाऊँगा, जहां मेरे जीवन के सार्थक स्वप्न पूरे होंगे। श्री श्री परमहंस योगानंद अंग्रेज़ी नववर्ष प्रारंभ होने के समय कैलेंडर बदलने का उत्साह देखा जाता है। दिनांक तो हर दिन बदल रहा है, पर नये वर्ष का दिनांक पूरी तरह बदल जाता है। नया कैलेंडर टाँगना और पुराना हटाना प्रतीक है पुराने दुःस्वप्नों से बाहर आने का और नये संकल्प ग्रहण करने का। पुराने से बाहर आने का अर्थ यह नहीं कि वह दूषित था और नये संकल्प के उत्साह का अर्थ भी यह नहीं कि जीवन में सब मनोनुकूल होने वाला है। नए वर्ष में प्रवेश के समय हम अच्छा और सुंदर होने की उम्मीद करने के सुख से जुड़ जाते हैं। अच्छा का अर्थ है, अ इच्छा। इच्छा न होना इसका आशय नहीं। इच्छा न होने का अर्थ है उनका संपूर्ण हो जाना अथवा उनका होना और न होना ; बराबर हो जाना। अच्छा हुए बिना नया कुछ नहीं घटित होता, फिर वह मात्र उम्मीद बनकर रह जाता है। उम्मीद इस नाते संतोषजनक मानी जा सकती है कि उसके बाद कुछ अच्छा घटेगा, उसमें इस विश्वास के उदय की संभावना रहती है। अच्छा घटना ही मुख्य है, वह चाहे नाउम्मीदी में ही क्यों न घटित हो जाए। जो अच्छा है, वह सुंदर है। नया वर्ष हर क्षण है। यह आंग्ल पद्धति का नया वर्ष है, मार्च या अप्रैल में विक्रम वर्ष होता है, जिसे हम संवत्सर कहते हैं, इससे हिंदू त्योहारों का निर्णय होता है, विक्रम संवत् की मान्यता नेपाल में भी है। ९ अप्रैल २०२४ से यह प्रारंभ होगा। पौराणिक काल गणना वैवस्वत मनु के कल्प आधार पर सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग - इन चार भागों में विभाजित है। इसके पश्चात ऐतिहासिक दृष्टि से काल गणना का विभाजन हुआ। युधिष्ठिर संवत्, कलिसंवत्, कृष्ण संवत्, विक्रम संवत, शक संवत, महावीर संवत, बौद्ध संवत, तदुपरान्त हर्ष संवत, बंगला, हिजरी, फसली और ईसा सन भारत में चलते रहे। आधुनिक भारतीय राष्ट्रीय कैलंडर 'शक संवत' कहलाता है। 1957 में भारत सरकार ने शक संवत् को देश के राष्ट्रीय पंचांग के रूप में मान्यता प्रदान की थी। इसीलिए राजपत्र (गजट) , आकाशवाणी और सरकारी कैलेंडरों में ग्रेगेरियन कैलेंडर के साथ इसका भी प्रयोग किया जाता है। शक संवत को शालिवाहन संवत भी कहा जाता है। कालखंड की अपनी-अपनी माप हैं। सब अनुसंधान ही हैं। क्षण की नवता को जब जिसने समझा, उसके लिए वह नया वर्ष हो गया। हम संधि जोड़ को समझते हैं, पर कश्मीर में इसका अर्थ है खोज, जो संध शब्द में झांक रहा है, संधान जैसे शब्दों में स्पष्ट ही। पहले से बाद के बीच का जो क्षण या अंतराल है, उसकी खोज ही संध है। वह सदा नूतन है। नूतन आंग्लवर्ष २०२४ की शुभकामनाएँ। ३/१/२४ अद्वैत जब कहा जाता है तब इसका आशय होता है दो नहीं। इसका अर्थ हुआ दो देखने तक साधक गया है। बिना दो को देखे समझे एक या शून्य का बोध प्राप्त नहीं कर सकता। दो का अर्थ संसार है और एक का अर्थ परमात्मा है। शून्य ब्रह्म को कहेंगे। वैसे शून्य का कोई नाम देंगे वह एक में ही आ जाएगा। शून्य अंक को गिनती में एक ही कहा जाएगा। शून्य का कोई नाम नहीं, कोई रूप नहीं, कोई गुण नहीं, लीला और धाम भी नहीं। उसे नहीं नहीं में ही कहा जा सकेगा, क्योंकि जो है वह एक से आगे की गिनती बनाएगा। सुख पदार्थों के अधीन रहने में नहीं है, उन्हें अधीन कर लेने में है। इसी तरह दुःख विषयों या पदार्थों के अधीन रहने में है। इस प्रकार पदार्थों को मन के भीतर रखा जाये, पदार्थ मन पर हावी न रहें तो व्यक्ति सदा सुखी रह सकता है। सुखी होने की यह कला अर्जित की जाती है। इस कला को विद्या कहते हैं। संसारमोहनाशाय शब्दबोधो नहि क्षमः। न निवर्तेत तिमिरं कदाचिद्दीपवार्तया।। (कुलार्णव तंत्र) संसार रूपी मोह को नष्ट करने में शब्द बोध अर्थात शास्त्र समर्थ नहीं हो सकता। क्या भला दीपक की वार्ता करने से कभी अन्धकार भी नष्ट हो सकता है। Mere knowledge by words [ शब्द बोध ] or shastras are not in a position to destroy this worldly attachments of a person . Can darkness be removed by mere talking [ discussion ] about a lamp ? Jai gurudev. उद्दालको हारुणिः श्वेतकेतुं पुत्रमुवाच स्वप्नान्तं मे सोम्य विजानीहीति यत्रैतत्पुरुषः स्वपिति नाम सता सोम्य तदा सम्पन्नो भवति स्वमपीतो भवति तस्मादेनं स्वपितीत्याचक्षते स्वंह्यपीतो भवति ॥ ६.८.१ ॥chhandogya upanishad 1. Uddālaka Āruṇi said to his son Śvetaketu: ‘O Somya, let me explain to you the concept of deep sleep. When a person is said to be sleeping, O Somya, he becomes one with Sat [Existence], and he attains his real Self. That is why people say about him, “He is sleeping.” He is then in his Self’. छाँदोग्य के उक्त श्लोक में निद्रा की महिमा गाई गई है। स्वप्न रहित निद्रा भली प्रकार श्रम करने के बाद आती है। इस श्लोक से प्रकारांतर से श्रम का महत्व प्रतिपादित होता है। सोने के समय हम स्व में विलीन हो जाते हैं। श्रम परिहार का यह प्राकृतिक साधन है। निद्रा की प्राप्ति के लिए शरीर और मन के द्वारा समुचित श्रम किया ही जाना चाहिए। जाग्रत अवस्था में शरीर और मन काम करते हैं, स्वप्न दशा में शरीर नहीं, केवल मन कार्य करता है। स्वप्न रहित निद्रा के समय शरीर और मन कोई काम नहीं करते और तब व्यक्ति अपनी आत्मा तक जा पहुँचता है। अतः निद्रा लेना गंगा नहाने जैसा पवित्र कार्य है। परंतु जैसा रामकृष्ण परमहंस कहते हैं गंगा स्नान के समय अज्ञानी व्यक्ति के दोष निकलकर पास के पेड़ पर बैठ जाते हैं, स्नान करने के बाद वे पुनः उसी व्यक्ति पर कपड़ों की भाँति आ बैठते हैं। ज्ञान रहित निद्रा के साथ भी बिलकुल ऐसा ही है। वास्तव में जो प्राणी सत् से तदाकार हो गया है, उसे ही उक्त श्लोक में पुरुष कहा गया है, पुरुष यानी प्योर, शुद्ध दशा का आत्म। पुर में जो शयन करता हो। पुर यानि हृदय। हृदय हार्ट को या उस स्थान भर को नहीं मानना चाहिए। हृदय का अर्थ है जिसमें सब कुछ घटित हो रहा हो। वहाँ यह पुरुष निवास करता है, इसलिए इसे पुरुष कहा गया है। इस पुरुष में मेल या केवल पुल्लिंग व्यक्ति नहीं आता, वरन उसका अर्थ mindfulness से लगाया जाता है। mindfulness व्यक्ति की निद्रा हो, गंगा स्नान हो, या जो भी कार्य हो, वह सब पुण्य ही है। तभी श्रम करना सार्थक है और गंगा स्नान करना भी। ४/१/२४ बल दिखता है, शक्ति छिपी रहती है। बल से ही बैल बना। यद्यपि बैल केवल बोझा ढोने के अर्थ में एक मुहावरा भी बन गया, पर वह बल का ही द्योतक है। अंग्रेज़ी शब्द भी कैसे अपनी ध्वनियों में सत्य धारण करते हैं। सीक्रेट से क्रियेशन निष्पन्न होता है। क्रिएशन में एस जुड़ जाने से वह सीक्रेट हो गया। secration स्वाभाविक रूप में होने वाले होने वाले रिसाव को कहते हैं तो sacred पवित्रता के अर्थ में चलता है। इन शब्दों से बहने का भाव प्रकट हो रहा है। ५/१/२४ चेतन और प्रकृति दो अलग अलग हैं। कुछ लोग इन्हें मिक्स कर देते हैं और फिर अर्थहीन टिप्पणियां कर देते हैं, उनसे कई बार विवाद उत्पन्न हो जाता है। इससे यह प्रकट हो जाता है कि ऐसे लोग अभी धर्म और अध्यात्म का क ख ग नहीं समझ पाए हैं, जीवन में वे सद्व्यवहार कैसे कर पाएंगे। भगवान कुछ नहीं खाते पीते, न वे कहीं सोते जागते हैं। वस्तुतः उनके बारे में कहा गया कोई कथन संपूर्ण नहीं है, बस उन्हें समझने के लिए वह कथन एक सिरा या माध्यम मात्र हो सकता है। हम अपने जीवन को जैसा देखते सुनते हैं, अपनी बनी बनाई धारणा रखते हैं, उसके अनुरूप सही गलत का निर्णय देने लगते हैं, यही तथ्य भगवान में भी आरोपित कर देते हैं, फिर गड़बड़ शुरू हो जाती है। भक्ति भाव में किया कोई आरोपण ग्राह्य है, क्योंकि वह सही ग़लत से ऊपर चला गया होता है, पर बुद्धि कौशल से किए गये ऐसे आरोपों से कोई निष्कर्ष नहीं निकलता। भगवान प्रकृति के तत्वों या उसकी सामग्री पर आश्रित नहीं है, हां! प्रकृति उनके भीतर अवश्य रहती है। भगवान चिति है, वह चैतन्य दशा में हैं, उस दशा का बोध पहले करना होगा। प्रकृति परिवर्तनशील है, उस परिवर्तनशीलता के चेतन तत्व को हमें पहचानना है। सार सार को गहना है। ६/१/२४ सांख्य बताता है हम इस जीवन की कारागार में कैसे आ फँसे। अद्वैत कहता है इस कारागार से बाहर हमें कहाँ पहुँचना और योग दर्शन बताता है वहाँ पहुँचने का साधन क्या है। योगदा सत्संग सोसाइटी में इन तीनों दर्शनों का समावेश है। ७/१/२४ ध्यान में कोई कीड़ा मकोड़ा चेहरे पर रेंगता रहा, खूब इधर उधर स्वच्छंद घूमा। कूटस्थ पर रहा तो आनंद आया, फिर आँखों और नाक पर चलता रहा, फिर कहाँ गया पता नहीं लगा। अगर व्यक्ति अंतर्मन की गहराइयों से स्वयं को उसी भाँति मसल कर और पकते हुए दूसरे का ग्रास बनने के लिए तैयार है, जैसे वह दूसरे प्राणियों का भक्षण कर लेता है, तो वह क्या खाता है, क्या नहीं, इससे अंतर नहीं पड़ता। यद्यपि गहराई में उतरकर यदि व्यक्ति परम् सत्ता से तदाकार हो गया है तो उसने अन्न प्रक्रिया को समझ लिया है। फिर उसे कुछ खाने की आवश्यकता नहीं रह जाएगी। उसे अपना शरीर चलाने के लिए कुछ भी शाक भाजी मिल जाएगी, उससे उसका काम चल जाएगा। मांसाहार करने वाले जो व्यक्ति विटामिन, वसा, प्रोटीन इत्यादि की आवश्यकता और शौक़ पूरा करने या किसी के प्रभाव के कारण मांस ग्रहण करते हैं, वे यदि ध्यान की अतल गहराइयों में उतर गये तो स्वतः उसे छोड़ देंगे। ऐसा भक्षण आत्यंतिक परिस्थिति में या परमहंसी स्वभाव में ही संभव रह जाएगा। स्वतंत्रता मनोनुकूल किए गए कार्यों के लिए नहीं, अपितु मन के आवेगों से बाहर आकर निर्विकल्प इच्छा के फलस्वरूप किए गए कार्यों के लिए प्राप्त की जाती है। यथा निमीलने काले प्रपञ्चो नैव दृश्यति । तथैवोन्मीलने स्याच्चेदेतद्धयानस्य लक्षणम्।। (श्री कुलार्णव तन्त्र) अर्थात, जैसे व्यक्ति आंखें बंद करने पर बाहर की कोई भी वस्तु देख नहीं पाता,उसी भांति आंख के खुले रहने पर भी साधक को कोई जगत का प्रपञ्च नहीं दिखता। शिव की व्याप्ति ही उसे दिखती है।यही ध्यान का सही लक्षण है। Just as at the time of closing one's eyes the external differentiated world is not seen, so in the same way when,by the Grace of God, while practicing this meditation even though his eyes remain wide open this yogi sees nothing. These are the symptoms of correct meditation. Jai guru dev. मनुष्य अधिकार चाहता है -------------------* जो कुछ भी महान है, उस पर किसी का अधिकार नहीं हो सकता और यह सबसे मूर्ख बातों में से एक है जो मनुष्य करता है - मनुष्य अधिकार चाहता है।ओशो किसी सफलता पर कई दावेदार सामने आ जाते हैं, पर यह तो परम् सत्ता का प्रकटीकरण मात्र है। ११/१/२४ 'इतना अहंकार आदि शंकराचार्य ने भी नहीं किया था' शंकराचार्य परंपरा के प्रति ऐसी अवहेलना सूचक शब्दावली का प्रयोग करना उचित नहीं है। क्या उन्होंने कितना भी अहंकार किया था! क्या कहना चाहते हैं। शकराचार्य परंपरा का योगदान उपनिषद युग के बाद सनातन धर्म के स्वरूप लक्षण निर्धारित करने में सर्वाधिक है, इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता। साधु संतों की विभिन्न परम्पराएँ दशनामी अखाड़ों से आगे बढ़ी हैं। उन्होंने अपने समय में बौद्धों के अतिचारों का सामना किया है। अरुण कुमार उपाध्याय की पोस्ट पर की गई टिप्पणी Desire is the memory of pleasure and fear is the memory of pain. Both make the mind restless. Moments of pleasure are merely gaps in the stream of pain. How can the mind be happy? Nisargadatta, I Am That, Chapter 3 १२/१/२४ जहां शक्ति है, वहाँ इसका दुरुपयोग भी है। लौकिक सुख बिना शक्ति के संभव नहीं। शक्ति के दुरुपयोग की संभाव्यता और सुख की कामना के बीच मनुष्य कभी संतुष्ट नहीं रह सकता, इसलिए आत्यंतिक आनंद की खोज में व्यक्ति जब जानते हुए खो जाये, वह जीवन को प्रश्न और समस्या न समझे, वरन एक रहस्य जानकर उसे जी ले तो उसे प्राप्तव्य उपलब्ध हो सकता है। भगवान के कितने स्वरूपों का पहले प्रकाश और उनके बदलते स्वरूपों का दर्शन हुआ। भगवान विष्णु के स्वरूप का कृष्ण से मिलता जुलता दर्शन हुआ, उसके बाद रूप बनने बंद हो गए। उससे पहले गर्भ में शिशु बनने की प्रक्रिया और बाद में वह मुस्कुराते हुए दिखाई दिया। उसकी छवियों का भी परिवर्तन होता रहा। कल्पना भी है तो ऐसी कल्पना बनी रहे। भृकुटियों के बीच अवधान को स्‍थिर कर विचार को मन के सामने करो। फिर सहस्‍त्रार तक रूप को श्‍वास-तत्‍व से, प्राण से भरने दो। वहां वह प्रकाश की तरह बरसेगा। ******************************************** यह विधि पाइथागोरस को दी गई थी। पाइथागोरस इसे लेकर यूनान वापस गए। और वह पश्‍चिम के समस्‍त रहस्‍यवाद के आधार बन गए। पश्‍चिम में अध्‍यात्‍मवाद के वे पिता है। यह विधि बहुत गहरी विधियों में ऐ एक है। इसे समझने की कोशिश करो। ‘’भृकुटियों के बीच अवधान को स्‍थिर करो।‘’ आधुनिक शरीर-शस्‍त्र कहता है, वैज्ञानिक शोध कहती है कि दो भृकुटियों के बीच में ग्रंथि है वह शरीर का सबसे रहस्‍यपूर्ण भाग है। जिसका नाम पाइनियल ग्रंथि है। यही तिब्‍बतियों की तीसरी आँख है। और यही है शिव का नेत्र। तंत्र के शिव का त्रिनेत्र। दो आंखों के बीच एक तीसरी आँख भी है। लेकिन यह सक्रिय नहीं है। यह है, और यह किसी भी समय सक्रिय हो सकती है। निसर्गत: यह सक्रिय नहीं है। इसको सक्रिय करने के लिए संबंध में तुम को कुछ करना पड़ेगा। यह अंधी नहीं है, सिर्फ बंद है। यह विधि तीसरी आँख को खोलने की विधि है। ‘’भृकुटियों के बीच अवधान को स्‍थिर कर.....।‘’ आंखे बंद कर लो और फिर दोनों आंखों को बंद रखते हुए भौंहों के बीच में दृष्‍टि को स्‍थिर करो—मानो कि दोनों आंखों से तुम देख रहे हो। और समग्र अवधान को वही लगा दो। यह विधि एकाग्र होने की सबसे सरल विधियों में से एक है। शरीर के किसी दूसरे भाग में इतनी आसानी से तुम अवधान को नहीं उपलब्‍ध हो सकते। यह ग्रंथि अवधान को अपने में समाहित करने में कुशल है। यदि तुम इस पर अवधान दोगे तो तुम्‍हारी दोनों आंखे तीसरी आँख से सम्‍मोहित हो जाएंगी। वे थिर हो जाएंगी, वे वहां से नहीं हिल सकेंगी। यदि तुम शरीर के किसी दूसरे हिस्‍से पर अवधान दो तो वहां कठिनाई होगी। तीसरी आँख अवधान को पकड़ लेती है। अवधान को खींच लेती है। अवधान के लिए वह चुंबक का काम करती है। इसलिए दुनिया भी की सभी विधियों में इसका समावेश किया गया है। अवधान को प्रशिक्षित करने में यह सरलतम है, क्‍योंकि इसमे तुम ही चेष्‍टा नही करते, यह ग्रंथि भी तुम्‍हारी मदद करती है। यह चुंबकीय है। तुम्‍हारे अवधान को यह बलपूर्वक खींच लेती है। तंत्र के पुराने ग्रंथों में कहा गया है कि अवधान तीसरी आँख का भोजन है। यह भूखी है; जन्‍मों-जन्‍मों से भूखी है। जब तुम इसे अवधान देते हो यह जीवित हो उठती है। इसे भोजन मिल गया है। और जब तुम जान लोगे कि अवधान इसका भोजन है, जान लोगे कि तुम्‍हारे अवधान को यह चुंबक की तरह खींच लेती है। तब अवधान कठिन नहीं रह जाएगा। सिर्फ सही बिंदु को जानना है। इस लिए आँख बंद कर लो, और अवधान को दोनों आंखों के बीच में घूमने दो और उस बिंदू को अनुभव करो। जब तुम उस बिंदु के करीब होगें। अचानक तुम्‍हारी आंखे थिर हो जाएंगी। और जब उन्‍हें हिलाना कठिन हो जाए तब जानो कि सही बिंदु मिल गया। ‘’भृकुटियों के बीच अवधान को स्‍थिर कर विचार को मन के सामने रखो।‘’ अगर यह अवधान प्राप्‍त हो जाए तो पहली बार एक अद्भुत बात तुम्‍हारे अनुभव में आएगी। पहली बार तुम देखोगें कि तुम्‍हारे विचार तुम्‍हारे सामने चल रहे है, तुम साक्षी हो जाओगे। जैसे कि सिनेमा के पर्दे पर दृश्‍य देखते हो, वैसे ही तुम देखोगें कि विचार आ रहे है, और तुम साक्षी हो। एक बार तुम्‍हारा अवधान त्रिनेत्र-केंद्र पर स्‍थिर हो जाए तुम तुरंत विचारों के साक्षी हो जाओगे। आमतौर से तुम साक्षी नहीं होते, तुम विचारों के साथ तादात्म्य कर लेते हो। यदि क्रोध है तो तुम क्रोध हो जाते हो। यदि एक विचार चलता है तो उसके साक्षी होने की बजाएं तुम विचार के साथ एक हो जाते हो। उससे तादात्‍म्‍य करके साथ-साथ चलने लगते हो। तुम विचार ही बन जाते हो, विचार का रूप ले लेते हो, जब क्रोध उठता है तो तुम क्रोध बन जाते हो। और जब लोभ उठता है तब लोभ बन जाते हो। कोई भी विचार तुम्‍हारे साथ एकात्‍म हो जाता है। और उसके ओर तुम्‍हारे बीच दूरी नहीं रहती। लेकिन तीसरी आँख पर स्‍थिर होते ही तुम एकाएक साक्षी हो जाते हो। तीसरी आँख के जरिए तुम साक्षी बनते हो। इस शिवनेत्र के द्वारा तुम विचारों को वैसे ही चलता देख सकते हो जैसे आसमान पर तैरते बादलों को, या रहा पर चलते लोगो को देखते हो। जब तुम अपनी खिड़की से आकाश कोया रहा चलते लोगों को देखते हो तब तुम उनसे तादात्‍म्‍य नहीं करते। तब तुम अलग होते हो, मात्र दर्शक रहते हो—बिलकुल अलग। वैसे ही अब जब क्रोध आता है तब तुम उसे एक विषय की तरह देखते हो। अब तुम यह नहीं सोचते कि मुझे क्रोध हुआ। तुम यही अनुभव करते हो कि तुम क्रोध से घिरे हो। क्रोध की एक बदली तुम्‍हारे चारो और घिर गई। और जब तुम खुद क्रोध नहीं रहे तब क्रोध नापुंसग हो जाता है। तब वह तुमको नहीं प्रभावित कर सकता। तब तुम अस्‍पर्शित रह जाते हो। क्रोध आता है और चला जाता है। और तुम अपने में केंद्रित रहते हो। यह पाँचवीं विधि साक्षित्‍व को प्राप्‍त करने की विधि है। ‘’भृकुटियों के बीच अवधान को स्‍थिर कर विचार को मन के सामने करो।‘’ अब अपने विचारों को देखो, विचारों का साक्षात्‍कार करो। ‘’फिर सहस्‍त्रार तक रूप को श्‍वास तत्‍व से प्राण से भरने दो। वहां वह प्रकाश की तरह बरसेगा।‘’ जब अवधान भृकुटियों के बीच शिवनेत्र के केंद्र पर स्‍थिर होता है। तब दो चीजें घटित होती है। और यही चीज दो ढंगों से हो सकती है। एक, तुम साक्षी हो जाओ तो तुम तीसरी आँख पर थिर हो जाते हो। साक्षी हो जाओ, जो भी हो रहा हो उसके साक्षी हो जाओ। तुम बीमार हो, शरीर में पीड़ा है, तुम को दुःख और संताप है, जो भी हो, तुम उसके साक्षी रहो, जो भी हो, उससे तादात्‍म्‍य न करो। बस साक्षी रहो—दर्शक भर। और यदि साक्षित्व संभव हो जाए, तो तुम तीसरे नेत्र पर स्‍थिर हो जाओगे। इससे उलटा भी हो सकता है। यदि तुम तीसरी आँख पर स्‍थिर हो जाओ, तो साक्षी हो जाओगे।। ये दोनों एक ही बात है। इसलिए पहली बात: तीसरी आँख पर केंद्रित होते ही साक्षी आत्‍मा का उदय होगा। अब तुम अपने विचारों का सामना कर सकते हो। और दूसरी बात: और अब तुम श्‍वास-प्रश्‍वास की सूक्ष्‍म और कोमल तरंगों को भी अनुभव कर सकते हो। अब तुम श्‍वसन के रूप को ही नहीं, उसके तत्‍व को , सार को, प्राण को भी समझ सकते हो। पहले तो यह समझने की कोशिश करें कि ‘’रूप’’ और ‘’श्‍वास-तत्‍व’’ का क्‍या अर्थ है। जब तुम श्‍वास लेते हो, तब सिर्फ वायु की ही श्‍वास नहीं लेते। वैज्ञानिक तो यही कहते है कि तुम वायु की ही श्‍वास लेते हो। जिसमें आक्‍सीजन, हाइड्रोजन तथा अन्‍य तत्‍व रहते है। वे कहते है कि तुम वायु की श्‍वास लेते हो। लेकिन तंत्र कहता है कि हवा तो मात्र वाहन है, असली चीज नहीं है। असल में तुम प्राण की श्‍वास लेते हो। हवा तो माध्‍यम भर है। प्राण उसका सत्‍व है, सार है। तुम न सिर्फ हवा की, बल्‍कि प्राण की श्‍वास लेते हो। आधुनिक विज्ञान अभी नहीं जान सका है कि प्राण जैसी कोई वस्‍तु भी है। लेकिन कुछ शोधकर्ताओं ने कुछ रहस्‍यमयी चीज का अनुभव किया है। श्‍वास में सिर्फ हवा हम नहीं लेते, वह बहुत से आधुनिक शोधकर्ताओं ने अनुभव किया है। विशेषकर एक नाम उल्‍लेखनीय है। वह है जर्मन मनोवैज्ञानिक विलहेम रेख का। जिसने इसे आर्गन एनर्जी या जैविक ऊर्जा का नाम दिया है। वह प्राण ही है। वह कहता है कि जब आप श्‍वास लेते है, तब हवा तो मात्र आधार है, पात्र है, जिसके भीतर एक रहस्‍यपूर्ण तत्‍व है, जिसे आर्गन या प्राण या एलेन वाइटल कह सकते है। लेकिन वह बहुत सूक्ष्म है। वास्‍तव में वह भौतिक नहीं है। पदार्थ गत नहीं है। हवा भौतिक है, पात्र भौतिक है; लेकिन उसके भीतर से कुछ सूक्ष्‍म, अलौकिक तत्‍व चल रहा है। इसका प्रभाव अनुभव किया जा सकता है। जब तुम किसी प्राणवान व्‍यक्‍ति के पास होते हो, तो तुम अपने भीतर किसी शक्‍ति को उगते देखते हो। और जब किसी बीमार के पास होते हो, तो तुमको लगता है कि तुम चूसे जा रहे हो। तुम्‍हारे भीतर से कुछ निकाला जा रहा है। जब तुम अस्‍पताल जाते हो, तब थके-थके क्‍यों अनुभव करते हो? वहां चारों ओर से तुम चूसे जाते हो। अस्‍पताल का पूरा माहौल बीमार होता है और वहां सब किसी को अधिक प्राण की, अधिक एलेन वाइटल की जरूरत है। इसलिए वहां जाकर अचानक तुम्‍हारा प्राण तुमसे बहने लगता है। जब तुम भीड़ में होते हो, तो तुम घुटन महसूस क्‍यों करते हो। इसलिए कि वहां तुम्‍हारा प्राण चूसा जाने लगता है। और जब तुम प्रात: काल अकेले आकाश के नीचे या वृक्षों के बीच होते हो, तब फिर अचानक तुम अपने में किसी शक्‍ति का, प्राण का उदय अनुभव करते हो। प्रत्‍येक का एक खास स्‍पेस की जरूरत है। और जब वह स्‍पेस नहीं मिलता है तो तुमको घुटन महसूस होती है। विलहेम रेख ने कई प्रयोग किए। लेकिन उसे पागल समझा गया। विज्ञान के भी अपने अंधविश्‍वास है। और विज्ञान बहुत रूढ़िवादी होता है। विज्ञान अभी भी नहीं समझता है कि हवा से बढ़कर कुछ है; वह प्राण है। लेकिन भारत सदियों से उस पर प्रयोग कर रहा है। तुमने सुना होगा—शायद देखा भी हो—कि कोई व्‍यक्‍ति कई दिनों के लिए भूमिगत समाधि में प्रवेश कर गया। जहां हवा का कोई प्रवेश नहीं था। 1880 में मिस्‍त्र में एक आदमी चालीस वर्षों के लिए समाधि में चला गया था। जिन्‍होंने उसे गाड़ा था वे सभी मर गए। क्‍योंकि वह 1920 में समाधि से बहार आने वाला था। 1920 में किसी को भरोसा नहीं था कि वह जीवित मिलेगा। लेकिन वह जीवित था और उसके बाद भी वह दस वर्षों तक जीवित रहा। वह बिलकुल पीला पड़ गया था, परंतु जीवित था। और उसको हवा मिलने की कोई संभावना नहीं थी। डॉक्टरों ने तथा दूसरों ने उससे पूछा कि इसका रहस्‍य क्‍या है? उसने कहां हम नहीं जानते; हम इतना ही जानते है कि प्राण कही भी प्रवेश कर सकता है। और वह है। हवा वहां नहीं प्रवेश कर सकती, लेकिन प्राण कर सकता है। एक बार तुम जान जाओ कि श्‍वास के बिना भी कैसे तुम प्राण को सीधे ग्रहण कर सकते हो, तो तुम सदियों तक के लिए भी समाधि में जा सकते हो। तीसरी आँख पर केंद्रित होकर तुम श्‍वास के सार तत्‍व को, श्‍वास को नहीं, श्‍वास के सार तत्‍व प्राण को देख सकेत हो। और अगर तुम प्राण को देख सके, तो तुम उस बिंदु पर पहुंच गए जहां से छलांग लग सकती है, क्रांति घटित हो सकती है। सूत्र कहता है: ‘’सहस्त्रार तक रूप को प्राण से भरने दो।‘’ और जब तुम को प्राण का एहसास हो, तब कल्‍पना करो कि तुम्‍हारा सिर प्राण से भर गया है। सिर्फ कल्‍पना करो, किसी प्रयत्‍न की जरूरत नहीं है। और मैं बताऊंगा कि कल्‍पना कैसे काम करती है। तब तुम त्रिनेत्र-बिंदु पर स्‍थिर हो जाओ तब कल्‍पना करो, और चीजें आप ही और तुरंत घटित होने लगती है। अभी तुम्‍हारी कल्‍पना भी नपुंसक है। तुम कल्‍पना किए जाते हो और कुछ भी नहीं होता। लेकिन कभी-कभी अनजाने साधारण जिंदगी में भी चीजें घटित होती है। तुम अपने मित्र की सोच रहे हो और अचानक दरवाजे पर दस्‍तक होती है। तुम कहते हो कि सांयोगिक था कि मित्र आ गया। कभी तुम्‍हारी कल्‍पना संयोग की तरह भी काम करती है। लेकिन जब भी ऐसा हो, तो याद रखने की चेष्‍टा करो और पूरी चीज का विश्‍लेषण करो। जब भी लगे कि तुम्‍हारी कल्‍पना सच हुई है। तुम भीतर जाओ और देखो। कहीं न कहीं तुम्‍हारा अवधान तीसरे नेत्र के पास रहा होगा। दरअसल यह संयोग नहीं था। यह वैसा दिखता है; क्‍योंकि गुह्म विज्ञान का तुमको पता नहीं है। अनजाने ही तुम्‍हारा मन त्रिनेत्र केंद्र के पास चला गया होगा। और अवधान यदि तीसरी आँख पर है तो किसी घटना के सृजन के लिए उसकी कल्‍पना काफी है। यह सूत्र कहता है कि जब तुम भृकुटियों के बीच स्‍थिर हो और प्राण को अनुभव करते हो, तब रूप को भरने दो। अब कल्‍पना करो कि प्राण तुम्‍हारे पूरे मस्‍तिष्‍क को भर रहे है। विशेषकर सहस्‍त्रार को जो सर्वोच्‍च मनस केंद्र है। उस क्षण तुम कल्‍पना करो। और वह भर जाएगा। कल्‍पना करो कि वह प्राण तुम्‍हारे सहस्‍त्रार से प्रकाश की तरह बरसेगा। और वह बरसने लगेगा। और उस प्रकाश की वर्षा में तुम ताजा हो जाओगे। तुम्‍हारा पुनर्जन्‍म हो जाएगा। तुम बिलकुल नए हो जाओगे। आंतरिक जन्‍म का यही अर्थ है। यहां दो बातें है। एक, तीसरी आँख पर केंद्रित होकर तुम्‍हारी कल्‍पना पुंसत्‍व को, शुद्धि को उपलब्‍ध हो जाती है। यही कारण है कि शुद्धता पर, पवित्रता पर इतना बल दिया गया है। इस साधना में उतरने के पहले शुद्ध बने। तंत्र के लिए शुद्धि कोई नैतिक धारणा नहीं हे। शुद्धि इसलिए अर्थपूर्ण है कि यदि तुम तीसरी आँख पर स्‍थिर हुए और तुम्‍हारा मन अशुद्ध रहा, तो तुम्‍हारी कल्‍पना खतरनाक सिद्ध हो सकती है—तुम्‍हारे लिए भी और दूसरें के लिए भी। यदि तुम किसी की हत्‍या करने की सोच रहे हो, उसका महज विचार भी मन में है। तो सिर्फ कल्‍पना से उस आदमी की मृत्‍यु घटित हो जाएगी। यही कारण है कि शुद्धता पर इतना जोर दिया जाता है। पाइथागोरस को विशेष उपवास और प्राणायाम से गुजरने को कहा गया; क्‍योंकि यहां बहुत खतरनाक भूमि से यात्री गुजरता है। जहां भी शक्‍ति है, वहां खतरा है। यदि मन अशुद्ध है तो शक्‍ति मिलने पर आपके अशुद्ध विचार शक्‍ति पर हावी हो जाएंगे। कई बार तुमने हत्‍या करने की सोची है; लेकिन भाग्‍य से वहां कल्‍पना न काम नहीं किया। यदि वह काम करे, यदि वह तुरंत वास्तविक हो जाए तो वह दूसरों के लिए ही नहीं तुम्‍हारे लिए भी खतरनाक सिद्ध हो सकती है। क्‍योंकि कितनी ही बार तुमने आत्‍म हत्‍या की सोची है। अगर मन तीसरी आँख पर केंद्रित है तो आत्‍महत्‍या का विचार भी आत्‍महत्‍या बन जाएगा। तुमको विचार बदलने का समय भी नहीं मिलेगा। वह तुरंत घटित हो जाएगी। तुमने किसी को सम्‍मोहित होते देखा है। जब कोई सम्‍मोहित किया जाता है, तब सम्मोहन विद जो भी कहता है, सम्‍मोहित व्‍यक्‍ति तुरंत उसका पालन करता है। आदेश कितना ही बेहूदा हो तर्कहीन हो असंभव ही क्‍या न हो। सम्‍मोहित व्‍यक्‍ति उसका पालन करता है। क्‍या होता है? यह पांचवी विधि सब सम्मोह न की जड़ में है। जब कोई सम्‍मोहित किया जाता है, तब उसे एक विशेष बिंदू पर, किसी प्रकाश पर या दीवार पर लगे किसी चिन्‍ह पर या किसी भी चीज पर या सम्‍मोहक की आँख पर ही अपनी दृष्‍टि केंद्रित करने को कहा जाता है। और जब तुम किसी खास बिंदू पर दृष्‍टि केंद्रित करते हो, उसके तीन मिनट के अंदर तुम्‍हारा आंतरिक अवधान तीसरी आँख की और बहने लगता है। तुम्‍हारे चेहरे की मुद्रा बदलने लगती है। और सम्‍मोहन विद जानता है कि कब तुम्‍हारा चेहरा बदलने लगा। एकाएक चेहरे से सारी शक्‍ति गायब हो जाती है। वह मृत वत हो जाता है। मानों गहरी तंद्रा में पड़े हो। जब ऐसा होता है, सम्‍मोहक को उसका पता हो जाता है। उसका अर्थ हुआ कि तीसरी आँख अवधान को पी रही है। आपका चेहरा पीला पड़ गया है। पूरी ऊर्जा त्रिनेत्र केंद्र की और बह रही है। अब सम्मोहित करने वाला तुरंत जान जाता है। कि जो भी कहा जाएगा। वह घटित होगा। वह कहता है कि अब तुम गहरी नींद में जा रहे हो, और तुम तुरंत सो जाते हो। वह कहता है कि अब तुम बेहोश हो रहे हो और तुम बेहोश हो जाते हो। अब कुछ भी किया जा सकता है। अब अगर वह कहे कि तुम नेपोलियन या हिटलर हो गए हो तो तुम हो जाओगे। तुम्‍हारी मुद्रा बदल जायेगी। आदेश पाकर तुम्‍हारा अचेतन उसका वास्‍तविक बना देता है। अगर तुम किसी रोग से पीडित हो तो रोग को हटने का आदेश देगा, और मजेदार बात रोग दूर हो जायेगा। या कोई नया रोग भी पैदा किया जा सकता है। यही नहीं, सड़क पर से एक कंकड़ उठा कर अगर सम्मोहन विद तुम्‍हारी हथेली पर रख दे और कहे कि यह अंगारा है तो तुम तेज गर्मी महसूस करोगे और तुम्‍हारी हथेली जल जाएगी—मानसिक तल पर नहीं, वास्‍तव में ही। वास्‍तव में तुम्‍हारी चमड़ी जब लायेगी और तुम्‍हें जलन महसूस होगी। क्‍या होता है? अंगारा नहीं, बस एक मामूली कंकड़ है वह भी ठंडा, फिर भी जलना ही नहीं हाथ पर फफोले तक उगा देता है। तुम तीसरी आँख पर केंद्रित हो और सम्मोहन विद तुमको सुझाव देता है और वह सुझाव वास्‍तविक हो जाता है। यदि सम्मोहन विद कहे कि अब तुम मर गए, तो तुम तुरंत मर जाओगे। तुम्‍हारी ह्रदय गति रूक जायेगी। रूक ही जाएगी। यह होता है त्रिनेत्र के चलते। त्रिनेत्र के लिए कल्‍पना और वास्‍तविकता दो चीजें नहीं है। कल्‍पना ही तथ्‍य है। कल्‍पना करें और वैसा ही जाएगा। स्‍वप्‍न और यथार्थ में फासला नहीं है। स्‍वप्‍न देखो और सच हो जायेगा। यही कारण है कि शंकर ने कहा कि यह संसार परमात्‍मा के स्‍वप्‍न के सिवाय और कुछ नहीं है—यह परमात्‍मा की माया है। यह इसलिए कि परमात्‍मा तीसरी आँख में बसता है—सदा, सनातन से। इसलिए परमात्‍मा जी स्‍वप्‍न देखता है वह सच हो जाता है। और यदि तुम भी तीसरी आँख में थिर हो जाओ तो तुम्‍हारे स्‍वप्‍न भी सच होने लगेंगे। सारिपुत्र बुद्ध के पास आया। उसने गहरा धान किया। तब बहुत चीजें घटित होने लगीं, बहुत तरह के दृश्‍य उसे दिखाई देने लगे। जो भी ध्‍यान की गहराई में जाता है। उसे यह सब दिखाई देने लगता है। स्‍वर्ग और नरक; देवता और दानव, सब उसे दिखाई देने लगे। और वह ऐसे वास्‍तविक थे कि सारिपुत्र बुद्ध के पास दौड़ा आया। और बोला कि ऐसे-ऐसे दृश्‍य दिखाई देते है। बुद्ध ने कहा, वे कुछ नहीं है। मात्र स्‍वप्‍न है। लेकिन सारिपुत्र ने कहा कि वे इतने वास्‍तविक है कि मैं कैसे उन्‍हें स्‍वप्‍न कहूं? जब एक फूल दिखाई पड़ता है, वह फूल किसी भी फूल से अधिक वास्‍तविक मालूम पड़ता है। उसमे सुगंध है। उसे मैं छू सकता हूं। अभी जो मैं आपको देखता हूं वह उतना वास्‍तविक नहीं है; आप जितना वास्‍तविक मेरे सामने है, वह फूल उससे अधिक वास्‍तविक है। इसलिए कैसे मैं भेद करूं कि कौन सच है, और कौन स्‍वप्‍न। बुद्ध ने कहा, अब चूंकि तुम तीसरी आँख में केंद्रित हो, इसलिए स्‍वप्‍न और यथार्थ एक हो गए है। जो भी स्‍वप्‍न तुम देखोगें सच हो जाएगा। और उससे ठीक उलटा भी घटित हो सकता है। जो त्रिनेत्र पर थिर हो गया, उसके लिए स्‍वप्‍न यथार्थ हो जाएगा। और यथार्थ स्‍वप्‍न हो जाएगा। क्‍योंकि जब तुम्‍हारा स्‍वप्‍न सच हो जाता है तब तुम जानते हो कि स्‍वप्‍न और यथार्थ में बुनियादी भेद नहीं है। इसलिए जब शंकर कहते है कि सब संसार माया है, परमात्‍मा का स्‍वप्‍न है, तब यह कोई सैद्धांतिक प्रस्‍तावना या कोई मीमांसक वक्‍तव्‍य नहीं है। यह उस व्‍यक्‍ति का आंतरिक अनुभव है जो शिवनेत्र में थिर हो गया है। अंत: जब तुम तीसरे नेत्र पर केंद्रित हो जाओ तब कल्‍पना करो कि सहस्‍त्रार से प्राण बरस रहा है; जैसे कि तुम किसी वृक्ष के नीचे बैठे हो और फूल बरस रहे है, या तुम आकाश के नीचे हो और कोई बदली बरसने लगी। या सुबह तुम बैठे हो और सूरज उग रहा है और उसकी किरणें बरसने लगी है। कल्‍पना करो और तुरंत तुम्‍हारे सहस्‍त्रार से प्रकाश की वर्षा होने लगेगी। यह वर्षा मनुष्‍य को पुनर्निर्मित करती है, उसका नया जन्‍म दे जाती है। तब उसका पुनर्जन्‍म हो जाता है। ओशो विज्ञान भैरव तंत्र (तंत्र-सूत्र—भाग-1) प्रवचन-5 तंत्र-सूत्र—विधि-05 धर्मशास्त्र की बारीकियों में हमें नहीं जाना कि क्या सही है, क्या नहीं, किंतु पूज्य शंकराचार्य जी द्वारा हाल में की गई टिप्पणियों से यह तो स्पष्ट हुआ ही कि वह ऐसा पद है जिस पर बैठे धर्मज्ञवर सत्ता के शीर्ष पर बैठे व्यक्तियों को भी ललकार सकते हैं। व्यवस्था निर्माण की दृष्टि से रामजन्मभूमि मंदिर किसी संप्रदाय विशेष का मान्य हो सकता है, परंतु उसमें सनातन धर्म के सभी संप्रदायों का ही नहीं अपितु विश्व भर की परंपराओं का स्थान बनाया जाना चाहिए। भगवान राम को जानने और मानने वालों की दुनिया में कैसी कैसी परम्परायें चलती हैं, हमें विश्वास है उन सबकी एक झांकी इस मंदिर में मिलेगी। एक राम दशरथ का बेटा, एक राम घट घट में लेटा, एक राम है जगत पसारा, एक राम है जगत से न्यारा। तीन राम को सब कोई ध्यावे, चतुर्थ राम को मर्म न पावे। चौथा छाड़ि जो पंचम ध्यावे, कहे कबीर सो हम को पावे।। इससे लोकमानस की आस्था गहरी और व्यापक होगी। राम सबके हैं और सबमें वे हैं, यह उस मंदिर में मूर्तिमान होना चाहिए। इसलिए सबके अभिमत और उनके सुझावों का स्वागत हो और उनका मंदिर में यथोचित सन्निवेश हो। निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा।। पूज्य शंकराचार्य पीठाधीश्वरों की टिप्पणियों से राजसत्ता पर धर्मसत्ता की वरीयता प्रतिष्ठित होती है, होनी भी चाहिए। धर्मसत्ता अध्यात्म की विरोधी नहीं होती, अपितु किसी व्यक्ति की अध्यात्म तक पहुँच उसे अपने धर्म का बोध होने पर ही हो पाती है। १३/१/२४ योग वासिष्ठ वैज्ञानिक ग्रंथ है। सूक्ष्मता से मंथन किया गया है। कर्मों की गति गहन है, इस पर बहुत से भ्रम समाज में फैले हैं। यह ग्रंथ उनका समुचित निवारण करता है। अपनी इंद्रियों और उनकी प्रवृत्तियों के प्रति अनिच्छा ही स्वच्छता है। श्री श्री रविशंकर राम तथा कृष्ण के ब्रह्म रूप विश्व का मूल एक ही ब्रह्म था, जिसने सृष्टि के लिये २ प्रकार की क्रियायें कीं-(१) भृगु (जबर) = गुरुत्व का आकर्षण, संकोच। इस आकर्षण का केन्द्र क्रीं = कृष्ण है। जब प्रकाश भी आकर्षित होता है, तब वस्तु का कोई रंग नहीं होता, अतः कृष्ण = काला। आकर्षण का क्षेत्र क्लीं = काली है। क्रीं, क्लीं को अरबी में करीम, कलीम कहा गया है, क्योंकि उसमें संयुक्ताक्षर नहीं हैं। (२) अङ्गिरा (अंगारा) = तेज का विकिरण, प्रसार। जब यह प्रकाश रूप में गतिशील होता है, तो रं है- ॐ खं ब्रह्मं, खं पुराणं (पुर में गतिशील प्राण) वायु रं इति ह स्माह-बृहदारण्यक उपनिषद् (५/१/१) प्राणो वै रं, प्राणे हीमानि सर्वाणि भूतानि रमन्ति। (शतपथ ब्राह्मण १४/८/१३/३, बृहदारण्यक उपनिषद् ५/१२/१) रकारो वह्निः, वचनः प्रकाशः पर्यवसति (रामरहस्योपनिषद् ५/४) रं को भाषा में राम या रहीम (अरबी) कहते हैं। ब्रह्म का ३ प्रकार से निर्देश होता है-ॐ, तत्, सत्-गीता (१७/२३)। ॐ गतिशील होने पर रं है, व्यक्ति के लिये तत् या निर्देश नाम द्वारा है, अतः उसका प्राण बाहर निकलने पर कहते हैं-राम-नाम-सत्। राम और कृष्ण मनुष्य रूप में ही थे, पर उनकी समाधि अवस्था में उनकी और ब्रह्म चेतना में कोई अन्तर नहीं था। उस रूप में उन्होंने अपने को ब्रह्म ही कहा है, उनको सामान्य मनुष्य मानना भूल है- मयाध्यक्षेण प्रकृतिं सूयते सचराचरम्। हेतुनानेन कौन्तेय जगद् विपरिवर्तते॥ अवजानन्ति मां मूढ़ा मानुषी तनुमाश्रितम्। परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्॥ (गीता ९/१०-११) दोनों के बारे में कई बार सन्देह हुआ है कि वे मनुष्य हैं या ब्रह्म हैं। अर्जुन ने कहा कि कृष्ण भी उनके साथ ही पैदा हुये, फिर उन्होंने बहुत पहले विवस्वान् को कैसे ज्ञान दिया? (गीता ४/४)। रामचरितमानस में भी शंकर प्रिया सती को सन्देह होता है कि राम ईश्वर होने पर सीता के वियोग में कैसे रो रहे थे? लेकिन उनके सीता रूप धरने पर भी राम ने उनको पहचान कर नमस्कार किया। कृष्ण का एक अर्थ है कृत्स्न या सम्पूर्ण विश्व। आकर्षण से ही विश्व स्थित है। आकाश में सौर मण्डल से बड़ी रचना अमृत है, सौरमण्डल के अंश मर्त्य हैं- आकृष्णेन रजसा वर्तमानः निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च। हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्॥ (ऋक्, १/३५/२, वाज. सं. ३३/४३, ३४/३१, तैत्तिरीय सं. ३/४/१/२, मैत्रायणी सं. १९६/१६) पुराण में सौरमण्डल के भू, भुवः स्वः को कृतक (बनने-मिटने वाले) तथा जनः, तपः, सत्य को अकृतक (स्थायी) कहा है। बीच में महर्लोक है। पादगम्यन्तु यत्किञ्चिद्वस्त्वस्ति पृथिवीमयम्। स भूर्लोकः समाख्यातो विस्तरोऽस्य मयोदितः॥१६॥ भूमिसूर्यान्तरं यच्च सिद्धादि मुनिसेवितम्। भुवर्लोकस्तु सोऽप्युक्तो द्वितीयो मुनिसत्तम॥१७॥ ध्रुवसूर्यान्तरं यच्च नियुतानि चतुर्दश। स्वर्लोकः सोऽपु गदितो लोकसम्स्थान चिन्तकैः॥१८॥ त्रैलोक्यमेतत् कृतकं मैत्रेय परिपठ्यते। जनस्तपस्तथा सत्यमिति चाकृतकं त्रयम्॥१९॥ कृतकाकृतकयोर्मध्ये महर्लोक इति स्मृतः। शून्यो भवति कल्पान्ते योऽत्यन्तं न विनश्यति॥२०॥ (विष्णु पुराण, २/८) आकर्षण बल द्वारा सभी ग्रह नक्षत्र शाङ्कव (वृत्त, दीर्घ वृत्त) कक्षाओं में स्थिर हैं। शङ्कु भवत्यह्नो धृत्यै यद्वा अधृतँ शङ्कुना तद्दाधार। (ताण्ड्य महाब्राह्मण, ११/१०/११) तस्मिन्त्साकं त्रिशता न शङ्कवोऽर्पिताः षष्टिर्न चलाचलासः॥ (ऋक्, १/१६४/४८) ध्यान कुछ भी न होना और होने में रहना है। १५/१/२४ मकर संक्रांति गंगा और गायत्री का पर्व है। गायत्री एक छंद का नाम है। छंद का अर्थ गति भी है। गायत्री आत्मा का छंद है। गायत्री में सूर्य उपासना ही होती है। मकर संक्रांति में सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है। सूर्य जो सबका पोषण करता है। वह प्रकृति का प्राण है। संक्रांति पर इसी प्रकृति की खाद्य वस्तुओं गुड और तिल आदि लेने का विधान किया गया है। इस दिन हम गंगा स्नान या बुड़की लेते हैं। यह ज्ञान उपासना है। गंगा ज्ञान की प्रतीक है। ज्ञान उपलब्ध होने पर ही स्वयं के साथ साथ पितरों को भी तृप्ति मिलती है। इसलिए आज के दिन ही राजा भगीरथ के साठ हज़ार पूर्वज मुक्त हुए। इस दिन खिचड़ी खाने की परंपरा है, खिचड़ी यानी प्रकृति के उपयोगी तत्वों का समाहार। दान का भी अर्थ है कि यह सबके लिए हैं। यह सब ज्ञान कराने वाले पुरोहित अग्नि रूप हैं। ऋग्वेद का पहला मंत्र है ॐ अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्।। विश्व की सभी सभ्यताओं में अग्नि की उपासना की गई है। अग्नि मनुष्य के बाहर भी है, अग्नि मनुष्य के अंदर भी है। अग्नि सबसे अच्छी मित्र है। अग्नि सबसे बड़ी शत्रु भी है। अतः मनुष्य ने अग्नि को ही अपना पहला देव माना। प्रकृति के कण कण को जिस समाज ने अपने जीवन में जितना स्थान दिया, वह सभ्यता उतनी उन्नत हुई। सनातन का प्रकृति के पोर पोर के प्रति कृतज्ञता का भाव आदिकाल से रहा है। प्रकृति के प्रति यह सभ्य आचरण ही धर्म है। १६/१/२४ प्रकाश एक लोक का नाम है, आकाश की भाँति। व्यक्ति की प्रकृष्ट या विशिष्ट दशा में वह प्रकाश दर्शन करता है। यह प्रकाश बाह्य प्रकाश नहीं है, परंतु उससे भिन्न भी नहीं है। बाह्य प्रकाश बिखरी हुई श्वासों की भाँति है, मूल श्वास ईश्वर की है, जिसमें मन, वाणी और कर्म की एकता है, सामरस्य है, स्वातंत्र्य है, परंतु श्वास के बिखरने पर यह सब खंड खंड हो जाते हैं और प्राणी भटक जाते हैं। तब वे अपनी मनोवृत्तियों और आदतों के चंगुल में घिरे रहते हैं। प्राण या स्रोत से जुड़े रहना प्रकाश के क्षेत्र में बने रहना है। शंकराचार्यों पर लांछन लगाना सही नहीं है। उनका आशीर्वाद पाने की कामना करते रहना उचित है। शंकराचार्यों से राजनीति के प्रश्नों को हल करने की अपेक्षा नहीं की जाती है, अपितु वे एक समृद्ध और सुदीर्घ परंपरा के प्रतीक हैं, उनका कहा और किया उन्हीं पर छोड़ देना चाहिए। १७/१/२४ उस परम् का साक्षात्कार हो जाने पर जाने माने वैज्ञानिक स्टीफ़न हॉकिंग की बात कि 'ब्रह्मांड प्रकृति के सिद्धांतों पर चलने वाली मशीन है' भी ग़लत नहीं लगेंगी। वे वैज्ञानिक थे, उन्होंने अनुभूत करके कोई बात कही है। ईश्वर मानने के बाद होने वाले साक्षात्कार में पतन की आशंका नहीं रहेगी, अन्यथा वहाँ से गिरने की संभावना रहती है। रमेश पाराशर की पोस्ट पर १९/१/२४ प्रभु श्री राम जन्म भूमि पर उनकी प्रतिष्ठा का आयोजन जारी है। २२ जनवरी को उनके चक्षु खुल जाएँगे। उससे पहले अहंकार, मन, बुद्धि, चित्त और फिर पंच महाभूतों में से आकाश और वायु में प्राण का अधिवास हो रहा है। चक्षु एक ज्ञानेंद्रिय है, जिसकी कर्मेंद्रिय पाद या पैर हैं। चक्षु ज्ञानेंद्रिय की तन्मात्रा रूप है और इसका महाभूत अग्नि है। संसार इसी महाभूत से शुरू होता है, इससे पूर्व तो आकाश और वायु की सत्ता रहती है। अग्नि के बाद जल और फिर पृथ्वी पर आरोहण होता है। अग्नि की तन्मात्रा रूप से ही रस का उद्भव होता है और रस से गंध का। प्राण प्रतिष्ठा का अनुष्ठान सृष्टि रचना का आयोजन है। हम सब इसे आत्मसात् करें, जो नहीं कर पा रहे होंगे, उनके भीतर राम को अव्यक्त रूप में समझना चाहिए। ऐसे भी जन हो सकते हैं जो इसे आत्मसात् किए हों और व्यक्त न कर रहे हों। २०/१/२४ जगत् प्रभु की लीला है। लीला का संवरण भी तो वही करते हैं। लीला का निर्देशन और व्यवस्थापन उन्हीं के द्वारा हो रहा है। वे स्वयं लीलामय भी हैं और लीला के बाहर उसके नियंता हैं। मनुष्य द्वारा किए जा रहे कार्य प्रभु की लीला के भाग हैं। मनुष्य को यह सदा स्मरण रखना है। लीला का उपराम भी होता है, मनुष्य को भी प्रभु लीला के साथ साथ उसका हिस्सा होने की स्मृति जागती है, वह उस लीला में ऐसा निमग्न भी होता है जिसमें वह एक पार्ट है, यह वह भूल जाता है। उस समय प्रभु उसे नियंत्रित करते हैं। यदि वह प्रभु के घेरे में न रहा तो भटकता रहेगा। २१/१/२४ वैज्ञानिकों ने प्राणियों और विशेषतः मनुष्यों की श्वास पर क्या प्रयोग किये और उनसे क्या निष्कर्ष निकले हैं, हमें ज्ञात नहीं है। इस दिशा में वैज्ञानिकों को उतरना चाहिए। हमारी श्वास के तौर तरीक़ों से बहुत से महत्वपूर्ण और मानवता के लिए सर्वथा उपयोगी निष्कर्ष मिल सकते हैं। यह क्षेत्र ऐसा है, जिससे स्पष्ट तौर पर विज्ञान और अध्यात्म के सिरे जुड़ते हुए मिलेंगे। अग्नि से जल की उत्पत्ति हुई है, जल से पृथ्वी की। यह स्वाभाविक विधान है। अपने भीतर इस क्रम का उदय हो जाए, इसका पता लग जाए, इसके लिए हमें उल्टे क्रम से जाना होता है। पृथ्वी के गुण गंध से, रस और रस से रूप की यात्रा होती है। अग्न्याधान की प्राप्ति सहज नहीं है। एतदर्थ गुरु कृपा और साधना की आवश्यकता है। गोरख – मन का स्वरूप क्या है? श्वांस का आकार क्या है? दस दिशाएं कौनसी हैं और किस उपाय के द्वारा इन्हें नियंत्रित किया जा सकता है?.....हरि ॐ मछेन्द्र – शून्य ही मन का स्वरूप है, श्वांस का आकार निराकार है, दशों दिशाओं का वर्णन नहीं किया जा सकता और दसवां द्वार ही इन्हें नियंत्रित करने का एकमात्र उपाय है।.....हरि ॐ गोरख – मूल (जड़) क्या है और शाखा क्या है? कौन गुरु और कौन शिष्य है, किस तत्व के सहारे साधक अकेला अपने मार्ग पर चल सकता है?......हरि ॐ मछेन्द्र – मस्तिष्क ही मूल है और श्वांस शाखा हैं। शब्द ही गुरु है और ध्यान ही शिष्य है। और खुद को जानना ही वह ज्ञान है जिसके सहारे साधक अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।......हरि ॐ गोरख – बीज क्या है, क्षेत्र क्या है? स्तवन क्या है? दृश्य क्या है? जोग (योग) क्या है और किस उपाय (जुगती) के सहारे किया जाता है? मोक्ष क्या है? और मुक्ति क्या है?.....हरि ॐ मछेन्द्र – मंत्र ही बीज है, मति (भाव) ही भूमि है। ध्यान (सूरति) ही स्तवन है, सबसे अलग होना ही (अर्थात निवृत्ति) ही दृश्य है। सागर (उरम) ही जोग है और पृथ्वी (धरम) ही उपाय है। अखंड ज्योति ही मोक्ष है और ज्योति का प्रकाशपुंज ही मुक्ति है।.......हरि ॐ २२/१/२४ राम में जीव और परम का लीला विहार है. निशब्द से शब्द का और शब्द से ओंकार का उद्भव हुआ है. ॐ से रा और म अक्षर उत्पन्न होते हैं. त्रितत्व हैं जीव, परमात्मा तथा हरे राम कृष्ण अथवा गुरु शिष्य और भगवान। राम का दर्शन मंदिर में कैसे! मन के अंदर जो है, वह मंदिर कहा जाता है। मन के भीतर के तत्व का दर्शन मंदिर में होता है। एक बार दर्शन मन में या मंदिर में हो जाए तो फिर सर्वत्र होता है। ध्यानमंगलम् स्वरूप है भगवान श्री राम का... इसमें सब अंतर्लीन हो जाता है। इसे शांभवी और भैरवी मुद्रा भी कहा गया है... अंतर्लक्ष्यो बहिर्दृष्टि निमेषोन्मेष वर्जिता। इयं सा भैरवी मुद्रा सर्वतंत्रेषु गोपिता।। ध्यानमंगलम् बड़ा मूल्यवान शब्द है, इस पर फिर कभी... 👉 निस्पंद मन की भाषा है ध्यान ध्यान मन का स्नान है, चित्त की शुद्धि व परिष्कृति है, यह आत्मा का भोजन है। ध्यान में हम स्थिर होते हैं, एकाग्र होते हैं। ध्यान के द्वारा अपने अस्थिर व उद्वेलित मन को शांत करके हम उसे ऊर्जावान बना सकते हैं। ध्यान के माध्यम से हम अपनी मानसिक क्षमता को भी बढ़ा सकते हैं। **गहरा ध्यान उस प्रकाश की तरह होता है, जो कुसंस्कार रूपी अंधकार को तिरोहित कर सकता है। संस्कार ही होते हैं.. जो चित्तभूमि में कर्मबीज के रूप दबे होते हैं और समयानुसार परिपक्व होकर अंकुरित होते हैं, उभरते और विकसित होकर अपना प्रभाव दिखाते हैं। **ध्यान में तल्लीन हुए, व्यक्ति का शरीर भले ही निष्क्रिय हो, लेकिन उसका मन होश में रहता है, स्वप्न के सदृश्य वह अपने चित्त का दर्शन करता है, लेकिन वह स्वप्न नहीं होता, बल्कि जाग्रत अवस्था में पूर्ण होश के साथ देखा गया दृश्य होता है। ध्यान वह प्रक्रिया है, जिसमें व्यक्ति स्वयं को उनसे मुक्त करता है, जिनसे वह आसक्त है। यदि वह स्वयं को मुक्त नहीं कर पा रहा तो ध्यान भी नहीं कर सकता। प्रायः हमारी यह प्रवृत्ति है कि उत्तेजक, नकारात्मक भावों पर हमारा अधिक ध्यान जाता है और सुख की अपेक्षा दुःख को हम अधिक याद करते हैं। **हम अपने सुखद मनोभावों को छोड़कर दुःखद मनोभावों से गहराई से चिपके होते हैं और उनके कारण प्रताड़ित रहते हैं, परंतु ध्यान के माध्यम से जब चेतना इन सभी भावों से मुक्त होती है तो व्यक्ति वर्तमान में जीने लगता है और अतीत के बंधनों से मुक्त होने लगता है। इन बंधनों से मुक्त होना ही ध्यान है। सामान्य तौर पर व्यक्ति अपने अतीत और भविष्य से मुक्त नहीं हो पाता और न ही वह अपने वर्तमान का सदुपयोग कर पाता है, क्योंकि अधिकांशतः उसके वर्तमान में या तो अतीत की यादें होती हैं या फिर भविष्य की योजनाएँ। जब भी कोई व्यक्ति योजनाएँ बनाता है तो वे योजनाएँ व्यक्ति को ध्यान की गहराई में डूबने से रोकती हैं। इसी तरह अतीत की यादें भी उन जंजीरों की तरह होती हैं, जो व्यक्ति को ध्यान की गहराई में उतरने नहीं देतीं; जबकि ध्यान तो वर्तमान में जीने, उसे स्वीकारने का नाम है। ध्यान के माध्यम से व्यक्ति अपने वर्तमान में स्थिर व एकाग्र होता है, अपनी ऊर्जा का संग्रह करता है और उस संगृहीत ऊर्जा के माध्यम से अपना सर्वोत्तम कार्य करता है। ध्यान व्यक्ति के मन को पूर्ण संतुष्टि व बृहत्तर अंतर्ज्ञान की ओर ले जाता है। ध्यान के माध्यम से ब्रह्मांडीय चेतना से एकाकार हुआ जा सकता है और संपूर्ण ब्रह्मांड से स्वयं के तादात्म्य को अनुभव किया जा सकता है। **ध्यान के अभ्यास से, इसकी गहराई में उतरने से हमारे शरीर, मन, प्राण व स्नायुतंत्र का संवर्द्धन होता है। शरीर की प्रत्येक कोशिका में प्राण का संचार होता है, मनः शक्ति का विकास होता है और आत्मिक प्रसन्नता हस्तगत होती है। **ध्यान के समय 'मैं कुछ भी नहीं हूँ (अकिंचन), ' का भाव होना चाहिए, किसी भी चीज की चाहत व्यक्ति के ध्यान को डगमगा सकती है। **ध्यान कभी भी करने से नहीं होता, बल्कि स्वतः हो जाता है। जब व्यक्ति ध्यान में कुछ करने का प्रयास करता है तो वह वास्तविक रूप से ध्यान की गहराई में नहीं उतर सकता। **ध्यान में किसी तरह की सक्रियता के बजाय एक तरह की सजगता और जागरूकता लिए हुए अक्रियता होती है। ध्यान हमारे अंतर्मन की यात्रा है और यह एक ऐसी यात्रा है, जिस पर हमें अकेले ही चलना होता है, **केवल अपना मन ही साथी- सहयोगी की तरह होता है। यदि हमारा यह मन स्थिर, शांत व एकाग्र है तो अपना पूरा सहयोग दे पाता है और यदि मन अस्थिर, अशांत व उद्वेलित है तो एक कदम भी साथ नहीं चल सकता। **मन की अशुद्धि व विकृतियाँ इस मार्ग पर बिछे हुए उन नुकीले काँटों की तरह होती हैं, जो ध्यान में जाने पर चुभती हैं व आगे नहीं बढ़ने देतीं। अतः ध्यान उन व्यक्तियों का सरलता से लगता है, जो सात्त्विक प्रकृति के होते हैं और जिनका अंतःकरण शुद्ध, निर्मल होता है। **ध्यान करने से पूर्व धारणा व अन्य यौगिक प्रक्रियाओं का अभ्यास करना चाहिए। महर्षि पतंजलि ने इसलिए अष्टांग योग में ध्यान को सातवें स्थान पर रखा है, इसके पूर्व में क्रम से- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा को रखा है और ध्यान के बाद समाधि को रखा है, जो कि योग-साधना का शिखर है। यदि ध्यान से पूर्व अन्य क्रमों की उपेक्षा करके ध्यान तक पहुँचने करने का प्रयास किया जाएगा तो असफलता मिलती है और यथेष्ट लाभ भी नहीं मिल पाता। ध्यान करने वाले व्यक्तियों को यौगिक जीवनशैली का अभ्यास करते रहना चाहिए।**सामान्य व्यक्ति भी ध्यान के लाभों को प्राप्त करने के लिए अपने दैनंदिन जीवन में थोड़ी देर के लिए ध्यान का अभ्यास कर सकते हैं। यह अभ्यास किसी भी समय किया जा सकता है, जैसे- सूर्योदय के समय अथवा रात्रिकाल में या किसी भी अन्य समय, जब मन ध्यान में उतरना चाहता हो। यदि ध्यान करने का अभ्यास जीवन में डाला गया तो निश्चित रूप से इसके लाभ हमें अपने जीवन में देखने को मिलते हैं।🙏 ---वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं.श्रीराम शर्मा आचार्य अखण्ड ज्योति : अक्टूबर, २०१५ से साभार संकलित व संपादित!🍂💥🍂💥🍂💥🍂💥 २६/१/२४ गौतमबुद्ध कहते हैं - परमात्मा को . ख़ुद में देखना “ध्यान” है, दूसरों में देखना “प्रेम” और सबमें देखना “ज्ञान” है.. २८/१/२४ "Often man does not cognize even things that his senses are able to perceive. Those persons who have perceptive eyes enjoy beauty everywhere.” - Paramahansa Yogananda इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति। न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः। भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः। प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति ॥केन० २/५ यदि व्यक्ति यहीं (इसी लोक में) उस ज्ञान को प्राप्त कर लेता है तो व्यक्ति का अस्तित्व सार्थक है, यदि यहीं उस ज्ञान की प्राप्ति नहीं की, तो महाविनाश है। ज्ञानीजन विविध भूत-पदार्थों में 'उस' का विवेचन कर, इस लोक से प्रयाण करके अमर हो जाते हैं। 5. If he knows Him here, then there is good for him. If he knows Him not here, then there is great loss. The wise knowing Him in all beings, going out of this world, after getting full knowledge from Guru, become immortal. योग वासिष्ठ में वसिष्ठ राम से कहते हैं यह सृष्टि 76 बार बनी है और तुम भी 76वे राम हो। योग वासिष्ठ के आधार पर हॉलीवुड में एक फ़िल्म 1999 में The Matrix बनी है। इसमें आता है Let me tell you why you are here. You are here because you know something. What you know you can’t explain, but you feel it. You felt it your entire life. You don’t know what it is, but it is there, like a splinter in your mind. It is this feeling that has brought you to me. Do you know what I’m talking about? The Matrix. Do you want to know what it is? The Matrix is everywhere, all around us, even now in this very room. Unfortunately no one can be told what the Matrix is. You have to see it for yourself.. इच्छाओं के रहते प्राण चले जायें तो मृत्यु है और प्राण के रहते हुए इच्छायें चली जायें तो वह हुयी मुक्ति। ३०/१/२४ कौरव प्रतीक हैं उन दोषों के जो हमें ईश्वर से या आत्मज्ञान से दूर ले जाते हैं, जबकि पांडव प्रतीक हैं उन गुणों के जो हमें आत्मज्ञान कराने के समीप ले जाते हैं। भीष्म अहंकार के प्रतीक हैं, जो गुणों को अपना मानते तो हैं पर वे कौरवों के पक्ष में ही खड़े होते हैं। इन गुणों और दोषों का सतत् युद्ध जहां चलता है, वह कुरुक्षेत्र कहलाता है। इस युद्ध को जीतने के लिए एक आदर्श शिष्य बनना पड़ता है, जिससे कृष्ण जैसे सद्गुरू प्राप्त हों। प्रणवादिसमुच्चारात्
प्लुतान्ते शून्यभावनात् ।
शून्यया परया शक्त्या
शून्यतामेति भैरवि ॥ praṇavādisamuccārāt
plutānte śūnyabhāvanāt /
śūnyayā parayā śaktyā
śūnyatāmeti bhairavi // Bhairavi, O Pārvatī, praṇavādi samuccārāt, . . .
There are three kinds of praṇavas–Vedic praṇava, Śiva praṇava, and Māyā praṇava. Vedic praṇava is “oṁ”; Śiva praṇava is “hūṁ”; Māyā praṇava is “hrīṁ”. Hrīṁ is called Māyā praṇava from our Shaiva point of view; and hūṁ is called Śiva praṇava; and oṁ is called Veda praṇava. Just recite these, any of these. You may recite oṁ, you may recite hūṁ, or you may recite hrīṁ–Veda praṇava, Śiva praṇava, or Māyā praṇava. . . . praṇavādi samuccārāt, you must recite it in this way–plutānte. You must not recite just like “oṁ”; not like that. Plutānte, you must end it in pluta. “Ooooooooooooooṁṁṁ”, like this [Swamiji demonstrates]. In the same way, you must recite hūṁ and you must recite hrīṁ. Any of these mantras you may recite. When you recite it, in the end you must concentrate on the voidness of that sound, where this sound merged in the end. The sound is finished afterwards, and there you must concentrate, there you must contemplate.
Śūnya bhāvanāt parayā śūnyayā śaktyā, and, by that supreme awareness of voidness, he enters in the transcendental void state of Śiva. Śūnyatāmeti bhairavi, he enters in the transcendental state of Lord Śiva, transcendental void state, voidness.
 व्यक्ति की कोई एक इंद्रिय काम न करे तो उसमें कोई अलग कौशल और कार्य करने में एक तीक्ष्णता आ जाती है। सोचिए! अगर पाँचों इंद्रियों का हम प्रत्याहरण कर पाएँ तो कितनी ऊर्जा का संग्रहण और केंद्रीकरण हो जाएगा।