Wednesday, December 2, 2015

पचनदा का शास्त्रीय संदर्भ

पचनदा का शास्त्रीय संदर्भ
                        डा राकेश नारायण द्विवेदी

चंबल, पहूज, सिंध तथा कुंवारी उत्तर प्रदेश के जालौन जनपद में यमुना नदी में जहां मिलती हैं, वह स्थान पचनदा कहलाता है । भौगोलिक दृष्टि से बुंदेलखंड में  यह विश्व का विरल रमणीक स्थान है, जहां पांच नदियों का एक साथ संगम होता हो । यह नदियां जालौन जनपद के सीमांत क्षेत्र में प्रवाहित होती हैं, जहां उत्तर में उत्तर प्रदेश के इटावा जनपद की सीमा तथा पूर्व में मध्य प्रदेश के भिंड जिले की सीमा संस्पर्श करती है । जालौन के उत्तर में जगम्मनपुर होते हुए कंजौसा गाव के निकट इस स्थान तक पहुंचा जा सकता है । उरई से इसकी दूरी  65 किमी है । पांच नदियों का संगम होने के कारण यहां के बाबासाहब मंदिर की पांच मठियां हैं, जिनमें विभिन्न देवी-देवताओं की मूर्तियां प्रतिष्ठित हैं । स्थानीय लोगों द्वारा  कहा जाता है कि  संवत् 1635 में गोस्वामी तुलसीदास पचनदा पर आये थे । उन्होंने यमुना की बीच धार में बैठकर पीने का पानी मांगा । उस समय यहां दो महात्मा गुरु मंजुमन और उनके शिष्य मुकुंदमन रहते थे । तुलसीदास की आवाज सुनकर गुरु ने शिष्य को कहा कि मेरे कमंडल से जब तक इंकार न करें तब तक जल देते जाना । न उन महात्मा का कमंडल भरा और न इनका कमंडल खाली हुआ । तब तुलसीदास ने कहा, यह स्थान बहुत प्रसिद्ध होगा । तुलसीदासजी ने एक शंख उन महात्मा को भेंट किया । महात्माजी के चरण चिन्ह यहां बने हुये हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि प्रसिद्ध के लिये तुलसीदास के नाम से यह कहानी बना ली गई, पर कोई साधु-महात्मा अवश्य यहां रहे हैं ।नदियों और अरण्यों में जाकर एकांतवास कर साधना करना हमारे देश की संस्कृति का हिस्सा रहा है ।  मंदिर का बाह्य रूप नीचे एक फोटो में दिया गया है, दूसरे फोटो में नदियों का संगम स्थल है । प्रतिवर्ष यहां कार्तिक पूर्णिमा पर चार दिनों तक मेला लगता है । 

भारत के किसी कोने में हम जायें, किसी न किसी नदी का दर्शन सहज सुलभ है । हमारे पूर्वजों ने जब सामुदायिक रूप में रहना प्रारंभ किया तो जल व्यवस्था के लिये यह नदियां ही अवलंब बनीं । सिंधु घाटी हो, मैसोपोटामिया हो या बैबीलोन, कोई न कोई नदी ही इन सभ्यताओं को जीवन देने में सहायक बनीं । नदियां परमार्थ की जीवंत मिसालें हैं, कहा गया है -

वृक्ष कबहुं नहिं फल भखैं, नदी न संचै नीर ।
परमारथ के कारनै साधुन धरा शरीर ।।

नदियों का पराक्रम भी सर्वविदित है । बड़े-बड़े पहाड़ों, गिरि-गह्वर से निकली नदियां चट्टानों के अहंकार को चूर करती हैं, मानो वे पत्थर दिल व्यक्तियों को अहंकारहीन बनने का संदेश दे रहीं हैं । नदियों का सतत प्रवाही जल पत्थरों को घिस-घिसकर शालिग्राम बना देता है, जो घर-घर में पूज्य होते हैं । 

बुंदेलखंड के जालौन जनपद का पचनदा शास्त्रीय संदर्भ में भी विशिष्ट स्थान रखता है । पंचोपचार या षोडशोपचार पूजा-उपासना में पंचामृत स्नान विधि संपन्न कराते समय पांच नदियों का स्मरण किया जाता है । यदि इन पांचों नदियों को एक साथ चिन्हित करना हो तो विश्व में कहीं और नहीं, जालौन जनपद का पचनदा ही है -

ऊँ पंचनद्य: सरस्वतीमपयपिबंति सस्रोतस: सरस्वती तु पंचधा सो देशे भवत्सरित ।

 इसके अतिरिक्त उत्तराखंड के पंचप्रयाग में गढ़वाल हिमालय से निकलने वाली पांच नदियां विष्णुप्रयाग, नंदप्रयाग, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग तथा देवप्रयाग । उत्तराखंड की यह पांच नदियां अलग-अलग और बहुत दूरी पर आमेलित होती हैं, जो रृषिकेश में आकर गंगा कहलाने लगती हैं । पुराण पावन इन नदियों का महत्व शास्त्रीय दृष्टि से अवश्य है, किंतु जालौन के इस पचनदा का भूगोल यदि विकसित हो जाये तो पर्यटन की संभावनाओं से भरपूर है ।

अमीरी की अश्लील चकाचौंध के इस युग में नदियों की चिंता किसे है ? घर का ही नहीं, उद्योग-धंधों का भी कचरा देश की नदियों में बहाया जा रहा है । नदी किनारे बसे शहर नदी को दोनों पाटों से ढंककर ऊंचे भवनों का निर्माण करके 'विकसित' हो रहे हैं । इसी कारण नदी में जब बाढ़ आती है तो यह साफ संकेत है कि अगर तुम हमारी फिक्र नहीं करोगे तो हम तुम्हारे लिये कैसे फिक्रमंद हो सकते हैं । नदी जब अपने उन्मुक्त वेग से बाढ़ के दिनों में बह निकलती है तो शासन-प्रशासन और आपदा नियंत्रक असहाय और लाचार नज़र आते हैं । दूसरी ओर नदियों का का जल सूख रहा है, उनसे अपार जलदोहन जो हो रहा है । हमें याद रखना होगा कि जल सौ प्रतिशत प्राकृतिक है और इसका कोई विकल्प नहीं अर्थात् हम जल के बिना जीवित नहीं रह सकते । नदियां सागर की ओर पर्वतों की पत्रवाहिका की तरह होती हैं । यह हमेशा बहती रहें तभी जीवन बना रह सकता है । 'सूखेंगीं नदियां तो रोयेंगीं सदियां ', अत: नदी और उसका जल संरक्षण आज की महती आवश्यकता है । इस प्रसंग में हिमालयी पर्यावरण शिक्षा संस्थान उत्तरकाशी के अतुल शर्मा की एक कविता पाठकों के साथ बांटना अप्रासंगिक न होगा - 
xxxx
पत्थर नदी की भीतरी सतह के
रेत और शैवाल
मछलियां-जल जंतु 

और यह गर्वीला पहाड़
सब नदी का है

पर नदी है तो किसकी है? 
अपनी ही कहां है वह इसीलिए सबकी है।
सख्त दिखने वाले पर्वतों का भीतरी संसार
बेहद तरल है

उनमें पानी भरा है
स्रोत है अविराम बहते
पेड़ों की जड़ों से घुले स्रोत
कौन जाने
कैसी है नदी की भीतरी दुनिया
कौन जाने
कैसा है पर्वतों का अगम और अचूक संसार
बोलियां अब
लग चुकी हैं नदियों को बेचने की
पर्वत को खरीद चुके हैं लोग
चुप हैं सरकारों के नंगे दलाल कुछ
चुप हैं गांव का आने वाला समय
चुप है बहाव नदियों और समय का बहाव
चुप है हर जुबान
चुप है आने वाले समय की वीरान और सूखी नदी
चुप हैं पुरस्कारों के तमगे पहने मुखौटे
चुप हैं नदी और पहाड़ से कुछ लोग
चुप हैं पृथ्वी के हर संकट के श्वेत पत्र पर
हस्ताक्षर करने वाले बुद्धिजीवियों की
अनर्गल बहसें
बोलती है तो बस नदी
बोलती है तो नदी की आवाज
बोलती है तो लगातार तटों के पास आती

और उनको छोड़ती
चली जाती
नदी

एक नदी है अनेक नदियां
अनेक नदियां हैं अनेक जमीनें
अनेक जमीनें हैं अनेक जंगल
अनेक जंगल हैं बादल अनेक
नदी, नदी के लिए है, जमीन, जमीन के लिए, 
जंगल, जंगल के लिए
ये देते हैं सबको बिन मांगे
इनका कानून सबसे ऊपर
थोपो मत अपने को इन पर
नदी के ऊपर
कोहरे की नदी
कोहरे में डूबा-बोलता जंगल

हवाओं की तरह
शिराओं में बहता खून

ऑक्सीजन का भंडार
भरा-पूरा संसार

हर नदी का उद्गम यह
बोलियों और गीतों का उद्गम यह
नृत्यों और गाथाओं की अटल गहराई यह

ढोल बजाने वाले 
हाथों से नहीं
दिल से बजाते हैं ढोल
भाषा है उसकी
भाषा ये है उसकी
बोल है अलग-अलग
संदेश है एक उसका

नदियों के किनारे
झरनों के पास
कभी उठाओ गीत
लगाओ आवाज
तो टूट जायेगा भ्रम
बन जायेगी यह प्रकृति की ऊर्जा
हमारा होना – नदी के होने के भीतर है कहीं
हमारा होना – दुनिया की नदियों के इर्द-गिर्द है कहीं
नदी की नमी
बचा रही हैं पर्वत पुत्रियां
मायके को छोड़कर जाती हुई।
जाती हुई
पर्वत पुत्रियों के हाथ
अभी भी पकड़े हुए हैं
मायके की हथेली
रोज-रोज
तोड़ते हैं नदी का मायका जो
तोड़ रहे हैं वे
अपने को

अपने भीतर की नदी को
अपने भीतर की नदियों को

यह कैसा विकास
जो मुझे भी चाहिये और तुम्हे भी
फूल को भी चाहिये और फल को भी
गांव को भी चाहिये और शहर को भी
आकाश को भी चाहिये और पृथ्वी को भी

विकास
चाहिये हमें

पर चाहिये हमें उससे भी पहले
सांस

सांसो की नदी
चाहिये सबसे पहले हमें
सांसों का घना जंगल
सदियों के लिये

नदियों के लिए जंगल
और जंगल के लिये
चाहिये हमें नदियां

समुद्र को 
सबसे ज्यादा चाहिये नदियां

और नदियों को 
सबसे ज्यादा चाहिये
कई समुद्र

समुद्र का भीतरी
अबूझा जंगल

तय करता है
पृथ्वी के जंगल का स्वाभाविक आकार
स्वाभाविक
हां स्वाभाविक भी
और आकार भी

चाहिये
अपनी तरह से जीने वाली पृथ्वी
दूसरों के लिए बनी पृथ्वी
मंदिर की तरह
प्यास का विकल्प बनती बावड़ियां
अमृत है नदी
पहेली की तरह बहती चली दूर तक
उसके भीतर भी लहरें
उसके बाहर भी लहरें
कोई भी नहीं गिन पाया इन्हें

गिनती से बहुत आगे हैं
नदी की लहरें

उत्तरों से परे हैं नदी के सवाल
इतिहास और भूगोल
विज्ञान और भूगर्भीय तथ्य

यह सभी
हां यह सभी तो 
नदी की देन है
न सोचकर भी लगता है भयावह 
कि
कैसा होगा नदी के बिना संसार
शायद अगर मृत्यु है तो
यही है
बिना नदी का संसार
शायद ही नहीं निश्चित है
कि जीवन के बढ़ते चरण अगर बोल रहे हैं
तो नदी के कारण ही बोल रहे हैं
नदी की भाषा की वर्णमाला
पढ़ पायें हैं तो
उसे जीवित रखने वाली गांव की सुबह और
गांव की शाम और गांव की रात
सूर्य प्रणाम है नदी की भाषा
वही है योग का आधार एक
245 शब्दार्णव, नया पटेल नगर, कोंच रोड, उरई (जालौन)
मोबाइल 9236114604
उत्तरप्रदेश में इटावा के बिठौली गांव में स्थित तातरपुर में यमुना, चम्बल, कावेरी, सिंधु और पहुज नदियों का संगम होता है। इस संगम को पचनदा अथवा पचनद भी कहा जाता है। यहां के प्राचीन मन्दिरों में लगे पत्थर आज भी दुनिया के इस आश्चर्य और भारत की श्रेष्ठ धार्मिक एवं सांस्कृतिक विरासत का बखान करते नजर आते हैं।


डा राकेश नारायण िद्ववेदी

प्राक्कथन

प्राक्कथन
उत्तर प्रदेश ही नहीं, देश में भी किसी विश्वविद्यालय के प्रथम परिनियम का हिंदी रूपांतरण प्रकाशित नहीं हुआ है। उत्तर प्रदेश राज्य विश्वविद्यालय अधिनियम 1973 के हिंदी रूपांतरण विभिन्न विश्वविद्यालयों द्वारा समय-समय पर प्रकाशित होते रहे हैं। अधिनियम निर्माण विधायी कार्य है, उसका अंग्रेजी से हिंदी रूपांतर एक संवैधानिक बाध्यता है, किंतु किसी अधिनियम के विनियम/परिनियम/नियमावली को हिंदी में लाने में प्राय: आलस्य दिखता है, जबकि किसी विश्वविद्यालय का सारा व्यवहारिक कार्य इस नियमावली से ही संचालित होता है।
स्वाभाविक है कि हिंदी पट्टी के विश्वविद्यालयों में अधिकारियों एवं कर्मचारियों को ही नहीं, सभी हितधारकों को भी परिनियम के हिंदी में आ जाने से नियमों को जानने समझने में सुगमता होगी। बुंदेलखंड विश्वविद्यालय के कुलपतिजी प्रोफेसर अविनाश चंद्र पांडेय के मन में पता नहीं कैसे इस रूपांतर कार्य को कराये जाने का विचार आया। यह विलक्षण संयोग ही है कि वे हिंदी एवं अंग्रेजी भाषाओं पर अच्छी पकड रखने के साथ-साथ हिंदी साहित्यानुरागी भी हैं। वे व्यक्तियों से क्षमतानुरूप काम लेने में सिद्धहस्त हैं। अप्रैल 2015 में किसी दिन एक शिष्टाचार भेंट में जब हम लोग कुलपतिजी से मिले तब उन्होंने अधिनियम, परिनियम और अध्यादेशों का रूपांतर कार्य करने का प्रस्ताव किया। हम लोगों ने तत्क्षण इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया। कार्य निर्धारित अवधि में पूरा किये जाने की चुनौती थी, किंतु प्रभु कृपा से विश्वविद्यालय का यह उपयोगी कार्य टंकण सहित अल्पावधि में ही संपन्न हो गया।
किसी भाषा के रूपांतरण में भाषागत कठिनाइयां आती ही हैं। रूपांतर में मूल अर्थ पूर्ण रूप में प्रचलित शब्दों के माध्यम से प्रकट हो, इसका प्रयास रहता है। कार्यालयी भाषा में मूल अर्थ को ग्रहण करने में भ्रम या विवाद न रहे, इसलिये कहीं कहीं भारत सरकार के वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग द्वारा प्रकाशित प्रशासनिक शब्दकोश में दिये शब्दों को यथास्थान रखना पड़ा है, ऐसे कुछ शब्द किसी को गूढ या कठिन लग सकते हैं। यह शब्द हिंदी की मूल प्रकृति से अलग नहीं हैं, उदाहरणस्वरूप अंग्रेजी शब्द holiday, leave एवं vacation को क्रमश: (शासकीय) छुट्टियां, अवकाश एवं प्रावकाश कहा गया है, यहां कोई एक हिंदी शब्द अंग्रेजी के तीनों शब्दों का स्थानापन्न नहीं हो सकता था। ध्यातव्य है कि कोई भाषा कठिन या सरल नहीं होती, वरन वह परिचित या अपरिचित होती है, अत: हमें विश्वास है कि हिंदी भाषाभाषियों को परिनियम की बारीकियां ह्रदयंगम करने में अंतत: कठिनाई नहीं होगी।
दिनांक 25 मई 2015
राकेश नारायण द्विवेदी
पुनीत बिसारिया
जयशंकर तिवारी
दुर्गेश कुमार सिंह

पदमयी हिंदी में श्रीमद्भगवद्गीता


❖  
ऊँ
कृष्णम् वंदे जगद्गुरुम्
पदमयी हिंदी
में
श्रीमद्भगवद्गीता
जुगुल किशोर तिवारी
पुलिस अधीक्षक, पुलिस मुख्यालय
इलाहाबाद
 ISBN 978-81-908912-9-5
© Author





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Lalitpur. Mob. 9838303690
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Shrimad Bhagwad Gita in Hindi Poetry
(Padmayi Hindi Men Shrimad Bhagwad Gita)
By Jugul Kishore Tewari

यत्र योगेश्वरः कृष्णो......
प्रस्तुत ग्रंथ में हिंदी पदों में अनुवाद करके गीता की सरस और मानव जीवन की पाथेय वाणी को अत्यंत सरल शब्दों में अभिव्यक्त किया गया है। यह ग्रंथ उत्तर प्रदेश में कार्यरत नैष्ठिक कर्मयोगी पुलिस अधिकारी श्री जुगुल किशोर तिवारी ने प्रणीत किया है। रचनाकार मेरे लिए प्रातर्स्मरणीय और पूज्यपाद हैं, जिससे श्रद्धापूर्वक उनका उपनाम लेने में भी मुझे संकोच होता है, किंतु लेखकीय निर्वाह भी तो करना है, अस्तु! आपकी कर्तव्यपरायणता, सामान्य व विशिष्ट सभी जन के प्रति समभाव दृष्टि, वंचित और असहाय के प्रति संवेदना, सद्व्यवहार, समस्त प्रकारी सहयोग और सहकार एवं साधुप्रवृत्ति जनमानस में चर्चा का विषय है। साहित्यिक प्रतिभा के धनी तिवारीजी आध्यात्मिक साधना संपन्न एवं तत्वबोधी हैं। गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञता और लोकसंग्रह के भाव कैसे आपके स्वभाव में सहजता से अनुस्यूत हो गए कि सामान्यजन को अचरज ही होता है। इसीलिए आप पर भगवान भूतभावन की कृपा कहकर संत-मनीषी सुखानुभूति करते हैं। मेरे ऊपर तो ‘भैया’ की प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दोनों तरह की कृपा बनी हुई है। प्रत्यक्ष इसलिए कि आज मुझमें यदि किंचिन्मात्र परिष्कार है तो वह पूज्यश्री के दिए मार्गदर्शन के कारण ही है। निरे देहाती परिवेश से ले जाकर उन्होंने अपने साथ मुझे इलाहाबाद रखा और भोजन, वस्त्र, आवास और पुस्तकों सहित पढ़ने लिखने में अपेक्षित सारी आवश्यकताएं पूरी कीं, अन्यथा मेरे लिए प्रयाग का संस्कार और विश्वविद्यालय की शिक्षा प्राप्त करनी असंभव होती और तब दिल्ली में जुटाई जीवटता और आजीविका प्राप्त नहीं हो पाती। ऐसे अनेक अध्यवसायियों के वे उस तरह संबल बने जैसे उनके परिवार वाले भी बहुधा नहीं हुआ करते हैं। वाङमय में जैसा कहा गया है प्राकृत (असंस्कारी) जन के गुणगान करने से विद्या की देवी मां सरस्वती सिरधुन कर पछताने लगती हैं, पर ‘भैया’ जैसे सुकृती और पुण्यात्म के विषय में कहने के लिए तो मेरे पास उपयुक्त शब्द भी नहीं है, मां सरस्वती अब भी पछताती होंगी कि भला इसे यह करना क्यों न आ पाया!
​गीता की इस अमर वाणी को जनभाषा में निबद्ध करके सामान्यजन का भारी उपकार हुआ है। पुस्तक के बारे में जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी श्रीवासुदेवानंद सरस्वतीजी ने लिखा है- ‘‘भगवान व्यासजी ने गीता को संस्कृत के कई छंदों में लिखा है, परंतु तिवारीजी ने एक ही दोहा छंद का आश्रय लिया है और इसे गेय पद्धति से संगीत में बांधकर इसकी गेयता सिद्ध कर दी है।’’ उल्लेखनीय है कि इस पदमयी गीता को आडियो-वीडियो रूप में भी जनसुलभ कराया जा चुका है। रचनाकार के गुरुदेव श्री बाबूलाल द्विवेदी ने कहा है- ‘‘यह दुष्कर कार्य रचनाकार के गीता के पठन, श्रवण, अध्ययन, मनन, अवगाहन के गहनतापूर्वक लेखन का सुपरिणाम है। कृति में अनुभवरस की भावना का संपुटन, दर्शन सुखद आश्चर्यकारी है, जिसके स्पर्श मात्र से परमानंद मूर्तरूप में प्रकट हो जाए।’’ संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी के राष्ट्रपति पुरस्कृत अभिनव पाणिनि काशी विद्वत्परिषद् के अध्यक्ष प्रो0 रामयत्न शुक्ल के अभिमत से तिवारीजी की इस पदमयी हिंदी टीका ‘‘के अध्ययन से गीता का रहस्य समझा जा सकता है। गीता रहस्य को समझने के लिए अतिरिक्त प्रयास नहीं करना पड़ेगा।’’
​यह गीता काशी में रहकर रची गई है। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के वैदिक दर्शन विभागाध्यक्ष विंध्येश्वरी प्रसाद मिश्र ‘विनय’ इसकी प्रासंगिकता के प्रश्न को ध्यान में रखकर कहते हैं- ‘‘जैसे ‘रामायन सतकोटि अपारा’ होने पर भी गोस्वामी तुलसीदासजी ने ‘स्वांतः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा’ श्रीरामचरितमानस को भाषा निबंध बनाकर सृजित किया और फिर वह ग्राम्य गिरा में निबद्ध होने पर भगवान विश्वनाथ और परमेश्वरी भवानी की कृपा से ‘सुजानों’ के ‘गान’ और ‘श्रवण’ का विषय बन गई, वैसे ही अपने संतोष के लिए भाषाबद्ध की गई यह गीता कवि किशोर का अभीप्सित तो सिद्ध करेगी ही; गीता प्रेमी अन्य जनों की भावित-अनुभावित करेगी- ऐसा हमारा विश्वास है।’’
​इस कार्य को ‘आत्मतोषिणी गीता’ नाम से अब तक दो बड़े संस्करणों में पुस्तक, आडियो-वीडियो सीडी तथा गुटखा आदि रूपों में लाया जा चुका है, किंतु ध्यातव्य है कि यह प्रकाशन लेखक के लिए धन जुटाने का माध्यम नहीं है, परिमार्जित करते हुए ‘ई-बुक’ रूप में अब इसे जनसामान्य के सम्मुख निःशुल्क उपलब्ध कराया जा रहा है, जिसे ेबतपइकण्बवउए चवजीपण्बवउए हववहसमइववोण्बवउ इत्यादि अनेक सेवाप्रदाताओं के यहां से डाउनलोड किया जा सकता है।
वट सावित्री, संवत् 2072​​​​डॉ राकेश नारायण द्विवेदी
तदनुसार दिनांक 20 मई, 2015​​​वरिष्ठ सहायक प्रोफेसर, हिंदी
​​​​​​      मोबाइल 9236114604
प्रथम अध्याय
धृतराष्ट्र ने कहा-
1. धर्म भूमि कुरुक्षेत्र मे, लिये युद्ध की चाह।
    ​पाण्डुसुतन मम पुत्रगण, कृत्य कियो है काह।।
स्ंाजय उवाच-
2. देख पाण्डवन सैन्य की, रचना व्यूहाकार।
द्रोण गुरू के पास जा, दुर्योधन कहा पुकार।।
3. देखें गुरुवर वाहिनी, धृष्टद्युम्न की चाल।
शिष्यपुत्र है आपका, पाण्डुसुतन का श्याल।।
4. भीम और अर्जुन सदृश, सूरवीर बलवान।
महारथी हैं सात्यिकी, द्रुपद, विराट महान।।
5. धृष्टकेतु चेकितान अरु, पुरुजित काशीराज।
कुन्तिभोज अरु शैव्य हैं, शत्रु पक्ष में आज।।
6. युधामन्यु पराक्रमी, उत्तमौज बलवान।
अभिमन्यू पांचालिसुत, पंच बली धृतिमान।।
7. निज पक्ष के प्रमुख जो, सुनिये विप्र महान।
आप रहें अवगत सदा, सेनापति इधर प्रधान।।
8. गुरुवर आप पितामह, अश्वत्थामा कर्ण।
कृपाचार्य, भूरिश्रवा और किशोर विकर्ण।।
9. अन्य बहुत से शूरजन, तज जीवन की आश।
मेरे हित सब शस्त्र ले, डटे चतुर रण रास।।
10. भीष्म पितामह रक्षित, अजय सैन्य है मोर।
वहां भीम की चौकसी, जीतेंगे कर जोर।।
11. रहें सुरक्षित पितामह, सैन्य रहे सब ओर।
सुदृढ़ मोर्चे युद्ध के, संशय रहित किशोर।।
12. शंख बजा तब भीष्म ने, किया हर्ष उत्पन्न।
दुर्योधन गद्-गद् हुआ, दहाड़ सिंह सी सुन।।
13. बजे नगारे शंख तब, ढोलक और मृदंग ।
नरसिंघे का नाद सुन, हुआ क्षेत्र सब दंग।।
14. श्वेत अश्वयुत रथ चला, आ पहुंचे गोपेश।
शंख अलौकिक वाद्य का, कीन्हा श्री गणेश।।
15. पांचजन्य श्री कृष्ण का, देवदत्त कौन्तेय।
पौण्ड्र शंख है भीम का, महाकर्म उपमेय।।
16. अनन्त विजय ले धर्म ने, किया तभी उद्घोष।
मणिपुष्पक सहदेव का, नकुल किशोर सुघोष।।
17. शंख-ध्वनि सब ओर से, काशी केर नरेश।
   ​धृष्टद्युम्न शिखण्डि भी, अब क्यों रहते शेष।।
18. नृप विराट औ सात्यिकी, राजा द्रुपद समेत।
अभिमन्यू पांचालिसुत, किया तुमुल रण हेत।।
19. हुआ घोष का शोर जो, दहला धरा अकाश।
धृतराष्ट्र के सुतन के, ह्रदय पड़ा आघात।।
20. देख मोर्चाबद्ध सब, कौरव के सरताज।
कपिध्वज अर्जुन ने कहा, सुनो कृष्ण महाराज।।
अर्जुन उवाच-
21. कृपया रथ स्थित करें, दोनों सैन्य मझार।
धार्तराष्ट्र उद्यत हुये,उठा धनुष का भार।।
22. रखिये स्थिर रथ प्रभू, युद्व क्षेत्र मे आप।
देखूं मै अति ध्यान से, किनसे होय प्रलाप।।
23. दुर्योधन के हित डटे, जो राजा हैं आय।
देखूंगा मै उन्हें अब, सेना के ढिंग जाय।।
संजय उवाच-
24. संजय बोले नृपति से, नाथ सुनो धर ध्यान।
कृष्ण चन्द्र ने रथ तुरत,  रखा मध्य मैदान।।
25. भीष्म द्रोण के सम्मुख, उत्तम रथ ले कृष्ण।
अर्जुन से कहने लगे, देख पृथा के पुत्र।।
26. कुन्ती सुत अर्जुन चकित, देख अपन परिवार।
मातृपक्ष गुरु भ्रातृजन, रिश्ते विविध प्रकार।।
27. दादा परदादा सुजन, पौत्र मित्र सुत ताऊ।
चाचा सुह्रद ससुर सब, नहीं शेष है कोऊ।।
28. स्वजन आपने देखकर, सके न मन को रोक।
करुणा से भर पृथासुत, बोले बचन सशोक।।
अर्जुन उवाच-
29. अर्जुन बोले कृष्ण से, देख स्वजन परिवार।
अंग शिथिल सूखा बदन, रोमांचित बहुबार।।
30. सरक रहा गांडीव भी, त्वचा जले अति जोर।
नहीं खड़ा तन हो सके, भ्रमित हुआ मन मोर।।
31. हे केशव लक्षण सभी, देखूं सब विपरीत।
नहीं दीखता हित मुझे, मारुंगा यदि मीत।।
32. नहीं विजय की कामना, नहीं राज्य की चाह।
भोगें सुख कैसे प्रभू, जहां स्वजन की आह।।
33. जिनके हित है कामना, राज्य भोग की मित्र।
वही त्याग जीवन यहां, सन्मुख बात विचित्र।।
34. ताऊ, चाचे, पुत्रगण, देखियत गुरुजन वृन्द।
दादे, मामे, ससुरजन, साले, पौत्र स्वछन्द।।
35. नहीं मारना चाहता, लें भले मार ये आज।
पृथ्वी की तो बात क्या, तीन लोक के राज।।
36. नहीं खुशी होगी हमे, कौरव जन को मार।
इन दुष्टों को मार कर, होगा पाप प्रहार।।
37. नहीं उचित मधुसूदन, अपने जन की हान।
निज कुटुम्ब के मरण मे,क्या सुख, कैसी शान।।
38. लोभ भ्रष्ट ये स्वजन हैं, नहीं दीखता नाश।
मित्र द्रोह की राह मे, पाप पुंज का वास।।
39. स्वयं विचारें हम यहां,जान दोष परिणाम।
जागरूक होकर अहो, करें पाप के काम।।
40. नष्ट होय कुल धर्म जो, होवे कुल का नाश।
धर्म सनातन भी मिटे, होय पाप का वास।।
41. पाप बढे़ से कृश्ण जी, होंय नारियां भ्रष्ट।
भ्रष्टन की सन्तान से, संतति संकर दुष्ट।।
42. कुल ले जाते नरक मे, संकर वरन की जाति।
पिण्डोदक, तर्पण रहित पितर सदा बिलखात।।
43. दोष वर्णसंकर लगे, होत कुलन की घात।
कुल धर्मन की घात से, नष्ट होत है जात।।
44. सुनते आये जो करें, कुल धर्मों का नाश।
करें अनिश्चित काल तक,वे नरकों में वास।।
45. बुद्विमान होते हुये, स्वजन हनन तैयार।
राजलोभ सुखभोग हित, पाप कर्म धिक्कार।।
 ​46.   होगा मम कल्याण ही, डालें कुरुजन मार।
   ​अप्रतिकार निःशस्त्र को, समरांगण के द्वार।।
संजय उवाच-
46. किशोर कहे यों बोलकर, हुआ धनंजय मौन।
   ​​धनुष बांण रख स्यंदन, शोक मगन हो जौन।।
’’बुद्वि सारथी अरु रथी, आत्मा हैं दो नाम।
सकल सृष्टि कुरुक्षेत्र है, युद्व क्षेत्र निष्काम।।
गीता प्रथमोध्याय में,यह विषाद का योग।
 ​अपने सुखहित लिख गया,कैसा सुखद संजोग।1।‘‘
       ​​
       
दूसरा अध्याय
संजय उवाच -
1. शोकमग्न अर्जुन लख्यो, बहत नयन जलधार।
मधुसूदन कहने लगे, मत त्यागो हथियार।।
श्रीभगवान उवाच -
2. मोह हुआ किस हेतु से, अर्जुन असमय आय।
स्वर्ग कीर्ति का शत्रु जो, कृष्ण कहा समझाय।।
3. नहीं उचित नरहीनता, तुमको सुन प्रिय पार्थ।
उठो युद्व हित वीर तुम, हृदय दुर्बलता त्याग।।
अर्जुन उवाच -
4. पूजनीय है पितामह, वंदनीय गुरु द्रोण।
कैसे मारुं बांण मैं, समरांगण कर होण।।
5. मांग भीख खांऊ यदि, लोक मध्य श्रुतिसेतु।
तब भी नहिं मारुं इन्हें,अर्थ काम के हेतु।।
6. इन्हें मारकर किस तरह, भोग सकूं मै भोग। 
जुगल श्रेष्ठ जन के वधे, नहीं बनेगा लोेक।।
युद्ध करुं या न करुं,विजय होय या हार।
कर प्रहार कैसे जिऊं,अपने गुरुजन मार।।
7. कायरतावश मूढ़चित, शिश्य शरण नत जान।
करना क्या?मुझको उचित, शिक्षा दें भगवान।।
8. निष्कंटक पृथ्वी मिले, स्वर्ग राज्य मिल जाय।
देवराज का पद मिले, कैसे शोक नशाय।।
संजय उवाच -
9. ह्रषीकेश नहिं लड़ूंगा, कहकर इतनी बात।
निद्राजित चुप हो गये,सुनो परन्तप तात।।
10. हंसकर के श्रीकृष्ण ने, कहे पार्थ से बैन।
  ​   शोकमग्न जो हो रहा,आज मध्य दोउ सैन।।
श्री भगवान उवाच -
11. ​कृष्ण कहत भे पार्थ से,नहीं शोक करणीय।
   ​जीवित हैं जो जगत में अथवा जो मरणीय।।
12. ​नहीं समय ऐसा कभी, जहं न होयं हम आप।
    अथवा ये राजा नहीं, आंगे यही प्रताप।।
13.​जैसे आये बालपन, युवा अवस्था वीर।
   ​मृत्यु,बुढ़ापा पायकर, ब्यथित न होते धीर।।
14.​हे भारत तू सहन कर, सुख-दुःख का जंजाल।
    ​सर्दी, गर्मी चक्रवत, इन्द्रिय विषय विशाल।।
15.​मोक्ष योग्य वह नर सुनो,सुख,दुःख जिसे समान।
    ​इन्द्रिय विषय न सालते, सुनो धीर धर ध्यान।।
16.​सत शाश्वत है सर्वदा, असत् कभी भी नाह।
    ​तत्व जानते विज्ञजन, इन दोनांे के माह।।
17.​जिससे सब जग व्याप्त है, नाश रहित है जान।
    उस अविनाशी तत्व को, मार सके न आन।।
18.​तनु नश्वर पर आत्मा, अविनाशी यह जान।
  ​उठकर भारत युद्धकर, रखकर इसका ध्यान।।
19. ​मरी जो समझे आत्मा अथवा मारन योग्य।
  ​दोनों कुछ नहीं जानते,मर न मार सक कोय।।
20. ​न जन्मे न मरण हो, किसी काल में आय।
   ​नित्य अजन्मा शाश्वत, भले देह मर जाय।।
21.​कौन किसे है मारता, कौन किसे मरवाय।
  ​अविनाशी अव्यय सदा, नित्य अजन्मा आय।।
22.​नर पहने नव वस्त्र को,फटा पुराना त्याग।
   ​वैसे ही जीवात्मा,नये शरीरहिं लाग।।
23.​शस्त्रों से नहिं कट सके, आग न सके जलाय।
  ​जल न गीला कर सके, हवा न सके सुखाय।।
24. ​जले, गले, सूखे नहीं, है अछेद्य अरु नित्य।
  ​सर्व व्याप्त, सनातन, अविचल, स्थिर सत्य।।
25. ​है अव्यक्त, अचिन्त्य अरु आत्मा रहित विकार।
   ​भलीभांति यह जानकर, अपना शोक निवार।।
26.​यदि तू माने आत्मा, सदा जनम मरणीय।
   ​महाबाहु तब भी सुनो, नहीं शोक करणीय।।
27. ​जनम हुये की मौत है, मरे हुये का जन्म।
  ​नहीं उपाय कुछ और है, फिर क्यों शोक निमग्न।।
28. ​जीव जन्म से पूर्व थे, प्रकट मृत्यु के बाद।
  ​मध्य काल मे प्रकट है, तजो ब्यर्थ अवसाद।।
29.​ आत्मा को आश्चर्यवत्, लखते कहते विज्ञ।
  ​ अधिकारी सुन जानते, क्या जानें अनभिज्ञ।।
30.​ सभी देह मे आत्मा, वध्य नहीं यह जान।
  ​ नहीं उचित है शोक सो, हे भारत मतिमान।।
31. ​ धर्म आपनो देखकर, योग्य नहीं भय पार्थ।
 ​ धर्म युद्ध से नहिं बड़ा, क्षत्रिय को परमार्थ।।
32.​ स्वतः प्राप्त यह स्वर्ग का, द्धार युद्ध के रूप।
   ​ भाग्यवान को ही मिले, अनुपम मार्ग अनूप।।
33.​ नहीं करे जो धर्म रण, सुन अर्जुन धर ध्यान।
  ​ कीर्ति, स्वधर्म नशाय पुनि, होवे पाप महान।।
34.​ क्षात्र धर्म छोंड़ा अगर, कीर्ति न रहे जहान।
  ​ माननीय नर के लिये, अपयश मरण समान।।
35.​ सम्मानित तू था बहुत, जिनके लिये सुभाग।
  ​ वही भयातुर जान तुहिं,रण से जनिहैं भाग।।
36. ​ निन्दा करें समर्थ की,जो वैरी जग कोय।
 ​ दुःख न एहि सम आन कछु, जो काहू का होय।।
37. ​ यदी मरा तू युद्ध मे, स्वर्ग मिलेगा जान।
  ​ जीते तो भूपति बने, उठकर युद्ध प्रयान।।
38. ​ सुखदुःख को सम मानकर, लाभ हानि जय हार।
  ​ नहीं पाप हो युद्ध मे, कह किशोर सत् बार।।
39. ​ कहा गया यह मर्म सब, ज्ञान योग के लाग।
  ​ कर्म योग का मर्म अब, सुनो पार्थ भय त्याग।।
40. ​ नहीं नाश हो बीज का,फल का दोषहु नाह।
   ​ मृत्यु रूप भय से बचे, कर्म धर्म मग मांह।।
41. ​ एक बुद्वि ही कर्म की, निश्चय कारक जान।
  ​ बहुभेदी मति होत है, अस्थिर मति अज्ञान।।
42. ​ कर्म फलन के लालची, वेद वाक्य मे प्रीत।
   ​ शोभायुत वाणी कहें, अविवेकी जन मीत।।
43. ​ कर्म भोग फल के लिये, देत कर्म फल जन्म।
  ​ बहुविध क्रिया बखानती, उनकी वांणी मर्म।।
44. ​ हरण चित्त जिनका किया, ऐसी वाणी जान।
 ​ निश्चित मति प्रभु पर नहीं, यश लोलुप इन्सान।।
45.​ तीन गुणों से वेद युत, त्रिगुण रहित तुम पार्थ।
  ​ हर्षशोक से रहित मन, योग क्षेम का स्वार्थ।।
46.​ ब्रह्म तत्व जो जानते, वेदन के प्रति भाव।
 ​ भरे जलाशय पाय ज्यों, क्या कर छुद्र तलाव।।
47. ​ कर्मन मे अधिकार तव, फल मे कभी न पार्थं।
  ​ फल की इच्छा मत करो,निरासक्त तज स्वार्थ।।
48.​ निरासक्त रह वीर तुम, सिद्वि असिद्वि समान।
   ​ करने योग्य सुकर्म कर, योग भाव सम जान।।
49.​ सम बुद्वि के दृष्टिगत, सकाम कर्म अति न्यून।
  ​ शरण बुद्वि की पार्थ गह, फल हित बन क्यों दीन।।
50.​ मुक्त होय समबुद्वि नर, पाप पुण्य को त्याग।
   ​ यही कुशलता कर्म की, बन्ध मोक्ष का मार्ग।।
51.​ समबुद्धी से युक्त नर,कर्म फलों को छोड़।
  ​ जन्म बन्ध से मुक्त हो, पावे पद बेजोड़।।
52. ​ अर्जुन तेरी बुद्धि जब, महामोह कर पार।
  ​ लोक अलौकिक भोग सब, हो जावें बेकार।।
53. ​ भांॅति-भांति के बचन सुन, हुयी मती तव चंग।
  ​ अविचल योग समाधि गह, विहर ब्रह्म के संग।।
अर्जुन उवाच -
54. ​ केशव स्थिर बुद्धि का, लक्षण करें प्रकाश।
  ​ बोले, बैठे, चले किम, कैसे होेय अभास।।
श्री भगवानुवाच-
55. ​ मनोकामना त्याग नर, स्थिर पूर्ण प्रकार।
   ​ सच्चा स्थित प्रज्ञ वह, आत्म तुष्ट संसार।।
56. ​दुःख में ना उद्विग्न हो,सुख से न हो राग।
  ​नष्ट,राग अरु क्रोध, भय, स्थिर बुद्धि सुभाग।।
57.​वस्तु शुभाशुभ प्राप्त कर, नहिं प्रसन्न नहिं खिन्न।
   ​स्थिर बुद्धि सुभाग वह, राग द्वेष से भिन्न।।
58.​जैसे कछुआ अंग निज, लेत समेट छिपाय।
   ​वैसे स्थिर मति रहे, इन्द्रिय विषय विहाय।।
59.​विषयों से भी दूर रह, नहिं आसक्ति मिटाय।
  ​स्थिर मति प्रभु मिलन से, राग मुक्त हो जाय।।
60. ​हे अर्जुन आसक्ति यदि, रह जाये कुछ शेष।
   ​बुद्धि हरण कर इन्द्रियां, मन को देतीं क्लेश।।
61.​उन सब को निजवश करो, रखो चित्त मोहि पाह।
    इन्द्रियवश मे होय तो, स्थिर मति हो जाय।।
62. ​विषयों के चिन्तन करे, काम बढे़ मन बीच।
  ​विघ्न काम मे देखकर, उपज क्रोध अति नीच।।
63.​क्रोध मूढ़ता जब बढे़, स्मृति भ्रम हो जाय।
   ​स्मृति भ्रम से बुद्धि हत, तेहिते सर्व नशाय।।
64. ​निज बस करके इन्द्रियां, भोग करे इन्सान।
  ​रागद्वेष से दूर रह, हो प्रसन्न जिय जान।।
65. ​निर्मल और प्रसन्न मन, करे दुःखों का नाश।
  ​स्थिर होती मति तुरत, मुक्त होत सब पाश।।
66.​इन्द्रिय, मन जीते बिना, शुद्ध न बनते भाव।
   ​फिर कैसे बिन भाव के, शान्ति और सुख पाव।।
67. ​जैसे जल बिच नाव को, हरण करे ज्यों वात।
  ​तैसे मन को इन्द्रियां, बुद्वि सहित हर जात।।
68. ​निज बस जिसकी इन्द्रियां, रहें सुनो कौन्तेय।
  ​स्थिर मति उसकी रहे, कह किशोर अज्ञेय।।
69. ​सोते जिसमे सकल नर, करे जागरण धीर।
  ​जाग्रत रहता संयमी, स्थितप्रज्ञ गंभीर।।
70.​सागर में जिस तरह नद, समा जात बिन चाल।
  ​वैसे स्थिर मति रहे, भोग शान्ति सब काल।।
71. ​छोंड़ सभी नर कामना, अहंकार कर त्याग।
 ​शान्ति प्राप्त करते वही, जुगुल सहित अनुराग।।
72. ​ब्रह्म मिलन के गुण यही, सुनो पार्थ धर ध्यान।
   ​अन्तकाल योगी लहें,पावन गति निर्वाण।।
​‘‘ इस द्वितीय अध्याय में, सांख्ययोग शुभ धाम। 
 ​ पार्थ सहित श्री कृष्ण जय, करत किशोर प्रणाम’’।।2।।
तृतीय अध्याय
अर्जुन उवाच -
1. ज्ञान श्रेष्ठ यदि कर्म सेे, केशव कहते आज।
करें भयंकर कर्म क्यों,समझ न आये राज।।
2. ​मिश्रित वचनों से प्रभो, बुद्धि मोह गतिरोध।
  ​जिसमे मम कल्याण हो, कहें एक मत सोध।।
श्री भगवान उवाच-
3. ​पहले ही निष्पाप सुन, मार्ग कहे मैं दोय।
 ​एक कर्म अरु ज्ञान दो, जानत है सब कोय।।
4. ​नहीं मिले निष्कामता, कर्म किये बिन पार्थ।
 ​अथवा केवल त्याग से, मिले न ज्ञान यथार्थ।।
5. ​नहीं एक क्षण रुक सके, नर बिन कर्म किशोर।
  ​होके वश निज प्रकृति के, करे कर्म बरजोर।।
6. ​हठ कर रोके इन्द्रियां, विषय सोच मनमाह।
​मूढ़मती, मिथ्या पुरुष, कहलाते नरनाह।। 
7. ​मन से वश कर इन्द्रियां,अनासक्त कर कर्म।
 ​श्रेष्ठ वही नर है सुनो, कह किशोर यह मर्म।।
8. ​अकर्मण्य से श्रेष्ठ है,शास्त्र नियत कर कर्म।
 ​नहिं निर्वाह शरीर का, बिना कर्म यह मर्म।।
9. ​यज्ञ कर्म शुभ होत हैं, शेष बन्ध के हेतु।
  ​निरासक्त हो कर्म कर, हे अर्जुन नरकेतु।।
10.​आदि कल्प में प्रजापति, रचे प्रजा अरु याग।
  ​वृद्धि प्राप्त हो यज्ञ से, तेहि फल इच्छित लाभ।।
11. ​करो पुष्ट सब देव को, यज्ञ भाग से आप।
  ​उन्नति देंगे वे तुरत, बिना स्वार्थ निष्पाप।।
12.​यज्ञ पुष्ट हो देवगण, इष्ट भोग सब देय।
  ​खाते बिन उनके दिये, चोर सुनो कौन्तेय।।
13. ​यज्ञ शेष भोजन किये,  पाप मुक्त नर श्रेष्ठ।
  ​निज शरीर हित अन्न को, खाते पाप निकृष्ट।।
14. ​प्रांणी उपजे अन्न से, अन्न वृष्टि से मित्र।
  ​वृष्टि यज्ञ से होत है, सो यज्ञ कर्म है इष्ट।।
15. ​कर्म की उत्पति वेद से, वेद की ईश्वर माह।
  ​ब्रह्म सर्व व्यापत रमत, यज्ञ माहिं पहचान।।
16.​ सृष्टि चक्र यों जान के, नहीं आचरहिं जोय।
  ​ ऐसे भोगी पापमय, व्यर्थहिं पैदा होय।।
17.​ रमण करे निज आत्म में, तृप्त रहे मन माह।
  ​ कह किश् ाोर उनके लिये,नही कर्म कोई आह।।
18.​ नहीं प्रयोजन है उसे, अकर्म, कर्म के साथ।  
   ​ सकल जीव का साथ भी, उसका है निःस्वार्थ।।
19. ​ करने लायक कर्म कर, छोंड़ स्वार्थ का हेतु।
   ​ वे पाते परमात्मा, निरासक्त नरकेतु।।
20. ​ निरासक्त निजकर्म कर, भए सिद्ध जनकादि।
  ​ देख लोकसंग्रह करो, त्यागो हृदय विषाद।।
21. ​ श्रेष्ठ पुरुष का आचरण, बनता है आदर्श।
  ​ करें अनुकरण सब वही, होता लोक विमर्श।।
22. ​ तीन लोक में पार्थ सुन, मुझे न कुछ कर्तव्य।
  ​ फिर भी करता कर्म मैं, बिना चाह प्राप्तव्य।।
23. ​ उचित कर्म यदि न करूं, हानि बड़ी कौन्तेय।
   ​ मेरे मग पर ही चलें, मानव लखि सब कोय।।
24. ​ यदि कर्म मैं न करूं, नष्ट,भ्रष्ट हों लोग।
   ​ संकरता पैदा करुं, ध्वंस प्रजा संजोग।।
25.​ अज्ञानी आसक्त हो, कर्म करे ज्यों पार्थ।
 ​ निरासक्त विद्वान त्यों, करता लोक हितार्थ।।
26.​ ज्ञानी नर न हो कभी, क्रियाहीन अज्ञान।
  ​ सबहि कर्म मे रत रखे, यह ही शास्त्र विधान।।
27.​ कर्म सभी हों प्रकृतिवश, जाने गुणी सुजान।
 ​ मैं कर्ता हूं मोहवश, कहे सो मूढ़ महान।।
28.    भाग समझ गुण कर्म के, नर तत्वज्ञ सुजान।
  ​ गुण ही गुण मे कार्यरत,  निरासक्त मतिमान।।
29. ​ प्रकृति गुणों से मूढ़ नर, लिप्त रहे गुण कर्म।
  ​ नहिं विचलित वे होत हैं, जो जाने यह मर्म।।  
30. ​ मुझमे अपर्ण कर्म कर, आशा-ममता त्याग।
  ​ तज मन चिंता युद्ध कर, मुझमें चित्त सुलाग।।
31.​ दोषदृष्टि से रहित नर, श्रद्धा्र-युत मत मोर।
  ​ करें अनुसरण कर्म के, बंध न पड़ें किशोर।।
32. ​मुझे दोष दें नहिं चलें, मेरे मत अनुसार।
  ​ सभी ज्ञान से हीन वे, नष्ट हांेय बहुबार।।
33. ​ सभी करत हैं कर्म को,निज स्वभाव वश पार्थ।
 ​ ज्ञानी भी करते यही, फिर क्या हठ या स्वार्थ।।
34.​ हर इन्द्रिय के मध्य में, राग-द्वेष का वास।
 ​ ये ही निज कल्याण का, करते जुगुल विनाश।।
35. ​ भयदायी पर धर्म है, उत्तम कर्म स्वधर्म।
   ​ मरण श्रेष्ठ निज धर्म में, यह स्वधर्म का मर्म।।
अर्जुन उवाच -
36. ​ किसकी पाकर प्रेरणा, नर करता है पाप।
 ​ नहीं चाहते हुये भी, परवश हो या आप।।
श्री भगवान उवाच -
37.​ रज गुण से उत्पन्न जो, काम क्रोध की खान।
  ​ भोगी, पेटू, पापमय, यह ही रिपु बलवान।।
38.​ धूम्र ढके जिमि अग्नि को, दर्पण मैल तमाम।
   ​ जेर ढंके ज्यों गर्भ को, त्यों विवेक को काम।।
39. ​ भस्म करे सब वस्तुएं, फिर भी अग्नि अतृप्त।
     ज्ञानी जन का शत्रु तस, काम न होता तृप्त।।
40. ​ इन्द्रिय, मन अरु बुद्धि मे, करता है यह वास।
  ​ इनसे ही नर मोह कर, करे ज्ञान का नाश।।
41. ​ वश में करके इंद्रियां, कामहिं डालो मार।
   ​ हन्ता ज्ञान विगान का, कर आपन उद्धार।।
42. ​ तन से इन्द्रिय श्रेष्ठ क्रम, मन से बुद्धी श्रेष्ठ।
   ​ आत्म सूक्ष्म अरु श्रेष्ठतम, बुद्धी से परमेष्ट।।
43. ​ आत्म-तत्व गह बुद्धि से, मन के जीत विकार।
  ​ कामरूप इस शत्रु को, महाबाहु दे मार।।
  ​ ‘‘तन में कामायुध नही, मन मति इन्द्रियातीत।
  ​  व्श में रख निज कार्य कर, जुगुल जगत को जीत।
   ​  दृष्टा बनकर ही लखे, प्रकृति जन्य सब दृश्य।
   ​  कर्मयोग की युक्ति से, बने रहो अस्पृश्य।3।‘‘
अध्याय-4
श्री भगवान उवाच -
1. ​यह अविनाशी योग मै, कहा सूर्य सन जाय।
  ​सूर्य पुत्र मनु से कहा, मनु इक्ष्वाकु बुझाय।।
2. ​राज ऋषी जाने इसे, परम्परा से पाय।
 ​लुप्त हुआ बहुकाल महि, पुरायोग जो आय।।
3.​वही पुरातन योग मै, तुम से कहा सुनाय।
​गुप्त और उत्तम रहस, मित्र कहा समुझाय।। 
अर्जुन उवाच -
4. ​जन्म आपका नव प्रभू, सूर्य पुरातन आय।
  ​कैसे मानूं तुम कहा, आदि कल्प मे जाय।।
श्री भगवान उवाच -
5. ​बहुत जन्म बीते सुनो, मेरे तेरे मित्र।
   ​मैं जानूं न तुम उन्हें, समझो बात विचित्र।।
6. ​अव्यय अजन्मा भूतपति, सबका मै भगवान।
  ​वश करके निज प्रकृति को, प्रकट होत मै जान।।
7. ​होत धर्म की हानि जब, बढे़ अधर्म जहान।
  ​तब तब मैं होऊं प्रकट, भारत सुन धर ध्यान।।
8. ​साधु पुरुष उद्धार हित, दुर्जन नाशन हेतु।
 ​धर्म थापना के लिये, प्रकट होउं नरकेतु।।  
9. ​जन्म कर्म मम दिव्य हैं, जो यह जान सुजान।
  ​देेह त्याग पाते मुझे, वह तत्वज्ञ महान।।
10. ​वीत राग, भय, क्रोध अरु मुझमें भाव अनन्य।
   ​ज्ञान रुप तप से हुये, वे पवित्र नर धन्य।।
11.​भजते जो जिस भाव से, मुझे पार्थ मम भक्त।
  ​मैं भी वैसे ही भजूं, जो मुझमें अनुरक्त।।
12.​देवों की पूजा करें, रखे कर्मफल चाह।
   ​सिद्धी मिलती है तुरत, सो उनको नरनाह।।
13. ​चार वर्ण मैंने रचे, गुण कर्म रख ध्यान।
   ​कर्ता भी हूं सृष्टि का, किंतु अकर्ता जान।।
14. ​नहीं चाह फल की मुझे, सो लिप्त करें न कर्म।
  ​कर्म बन्ध में नहिं बंधें, जो यह जानें मर्म।।
15. ​मोक्ष हेतु पहले सुनो, करे पूर्वज कर्म।
  ​वही करो जो सब किया, यह ही तेरा धर्म।।
16.​अकर्म कर्म के भेद में, बुद्विमान नर मोह।
  ​होेय मुक्त तू अशुभ से, सो समझाऊं तोह।।
17.​कर्म, अकर्म, विकर्म को भलीभांति लो जान।
  ​होत कर्म की गहन गति, जुगुल लेहु पहिचान।।
18.​जो देखे कर्म अकर्म में, अकर्म कर्म के मध्य।
   ​बुद्धिमान योगी पुरुष, सकल कर्म का विज्ञ।।
19. ​रहित काम संकल्प नर, कर्म करे श्रुतिमान।
  ​होंय भस्म ज्ञानाग्नि में, सो पण्डित, बुध जान।।
20. ​त्याग कर्म फल कामना, जग आश्रय से दूर।
  ​करत कर्म नहिं कुछ करे, आत्मरमण रस पूर।।
21. ​जिसका मन अरु आत्मा, त्याग आश अरु भोग।
  ​केवल कर्म शरीर से, नहीं पाप फल योग।।
22.​स्वतः प्राप्त संतुष्ट जो, द्वेष ईर्ष्या त्याग।
  ​दूर द्वन्द्व समभाव नर, कर्म बन्ध नहिं लाग।।
23. ​तजे अहम् ममता जुगुल,चित्त प्रभू में लीन।
  ​यज्ञ हेतु रत कर्म जो, उसके कर्म विलीन।।
24. ​अर्पण हवि सब ब्रह्म है, कर्ता अगिन भी ब्रह्म।
  ​कर्ता होता ब्रह्म है, योगी फल परब्रह्म।।
25.   सुर पूजा हित योगिजन, याज्ञिक करें विधान।
     कुछ करते ब्रह्माग्नि लखि, आतम योग महान।।
26.   श्रोतादिक तनु इन्द्रियां, संयम अग्नि प्रवीन।
  ​कछु शब्दादिक विषय हवि, इन्द्रियाग्नि में लीन।।
27. ​इन्द्रिय तन,मन, प्रांण में, हवन करत अनयास।
  ​स्ंायम की इस अग्नि से, होता ज्ञान प्रकाश।।
28. ​द्रव्य यज्ञ तप योग कछु, करें ज्ञान का यज्ञ।
    ​यत्नशील, योगी, यती, स्वाध्यायी नर विज्ञ।।
29. ​प्रांण अपान में हवन कर,  कुछ अपान हुत प्रांण।
  ​प्राणायामी को निरख,  करते पाप प्रयाण।।
30. ​कुछ सीमित आहार ले, गति प्राणों की रोक।
  ​कल्मष करते दूर सब, कह किशोर बेटोक।।
31.​यज्ञशिष्ट भोजन करें, सुधरें इह पर लोक।
   ​यज्ञहीन को सुख कहां, पग-पग मिलता शोक।।
32. ​और बहुत से यज्ञ भी, कहे वेद मे गुन।
  ​उन्हें कर्म कृत जानकर, मोक्ष मार्ग तू चुन।।
33.​ज्ञान यज्ञ है श्रेष्ठ अति, द्रव्य यज्ञ से पार्थ।
  ​सब समाप्त हो ज्ञान मे, जितने भी हों स्वार्थ।।
34.​समझो उनसे ज्ञान को, जिन्हें तत्व का ज्ञान।
   ​कपट छोंड़ कर दण्डवत, बन जिज्ञासु प्रमान।।
35.​जिसे जान मोहे नहीं, पेख सकल जग सृष्टि।
  ​ब्रह्म सच्चिदानन्दमय, मुझे देख दृढ़ दृष्टि।।
36.​सभी पापियों से अधिक, यदि तू पापी पार्थ।
   ​तरे ज्ञान की नाव से, भलीभांति भय त्याग।।
37.​सब ईंधन को जस सुनो, देती आग जलाय।
  ​वैसे ज्ञान की अग्नि से, कर्म भस्म हो जाय।।
38. ​नहिं कुछ इस संसार मे, ज्ञान से अधिक पवित्र।
   ​कर्मयोग से चित्त को, शुद्व करो हे मित्र।।
39. ​ज्ञान मिले विश्वास रख, तेहि से इन्द्रिय राज।
  ​मिले शान्ति प्रभु मिलन की, तत्क्षण तुमको आज।।
40. ​श्रद्वा ज्ञान विहीन जो, कैसे हों वे मुक्त।
   ​लोक और परलोक सुख, वंचित संशययुक्त।।
41. ​कर्मयोग करते हुये, करो समर्पण कर्म।
  ​कर्म बन्ध मिट जाय सब, यही धर्म का मर्म।।
42.​उर संशय अज्ञान केे, काट ज्ञान तलवार।
   ​मन में ला समभाव को, युद्व को हो तैयार।।
​‘‘ज्ञान कर्म संन्यास का, योग चतुर्थाध्याय। 
  ​कह किशोर अति प्रेम से,नमः पार्थ कृष्णाय।।
    भ्रमवष जब रथ को रथी, मैं हूं लेता मान।
  ​योगनिष्ठ संघर्ष ही, मिटा सके अज्ञान।4।‘‘
अध्याय-5
अर्जुन उवाच -​
1. ​कर्मयोग संन्यास प्रभु, दोनों कहते ठीक।
​निश्चित एक बताइये, जो किशोर के नीक।। 
2. ​दोनों ही कल्याणकर, कर्मयोग संन्यास।
 ​श्रेश्ठ कर्म संन्यास से, साधन सहज प्रयास।।
3.​संन्यासी तेहि जानिये, राग द्वेष से दूर।
​मुक्त होत जगपाश से, हो सुख से भरपूर।। 
4. ​अज्ञ कहें फल पृथक दें, कर्म और संन्यास।
​विज्ञ कहें प्रभु प्राप्ति हित, दोनांे सुगम प्रयास।। 
5. ​सांख्य योग अरु कर्म मह,दोनों के फल एक।
  ​ज्ञान, कर्म समरुप जो, देखे दृष्टा नेक।।
6. ​कर्मयोग बिन कठिन है, कर्तापन का नाश।
 ​ज्ञान कर्म को एक कर, पहंुचे प्रभु के पास।।
7. ​रहे जितेन्द्रिय भाव से, अन्तःकरण पवित्र।
 ​प्राणिमात्र परमात्म लख, कर्मयोग यह मित्र।।
8. ​लखे, सुने, सूंघे, छुये, बोले, करे प्रलाप।
 ​खाय, पिये, सोये, जगे, होता अपने आप।।
9. ​है इन्द्रिय व्यापार यह, नहिं करता कुछ कर्म।
 ​ज्ञानी जानें तत्व यह, सांख्ययोग का मर्म।।
10. ​ब्रह्म हेतु सब कर्मपन, मान करे जग वास।
   ​पाप पंक से दूर हो, सदृश कमल जलरास।।
11. ​इन्द्रिय,मन अरु मती से, ममता तन परिहार्य।
   ​योगीजन करते सदा, आत्मशुद्धि हित कार्य।।
12. ​योगी पावे ईश को, त्याग कर्म परिणाम।
  ​बंधते फल की चाह में, कहत किशोर सकाम।।
13. ​बस कर अन्तर आत्मा, सुखी देह नवद्वार।
 ​मन से तज के कर्म को, पाते सदचित् सार।।
14. ​कर्ता, कर्म या कर्मफल, योग रचे नहिं ईश।
 ​सब स्वभाववश होत है, कह किशोर धर शीश।।
15. ​ईश न लेते किसी का, कभी पुण्य या पाप।
  ​मान लेत अज्ञान से, मोहित अपने आप।।
16. ​तत्वज्ञान से जब मिटे, यह अज्ञान स्वच्छंद।
  ​ज्ञान सूर्य की ज्योति में, देख सच्चिदानंद।।
17.​ ब्रह्मनिष्ठ युत ज्ञान जो, मन बुद्धी तद्रुप।
  ​ प्राप्त परमपद अघ रहित, पुनि न परे भवकूप।।
18. ​ श्वपच, श्वान, द्विज, हस्ति, गो, जो लख एक समान।
   ​ समदर्शी, पण्डित वही, है विनयी विद्वान।।
19. ​ मन रख के समभाव में, जीत लिया संसार।
  ​ ब्रह्म सच्चिदानंद घन, नित सम भाव मझार।।
20. ​ प्रिय को पा न हर्षित, अप्रिय पा नहिं खेद।
   ​ स्ंशय रहित सो ब्रह्मवित, स्थिर मति कह वेद।।
21. ​ बाह्य विषय आसक्ति नहिं, अन्तर ध्यानानन्द।
  ​ ब्रह्म योग अनुभव करत, सो अक्षय आनन्द।।
22. ​ विषयेन्द्रिय संयोग जिमि, सुख भाषहि नरकेतु।
  ​ आदि अन्त दुःख देत वह, बुध न रमहिं तेहि हेतु।।
23. ​ काम, क्रोध के वेग को, करे जो सहन समर्थ।
  ​ है किशोर योगी सुखी, सत जीवन का अर्थ।।
24. ​ अंतःसुख, अंतःरमण, आत्म ज्योति से आप्त।
   ​ ब्रह्मभूत योगी पुरुष, करें शान्ति को प्राप्त।।
25. ​ अघ, संशय से हीन रह ,परहितरत प्रभु ध्यान।
   ​ ज्ञानी ब्रह्म स्वरुप ते, पावहिं पद निर्वाण।।
26. ​ काम क्रोध से रहित जो, पारब्रह्म में चित्त।
   ​ उन्हें शान्ति निर्वाण सुख, सभी ओर है नित्त।।
27. ​ त्याग विषय का चिन्तन, दृष्टि आंख दोऊ मध्य।
   ​ सम कर प्रांण अपान को, चलत नासिका मध्य।।
28. ​ बुद्धि और मन इन्द्रियां, जिसने लीन्हीं जीत।
 ​ इच्छा,भय अरु क्रोधगत, नर न रहहिं भयभीत।।
29. ​ ईश्वर हॅूं मैं भोक्ता, जप, तप, यज्ञ महान।
 ​ स्वार्थ रहित प्रेमी, सुह्रद, लहे शान्ति इन्सान।।
​ ‘‘ कर्म और संन्यास का, योग पंचमोध्याय। 
  ​ योगी,सन्यासी जुगुल,ऊॅं नमः कृष्णाय।।
 ​ इन्द्रियां करती कर्म सब, योगी गत आसक्ति।
 ​ संन्यासी, योगी वही, लहहि ब्रह्म अनुरक्ति।5।‘‘
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अध्याय-6
श्री भगवान उवाच-
1. कर्म त्याग योगी नही, अग्नि त्याग संन्यास।
उचित कर्म करता रहे, बिना किये फल आस।।
2. जिसे कहंे संन्यास है, वही योग कौन्तेय।
बिना त्याग संकल्प के, कोई न योगी गेय।।
3. योग सिद्धि जो मुनि चहें, तिनके साधन कर्म।
सिद्धि प्राप्त जन के लिए, निःकाम कर्म ही धर्म।।
4. नहि इन्द्रिय के भोग में, नही कर्म आसक्त।
संकल्पों का त्याग कर, है वह योगी भक्त।।
5. करे आत्म उद्धार जग, गति नहिं नीची पार्थ।
नर अपना ही शत्रु है, अपना मित्र यथार्थ।।
6. मन , इन्द्रिय अरु देह को, जीत मित्र हो आर्य।
जो इनके वश रहत है, सो कर दुश्मन कार्य।।
7. शीत उष्ण,सुख दुख तथा मान और अपमान।
अन्तः करण प्रवृृत्ति सम, सो नर ब्रह््मनिधान।।
8. ज्ञान और विज्ञान से, तृृप्त जितेन्द्रिय आप्त।
मिट््टी, पत्थर, स्वर्ण सम, योगी भगवत्प्राप्त।।
9. बिना स्वार्थ रिपु मि़त्र में, जिनके हैं समभाव।
श्रेष्ठ, द्वेष बिन, अघरहित, वे नर श्रेष्ठ स्वभाव।।
10. तन, मन इन्द्रिय वश रखे, संग्रह आशाहीन।
वह योगी एकान्तप्रिय, आतम में लवलीन।।
11. कुश मृृगछाला वस्त्र रख, शुद्ध भूति में पार्थ।
आसन ऊॅच न नीच सम, जो हो योग हितार्थ।।
12. तेहि आसन में बैठकर, मन इन्द्रिय कर बद्ध।
करे योग अभ्यास हित, हो अन्तर्मन शुद्ध।।
13. काया, शिर अरु ग्रीव को, रख समान गतिहीन।
दृृष्टि नासिका अग्र रख, देखे ब्रह््म प्रवीन।।
14. ब्रह््मचर्य रत, निर्भय, अन्तःकरण सु-शान्त।
योगी मन को रोक ले, मुझमें चित नितान्त।।
15. परमानॅद की थाह को, पाता जोगी भूप।
मन वश करके आत्म से, लख परमात्मस्वरूप।।
16. निराहार आहार बहु, सदा जाग या सोय।
वे होते योगी नहीं, अर्जुन! सिद्धि न होय।।
17. यथायोग आहार अरु, यथायोग व्यवहार।
जाग्रत, सुप्त, सुचेष्ट सम, योग सिद्धि आधार।।
18. अपना चित्् परमात्म में, योगी जब कर लेत।
योगयुक्त अरु निस्पृृही, पुरुष उन्हें कह देत।।
19. दीपक जस निर्वात में, चपल न होता पार्थ।
वैसे ही प्रभु ध्यान में, योगी चित्त यथार्थ।।
20. योगाभ्यासी रुद्ध चित, ज्यों ही हो उपराम।
कर ईश्वर का दरस वह, तुष्ट होय निष्काम।।
21. अनुभव कर आनन्द का, बुद्धि इन्द्रियातीत।
लखि योगी परमात्म को, अविचल गत भवभीत।।
22. परम-आत्मा प्राप्ति सम, लाभ न दूसर कोय।
ऐसे नर को दुख ग्रसे, तदपि न विचलित होय।।
23. दुःख रूप संयोग से, रहित योग को जान।
रहता योगी जगत में, धीर निश्चयी मान।।
24. मनः कामना, वासना, पहले कर निःशेष।
फिर इन्द्रिय समुदाय को, मन से रोक विशेष।।
25. धीरे-धीरे उपरि मन, का कर ले अभ्यास।
बुद्धि और मन ले चलो, परमईश के पास।।
26. मन, शब्दादिक विषय संग, विचर रहा संसार।
चंचल मति अस्थिर हटा, प्रभु की ओर निहार।।
27. शान्त चित्त निष्पाप अरु, शान्त रजोगुण वीर।
ऐसे प्रभु से एक रह, पावे आनॅद धीर।।
28. पाप रहित योगी करत, अनुभव ब्रह््मानन्द।
आत्मरमण नित प्राप्त कर, जो अनंत आनन्द।।
29. सब जन अपनी आत्मा, सब में निज पहचान।
समदर्शी योगी लखे, जगत आत्म निज जान।।
30. सब में मुझको देखते, सब देखें मो पांहि।
तिन कहुं अदृृश्य मै, वे अदृृश्य मोहि नांहि।।
31. आत्मरूप मानें सभी, प्राणिमात्र संसार।
ब्रह््मरूप होकर करे, सकल जगत व्यापार।।
32. योगी अपने सदृृश ही, सबको देखे जौन।
सुख-दुख में समभाव रह, परम श्रेष्ठ है तौन।।
अर्जुन उवाच-
33. मधुसूदन जो तुम कहा, योग रहे समभाव।
मन को चंचल देख के, नहिं स्थिर दिखे स्वभाव।।
34. मन चंचल दृृढ़ बली पुनि, मथे महा बलवान।
जैसे वायू नहिं बंधे, त्यों नहिं सधे सुजान।।
श्री भगवान उवाच-
35. मन चंचल दुर-निग्रही, निश्चय ही सुन पार्थ।
अभ्यासी वैराग्य से, पाते थाह यथार्थ।।
36. जिसका मन नहिं वश रहे, योग ताह दुष्प्राप्य।
पर जो वश कर यत्न से, ताह सहज संभाव्य।।
अर्जुन उवाच-
37. श्रद्धा राखे योग मॅह, पर संयम से हीन।
सिद्धि न पाते तो प्रभु, उन्हें कौन गतिदीन।।
38. मोह देव पथ प्राप्ति में, बिना सहारा तात।
मेघ बिना अवलम्ब ज्यों, नष्ट भ्रष्ट हो जात।।
39. संशय मेटो नाथ मम, दुर्गति होय न तात।
संशय नाशक आपके, सिवा न और दिखात।।
श्री भगवान उवाच-
40. आत्मोद्धारक भक्त की, कुगति न होती पार्थ।
लोक और परलोक में, रहता सदा यथार्थ।।
41. योग भ्रष्ट तजि देह निज, लहै स्वर्गफल मित्र।
समय पाय जन्मे सुघर, कुल को करे पवित्र।।
42. वैरागी नर जनम ले, योगी के घर जाय।
अति दुर्लभ यह जन्म है, विरला कोई पाय।।
43. वहॉ सहज ही प्राप्त कर, पूर्व जन्म के योग।
फिर करते दृृढ़ साधना, परमसिद्धि हित लोग।।
44. उत्तम कुल में जन्म अरु, पाकर पूर्वाभ्यास।
शब्द ब्रह््म, समबुद्धि बल, मिले सुफल अनयास।।
45. जनम, जनम करता रहे, योगी अगर प्रयत्न।
सिद्धि प्राप्त करता रहे, सुगति मिले बिन यत्न।।
46. तपसी, ज्ञानी कर्म से, श्रेश्ठ है योगी जान।
अर्जुन इससे तुम चुनो, योग मार्ग पहचान।।
47. नित्य, निरन्तर, आत्मरत, श्रद्धायुत धीमान।
परम श्रेष्ठ योगी जुगुल, वही मान्य पहिचान।।
“आत्म संयमी योग पढ़ि, यह छठवॉ अध्याय।
चित्त शुद्ध बन संयमी, आत्म ब्रह््म मिल जाय।6।’’
अध्याय-7
श्री भगवान उवाच-
1.​ मुझ मे मन रख गह शरण, योग युक्त रह पार्थ।
 ​ जेहि विधि जानोगे मुझे, वह सब कहूंॅ यथार्थ।।
2. ​ तुमको यह विज्ञान मैं, कहूंॅ ज्ञान के साथ।
 ​ जिसे जानकर फिर यहॉं, नहीं रहे कुछ पार्थ।।
3. ​ सहस नरन के मध्य मे, कोउ इक करे प्रयास।
​ मुझको करता प्राप्त है, तिनमें नर कोई खास।। 
4. ​ भूमि, अग्नि, जल, वायु, खं, मन, मति, अहं विकार।
 ​ आठ प्रकृति मेरी पृथक, कह किशोर शतबार।।
5. ​ प्रकृति आठ ये निम्नतर, दूसर श्रेष्ठ महान।
 ​ जीव रुप जो जग धरे, सुन किशोर धर ध्यान।।
6. ​ इन दोनों से ऊपजंे, सकल भूत लो जान।
  ​ कारण भी ये जगत के, नाश इन्हें ही मान।।
7. ​ नहीं श्रेष्ठ मुझसे यहां, कुछ भी अर्जुन जान।
 ​ सकल जगत मणिवत गुथा, मध्य सूत मोहिं मान।।
8. ​ जल मे रस शशि, सूर्य में ज्योति जथा कौन्तेय।
  ​ ऊंॅ वेद,खं, शब्द पुनि, त्यों नर पुरुष प्रमेय।।
9. ​ गन्ध भूमि अरु अगनि में, तेज यथा विद्यमान।
  ​ सकल प्रांणि मे जीव हूं, तप तपसी त्यों मान।।
10. ​ सकल प्रांणि का बीज मैं, सदा सनातन जान।
  ​ बुद्धिमान की बुद्धि मैं, तेजस तेज प्रमाण।।
11.​ मैं बल हूंॅ बलवान का, मोह कामना हीन।
 ​ धर्मशास्त्र अनुकूल हूंए मैं ही काम प्रवीन।।
12. ​ मुझमें ही उत्पन्न हों, सत, रज, तम के भाव।
   ​ वे मुझमे मैं नहिं वहां, यह सब मोर प्रभाव।।
13. ​ तीन गुणों के कारण, प्रांणी मोहित होंय।
  ​ इनके बुरे प्रभाव से, मुझे न जानहि कोय।।
14. ​ माया त्रिगुण अलौकिक, नहीं थाह आसान।
  ​ मम आश्रय ले सहज ही, पार करे इनसान।।
15. ​ अज्ञानी,माया विकृत, असुर भाव धर नीच।
   ​ मुझे न जानहिं नहिं भजें, रहे कुकर्मन बीच।।
16. ​ अर्थार्थी, जिज्ञासु अरु ज्ञानी जन पुनि आर्त।
   ​ चारों चार प्रकार से, मुझको भजते तात ।।
17. ​ इनमें ज्ञानी श्रेष्ठ सुन, मम भक्ती चित देत।
  ​ मैं प्रिय ताको वह मुझे, कह किशोर यह हेत।।
18. ​यद्यपि सभी उदार पर, ज्ञानी मेरा रूप।
  ​मुझमें जो चित ले रहे, आश्रय परम अनूप।।
19. ​बहुत जन्म के बाद जो,मुझे मान सर्वस्व।
  ​दुर्लभ ज्ञानी ताहि लख, वासुदेव मय विश्व।।
20. ​भोग कामना जब हरे, नर का ज्ञान स्वभाव।
   ​अन्य देव देवी भजें, उनका मान प्रभाव।।
21. ​जो जन जिस जिस भाव से, भजन करे जेहि लाग।
  ​करता श्रद्वा मैं अचल, देवरूप अनुराग।।
22. ​करें भजन अति राग से, मांगे जो वरदान।
   ​करता पूरन मैं सुनो, उनसे ही वे दान।।
23. ​छुद्र बुद्धि जन केर फल,होत क्षणिक लो जान।
  ​पूज देव लें स्वर्ग को,  भक्त मोर स्थान।।
24. ​बुद्धिहीन जाने नहीं, मम अविनाशी भाव।
  ​ब्रह्म सच्चिदानन्द को, माने वह नर राव।।
25. ​छिपा योग माया रहूंॅ, नहिं प्रकट आभास।
   ​मूढ़ नहीं मोहि जानते, जन्म रहित नहिं नाश।।
26. ​मैं जानू तिहुं काल के, प्राणिन को सुन पार्थ।
  ​श्रद्धाभक्ती रहित नर, मुझे न जान  यथार्थ।।
27. ​राग द्वेष उत्पन्न जो, सुख दुःखादिक द्वन्द्व।
   ​भारत इनके मोहवश, जग अज्ञानी वृन्द।।
28. ​श्रेष्ठ कर्म शुभ आचरण से कर निज अघ नाश।
   ​मोह मुक्त दृढ़ निश्चयी, रहता मेरे पास।।
29. ​जरा मरण से छूट का, जो नर करे प्रयास।
   ​मम शरणागत ह्वै रहे, जानकार सो खास।।
30. ​यज्ञ, भूत अरु दैव अधि, सब वसुदेव स्वरूप।
   ​जो जाने सो मुक्तचित, मेरा ही तद्रूप।।
‘‘ योग सप्त अध्याय का,ज्ञान और विज्ञान।
​ मम जीवन रथ के रथी,जयति कृष्ण भगवान।। 
 ​बीच भक्ति के ज्ञान जिमि, बिनु फल पेंड़ मदार।
 ​कह किशोर हरिशरण गह, सहज होय भवपार।7।‘‘
अध्याय-8
अर्जुन उवाच-
1. ​हे पुरुषोत्तम! ब्रह्म क्या? कर्म और अध्यात्म?
 ​किसे कहें अधिदेव प्रभु? चिन्ता हरो तमाम।।
2. ​तन में रह अधियज्ञ किमि, मधुसूदन समझाव।
  ​अन्त समय योगी पुरुष,कैसे तुमको पाव।।
श्री भगवान उवाच-
3. ​ब्रह्म परम अक्षर सुनो, निज स्वभाव अध्यात्म।
 ​भूतभाव उत्पन्न जो, करे कर्म यह नाम।।
4. ​नाशवान अध
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Monday, November 16, 2015

स्वच्छता एवं पवित्रता की पारस्परिकता

स्वच्छता एवं पवित्रता की पारस्परिकता
डा राकेश नारायण द्विवेदी
विश्व की सभी सभ्यताओं में स्वच्छता अनिवार्य है। भारतीय संस्कृति में स्वच्छता का अप्रतिम महत्व है। स्वच्छता से ही पवित्रता संभव है। पवित्रता एक ऐसा भाव है, जिसके माध्यम से हम अपने आचार-व्यवहार में छाप छोड़ते हैं। जो व्यक्ति पवित्र होगा, उसका आचरण भी श्रेष्ठ होगा। स्वच्छता पवित्रता की अनिवार्य शर्त है। इसे सीमित अर्थों में नहीं लिया जा सकता। स्वच्छता की व्याप्ति बाहरी साफ-सफाई में तो है ही, भीतरी निर्मलता में भी यह उतने ही सघन रूप में मौजूद है। कभी- कभी निर्मल मन और सद्गुणों की बात करते हैं तो धर्म और अध्यात्म के विषय मानकर कुछ लोग किनारे हो जाना चाहते हैं, पर यह निर्मल मन हमें स्वच्छता की भीतरी और व्यापक अवस्था की ओर ले जाता है। रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं-
निर्मल मन जन सो मोहि पावा।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।
जिसका मन दूषित न हो, विमल धवल हो, वही मनुष्य प्रभु को प्राप्त कर सकता है। मनकी जो गंदगी है, वह मोह, कपट और छल के रूप में दिखती है। यह भीतर का दूषण है, भारतीय वाड्ंमय जिसका सांगोपांग विवेचन करता है। समूची भारतीय मनीषा इस गंदगी को दूर करने का आह्वान करती है, क्योंकि यह मनुष्य के सारे दुर्गुणों की जननी है।
भक्ति का आधार ही निर्मल मन है, निर्मल मन के लिये स्वच्छ तन का होना नितांत आवश्यक है। स्वच्छ तन और निर्मल मन ही सुंदर जीवन की आधारशिला हैं। स्वच्छ तन और निर्मल मन के बाद व्यक्ति द्वारा अर्जित किए गए धन का उपयोग भलीभांति संभव है। स्वच्छ तन और निर्मल मन से प्राप्त धन शुभता का साधन है। स्वच्छ तन से ही मन पवित्र हो सकता है। मन पवित्र होगा, उदार और सबका हितकामी होगा तो हम अपने आसपास की गंदगी के भी अभ्यस्त नहीं होंगे।
स्वच्छता के बाद मनुष्य सृजनधर्मी बन सकता है। सौंदर्य या कलाओं की सृजनभूमि स्वच्छता ही है, अन्यथा तो हम एक बनी हुई लीक को पीटते भर हैं। हमारे सारे पर्व और त्योहार स्वच्छता एवं पवित्रता को अनिवार्य बनाते हैं। हम देखते हैं अगर दीपावली पर्व न हो तो व्यक्ति घर की सफाई में उदासीनता कर जाएं और तब वह कितनी बीमारियों का घर बन जाए। हिंदुओं में दीवाली के समय, मुसलमानों में ईद के समय, मलयालियों में ओणम के समय तो बंगालियों में दुर्गापूजा के समय अपने-अपने घरों को सिरे से साफ करने और सजाने की परंपरा है। देखा जा रहा है कि व्यक्ति प्राय: अपनी और अपने घर की स्वच्छता पर ध्यान देता है , पर उसके बाहर और आसपास की स्वच्छता से उसे कोई प्रयोजन नहीं होता। होता भी है तो कहने भर के लिए। स्वच्छता रखने के लिए बहुत छोटी-छोटी बातें ध्यान में रखनी आवश्यक होती हैं। यह बातें हर छोटे-बड़े पर लागू होती हैं। पहली आवश्यकता है कि हम स्वयं गंदगी न करें। उदाहरण के लिए हम सड़क पर चलते हुए थूक रहे हैं, फिर सफाई का आह्वान भी कर रहे हैं तो यह निरे पाखंड के अतिरिक्त कुछ नहीं है। हम स्वयं धूम्रपान करके प्रदूषण फैलाएं और दूसरों से ऐसा न करने की अपेक्षा रखें, यह नहीं हो सकता। हम जो आचरण करते हैं, समाज उसे बारीकी से देखता समझता है। आप जब कुछ कहते सुनते हैं, उसे वह अपनी पारखी नज़रों से तौलता है। इसलिए स्वच्छता के संदर्भ में, अगर आप स्वयं स्वच्छ और पवित्र हैं और इसका ध्यान रखते हैं तो आपका परिवेश भी स्वच्छ रखने में आसानी होगी।
यह बहुत सामान्य, किंतु आवश्यक बात है कि स्वच्छता स्वस्थ तन की अनिवार्य शर्त है। स्वच्छता का महत्व निर्विवाद है, फिर क्या कारण है कि हमारा पर्यावरण इतना दूषित हो गया है। इस प्रश्न के उत्तर में ही हमारे समाज का यथार्थ संनिहित है। हमारे समाज में प्रारंभ से ही शौचालय नहीं थे, किंतु तब जनसंख्या का भी दबाव नहीं था। प्रारंभ में काम के फलस्वरूप होने वाली गंदगी के विभिन्न स्वरूपों को जाति विभाजन का आधार माना गया और फलत: समूची जाति ही उस गंदगी का पर्याय मान ली गई। जाति को उस समय गंदगी का पैमाना बना दिया गया, लेकिन स्वच्छता पर बल नहीं दिया जा सका। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमारे विकास का नियोजन अव्वल तो हुआ ही नहीं, और जो हुआ भी तो उसमें स्वच्छता पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया। महात्मा गांधी विचार और कर्म से स्वच्छता के अप्रतिम पोषक थे। स्वच्छता की शुरूआत मन, विचार और ह्रदय की पवित्रता के साथ होती है। पवित्रता के उदय से भविष्य उज्ज्वल होता है, हम 'उदार चरित' होते हैं, समूची 'वसुधा के कुटुंबी' बनते हैं और निजी और पराए के भेद से ऊपर उठ गए होते हैं। पवित्रता से ही हमारे भीतर यह भाव आता है कि हम जो कुछ अपने समाज और राष्ट्र से प्राप्त करें, उससे कहीं अधिक उसे लौटाएं भी। इस पवित्रता के कारण ही पुजारी और आदिवासी जंगल या प्रकृति से जब कुछ लेते हैं तो उसकी रक्षा का दायित्व भी संभालते हैं। यही नहीं, सुना है बदरीनाथ धाम के पुजारी भगवान की पूजा के लिए पुष्प चुनते या शहद लेते हैं तो उससे अधिक पुष्पों की व्यवस्था वे जंगल में कर देते हैं। आदिवासी भी अपने जंगल से जितना ग्रहण करता उससे अधिक पेड़ लगाकर लौटा देता है।
अर्जन के साथ विसर्जन के द्वारा ही मनुष्य जहॉं अपना जीवन उन्नत, सुखद और प्रेरक बना सकता है, वहीं वह समाज और राष्ट्र को उन्नति की ओर अग्रसर कर सकता है। अर्जन और फिर विसर्जन का यह भाव बहुत बड़ा है, उदात्त है, जिससे व्यक्ति जीवन में संतोष का अनुभव करता है। संतोष नवधा भक्ति में एक है-
आठवं जथालाभ संतोषा। सपनेहुं नहिं देखउं परदोषा।। रामचरितमानस
या
जथा लाभ संतोष सदा काहू सों कछु न चहौंगो। कवितावली
सफाई रखने में नागरिकों की महत्वपूर्ण भूमिका है, जैसा हमारे प्रधानमंत्री ने कहा है सफाई की ज़िम्मेदारी एकमात्र सफाई कर्मियों की नहीं है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारत में सफाई और स्वच्छता की कमी के कारण औसतन प्रति व्यक्ति ₹ 6500 बर्बाद होते हैं। स्वच्छ भारत सार्वजनिक स्वास्थ्य और ग़रीबों की आय की सुरक्षा पर सार्थक प्रभाव डालेगा और अंततोगत्वा राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में योगदान देगा।
स्वच्छता रखने में जल की वैसी ही भूमिका है, जैसी भूख शांत करने में अन्न की होती है। स्वच्छ पेयजल उदर को दुरुस्त रखता है, उदर से ही मनुष्य के सारे शारीरिक विकार उत्पन्न होते हैं। जल से शरीर की बाहरी शुद्धि भी होती है। जल की गति अधोगामी होती है, इसलिए अशुद्धि को जल बहा देता है, किंतु जनसंख्या असंतुलन और बढ़ते कारखानों से अब हमारी नदियां इस अशुद्धि को वहन करने में दम तोड़ रही हैं। पर्यावरणीय विषमताओं से वर्षा कम होने लगी है, इसलिए जल संरक्षण की आवश्यकता रेखांकित की जा रही है। भारत के बहुत से भागों में पहले भी अल्पवर्षा का सामना करना पड़ता था, किंतु उस समय का जल नियोजन बेहतर था, औद्योगिकीकरण नहीं था और हाथों से ही सारे कार्य-कौशल किए जाते थे। गांधीजी यही सभ्यता प्रिय थी, जिसे उसे उन्होंने सारी दुनिया का पाथेय माना था। गांधी जी की पुस्तक 'हिंद स्वराज' इस संबंध में पढ़े जाने योग्य है। इस सभ्यता में सरकारी राहत की ओर लोगों को नहीं ताकना पड़ता था। महत्वाकांक्षाएं भी लोगों में नहीं होती थीं। पश्चिमी देशों के विकासवादी माडल पर आधारित हमारी अर्थव्यवस्था में पर्यावरण सुरक्षा पर समुचित ध्यान नहीं जा पा रहा है।
स्वच्छता रखने के लिए नागरिकों को आगे आना होगा। सरकार अपने नागरिकों को चेतना संपन्न करे, इसके उपाय करने होंगे। जब नदियों में जल घट गया और उनके अस्तित्व पर ही संकट खड़ा हो गया, फिर भी हम उनमें पूजा के निर्माल्य और देव-देवी मूर्तियां क्यों विसर्जित करें। उन्हें मृदा विसर्जन करना समीचीन होगा। कारखानों के अपशिष्ट को अविलंब नदियों में बहने से रोकना होगा। इसके लिए सरकार और नागरिक समाज दोनों को मिलकर काम करना होगा। तीर्थ सरोवरों में हमारे भाई-बहिन या बच्चे स्नान करें, लेकिन उसमें मुंह का पानी भी बाहर न करें, सरोवरों में साबुन का प्रयोग न करें, उसमें कपड़े न धोएं। मूत्र उत्सर्ग न करें। सरोवरों में स्नान न करें, अन्यत्र स्नान करके दर्शन-पूजन करें तो भी पुण्यार्जन में कमी न होगी। तीर्थ स्थानों को स्वच्छ रखने में सरकार की भूमिका वैसी नहीं, इसके लिए हमारे धर्माचार्यों और नागिरकों को बढ़ना होगा। मैंने सिखों के कई गुरुद्वारों में जाकर दर्शन किए, वे स्वच्छता के प्रति कितने सतर्क रहते हैं! हमारे जिन तीर्थों में ऐसा नहीं है, वे ऐसे क्यों नहीं हो सकते। एक बार महात्मा गांधी काशी हिंदू विश्वविद्यालय में आए। वहां उन्होंने अपने भाषण मे विश्वनाथ मंदिर और उसकी गलियों की गंदगी के विषय को प्रमुखता से उठाया।
गांधी जी कहते थे 'स्वच्छता स्वतंत्रता से भी अधिक आवश्यक है।' गांधी ने भारतीय समाज का बारीकी से पर्यवेक्षण किया था। वे उच्च शिक्षित थे और विदेशों में रह चुके थे। उन्होंने देश के मिज़ाज को जिस तरह समझा और जो स्थापनाएं दीं, वे आज भी हमारी पाथेय बनी हुई हैं। गांधी ने भारत के समाज शास्त्र को समझा और स्वच्छता के महत्व को रेखांकित किया। उन्होंने पारंपरिक तौर पर सदियों से सफाई के काम में लगे लोगों को गरिमा प्रदान करने की कोशिश की। गांधी जी ने धार्मिकता और धर्मपरायणता से भी अधिक महत्व स्वच्छता और सफाई को दिया। यद्यपि दोनों में कोई अंतर्विरोध नहीं है। धार्मिकता या धर्मपरायणता में स्वच्छता का अनिवार्य सन्निवेश है। किसी देव-देवी के षोडशोपचार पूजन में पाद्य, अर्घ्य, स्नान तथा आचमन जल द्वारा ही संपन्न होता है। इस प्रकार पूजन की एक चौथाई विधि जल द्वारा संभव होती है। भगवान शंकर जल चढ़ाने मात्र से प्रसन्न हो जाते हैं।
मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार हर मानव को है। भारत में मैला प्रथा के समाचार देश की सभ्यता व विकास पर एक बदनुमा दाग की तरह हैं। देश में मल खुले में उत्सर्जित किया जा रहा है। भारत की बड़ी जनसंख्या के पास व्यक्तिगत शौचालय नही हैं। स्कूलों में शौचालय नही? रेलगाड़ियों में मलोत्सर्ग की जो व्यवस्था है, उसे सही किए जाने की आवश्यकता है। हम देश के विकास की बात करते हैं, लेकिन जब तर स्वच्छता के समुचित स्तर को प्राप्त नहीं कर लेते, शेष बातें करना बेमानी है। देश के हर घर में कई-कई मोबाइल हो गए हैं, लेकिन शौचालय नहीं हैं, यह किस तरह का विकास  है!
स्वच्छता का महत्व सभ्यता के प्रारंभिक काल से सर्वविदित है। इसीलिए जनसामान्य में कहा जाता है कुत्ता भी अपनी बैठने की जगह को पूंछ से साफ करके बैठता है। स्वच्छता सुंदरता की पहली सीढ़ी है और ब्रेख्त ने कहा है 'सुंदरता संसार को बचाएगी' अर्जन के साथ विसर्जन के द्वारा ही मनुष्य जहॉं अपना जीवन उन्नत, सुखद और प्रेरक बना सकता है, वहीं वह समाज और राष्ट्र को उन्नति की ओर अग्रसर कर सकता है। अर्जन और फिर विसर्जन का यह भाव बहुत बड़ा है, उदात्त है, जिससे व्यक्ति जीवन में संतोष का अनुभव करता है। संतोष नवधा भक्ति में एक है-
आठवं जथालाभ संतोषा। सपनेहुं नहिं देखउं परदोषा।। रामचरितमानस
या
जथा लाभ संतोष सदा काहू सों कछु न चहौंगो। कवितावली
सफाई रखने में नागरिकों की महत्वपूर्ण भूमिका है, जैसा हमारे प्रधानमंत्री ने कहा है सफाई की ज़िम्मेदारी एकमात्र सफाई कर्मियों की नहीं है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारत में सफाई और स्वच्छता की कमी के कारण औसतन प्रति व्यक्ति ₹ 6500 बर्बाद होते हैं। स्वच्छ भारत सार्वजनिक स्वास्थ्य और ग़रीबों की आय की सुरक्षा पर सार्थक प्रभाव डालेगा और अंततोगत्वा राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में योगदान देगा।
स्वच्छता रखने में जल की वैसी ही भूमिका है, जैसी भूख शांत करने में अन्न की होती है। स्वच्छ पेयजल उदर को दुरुस्त रखता है, उदर से ही मनुष्य के सारे शारीरिक विकार उत्पन्न होते हैं। जल से शरीर की बाहरी शुद्धि भी होती है। जल की गति अधोगामी होती है, इसलिए अशुद्धि को जल बहा देता है, किंतु जनसंख्या असंतुलन और बढ़ते कारखानों से अब हमारी नदियां इस अशुद्धि को वहन करने में दम तोड़ रही हैं। पर्यावरणीय विषमताओं से वर्षा कम होने लगी है, इसलिए जल संरक्षण की आवश्यकता रेखांकित की जा रही है। भारत के बहुत से भागों में पहले भी अल्पवर्षा का सामना करना पड़ता था, किंतु उस समय का जल नियोजन बेहतर था, औद्योगिकीकरण नहीं था और हाथों से ही सारे कार्य-कौशल किए जाते थे। गांधीजी यही सभ्यता प्रिय थी, जिसे उसे उन्होंने सारी दुनिया का पाथेय माना था। गांधी जी की पुस्तक 'हिंद स्वराज' इस संबंध में पढ़े जाने योग्य है। इस सभ्यता में सरकारी राहत की ओर लोगों को नहीं ताकना पड़ता था। महत्वाकांक्षाएं भी लोगों में नहीं होती थीं। पश्चिमी देशों के विकासवादी माडल पर आधारित हमारी अर्थव्यवस्था में पर्यावरण सुरक्षा पर समुचित ध्यान नहीं जा पा रहा है।
स्वच्छता रखने के लिए नागरिकों को आगे आना होगा। सरकार अपने नागरिकों को चेतना संपन्न करे, इसके उपाय करने होंगे। जब नदियों में जल घट गया और उनके अस्तित्व पर ही संकट खड़ा हो गया, फिर भी हम उनमें पूजा के निर्माल्य और देव-देवी मूर्तियां क्यों विसर्जित करें। उन्हें मृदा विसर्जन करना समीचीन होगा। कारखानों के अपशिष्ट को अविलंब नदियों में बहने से रोकना होगा। इसके लिए सरकार और नागरिक समाज दोनों को मिलकर काम करना होगा। तीर्थ सरोवरों में हमारे भाई-बहिन या बच्चे स्नान करें, लेकिन उसमें मुंह का पानी भी बाहर न करें, सरोवरों में साबुन का प्रयोग न करें, उसमें कपड़े न धोएं। मूत्र उत्सर्ग न करें। सरोवरों में स्नान न करें, अन्यत्र स्नान करके दर्शन-पूजन करें तो भी पुण्यार्जन में कमी न होगी। तीर्थ स्थानों को स्वच्छ रखने में सरकार की भूमिका वैसी नहीं, इसके लिए हमारे धर्माचार्यों और नागिरकों को बढ़ना होगा। मैंने सिखों के कई गुरुद्वारों में जाकर दर्शन किए, वे स्वच्छता के प्रति कितने सतर्क रहते हैं! हमारे जिन तीर्थों में ऐसा नहीं है, वे ऐसे क्यों नहीं हो सकते। एक बार महात्मा गांधी काशी हिंदू विश्वविद्यालय में आए। वहां उन्होंने अपने भाषण मे विश्वनाथ मंदिर और उसकी गलियों की गंदगी के विषय को प्रमुखता से उठाया।
भारत स्वच्छ अभियान का मुख्य मुद्दा व्यक्तिगत स्वच्छता से ऊपर उठकर सार्वजनिक स्थलों को उसी तरह से स्वच्छ रखने की भावना का विकास करना है। इस अभियान का लक्ष्य लोगों को यह संदेश पहुंचाना भी है कि परिवेश को स्वच्छ रखे बिना अपनी और अपने घर की स्वच्छता का लाभ दूरगामी नहीं हो सकता। हाल ही में प्रसिद्ध लोकगायिका मालिनी अवस्थी के पति वरिष्ठ आईएएस अधिकारी अविनाश चंद्र अवस्थी को डेंगू हो गया। अटल जी के मंत्रिमंडल के पी आर कुमारमंगलम मलेरिया से मृत्यु को प्राप्त हो गए थे। इयये स्पष्ट है कि व्यक्तिगत स्वच्छता काफी नहीं होती।
वीरेंद्र जैन ने जैसा कहा है 'स्वच्छता एक मनोवृत्ति है और सफाई उसका प्रकटीकरण।' अगर मनोवृत्ति सही नहीं होगी तो प्रकटीकरण केवल दिखावा होकर रह जाएगा। कुत्ते की सफाई के बारे में लोग जानते हैं। और भी ऐसे जानवर हैं जो सफाई के प्रति सतर्क रहते हैं। बिल्ली अपने शरीर की सफाई का विशेष ध्यान रखती है। खुद को चाटकर ये शरीर साफ रखती हैं। बिल्ली सफाई के साथ खाना खाती है। उसका खाना इधर-उधर नहीं गिरता और खाते समय वह कोई आवाज़ नहीं करती। बंदर एक-दूसरे के शरीर पर जमी गंदगी की पपड़ी को साफ करते रहते हैं। वे फल को छीलकर खाते हैं। हाथी प्रतिदिन खुद ही नहाना पसंद करते हैं।
इस बात को जानते हुए भी दोहराए जाने की आवश्यकता है कि स्वच्छता अपनाने से व्यक्ति रोगमुक्त रहता है और वह स्वस्थ राष्ट्र निर्माण में अपना महत्वपूर्ण योगदान देता है। गांधी जी के अनुसार स्वस्थ व्यक्ति वह है जो सभी तरह की बीमारियों से मुक्त है, जो अपनी नियमित क्रियाएं बिना थकावट के पूरी करता है, जो प्रतिदिन 10 से 12 मील आसानी से चल सकता है, सामान्य भोजन को आसानी से पचा सकता है औक जिसके मन और इंद्रियों के व्यवहार में तालमेल है। स्वस्थ रहने के लिए धूम्रपाम, तंबाकू और शराब से दूर रहना आवश्यक है।
शौचालयों के प्रयोग या बच्चों का मल-मूत्र साफ करने के बाद हाथ धोने और भोजन से पहले हाथों की अच्छी तरह सफाई डायरिया को 33 प्रतिशत कम कर देती है। डायरिया से मरने वाले 90 प्रतिशत पांच वर्ष से कम के बच्चे होते हैं।
अंत में कहा जा सकता है कि स्वच्छता और पवित्रता का संबंध घनिष्ठ है। स्वच्छता के बाद पवित्रता का उदय व्यक्ति में होने से उसके सुपरिणाम सदाचरण के रूप में देखने को मिल सकते हैं, जिनका लाभ संबंधित व्यक्ति के साथ-साथ समाज और राष्ट्र को भी प्राप्त होगा।
एसोसिएट प्रोफेसर, शोध एवं स्नातकोत्तर हिंदी विभाग
गांधी महाविद्यालय, उरई (जालौन)
संबद्ध बुंदेलखंड विश्वविद्यालय, झांसी
मोबाइल 9236114604