Monday, November 16, 2015

स्वच्छता एवं पवित्रता की पारस्परिकता

स्वच्छता एवं पवित्रता की पारस्परिकता
डा राकेश नारायण द्विवेदी
विश्व की सभी सभ्यताओं में स्वच्छता अनिवार्य है। भारतीय संस्कृति में स्वच्छता का अप्रतिम महत्व है। स्वच्छता से ही पवित्रता संभव है। पवित्रता एक ऐसा भाव है, जिसके माध्यम से हम अपने आचार-व्यवहार में छाप छोड़ते हैं। जो व्यक्ति पवित्र होगा, उसका आचरण भी श्रेष्ठ होगा। स्वच्छता पवित्रता की अनिवार्य शर्त है। इसे सीमित अर्थों में नहीं लिया जा सकता। स्वच्छता की व्याप्ति बाहरी साफ-सफाई में तो है ही, भीतरी निर्मलता में भी यह उतने ही सघन रूप में मौजूद है। कभी- कभी निर्मल मन और सद्गुणों की बात करते हैं तो धर्म और अध्यात्म के विषय मानकर कुछ लोग किनारे हो जाना चाहते हैं, पर यह निर्मल मन हमें स्वच्छता की भीतरी और व्यापक अवस्था की ओर ले जाता है। रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं-
निर्मल मन जन सो मोहि पावा।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।
जिसका मन दूषित न हो, विमल धवल हो, वही मनुष्य प्रभु को प्राप्त कर सकता है। मनकी जो गंदगी है, वह मोह, कपट और छल के रूप में दिखती है। यह भीतर का दूषण है, भारतीय वाड्ंमय जिसका सांगोपांग विवेचन करता है। समूची भारतीय मनीषा इस गंदगी को दूर करने का आह्वान करती है, क्योंकि यह मनुष्य के सारे दुर्गुणों की जननी है।
भक्ति का आधार ही निर्मल मन है, निर्मल मन के लिये स्वच्छ तन का होना नितांत आवश्यक है। स्वच्छ तन और निर्मल मन ही सुंदर जीवन की आधारशिला हैं। स्वच्छ तन और निर्मल मन के बाद व्यक्ति द्वारा अर्जित किए गए धन का उपयोग भलीभांति संभव है। स्वच्छ तन और निर्मल मन से प्राप्त धन शुभता का साधन है। स्वच्छ तन से ही मन पवित्र हो सकता है। मन पवित्र होगा, उदार और सबका हितकामी होगा तो हम अपने आसपास की गंदगी के भी अभ्यस्त नहीं होंगे।
स्वच्छता के बाद मनुष्य सृजनधर्मी बन सकता है। सौंदर्य या कलाओं की सृजनभूमि स्वच्छता ही है, अन्यथा तो हम एक बनी हुई लीक को पीटते भर हैं। हमारे सारे पर्व और त्योहार स्वच्छता एवं पवित्रता को अनिवार्य बनाते हैं। हम देखते हैं अगर दीपावली पर्व न हो तो व्यक्ति घर की सफाई में उदासीनता कर जाएं और तब वह कितनी बीमारियों का घर बन जाए। हिंदुओं में दीवाली के समय, मुसलमानों में ईद के समय, मलयालियों में ओणम के समय तो बंगालियों में दुर्गापूजा के समय अपने-अपने घरों को सिरे से साफ करने और सजाने की परंपरा है। देखा जा रहा है कि व्यक्ति प्राय: अपनी और अपने घर की स्वच्छता पर ध्यान देता है , पर उसके बाहर और आसपास की स्वच्छता से उसे कोई प्रयोजन नहीं होता। होता भी है तो कहने भर के लिए। स्वच्छता रखने के लिए बहुत छोटी-छोटी बातें ध्यान में रखनी आवश्यक होती हैं। यह बातें हर छोटे-बड़े पर लागू होती हैं। पहली आवश्यकता है कि हम स्वयं गंदगी न करें। उदाहरण के लिए हम सड़क पर चलते हुए थूक रहे हैं, फिर सफाई का आह्वान भी कर रहे हैं तो यह निरे पाखंड के अतिरिक्त कुछ नहीं है। हम स्वयं धूम्रपान करके प्रदूषण फैलाएं और दूसरों से ऐसा न करने की अपेक्षा रखें, यह नहीं हो सकता। हम जो आचरण करते हैं, समाज उसे बारीकी से देखता समझता है। आप जब कुछ कहते सुनते हैं, उसे वह अपनी पारखी नज़रों से तौलता है। इसलिए स्वच्छता के संदर्भ में, अगर आप स्वयं स्वच्छ और पवित्र हैं और इसका ध्यान रखते हैं तो आपका परिवेश भी स्वच्छ रखने में आसानी होगी।
यह बहुत सामान्य, किंतु आवश्यक बात है कि स्वच्छता स्वस्थ तन की अनिवार्य शर्त है। स्वच्छता का महत्व निर्विवाद है, फिर क्या कारण है कि हमारा पर्यावरण इतना दूषित हो गया है। इस प्रश्न के उत्तर में ही हमारे समाज का यथार्थ संनिहित है। हमारे समाज में प्रारंभ से ही शौचालय नहीं थे, किंतु तब जनसंख्या का भी दबाव नहीं था। प्रारंभ में काम के फलस्वरूप होने वाली गंदगी के विभिन्न स्वरूपों को जाति विभाजन का आधार माना गया और फलत: समूची जाति ही उस गंदगी का पर्याय मान ली गई। जाति को उस समय गंदगी का पैमाना बना दिया गया, लेकिन स्वच्छता पर बल नहीं दिया जा सका। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमारे विकास का नियोजन अव्वल तो हुआ ही नहीं, और जो हुआ भी तो उसमें स्वच्छता पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया। महात्मा गांधी विचार और कर्म से स्वच्छता के अप्रतिम पोषक थे। स्वच्छता की शुरूआत मन, विचार और ह्रदय की पवित्रता के साथ होती है। पवित्रता के उदय से भविष्य उज्ज्वल होता है, हम 'उदार चरित' होते हैं, समूची 'वसुधा के कुटुंबी' बनते हैं और निजी और पराए के भेद से ऊपर उठ गए होते हैं। पवित्रता से ही हमारे भीतर यह भाव आता है कि हम जो कुछ अपने समाज और राष्ट्र से प्राप्त करें, उससे कहीं अधिक उसे लौटाएं भी। इस पवित्रता के कारण ही पुजारी और आदिवासी जंगल या प्रकृति से जब कुछ लेते हैं तो उसकी रक्षा का दायित्व भी संभालते हैं। यही नहीं, सुना है बदरीनाथ धाम के पुजारी भगवान की पूजा के लिए पुष्प चुनते या शहद लेते हैं तो उससे अधिक पुष्पों की व्यवस्था वे जंगल में कर देते हैं। आदिवासी भी अपने जंगल से जितना ग्रहण करता उससे अधिक पेड़ लगाकर लौटा देता है।
अर्जन के साथ विसर्जन के द्वारा ही मनुष्य जहॉं अपना जीवन उन्नत, सुखद और प्रेरक बना सकता है, वहीं वह समाज और राष्ट्र को उन्नति की ओर अग्रसर कर सकता है। अर्जन और फिर विसर्जन का यह भाव बहुत बड़ा है, उदात्त है, जिससे व्यक्ति जीवन में संतोष का अनुभव करता है। संतोष नवधा भक्ति में एक है-
आठवं जथालाभ संतोषा। सपनेहुं नहिं देखउं परदोषा।। रामचरितमानस
या
जथा लाभ संतोष सदा काहू सों कछु न चहौंगो। कवितावली
सफाई रखने में नागरिकों की महत्वपूर्ण भूमिका है, जैसा हमारे प्रधानमंत्री ने कहा है सफाई की ज़िम्मेदारी एकमात्र सफाई कर्मियों की नहीं है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारत में सफाई और स्वच्छता की कमी के कारण औसतन प्रति व्यक्ति ₹ 6500 बर्बाद होते हैं। स्वच्छ भारत सार्वजनिक स्वास्थ्य और ग़रीबों की आय की सुरक्षा पर सार्थक प्रभाव डालेगा और अंततोगत्वा राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में योगदान देगा।
स्वच्छता रखने में जल की वैसी ही भूमिका है, जैसी भूख शांत करने में अन्न की होती है। स्वच्छ पेयजल उदर को दुरुस्त रखता है, उदर से ही मनुष्य के सारे शारीरिक विकार उत्पन्न होते हैं। जल से शरीर की बाहरी शुद्धि भी होती है। जल की गति अधोगामी होती है, इसलिए अशुद्धि को जल बहा देता है, किंतु जनसंख्या असंतुलन और बढ़ते कारखानों से अब हमारी नदियां इस अशुद्धि को वहन करने में दम तोड़ रही हैं। पर्यावरणीय विषमताओं से वर्षा कम होने लगी है, इसलिए जल संरक्षण की आवश्यकता रेखांकित की जा रही है। भारत के बहुत से भागों में पहले भी अल्पवर्षा का सामना करना पड़ता था, किंतु उस समय का जल नियोजन बेहतर था, औद्योगिकीकरण नहीं था और हाथों से ही सारे कार्य-कौशल किए जाते थे। गांधीजी यही सभ्यता प्रिय थी, जिसे उसे उन्होंने सारी दुनिया का पाथेय माना था। गांधी जी की पुस्तक 'हिंद स्वराज' इस संबंध में पढ़े जाने योग्य है। इस सभ्यता में सरकारी राहत की ओर लोगों को नहीं ताकना पड़ता था। महत्वाकांक्षाएं भी लोगों में नहीं होती थीं। पश्चिमी देशों के विकासवादी माडल पर आधारित हमारी अर्थव्यवस्था में पर्यावरण सुरक्षा पर समुचित ध्यान नहीं जा पा रहा है।
स्वच्छता रखने के लिए नागरिकों को आगे आना होगा। सरकार अपने नागरिकों को चेतना संपन्न करे, इसके उपाय करने होंगे। जब नदियों में जल घट गया और उनके अस्तित्व पर ही संकट खड़ा हो गया, फिर भी हम उनमें पूजा के निर्माल्य और देव-देवी मूर्तियां क्यों विसर्जित करें। उन्हें मृदा विसर्जन करना समीचीन होगा। कारखानों के अपशिष्ट को अविलंब नदियों में बहने से रोकना होगा। इसके लिए सरकार और नागरिक समाज दोनों को मिलकर काम करना होगा। तीर्थ सरोवरों में हमारे भाई-बहिन या बच्चे स्नान करें, लेकिन उसमें मुंह का पानी भी बाहर न करें, सरोवरों में साबुन का प्रयोग न करें, उसमें कपड़े न धोएं। मूत्र उत्सर्ग न करें। सरोवरों में स्नान न करें, अन्यत्र स्नान करके दर्शन-पूजन करें तो भी पुण्यार्जन में कमी न होगी। तीर्थ स्थानों को स्वच्छ रखने में सरकार की भूमिका वैसी नहीं, इसके लिए हमारे धर्माचार्यों और नागिरकों को बढ़ना होगा। मैंने सिखों के कई गुरुद्वारों में जाकर दर्शन किए, वे स्वच्छता के प्रति कितने सतर्क रहते हैं! हमारे जिन तीर्थों में ऐसा नहीं है, वे ऐसे क्यों नहीं हो सकते। एक बार महात्मा गांधी काशी हिंदू विश्वविद्यालय में आए। वहां उन्होंने अपने भाषण मे विश्वनाथ मंदिर और उसकी गलियों की गंदगी के विषय को प्रमुखता से उठाया।
गांधी जी कहते थे 'स्वच्छता स्वतंत्रता से भी अधिक आवश्यक है।' गांधी ने भारतीय समाज का बारीकी से पर्यवेक्षण किया था। वे उच्च शिक्षित थे और विदेशों में रह चुके थे। उन्होंने देश के मिज़ाज को जिस तरह समझा और जो स्थापनाएं दीं, वे आज भी हमारी पाथेय बनी हुई हैं। गांधी ने भारत के समाज शास्त्र को समझा और स्वच्छता के महत्व को रेखांकित किया। उन्होंने पारंपरिक तौर पर सदियों से सफाई के काम में लगे लोगों को गरिमा प्रदान करने की कोशिश की। गांधी जी ने धार्मिकता और धर्मपरायणता से भी अधिक महत्व स्वच्छता और सफाई को दिया। यद्यपि दोनों में कोई अंतर्विरोध नहीं है। धार्मिकता या धर्मपरायणता में स्वच्छता का अनिवार्य सन्निवेश है। किसी देव-देवी के षोडशोपचार पूजन में पाद्य, अर्घ्य, स्नान तथा आचमन जल द्वारा ही संपन्न होता है। इस प्रकार पूजन की एक चौथाई विधि जल द्वारा संभव होती है। भगवान शंकर जल चढ़ाने मात्र से प्रसन्न हो जाते हैं।
मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार हर मानव को है। भारत में मैला प्रथा के समाचार देश की सभ्यता व विकास पर एक बदनुमा दाग की तरह हैं। देश में मल खुले में उत्सर्जित किया जा रहा है। भारत की बड़ी जनसंख्या के पास व्यक्तिगत शौचालय नही हैं। स्कूलों में शौचालय नही? रेलगाड़ियों में मलोत्सर्ग की जो व्यवस्था है, उसे सही किए जाने की आवश्यकता है। हम देश के विकास की बात करते हैं, लेकिन जब तर स्वच्छता के समुचित स्तर को प्राप्त नहीं कर लेते, शेष बातें करना बेमानी है। देश के हर घर में कई-कई मोबाइल हो गए हैं, लेकिन शौचालय नहीं हैं, यह किस तरह का विकास  है!
स्वच्छता का महत्व सभ्यता के प्रारंभिक काल से सर्वविदित है। इसीलिए जनसामान्य में कहा जाता है कुत्ता भी अपनी बैठने की जगह को पूंछ से साफ करके बैठता है। स्वच्छता सुंदरता की पहली सीढ़ी है और ब्रेख्त ने कहा है 'सुंदरता संसार को बचाएगी' अर्जन के साथ विसर्जन के द्वारा ही मनुष्य जहॉं अपना जीवन उन्नत, सुखद और प्रेरक बना सकता है, वहीं वह समाज और राष्ट्र को उन्नति की ओर अग्रसर कर सकता है। अर्जन और फिर विसर्जन का यह भाव बहुत बड़ा है, उदात्त है, जिससे व्यक्ति जीवन में संतोष का अनुभव करता है। संतोष नवधा भक्ति में एक है-
आठवं जथालाभ संतोषा। सपनेहुं नहिं देखउं परदोषा।। रामचरितमानस
या
जथा लाभ संतोष सदा काहू सों कछु न चहौंगो। कवितावली
सफाई रखने में नागरिकों की महत्वपूर्ण भूमिका है, जैसा हमारे प्रधानमंत्री ने कहा है सफाई की ज़िम्मेदारी एकमात्र सफाई कर्मियों की नहीं है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारत में सफाई और स्वच्छता की कमी के कारण औसतन प्रति व्यक्ति ₹ 6500 बर्बाद होते हैं। स्वच्छ भारत सार्वजनिक स्वास्थ्य और ग़रीबों की आय की सुरक्षा पर सार्थक प्रभाव डालेगा और अंततोगत्वा राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में योगदान देगा।
स्वच्छता रखने में जल की वैसी ही भूमिका है, जैसी भूख शांत करने में अन्न की होती है। स्वच्छ पेयजल उदर को दुरुस्त रखता है, उदर से ही मनुष्य के सारे शारीरिक विकार उत्पन्न होते हैं। जल से शरीर की बाहरी शुद्धि भी होती है। जल की गति अधोगामी होती है, इसलिए अशुद्धि को जल बहा देता है, किंतु जनसंख्या असंतुलन और बढ़ते कारखानों से अब हमारी नदियां इस अशुद्धि को वहन करने में दम तोड़ रही हैं। पर्यावरणीय विषमताओं से वर्षा कम होने लगी है, इसलिए जल संरक्षण की आवश्यकता रेखांकित की जा रही है। भारत के बहुत से भागों में पहले भी अल्पवर्षा का सामना करना पड़ता था, किंतु उस समय का जल नियोजन बेहतर था, औद्योगिकीकरण नहीं था और हाथों से ही सारे कार्य-कौशल किए जाते थे। गांधीजी यही सभ्यता प्रिय थी, जिसे उसे उन्होंने सारी दुनिया का पाथेय माना था। गांधी जी की पुस्तक 'हिंद स्वराज' इस संबंध में पढ़े जाने योग्य है। इस सभ्यता में सरकारी राहत की ओर लोगों को नहीं ताकना पड़ता था। महत्वाकांक्षाएं भी लोगों में नहीं होती थीं। पश्चिमी देशों के विकासवादी माडल पर आधारित हमारी अर्थव्यवस्था में पर्यावरण सुरक्षा पर समुचित ध्यान नहीं जा पा रहा है।
स्वच्छता रखने के लिए नागरिकों को आगे आना होगा। सरकार अपने नागरिकों को चेतना संपन्न करे, इसके उपाय करने होंगे। जब नदियों में जल घट गया और उनके अस्तित्व पर ही संकट खड़ा हो गया, फिर भी हम उनमें पूजा के निर्माल्य और देव-देवी मूर्तियां क्यों विसर्जित करें। उन्हें मृदा विसर्जन करना समीचीन होगा। कारखानों के अपशिष्ट को अविलंब नदियों में बहने से रोकना होगा। इसके लिए सरकार और नागरिक समाज दोनों को मिलकर काम करना होगा। तीर्थ सरोवरों में हमारे भाई-बहिन या बच्चे स्नान करें, लेकिन उसमें मुंह का पानी भी बाहर न करें, सरोवरों में साबुन का प्रयोग न करें, उसमें कपड़े न धोएं। मूत्र उत्सर्ग न करें। सरोवरों में स्नान न करें, अन्यत्र स्नान करके दर्शन-पूजन करें तो भी पुण्यार्जन में कमी न होगी। तीर्थ स्थानों को स्वच्छ रखने में सरकार की भूमिका वैसी नहीं, इसके लिए हमारे धर्माचार्यों और नागिरकों को बढ़ना होगा। मैंने सिखों के कई गुरुद्वारों में जाकर दर्शन किए, वे स्वच्छता के प्रति कितने सतर्क रहते हैं! हमारे जिन तीर्थों में ऐसा नहीं है, वे ऐसे क्यों नहीं हो सकते। एक बार महात्मा गांधी काशी हिंदू विश्वविद्यालय में आए। वहां उन्होंने अपने भाषण मे विश्वनाथ मंदिर और उसकी गलियों की गंदगी के विषय को प्रमुखता से उठाया।
भारत स्वच्छ अभियान का मुख्य मुद्दा व्यक्तिगत स्वच्छता से ऊपर उठकर सार्वजनिक स्थलों को उसी तरह से स्वच्छ रखने की भावना का विकास करना है। इस अभियान का लक्ष्य लोगों को यह संदेश पहुंचाना भी है कि परिवेश को स्वच्छ रखे बिना अपनी और अपने घर की स्वच्छता का लाभ दूरगामी नहीं हो सकता। हाल ही में प्रसिद्ध लोकगायिका मालिनी अवस्थी के पति वरिष्ठ आईएएस अधिकारी अविनाश चंद्र अवस्थी को डेंगू हो गया। अटल जी के मंत्रिमंडल के पी आर कुमारमंगलम मलेरिया से मृत्यु को प्राप्त हो गए थे। इयये स्पष्ट है कि व्यक्तिगत स्वच्छता काफी नहीं होती।
वीरेंद्र जैन ने जैसा कहा है 'स्वच्छता एक मनोवृत्ति है और सफाई उसका प्रकटीकरण।' अगर मनोवृत्ति सही नहीं होगी तो प्रकटीकरण केवल दिखावा होकर रह जाएगा। कुत्ते की सफाई के बारे में लोग जानते हैं। और भी ऐसे जानवर हैं जो सफाई के प्रति सतर्क रहते हैं। बिल्ली अपने शरीर की सफाई का विशेष ध्यान रखती है। खुद को चाटकर ये शरीर साफ रखती हैं। बिल्ली सफाई के साथ खाना खाती है। उसका खाना इधर-उधर नहीं गिरता और खाते समय वह कोई आवाज़ नहीं करती। बंदर एक-दूसरे के शरीर पर जमी गंदगी की पपड़ी को साफ करते रहते हैं। वे फल को छीलकर खाते हैं। हाथी प्रतिदिन खुद ही नहाना पसंद करते हैं।
इस बात को जानते हुए भी दोहराए जाने की आवश्यकता है कि स्वच्छता अपनाने से व्यक्ति रोगमुक्त रहता है और वह स्वस्थ राष्ट्र निर्माण में अपना महत्वपूर्ण योगदान देता है। गांधी जी के अनुसार स्वस्थ व्यक्ति वह है जो सभी तरह की बीमारियों से मुक्त है, जो अपनी नियमित क्रियाएं बिना थकावट के पूरी करता है, जो प्रतिदिन 10 से 12 मील आसानी से चल सकता है, सामान्य भोजन को आसानी से पचा सकता है औक जिसके मन और इंद्रियों के व्यवहार में तालमेल है। स्वस्थ रहने के लिए धूम्रपाम, तंबाकू और शराब से दूर रहना आवश्यक है।
शौचालयों के प्रयोग या बच्चों का मल-मूत्र साफ करने के बाद हाथ धोने और भोजन से पहले हाथों की अच्छी तरह सफाई डायरिया को 33 प्रतिशत कम कर देती है। डायरिया से मरने वाले 90 प्रतिशत पांच वर्ष से कम के बच्चे होते हैं।
अंत में कहा जा सकता है कि स्वच्छता और पवित्रता का संबंध घनिष्ठ है। स्वच्छता के बाद पवित्रता का उदय व्यक्ति में होने से उसके सुपरिणाम सदाचरण के रूप में देखने को मिल सकते हैं, जिनका लाभ संबंधित व्यक्ति के साथ-साथ समाज और राष्ट्र को भी प्राप्त होगा।
एसोसिएट प्रोफेसर, शोध एवं स्नातकोत्तर हिंदी विभाग
गांधी महाविद्यालय, उरई (जालौन)
संबद्ध बुंदेलखंड विश्वविद्यालय, झांसी
मोबाइल 9236114604