Friday, November 10, 2017

व्यक्ति नाम निर्वचन

व्यक्ति नाम निर्वचन
राकेश नारायण द्विवेदी
व्यक्ति नामों में स्वगुणार्थकता न होने के कारण उन्हें निरर्थक मानने वाला एक वर्ग है। विलियम शेक्सपियर (1564-1616) ने मानव जीवन की शाश्वत भावनाओं को बड़ी कुशलता से चित्रित किया है। रोमियो एंड जूलियट शेक्सपियर के प्रारंभिक नाटकों में है। इसकी कथावस्तु का सार है- जुलाई का महीना था। बसंत ऋतु अपनी जवानी पर थी। बेरोना नगर के एक कुलीन परिवार के मांटेग्यू के घर मासक्यूडवार (मुखौटा नृत्य) का आयोजन हुआ था, यह रोमियो का अपना घर था।
नृत्य के अवसर पर केपुलेट परिवार की जूलियट भी रोमियो के घर आई हुई थी। इसी नृत्य के दौरान दोनो की आंखें चार हो गईं और हृदय की गहराई में उतर गई। रोमियो अपने को न रोक सका, उसने जूलियट के घर जाकर उसके निजी कक्ष में पहुंचकर अपने प्रेम का इजहार किया। जूलियट भी रोमियो पर फिदा थी। वह उसे पाने के लिए तड़प रही थी, किंतु दोनो परिवारों के बीच वर्षो से चली आ रही शत्रुता से रोमियो और जूलियट की शादी संभव नहीं थी। दोनों ने ऐसे में चुपके से एक गिरजाघर में जाकर शादी कर ली, लेकिन दुर्भाग्य से दोनो परिवारों में जंग छिड़ गई।
लड़ाई में रोमियो के एक करीबी दोस्त की मौत हो गई बदले में रोमियो ने भी जूलियट के चचेरे भाई की हत्या कर दी। रोमियो को देश के बाहर जाने की सजा मिली। इसी बीच जूलियट के पिता ने उसका विवाह पेरिस के काउंट के साथ निश्चित कर दिया। रोमियो नगर से निष्कासित जीवन जी रहा था। वह जंगल-जंगल भटक रहा था और जूलियट-जूलियट रट रहा था। रोमियो की अनुपस्थिति में जूलियट उदास थी। शादी से बचने के लिए वह नींद वाली दवाई पीकर सो गई ताकि सबको लगे वह मर चुकी है।
रोमियो को इस नाटक के बारे में कुछ पता नहीं था। जूलियट के मरने की खबर पाकर वह वहां पहुंचा। उदास मन से उसने जूलियट को अपना आखिरी चुंबन दिया और जहर पीकर अपनी जान दे दी। जब जूलियट का नशा उतरा तो सामने अपने प्रेमी की लाश देखकर वह सन्न रह गई। उसने रोमियो के छुरे से ही खुद को मार डाला। इस प्रकार दोनों ने एक साथ दुनिया को अलविदा कह दिया। दोनो परिवार उस समय एक भी हुए किंतु तब प्रेमी युगल दुनिया से उठ चुका था।
इस नाटक की पंक्ति ॅींजश्े पद ं दंउमघ् अर्थात् नाम में क्या रखा है को नाम चर्चा के समय बहुत अधिक उद्धृत किया जाता है। इसका संदर्भ जानना आवश्यक है, नाटक के द्वितीय अंक के द्वितीय दृश्य में जूलियट रोमियो के संबंध में कहती है -
जूलियट - आह रोमियो! क्यों हो तुम रोमियो! अपने पिता को अस्वीकृत कर दो, अपना यह नाम त्याग दो। यदि तुम ऐसा नहीं कर सकते तो तुम मेरे प्रेम से प्रतिश्रुत हो, फिर मैं केपुलेट नहीं रहूंगी। रोमियो (स्वगत) क्या मै और सुनता रहूं या इसका उत्तर दूं। जूलियट तुम्हारा नाम ही तो मेरा शत्रु है, तुम तुम ही हो, तुम मांटेग्यू नहीं हो। क्या है मांटेग्यू़़? न हाथ, न पांव, न बाहु, न आनन मनुष्य का कोई भी तो अंग नहीं। कोई और नाम रख लो न?
नाम में है ही क्या? यदि हम गुलाब को किसी और नाम से पुकारते, तो तब भी उसमें इतनी ही सुगंध आती। यदि रोमियो को इस नाम से न पुकारा जाता, तब भी रोमियो तो वही रहता? इस नाम के बिना भी उसकी यह बहुमूल्य पूर्णता तो अभावग्रस्त न होती। रोमियो! छोड़ दो अपना यह नाम। नाम में तुम्हारा कोई भाग नहीं, इस नाम के बदले मुझ संपूर्ण को ले लो।
रोमियों -तुम्हारा वचन ही मेरा प्रमाण हो। प्रेम ही तो मुझे चाहिए, मैं पुनः नामकरण संस्कार कराऊंगा। अब मैं कभी भी रोमियो नहीं रहूँगा।
‘नाम में क्या रखा है’ शेक्सपियर की यह बात भाषा विज्ञान की दृष्टि से गलत थी। गुलाब को अगर और नाम से पुकारे तो उसकी खुशबू चली नहीं जाएगी, पर और किसी नाम से पुकारने पर गुलाब की पहचान ही नहीं रह पाऐगी, क्योंकि गुलाब नाम उस फूल के लिए सामाजिक मान्यता प्राप्त कर चुका है। हम गुलाब को अन्य जो भी कहें, दूसरे व्यक्ति उसे कैसे समझ पाएंगे। दूसरी बात; वस्तुओं के नाम और व्यक्तियों के नाम एक ही तरह के नहीं होते। वस्तुओं के नामों के लिए सामूहिक स्वीकृति अनिवार्य है, वहीं व्यक्तियों के नाम परिवार की संस्कृति के दिग्दर्शक होते हैं।
यह उक्ति वस्तुतः नाम और शब्द को एक मानने के कारण कही गई। यह ठीक है कि नामों की निर्मिति हमारे चिरपरिचित शब्दों से होती है, परंतु शब्द जब एक बार नाम के रूप में प्रयुक्त होते हैं तब वे शब्द नहंी रह जाते। आक्सीजन और हाइड्रोजन के संयोग से जल बनता है। जल में उक्त दोनों तत्वों की अवस्थिति तो है परंतु जल बनने के पूर्व जैसी नहीं। अतः जल का परीक्षण विश्लेषण उसके निर्माणक तत्वों के विश्लेषण परीक्षण से भिन्न होगा, इसमें कोई संदेह नहीं। इसीलिए शब्दों का अनुवाद अन्य भाषाओं में हो जाता है किंतु नामों को हमें यथारूप ही सभी भाषाओं में ग्रहण करना होता है। एक नाम से एक ही व्यक्ति या वस्तु का बोध होता है, परंतु जब वह नाम केवल शब्द ध्वनि मात्र होता है तब वह व्यक्तिवाचक से जातिवाचक बन जाता है।
इस उक्ति के समर्थक कहते हैं कि मानव मनोविज्ञान नाम को हल्का मानता हैं, इसलिए शेक्सपियर ने यह बात कही, लेकिन नामकरण के प्रति व्यक्ति की सजगता किसी से छिपी हुई नहीं है। नामकरण के समय मनुष्य के मन में बहुत सी सांस्कृतिक स्थितियां विद्यमान रहती हैं। चाहे वह किसी तरह का नाम रखे। शेक्सपियर के इस नाटक में ही नाम बदलने का मनोविज्ञान समझा जा सकता है, क्योंकि रोमियो और जूलियट के परिवारों में परस्पर शत्रुता थी और वे उस समस्यामूलक अतीत से अपना छुटकारा चाहते थे। जूलियट से प्रेम के कारण रोमियो अपना नाम बदलने के लिए तैयार भी हो जाता है। ऊपर दिए गए संवाद में दोनों प्रेमियों के परिवार नाम केपुलेट और मांटेग्यू के प्रति ही विरक्ति दिखाई पड़ती है। रोमियो के लिए तो जूलियट रोमियो नाम से ही पुकारती है।
नाम और शब्द को एक मानने का कारण यह भी रहा है कि इन दोनों के मूलरूपों का अध्ययन व्युत्पत्ति के माध्यम से किया जाता रहा है। वस्तुतः व्युत्पत्ति के लक्ष्य एवं उसकी प्रणालियों ने दीर्घकाल तक नामों को उन शब्दों के रूप में घटाने का प्रयास किया है, जो वे नाम बनने के पूर्व थे। इस प्रकार नामों के संकेतार्थ एवं वैशिष्ट्य को सर्वथा भुलाने का प्रयास किया गया है। जैसा हाल में सैफ अली और करीना कपूर के बच्चे का नाम तैमूर रखे जाने पर देखा गया। अर्थतत्व के रूप में बहुत से लोग तुर्की शब्द तैमूर का अर्थ लोहा लेते रहे, जबकि देश का बहुत बड़ा वर्ग इसे क्रूर मंगोल शासक तैमूर लंग से अनुकृत मानकर नामकर्ता की मानसिकता को दोषी बता रहा है। फेसबुक पर शबनम शुक्ला कहती है नाम अगर तलवार सिंह है तो क्या वह आदमी तलवार है। ऐसे भी नाम होते है, जिन्हें हम निरर्थक कह सकते हैं जैसे पप्पू, गुड्डू, गोलू, मुन्ना, पुल्लू, सट्टू इत्यादि। परंतु नाम रूप में वे सीधे भावना से जुड़कर एक विशिष्ट अर्थ की प्रतीति कराते हैं, जिसे हम नामवैज्ञानिक अर्थ कह सकते हैं। नाम का व्युत्पत्तिमूलक अन्वेषण ही नाम विज्ञानी का कार्य नहीं है, वह तो प्रत्येक नामवैज्ञानिक अध्ययन का प्रारंभिक सोपान है। प्रयोगवाद के नामकरण के सम्बन्ध में नामवर सिंह ने कहा है कि नामकरण प्रायः औचित्य-अनौचित्य का ध्यान रखे बिना ही हो जाता है। इसलिए प्रयोगवाद नाम निरर्थक और अपर्याप्त होते हुए भी हिंदी साहित्य के इतिहास में अब स्थापित तथ्य है। इससे अब एक निश्चित काल प्रवृत्ति का बोध होता है, प्रचलन से इसमें पर्याप्त अर्थवत्ता आ गई।
नाम के संबंध में पहली बात डाॅ भीमराव अंबेडकर ने भी यही मानी है कि नाम के अर्थ का प्रश्न उत्पन्न हो।
इसका अर्थ है कि नामी के बारे में पढ़ने-सुनने वाले व्यक्ति पर उसका पहला प्रभाव नाम से ही होता है। त्रिधा जिज्ञासा में नाम धाम और काम सम्मिलित है, किंतु नाम जिज्ञासा सर्वप्रथम है।
नाम और रूप का संबंध निरूपण करते हुए विद्याभूषण विभु ने लिखा है, नाम कल्पित एवं कृत्रिम है तो रूप प्रकृति-प्रदत्त। एक अदृश्य है तो दूसरा प्रत्यक्ष। दोनों में कला-कौशल है। एक में चातुर्य है, दूसरे में सौंदर्य। वाणी नाम का अनुष्ठान करती है, श्रवण उसका अभिनंदन करते हैं। रूप से नेत्रों का रंजन होता है। दोनों अंतःकरण के आकर्षण-विकर्षण के कारण होते हैं। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व चिरकाल तक स्थिर नहीं रह सकता। अनामी रूप या अरूपी नाम कहीं न मिलेगा। परंतु नाम में एक विशेषता यह है कि वह गतिवान है।
नाम कैसे बनते हैं-
भारत मे इस विषय पर विचार सर्वप्रथम यास्क ने किया, जिसेे निघंटु तथा निरुक्त कहा गया है। निघंटु भारत में ही नहीं, विश्व में कोश निर्माण का सर्वप्रथम ज्ञात प्रयास है। यह वैदिक ऋचाओं में प्रयुक्त थोड़े से दुर्लभ और दुरूह शब्दों का संग्रह है। इसमे ंशब्दों की व्याख्याएं नहीं है। इसलिए यह आधुनिक अर्थ में ‘कोश’ नहीं है, बल्कि शब्द संग्रह मात्र है जिसे परंपरा यास्ककृत मानती है। निघंटु में पांच अध्याय है। प्रथम तीन को नैघंटुक काण्ड, चतुर्थ को नैगम कांड और पंचम को दैवत कांड कहते हें। इन तीन कांडों के विषय क्रमशः पर्यायवाची शब्द, अनेकार्थवाची शब्द और देवता है। जिसमें प्रथम अध्याय में भौतिक वस्तुओं का वर्णन है जैसे पृथ्वी जल, वायु तथा प्रकृति की वस्तुएं जैसे मेष, उषा दिन व रात्रि इत्यादि। दूसरे अध्याय का विषय है मनुष्य और उसके बाहु अंगुलि इत्यादि अंग तथा उससे संबद्ध पदार्थ तथा गुण जैसे संपत्ति, संपत्ति, क्रोध, युद्ध इत्यादि। तृतीय अध्याय में भावात्मक गुणों का वर्णन है यथा गुरूता, लघुता इत्यादि। निघंटु तथा निरुक्त के संपादक तथा अंग्रेजी भाषांतरकार प्रो0 लक्ष्मण सरूप ने ही कहा है कि निघंटु की व्यवस्था वैज्ञानिक नहीं, न ही अधिकांशतः प्रणालीबद्ध है, परंतु कम से कम शब्दों के विधिपूर्वक वर्गीकरण का प्रयास अवश्य किया गया है।
निरुक्त निघंटु का महषि यास्क कृत सुप्रसिद्ध भाष्य है। यह निर्वचन, भाषा विज्ञान एवं शब्दार्थ विज्ञान का प्राचीनतम भारतीय ग्रंथ माना जाता है। यास्क की इस रचना का काल भारत रत्न से विभूषित डाॅ पाडरंग वामन काणे 800 से 500 भारत ई0 पू0 के बीच का मानते है।  निरुक्त का प्रथम संस्करण रुडोल्फ राॅथ द्वारा प्रस्तुत किया गया था, जिसे 1852 में गाॅटिंगन में प्रकाशित किया गया। उस समय वैदिक वाङमय केवल पांडुलिपियों में  ही प्राप्त था। ऋग्वेद का भी मुद्रित पाठ्य उपलब्ध नहीं था। उस समय लैटिन भाषा  के ऋग्वेद नमूना ;त्पहअमकंम ैचमबपउमदद्ध के नाम से  फ्रेडरिख अगस्त रोजन का 1830 में 121 ऋचाओं का आंशिक अनुवाद किया गया था। प्रो0 फ्र्रैडरिक मैक्समूलर ने ऋग्वेद का जर्मन अनुवाद 1856 में किया। सत्रहवीं सदी में मुगल बादशाह औरंगजेब के भाई दाराशिरोह ने कुछ उपनिषदों का फारसी में अनुवाद किया जो पहले फ्रांसीसी और बाद में अन्य भाषाओं में अनूदित हुए। यूरोप में इसके बाद वैदिक और संस्कृत साहित्य की ओर ध्यान गया। पाश्चात्य विद्वानों ने भी स्वीकार किया है वेद विश्व का प्राचीनतम साहित्य है। धर्मशास्त्र इतिहासकार डाॅ0 पांडुरण वामन काणे ने वेदों का रचनाकाल 4000 से 1000 ई0पू0 माना है। हिंदी में पहली बार वेदों का प्रकाशन ऋग्वेद भाष्य के रूप में दयानंद सरस्वती ने 1877 में कराया, लेकिन यह पूर्ण नहीं था। अंग्रेजी भाषा में 1850-1888 में एच.एच विल्सन ने, उसके बाद राॅल्फ टी एच ग्रिफिथ ने 1889-92 में, पश्चात ए ए मैक्डोनेल ने 1917 में महत्वपूर्ण अनुवाद किए। प्रो मैक्डोनैल एवं ए.बी. कीथ ने 1912 में वैदिक इंडैक्स आॅफ नेम्स एंड सब्जेक्ट्स तैयार किया जिसमें वैदिक नामों और विषयों की व्याख्यात्मक अनुसूची दी गई है। इससे पूर्व प्रो0 एम. मोनियर विलियम्स का 1899 में व्युत्पत्ति और भाषा की दृष्टि से संस्कृत अंग्रेजी शब्दकोश प्रकाशित हुआ, जिसमें भारत यूरोपीय भाषाओं का सामीप्य संस्कृत से दिखाया गया है। इन्होंने म्ना जो ‘नाम’ की धातु है, उसका संबंध मैन से जोड़ा है। निरुक्त में ‘मन’ धातु का अर्थ विचारना है, इसीलिए मनुष्य इस धातु से संबंद्ध हुए, क्योंकि वे अपने कार्य विचार पूर्वक करते हैं।
निघंटु और निरुक्त का महत्व देखने के लिए उपर्युक्त प्रसंग में हमें जाना पड़ा। नाम कैसे रखे जाते हैं, इस विषय पर निघंटु तथा निरुक्त की टीका में महत्वपूर्ण प्रकाश डाला गया है।ं यास्क समस्त शब्दों को मूल धातुओं से व्युत्पन्न बताते हैं। वह लोक के दैनंदिन व्यवहार में वस्तुओं की संज्ञा के लिए शब्द, व्यप्तिमान तथा सूक्ष्म होने के कारण व्यक्त शब्दों को अधिक मान्यता देते हैं। यास्क धातुओं के अलावा कुछ शब्दों की उत्पत्ति प्रकृति की ध्वनियों की अनुकृतियों से भी मानते हैं, जैसे पक्षियों के नाम। किंतु यह शब्दानुकृति भाषा के निर्माण में महत्वपूर्ण भाग नहीं लेती। वहीं प्लेटो (जन्म 428 ई.पू. निधन 348 ई.पू.) अपनी रचना क्रैटिलस ं;ब्तंजलसनेद्ध में वर्णमाला की ध्वनियों के मूल को प्रकृति की ध्वनियों में खोजने का प्रयास करते हैं और कहते है शब्दानुकृति भाषा के निर्माण में सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपादान है।
यास्क ने भाषा के चार भाग माने हैं- नाम, आख्यात (क्रिया), उपसर्ग तथा निपात (निरुक्त 1-1) संस्कृत में उपसर्गों का प्रयोग विभक्ति के रूप में कहीं-कहीं ही होता है।
संस्कृत में उपसर्ग क्रिया विशेषण का कार्य करते हैं। यास्क ने नाम व क्रिया के लक्षण बताए हैं। क्रिया की आधारभूत धारणा भाव (होना ठमबवउपदह) है, जबकि नाम की आधारभूत धारणा सत्व (या बनी हुई वस्तु, इमपदह) है। परंतु जहां दोनों में ‘भाव’ क्रिया के द्वारा निर्दिष्ट होता है, प्रारंभ से अंत तक सम्पूर्ण प्रक्रिया का मूर्तरूप, जिसने सत्व के गुण ले लिए हैं नाम के द्वारा निर्दिष्ट होता है, जैसे जाना (व्रज्या), पकाना (पक्ति) इत्यादि। क्रिया के छः विकार होते हैं- उत्पत्ति, सत्ता, विपरिणमन, वृद्धि, उपक्रम तथा विनाश। जबकि अरस्तू कहते हैं नाम या संज्ञा एक संश्लिष्ट ;ब्वउचवेपजद्ध सार्थक ध्वनि है, जिसमें काल का कोई विचार नहीं होता है, किंतु क्रिया भी संश्लिष्ट सार्थक ध्वनि है, पर उसमे ंकाल का विचार होता है।
अरस्तू (जन्म 384 ई0पू0 निधन 322 ई0पू0) ने क्रिया के लक्षण में काल के विचार पर बहुत बल दिया हे। वह इसमें होने वाले कार्य व्यापार (।बजपवद) के विचार की अपेक्षा करते हैं, किंतु क्रिया व्यापार तथा काल दोनों में प्रथम मुख्य तथा द्वितीय गौण महत्व का है। यास्क ने इसीलिए भाव शब्द चुनकर दोनों का समावेश किया है। नाम (संज्ञा) का अरस्तू कृत लक्षण निषेधात्मक है। वह नाम के लक्षण में ‘क्या नहीं है’ यह बताते हैं जबकि यास्क निश्चयात्मक लक्षण प्रस्तुत करते हुए बताते हैं कि सत्व नाम की आधारभूत धारणा है।
नामों की उत्पत्ति के संबंध में दुर्ग (निरुक्त भाष्यकार) ने कहा है कि नाम तीन तरह से मिलते हैं 1. वे जिनकी धातुएं स्पष्ट हैं, 2. वे जिनकी धातुओं को अनुमान से जाना जा सकता है तथा 3. वे नाम जिनकी धातुओं का अस्तित्व ही नहीं है। प्लेटो अपने क्रैटिलस में हर्मोजीनस के द्वारा इस सिद्धांत को प्रस्तुत करता है कि नाम रूढ़ है। स्वेच्छा से रख दिए जाते हैं तथा स्वेच्छा से बदल जिए जाते हैं । क्रैटिलस कहता है, वह स्वाभाविक हैं। सुबरात बीच का मार्ग अपनाते हुए कहते हैं नाम स्वाभाविक हैं परंतु उनमें रूढ़ि का भी अंश है। ‘यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि यास्क का काल प्लेटों से कम-से कम एक शताब्दी पूर्व था।’  यास्क व प्लेटो दोनों अपनी-अपनी पुस्तकों क्रमशः निरुक्त तथा क्रैटिलस  में अपने पूर्ववर्ती विद्वानों तथा निरुक्त संबंधी गवेषणाओं को एकत्र करते हैं। यास्क और प्लेटो में मूल अंतर यह है कि यास्क धातुओं को उपसर्ग, आगम तथा प्रत्ययों से पृथक करते थे अर्थात् शब्दो को बनाने वाले तत्व से मूल तत्व को पृथक करके देखते थे और इसलिए वह शब्दों का उनके घटक अवयवों में विश्लेषण करने के सामान्य नियम बनाने में समर्थ हुए जबकि प्लेटो इस अंतर का नहीं समझते थे परिणामतः उन्होंने अटकल को निर्वचन का आधार बनाया और इसीलिए आगे चलकर शेक्सपियर (1564-1616) नाम में क्या रखा हैं जैसी निरर्थक उक्ति लिख गए।
निरुक्त में प्रथम अध्याय (12 से 14) में यास्क ‘नाम कैसे रखे जाते हैं’, इस समस्या पर विचार करते हुए युक्तियां देते है 1- प्रत्येक सत्व जो विशिष्ट कार्य करता है, समान नाम से व्यवहृत होना चाहिए उदाहरणार्थ प्रत्येक सड़क पर दौड़ने वाला अश्व (दौड़ने वाला) कहा जाना चाहिए न कि केवल घोड़ा ही 2- प्रत्येक सत्व के उतने नाम होने चाहिए जितनी क्रियाओं से वह संबद्ध है जैसे-खंभे को स्थूल (सीधा खड़ा होने वाला) ही नहीं, उसे दहशया (गर्त में स्थित) और संजनी (जो बांसो के साथ संयुक्त की जाती है) भी कहना चाहिए 3- नाम रखने के लिए केवल उन शब्दों का प्रयोग होना चाहिए जो धातुओं से व्याकरण के नियम के अनुसार बनाए गए हों, जिससे वे जिस पदार्थ के वाचक हों, उसका अर्थ बिल्कुल स्पष्ट और भ्रांतिरहित हो उदाहरण पुरुष (आदमी) के स्थान पर पुरिशय (अर्थात् नगरवासी) होना चाहिए, अश्व (घोड़ा) अर्थात् अष्टा (अर्थात दौड़ने वाला) 4- यदि पदार्थो का नाम क्रियाओं के आधार पर रखा जाना है तो पदार्थ (सत्व) क्रिया से पहले होते हैं (उदाहरणार्थ अश्व अस्तित्व में आ जाता है इससे पहले होते हैं (उदाहरणार्थ अश्व अस्तित्व मे आ जाता है इससे पहले कि वह वास्तव में दौड़े) 5- नामों की व्याख्या करने में लोग कुतर्क करते हैं उदाहरण जब वह कहते हैं कि पृथ्वी (पृथिवी) यह इसलिए कहलाती है, क्योकि यह फैली हुई है (प्रथ)। तब वे यह नहीं सोचते कि इसे किसने फैलाया और उसका आधार (ठहरने का स्थान) क्या था।
यास्क की उस आलोचना का का उत्तर भी निघंटु और निरुक्त के टीकाकार ने दिया है, जिसमे कहा जा सकता है कि ऐसे शब्द होते हैं जिनका मूलरूप समान होता है, परंतु अर्थ भिन्न होता है उदाहरण लैटिन बनचध्बनचपकव इच्छा करना तथा संस्कृत ानच क्रुद्ध होना है, किंतु दोनों का एक ही मूल है। यास्क की सीमाएं भी थीं वह संस्कृत के अतिरिक्त कोई अन्य भाषा नहीं जानते थे। वह वैदिक और लौकिक संस्कृत के रूपो से परिचित थे। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से संस्कृत का लौकिक रूप वैदिक रूप का ही विकास है।
अब संस्कृत के बाद और भी भाषाओं का अस्तित्व ज्ञात हुआ है, यदि उनका अर्थ न भुला दिया गया हो तो आज भी अधिकांश शब्दों का मूल संस्कृत धातु में मिल जाता है।
  .245 शब्दार्णव, नया पटेल नगर कोंच रोड, उरई (जालौन)-285001 मो 9236114604

Tuesday, October 17, 2017

आचार्य शिवपूजन सहाय और उनका ‘देहाती दुनिया’

आचार्य शिवपूजन सहाय और उनका ‘देहाती दुनिया’
डाॅ राकेश नारायण द्विवेदी
9 अगस्त 1893 को ग्राम उनवांस थाना इटरही जिला शाहाबाद (बिहार) में आचार्य शिवपूजन सहाय का जन्म हुआ, जहां उनके पूर्वज उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिला से आए थे। शिवपूजन जी के पिता मुंशी ईश्वरी दयाल धार्मिक प्रकृति के व्यक्ति थे। वे उर्दू और फारसी भाषाओं के ज्ञाता थे। मुंशी जी डुमरांव राज में नौकरी करते थे। शिवपूजन जी की मां भी सात्विक महिला थीं। मध्यवर्गीय परिवार की क्षमता रखने वाले आचार्य शिवपूजन सहाय के तीन विवाह 1908, 1909 एवं 1926 में हुए। उनकी तीसरी पत्नी 1940 तक जीवित रहीं।
शिवपूजन जी ने उर्दू और फारसी भाषाएं गांव के मदरसे से सीखीं। इन भाषाओं के अतिरिक्त उन्होंने अंगे्रजी भाषा कायस्थ जुबली अकादमी आरा से सीखी और यहीं से उन्हांेने 1912 में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की। इससे आगे की शिक्षा पाने से वह वंचित रहे, पर इसकी कमी उन्होंने स्वाध्याय से पूरी की। शिवपूजन जी सनातनी संस्कार के व्यक्ति थे। राम और रामायण के प्रति इनकी अगाध श्रद्धा थी। आरा के अपने एक रिश्तेदार और ब्रज भाषा के कवि ईश्वरी प्रसाद शर्मा की प्रेरणा एवं हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकारों सूर्यकांत त्रिपाठी निराला एवं जयशंकर प्रसाद के प्रोत्साहन से वह कविता एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में आए। शिवपूजन जी संेट कोलंबस कालेज हजारीबाग के बेल्जियम निवासी शिक्षक एवं रामायण के अधिकारी विद्वान कामिल बुल्के के अभिन्न मित्र थे। उन्होंने कहीं लिखा है कि परलोक में जाकर जिससे मिलकर उन्हें अनिर्वचनीय खुशी होगी, वह शिवपूजन सहाय हैं।
बालगंगाधर तिलक की प्रसिद्ध पुस्तक गीता रहस्य एवं गांधीवादी साहित्य का शिवपूजन जी के व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव था। गीता के कर्मयोग एवं महात्मा गांधी के राजनीतिक दर्शन में उनका प्रगाढ़ विश्वास था। गोस्वामी तुलसीदास के रामचरितमानस पर उनका बाइबिल के अनुयायियों की भांति धार्मिक श्रद्धा थी। विक्टर ह्यूगो के लेखन से भी वह प्रभावित थे। विक्टर की कृति हंचबैक आफ नौट्र डेम का हिंदी अनुवाद उन्होंने किय।
शिवपूजन सहाय ने 1921 एवं 1947 के राष्ट्रीय आंदोलन मेें महती भूमिका निभाई। उन्होंने कांग्रेस के राष्ट्रवादी कार्यक्रमों का समर्थन किया एवं अपनी लेखनी से लोगों में आत्मविश्वास का संचार किया।  सामाजिक मुद्दों के प्रति वे उदारवादी थे। उन्होंने स्त्रियों की पीड़ा को समझा। वह स्त्री शिक्षा एवं युवावस्था की विधवाओं का पुनर्विवाह करने के पक्षधर थे। यद्यपि उन्होंने भारत में पश्चिमी शिक्षा की आवश्यकता को खारिज किया। इसके स्थान पर वे भारत के वैदिक एवं पौराणिक इतिहास की राष्ट्रवादी शिक्षा देना आवश्यक मानते थे। वे हृदय से गांधीवादी थे। उन्होंने गांधी के असहयोग आंदोलन का समर्थन किया। उन्होंने देशभक्ति, स्वतंत्रता एवं उदारता के गुणों से संपृक्त लेखन किया और 1920 में विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया।
मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद शिवपूजन जी वाराणसी सिविल न्यायालय में लिपिक हुए। बाद में वह आरा के टाउन स्कूल में हिंदी शिक्षक हो गए। 1920-21 में उन्होंने आरा नेशनल स्कूल में अपनी सेवाएं दीं। 1939 से 1949 के बीच वह राजेंद्र कालेज छपरा में हिंदी के प्रवक्ता पद पर कार्यरत रहे। इसी बीच उन्होंने 1941 में उन्होंने बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के 17वें अधिवेशन की अध्यक्षता की और बाद में 1944 में अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन की भी अध्यक्षता की। वह 1950 से 1959 तक बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के निदेशक रहे। शिवपूजन जी अपनी साहित्यिक उपलब्धियों के लिए कई बार सम्मानित किए गए। 1954 में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद से 1000/-रु का पुरस्कार मिला। साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में 1960 में उन्हें पद्म भूषण जैसा प्रख्यात नागरिक पुरस्कार प्रदान किया गया। 1961 में उन्हें पटना नगर निगम द्वारा नागरिक सम्मान दिया गया तथा अगले वर्ष भागलपुर विश्वविद्यालय द्वारा डी लिट् की मानद उपाधि से सम्मानित किया गया। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद द्वारा आचार्य शिवपूजन सहाय  के सृजनात्मक अवदान को एकत्रित करते हुए चार खंडों में ‘शिवपूजन रचनावली’ प्रकाशित कराई गई।
शिवपूजन जी शिव जी के नाम से लोकप्रिय थे। सादा जीवन उच्च विचार के प्रतिमूर्ति शिवपूजन जी पुरातन एवं नूतन परंपराओं के गुणग्राहक थे। उन्होंने सदा ज़रूरतमंदों की सहायता की। ब्रिटिश नीतियों के विरोधी होने के बावजूद वे किसी से घृणा नहीं करते थे। द्विवेदी युग के वे प्रमुख साहित्यकार थे। उन्होंने थियेटर आंदोलन को सहारा दिया। साहित्यिक स्मारकों और संग्रहालयांे  की योजना बनाई और अनेक अभिनंदन ग्रंथों का संपादन करके इस परंपरा को प्रारंभ किया। उनके द्वारा संपादित आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ के बारे में आचार्य नंददुलारे बाजपेयी ने लिखा है- ऐसा अभिनंदन ग्रंथ हिंदी में दूसरा नहीं है। शिवपूजन जी सजग पत्रकार और सहृदय साहित्यकार थे। इनका निधन पटना में 21 जनवरी 1963 को हुआ।
भारत में साहित्यिक पत्रकारिता के शलाका पुरुष शिवपूजन सहाय ने हिंदी की कई महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं का संपादन एवं प्रकाशन किया। 1921 में आरा से मारवाड़ी सुधार, 1923 के बाद मौजी, गोलमाल, आदर्श, उपन्यास-तरंग, मतवाला मंडल कोलकाता के तत्वावधान में समन्वय, लखनऊ से माधुरी, सुलतानगंज से गंगा, वाराणसी से जागरण (1932), 1934 में लहरियासराय से बालक के अतिरिक्त उन्होंने 1950-62 तक पटना से हिमालय एवं साहित्य पत्रिकाओं का संपादन किया। शिवपूजन जी राष्ट्रवादी एवं सुधारवादी लेखक थे। ब्रिटिश शासन के आलोचक शिवपूजन जी ने दहेजप्रथा, पर्दा प्रथा जैसी सामाजिक बुराइयों का विरोध किया। बाल साहित्य का सृजन उन्होंने बालक पत्रिका एवं बालोद्यान पुस्तक के रूप में किया।
शिवपूजन जी ने हिंदी की विभिन्न गद्य विधाओं में विपुल साहित्य सृजन किया। उन्होंने लगभग चार सौ लघु कहानियां, 67 जीवनियां तथा 150 से अधिक साहित्यिक लेख लिखे, 1926 में देहाती दुनिया जैसा प्रसिद्ध उपन्यास के अलावा जीवनियां एवं संस्मरण व रेखाचित्र भी उन्होंने लिखे।
शिवपूजन जी की ‘मेरा जीवन’ आत्मकथा 1985 में आई। स्मृति शेष नाम से संस्मरणात्मक निबंध 1994 में, हिंदी भाषा और साहित्य नामक निबंधात्मक आलेख 1994 में ही तथा जीवन दर्पण डायरी विधा में 1998 में प्रकाशित हुए। उक्त के अतिरिक्त उनके कुछ प्रमुख प्रकाशन हैं- बिहार की विभूति, वे दिन वे लोग, भीष्म, अर्जुन, कुंवर सिंह, ग्राम सुधार, दो घड़ी, मां के सपूत, अन्नपूर्णा के मंदिर में, महिला महत्व, बालोद्यान, आदर्श परिचय आदि। शिवपूजन जी का संपूर्ण कृतित्व दस खंडों में डाॅ मंगलमूर्ति द्वारा संपादित शिवपूजन सहाय साहित्य समग्र 2011 में प्रकाशित हुआ है। शिवपूजन जी ने भोजपुरी में भी कहानियां लिखी हैं। कुंदन ंिसंह केसर बाई नाम से उनकी ऐसी कहानी इंटरनेट के गद्यकोश में प्रकाशित है। शिवपूजन जी की रचनाओं में गांव केंद्रीय तत्व रहा है। उनके संस्मरणात्मक निबंध हों या कथा साहित्य; उनमें हमें ग्रामीण संस्कृति की वास्तविकता और यथार्थ का अंकन मिलता है। गांवों से लेखक का विशेष लगाव है, वैसे ही जैसे कोई विशाल वृक्ष अपनी मजबूत जड़ों के कारण पल्लवित होता रहता है, शिवपूजन सहाय भी अपने मूल से जुडे़ रहने के कारण महनीय हुए।
देहाती दुनिया उपन्यास की गणना कालक्रम की दृष्टि से प्रथम आंचलिक उपन्यास के रूप में की जाती है। इसी से इसे प्रयोगात्मक चरित्र प्रधान उपन्यास कहा गया है। व्यंग्य तत्व की अप्रधानता के कारण कालक्रम में पहले लिखे जाने एवं आंचलिकता के बावजूद इसे हिंदी का प्रथम आंचलिक उपन्यास स्वीकार नहीं किया जा सका। इस उपन्यास की पहली पांडुलिपि लखनऊ के हिंदू मुस्लिम दंगे में नष्ट हो गई थी। इसका शिवपूजन सहाय को बहुत कष्ट था। उन्होंने पुनः यह उपन्यास लिखकर प्रकाशित कराया, किंतु फिर भी शिवपूजन जी को संतोष नहीं हुआ। वह कहा करते थे- ‘पहले की लिखी हुई चीज कुछ और ही थी’
शिवपूजन जी के विषय में हिंदी के जाने-माने साहित्यकार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा था ‘आचार्य शिवपूजन सहाय अत्यंत निष्ठावान, सहृदय और निरंतर कर्म करते रहने में विश्वास करने वाले महान साहित्यकार थे। कठिन परिस्थितियों में भी उन्होंने ऊंचे आदर्शों और साहित्यकार के गौरवपूर्ण आत्माभिमान को कभी नहीं झुकने दिया। उनकी साहित्य सेवाएं बहुमूल्य थीं। वे नम्रता, शालीनता और कर्मठता के मूर्तिमान रूप थे।’  शिवपूजन जी को जानना अपनी धरोहर को जानना है।
शिवपूजन जी के साहित्यिक गुरु ईश्वरी प्रसाद शर्मा थे, पर वे अपने आराध्य गुरु आचार्य द्विवेदी को मानते थे। शिवपूजन जी का गद्य ‘ठेठ हिंदी का ठाठ’ की परंपरा का है। शुरू में उन्होंने आलंकारिक भाषा में लिखा, पर बाद में वह हिंदी उर्दू की मिश्रित शब्दावली में लिखने लगे।
देहाती दुनिया में शिवपूजन जी घोषित करते हैं- मैं ऐसे ठेठ देहात का रहने वाला हूं, जहां इस युग की नई सभ्यता का बहुत ही धुंधला प्रकाश पहुंचा है। वहां केवल दो ही चीजें प्रत्यक्ष देखने में आती हैं- अज्ञानता का घोर अंधकार और दरिद्रता का तांडव नृत्य। वहीं पर मैंने जो कुछ स्वयं देखा सुना है, उसे यथाशक्ति ज्यों का त्यों उसमें अंकित कर दिया है। 
इस उपन्यास में ग्रामीण जीवन की रीति-नीति, मानव व्यवहार, सामाजिक संबंध, बोली-बानी, व्यंग्य-विनोद, राग-द्वेष, दमन-शोषण, गीत-गान, कथाएं, मुहावरे आदि तत्वों को बुना गया है। उपन्यास के शीर्षक का देहाती नाम शिवपूजन जी ने सोद्देश्य रखा। देहातियों को गंवारू और अशिष्ट समझा जाता रहा। शिवपूजन जी मानो इस मान्यता को चुनौती दे रहे हैं कि यह एक ऐसी दुनिया है जो अज्ञानता और दरिद्रता से भरी हुई हो, पर इसकी जीवनी शक्ति और जिजीविषा का कौन कायल नहीं होगा्
रामसहर गांव की इस कथा में साधारण जनजीवन का इतिवृत दिया गया है। उपन्यास शिवपूजन जी स्वयं ही कहते हैं- इसका एक शब्द भी उनकी कल्पना की उपज नहीं है। जैसा देखा वैसा लिखा। भाषा का प्रवाह भी ठेठ देहातियों जैसा ही उपन्यास में मिलता है।
उपन्यास में गांव के चबूतरे पर गांव का जीवन और विमर्श चलता है। गांव में गांव के ही लोग दुकानदार है और वहीं के लोग खरीदार। उपन्यास की कथा में आर्थिक साम्राज्यवाद और उपभोक्तावाद ग्रामीण जनजीवन की मानो हंसी उड़ाता है। उपन्यास में सुविन्यस्त कथा नहीं मिलती। इसमें टुकड़ा-टुकड़ा कथा है। कहीं प्रतिरोध है तो कहीं सहिष्णुता। घटनाओं से अधिक मुहावरे ही कथा को आगे बढ़ाते हैं।
उपन्यास में रामटहल सिंह और उसकी रखेल बुधिया का एक प्रसंग है, जिसमें रामटहल की ब्याहता पत्नी महादेई से बुधिया का झगड़ा होता है। ब्याहता के घर में होने के बाद भी बुधिया ठाठ से रामटहल के घर में रहती है। बुुुुुुुधिया के यहां रामटहल से तीन बेटियों का जन्म होता है। बाद में वह मनबहल सिंह के साथ चली गई। यहां भी बुधिया का मोहभंग हुआ और वह सोहावन के घर चली गई। इस बीच बुधिया और रामटहल की बड़ी बेटी सुगिया का एक बूढ़े व्यक्ति के साथ अनमेल विवाह हो जाता है। तमाम विसंगतियों के बाद भी गांव के जीवन का रस अकुंठ बना रहता है। यहां के अशिक्षितों का लोक व्यवहार पढ़े लिखों पर भारी पडता है।
सुगिया का अपने बूढ़े पति गुदरी के प्रति विक्षुब्ध क्रोध देखें- ‘प्रेत के ऐसा मुंह लाता है मेरा मुंह चूमने। जी में तो आता है झाड़ू लेकर मुंह में मार दूं।’ पर गुदरी को जब एक खतरे में सुगिया पाती है तो वह उसकी चिंता करने लगती है। दारोगा की बुरी नजर सुगिया पर रहती है। यह सब देखकर सुगिया अपने को अभागिन कहती है। समालोचक परमानंद श्रीवास्तव ने अपनी पुस्तक ‘उपन्यास का पुनर्जन्म’ में इस उपन्यास और उसकी भाषा को गांव देहात की सीधी-सादी ढीली-ढाली कथा के बीच सुगठित कल्पना समृद्ध बिंबधर्मी गद्य कहा है।
राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित पेपर बैक संस्करण के 182 पृष्ठों के इस छोटे से उपन्यास में ग्रामीण जनजीवन के अनेक प्रसंग हैं, जिनमें ढोंग, पाखंड, कौतुक, किस्सागोई, अपनी तरह के निर्मित पौराणिक कथानक, सामंती क्रूरता, स्त्री द्वारा स्त्री का शोषण, व्यंग्य विनोद, अधूरापन, असंबद्धता, बिखराव, प्रगीतात्मकता, गहरे आंतरिक द्वंद्व, गहरी जिज्ञासा, कलात्मकता का अतिक्रमण आदि जीवंत हुए हैं।
उपन्यास में जिस तरह का पाखंड या लोकरीति वर्णित है, उसका उद्घाटन और अवगाहन एक सुलझे दिमाग की मांग करता है। अनमेल विवाह के एक प्रसंग में कहा गया है- ‘हाय रे राम! ताड़ बराबर कनिया का वर यही है। इसको तो वह अपने लहंगे में छिपा लेगी। यह उसका दूध पिएगा कि मांग भरेगा। धिया का अभाग है कि इस उमर में वर भी मिला तो ऐसा कि हाथ से धोती भी न पहिर सके।’ ग्रामीण जनजीवन में वर्जित बातें भी अकुंठ भाव से कह दी जाती हैं जिन्हेें अभिजात वर्ग कहने में संकोच करता है, उपन्यास में इस तत्व का सफल निर्वाह हुआ है।
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