Saturday, May 27, 2017

व्यक्ति नाम मानव जीवन के विविध पहलुओं के प्रतिबिंब

व्यक्ति नामः मानव जीवन के विविध पहलुओ के प्रतिबिंब
राकेश नारायण द्विवेदी
व्यक्ति नामों में हमें मानव जीवन के विविध पक्षों का प्रतिबिंब दिखता है। ऐसे कुछ पहलुओं को हम अधोलिखित बिंदुओं में देख सकते हैं-
प्रेम एवं घृणा के स्रोत :
नाम किसी धर्म, जाति, संप्रदाय या अन्य तत्वों से ही संबद्ध नहीं होते। व्यक्ति-नामों को जानकर हमारे मन में प्रेम और घृणा का भाव भी उत्पन्न होता है। जब हम बुंदेलखंड से संबद्ध गोस्वामी तुलसीदास का नाम सुनते हैं तो उनके नाम के प्रति हमारे मन में श्रद्धा और सम्मान का भाव जाग्रत हो जाता है। यही नहीं, उनसे संबंधित स्थान भी हमारे लिए तीर्थ सदृश हो जाते हैं। तुलसीदास का जन्म स्थान राजापुर (चित्रकूट) पावन तीर्थ हो गया है। ओरछा नरेश जुझार सिंह के अनुज हरदौल के नाम से संपूर्ण बुंदेलखंड में चबूतरा और मंदिर बन गए हैं, वह यहां के लोक देवता हो गये। ओरछा रामराजा सरकार के नाम से जाना जाता है। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का नाम संपूर्ण विश्व में वीरता और साहस का पर्याय बन गया है। वहीं जुझार सिंह जैसे नाम घृणा के कारक भी बन गए हैं, क्योंकि कथित तौर पर उन्होंने अपने अनुज भ्राता उदार और गुणी हरदौल को जहर देकर मरवाया था। रावतपुरा सरकार सहाव सरकार जैसे नाम प्रेम और आदर के स्रोत हैं।
पीड़ा के स्रोत :
कोई व्यक्ति जिसने समाज को क्षति पहुंचाई हो, डाकू हो, आततायी हो, उसके नाम से लोगों को पीड़ा जनक भाव उत्पन्न होने लगते हैं। निर्भय सिंह डाकू, कुसमा नाइन, फूलन देवी, गब्बर सिंह जैसे नाम लोगों को उनके साथ हुए घटनाक्रमों की पीड़ाजनक याद कराते हैं।
गंभीर एवं अवांछनीय परिणामों के स्रोत :
एक व्यक्ति नाम दूसरे व्यक्ति के नाम से अगर मिलता जुलता है तो पहले वाले नाम के परिवारीजन नाक भौं सिकोड़ते हैं। वे बाद वाले नाम के परिजन से संवाद स्थापित करना भी बंद कर देते हैं। उनके बीच कभी-कभी झगड़ा हो जाता है। ग्रामीण क्षेत्र में एक जगह देखा गया कि अरविंद की पत्नी दूसरे परिवार के अरविंद के पिता से झगड़ा करने लगी कि तुम्हें और कोई नाम नहीं मिला अपने लला का नाम रखने के लिए।
सांप्रदायिक तनाव के स्रोत :
एक राजनीतिक दल के कार्यकर्ता के यहां विभिन्न संप्रदाय के व्यक्ति उपस्थित थे। एक संप्रदाय के व्यक्ति ने हनुमत नाम के व्यक्ति से कहा तुम्हें लंगूर बना देंगे और बानर रूप भगवान का नाम लिया। वहां शेष दूसरे समुदाय के व्यक्तियों ने इस पर आपत्ति की। तनाव बढ़ते देख उपस्थित कार्यकर्ताओं ने मामले को शांत कराया। देखा होगा कि राम और कृष्ण नामी परिधानों को देखकर लोग भड़कने लगते हैं।
संकट और संरक्षण के स्रोत :
1984 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद बुंदेलखंड के कुछ शहरों में सिख व्यक्तियों से मारपीट की गई। उन्हें अपनी दुकान और प्रतिष्ठान बन्द कर छोड़ने को विवश किया गया। दुकानों में रखा सामान लूट लिया गया। सिखों की पहचान दाढ़ी और पगड़ी  देखने भर से हो जाती है। इस आशंका में कि सिखों ने कहीं दाढ़ी, पगड़ी हटा न ली हो, सिख सरदारों का नाम माता-पिता के नाम सहित पूछकर चिन्हित किया गया। हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक दंगे बुंदेलखंड कोटरा, उरई, कालपी, कोंच, कदौरा इत्यादि स्थानों पर हुए। दंगाई व्यक्तियों की पहचान नाम समझकर किया करते हैं। इसके साथ ही इन दंगों के समय ऐसे भी व्यक्ति मिलते है जो अन्य संप्रदाय के व्यक्ति को संकट के समय अपने घर में छिपा लेते हैं, जिससे उनकी जान का संकट टल जाए। 1947 में देश विभाजन के समय हुए हिंदू मुस्लिम सांप्रदायिक दंगों में 5 लाख से 8 लाख हिंदू, मुस्लिम तथा सिख मारे गए थे। मंटो और राही मासूम रजा के साहित्य से पता चलता है कि किसी व्यक्ति की पहचान उसके नाम से करते हुए उसकी जान बचती है या ले ली जाती है। डॉ इश्तियाक अहमद लिखते हैं 1947 में पूर्वी पंजाब में मुस्लिम नाम धारी व्यक्ति पूरी तरह असुरक्षित थे, पश्चिमी पंजाब में यही स्थिति हिंदुओं के साथ थी।1
परेशानी के स्रोत :
व्यक्ति नाम परेशानी का कारण भी बनते हैं। एक शिक्षक ‘रजिया फंस गई गुंडन में’ और ‘मुन्नी बदनाम हुई’ जैसे उदाहरण देकर शब्द शक्ति पढ़ा रहे थे। कक्षा में उपस्थित रजिया नाम की लड़की ने इस पर घोर आपत्ति प्रकट की कि आप मेरे नाम का उपहास कर रहे हैं। यहां तक कि उसकी आंखों में आंसू भर आए। शिक्षक ने खेद प्रकट किया। इस प्रकरण को उस शिक्षक के विरोधी कुछ अन्य लोगों ने कार्रवाई का मामला बनाना चाहा, पर स्वयं रजिया ने अपने शिक्षक के खिलाफ ऐसा करने को उचित नहीं समझा। वस्तुतः उसे अपने नाम से अरुचि है, जिसके लिए वह अपने माता-पिता को दोषी ठहराती है। किंतु रजिया ही क्या! ऐसी परेशनी किसी भी नाम को लेकर हो सकती है। बुद्धू सिंह एक प्रोफेसर के पिता का नाम है, लेकिन वह बेबाकी से इसे बताते और लिखते हैं। मुन्नी तो बड़ा सामान्य और बहुप्रचलित स्त्री नाम है, लेकिन फिल्म के गाने की पंक्ति का हिस्सा बनने के बाद मुन्नी के पुत्र-पुत्री झेंप जाते हैं। नाम की ऐसी ही परेशानी के संबंध में एक हास्य कहानी कही जाती है। एक थे छेदीलाल, इज़्ज़त थी, दौलत थी, शोहरत थी लेकिन घर वालों ने उनका नाम ऐसा रखा, जिसके चलते वह बहुत परेशान रहते। बेचैन रहते कि यह भी कोई नाम है भला इतना बड़ा आदमी और नाम छेदीलाल। हद तो तब होती जब उन्हें कुछ लोग चिट्ठी लिखते, नाम की जगह पेन से एक छेद बना देते और आगे लिख देते लाल। इस पर छेदीलाल लाल पीले हो जाते एक दिन उन्होंने तय किया कि अब नाम बदल लेंगे। पंडित जी के पास गए, पंडित जी ने बताया कि एक बार नाम पड़ गया तो पड़ गया। नाम बदलोगे तो धर्म भी बदलना पड़ेगा। छेदीलाल नाम बदलने पर आमादा थे। उन्होंने इस्लाम कबूल कर लिया। कलमा पढ़कर मौलाना ने कहा कि अब से आप मुसलमान हो गए। आपका नया नाम होगा सूराख अली। बेचारे छेदीलाल फिर परेशान। अब भी चिट्ठी वैसे ही आती। लोग नाम की जगह सूराख बना देते, आगे लिखते अली। धर्म बदलने के अभी भी छेदीलाल के पास विकल्प थे। उन्होंने इस बार ईसाई धर्म अपना लिया। पादरी ने चर्च में उन्हें ईसाई बना दिया और कहा अब तुम ईसाई बन गए और अब से तुम्हारा नाम होगा मिस्टर होल। धर्म बदला, पर नाम की तकदीर नहीं बदली छेदीलाल की। अब चिटिठयों में छेद मिस्टर के आगे लगने लगा, लोग मिस्टर लिखते और आगे छेद बना देते। बहरहाल छेदीलाल हार मानने वाले नहीं थे। कुछ दिनों बाद उन्होंने सिख धर्म अपनाने की ठानी। गुरुद्वारे में पहले ही कह दिया कि भाई मेरा नाम ऐसा रखना जिसमें कोई छेद, होल, सूराख न हो। तय हो गया। छेदीलाल सिख बन गए। गुरूद्वारे में मत्था टेका, पंथी ने कहा अब तुम सिख हो गए। तुम्हारा नया नाम होगा गड्ढ़ा सिंह। बचपन में मिले नाम से छेद हटाते-हटाते छेदीलाल गड्ढा तक पहुंच गए। मिलते जुलते नामों से परेशानी का एक वास्तविक उदाहरण देखिए। कोंच में एक दरोगा ने अभियुक्त की जगह किसी और को पकड़कर रातभर लॉकअप में बंद रखा और अगले दिन को उसका चालान न्यायिक मजिस्ट्रेट के यहां भेज दिया। मजिस्ट्रेट ने उसकी जमानत स्वीकार करते हुए जांच मुकद्मा संख्या 555/91 में संतोष पुत्र गंगा प्रसाद नि0 गांधीनगर कोंच को प्रस्तुत किया जबकि मामले में संतोष पुत्र गंगा प्रसाद नि0 जवाहर नगर कोंच अभियुक्त था।
भ्रम के स्रोत :
बुंदेलखंड के एक गांव में बासठ वर्षीय रामगुलाम के पिता का नाम नवाज है। रहीस खां की बाइस वर्षीय पुत्री मिम्मी है। अनारवती, नत्थू, सज्जो, मुस्लिम व्यक्ति नाम है तो राजो, सरी, सबरानी हिंदू व्यक्ति नाम हैं। इन पंक्तियों को लिखते समय यदि इन नामों की सांप्रदायिक पहचान प्रकट न की जाती तो इनके संप्रदाय के बारे में भ्रम ही बना रहता। ऐसे कई व्यक्ति नाम मिलते है, जैसे केसर - कै़सर (उच्चारण में दोनो नाम केसर है), मुन्ना, मन्नो, भूरे, पप्पू, आजाद, निहाल, रीना, गुड्डी, राजू यह नाम संप्रदाय की सीमा से परे हो गए। बुंदेलखंड में चौधरी जैन समाज के व्यक्ति नाम से पहले लगते है जबकि अहिरवार (चमार) नाम के बाद में चौधरी लिखते है। जाट बुंदेलखंड में कहीं से आकर ही बसे है, वह सभी संख्या में सीमित हैं। जाट भी अपने नाम में चौधरी लगाते है।
आकर्षण और समृद्धि के स्रोत :
पहले कई माता पिता अपनी बेटी के नाम के आगे रानी, देवी, वती, कुमारी जैसे द्वितीय पद जोड़ते थे। पहले पद में भी स्त्री नामों में अर्थगत समृद्धि और आकर्षण दिखाई देता है, हीरा देवी, राजरानी, गिरजारानी, चंद्रकुमारी, फूलारानी, राजेश्वरी जैसे स्त्री नाम देखे जा सकते हैं। पुरुष नामो में भी राजेंद्र भूषण, सुरेंद्र सिंह, लोकेश कुमार, नवनीत कुमार इत्यादि समृद्धि सूचक और आकर्षक शब्द मिलते हैं।
निवासीय पहचान के स्रोत :
व्यक्ति जब अपनी पहचान बढ़ा लेता है तब वह चाहता है कि उसके साथ उसके निवास क्षेत्र का भी यश हो। यह बात बुंदेलखंड क्षेत्र में हाल के वर्षां में दिखने लगी है। अपने गांव या शहर का नाम प्रायः कव्वाल या उर्दू शायर ही रखा करते थे, किंतु अब इसकी व्याप्ति बढ़ गई है। दक्षिण के राज्यों में अपने नाम के साथ स्थान का नाम जोड़ने की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। सर्वपल्ली राधाकृष्णन नाम में पहला पद राधाकृष्णन का पूर्वज स्थान है जो आंध्र प्रदेश राज्य में स्थित है। यद्यपि उनका जन्म तमिलनाडु राज्य के त्रुटानी स्थान में हुआ। ए.पी.जे. अब्दुल कलाम में ए. यानि अपुर स्थान का नाम है। केरल में भी ऐसे ही व्यक्ति नाम मिलते हैं के आर नारायणन में के यानि कोचरिल उनके स्थान का नाम ह।ै कर्नाटक के एच.डी. देवगौड़ा में हरदनहल्ली उनके गांव का नाम जुड़ा है। पी.वी.नरसिंहराव में पामुलपर्ति नरसिंहराव का गांव है।
बुंदेलखंड में यह पद्धति अब कहीं-कहीं देखी जा रही है। बृजलाल खाबरी में खाबरी उनके गांव का नाम जुड़ा है। गिल्लू भिटारी में भिटारी गांव का नाम है। रवींद्र हरौली, सुरेश इकहरा, जयप्रकाश जालौनी, जहीर ललितपुरी, मदन डकोर, मुखिया गोंती जैसे नाम स्थान नामों को जोड़ते हुए रखे गए है। स्थानों का नाम जोड़ने के साथ व्यक्ति अपने जाति नाम को प्रच्छन्न रख लेता है।
मातृभाषा पहचान के स्रोत :
बुंदेलखंड में बुंदेली भाषा का प्रयोग होता है, पर इसकी बहुत सी उप बोलियां हैं कुंद्री बांदा के दक्षिणी भाग में केन के किनारे, खटोला छतरपुर, टीकमगढ़, दमोह एवं पन्ना जिलों में, तिरहारी जालौन के उत्तरी भाग में यमुना नदी के किनारे, निभहा जालौन के पूर्वी क्षेत्र और यमुना के दक्षिणी तट की ओर, पवारी दतिया, शिवपुरी और गुना जिले में, बनाफरी मुख्यतः जालौन के पश्चिमी भाग बांदा तथा महोबा एवं आंशिक रूप से मध्य प्रदेश के पन्ना तथा छतरपुर जिलों में बोली जाती है, भदावरी भिंड, मुरैना, ग्वालियर तथा झांसी जिले में, भदावरी का एक रूप तोमर गढ़ी कहलाता हैं, लुधांती मुख्यतः राठ (हमीरपुर) जालौन एवं छतरपुर के लोधी बहुल क्षेत्रों में, लुधांती बोली का एक और रूप राठौरी कहा जाता है। लुधांती के विच्छिन्न रूप नरसिंह पुर, बालाघाट, छिंदवाड़ा तथा महाराष्ट्र के भंडारा एवं नागपुर जिलों में पाए जाते हैं, सागरमाडु सागर जिले एवं आस-पास के क्षेत्रों में तथा मिश्रित बुंदेली छिंदवाड़ा, बालाघाट, मुरैना, शिवपुरी, विदिशा, रायसेन, भोपाल, होशंगाबाद एवं गुना के क्षेत्रों में बोली जाती है।
बुंदेलखण्ड के प्रस्तावित राज्य में उत्तर प्रदेश के झांसी, ललितपुर, जालौन, बांदा, चित्रकूट, महोबा व हमीरपुर तथा मध्य प्रदेश के सागर, पन्ना, दमोह, छतरपुर, टीकमगढ़ तथा दतिया जिला सम्मिलित है। इन जिलों में संपूर्ण रूप से बुंदेली संस्कृति विद्यमान है, अन्य सीमावर्ती जिलों में बुंदेली का प्रभाव है, पर वहां अन्य भाषा बोली और संस्कृति का प्रभाव अधिक है। इस नाते उसमें विवाद बन सकता है। राठ तथा अन्य क्षेत्रों के कुछ व्यक्ति अपने नाम के आगे लोध, लोधा, लोधी लिखते हैं उससे उनके बुंदेली के लोधांती रूप की पहचान हो जाती है। महोबा तथा जालौन के कुछ क्षत्रिय जाति के व्यक्ति बनाफर अपने नाम में जोड़ते हैं उससे उनके उस बोली रूप का भी परिचय मिलता है। भदौरिया उपनाम भदावरी बोली रूप को तो तोमर तोमरगढ़ी बोली रूप को प्रकट करता है। बोली रूप और जाति विभेदक परस्पर बोधक भी है अर्थात् जाति के नाम से बोली और बोली के नाम से जाति का संबोध होता है।
क्षेत्रीय पहचान के स्रोत :
मातृ भाषा पहचान के स्रोत के अंतर्गत कहा जा चुका है कि व्यक्ति की मातृभाषा की पहचान भी व्यक्ति नामों से होती है। बोलियों के विविध रूपों से व्यक्ति की क्षेत्रीय पहचान भी संभव हो जाती है। क्षेत्रीय पहचान के अन्य स्रोत भी है, जैसे कान्यकुब्ज और सरयूपारीण ब्राह्मण झांसी से आगे मध्य प्रदेश में मूलरूप में नहीं मिलते। इसी तरह चित्रकूट और बांदा जनपदों में मुख्यतः सरयूपारीण और कान्यकुब्ज ब्राह्मणों का निवास है, यहां जुझौतिया ब्राह्मण नहीं मिलते। सागर और झांसी जनपदों  में महाराष्ट्री ब्राह्मणों का निवास है। बहुत से सनाढ्य ब्राम्हणों के आस्पद ‘इया’ प्रत्ययांत मिलते हैं जैसे समाधिया, चाचोंदिया, चंसौलिया आदि। सनाढ्य ब्राह्मणों का क्षेत्र जालौन झांसी, महोबा और ललितपुर मुख्य रूप से है। निरंजन कुर्मी जाति के व्यक्तियों का अंतिम नाम पद है, किंतु कानपुर के आसपास के कुर्मी कन्नौजिया, कटियार इत्यादि लिखते हैं। बुंदेलखंड के कुर्मी निरंजन और सरदार बल्लभभाई पटेल के प्रभाव से पटेल लिखते हैं। राजपूत राजस्थान में क्षत्रिय जाति के व्यक्ति लिखते हैं, जबकि बुंदेलखंड में लोधी जाति के व्यक्ति राजपूत लिखते हैं। कुशवाहा काछी जाति के व्यक्ति है, जबकि इस जाति के व्यक्ति अन्यत्र कुशवाहा नहीं, अपितु मौर्य और शाक्य इत्यादि लिखते हैं। बुंदेलखंड में पासी जाति बहुत कम है। यहां यह अहिरवार और जाटव अधिक लिखतें हैं। मराठा व्यक्ति नाम बुंदेलखंड के उन्हीं क्षेत्रों में मिलते हैं जहां मराठा शासकों का राज्य रहा है। जालौन जिला में परमार क्षत्रिय नहीं मिलते। इसी तरह चौरासी गांव के ठाकुर जालौन के अतिरिक्त बुंदेलखंड में कहीं और नहीं मिलते। सौंर या सहरिया आदिवासी मुख्यतः ललितपुर जिला में ही पाये जाते है। उत्तर प्रदेश के बुदेलखंड में यह अन्यत्र नहीं मिलते। ढांढ़ी जाति जालौन जिले में मिलती है। इस जाति के व्यक्ति राजस्थान के पाली से पालीवालों के साथ या उनके प्रभाव से यहां आ गए। पालीवाल ब्राह्मण मुख्यतः जालौन, हमीरपुर और बांदा जिलों में मिलते हैं। जैन समाज बुंदेलखंड के जालौन, हमीरपुर, महोबा, बांदा, चित्रकूट में नहीं है, बुंदेलखंड के शेष जिलों में यह बहुत हैं। जैन समाज के व्यक्ति ललितपुर जनपद में सर्वाधिक हैं। जिले की समूची आबादी में जैन 2 प्रतिशत से अधिक है। सामान्यतः मोगिया जाति ललितपुर जनपद में मिलती है। बेड़िया और बेड़नी जो बुंदेलखंड के प्रसिद्ध लोकनृत्य राई के विशेषज्ञ हैं, वे ललितपुर जनपद में निवास करते हैं। फ्रांसीसी जॉन वेप्टिस्ट के वंशज ललितपुर जनपद के ग्राम जरया में रहते आए हैं। पपौरा जैन टीकमगढ़ जिले के पपौरा क्षेत्र के व्यक्ति हैं। वेत्रवती या बेतवा पर जो व्यक्ति नाम मिलते हैं, उनसे उन व्यक्तियों की बुंदेलखंडी पहचान अभिज्ञात होती है। बेतवा बुंदेलखंड की प्रमुख नदी हैं। इसे बुंदेलखंड की गंगा कहा गया है। झांसी के आस-पास रानी लक्ष्मीबाई। पन्ना के आस-पास जुगलकिशोर और महामति प्राणनाथ, टीकमगढ़ एवं छतरपुर में कुंडेश्वर और जटाशंकर पर बहुत से नाम वहां की स्थानीयता को शामिल करते हैं। मैहर की शारदा, दतिया की रतनगढ़ माता, ओरछा के रामराजा, अछरू माता, छतरपुर के राजा छत्रसाल, दतिया की पीतांबरा माता को यहां के व्यक्ति कई रूपों में नाम देकर सुरक्षित किए हुए हैं।
वंश परंपरा के स्रोत :
बुंदेलखंड में व्यक्ति अपनी राजपरंपरा अथवा जो वंश जिस कार्य के कारण ख्याति प्राप्त हुआ, उसके नामों को व्यक्ति नाम के रूप में जीवित बनाए हुए हैं। असलम आतिशबाज लिखते हैं। उनके बाबा/परबाबा ने राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह से उम्दा अतिशबाज होने का प्रशस्ति पत्र पाया था। बुंदेला राजाओं के वंशज बुंदेला, गहरवार वंशी गहरवार लिखते है।ं ओरछा के महाराजा मधुकरशाह के वंशज अपने तीन पीढ़ियों के नामों को पुनरावर्तित करते हैं। उनके वंशज अभी ओरछा नरेश या ओरछेश लिखते हैं। बुंदेलखंड अंचल से स्नेह और समर्पण के कारण न केवल बुंदेला क्षत्रिय अपितु अन्य व्यक्ति भी बुंदेला लिखते हैं। शिवानंद मिश्र ‘बुंदेला’ अपना कवि नाम लिखते रहे। क्षत्रिय परिवार के व्यक्ति परिवार पुच्छ के रूप में ‘राजे’ं लिख रहे हैं। यशोधरा राजे, उषा राजे सिंधिया परिवार की स्त्रियां अभी लिख रही हैं।

व्यक्तिनामों की सामाजिक-सांस्कृतिक प्रासंगिकता :
ऊपर सामाजिक-सांस्कृतिक बारीकियों एवं उनके विविधायामी स्रोत देखकर स्पष्ट होता है कि बुंदेलखंड में व्यक्ति नाम हिंदू समाज ही नहीं सारे भारतीय समाज के विभिन्न परिवर्तनों और प्रभावों के साक्षी है। व्यक्ति नामों में सामाजिक और धार्मिक बारीकियां ही परिलक्षित नहीं होती, वरन् उनमें हमें व्यक्तियों की आशा-आकांक्षा, अतीत-वर्तमान, प्रेम-घृणा, समृद्धि-आकर्षण-विकर्षण दिखाई देते हैं। विभिन्न सामाजिक स्तर और व्यक्तियों की मानसिक दशाओं को व्यक्ति नाम सामने रखते हैं। उदाहरण के लिए कोई माता-पिता अपने जातक नाम वीर, बहादुर, विक्रम, शौर्य, रिपुदमन, विजय, दिग्विजय, यशवंत रखता है तो उसकी आशा-आकांक्षा ही ऐसे नामों में झांकती है। भीम, अर्जुन, अभिमन्यु, कर्ण, राम, लक्ष्मण, रघुवीर कृष्ण जैसे नामां में व्यक्तियों का अतीत और वर्तमान बोलता है।
हमने देखा है कि लाड़-दुलार-प्यार एवं भय-आशंका में बच्चों के विकृत और कर्णकटु नाम रखे जाते हैं, वही उपेक्षा और हिकारत भी व्यक्ति नामों में गोचरित हुई है। जहां व्यक्ति अभिजात वर्ग के हुए। उनके जातकों के नामों में सौंदर्य, आकर्षण और सुरुचिसंपन्नता स्पष्ट दिखाई देती है। जो किसान-मजदूर और श्रमिक वर्ग है उसके नामों में तद्भवता है, तत्सम शब्दों को उनकी मुख ध्वनियों से रगड़ खाते शब्द अपनी तरह का बना देते हैं। वे कृष्ण नहीं बोलते तो क्या उनके ‘किसन’ में कम लाड़-प्यार और आशा-आकांक्षा नहीं है। नामों के माध्यम से हम धर्म, संप्रदाय, जाति, क्षेत्र, बोली की पहचान आसानी से कर लेते है। व्यक्ति नाम हमारी संस्कृति के जीवंत स्मारक है, जिनमें हम संबंधित क्षेत्र के इतिहास, राजनीति, भूगोल, नृतत्वशास्त्र, धर्म, अर्थ-व्यापार जैसी गतिविधियों का अक्स देख सकते हैं। देशों पर विदेशी आक्रमाण होते हैं। आक्रांता हमारे राज्य और समूचे तंत्र को अपने अधीन कर लेते हैं। यहां तक कि स्थानों के नामों को भी बदल देते हैं, पर व्यक्ति नामों पर विदेशी आक्रांता अपना प्रभाव नहीं डाल पाते। व्यक्तियों की मुख ध्वनियों में वह नाम सुरक्षित रहता है। ब्रिटिश राज व्यवस्था में हमारे स्थानों के नाम बदल गए, ऐसा परिवर्तन अंग्रेजों की अपनी ध्वनि व्यवस्था के कारण भी हुआ। किसी भाषा में ध्वनि परिवर्तन होता ही है, ब्रिटिश काल में उनकी भाषा अंग्रेजी की ध्वनियों के परिणामस्वरूप कई स्थानों के नामों का उच्चारण बदल गया। कई स्थान-नामों को अब अपनी मूल ध्वनि के अनुरूप रखा जा रहा है जैसे कोलकाता, मुंबई, चेन्नई, पुडुचेरी, बेंगलुरू, गुवाहाटी (गौहाटी) आदि नाम अपने वास्तविक रूप में आ गए हैं। बुंदलेखंड के उरई को अंग्रेजी में ओरई लिखा जाता है, जिसकी स्थानीय ध्वनि व्यवस्था से संगति नहीं बैठती। व्यक्ति नाम व्यक्ति की मृत्यु के साथ समाप्त हो जाते हैं, लेकिन उनका कमाया हुआ यश नहीं मरा करता। अतः जो व्यक्ति नाम ऐतिहासिक हैं, उन्हें छोड़ भी दें तो अन्य व्यक्ति नाम भी भाषा-बोली की ध्वनियों को सुरक्षित करते हुए आगे बढ़ रहे है। व्यक्ति नाम हमारे समकालीन समाज की नामकरण पद्धति को भी सम्मुख रखते हैं। व्यक्ति अब किन शब्दों को नामों के लिए अपना रहा है। बुंदेलखंड में व्यक्ति अपने जाति विभेदक नामों को त्यागकर स्थान नाम जोड़ने लगे हैं। जाति व्यवस्था के कारण अनिवार्य रहे विभेदक तत्वों को त्याज्य समझा जाने लगा है। नई पीढ़ी जाति, धर्म और क्षेत्र की संकीर्णताओं से ऊपर उठने लगी है। अगर वह इन्हें मानती भी है तो किसी को हेय समझने के लिए नहीं, वरन् अपनी अस्मिता मात्र के लिए। सुरुचिपूर्ण नामों का आकर्षण अब सभी जातियों के व्यक्तियों के लिए होने लगा है। उपेक्षा और हिकारत के नामों को अब व्यक्ति नापसंद करने लगे है। अंधविश्वास के कारण कर्णकटु और भद्दे नामों से व्यक्ति दूरी रखने लगे हैं। पारंपरिक रूप में व्यक्ति की पहचान उदारीकरण के कारण तिरोहित हो गई है, इसलिए वह उस पहचान को नए सिरे से स्थापित करने में लगा है। बुंदेलखंड की स्त्रियां भी अब अपनी पुरानी पहचान के साथ नई पहचान को जोड़ रही है। या फिर उन्होंने दोनों पहचानों को अनावश्यक मान लिया है। अब वे श्रीमती और सुश्री के भेद से भी बाहर आने लगी हैं कि आखिर उनकी वैवाहिक स्थिति का पता होना क्यों आवश्यक है! विविध क्षेत्रों में हो रहे समकालीन परिवर्तनों से व्यक्ति नाम अछूते नहीं है।
-245 शब्दार्णव, नया पटेल नगर, कोंच रोड, उरई (जालौन)
मोबाइल 9236114604

नाम परिभाषा और स्वरुप

नाम परिभाषा एवं स्वरूप
राकेश नारायण द्विवेदी
मनुष्य की वाक् शक्ति के विकास में सर्वप्रथम वस्तुओं का नामकरण हुआ। ऋग्वेद में उल्लेख है बर्हस्पते प्रथम वाचो अग्रं यत परैरत नामधेयंदधानाः। नाम ही वह माध्यम बने जिनसे व्यक्ति ने अज्ञात और अप्रकट को प्रकट किया। नाम के बिना रूप का कोई महत्व नहीं है।
‘नाम’ की व्युत्पत्ति नम् $ णिच् $ ड से की गई है। नाम- म्ना $ मनिन। म्ना धातु अभ्यास करने के अर्थ में होती है। अतएव ऐसा शब्द जो किसी को पुकारने के लिए पुनः-पुनः प्रयुक्त हो, नाम कहलाता हैं। म्ना और मैन की रिश्तेदारी बनती है। इससे प्रतीत होता है व्यक्तियों के लिए प्रयुक्त शब्द ही सर्वप्रथम नाम कहलाए। किसी शब्द विशेष से जब वस्तु, व्यक्ति या समूह का निर्देशात्मक ज्ञान प्राप्त करते हैं, उसे नाम कहते हैं। नाम से हम सूचना या निर्देश ही प्राप्त करते हैं। वेदांतियों के मत से पूर्ण सत्य किसी शब्द में व्यक्त नही हो सकता। इसीलिए भगवान से अधिक उनका नाम महत्वपूर्ण कहा गया। नाम महामंत्र है। नाम का जतन’ करने से वही ब्रह्म ऐसे प्रकट हो जाता है‘, जैसे रत्न के जानने से उसका मूल्य। वहीं आगमिक मत के अनुसार कहा गया कि जब कोई नाम बोला जाता है तब यह निश्चित ही किसी सत्ता को व्यंजित करता है। यह पूर्ण सत्य का प्रत्यक्षीकरण है। वस्तु और समूह नामों को जब सामाजिक स्वीकृति मिलती है, तब वह रूढ़ हो जाते है फिर कोई यदि गुलाब को किसी अन्य नाम से पुकारेगा भी तो उसकी पहचान अन्य नाम से तब तक नहीं हो सकती, जब तक कि वह अन्य नाम रूढ़ न हो जाए। अर्थात् जनसामान्य में प्रचलित होकर सर्वमान्य होने पर ही वस्तु, स्थान और समूह नाम स्वीकृत होते हैं। व्यक्ति नाम माता-पिता अथवा परिवेश द्वारा रखे जाते है, लेकिन उनमें ‘म्नायते अभ्यस्यते नम्यते अर्थोऽनेन वा’ के अनुरूप बार-बार दोहराने की क्रिया सम्मिलित रहती है। अर्थात् जिससे किसी को पुकारा जाए या अर्थ ग्रहण किया जाए। नम्यते यानि प्रवृत होना, झुकना या डूबना। अभ्यस्यते यानि ध्यानाकर्षण, अभ्यास (नम यानि पुकारना)। नाम का तात्पर्य व्यक्तिवाचक संज्ञा से है, जिसे अंग्रेजी में प्रोपर नाम कहा गया है। व्यक्ति ‘एक’ का वाचक है, जो व्यक्ति, स्थान अथवा वस्तु सभी को समाविष्ट करता है। एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका में दी गई परिभाषा के अनुसार नाम वह शब्द अथवा लघु शब्द समूह है जो किसी समूह में एक विशेष और समूचे अस्तित्व अथवा सत्ता की ओर संकेत करता है। यह आवश्यक नहीं कि वह उसके गुण विशेष को भी इंगित करें।
विद्वानों का एक वर्ग नामों को सार्थक और स्वगुणार्थक मानता है तो दूसरा वर्ग उन्हें निरर्थक एवं संकेतार्थक। नाम में संकेतार्थकता अवश्य होती है, इसलिए वह सार्थक है। नाम स्वगुणार्थक भले न हो, परंतु ये निरर्थक कदापि नहीं होते। यशवंत नाम का व्यक्ति यशवाला न हो, परंतु उससे एक व्यक्ति का बोध होता है जो एक विशिष्ट संदर्भ में अभिज्ञापित हो सकता है। साथ ही वह अपने नामकर्ता या परिवार अथवा समाज के सांस्कृतिक स्तर की ओर इंगित करता है। यास्क, पतंजलि, भर्तृहरि इत्यादि मनीषी नाम के इस सांदर्भिक अर्थ को स्वीकार करते हैं। किसी काल विशेष के नामों में लोगों की तत्कालीन प्रवृत्तियां, रीति रिवाज, उनकी संस्कृति निहित रहती है। यदि नाम को मात्र कल्पना ही माने तो कल्पना की आधार भूमि तत्कालीन संस्कृति ही होगी। अश्रुत, अज्ञात एवं निरर्थक नाम का प्रयोग मानव की कल्पना में संभव नहीं है। सिगमंड फ्रायड इसीलिए नाम को व्यक्ति के मन का एक भाग मानता है। कुछ लेखक नाम को पावर कहते है। अर्थ प्रायः परिवर्तनशील है किंतु शब्द नित्य माना गया है। शब्द का अर्थ से संबंध अनित्य होता है। शब्द के अर्थ में परिवर्तन होता रहता है। अर्थ से साक्षात् संबंध होने से और उसमें परिवर्तन होने के कारण नाम अनित्य हैं, यद्यपि शब्द के रूप में उसे भी नित्य माना जा सकता है। भद््दे नाम वाले व्यक्ति के व्यक्तित्व पर भले ही उसका प्रभाव सहजता से न जाना जा सके, परंतु नामोच्चारण के अवसर पर उसे संकुचित होते हुए प्रायः सभी ने देखा होगा।
नामों में स्वगुणार्थकता न होने के कारण उन्हें निरर्थक मानने वाला वर्ग भी है। विलियम शेक्सपियर (1964-1616) ने मानव जीवन की शाश्वत भावनाओं को बड़ी कुशलता से चित्रित किया है। रोमियो एंड जूलियट शेक्सपियर के प्रारंभिक नाटकों में है। नाटक की कथावस्तु का सार यह है- जुलाई का महीना था। बसंत ऋतु अपनी जवानी पर थी। इटली के वेरोना नगर के एक कुलीन परिवार से मांटेग्यू के घर मुखौटा नृत्य का आयोजन हुआ था, यह रोमियों का अपना घर था।
नृत्य के अवसर पर केपुलेट परिवार की जूलियट भी रोमियों के घर आई हुई थी। इसी नृत्य के दौरान दोनो की आंखें चार हो गई और ह्नदय की गहराई में उतर गई। रोमियों अपने को न रोक सका। उसने जूलियट के घर जाकर उसके निजी कक्ष में पहुंचकर अपने प्रेम का इजहार किया। जूलियट भी रोमियो पर फिदा थी। वह उसे पाने के लिए तड़प रही थी, किंतु दोनो परिवारों के बीच वर्षों से चली आ रही शत्रुता से रोमियो और जूलियट की शादी संभव नहीं थी। दोनों ने ऐसे में चुपके से एक गिरजाघर में जाकर शादी कर ली, लेकिन दुर्भाग्य से दोनो परिवारों में जंग छिड़ गई।
लड़ाई में रोमियों के एक करीबी दोस्त की मौत हो गई बदले में रोमियो ने भी जूलियट के चचेरे भाई की हत्या कर दी। रोमियों को देश के बाहर जाने की सजा मिली। इसी बीच जूलियट के पिता ने उसका विवाह पेरिस के काउंट के साथ निश्चित कर दिया। रोमियो नगर से निष्काषित जीवन जी रहा था। वह जगह-जगह जंगल-जंगल भटक रहा था और जूलियट-जूलियट रट रहा था। रोमियो की अनुपस्थिति में जूलियट उदास थी। शादी से बचने के लिए वह नींद वाली दवाई पीकर सो गई ताकि सबको लगे वह मर चुकी है।
रोमियो को इस नाटक के बारे में कुछ पता नहीं था। जूलियट के मरने की खबर पाकर वह वहां पहुंचा। उदास मन से उसने जूलियट को अपना आखिरी चुंबन दिया और जहर पीकर अपनी जान दे दी। जब जूलियट का नशा उतरा तो सामने अपने प्रेमी की लाश देखकर वह सन्न रह गई। उसने रोमियो के छुरे से ही खुद को मार डाला। दोनों ने एक साथ दुनिया को अलविदा कह दिया। दोनो परिवार उस समय एक हुए जब प्रेमी युगल का जोड़ा दुनिया से उठ चुका था।
इस नाटक की ही पंक्ति what's in a name है, जिसे नाम चर्चा के समय बहुत अधिक उद्धृत किया जाता है। इसका संदर्भ जानना आवश्यक है। नाटक के द्वितीय अंक के द्वितीय दृश्य में जूलियट रोमियो के संबंध में कहती है -
जूलियट- आह रोमियो! क्यों हो तुम रोमियों! अपने पिता को अस्वीकृत कर दो, अपना यह नाम त्याग दो। यदि तुम ऐसा नहीं कर सकते तो तुम मेरे प्रेम से प्रतिश्रुत हो और फिर मैं कैपुलेट नहीं रहूंगी। रोमियों (स्वगत)- क्या मै और सुनता रहूं या इसका उत्तर दूं। जूलियट- तुम्हारा नाम ही तो मेरा शत्रु है, तुम तुम ही हो, तुम मांटैग्यू नहीं हो। क्या है मांटैग्यू। न हाथ, न पांव, न बाहु, न आनन मनुष्य का कोई भी तो अंग नहीं। कोई और नाम रख लो न?
नाम में है ही क्या यदि हम गुलाब को किसी और नाम से पुकारते, तो तब भी उसमें इतनी ही सुगंध आती। यदि रोमियो को इस नाम से न पुकारा जाता, तब भी रोमियो तो वही रहता। इस नाम के बिना भी उसकी यह बहुमूल्य पूर्णता तो अभावग्रस्त न होती। रोमियो! छोड़ दो अपना यह नाम। नाम में तुम्हारा कोई भाग नहीं, इस नाम के बदले मुझ संपूर्ण को ले लो।
रोमियो- तुम्हारा वचन ही मेरा प्रमाण हो। प्रेम ही तो मुझे चाहिए। मैं पुनः नामकरण संस्कार कराऊंगा। अब मैं कभी-भी रोमियों नहीं रहूँगा।
‘नाम में क्या रखा है’ कहते समय शेक्सपियर की यह बात भाषा विज्ञान की दृष्टि से बिल्कुल गलत थी कि गुलाब को अगर और नाम से पुकारें तो उसकी खुशबू चली नहीं जाऐगी। और किसी नाम से पुकारने पर गुलाब की पहचान ही नहीं रह पाएगी, क्योंकि गुलाब नाम उस फूल के लिए सामाजिक मान्यता प्राप्त कर चुका है। हम गुलाब को अन्य जो भी कहें, दूसरे व्यक्ति उसे कैसे समझ पाऐंगे।
दूसरी बात वस्तुओं के नाम और व्यक्तियों के नाम एक ही तरह के नहीं होते। वस्तुओं के नामों के लिए सामूहिक स्वीकृति अनिवार्य है, वहीं व्यक्तियों के नाम परिवार की संस्कृति के दिग्दर्शक होते हैं।
शेक्सपियर की यह उक्ति वस्तुतः नाम और शब्द को एक मानने के कारण कही गई। यह ठीक है कि नामों की निर्मिति हमारे चिरपरिचित शब्दों से होती है, परंतु शब्द जब एक बार नाम के रूप में प्रयुक्त होते हैं, तब वे शब्द नहीं रह जाते। आक्सीजन और हाइड्रोजन के संयोग से जल बनता है। जल में उक्त दोनों तत्वों की अवस्थिति तो है परंतु जल बनने के पूर्व जैसी नहीं। अतः जल का परीक्षण विश्लेषण उसके निर्माणक तत्वों के विश्लेषण परीक्षण से भिन्न होगा, इसमें कोई संदेह नहीं। इसीलिए शब्दों का अनुवाद अन्य भाषाओं में हो जाता है किंतु नामों को हमें यथारूप सभी भाषाओं में ग्रहण करना होता है। एक नाम से एक ही व्यक्ति या वस्तु का बोध होता है, परंतु जब वह नाम शब्द ध्वनि मात्र होता है तब वह व्यक्तिवाचक से जातिवाचक बन जाता है।
इस उक्ति के समर्थक कहतें है कि मानव मनोविज्ञान नाम को हलका मानता हैं, इसलिए शेक्सपियर ने यह बात कही, लेकिन नामकरण के प्रति व्यक्ति की सजगता किसी से छिपी हुई नहीं है। नामकरण के समय मनुष्य के मन में बहुत सी सांस्कृतिक स्थितियां विद्यमान रहती है। चाहे वह किसी तरह का नाम रखे। शेक्सपियर के इस नाटक में ही नाम बदलने का मनोविज्ञान समझा जा सकता है। रोमियों और जूलियट के परिवारों में परस्पर शत्रुता थी। वे उस समस्यामूलक अतीत से अपना छुटकारा चाहते थे। जूलियट से प्रेम के कारण रोमियो अपना नाम बदलने के लिए तैयार भी हो जाता है। ऊपर के संवाद में दोनों प्रेमियों के परिवार नाम केपुलेट और मांटैग्यू के प्रति ही विरक्ति दिखाई पड़ती है। रोमियो के लिए तो जूलियट रोमियो नाम से ही पुकारती है। इस प्रकार नाम को शेक्सपियर की इस कहानी में भी संवेदनशील ही समझा गया है।
नाम और शब्द को एक मानने का कारण यह भी रहा है कि इन दोनों मूलरूपों का अध्ययन व्युत्पत्ति के माध्यम से किया जाता रहा है। वस्तुतः व्युत्पत्ति के लक्ष्य एवं उसकी प्रणालियों ने दीर्धकाल तक नामों को उन शब्दों के रूप में घटाने का प्रयास किया है, जो वे नाम बनने के पूर्व थे। इस प्रकार नामों के संकेतार्थ एवं वैशिष्ट्य को सर्वथा भुलाने का प्रयास किया गया है। जैसा सैफ अली और करीना कपूर के बच्चे का नाम तैमूर रखे जाने पर अर्थ देखा गया कि अर्थतत्व के रूप में बहुत से लोग तैमूर शब्द का अर्थ लोहा लेते रहे, जबकि देश का बहुत बड़ा वर्ग इसे क्रूर मंगोल शासक तैमूर लंग से अनुकृत मानकर नामकर्ता की मानसिकता को दोषी बता रहा है। फेसबुक पर शबनम शुक्ला कहती है नाम तलवार सिंह है, पर क्या वह आदमी तलवार है। ऐसे भी नाम होते है, जिन्हें हम निरर्थक कह सकते हैं जैसे पप्पू गुड्डू, गोलू, मुन्ना, पुल्लू, सट्टू इत्यादि। परंतु नाम रूप में वे व्यक्तियों की भावना से जुड़कर एक विशिष्ट अर्थ की प्रतीति कराते हैं, जिसे हम नामवैज्ञानिक अर्थ कह सकते हैं। नाम का व्युत्पत्ति मूलक अन्वेषण ही नाम विज्ञानी का कार्य नहीं है, वह तो प्रत्येक नाम वैज्ञानिक अध्ययन का प्रारम्भिक सोपान है। प्रयोगवाद के नामकरण के संबंध में नामवर सिंह ने कहा है कि नामकरण प्रायः औचित्य-अनौचित्य का ध्यान रखे बिना ही हो जाता है। इसलिए प्रयोगवाद नाम निरर्थक और अपर्याप्त होते हुए भी हिंदी साहित्य के इतिहास में अब स्थापित तथ्य है। इससे अब एक निश्चित काल प्रवृत्ति का बोध होता है, प्रचलन से इसमें पर्याप्त अर्थवत्ता आ गई।
नाम के संबंध में डॉ भीमराव अम्बेडकर ने भी यही माना है कि सबसे पहले नाम के अर्थ का प्रश्न उत्पन्न हो।
इसका अर्थ है कि नामी के बारे में पढ़ने-सुनने वाले व्यक्ति पर उसका पहला प्रभाव नाम से ही जाता है। त्रिधा जिज्ञासा में नाम धाम और काम सम्मिलित है। नाम जिज्ञासा सर्वप्रथम है।
नाम और रूप का संबंध निरूपण करते हुए विद्याभूषण विभु ने लिखा है- नाम कल्पित एवं कृत्रिम है तो रूप प्रकृति-प्रदत्त। एक अदृश्य है तो दूसरा प्रत्यक्ष। दोनों में कला-कौशल है। एक में चातुर्य है, दूसरे में सौंदर्य। वाणी नाम का अनुष्ठान करती है, श्रवण उसका अभिनंदन करते हैं। रूप से नेत्रों का रंजन होता है। दोनों अंतकरण के आकर्षण-विकर्षण के कारण होते हैं। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व चिरकाल तक स्थिर नहीं रह सकता। अनामी रूप या अरूपी नाम कहीं न मिलेगा। परंतु नाम में एक विशेषता यह है कि वह गतिवान है।
नाम व्यक्तिगत होते हुये भी सामाजिक अधिक है। अतः नामकरण सामाजिक प्रक्रिया है। मानव जिस समाज में रहता है। उस समाज की संस्कृति (रीति-रिवाज, आचार-विचार, परंपरा आदि) से उसका प्रभावित होना स्वाभाविक है। मानव जीवन के बहुविध पक्षों से ज्ञान की अनेक शाखाएँ आवश्यकतानुसार निर्मित हुई है। जब जिस पक्ष की प्रबलता हुई, मानव मन उसी के अनुरूप कार्य करने का आदी रहा है। नामकरण भी इसका अपवाद नहीं है। नामकरण में प्रभावी तत्व का अध्ययन ही नाम विज्ञान का विषय है। नाम विज्ञान (नामों का वैज्ञानिक अध्ययन) से तात्पर्य है उन महत्वपूर्ण कारकों की खोज, जिनसे नाम निष्पन्न होता है। नाम विज्ञान को अंग्रेजी में Onomastics कहा जाता है, जिसमें सब प्रकार के नामों का अध्ययन किया जाता है। नाम विज्ञान व्युत्पत्ति शास्त्र से संबंधित है, पर उससे अपना पृथक अस्तित्व रखता है। व्यक्ति नामों के वैज्ञानिक अध्ययन को व्यक्ति नाम विज्ञान कहा गया है।
इस अध्ययन को यथासंभव इतिहास, भूगोल, नृतत्व शास्त्र, दर्शन शास्त्र, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, भाषा विज्ञान, लोक साहित्य, साहित्य, राजनीति, अर्थ इत्यादि के परिप्रेक्ष्य में संपन्न किया जाता है। नाम विज्ञान की प्रकृति अंतरविषयी अध्ययन की है।
नामों के पृथक अध्ययन की आवश्यकता अनेक कारणों से प्रतीत होती है। नामों के प्रकृति वैचिन्न्य में प्रयुक्त शब्दों के कारण यह भाषिकी का विषय प्रतीत होता है। परंतु शब्दार्थ से परे नामों का संकेतार्थ होता है, जिसका तात्पर्य है उस शब्द का भाषिक व्यवस्था से बाहर व्यक्तियों, वस्तुओं, स्थानों, गुणों, प्रक्रियाओं एवं क्रियाकलापों के मध्य संबंध। अतः नाम विज्ञान का अध्ययन अतिभाषिक स्तर पर करना इसकी आवश्यकता है। यह अतिभाषिकीय अध्ययन अर्थतात्विक अध्ययन से भिन्न है। अर्थविज्ञान शब्द से प्रारंभ होकर वस्तु का अन्वेषण करता है। नाम विज्ञान वक्ता की उस स्थिति से संबंधित है, जिसमें वक्ता अपने विचारों को भाषा के सुव्यवस्थित शब्द भंडार के माध्यम से व्यक्त करता है। अर्थविज्ञान का संबंध श्रोता की उस स्थिति से है, जब उसे विभिन्न अर्थ वाले शब्दों को सुनकर प्रासंगिक अर्थ का चयन करना होता है। नाम विज्ञान एवं अर्थविज्ञान में परस्पर एक अंतःसूचनात्मक प्रक्रिया चलती रहती है।
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