Sunday, June 18, 2017

सृजन धर्मी पं बाबूलाल द्विवेदी

सृजनधर्मी- बाबूलाल द्विवेदी

  
भौतिकवादी संस्कृति की चकाचौंध के बीच साहित्य में रमना जितनी बड़ी साधना है, उससे बड़ी साधना लोक-भाषा के साहित्य की साधना करना है, क्योंकि इसमें व्यापक ख्याति मिलना अत्यंत दुर्लभ होता है। साहित्यकार को एक छोटे से दायरे में सीमित रह जाने का क्षोभ रहता है, अतिसीमित संसाधनों में रहकर इसका प्रकाशन विरल होता है, क्योंकि क्षेत्रीय भाषा में गंभीर पाठकों का अभाव जो होता है। बुंदेली लोक भाषा में जो साहित्य रचा जा रहा है, उसके प्रोत्साहन और साहित्यकारों का उत्साहवर्धन करने वाले व्यक्ति और संस्थाएं इस अंचल में कार्य कर रही हैं। बुंदेलखंड का पिछड़ापन देश भर में सर्वत्र जाना जाता है। मीडिया के माध्यम से इस अंचल के पिछड़ेपन की विभीषिका के चर्चे देश के कोने-कोने तक हो चुकी है। इस परिप्रेक्ष्य में निरासक्त भाव से यहां का साहित्यकार अपनी साहित्य-साधना में संलीन है। उदारीकरण के दौर में जहां पाठ और पाठक का संबंध दरक रहा है। पाठक अब उपभोक्ता हो गया है, जिसे तरह-तरह के भोगवादी व्यंजन लुभाए जा रहे हैं। पाठ भी अब उŸार आधुनिकता के दौर से निकलकर प्रवृŸिागत अस्पष्टता के कारण दी जा रही संज्ञा ‘उŸारोŸार आधुनिकता’ तक आ पहंुचा है। ‘पाठ’ नाम की सŸाा को छिन्न-भिन्न करके छोड़ दिया गया है।

राजनीतिक रूप से देश के दो बड़े प्रांतों में विभक्त, किंतु सांस्कृतिक इकाई के रूप में चिर-परिचित बुंदेलखंड की संस्कृति और समाज पर पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव अभी भी उतना नहीं पड़ सका है, जितना अन्य बोली-क्षेत्रों के समाजों पर। कदाचित् विकास के आधुनिक पैमानों पर खरा न उतरने के कारण ही इस क्षेत्र को पिछड़ा माना जाता है, अन्यथा बुंदेलखंड में पंजाब का-सा शौर्य, राजस्थान का-सा पुरातत्व और महाराष्ट्र की-सी कला-संस्कृति की समृद्धि दिखाई देती है। इस समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के साहित्यिक पक्ष को अपने मूल रूप में संरक्षित और जीवंत करने का कार्य यहां के लोक अध्येता बिना प्रलोभन कर रहे हैं, जिनमें से एक बाबूलाल द्विवेदी हैं। लोक अध्येता होने की बुनियादी शर्त है कि वह लोक में रमण करे, बिना इसके उसका लोक अध्ययन वायवी और एकांगी होगा, उसमें प्रामाणिकता और अनुभूति की सघनता नहीं होगी। लोक का मूल स्वरूप आज भी गांव में ही देखा जा सकता है और एक जुलाई छियालीस को जन्मे श्री द्विवेदी शहरों में निवसित अपने पुत्र-पुत्रियों और उनके परिवारों के साथ न रहकर ललितपुर जनपद के लघु ग्राम छिल्ला (बानपुर) में रहकर ही साहित्य-साधना में लीन हैं। शायद ऐसे लोक अध्येताओं के लिए आधारभूत सामग्री के स्रोत आज भी ये गांव ही हैं। श्री द्विवेदी साहित्य के साथ-साथ कर्मकांड, दर्शन-आध्यात्म, पुराण-उपनिषद और आयुर्वेद चिकित्सा के भी मर्मज्ञ हैं। आपकी मनीषा नाना पुराण, निगमागम और स्वांतः सुखाय की तुलसी परंपरा की सतत प्रवाही है। आयुर्वेद से संबंधित आलेख धन्वंतरि इत्यादि पत्रिकाओं में तो बुंदेली और हिंदी भाषा के आलेख मनन, चिंतामणि, तुलसी साहित्य-साधना, सुधानिधि, कल्याण और उसके विशेषांकों में प्रकाशित हुए हैं। क्योंकि आपका प्रमुख कर्मक्षेत्र शुद्ध, सात्विक और संतोषी स्वभाव का पौरोहित्य है, पौरोहित्य में कोई अनुष्ठान और विधि क्यों संपन्न की जाती है, इसकी सचेष्टता के कारण आपने इस क्षेत्र में भी नई उद्भावनाएं की हैं। इसलिए संस्कृत भाषा का संस्कार स्वाभाविक रूप में आपकी भाषा-शैली में परिलक्षित होता है। उच्च शिक्षा की विभिन्न उपाधियों से आप वंचित रहे, पर स्वाध्याय और सत्संग से ज्ञान, वक्तृता, शोध और अनुभूतियों की जिन ऊंचाइयों को आपने उपलब्ध किया, उसे देखकर अच्छे पारखी और विद्वान आपकी नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा का लोहा मानते हैं।
इन पंक्तियों के लेखक के आप पिता हैं। यों, हो हर पुत्र को अपने पिता पर गर्व होता है या होना चाहिए, यह स्वाभाविक है किंतु मै अपने को विशेष सौभाग्यशाली मानता हूं, क्योंकि शिक्षा उपाधि संपन्न होने के बावजूद अद्यावधि मैं सर्वदा आपके दिए मार्गदर्शन से लाभान्वित होता रहता हूं। संस्कृत और उर्दू भाषा का जो तनिक संस्कार और हिंदी का किंचित् परिष्कार मेरे अंदर मौजूद है, उसमें सर्वप्रमुख योगदान आपका ही है।
आपके बुंदेली साहित्य, इतिहास एवं संस्कृति से संबंधित विविध लोक विषयों पर लिखे गए आलेख और कविताएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, अभिनंदन ग्रंथों में और आदिवासी लोककला अकादमी भोपाल से प्रकाशित हुए हैं। कविताएं और वार्ताएं दूरदर्शन केंद्र भोपाल और आकाशवाणी छतरपुर से प्रसारित हुईं हैं। पराशर संहिता का संस्कृत से हिंदी में किया गया आपका अनुवाद हिंदी में अप्राप्त साहित्य को उपलब्ध कराने की दृष्टि से स्तुत्य है। यह प्रकाशित भी हो चुका है।

गीतगोविंद का बुंदेली पद्यानुवाद का प्रकाशनाधीन कार्य अभी हाल में ही आपने संपन्न किया है। बुंदेली में गीतगोविंद अभी तक आया नहीं था, जिसकी लहरी में विद्यापति, सूरदास और अष्टछाप के मूर्धन्य साहित्यकारों का अभ्युदय हुआ। हिंदी साहित्य का स्वर्णयुग माने गए भक्तिकाल का एक बड़ा हिस्सा गीतगोविंद की भावभूमि पर ही अवलंबित है। गीतगोविंद में श्रंगार और भक्ति का जो मणिकांचन संयोग हुआ है, उसे किसी अन्य बोली या भाषा में उतारना कवि के लिए अत्यंत दुष्कर है। भक्ति के विविध प्रकार हैं। भक्ति श्रंगार की ही अन्य रूप है और इसीलिए गीतगोविंद मुख्य रूप से श्रंगारी रचना है। इसमें श्रंगार रस के जिन संचारी भावों का वर्णन हुआ है, उसे किसी व्यक्ति द्वारा अभिव्यक्त करना भी लोकरीति के अनुकूल नहीं समझा जाता। गीतगोविंद के कवि जयदेव ने सैकड़ों-हजारों वर्ष पूर्व अपने इष्ट राधा-कृष्ण के रास-रूप के अंग-प्रत्यंग, भाव-अनुभाव को जो वाणी दी, उसे आज का समाज प्रचलित लोकरीति के कारण व्यक्त नहीं करता। अनुवादक ने इस लोकरीति का निर्वाह अपने उपास्य-उपासक भाव में रहते हुए मर्यादापूर्ण शब्दों में व्यक्त करते हुए किया है। जहां यदि रचना के मूल भाव को संरक्षित करने की विवशता के चलते कहीं शब्दों में खुलापन आया भी है तो उसमें उपास्य-उपासक भाव की प्रतिष्ठा पूर्णरूपेण सुरक्षित बनी हुई है। इसका एक पद यहां उल्लिखित करना अनुपयुक्त न होगा-
मलयाचल चंदन के पेड़न सें भुजंग जो लिपड़े रत।
ताती संासें लगी सपरवे बरफ कुदाऊं पवन भगत।।
हलत आम के मौर हवा सें मौलसिरी के झाैंर हलत।
देख कोयलें हाली फूलीं मीठे सुर में गाउत फिरत।।
ठंडी हवा सुगंधी कौ सुख सब लै रए प्यारे प्यारी।
मोहित सखियन के समूह में ‘मधुप’ खेल रए बनवारी।।

1857 के स्वतंत्रता संग्राम की 150वीं वर्षगांठ के अवसर पर जानकी प्रकाशन से प्रकाशित 250 पृष्ठीय पुस्तक ‘बानपुर विविधा’ के आप प्रधान संपादक हैं। यह पुस्तक आपकी संपादन प्रतिभा का अप्रतिम दस्तावेज़ है, जिसमें जनपद ललितपुर के जनसंख्या की दृष्टि से सबसे बड़े और ऐतिहासिक गांव बानपुर पर प्रकाशित-प्रसारित लेखों-वार्ताओं का समाहार तो किया ही गया है, बानपुर के बाइस भुजी नृत्यरत गणपति तथा जैन मंदिरों और स्थापत्य के संबंध में जानकारी परक आलेख संग्रहीत हैं। यह आलेख प्रतिष्ठित और अधिकारी विद्वानों के हैं। आपकी संपादन प्रतिभा पर विद्वान लेखकों ने भरोसा करके अपने आलेख प्रकाशित करने हेतु लिखे। पुस्तक में वर्ण्य स्थान के बहाने जनपद की ऐतिहासिक-राजनीतिक घटनाओं को सिलसिलेबार अभिव्यक्त करता हुआ प्रधान संपादक का एक विस्तृत आलेख जनपद के इतिहास और राजनीति की मौलिक और विरल जानकारी प्रदान करता है। 1857ई से कहीं पूर्व 1842 में इस जनपद में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का सूत्रपात हुआ था, ऐसी अनेक महत्वपूर्ण शोधपरक जानकारी से समृद्ध यह पुस्तक स्थानीय अध्ययन को समग्र बनाती है।

वर्ष 2011 में जानकी प्रकाशन से ही प्रकाशित और अर्पित प्रिंटोग्राफर्स दिल्ली से मुद्रित ‘भइया अपने गांव में’ बुंदेली बोली में इसी अंचल के बारे में श्री द्विवेदी द्वारा रचित मुक्तकों का संग्रह है। इन मुक्तकों में बुंदेलखंड की विलुप्त होती लोकरीति का सुंदर गुम्फन हुआ है। ऐसे समय में जहां आधुनिकता और उसकी उत्तरोत्तरता मंे परंपरा और संस्कृति के अवशेष मात्र बचे हैं, बुंदेली के इन पदों को पढ़कर हम पाते हैं कि हम इस दौर से कितना आगे निकल आए हैं। किसी संस्कृति के मूल स्वरूप का दर्शन आधुनिक समाज में दुष्कर हो गया है। समय परिवर्तनशील है, किंतु समाज उससे भी अधिक वेग से प्रतिपल बदलता जा रहा है। पल भर को भरपूर जी लेने की आकांक्षा मनुष्य में बलवती हो गई है। मनुष्य पुरातन से विच्छिन्न हो रहा है, आधुनिक पीढ़ी का एक वर्ग अपनी धरोहर को संजोने को अवांछित-सा मानने लगा है। ऐसे में इन पदों से गुजरते हुए पाठक को बरबस अपने जिए हुए समय का स्मरण हो आता है।

यह पद बुंदेलखंड के गांवों की संस्कृति को कुछ चुने हुए रूपों के साथ तो प्रस्तुत करते ही है, बुंदेली बोली के माधुर्य और अप्रचलित शब्दों का सुमधुर पाठ भी हमारे सम्मुख रखते है। भारत प्रमुखतः गांवों का देश है, अतः यहां के गांवों की समृद्धि होने पर ही देश की खुशहाली संभव है। बोली का मूल प्रयोग गांवों में हुआ है। भाषा के स्तर पर जो बोली जितनी अधिक संपन्न है और उसमें जितना अधिक साहित्य-सृजन हुआ हो, उससे हमारी राष्ट्रीय भाषाएं उतनी ही समुन्नत होती हैं। यह विदित है कि आधुनिकता के बढ़ते दबाव के बीच बोलियां समाप्त हो रहीं हैं। जिस बोली में व्यक्ति लिखना-पढ़ना बंद कर देते हैं, बोलने के स्तर पर वह बहुत अधिक समय तक ज़िंदा नहीं रह सकती। बोली का वाचिक रूप उसके लिखित रूप से संरक्षित और सुरक्षित रहता है, अन्यथा वह बोली अनेक दबावों के चलते अप्रचलित हो जाती है। आदिवासियों की भाषाओं के विलुप्तीकरण का यह प्रमुख कारण है। वर्तमान में पठनशीलता का पतन हो गया है। पुस्तक और पत्रिकाओं का मात्रात्मक प्रकाशन तो बढ़ा है, किंतु यह सर्वमान्य है कि गंभीर पाठक अब बहुत थोड़े ही रह गए हैं। आज की भाग-दौड़ भरी ज़िंदगी में जो आंखों के सामने से क्षणिक रूप में गुजरा, उसी पर दृष्टिपात कर पाठक संतृप्त हो रहा है। पढ़ने के तौर-तरीक़े बदल रहे हैं, अब फेसबुक, ट्विटर और अन्य सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट भी पढ़ने के प्रभावी और उपलब्ध माध्यम बन गए हैं। इनसे जुड़ा पाठक तकनीकी की सीमाओं और सुविधाओं तथा सूचनाओं के अंबार के चलते थोड़े समय में ही अधिक पा लेने की चाह में है। इसलिए लिखना और अपनी प्रतिक्रिया देना भी अब त्वरित हो गया है, क्योंकि इन माध्यमों पर उसका भी अवसर सुलभ है। क्षण-प्रतिक्षण आ रहीं सूचनाओं के बीच मूल्यों और संवेदनाओं का ठहराव नहीं हो पा रहा है। कुछ लोगों का मानना है कि यह ठीक ही है, जो अच्छा होगा, वही टिकेगा; किंतु वास्तव में कुछ जम नहीं रहा है तो क्या इसका अर्थ है कि कुछ अच्छा नहीं लिखा जा रहा है। बात वास्तव में ऐसी नहीं है, अच्छे को देखने की हमारी आदतें छीन ली गई हैं। हमें उपभोक्ता बना दिया गया है। यह विज्ञापन युग है और विज्ञापन का लक्ष्य है कि उपभोक्ता की जेब से पैसे निकालना है, चाहे विधि कोई हो। इसीलिए जब विज्ञापन मोहक अंदाज में किसी उत्पाद की ऐसी विशेषता बताता है जो उसमें है ही नहीं तो भी उपभोक्ता उसके झांसे में आ जाता है। कोई क्रीम किस तरह काले को गोरा कर सकती है, इसे विज्ञापन ही संभव बनाता है। इस तरह के विज्ञापन और विज्ञापनवाद से पार जाने की चुनौती संवेदनशील मनुष्य के लिए बनी हुई है। मनुष्य को संवेदनशील बनाने में साहित्य का महती योगदान होता है।

साहित्य का प्रभाव तब पडे़ जब उसमें लेखन और पठन होता रहे, किंतु पठनीयता का बढ़ता अभाव इस दौर का एक अलग संकट है और यह ऐसा संकट है जो कई तरह की समस्याओं को जन्म देता है। पाठक अब महाकाव्यों और उपन्यासों को भारी भरकम मानता है, रिमोट संस्कृति जो चल पड़ी है। रिमोट के बटन को दबाने के क्रम में जो दर्शक को मिल जाता है, उसी में संतुष्ट होने की विवशता हो गई है। तुर्रा यह कि टेलीविजन के नियंता और प्रसारक दुहाई देते हैं कि जो दर्शक को पसंद है, वही दिखाया जा रहा है। यह वैसे ही है, जैसे सरकारें कहती हैं कि हमें पांच साल के लिए जनता ने चुन के भेजा है अतः हम जो करेंगे वही जनता के लिए आवश्यक और उत्तम है, जिसके परिणाम में महंगाई और भ्रष्टाचार बढ़ता ही जा रहा है; किंतु इन सबसे अलग, इस संग्रह के मुक्तक पाठक को रमाते हैं लेकिन रिमोट की तरह इसका आनंद क्षणिक नहीं होता। यह मुक्तक पढ़कर पाठक सोचने को अभिमुख  होता है कि हमारी संस्कृति में बहुत कुछ था , जो पूरी तरह संजोने योग्य है। संग्रह सबके लिए बोधगम्य बने, इसके लिए कुछ अपरिचित-से सात सौ चालीस शब्दों का प्रसंगानुसार अर्थ दे दिया गया है, प्रयास यह किया गया है कि इस त्वरा-युग में पाठक को शब्दकोष का सहारा न लेना पड़े।

इस संग्रह के पदों को उनमें वर्णित सामान्य प्रवृत्तियों के आधार पर वर्गीकृत किया गया है, फिर भी पाठक किसी भी मुक्तक को पढ़कर उसके साथ जुड़ा हुआ पाता है। इससे बुंदेलीतर पाठक के मन में बुंदेली बोली और साहित्य के प्रति ही लगाव उत्पन्न नहीं होगा, अपितु उसे अपने अंचल और आंचलिकता के प्रति भी आकर्षण  और गरिमा बोध उत्पन्न होगा। इन पदों में बुंदेली लोक गाथाओं, इतिहास, टहूका, लोकदेवता, कहावतों और लोकोक्तियों, दर्शन-रहस्य, अहाने-अटका, किस्सा-कहानियों का वर्णन-स्मरण हुआ है, जिनके सहारे बुंदेली वर्तन, कृषि संपदा, वाद्य यंत्र, खाद्य पदार्थ, आभूषण इत्यादि की अप्रचलित शब्दावली का लालित्य-दर्शन हो गया है। मनुष्यों की भाँति शब्दों का भी अपना जन्म-स्थान तथा इतिहास होता है। शब्दों की यात्रा देश-विदेश में परस्पर होती रहती है। इस यात्रा में उनका स्वरूप परिवर्तित होना स्वाभाविक है। हिंदी में कितने ही विदेशी शब्दों की स्वीकृति हो गई है, इसी तरह अंग्रेजी में भी हिंदी सहित अन्य भाषाओं के अनेक शब्द मान्य हो चुके हैं। शासन और शासक अपना प्रभाव किसी भाषा पर छोड़ते ही हैं। ऐसे में, कदाचित्; जो भाषा की समझ कम रखते हैं, उनकी तरफ से यह कहा जा सकता है कि बुंदेली या किसी बोली के अप्रचलित शब्दों को आज के पाठक के सामने लाने का क्या तुक है? किंतु अधिकांश विद्वानों की भाँति मेरा मानना है कि हिंदी के पाठकों और श्रोताओं के बीच अपनी बोलियों के शब्दों, उनके बदलते अर्थ, रस, गुण और उसके मूल आशय से संबंधित जितनी जानकारी बढे़गी, उतना ही वे जीवन और कला के रस को खींचेंगे। साथ ही हमारी राष्ट्रभाषाएं संपन्नतर होती चलेंगी। आज की अनर्गल, अटपटी हिंगलिश या क़िताबी हिंदी के व्यवहार से दैनंदिन कामकाज भले चल जाए, किंतु ज्ञान-विज्ञान की भाषा बनने के लिए किसी भाषा को परिचित और विपुल शब्द भण्डार जुटाना होगा।

हम जानते हैं कि भारतीय भाषाएं अपनी-अपनी उपभाषाओं अर्थात् बोलियों के अपरिमित भण्डार और संप्रेषणीयता के कारण रसपूर्ण एवं क्षमता संपन्न हैं, किंतु हमारी त्वरा और आलस्य ने उसे अभी तक पाठकों के सम्मुख पूरी तरह प्रस्तुत करने का काम नहीं किया है। प्राचीन भाषा-शास्त्री शाकटायन जब कहते हैं कि ‘सर्वाणि नामानि आख्यातजानि’ अर्थात् हर शब्द के भीतर उसके जन्म की कहानी छिपी होती है। शब्द का मर्म और इतिहास खोजने के लिए उसका क्रियारूप जानना आवश्यक होता है। अर्थ के सभी स्तरों को समझे बिना क्रियारूप नहीं समझा जा सकता है। शब्दों का क्रियारूप जानने की दृष्टि से बोलियां और उनका साहित्य सर्वाधिक स्रोतपूर्ण माध्यम है। एक उदाहरण से बात अधिक स्पष्ट हो सकेगी। रोटी चाहे बेलकर कर बनाएं या हाथ से थपकाकर, मानक हिंदी में दोनों  के लिए ‘रोटी बनाना’ कहा जाता है, किंतु बंुदेली में हाथ से रोटी बनाने की क्रिया को अलग से ‘पै/पइ’ कहा जाता है। इस संग्रह के एक पद की पंक्ति है-
‘जितै परोसन की बउएं मिल कैं रोटीं पै रइं।’
समझने मेें मुश्किल तब और बढ़ जाती है, जब इस प्रकार के शब्द हिंदी और बंुदेली शब्दकाशों में उपलब्ध नहीं होते। यह शब्द संस्कृत चर्पटी (हाथों से थपकाकर आकार पाने वाली) शब्द का ही विकसित रूप है।

स्वाभाविक तौर पर किसी रचना में रचनाकार का आत्मवृत्त झाँकता है। इस संग्रह में भी कवि ने अपने बारे में यत्र-तत्र संकेत किए हैं। पारदर्शी ईमानदारी के साथ अपनी सीमाओं, अपने संदेहों, अपनी व्यथा और अपनी निष्ठा को कवि ने ध्वनित किया है-‘नौनी-बुरइ मांग, मांगबे में जौ मन मैलो भओ’। और ‘पैलउं पुरखन नै कै दइं फिर ‘मधुप’ बेइ पछयावं में।’
कवि के वाग्वैदग्ध्य ने वर्णनों की भावुकता और कविताई के बोझ को रचना में फटकनेे नहीं दिया है-
‘चैते चुका दियौ उदार को नुंगरौ हमें उठा दो।
मुंस की छाती एक बार जे कै रइं बेउ पटा दो’।।

संग्रह में हास-परिहास तो है, लेकिन कलात्मक गंभीरता एवं उद्देश्य परकता के कारण उसने फूहड़ता और अश्लीलता का स्पर्श भी नहीं किया है, जो बोलियों पर एक आम-प्रचलित आरोप है। एकाध जगह चटू, दारी, छिनरा, छाकड़ जैसी गालियों का प्रसंगानुकूल प्रयोग है। दहेज समस्या, पर्यावरण प्रदूषण आदि की समस्या का रोचक प्रस्तुतीकरण हुआ है। मनुष्य के संघर्षशील जीवन में कैसी-कैसी क्रियाएं-प्रतिक्रियाएं संघटित होती हैं, उनका चित्रण इस संग्रह में पढ़ते ही बनता है। एक बानगी देखिए-
‘एक ब्याव में न्यौतें गए देखो दोउ समदी लर रए।
मोें माँगे कल्दार गिना लए कोंठा तोउ न भर रए।।
मड़वा तरें बाप बिटिया कौ दो-दो अँसुवन रो रओ।
जित्ती हती हैसियत उत्तौ काड़ दायजौ धर दओ।।
लरका वारौ आँखें काड़ें उचकत नाक फुलाव में।’

इन पदों को पढ़कर हम यह भी कह सकते हैं कि रचयिता ने सजग प्रहरी की भाँति मनुष्य के हृदय को मानवता के प्रति आस्थावान बनाए रखने में अपना योगदान किया है। रचना की प्रतिध्वनि है कि उदारीकरण के इस दौर में गांव और शहर का भेद समाप्त हो रहा है, शहर में शामिल होने या शहरी जैसा होने में गांव और गांव वाले धन्यता समझने लगे हैं, लेकिन शहरों की भयावहता को देखकर गांव में ही देश का भविष्य सुरक्षित नज़र आता है। इसे कुछ आलोचक नॉस्टेल्जिया मान सकते हैं, पर आखि़र इसके सिवा कोई चारा भी तो नहीं दिखता।

‘भइया अपने गांव में’ में गांव की विशेषताएं अपने यथार्थ स्वरूप में बिना लाग-लपेट के रखी गईं हैं। गांव में ऐसा भी होता है-
‘ऊपर सें मौ मीठी बातें मन में राखें मैल खों।
अगल-बगल में पाछैं जोतें पैलउं जोतैं गैल खों’।।

ग्रामीण अपनी बात को ठेठ अंदाज में कहने के आदी होते हैं। इसीलिए गांव की बोली और उसके मुहावरे की अपनी पहचान हुआ करती है, बाद के दिनों में गांवों में आधुनिकता का संक्रमण जिस तरह हुआ, उसका चित्रण भी इस संग्रह में दृष्टव्य है। यही नहीं दबे-कुचले वर्ग द्वारा विद्रोह के स्वर भी स्पष्ट रूप से इन मुक्तकों में दिखे हैं, जो रचयिता के युग-बोध का परिचायक है।

गांव में लोक बसता है। लोकमानस चीजों को समग्रता से देखता है। वह किसी की परवाह नहीं करता, उसमें बड़े से बड़े सम्राटों को सिखाने की क्षमता होती है। लोक प्रकृति और जीवन से निरंतर जुड़ा रहता है, वह अनुभव से सीखता है। लोक द्वारा रचित साहित्य ज्ञान की वाचिक परंपरा है। लोक में श्रद्धाभाव का साक्षात्कार होता है। जो विद्वान लोक को अनगढ़, अशिष्ट, असभ्य, अर्द्धसभ्य, जंगली, आदिवासी, मूढ़, अपढ़, गंवार या अज्ञानी मानते हैं, वे वास्तविकता से दूर हैं। यह स्थापित है कि सभ्यता का मूल स्रोत लोक ही है, शास्त्र ने उसका विकास किया है। शास्त्र ने अपना विकसित रूप फिर लोक को दिया तथा लोक में वह फिर आगे बढ़ा। गांव में जो लोक बसता है, वह व्यक्ति के मन को बाँधता है; संस्कारित करता है और उसे सामाजिक बनाता है। इस संग्रह में आईं लोक की उक्तियां व्यक्ति के मन को दुलारती हैं, डाँटती हैं, फटकारती हैं, व्यंग्य-वाणों का प्रहार भी करती हैं तो समझाती भी हैं। व्यक्ति का मार्गदर्शन करने वाले, उचित और अनुचित,, पाप और पुण्य, शुभ और अशुभ, सही और ग़लत के विवेक की प्रतिष्ठा इस संग्रह के पदों के कंेद्र में आए ‘लोक’ द्वारा संभव हुई है। इसीलिए इन पदों को पढ़कर पाठक भावित होता है, क्योंकि लोक उसके भीतर भी बैठा है। उल्लेखनीय है कि लोग शब्द की व्युत्पत्ति ‘लोक’ से ही हुई है। आधुनिक और उत्तर आधुनिक व्यक्ति में भी अपने परिवेश और परंपरा के योग से युगों के संस्कार बसे होते हैं और जैसे धरती में छिपे हुए बीज अनुकूल ऋतु आने पर अंकुरित हो जाते हैं, वैसे ही आधुनिक मानस में भी वे मूल संस्कार ऐसी रचनाओं को पढ़कर जाग जाते हैं। अतः हम कह सकते हैं कि कोई व्यक्ति अपनी परंपरा से कट ही नहीं सकता, वरना वह ‘लोग’ कैसे रहेगा।

‘भइया अपने गांव में’ बुंदेली बोली में इसी अंचल के बारे में रचित मुक्तकों का संग्रह है। इन मुक्तकों में बुंदेलखंड की विलुप्त होती लोकरीति का सुंदर संगुम्फन हुआ है। ऐसे समय में जहां आधुनिकता और उसकी उत्तरोत्तरता मंे परंपरा और संस्कृति के अवशेष मात्र बचे हैं, बुंदेली के इन पदों को पढ़कर हम पाते हैं कि हम इस दौर से कितना आगे निकल आए हैं। किसी संस्कृति के मूल स्वरूप का दर्शन आधुनिक समाज में दुष्कर हो गया है। समय परिवर्तनशील है, किंतु समाज उससे भी अधिक वेग से प्रतिपल बदलता जा रहा है। पल भर को भरपूर जी लेने की आकांक्षा मनुष्य में बलवती हो गई है। मनुष्य पुरातन से विच्छिन्न हो रहा है, आधुनिक पीढ़ी का एक वर्ग अपनी धरोहर को संजोने को अवांछित-सा मानने लगा है। ऐसे में इन पदों से गुजरते हुए पाठक को बरबस अपने जिए हुए समय का स्मरण हो आता है।

यह पद बुंदेलखंड के गांवों की संस्कृति को कुछ चुने हुए रूपों के साथ तो प्रस्तुत करते ही है, बुंदेली बोली के माधुर्य और अप्रचलित शब्दों का सुमधुर पाठ भी हमारे सम्मुख रखते है। भारत प्रमुखतः गांवों का देश है, अतः यहां के गांवों की समृद्धि होने पर ही देश की खुशहाली संभव है। बोली का मूल प्रयोग गांवों में हुआ है। भाषा के स्तर पर जो बोली जितनी अधिक संपन्न है और उसमें जितना अधिक साहित्य-सृजन हुआ हो, उससे हमारी राष्ट्रीय भाषाएं उतनी ही समुन्नत होती हैं। यह विदित है कि आधुनिकता के बढ़ते दबाव के बीच बोलियां समाप्त हो रहीं हैं। जिस बोली में व्यक्ति लिखना-पढ़ना बंद कर देते हैं, बोलने के स्तर पर वह बहुत अधिक समय तक ज़िंदा नहीं रह सकती। बोली का वाचिक रूप उसके लिखित रूप से संरक्षित और सुरक्षित रहता है, अन्यथा वह बोली अनेक दबावों के चलते अप्रचलित हो जाती है। आदिवासियों की भाषाओं के विलुप्तीकरण का यह प्रमुख कारण है। वर्तमान में पठनशीलता का पतन हो गया है। पुस्तक और पत्रिकाओं का मात्रात्मक प्रकाशन तो बढ़ा है, किंतु यह सर्वमान्य है कि गंभीर पाठक अब बहुत थोड़े ही रह गए हैं। आज की भाग-दौड़ भरी ज़िंदगी में जो आंखों के सामने से क्षणिक रूप में गुजरा, उसी पर दृष्टिपात कर पाठक संतृप्त हो रहा है। पढ़ने के तौर-तरीक़े बदल रहे हैं, अब फेसबुक, ट्विटर और अन्य सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट भी पढ़ने के प्रभावी और उपलब्ध माध्यम बन गए हैं। इनसे जुड़ा पाठक तकनीकी की सीमाओं और सुविधाओं तथा सूचनाओं के अंबार के चलते थोड़े समय में ही अधिक पा लेने की चाह में है। इसलिए लिखना और अपनी प्रतिक्रिया देना भी अब त्वरित हो गया है, क्योंकि इन माध्यमों पर उसका भी अवसर सुलभ है। क्षण-प्रतिक्षण आ रहीं सूचनाओं के बीच मूल्यों और संवेदनाओं का ठहराव नहीं हो पा रहा है। कुछ लोगों का मानना है कि यह ठीक ही है, जो अच्छा होगा, वही टिकेगा; किंतु वास्तव में कुछ जम नहीं रहा है तो क्या इसका अर्थ है कि कुछ अच्छा नहीं लिखा जा रहा है। बात वास्तव में ऐसी नहीं है, अच्छे को देखने की हमारी आदतें छीन ली गई हैं। हमें उपभोक्ता बना दिया गया है। यह विज्ञापन युग है और विज्ञापन का लक्ष्य है कि उपभोक्ता की जेब से पैसे निकालना है, चाहे विधि कोई हो। इसीलिए जब विज्ञापन मोहक अंदाज में किसी उत्पाद की ऐसी विशेषता बताता है जो उसमें है ही नहीं तो भी उपभोक्ता उसके झांसे में आ जाता है। कोई क्रीम किस तरह काले को गोरा कर सकती है, इसे विज्ञापन ही संभव बनाता है। इस तरह के विज्ञापन और विज्ञापनवाद से पार जाने की चुनौती संवेदनशील मनुष्य के लिए बनी हुई है। मनुष्य को संवेदनशील बनाने में साहित्य का महती योगदान होता है।

साहित्य का प्रभाव तब पडे़ जब उसमें लेखन और पठन होता रहे, किंतु पठनीयता का बढ़ता अभाव इस दौर का एक अलग संकट है और यह ऐसा संकट है जो कई तरह की समस्याओं को जन्म देता है। पाठक अब महाकाव्यों और उपन्यासों को भारी भरकम मानता है, रिमोट संस्कृति जो चल पड़ी है। रिमोट के बटन को दबाने के क्रम में जो दर्शक को मिल जाता है, उसी में संतुष्ट होने की विवशता हो गई है। तुर्रा यह कि टेलीविजन के नियंता और प्रसारक दुहाई देते हैं कि जो दर्शक को पसंद है, वही दिखाया जा रहा है। यह वैसे ही है, जैसे सरकारें कहती हैं कि हमें पांच साल के लिए जनता ने चुन के भेजा है अतः हम जो करेंगे वही जनता के लिए आवश्यक और उत्तम है, जिसके परिणाम में महंगाई और भ्रष्टाचार बढ़ता ही जा रहा है; किंतु इन सबसे अलग, इस संग्रह के मुक्तक  पाठक को रमाते हैं लेकिन रिमोट की तरह इसका आनंद क्षणिक नहीं होता। यह मुक्तक पढ़कर पाठक सोचने को अभिमुख  होता है कि हमारी संस्कृति में बहुत कुछ था, जो पूरी तरह संजोने योग्य है। संग्रह सबके लिए बोधगम्य बने, इसके लिए कुछ अपरिचित-से सात सौ चालीस शब्दों का प्रसंगानुसार अर्थ दे दिया गया है, प्रयास यह किया गया है कि इस त्वरा-युग में पाठक को शब्दकोष का सहारा न लेना पड़े।

इस संग्रह के पदों को उनमें वर्णित सामान्य प्रवृत्तियों के आधार पर वर्गीकृत किया गया है, फिर भी पाठक किसी भी मुक्तक को पढ़कर उसके साथ जुड़ा हुआ पाता है। इससे बुंदेलीतर पाठक के मन में बुंदेली बोली और साहित्य के प्रति ही लगाव उत्पन्न नहीं होगा, अपितु उसे अपने अंचल और आंचलिकता के प्रति भी आकर्षण  और गरिमा बोध उत्पन्न होगा। इन पदों में बुंदेली लोक गाथाओं, इतिहास, टहूका, लोकदेवता, कहावतों और लोकोक्तियों, दर्शन-रहस्य, अहाने-अटका, किस्सा-कहानियों का वर्णन-स्मरण हुआ है, जिनके सहारे बुंदेली वर्तन, कृषि संपदा, वाद्य यंत्र, खाद्य पदार्थ, आभूषण इत्यादि की अप्रचलित शब्दावली का लालित्य-दर्शन हो गया है। मनुष्यों की भाँति शब्दों का भी अपना जन्म-स्थान तथा इतिहास होता है। शब्दों की यात्रा देश-विदेश में परस्पर होती रहती है। इस यात्रा में उनका स्वरूप परिवर्तित होना स्वाभाविक है। हिंदी में कितने ही विदेशी शब्दों की स्वीकृति हो गई है, इसी तरह अंग्रेजी में भी हिंदी सहित अन्य भाषाओं के अनेक शब्द मान्य हो चुके हैं। शासन और शासक अपना प्रभाव किसी भाषा पर छोड़ते ही हैं। ऐसे में, कदाचित्; जो भाषा की समझ कम रखते हैं, उनकी तरफ से यह कहा जा सकता है कि बुंदेली या किसी बोली के अप्रचलित शब्दों को आज के पाठक के सामने लाने का क्या तुक है? किंतु अधिकांश विद्वानों की भाँति मेरा मानना है कि हिंदी के पाठकों और श्रोताओं के बीच अपनी बोलियों के शब्दों, उनके बदलते अर्थ, रस, गुण और उसके मूल आशय से संबंधित जितनी जानकारी बढे़गी, उतना ही वे जीवन और कला के रस को खींचेंगे। साथ ही हमारी राष्ट्रभाषाएं संपन्नतर होती चलेंगी। आज की अनर्गल, अटपटी हिंगलिश या क़िताबी हिंदी के व्यवहार से दैनंदिन कामकाज भले चल जाए, किंतु ज्ञान-विज्ञान की भाषा बनने के लिए किसी भाषा को परिचित और विपुल शब्द भण्डार जुटाना होगा।

हम जानते हैं कि भारतीय भाषाएं अपनी-अपनी उपभाषाओं अर्थात् बोलियों के अपरिमित भण्डार और संप्रेषणीयता के कारण रसपूर्ण एवं क्षमता संपन्न हैं, किंतु हमारी त्वरा और आलस्य ने उसे अभी तक पाठकों के सम्मुख पूरी तरह प्रस्तुत करने का काम नहीं किया है। प्राचीन भाषा-शास्त्री शाकटायन जब कहते हैं कि ‘सर्वाणि नामानि आख्यातजानि’ अर्थात् हर शब्द के भीतर उसके जन्म की कहानी छिपी होती है। शब्द का मर्म और इतिहास खोजने के लिए उसका क्रियारूप जानना आवश्यक होता है। अर्थ के सभी स्तरों को समझे बिना क्रियारूप नहीं समझा जा सकता है। शब्दों का क्रियारूप जानने की दृष्टि से बोलियां और उनका साहित्य सर्वाधिक स्रोतपूर्ण माध्यम है। एक उदाहरण से बात अधिक स्पष्ट हो सकेगी। रोटी चाहे बेलकर कर बनाएं या हाथ से थपकाकर, मानक हिंदी में दोनों  के लिए ‘रोटी बनाना’ कहा जाता है, किंतु बंुदेली में हाथ से रोटी बनाने की क्रिया को अलग से ‘पै/पइ’ कहा जाता है। इस संग्रह के एक पद की पंक्ति है-
‘जितै परोसन की बउएं मिल कैं रोटीं पै रइं।’
समझने मेें मुश्किल तब और बढ़ जाती है, जब इस प्रकार के शब्द हिंदी और बंुदेली शब्दकाशों में उपलब्ध नहीं होते। यह शब्द संस्कृत चर्पटी (हाथों से थपकाकर आकार पाने वाली) शब्द का ही विकसित रूप है।

स्वाभाविक तौर पर किसी रचना में रचनाकार का आत्मवृत्त झाँकता है। इस संग्रह में भी कवि ने अपने बारे में यत्र-तत्र संकेत किए हैं। पारदर्शी ईमानदारी के साथ अपनी सीमाओं, अपने संदेहों, अपनी व्यथा और अपनी निष्ठा को कवि ने ध्वनित किया है-‘नौनी-बुरइ मांग, मांगबे में जौ मन मैलो भओ’। और ‘पैलउं पुरखन नै कै दइं फिर ‘मधुप’ बेइ पछयावं में।’
कवि के वाग्वैदग्ध्य ने वर्णनों की भावुकता और कविताई के बोझ को रचना में फटकनेे नहीं दिया है-
‘चैते चुका दियौ उदार को नुंगरौ हमें उठा दो।
मुंस की छाती एक बार जे कै रइं बेउ पटा दो’।।

संग्रह में हास-परिहास तो है, लेकिन कलात्मक गंभीरता एवं उद्देश्य परकता के कारण उसने फूहड़ता और अश्लीलता का स्पर्श भी नहीं किया है, जो बोलियों पर एक आम-प्रचलित आरोप है। एकाध जगह चटू, दारी, छिनरा, छाकड़ जैसी गालियों का प्रसंगानुकूल प्रयोग है। दहेज समस्या, पर्यावरण प्रदूषण आदि की समस्या का रोचक प्रस्तुतीकरण हुआ है। मनुष्य के संघर्षशील जीवन में कैसी-कैसी क्रियाएं-प्रतिक्रियाएं संघटित होती हैं, उनका चित्रण इस संग्रह में पढ़ते ही बनता है। एक बानगी देखिए-
‘एक ब्याव में न्यौतें गए देखो दोउ समदी लर रए।
मोें माँगे कल्दार गिना लए कोंठा तोउ न भर रए।।
मड़वा तरें बाप बिटिया कौ दो-दो अँसुवन रो रओ।
जित्ती हती हैसियत उत्तौ काड़ दायजौ धर दओ।।
लरका वारौ आँखें काड़ें उचकत नाक फुलाव में।’

इन पदों को पढ़कर हम यह भी कह सकते हैं कि रचयिता ने सजग प्रहरी की भाँति मनुष्य के हृदय को मानवता के प्रति आस्थावान बनाए रखने में अपना योगदान किया है। रचना की प्रतिध्वनि है कि उदारीकरण के इस दौर में गांव और शहर का भेद समाप्त हो रहा है, शहर में शामिल होने या शहरी जैसा होने में गांव और गांव वाले धन्यता समझने लगे हैं, लेकिन शहरों की भयावहता को देखकर गांव में ही देश का भविष्य सुरक्षित नज़र आता है। इसे कुछ आलोचक नॉस्टेल्जिया मान सकते हैं, पर आखि़र इसके सिवा कोई चारा भी तो नहीं दिखता।

‘भइया अपने गांव में’ में गांव की विशेषताएं अपने यथार्थ स्वरूप में बिना लाग-लपेट के रखी गईं हैं। गांव में ऐसा भी होता है-
‘ऊपर सें मौ मीठी बातें मन में राखें मैल खों।
अगल-बगल में पाछैं जोतें पैलउं जोतैं गैल खों’।।

ग्रामीण अपनी बात को ठेठ अंदाज में कहने के आदी होते हैं। इसीलिए गांव की बोली और उसके मुहावरे की अपनी पहचान हुआ करती है, बाद के दिनों में गांवों में आधुनिकता का संक्रमण जिस तरह हुआ, उसका चित्रण भी इस संग्रह में दृष्टव्य है। यही नहीं दबे-कुचले वर्ग द्वारा विद्रोह के स्वर भी स्पष्ट रूप से इन मुक्तकों में दिखे हैं, जो रचयिता के युग-बोध का परिचायक है।

गांव में लोक बसता है। लोकमानस चीजों को समग्रता से देखता है। वह किसी की परवाह नहीं करता, उसमें बड़े से बड़े सम्राटों को सिखाने की क्षमता होती है। लोक प्रकृति और जीवन से निरंतर जुड़ा रहता है, वह अनुभव से सीखता है। लोक द्वारा रचित साहित्य ज्ञान की वाचिक परंपरा है। लोक में श्रद्धाभाव का साक्षात्कार होता है। जो विद्वान लोक को अनगढ़, अशिष्ट, असभ्य, अर्द्धसभ्य, जंगली, आदिवासी, मूढ़, अपढ़, गंवार या अज्ञानी मानते हैं, वे वास्तविकता से दूर हैं। यह स्थापित है कि सभ्यता का मूल स्रोत लोक ही है, शास्त्र ने उसका विकास किया है। शास्त्र ने अपना विकसित रूप फिर लोक को दिया तथा लोक में वह फिर आगे बढ़ा। गांव में जो लोक बसता है, वह व्यक्ति के मन को बाँधता है; संस्कारित करता है और उसे सामाजिक बनाता है। इस संग्रह में आईं लोक की उक्तियां व्यक्ति के मन को दुलारती हैं, डाँटती हैं, फटकारती हैं, व्यंग्य-वाणों का प्रहार भी करती हैं तो समझाती भी हैं। व्यक्ति का मार्गदर्शन करने वाले, उचित और अनुचित,, पाप और पुण्य, शुभ और अशुभ, सही और ग़लत के विवेक की प्रतिष्ठा इस संग्रह के पदों के कंेद्र में आए ‘लोक’ द्वारा संभव हुई है। इसीलिए इन पदों को पढ़कर पाठक भावित होता है, क्योंकि लोक उसके भीतर भी बैठा है। उल्लेखनीय है कि लोग शब्द की व्युत्पत्ति ‘लोक’ से ही हुई है। आधुनिक और उत्तर आधुनिक व्यक्ति में भी अपने परिवेश और परंपरा के योग से युगों के संस्कार बसे होते हैं और जैसे धरती में छिपे हुए बीज अनुकूल ऋतु आने पर अंकुरित हो जाते हैं, वैसे ही आधुनिक मानस में भी वे मूल संस्कार ऐसी रचनाओं को पढ़कर जाग जाते हैं। अतः हम कह सकते हैं कि कोई व्यक्ति अपनी परंपरा से कट ही नहीं सकता, वरना वह ‘लोग’ कैसे रहेगा।

व्यक्ति का मूल और आदिगृह गांव ही है, शेष बाहरी  और बाद के हैं। शेष तो वैसा ही है, जैसे किसी शरीर पर पहने हुए वस्त्र। गांव संस्कृत ‘ग्राम’ का तद्भव शब्द है। ग्राम का वैयुत्पत्तिक अर्थ ‘समूह’ होता है। घरों के समूह को गांव कहा गया। गांव सभ्यता की प्रारंभिक इकाई है। सर्वप्रथम गांव अकृत्रिम रूप से अस्तित्व में आए, किंतु अब ‘राही’ ग्वालियरी के शब्दों में यदि कहें-‘गांव गुम शहर की ज़मीनों में, आदमी खो गए मशीनों में। हर तरफ आग ही आग लगी क्यूं है, देश के सावनी महीनांे में। आपका ये सफर ना तै होगा, बैठकर काग़जी़ सफीनों में। आज पत्थर तलाशता हूं, कल ये गिने जाएंगे नगीनों में।’

फिर भी, गांव में आज भी अपनापा है; सौजन्य है; सौम्यता है; सरलता और सादगी है; सहयोग है; सहकार है; संवेदनशीलता है; संस्कार हैं। दुरभिसंधियां भी हैं, किंतु गांव से जुड़कर व्यक्ति बाहरी विशिष्टताओं के आवरण को उतार देता है और अपने को धरातल से संलग्न महसूस करता है। गांव से मृत्यु-पर्यंत जुड़े रहे बाबा नागार्जुन को अपनी छोटी सी कविता ‘सिंदूर तिलकित भाल’ में जब अपने तरउनी गांव के एक-एक उपादान की याद आती है तो पाठक भी अपने ‘तरउनी’ से जुड़े बिना नहीं रह पाता; क्योंकि नागार्जुन की पीड़ा है कि अन्यत्र जीवन भर रह लेने के बाद भी लोग प्रवासी ही कहेंगे। ‘गांव’ और ‘लोक’ शब्द दो हैं, किंतु इनकी अंतर्ध्वनि एक ही है। लोक जहां अपने मूल में बसता है, वह गांव ही है। किसी राष्ट्र को चलाने और दिशा निर्धारण के लिए लोक-स्वीकृति अनिवार्य है। इसीलिए अपने देश में लोकसभा और लोकतंत्र जैसे शब्द और व्यवस्था स्वीकृत हैं। भाषाशास्त्री पतंजलि ने भाषा संबंधी विवेचन में लोक को अंतिम प्रमाण माना है। धर्मशास्त्र में लोकविरुद्ध कार्य को अस्वीकार्य कहा गया- ‘‘यद्यपि सिद्धं लोकविरुद्धं नाकरणीयम् नाचरणीयम्’’। प्रसिद्ध कूटनीतिज्ञ चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र में लिखा है कि जो शास्त्र को जानता है; लोक को नहीं जानता, वह मूर्खतुल्य है ‘‘शास्त्रज्ञोऽप्यलोकज्ञो भवेन्मूर्खतुल्यः’’।

लोक में अनेकता और वैविध्य है, फिर भी उसकी अंतर्धारा एकता और समानता की है। विजित और विजेता दोनों का ज्ञान और संस्कृति लोक की व्यापकता में अंतर्भुक्त हो जाती है। यहां तक कि अभिजात चेतना जिसको कहा जाता है, वह भी लोक में मिलकर धन्यता का अनुभव करती है।

प्रस्तुत संग्रह में आए अनसुने-से शब्दों के दिए गए क्रियापरक अर्थ यथासंभव उनकी व्युत्पत्ति से जोड़ते हुए किए गए हैं, जिससे पाठक रचनाकार की भावभूमि से ही काव्य का आस्वाद ग्रहण कर सके। वर्तमान में हिंदी में यों भी सृजनशीलता घट गई है, हिंदी की बोलियों के सामने तो उनके अस्तित्व का संकट मंड़रा रहा है। बोलियों के साहित्य में सामान्य पाठक तक सहजता से पहुँच सकने वाली ऐसी बोधगम्य भावपूर्ण क़िताबों की कमी है, जो अपने समय और समाज का यथार्थ एवं वास्तविक चित्रण करते हुए साहित्य की श्रीवृद्धि करें। यह संग्रह हिंदी साहित्य में इस अभाव की पूर्ति में किया जाने वाला एक सत्प्रयास सिद्ध होगा, ऐसा मेरा विश्वास है। सब मिलाकर यह एक पठनीय बुंदेली काव्य हैए जिसके बारे में श्री वीरेंद्र केशव साहित्य परिषद् के अध्यक्ष पं. हरिविष्णु अवस्थी ने कहा है- ‘लंबी कविताएं लिखने का एक इतिहास रहा है, कुछ समय से लंबी कविताओं के स्थान पर छोटी-छोटी कविताएं लिखने का चलन चल पड़ा था। ‘भइया अपने गांव में’ शीर्षक रचना इक्कीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में बुंदेली बोली में रची प्रथम लंबी रचना है। वस्तुतः कवि की इस लंबी काव्य रचना का उद्देश्य दूरस्थ अंचल में स्थित ग्राम्य जीवन की सजीव एवं नयनाभिराम झांकी उनकी ही बोली-वानी (ग्रामीण बुंदेली) में प्रस्तुत करना प्रतीत होता है। कवि को अपने उद्देश्य में पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है।’ साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त बांगला-हिंदी अनुवादक वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. रामशंकर द्विवेदी का कहना है- ‘किसी भी साहित्यिक भाषा में जीवंतता के अनुपात का माप उसमें प्रयुक्त होने वाली शब्दावली है। इस प्रकार देखा जाए तो बुंदेली की ठेठ शब्दावली की रक्षा की इधर बहुत बड़ी जरूरत हो गई है। इस शब्दावली को बचाने का  एकमात्र उपाय उसे रचना की भाषा बनाना है। इस दृष्टि से पं0 बाबूलाल द्विवेदी ‘मधुप’ जी का यह प्रयास स्तुत्य और सराहनीय है।’ वहीं बुंदेली शब्दकोशकार एवं लोक साहित्यकार डॉ. कैलाश बिहारी द्विवेदी के अनुसार ‘पूर्वावस्था से तुलना के कारण कवि के भावुक मन में यह प्रश्न बार-बार उठता है कि ‘कितै हिरा गए बे नोंने दिन......।’ कहीं-कहीं इस भाव-यात्रा में कुछ इतिहास आदि की बातें भी आ जाती हैं, जो विषय की दृष्टि से अप्रासंगिक और बेमेल सी लगती हैं; परंतु उन्हें परिस्थितियों से खिन्न एवं उदास मन के उच्छवास मानना चाहिए।’ हिंदी और बुंदेली के साहित्यकार डॉ दुर्गेश दीक्षित का आकलन है ‘ई हैरानगती में जो थोरौ-भौत लिखत-पड़त हैं सो भौत बड़ी बात है। कछू दिना सेें बुंदेली में भौत काम होत दिखा रओ। पद्य तो आल्हखंड, ईसुरी सें लेकें आजनों खूब लिखो गओ। और तो और इतै के विश्वविद्यालयन में बुंदेली पड़ाई जान लगी है। आकासवानी उर दूरदरसन के कंेद्रन सें ईकौ प्रसारन होन लगो है। निबंध, नाटक, कहानी उर उपन्यास नों बुंदेली में लिखे जान लगे। कैउ पत्रिकां सुद्ध बुंदेली में छपी जान लगीं। अब बताओ ऐसे में हमाए पं0 बाबूलाल जू दुवेदी कैसें पाछें रै सकत ते। संस्कृत के भौत बड़े पंडित होबे के संगै बुंदेली साहित्य उर संस्कृति में जे खूब रचे-बसे हैं। मां बुंदेली की तो उनके ऊपर पूरी किरपा हैइ। भासा, छंद उर ब्यंजना की उनें पकड़ है। छिल्ला जैसे हलके से गांव में रैकें इत्तौ अच्छौ गं्रथ लिखबौ कछू हंसी खेल नइयां। सांसी कइ जाय तो जौ उनकी एकांत साधना कौ सुफल है।’ उपन्यासकार सुरेंद्र नायक ने कहा है ‘इसमें कवि का वह स्वप्निल स्मृति लोक समाहित है, जिसको कवि ने स्वयं जिया है। कविताएं अतीतजीवी होते हुए भी यदा-कदा वर्तमान में संक्रमण करती हैं, जहां कवि प्रकारांतर से वर्तमान के तनावपूर्ण एवं जटिल परिवेश के प्रति अपना आक्रोश, प्रतिरोध एवं क्षोभ व्यक्त करता है।’ भास्कर सिंह ‘माणिक्य’ ‘युगकवि’ कहते हैं ‘यह संग्रह विविधता से परिपूर्ण है। इन कविताओं में हर स्थान पर बुंदेली लोक जीवन प्रतिध्वनित हो रहा है।’ बुंदेली कवि रामरूप स्वर्णकार ‘पंकज’ कहते हैं ‘आपकी एक-एक लाइन अपुन कों बुंदेलखंड की धरती की जानकारी करा रई जैसें इतै के रीति-रिवाजन, परंपराओं, तीज-त्योहारन, चाल-चलन की बात बता रई।’

व्यक्ति का मूल और आदिगृह गांव ही है, शेष बाहरी  और बाद के हैं। शेष तो वैसा ही है, जैसे किसी शरीर पर पहने हुए वस्त्र। गांव संस्कृत ‘ग्राम’ का तद्भव शब्द है। ग्राम का वैयुत्पत्तिक अर्थ ‘समूह’ होता है। घरों के समूह को गांव कहा गया। गांव सभ्यता की प्रारंभिक इकाई है। सर्वप्रथम गांव अकृत्रिम रूप से अस्तित्व में आए, किंतु अब ‘राही’ ग्वालियरी के शब्दों में यदि कहें-‘गांव गुम शहर की ज़मीनों में, आदमी खो गए मशीनों में। हर तरफ आग ही आग लगी क्यूं है, देश के सावनी महीनांे में। आपका ये सफर ना तै होगा, बैठकर काग़जी़ सफीनों में। आज पत्थर तलाशता हूं, कल ये गिने जाएंगे नगीनों में।’

फिर भी, गांव में आज भी अपनापा है; सौजन्य है; सौम्यता है; सरलता और सादगी है; सहयोग है; सहकार है; संवेदनशीलता है; संस्कार हैं। दुरभिसंधियां भी हैं, किंतु गांव से जुड़कर व्यक्ति बाहरी विशिष्टताओं के आवरण को उतार देता है और अपने को धरातल से संलग्न महसूस करता है। गांव से मृत्यु-पर्यंत जुड़े रहे बाबा नागार्जुन को अपनी छोटी सी कविता ‘सिंदूर तिलकित भाल’ में जब अपने तरउनी गांव के एक-एक उपादान की याद आती है तो पाठक भी अपने ‘तरउनी’ से जुड़े बिना नहीं रह पाता; क्योंकि नागार्जुन की पीड़ा है कि अन्यत्र जीवन भर रह लेने के बाद भी लोग प्रवासी ही कहेंगे। ‘गांव’ और ‘लोक’ शब्द दो हैं, किंतु इनकी अंतर्ध्वनि एक ही है। लोक जहां अपने मूल में बसता है, वह गांव ही है। किसी राष्ट्र को चलाने और दिशा निर्धारण के लिए लोक-स्वीकृति अनिवार्य है। इसीलिए अपने देश में लोकसभा और लोकतंत्र जैसे शब्द और व्यवस्था स्वीकृत हैं। भाषाशास्त्री पतंजलि ने भाषा संबंधी विवेचन में लोक को अंतिम प्रमाण माना है। धर्मशास्त्र में लोकविरुद्ध कार्य को अस्वीकार्य कहा गया- ‘‘यद्यपि सिद्धं लोकविरुद्धं नाकरणीयम् नाचरणीयम्’’। प्रसिद्ध कूटनीतिज्ञ चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र में लिखा है कि जो शास्त्र को जानता है; लोक को नहीं जानता, वह मूर्खतुल्य है ‘‘शास्त्रज्ञोऽप्यलोकज्ञो भवेन्मूर्खतुल्यः’’।

लोक में अनेकता और वैविध्य है, फिर भी उसकी अंतर्धारा एकता और समानता की है। विजित और विजेता दोनों का ज्ञान और संस्कृति लोक की व्यापकता में अंतर्भुक्त हो जाती है। यहां तक कि अभिजात चेतना जिसको कहा जाता है, वह भी लोक में मिलकर धन्यता का अनुभव करती है।

प्रस्तुत संग्रह में आए अनसुने-से शब्दों के दिए गए क्रियापरक अर्थ यथासंभव उनकी व्युत्पत्ति से जोड़ते हुए किए गए हैं, जिससे पाठक रचनाकार की भावभूमि से ही काव्य का आस्वाद ग्रहण कर सके। वर्तमान में हिंदी में यों भी सृजनशीलता घट गई है, हिंदी की बोलियों के सामने तो उनके अस्तित्व का संकट मंड़रा रहा है। बोलियों के साहित्य में सामान्य पाठक तक सहजता से पहुँच सकने वाली ऐसी बोधगम्य भावपूर्ण क़िताबों की कमी है, जो अपने समय और समाज का यथार्थ एवं वास्तविक चित्रण करते हुए साहित्य की श्रीवृद्धि करें। यह संग्रह हिंदी साहित्य में इस अभाव की पूर्ति में किया जाने वाला एक सत्प्रयास सिद्ध होगा, ऐसा मेरा विश्वास है। सब मिलाकर यह एक पठनीय बुंदेली काव्य हैए जिसके बारे में श्री वीरेंद्र केशव साहित्य परिषद् के अध्यक्ष पं. हरिविष्णु अवस्थी ने कहा है- ‘लंबी कविताएं लिखने का एक इतिहास रहा है, कुछ समय से लंबी कविताओं के स्थान पर छोटी-छोटी कविताएं लिखने का चलन चल पड़ा था। ‘भइया अपने गांव में’ शीर्षक रचना इक्कीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में बुंदेली बोली में रची प्रथम लंबी रचना है। वस्तुतः कवि की इस लंबी काव्य रचना का उद्देश्य दूरस्थ अंचल में स्थित ग्राम्य जीवन की सजीव एवं नयनाभिराम झांकी उनकी ही बोली-वानी (ग्रामीण बुंदेली) में प्रस्तुत करना प्रतीत होता है। कवि को अपने उद्देश्य में पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है।’ साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त बांगला-हिंदी अनुवादक वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. रामशंकर द्विवेदी का कहना है- ‘किसी भी साहित्यिक भाषा में जीवंतता के अनुपात का माप उसमें प्रयुक्त होने वाली शब्दावली है। इस प्रकार देखा जाए तो बुंदेली की ठेठ शब्दावली की रक्षा की इधर बहुत बड़ी जरूरत हो गई है। इस शब्दावली को बचाने का  एकमात्र उपाय उसे रचना की भाषा बनाना है। इस दृष्टि से पं0 बाबूलाल द्विवेदी ‘मधुप’ जी का यह प्रयास स्तुत्य और सराहनीय है।’ वहीं बुंदेली शब्दकोशकार एवं लोक साहित्यकार डॉ. कैलाश बिहारी द्विवेदी के अनुसार ‘पूर्वावस्था से तुलना के कारण कवि के भावुक मन में यह प्रश्न बार-बार उठता है कि ‘कितै हिरा गए बे नोंने दिन......।’ कहीं-कहीं इस भाव-यात्रा में कुछ इतिहास आदि की बातें भी आ जाती हैं, जो विषय की दृष्टि से अप्रासंगिक और बेमेल सी लगती हैं; परंतु उन्हें परिस्थितियों से खिन्न एवं उदास मन के उच्छवास मानना चाहिए।’ हिंदी और बुंदेली के साहित्यकार डॉ दुर्गेश दीक्षित का आकलन है ‘ई हैरानगती में जो थोरौ-भौत लिखत-पड़त हैं सो भौत बड़ी बात है। कछू दिना सेें बुंदेली में भौत काम होत दिखा रओ। पद्य तो आल्हखंड, ईसुरी सें लेकें आजनों खूब लिखो गओ। और तो और इतै के विश्वविद्यालयन में बुंदेली पड़ाई जान लगी है। आकासवानी उर दूरदरसन के कंेद्रन सें ईकौ प्रसारन होन लगो है। निबंध, नाटक, कहानी उर उपन्यास नों बुंदेली में लिखे जान लगे। कैउ पत्रिकां सुद्ध बुंदेली में छपी जान लगीं। अब बताओ ऐसे में हमाए पं0 बाबूलाल जू दुवेदी कैसें पाछें रै सकत ते। संस्कृत के भौत बड़े पंडित होबे के संगै बुंदेली साहित्य उर संस्कृति में जे खूब रचे-बसे हैं। मां बुंदेली की तो उनके ऊपर पूरी किरपा हैइ। भासा, छंद उर ब्यंजना की उनें पकड़ है। छिल्ला जैसे हलके से गांव में रैकें इत्तौ अच्छौ गं्रथ लिखबौ कछू हंसी खेल नइयां। सांसी कइ जाय तो जौ उनकी एकांत साधना कौ सुफल है।’ उपन्यासकार सुरेंद्र नायक ने कहा है ‘इसमें कवि का वह स्वप्निल स्मृति लोक समाहित है, जिसको कवि ने स्वयं जिया है। कविताएं अतीतजीवी होते हुए भी यदा-कदा वर्तमान में संक्रमण करती हैं, जहां कवि प्रकारांतर से वर्तमान के तनावपूर्ण एवं जटिल परिवेश के प्रति अपना आक्रोश, प्रतिरोध एवं क्षोभ व्यक्त करता है।’ भास्कर सिंह ‘माणिक्य’ ‘युगकवि’ कहते हैं ‘यह संग्रह विविधता से परिपूर्ण है। इन कविताओं में हर स्थान पर बुंदेली लोक जीवन प्रतिध्वनित हो रहा है।’ बुंदेली कवि रामरूप स्वर्णकार ‘पंकज’ कहते हैं ‘आपकी एक-एक लाइन अपुन कों बुंदेलखंड की धरती की जानकारी करा रई जैसें इतै के रीति-रिवाजन, परंपराओं, तीज-त्योहारन, चाल-चलन की बात बता रई।’

इस प्रकार श्री द्विवेदी और उनके कृतित्व का यह परिचय उनके व्यक्तित्व की विराटता को देखते हुए और कृतित्व के विविध आयामों को अनावृत करने की दृष्टि से लघु ही है, किंतु यह बुंदेली लोक और उसके मानस को किंचित् अछूते पक्षों के साथ और व्यक्त पहलुओं को परिपुष्ट करने के रूप में देखने के लिए उपयोगी होगा, ऐसा मेरा विश्वास है।

चौमासा 91 वर्ष 30 मार्च-जून 2013 issn 22495479 से साभार पितृ दिवस 18 जून के अवसर पर