Thursday, September 28, 2017

ललितपुर जनपद: एक परिचय

जनपद ललितपुर : एक परिचय
डॉ राकेश नारायण द्विवेदी
बुंदेलखंड भारतवर्ष का हृदयस्थल है, किंतु ललितपुर जनपद बुंदेलखंड का हृदयस्थल ही नहीं, हृदयाकृति का भी जनपद है। यह जनपद 24.11 डिग्री से 25.13 डिग्री (उत्तर) अक्षांश पर तथा 78.11 डिग्री से 79.00 डिग्री देशांतर रेखाओं के मध्य में स्थित है। इस जनपद के उत्तर में उत्तर प्रदेश का झांसी जिला, दक्षिण में मध्य प्रदेश का सागर जिला, पूर्व में म.प्र. के टीकमगढ़ एवं छतरपुर जिले तथा पश्चिम में म.प्र. के ही शिवपुरी एवं अशोकनगर जिले स्थित हैं। इस प्रकार यह तीन ओर से मध्य प्रदेश से घिरा हुआ है। बेतवा नदी इसकी उत्तरी सीमा को उत्तर प्रदेश के झांसी जनपद से पृथक करती है।
ललितपुर जनपद का परिचय जानने के लिए हमें बुंदेलखंड क्षेत्र की सीमाओं से भी परिचित होना आवश्यक है। वर्तमान बुंदेलखंड लगभग 23.10 डिग्री से 26.27 डिग्री उत्तरी अक्षांश पर तथा 78.00 डिग्री से 81.34 डिग्री पूर्वी देशांतर के मध्य फैला हुआ है। इस भूगोल में उत्तर प्रदेश के झांसी मंडल के तीन जिले (ललितपुर, झांसी एवं जालौन), चित्रकूट मंडल के चार जिले (बांदा, चित्रकूट, हमीरपुर एवं महोबा), मध्य प्रदेश के सागर मंडल के पांच जिले (टीकमगढ़, छतरपुर, सागर, पन्ना एवं दमोह) तथा ग्वालियर मंडल का जिला दतिया सम्मिलित है। इस प्रकार तेरह जनपदों से बुंदेलखंड का भूगोल निर्मित होता है, किंतु सांस्कृतिक दृष्टि से यह क्षेत्र इन जनपदों से बाहर इसके सीमावर्ती जिलों में भी फैला हुआ है। मध्य प्रदेश के भिंड, ग्वालियर, मुरैना, शिवपुरी, गुना, नरसिंहपुर, होशंगाबाद, जबलपुर एवं सतना जिलों में भी बुंदेली संस्कृति का प्रसार है। इस क्षेत्र में महाराष्ट्र की सी कला-संस्कृति, राजस्थान के से स्थापत्य एवं पंजाब के से शौर्य की त्रिवेणी का अद्भुत संगम हुआ है।
भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के दक्षिण-पश्चिम भाग में ललितपुर जनपद 1 मार्च 1974 से पूर्व 1891 ई तक झांसी जिले का भाग था। यह जनपद ब्रिटिश शासन काल में (1861 से 1891) तक जनपद मुख्यालय रहा। 1 मार्च 1974 को यह स्वतंत्र जिला बना। इस जनपद का भौगोलिक क्षेत्रफल 5039 वर्ग कि.मी. है।
जनपद की कुल जनसंख्या वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार 12,21,592 है, जिसमें 6,41,011 पुरुष तथा 5,80,581 स्त्रियां हैं। जिले की संपूर्ण जनसंख्या का 77.7 प्रतिशत भाग गांवों में निवास करता है। यहां 19.7 प्रतिशत अनुसूचित जाति तथा 5.9 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति के व्यक्ति निवास करते हैं। शहरी क्षेत्रों में मात्र एक प्रतिशत अनुसूचित जनजाति के व्यक्ति ही निवास करते हैं। जिले की कुल साक्षरता दर 63.5 प्रतिशत है, जिसमें अनुसूचित जाति के व्यक्तियों की साक्षरता 58.8 तो जनजाति के व्यक्तियों की साक्षरता मात्र 30.6 प्रतिशत ही है। जिले का स्त्री पुरुष लिंगानुपात 904 है, जबकि उत्तर प्रदेश में यह 918 है। जिले में बेरोजगारों की संख्या कुल जनसंख्या का 58.8 प्रतिशत है। खेती का काम करने वाले व्यक्ति यहां 53.2 प्रतिशत हैं। जिले का जनघनत्व 209 है, जो प्रदेश के जनघनत्व 666 से बहुत नीचे है अर्थात् जिले का क्षेत्रफल जनसंख्या की तुलना में प्रदेश के सापेक्ष अधिक है।
राजस्व की दृष्टि से यह जनपद पांच तहसीलों (मड़ावरा, महरौनी, पाली, ललितपुर एवं तालबेहट), छः ब्लाकों (बार, जखौरा, तालबेहट, विरधा, मड़ावरा एवं महरौनी), 48 न्याय पंचायतों तथा 340 ग्राम पंचायतों में विभक्त है। जिले के कुल ग्रामों की संख्या 752 है, जिनमें 691 गांव आबाद हैं तो 61 गांव गैर आबाद हैं। जिले में एकमात्र नगरपालिका परिषद (ललितपुर) है तथा तीन नगर पंचायतें (पाली, महरौनी, एवं तालबेहट) हैं। जिले में 9 रेलवे स्टेशन एवं ब्रॉडगेज की 75 किलोमीटर रेलवे लाइन बिछी हुयी है। ललितपुर से वाया खजुराहो सिंगरौली तक जाने वाली रेलवे लाइन का निर्माण कार्य अभी जारी है। इस जिले में 15 पुलिस स्टेशन हैं, जिनमें 11 ग्रामीण क्षेत्र में तथा 4 नगरीय क्षेत्र में स्थित हैं। जिले में डाकखाने 7 नगरीय क्षेत्र में तथा 146 ग्रामीण क्षेत्र में स्थित हैं। कुल राष्ट्रीय बैंकों की संख्या 25 तथा अन्य बैंकों की 13 हैं। ग्रामीण बैंक शाखाएं 20, सहकारी बैंक शाखाएं 10 तथा कृषि - ग्रामीण एवं सहकारी - बैंकों की 3 शाखाएं हैं।
ललितपुर जनपद में पानी की अच्छी प्राकृतिक निकासी होती है। जिले के उत्तर-पूर्वी भाग में बेतवा, जामनी, धसान, नारायनी, शहजाद, सजनाम आदि नदियों का प्रवाह है। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद यहां बहुत से बांधों और कृत्रिम जलाशयों का निर्माण हुआ। बुंदेलखंड के अन्य भागों के समान यहां पुराने तालाब भी मिलते हैं।
बेतवा इस जिले की सबसे बड़ी नदी है। बेतवा नदी का प्रवाह बुंदेलखंड के अधिकांश भाग में होने एवं सिंचाई, विद्युत तथा पेयजल उपलब्ध कराने के कारण इस नदी को बुंदेलखंड की गंगा कहा गया है। यह नदी भोपाल के निकट से निकलकर ललितपुर जिले की सीमा में धोजरी गांव को सबसे पहले अभिसिंचित करती है। यहीं पर बेतवा में नारायनी नदी का संगम हो जाता है। बेतवा नदी का प्रवाह ललितपुर जिले की पश्चिमी सीमा को निर्धारित करता है। झांसी जिले का पृथक्करण भी उत्तर-पूर्वी सीमा में इस नदी द्वारा होता है। जिले में इस नदी पर माताटीला बांध बना है। 1952-64 में बने इस बांध की लंबाई 6.30 कि.मी. है। इसकी ऊंचाई 3353 मीटर तथा जल संग्रहण क्षमता 1132.68 क्यूसेक मीटर है। बेतवा नदी पर ही इस जिले में उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश सरकारों के संयुक्त तत्वावधान में बहुउद्देशीय राजघाट बांध का निर्माण हुआ है। इस बांध से बिजली उत्पादन के साथ-साथ उ.प्र. तथा म.प्र. के भू-भागों की सिंचाई हो रही है। बेतवा नदी को पुराणों में वेत्रवती कहा गया है।
धसान नदी का पुरातन नाम दशार्ण है, यह नाम दस छोटी नदियों का समुच्चय होने के कारण पड़ा है। यह बेतवा की सहायक नदी है। धसान नदी ललितपुर जिले की दक्षिण-पूर्वी सिरे का संस्पर्श करती है। जिले के जिस भाग में यह नदी बहती है, मान्यता है कि वहां कभी पांडवों ने अपना अज्ञातवास का समय व्यतीत किया था। पांडव वन और बनगांव के रूप में वर्तमान स्थान-नाम इस इतिहास गाथा को सुरक्षित बनाए हुए हैं। जिले में 38 कि.मी. के प्रवाह के बाद यह नदी पड़ोसी जनपद टीकमगढ़ (म.प्र.) की सीमा में प्रविष्ट कर जाती है।
जिले के दक्षिण-पूर्वी भाग में ही एक और छोटी सी नदी जमड़ार है, जिसे यम विड़ार का विकसित भाषा रूप समझा गया है। यह नदी इस जिले के मड़ावरा ब्लॉक मुख्यालय के निकट से विकसित हुई है। मधुकर पाक्षिक के संपादक के रूप में उस समय कुंडेश्वर में निवासरत पं. बनारसीदास चतुर्वेदी ने जमड़ार के स्रोत की यात्रा की थी। इस नदी की कुल लंबाई 40 मील अर्थात् लगभग 60 कि.मी. से अधिक नहीं है। यह नदी जामनी नदी में जहां मिलती है, उस स्थान को बानपुर के पास अजयपार के नाम से जाना जाता है। अजयपार (अजय अपार हृद - अजयपार की दहर है) के एक द्वीप सर्वर्तुक रमणारण्य को बाण की पुत्री उषा ने अपना विहार स्थल चुना था। यहां से वरोरुओं (स्त्रियों) को कुंडेश्वर शिवधाम के दर्शनार्थ बनाए गये घाट-बरीपाल घाट- को बरीघाट कहा जाता है। स्थानीय बोली में रमन्ना अभिहित किया हुआ स्थान रमणारण्य का तद्भव है। जमड़ार और जामनी नदी के इस संगम स्थल को पं. बनारसी दास चतुर्वेदी ने मधुवन नाम दिया था।
जामनी नदी बेतवा की महत्वपूर्ण सहायक नदी है। जिले में मदनपुर गांव के निकट के जंगल से इसका प्रवेश होता है। इसका बहाव दक्षिण से उत्तर की ओर है। जनपद की यह दूसरी सबसे बड़ी नदी है। जमुनियां गांव के पास इस नदी पर जामनी बांध बना है। यह बांध 1962-73 में बनाया गया, जिसकी लंबाई 6.40 कि.मी., ऊंचाई 19.18 मीटर तथा कुल जल भंडारण क्षमता 92.89 क्यूसेक मीटर है। यह नदी ओरछा (म.प्र.) के पास बेतवा में मिलती है।
सजनाम नदी जामनी नदी की सहायक नदी है। यह नदी जिले के चंदावली गांव के निकट जामनी में मिल जाती है। इस नदी पर सिंदवाहा गांव के निकट 1977-90 में 5.15 कि.मी. लंबाई का बांध बनाया गया। जिसकी ऊंचाई 18.78 मीटर तथा जल संग्रहण क्षमता 83.50 क्यूसेक मीटर है।
जिले की एक और नदी है शहजाद, जिस पर जिले में दो बांध बने हैं। यह नदी दूधई के तालाब से निकली है। शहजाद नदी पर ललितपुर में गोविंद सागर बांध 1947-53 में बनाया गया। इसकी लंबाई 3.60 कि.मी., ऊंचाई 18.29 मीटर तथा जल भंडारण क्षमता 96.80 क्यूसेक मीटर है। ललितपुर नगर को पेयजल आपूर्ति इस बांध द्वारा की जाती है। सजनाम नदी पर ही हजारिया गांव, जहां यह नदी जामनी नदी में मिल जाती है, से पूर्व शहजाद बांध बना है। यह बांध 1973-92 में बना था, जिसकी लंबाई 4.16 कि.मी. ऊंचाई 18.00 मीटर तथा जल संग्रहण क्षमता 130 क्यूसेक मीटर है।
इस जिले में एक और प्रवाहित होने वाली रोहिणी नाम की छोटी नदी है, यह धसान की सहायक नदी है। इसका बहाव उत्तर-पूर्व दिशा से महरौनी तहसील में जिले के दक्षिण-पश्चिम कोने तक होता है। इस नदी पर इसी नाम का बांध 1976-84 में बना है जिसकी लंबाई 1.65 कि.मी., ऊंचाई 15.50 मीटर तथा कुल जल संग्रहण क्षमता 92.89 क्यूसेक मीटर है।
कुल मिलाकर अभी तक इस जिले में 7 बांध निर्मित हैं, जो किसी एक जिले में एशिया में सर्वाधिक हैं। यही नहीं, साइफन पद्धति से बने बांधों में भारत के तीन स्थानों में से एक ललितपुर जिला है। जनपद के इन बांधों के अतिरिक्त हाल में मायावती सरकार द्वारा जिले में भोंरट, कचनोंदा तथा उटारी बांधों का निर्माण प्रारंभ हुआ है। भोंरट बांध का निर्माण वर्तमान जामनी बांध से बीस किलोमीटर की दूरी पर जामनी नदी पर महरौनी तहसील के भोंरट गांव के पास जारी है। दिनांक 23 सितंबर 2009 तक इसकी आगणित लागत 3548.15 लाख है। इस बांध से 7900 हेक्टेयर रबी फसल की सिंचाई संभव हो सकेगी। इसमें 6.5 गुणा 6.5 मीटर के खड़े गेट लगने प्रस्तावित हैं। इस बांध की लंबाई 3.6 किलोमीटर रहेगी। उटारी बांध का निर्माण सजनाम नदी की सहायक उटारी नदी पर महरौनी तहसील के ही सूरी कलां गांव के पास चल रहा है। इस परियोजना की लागत 1662.50 लाख रुपए रहने की उम्मीद है। उटारी बांध से 1800 हेक्टेयर क्षेत्रफल की रबी फसल लहलहाने की संभावना है। इस बांध में 6.00 गुणा 7.50 मीटर के चार खड़े गेट लगेंगे। जिले का एक अन्य निर्मित बांध सजनाम नदी पर ललितपुर तहसील में कचनोंदा कलां के पास है। जनपद में बांसी, तालबेहट, जखौरा, जमालपुर, रजवारा, लड़वारी में झील और तालाब हैं तो गंगारी ताल, धौरी सागर जैसे बड़े तालाब भी हैं। वर्षा के जल को बांध एवं बंधियों द्वारा रोककर छोटी-छोटी लिफ्ट सिंचाई योजना जनपद में प्रगति पर हैं। गोविंद सागर बांध, जामनी, शहजाद, सजनाम एवं रोहिणी नहर प्रणालियों से निकली नहरों की लंबाई वर्ष 1991 तक 731 कि.मी. है। माताटीला एवं राजघाट बांध का पानी सिंचाई हेतु जनपद को नहीं मिलता है। इस प्रकार अब जिले की चारों प्रमुख नदियों - बेतवा, जामनी, सजनाम एवं शहजाद - पर दो-दो तथा एक-एक रोहिणी एवं उटारी नदी- पर बांध हो गए हैं।
यहां उल्लेखनीय है कि इतने बांध और जलाशय होने के बाद भी जिले की 93 प्रतिशत सिंचाई यहां के किसानों द्वारा निर्मित कुओं पर निर्भर है। जनपद की जमीन ढालू होने के कारण वर्षा का पानी नदियों और नालों के माध्यम से बह जाता है। इसलिए जिस वर्ष वर्षा कम होती है, उस वर्ष सिंचाई की विकराल समस्या उत्पन्न हो जाती है। अब अवर्षा का अनुपात बढ़ गया है, जिससे पेयजल की भीषण समस्या भी जिले के गांवों में उत्पन्न होने लगी है।
जलवायु- जनपद की जलवायु राज्य के दक्षिणी पठारी भाग में स्थित होने के कारण भिन्न प्रकृति की है। जिससे गर्मी में प्रखर धूप के साथ 47.8 डिग्री सेंटीग्रेड तक तापमान पहुंच जाता है। सर्दी के मौसम में बहुत ठंडक भी रहती है। मार्च से मध्य जून तक गर्मी, मध्य-जून से सितंबर तक मानसून, अक्टूबर से नवंबर तक मानसूनोत्तर तथा दिसंबर से फरवरी तक सर्दी का मौसम रहता है। दिन का अधिकतम तापमान मई-जून में रहता है तथा सबसे कम तापमान जनवरी में देखा जाता है।
वर्षा- यहां प्रायः जून के मध्य से सितम्बर अंत तक वर्षा होती है। जुलाई में मौसम की अधिकांश वर्षा हो जाती है। अगस्त और सितंबर में भी वर्षा होती है। जनवरी में शीत लहर कभी-कभी वर्षा के साथ चलती है। दिसंबर-जनवरी में ही कोहरे और पाले का प्रकोप रहता है। मई में तपन और लू चलती है। विगत शताब्दी के बाद ग्लोबल वार्मिंग और जलवायुगत परिवर्तनों के कारण अब मौसम की भविष्यवाणी सटीक नहीं बैठती है। जिले की सामान्य वर्षा की औसत दर 918 मिलीमीटर है। इंदिरा गांधी नेशनल कला अकादमी नई दिल्ली के आंकड़े के अनुसार बुंदेलखंड में 1906 से लेकर 1950 के वर्षो तक बीस बार वर्षा न होने के कारण अकाल पड़ा। इससे स्पष्ट होता है कि इस अंचल में औसतन हर दो साल में एक बार वर्षा नहीं होती है। कृषि प्रधान अर्थ व्यवस्था के चलते इस क्षेत्र का विकास की दौड़ में पिछडने का यह अकाल पड़ना ही सर्वप्रमुख कारण है।
मृदा- इस जिले में बुंदेलखंड में पाई जाने वाली सभी चार प्रकार की मिट्टियां पाई जाती है। विंध्य पहाडियों की चट्टानों से यहां की मिट्टी विकसित हुई है जिसमें ग्रेनाइट, ग्नीस, क्वार्ट्जाइट और कहीं-कहीं सेंड स्टोन, लाइम स्टोन एवं स्लेट पत्थर पाये जाते हैं। यहां की मिट्टी को दो व्यापक श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है। 1. काली और 2. लाल। सामान्यतः इन मिट्टियों को चार समूहों में बांटा जा सकता है।
1. बुंदेलखंड 1-इसे स्थानीय भाषा में रांकड़ मिट्टी कहा जाता है, इसके दो रूप हैं, पहला रूप जिले के दक्षिणी भाग में पहाड़ी किनारों से लगा हुआ है, दूसरा जिले के उत्तरी भाग में पायी जाने वाली रांकड़ मिट्टी है। यह मिट्टी खेती के लिए उपयुक्त नहीं है, इस मिट्टी पर वनारोपण किया जा सकता है। इसमें भू-क्षरण की आशंका रहती है जिसको बांध या बंधी बनाकर संरक्षित किया जा सकता है।
2. बुंदेलखंड 2- इसे पड़ुवा मिट्टी कहा जाता है। यह भी रांकड़ की तरह लाल मिट्टी होती है। यह इस जिले के मध्य क्षेत्र में पाई जाती है। यह बालू मिश्रित मिट्टी है, जिसमें उर्वरता भी होती है। यह खेती के लिए पानी अधिक मांगती है।
3. बुंदेलखंड 3- काली मिट्टी का यह समूह दो प्रकारों में मिलता है, पहले को कावड तथा दूसरे को मार कहा गया है। यह मध्य भारत में पायी जाने वाली मिट्टी से मिलती जुलती है। कावड़ मिट्टी अनाज उत्पादन की दृष्टि से अच्छी मानी गई है। ललितपुर, नाराहट और महरौनी तहसील के दक्षिणी भाग में यह मिट्टी पाई जाती है। समय से खेती करने पर ही इस मिट्टी से अच्छी उपज ली जा सकती है। ललितपुर तहसील के दक्षिणी भाग में बालाबेहट के आसपास मार मिट्टी पाई जाती है। यह काली और उर्वर मिट्टी है। इसका भी समय प्रबंधन अच्छी पैदावार लेने के लिए आवश्यक होता है।
4. बुंदेलखंड 4 - बाढ़ से खेतों में जमी हुई जो मिट्टी है वह इस जिले के पश्चिमी भाग में पाई जाती है।
भूतल मानचित्रण- इस जिले के भूतल को देखने पर सामान्यतः यह क्षेत्र पहाड़ी दिखता है। विंध्य उपत्यकाओं के बीच बेतवा के किनारे दक्षिण में ऊंची पर्वत मालाएं स्थित हैं, जो समुद्री सतह से 650 मीटर ऊंची है। हल्के लाल रंग की ग्रेनाइट की चट्टानें दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पश्चिम की ओर देखी जाती हैं। जनपद का अधिकांश भाग ककरीला, पथरीला एवं ऊबड-खाबड़ है। जामनी नदी और उसकी सहायक नदियों से घिरा क्षेत्र जिले की पूर्वी सीमा से टीकमगढ़ (म.प्र.) जिले को अलग करता है।
फसलें- इस जिले की मुख्य फसलें रबी और खरीफ मौसम की हैं। रबी की प्रमुख फसलें गेहूं, चना, मटर, मसूर, अलसी तथा खरीफ की ज्वार, मक्का, उर्द, सोयाबीन, तिली आदि है। मूंग की फसल भी खरीफ के बाद बहुत थोड़े हिस्से में कुछ कृषक उगा लेते हैं। मूंगफली और गन्ना भी यहां की फसलें हैं। जिले का कुल सिंचित क्षेत्र 1.85 हेक्टेयर है जो शुद्ध बोए गए 2.53 लाख हेक्टेयर का 69 प्रतिशत है।
उद्योग-धंधे- जनपद में कोई बड़ी औद्योगिक इकाई स्थापित नहीं है। बजाज हिंदुस्तान लिमिटेड के सहयोग से एक बिजली उत्पादन संयंत्र चिगलौवा तहसील महरौनी में लगाया गया है। मड़ावरा क्षेत्र में एक फास्फेट का कारखाना स्थापित करने की चर्चा चलती रहती है। छोटी औद्योगिक इकाईयों के नाम पर यहां स्टोन क्रेशर लगे हुए हैं। एक एक्सप्लोसिव कारखाना भी ललितपुर झांसी रोड पर स्थित है। इस जनपद में बांधों और प्राकृतिक तथा ऐतिहासिक स्थलों को लेकर पर्यटन उद्योग की अच्छी संभावनाएं हैं। यहां की नदियों से निकली बालू तथा इमारती लकड़ी से भी रोजगार-सृजन हो सकता है। काम धंधों की कमी के कारण अथवा अपने स्वार्थों के कारण यहां पृथक बुंदेलखंड राज्य बनाने की मांग बुंदेलखंड के चुनिंदा व्यक्ति किया करते हैं, पर यहां की मूल समस्या वर्षा की कमी है, जिससे सिंचाई नहीं हो पाती और पर्याप्त कृषि उपज नहीं मिल पाती। राज्य बनने के बाद भी इस समस्या से कैसे छुटकारा मिल सकता है! जिस वर्ष अच्छी वर्षा होती है तो किसानों के चेहरे भी खिल उठते हैं। अलग राज्य बनाए जाने अथवा न बनाए जाने के प्रश्न पर सुधीजन विचार करेंगे कि कदाचित् इसीलिए तो नहीं, राज्य बनाने की मांग को जनसमर्थन प्राप्त नहीं हुआ है।
जिले की बुंदेली बोली में जब सिख बंधु पंजाबी के शब्द-रूपों का और मुस्लिम भाई उर्दू-फारसी के शब्द-रूपों का बुंदेली संस्कार देते हैं तब इस बोली का माधुर्य सुनते ही बनता है। यहां की बोली में मुस्लिम भाई को चच्चा कहने के रिवाज में उम्र का कोई बंधन नहीं है। पुराने दाऊ और कक्का के संबोधनों को अंकल ने स्थानापन्न कर दिया है। काकी और ताई भी अब आंटी बन गई हैं।
स्थानीय परंपरा के अनुसार बुंदेली बोली और संस्कृति का प्रथम महाकाव्य आल्हखंड के रचयिता जगनिक का इस जिले के मदनपुर गांव में जन्म हुआ था। यद्यपि बुंदेलखंड विश्वविद्यालय की पाठ्य पुस्तकों में इन्हें आगरा जिले की खैरागढ़ तहसील का निवासी बताया गया है।
नामकरण- बहुत समय पूर्व गोंड़ राजा सुम्मेर सिंह ने अपने स्वास्थ्य संवर्धन के लिए एक सिद्ध झील में स्नान किया। यह राजा अपनी पत्नी के साथ इसी झील के किनारे रहने लगा। कुछ समय बाद इनके एक कन्या हुयी, जिसका नाम ललित कुंवर रखा गया। मान्यता है कि इसी कन्या के नाम पर इस स्थान का नाम ललितपुर पड़ा। यह झील आजकल ललितपुर शहर के मध्य में सुमेरा तालाब के नाम से प्रख्यात है। ललितपुर जनपद के गजेटियर तथा एंटिक्विटीज इन दि डिस्ट्रिक्ट ऑफ ललितपुर में यह नाम सुम्मेरशाह की पत्नी के नाम पर बताया गया है वहीं ललितपुर स्मारिका में इसके संपादक द्वारा सुम्मेरसिंह गोंड़ की पुत्री के नाम पर इसे बसा हुआ बताया गया है, जबकि कल्हणकृत राजतरंगिणी के अनुसार कश्मीर नरेश ललितदिव्य के नाम पर उसके सेवकों ने इस स्थान का यह नामकरण किया। जो भी हो इतना अवश्य है कि ललितपुर के नामकरण और स्थापन में गोंड़ राजा सुम्मेरसिंह का योगदान रहा है। इस नगर के विभिन्न मंदिर और मूर्तियां भी इस निष्कर्ष की पुष्टि करते हैं। प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की 150वीं वर्षगांठ पर प्रकाशित पुस्तक बानपुर विविधा में पं. बाबूलाल द्विवेदी के आलेख इतिहास और जनश्रुतियों के आलोक में नगर ललितपुर में दी गई एक जनश्रुति का उल्लेख है कि चंदेरा के राजा चंद्रदेव की चार लड़कियों में सबसे छोटी ललिता का विवाह सुम्मेरसिंह के साथ हुआ। सुम्मेरसिंह मुंह खोलकर सो रहा था, तभी एक सांप उसके पेट में चला गया। तब से कृशकाय सम्ुमेरसिंह रुग्ण रहने लगा। ललिता देवी को स्वप्न में सुम्मेरसिंह के स्वस्थ होने का उपाय पता लगा और उसने चंदेरा के निकट एक देवी मंदिर एवं अपने नाम पर एक नगर बसाया। इसी का नाम ललितपुर हुआ किंतु इस किंवदंती का उल्लेख कनिंघम की पुरातात्विक रिपोर्ट के भाग-10 में भी हुआ है, जिसके अनुसार यह देश के कई भागों में क्षेत्रीय पंरपरा के अनुसार सुनी-सुनाई जाती है।
इतिहास- ललितपुर जिले का प्राचीन इतिहास यहां के स्थानीय पुरातत्व और शिलालेखों से प्राप्त होता है। इस जनपद का इतिहास प्रागैतिहासिक काल से ही प्रारंभ हो जाता है। यहां मिले पूर्व पाषाण कालीन औजारों से यह निष्कर्ष पुष्ट होता है कि विंध्य के जंगलों में मनुष्यों का निवास था। इस काल को भू-विज्ञानियों ने पैलियोलिथिक और नेयोलिथिक कहा है। जिले के दौलतपुर गांव के बाहर चांदी मंदिर से चट्टानों पर बनी मूर्तियों के मिले भग्नावशेषों से विदित हुआ कि आदिवासियों में कलात्मक विकास प्रारंभ हो चुका था। परंपरानुसार, पांच पांडवों ने मदनपुर गांव के निकट की जंगल-घाटी में अपना अज्ञातवास काटा था। सागर (म.प्र.) तथा ललितपुर (उ.प्र.) जनपदों की सीमा-क्षेत्र में यह बियावान जंगल फैला हुआ है।
शिशुपाल के पिता वक्रदंत की राजधानी चंदेरी (चंद्रावती = ग्रीक भाषा में संद्रावती) थी। ललितपुर इसी चंदेरी का भाग हुआ करता था। वक्रदंत के बाद यहां राजा बने शिशुपाल को 3101 ई.पू. में कृष्ण ने मार दिया था। चंदेरी को प्राचीन षोडश महाजनपदों में से एक चेदि के नाम से जाना जाता रहा। चेदियों व ललितपुर के नागरिकों ने महाभारत में पांडवों का समर्थन किया था।
यहां के आदिवासियों को सहरिया (शावर) कहा गया। यह आदिवासी जिले के कई गांवों में निवास करते हैं। इनका रहन-सहन का स्तर अत्यंत शीर्ण है। आदिवासियों के बाद यहां गोंड़ हुए। जिले के दक्षिणी भाग की पहाडियों के गांवों में यह देखे जा सकते हैं। शावरों का वेदों और महाभारत में उल्लेख हुआ है, जिसमें कहा गया है कि इन्हें पांडवों ने हराया था। नग्न शावर तथा पर्ण शावर जंगली जातियां हैं। वराह मिहिर ने इनकी भाषा को शावरी भाषा की संज्ञा दी है। विदेशी इतिहासकार टालेमी और प्लिनी ने इन्हें स्वारी और शबराई अभिधान से अभिहित किया है, जो पत्ते खाकर रहते थे। यह काले रंग के तथा असभ्य लोग थे।
माना जाता है कि गोंड़ों का आगमन सहरिया आदिवासियों के बाद हुआ। जिले के कई मंदिरों में लगे ग्रेनाइट पत्थरों पर गोंड़ों का उल्लेख हुआ है। गोंड़-पूर्वजों को यहां सम्मान से गोंड़ बाबा और उनके ठिकाने को गोंड़वानी कहा जाता है। यह लोगों को युद्ध में हराकर जंगलों और खेतों में अपना मनोरंजन करते थे। जनपद के जनमानस में आज भी यह पुष्ट धारणा है कि गोंड़ों ने अपना बहुत सा सोना, चांदी, बर्तन इत्यादि जमीन में दबा रखा था। कदाचित् युद्धों में संलग्न रहने के कारण गोंड़ों को ऐसा करना पड़ा होगा। इन्हीं के नाम पर मध्य भारत के एक बहुत बड़े भू-भाग को गोंड़वाना के नाम से जाना जाता है। मंडला (म.प्र.) का गोंड़ राजवंश 664 ई से आरंभ होता है। एक गोंड़ राजा ने कलचुरियों का विनाश किया था। वर्धन वंश के सम्राट हर्ष के पतन के पश्चात हैहयवंशीय कलचुरियों ने अपनी शक्ति बढ़ाकर त्रिपुरी को अपनी राजधानी बनाया था।
जिले के दक्षिण-पूर्वी पहाड़ी की घाटी में बसे गांवों के कुछ व्यक्ति अपने को राजगोंड़ का वंशज बताते हैं। ललितपुर के कुछ गांवों में बसे नाथों को भी यहां के बुद्धिजीवी गोंड़ों से संबंधित बताते हैं। बेहट शब्द गोंड़ों का दिया हुआ है, जिसका अर्थ बीहड़/ग्राम होता है। ललितपुर जनपद के अंतर्गत तालबेहट और बेहटा इत्यादि स्थान-नाम गोंड़ों द्वारा बसाए गए हैं।
गोंड़ों के बाद इस जिले में चंदेलों का आधिपत्य हुआ। चंदेलों से पूर्व यहां गुप्तों का भी साम्राज्य रहा। गुप्तों के होने के प्रमाण यहां के शिलालेखों और पुरातत्व में विद्यमान है। देवगढ़ से दो शिलालेख, एक नाहरघाटी का और दूसरा सिद्ध की गुफा, प्राप्त हुए हैं, जिनमें नाहरघाटी शिलालेख पर संवत् 609 उत्कीर्ण है, इसमें शासक का नाम नहीं है। देवगढ़ का दशावतार मंदिर गोविंद गुप्त द्वारा बनवाया गया है। देवगढ़ के जैन मंदिर भी गुप्त काल में बनवाए गये।
गुप्तों के बाद जिले में कन्नौज के देववंश का राज्य स्थापित हुआ। देवगढ़ के जैन मंदिर के सामने एक तोरण पर भोजदेव का नाम दिया गया है और इस पर संवत् 919 तथा शक 784 (सन् 888) है। भोजदेव का नाम ग्वालियर, पवा, बनारस, नागपुर इत्यादि के शिलालेखों में भी मिलता है। इससे यह विदित होता है कि भोजदेव एक बड़ा राजा था। ऐतिहासिक महत्व का एक अन्य शिलालेख जखौरा के पास सीरौन गांव में मिला है। इस पर महिपाल देव संवत 960, भोजदेव, महेंद्र पाल संवत 964, क्षितिपाल और देवपाल सं. 1025 जैसे शासकों के नाम उत्कीर्ण हैं। इस शिलालेख से यह भी स्पष्ट है कि नारायण और विष्णु भट्टारक ने यहां के जैन मंदिरों में दान किया था।
जिले के मदनपुर गांव, जिसका पुराना नाम पाटन था, में एक धार्मिक राजा मंगलसेन हुआ, मंगलसेन की स्मृति में यहां की महिलाएं व्रत रखती हैं। चंदेल राजा मदन वर्मा के नाम पर इस गांव को मदनपुर कहा गया। देवपत और खेवपत नामक दो वैश्यों ने देवगढ़ और दूधई के जैन मंदिरों का निर्माण कराया। वहीं पाणाशाह नामक एक धनी सेठ ने चांदपुर और बानपुर के जैन मंदिरों को बनवाया।
जिले में चंदेल राजाओं के ठोस धरातलीय साक्ष्य प्राप्त होते हैं। चंदेल वंश की स्थापना चंद्रवर्मा ने की। इसी के नाम पर इस राजवंश को चंदेल वंश कहा गया। इसकी राजधानी महोबा (जनपद) थी। इसने खजुराहो के मंदिर और कालिंजर (बांदा) का किला संवत् 214 में बनवाया। ललितपुर जनपद में चंदेल शक्ति गोंड़ों को समाप्त करके विकसित हुई थी। चंदेलों के प्रारंभिक शासक चंद्रवर्मा के बाद नान्नुक सन् 881 में हुए। इसके बाद वाक्पति और जय शक्ति (जेजाक) हुए इसके नाम पर ही बुंदेलखंड को जैजाकभुक्ति कहा गया यद्यपि रिपोर्ट ऑन दि एंटिक्विटीज इन दि डिस्ट्रिक्ट ऑफ ललितपुर में जयशक्ति का उल्लेख नहीं है। इस रिपोर्ट के अनुसार वाक्पति के बाद विजय, पश्चात् राहिल शासक हुए। राहिल के बाद हर्ष, हर्ष के बाद यशोवर्मन, यशोवर्मन के बाद धंग 950 ई. तक शासक रहे। पुरातात्विक अभिलेखों के अनुसार देवलब्धि के पौत्र यशोवर्मन ने इस क्षेत्र में मंदिर बनवाये थे। वर्तमान दूधई देवलब्धिपुर का विकसित भाषा रूप है जो देवलब्धिपुर से दुग्धपुर, फिर दूधई हुआ। चंदेलकाल में दूधई झांसी-ललितपुर मंडल का मुख्यालय था। इस शहर की स्थापना के तीस वर्ष बाद भारत-यात्रा पर आए इतिहासकार अलबरूनी ने दूधई को एक बड़ा नगर बताया है।
धंग के बाद चंदेलों में विद्याधर शासक हुआ, जिसकी गणना उत्तरी भारत के शक्तिशाली शासकों में थी। देश पर महमूद गजनवी के आक्रमण हो रहे थे। गजनवी देश के मंदिरों को लूट रहा था। इसी समय ललितपुर को चंदेरी में विलय कर दिया गया। चंदेलकालीन बुंदेलखंड का इतिहास के पृ. 76 पर दिए गए विवरण के अनुसार चंदेल नरेश कीर्तिवर्मन ने चंदेरी नगर को बसाया। इसके योग्य मंत्री वत्सराज के नाम पर ललितपुर जिले के अनेक स्थान-नामों की स्थापना हुई। चंदेरी कभी हिंदू तो कभी मुस्लिम शासकों के अधीन रहने लगी। मदनपुर से प्राप्त दो छोटे शिलालेखों के अनुसार दिल्ली के शासक पृथ्वीराज चौहान का पुत्र सोमेश्वर और पौत्र अर्ण ने मदन वर्मन के बाद बने चंदेल शासक परमर्दिदेव (परमाल) 1165-1202 ई. को 1183 ई. में एक बहुत बड़े युद्ध में परास्त किया। परमाल के दो बड़े सामंत- आल्हा और ऊदल थे, जिनके शौर्य का वर्णन जगनिक के आल्हखंड में किया गया है। यहां की लोक पंरपरा में विश्वास है कि जगनिक मदनपुर निवासी भट्ट ब्राह्मण थे।
इसी समय वीरभद्र के पुत्र पंचम गहरवार क्षत्रिय ने यहां बुंदेला राजवंश स्थापित किया। बुंदेलखण्ड नाम विंध्येलखंड का विकसित भाषा रूप है। विंध्य और इला पर्वत श्रेणियों के बीच अवस्थित होने के कारण विंध्येलखंड कहलाया। विंध्य पर्वत से घिरे क्षेत्र पर अपनी राजसत्ता स्थापित करते हुए पंचम गहरवार ने विंध्येला उपाधि धारण की। विंध्येला शब्द से बुंदेला शब्द प्रचलित हुआ। छत्रप्रकाश तथा वीरसिंह देव चरित्र के आधार पर कथा है कि पंचम गहरवार विंध्यवासिनी देवी के परम भक्त थे। यह अपनी रक्तबूंदों को देवी मां पर अर्पित करते थे, जिससे यहां के कुछ लोग इनका आस्पद बुंदेला मानते हैं। हकीकत-उल-आलिब में लिखित बुंदेलखंड की उत्पत्ति की कथा के अनुसार गहरवार वंश के राजा हरदेव एक बांदी के साथ खैरागढ़ से आकर ओरछा के निकट बस गए। उन्होंने वहां के खंगार नरेश का वध कर दिया और बेतवा व धसान के बीच के देश के स्वामी बन गए। उनके उत्तराधिकारी बांदी पुत्र होने की वजह से बुंदेला कहलाये और यह प्रदेश बुंदेलखंड कहलाने लगा। किंतु यह अभिधान भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से उचित नहीं प्रतीत होता है। ललितपुर जनपद के आसपास के क्षेत्र को बुंदेलखंड नाम 1531 से 1554 ई. तक चरखारी के शासक रहे बुंदेला शासक भारती चंद्र ने दिया था। ओरछा बुंदेला राजवंश की राजधानी हो गई थी। यहां के महाराज मधुकर शाह (1554-1592 ई.) के ज्येष्ठ पुत्र रामशाह सन् 1592 में ओरछा की राजगद्दी पर बैठे। रामशाह को सम्राट जहांगीर ने 1605 ई. में गद्दी से हटाकर बार (ललितपुर) की जागीर दी थी। 1612 ई. में बार में रामशाह के निधन के पश्चात उनके मृत ज्येष्ठ पुत्र संग्राम सिंह के ज्येष्ठ पुत्र भरत सिंह बार के जागीरदार बने। वह बड़े पराक्रमी और महत्वाकांक्षी थे। उन्होंने सन् 1616 ई. में चंदेरी के सूबेदार गोदाराय पर चढ़ाई कर उसे पराजित कर 1617 ई. में चंदेरी को अपने अधीन कर लिया था। भरत सिंह ने चंदेरी का राजा बनते ही चंदेरी राज्य को चार प्रशासनिक इकाइयों- दूधई, हर्षपुर (बांसी), गोलकोट (ईशागढ़) तथा भानगढ़, संभागों में बांट दिया था। भरत सिंह के छः छोटे भाई थे, जिनमें क्रमशः कृष्णसिंह को बांसी, रूपसिंह को बिजरौठा, कीर्तिसिंह को ककराना, ध्रुवसिंह को खड़ेसरा, चंद्रभान को जामुनधाना एवं मानसिंह को बरौदा डांग की जागीरें दी थीं।
सन् 1630 में भरतसिंह की मृत्यु के पश्चात देवीसिंह (1630-63), दुर्गसिंह (1663-87) दुर्जन सिंह (1687-1736), मानसिंह (1736-50) शासक रहे। मानसिंह ने अपने तीसरे पुत्र धीरज सिंह को बानपुर की जागीर दे दी थी। राजा मानसिंह की मृत्यु के पश्चात अनुरूद्ध सिंह (1750-75ई.) रामचंद्र (1775-1802) प्रजापाल (1802) एवं मोर प्रहलाद (1802-42) चंदेरी तथा कैलगुवां में राजा रहे।
मोर प्रहलाद के समय चंदेरी राज्य सागर के मराठा मामलतदार रघुनाथ राव (अप्पा साहब) एवं ग्वालियर के सिंधिया की वैमनस्यता एवं छीना झपटी में फंस गया था। 1810 ई. में सिंधिया ने अपने फ्रेंच सेनापति जॉन वैप्टिस्ट को चंदेरी पर आक्रमण करने भेजा, जिसने चंदेरी के अतिरिक्त वर्तमान ललितपुर जनपद के तालबेहट, बांसी, कोटरा, ननौरा, रजवारा, ललितपुर, जाखलौन, जेवरा, देवगढ़ एवं महरौनी से लेकर वर्तमान सागर जिले के मालथौन के इलाकों को छीनकर सिंधिया राज्य में शामिल कर लिया था। इस उपलक्ष्य में सिंधिया ने प्रसन्न होकर जॉन वैप्टिस्ट को महरौनी इलाके की जरया ग्राम की जागीर दे दी थी। बुंदेलखंड में जरया एक मात्र फ्रेंच जागीर थी जो 1947 ई. तक स्थापित रही। यहां फ्रेंच परिवार निवास करते हैं। सागर के मामलतदार रघुनाथराव के मोंरा जी मराठा मड़ावरा और बालाबेहट क्षेत्र लेकर संतुष्ट रह गये थे।
सन् 1810 ई. में मोर प्रहलाद जॉन वैप्टिस्ट के डर से मराठों की सुरक्षा में झांसी में श्यामजी के चौपरा की हवेली में रहे थे। मोर प्रहलाद के निधनोपरांत उनके पराक्रमी एवं महत्वाकांक्षी पुत्र मर्दन सिंह (1842-1858 ई.) बानपुर के राजा बने। मर्दन सिंह ने अपने कूटनीतिक तरीकों से चंदेरी को पुनः अपने राज्य में मिलाने की कोशिश की और डॉ. काशीप्रसाद त्रिपाठी इत्यादि इतिहासकारों के अनुसार मर्दन सिंह ने चंदेरी क्षेत्र के खुरई, खिमलासा, नरयावली, मालथौन आदि परिक्षेत्रों को अपने अधिकार में कर लिया था। वह अपना साम्राज्य आगे बढ़ा ही रहे थे कि सर ह्यूरोज ने ठनगना, मदनपुर घाटी के दूसरे रास्ते से प्रवेश कर मड़ावरा, महरौनी और बानपुर के किलों को तोपों से ध्वस्त कर दिया। ह्यूरोज यहीं नहीं रुका। उसने आगे बढकर तालबेहट के किले को ध्वस्त कर दिया। ह्यूरोज के सहयोगी मेजर ओर ने कैलगुवां किले को नष्ट कर डाला। मर्दन सिंह के तीनों किले- बानपुर, तालबेहट तथा कैलगुवां-क्षत-विक्षत कर दिए गये। यहां से ह्यूरोज के आगे बढने पर झांसी की रानी ने उससे लोहा लिया था। शोध प्रबंध बुंदेलखंड का वृहद इतिहास के लेखक डॉ. काशी प्रसाद त्रिपाठी के अनुसार बार-बांसी के जंगलों में भटकते रहने पर निराश होकर मर्दन सिंह ने 28 सितंबर 1858 को अंग्रेजों के समक्ष आत्म समर्पण पर दिया था, जबकि श्री श्रवण कुमार त्रिपाठी पत्रकार तालबेहट द्वारा दिए गए विवरण के अनुसार मुरार (ग्वालियर) के जंगलों में अंग्रेजों ने मर्दनसिंह को उनके मित्र शाहगढ़ नरेश बखतवली सिंह के साथ बंदी बना लिया था। वहीं डॉ. महेंद्र वर्मा ने अपने शोध प्रबंध चंदेलकालीन कला और संस्कृति (चांदपुर-दूधई के परिप्रेक्ष्य में) में मर्दन सिंह को अंग्रेजों द्वारा 13 जून 1857 को कैद करना लिखा है। अंग्रेजों की गिरफ्त में आने के बाद इनका परिवार बानपुर से दतिया जा पहुंचा था।
मर्दन सिंह की इच्छा अंग्रेजों के सहयोग से सिंधिया के आधिपत्य से चंदेरी ले लेने की रही, परंतु परिस्थितियों के परिवर्तन से चंदेरी कंपनी सरकार के हाथ में जा पहुंची थी। जब चंदेरी सिंधिया के अधिकार में थी तो मर्दन सिंह सिंधिया के शत्रु और कंपनी सरकार के सहयोगी थे, लेकिन जैसे ही चंदेरी अंग्रेजों के अधिकार में दे दी गई तो वह अंग्रेजों के विरोधी और लक्ष्मीबाई झांसी एवं बिठूर के धूधूपंत पेशवा मराठों के सहयोगी मित्र बन गए थे। अंत में वह झांसी की रानी की सलाह के अनुसार ही चलने लगे थे।
पुनरावलोकन करते हुए ललितपुर जिले के इतिहास को अधोलिखित शीर्षकों और कालखंडों में विभक्त किया जा सकता है -
1. पैलियोलिथिक तथा नेयोलिथिक काल (सावर युग)
2. आदिवासी काल
3. पांडव काल 3101 ई. पू.
4. गुप्त वंश काल लगभग 300 से 600 ई.
5. देव गुर्जर-प्रतिहार वंश काल लगभग 850 से 965 ई.
6. चंदेल काल लगभग 1000 से 1250 ई.
7. मुस्लिम काल लगभग 1250 से 1600 ई.
8. बुंदेला काल लगभग 1600 से 1857 ई.
9. अंग्रेज काल 1858 ई. से 1947 ई.
10. स्वातंत्र््योत्तर काल 1947 ई. से
राजनैतिक चेतना- 1857 ई. के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से लेकर देश की स्वतंत्रता तक हुए सभी संग्रामों और आंदोलनों में ललितपुर जनपद की अहम् एवं अग्रणी भूमिका रही है। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की चिनगारी जनपद के छोटे से ग्राम नाराहट से शुरू हुई थी। इतिहासकारों ने इसे बुंदेला विद्रोह कहा। विद्वानों की दृष्टि में यह एक असंगठित और दिशाहीन विद्रोह था। मधुकरशाह और उनके लघु भ्राता गणेशजू जमींदारों पर भारी करारोपण के बाद न्यायालय में गए। यहां न्याय न मिलने पर इन्होंने सैन्य शक्ति एकत्र कर 8 अप्रैल 1842 को नाराहट के राव विजय सिंह के बगीचे में खाने के लिए एकत्रित अंग्रेज सैनिकों पर हमला कर दिया। हमले में विद्रोही विजयी रहे। 1857 ई. की क्रांति में भी यहां के बहादुर क्रांतिकारी अंग्रेज शासकों को छकाते रहे। बानपुर नरेश मर्दनसिंह का सर ह्यूरोज से राहतगढ़ दुर्ग पर पहला और निर्णायक युद्ध हुआ। मर्दनसिंह ने बुंदेलखंड की हल्दीघाटी कही गई मदनपुर घाटी पर अपना मोर्चा जमा लिया था, पर नत्थे खां ने मर्दनसिंह के दीवान बख्शी बृजलाल को अंग्रेजों से मिला दिया। इन्होंने मर्दन सिंह को धोखा देकर मदनपुर घाट से हटवाकर अमझराघाट करवा दिया। ह्यूरोज इसी मौके की तलाश में था। उसने मदनपुर घाटी के रास्ते से आकर झांसी तक के साम्राज्य को ललितपुर से उखाड़ दिया। मर्दन सिंह को बुंदेलखंड से कहीं दूर लाहौर की जेल में रखा। जीवन के अंतिम दिनों में अंग्रेज सरकार ने अनुरोध किए जाने पर मर्दनसिंह को वृंदावन (मथुरा) में रख दिया। 20 वर्ष की कठोर यातनाएं सहते-सहते इस योद्धा का 22 जुलाई 1879 को स्वर्गारोहण हो गया।
स्वाधीनता संघर्ष के अनेक चरणों में ललितपुर जनपद के सेनानियों ने अपने खून और पसीने को एक किया है। ललितपुर स्मारिका के अनुसार जनपद में ललितपुर शहर से 37, तालबेहट से 15, सैदपुर से 11, बानपुर से 8 तथा पाली से 7 स्वत्रंतता संग्राम सेनानियों को सरकारी दर्जा प्राप्त है। इसके अतिरिक्त जिले के ग्राम सुनौनी से 3, बनगुवां से 1, जखौरा से 1, ककरुआ से 1, पिपरई से 1, कपासी से 3, बंट से 3, जाखलौन से 2, दैलवारा से 2, नैनवारा से 1, बार से 4, बरौदा डांग से 1, गैंदोरा से 2, सतवांसा से 2, साढूमल से 3, मड़ावरा से 1, लुहर्रा से 1, सिंदवाहा से 2, महरौनी से 1, सिलावन से 1, गौना से 2, लड़वारी से 1, पठा से 1 और गोरा से 1 स्वतंत्रता सेनानियों ने देश के स्वाधीनता संग्राम में अपनी सामर्थ्य से अधिक योगदान दिया। जिले में सरकारी दर्जा प्राप्त कुल 119 स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हुए हैं। ‘बानपुर विविधा’ में यह सूची 133 सेनानियों की दी गई है।
    -एसोशिएट प्रोफेसर एवं प्रभारी हिंदी विभाग, गांधी महाविद्यालय, उरई। निवास- 245 शब्दार्णव, नया पटेल नगर कोंच रोड उरई मो 9236114604