Sunday, June 9, 2024

मई २०२४

1/5/24 ललितपुर : नामकरण का कश्मीर कनेक्शन.... ललितपुर नामक स्थानों के नामकरण में कश्मीर का योगदान प्रतीत होता है। नेपाल के ललितपुर के अतिरिक्त उत्तर प्रदेश का ललितपुर भी उनमें से एक है। कश्मीर के इतिहास प्रसिद्ध राजा हुए हैं ललितादित्य। उनके बाद के शासकों का संबंध उत्तर प्रदेश के ललितपुर से सटे महाभारत काल के राज्य चंदेरी से रहा है। चंदेरी से जुड़ा हुआ बड़ा इतिहास हर कालखंड में मिलता है। महाभारत काल में यह राजा शिशुपाल की राजधानी था। बुद्ध काल के सोलह में से चेदि नाम का महाजनपद चंदेरी रहा है। सूफ़ी संतों के युग में सदन कसाई दिल्ली के हज़रत निज़ामुद्दीन के आदेश से यहाँ आकर रहे। उनके नाम की दरगाह ललितपुर में है। देश के अन्य भागों में भी सदन कसाई की बड़ी बड़ी दरगाहें हैं। नाभादास जी के भक्तमाल में इनकी कथा आई है। तुर्की से चंदेरी में आकर प्रथम मुग़ल शासक बाबर ने मेदिनी राय से युद्ध किया। चंदेरी में ही अकबर के युग में बैजू बावरा नाम के एक महान संगीतज्ञ का जन्म हुआ, चंदेरी के पुराने क़िले में ही उनकी समाधि भी है। बैजू बावरा के संतान नहीं थी, उन्होंने गोपाल कृष्ण को गोद ले लिया था। गोपाल कृष्ण स्वामी हरिदास से संगीत की शिक्षा पाकर कश्मीर के राजा के दरबार में चले गये थे। स्वामी हरिदास भी इसी बुंदेलखंड के ओरछा दरबार में थे, बाद में वृंदावन चले गये, फिर कभी वापस नहीं लौटे। चंदेरी राज्य अंग्रेजों के समय तक रहा, जब मर्दन सिंह इसके अंतिम राजा रहे। चंदेरी के अतिरिक्त ललितपुर जनपद के तालबेहट, बानपुर और कैलगुवा में इनके क़िले और गढ़ियाँ इसकी गवाही दे रहे हैं। बैजू बावरा के दत्तक पुत्र गोपाल से एक पुत्री हुई, उसे छोड़कर गोपाल कश्मीर जाकर रहने लगे। बैजू बावरा को अपनी नातिन की देखरेख का दायित्व लेना पड़ा था। बैजू बावरा अकबर के दरबार में रहने के बजाय ग्वालियर आ गए, जहां उन्हें सूचना मिली कि उनके गुरु हरिदास समाधिस्थ होने वाले हैं। वे अपने गुरु के अंतिम दर्शनों के लिए वृन्दावन पहुंचे और उनके दर्शन करने के पश्चात् विभिन्न प्रकार की आपदाओं का सामना करते हुए अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में कश्मीर नरेश की राजधानी श्रीनगर पहुंचे। उस समय उनका शिष्य गोपालदास वहां दरबारी गायक था। फटेहाल बैजू ने अपने आने की सूचना गोपालदास तक पहुंचाने के लिए द्वारपाल से कहा, तो द्वारपाल ने दो टूक जवाब दिया कि उनके स्वामी का कोई गुरु नहीं है। यह सुनकर बैजू को काफ़ी आघात पहुंचा और वे श्रीनगर के एक मंदिर में पहुंचकर राग ध्रुपद का गायन करने लगे। बैजू के श्रेष्ठ गायन को सुनकर अपार भीड़ उमड़ने लगी। जब बैजू की ख़बर कश्मीर नरेश के पास पहुंची, तो वे स्वयं भी वहां आए तथा बैजू का स्वागत कर अपने दरबार में ले आए। कश्मीर नरेश ने गोपालदास को पुनः संगीत शिक्षा दिए जाने हेतु बैजू से निवेदन किया। राजा की आज्ञा से उन्होंने गोपाल को पुनः संगीत शिक्षा देकर निपुण किया। कश्मीर के प्रतापी राजा ललितादित्य का नाम विश्रुत ही है। कल्हड़ की राजतरंगिणी में और कश्मीरी साहित्य और दर्शन में उनका नाम जगह जगह आता है। उनके बाद के राजाओं ने उनके नाम पर चंदेरी राज्य के अंतर्गत ललितपुर का नामकरण कराया होगा, ऐसा मानना उस किंवदंती से अधिक तर्कसंगत जान पड़ता है जिसमें कहा जाता है कि गौंड राजा सुमेर सिंह की पत्नी ललितकुंवर के नाम पर इसका नाम ललितपुर हुआ। जनश्रुति के अनुसार राजा सुमेर सिंह चर्म रोग से पीड़ित थे। वह पवित्र गंगाजल में चर्म रोग संबंधी व्याधियों को उपचार की क्षमता को देखने के लिए गंगा स्नान की आकांक्षा लिए जा रहे थे। मार्ग में अधिक अस्वस्थ हो जाने के कारण ललितपुर की सीमा पर शिविर लगा कर ठहर गए। उनकी पत्नी को दिव्य स्वप्न हुआ, जिसमंे उनको यह फरमान दिया गया कि यदि राजा वहां स्थित तालाब में स्नान करें, तो वे ठीक हो जाएंगे। इसके बाद राजा ने तालाब मंे स्नान किया और रोग मुक्त हो गए। उस तालाब का नाम सुमेर तालाब पड़ा। राजा वहां बस गए और इसका नाम अपनी पत्नी ललिता के नाम पर ललितपुर रखा। उसी सिद्ध पोखर का विकसित रूप आज नगर के बीचों-बीच स्थित है, जिसका नाम ‘सुमेरा तालाब’ है। सुमेरा तालाब का संबंध अवश्य सुमेर सिंह के नाम पर हो सकता है। परंतु ललितपुर के नामकरण की संगति सांस्कृतिक परंपरा और इतिहास से मेल नहीं खाती। गोंड शासन का परिक्षेत्र ललितपुर तक नहीं था। राजा सुमेर सिंह की पत्नी ललिता देवी के नाम पर ज़िले का नाम अगर रखा जाता तो अवश्य वह कोई इतिहास प्रसिद्ध नायिका रही होती। पर ऐसा नहीं है। इतिहास में कोई रानी ललिता देवी नाम से नहीं मिलती। रानी अहिल्या बाई होलकर ने देश भर में जगह जगह बड़े मंदिर बनवाये, पर उनके नाम पर स्वयं उनका बनवाया कोई स्मारक नहीं है। रानी दुर्गावती और रानी अवंतिबाई के उदाहरण इतिहास में मिलते हैं, उन्हीं के द्वारा उनके नाम पर बनवाये स्मारक नहीं हैं। समकालीन राजनीति में बसपा सरकार की मुख्यमंत्री मायावती ने जो स्मारक लखनऊ में बनवाये, उनमें स्वयं उनकी मूर्ति तो है, पर उस स्थान या पार्क का नामकरण उनके नाम पर नहीं है। यद्यपि उनके नाम पर राजकीय महाविद्यालय है। किसी के जीवनकाल में स्वयं के द्वारा उसी के नाम पर किया गया कोई सार्वजनिक नामकरण हमारे समाज में स्वीकार्य नहीं है। पत्नी के नाम पर नगर के नामकरण का उदाहरण अपने यहाँ हमें याद नहीं आता। शाहजहाँ की पत्नी मुमताज़ बानो के नाम पर ताजमहल एक स्मारक भर है। ललितपुर शहर में राजराजेश्वरी माँ ललितेश्वरी देवी का मंदिर कश्मीर में शैव दर्शन के साथ साथ फली फूली शाक्त परंपरा से अनुकृत या उद्गत जान पड़ता है। कन्नौज के मूल निवासी आचार्यों के वंशज कश्मीर के श्रीनगर निवासी आचार्य अभिनवगुप्तपाद कश्मीर के शैव दर्शन के बड़े प्रस्तोता तो हैं ही, वे ही शाक्त दर्शन के भी उद्गाता हैं। ललितापुर नाम का गाँव भी इस जनपद में है। नेपाल के ज़िला ललितपुर का संबंध भी कश्मीर के लोक विश्रुत राजा ललितादित्य के नाम पर रखा गया मालूम होता है। बैजू बावरा पर १९५२ में एक प्रसिद्ध फ़िल्म भी बन चुकी है। ६/५/२४ मन मथुरा दिल द्वारिका काया काशी जान। दशवां द्वारा देहरा तामे जोति पहचान॥ "हर मरें तो हम मरें और हमरी मरे बलाय, साँचे गुरु का बालका मरे ना मारा जाय।" ७/५/२४ तंत्र शास्त्र में मदिरा या शराब का प्रयोग वर्ज्य नहीं है, जैसा कि वैष्णव उपासना का विधान है। व्यक्ति जिस उपाय से तत्व को ग्रहण कर ले, ज्ञान प्राप्त कर ले, उसके ऊपर ही है। हम अपने अनुभव से कह सकते हैं कि हमें हमारे गुरुदेव ने बिना मदिरा सेवन के ही नशा तारी किया हुआ है। मदिरा का नशा उतर जाता है, नाम नशा उतरता ही नहीं। ८/५/२४ ये और बात है कि वो ख़ामोश खड़े रहते हैं लेकिन जो बड़े होते हैं वो बड़े ही होते हैं। ९/५/२४ भगवान परशुराम विष्णु के छठे अवतार हैं। वे अकेले हैं जिनका भगवान विष्णु के ही अवतार राम और कृष्ण से अलग अलग कारणों से मिलना हुआ। भगवान परशुराम विष्णु के अवतारों में अकेले हैं जो चिरंजीवी हैं, वर्तमान में ध्यानस्थ होकर हम सबका मंगल कर रहे हैं। अंतिम अवतार भगवान कल्कि के समय भगवान परशुराम उनके गुरुदेव होंगे। भगवान परशुराम का जन्म इंदौर मुंबई हाईवे पर महू ज़िले के एक स्थान जनपाव में हुआ। यहाँ जमदग्नि आश्रम है। मनु और इक्ष्वाकु वंश के क्षत्रियों की रक्षा करते हुए भगवान परशुराम ने आतताइयों को बार बार नष्ट किया। केरल के साहित्य में भगवान परशुराम का वर्णन बार बार आया है। गोकर्ण और गोमांतक से लेकर केरल और कन्याकुमारी तक परशुराम क्षेत्र माना जाता है। वहीं गुजरात के लोग कहते हैं, दक्षिण गुजरात में वापी से तापी (नदियों) तक का क्षेत्र परशुराम नी भूमि है। समंतपंचक कुरुक्षेत्र में भगवान परशुराम का स्थान है। प्राचीन काल से ही भगवान परशुराम के मंदिर, तीर्थ और सरोवर देश के चारों कोनों में पाये गये हैं। उडुपी के अनन्तेश्वर मंदिर में भगवान परशुराम की पूजा लिंग विग्रह के रूप में होती है। केरल के अतिरिक्त आंध्र प्रदेश के राजम्पेट् में मंदिर है। चीन की सीमा से जुड़ा हुआ सुदूर अरुणाचल प्रदेश है, वहाँ के लोहित ज़िले में परशुराम कुण्ड है। मकर संक्रांति के दिन इसमें स्नान करते हैं। उत्तर भारत में भगवान परशुराम का जन्म दिन अक्षय तृतीया के लोकपर्व के रूप मे मनाया जाता है। महाराष्ट्र के नांदेड में परशुराम भगवान की माता रेणुका का मंदिर है, यह स्थान माहुरगढ़ ५१ शक्तिपीठों में से एक हैं। देवदासियों द्वारा कर्नाटक के लोकगीतों में भगवान परशुराम को येलमा का पुत्र कहा जाता है। नीचे राजा रवि वर्मा द्वारा तैयार चित्र दिया गया है... 14/5/24 इस श्वास का उत्स क्या है। न जाती हुई श्वास का अंत मिलता है और न आती हुई श्वास का उद्गम स्थान ज्ञात हो पाता है। जीवन केवल इस श्वास के संधि स्थान का नाम है। श्वास की संधि में जीवन और मरण घटता रहता है। यह जीवन कहाँ से आता है और कहाँ जाता है, इसे जानना श्वास के उद्गम स्थान और विश्राम स्थान को समझने जैसा है। १५/५/२४ प्राचीन वेदांत संप्रदाय में दो मार्ग प्रचलित थे। एक उपासना–मार्ग और दूसरा विचार–मार्ग। उपासना–मार्ग में भूतशुद्धि और चित्तशुद्धि सम्पूर्ण हो जाने के बाद ज्ञान के उदय होने पर ज्ञान के बाद जीवनमुक्ति आयत्त हो जाती है। उसके बाद काल की प्रतीक्षा नहीं रहती। किन्तु विचार–मार्ग में उच्च अधिकारी का अपरोक्ष ज्ञान प्राप्ति होने पर भी उस ज्ञान के प्रभाव से, देह–मन शुद्ध न होने तक जीवनमुक्ति सिद्ध नहीं होती। इसलिए तांत्रिक दार्शनिकों ने अज्ञान को बौद्ध और पौरुष अज्ञान के रूप में बांटा है, उसी प्रकार ज्ञान को बौद्ध और पौरुष रूप में बांटा है। पौरुष अज्ञान की निवृत्ति सदगुरु की कृपा से क्षण भर में हो जाती है, किन्तु बौद्ध अज्ञान की निवृत्ति बौद्ध ज्ञान के उदय के बिना नहीं हो सकती। इसी बौद्ध ज्ञान के विकास के लिए तपस्या, साधना, विचार, योगाभ्यास आदि आवश्यक है। बौद्ध ज्ञान के उदय से बौद्ध अज्ञान निवृत्त हो जाने के बाद पूर्व प्राप्त पौरुष अज्ञान की निवृत्ति पौरुष ज्ञान के उदय रूप में अनुभूत होता है। 🌼🥀🌺🌻 (सनातन साधना की गुप्त धारा) श्री गोपीनाथ कविराज जी १७/५/२४ किसी प्रथा के बाह्य कर्मकांड से चिपके बिना उसमे विद्यमान सत्य के प्रति निष्ठा का होना विवेक है। बिना पूर्ण विश्वास और श्रद्धा के किसी आध्यात्मिक प्रथा में निष्ठा रखना पाखंड है। किंतु आध्यात्मिक प्रथा, सिद्धांत, गुरु इनमें से किसी के प्रति निष्ठा न होना आध्यात्मिक पतन है। २०/५/२४ 'श्रत्' माने सत्य और 'धा' माने धारण करना होता है। सत् को ही महात्मा लोग छिपाने के लिए श्रत् बोलते हैं। निरुक्त में आया है कि श्रदिति सत्य, सत्य नाम। सत्य का नाम है श्रत्। इस पर किसी ने कहा कि तब सत् ही बोलो न! श्रत् क्यों बोलते हो? बोले कि नहीं, यह बात छिपाने की है। अमुक वस्तु सच्ची है- ऐसा धारण करने का नाम श्रद्धा है। और विश्वास? विगत श्वास हो जाना विश्वास है। उसके लिए मुर्दा सरीखे हो जाना पड़ता है। टारे से न टरे, हटाने से भी नहीं हटना - ऐसी निष्ठा अंतःकरण में हो जाना विश्वास है। - स्वामी श्री अखण्डानन्द सरस्वती २५/५/२४ संसार समय के माध्यम से देखा गया सत्य है। सत्य, 'समय-शून्य' माध्यम से देखा गया संसार है। ओशो गीता दर्शन २६/५/२४ एक अमर भक्त ऋषभदेव की स्तुति : भक्तामर स्तोत्र ऋषभदेव हिंदू परंपरा के भगवान के चौबीस अवतारों में एक हैं। भागवतम् में इनका वर्णन आया है। ऋषभदेव के बड़े पुत्र का नाम था भरत इसलिए इस अजनाभ खंड का नाम ही भरत पड़ गया, आगे चलके भरत से भारत हुआ।वैदिक देव रुद्र के साथ भी उनका नाम आया है, यहाँ ऋषभ का अर्थ बैल कहा गया है। जैन परंपरा के चौबीस तीर्थंकरों में वे पहले हैं, इसीलिए वे आदिनाथ हैं। उनका नाम ही घोषित करता है कि वे नाथ परंपरा के भी प्रस्तोता स्वीकृत हैं। जैन परंपरा में सतत और सर्वत्र गाया जाने वाला भक्तामर स्तोत्र इन्हीं ऋषभदेव की स्तुति है। यह मूल रूप से संस्कृत भाषा में ४८ गेय श्लोकों में निबद्ध है, जिनका अनुवाद देश की कई भाषाओं में हुआ है। कहते हैं एक क्रुद्ध राजा ने आचार्य मानतुंग को ४८ तालों में बंद करके बंदी बना लिया था। आचार्य श्री भक्तामर स्तोत्र के एक एक श्लोक की रचना करते गये और वे ताले एक एक कर टूटते चले गये। भागवत् कथा श्रवण से भी सात दिन की कथा में बांस की सात गाँठे खुलती जाती हैं। मानतुंग के सारे ताले खुलने पर राजा ने क्षमा याचना की। सातवीं सदी में इस स्तोत्र की रचना वसंततिलका छंद में हुई है। आज यह प्रत्येक जैन परिवार में दिन प्रतिदिन गाया जाने वाला अमर स्तोत्र हो गया है. एक श्लोक देखें... वल्गत्-तुरंग-गज-गर्जित-भीमनाद-�माजौ बलं बलवता-मपि-भूपतीनाम्।�उद्यद्-दिवाकर-मयूख-शिखापविद्धं�त्वत्कीर्तनात्तम इवाशु भिदामुपैति: ॥42॥