Friday, November 15, 2024
साहित्य चिंतन में भारतीय सौंदर्य की अवधारणा
साहित्य चिंतन में भारतीय सौंदर्य की अवधारणा
प्रोफे0 राकेश नारायण द्विवेदी
सौंदर्य की अवधारणा मानव चिंतन की मूल धाराओं में से एक है। सौंदर्य मनुष्य के केंद्र में प्रारंभ से ही रहा है। सौंदर्य के प्रति आकर्षण उसका जन्मजात स्वभाव है। सौंदर्य मनुष्य का स्वभाविक और अन्वेषणीय मर्म है। सौंदर्य का उद्घाटन करना उसके जीवन का ध्येय है। सौंदर्य वस्तुतः वह तत्व है, जिसके सहारे हम ब्रह्म तत्व तक पहुंच जाते हैं। बिना सौंदर्य का मूल ग्रहण किए हुए हम धार्मिक नहीं हो सकते। धर्म व्यक्ति की स्वाभाविक स्फुरणा है। मनुष्य के स्वाभाविक जीवन का नाम धर्म है। किंतु स्वभाव क्या है बिना इसे जाने व्यक्ति धर्म के मर्म को नहीं जान सकता। यह स्वभाव तत्व सौंदर्य हीह ै।
सौंदर्य पर भारतीय चिंतक अलग-अलग तरह से समय-समय पर विचार करते आए हैं। वस्तुतः मनुष्य सौंदर्य का इतना आग्रही है िकवह उसे बिना पाए नहीं रह सकता। वह उसका आनंद है, मनुष्य आनंद में रहकर आता है, आनंद में रहता है और आनंद में ही विलीन हो जाता है। सौंदर्य से बाहर कोई सत्ता नहीं, जो कुछ दृश्यमान है, वह इस सौंदर्य के घटक हैं। विचारकों की उत्कंठा सौंदर्य की अवधारणा को जानने की रहा करती है। साहित्य का उद्देश्य भी सौंदर्य का उद्धाटन करना है। सौंदर्य का एक निकट समानार्थी रस है। रस ही भारतीय साहित्य के चिंतन की आत्मा है।
रस क्या है! सौंदर्य ही तो। जब हमारी सहज भावनाएं उद्भूत होती हैं, जिनसे सामाजिक के कोमल हृदय में एक प्रकार की आनंदानुभूति होने लगती है, इसे ही तो रस कहा गया है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल इस दशा को साधारणीकरण की दशा कहते हैं। रस की न उत्पत्ति होती है, न अनुमिति होती है और न भुक्ति ही। काश्मीर के शैव आचार्य अभिनवगुप्त ने पहली बार यह माना कि रस की तो मात्र अभिव्यक्ति होती है। सब जगह बस हो रहा है, इस हुब्बपन को देखने वाला ही तो रस है। मुंडक एवं श्वेताश्वतर उपनिषदों में आए एक रूपक के माध्यम से यह बात भलीभांति समझी जा सकती है-
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति।।
आशय यह कि दो सुंदर पंखों वाले पक्षी, जो एक दूसरे के निकट मित्र हैं, एक ही पेड़ से लटकते हैं। इनमें से एक पक्षी पेड़ के मीठे फल खाता है, जबकि दूसरी पक्षी मा़त्र अपने मित्र पक्षी को देखता है। इस रूपक में भले फल खाने वाले पक्षी को हम प्रथम दृष्टया कहेगे कि रस का उपभोग करने वाला पक्षी ही रसोपभोग कर रहा है, परंतु वास्तविकता यह है कि उस रस का दर्शन करने वाला अपर पक्षी ही रसग्राही है। खाने वाले पक्षी को उसकी रसनेंद्रिय को अच्छी अनुभूति हो रही है और उसका उदर पोषण हो रहा है, परंतु यह सब देखने वाला पक्षी रस की उद्भावना अपने भीतर कर रहा है। दोनों पक्षियों का नाम, काम और स्वभाव लगभग एक जैसा है, किंतु इनमें भिन्नता यह है कि एक एकदेशीय है और दूसरा
2 ध् 6
सर्वव्यापी। एक मात्र भोक्ता और दूसरा उसका साक्षी। दोनों एक होते हुए भी विलक्षणता उस रस यानि सौंदर्य की हीह ै। जिसका रूप निरंतर बदलता रहे, उस शक्ति का नाम वृक्ष है। देखने वाला पक्षी समान वृक्ष पर होते हुए भी अलग दशा में निवास करता है।
सौंदर्य की हीह म प्रार्थना करते हैं। सबसे अच्छे गीत प्रार्थना गीत ही होते हैं। प्रार्थना में सौंदर्य भर-भर के छलकता है। भारतीय चिंतन की आरंभिक प्रार्थनाएं वेदों के रूप में हमारे सम्मुख आती हैं। वेदोें में प्रार्थना का सौंदर्य सर्वत्र विकीर्णित हो रहा है। भारत का समूचा साहित्यिक वाड़मय वेदों का विस्तार हीह ै। सुंदर विशेषण का संज्ञा पद सौंदर्य है। संज्ञा में विशेषण उपस्थित रहता है। सुंदरता की प्रतीति हमारे आंतरिक आकाश को फैलाव देती है, उसे व्यापक बनाती है। सुंदरता हमें अनंत से जोड़ने का माध्यम बनती है। दृश्यमान जगत् ब्रह्म का सौंदर्य ही है, जो अनंत रूपों और उनके नामों में अभिव्यक्त हो रहा है। हम उस सौंदर्य का विविध प्रकार से गान करते हैं, तरह-तरत से सम्मान करते हैं और भांति-भांति से अनुपान करते हैं। उसका आस्वाद लेते हैं। पूजा और उपासना उस सौंदर्य का गौरव-गान है। पूजा करना सौंदर्य का उपस्थापन है। पूजा का अर्थ ह ैपूर्ण जागरण। सौंदर्य जागरूकता के बिना उद्घाटित नहीं होता। सौंदर्य सत्य है, ज बवह हमारे भीतर कौंधता है तो स्पष्ट हो जाता है कि हमें इसी की इच्छा थी। वस्तुतः सौंदर्य के अन्वेषण की मूल प्रेरक इच्छा ही है। सौंदर्य अखंड है, निस्सीम है, परंतु जब उसकी प्रतीति होती है तो वह खंड-खंड, क्षण-क्षण एवुं सीमाओं में विभाजित होता हुआ प्रकट होता है। संसार और उसकी विविध कलाएं और साहित्य खंड सौंदर्य ही हैं। यहां यह भी कहना आवश्यक है कि वस्तुतः सौंदर्य खंड-खंड दिखता हुआ भी अखंड और संपूर्ण है। पूर्ण परमात्मा से पूर्ण ही व्यक्त होता है और वह पूर्ण में ही विलीन होता है। व्यक्ति जहां से जो कुछ जान रहा हो, वहां से ह ीवह सौंदर्य को प्राप्त कर सकता है, क्योंकि वह सर्वत्र है और सार्वकालिक है। सौंदर्य वर्तमान है, वह अतीत और भविष्य नहीं है। अतीत स्मृति का सौंदर्य है और भविष्य कल्पना का।
सौंदर्य को यदि किसी नियम और व्यवस्था से आबद्ध करेंगे तो वह खंडित हो जाएगा। उस पर कोई यदि अपना अधिकार जमाना चाहेगा तो वह तिरोहित हो जाएगा। वह तो एक नन्हें शिशु की भांति है। सौंदर्य का ेपाने के लिए धनी-मानी होना आवश्यक नहीं, वह तो एक प्रकाश है, जिसकी आभा मे ंहम सब स्नात हो रहे हैं। जब हमारा प्रेम इतना घनीभूत हो जाए, जैसा हम अपने शरीर के साथ करते हैं। अप्रतिबंधित, अनन्य और दृढ़ भक्ति का जब उदय होता है तो सौंदर्य का उद्घाटन वैसे ही हो जाता है, जैसे हिमाच्छादित पर्वत पर सूर्य की प्रथम रश्मि का आगमन होता है। देखने से, सुनने से, छूने से, आस्वाद से और घ्राण करने से सौंदर्य खंडित होकर हमारे सामने आता है, किंतु विडंबना देखें कि हमें इन्हीं इंद्रियों के माध्यम से उसकी प्रतीति होती है। अंतःकरण के अवलंब से सौंदर्य इंद्रियों द्वारा प्रकट होता है। इंद्रिय इंद्र से बना है, इंद्र का अर्थ है झांकना। इंद्र इंदियों के स्वामी हैं, क्यांेकि वे सौंदर्य का प्रथम अवगाहन करते हैं।
3 ध् 6
व्यक्ति के जीवन का लगभग 80 प्रतिशत कार्य व्यापार आंखांे से चलता है, इसलिए हम समझते हैं सौंदर्य बाहर हीह ै, किंतु केवल आंखें ही सौंदर्य की संवाहक नहीं होती, अंधकार में स्पर्श और अव्यक्त दशा में अवचेतन के सौंदर्य की प्रतीति अंतःकरण के माध्यम से होती है। यदि कहा जाए यह फुल सुंदर है, इसका आशय है कि वास्तव में जो मैं बताना चाहता हूं वह यह कि मैं उस प्रकार का व्यक्ति हूं जिसे यह फूल इस समय सुंदर दिख रहा है। किसी को यह फूल उक्त व्यक्ति की भांति सुंदर नहीं भी लग सकता है तो बहुतों का उस पर ध्यान भी नहीं जा रहा होता है। यदि सबको कोई व्यक्ति या वस्तु संुदर लग भी रही है तो उसकी प्रतीति हर व्यक्ति या उद्भावक को पृथक्-पृथक् ही हो रही होगी। किंतु यह प्रतीति पृथक-पृथक् होकर भी थोक में अर्थात् संपूर्ण होती है। किसी को वह फूल जब सुंदर लगा, आवश्यक नहीं कि उसे आने वाले समय में भी वह फूल सुंदर लगेगा। फूल के रूप में परिवर्तन आने पर व्यक्ति की दृष्टि समान रहने पर भी उसका भाव परिवर्तित हो जाता है। हमारी ही जवानी एक समय हमें सुंदर लगती है और जब यह बुढ़ापे में परिवर्तित हो जाती है तो कुरूप लगने लगती है।
तो सौंदर्य विषयगत है या वस्तुगत! क्या यह हमारी निजी या आंतरिक भावना है या फिर वस्तुओं का वास्तविक रूप! वे क्या हैं, वे हमारे मन की संवेदनाएं और छायाएं हैं।
निर्णायक बुद्धि को किनारे रखकर फूल को और स्वयं को अलग-अलग रखकर देखें। फूल की सुंदरता और कुरूपता या आपेक्षिक सुंदरता के प्रति कोई धारणा न रखें। समग्र अस्तित्व के साथ एकतान होते चले जाने पर ब्रह्मांडीय चेतना से लयबद्ध हो जाते हैं। हमारे हृदय की धड़कन और ब्रह्मांडीय धडत्रकन एक साथ लयबद्ध हो जाने पर कुरूपता या असत् वृत्ति से हम ऊपर उठ जाते हैं। इसी दशा में पहुंचकर हमारे ऋषियों ने वाड़मय का सृजन किया है। विभिन्न कलाओं को मूर्तिमान किया है, संगीत के विविध राम और रागिनियों में निबद्ध करते हुए पदों को गाया है। साहित्यकारों ने ऊंची कृतियों और कविताओं की रचना की है। व्यक्ति के इस प्रकार रहने पर उसके शारीरिक कर्म भी उन्नत हो जाते हैं। इस दशा में रहते हुए व्यक्ति की रचनाशीलता से व्यक्ति स्वयं, उसका परिवेश और राष्ट्र का उत्थान होता है।
साहित्य सौंदर्य की अभिव्यक्ति का महत्वपूर्ण एवं सशक्त माध्यम है। साहित्य के माध्यम से रचनाकार सौंदर्य के क्षणों को इस प्रकार शब्दबद्ध करता है कि उसके पाठक उसका आस्वाद लिए बिना नहीं रहते। साहित्य वह माध्यम है, जिसमें सौंदर्य के बाहरी और भीतरी स्वरूप की अनंत संभावनाओं के द्वार खुलते हैं। बाह्य यानि जागतिक सौंदर्य वास्तविक सौंदर्य तक पहुंचने का उपस्कारक है। जागतिक सौंदर्य अभिव्यक्ति का सौंदर्य है। अभिव्यक्ति ही तो सौंदर्य की संवाहिका है। बाह्य सौंदर्य के कतिपय साहित्यिक उदाहरण वर्ण्य आलेख के अंतर्गत यहां समाहित किए जाने अनुपयुक्त नहीं होंगे।
कविवर बिहारी ने नायिका के सौंदर्य को शब्द और उनके अर्थ से जोड़ा है कि जैसे शब्दों से उनके अर्थ का प्रकाश फैलता है, नायिका का आंगिक सौंदर्य भी छिपाते हुए भी छिप नहीं पा रहा है। ऐसा भी नहीं कि शब्द अपने अर्थ को प्रकट न करना चाहते हों, अन्यथा वह अभिव्यक्त ही क्यों होगे।
4 ध् 6
दुरत न कुच बिन कंचुकी चुपरी सारी सेत।
कवि आंकनु के अरथ लौं प्रगटि दिखाई देत।।
भारतीय साहित्य में सौंदर्य को एक सिद्धांत समझकर विषय प्रवर्तन नहीं किया गया है, किंतु उसके मूल तत्व पर गहन चिंतन अवश्य किया गया है।
भारतीय काव्यशास्त्र को सौंदर्यशास्त्र का अग्रदूत कहा जा सकता है। काव्य की आत्मा क्या है अर्थात् उसका सौंदर्य क्या है, जिससे उसकी ओर लोग खिंचे चले जाते हैं। उसमें ऐसा क्या है कि पढ़ने-समझने के बाद उसका प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। इस पर विचार करने के लिए भारतीय काव्य शास्त्र अलग-अलग कालक्रमिक संप्रदाय लेकर हमारे सामने आता है। रस, ध्वनि, अलंकार, रीति-गुण, वक्रोक्ति एवं औचित्य यह संप्रदाय काव्य की आत्मा पर जैसे कि उनके नाम हैं, उन्हें केंद्र में रखकर अपनी स्थापना देते हैं। सौंदर्य शब्द का काव्यशास़्त्रीय प्रयोग सर्वप्रथम आचार्य भामह ने अपने काव्यशास्त्र में किया। उन्होंने कहा-
सौंदर्यमलंकारः। अर्थात् अलंकार किसी रचना के सौंदर्य का हेतु हैं।
पंडितराज जगन्नाथ कहते हैं-
रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्। अर्थात् सुंदर अर्थ के प्रतिपादक शब्दों से मिलकर काव्य बनता है।
संस्कृत साहित्य के आचार्य माघ अपने शिशुपाल बध नामक महाकाव्य में लिखते है-
क्षणे-क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः अर्थात् क्षण-क्षण में जो नवता होती है, वही रमणीयता है। यानि यह कभी फीका नहीं पड़ता।
आधुनिक भारतीय चिंतकों ने सौंदर्य के अनुद्घाटित पक्षों को और उद्घाटित पक्षों को नए संदर्भ मेें व्यक्त किया है। रवींद्रनाथ ठाकुर का मत है कि उपयोगिता के बिना भी जो हमें आनंद मिलता है, उसे सौंदर्य की भावना कहा जाता है।
डॉ नगेंद्र ने कहा है कि भारतीय सौंदर्य अद्वंद्व एवं सामरस्य का दर्शन है। अभिव्यक्ति के स्तर पर यह सौंदर्य है और अनुभूति के स्तर पर आनंद है।
संसार का रहस्य और अनंतता का ज्ञान होने के बाद व्यक्तिगत सूख-दुःख, माया-मोह, सफलता-विफलता आदि सब तुच्छ लगता है। जीवन में विराट दृष्टि संपन्न होने पर मोह दूर हो जाता है, आंखें उज्ज्वल और तेजयुक्त, गति में वीरता और हृदय में एक अद्भुद प्रसाद का आविर्भाव होता है। महाभारत में इस गंभीर अनुभव को शांति कहा गया है। इस अनुभव को प्राप्त कर लेने के बाद व्यक्ति संघर्ष करता है, परंतु उसके परिणाम से अप्रभावित रहता है। जीवन को वह एक प्रेममय संघर्ष में रूपांतरित कर लेता है।
5 ध् 6
एक सौंदर्य ग्राही व्यक्ति के लिए दुःख या कुरूपता पापों या दुष्कर्म का परिणाम नहीं होता। वह समझ जाता है कि वास्तव में दुःख निवृत्ति तो कभी किसी तत्वज्ञानी की संगत का परिणाम है, व्यक्ति का मन बिना दुःख पाए भागता ही नहीं है। कुरूपता बिना सौंदर्य दर्शन के ज्ञात कैसे हो सकती है। इसका आशय यह नहीं कि हमें कुरूपता या जागतिक समस्याओं से पार जाने की आवश्यकता नहीं है। हम यथास्थितिवादी होकर नहीं रह सकते। शरीर की प्रकृति ही ऐसी नहीं है। जहाज हमेशा किनारे पर सुरक्षित रहता है, किंतु वह इसके लिए नहीं बनाया गया है। हृदय और आंखें अपने शरीर में सुरक्षित स्थानों पर और सुरक्षा साधनों के साथ स्थित हैं, किंतु वे निश्चेष्ट होने के लिए नहीं रखे गए हैं। आयासपूर्वक हमें निठल्ले होकर तो कदापि नहीं बैठना चाहिए।
सौंदर्य को उपलब्ध किसी व्यक्ति में प्रेम और करुणा छलकने लगेगी। उसे किसी अन्य से शिकायत नहीं रह जाएगी, अपितु उसके संसर्ग में जो आएगा, उसे ही अपूर्व शांति का अनुभव होने लगेगा।
समकालीन साहित्यकार बाबुषा कोहली कहती है- यदि वह तुम्हें बेहतर, सुंदर और सरल नही ंकर रहा है तो चाहे जो हो, वह प्रेम नहीं है।
बाबुषा एक कविता में गाती हैं-
जीत की चाहना से लथपथ इस संसार में
एक सुंदर दृश्य की तरह उगता ह ैहारा हुआ पुरुष
जैसे पथरीली जमीन पर बिना किसी तैयारी के उग आता
कोई हरा बिरवा।
यह हरा बिरवा बनने के लिए हमें हारना तो पडे़गा। बुंदेली भाषा मे ंतो हार उस जंगल को भी कहते हैं, जिसमें जानवर चरते हैं और किसान अपने खेत जोतते हैं।
एक और समकालीन रचनाकार निरंजन श्रोत्रिय की सौंदर्य शीर्षक कविता की पंक्तियां हैं-
आज मैंने मोर के बदसूरत पैर देखे
और खुश हुआ
इन्हीं पैरों पर सवार हो आएगी बरसात
............
आज मैंने सौंदर्य को उलट-पलट कर देखा
और खुश हुआ।
-ध्यानमंगलम्, सिल्वर सिटी, कैलगुवां रोड, ललितपुर - उ0प्र0-284403
मोबाइल 9236114604
जुलाई २४
जुलाई २४
हमारे यहाँ जो कुछ लोग जानते हैं, उसे कृपण प्रकृति के कारण छिपा लेते हैं। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो कहाँ बताएँ, इसे नहीं समझ पाते। भारत विद्या (Indology) को प्रकट करने की दृष्टि से ऑनलाइन सिस्टम ने दुनिया भर को बहुत अधिक मंच और अवसर प्रदान किया है। इस ऑनलाइन व्यवस्था ने कृपण व्यक्तियों की हालत ख़राब कर दी है। वे चाहे दुनिया के तरह तरह के बाज़ार के ख़रीददार हों या विक्रेता। गूगल बाबा ने बहुत सी जानकारी सुलभ कर दी है। आप गूगल में आइये और अनावश्यक गोपनीयता से बाहर हो जाइए अन्यथा अप्रासंगिक हो जाएँगे और आने वाले समय में आप जो कुछ नया और उत्तम जानते हैं, उसे कोई दूसरा प्रकट कर देगा। ज्ञान विज्ञान पर किसी का एकाधिकार नहीं हो सकता। एडिसन ने बल्ब दिया, उसकी रोशनी पूरे जगत् को मिल रही है।
१३/७/२४
मन ही जिसका दर हो जाए, वही मंदिर है। दरवाज़ा ऐसा स्थान है, जहां से भीतर और बाहर दोनों जगह का दिखने लगता है।
नाम स्वाँस दोउ विलग चलत हैं इनको भेद न मोकों भावे।
स्वाँसई नाम नाम ही स्वाँसा नाम स्वाँस को भेद मिटावे॥
रोम रोम जब रग रग बोले तब लग स्वाद नाम को पावे॥
पुरी जगन्नाथ के कतिपय रहस्य हैं...
मंदिर के शिखर पर लगा ध्वज हवा के विपरीत लहराता है। प्रतिदिन ध्वज का आरोहण होता है। यह वहाँ की १८०० वर्ष पुरानी परंपरा है। किसी दिन यदि आरोहण न हुआ तो मंदिर १८ वर्ष के लिए बंद हो जायेगा। ४५ मंज़िल ऊँचे शिखर पर पुजारी चढ़कर ध्वजारोहण करते हैं।
पुरी के जगन्नाथ मंदिर में नीम की लकड़ी की मूर्तियाँ हैं। यह ८, १२ या १९ वर्षों में बदलती हैं। २०१५ में पिछला नवकलेबर हुआ था। कृष्ण सुभद्रा और बलराम की मूर्तियाँ हैं जो बहुत शैल्पिक नहीं होतीं, परंतु अपनी परंपरा और महत्व में अप्रतिम हैं।
मंदिर में सूर्य की छाया नहीं पड़ती।
यहाँ सुखिला और शंखुड़ी नाम से दो महाप्रसाद मिलते हैं। सुखिला में सूखे अन्न के दाने और शंखुड़ी में दाल भात इत्यादि मिलता है। यहाँ कभी कोई भूखा नहीं रहता, न प्रसाद बचता है या बर्बाद होता है। प्रसाद तैयार करने की भी इनकी अपनी विधि और परंपरा है। एक के ऊपर एक मिट्टी की हाँड़ियों में भात पकाया जाता है, जिसका चावल भी कहते हैं प्रतिदिन महाप्रभु के खेतों से नया तैयार होकर आता है। इसका जल भी पुजारिगण अलग से लाते हैं।
मंदिर के अंदर प्रविष्ट होने पर पुरी के समुद्र का शोर सुनाई नहीं पड़ता।
मंदिर के ऊपर से कोई पक्षी या जहाज़ उड़ नहीं सकता।
मंदिर के शिखर पर एक चक्र लगा है, जिसका मुख सदा पुरी की ओर दिखता है। १२वी सदी में एक टन वजन का इतने ऊँचे यह चक्र कैसे स्थापित किया गया होगा, यह अपने आप में विलक्षण है।
पुरी का समुद्री तट बड़े तटों में से एक है, यह बीच मनमोहक है। यहाँ चलने वाली समुद्री हवा भी बदलकर बहती है। यहाँ शाम की हवा समुद्र से मैदान की तरफ़ आती है। दूसरे समुद्री तटों पर इसका उल्टा होता है।
स्क्रॉल के अनुसार, यीशु ने 13 वर्ष की आयु में यरूशलेम को त्याग दिया और सिंध की ओर प्रस्थान किया, "ईश्वरीय समझ में सुधार करने और खुद को पूर्ण करने तथा महान बुद्ध के नियमों का अध्ययन करने के इरादे से" । वे पंजाब को पार करके पुरी जगन्नाथ पहुँचे जहाँ उन्होंने ब्राह्मण पुजारियों के अधीन वेदों का अध्ययन किया।
यहाँ भगवान कृष्ण की नाभि में ब्रह्म एक नीले पत्थर के रूप में है। बौद्धों का विश्वास है कि यह गौतम बुद्ध का दाँत है, जो उनके निधन के बाद कुशीनगर से पुरी लाया गया था।
यहाँ मूर्तियाँ अर्धनिर्मित हैं। कहते हैं कलाकार ने निर्देश दिया था कि निर्माण के दौरान कोई अंदर नहीं आएगा, पर उसका उल्लंघन हो गया और कृष्ण की मूर्ति आधी ही रह गई। बड़े गोल नेत्रों के कारण उड़िया में इन्हें चकानयन और दारूब्रह्म जैसे नामों से जाना जाता है। जगन्नाथ जी वैष्णवों का तो प्रमुख स्थान है ही, यह चार धामों में से एक है, यहाँ शंकराचार्य जी का मठ है। किंतु शैव और शाक्त तंत्र के उपासकों के लिए भी यह स्थान उतना ही महत्वपूर्ण है।
ललितपुर में डेढ़ दो सौ वर्ष पहले मुख्य बाज़ार राजमार्ग पर और घंटाघर से सटा हुआ जगदीश मंदिर है। मंदिर की व्यवस्था हुण्डैत परिवार की देखरेख में चलती है। उनके पूर्वज पुरी के जगन्नाथ जी से प्रेरित और निर्देशित होकर यह मंदिर स्थापित किए थे। आज पुरी की भाँति यहाँ भी प्रतिवर्ष की तरह रथ यात्रा का आयोजन हुआ।
मनुष्य शरीर या विश्व की कोई स्थिर रचना पुर है, जिसका निवासी पुरुष है। पुर का गतिशील रूप रथ है, जिसका संचालक वामन या सूक्ष्म ईश्वर है।
२१/७/२४
शिष्य आषाढ़ की भाँति धुंधला है, जिसमें बादल गरजते हैं, जल बरसता हैं। आषाढ़ बहुत तीव्र गर्मी के बाद आता है। तभी उसमें नया बीज बोया जाता है। नवता का संचार होता है। आषाढ़ महाविरह के बाद मिलन का प्रारंभ है। इसीलिए कई बारह मासा वियोग वर्णन आषाढ़ से शुरू होते हैं। संस्कृत में महाकवि कालिदास से लेकर सूफ़ी काव्य के बड़े उद्गाता मलिक मुहम्मद जायसी से होते हुए हिन्दी के कथाकार मोहन राकेश तक के यहाँ आषाढ़ अलग अलग ढंग से बोलता है।
आषाढ़ की पूर्णिमा हमारी गुरु है। पूर्णिमा पर चंद्रमा निरभ्र आकाश को अपनी चाँदनी से स्वच्छ और सुहाना बना देता है। चंद्रमा को मामा कहा है, उससे हमारा निकट का संबंध है। चंद्रमा मनसो जात है। मन और चंद्रमा कहियत भिन्न न भिन्न हैं। मन के पार ले जाने में चंद्रमा सक्षम है। इस चंद्रमा का प्रकाश सूरज से आता है, सूरज यानि परमात्मा। परंतु चंद्रमा में वह प्रकाश दर्पण की भाँति प्रतिबिंबित होता है। हम सूर्य का पूर्ण प्रकाश सीधे नहीं देख सकते, उसके लिए चंद्रमा माध्यम बनता है।
इसीलिए मान्यता है कि आषाढ़ पूर्णिमा के दिन वेद व्यास का जन्म हुआ। वेदव्यास ने वेदों की आभा को इकट्ठा करके मानव समाज तक प्रसारित किया। हर पूर्णिमा के दिन किसी न किसी संत/महापुरुष का संबंध जुड़ा हुआ है।
आप सबको गुरुपूर्णिमा की शुभकामनाएँ।
२५/७/२४
राम भगत जग चारि प्रकारा।
सुकृति चारिउ अनघ उदारा।।
चहू चतुर कहूँ नाम अधारा।
ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा।।
ʹजगत में चार प्रकार के (अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी) राम भक्त हैं और चारों ही पुण्यात्मा, पापरहित और उदार हैं। चारों ही चतुर भक्तों को नाम का ही आधार है। इनमें से ज्ञानी भक्त प्रभु को विशेष रूप से प्रिय हैं।ʹ
१८/९/२४
जैन धर्म में क्षमा को एक पर्व मानकर इसकी महिमा गाई गई है। क्षमा एक बहुत बड़ा सद्गुण है। वीरों का भूषण इसे यूँ ही नहीं कहा गया है। क्षमा करने में जितने बड़े साहस की आवश्यकता होती है, उतनी तो अपराध कारित करने में भी नहीं होती। क्षमा कायरों का गुण नहीं है। क्षमा का गुण तपश्चर्या के बाद ही आ सकता है। क्षमाशील व्यक्ति की वाणी में सत्य प्रतिष्ठित हो जाता है। क्रोध और प्रतिहिंसा जाते रहते हैं।
वर्णमाला का क्ष वर्ण अंत में आता है। जो कुछ भी जीवन में घटित हुआ, उसे मा यानि नहीं के स्तर तक ले जाना क्षमा है।
२२/९/२४
तिरूपति बालाजी के प्रसाद में अभक्ष्य पदार्थ पाये जाने के बाद किसी देवस्थान पर प्रसाद चढ़ाने और पाने में कितने श्रद्धालु सावधान हुए होंगे!
फल और धान्य ही विशुद्ध हो सकते हैं। अब इतने दूध देने वाले पशु नहीं, न उनकी देखभाल करने वाले लोग हैं। जो हैं, वे सीमित हैं। बाज़ार की मिलावट से, लोगों के आलस्य से, बदलती जीवन शैली से और जनसामान्य के लिए आपूर्ति की अधिक आवश्यकता के कारण अब भगवान का प्रसाद भोज्य नहीं, सम्मान्य भर रह गया है....
माँ वैष्णो देवी में प्रसाद के रूप में सूखे सेब के टुकड़े, लाई, अखरोट और धातु का सिक्का मिलता है। यद्यपि वह भी कितना हो सकता है।
प्रसादे सर्वदुखानानाम् हानिरस्योपज़ायते...
२/१०/२४
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता।।" 'कोई किसीको सुख-दुःखका देनेवाला नहीं है। सब अपने ही किये
"काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता।।"
'कोई किसीको सुख-दुःखका देनेवाला नहीं है। सब अपने ही किये हुए कर्मोंका फल भोगते हैं।'
क्योंकि इस विश्वमें -
करम प्रधान बिस्व करि राखा। जो जस करइ सो तस फलु चाखा।।
विश्वमें कर्मको ही प्रधान कर रखा है। जो जैसा करता है, वह वैसा ही फल भोगता है।।
अर्थात् जिस अज्ञानी को यह पता ही नहीं है कि यह शरीर मैं नहीं हूँ और इस शरीरमें होनेवाली सम्पूर्ण क्रियाएँ भी वास्तवमें मेरी नहीं है, ऐसा अज्ञानी ही इस शरीरको ही अपना स्वरूप मानता है और इस शरीरमें होनेवाली सम्पूर्ण क्रियाओंको भी अपनी क्रियायें मानकर सुखी-दुःखी होता रहता है जबकि -
'वास्तवमें सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे प्रकृतिके गुणोंद्वारा किये जाते हैं तो भी जिसका अन्तःकरण अहङ्कारसे मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा मानता है।।'
अपने आपको कर्ता माननेवाले ये अज्ञानी जीव ही इस मायाके जाल (फंदों) में फंसते हैं और माया के फंदों का वर्णन करते हुए ही लक्ष्मणजी निषादराज से कहते हैं -
जोग बियोग भोग भल मंदा। हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा।।
जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू। संपति बिपति करमु अरु कालू।।
संयोग (मिलना), वियोग (बिछुड़ना), भले-बुरे भोग, शत्रु, मित्र और उदासीन तथा हित-अनहित आदि कर्म - ये सभी भ्रमके फंदे हैं (कर्तापनेका अहंकार ही भ्रम है)। जन्म-मृत्यु, सम्पत्ति-विपत्ति, कर्म और काल (कालको ही समय अथवा अवस्थाएं भी कहते हैं) - जहाँतक जगत् के जंजाल हैं; अर्थात् ये सभी जीवको संसारचक्र में फंसानेवाले जाल ही हैं;।।
धरनि धामु धनु पुर परिवारू। सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू।।
देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं। मोह मूल परमारथु नाहीं।।
धरती, घर, धन, नगर, परिवार, स्वर्ग और नरक आदि जहाँतक व्यवहार हैं जो देखने, सुनने और मनके अन्दर विचारनेमें आते हैं, इन सबका मूल मोह (अज्ञान) ही है। परमार्थतः ये नहीं हैं अर्थात् ये सब वास्तविक नहीं हैं ये तो मायिक अथवा स्वप्नवत ही हैं।
और जिस ज्ञानी पुरुषका यह निश्चय होता है कि मैं शरीर नहीं हूँ, यह शरीर तो प्रकृतिका ही है अथवा यह शरीर प्राकृतिक है और इसके सम्पूर्ण कर्म भी सब प्रकारसे प्रकृतिके गुणोंद्वारा ही किये जाते हैं, ऐसा ज्ञानी पुरुष ही अपना स्वरूप आत्माको ही समझता है और अपने आपको केवल साक्षी मानकर अकर्ता ही मानता है - ऐसे ज्ञानी पुरुषके लिये यह समस्त संसार अथवा यह दृश्य-प्रपञ्च ऐसे ही है जैसे कि -
दो० - सपनें होइ भिखारि नृपु रंकु नाकपति होइ।
जागें लाभु न हानि कछु तिमि प्रपंच जियँ जोय।।
जैसे स्वप्नमें राजा भिखारी हो जाय या कंगाल स्वर्गका स्वामी इन्द्र हो जाय, तो जागनेपर लाभ या हानि कुछ भी नहीं है; वैसे ही इस दृश्य-प्रपञ्चको हृदयसे देखना चाहिये।।
क्योंकि यह साक्षी रूप परम आत्मा भी हृदय रूपी गुहा में ही रहता है, जो कि सबकुछ देखने और जाननेवाला होता है; इसीलिये ही इस आत्माको ज्ञानस्वरूप भी कहा जाता है।
अशोक कुमार सुल्तानपुर
ये सारा संसार ठोस दिखता है, इसमें जो छिपी हुई सूक्ष्म तरंग रूपी चेतना है, वे ही शैलपुत्री हैं।
हमारे भीतर स्थित चिति शक्ति जो कुँवारी, नित नूतन, शुद्ध और शुभ्र हैं; ब्रह्म की ओर ले जाने वाली उस चेतना को ही माँ ब्रह्मचारिणी कहते हैं।
चंद्रघंटा का अर्थ है शीतल और अति सुंदर!
चंद्रघंटा वह चेतना है जो नाद और सुंदरता से आपको ऊपर उठाती हैं और आपकी सारी कामनाएँ पूरी करती हैं।
विश्व में सब जगह व्याप्त तरंग रुपी जो चेतना है, शक्ति है, वह शक्ति कुष्मांडा हैं; सर्वत्र व्याप्त दिव्य चेतना को ही माँ कूष्मांडा कहते हैं।
स्कंदमाता उस चैतन्य का प्रतीक हैं जहाँ माता पूर्ण विश्वास से गर्व के साथ ममता के भाव में बनी रहती है। ममता के साथ एक गर्व हो, आत्मबल हो, विश्वास हो कि सब कुछ ठीक ही होगा, ठीक हो रहा है, कोई चिंता नहीं। वह मातृत्व स्कंदमाता की आराधना है।कात्यायनी यानि वह चेतना जो सबका मंगल करती हैं, सबकी इच्छाएँ पूरी करती हैं और सबको प्रसन्न रखती हैं। हमारा नाम, रूप और सारे गुणों को लेकर वे हमारी पुत्री के रूप में प्रकट होती हैं।
कालरात्रि वही हैं जो अज्ञान को दूर करने वाली होती हैं। चैतन्य शक्ति से ही सारी सृष्टि बनी है। यहाँ जड़ नाम की कोई चीज़ नहीं है। इस समझ को देने वाली कालरात्रि हैं।
महागौरी माने जो सबका अच्छा ही करती हैं। हमारी चेतना में न्याय और धर्म का गुण निहित है। देवी गुणमयी हैं, गुण रूपी हैं इसलिए गुणों को जगा कर ही देवी की आराधना होती है।
जो हमने अभी तक प्राप्त नहीं किया ये जान लेना हमें ये माता सिद्धिदात्री देने वाली है, ये भी जान लें कि ये सब जो हमारे पास है वह उनकी कृपा से ही मिला है। नाम में फल निहित है सिद्धिदात्री।
नवरात्र साधना के बाद मातृ कृपा से प्राप्त शक्ति से हममें राम बस जाते हैं, जिनका बाण संधान व्यर्थ नहीं जाता है। इसीलिए रामबाण मुहावरा बन गया। वे रावण रूपी अहंकार के दस विविध रूपों का उच्छेद कर देते हैं। यही दशहरा है।
आप सब जनन खों दशरये की राम-राम पौंचे।
३१/१०/२४
दीपावली की रात्रि को कालरात्रि कहा गया है। नवरात्रि का सप्तम अहोरात्र माँ काली को समर्पित है। वर्ष में चार बड़ी रात्रियाँ आती हैं, दीपावली के अतिरिक्त होली यानी दारुण रात्रि, जन्माष्टमी यानि मोहरात्रि(शरद पूर्णिमा की रात्रि को भी मोहरात्रि माना गया है) एवं महाशिवरात्रि। दीपावली पर हम चाहें , न चाहें भीतर-बाहर की सफ़ाई किए बिना नहीं रह सकते। समय की चाल को हमारे पुरखों ने किस तरह पकड़ा हुआ है। शुभ दीपावली🙏🌹
१/११/२४
राम नाम मणि दीप धरु, जीह देहरी द्वार तुलसी भीतर बाहिरेहुँ जो चाहसि उजिआर
भावार्थ-
तुलसीदास कहते हैं, यदि तू भीतर और बाहर दोनों ओर उजाला चाहता है, तो मुखरूपी द्वार की जीभरूपी देहली पर रामनामरूपी मणि-दीपक को रख॥
वाल्मीकि रामायण में वर्णन आता है कि जब भगवान राम लंका से अयोध्या वापस आए तो नंदीग्राम में अयोध्यावासियों ने दीपक जलाकर उनका अभिनंदन किया। इससे स्पष्ट है कि भारत में दीपावली जैसी परंपरा का स्रोत बहुत पहले से है। दीपक जलाने की संस्कृति का तो उत्स खोजना ही मुश्किल है। दीपावली राम जी के राज्याभिषेक की ख़ुशी और सतयुग में माता लक्ष्मी जी के सागर मंथन से पृथ्वी पर आविर्भाव दोनों के लिए मनाई जाती है। महावीर ने ईसा पूर्व ५२७ में दीपावली के दिन महासमाधि ली थी। सम्राट अशोक ने इस दिन तीसरी शराब्दी ईसा पूर्व में बौद्ध धर्म स्वीकार किया। पद्म पुराण और स्कन्द पुराण में दीपावली पर्व का वर्णन है। सिख धर्म में दिवाली वह दिन है, जिस दिन गुरु हरगोबिंद जी को 1619 में मुगल सम्राट जहांगीर ने जेल से रिहा किया था। यह उत्पीड़न से मुक्ति का प्रतीक है।
वास्तव में , जप आदि कर्म नहीं है , परन्तु परमेश्वर के स्वरूप की प्रकाशिका क्रिया शक्ति है । कर्म उसी का नाम है , जो निम्नस्तर का परिमित भोग देकर अपरिमित भोग या पूर्ण भोग के स्वरूप का आच्छादन करता है एवं नाना प्रकार के संकोचों के द्वारा आवरण करता है । भगवान की क्रियाशक्ति जब पशु में स्थित होकर बन्धन को उत्पन्न करती है , तब उसका नाम पड़ता है कर्म ।
भगवत्कृपा का रहस्य 34
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