Friday, November 15, 2024

जुलाई २४

जुलाई २४ हमारे यहाँ जो कुछ लोग जानते हैं, उसे कृपण प्रकृति के कारण छिपा लेते हैं। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो कहाँ बताएँ, इसे नहीं समझ पाते। भारत विद्या (Indology) को प्रकट करने की दृष्टि से ऑनलाइन सिस्टम ने दुनिया भर को बहुत अधिक मंच और अवसर प्रदान किया है। इस ऑनलाइन व्यवस्था ने कृपण व्यक्तियों की हालत ख़राब कर दी है। वे चाहे दुनिया के तरह तरह के बाज़ार के ख़रीददार हों या विक्रेता। गूगल बाबा ने बहुत सी जानकारी सुलभ कर दी है। आप गूगल में आइये और अनावश्यक गोपनीयता से बाहर हो जाइए अन्यथा अप्रासंगिक हो जाएँगे और आने वाले समय में आप जो कुछ नया और उत्तम जानते हैं, उसे कोई दूसरा प्रकट कर देगा। ज्ञान विज्ञान पर किसी का एकाधिकार नहीं हो सकता। एडिसन ने बल्ब दिया, उसकी रोशनी पूरे जगत् को मिल रही है। १३/७/२४ मन ही जिसका दर हो जाए, वही मंदिर है। दरवाज़ा ऐसा स्थान है, जहां से भीतर और बाहर दोनों जगह का दिखने लगता है। नाम स्वाँस दोउ विलग चलत हैं इनको भेद न मोकों भावे। स्वाँसई नाम नाम ही स्वाँसा नाम स्वाँस को भेद मिटावे॥ रोम रोम जब रग रग बोले तब लग स्वाद नाम को पावे॥ पुरी जगन्नाथ के कतिपय रहस्य हैं... मंदिर के शिखर पर लगा ध्वज हवा के विपरीत लहराता है। प्रतिदिन ध्वज का आरोहण होता है। यह वहाँ की १८०० वर्ष पुरानी परंपरा है। किसी दिन यदि आरोहण न हुआ तो मंदिर १८ वर्ष के लिए बंद हो जायेगा। ४५ मंज़िल ऊँचे शिखर पर पुजारी चढ़कर ध्वजारोहण करते हैं। पुरी के जगन्नाथ मंदिर में नीम की लकड़ी की मूर्तियाँ हैं। यह ८, १२ या १९ वर्षों में बदलती हैं। २०१५ में पिछला नवकलेबर हुआ था। कृष्ण सुभद्रा और बलराम की मूर्तियाँ हैं जो बहुत शैल्पिक नहीं होतीं, परंतु अपनी परंपरा और महत्व में अप्रतिम हैं। मंदिर में सूर्य की छाया नहीं पड़ती। यहाँ सुखिला और शंखुड़ी नाम से दो महाप्रसाद मिलते हैं। सुखिला में सूखे अन्न के दाने और शंखुड़ी में दाल भात इत्यादि मिलता है। यहाँ कभी कोई भूखा नहीं रहता, न प्रसाद बचता है या बर्बाद होता है। प्रसाद तैयार करने की भी इनकी अपनी विधि और परंपरा है। एक के ऊपर एक मिट्टी की हाँड़ियों में भात पकाया जाता है, जिसका चावल भी कहते हैं प्रतिदिन महाप्रभु के खेतों से नया तैयार होकर आता है। इसका जल भी पुजारिगण अलग से लाते हैं। मंदिर के अंदर प्रविष्ट होने पर पुरी के समुद्र का शोर सुनाई नहीं पड़ता। मंदिर के ऊपर से कोई पक्षी या जहाज़ उड़ नहीं सकता। मंदिर के शिखर पर एक चक्र लगा है, जिसका मुख सदा पुरी की ओर दिखता है। १२वी सदी में एक टन वजन का इतने ऊँचे यह चक्र कैसे स्थापित किया गया होगा, यह अपने आप में विलक्षण है। पुरी का समुद्री तट बड़े तटों में से एक है, यह बीच मनमोहक है। यहाँ चलने वाली समुद्री हवा भी बदलकर बहती है। यहाँ शाम की हवा समुद्र से मैदान की तरफ़ आती है। दूसरे समुद्री तटों पर इसका उल्टा होता है। स्क्रॉल के अनुसार, यीशु ने 13 वर्ष की आयु में यरूशलेम को त्याग दिया और सिंध की ओर प्रस्थान किया, "ईश्वरीय समझ में सुधार करने और खुद को पूर्ण करने तथा महान बुद्ध के नियमों का अध्ययन करने के इरादे से" । वे पंजाब को पार करके पुरी जगन्नाथ पहुँचे जहाँ उन्होंने ब्राह्मण पुजारियों के अधीन वेदों का अध्ययन किया। यहाँ भगवान कृष्ण की नाभि में ब्रह्म एक नीले पत्थर के रूप में है। बौद्धों का विश्वास है कि यह गौतम बुद्ध का दाँत है, जो उनके निधन के बाद कुशीनगर से पुरी लाया गया था। यहाँ मूर्तियाँ अर्धनिर्मित हैं। कहते हैं कलाकार ने निर्देश दिया था कि निर्माण के दौरान कोई अंदर नहीं आएगा, पर उसका उल्लंघन हो गया और कृष्ण की मूर्ति आधी ही रह गई। बड़े गोल नेत्रों के कारण उड़िया में इन्हें चकानयन और दारूब्रह्म जैसे नामों से जाना जाता है। जगन्नाथ जी वैष्णवों का तो प्रमुख स्थान है ही, यह चार धामों में से एक है, यहाँ शंकराचार्य जी का मठ है। किंतु शैव और शाक्त तंत्र के उपासकों के लिए भी यह स्थान उतना ही महत्वपूर्ण है। ललितपुर में डेढ़ दो सौ वर्ष पहले मुख्य बाज़ार राजमार्ग पर और घंटाघर से सटा हुआ जगदीश मंदिर है। मंदिर की व्यवस्था हुण्डैत परिवार की देखरेख में चलती है। उनके पूर्वज पुरी के जगन्नाथ जी से प्रेरित और निर्देशित होकर यह मंदिर स्थापित किए थे। आज पुरी की भाँति यहाँ भी प्रतिवर्ष की तरह रथ यात्रा का आयोजन हुआ। मनुष्य शरीर या विश्व की कोई स्थिर रचना पुर है, जिसका निवासी पुरुष है। पुर का गतिशील रूप रथ है, जिसका संचालक वामन या सूक्ष्म ईश्वर है। २१/७/२४ शिष्य आषाढ़ की भाँति धुंधला है, जिसमें बादल गरजते हैं, जल बरसता हैं। आषाढ़ बहुत तीव्र गर्मी के बाद आता है। तभी उसमें नया बीज बोया जाता है। नवता का संचार होता है। आषाढ़ महाविरह के बाद मिलन का प्रारंभ है। इसीलिए कई बारह मासा वियोग वर्णन आषाढ़ से शुरू होते हैं। संस्कृत में महाकवि कालिदास से लेकर सूफ़ी काव्य के बड़े उद्गाता मलिक मुहम्मद जायसी से होते हुए हिन्दी के कथाकार मोहन राकेश तक के यहाँ आषाढ़ अलग अलग ढंग से बोलता है। आषाढ़ की पूर्णिमा हमारी गुरु है। पूर्णिमा पर चंद्रमा निरभ्र आकाश को अपनी चाँदनी से स्वच्छ और सुहाना बना देता है। चंद्रमा को मामा कहा है, उससे हमारा निकट का संबंध है। चंद्रमा मनसो जात है। मन और चंद्रमा कहियत भिन्न न भिन्न हैं। मन के पार ले जाने में चंद्रमा सक्षम है। इस चंद्रमा का प्रकाश सूरज से आता है, सूरज यानि परमात्मा। परंतु चंद्रमा में वह प्रकाश दर्पण की भाँति प्रतिबिंबित होता है। हम सूर्य का पूर्ण प्रकाश सीधे नहीं देख सकते, उसके लिए चंद्रमा माध्यम बनता है। इसीलिए मान्यता है कि आषाढ़ पूर्णिमा के दिन वेद व्यास का जन्म हुआ। वेदव्यास ने वेदों की आभा को इकट्ठा करके मानव समाज तक प्रसारित किया। हर पूर्णिमा के दिन किसी न किसी संत/महापुरुष का संबंध जुड़ा हुआ है। आप सबको गुरुपूर्णिमा की शुभकामनाएँ। २५/७/२४ राम भगत जग चारि प्रकारा। सुकृति चारिउ अनघ उदारा।। चहू चतुर कहूँ नाम अधारा। ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा।। ʹजगत में चार प्रकार के (अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी) राम भक्त हैं और चारों ही पुण्यात्मा, पापरहित और उदार हैं। चारों ही चतुर भक्तों को नाम का ही आधार है। इनमें से ज्ञानी भक्त प्रभु को विशेष रूप से प्रिय हैं।ʹ १८/९/२४ जैन धर्म में क्षमा को एक पर्व मानकर इसकी महिमा गाई गई है। क्षमा एक बहुत बड़ा सद्गुण है। वीरों का भूषण इसे यूँ ही नहीं कहा गया है। क्षमा करने में जितने बड़े साहस की आवश्यकता होती है, उतनी तो अपराध कारित करने में भी नहीं होती। क्षमा कायरों का गुण नहीं है। क्षमा का गुण तपश्चर्या के बाद ही आ सकता है। क्षमाशील व्यक्ति की वाणी में सत्य प्रतिष्ठित हो जाता है। क्रोध और प्रतिहिंसा जाते रहते हैं। वर्णमाला का क्ष वर्ण अंत में आता है। जो कुछ भी जीवन में घटित हुआ, उसे मा यानि नहीं के स्तर तक ले जाना क्षमा है। २२/९/२४ तिरूपति बालाजी के प्रसाद में अभक्ष्य पदार्थ पाये जाने के बाद किसी देवस्थान पर प्रसाद चढ़ाने और पाने में कितने श्रद्धालु सावधान हुए होंगे! फल और धान्य ही विशुद्ध हो सकते हैं। अब इतने दूध देने वाले पशु नहीं, न उनकी देखभाल करने वाले लोग हैं। जो हैं, वे सीमित हैं। बाज़ार की मिलावट से, लोगों के आलस्य से, बदलती जीवन शैली से और जनसामान्य के लिए आपूर्ति की अधिक आवश्यकता के कारण अब भगवान का प्रसाद भोज्य नहीं, सम्मान्य भर रह गया है.... माँ वैष्णो देवी में प्रसाद के रूप में सूखे सेब के टुकड़े, लाई, अखरोट और धातु का सिक्का मिलता है। यद्यपि वह भी कितना हो सकता है। प्रसादे सर्वदुखानानाम् हानिरस्योपज़ायते... २/१०/२४ काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता।।" 'कोई किसीको सुख-दुःखका देनेवाला नहीं है। सब अपने ही किये "काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता।।"
'कोई किसीको सुख-दुःखका देनेवाला नहीं है। सब अपने ही किये हुए कर्मोंका फल भोगते हैं।'
क्योंकि इस विश्वमें -
करम प्रधान बिस्व करि राखा। जो जस करइ सो तस फलु चाखा।।
विश्वमें कर्मको ही प्रधान कर रखा है। जो जैसा करता है, वह वैसा ही फल भोगता है।।
अर्थात् जिस अज्ञानी को यह पता ही नहीं है कि यह शरीर मैं नहीं हूँ और इस शरीरमें होनेवाली सम्पूर्ण क्रियाएँ भी वास्तवमें मेरी नहीं है, ऐसा अज्ञानी ही इस शरीरको ही अपना स्वरूप मानता है और इस शरीरमें होनेवाली सम्पूर्ण क्रियाओंको भी अपनी क्रियायें मानकर सुखी-दुःखी होता रहता है जबकि -
'वास्तवमें सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे प्रकृतिके गुणोंद्वारा किये जाते हैं तो भी जिसका अन्तःकरण अहङ्कारसे मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा मानता है।।'
अपने आपको कर्ता माननेवाले ये अज्ञानी जीव ही इस मायाके जाल (फंदों) में फंसते हैं और माया के फंदों का वर्णन करते हुए ही लक्ष्मणजी निषादराज से कहते हैं -
जोग बियोग भोग भल मंदा। हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा।।
जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू। संपति बिपति करमु अरु कालू।।
संयोग (मिलना), वियोग (बिछुड़ना), भले-बुरे भोग, शत्रु, मित्र और उदासीन तथा हित-अनहित आदि कर्म - ये सभी भ्रमके फंदे हैं (कर्तापनेका अहंकार ही भ्रम है)। जन्म-मृत्यु, सम्पत्ति-विपत्ति, कर्म और काल (कालको ही समय अथवा अवस्थाएं भी कहते हैं) - जहाँतक जगत् के जंजाल हैं; अर्थात् ये सभी जीवको संसारचक्र में फंसानेवाले जाल ही हैं;।।
धरनि धामु धनु पुर परिवारू। सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू।।
देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं। मोह मूल परमारथु नाहीं।।
धरती, घर, धन, नगर, परिवार, स्वर्ग और नरक आदि जहाँतक व्यवहार हैं जो देखने, सुनने और मनके अन्दर विचारनेमें आते हैं, इन सबका मूल मोह (अज्ञान) ही है। परमार्थतः ये नहीं हैं अर्थात् ये सब वास्तविक नहीं हैं ये तो मायिक अथवा स्वप्नवत ही हैं।
और जिस ज्ञानी पुरुषका यह निश्चय होता है कि मैं शरीर नहीं हूँ, यह शरीर तो प्रकृतिका ही है अथवा यह शरीर प्राकृतिक है और इसके सम्पूर्ण कर्म भी सब प्रकारसे प्रकृतिके गुणोंद्वारा ही किये जाते हैं, ऐसा ज्ञानी पुरुष ही अपना स्वरूप आत्माको ही समझता है और अपने आपको केवल साक्षी मानकर अकर्ता ही मानता है - ऐसे ज्ञानी पुरुषके लिये यह समस्त संसार अथवा यह दृश्य-प्रपञ्च ऐसे ही है जैसे कि -
दो० - सपनें होइ भिखारि नृपु रंकु नाकपति होइ।
जागें लाभु न हानि कछु तिमि प्रपंच जियँ जोय।।
जैसे स्वप्नमें राजा भिखारी हो जाय या कंगाल स्वर्गका स्वामी इन्द्र हो जाय, तो जागनेपर लाभ या हानि कुछ भी नहीं है; वैसे ही इस दृश्य-प्रपञ्चको हृदयसे देखना चाहिये।। 
क्योंकि यह साक्षी रूप परम आत्मा भी हृदय रूपी गुहा में ही रहता है, जो कि सबकुछ देखने और जाननेवाला होता है; इसीलिये ही इस आत्माको ज्ञानस्वरूप भी कहा जाता है। अशोक कुमार सुल्तानपुर ये सारा संसार ठोस दिखता है, इसमें जो छिपी हुई सूक्ष्म तरंग रूपी चेतना है, वे ही शैलपुत्री हैं। हमारे भीतर स्थित चिति शक्ति जो कुँवारी, नित नूतन, शुद्ध और शुभ्र हैं; ब्रह्म की ओर ले जाने वाली उस चेतना को ही माँ ब्रह्मचारिणी कहते हैं। चंद्रघंटा का अर्थ है शीतल और अति सुंदर! चंद्रघंटा वह चेतना है जो नाद और सुंदरता से आपको ऊपर उठाती हैं और आपकी सारी कामनाएँ पूरी करती हैं। विश्व में सब जगह व्याप्त तरंग रुपी जो चेतना है, शक्ति है, वह शक्ति कुष्मांडा हैं; सर्वत्र व्याप्त दिव्य चेतना को ही माँ कूष्मांडा कहते हैं।   स्कंदमाता उस चैतन्य का प्रतीक हैं जहाँ माता पूर्ण विश्वास से गर्व के साथ ममता के भाव में बनी रहती है। ममता के साथ एक गर्व हो, आत्मबल हो, विश्वास हो कि सब कुछ ठीक ही होगा, ठीक हो रहा है, कोई चिंता नहीं। वह मातृत्व स्कंदमाता की आराधना है।कात्यायनी यानि वह चेतना जो सबका मंगल करती हैं, सबकी इच्छाएँ पूरी करती हैं और सबको प्रसन्न रखती हैं। हमारा नाम, रूप और सारे गुणों को लेकर वे हमारी पुत्री के रूप में प्रकट होती हैं। कालरात्रि वही हैं जो अज्ञान को दूर करने वाली होती हैं। चैतन्य शक्ति से ही सारी सृष्टि बनी है। यहाँ जड़ नाम की कोई चीज़ नहीं है। इस समझ को देने वाली कालरात्रि हैं। महागौरी माने जो सबका अच्छा ही करती हैं। हमारी चेतना में न्याय और धर्म का गुण निहित है। देवी गुणमयी हैं, गुण रूपी हैं इसलिए गुणों को जगा कर ही देवी की आराधना होती है। जो हमने अभी तक प्राप्त नहीं किया ये जान लेना हमें ये माता सिद्धिदात्री देने वाली है, ये भी जान लें कि ये सब जो हमारे पास है वह उनकी कृपा से ही मिला है। नाम में फल निहित है सिद्धिदात्री। नवरात्र साधना के बाद मातृ कृपा से प्राप्त शक्ति से हममें राम बस जाते हैं, जिनका बाण संधान व्यर्थ नहीं जाता है। इसीलिए रामबाण मुहावरा बन गया। वे रावण रूपी अहंकार के दस विविध रूपों का उच्छेद कर देते हैं। यही दशहरा है। आप सब जनन खों दशरये की राम-राम पौंचे। ३१/१०/२४ दीपावली की रात्रि को कालरात्रि कहा गया है। नवरात्रि का सप्तम अहोरात्र माँ काली को समर्पित है। वर्ष में चार बड़ी रात्रियाँ आती हैं, दीपावली के अतिरिक्त होली यानी दारुण रात्रि, जन्माष्टमी यानि मोहरात्रि(शरद पूर्णिमा की रात्रि को भी मोहरात्रि माना गया है) एवं महाशिवरात्रि। दीपावली पर हम चाहें , न चाहें भीतर-बाहर की सफ़ाई किए बिना नहीं रह सकते। समय की चाल को हमारे पुरखों ने किस तरह पकड़ा हुआ है। शुभ दीपावली🙏🌹 १/११/२४ राम नाम मणि दीप धरु, जीह देहरी द्वार तुलसी भीतर बाहिरेहुँ जो चाहसि उजिआर भावार्थ- तुलसीदास कहते हैं, यदि तू भीतर और बाहर दोनों ओर उजाला चाहता है, तो मुखरूपी द्वार की जीभरूपी देहली पर रामनामरूपी मणि-दीपक को रख॥ वाल्मीकि रामायण में वर्णन आता है कि जब भगवान राम लंका से अयोध्या वापस आए तो नंदीग्राम में अयोध्यावासियों ने दीपक जलाकर उनका अभिनंदन किया। इससे स्पष्ट है कि भारत में दीपावली जैसी परंपरा का स्रोत बहुत पहले से है। दीपक जलाने की संस्कृति का तो उत्स खोजना ही मुश्किल है। दीपावली राम जी के राज्याभिषेक की ख़ुशी और सतयुग में माता लक्ष्मी जी के सागर मंथन से पृथ्वी पर आविर्भाव दोनों के लिए मनाई जाती है। महावीर ने ईसा पूर्व ५२७ में दीपावली के दिन महासमाधि ली थी। सम्राट अशोक ने इस दिन तीसरी शराब्दी ईसा पूर्व में बौद्ध धर्म स्वीकार किया। पद्म पुराण और स्कन्द पुराण में दीपावली पर्व का वर्णन है। सिख धर्म में दिवाली वह दिन है, जिस दिन गुरु हरगोबिंद जी को 1619 में मुगल सम्राट जहांगीर ने जेल से रिहा किया था। यह उत्पीड़न से मुक्ति का प्रतीक है। वास्तव में , जप आदि कर्म नहीं है , परन्तु परमेश्वर के स्वरूप की प्रकाशिका क्रिया शक्ति है । कर्म उसी का नाम है , जो निम्नस्तर का परिमित भोग देकर अपरिमित भोग या पूर्ण भोग के स्वरूप का आच्छादन करता है एवं नाना प्रकार के संकोचों के द्वारा आवरण करता है । भगवान की क्रियाशक्ति जब पशु में स्थित होकर बन्धन को उत्पन्न करती है , तब उसका नाम पड़ता है कर्म । भगवत्कृपा का रहस्य 34

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