Friday, August 8, 2025

भारत नाम वंशावली एक विहगावलोकन

भारत नाम वंशावली : एक विहगावलोकन प्रोफे राकेश नारायण द्विवेदी आज के वैज्ञानिक मानते हैं कि प्राचीन युग में यह भूमंडल सात महाद्वीपों में बंट गया था। आधुनिक युग में यह द्वीप महासागरों के आधार पर बंटे हुए मान्य किए जाते हैं। भारत के विभिन्न पुराण ग्रंथों में इन द्वीपों के बारे में विवरण प्राप्त होता है। इन विवरणों को पढ़ा-गुना जाना चाहिए, इनसे हमें ज्ञान की नई और महत्वपूर्ण दिशा का अवबोध हो सकता है। इस क्रम में भारत के पुराने नाम जंबूद्वीप के बारे में अपनी समझ बढ़ाना अनुपयुक्त नहीं होगा। वायु पुराण में आया है- सप्तद्वीप परिक्रांतं जंबूद्वीपं निबोधत। अग्नीध्रं ज्येष्ठदायादं काम्यापुत्रं महाबलम्।। 33/37 यह सात द्वीप हैं, उनके अलग-अलग शासक रहे हैं। उनके आधुनिक देशो के नाम भी सामने दिए जा रहे हैं- 1- जंबूद्वीप - अग्नीध्र - एसिया 2- शकद्वीप - मेधातिथि - अंग द्वीप आस्ट्रेलिया 3- क्रोंचद्वीप - ज्योतिष्मान - उत्तर अमेरिका 4- शाल्मलिद्वीप - द्युतिमान - विषुव के दक्षिण अफ्रीकी देश 5- गोमेद/कुश द्वीप - हव्य - उत्तर अफ्रीका 6 - प्लक्षद्वीप - वपुष्मान - यूरोप 7 - पुष्करद्वीप - सवण - दक्षिण अमेरिका सात द्वीपों से घिरे जंबू द्वीप में वायुपुराण के अनुसार आरंभिक अर्थात् स्वायंभुव मनु के पुत्र प्रियव्रत ने (प्रियव्रत और उनकी पत्नी काम्या) अपने महाबली ज्येष्ठ पुत्र अग्नीध्र को जंबूद्वीप का राजा बनाकर अभिषिक्त किया। धर्मात्मा अग्नीध्र का ज्येष्ठ पुत्र नाभि, उससे छोटा किंपुरुष, तीसरा हरिवर्ष, चौथा इलावृत, पांचवां रम्य, छठा हरिण्मान, सातवां कुरू, आठवां भद्राश्व और नवां केतुमाल नाम का पुत्र हुआ। नाभि को उसके पिता ने हिम नामक दक्षिण देश, किंपुरुष को हेमकूट, हरिवर्ष को नैषध, इलावृत को सुमेरु का मध्यप्रदेश, रम्य को नील, हरिण्मान को उत्तर का श्वेत देश, कुरु को उत्तर दिशा में शृंगवान देश, भद्राश्व को माल्यवान और केतुमाल को गंधमादन देश दिया। महात्मा नाभि और उनकी पत्नी मेरू से एक अतिशय कांतिमान पुत्र ऋषभदेव हुए। ऋषभदेव जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर मान्य हुए। उनके सौ पुत्र थे, जिनमें सबसे बड़े राजा भरत हुए। राजा भरत की गणना महाभारत में वर्णित सोलह सर्वश्रेष्ठ राजाओं में होती है। महाभारत के अनुसार भरत ने बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान किया एवं महर्षि भरद्वाज के कृपा से भूमन्यु नामक पुत्र प्राप्त किया। श्रीमद्भागवत के अनुसार भरत के अलग-अलग तीन रानियों से कुल नौ पुत्र थे, परंतु उन्होंने इनमें से किसी को भी राज्य चलाने योग्य नहीं समझा। तब भरत ने मरुत्स्तोम यज्ञ किया और मरुद्गणों ने भरत को भारद्वाज नामक पुत्र दिया। भारद्वाज जन्म से ब्राह्मण थे, किंतु भरत का पुत्र बन जाने के कारण क्षत्रिच कहलाए। भारद्वाज ने स्वयं शासन नहीं किया। भरत के देहावसान के बाद उन्होंने वृहस्पति के भाई वितथ को राज्य का भार सौंप दिया और स्वयं वन में चले गए। इस वंश के सब राजा भरतवंशी ही कहलाएं। यह वितथ वृहस्पति के भाई उतथ्य की पत्नी ममता से पैदा हुए थे। वितथ एक महान राजा सिद्ध हुए, उनके चौदह पीढ़ी बाद शांतनु हुए जो भीष्म के पिता व पांडवों और कौरवों के परदादा थे। भारद्वाज के जन्म की विचित्र कथा है। वृहस्पति ने अपने भाई उतथ्य की की गर्भवती पत्नी का बलपूर्वक गर्भाधान किया, उसके गर्भ में दीर्घतमा नाम की संतान पहले से विद्यमान थी। वृहस्पति ने उससे कहा इसका पालन पोषण (भर) कर। यह मेरा औरस और भाई का क्षेत्रज पुत्र होने के कारण दोनों का (द्वाज) पुत्र है। किंतु ममता तथा वृहस्पति दोनों में से कोई भी उसका पालन पोषण करने को तैयार नहीं हुआ। भारद्वाज को वे वहीं छांड़ गए,। मरुद्गणों ने उसे ग्रहण किया तथा उसे राजा भरत को दे दिया। माना जाता है कि इन्हीं राजा भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत रखा गया। राजा भरत की वंश परंपरा में आगे सुमति हुए, यह जैन धर्म के पांचवें तीर्थंकर के रूप में मान्य हैं। ऋग्वेद में आर्यों के निवास स्थान को ‘सप्त सिंधु’ प्रदेश कहा गया है। विभिन्न पूजा और अनुष्ठान कार्यों में पंडितजी एक संकल्प बोलते हैं। इस संकल्प में उस समय के नक्षत्र, घडी, वार, तिथि, संवत्सर का, स्थान का और यजमान का विवरण उस पूजा के उद्देश्य सहित बोला जाता है। स्थान विवरण में जंबूद्वीप का उल्लेख आता है। हम किसी सार्वजनिक भाषण या वक्तव्य देने के प्रारंभ में जो संबोधन व्यक्त करते हैं, वह इसी संकल्प का प्रतिरूप ही है। इस प्रकार हम उस अवस्था में सन्निविष्ट हो जाते हैं। प्राचीन पूजा पद्वति यह जानने के लिए महत्वपूर्ण स्रोत है कि भारत की क्या समूचे विश्व में जब ज्ञान-विज्ञान की कोई आधुनिकतावादी परंपरा मौजूद नहीं थी, यह पद्वति तब की हैं, और यह पद्वति आज विश्व भर में वक्तृता देने के क्रम में सर्वत्र उपस्थित पायी जाती है। इन पूजन कार्यों में अंतर्निहित संस्कृति के तत्व हमें अपनी ऐतिहासिक और भौगोलिक साक्ष्यों का भान कराते हैं। विदेशी इतिहासकारों को भारत की बहु भाषाओं, क्षेत्रों और उनकी बोलियों में व्यक्त और अव्यक्त विराट सांस्कृतिक विरासत में अंतर्निहित सभी तत्वों का पूरी तरह बोध हो गया हो, यह मानना ज्ञान की धारा को बंद करने जैसा होगा। सबसे पहले महाभारत के आदि पर्व में राजा दुष्यंत और शकुंतला पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत रखा हुआ बताया गया है। इसके बाद यही कथा कालिदास के अभिज्ञान शाकुंतलम् में आई है। इसका कोई ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। हमारे यहां वेदों और उपनिषदों के गूढ़ सूत्रों को समझने के लिए रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों की रचना हुई है। पश्चात्वर्ती कालखंड में इसी आशय से पुराणों की रचना की गई। यह सब कार्य वेदार्थ करने के लिए हुआ हैं। परम ज्ञान का भलीभांति आशय ग्रहण करने में अतिशय कठिनाई होती है। फिर उस अनंत को नाना प्रकार से व्यक्त किया जाना स्वाभाविक ही है। जो भी कह दिया जाता है, उसका सौंदर्य तो उसके साथ रहता है, पर वह पूर्ण और अखंड नहीं होता। इसलिए पुनः-पुनः उस अव्यक्त और परम तत्च को हम अपनी अपनी तरह से व्यक्त करते रहते हैं। अस्तु! राजा दुष्यंत पुत्र भरत को ऐतिहासिक से अधिक लाक्षणिक अर्थ में माना जाना श्रेयस्कर है। यह संभव है कि इस नाम के राजा हुए हों, परंतु उस नामकरण का भी आधार होगा, वह क्या हो सकता है। अतः भारत देश का नामकरण भायं रतः भारतः। भायं अर्थात् ज्ञान और रत अर्थात् उसमें संलग्न रहना। इस आलेख में आगे प़ढ़ते हुए यह तथ्य और स्पष्ट होता जाएगा। आधुनिक विज्ञान यह मानता है कि धरती पर मनुष्य का आगमन करोड़ों वर्ष पूर्व हो चुका था। फिर इतिहासकारों की यह बात अंतिम रूप में कैसे स्वीकार की जा सकती है कि पांच हजार वर्ष पूर्व जो साक्ष्य मिलते हैं, उसके आधार पर मात्र तथ्यों का निरूपण मान लिया जाए। पूजा पद्धति के संकल्प वाचन में लगभग दो अरब के आसपास के समय से अपनी परंपरा जोड़ी जाती है। वायु पुराण में ही कहा गया है- हिमालयं दक्षिणं वर्ष भरताय न्यवेदयत्। तस्माद् तद्भारतं वर्ष तस्य नाम्ना विदुर्बुधाः।। अर्थात् हिमालय से दक्षिण दिशा में अवस्थित भूभाग भारतवर्ष है। अब हम भारत के पूर्व विहित नाम को समझने की चेष्टा करते हैं। इस भूमंडल की संरचना कमल पुष्प की भांति है। मेरू पर्वत और उसके चतुर्दिक व्याप्त भूभाग को भूमंडल कहा जाता है। कमल के पुष्प की ही भांति इसमें सात महाद्वीप हैं, जिनका परिचय इस आलेख ऊपर दिया गया है। जिस प्रकार कमल पुष्प की मध्य कली होती है, पृथ्वी पर जंबूद्वीप उसी की तरह अवस्थित है। यह स्थिति शरीर की भी समझनी चाहिए। शरीर के मध्य सुषुम्णा नाड़ी होती है। सुमेरू पर्वत इस द्वीप में ही स्थित है। सहस्रार चक्र को सुमेरू के रूप में समझा जा सकता है। माला फेरने के समय हम उसके अंतिम मनका जो माला से अलग से जुड़ा रहता है, उसे पार नहीं किया जाता है। माला को वहीं से वापस करते हुए जाप किया जाता है, क्योंकि सुमेरू इस भूमंडल का केंद्रबिंदु है। इस पर्वत पर यह भूमंडल अवलंबित है। आज हम देखते हैं कि कैलास पर्वत माउंट एवरेस्ट से ऊंचाई में छोटा है, परंतु उस पर कोई पर्यटक नहीं जा पाता है, जबकि एवरेस्ट की चोटी पर अनेक पर्वतारोही होकर आए हैं। भारतवर्ष इस जंबूद्वीप पर बसे एक क्षेत्र का नाम है, जो ज्ञान और कर्म की भूमि के रूप में मान्य है। इस जंबूद्वीप में भारतवर्ष ही नहीं है, अपितु और वर्षों का भी अवस्थान है। वर्ष का तात्पर्य भूभाग से है। इसे समय की इकाई के रूप में भी हम जानते हैं। वस्तुतः समय और स्थान महाकाल एवं भूमा तत्व को समझने से सोपान हैं। इन सब वर्षों में भारतवर्ष ही कर्मभूमि है। शेष आठ वर्ष तो स्वर्गवासी पुरुषों के स्वर्गभोग से बचे हुए पुण्यों को भोगने के स्थान हैं। इसलिए इन्हें भूलोक के स्वर्ग भी कहते हैं। श्रीमद्भागवत् 5/7/11 जंबूद्वीप में भारतवर्ष के अतिरिक्त सम्मिलित भू-भागों के नाम हैं- इलावर्त वर्ष, जिसमें भगवान शंकर एकमात्र पुरुष हैं। वे अपनी पत्नी भवानी के साथ इसमें रहते हैं। इस वर्ष में दूसरे किसी पुरुष को आने की मनाही है, यदि कोई ऐसा दुस्साहस करता है तो वह भी स्त्री बन जाता है। भगवान शिव का स्वरूप ध्यानमंगलम् है। भद्राश्ववर्ष के शासक भद्रश्रवा हैं। यहां के भगवान हयग्रीव हैं। हर कल्पांत में जब अज्ञान वेदों को चुराता है, भगवान हयग्रीव आकर वेदों की रक्षा करते हैं और इन्हें ब्रह्मा जी को प्रदान करते हैं। हरिवर्ष में भक्त प्रह्लाद महाराज का निवास है, जो भगवान नृसिंहदेव की पूजा करते हैं। केतुमाल वर्ष में हृषीकेश कामदेव रूप में निवास करते हैं। जो स्त्री हृषीकेश के चरणों का पूजन चाहती है और किसी वस्तु की इच्छा नहीं रहती, उसकी सभी कामनाएं पूर्ण हो जाती हैं, किंतु जो किसी एक कामना को लेकर उपासना करती है, उसे आप केवल वही वस्तु देते हैं। जब उसका भोग समाप्त हो जाता है तो वह नष्ट हो जाती है और फिर उसे संतप्त होना पड़ता है। रम्यकवर्ष में भगवान ने वहां के अधिपति मनु को पूर्व काल में अपना परमप्रिय मत्स्यरूप दिखलाया था। हिरण्यमय वर्ष में भगवान कच्छप रूप धारण करके रहते हैं। वहां पितृराज अर्यमा उनकी उपासना करते हैं। उत्तरकुरूवर्ष में भगवान यज्ञपुरुष वराहमूर्ति धारण करके विराजमान हैं। पृथ्वीदेवी इनकी अविचल भक्तिभाव से उपासना करती है। किंपुरुषवर्ष में भगवान रामचंद्र की उपासना की जाती है, यहां हनुमानजी महाराज अविचल भक्तिभाव से भगवान राम की उपासना करते हैं। जब जब होय धरम की हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी।। तब तब प्रभु धरि विविध शरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।। भगवद्गीता 15/15 में कहा गया है- वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यः अर्थात् सभी वेदों के द्वारा मैं ही जानने योग्य हूं। अस्तु! वैदिक साहित्य के अध्ययन का उद्देश्य भगवान की उपासना करना ही है। यदि यह नही किया गया तो किसी का पठन-पाठन निरर्थक ही है। भारतवर्ष में भगवान दयावश नर-नारायण रूप धारण कर संयमशील पुरुषों पर अनुग्रह करने के लिए अव्यक्त रूप से कल्प के अंत तक तप करते रहते हैं। भगवान बदरीनाथ आज इसी स्थान को कहा जाता है। भारतवर्ष की प्रमुख सांस्कृतिक विशेषता उसकी वर्णाश्रम व्यवस्था है। इस व्यवस्था में वर्तमान में जो व्यवधान देखने को मिल रहे हैं, वे सभी जैसा कि भागवतम् में नारद मुनि कह रहे हैं किसी भी समय व्यवस्थित हो सकते हैं। वर्णाश्रम पद्धति से चलकर व्यक्ति आध्यात्मिक उत्थान करता है। वस्तुतः योगमार्गी होकर कोई व्यक्ति वर्णाश्रम व्यवस्था को आत्मसात करता है, अन्यथा वह अपनी भेदबुद्धि से बाहर नहीं आ पाता। भारतवर्ष में यदि कोई सर्वकाम भक्त है, अर्थात् व्यक्ति यदि कामना पूर्ति के लिए भक्ति करता है तो भी वह भगवान को प्राप्त कर सकता है। ऐसा करते हुए भी वह कर्मयोगी बनकर शुद्ध भक्त और परम ज्ञानी हो सकता है और फिर वह अपने स्वरूप में जाकर स्थित हो जाता है। भागवतम् 2/3/10 में इसे और स्पष्ट करके कहा गया है- अकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत् पुरुषं परम्।। अर्थात् जो व्यक्ति व्यापक बुद्धि रखता है, वह चाहे समस्त भौतिक कामनाएं रखे या उनसे रहित हो या मोक्ष की इच्छा रखता हो, उसे परम पुरुष के ध्यान में प्रवेश करना चाहिए। यह स्वरूपबोध ही भारतबोध है। भारतवर्ष के नाम का यही रहस्य है। इसीलिए यथानाम तथा गुण भारतीय मनीषा ने कहा है। नाम में क्या रखा है नहीं। विष्णुपुराण अध्याय 2 में कहा गया है। जंबू वृक्ष के फल एशियाई हाथियों जितने बड़े होते हैं और जब वे सड़ जाते हैं और पहाड़ों की चोटियों पर गिरते हैं तो उनके रस से एक नदी बन जाती है। जंबू का अर्थ जामुन फल नहीं है, जैसा कि उसका भाषाई अर्थ है। यह उसी तरह है जैसे बद्री नाथ को हम बेर के फल से समझने की चेष्टा करें, क्योंकि बदरी का अर्थ बेर होता है। बदरीनाथ क्षेत्र में बेर वृक्ष पाए ही नहीं जाते है। विष्णुपुराण में अभिव्यक्त रस की नदी का यह रूपक वास्तव में गंगा ही है। यह गंगा भारत में प्रवहमान होकर हम सबको कृतार्थ कर रही है। परंतु इसका परिज्ञान योग-गंगा में स्नात होने के पश्चात ही हो पाता है। हम सबको प्रतीकों में कहे गए इन भारतीय सांस्कृतिक प्रतिमानों का रहस्य समझने की आवश्यकता है। तीव्र जिज्ञासा और उत्कंठ होने पर गुरूकृपा से जब बोध प्राप्त होता है, तब यह ज्ञान रस झरने लगता है- महाभारत में आता है - धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां। धर्म का तत्व गुहा या अपनी अंतरात्मा में सन्निहित है। आगे कबीर भी गाते हैं- रस गगन गुफा में अजर झरै। बिन बाजा झंकार बजै जहां समझ परै जब ध्यान धरै। भारतवर्ष के भूगोल को और इसकी संस्कृति को योगीजन नर शरीर से एकात्म होकर समझते हैं। विश्व के मानचित्र में भारत मध्य में अवस्थित है और यह कमलपुष्प के बीच की पंखुड़ी की भांति दिखता है। मध्य नाड़ी सुषुम्णा नाडी है। इसी का रूपक सरस्वती नदी है, सुषुम्णा की तरह वह भी गुप्त रहती है। चक्रवर्ती राजा का अर्थ मानव शरीर के योग विज्ञान में वर्णित चक्रों के अधिपति होने से है। षट्चक्रों का अधिवास मानव शरीर में होता है। ज बवे उद्बुद्ध होते हैं तो कमलवत हमारे भीतर खिलते हैं। तब कोई चक्रवर्ती बनता हैं पूजा कार्यों में किया जाने वाला चक्र विधान का भी यही आशय है। राजा को सिंह की भांति कहा गया है। वह निर्भय होता है। राजा भरत चक्रवर्ती सम्राट थे। जैन परंपरा के अनुसार भारतवर्ष का नाम प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ के ज्येष्ठपुत्र चक्रवर्ती राजा भरत के नाम पर पड़ा है। भरत का एक अर्थ होता है जो पालन-पोषण करे। श्रीरामचरितमानस में आया है कि भगवान राम के छोटे भाई भरत का नामकरण इसी आधार पर किया गया - विश्व भरण पोषण कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई।। ऋग्वेद में भरत नाम की एक वैदिक जनजाति का उल्लेख है, जिन्होंने दशराज्ञ युद्ध में भाग लिया था। भरत ने पूरे भू-भाग पर शासन किया, इसलिए उनके नाम पर इस देश का नाम भारत रखा गया। पूरे भू-भाग का अर्थ है शरीर के समस्त चक्र, जो संख्या में छः हैं। इन षट्चक्रों का भेदन करके ही व्यक्ति उन पर शासन कर सकता है। राजा भरत के बारे में कहा गया है, उन्होंने पृथ्वी के छः भागों पर विजय प्राप्त की थी। राजा भरत महायोगी थे। योग परंपरा का अनुगमन करने पर चक्रवर्ती राजा होने का और भरत का वास्तविक अर्थ ज्ञात हो पाता है। राजा भरत क्षत्रिय थे। क्षत्रिय वह होता है जो शरीर की रक्षा करे। नर शरीर ही पृथ्वी का भू-भाग है, यह हम आलेख में इससे पूर्व देख चुके हैं। यहां नर-नारी और उनके अनेक भेदों में देखने की आवश्यकता नहीं है। क्षत्रिय चार वर्णों में से एक है। महाभारत की कथा के अनुसार राजा भरत ने शासन चलाने के लिए अपने उत्तराधिकारी का चयन अपनी वंश-परंपरा से नहीं किया। योग्य शासक ही राज-काज चलाने का अधिकारी होता है। योग्य शब्द भी योग से निकला है। योग्यता की खोज ब्राह्मण बने बिना संभव नहीं है। किसी राज्य का उदर पोषण और अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु वैश्य चाहिए तो उसकी सेवा करने लिए शूद्र भी आवश्यक हैं। सेवा करने से अर्थोपागम होना स्वाभाविक है। किसी राज्य की अर्थव्यवस्था के सूत्रधार यह सेवक या शूद्र ही हो सकते हैं। उदर से वैश्यों को संबद्ध किया गया है, हमारे शरीर का उदर भाग संपोषित रहेगा तो शेष शरीर ठीक से क्रियावान रह पाएगा। उदर-पूर्ति के अतिरिक्त इस शरीर की सेवा करने वाले शूद्रों की आवश्यकता समाज संचालन के लिए रहती है। भूमंडल की सेवा करने के लिए अधिकाधिक व्यक्तियों की आवश्यकता है। अस्तु! शरीर के नीचे पादपर्यंत भाग को शूद्रों से ही संबद्ध किया गया है। हमारे देश की जनसंख्या का अधिभाग भी शूद्र ही है। वर्ण व्यवस्था का प्रतीकार्थ यही है। वस्तुतः इन वर्णों में उच्च-निम्न भाव उत्पन्न करने के बाद से विसंगति उत्पन्न हो गई है। आश्रम व्यवस्था में ऐसा कोई विवाद नहीं उत्पन्न होता है। मानव शरीर और भारत के भू-भाग को मिलाकर देखने से एक संगति का निर्माण होता है। इस संगति में ही इस भू-भाग की संस्कृति पुष्पित-पल्लवित हुई है। दुर्भाग्यवश इसमें बाह्य व्यवधानों का जाने-अनजाने समावेश हो जाने से भ्रम की स्थिति निर्मित हो गई है। प्रस्तुत संगोष्ठी अपने प्रतिपाद्य विषय के अनुरूप उपस्थापन करती हुई इस भ्रम का निवारण करने में सहायक सिद्ध होगी, ऐसा हमें विश्वास है। बौद्ध परंपरा में भी भारतवर्ष को मुख्यतः जंबूद्वीप कहा जाता है। तिब्बती बौद्ध धर्म में भारत को म्यागर या फग्युल कहा गया है। म्यागर का अर्थ है विहार या मठ, जबकि फग्युल का अर्थ कुलीनों की भूमि से है। चीनी बौद्ध परंपरा में भारत का नाम तियानझू कहा जाता है, इसका अर्थ दिव्य भूमि से लिया जाता है। भारत का नाम आर्यावर्त वेदों और प्राचीन हिंदू ग्रंथों में मिलता है। गंगा और यमुना नदी के बीच के भू-भाग के लिए यह नाम प्रचलित हुआ है। भारत का यूनानी नाम इंडिका रखा गया। यूनानी इतिहासकार मेगस्थनीज ने अपनी पुस्तक इंडिका का नाम ही इस देश की संस्कृति के बारे में लिखे जाने के कारण दिया है। सिंधु नदी से प्रेरित होकर ग्रीक भाषा में यह नाम दिया गया है। बाइबिलीय हिबू्र भाषा में भारत को होड़ू कहा गया है। यह भी संस्कृत सिंधु से लिया गया है। यहूदियों द्वारा यह नाम प्रयुक्त किया जाता है। भारत का मैसोपोटामियाई नाम मैलुहा है। यह भी सिंधु घाटी सभ्यता के निवासियों को दिया गया नाम है। भारत का फारसी नाम हिंद है। यह नाम भी सिंधु से लिया गया है। बाद में इसी से हिंदुस्तान शब्द प्रचलित हुआ। सिंधु भारत का वैदिक कालीन नाम है। सिंधु नदी के किनारे बसे होने के कारण इस अंचल को यह नाम दिया गया। अंग्रेजों द्वारा इसे यूनानी भाषा के प्रभाव से इंडिया कहा गया और यह भारत का संवैधानिक नाम भी है। संविधान के अनुच्छेद एक में ही कहा गया है- इंडिया दैट इज भारत। इंडियन नाम का प्रयोग अतीत में अमेरिका के मूल निवासियों के लिए किया जाता था। अब इसका प्रयोग पुराना और अपमानजनक माना जाता है। आज यदि कोई भारत के निवासियों से घृणा करता होगा और वह कुछ ऐसा अपमानजनक भाव रखता होगा तो यह समस्या उसकी है, भारत नाम की नहीं। -ध्यानमंगलम्, सिल्वर सिटी, कैलगुवां रोड, ललितपुर उप्र-284403 मो 9236114604

Saturday, July 19, 2025

रामायण में रूपक योग

रामायण में रूपक योग विदित है कि विश्व का आदि महाकाव्य रामायण रचने की प्रेरणा महर्षि वाल्मीकि को तब हुई, जब एक आखेटक द्वारा मैथुनरत क्रोंच युगल में से नर क्रोंच को मार दिया गया और इसे वाल्मीकि ने देखा। इस संताप से दुःखी अंतर्मन से अयोध्या की निर्मिति की कल्पना आदि कवि में सृजक मन में उदित हुई। अयोध्या वह है, जहां चंचल मन शांत होकर निर्द्वंद्व एवं वृत्तियुद्ध विहीन हो जाए। साधक को साध्य से मिलने की तड़पन तब अधिक तीव्र हो जाती है, जब नर क्रोंच (आत्मा) और मादा क्रोंच (शरीर) के मधुर मिलन के दौरान आत्मा अर्थात् नर क्रोंच का बध कर दिया गया हो। अयोध्या नगरी की स्थापना मनु अर्थात्् मन की उच्चतर अवस्था द्वारा हुई। मन सदा वृत्तियों के युद्ध से पीड़ित रहता है। मन जब निर्द्वंद्व एवं वृत्तियुद्ध विहीन होता है, रामायणकार तब उस दशा को अयोध्या कहते हैं। अयोध्यापुरी का विस्तार दस और दो अर्थात् दस इंद्रियों एवं मन और बुद्धि के संयोग से किया गया है। पुरुष सूक्त में त्यत्तिष्ठद्दशांगुलम् को भी इसी अर्थ में ग्रहण करना चाहिए। तंत्रशास्त्र में बार-बार द्वादशांत का उल्लेख हुआ है, उसे श्वांस-प्रश्वांस के बारह अंगुल बाहर और भीतर के आकाश को निरूपित करते हैं। यह भी प्रकारांतर से अयोध्या ही है। अयोध्यापुरी का विस्तार द्वादश पर्यंत ले जाने की योजना की गई है। यह योजना ही योजन है। संत ज्ञानेश्वर के एक अभंग में आया है- शब्द बिना संवाद बिना दूसरे के अनुवाद- इसका आशय है कि मेरी आंखें बंद थीं। कान सुन रहे थे, परंतु शब्दों के आशय न समझकर मेरे मनःचक्षुओं के सामने उन घटनाओं के चित्र सरकते थे। रामायण में आया चित्रकूट इसी अवस्था का अभिधान है। श्रीमती त्रीणि अर्थात् तीन मुख्य नाड़ियां योग मार्ग के रास्ते हैं- इड़ा, पिंगला एवं सुषुम्णा। इस नगरी के राजा दशरथ है। कठोपनिषद 1.3.3 में दिए गए एक रूपक के अनुसार यह शरीर एक रथ है, बुद्धि उसका सारथी और मन लगाम है। शरीर रूपी इस रथ का स्वामी आत्मा है। एक इंद्रिय का स्वामी एक रथ है तो दस इंद्रियों के स्वामी दशरथ हैं। दशरथ रूप पिण्ड का आत्मानंद रूप ‘राम’ पुत्र है। योगियों के चित्त में रहने वाले आत्मानंद को ‘राम’ कहते हैं। रमंते योगिना चित्तस्य इति रामः। राम जैसे पुत्र की प्राप्ति साधना रूप यज्ञ के परिणामस्वरूप होती है। जीवन यज्ञ में अर्पण का साधन, जिसे पूजा पद्धति में स्रुवा कहा जाता है, वह ब्रह्म है। हवन किए जाने योग्य द्रव्य भी ब्रह्म हैं तथा ब्रह्मरूप क्रिया भी ब्रह्म है। उस ब्रह्म कर्म में स्थित रहने वाले योगी द्वारा प्राप्त किए जाने योग्य फल भी ब्रह्म ही है। राजा दशरथ के अष्ट प्रधान सलाहकार अष्टांग योग की आठ साधनाएं हैं। राजा दशरथ की तीन रानियां कुशलता से साधना करने वाली वृत्ति कोसल्या हैं, कायाभाव से ऊपर रहने वाली वृत्ति कैकेयी तथा सभी से प्राणि भाव से मित्रता का बर्ताव करने वाली वृत्ति रानी सुमित्रा हैं। साधक द्वारा व्यवस्थित साधना करने पर भी प्रतिफल न मिलने पर वह बेचैन रहता है। यह प्रतिफल अपत्य या पुत्र प्राप्ति की इच्छा कही जाती है। तब साधक वाजिमेध अर्थात् कामना से किया जाने वाला अश्वमेध यज्ञ करते हैं। यह यज्ञ सरयू नदी के किनारे किया जाता है। ब्रह्म की ओर ले जाने वाले चित्त प्रवाह को रामायणकार सरयू कहते हैं। सरयू नदी का प्रवाह अयोध्या नगरी के समीप रहता है। साधना के लिए इष्ट वृत्तियां साधक में बसना आवश्यक हैं। इन्हें वसिष्ठ कहते हैं। इनके द्वारा यज्ञ करने का निर्देश किए जाने पर राजा दशरथ पुत्रकामेष्टि या अश्वमेध यज्ञ करते हैं। पुत्रकामेष्टि यज्ञ करने के लिए विभाण्डक ऋषि के पुत्र ऋष्यशृंग को बुलाया जाता है। विभाण्डक अर्थात् साधक की विशुद्ध अवस्था। इनका पुत्र ऋष्यशृंग अर्थात् ऋषियों में शृग अर्थात् उच्च अवस्था में हो। ऐसा उच्च ऋषि ही यज्ञ का मुख्य होता बनने के योग्य हो सकता है। ऋष्यशृंग को अयोध्या बुलाने के लिए राजा दशरथ ने वारवनिताओं को भेजा, उनमें से एक ने नादब्रह्म रूप गायन सुनाकर ऋष्यशृंग को आकर्षित किया। निर्द्वंद्व चित्त की ओर वृत्ति शून्य दशा में ब्रह्मानंद सूचक अनाहत नाद साधक को सुनाई देता है। इस प्रसंग में यह वेश्याएं अनाहत नाद हैं, जिनसे मोहित होकर ऋष्यशृंग अयोध्या में आते हैं। वैदिक परंपरा में ब्रह्मचारी व्यक्ति यज्ञ का पौरोहित्य नही ंकर सकते। यज्ञ करने का अर्थ है कुछ चाहना। जो ब्रह्म का आचरण करने वाले हैं, वे सदा अचाह रहते हैं, इसलिए वे पौरोहित्य कर्म नही ंकर सकते। तब ऋष्यशृग के विवाह के लिए एक शांता नामक लड़की खोजी जाती है। यह राजा दशरथ की दत्तक पुत्री थी। ऋष्यशृंग का शांता से विवाह कराया जाता है। शांता अर्थात् शांत वृत्ति। वैदिक परंपरा में सभी ऋषि मुनि विवाहित बताए गए हैं, तब भी वे ब्रह्मचारी हैं। आध्यात्मिक पुरुष के अंतःकरण में जा पशुभाव है, साधनरूप यज्ञ में उसकी बलि दी जाती है। पशुभाव से मुक्त होने के लिए तीन सौ बार अर्थात् अनेक बार उस पशुभाव रहित अवस्था को नियमित करने पर राजा दशरथ को उत्तम अश्व अवस्था प्राप्त होती है। पशूनां त्रिशतं तत्र युपेषु नियतं तदा में बलि देने का वास्तविक अर्थ उक्तवत ही है। श्व संस्कृत की एक अद्भुद घ्वनि या धातु है। श्वान कुत्ते को कहा गया क्योंकि उसमें रजस गुण की तीव्रता रहती है। वह अपनी श्वासं को गहराई से बार-बार लेता और छोड़ता है, उसमें बेचैनी देखी जाती है। श्वान को पालना इसीलिए निषिद्ध माना गया है। बिल्ली में तामसिक प्राण होते हैं, इसलिए उसके द्वारा रास्ता काटने पर कुछ पल ठहरकर यात्रा प्रारंभ करते हैं। सर्वाधिक सात्विक प्राण देसी गाय के गोबर में होते हैं। इसीलिए गाय का महत्व निरूपित किया गया है। चांडाल को श्वपाकी कहते हैं, क्योंकि वह अपनी श्वास विशेष या अवस्था विशेष पर अवलंबित रहता है। इसे इसीलिए वर्णबाह्य माना गया है। अश्व घोडे को कहा गया है। यह बल या ताकत का पर्याय है। योग शास्त्र में स्पष्ट निर्देश है कि श्वास के अवलंब के बिना ही हम बलशाली हो सकते हैं। इसमें कुंभकों की विभिन्न दशाओं का निर्देश आता है। अश्व अवस्था से बाहर आने की क्रिया को अश्वमेध कहते हैं। घोड़े का बध करने से इसका वास्तविक आशय योग विज्ञान में समझ बढ़ाने के बाद ग्रहण हो पाता है। अश्वमेध प्राणायाम की क्रिया का हिस्सा है। प्राणायाम प्रक्रिया में सिद्ध होने पर साधक की श्वास का आना-जाना किसी समय ठहर जाता है। प्राणायाम में इसे केवल कुंभक, किंतु महर्षि वाल्मीकि एवं वेदव्यास इसे अश्व अवस्था कहते हैं। इसी अवस्था में साधक समाधि लाभ ग्रहण कर पाता है। और तभी वह वास्तव में ब्रह्मज्ञानी और ब्राह्मण बनता है। केवल कुंभक में मन विचलित होता है, परंतु शरीर को कुछ नुकसान नहीं होता। साधक मन की विचलन को भी नष्ट कर देना चाहता है, अश्वमेध इसी अवस्था को कहा जाता है। राम पुत्र प्राप्ति इसी अवस्था में हो पाती है। राजा दशरथ की तीन रानियां पूरी रात उसी अश्व की सेवा कर उससे समागम करती हैं। यह समागम अर्थात् वृत्तियों का समाधि अवस्था में जाना मध्य रात्रि में होता है, तत्पश्चात् देवताओं द्वारा पायस अर्थात् दिव्य शक्ति साधक को उच्च अनुभूति रूप पुत्र प्राप्ति कराती है। शरद पूर्णिमा अर्थात् आश्विन या क्वांर माह की पूर्णिमा की रात्रि खीर बनाकर ग्रहण कराने की परंपरा इसी का प्रतिस्मरण है। योगी जन रात्रि को कठिन साधनाएं करते हैं। गुफाओं में जाकर साधना करने का भी यही रहस्य है। पायस या खीर वृत्ति रूप रानियों ने ग्रहण की होती है। अधिक समय तक पशुभाव से विरहित अश्व अवस्था में स्पंदित होने साधक का शरीर स्वर्ण जैसा निर्मित हो जाता है, अर्थात् कंचन काया बन जाती है और अनेक अपत्य ‘पुत्र पौत्रान्’ की उपलब्धि होती है। राजा दशरथ को चार पुरुषार्थ बताने वाले चार पुत्र प्राप्त होते हैं। राम अर्थात् आनंद रमयति इति रामः। दूसरे भरत अर्थात् वैराग्य, ज्ञान, जो भ याने ज्ञान में रत हो। लक्ष्मण अर्थात् विवेक, लक्ष्यं$अनः जो अपने लक्ष्य की ओर स्पंदित है अर्थात् जाग्रत है। जिसका कोई शत्रु नहीं है, जिसने अपने मन से शत्रुत्व की भावना हटा ली है, हन- नष्ट कर ली है, उसे शत्रुघ्न कहते हैं। राम का भूमि से प्राप्त अर्थात् पुथ्वी से निकली सीता से स्वयंवर विवाह होता है। सीता शक्ति हैं और राम शिव। शक्ति बिना शिव का प्रकटन संभव नहीं और शिव के बिना शक्ति का आधान नहीं हो सकता। अर्द्धनारीश्वर की उपासना इसीलिए की जाती है। साधक यदि सीता रूपी अपने जड़ शरीर को सुख देगा तो वह कभी भगवान राम नहीं बन सकेगा। राम ने सीता रूपी जड़ शरीर को कष्ट दिया, फिर भी सीता राम से एकनिष्ठ रहीं। साधना रूपी कष्टमय जीवन के वनवास में भी राम से अलग नहीं रहीं। रामरूप साधक जब ज्ञानरूप भरत से एकरूप होता है तब उसकी भेंट चित्रकूट पर होती है। यह अपने अंदर की ज्ञानावस्था है। साधक यदि थोड़ा आमोद-प्रमोद में संलग्न हुआ तो उसका अहंकारी रूप रावण सीता रूपी जड़ शरीर का हरण कर लेता है। फिर भी सीता राम के प्रति एकनिष्ठ रहती है। अहंकारी रावण स्वयंवर के समय शिवधनुष भंग न कर पाने पर भी सीता का पीछा नहीं छोड़ता। पंच कमेंद्रियों से बनी पंचवटी में वह सीता को ले जाता है। राम के विरह मे सीता को पृथ्वीत त्व में पुनः प्रतिष्ठित हो जाती हैं। समाधि की श्रेष्ठ अवस्था पाने की इच्छा करने वाला बाली (बा अलम्) अपने पीछे पड़े हुए दुंदुभिनाद रूप राक्षस को मारने के लिए उसका पीछा करता है और उसको नष्ट कर अपनी राजधानी किष्किंधा रूप समाधि अवस्था में लौट आता है। मेघों का नाद सुनने वाला श्रेष्ठ साधक रावणपुत्र मेघनाद है, जो संयमी है, इसीलिए इंद्रजित है। साधक जब उच्च तत्व में प्रविष्ट होता है तो उसे कायारूपी सीता इसी पृथ्वी पर छोड़नी पड़ती है। सीता कभी सुखी नहीं रहीं। रावण चिल्ला चिल्लाकर अपना ज्ञान दूसरों को सुनाता था, उस पर राम ने नौ दिन शक्ति की आराधना करके विजयादशमी के दिन विजय प्राप्त की। आकाशतत्वीय राम के वाहक वायुतत्वीय वायुसुत हनुमान बने। राम ने राज्याभिषेक होने के बाद पुनः सीता रूपी पृथ्वीत त्व का त्याग कर स्वतः आत्मस्थ होकर सरयू में समाविष्ट होकर निर्वाण प्राप्त किया। सरयू के रूपक के बारे में ऊपर संकेत किया जा चुका है। रावण को अपने दस ग्रंथों का मुखोद्गत पाठ के अहंकार ने दसमुखी बनाया है, परंतु राम अपने दश इंद्रियों रूपी रथ पर सवार होकर रावण के दशों मुख काट दिए, फिर भी वह मरा नहीं, क्योंकि उसकी नाभि में अमृत जो था। प्राण रूपी अमृत नाभिदेश में रहता है, इसकी सूचना अहंकारी रावण के अन्य भाई सात्विक वृत्तिरूप विभीषण द्वारा ही राम को दी जाती है और वे उसमें वाण संधान करके रावण को मार देते हैं। मरने के बाद रावण की प्राण ज्योति राम में विलीन हो जाती है। रामायण और महाभारत की कथाओं को जो लोग काल्पनिक कहते है, वे ऐसा करके वस्तुतः उन महाकाव्यों के सार्वकालिक महत्व और मानव मात्र के लिए उसकी उपादेयता को तिरोहित करते हैं। अगर वह कल्पना है भी तो ऐसी कि जो सारे जीवन यथार्थ का परिज्ञान कराती है। इस कल्पना का हम सबको आश्रय लेना चाहिए। इन कहानियों के माध्यम से व्यक्ति को उसके जीवन की आदर्श और यथार्थ परिस्थितियों का सम्यक् परिशीलन होता है। जो वर्ग इनसे अपना संबंध जोड़ते हैं, उनके ऐसा करने पर किसी को कोई नुक़सान नहीं है। यह कथा जन गण के मन की ही है। जो उससे जुड़ेगे उनका लाभ ही है। रामायण के उक्त रूपक योग से उस कथा में अंतर्निहित महत्व का, घटनाओं की कालक्रमिकता का, बाह्य परिवेश से भीतरी चित्त का एवं भारतीय परंपरा का बोध प्राप्त होता है। रामायण, महाभारत, पुराण, भागवत इत्यादि महाकाव्यों में जड़ इतिहास खोजने की आवश्यकता नहीं है, वे तो वेदज्ञान सम्मत कथाएं हैं, जिनमें साहित्यिक उत्कर्ष का दर्शन भी होता है। रामायण के सारे कथा प्रसंग दिव्य साधना अवस्थाओं के रूपकात्मक वर्णन हैं। साधक इन्हें समझकर आत्मारूप राम के अयन याने उस मार्ग में अग्रसर होता है।

Friday, July 18, 2025

कृष्ण और अर्जुन के नामो की प्रतीकात्मकता

श्रीमद्भगवद्गीता को हमारी युवा पीढ़ी अपने दिवंगतजन की तेरहवीं संस्कार में वितरित करते हुए पुस्तक परिचय के रूप में जान पाती है। प्राण छूटते समय व्यक्ति के परिजन गीता के कुछ श्लोक पढ़कर जाते हुए व्यक्ति को सुनाते हैं। गीता एक महान रचना है, इसलिए इसके कतिपय शब्दों की भनक कान में पड़ जाएगी तो उसका भी प्रभाव हमारे जीवन पर अवश्य होगा, परंतु गीता केवल इतने भर के लिए नहीं है। जब हम वयस्क हो जाते हैं तो सर्वप्रथम गीता के अर्थ को जानकर आजीविका में प्रवेश करना चाहिये। गीता का अर्थ विशेष तभी जान सकते हैं जब हम उसमें ही दी हुई विधि के अनुसार उसे जानने का यत्न करें। प्राणायाम और योग गीता में ही दिया गया है, किंतु यह उसमें सूत्र रूप में मिलता है। उसे डिकोड करके ही जाना जा सकता है, इसके लिए हमें गुरु की आवश्यकता होती है। इस रहस्य को समझने की चेष्टा के कारण ही गीता की सैकड़ों व्याख्याएँ मूर्धन्य मनीषियों द्वारा की गई है। हम कितनी ही और किन्हीं की गीता व्याख्या को पढ़ लें, ज्ञानार्जन तो होगा, अनुभववर्धन नहीं हो पाता। अनुभव स्वयं करने पर होता है, कैसे करना है, उसके लिए महान गुरुजन ने गीता में आए शब्दों और पात्रों की प्रतीकात्मक विवेचना की है, हमें उसे समझना होगा। इस समझ को धारण करते हुए ध्यान में उतरने के बाद जो अनुभव होंगे, वे गीता और उसके ज्ञान को समझने में सहायक होंगे। गीता को समझने का यही उपाय है। श्लोकों को याद करके उनके दिये गये अर्थ सुनने सुनाने से उसका बाहरी रूप ही ज्ञात होता है। इतने से हमारा भ्रम दूर नहीं हो पाता है। अनुभवों को जानने के लिए गीता के पात्रों की प्रतीकात्मकता जानेंगे, यह योग का मार्ग प्रशस्त करेगा। धृतराष्ट्र का अर्थ है अंधा मन। जो अपना राष्ट्र पकड़कर रखे हुए है। इंद्रियों के राज्य को धारण करने के कारण यह धृतराष्ट्र हैं। संजय- निष्पक्ष अंतर्निरीक्षण, जिन्होंने पूर्ण रूप से विजय प्राप्त कर ली हो। ऐसे ही व्यक्तियों को वह दैवी अंतर्दृष्टि प्राप्त होती है। जिससे वह अपने भीतर और दूर का देख सकें। कौरव- अनैतिक और मानसिक ऐंद्रिक वृत्तियों का समूह है। पांडव- शुद्ध विवेकवान वृत्तियाँ है। धर्मक्षेत्र- पवित्र मैदान है, जिस पर कुरुक्षेत्र अवस्थित है। कुरुक्षेत्र कर्म संपादन के लिए विहित मैदान है। कुरुक्षेत्र पर कौरव और पाण्डव अपनी सर्वोच्चता स्थापित करने के लिए संघर्ष करते हैं। कुरु संस्कृत क्रि से निष्पन्न शब्द है, जिसका अर्थ है कार्य या भौतिक क्रिया। क्षेत्र उस मैदान को कहते हैं, जिस पर यह क्रिया या कार्य किए जाते हैं। सांसारिक चेतना कुरुक्षेत्र पर कार्य करती है तो आध्यात्मिक चेतना धर्मक्षेत्र में कार्यरत रहती है। बुद्धि विवेकवान प्रज्ञा का नाम है, यह रूपक में पांडु से जुड़ती है, पांडु की पत्नी कुंती हैं, जो नैतिक सिद्धांतों को धारण करती हैं। पांडु पंड से निष्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है श्वेत । श्वेत रंग शुद्ध दशा का द्योतन करता है। बुद्धि पांडु का प्रतिनिधित्व करती है। पांडु निवृत्ति सूचक हैं। बुद्धि अधिचेतन से प्रेरित होकर सन्मार्ग की ओर ले जाती है। बुद्धि शाश्वत वास्तविकता अर्थात् सत्य की ओर ले जाती है। मन अंधे राजा धृतराष्ट्र का प्रतिनिधि है, जिसके एक सौ पुत्र हैं। यह प्रवृत्ति सूचक हैं। मन इंद्रियों के माध्यम से कार्य करता है, इंद्रियाँ भौतिक सुखों को खोजती रहती हैं। मन इंद्रिय चेतना है। यह ऐसी लगाम है जो इंद्रिय रूपी घोड़ों को चलाती है। शरीर रथ है। आत्मा इस रथ की मालिक है। मन को अंधा कहा गया है, क्योंकि यह बिना इंद्रिय और बुद्धि के देख नहीं पाता। अगर हम विवेकी बुद्धि से परिचालित हुए तो इंद्रियाँ नियंत्रित रहती हैं किंतु यदि बुद्धिमत्ता सांसारिक इच्छाओं से शासित हुई तो इंद्रियाँ अनियंत्रित हो जाती हैं और वे विनाशकारी आदतों का निर्माण करती हैं। मन एक सूक्ष्म चुंबकीय पोल है, जो सदा इंद्रियों को अपनी खुराक देता रहता है। शरीर रचना विज्ञान में आता है कि मेडुला ओब्लांगटा और मध्य मस्तिष्क के बीच एक पोंस वरोली (pons varolii) होती है। यह सेतु का काम करती है, जो अनुमस्तिष्क को प्रमस्तिष्क से जोड़ती है और मस्तिष्क के विभिन्न क्षेत्रों और मेरुमज्जा के बीच संकेतों का संचार करती है। पोंस श्वास और नींद जैसे महत्वपूर्ण कार्यों के नियमन में भी शामिल है।यह मन ही है। गीता में कृष्ण और अर्जुन अर्थात् गुरु और शिष्य का संवाद व्यक्त हुआ है। इस ग्रंथ में कृष्ण और अर्जुन के अलग अलग अनेक नामों से उन्हें अभिहित किया गया है। उन सब अलग अलग नामों के अपने अपने विशिष्ट अर्थ हैं। उन्हें यहाँ जान लेना उपयुक्त होगा... भगवान कृष्ण: अच्युत- जो परिवर्तित न हों, जिनका जोड़ न हो। अनंतरूप- जिनके अलग अलग रूप हैं, और वे कभी समाप्त न हो। अप्रमेय- जिन्हें मापा न जा सके। अप्रतिमप्रभाव- जिनकी शक्ति कभी तोली या नापी न जा सके। अरिसूदन- शत्रु को नष्ट करने वाले। भगवान- ऐश्वर्यवान देव- भगवान देवेश- देवताओं के स्वामी। गोविंद- चरवाहों के प्रमुख, इंद्रियों रूपी गायों को नियंत्रित करने एवं उन्हें चराने वाले। हरि- हृदय को चुराने वाले या आकर्षक लगने वाले। हृषिकेश- इंद्रियों के अधिष्ठाता या भगवान। ईशम ईद्यम- वंदनीय जगन्निवास- ब्रह्मांड के संरक्षक। विश्व को जो आकर्षित करें। जनार्दन- मनुष्य की प्रार्थनाओं को पूरा करने वाले। कमल पत्राक्ष- कमल के से नेत्रों वाले। केशव, केशिनिसूदन- केशि राक्षस का संहार करने वाले, दोषों को नष्ट करने वाले। माधव- भाग्य के भगवान मधुसूदन- मधु राक्षस का संहार करने वाले अर्थात् अज्ञान को नष्ट करने वाले। महात्मन्- संप्रभु आत्मा प्रभु- स्वामी के भगवान प्रजापति- असंख्य वंशों के दैवी पिता पुरुषोत्तम- सर्वोच्च स्पिरिट सहस्रबाहो- हज़ार भुजाओं वाले वार्ष्णेय- वृष्णि गोत्र के वंशज वासुदेव- विश्व के भगवान, जनक/पालक/संहारक ईश्वर। विष्णु- सर्वव्यापी रक्षक विश्वमूर्ते- ब्रह्मांड स्वरूप यादव- यदुवंश के उत्तराधिकारी योगेश्वर- योग के भगवान अर्जुन: अनघ- पाप रहित भारत- राजा भरत के उत्तराधिकारी भरतश्रेष्ठ- भरत राजाओं में श्रेष्ठ भरतर्षभ- भरत का बैल या बछड़ा अर्थात् भरत राजवंश का महान और श्रेष्ठ उत्तराधिकारी भरतसत्तम- भरत राजाओं में श्रेष्ठ देहभृतं वर- देहधारियों में सर्वोच्च। धनंजय- धन को जीतने वाले। धनविजयी। गुडाकेश- निद्रा को जीतने वाले(सदा तत्पर, निद्राविजित, माया को पराभूत करने वाले। कौंतेय- कुंती के पुत्र किरीटिन- मुकुटधारी कुरुनंदन- कुरु वंश के चहेते और गौरवशाली पुत्र कुरुप्रवीर- कुरु वंश के महान नायक कुरुसत्तम- कुरु श्रेष्ठ कुरुश्रेष्ठ- कुरु राजकुमारों में श्रेष्ठ महाबाहो- बलशाली भुजाओं वाले पांडव- पांडु के उत्तराधिकारी परंतप- शत्रुओं को भस्मीभूत करने वाले पार्थ- पृथा पुत्र पुरुषर्षभ- मनुष्यों में पुष्प( मनुष्यों के प्रमुख या वृषभ) पुरुष व्याघ्र- मनुष्यों में बाघ। निर्भय और शत्रुंजयी। सव्यसाचिन- किसी भी हाथ से धनुष वाण चलाने वाले।

महाभारत के पात्रों का योग रहस्य

श्री मद्भगवद्गीता महाभारत के भीष्म पर्व का भाग है। महाभारत दो पक्षों के बीच के भीषण युद्ध का काव्यात्मक चित्रण करता हुआ संस्कृत भाषा में निबद्ध महाकाव्य है। किसी युद्ध में पुरुषों या नर का ही वर्चस्व देखा जाता है। युद्ध की प्रकृति स्त्रियों के अनुकूल नहीं रहती अथवा कहा जाय स्त्री की प्रकृति युद्ध करने की नहीं है, किंतु युद्ध में जिस शक्ति की आवश्यकता होती है, वह स्त्री से ही आती है। उसकी मृदुता में कैसी दृढ़ता का सन्निवेश है। यह हम सबको ज्ञात कर लेना चाहिए। इसके ज्ञान के लिए हमें महाभारत को योग परंपरा से समझना आवश्यक होगा। महाभारत की ऐतिहासिकता से अधिक उसकी प्रतीकात्मकता जानना हमारे लिए अधिक महत्वपूर्ण है। कहानी के रूप में महाभारत को उसकी बोधगम्यता के लिए प्रस्तुत किया गया है। यह कहानी भी बेजोड़ है। इसमें जीवन के सभी संदर्भों को अनुस्यूत कर लिया गया है। महाभारत के पात्रों के निहितार्थ ग्रहण करने के लिए हमें योग परंपरा में उतरना होता है। इस परंपरा में ज्ञान किताबी नहीं होता, यह श्रुति परंपरा भी नहीं है, यह तो स्वयं ज्ञान हो जाने अर्थात् अनुभव में उतर जाने की परंपरा है। योग मनीषियों ने अपनी समाधि दशा में जो कुछ अपने शिष्यों के सामने व्यक्त किया अथवा कुछ संकेत किए या सूत्र दिए, उनकी कृपा से प्राप्त अनुभव से उनके आधार पर हम भारत की ज्ञान परंपरा को उसके वास्तविक रूप में समझ पाने में समर्थ हो सकते हैं। इस दृष्टि से श्रीमद्भगवद्गीता की व्याख्या काशी के जिन क्रियायोगी महापुरुष ने की है, वे श्री परमहंस प्रणबानंद जी हैं, जिनके अनुभवाभाष बंग भाषा के वचनों को सुनकर हिंदी में प्रणब गीता नाम से ज्ञानेंद्रनाथ मुखोपाध्याय ने 1917 में पहली बार प्रकाशित कराया। प्रस्तुत आलेख की विषय वस्तु श्री प्रणब गीता पर आधारित जानकारी से ली गई है। महाभारत में कौरव और पांडव पक्षों के जो पात्र वर्णित हुए हैं, वस्तुतः उनका ऐतिहासिक संदर्भ लेने भर से बात नहीं बन पाती है, महाभारत के पात्रों का एक आध्यात्मिक अर्थ है। महाभारत की कथासार कहने की आवश्यकता यहां नहीं है, उससे हमारे आबालवृद्ध सब परिचित ही हैं। महाभारत में आए स्त्री पात्रों के नाम और उनका आध्यात्मिक अर्थ दिया जाना यहां समीचीन होगा- गंगा- चैतन्या प्रकृति सत्यवती- जड़ प्रकृति अंबिका- संशय वृत्ति अंबालिका- निश्चय वृत्ति गांधारी- प्रवृत्ति शक्ति कुंती- निवृत्ति शक्ति माद्री- निवृत्ति आसक्ति द्रौपदी- कुलकुंडलिनी सुभद्रा- अतिशय मंगलशक्ति स्त्री पात्रों की प्रकृति समझने के लिए हमें महाभारत के पुरुष पात्रों के आध्यात्मिक अर्थ को जानना भी आवश्यक होगा। गीता के प्रथम श्लोक में धृतराष्ट्र नामक पात्र समुपस्थित हुए हैं। धृतराष्ट्र धृतं राष्ट्रं येन सः धृतराष्ट्रः। धृत का अर्थ है जो पहले से धारण किया हुआ है और राष्ट्र अर्थात् राज्य। जो पहले से किसी राज्य को धारण कर रहे हैं, वे धृतराष्ट्र हैं। इस शरीर रूपी राज्य को सुख-दुःख पूर्वक भोग करने वाला धृतराष्ट्र समझा जाना चाहिए। शरीर के सुख-दुःख का भोक्ता मन होता है। संजय साधक की क्रियालब्ध मानस दृष्टि, अंतर्दृष्टि या दिव्य दृष्टि का नाम है। दुर्योधन का अर्थ है दुःख में युद्ध करना। जिसके साथ अतिकष्ट में युद्ध किया जाए, वही दुर्योधन है। कामना या विषय वासना दुर्योधन का लक्षित रूप है। धृतराष्ट्र अर्थात् मन का यह ज्येष्ठ पुत्र है। द्रोण संस्कारज बुद्धि का नाम है। इसीलिए वह द्विज हैं। जैसे कौआ दो आंखें होते हुए भी एक आंख से ही देखने के लिए विवश होता है। सर्वतोमुखी होने पर भी एक ओर लक्ष्य रखने से यह बुद्धि निर्मल नहीं है। युयुधान- श्रद्धा है। यह अकेले होते हुए भी अनंत विपक्ष सैन्य समूह के साथ युद्ध करने की क्षमता रखती है। श्रद्धा का फलक विस्तीर्ण है, यह राई से पर्वत और पर्वत से राई करने की क्षमता रखती है। विराट का आशय समाधि से है। वि- विगत राट्- राज्य। जो अपना राज्य दूसरों के हाथ में देकर सदा अलग रहते हैं। द्रुपद। द्रु- द्रुत पद- गमने। अंतर्यामीत्व शक्ति, वैद्युतिक शक्ति या तीव्रवान वेग से संपन्न योद्धा। धृष्टकेतु यम के अर्थ में ग्रहणीय है। सा धृष्टानि- संयतानि, केतनानि- स्थानानि। अर्थात् जिस अवस्था में स्थान समूह यानि छहों चक्रों की क्रियाएं संयत होती हैं। चेकितान- स्मृति। क्षीण झिंझिट स्वर जो अनहद नाद से पूर्व सुना जाता है। काशिराज- प्रज्ञा, श्रेष्ठ, प्रकाश शक्ति को कहा गया है। पुरुजित्- प्रत्याहार, सामान्य विश्राम की अवस्था है। कुंतिभोज- आसन दशा है। कुन्- कर्षण। शैव्य- नियम है, यह कल्याण दायिनी शक्ति है। युधामन्यु- प्राणायाम के अर्थ से है। युद्ध सुनते ही जिनके क्रोध का उदय होता है। उत्तमौजा- वीर्य के अर्थ से है। सौभद्र- संयम। धारणा, ध्यान और समाधि का एकत्र समावेश। अभिमन्यु को यह कहा गया है। द्रौपदेय- पंचबिंदु। पंचीभूत दशा को उपलब्ध। पांडु, जिसकी बुद्धि निर्मल है। पांडु ने विषय भोग परित्याग कर एकमा़त्र ईश्वर की आराधना में मन लगाया था। यह निर्मल बुद्धि भी जीव का बंधन है। इसे लय करने के लिए थोड़ी आसक्ति का प्रयोग करना पड़ता है। माद्री में आसक्त होने के कारण पांडु की मृत्यु होने का यही तात्पर्य है। निर्मल बुद्धि में कोई पुरुष होकर भी नपुंसक हो सकता है। भीष्म- आभास चैतन्य या अस्मिता का नाम है। अविद्या जनित अहंकार बड़ा भीषण होता है। कर्ण- कर्तव्य कर्म या राग विकर्ण- अकर्तव्य कर्म या द्वेष कृप- कल्पना या अविद्या। अश्वत्थामा- रुद्र, यम, काम और क्रोध इन चारों शक्तियों का एकत्र समावेश या कर्मफल। यह अमर माना गया है, क्योंकि कर्मफल की शृंखला विच्छिन्न नहीं हो पाती। एक के कर्मफल द्वारा दो तीन पुरुष पर्यंत भोग भोगना पड़ता है। विशेषतः पितामह का दोष-गुण पौत्र पर उतरता है। सौमदत्ति- भूरिश्रवा- भूरिश्रवति यः सः। कर्म अथवा संसार। जयद्रथ- अभिनिवेश या मृत्युभय। शल्य- कंटक या शैल, जिसके रहने से क्रमान्वय क्लेश भोगना पड़ता है। कर्म संस्कार चाहे अच्छा हो या बुरा, वह जीव के संसार बंधन का कारण है। इसलिए शल्य जीव का संस्कारज कर्म है। क्रतवर्मा- शरीर के प्रति मोह अथवा शरीर की रक्षा करने की प्रवृत्ति का अर्थसूचक पात्र है। युद्धविशारदाः- वह सब वृत्तियां जो सत्कर्म की सिद्धि के पक्ष में कंटक स्वरूप होने से जीव को संसार मार्ग से आबद्ध कर रखने के लिए समर्थ हैं। उन सबमें कोई एक भी रहने से जीव का निस्तार नहीं होता। धृष्टद्युम्न- द्रोण का शिष्य है। इसका आशय यह है कि चैतन्य ज्योति बुद्धि के द्वारा ही प्रकाश पाती है। शकुनि - मोह का अर्थद्योतक है। योग विज्ञान के अनुसार मनुष्य शरीर के प्रत्येक चक्र में प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों पक्ष विद्यमान हैं। यही महाभारत के कौरव एवं पांडव हैं। यथा- स्थान​​​पांडव​​​​​​कौरव मूलाधार- क्षिति, सहदेव - शम​​​​​​काम- दुर्योधन स्वाधिष्ठान- अप्, नकुल- दम​​​​क्रोध- दुःशासन और मृत्युभय- जयद्रथ मणिपूर- तेज, अर्जुन- तितिक्षा​​​लोभ- कर्ण-कर्तव्य कर्म और विकर्ण- अकर्तव्य कर्म अनाहत- महत्, भीम- उपरति ​​ मोह- शकुनि, जिसने मोह उत्पन्न करके द्यूतक्रीडा कराई विशुद्ध- व्योम, युधिष्ठिर- श्रद्धा​​​​​मद- महाराज शल्य आज्ञा- कूटस्थ चैतन्य, श्री कृष्ण- समाधान​​​मत्सरता- भीष्म, द्रोण और कृप ​शमादि बंधु और कामादि रिपु जीवों के कर्मफल का प्रकाश है, इसलिए अश्वत्थामा इन मूलाधारादि छः स्थानों में ही हैं। इनके अतिरिक्त कुछ नाम और हैं, जैसे- ​शांतनु- निर्विकार चैतन्य ​वेदव्यास- भेदज्ञान ​चित्रांगद- ऐश महत्तत्व ​विचित्रवीर्य- ऐश अहंकार ​हृषीका- इंद्रिय समूह को कहा जाता है। ईश- नियंता है। जो इंद्रियों के नियंता हैं, जिनके तेज से इंद्रिय समूह अपना काम करता है। यह नियंता स्थान कूटस्थ चैतन्य है, आज्ञा चक्र में यह अवस्थित है। शरीर का केंद्र मूलाधार है, मन का केंद्र हृदय है तो आत्मा का केंद्र सहस्रार है। मूलाधारादि पांच चक्रों से उठे हुए पांच स्वर एक साथ मिलकर आज्ञाचक्र के भीतर से अनुभव में आते हैं। इसलिए श्रीकृष्ण के शंख का नाम पांचजन्य है। ​धनंजय- धन या विभूति को जय करने का नाम है। जन्म, मृत्यु, दुःख, क्षुधा एवं तृष्णा यह विभूतियां हैं। तेज तत्व का नाम धनंजय है। इनका स्थान मणिपूर चक्र है, वह यहां वैश्वानर नाम से जीव की जीवनी शक्ति (अन्न पचन रस रूप अमृत) प्रदान करते हैं। यह वैश्वानर देव सब देवताओं के मुख स्वरूप हैं। मणिपूर चक्र से वीणा शब्दवत् शब्द उठता है, उसका नाम देवदत्त शंखध्वनि है। ​वृकोदर- वृक् का अर्थ अग्नि है। अग्नि वायु से उत्पन्न होकर फिर वायु में ही लय हो जाती है। वायु का स्थान अनाहत् चक्र है। यहां साधन क्रम से निनादवतृ दीर्घघंटा एक शब्द उठता है, उसी का नाम पौंड्र शंख ध्वनि है, जो भीम द्वारा बजाया गया बताया गया है। ​युधिष्ठिर- युद्ध करके जिसको कोई हरा न सके। यह आकाश तत्व है। विशुद्ध चक्र से मेघ गर्जनवत् शब्द जब उठता है, उसे युधिष्ठिर के अनंतविजय शंख ध्वनि कहा जाता है। ​नकुल रसतत्व है। जितने रस हैं, उनका कोई भोग करके उन्हैं शेष नहीं कर सकता, इसलिए उसका नाम नकुल है। लिंगमूल स्वाधिष्ठान चक्र से साधन क्रम में वेणुशब्दवत् शब्द जो उत्पन्न करे, उस शंख का नाम सुघोष है। ​सहदेव पृथ्वीतत्व है। सह- सहित, देव जो खेलता रहता है। पृथ्वी के साथ ही जीव का खेेल अर्थात् पांच भूतों के भीतर शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध। यह स्थान मूलाधार है, जहां मत्तभृंगशब्दवत् शब्द उठता है, यही मणिपुष्पक शंखध्वनि है। ​कपिध्वज- जिह्वा को उलटकर नासारंध्र के ऊपर श्लेष्मा के स्थान को अतिक्रम करके रखने की अवस्था को कपिध्वज कहते हैं। इसे प्रचलित भाषा में खेचरी मुद्रा कहा गया है। ​धनुरुद्यम- मेरुदंड अर्थात् पीठ की रीढ़ का नाम धनु है। ध्यान अवस्था में बैठने का नाम धनुरुद्यम है। ​अर्जुन- अ$रज्जु$न। जो पाशमुक्त नहीं। संसाराबद्ध जीवावस्था का नाम अर्जुन है। ​गुडाका- यानि निद्रा । ईश- नियंता। निद्राजित् अर्थात् अनलस साधक को गुडाकेश कहते हैं। विषयचिंता करते-करते उनसे उत्पन्न अवसन्नता से अभिभूत होकर रहने का नाम अज्ञानज निद्रा है, परंतु आत्मलक्ष्य करते-करते अपने से विषय वृत्ति मिट जाने पर मन का जो अकंप विश्राम होता है, उसका नाम ज्ञानज निद्रा है। ​पार्थ- पृथा का पुत्र जो है। पृथ- विख्यात होना। अ- कर्तृवाचक शब्द। प्रकृति ही स्वनामख्याता है, इससे उत्पन्न जीव पार्थ है। कुंती के सभी पुत्रों को पार्थ कहा गया है। ​पीठ की तरफ संकोच होकर समकायशिरोग्रीव होकर बैठने से पीठ डोंगा की भांति बन जाती है। इस अवस्था में स्थित मेरुदंड को गांडीव कहते हैं। ​भारत- आत्मज्योति निविष्टचित्त दशा का नाम है। ​जन- अंतःकरणवृत्ति समूह को कहा गया है। ​गो- विश्व समूह है, यह पंचकोश समन्वित शरीर का नाम है। विद्- जानना है। इन्हीं शब्दों से मिलकर गोविंद हुआ। ​सुर- स ईश्वर। प्राणोहि भगवानीशः। उ- सहस्रार स्थिति पद। र- तेज। प्राण सहस्रार में स्थित होने के पश्चात् जो तेजोराशि प्रकाश पाती है, वही सुर है। ​संख्या- सम्यक्, ख- आकाश, या- यान। देहाभिमान त्यागकर संपूर्ण रूप से आकाश यान में स्थित होना। ​मधु- मीठा द्रव्य। जीव की संसार भोग वासना। सूदन- नष्ट करने वाले। मधुसूदन- कूटस्थ तारक ब्रह्म। उनमें ज्ञान वैराग्यादि समस्त ऐश्वर्य सर्वदा विराजमान हैं, इसलिए वह भगवान हैं। ​विष- व्यापन शक्ति, आ- आसक्ति, द- दान करना। व्याप्ति में आसक्ति देने का नाम विषाद है। ​मेरुदंड सीधा न रखने से प्राण (शर) सरल राह की ओर नहीं उठ सकता। वह टेढ़ी-मेढ़ी गति पकड़ लेता है, इसलिए प्रणव या ओंकार की उपासना मेरुदंड सीधा रखकर ही संभव है। प्रणव की उपासना इस प्रकार करने से ही आंेकार को प्रणव कहा जाता है। प्रणवोपासना करने से ही हम रथ में उपस्थापित हो पाते हैं। ​जनार्दन- जन- जन्म, अर्दन-पीड़ा। जन्म को जो पीड़ित करते हैं, अर्थात् जातक को जो मुक्ति देते हैं, वे जनार्दन हैं। ​दस इंद्रियां, पंच प्राण, मन और बुद्धि- यह सप्तदश कला हैं। वासना, वैराग्य आदि जो कुछ वृत्तियां हैं, वे इन सप्तदशा कला से ही उत्पन्न होती हैं। इसी समुदाय को कुल कहा गया है। कु- शब्द स्पर्शादि विषय, ल- भोग वासना। विषय भोग वासना का नाम कुल है। ​जिसके गर्भ से संतान उत्पत्ति होती है, उसी को स्त्री कहते हैं। यह शरीर और इंद्रियां स्त्री ही हैं। ​माधव में मा- लक्ष्मी, धव- लक्ष्मी। यह भाग्य के अधिष्ठाता हैं। ​कृष्ण- कूटस्थ चैतन्य हैं। कृषिर्भूर्वाचकः शब्दो णश्च निर्वृत्तिवाचकः तयोरैक्यं परंब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते।। कृषि- कर्षणे, भू- वाचक शब्द, ण- निर्वृत्ति वाचक शब्द है। मुक्ति इच्छा न रखने से भी जो महापुरुष खींच कर निर्वाण प्राप्त करा देते हैं, वही कृष्ण हैं। स्वर्ग में स- सूक्ष्म श्वास है, व- शून्य है, र- तेज है एवं ग- गति है। सूक्ष्म श्वास के शून्य होने के पश्चात् जो तेजोमयगति हो, वही स्वर्ग अर्थात् आत्मज्योति की उपलब्धि है। कर्म की सिद्धि हो जाने के पश्चात् जो ख्याति होती है, उसी का नाम कीर्ति है। स्त्री एक शक्ति की प्रतीक है। उसमें प्रवृत्ति और निवृत्ति, संशय और निश्चय, जड़ और चैतन्य, आसक्ति और मंगलशक्ति दोनों प्रकार की शक्ति या वृत्ति विद्यमान रहती है। आलेख में महाभारत के पात्रों और उनके वैशिष्ट्य को संक्षेप और सूत्ररूप में ही व्यक्त किया गया है। इनके अनुभवमूलक मर्म को समझने के लिए हमें ऐसे ही किसी महापुरुष का सानिध्य प्राप्त करना होगा।

Wednesday, March 12, 2025

साहित्य चिंतन में सौंदर्य की अवधारणा

साहित्य चिंतन में सौंदर्य की अवधारणा प्रोफे0 राकेश नारायण द्विवेदी ​सौंदर्य की अवधारणा मानव चिंतन की मूल धाराओं में से एक है। सौंदर्य मनुष्य के केंद्र में प्रारंभ से ही रहा है। सौंदर्य के प्रति आकर्षण उसका जन्मजात स्वभाव है। सौंदर्य मनुष्य का स्वभाविक और अन्वेषणीय मर्म है। सौंदर्य का उद्घाटन करना उसके जीवन का ध्येय है। सौंदर्य वस्तुतः वह तत्व है, जिसके सहारे हम ब्रह्म तत्व तक पहुंच जाते हैं। बिना सौंदर्य का मूल ग्रहण किए हुए हम धार्मिक नहीं हो सकते। धर्म व्यक्ति की स्वाभाविक स्फुरणा है। मनुष्य के स्वाभाविक जीवन का नाम धर्म है। किंतु स्वभाव क्या है बिना इसे जाने व्यक्ति धर्म के मर्म को नहीं जान सकता। यह स्वभाव तत्व सौंदर्य हीह ै। ​सौंदर्य पर भारतीय चिंतक अलग-अलग तरह से समय-समय पर विचार करते आए हैं। वस्तुतः मनुष्य सौंदर्य का इतना आग्रही है िकवह उसे बिना पाए नहीं रह सकता। वह उसका आनंद है, मनुष्य आनंद में रहकर आता है, आनंद में रहता है और आनंद में ही विलीन हो जाता है। सौंदर्य से बाहर कोई सत्ता नहीं, जो कुछ दृश्यमान है, वह इस सौंदर्य के घटक हैं। विचारकों की उत्कंठा सौंदर्य की अवधारणा को जानने की रहा करती है। साहित्य का उद्देश्य भी सौंदर्य का उद्धाटन करना है। सौंदर्य का एक निकट समानार्थी रस है। रस ही भारतीय साहित्य के चिंतन की आत्मा है। ​रस क्या है! सौंदर्य ही तो। जब हमारी सहज भावनाएं उद्भूत होती हैं, जिनसे सामाजिक के कोमल हृदय में एक प्रकार की आनंदानुभूति होने लगती है, इसे ही तो रस कहा गया है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल इस दशा को साधारणीकरण की दशा कहते हैं। रस की न उत्पत्ति होती है, न अनुमिति होती है और न भुक्ति ही। काश्मीर के शैव आचार्य अभिनवगुप्त ने पहली बार यह माना कि रस की तो मात्र अभिव्यक्ति होती है। सब जगह बस हो रहा है, इस हुब्बपन को देखने वाला ही तो रस है। मुंडक एवं श्वेताश्वतर उपनिषदों में आए एक रूपक के माध्यम से यह बात भलीभांति समझी जा सकती है- ​द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। ​तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति।। आशय यह कि दो सुंदर पंखों वाले पक्षी, जो एक दूसरे के निकट मित्र हैं, एक ही पेड़ से लटकते हैं। इनमें से एक पक्षी पेड़ के मीठे फल खाता है, जबकि दूसरी पक्षी मा़त्र अपने मित्र पक्षी को देखता है। इस रूपक में भले फल खाने वाले पक्षी को हम प्रथम दृष्टया कहेगे कि रस का उपभोग करने वाला पक्षी ही रसोपभोग कर रहा है, परंतु वास्तविकता यह है कि उस रस का दर्शन करने वाला अपर पक्षी ही रसग्राही है। खाने वाले पक्षी को उसकी रसनेंद्रिय को अच्छी अनुभूति हो रही है और उसका उदर पोषण हो रहा है, परंतु यह सब देखने वाला पक्षी रस की उद्भावना अपने भीतर कर रहा है। दोनों पक्षियों का नाम, काम और स्वभाव लगभग एक जैसा है, किंतु इनमें भिन्नता यह है कि एक एकदेशीय है और दूसरा सर्वव्यापी। एक मात्र भोक्ता और दूसरा उसका साक्षी। दोनों एक होते हुए भी विलक्षणता उस रस की यानि सौंदर्य की हीह ै। जिसका रूप निरंतर बदलता रहे, उस शक्ति का नाम वृक्ष है। देखने वाला पक्षी समान वृक्ष पर होते हुए भी अलग दशा में निवास करता है। सौंदर्य की हीह म प्रार्थना करते हैं। सबसे अच्छे गीत प्रार्थना गीत ही होते हैं। प्रार्थना में सौंदर्य भर-भर के छलकता है। भारतीय चिंतन की आरंभिक प्रार्थनाएं वेदों के रूप में हमारे सम्मुख आती हैं। वेदोें में प्रार्थना का सौंदर्य सर्वत्र विकीर्णित हो रहा है। भारत का समूचा साहित्यिक वाड़मय वेदों का विस्तार हीह ै। सुंदर विशेषण का संज्ञा पद सौंदर्य है। संज्ञा में विशेषण उपस्थित रहता है। सुंदरता की प्रतीति हमारे आंतरिक आकाश को फैलाव देती है, उसे व्यापक बनाती है। सुंदरता हमें अनंत से जोड़ने का माध्यम बनती है। दृश्यमान जगत् ब्रह्म का सौंदर्य ही है, जो अनंत रूपों और उनके नामों में अभिव्यक्त हो रहा है। हम उस सौंदर्य का विविध प्रकार से गान करते हैं, तरह-तरत से सम्मान करते हैं और भांति-भांति से अनुपान करते हैं। उसका आस्वाद लेते हैं। पूजा और उपासना उस सौंदर्य का गौरव-गान है। पूजा करना सौंदर्य का उपस्थापन है। पूजा का अर्थ ह ैपूर्ण जागरण। सौंदर्य जागरूकता के बिना उद्घाटित नहीं होता। सौंदर्य सत्य है, ज बवह हमारे भीतर कौंधता है तो स्पष्ट हो जाता है कि हमें इसी की इच्छा थी। वस्तुतः सौंदर्य के अन्वेषण की मूल प्रेरक इच्छा ही है। सौंदर्य अखंड है, निस्सीम है, परंतु जब उसकी प्रतीति होती है तो वह खंड-खंड, क्षण-क्षण एवुं सीमाओं में विभाजित होता हुआ प्रकट होता है। संसार और उसकी विविध कलाएं और साहित्य खंड सौंदर्य ही हैं। यहां यह भी कहना आवश्यक है कि वस्तुतः सौंदर्य खंड-खंड दिखता हुआ भी अखंड और संपूर्ण है। पूर्ण परमात्मा से पूर्ण ही व्यक्त होता है और वह पूर्ण में ही विलीन होता है। व्यक्ति जहां से जो कुछ जान रहा हो, वहां से ह ीवह सौंदर्य को प्राप्त कर सकता है, क्योंकि वह सर्वत्र है और सार्वकालिक है। सौंदर्य वर्तमान है, वह अतीत और भविष्य नहीं है। अतीत स्मृति का सौंदर्य है और भविष्य कल्पना का। ​सौंदर्य को यदि किसी नियम और व्यवस्था से आबद्ध करेंगे तो वह खंडित हो जाएगा। उस पर कोई यदि अपना अधिकार जमाना चाहेगा तो वह तिरोहित हो जाएगा। वह तो एक नन्हें शिशु की भांति है। सौंदर्य का ेपाने के लिए धनी-मानी होना आवश्यक नहीं, वह तो एक प्रकाश है, जिसकी आभा मे ंहम सब स्नात हो रहे हैं। जब हमारा प्रेम इतना घनीभूत हो जाए, जैसा अनुराग हमें अपने शरीर के साथे हैं। अप्रतिबंधित, अनन्य और दृढ़ भक्ति का जब उदय होता है तो सौंदर्य का उद्घाटन वैसे ही हो जाता है, जैसे हिमाच्छादित पर्वत पर सूर्य की प्रथम रश्मि का आगमन होता है। देखने से, सुनने से, छूने से, आस्वादन से और घ्राण करने से सौंदर्य खंडित होकर हमारे सामने आता है, किंतु विडंबना देखें कि हमें इन्हीं इंद्रियों के माध्यम से उसकी प्रतीति होती है। अंतःकरण के अवलंब से सौंदर्य इंद्रियों द्वारा प्रकट होता है। इंद्रिय इंद्र से बना है, इंद्र का अर्थ है झांकना। इंद्र इंदियों के स्वामी हैं, क्यांेकि वे सौंदर्य का प्रथम अवगाहन करते हैं। ​व्यक्ति के जीवन का लगभग 80 प्रतिशत कार्य व्यापार आंखांे से चलता है, इसलिए हम समझते हैं सौंदर्य बाहर हीह ै, किंतु केवल आंखें ही सौंदर्य की संवाहक नहीं होती, अंधकार में स्पर्श और अव्यक्त दशा में अवचेतन के सौंदर्य की प्रतीति अंतःकरण के माध्यम से होती है। यदि कहा जाए यह फुल सुंदर है, इसका आशय है कि वास्तव में जो मैं बताना चाहता हूं वह यह कि मैं उस प्रकार का व्यक्ति हूं जिसे यह फूल इस समय सुंदर दिख रहा है। किसी को यह फूल उक्त व्यक्ति की भांति सुंदर नहीं भी लग सकता है तो बहुतों का उस पर ध्यान भी नहीं जा रहा होता है। यदि सबको कोई व्यक्ति या वस्तु संुदर लग भी रही है तो उसकी प्रतीति हर व्यक्ति या उद्भावक को पृथक्-पृथक् ही हो रही होगी। किंतु यह प्रतीति पृथक-पृथक् होकर भी थोक में अर्थात् संपूर्ण होती है। किसी को वह फूल जब सुंदर लगा, आवश्यक नहीं कि उसे आने वाले समय में भी वह फूल सुंदर लगेगा। फूल के रूप में परिवर्तन आने पर व्यक्ति की दृष्टि समान रहने पर भी उसका भाव परिवर्तित हो जाता है। हमारी ही जवानी एक समय हमें सुंदर लगती है और जब यह बुढ़ापे में परिवर्तित हो जाती है तो कुरूप लगने लगती है। ​तो सौंदर्य विषयगत है या वस्तुगत! क्या यह हमारी निजी या आंतरिक भावना है या फिर वस्तुओं का वास्तविक रूप! वे क्या हैं, सौंदर्य का आश्रय हमारे मन की संवेदनाएं और छायाएं हैं। ​निर्णायक बुद्धि को किनारे रखकर फूल को और स्वयं को अलग-अलग रखकर देखें। फूल की सुंदरता और कुरूपता या आपेक्षिक सुंदरता के प्रति कोई धारणा न रखें। समग्र अस्तित्व के साथ एकतान होते चले जाने पर हम ब्रह्मांडीय चेतना से लयबद्ध हो जाते हैं। हमारे हृदय की धड़कन और ब्रह्मांडीय धड़कन एक साथ लयबद्ध हो जाने पर कुरूपता या असत् वृत्ति से हम ऊपर उठ जाते हैं। इसी दशा में पहुंचकर हमारे ऋषियों ने वाड़मय का सृजन किया है। विभिन्न कलाओं को मूर्तिमान किया है, संगीत के विविध राम और रागिनियों में निबद्ध करते हुए पदों को गाया है। साहित्यकारों ने ऊंची कृतियों और कविताओं की रचना की है। व्यक्ति के इस प्रकार रहने पर उसके शारीरिक कर्म भी उन्नत हो जाते हैं। इस दशा में रहते हुए व्यक्ति की रचनाशीलता से व्यक्ति स्वयं, उसका परिवेश और राष्ट्र का उत्थान होता है। ​साहित्य सौंदर्य की अभिव्यक्ति का महत्वपूर्ण एवं सशक्त माध्यम है। साहित्य के माध्यम से रचनाकार सौंदर्य के क्षणों को इस प्रकार शब्दबद्ध करता है कि उसके पाठक उसका आस्वाद लिए बिना नहीं रहते। साहित्य वह माध्यम है, जिसमें सौंदर्य के बाहरी और भीतरी स्वरूप की अनंत संभावनाओं के द्वार खुलते हैं। बाह्य यानि जागतिक सौंदर्य वास्तविक सौंदर्य तक पहुंचने का उपस्कारक है। जागतिक सौंदर्य अभिव्यक्ति का सौंदर्य है। अभिव्यक्ति ही तो सौंदर्य की संवाहिका है। बाह्य सौंदर्य के कतिपय साहित्यिक उदाहरण वर्ण्य आलेख के अंतर्गत यहां समाहित किए जाने हेतु अनुपयुक्त नहीं होंगे। ​कविवर बिहारी ने नायिका के सौंदर्य को शब्द और उनके अर्थ से जोड़ा है कि जैसे शब्दों से उनके अर्थ का प्रकाश फैलता है, नायिका का आंगिक सौंदर्य भी छिपाते हुए भी छिप नहीं पा रहा है। ऐसा भी नहीं कि शब्द अपने अर्थ को प्रकट न करना चाहते हों, अन्यथा वह अभिव्यक्त ही क्यों होगे। ​दुरत न कुच बिन कंचुकी चुपरी सारी सेत। ​कवि आंकनु के अरथ लौं प्रगटि दिखाई देत।। ​भारतीय साहित्य में सौंदर्य को एक सिद्धांत समझकर विषय प्रवर्तन नहीं किया गया है, किंतु उसके मूल तत्व पर गहन चिंतन अवश्य किया गया है। ​भारतीय काव्यशास्त्र को सौंदर्यशास्त्र का अग्रदूत कहा जा सकता है। काव्य की आत्मा क्या है अर्थात् उसका सौंदर्य क्या है, जिससे उसकी ओर लोग खिंचे चले जाते हैं। उसमें ऐसा क्या है कि पढ़ने-समझने के बाद उसका प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। इस पर विचार करने के लिए भारतीय काव्य शास्त्र अलग-अलग कालक्रमिक संप्रदाय लेकर हमारे सामने आता है। रस, ध्वनि, अलंकार, रीति-गुण, वक्रोक्ति एवं औचित्य यह संप्रदाय काव्य की आत्मा पर जैसे कि उनके नाम हैं, उन्हें केंद्र में रखकर अपनी स्थापना देते हैं। सौंदर्य शब्द का काव्यशास़्त्रीय प्रयोग सर्वप्रथम आचार्य भामह ने अपने काव्यशास्त्र में किया। उन्होंने कहा- ​सौंदर्यमलंकारः। अर्थात् अलंकार किसी रचना के सौंदर्य का हेतु हैं। पंडितराज जगन्नाथ कहते हैं- ​रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्। अर्थात् सुंदर अर्थ के प्रतिपादक शब्दों से मिलकर काव्य बनता है। ​संस्कृत साहित्य के आचार्य माघ अपने शिशुपाल बध नामक महाकाव्य में लिखते है- ​क्षणे-क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः अर्थात् क्षण-क्षण में जो नवता होती है, वही रमणीयता है। यानि यह कभी फीका नहीं पड़ता। ​आधुनिक भारतीय चिंतकों ने सौंदर्य के अनुद्घाटित पक्षों को और उद्घाटित पक्षों को नए संदर्भ मेें व्यक्त किया है। रवींद्रनाथ ठाकुर का मत है कि उपयोगिता के बिना भी जो हमें आनंद मिलता है, उसे सौंदर्य की भावना कहा जाता है। ​डॉ नगेंद्र ने कहा है कि भारतीय सौंदर्य अद्वंद्व एवं सामरस्य का दर्शन है। अभिव्यक्ति के स्तर पर यह सौंदर्य है और अनुभूति के स्तर पर आनंद है। ​संसार का रहस्य और अनंतता का ज्ञान प्राप्त होने के बाद व्यक्तिगत सूख-दुःख, माया-मोह, सफलता-विफलता आदि सब तुच्छ लगता है। जीवन में विराट दृष्टि संपन्न होने पर मोह दूर हो जाता है, आंखें उज्ज्वल और तेजयुक्त, गति में वीरता और हृदय में एक अद्भुद प्रसाद का आविर्भाव होता है। महाभारत में इस गंभीर अनुभव को शांति कहा गया है। इस अनुभव को प्राप्त कर लेने के बाद व्यक्ति संघर्ष करता है, परंतु उसके परिणाम से अप्रभावित रहता है। जीवन को वह एक प्रेममय संघर्ष में रूपांतरित कर लेता है। ​एक सौंदर्य ग्राही व्यक्ति के लिए दुःख या कुरूपता पापों या दुष्कर्म का परिणाम नहीं होता। वह समझ जाता है कि वास्तव में दुःख निवृत्ति तो कभी किसी तत्वज्ञानी की संगत का परिणाम है, व्यक्ति का मन बिना दुःख पाए भागता ही नहीं है। कुरूपता बिना सौंदर्य दर्शन के ज्ञात कैसे हो सकती है। इसका आशय यह नहीं कि हमें कुरूपता या जागतिक समस्याओं से पार जाने की आवश्यकता नहीं है। हम यथास्थितिवादी होकर नहीं रह सकते। शरीर की प्रकृति ही ऐसी नहीं है। जहाज हमेशा किनारे पर सुरक्षित रहता है, किंतु वह इसके लिए नहीं बनाया गया है। हृदय और आंखें अपने शरीर में सुरक्षित स्थानों पर और सुरक्षा साधनों के साथ स्थित हैं, किंतु वे निश्चेष्ट होने के लिए नहीं रखे गए हैं। आयासपूर्वक हमें निठल्ले होकर तो कदापि नहीं बैठना चाहिए। ​सौंदर्य को उपलब्ध किसी व्यक्ति में प्रेम और करुणा छलकने लगेगी। उसे किसी अन्य से शिकायत नहीं रह जाएगी, अपितु उसके संसर्ग में जो आएगा, उसे ही अपूर्व शांति का अनुभव होने लगेगा। ​समकालीन साहित्यकार बाबुषा कोहली कहती है- यदि वह तुम्हें बेहतर, सुंदर और सरल नही ंकर रहा है तो चाहे जो हो, वह प्रेम नहीं है। ​बाबुषा एक कविता में गाती हैं- ​जीत की चाहना से लथपथ इस संसार में ​एक सुंदर दृश्य की तरह उगता ह ैहारा हुआ पुरुष ​जैसे पथरीली जमीन पर बिना किसी तैयारी के उग आता ​कोई हरा बिरवा। यह हरा बिरवा बनने के लिए हमें हारना तो पडे़गा। बुंदेली भाषा मे ंतो हार उस जंगल को भी कहते हैं, जिसमें जानवर चरते हैं और जहां किसान अपने खेत जोतते हैं। ​एक और समकालीन रचनाकार निरंजन श्रोत्रिय की सौंदर्य शीर्षक कविता की पंक्तियां हैं- ​आज मैंने मोर के बदसूरत पैर देखे ​और खुश हुआ ​इन्हीं पैरों पर सवार हो आएगी बरसात ​............ ​आज मैंने सौंदर्य को उलट-पलट कर देखा ​और खुश हुआ। ​​​​-ध्यानमंगलम्, सिल्वर सिटी, कैलगुवां रोड, ललितपुर - उ0प्र0-284403 मोबाइल 9236114604