Friday, August 8, 2025

भारत नाम वंशावली एक विहगावलोकन

भारत नाम वंशावली : एक विहगावलोकन प्रोफे राकेश नारायण द्विवेदी आज के वैज्ञानिक मानते हैं कि प्राचीन युग में यह भूमंडल सात महाद्वीपों में बंट गया था। आधुनिक युग में यह द्वीप महासागरों के आधार पर बंटे हुए मान्य किए जाते हैं। भारत के विभिन्न पुराण ग्रंथों में इन द्वीपों के बारे में विवरण प्राप्त होता है। इन विवरणों को पढ़ा-गुना जाना चाहिए, इनसे हमें ज्ञान की नई और महत्वपूर्ण दिशा का अवबोध हो सकता है। इस क्रम में भारत के पुराने नाम जंबूद्वीप के बारे में अपनी समझ बढ़ाना अनुपयुक्त नहीं होगा। वायु पुराण में आया है- सप्तद्वीप परिक्रांतं जंबूद्वीपं निबोधत। अग्नीध्रं ज्येष्ठदायादं काम्यापुत्रं महाबलम्।। 33/37 यह सात द्वीप हैं, उनके अलग-अलग शासक रहे हैं। उनके आधुनिक देशो के नाम भी सामने दिए जा रहे हैं- 1- जंबूद्वीप - अग्नीध्र - एसिया 2- शकद्वीप - मेधातिथि - अंग द्वीप आस्ट्रेलिया 3- क्रोंचद्वीप - ज्योतिष्मान - उत्तर अमेरिका 4- शाल्मलिद्वीप - द्युतिमान - विषुव के दक्षिण अफ्रीकी देश 5- गोमेद/कुश द्वीप - हव्य - उत्तर अफ्रीका 6 - प्लक्षद्वीप - वपुष्मान - यूरोप 7 - पुष्करद्वीप - सवण - दक्षिण अमेरिका सात द्वीपों से घिरे जंबू द्वीप में वायुपुराण के अनुसार आरंभिक अर्थात् स्वायंभुव मनु के पुत्र प्रियव्रत ने (प्रियव्रत और उनकी पत्नी काम्या) अपने महाबली ज्येष्ठ पुत्र अग्नीध्र को जंबूद्वीप का राजा बनाकर अभिषिक्त किया। धर्मात्मा अग्नीध्र का ज्येष्ठ पुत्र नाभि, उससे छोटा किंपुरुष, तीसरा हरिवर्ष, चौथा इलावृत, पांचवां रम्य, छठा हरिण्मान, सातवां कुरू, आठवां भद्राश्व और नवां केतुमाल नाम का पुत्र हुआ। नाभि को उसके पिता ने हिम नामक दक्षिण देश, किंपुरुष को हेमकूट, हरिवर्ष को नैषध, इलावृत को सुमेरु का मध्यप्रदेश, रम्य को नील, हरिण्मान को उत्तर का श्वेत देश, कुरु को उत्तर दिशा में शृंगवान देश, भद्राश्व को माल्यवान और केतुमाल को गंधमादन देश दिया। महात्मा नाभि और उनकी पत्नी मेरू से एक अतिशय कांतिमान पुत्र ऋषभदेव हुए। ऋषभदेव जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर मान्य हुए। उनके सौ पुत्र थे, जिनमें सबसे बड़े राजा भरत हुए। राजा भरत की गणना महाभारत में वर्णित सोलह सर्वश्रेष्ठ राजाओं में होती है। महाभारत के अनुसार भरत ने बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान किया एवं महर्षि भरद्वाज के कृपा से भूमन्यु नामक पुत्र प्राप्त किया। श्रीमद्भागवत के अनुसार भरत के अलग-अलग तीन रानियों से कुल नौ पुत्र थे, परंतु उन्होंने इनमें से किसी को भी राज्य चलाने योग्य नहीं समझा। तब भरत ने मरुत्स्तोम यज्ञ किया और मरुद्गणों ने भरत को भारद्वाज नामक पुत्र दिया। भारद्वाज जन्म से ब्राह्मण थे, किंतु भरत का पुत्र बन जाने के कारण क्षत्रिच कहलाए। भारद्वाज ने स्वयं शासन नहीं किया। भरत के देहावसान के बाद उन्होंने वृहस्पति के भाई वितथ को राज्य का भार सौंप दिया और स्वयं वन में चले गए। इस वंश के सब राजा भरतवंशी ही कहलाएं। यह वितथ वृहस्पति के भाई उतथ्य की पत्नी ममता से पैदा हुए थे। वितथ एक महान राजा सिद्ध हुए, उनके चौदह पीढ़ी बाद शांतनु हुए जो भीष्म के पिता व पांडवों और कौरवों के परदादा थे। भारद्वाज के जन्म की विचित्र कथा है। वृहस्पति ने अपने भाई उतथ्य की की गर्भवती पत्नी का बलपूर्वक गर्भाधान किया, उसके गर्भ में दीर्घतमा नाम की संतान पहले से विद्यमान थी। वृहस्पति ने उससे कहा इसका पालन पोषण (भर) कर। यह मेरा औरस और भाई का क्षेत्रज पुत्र होने के कारण दोनों का (द्वाज) पुत्र है। किंतु ममता तथा वृहस्पति दोनों में से कोई भी उसका पालन पोषण करने को तैयार नहीं हुआ। भारद्वाज को वे वहीं छांड़ गए,। मरुद्गणों ने उसे ग्रहण किया तथा उसे राजा भरत को दे दिया। माना जाता है कि इन्हीं राजा भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत रखा गया। राजा भरत की वंश परंपरा में आगे सुमति हुए, यह जैन धर्म के पांचवें तीर्थंकर के रूप में मान्य हैं। ऋग्वेद में आर्यों के निवास स्थान को ‘सप्त सिंधु’ प्रदेश कहा गया है। विभिन्न पूजा और अनुष्ठान कार्यों में पंडितजी एक संकल्प बोलते हैं। इस संकल्प में उस समय के नक्षत्र, घडी, वार, तिथि, संवत्सर का, स्थान का और यजमान का विवरण उस पूजा के उद्देश्य सहित बोला जाता है। स्थान विवरण में जंबूद्वीप का उल्लेख आता है। हम किसी सार्वजनिक भाषण या वक्तव्य देने के प्रारंभ में जो संबोधन व्यक्त करते हैं, वह इसी संकल्प का प्रतिरूप ही है। इस प्रकार हम उस अवस्था में सन्निविष्ट हो जाते हैं। प्राचीन पूजा पद्वति यह जानने के लिए महत्वपूर्ण स्रोत है कि भारत की क्या समूचे विश्व में जब ज्ञान-विज्ञान की कोई आधुनिकतावादी परंपरा मौजूद नहीं थी, यह पद्वति तब की हैं, और यह पद्वति आज विश्व भर में वक्तृता देने के क्रम में सर्वत्र उपस्थित पायी जाती है। इन पूजन कार्यों में अंतर्निहित संस्कृति के तत्व हमें अपनी ऐतिहासिक और भौगोलिक साक्ष्यों का भान कराते हैं। विदेशी इतिहासकारों को भारत की बहु भाषाओं, क्षेत्रों और उनकी बोलियों में व्यक्त और अव्यक्त विराट सांस्कृतिक विरासत में अंतर्निहित सभी तत्वों का पूरी तरह बोध हो गया हो, यह मानना ज्ञान की धारा को बंद करने जैसा होगा। सबसे पहले महाभारत के आदि पर्व में राजा दुष्यंत और शकुंतला पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत रखा हुआ बताया गया है। इसके बाद यही कथा कालिदास के अभिज्ञान शाकुंतलम् में आई है। इसका कोई ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। हमारे यहां वेदों और उपनिषदों के गूढ़ सूत्रों को समझने के लिए रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों की रचना हुई है। पश्चात्वर्ती कालखंड में इसी आशय से पुराणों की रचना की गई। यह सब कार्य वेदार्थ करने के लिए हुआ हैं। परम ज्ञान का भलीभांति आशय ग्रहण करने में अतिशय कठिनाई होती है। फिर उस अनंत को नाना प्रकार से व्यक्त किया जाना स्वाभाविक ही है। जो भी कह दिया जाता है, उसका सौंदर्य तो उसके साथ रहता है, पर वह पूर्ण और अखंड नहीं होता। इसलिए पुनः-पुनः उस अव्यक्त और परम तत्च को हम अपनी अपनी तरह से व्यक्त करते रहते हैं। अस्तु! राजा दुष्यंत पुत्र भरत को ऐतिहासिक से अधिक लाक्षणिक अर्थ में माना जाना श्रेयस्कर है। यह संभव है कि इस नाम के राजा हुए हों, परंतु उस नामकरण का भी आधार होगा, वह क्या हो सकता है। अतः भारत देश का नामकरण भायं रतः भारतः। भायं अर्थात् ज्ञान और रत अर्थात् उसमें संलग्न रहना। इस आलेख में आगे प़ढ़ते हुए यह तथ्य और स्पष्ट होता जाएगा। आधुनिक विज्ञान यह मानता है कि धरती पर मनुष्य का आगमन करोड़ों वर्ष पूर्व हो चुका था। फिर इतिहासकारों की यह बात अंतिम रूप में कैसे स्वीकार की जा सकती है कि पांच हजार वर्ष पूर्व जो साक्ष्य मिलते हैं, उसके आधार पर मात्र तथ्यों का निरूपण मान लिया जाए। पूजा पद्धति के संकल्प वाचन में लगभग दो अरब के आसपास के समय से अपनी परंपरा जोड़ी जाती है। वायु पुराण में ही कहा गया है- हिमालयं दक्षिणं वर्ष भरताय न्यवेदयत्। तस्माद् तद्भारतं वर्ष तस्य नाम्ना विदुर्बुधाः।। अर्थात् हिमालय से दक्षिण दिशा में अवस्थित भूभाग भारतवर्ष है। अब हम भारत के पूर्व विहित नाम को समझने की चेष्टा करते हैं। इस भूमंडल की संरचना कमल पुष्प की भांति है। मेरू पर्वत और उसके चतुर्दिक व्याप्त भूभाग को भूमंडल कहा जाता है। कमल के पुष्प की ही भांति इसमें सात महाद्वीप हैं, जिनका परिचय इस आलेख ऊपर दिया गया है। जिस प्रकार कमल पुष्प की मध्य कली होती है, पृथ्वी पर जंबूद्वीप उसी की तरह अवस्थित है। यह स्थिति शरीर की भी समझनी चाहिए। शरीर के मध्य सुषुम्णा नाड़ी होती है। सुमेरू पर्वत इस द्वीप में ही स्थित है। सहस्रार चक्र को सुमेरू के रूप में समझा जा सकता है। माला फेरने के समय हम उसके अंतिम मनका जो माला से अलग से जुड़ा रहता है, उसे पार नहीं किया जाता है। माला को वहीं से वापस करते हुए जाप किया जाता है, क्योंकि सुमेरू इस भूमंडल का केंद्रबिंदु है। इस पर्वत पर यह भूमंडल अवलंबित है। आज हम देखते हैं कि कैलास पर्वत माउंट एवरेस्ट से ऊंचाई में छोटा है, परंतु उस पर कोई पर्यटक नहीं जा पाता है, जबकि एवरेस्ट की चोटी पर अनेक पर्वतारोही होकर आए हैं। भारतवर्ष इस जंबूद्वीप पर बसे एक क्षेत्र का नाम है, जो ज्ञान और कर्म की भूमि के रूप में मान्य है। इस जंबूद्वीप में भारतवर्ष ही नहीं है, अपितु और वर्षों का भी अवस्थान है। वर्ष का तात्पर्य भूभाग से है। इसे समय की इकाई के रूप में भी हम जानते हैं। वस्तुतः समय और स्थान महाकाल एवं भूमा तत्व को समझने से सोपान हैं। इन सब वर्षों में भारतवर्ष ही कर्मभूमि है। शेष आठ वर्ष तो स्वर्गवासी पुरुषों के स्वर्गभोग से बचे हुए पुण्यों को भोगने के स्थान हैं। इसलिए इन्हें भूलोक के स्वर्ग भी कहते हैं। श्रीमद्भागवत् 5/7/11 जंबूद्वीप में भारतवर्ष के अतिरिक्त सम्मिलित भू-भागों के नाम हैं- इलावर्त वर्ष, जिसमें भगवान शंकर एकमात्र पुरुष हैं। वे अपनी पत्नी भवानी के साथ इसमें रहते हैं। इस वर्ष में दूसरे किसी पुरुष को आने की मनाही है, यदि कोई ऐसा दुस्साहस करता है तो वह भी स्त्री बन जाता है। भगवान शिव का स्वरूप ध्यानमंगलम् है। भद्राश्ववर्ष के शासक भद्रश्रवा हैं। यहां के भगवान हयग्रीव हैं। हर कल्पांत में जब अज्ञान वेदों को चुराता है, भगवान हयग्रीव आकर वेदों की रक्षा करते हैं और इन्हें ब्रह्मा जी को प्रदान करते हैं। हरिवर्ष में भक्त प्रह्लाद महाराज का निवास है, जो भगवान नृसिंहदेव की पूजा करते हैं। केतुमाल वर्ष में हृषीकेश कामदेव रूप में निवास करते हैं। जो स्त्री हृषीकेश के चरणों का पूजन चाहती है और किसी वस्तु की इच्छा नहीं रहती, उसकी सभी कामनाएं पूर्ण हो जाती हैं, किंतु जो किसी एक कामना को लेकर उपासना करती है, उसे आप केवल वही वस्तु देते हैं। जब उसका भोग समाप्त हो जाता है तो वह नष्ट हो जाती है और फिर उसे संतप्त होना पड़ता है। रम्यकवर्ष में भगवान ने वहां के अधिपति मनु को पूर्व काल में अपना परमप्रिय मत्स्यरूप दिखलाया था। हिरण्यमय वर्ष में भगवान कच्छप रूप धारण करके रहते हैं। वहां पितृराज अर्यमा उनकी उपासना करते हैं। उत्तरकुरूवर्ष में भगवान यज्ञपुरुष वराहमूर्ति धारण करके विराजमान हैं। पृथ्वीदेवी इनकी अविचल भक्तिभाव से उपासना करती है। किंपुरुषवर्ष में भगवान रामचंद्र की उपासना की जाती है, यहां हनुमानजी महाराज अविचल भक्तिभाव से भगवान राम की उपासना करते हैं। जब जब होय धरम की हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी।। तब तब प्रभु धरि विविध शरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।। भगवद्गीता 15/15 में कहा गया है- वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यः अर्थात् सभी वेदों के द्वारा मैं ही जानने योग्य हूं। अस्तु! वैदिक साहित्य के अध्ययन का उद्देश्य भगवान की उपासना करना ही है। यदि यह नही किया गया तो किसी का पठन-पाठन निरर्थक ही है। भारतवर्ष में भगवान दयावश नर-नारायण रूप धारण कर संयमशील पुरुषों पर अनुग्रह करने के लिए अव्यक्त रूप से कल्प के अंत तक तप करते रहते हैं। भगवान बदरीनाथ आज इसी स्थान को कहा जाता है। भारतवर्ष की प्रमुख सांस्कृतिक विशेषता उसकी वर्णाश्रम व्यवस्था है। इस व्यवस्था में वर्तमान में जो व्यवधान देखने को मिल रहे हैं, वे सभी जैसा कि भागवतम् में नारद मुनि कह रहे हैं किसी भी समय व्यवस्थित हो सकते हैं। वर्णाश्रम पद्धति से चलकर व्यक्ति आध्यात्मिक उत्थान करता है। वस्तुतः योगमार्गी होकर कोई व्यक्ति वर्णाश्रम व्यवस्था को आत्मसात करता है, अन्यथा वह अपनी भेदबुद्धि से बाहर नहीं आ पाता। भारतवर्ष में यदि कोई सर्वकाम भक्त है, अर्थात् व्यक्ति यदि कामना पूर्ति के लिए भक्ति करता है तो भी वह भगवान को प्राप्त कर सकता है। ऐसा करते हुए भी वह कर्मयोगी बनकर शुद्ध भक्त और परम ज्ञानी हो सकता है और फिर वह अपने स्वरूप में जाकर स्थित हो जाता है। भागवतम् 2/3/10 में इसे और स्पष्ट करके कहा गया है- अकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत् पुरुषं परम्।। अर्थात् जो व्यक्ति व्यापक बुद्धि रखता है, वह चाहे समस्त भौतिक कामनाएं रखे या उनसे रहित हो या मोक्ष की इच्छा रखता हो, उसे परम पुरुष के ध्यान में प्रवेश करना चाहिए। यह स्वरूपबोध ही भारतबोध है। भारतवर्ष के नाम का यही रहस्य है। इसीलिए यथानाम तथा गुण भारतीय मनीषा ने कहा है। नाम में क्या रखा है नहीं। विष्णुपुराण अध्याय 2 में कहा गया है। जंबू वृक्ष के फल एशियाई हाथियों जितने बड़े होते हैं और जब वे सड़ जाते हैं और पहाड़ों की चोटियों पर गिरते हैं तो उनके रस से एक नदी बन जाती है। जंबू का अर्थ जामुन फल नहीं है, जैसा कि उसका भाषाई अर्थ है। यह उसी तरह है जैसे बद्री नाथ को हम बेर के फल से समझने की चेष्टा करें, क्योंकि बदरी का अर्थ बेर होता है। बदरीनाथ क्षेत्र में बेर वृक्ष पाए ही नहीं जाते है। विष्णुपुराण में अभिव्यक्त रस की नदी का यह रूपक वास्तव में गंगा ही है। यह गंगा भारत में प्रवहमान होकर हम सबको कृतार्थ कर रही है। परंतु इसका परिज्ञान योग-गंगा में स्नात होने के पश्चात ही हो पाता है। हम सबको प्रतीकों में कहे गए इन भारतीय सांस्कृतिक प्रतिमानों का रहस्य समझने की आवश्यकता है। तीव्र जिज्ञासा और उत्कंठ होने पर गुरूकृपा से जब बोध प्राप्त होता है, तब यह ज्ञान रस झरने लगता है- महाभारत में आता है - धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां। धर्म का तत्व गुहा या अपनी अंतरात्मा में सन्निहित है। आगे कबीर भी गाते हैं- रस गगन गुफा में अजर झरै। बिन बाजा झंकार बजै जहां समझ परै जब ध्यान धरै। भारतवर्ष के भूगोल को और इसकी संस्कृति को योगीजन नर शरीर से एकात्म होकर समझते हैं। विश्व के मानचित्र में भारत मध्य में अवस्थित है और यह कमलपुष्प के बीच की पंखुड़ी की भांति दिखता है। मध्य नाड़ी सुषुम्णा नाडी है। इसी का रूपक सरस्वती नदी है, सुषुम्णा की तरह वह भी गुप्त रहती है। चक्रवर्ती राजा का अर्थ मानव शरीर के योग विज्ञान में वर्णित चक्रों के अधिपति होने से है। षट्चक्रों का अधिवास मानव शरीर में होता है। ज बवे उद्बुद्ध होते हैं तो कमलवत हमारे भीतर खिलते हैं। तब कोई चक्रवर्ती बनता हैं पूजा कार्यों में किया जाने वाला चक्र विधान का भी यही आशय है। राजा को सिंह की भांति कहा गया है। वह निर्भय होता है। राजा भरत चक्रवर्ती सम्राट थे। जैन परंपरा के अनुसार भारतवर्ष का नाम प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ के ज्येष्ठपुत्र चक्रवर्ती राजा भरत के नाम पर पड़ा है। भरत का एक अर्थ होता है जो पालन-पोषण करे। श्रीरामचरितमानस में आया है कि भगवान राम के छोटे भाई भरत का नामकरण इसी आधार पर किया गया - विश्व भरण पोषण कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई।। ऋग्वेद में भरत नाम की एक वैदिक जनजाति का उल्लेख है, जिन्होंने दशराज्ञ युद्ध में भाग लिया था। भरत ने पूरे भू-भाग पर शासन किया, इसलिए उनके नाम पर इस देश का नाम भारत रखा गया। पूरे भू-भाग का अर्थ है शरीर के समस्त चक्र, जो संख्या में छः हैं। इन षट्चक्रों का भेदन करके ही व्यक्ति उन पर शासन कर सकता है। राजा भरत के बारे में कहा गया है, उन्होंने पृथ्वी के छः भागों पर विजय प्राप्त की थी। राजा भरत महायोगी थे। योग परंपरा का अनुगमन करने पर चक्रवर्ती राजा होने का और भरत का वास्तविक अर्थ ज्ञात हो पाता है। राजा भरत क्षत्रिय थे। क्षत्रिय वह होता है जो शरीर की रक्षा करे। नर शरीर ही पृथ्वी का भू-भाग है, यह हम आलेख में इससे पूर्व देख चुके हैं। यहां नर-नारी और उनके अनेक भेदों में देखने की आवश्यकता नहीं है। क्षत्रिय चार वर्णों में से एक है। महाभारत की कथा के अनुसार राजा भरत ने शासन चलाने के लिए अपने उत्तराधिकारी का चयन अपनी वंश-परंपरा से नहीं किया। योग्य शासक ही राज-काज चलाने का अधिकारी होता है। योग्य शब्द भी योग से निकला है। योग्यता की खोज ब्राह्मण बने बिना संभव नहीं है। किसी राज्य का उदर पोषण और अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु वैश्य चाहिए तो उसकी सेवा करने लिए शूद्र भी आवश्यक हैं। सेवा करने से अर्थोपागम होना स्वाभाविक है। किसी राज्य की अर्थव्यवस्था के सूत्रधार यह सेवक या शूद्र ही हो सकते हैं। उदर से वैश्यों को संबद्ध किया गया है, हमारे शरीर का उदर भाग संपोषित रहेगा तो शेष शरीर ठीक से क्रियावान रह पाएगा। उदर-पूर्ति के अतिरिक्त इस शरीर की सेवा करने वाले शूद्रों की आवश्यकता समाज संचालन के लिए रहती है। भूमंडल की सेवा करने के लिए अधिकाधिक व्यक्तियों की आवश्यकता है। अस्तु! शरीर के नीचे पादपर्यंत भाग को शूद्रों से ही संबद्ध किया गया है। हमारे देश की जनसंख्या का अधिभाग भी शूद्र ही है। वर्ण व्यवस्था का प्रतीकार्थ यही है। वस्तुतः इन वर्णों में उच्च-निम्न भाव उत्पन्न करने के बाद से विसंगति उत्पन्न हो गई है। आश्रम व्यवस्था में ऐसा कोई विवाद नहीं उत्पन्न होता है। मानव शरीर और भारत के भू-भाग को मिलाकर देखने से एक संगति का निर्माण होता है। इस संगति में ही इस भू-भाग की संस्कृति पुष्पित-पल्लवित हुई है। दुर्भाग्यवश इसमें बाह्य व्यवधानों का जाने-अनजाने समावेश हो जाने से भ्रम की स्थिति निर्मित हो गई है। प्रस्तुत संगोष्ठी अपने प्रतिपाद्य विषय के अनुरूप उपस्थापन करती हुई इस भ्रम का निवारण करने में सहायक सिद्ध होगी, ऐसा हमें विश्वास है। बौद्ध परंपरा में भी भारतवर्ष को मुख्यतः जंबूद्वीप कहा जाता है। तिब्बती बौद्ध धर्म में भारत को म्यागर या फग्युल कहा गया है। म्यागर का अर्थ है विहार या मठ, जबकि फग्युल का अर्थ कुलीनों की भूमि से है। चीनी बौद्ध परंपरा में भारत का नाम तियानझू कहा जाता है, इसका अर्थ दिव्य भूमि से लिया जाता है। भारत का नाम आर्यावर्त वेदों और प्राचीन हिंदू ग्रंथों में मिलता है। गंगा और यमुना नदी के बीच के भू-भाग के लिए यह नाम प्रचलित हुआ है। भारत का यूनानी नाम इंडिका रखा गया। यूनानी इतिहासकार मेगस्थनीज ने अपनी पुस्तक इंडिका का नाम ही इस देश की संस्कृति के बारे में लिखे जाने के कारण दिया है। सिंधु नदी से प्रेरित होकर ग्रीक भाषा में यह नाम दिया गया है। बाइबिलीय हिबू्र भाषा में भारत को होड़ू कहा गया है। यह भी संस्कृत सिंधु से लिया गया है। यहूदियों द्वारा यह नाम प्रयुक्त किया जाता है। भारत का मैसोपोटामियाई नाम मैलुहा है। यह भी सिंधु घाटी सभ्यता के निवासियों को दिया गया नाम है। भारत का फारसी नाम हिंद है। यह नाम भी सिंधु से लिया गया है। बाद में इसी से हिंदुस्तान शब्द प्रचलित हुआ। सिंधु भारत का वैदिक कालीन नाम है। सिंधु नदी के किनारे बसे होने के कारण इस अंचल को यह नाम दिया गया। अंग्रेजों द्वारा इसे यूनानी भाषा के प्रभाव से इंडिया कहा गया और यह भारत का संवैधानिक नाम भी है। संविधान के अनुच्छेद एक में ही कहा गया है- इंडिया दैट इज भारत। इंडियन नाम का प्रयोग अतीत में अमेरिका के मूल निवासियों के लिए किया जाता था। अब इसका प्रयोग पुराना और अपमानजनक माना जाता है। आज यदि कोई भारत के निवासियों से घृणा करता होगा और वह कुछ ऐसा अपमानजनक भाव रखता होगा तो यह समस्या उसकी है, भारत नाम की नहीं। -ध्यानमंगलम्, सिल्वर सिटी, कैलगुवां रोड, ललितपुर उप्र-284403 मो 9236114604