बुन्देली और संस्कृत का अंतःसंबंध
डॉ राकेश नारायण द्विवेदी
बुंदेली एक प्राचीन और व्यापक भूभाग की लोकभाषा है। यह शौरसेनी अपभ्रंश से निःसृत है। सितंबर 2012 के नया ज्ञानोदय’ में श्री भगवान सिंह ने भाषाशास्त्रीय अध्ययन परंपरा के संबंध में कहा है कि हमारी लोकभाषाएं संस्कृत से नहीं निकली हैं, वे तो वैदिक भाषा से भी पुरानी हैं। ‘भाषा और समाज’ के लेखक डॉ रामविलास शर्मा ने भी कहा है कि कोई भाषा किसी दूसरी भाषा की मां नहीं होती, अलबत्ता वह बहिन या मौसी हो सकती है। यह स्थापना इस रूप में अनोखी है कि अभी तक आमधारणा संस्कृत से ही हिंदी बोलियों का उद्गम बताती आयी है। भगवान सिंह ने यह भी कहा है कि लोकभाषाएं संस्कृत से भी अधिक समृद्ध हैं और सभी बोलियां अनगिनत बोलियों के विपाक से बनी हैं। इस प्रकार जनभाषा या लोकभाषा के अध्ययन से हम वेद तक की भाषा ही नहीं, वेद के मूल तक भी पहुंच सकते हैं।
कुछ विद्वान बुंदेली को ब्रज का ही एक रूप मानते हैं, पर वे यह भूल जाते हैं कि किसी बोली का वैशिष्ट्य उसकी शब्दावली से अधिक क्रिया और क्रियाविशेषण रूपों से बनता है। जॉर्ज ग्रियर्सन के सर्वेक्षण से लेकर अधिकांश भाषाविज्ञानी बुंदेली को एक स्वतंत्र बोली मानते हैं। फिर जब शौरसेनी अपभ्रंश से ही ब्रज भी निकली है तो कुछ समानताएं होना अस्वाभाविक नहीं है।
आचार्य दुर्गाचरण शुक्ल का बुंदेली शब्दों का व्युत्पत्ति कोश सन् 2015 में प्रकाशित होकर आया है, जिसमें उन्होंने अनेक ऐसे बुंदेली शब्दों की खोज की है जो आज भी शुद्ध तत्सम और वेदकालीन स्वरूप में यथावत विद्यमान हैं जबकि उनके समानार्थी हिंदी के शब्द तद्भव रूप में व्यवहृत हो रहे हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि बुदेली भाषा अति प्राचीन है। भाषा की स्वयं की सत्ता अपरिसीम है और उसे इतिहास, भूगोल, समाज, राज्य या संप्रदाय की हथकड़ियां और सीमाएं कभी स्वीकार नहीं रही हैं।
यहां बुंदेली के कतिपय उन शब्दों का अनुशीलन किया जा रहा है, जो संस्कृत से संबंधित हैं, किंतु हिंदी में उनका प्रतिस्थापित शब्द नहीं मिलता है, यथा-
बुंदेली संस्कृत हिंदी अर्थ
सपरबो सपर्या नहाना
अंगोछा अंगप्रोंछनम्् पतली तौलिया
अंगा-पिच्छू अग्रे-पृष्ठे एक के पीछे एक
अंगरखा अंगरक्षक, अंगवस्त्रम्् शरीर के ऊपरी भाग का वस्त्र जो घुटने के थोड़े ऊपर तक होता है।
उसनींदौ उन्निद्र जिसे नींद के झांके आ रहे हों
ओंदबौ अधोञ्चम्् किसी वस्तु पर झुककर देखना
कराव कटाह बड़ी कड़ाही
हिट््ट हेडः लात मारना
हड़सबौ प्रेमपूर्वक, विनोदेन वा हठकरणम्् प्रेमपूर्वक हठ करना
लेट लेष्टु, लोष्टु, लोष्टम्् संलग्नशील मृदा
ऐसे बुंदेली शब्द भी मिलते हैं, जिनकी व्युत्पत्ति संस्कृत में नहीं दिखती और हिंदी में भी
प्रचलित नहीं हैं, जैसे-
कसेंड़िया धात्वादि लघुघट धातु का छोटे आकार का घड़ा
उचला चालौ क्रमभंग उथल-पुथल, उठा-पटक
उखटैलया उपकारकथनकारी एहसान जताने वाला
करवा मध्यमाकार घट मिट््टी का मझोल आकार का घड़ा
गिचरयाबौ व्यर्थालाप निरर्थक अथवा अनावश्यक बातें करना
चटा चाटुकारी नियतखोर
चगन-मगन गत्याधिक्यात्स्थिर इव भानम्् घूमने की इतनी तीव्र गति कि स्थिर दिखने लगे
हुब्ब उत्साह उत्साह
गांतरया अतिथि अतिथि
हबोकबौ शीघ्रभक्षणम्् शीघ्र भोजन करना
हमल गर्भस्थ शिशु गर्भ का शिशु
लुलखरौ उषापूर्वकाल उषापूर्व का समय
नबदा श्रेष्ठता बड़प्पन
बुंदेली में ऐसे बहुत से शब्द हैं जो हिंदी में भी प्रचलित है किंतु संस्कृत में उनकी व्युत्पत्ति चाहे न मिलती हो, ऐसे शब्दों में आगत और विदेशी शब्द भी हैं जैसे-
तिल्ली प्लीहा तिल्ली
नबाब शासक नवाब
ब्लाउस चोली ब्लाउज
मोची चर्मकारः मोची
आजाद स्वतंत्र आजाद
उपर्युक्त बुंदेली शब्दों के उदाहरण बुंदेली संस्कृत शब्दकोश (संपादक प्रो आजाद मिश्र) से लिए गए हैं। यह कोश राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान से प्रकाशित हुआ है, किंतु सपर्या शब्द की संस्कृत व्युत्पत्ति दुर्गाचरण शुक्ल कृत बुंदेली शब्दों का व्युत्पत्ति कोश से गृहीत है, क्योंक सपर्या (पूजा) संपन्न करने के पूर्व आवश्यक रूप से स्नान की क्रिया संपन्न करनी होती है। सपर्या के संकेतित अर्थ ‘स्नान’ को बुंदेली में अब तक लिया हुआ है। बुंदेली काव्य ‘भइया अपने गांव में’ (पं बाबूलाल द्विवेदी) का जब संपादन कर रहा था, तब उसमें एक क्रिया रोटी पैबो पढ़ने में आयी। रोटी बनाना कहने से रोटी पैबो का भाव प्रकट नहीं होता, क्योंकि रोटी बनाने में बेलने में और फिर सेंकने की क्रिया है, जबकि रोटी पैबे में हाथों से थपकी मारते हुए रोटी को आकार देने और फिर सेंकने से है। वस्तुतः यह क्रियाएं ही बुंदेली को ब्रज से तो अलग करती ही हैं, संस्कृत से भी यह अपना संबंध स्थापित करती हैं और हिंदी से पृथक इनका स्वातं़त्र््य और वैशिष्ट्य दिखता है। कई क्रिया विशेषणों का मूल संस्कृत में भी नहीं दिखाई देता, जिससे भगवान सिंह की उस स्थापना को बल मिलता है कि हमारी लोकभाषाएं वैदिक काल से भी पुरानी हैं।
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि शब्दों की आवाजाही संस्कृत और हिंदी बोलियों में ही परस्पर नहीं हुई है, वरन्् अन्य भारतीय भाषाओं यहां तक कि द्रविड़ भाषाओं से लोकभाषाओं में शब्द आए हैं और गए भी हैं। आचार्य दुर्गाचरण शुक्ल के व्युत्पत्ति कोश में लगभग 64 प्रतिशत शब्दों की व्युत्पत्ति में कर्नाटक के काशकृत्स्ण और उनके टीकाकार कर्नाटक के प्रसिद्ध कवि चन्नवीर का आधार लिया गया है। कई बार तो शब्द देश की सरहदों को भी लांघ गए हैं। शब्दों की यात्रा अनंत की यात्रा है, जिसमें कोई विराम नहीं है। जैसा सुरेश कुमार वर्मा ‘शब्दों का सफर’ (अजित वडनेरकर) की भूमिका में लिखते हैं ‘शब्द विश्व के सबसे बड़े यायावर हैं। वे मनुष्य की अभिव्यक्ति के घोड़े पर सवार होकर यात्रा करते हैं।’ शब्दों की यह यायावरी मानव सभ्यता के लिए अग्राह््य और अस्वाभाविक नहीं है। इससे तो विभिन्न भाषाओं के बीच एकता स्थापित होती है। शब्दों की यायावरी करते समय अजित वडनेरकर ने पाया कि ‘लखपति’ शब्द जो बुंदेलखंड में भी बहुत समृद्ध, धनवान व्यक्ति के अर्थ में प्रयुक्त होता है, पर इसका भावार्थ है भगवान विष्णु जो लक्ष्मीपति हैं। विष्णु जैसी दयालुता, तेज और पौरुष का भाव इसमें समाहित है। बुंदेलखंड में ऐसे भाषा परिवर्तन खूब दिखाई पड़ते हैं। सास बहू का मंदिर वास्तव में शेषशायी विष्णु का मंदिर है। इसी तरह मौड़ा शब्द मुंडकः≥ मोंड़अं≥मौड़ा होकर निकला है। बडनेरकर जी इस शब्द के निहितार्थ का दिलचस्प अर्थ बताते हैं। आमतौर पर बच्चों का सिर के बालों का मुंडन एक धार्मिक संस्कार होता है। घुटे हुए सिर वाले बच्चे को मुंडकः कहा गया। हिंदुओं की कई शाखाओं में कन्याशिशु का मुंडन नहीं होता है। मगर ऐसा लगता है कि प्राचीनकाल में सभी शिशुओं का मुंडन होता रहा होगा। इसलिए इससे बने मौड़ा शब्द का स्त्रीवाची मौड़ी भी प्रचलित है। मुन्ना, मुन्नी, मुन्नू, मुनिया, मन्नू, मुनमुन जैसे लोकप्रिय और स्नेहिल संबोधनों के पीछे भी यही मुं़ड होने का अनुमान लगाया गया है।
यद्यपि मुंड शब्द से निःसृत मुंडन के अर्थ के अलावा बुंदेली में और भी शब्द प्रचलित हैं, जैसे मुड़ेर, मुड़िया। संभव है इनका अर्थ ग्रहण भी प्रतीक रूप में शीर्ष स्थान पर स्थित होने के कारण गृहीत किया गया हो।
बुंदेली में संस्कृत ध्वनि और शब्दों को यथारूप देखा जा सकता है। ‘लांघन’ में वैदिक ध्वनि ‘ल्ह’ सुरक्षित है जो धोबीगीतों में प्रयुक्त होती है किंतु उत्तर भारत में लुप्त हो चुकी है।(व्युत्पत्ति कोश आचार्य दुर्गाचरण शुक्ल पृ 441)। अमात्य≥अमात्ये≥माते शब्द में बिना परिवर्तन अर्थ सुरक्षित है, जबकि अमात्य पाली भाषा में अमच्य- नौकर हो गया तो मैथिली में अमात शब्द जाति के लिए प्रयुक्त होकर अर्थापकर्ष हो गया, पर बुंदेली में यह माते के रूप में अभी भी प्रधान के ही अर्थ में प्रयुक्त होता है।
बुंदेली ‘भंड़याई’ शब्द में संस्कृत भण्् धातु छिपी हुई है। भण्् का मतलब है कहना, पुकारना, शोर मचाना, ध्वनि करना। इसी भण्् से भंड्र बना, जिसका अर्थ पात्र या बर्तन से है। भांडक से भंडार, हांडक बने और भांडक से ही क्रिया रूप भंड़ैती बना, जिसका लक्ष्यार्थ है हंसी की बातें करना। अपनी बात कहना, हंसना और व्यंग्य करना। किसी की निंदा करना या खूब बढ़ाचढ़ाकर तारीफ करना। इसी कारण यह सब करने वाला भांड़ समाज में हंसी का पात्र बन गया। ‘भंड़याई’ भांड में रखी वस्तुओं को छिपाकर ले जाने अर्थात््् स्तेय या चोरी के लिए कहा गया। भांड यानि बर्तन टूटते-फूटते भी हैं, इसलिए भांडा फूटना पोल खुलने के अर्थ में चल पड़ा।
खल्ल औषधि या मसाला कूटने वाला बर्तन है। बुंदेली में यह तत्सम रूप में मौजूद है, हिंदी में इसे खरल कर दिया गया है। इसी तरह खट््ट वृक्ष की छाल है, जिसका हिंदी में प्रतिस्थापित शब्द नहीं है।
यह कुछ शब्दों की अंतर्यात्रा के नमूने हैं, जिनसे बुंदेली बोली का वैशिष्ट््य और बोलीगत स्वातं़़त्र््य प्रकट होता है। इस प्रकार बुंदेली भाषा संस्कृत भाषा से जुड़ती हुई भी अपनी विशिष्टता रखती है। इस गुण के कारण वह हिंदी को पुष्ट करती है।
संदर्भ-
1बुंदेली शब्दों का व्युत्पत्ति कोश, आचार्य दुर्गाचरण शुक्ल, महर्षि अगस्त्य वैदिक संस्थानम्् भोपाल 2015
2 बुंदेली संस्कृत कोश, प्रो0 आजाद मिश्र, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थानम्् भोपाल 2014
3 शब्दों का सफर पहला एवं दूसरा पड़ाव, अजित बडनेरकर, राजकमल प्रकाशन 2011 एवं 2012
4 बुंदेली शब्दों का व्युत्पत्ति कोश, आचार्य दुर्गाचरण शुक्ल, प्रभुदयाल मिश्र द्वारा लिखित आमुख से
245 शब्दार्णव, नया पटेल नगर, कोंच रोड, उरई उ0प्र0 मो 9236114604
हिंदी और उसकी बोलियों का अंतर्संबंध
डा राकेश नारायण द्विवेदी
2001 की जनगणना के अनुसार हिंदी प्रदेश में हिंदी की 48 मातृभाषाएं बोली जाती हैं। इसमें दस हजार से कम प्रयोक्ताओं की बोलियों को शामिल नहीं किया गया है। यह मातृभाषाएं उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा एवं दिल्ली में तो हैं ही, अंडमान तथा निकोबार एवं अरुणाचल जैसे दूरस्थित क्षेत्रों में भी बोली जाती हैं।
पाश्चात्य भाषाशास्त्री जार्ज ग्रियर्सन ने 1927 में भारतीय भाषा सर्वेक्षण में हिंदी प्रदेश में दो बोली समूहों – पश्चिमी हिंदी एवं पूर्वी हिंदी- को ही हिंदी की भाषाएं माना है किंतु डा सुनीति कुमार चटर्जी ने पहाड़ी हिंदी को छोड़कर चारों बोली समूहों को हिंदी के अंतर्गत स्वीकार किया है। बाद में डा धीरेंद्र वर्मा ने पहाड़ी हिंदी की भाषिक विशेषताओं को देखते हुए इसे भी हिंदी में ही माना। डा धीरेंद्र वर्मा का वर्गीकरण हिंदी भाषा विज्ञान में सर्वमान्य है, जिसके अनुसार हिंदी भाषी प्रदेश हिंदी की विभिन्न सत्तरह बोलियों से मिलकर बना है। ये सत्तरह बोलियां हिंदी के पांच बोली समूह – पश्चिमी हिंदी, पूर्वी हिंदी, राजस्थानी हिंदी, बिहारी हिंदी तथा पहाड़ी हिंदी – के अंतर्गत सम्मिलित है। पश्चिमी हिंदी में कौरवी या खड़ी बोली, ब्रज, बुंदेली, बांगरू या हरियाणवी तथा कन्नौजी बोलियां आती हैं तो पूर्वी हिंदी में अवधी, बघेली तथा छत्तीसगढ़ी बोलियां सम्मिलित हैं। वहीं राजस्थानी हिंदी में मेवाती, मारवाड़ी, जयपुरी तथा मालवीय बिहारी हिंदी में भोजपुरी, मगही तथा मैथिली एवं पहाड़ी हिंदी में कुमाउंनी तथा गढ़वाली बोलियां शामिल हैं। इन प्रमुख बोलियों के अतिरिक्त नाम भेद से प्रचलित अन्य बोलियां भी हिंदी भाषा की अंग हैं। जो स्थान हिंदी साहित्येतिहास लेखन में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का है, वही स्थान हिंदी भाषा विज्ञान में डा धीरेंद्र वर्मा का है।
अभी 2011 की जनगणना के भाषा संबंधी आंकड़े जारी नहीं हुए हैं। अतः 2001 की जनगणना को आधार बनाना होगा, जिसके अनुसार भारत की कुल जनसंख्या के 41.03 प्रतिशत व्यक्ति हिंदी भाषा का प्रयोग करते हैं। इसमें मैथिली भाषा सम्मिलित नहीं है। मैथिली भाषी व्यक्तियों की संख्या 1.18 प्रतिशत है। मैथिली हिंदी की ही बोली है जो बिहारी हिंदी के अंतर्गत आती है। मागधी अपभ्रंश से यह विकसित हुई, जिससे भोजपुरी और मगही बोलियों का भी उद्गम हुआ है। हिंदी और उर्दू में भी मुख्यतरू लिपि का ही अंतर है। इन दोनों भाषाओं में इतनी अधिक भाषिक समानताएं हैं कि बहुधा लोग समझ ही नहीं पाते कि वे उर्दू शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं। अतरू यदि हम उर्दू भाषी जनसंख्या- जो 5,15,36,111 व्यक्तियों के साथ 5.01 प्रतिशत है- को मिला दें तो इस प्रकार कुल 47.22 प्रतिशत जनसंख्या की भाषा हिंदी ही है। हिंदी भाषा भाषियों में सर्वाधिक दस बोली प्रयोक्ता व्यकितयों की संख्या इस प्रकार है-
1- भोजपुरी 3,30,99,497
2- राजस्थानी 1,83,55,613
3- मगही 1,39,78,565
4- छत्तीसगढ़ी 1,32,60,186
5- हरियाणवी 79,97,192
6- मारवाड़ी 79,36,183
7- मालवी 55,65,167
8- मेवाड़ी 50,91,797
9- खोट्टा/खोरठा 47,25,927
10- बुंदेली 30,72,147
यह सूची 48 की संख्या तक जाती है, जिसमें अवधी, खड़ी बोली और ब्रज जैसी साहित्यिक गरिमा प्राप्त बोलियों का भी नाम है, पर इसके प्रयोक्ता अपेक्षा.त कम रह गए हैं। मातृभाषा में हिंदी के नाम से ही 25,79,19,635 व्यक्ति अंकित हैं। जाहिर है विभिन्न बोलियों के लोगों की भाषा भी हिंदी ही दी गई है। यही नहीं, इसमें मातृभाषा हिंदी के अन्य प्रयोक्ता 1,47,77,266 अलग से हैं। बोलियों की प्रचुरता और वैविध्य को देखते हुए इनका सर्वेक्षण कार्य अलग से किए जाने की आवश्यकता है। अलबत्ता, जनगणना विभाग के इन आंकड़ों से एक मोटा अनुमान लग जाता है। हिंदी की उन्हीं 48 मातृभाषाओं को जनगणना विभाग ने जारी किया, जिनके प्रयोक्ताओं की संख्या दस हजार से अधिक है।
1- भोजपुरी 3,30,99,497
2- राजस्थानी 1,83,55,613
3- मगही 1,39,78,565
4- छत्तीसगढ़ी 1,32,60,186
5- हरियाणवी 79,97,192
6- मारवाड़ी 79,36,183
7- मालवी 55,65,167
8- मेवाड़ी 50,91,797
9- खोट्टा/खोरठा 47,25,927
10- बुंदेली 30,72,147
यह सूची 48 की संख्या तक जाती है, जिसमें अवधी, खड़ी बोली और ब्रज जैसी साहित्यिक गरिमा प्राप्त बोलियों का भी नाम है, पर इसके प्रयोक्ता अपेक्षा.त कम रह गए हैं। मातृभाषा में हिंदी के नाम से ही 25,79,19,635 व्यक्ति अंकित हैं। जाहिर है विभिन्न बोलियों के लोगों की भाषा भी हिंदी ही दी गई है। यही नहीं, इसमें मातृभाषा हिंदी के अन्य प्रयोक्ता 1,47,77,266 अलग से हैं। बोलियों की प्रचुरता और वैविध्य को देखते हुए इनका सर्वेक्षण कार्य अलग से किए जाने की आवश्यकता है। अलबत्ता, जनगणना विभाग के इन आंकड़ों से एक मोटा अनुमान लग जाता है। हिंदी की उन्हीं 48 मातृभाषाओं को जनगणना विभाग ने जारी किया, जिनके प्रयोक्ताओं की संख्या दस हजार से अधिक है।
यदि हम संपूर्ण प्रयोक्ताओं की संख्या की दृष्टि से बात करें, जिसमें मातृभाषा वक्ता (पितेज संदहनंहम ेचमांमते) तथा द्वितीय भाषा वक्ता (ेमबवदक संदहनंहम ेचमांमते) दोनों को मिला दें तो हिंदी भाषियों की संख्या एक हजार मिलियन (सौ करोड़) होती है। मातृभाषा को अब मदर टंग पद की अस्पष्टता के कारण पितेज संदहनंहम ेचमांमते कहा जा रहा है। इससे उन बेतुके प्रश्नों से भी बचना संभव हो गया कि अगर मां और पिता अलग-अलग बोलियों के हुए तो उसकी मातृभाषा क्या होगी! जीम संदहनंहम तमहपेजमत जव जीम ूवतसकश्े संदहनंहम ंदक ेचमंबी बवउउनदपजपमे में इसी कारण हिंदी भाषियों की संख्या 960 मिलियन मानी गई है। केंद्रीय हिंदी निदेशालय के तत्कालीन निदेशक प्रो महावीर सरन जैन द्वारा इसी आशय की जो रिपोर्ट यूनेस्को भेजी गई थी। इसके परिणामस्वरूपय भारतकोश पर दी गई जानकारी के अनुसार यह स्वी.त हो गया है कि संसार की भाषाओं में चीनी भाषा के बाद हिंदी का दूसरा स्थान है। मंदारिन चीनी भाषाओं में सर्वप्रमुख है। यह विश्व की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। 1,36,50,53,177 से ज्यादा लोग इस भाषा का उपयोग करते हैं। चीन में जो स्थिति मंदारिन की है, वही स्थिति भारत में हिंदी की है। जिस प्रकार प्रचलित कहावत- कोस-कोस पर बदले पानी पांच कोस पर बानी- के अनुसार हिंदी भाषा क्षेत्र में विविध क्षेत्रीय भाषिक रूप बोले जाते हैं, वैसे ही मंदारिन भाषा क्षेत्र में विविध क्षेत्रीय भाषिक रूप बोले जाते हैं। हिंदी क्षेत्र की विविध बोलियों के एक छोर से दूसरे छोर के लोगों की पारस्परिक बोधगम्यता का प्रतिशत कम अवश्य है किंतु है, पर मंदारिन भाषा के दो चरम छोरों पर बोले जाने वाले क्षेत्रीय भाषिक रूपों के बोलने वालों के बीच पारस्परिक बोधगम्यता बिल्कुल नहीं है। प्रो महावीर सरन जैन द्वारा दिए गए उदाहरण के अनुसार मंदारिन के एक छोर पर बोली जाने वाली हार्बिन और दूसरे छोर और दूसरे छोर पर बोली जाने वाली शिआनीज के वक्ता एक दूसरे से संवाद स्थापित नहीं कर पाते। वे आपस में मंदारिन के मानक भाषा रूप के माध्यम से ही बातचीत कर पाते हैं। मंदारिन के इन क्षेत्रीय रूपों को लेकर वहां कोई विवाद नहीं है। पाश्चात्य भाषावैज्ञानिक मंदारिन को लेकर कभी कोई विवाद पैदा भी नहीं कर पाते। सच्चाई यह भी है कि वहां राष्ट्रीय भावना के रूप में भाषा को लिया जाता है।
अपने यहां तो एक जगह जहां सारी प्रमुख भारतीय भाषाओं के विद्वान एकत्रित थे मैंने सुना कि जब अपना देश धर्मनिरपेक्ष है और उसका कोई एक राजकीय या राष्ट्रीय धर्म नहीं है तो एक भाषा का होना क्यों आवश्यक है। संविधान की आठवीं अनुसूची में दर्ज बाईस भाषाएं समान रूप में यहां की भाषाएं हैं। उनसे मैंने निवेदन किया कि हमारा काम धर्म के बिना चल सकता है पर भाषा के बिना हम गूंगे हो जाएंगे। जब हम मातृभाषाओं को बढ़ाने के बारे में सोच रहे हैं तो साथ ही देश की राजभाषा मुख्यतः हिंदी को व्यावहारिक स्तर पर बनाने के बारे में भी अग्रगामी होना होगा। अन्यथा बहुत सी भारतीय भाषाएं कालकवलित हो जाएंगी। इस प्रकार के रुझान आलेख में दी गई तालिका में गोचरित हो रहे हैं। पता नहीं कैसे, वहां के कुछ लोगों को लगा कि मैं हिंदी को थोपने की बात कर रहा और उन्होंने जब मुझे कहा कि याद रखिए बांग्लादेश इसीलिए बना और इसे सुनकर मेरा अंतर्मन कांप उठा कि भाषा का प्रश्न अपने देश में किस तरह उलझा दिया गया है। उनका यह आरोप मुझे सही भी लगा कि हिंदी क्षेत्र के लोग एकभाषिक होते हैं, वे हिंदी के अतिरिक्त कोई भारतीय भाषा नहीं सीखते, जबकि हिंदीतर क्षेत्र के लोग द्विभाषी (दो भारतीय भाषाएं जानने वाले) ही नहीं त्रिभाषी (तीन भारतीय भाषाएं जानने वाले) भी होते हैं। यद्यपि यह आरोप उन्हीं के द्वारा लगाए गए एक अन्य आरोप के साथ विरोधाभासी हो जाता है, जब वह कहते हैं कि हिंदी कोई भाषा नहीं, वह तो अनेक बोलियों का समुच्चय है। उनके अनुसार हिंदी अलग है और मातृभाषा अलग तथा दोनों में इतना अंतर है कि एक दूसरे की बात समझ ही नहीं पाते। विरोधाभास ये कि फिर हिंदी का व्यक्ति एकभाषी कैसे रहा, वह अपनी बोली के अलावा हिंदी भी जान रहा होता है। इन विद्वानों को हिंदी पट्टी के वे लोग बड़े प्रिय होते हैं जो कहते कि हमें हमारी मातृभाषा (बोली) में पढ़ने को मिले, हिंदी में न पढ़ना पड़े।
मंदारिन के दो विभिन्न क्षेत्रीय रूपों की पारस्परिक बोधगम्यता के उपर्युक्त उदाहरण से हमारे ऐसे प्रश्न उठाने वाले लोगों को सीख लेनी चाहिए। कुछ लोग पहाड़ी और राजस्थानी एवं हिंदी की अन्य बोलियों के नमूने रखते हुए कहते हैं क्या कोई भोजपुरी या अन्य हिंदी भाषी व्यक्ति इन्हैं समझ सकता है, किंतु क्या हम नहीं देखते कि हिंदी के एक बोली रूप को दूर के हिंदी के ही दूसरे वक्ता किसी न किसी मात्रा में समझ लेते हैं। हमें यह देखना होगा कि प्रत्येक बोली के विशिष्ट संज्ञा और क्रिया रूप होते हैं, उन्हें समझना पड़ोस के वक्ताओं को भी दुष्कर होता है। हिंदी जिस खड़ी बोली का मानक रूप है, उसका यह नमूना यहां रखने से और स्पष्ट हो जाएगा-
कोई बादसा था। साब उसके दो राण्याँ थीं। वो एक रोज अपनी रान्नी से केने लगा मेरे समान ओर कोइ बादसा है बी? तो बड़ी बोल्ले के राजा तुम समान ओर कोन होगा। छोटी से पुच्छा तो किह्या कि एक बिजाण सहर हे उसके किल्ले में जितनी तुम्हारी सारी हैसियत है उतनी एक ईंट लगी है। ओ इसने मेरी कुच बात नई रक्खी इसको तग्मार्ती (निर्वासित) करना चाइए। उस्कू तग्मार्ती कर दिया। ओर बड़ी कू सब राज का मालक कर दिया।
उक्त उदाहरण में तग्मार्ती क्रिया का बोध आसान नहीं है।
कोई बादसा था। साब उसके दो राण्याँ थीं। वो एक रोज अपनी रान्नी से केने लगा मेरे समान ओर कोइ बादसा है बी? तो बड़ी बोल्ले के राजा तुम समान ओर कोन होगा। छोटी से पुच्छा तो किह्या कि एक बिजाण सहर हे उसके किल्ले में जितनी तुम्हारी सारी हैसियत है उतनी एक ईंट लगी है। ओ इसने मेरी कुच बात नई रक्खी इसको तग्मार्ती (निर्वासित) करना चाइए। उस्कू तग्मार्ती कर दिया। ओर बड़ी कू सब राज का मालक कर दिया।
उक्त उदाहरण में तग्मार्ती क्रिया का बोध आसान नहीं है।
यहां उल्लेखनीय है कि प्रयोग का क्षेत्र विस्तृत होने से किसी भाषा या बोली में स्थानीय तत्वों का समावेश होना स्वाभाविक है। चीनी बोलने वाले हिंदी से अधिक हैं, किंतु उसका प्रयोग क्षेत्र हिंदी से सीमित है। वहीं अंगरेजी भाषा का प्रयोग क्षेत्र हिंदी से भी अधिक है, किंतु उसके बोलने वाले हिंदी से अधिक नहीं हैं। पिछले पचास सालों में हिंदी भाषी व्यक्ति 26 करोड़ से बढ़कर 42 करोड़ हो गए जबकि अंगरेजी बोलने वाले 33 करोड़ से 49 करोड़ हुए। इस प्रकार हिंदी की वृद्धि दर अधिक है। भारत में अधिकांश व्यक्ति तीन भाषाएं जानते हैं। 1500 से अधिक मातृभाषाएं भारत में बोली जाती हैं। दस हजार से अधिक व्यक्तियों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं की संख्या 122 है। हिंदी को प्रथम भाषा मानने वाले 42 करोड़ व्यक्ति हैं, वहीं दूसरी और तीसरी भाषा के रूप में हिंदी जानने वाले व्यक्तियों की संख्या 13 करोड़ है। अंगरेजी के दावों में 2.26 लाख लोगों की मातृभाषा अंगरेजी है, वहीं 8.60 करोड़ लोगों की दूसरी भाषा और 3.12 करोड़ लोगों की तीसरी भाषा अंगरेजी बताई गई है। इनका जोड़ लगाकर ये दावेदार अंगरेजी को दूसरे स्थान पर बिठा देते हैं। दूसरी भाषा के रूप में भारतीय राज्यों की स्थिति अगर देखें तो तमिलनाडु में अंगरेजी 14 प्रतिशत तथा हिंदी 1.5 प्रतिशत प्रचलित है किंतु दक्षिण की ही अन्य भाषाओं में अंगरेजी से हिंदी बहुत पीछे नहीं है। केरल में 24.35 प्रतिशत व्यक्ति अंगरेजी जानते हैं तो हिंदी 19.07 प्रतिशत। आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में हिंदी से अधिक तीन प्रतिशत व्यक्ति ही अंगरेजी जानते हैं। वहीं पश्चिम बंगाल में 2.40 प्रतिशत अंगरेजी आगे है तो ओडि़शा में हिंदी और अंगरेजी की लगभग समान स्थिति है। असम में हिंदी जानने वाले अंगरेजी से अधिक है। यह रुझान पिछले तीस सालों का है। इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि हिंदीतर भाषा क्षेत्रों में जहां अंगरेजी हिंदी से अधिक प्रचलन में है, वहां इन तीस वर्षों में उन्ही की मातृभाषाओं की प्रचलन दर में गिरावट अधिक है। जनगणना विभाग की वेबसाइट पर दिनांक 25 अक्टूबर 2015 को जाने पर स्टेटमेंट पांच से पता लगा कि 1971 से 2001 तक के चार जनगणना वर्षों में हिंदी भाषियों की संख्या दर निरंतर बढ़ी है। आठवीं अनुसूची की भाषाओं के प्रयोक्ताओं की तुलनात्मक तालिका देश की कुल जनसंख्या के प्रतिशत में दृष्टव्य है-
जनसंख्या 1971 1981 1991 2001
भारत 97.14 89.23 97.05 96.56
1 हिंदी 36.99 38.74 39.29 41.03
2 बंगाली 8.17 7.71 8.30 8.11
3 तेलुगु 8.16 7.61 7.87 7.19
4 मराठी 7.62 7.43 7.45 6.99
5 तमिल 6.88 ’’ 6.32 5.91
6 उर्दू 5.22 5.25 5.18 5.01
7 गुजराती 4.72 4.97 4.85 4.48
8 कन्नड़ 3.96 3.86 3.91 3.69
9 मलयालम 4.00 3.86 3.62 3.21
10 उड़िया 3.62 3.46 3.35 3.21
11 पंजाबी 2.57 2.95 2.79 2.83
12 असमी 1.63 ’’ 1.56 1.28
13 मैथिली 1.12 1.13 0.93 1.18
14 संथाली 0.69 0.65 0.62 0.63
15 कश्मीरी 0.46 0.48 – 0.54
16 नेपाली 0.26 0.20 0.25 0.28
17 सिंधी 0.31 0.31 0.25 0.25
18 कोंकणी 0.28 0.24 0.21 0.24
19 डोंगरी 0.24 0.23 – 0.22
20 मणिपुरी 0.14 0.14 0.15 0.14
21 बोडो 0.10 ’’ 0.15 0.13
22 संस्.त .. .. 0.01 ..
अंत में हमें कहना है कि हिंदी और उसकी बोलियों से मिलकर जो हिंदी की स्थिति बनती है, वह आशा का संचार करती हैय लेकिन जब बात हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के परिप्रेक्ष्य में की जाये तो चाहिए कि हिंदी अपने बड़प्पन का परिचय दे और अन्य भारतीय भाषाओं के कालजयी साहित्य को अपने यहां लाए। जबकि हम जब अंगरेजी के सापेक्ष हिंदी को देखते हैं तो लगता है कि अभी ज्ञान-विज्ञान की भाषा बनने के लिए हिंदी को लंबी यात्रा तय करनी है।
एसोसिएट प्रोफेसर, शोध एवं स्नातकोत्तर हिंदी विभाग
गांधी महाविद्यालय, उरई (जालौन) -285001
मोबाइल 9236114604 ूूण्बमदेनेपदकपंण्हवअण्पदझकंजंऋवदऋसंदह ेमंतबीमक पद क्मबमउइमत 2015
ूूण्ेंपजलांनदरण्दमजध्स्म्ज्ञभ्।ज्ञध्डध्डींंअपतैंतंदश्रंपदऋउंपदण्ीजउ ेमंतबीमक पद कमबमउइमत 2015
ठींतंजकपेबवअमतलण्वतह झपदकपंध्हिंदी-की-उपभाशाएं-एवं-बोलियां ेमंतबीमक पद क्मबमउइमत 2015
हिंदी भाशा स्वरूप शिक्षण वैश्विकता, संपादन डॉ कमल किशोर गोयनका एवं अन्य में विजयदŸा श्रीधर का ूूण्बमदेनेपदकपंण्हवअण्पदझकंजंऋवदऋसंदह ेमंतबीमक पद क्मबमउइमत 2015
गांधी महाविद्यालय, उरई (जालौन) -285001
मोबाइल 9236114604 ूूण्बमदेनेपदकपंण्हवअण्पदझकंजंऋवदऋसंदह ेमंतबीमक पद क्मबमउइमत 2015
ूूण्ेंपजलांनदरण्दमजध्स्म्ज्ञभ्।ज्ञध्डध्डींंअपतैंतंदश्रंपदऋउंपदण्ीजउ ेमंतबीमक पद कमबमउइमत 2015
ठींतंजकपेबवअमतलण्वतह झपदकपंध्हिंदी-की-उपभाशाएं-एवं-बोलियां ेमंतबीमक पद क्मबमउइमत 2015
हिंदी भाशा स्वरूप शिक्षण वैश्विकता, संपादन डॉ कमल किशोर गोयनका एवं अन्य में विजयदŸा श्रीधर का ूूण्बमदेनेपदकपंण्हवअण्पदझकंजंऋवदऋसंदह ेमंतबीमक पद क्मबमउइमत 2015