व्यक्ति-नाम : संस्कृति के संवाहक
डॉ राके नारायण द्विवेदी
समाज भाा विज्ञानी कहते हैं कि व्यक्ति और प्रजाति को चिन्हित करने के लिए सर्वप्रथम नामकरण किया गया होगा। यह स्वतः निर्कात्मक तथ्य भी है, किंतु नाम अस्तित्व में कब आए? इसका उत्तर मिलना असंभव है। कोई व्यक्ति आत्मविवास से यह नहीं कह सकता कि अमुक व्यक्ति ने विव में नामकरण की प्रक्रिया प्रारंभ की। विव भर में नामकरण एक अनिवार्य प्रक्रिया है, यह किसी संस्कृति के लिए अपरिहार्य है। बिना नाम का व्यक्ति ्रहोना संभव नहीं है। कल्पना करें कि प्रारंभ में मनुय को नामकरण करने में कितनी कठिनाई हुई होगी, जब उसने अन्य व्यक्तियों का ही नहीं, प्रजातियों और वस्तुओं का भी नामकरण किया होगा। सभ्यता की विकास यात्रा में मनुय का यह बहुत महत्वपूर्ण योगदान है। ध्वनि, वर्ण और पद से मिलकर बने नामों को रूढ़ करने में समूची मानव जाति का योगदान है। अपरिमित ाब्द भंडार का निर्माण भाा विकास का एक सोपान है, उसके बाद नाम चयन करना उसका दूसरा चरण है। ाब्द भंडार और नाम चयन का परस्पर एक दूसरे पर प्रभाव भी पड़ा है। सभ्यता की प्रारंभिक अवस्था में नामकरण हेतु क्या ाब्द रहे होंगे, उनका प्रमाण दुनिया में कहीं नहीं मिलता। वैदिक साहित्य ह ीवह प्रथम साक्ष्य है, जिसमें हमें नामकरण की प्रक्रिया और विाताओं के उत्स ज्ञात होते हैं। बहुत संभव है कि ारीरिक संरचना और उसकी विाताओं के आधार पर उस समय नामकरण किया जाता रहा।
एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका में कहा गया है कि व्यक्ति नामों और स्थान नामों का अध्ययन वैज्ञानिक और ऐतिहासिक मानदंडों से अधिक कदाचित् कौतूहल का विय है। मानव इतिहास में सर्वप्रथम लिखित दस्तावेज़ ऋग्वेद के रूप में प्राप्त होता है, जिसके आधार पर कहा जा सकता है कि ऋग्वैदिक काल में व्यक्तियों का नामकरण हो चुका था। ऋग्वेद में आर्यों और अनार्यों के नाम प्रभूत मात्रा में प्राप्त होते हैं।
नामकरण का उद््देय- विाल मानव समुदाय के बीच उत्पन्न बालक की पहचान नामकरण का प्रारंभिक उद््देय है। ऋि वृहस्पति कहते हैं-
नामाखिलस्य व्यवहारहेतुः ाभावह कर्मसु भाग्यहेतुः।
नाम्नैव कीर्ति लभते मनुयस्ततः प्रास्तं खलु नामकर्म।। वीरमित्रोदय भाय 1 पृठ 241
निचित ही नाम समस्त व्यवहारों का हेतु है। ाभ का वहन करने वाला तथा भाग्य का कारण है। मनुय नाम से ही कीर्ति प्राप्त करता है। इसलिए नामकरण की क्रिया बहुत प्रास्त है।
नामकरण के उद््देय पर उद््धृत यह लोक की ऐतिहासिकता पर विचार कर लेना अनुपयुक्त न होगा। ऋि वृहस्पति ने यह लोक कहा है, जो कौटिल्य यानि चाणक्य से भी पूर्व के हैं। कौटिल्य ने वृहस्पति को एक प्राचीन अर्थास्त्री माना है और छः बार उनकी चर्चा की है। महाभारत, पंचतंत्र तथा कामंदक में इनका उल्लेख है। याज्ञवल्क्य ने वृहस्पति को धर्मवक्ता कहा है। याज्ञवल्क्य वैदिक ऋि परंपरा में आते हैं, उनका नाम ाक्ल यजुर्वेद के उद््घोक के रूप में मान्य है। याज्ञवल्क्य स्मृति में ऋि वृहस्पति का उक्त लोक आया है। इस याज्ञवल्क्य स्मृति पर एक भाय मित्रमिश्र ने वीरमित्रोदय नाम से लिखा है। इन्होंने अपना इतिहास भी वीरमित्रोदय के आरंभ में दिया है। ये हंसपंडित के पौत्र एवं पराराम पंडित के पुत्र थे। हंसपंडित गोपाचल (ग्वालियर) के निवासी थे। मित्रमिश्र ने वीरसिंह के आदे से वीरमित्रोदय की रचना की थी। वीरसिंह क बहादुर राजपूत थे। उन्होंने ओरछा एवं दतिया के प्रासादों का निर्माण कराया था। वीरसिंह ने ओरछा में सन्् 1605 से 1627 तक राज्य किया था। अतः मित्र मिश्र का रचनाकाल 17वीं ाताब्दी का प्रथम चरण था। वीरसिंह ओरछा का नाम साहित्य सृजन और संरक्षण के लिए संपूर्ण दे में जाना जाता है।
ऐतिहासिक दृटि से नवजात के नामकरण का प्रथम उल्लेख ातपथ ब्राह््मण में मिलता है, जिसमें कहा गया है कि जब जातक का जन्म हो (पिता को) चाहिए कि उसका नामकरण करे, जिससे वह पुत्र बुरी ाक्तियों के आक्रमण अर्थात्् पापकर्म से दूर रहे। इसी समय वह जातक का दूसरा यहां तक कि तीसरा नाम रखे-
तस्मात्् जातस्य पुत्रस्य नाम कुर्यात््
पाप्मानमेवास्य तदपहनत्यपि द्वितीयमपि तृतीयम््। (ातपथ ब्राह््मण 6.1.3.9)
इस लोक में नामकरण के अवसर पर कोई धार्मिक क्रिया विहित नहीं की गई है। व्याकरणास्त्री पतंजलि के महाभाय में भी जन्म के तुरंत बाद जातक का नामकरण करना बताया गया है। यद्यपि गोभिल एवं खादिर के मतानुसार सोयंतीकर्म (एक ऐसी नारी के लिए संस्कार जो अभी बच्चा जनने वाली हो) में भी नाम रखा जा सकता है।
नाम-संख्या निर्धारण- ऋग्वेद (8.80.9) में ऋि सर्वोच्च सत्ता से प्रार्थना करता है कि जब हमें चतुर्थ नाम प्रदत्त किया जाय, त्यागपूर्वक (कार्य से) हम लंबे समय तक इससे जुड़े रहें और या प्राप्त हो। इसका तात्पर्य है कि वैदिक काल में व्यक्ति के चार नाम होते थे, जिसमें से तीन बच्चों के जन्म के समय तथा चौथा नाम यज्ञ कर्म के उपरांत रखा जाता था। ऋग्वेद के मंत्र 10.54.4 में भी चार नामों की ओर संकेत है एवं 9.75.2 में तीसरे नाम की चर्चा हुई है। वैदिक संहिताओं एवं ब्राह््मणों के भायों के संग्रहकर्ता सायण (1300-1380 ई) के मतानुसार चार नाम हैं- नाक्षत्र नाम (जन्म के समय जो नक्षत्र हो, उस पर), गुप्त नाम, सर्वसाधारण का ज्ञात नाम तथा कोई यज्ञकर्म संपादित करने पर रखा गया नाम, जैसे सोमयाजी, अग्निटोमयाजी। गुप्त या गुह््य नाम किस प्रकार रखा जाता था, यह वैदिक साहित्य से स्पट नहीं हो पाता, किंतु ऋग्वेद 9.87.3 तथा 10.55/1-2 में गुप्त नाम की ओर स्पट निर्दे है। ातपथ ब्राह््मण में (3.6.2.24) में भी पिता द्वारा रखे गए तीसरे नाम का उल्लेख हुआ है। वैदिक साहित्य में बहुधा, व्यक्ति दो नामों से संबोधित है, कुछ अपने एवं गोत्र के नाम से जैसे हिरण्यस्तूप आंगिरस, तो कुछ अपने नाम अथवा दे के नाम से जैसे भीमवैदर्भ। कहीं-कहीं माता के नाम से भी नामकरण हुआ है जैसे दीर्घतमा मामतेय (ममता का पुत्र - ऋ0 1.15.8.6), कुत्स आर्जुनेय (अर्जुनी का पुत्र - ऋ0 4.26.1)। वृहदारण्यकोपनिद के अंत में चालीस ऋियों के नामों में माताओं के नाम का संबंध है। माता के नाम या माता के पिता के गोत्र के नाम के साथ नाम रखने की परिपाटी कालांतर में भी चलती रही।
वैदिक काल के उपरांत सूत्र’ काल में नामकरण के समय धार्मिक क्रिया संपादन विहित की गई। गृह््यसूत्रों में नामकरण संबंधी नियमों का निर्धारण किया गया है। नाक्षत्र नाम को ही ले, जिसे जातक के जन्म के नक्षत्र पर आधारित बताया गया है। नाक्षत्र नाम वैदिक यज्ञ कराने के लिए प्रयुक्त किया जाता था, लेकिन जहां तक वैदिक कालीन देवताओं और ऋियों के नामों की बात है, सैकड़ों नाम मिलते हैं, पर वे नक्षत्र के अनुसार रखे गए हों, ऐसी बात जंचती नहीं। इससे प्रकट होता है कि नाक्षत्र नामकरण की प्रक्रिया में नाम को गुप्त रखा जाता था। इसीलिए वेदों में ऋियों के नाक्षत्र नाम प्रमाणित नहीं होते। धीरे-धीरे यह नाक्षत्र नाम गुप्त नहीं रह गए और इसके लिए नियमों का निर्धारण कर लिया गया।
मध्यकालीन समय में ज्योतिीय गणना से सत्ताइस नक्षत्र होते हैं। एक नक्षत्र की अवधि लगभग एक दिन के लिए होती है। प्रत्येक नक्षत्र के चार चरण होते हैं यथा- अविनी नक्षत्र के लिए चू, चे, चो, ला। नक्षत्र के जिस चरण के समय जातक का जन्म हो, उसी के पहले अक्षर पर नामकरण किया जाता है।
सर्वसाधारण को ज्ञात नाम व्यवहार नाम भी कहे जाते हैं। जन्म के दसवें दिन पिता िा के कान के पास कहता है ‘हे िा, तुम कुलदेवता के भक्त हो, तुम्हारा नाम अमुक... हैं।’ उपस्थित स्वजन एवं ब्राह््मण कहते हैं ‘यह नाम प्रतिठित हो’
सभी गृह््यसूत्रों में सर्वप्रथम नियम यह है कि पुरु का नाम दो या चार अक्षरों का या समसंख्या वाला होना चाहिए।
सभी गृह््यसूत्रों में यह नियम पाया जाता है ि कनाम का आरंभ उच्चारण करने योग्य तथा बीच में अर्द्धस्वर वाला अवय हो।
कुछ सूत्रों में आया है ि कनाम के अंत में विसर्ग होना चाहिए, किंतु उसके पूर्व दीर्घ स्वर अवय हो।
आपस्तंब ने लिखा है ि कनाम के दो भाग होने चाहिए, जिसमें पहला संज्ञा हो एवं दूसरा क्रियात्मक हो।
कुछ सूत्रकारों ने लिखा है ि कनाम की निर्मिति ‘कृत’ प्रत्यय से होनी चाहिए, तद्धित से नहीं।
नाम में ‘सु’ उपसर्ग होना चाहिए, यह नियम आपस्तंब एवं हिरण्यकेा ने सुझाया है।
बौधायन गृह्यसूत्र के अनुसार नाम किसी देवता, ऋि या पूर्वपुरु के नाम से निःसृत होना चाहिंए। नामों का संबंध कुलदेवता से होने का विधान भी मिलता है।
बालक का नाम पिता के किसी पूर्वज का नाम हो सकता है, किंतु पिता के नाम से पुत्र का नाम नहीं रखा जाना चाहिए।
मुख्य नामकरण जन्म के समय अथवा जन्म के दसवें या बारहवें दिन होना चाहिए।
बालक के नाम में नक्षत्र नाम भी गृहीत होना चाहिए।
पुत्र के नाम का आदि घोवत््, मध्य अंतस्थ एवं अंत विसर्गयुक्त होना चाहिए।
बालक का नाम देवता नाम से सीधे व्युत्पन्न नहीं होना चाहिए।
बौधायन एवं पारार के अनुसार ब्राह्मणों का नाम ार्मांत, क्षत्रियों का वर्मांत, वैयों का गुप्त, भूति, दत्तांत तथा ाद्रों का भृत्य, दासांत होना चाहिए।
पुत्री का नाम नदी, नक्षत्र,, चंद्र, सूर्य, वृक्ष के नाम पर नहीं होना चाहिए।
आधुनिक काल में सीधे ढंग से देवताओं और अवतारों के नाम रखे जाते हैं, किंतु अपवाद को छोड़कर वैदिक काल में व्यक्तियों के नाम देवताओं के नाम से संबंधित नहीं पाए जाते।
बौद्ध पालि साहित्य में गोत्र नामों की प्रधानता है। बौद्ध जातकों में भी नाक्षत्र नाम पाए जाते हैं।
जैन समाज में जातक के जन्म के 11वें, 13वें अथवा 29वें दिन बच्चे का नामकरण किया जाता है। 1008 जिनसहस्र नाम में से बालक के लिए एवं पुराणों में से प्रसिद्ध स्त्रियों के नाम पर नामकरण करते हैं। पुजारी मंत्र पढ़ते है और िा को आार्वाद देते हैं।
पाणिनिकालीन भारत में नाम के प्रायः दो पद होते थे- पूर्वपद एवं उत्तरपद। नामों को छोटा करने की भी प्रथा थी। उत्तरपद या पूर्वपद का लोप करके नामों को छोटा किया जाता था और उस लोप को सूचित करने के लिए कुछ प्रत्यय जोड़े जाते थे, जिसका उल्लेख अटाध्यायी में विस्तारपूर्वक मिलता है। इस काल में भी नक्षत्र नामों से व्यक्ति नाम रखे जाते थे। पिता या माता के नाम से पुत्र का नाम व्युत्पन्न करने की प्रथा थी। बालिकाओं का नाम नदी के नाम पर रखने की प्रथा का उल्लेख मिलता है।
स्मृतिकाल में गृह्यसूत्रों के जटिल नियम छोड़ दिए गए। मनु ने दो सरल नियम दिए- सभी वर्णों के नाम ाभसूचक, ाक्तिबोधक, ांतिदायक होने चाहिए (मनु स्मृति 2.31.32) तथा ब्राह्मणों एवं अन्य वर्णों के नाम के साथ एक उपपद होना चाहिए, जिससे ार्म (प्रसन्नता), रक्षा, पुटि एवं प्रेय का संकेत मिले। अर्थात् ब्राह्मण का नाम ार्मांत होना विहित था, जो प्रसन्नताज्ञापक तथा आार्वादात्मक होता था। क्षत्रिय का नामांत रक्षार्थक, वैय का नामांत समृद्धिद्योतक तथा ाद्र का नामांत अधीनतावाचक अथवा सेवक भावज्ञापक होता था।
ईसाइयों में बपतिस्मा नाम की धार्मिक क्रिया महत्वपूर्ण मानी जाती है। बच्चे को चर्च ले जाया जाता है। मान्यता है कि आदम और ईव की परंपरा से प्राप्त बच्चे का दो बपतिस्मा से दूर होता है। इस क्रिया के बाद बच्चा ईवर का हो जाता है और चर्च का सदस्य बन जाता है। बपतिस्मा बच्चे के पहले जन्म दिन पर नए कपड़े, जूते, टोपी और उपहारों के साथ माता-पिता और रितेदारों द्वारा संपन्न किया जाता है। अमेरिकी ईसाइयों में ‘जार्ज’ नाम सबसे अधिक प्रचलन में है। वहां 60 फीसदी बच्चों के नाम उनके करीबी रितेदारों के नाम पर रखे जाते हैं। ब्रिटेन के ईसाइयों में ‘जैक’ सर्वाधिक प्रिय नाम है।
मुसलमानों में जन्म के सातवें दिन नवजात के दाएं कान में अज़ान तथा बाएं कान में इकमत बोलकर यह विवास जताया जाता है कि तुम्हारी जीभ सदा अल्लाह के जिक्र से तर रहा करे। इसीलिए इस्लाम में मोहम्मद सर्वाधिक प्रचलित और पसंदीदा पुरु नाम है। ब्रिटेन में यह सन्् 2004 में सर्वाधिक बीस लोकप्रिय नामों में सम्मिलित हो गया।
जातक के जन्म के अवसर पर िा के कान में सिखों में प्रभात प्रार्थना जपजी साहब के पांच पद सुनाते हैं। परिवार का कोई सम्मानित, बुद्धिमान और प्रिय व्यक्ति ाहद की एक बूंद नवजात को पिलाते हैं, इसे गुर्थी बोला जाता है।
आधुनिक काल में संस्कार प्रका जैसे ग्रंथों में चार प्रकार के नाम वर्णित है देवता नाम, मास नाम, नाक्षत्र नाम तथा व्यावहारिक नाम। पहले नाम से स्पट है कि यह नामधारी उस देवता का उपासक है। निर्णय सिंधु ने मास के बारह नामों के लिए एक उद्धरण दिया, जिसमें जन्म के महीने को आधार बनाया गया है- कृण, अनंत, अच्युत, चक्र, बैकुंठ, जनार्दन, उपेंद्र, यज्ञपुरु, वासुदेव, हरि, योगी तथा पुंडरीकाक्ष। माह का आरंभ मार्गाार् या चैत्र से होता है। वराहमिहिर की वृहत्संहिता में विणु के बारह नाम बारह महीनों से संबंधित हैं यथा- केव, नारायण, माधव, गोविंद, विणु, मधुसूदन, त्रिविक्रम, वामन, श्रीधर, हृीके, पद्मनाभ एवं दामोदर।
आजकल नामकरण के लिए सुंदर नामों की वर्णमाला सूची बनाकर बाज़ार में पुस्तकें आ रही हैं। 1993 में केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी की पुस्तक ज्ीम च्मदहनपद ठववा वि भ्पदकन छंउमे 522 पृटों में प्रकाात हुई। सन् 2004 में 3500 बालक-बालिकाओं के सुंदर नाम फ्यूजन बुक्स ने निकाली है। ऐसी अनेक पुस्तकें आ रही हैं, क्योंकि माता-पिता अपने बच्चों के नाम स्वयं रखने लगे हैं। सुंदर, नवीन, आर्काक और मंगलकारी नाम जानने के लिए बाज़ार ने उनके लिए यह व्यवस्था बना दी है। बच्चों के आर्काक नामों को व्यक्ति इंटरनेट पर भी खोजकर नामकरण कर रहे हैं।
यह देखते हुए कहा जा सकता है कि नामकरण संबंधी नियमों में उत्तरोत्तर सरलता आई है। बालकों और बालिकाओ के नामों में मंगल, प्रतिठा, सुरक्षा, ांति एवं समृद्धि सूचक नामों की प्रधानता दिख रही है। जटिल नियमों का निरसन कर दिया गया है और सुकर व्यवस्था चलाई जाने लगी है।
एसोाएट प्रोफेसर, हिंदी
गांधी महाविद्यालय, उरई (जालौन)
मोबाइल 9236114604
Sunday, March 5, 2017
व्यक्ति नाम संस्कृति के संवाहक
Monday, January 30, 2017
स्त्री पुरुष सम्बन्ध और आदिवासी कबीले
स्त्री पुरुष संबंध और आदिवासी कबीले
डॉ राकेश नारायण द्विवेदी
सामान्यतः पुरुष एक स्त्री को या तो बेचारी मानता है या उपभोग्या। पुरुष स्त्री को देवी कहता है और लतरौंदा भी समझता है। पुरुष स्त्री से या तो डरता है या उससे दूर भागता है। इस प्रकार के और भी द्विधु्रवीय बिंब स्त्री के प्रति पुरुष के मन में चलते रहते हैं। पुरुष उसे बराबर का या अपने जैसा नहीं समझता। कभी वह मनु स्मृति के उस श्लोक को संपुट की तरह व्यवहृत करेगा, जिसे इसी आलेख में उद्धृत किया गया है और कभी वह यह भी कहेगा धीरज धर्म मित्र अरु नारी और परखने के लिए सदैव आपातकाल बनाए रखता है। पुरुष स्त्री को पराधीन मानता है तो अधम ते अधम अधम अति भी।
हिंदू परंपरा में जो कथाएं कही जाती हैं, उनमें स्त्री पुरुष की सहायक है। इन कथाओं में पुरुष को वरेण्यता प्राप्त है। भगवान कृष्ण निर्वस्त्र स्नान कर रहीं गोपियों के यमुना किनारे रखे हुए वस्त्र उठा लेते हैं। इस कथा के पीछे के अनेक भावों का दर्शन कथावाचक कराते हैं। एक भाव यह कि नदी में निर्वस्त्र स्नान नहीं करना चाहिए और कहते हैं कृष्ण ने इसीलिए स्त्रियों के वस्त्र चुराए। किंतु ऐसे प्रसंगों को ठीक से न समझने वाले लोग यह सीख ले जाते हैं कि पुरुष को तो स्त्रियों के प्रति ठेकेदारी मिल गयी। वे नाना प्रकार की हिदायतें और नसीहतें स्त्रियों को देने लगते हैं कि तुम यह पहनो, वह न पहनो, यहां जाओ वहां न जाओ, कब जाओ कब लौटो, इससे मिलो उससे न मिलो इत्यादि। हिंदू परंपरा में पुरुष को स्त्रियों का संरक्षक मान लिया गया है। यद्यपि वैदिक कालीन साहित्य में ऐसे संदर्भ नहीं मिलते हैं। बाद में स्मृति काल में कहा गया कि विवाह होने तक पिता, विवाहोत्तर समय में पति तथा वृद्धावस्था में पुत्र उसकी रक्षा करता है। स्त्री अपने भाई से आजीवन रक्षा सूत्र बांधकर रक्षा करने की कामना करती है।
हिंदू सनातन परंपरा में सीता, कौशल्या, मंदोदरी आदि स्त्रियां पुरुष अनुगामिनी हैं तो सती अपने पति शंकर का कहा नहीं मानती और बिना बुलाए अपने पिता के यहां यज्ञ में चली जाती हैं। वहां पति के हिस्से का सम्मान न देखकर अपना शरीर भस्म कर देती हैं। भस्म शरीर से दस महाविद्या के अलग-अलग भयंकर स्त्री रूप बनते हैं।
युगीन चेतना के फलस्वरूप समाज के एक वर्ग में स्त्री के प्रति सतर्क भाव जाग्रत हो गया है, जो स्त्री को निम्न दर्जा मानने के परंपरावादी पाठ की समसामयिक संदर्भो में समालोचना करता है। जो कथावाचक या शास्त्रज्ञ स्त्री को हेय बता बता कर विद्वान कहे जाते थे, वह अपनी दृष्टि को विस्तार देने लगे हैं और कहने लगे हैं कि अब पुत्र और पुत्री में अंतर नहीं। इस तरह का स्वर अभी मद्धिम होगा, लेकिन वह चर्चा और प्रभाव के स्तर तक जा चुका है। घूंघट की स्त्री अब बीते ज़माने की बात हो चली है। आंख से आंख मिलाकर जब एक युवती चलती है तो परंपरावादी कसमसाकर अपनी ही आंखें नीचे कर लेते हैं। संस्कृत साहित्य और रामचरितमानस जैसी रचनाओं का पाठ स्त्रीवादी दृष्टिकोण से होने लगा है। मानस की ‘ढोल गंवार शूद्र पशु नारी’ जैसी चौपाइयों के अनेक अर्थ किए जा रहे हैं और सभी अर्थों में स्त्री की प्रतिष्ठा को सुरक्षित किया जा रहा है।
भारतीय समाज की चेतना के विभिन्न स्तर हैं। स्त्रियों के प्रति भी इन चेतनाओं का अंतर साफ दिखता है। नवयुवकों में युवतियों के प्रति आकर्षण को परंपरावादी पाठ भी मानता आया है, पर अब युवतियों के युवकों के प्रति आकर्षण को भी व्यक्त किया जाने लगा है। समाज में विभिन्न तरह के व्यक्ति हैं, ऐसा होना अस्वाभाविक भी नहीं है। यही नहीं एक व्यक्ति में भी कई तरह के व्यक्ति विद्यमान होते हैं। एक व्यक्ति अगर किसी के मात्र पुत्री संतान हैं तो वह उस परिवार की नाश हुआ मानता है। वह बड़ी निर्ममता से मात्र पुत्री संतानयुक्त परिवार के भाग्य और कर्मों को कोसने लगता है कि उसके यहां कोई है ही नहीं। कोई व्यक्ति उदारता और समझदारी के आवरण में कहता कि उन्हें क्या फिक्र है, कौन कोई आगे पीछे बैठा है। यहीं नहीं ऐसे पुरुषों की स्त्रियां भी पितृसत्ता को मजबूत करने की उपकरण बन जाती हैं और गाली के अंदाज में ताने कसती कि फलां के वंश में अब दिया जलाने वाला भी नहीं बचा। यह कोई नई या विशिष्ट बाते नहीं हैं। यहां इन बातों को रखने से हमें समाज के उस खोखले रूप का दर्शन हो जाता है, जिसे दूर किए बिना हम भारत को उन्नत नहीं बना सकते हैं। विडंबना यह है कि इन बातों को अपने दिल पर लेने वाले व्यक्ति भी बहुतायत में हैं। अन्यथा अगर इन बातों पर ध्यान न दिया जाए तो ऐसा कहने वालों के हौसले स्वतः पस्त हो जाएं।
अब हम मनुस्मृति के उस श्लोक की परीक्षा करें, जिसमें कहा गया है ‘‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रभंते तत्र देवता। यत्रैतास्तु न पूज्यंते सर्वास्तत्राऽफला क्रिया।।’’
अर्थात् जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं और जहां ऐसा नहीं होता, वहां किए गए सारे कार्य निष्फल हो जाते हैं। मनुस्मृति का यह पद वस्तुतः देश के कबीलाई या आदिम संस्कृति के मनुष्यों को देखकर रचा गया होगा। आदिम संस्कृति आदिवासियों या गिरिजनों की संस्कृति है जो कबीले के रूप में रहते रहे, जिन्हें जनजातीय समाज भी कहा जाता है। इस आदिवासी संस्कृति में स्त्री दुर्दशा उस रूप में नहीं पाई जाती, जिस रूप में यह शेष समाज में विद्यमान है।
भारतीय वाङमय में पाए जाने वाले अनेक उदाहरण यह साफ करते है कि शुरूआत के मानव समाज में जब ग्राम-नगरों आदि का गठन नहीं हुआ था मानव समूह कबीलों में रह रहे थे तब उनमें मातृसत्ता का पूर्ण प्रभाव था।
आज भी हम देखते हैं कि प्रत्येक गांव में कम से कम एक मातृदेवी की पूजा प्रचलित है। अक्सर ऐसी देवी का कोई ख़ास नाम नहीं होता, इन देवियों के निराले नाम देखकर ऐसा लगता है कि इनका संबंध छोटे-मोटे जनजातीय समूह से रहा है जो अब या तो निःशेष है या सामान्य देहाती आबादी में इस कदर घुलमिल गया है कि उसका कोई चिन्ह शेष नहीं है। इन देवियों की पुरातनता इस बात से प्रमाणित होती है कि इनमें से किसी के कोई पुरुष संगी या पति नहीं है। ये देवियां हैं तो माताएं (मात्देवियां) किंतु अविवाहित हैं। जिस समाज में इनका उद्भव था, उसकी दृष्टि में किसी पिता का होना आवश्यक नहीं था। आगे चलकर इनका ब्याह किसी पुरुष देवता से होने लगा। मातृदेवियों की पूजा पद्धतियां उस ज़माने की हैं, जब घर बनाने का चलन नहीं था और जब गांव चलते-फिरते हुआ करते थे। प्रस्तुत पंक्तियों के लेखक ने अपनी पुस्तक ‘स्थान-नाम समय के साक्षी’ में स्थान-नामों के उत्स पर विचार करते समय यह रेखांकित किया है कि आदिवासी लोकमाताओं के नाम पर ही प्रारंभ में स्थानों का नामकरण किया गया।
कबीलाई या आदिवासी समाज में दो ऐसी परंपराएं हजारों वर्षों से चली आ रही हैं, जिन्हें विश्व में आज के उत्तरोत्तर आधुनिकतावादी समाजों में प्रचलित देखकर अचरज होता है कि यह तो हमारे आदिवासियों में प्रारंभ से ही विद्यमान है। भारत की सभ्यता और संस्कृति को निर्मित और विकसित करने में आदिवासियों का प्रस्थानिक योगदान है। डॉ सुनीति कुमार चाटुर्ज्या मानते थे कि ‘निषाद लोगों ने भारत की ग्रामीण सभ्यता की नींव डाली थी। आदिवासियों ने साहित्य-संगीत के शुद्ध स्वरूप को प्रस्तुत कर आदिमानव के उत्कर्ष को बहुरूपों में प्रस्तुत किया।
प्राचीन भारत में मातृसत्ता की विद्यमानता इन आदिवासियों के यहां जिन रूपों में पाई जाती है, उसके चिन्हों को हम आदिवासियों की इन दो परंपराओं में देख सकते हैं-
1-भगोरिया- यह पर्व होली के समानांतर होता है, जो भील आदिवासियों में सामुदायिक रूप से मनाया जाता है। युवा-युवतियों के लिए यह पर्व चयन और चुनौती तथा नई फसल की दृष्टि से उमंग और उल्लास का प्रतीक है। भीलों के आराध्य भगोरदेव के नाम पर संभवतः इसे भगोरिया कहा गया अथवा यह भगोर-गोती भीलों द्वारा आरंभ किए जाने के कारण अथवा भीलों पर शैव प्रभाव (भग अर्थात् शिव एवं गौर अर्थात् पार्वती) के कारण प्रचलित हुआ है।
इस पर्व में चंद्रमुखी प्रेमिका या बलिष्ठ युवक अपने भाग्य की संपन्नता का परीक्षण करते हैं। स्वकीय सौंदर्य और पराक्रम को निखारकर अपने आमोद-प्रमोद को अधिक वाचाल बनाते हैं, जाति-कुल की मर्यादा को जीवित रखते हैं एवं प्रेम-स्नेह जनित भावनाओं को मूर्त रूप देकर सुखद अनुभूतियों को उल्लसित करते रहते हैं। सांसारिक सुखों में डूबकर एक समय वे ऊबकर विरति की देहरी का स्पर्श करने लगते हैं। यही सुख साम्राज्य की चरम परिणति है, जिसे ‘मोक्ष’ कहा गया है। वन-प्रांतर में दैनिक जीवन-यापन करते हुए युवक-युवती पारस्परिक परिचय के माध्यम से कुल आदि का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। वे गंधर्व विवाह की गहरी रेखाएं अंकित कर मनोनुकूल जीवनसाथी का चयन कर लेते हैं। स्वयंवर का यह मनोहारी रूप बड़ा रोचक और स्मरणीय होता है।
इस तरह पर्व के माध्यम से हम जान सकते हैं कि आदिवासियों का जीवन-दर्शन एक खुली हुई क़िताब के समान है, जिसमें न किसी प्रकार का दुराव है और न किसी भांति की दुष्प्रवृत्ति अंकुरण की गुंजाइश। आदिवासी वैवाहिक जीवन की सफलता का यह एक रहस्य भी है कि इसमें पारस्परिक प्रेम (रति) की पूर्णता रहती है, स्त्री को कामवस्तु नहीं समझा जाता, एक-दूसरे की चिर-पहचान कभी आन बनती है तो कभी सम्मान की सिंदूर-सुषमा परिवार-समाज की धरोहर बनती है।
होली के ठीक पहले आदिवासी क्षेत्रों में भगोरिया के मेले लगते हैं। भगोरिया की कल्पना मात्र से आदिवासियों का आदिमन स्वतः नाच उठता है। मेले में युवक द्वारा युवती को गुलाल लगाया जाता है और युवती द्वारा पान खाना स्वीकार किया जाता है। स्वयंवर प्रथा का यह प्रारंभिक चरण है, जिसे स्वयंवर में परिणत होने का सूचक माना जाता हैं। एक-दूसरे को चुनने के बाद यह युग्म घर नहीं लौटते, बल्कि कहीं भाग जाते हैं। कुछ दिन स्वच्छंद घूमने के बाद ये जोड़े जब अपने घर लौटते हैं तो कुछ प्रथाओं की पूर्ति करने के बाद इसे विवाह की मान्यता प्रदान कर दी जाती है। विवाह संपन्न होने पर दावत दी जाती है।
समय परिवर्तन के साथ इस पर्व का रूवरूप बदल गया है। एक समय युवक इस पर्व के माध्यम से अपनी जीवन सहचरी को सुगमता से प्राप्त कर लेता था, किंतु अब वधू-मूल्य इतना बढ़ गया है कि धनाभाव से संत्रस्त आदिवासी नौजवान हजारों रुपए की धनराशि को जुटाने में अपनी जवानी के ओज को यों ही खो देते हैं। पलसूद स्थान का भगोरिया सर्वश्रेष्ठ माना गया है। ध्यातव्य है कि आज शेष समाज में दहेज प्रथा इसके विपरीत रूप में प्रचलित है।
2- गोतुलः- गोतुल सांस्कृतिक दृष्टिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण संस्था है। इस संस्था से पता चलता है कि आदिवासी अपने युवक-युवतियों की प्रगति के लिए कितने सजग हैं। प्रायः समस्त आदिवासियों में ‘गोतुल’ नामक संस्था की स्थापना का प्रचलन है। बोली की विविधता के कारण विभिन्न आदिवासी समाजों में इस संस्था के भिन्न-भिन्न नाम हैं। मुड़िया (मुरिया) इसे ‘घोटुल’ कहते हैं तो भुइयां समाज में यह ‘धंगर बस्सा’ नाम से पुकारी जाती है। मुंडा एवं हो इसे ‘गतिओरा’ कहकर संबोधित करते हैं। उरांव आदिवासियों में यह संस्था ‘धुमकुरिया’ कही जाती है। इसी प्रकार असम के नागा लोग इसे ‘याकिचुकी’ कहा करते हैं। उत्तर-प्रदेश के वनवासी-समाज ने इस उपयोगी संस्था को ‘रंग-बंग’ नाम से अभिहित किया है। इस संबंध में यह जानना आवश्यक है कि यह संस्था पूर्णरूपेण अविवाहित कुमारों एवं कुमारियों के लिए ही है। विवाहितों का यहां प्रवेश निषिद्ध है। रात में कुमार-कुमारी इस मोहक-गृह में रहकर जीवनोपयोगी कई बातों को सीखते हैं। उन्हें इस गृह में सामाजिक एवं धार्मिक तथ्यों से अवगत कराया जाता है।
कहा जाता है कि यह ‘घोटुल’ आदिवासियों के लिंगो देवता का वरदान है। ‘घोटुल’ डिंडामहल अर्थात् अविवाहितों का राजप्रासाद है।
साधारणतः ‘गोतुल’ गांव के पास हरे-भरे जंगल में बनाए जाते हैं, इन्हें कुमार-कुमारियां बड़े चाव से बनाते हैं। दीवारों पर कई देवी-देवताओं की आकृतियां विविध रंगों में चित्रित की जाती हैं। युवा-गृह में एक बड़ा लंबा कमरा होता है, जो घास-फूस से छाया जाता है। इसमें प्रवेश के लिए एक छोटा सा दरवाजा बनाया जाता है। संध्या होते ही गांव के कुमार एवं कुमारियां इस गृह में जाते हैं और इसकी सफाई करने में लग जाते है। कतिपय आदिवासी जातियों में कुमारों के लिए पृथक् और कुमारियों के लिए अलग ‘गोतुल’ होते हैं, लेकिन ऐसे भी कई रंगबंग (घोटुल) हैं, जिनमें अविवाहित युवक-युवतियां साथ रहते हैं। यहां नृत्य-गानादि की शिक्षा भी दी जाती है और यौन विषयक प्रशिक्षण भी इन ‘गोतुलों’ में उपलब्ध होता है। मद्यपान और भोजन के बाद शीतकाल में युवागृह के प्रांगण में अलाव जलाए जाते हैं, जिनके पास बैठकर कहानियां सुनाकर मनोविनोद किया जाता है। कामशास्त्र की शिक्षा इन गृहों में अनुभवी प्रौढ़-प्रौढ़ाएं ही देती हैं। अपनी इच्छानुसार युवक युवतियों को चुनते हैं और फिर विधिवत् इनका विवाह संपादित किया जाता है। कहा जाता है कि ‘गोतुल’ में गर्भाधान वर्जित है, लेकिन प्रेम स्वातंत्र्य के कारण यहां कभी-कभी चारित्रिक पतन भी हो जाता है।
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प्राचीन भारत में मातृसत्ता और यौनिकता, लवली गोस्वामी, पृ0 42 दख़ल प्रकाशन मिथक और यथार्थ (भारत की सांस्कृति संरचना का अध्ययन), डॉ दामोदर धर्मानंद आदिवासियों के बीच, श्रीचंद्र जैन, पृष्ठ 40 शिवानी बुक्स दिल्ली प्रथम संस्करण 2007