Wednesday, January 12, 2022

नाम और रूप बनाम शब्द और अर्थ - एक विमर्श

नाम और रूप शब्द और अर्थ ही हैंदोनों में अनिवार्य पारस्परिक संबंध हैशब्द आयत्त होने पर उसकेअर्थ की प्राप्ति होती है.. इसी प्रकार अर्थ प्राप्त हो जाने पर उसके शब्द का प्रकटीकरण हो जाता हैदोनों में भेदाभेद संबंध होने के कारण एक के अभाव में दूसरा नहीं रह सकता.

शब्दोदय के साथ ही उसके वाच्य अर्थ का आविर्भाव होने लगता है.

वर्णभाव गलित होते ही नादरूपता का उन्मेष होता हैयही उर्ध्वगति है.

क्रिया भाव अथवा शब्द में से किसी एक का परिवर्तन कर देने पर संपूर्ण अस्तित्व का परिवर्तन होजाता है.


चिन्मय गुलाब सर्वप्रथम हृदय में उद्भूत होता हैसूक्ष्माकृति रूप मेंइसका बहिर्जगत मेंमहाकाश मेंआनयन होने सेपंचभूत सम्पृक्त गुलाब पुष्प का आकार गठित होता हैयही है वह स्थूल गुलाब जिसेहम देखते हैंकिंतु चिन्मय गुलाब (गुलाब पुष्प सृष्टि की इच्छावास्तव में शक्तिरूपा हैजगत मेंप्रत्यक्षीभूत पांचभौतिक गुलाब में से पंचभूत एवं सत्वांश खींच लेने पर अवशिष्ट बचता है चिन्मयगुलाबवह इस स्थिति में विविक्त  रहकर चैतन्य समुद्र में विलीन सा प्रतीत होता हैउसे गुलाब कीसंज्ञा से पहचान सकना संभव नहीं रहताब्रह्मसमुद्र में डूबने से यही अवस्था हो जाती हैअनंत कीओर पृष्ठ १२१-१२२ गोपीनाथ कविराज 

जगत की शेष सीमा रंग हैउसके पश्चात वस्तु की सत्ता मिलती हैहम वस्तु को देख नही सकतेरंगही देखते हैंप्रत्येक वस्तु का एक एक वर्ण होता हैवस्तु का आविर्भाव अर्थात् साथ साथ रंग काप्राकट्यवस्तु अथवा रूप की प्रभा ही रंग हैरंग का भेदन करने से ही रूप का प्रतिभासन हो सकेगाजिस प्रकार ईश्वर योगमाया से समावृत रहते हैंउसी प्रकार देवताजीव तथा सभी वस्तु अपनीअपनी वर्णात्मक प्रभा से आच्छन्न हैंयह प्रभा योगमाया अथवा वर्णमय प्रकृति का क्षेत्र हैइसमेंचिदबीज का वर्णन करने पर रूप का आविर्भाव संभव हो जाता है.

स्थूल चक्षु द्वारा दृश्य दर्शन में स्थूल प्रकाश सहायक हैयह आग्नेयवर्ण का प्रकाश हैसूर्य किरणऔर चंद्र किरण आग्नेय किरण हैंस्थूल आँखें बंद करने पर अंधकारादि का दर्शन मन द्वारा होता हैसूक्ष्म प्रकाश विशुद्ध चंद्र का प्रकाश हैचित्ताकाशस्थ वर्ण की अनुभूति इसमें होती हैमन रूपी चक्षुको बंद करने पर बुद्धि अथवा प्रज्ञा का नेत्र कारण जगत को देखता हैइसके दृश्य में अंतःसूर्य काप्रकाश कार्यकारी हैबुद्धि के नेत्र को बंद करने पर बोध के नेत्र खुलते हैंइसके मूल में ब्रह्मज्योतिकार्यकारी हैयह प्रकृतसाक्षी और महती शक्तिरूपा है.


प्रत्येक आलोक में प्रत्येक वस्तु का दर्शन असंभव हैसमजातीय आलोक में समजातीय दृश्य कादर्शन संभव हैजहां ब्रह्मज्योति क्रीड़ा करती हैवहाँ जगत नहीं है


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एक पूरा शब्द भी हम एक क्षण में नहीं बोल पातेउसे कोई जान सकता हैबोल नहीं सकता.


शब्द हो नाम हो सब मन से पैदा होते हैंसारी सृष्टि मन की हैमन ही निर्मित करता है और बनाता है



नाम देते ही वस्तु का जन्म होता हैजब तक हम उस अनाम को नाम  दे तब तक वह समस्त अस्तित्वका स्रोत हैशब्द हमारे ठोस है अपने से इतर या विपरीत को जगह नहीं दे पाते हैंनाम देना खंड खंडप्रक्रिया है और नाम छोड़ देना है अखंड को जाननाजिस चीज़ को भी अब नाम देते हैं वह वस्तु बनजाती हैभाषा में सत्य डालते ही विकिरण या रेडिएशन हो जाता हूँ एक बताने वाला शब्द भी तत्कालदो की सूचना देने लगता है.


एक व्यक्ति शेख फ़रीद के पास गया और उनसे पूछा कि उसे वही सुनाएँ जिसमें असत्य  होफ़रीदने कहा ज़रूर बताऊँगा तुम अपने प्रश्न को इस भाँति बनाकर लाओ उस में शब्द  होतुम शब्दों मेंपूछ रहे तो उसका उत्तर शब्दों में कैसे दिया जा सकता है


शब्द और अर्थ एक  होने पर शाब्दिक माया का जन्म होता हैहर वस्तुभावना अथवा विचार शब्दमें प्रकट हैआध्यात्मिक दुनिया में शब्द अनंतसर्वकालिकसार्वत्रिकअमर्त्य एवं शाश्वत होते हैंवस्तुओं व्यक्तियों या विचार को दिए शब्द आध्यात्मिक अर्थ को धारण नहीं कर पातेवे केवलविकल्पात्मक ज्ञान प्रस्तुत कर पाते हैंजब हम आलू कहते हैं तो आलू एक वस्तु के रूप में जानने परही बोधगम्य हो पाता हैशब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः योगसूत्र /९। मन की तीसरी वृत्तिविकल्प हैयह एक तरह का मतिभ्रम हैजैसे कोई कुछ कल्पना कर ले कि दुनिया समाप्त होने वालीहै। वास्तविकता में ऐसा कुछ भी होता नहीं है बस कुछ मन के भीतर शब्द चलते हैं। ऐसे सभी व्यर्थडरकपोल कल्पना और निराधार शब्द जिनका कोई अर्थ नहीं हैऐसे विचार और ऐसी वृत्ति कोविकल्प कहते हैं। 

गहन ध्यान में शब्द तिरोहित हो जाते हैंतब शब्दों से बनी भाषा के विलीन होने पर संसार भी चलाजाता हैशब्द और संसार परस्पर संबंधी हैंशब्दों के द्वारा अपनी धारणा या कल्पना ही व्यक्त होतीहैध्यान कोई बनी बनाई धारणा या विचार नहीं होता यह तो आत्म साक्षात्कार कराने का माध्यम है

शब्दार्थ प्रत्ययानामितरेतराध्यासात्...योगसूत्र /१७

शब्दवस्तु और विचार एक साथ एक मतिभ्रम की दशा में एक साथ मौजूद रहते हैंजब संयम काअभ्यास किया जाता है तब किसी भी प्राणी की ध्वनि का अर्थज्ञान प्राप्त किया जा सकता है.

नाद से ही सृष्टि का उद्गम हुआ हैविचार भी शब्द और ध्वनि का मिश्रण हैशब्द ध्वनि हैप्रत्येकशब्द और ध्वनि का अर्थ होता हैदुनिया की सारी भाषाएँ अध्यारोपित विचारों का ज्ञान ही हैयहभाषाएँ भ्रमात्मक और सीमित प्रकृति की हैं.

कहते हैं बुद्ध सभी प्राणियों की भाषाओं को समझ लेते थे.


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भारत की वैदिक तांत्रिक तथा अन्य साधनाओं के अन्वेषण से ज्ञात होता है कि ईसाईमुस्लिम बौद्धआदि साधनाओं में भी शब्द ही मूल हैपरम सत्ता ही प्रकाश है प्रकाश एवं विमर्श एक ही हैं अथवाएक होने पर भी दोनों का अनिर्वचनीय वैलक्षण्य हैविमर्श आत्मा की महिमा हैइस विमर्श कानामांतर है अहं भाव.

सृष्टि के पहले नित्यस्वरूप शब्द ही विद्यमान था.यही  प्रज्ञा हैकोई वस्तु स्वभावरहित नहीं है.

सृष्टि अवस्था में इसी शब्द से अर्थ  आविर्भूत होता हैअनादिनिधनं ब्रह्म ही शब्द का परमतत्व हैइसी से अर्थ आविर्भूत होते हैंतदनंतर जगत रूप देश और काल का अनंत वैचित्र्य प्रतिफलित होताहैआचार्य भर्तृहरि ने कहा है..

अनादि निधनं ब्रह्म शब्दतत्वं यदक्षरं.

विवर्तते अर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः.

अद्वैत वेदांत के मत से आत्मा सर्वप्रथम पश्यंती रूप से आविर्भूत होता हैपरावस्था में वाच्य वाचकभाव तनिक भी नहीं रहताकिंतु में भावद्वय की सत्ता रहती है और अभेद भी रहता हैयही अर्थ एवंशब्द हैशब्द वाचक है अर्थ वाच्य हैमध्यमा भूमि में वाचक और वाच्य का अभेद होने पर भी किंचितभेद हो जाता हैइस अवस्था में शब्द से अर्थ पृथक वस्तु नहीं रहता , तथापि अभिन्न भी नहीं रहतायह भेदाभेद अवस्था हैइसमें शब्द ही अर्थरूपेण प्रतीत होने लगता हैशब्दोदय के साथ अर्थ काउदय होने लगता हैसंहार अवस्था में अर्थ का उपशम शब्द में हो जाता हैमध्यमा अवस्था में शब्दएवं अर्थ एक दूसरे के बिना नहीं रह पातेशब्द तथा अर्थ ही नाम एवं रूप हैं.

बैखरी भूमि से शब्द से अर्थ की पृथकता संपन्न हो जाती हैयहाँ अर्थ का आरोपण शब्द में और शब्दका प्रक्षेपण अर्थ में होने लगता हैइसी से भाषाएँ बनी हैंइस आरोपण और प्रक्षेपण से उत्पन्न हुयीविस्मृति के कारण शब्द को अर्थ में और अर्थ को शब्द में लौटाया नहीं जा सकतादोनो में भेद संबंधसुस्पष्ट होने लगता हैजगत के अधिकांश जीव इसी में प्रतिष्ठित रहते हैंउन्हें कृत्रिम उपायों संकेतवस्तुकल्पना और व्यवहार (convention) इत्यादि के द्वारा शब्द और अर्थ का योजन करना पड़ताहैमध्यमा में इस convention की आवश्यकता नहीं रहती क्योंकि वहाँ शब्द और अर्थ कास्वाभाविक सम्बन्ध विलुप्त नहीं रहता.

पराभूमि से बैखरी भूमि में अवतरण ही सृष्टि प्रक्रिया हैइस प्रकार मूल परम शब्द ही जागतिक अर्थग्रहण करता हैवह परम शब्द क्रमशः एक एक भूमि का अतिक्रमण करके प्रकाशित होता हैलौटतेसमय वह विपरीत क्रम अनुसरण के द्वारा जागतिक अर्थ से उर्धवारोहण करते करते मूल शब्द के रूपमें परिणत हो जाता हैयह मूल ही जीव का पाथेय है.

वर्ण आवरण है आत्मा काआत्मा इससे ढँकी हैवर्ण का अर्थ रंग भी होता हैवर्णमाला का अक्षर भीवर्ण होता हैवर्णाश्रम चतुष्ट्य के वर्ण में भी यही वर्ण हैआत्मा के आवरण को चार विभिन्न वर्णों मेंबाँटा गया हैवस्तु सबसे पहले रंग में दिखती हैवही उसका वर्ण हैरूप का प्रथम दर्शन वर्ण या रंगमें होता हैआत्मा अगर शब्द है तो अर्थ उसका वर्ण है


बिंदु क्षुब्ध होने पर सृष्टि में नाद की धारा प्रवाहित होने लगती हैइस प्रसंग में कला तत्व भुवनवर्णपद मंत्र यह छह अध्वाओं का आविर्भाव होता है

अक्षर ब्रह्म शब्दात्मक हाईये शब्द ब्रह्म हैंसभी शक्तियाँ मूल शब्द से पृथक नहींस्वरूप से अभिन्नहोने के कारण इन्हें स्वरूपशक्ति कहते हैंअध्यात्मशास्त्र में इन्हें कला कहा जाता हैपंचदश नित्याआवर्तन में निरंतर परिक्रमण करती रहती हैषोडशी बिंदु रूप में अवस्थान करती है. . पंचदश नित्यात्रिकोण मंडल की तीन भुजाएँ हैंतीनो भुजाएँ समान हैंप्रत्येक भुजा में  नित्या अथवा कलाएँ स्थितहैंपंचदश कलाएँ आवर्तनशीला होने से क्षरणधर्मा हैंषोडशी के आपूरण होने पर यह कलाएँअभिसिंचित होती हैंअधः प्रवाह से सृष्टि की सूचना मिलती हैषोडशी से एक ऊर्ध्व प्रवाह सप्तदशीकी ओर चलता रहता हैयह कलातीत हैषोडशीकला शब्दरूप में अपनी सृष्टि को स्वयं ही देखतीहैसंहारकाल में अर्थ लीन कर सकने पर यह शब्द क्रमशः पंचदशी में विलीन हो जाता है

जो सृष्टि काल के अधीन हैउसमें क्रम हैनित्यसृष्टि कालाधीन नहीं हैअतः अकर्म हैदोनों सृष्टिशब्द से उत्थित होती हैं.

वायु की क्रिया प्रारम्भ होने तक ही नाद की गति रहती है

श्वास और प्रश्वास थमने पर मध्य धाम में गमन करने के समय ध्वनि या वर्ण का उदय होता है.


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शब्द और अर्थ के प्रकृत स्वरूप पर आवरण पड़ जाने से दोनों में पृथकता का आभास मिलने लगताहैशब्द में अर्थ का और अर्थ में शब्द का संधान नहीं मिलतावर्ण बैखरी में प्रकाशित होने लगता हैकंठ से ओंठ तक बैखरी का स्थान हैवायु के ४९ स्वाभाविक कम्पन होते हैंनाद रूपी शब्द ४९ भागोंमें विभक्त हो जाता हैसमष्टि से लेकर ५० और समष्टि के साथ ५१वर्णमाला की यही संख्या हैयेसमस्त वर्ण विषदंतहीन सर्प अथवा जलहीन मेघ के समान नाममात्र में शब्द के मूलरूप से युक्त होतेहैंइन वर्णों का सम्यक् प्रबोधन करके पारस्परिक संगठन करने  इच्छानुरूप पदार्थ की सृष्टि की जासकती है

भेदज्ञान की समाप्ति के अनंतर प्रत्येक वस्तु के साथ व्यक्तिगत अभेद संबंध अनुभूत होने लगता हैअब समस्त विश्व स्व स्वरूपमय प्रतीत होता हैइसे प्रेम की अभिव्यक्ति कहते हैं

अतः चाहे मलपाक हो जाने से गुरुकृपा प्राप्त हो अथवा गुरुकृपा प्राप्ति से मल का परिपाक होज्ञानचक्षु खुलने पर महाज्ञान का उदय हो जाता है.



सबदै मारी सबद जिवाई। ऐसा महमद पीर। ताके भरम  भूलौ काज़ी सो बल नहीं सरीर।।गोरखनाथ। 

जिस छुरी का प्रयोग मुहम्मद करते थेवह सूक्ष्म छुरी शब्द की छुरी थी। मुहम्मद ऐसे पीर थेहेकाज़ियोउनके भ्रम में  भूलो। तुम उनकी नकल नहीं कर सकते। तुम्हारे शरीर मे वह (आत्मिकबलही नहीं हैजो मुहम्मद में था। (क्योंकि गोरख के अनुसार जिन बातों को मुहम्मद आध्यात्मिक दृष्टि सेकहते थेउन्हें उनके अनुयायियों ने भौतिक अर्थ में समझा)


 डॉ पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल द्वारा संपादित गोरखबानी से


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सब प्राणी भाषा या बोली अपनी माँ से सीखते हैंमातृ भाषा या मदर टंग सर्वत्र कही जाती हैपिताभाषा कहीं नहीं कहा जाताइससे शब्द महिमा और उसके स्रोत का पता लगता है


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यह जगत् शब्द और अर्थ रूप है। शब्द और अर्थ को नाम और रूप भी कहा गया है। वेदान्त इस जगत्को नाम रूपात्मक मानता है-

\"अस्ति भाति प्रियं नाम रूपं चेत्यंशपञ्चकम् 

आद्यं त्रयं ब्रह्मरूपं जगद्रूपम् ततोद्वयम् ।।\"

परम सत्ता के अस्ति = सत्भाति = चित् , प्रिय = आनन्दनाम और रूप ये पाँच अंश हैं। इनमें सेप्रथम तीन अंश ब्रह्म का रूप हैशेष दो जगत् का रूप है। ]

परा स्थिति में केवल शब्द या नाद रहता है।

अर्थ उसमें निगूढ़तम स्थिति में रहता है। शनै:-शनैविकास के क्रम से दोनों पृथक् आभासित होनेलगते हैं। अपनी पृथक् स्थिति में शब्द और अर्थ के तीन-तीन प्रकार होते हैं। शब्द के वर्णमन्त्र औरपद तथा अर्थ के कला तत्त्व और भुवन ये प्रकार हैं। इन्हीं को षडध्वा कहा गया है। इन्हें कालअध्वा और देश अध्वा भी कहते हैं।

यह षडध्वा काश्मीरी शैव दर्शन के अनुसार आणवोपाय के अंतर्गत आता है.


आजकल के भाषा वैज्ञानिक भाषा की उत्पत्ति के प्रश्न को भाषाविज्ञान की सीमा में नहीं मानते।


नाम और रूप में पहले कौन आयावस्तुतः दोनों एक हैंभौतिक संसार में रूप या पदार्थ की सत्तापहले दिखती हैनाम उस रूप की अंतर्धारा है और रूप उस नाम प्रतिफलनप्रत्यक्ष जगत में नाम औररूप अलग अलग हो जाते हैं.


अर्थ शब्द की अंतरंग शक्ति का नाम हैशब्द बहिर्भूत होता हैजबकि अर्थ अबहिर्भूत या अपृथकहोता है महर्षि पतंजलि


शब्दऔरअर्थएकहीइकाईके दोरूपहैं।


नाम रूप का प्रकाश है तो रूप नाम का विमर्शदोनों का कभी अभाव नहींअभाव उनके अभेद होने परही है

किसी कमरे में वस्तुएँ हैं या रूप हैंजब उन पर रोशनी प्रक्षेपित की जाती हैवे दिखने लगती हैं

नाम नाद है और रूप बिंदु.


10/1/22


 अंतस्थ वर्ण हैइसका अर्थ है हथियाररचनात्मक विध्वंसकउत्साह का योगशिवयह आकाशबीज हैशब्द आकाश का गुण हैजो कान से सुनते हैंशब्दों से वस्तकृत होकर नाम बने हैं.

जबकि रूप अग्नि तत्व का परिणाम हैयह आँखों से बोधगम्य होता है अग्निबीज है.



शब्द में  ध्वनि का स्रोत इच्छा से जुड़ता हैइच्छा सृष्टि का पहला उन्मेष हैउसके बाद ज्ञान औरक्रिया होती हैयही  ध्वनि शिव में भी अनुस्यूत हैशिवसूत्र में कहा गया है वर्णमाला के सभी वर्णपरमेश्वर के मूर्त रूप हैं.तंत्र शास्त्र कहते हैं मंत्राः वर्णात्मकाः सर्वे सर्वे  वर्ण शिवात्मकाः सभी मंत्र वर्णोंसे बने हैं और सभी वर्ण शिवरूप हैंवर्णमाला का प्रत्येक अलशर एक विशिष्ट शक्ति है और संयुक्तरूप से इन शक्तियों को मातृका कहा जाता हैवर्णों में निहित नाद शक्ति मातृका ही सीमित ज्ञान कामूल हैमातृका शक्ति के कार्य से ही अक्षरों से शब्द बनते हैंइनसे वाक्य और  फिर समूची द्वैतसृष्टिहं ध्वनि जो श्वास के साथ अंदर जाती है शिव है शुद्ध अहं विमर्श हैअंतरात्मा हैसः की ध्वनिजो प्रश्वास के साथ बाहर जाती है वह शक्ति है परमेश्वर की सृजनात्मक शक्तिस्पंदकारिका कहतीहैशक्ति के प्रथम स्पंद प्रथम स्फुरण को सः कहते हैंश्वास और प्रश्वास शिव और शक्ति का नृत्यहैसांसारिक जीवन में शब्द किसी वस्तु की जानकारी देता है इसलिए वह शब्द वस्तु के साथएकरूप होता है

श्वास अन्दर आते समय बारह अंगुल की दूरी तक भीतर आता है और लय हो जाता हैइस लय स्थानको हृदय या अंतः द्वादशांत कहते हैंइसी को शिव द्वादशांत कहते हैंश्वास पुनः उदित होकर बारहअंगुल की दूरी तक बाहर जाता है वहाँ लय होने के स्थान बाह्य द्वादशांत शक्ति द्वादशांत या बाह्यहृदय कहलाता हैहृदय का तात्पर्य कोई शारीरिक अंग नहीं हैश्वास के लय स्थान को हृदय कहतेहैंअंदर और बाहर के लय स्थान वस्तुतः एक ही हैंदेहभाव होने के कारण इनमे द्वैत हैलय होने कावह क्षण सहज कुम्भक का वह क्षण जब हं चला जाता है और सः अभी उदित नही हुआ हैवही सच्चामंत्र हैमंत्र या जप का सच्चा लक्ष्य यह बोध ही हैयह कुम्भक क्षण भर के लिए पा लेना भी बहुत हैसूफ़ी मत में इसे या हू के रूप मे तो तिब्बती बौद्ध मत में हूं सो के रूप में जानते हैंताओ का यिन यांगयही हैयहूदियों का या वे भी यही हैअपान के साथ अंदर आने वाला वर्ण हम् आत्मा का बीज मंत्रहैयह अभ्यास स्वतः हो रहा हैहं और सः के बीच वर्णों का उदय एवं अस्त हो रहा हैहं को हमनेवस्तुओं के साथ जोड़ रखा हैपर जैसे ही हम सः को समझ लेते हैंवैसे ही हमारा मैं उससे जुड़ी हुयीचीज़ों से मुक्त होकर पूर्णतः शुद्ध हो जाता हैइस दशा में नाम और रूपशब्द और अर्थ एक हो जातेहैं.


परमहंस योगानंद कहते हैं मानव के शब्द ब्रह्मवाक्य हैं।सच्चाईदृढ़धारणाविश्वास और अन्तर्ज्ञानसे संतृप्त शब्द अत्यधिक विस्फोटक स्पन्दनात्मक बम की तरह हैं जिनको जब विस्फोट किया जाताहै तो वे कठिनाई की चट्टानों को नष्ट कर देते हैं और मनोवांछित परिवर्तन का सृजन करते हैं।



जब साधक शांभव दशा में होता है यानि पूर्णाहंताशुद्ध अहं स्थितितब वह वाक् राज्य में यात्राकरता हैयहाँ वह परावाक़ नाम की सर्वोच्च अवस्था में होता हैयहाँ से वह बैखरी नामक अंतिम याप्रचलित दशा में आवाजाही कर सकता हैपरा वाक् में कोई ध्वनि की सत्ता नहीं होतीपश्यंती वाक्निर्विकल्प दशा होती हैकुछ देखने और  देखने की समदशा यह शिखरस्थ ज्ञान हैऊपर बैठकरव्यक्ति को दूर का और सब जगह का दिखाई दे जाता हैमध्यमा दशा में व्यक्ति विचारों में जीता हैस्वप्न और सुषुप्ति के दौरान भी व्यक्ति मध्यमा में रहता हैउसके बाद बैखरी दशा में व्यक्ति आता हैबैखरी में ही नाम और रूप पृथक पृथक बंट जाते हैंआणवोपाय का साधक जपादि साधनों से बैखरीका प्रयोग करके शाक्तोपाय में प्रवेश करता हैजिसमें व्यक्ति अपने स्वरूप में रहने लगता है

संगीत के क्षेत्र में डूबे कलाकार शब्द की महिमा समझते हैंउनके लिए flash becomes word होजाता हैराग का अर्थ ही है जो हृदय में रंजित कर देकाश्मीरी संत लल्लेश्वरी ने कहा है 

O lalli!

With right knowledge,

open your ears and hear

how the trees sway to Om Namah Shivaya,

how the wind says Om Namah Shivaya as it blows,

how the water flows with the sound Namah Shivaya.

The entire universe 

is singing the name of Shiva.


यहाँ भगवान के कतिपय नामों का अर्थ जानना  अच्छा होगाक्योंकि यह अर्थ ही उन नामों की ताक़तहैकहानियाँ उन अर्थों का प्रकाशन करने के लिए ही हैंगोविंद का अर्थ है जो गायों को इकट्ठा करेउनकी रक्षा करेयह प्रतीक हैगो का अर्थ प्रकाश किरण भी होता हैहरि वह जो हृदय को मोहितकरेवह भी जो अज्ञान और दुःख को हरेराम का अर्थ है जो आनंद प्रदान करेनारायण का अर्थ हैमनुष्यों का दैवी पथनारायण पथ के लक्ष्य का भी नाम हैकृष्ण का अर्थ है गहरा नीला-कालादूरका दृश्य काला या नीला ही दिखता हैइससे समय और देश के पार होने का अर्थ विदित होता हैशंभो का अर्थ है वह जो प्रसन्नता लाए दुर्गा जिसे विज़िट करना मुश्किल होशिव का अर्थकल्याणकारी विदित ही हैशिव माने कुछ नहींशून्यता की पूर्णता शिव हैशिव में जीव और इच्छाकी ध्वनियाँ शामिल हैंकेशव नाम केशि नामक दैत्य को मारने के कारण बताया जाता हैकेशवहृषिकेश से अलग कहाँहृषिकेश इंद्रियों का स्वामी होने के कारण कहा गयाविट्ठल का अर्थ है वहजो ईंट पर खड़ा रहेकहते हैं भगवान विट्ठल अपने भक्त पुंडलीक के माता पिता की रक्षा के लिए ईंटपर खड़े रहेपाण्डुरंग भगवान विट्ठल को उनके पीलेपन के कारण कहा गया

दक्षिण भारत में वेंकट पहाड़ी का स्वामी होने से भगवान को वेंकटेश कहा गया हैकर्नाटक में अक्कमहादेवी अपने आराध्य को बार बार चन्न मल्लिकार्जुन कहतीं थींचन्न का अर्थ सुंदर होता है मल्लिका जैज़्मिन या चमेली को कहते हैंअर्जुन श्वेत या धवल को क़हते हैंअर्जुन को शिव सेमहत्वपूर्ण हथियार पाने के लिए युद्ध लड़ना पड़ादेवी ने उन सभी बाणों को बदल दिया जो अर्जुन नेचमेली के फूलों में चलाए थेचमेली के फूलों से शिव ढँके हुए थेइससे भगवान शिव का नाममल्लिकार्जुन हुआमनुष्य और भगवान के बीच हुए युद्ध में देवी के हस्तक्षेप से विनाश टल जाता हैअक्क का अर्थ है बड़ी बहन



११//२२


बाइबिल में वर्ड को गॉड से जोड़कर बताया गया है. That word was God. सृष्टि का उन्मेष यानिर्माण शब्द से ही हुआ हैइसे हम साधारणतः सुन नही पातेक्योंकि यह शोरगुल में दबा रहता हैहिंदू इसे मुस्लिम आमीन क्रिस्चियन और यहूदी आमेन कहते हैंएक ध्वनि के ये विभिन्न नाम हैंयह ध्वनि ऊर्जा जब स्थूल हुयी तब सृष्टि का निर्माण हुआजैसे ही हम किसी नाम का उच्चार करतेहैंउससे संबंधित ध्वनि और अर्थ का उदय हो जाता हैशब्द और अर्थ परस्पर संबद्ध हैंयह संपृक्तहैंकालिदास ने वागर्थ की तुलना पार्वती  परमेश्वर से की हैगोस्वामी तुलसीदास में गिरा (वाणीऔर अर्थ को जल और उसकी लहर की भाँति कहा हैजो भिन्न भी हैं और नहीं भी हैंप्रत्येक शब्दध्वनि में उतरने से पूर्व मध्यमा भूमि में हृदय या द्वादशांत में अवस्थित रहता हैपश्यंती दशा को व्यक्तकरती हुयी मानस की चौपायी की अर्धाली दृष्टव्य  है..

गिरा अनयन नयन बिनु बानी।।।

यानि वाणी बिना नेत्र की है और नेत्रों के वाणी नहीं है। दक्षिणामूर्ति स्तोत्र में आया है-


चित्रं  वटतरोर्मूले    वृद्धाः    शिष्या   गुरुर्युवा 

गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यास्तु छिन्नसंशयाः 

                                     (दक्षिणामूर्तिस्तोत्रम् १२)


क्या ही आश्चर्य है ! वटवृक्षके नीचे वृद्ध शिष्य और युवा गुरु चित्रवत विराजमान हैं  गुरुके मौनव्याख्यानसे शिष्योंके सब संशय मिट गये हैं !’ परावाक़ सृष्टि कल्पना में हैपर ईक्षण से पश्यंतीवाक् का आविर्भाव होता हैसूक्ष्म मध्यमा वाक् हिरण्यगर्भ दशा हैयह अवस्था वर्ण से पूर्व कीमातृका स्थिति हैजब शब्द बोले जाने लगते हैंतब उन्हें वर्ण कहा जाता है


विचार जब मुख से निसृत होते हैंतब उसे वैखरी कहा जाता है

यह वैज्ञानिक प्रयोग है कि यदि निश्चित ध्वनि पर किसी शब्द को उतारा जाय तो एक विशिष्ट रूपका निर्माण हो सकता हैयही मंत्रयोग है.


ग्रीक भाषा में पहला अक्षर अल्फ़ा है और अंतिम ओमेगाअक्षर से ही सृष्टि हुयीअक्षर माध्यम हैसृष्टि और सृष्टिकर्ता कानिर्माण एक विचार मात्र हैजो ध्वनि से सम्भव होता हैयह ध्वनि सबप्राणियों का मूल है.संस्कृत का प्रत्येक अक्षर एक बीज या मंत्र  हैयही पुरुष तत्व है जो सबमेंविद्यमान हैप्रकृति ऊर्जा है जो सबमें इंद्रियों और उनके विषयों तथा महाभूतों में लास्यमान हो रही हैअक्षर इसे इसलिए कहा गया क्योंकि यह तत्व कभी क्षरित नहीं होताअक्षर  ब्रह्म है कूटस्थ भीअक्षर हैकूट या निहाई पर सुनार और लुहार औज़ारों और आभूषणों को कूटते हैंनिहाई अपरिवर्त्यरहती हैवस्तुएँ बदलती जाती हैं.


संस्कृत में अक्षर (लेटरको अक्षरवर्णमातृका और लिपि के रूप में जानते हैं

अक्षर मात्र एक लेटर नहीं है पहला और क्ष अंतिम अक्षर है इसके बीच अग्नि बीज  हैजिसकाअर्थ पहुँचना या जाना होता हैअक्ष का अर्थ धुरी होता हैजिससे पूरा चक्र घूमता हैपृथ्वी भी धुरी हीहैजिस पर जीवन चल रहा हैमानव शरीर में यह धुरी रीढ़ कही जाती हैअक्ष का एक और अर्थ हैआँखयह केवल देखने वाली इंद्रिय का नाम नहीं वरन तृतीय नेत्र का नाम है का अर्थ अग्नि हैप्रत्येक शब्द मुख के माध्यम से बाहर आता हैअग्नि का गुण वस्तु को जलाना और चमकाना होताहै

वर्ण का अर्थ अक्षर के साथ साथ रंग और जाति भी होता हैधान और चावल के बीच जो आवरणहोता हैउसी अर्थ का आवरण अक्षर पर वर्ण का चढ़ा होता हैवर्ण के माध्यम से वस्तुएँ दृश्यमानहोती हैंयह सब तरह के वर्ण शब्द के अर्थ पर लागू होता है.हर व्यक्ति और प्राणी में चतुर्वर्ण विद्यमानहैवस्तुएँ रंगीन होती हैं वर्णन शब्द में भी यह वर्ण शामिल है

मातृका वर्ण रूपी होती हैवर्ण रूप में माँवर्णमाला का सिद्धांत मातृकाचक्र में वर्णित हुआ हैचितआनंदइच्छाज्ञान और क्रिया यह पाँच ऊर्जा संस्कृत के १६ स्वरों से व्यक्त होती हैंयह शिव तत्व केअंतर्गत हैंअं स्वर तक शिव अपने स्वभाव में रहते हैंकिंतु विसर्ग से यह सृष्टि प्रतिबिंबित होने लगतीहैउसके दो बिंदु शिव बिंदु और शक्ति बिंदु हैं कुल तीन प्रकार के विसर्ग हैंएक शांभव विसर्गजिसमें चित्तप्रलय हुआ रहता हैजिसमें मन अमन हो जाता हैइसे परा विसर्ग भी कहते हैंयह  सेव्यक्त होता हैयह उच्चतम विसर्ग हैदूसरा शाक्त विसर्ग हैयह परापर विसर्ग कहा गयायह मध्यमविसर्ग है यह अः के माध्यम से व्यक्त होता हैयह चित्तसंबोध की दशा हैजिसमें व्यक्ति एकत्व मेंलीन रहता हैतीसरा और अंतिम विसर्ग आणव विसर्ग हैइसकी स्थिति निम्नतम हैनर विसर्ग है औरयह  से व्यक्त होता हैयह चित्तविश्रांति की अवस्था है वर्ण सुख-दुःखहर्ष-शोक जैसीविपरीतार्थक स्थितियों में प्रयुक्त होने वाला इकलौता वर्ण हैअहा में भी यह है और  हाय-हाय में भीसमूची सृष्टि में इसकी सत्ता हर समय विद्यमान हैशिव की स्तुति में एक श्लोक में अहो शब्द के हीदो परस्पर विरोधी प्रयोग मिलते हैंजिसमें संसार और शिव दोनों को अहो कहा गया है


अहो निसर्ग गंभीरो घोर संसार सागरः 

अहो तत्तरणोपायः परः कोsपि मकेश्वरः

स्तव चिंतामणि ९१


 और  के बीच ही सारे वर्ण स्थित हैं एवं  में अनुस्वार  लगते ही वह अहं बनता है शिव हैऔर  शक्तिअं नर हैशिव और शक्ति के बाद नर हैजब नर शक्ति के माध्यम से शिवमय होता हैतब महा बन जाता है



लिपि ध्वनि की भौतिक अभिव्यक्ति हैपहले ध्वनि फिर रूप आता हैलिपि अक्षर का लिखित रूपहै

मुँह से निकला प्रत्येक शब्द अहंकार से और भावनाओं से या ज्ञान और भक्ति के कारण आता हैजोव्यक्ति अपनी भावनाओं को नियंत्रित करके उन्हें भक्ति में रूपांतरित करने में समर्थ रहता हैवस्तुतःवही समझदार हैभावनाएँ अनुग्रहभयद्वेषक्रोध और आनंद के रूप में व्यक्त होती हैंइनमें अंतिमभावना ही वरेण्य है


यह सृष्टि देवी काम या इच्छा (विलका परिणाम हैइस काम को भौतिक अर्थ में सेक्स  याकामेच्छा से ग्रहण किया जाता हैपर यह काम पाँचों विषयों का पाँचों इंद्रियों से संघट्ट या संभोग कीदशा का नाम हैकाम की पुत्री वाक् हैअक्षर दैवी इच्छा का बोला हुआ रूप हैअथर्ववेद में काम कोसभी देवों से ऊँचा स्थान दिया गया हैइसमें काम की पुत्री को वाकविराट कहा गया है.

किसी वस्तु का स्पंदन और मन की वृत्ति या विचार समान होता हैजब एक विषय या अर्थ  इंद्रिय कोप्रभावित करता हैतब उस क्रिया को मन और उसके परिणाम को वृत्ति कहते हैंशब्द स्पंद में व्यक्तहोते हैंआकाश ध्वनि का स्थूल शरीर हैजो वायु द्वारा गति करती है और कान के माध्यम से ग्रहणहोता है.

ईश्वर प्रत्यय है तो हिरण्यगर्भ शब्द और विराट अर्थ हैकिसी मनुष्यजानवर या प्राणी द्वारा व्यक्तस्फुट या अस्फुट ध्वनि या आवाज़ शब्द हैअर्थ उसका स्थूल शरीर है.

परावाक़ बिंदु हैपश्यंती ईक्षण या सक्रिय विचार की दशा हैशब्द का कारण शरीर परावाक़ बिंदु हैजिससे शब्द का सूक्ष्म शरीर तन्मात्रा एवं मातृका के रूप में उदित होता हैतत्पश्चात् स्थूल शरीर मेंवर्ण की उत्पत्ति होती हैवर्ण से शब्दांश मिलकर पद और पद से मिलकर वाक्य बनते हैंअतः मंत्रशब्द का स्थूल शरीर है

शब्द तन्मात्रा या अपंचीकृत आकाश अपंचीकृत तन्मात्रा हैशब्द अकेले आकाश का गुण नहीं हैबल्कि इसमें वायु और अन्य भूत भी शामिल हैइसलिए शब्द स्थूल सूक्ष्म और कारण शरीर ही नहींहैवरन यह दैवी इच्छा या काम में भी शामिल हैकामेच्छा जब कान और मन में जाती है तब ध्वनिउत्पन्न करती है और जब यह आँख और मन में जाती है तब रंग और रूप उत्पन्न करती हैइसी तरहवायुजल और पृथ्वी के संघात से स्पर्शरस और गंध भी उत्पन्न होते हैंआकाश और वायु अमूर्तमहाभूत हैंशेष तीन महाभूत मूर्त हैंशब्द जब व्यक्त ध्वनि में कान में स्पंदित होते हैं तब नाम बनते हैंतेजस का विभाजन होकर रूप बनता हैअतः अर्थ आँख और मन के स्पंद का परिणाम हैनाम औररूप ब्रह्मांड के भीतर ही हैं.

तुरीया अशब्द दशा है तो सुषुप्ति परशब्दअपरशब्द में भाषा संभव नही

कोई वैदिक शब्द पूर्ण स्वाभाविक नाम नहीं हैपर तंत्र शास्त्र में वर्णित बीज मंत्र स्वाभाविक नामों केनिकट हैंजो संस्कृत के विभिन्न शास्त्रों में बिखरे हुए हैंगौ स्वाभाविक शब्द का एक उदाहरण हैशब्द और अर्थ का संबंध शाश्वत हैकुछ शब्द अर्थ का स्वाभाविक नाम होते हैं इस प्रकार कीस्वाभाविक भाषा तो नही मिलती par कतिपय aise शब्द अवश्य मिलते हैंगौ ऐसा ही शब्द हैशतपथ ब्राह्मण में कहा गया है मूल भाषा एकाक्षरी रही होगीवैदिक भाषा के बारे में दावा कियाजाता है कि उसमें शब्द और अर्थ का शाश्वत संबंध मिलता हैयद्यपि कतिपय शब्दों को छोड़करऐसा प्रमाणित नहीं हो सका है.


शब्द या वाक् वर्ण पद और मंत्र तथा अर्थ कलातत्त्व एवं भुवन में अभिव्यक्त होते हैं.


१२//२२


ज्ञान भक्ति और कर्म के माध्यम से नाम और रूप का सैद्धांतिक दर्शन होता हैपर योग के माध्यम सेवह इंद्रियों में अनुभूत हो जाता हैतब ज्ञान और भक्ति भी उसके लिए हस्तामलकवत हो जाते हैंकर्मफिर उसके लिए नही रह जातावह मात्र प्रकृति में प्रकृति को बरतता है


नाम और रूपशब्द और अर्थ जिस तरह एक हैंकार्य और कारण भी वस्तुतः एक ही हैंप्रकट होने मेंवे अलग-अलग दिखते हैंशिव और शक्ति एक ही हैंएक होने की दशा में शक्ति अनभिव्यक्त रहतीहैशक्ति जब विकसित होती है तो उसके स्तर भिन्न भिन्न होते जाते हैंशक्ति जब ब्रह्म से ईश्वर तत्वमें बिंदु रूप व्यक्त हुयीयह बिंदु कामकला का त्रिकोण हुआशब्द ब्रह्म से शब्द और अर्थ अलगअलग हुएइच्छा मात्र शब्द ब्रह्म हैफिर ज्ञान और क्रिया का आविर्भाव होता हैशब्द और अर्थ कार्यहैंजो मन और पदार्थ के रूप में दृश्यमान हैंयह कारण शरीर हैइसके बाद काल के प्रभाव से सूर्यऔर चंद्र अस्तित्व में आते हैंयह सब कालक्रम में हम लोग देखते हैंपर सृष्टि और लय क्षण मात्र कीक्रिया है


परबिंदु जब दो भागों में विभक्त हुआदाएँ भाग को बिंदुपुरुष या हं कहा गयाबाएँ भाग को विसर्गप्रकृति या सः कहा गयादोनों का योग हंसः हैयह ब्रह्मांड हंस स्वरूप हैबिंदु कार्य है और बीजशक्तिशक्ति में द्वैत हैशक्ति के विस्तार को ही माया जाना गया हैअविद्या में जो माया हैज्ञानदशा में वह शक्ति हैयोग में अद्वैतइन दोनों को एक साथ देखने की दशा द्वैताद्वैत हैशुद्धाद्वैत में सबकुछ अनंत है और वही एक हैशिव और शक्ति सर्वत्र और सबमें हैंइदं में अहं और अहं में इदं हैअहमिदं एक होने पर क्या बचता हैउसे अहं कहें या इदंवह एक ही हैशिव और शक्ति कामैथुनिभूत जगत में यह विलास तिर रहा हैचिदशक्ति विलास यही हैशब्द और अर्थकार्य औरकारण या नाम और रूप को मैथुन रूप ही समझना चाहिए.

नाद शब्द का सूक्ष्म स्तर हैसब प्राणियों में श्वास स्वरूप कुंडलिनी विद्यमान हैनाद और बिंदु सबबीज मंत्रों में हैसामान्यतः ऊपर बिंदु और नीचे नाद होता हैचंद्रबिंदु का यही आशय हैपहले  मेंचंद्र के नीचे बिंदु लगाते थेवैसे भी प्रतिबिंब में दर्शन उल्टा हो जाता हैअनुस्वार चंद्र बिंदु में ही लिखेजाते थेलिखने की सुविधा के चलते अब यह बिंदु मात्र रह गयाबिना अनुस्वार के कोई बीज मंत्रनहीं होताह्रीं में  आकाश का बीज है अग्नि का शिवशक्ति का और अनुस्वार अं नादबिंदु हैअग्नि या रूप के प्रकट होने तक आकाश और वायु तत्व यानि शब्द और स्पर्श का अनुभव नहीं होपाताआकाश जब अग्नि तत्व के सम्पर्क में आता हैतब रूप यानि  का आविर्भाव होता हैशिवऔर शक्ति इसे धारण करते हैं और नाद बिंदु में व्यक्त होता है.


नाद मंत्र शास्त्र के अंतर्गत हैशक्ति का स्तर बिंदु हैजो त्रिबिंदु में व्यक्त होता हैजिसे शब्द ब्रह्मकहा गया हैयही शब्द और अर्थ का स्रोत हैषट्कोण यंत्र में शिव और शक्ति के त्रिकोण मिल रहेहैंयह सृष्टि का प्रतीक है.


शब्द की महिमा दुनिया में सब महापुरुषों ne वर्णित की है.

कबीर ने गया है - 

साधोसब्द साधना कीजै।

जेही सब्द ते प्रकट भए सबसोइ सब्द गहि लीजै।।

सब्द गुरु सब्द सुन सिख भएसब्द सो बिरला बूझै।

सोई सिष्य सोई गुुरु महातमजेही अन्तर गति सूझै।।

सब्दै वेद पुरान कहत हैंसब्दै सब ठहरावै।

सब्दै सुर मुनि संत कहत हैंसब्द भेद नहिं पावै।।

सब्दै सुन सुन भेष धरत हैंसब्दै कहै अनुरागी।

खट-दरसन सब सब्द कहत हैंसब्द कहै वैरागी।।

सब्दै काया जग उतपानीसब्दै केरि पसारा।

कहै कबीर जहं सब्द होत हैंभवन भेद है न्यारा।।

कबीर सबद सरीर मेंबिन गुण बाजै तंत।

बाहर भीतर भरि रह्याताथै छूटि भंरति।।

सब्द सब्द बहु अंतरा सार सब्द चित देय।

जा सब्दै साहब मिलैसोई सब्द गहि लेय।।

सब्द बराबर धन नहींजो कोई जानै बोल

हीरा तो दामों मिलैसब्दहिं मोल  तोल।।

सीतल सब्द उचारिए। अहम आनिए नाहिं।

तेरा प्रीतम तुज्झमेंसत्रु भी तुझ माहिं।।


नानककबीर और अन्य संतों ने सबद संकीर्तन गाया है


संतों ने सत्य को जाना है--कान के माध्यम से। वैज्ञानिकों ने सत्य को जाना है--आंख के माध्यम से।  लाओत्सु को मानने वाले फकीरों का चीन में कहना है कि आंख है पुरूष की प्रतीक और कान है स्त्रीका प्रतीक। कान ग्राहकआंख आक्रामक है। इसलिए तो हमारे पास इस तरह के शब्द हैंजैसेःलुच्चा। लुच्चा का मतलब होता है--किसी पर आंख से हमला।

लुच्चा शब्द आता है--लोचन से। लोचन याने आंख। लुच्चा हम उस आदमी को कहते हैंजो किसीको घूर घूरकर देखे।



काल का भक्षण करने के कारण शक्ति को काली कहा गया हैभक्षण करने के बाद वह काले स्वरूपऔर निराकार अवस्था में उदित होती हैउसकी उपासना निर्भय और इच्छा रहित होकर हो सकती हैश्मशान पर काली पूजा इच्छाओं को जलाने का प्रतीक हैवह दिगंबरी हैमन और वाणी से परेवर्णमाला को वह गले में धारण करती हैबौद्ध डेमचोग तंत्र में हेरुक महान वर्णमाला पहने हैंयह वर्णही नाम और रूप की प्रतिनिधि हैंमन जब विषय या तन्मात्रा ज्ञान करता है तब वह शब्द है और जबपदार्थ ज्ञान करता है करता है तब वह अर्थ है

शब्द ध्वनि और वर्ण में बँटा रहता हैध्वनि दो  वस्तुओं के घात से उत्पन्न होती हैवर्ण मुख और शरीरके विभिन्न अवयवों से उत्पन्न होते हैं . हर ध्वनि का अर्थ हैज्ञात हो या  होएक निश्चित क्रम में रखेअक्षरों से बने वर्णात्मक शब्दों का निश्चित अर्थ हैएक ही वर्ण को भिन्न भिन्न व्यक्तियों अथवा एकही व्यक्ति के के बार बार बोलने पर अलग अलग अर्थ छवियाँ बन जाती हैंभौतिक विज्ञान भी जगतरचना का कारण ध्वनि या विद्युत तरंग को मानता है.

सामान्यतः इस संसार में ध्वनि बाहर से आकाश में किंतु भीतर से कान में प्रतिबिंबित होती हैइसीतरह स्पर्श बाहर से वायु में भीतर से त्वचा मेंरूप बाहर से अग्नि और दर्पण में भीतर से आँख मेंस्वाद बाहर से जल में और भीतर से जिह्वा में एवं गंध बाहर से पृथ्वी मेंपर भीतर से नासिका मेंबिंबायमान हैयह ब्रह्मांड स्वातंत्र्य शक्ति का दर्पण हैइस बिम्ब और प्रतिबिम्ब को सामान्य रूप मेंकार्य कारण सिद्धांत से समझ लिया जाता हैकुछ भी भगवान के मुखड़े से बाहर नहींउसी का दर्पणहै और वही देख रहा हैयह स्वातंत्र्य दर्पण हैस्वातंत्र्य निमित्त कारण हैजो बिंबित हो रहा वहउपादान कारण हैनिमित्त कारण शब्द है और उपादान कारण अर्थ हैस्वातंत्र्य सबका बीज है.

काम या सृष्टि निर्माण की सिसृक्षा शिव और शक्ति की होती हैकला उनके उन्मेष का नाम हैइसलिए इसे  कामकला कहा जाता है.


हंस को योगी ही जानते हैंइसकी चोंच तार या प्रणव (हैदो पंख आगम और निगम हैंदो पैरशिव और शक्ति हैंतीन बिंदु इसके तीन नेत्र हैंयह अविद्या के सरोवर में रहता हैकिंतु जबनिष्प्रपंची हो जाता हैतब उसका पक्षित्व समाप्त हो जाता है और सोहमात्म हो जाता है.



आकाश का गुण शब्द हैआकाश का कोई रंग नहीं होताकाला रंग सभी रंगों का अभाव हैरूप केसाथ रंगों का आविर्भाव होता हैपहले दो रंग हीन महाभूत हैं तो अंतिम तीन भूत रंग संपन्नसभी तत्वपुरुष की मौज के लिए कार्य करते हैं उनका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है


शक्ति-शिव (अः-अंकी पाँच तरह की ऊर्जा उक्त ३६ तत्वों में प्रतिबिंबित हो रही हैयह ऊर्जा स्वरवर्णों में मुखरित होती  हैं क्रिया(   ), ज्ञान( ), इच्छा( ), आनंद ()और चित().  रिरील्रि ल्री (इन्हें लिखा नहीं जा पा रहा हैअनाश्रित वर्ण हैं



पृथ्वी आदि पाँच महाभूत( वर्गीय वर्णों से अभिव्यक्तपाँच तन्मात्रा ( वर्गीय वर्ण)पाँच कर्मेंद्रियाँ( वर्गपाँच ज्ञानेंद्रियां ( वर्गमन (),  अहंकार (), बुद्धि(),  और प्रकृति (तक २४ तत्वअशुद्ध विद्या हैंपुरुष (), माया (के पाँच कंचुक - नियति (काल (), राग(), विद्या(एवंकला (नामक  तत्व शुद्ध-अशुद्ध तो शुद्धविद्या से शिव तत्व तक शुद्धविद्या (अहं अहं इदं इदं), ईश्वर (इदं अहंसदाशिव (अहं इदं), शक्ति (अहं - यह चार वर्ण अपने स्वभाव की ऊष्माके कारण ऊष्मथ वर्ण  कहे जाते हैं शिव और परमशिव मिलकर यह  शुद्ध विद्या मानी जाती हैपरमशिव को अलग करके कश्मीरी शैव दर्शन में पाँच शुद्ध तत्व माने गए हैंपरमशिव तत्वातीत हैंकुल यह ३६ तत्व मान्य हैं प्रकृति में तीन गुण होते हैं पर वे तत्व नहीं हैं.   क्योंकि वे प्रकृति द्वारानिर्मित होते  हैंतत्व निर्माता होते हैंनिर्मित नहींपुरुष तत्व तक हाई वेदान्तियों की समझ सीमित हैकिंतु शैव दर्शन में यहाँ तक कुछ नहीं समझा जातापुरुष में अहं भी हैपुरुष और अहं में अंतर हैपुरुष विषयबंध ग्रस्त हैइसे नाम या शब्द कह सकते हैं और अहंकार वस्तुबंध ग्रस्त हैइसे रूप याअर्थ कह सकते हैंयह पुरुष माया के पाँच कंचुकों से आवृत्त हैनियति तत्व से वह सीमाबद्ध रहता हैकाल से वह समय बद्ध हो जाता हैराग से वह अधूरे से ग्रस्त रहता हैविद्या माया से वह ज्ञान कीसीमा में बद्ध हो जाता हैपाँचवीं और अंतिम माया में कला तत्व हैजिसके कारण उसे कुछ अपनेभीतर रचनात्मक प्रतिभा होने का गुमान बना रहता हैमाया के यह पाँच तत्व पुरुष के अपने अविद्याजन्य स्वभाव में रहते हैंअंतस्थ वर्णों में यह विद्यमान हैंइनके कारण पुरुष अपना मूल स्वभाव नहींजान पाताइसलिए वह प्रकृति से बंधा रहता हैयह  कंचुक या आवरण अनिवार्यतः हटाने होते हैंजो गुरुकृपा से निर्मूल हो जाते हैंतब यह माया शक्ति में रूपांतरित होती हैयही माया शिव कावैभव बन जाता हैअंतःकरण से माया पर्यंत यह तत्व नाम और रूप या शब्द और अर्थ से बंधे रहतेहैं इसके बाद पुरुष शुद्ध विद्या में प्रवेश करता है शुद्ध विद्या बोध प्राप्ति की दशा हैइसमें अर्थशब्द में क्रमशःविलीन होने लगता हैयह अर्थ है यह शब्द यह शुद्धविद्या की दशा हैइसके बाद ईश्वरदशा में अर्थ शब्द में ही हैफिर सदाशिव दशा में शब्द में ही अर्थ हैयह बोध और तब शक्ति औरशिव तत्व में प्रवेश होता हैयह दोनों अंतर्निर्भर होते हैं शक्ति तत्व में पूर्णत्व भाव ( मैं ही यह संसार हैऔर शिव तत्व में शून्यत्व भाव ( कुछ भी नहीं है)छा जा जाता हैउन्मेष और निमेष मात्र (पलकझपकने भर मेंमें यह दोनों भाव घटित होते रहते हैंपरमशिव शिव और शक्ति के बाद तत्वातीत दशाहैइसे तत्वातीत भी नहीं कह सकतेक्योंकि यह सब ३६ तत्वों में भी एक समय में ही विद्यमान भी हैवह वहाँ नहीं भी है और है भीउसे तत्व कहिए कि क्या कहिएकुछ  कहिएसब कहिएक्योंकिवहाँ शब्द और अर्थ दोनों नहीं और दोनों हैं  भीवह अज्ञेय है  कि ज्ञेय हैकि ज्ञेयाज्ञेय अथवाअज्ञेयाज्ञेयभाषा काम नहीं करती है


Wednesday, December 22, 2021

जनपदीय साहित्य एवं इतिहास का अनूठा दस्तावेज़ -​ ​​ ‘विद्रोही की आत्मकथा’

जनपदीय साहित्य एवं इतिहास का अनूठा दस्तावेज़ -​
​​ ‘विद्रोही की आत्मकथा’ 
​​​​​​​​​   डॉ राकेश नारायण द्विवेदी
 
​पंजाब का सा शौर्य, राजस्थान का सा पुरातत्व एवं महाराष्ट्र की सी कला-संस्कृति के लिए जानी जाने वाली बुंदेलखंड की गरिमामयी धरती पर पाषाण उपत्यकाओं के बीच प्राकृतिक सुषमा के भी दर्शन होते हैं। यह धरती अनेक कर्मयोगियों की साक्षी बनी है। बुंदेलखंड के पूर्वोत्तर भाग में स्थित जालौन जनपद के सीमावर्ती लघु ग्राम मुहाना में एक ऐसी ही निष्काम कर्मयोगी विभूति पं0 चतुर्भुज शर्मा का जन्म हुआ, जिनके जीवन की झांकी को हम उनके उनकी ‘विद्रोही की आत्मकथा’ के आलोक में देख सकते हैं। आत्मकथाकार के शब्दों में ‘यह जीवन-कथा इतिहास नहीं, उपन्यास भी नहीं, केवल संस्मरण नहीं और विशुद्ध घटना-वृत्त भी। इसमें सबका यत्किंचित सम्मिश्रण है। पर सबसे अधिक उस पुण्य धरती की गरिमा के अभिनंदन की भावना है, जिसने मुझे जन्म दिया, जिसकी गोद मेरे लिए क्रीडांगन बनी और जो मेरे संघर्ष-पोषित जीवन, शांत-प्रशांत पीठिका और अंतर्व्यथा की पटनायिका है।’
​आत्मकथा में जनपद जालौन सहित बुंदेलखंड की तत्कालीन जनजीवन की झांकी के साथ-साथ देश में हो रहे राजनीतिक घटनाक्रमों का साक्षी वर्णन हुआ है। गणेश शंकर विद्यार्थी स्मारक शिक्षा समिति कानपुर के तत्कालीन मंत्री और इस पुस्तक के संपादक ने पुस्तक और उसके लेखक के बारे में टिप्पणी की है- ‘राष्ट्रीय पृष्ठभूमि में उसी के सुख-दुःख, उत्थान-पतन में झकोरे खाता हुआ प्रदेश तथा जालौन जिले में लेखक का जीवन आगे बढ़ता है। इस प्रकार पाठक उस काल के जनजीवन की समस्त झांकी को चित्रपट पर अनायास ही देख लेता है।’ प्राक्कथन या प्रकाशकीय से नहीं, संपादकीय से ही हमें विदित होता है कि लेखक के आत्मप्रचार से दूर रहने के कारण गणेश शंकर विद्यार्थी स्मारक शिक्षा समिति के अनेक आग्रहों के बाद पं0 शर्मा जी ने अपनी आत्मकथा लिखना स्वीकार किया था। ‘सबहिं मानप्रद आप अमानी’ तथा ‘मोर सुधारिहि सो सब भांती’ के स्वभाव से संपृक्त शर्माजी अपने को इस संसार का निमित्त मात्र ही मानते थे। आत्माराम एंड संस दिल्ली के प्रतिलिप्यधिकार में 1970 में प्रकाशित इस आत्मकथा के विक्रय से हुई समस्त आय शर्माजी की इच्छानुसार शिक्षा समिति को ही दान कर दी गई थी।
​भारत के मूर्धन्य एवं क्रांतिकारी पत्रकार श्री गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपने ‘कर्मवीर’ के एक पत्रलेख में शर्माजी को ‘मृत्युंजय’ कहा था।
​शर्माजी अनेक वर्षों तक उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष तथा सरकार में काबीना मंत्री रहे। प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री एवं भारत के प्रथम गृहमंत्री पं0 गोविंद बल्लभ पंत शर्मा जी को पुत्रवत् मानते थे, इसीलिए शर्माजी ने ‘बांह गहे की लाज’ स्वीकार किया। पंतजी ने महाकवि तुलसी की स्मृति में स्थापित ‘तुलसी स्मारक समिति’ का कार्य 1958 ई0 में शर्माजी को सौंपा। शर्माजी चिरअभिलाषी रहे कि ‘श्रीरामचरितमानस’ और तुलसी के अमर साहित्य को जनमानस विशेषतः दलित और पिछड़े वर्ग तक पहुंचाया जाए, जिससे इन्हें चेतनासंपन्न किया जा सके। आत्मकथा को आत्मसात करने पर विदित होता है कि शर्माजी सादगी की प्रतिमूर्ति थे, किंतु वे दृ़ढ़ इच्छाशक्ति एवं ओजस्वी वाणी के धनी थे। उनका स्वभाव अन्याय के प्रति विद्रोह करने का था, कदाचित् आत्मकथा का शीर्षक भी इस विद्रोह भावना को परिलक्षित करने के लिए रखा गया। एक जमींदार तथा संपन्न परिवार में जन्म लेकर भी समाज में समानता तथा न्याय के लिए संघर्ष करना शर्मा जी की विशेषता थी।
​शर्माजी के पूर्वज राजस्थान की जोधपुर रियासत में फलौदी तहसील के एक छोटे से गांव बिटड़ी में रहते थे। ये गौण ब्राह्मण थे, परंतु पाली में रहने के कारण पालीवाल कहलाने लगे। पाली पश्चिमी रजवाड़े (राजस्थान) की सबसे बड़ी व्यापारिक मंडी थी। कहा जाता है कि पाली बसाने के पूर्व पालीवालों के पूर्वज कन्नौज में रहते थे और यहां के राठौर महाराजाओं के राजगुरू थे। मुहम्मद गौरी के हमले के बाद जब राठौरों ने कन्नौज छोड़ा तो उनके साथ उनके राजगुरू पालीवाल भी पश्चिम में चले गए। जोधा और बीका नामक राजपूत सरदारों ने वहां के भील आदिवासियों को हराकर जोधपुर और बीकानेर नगर बसाए। राठौरों की सहायता से उनके गुरू ब्राह्मणों ने पाली बसाई और उस स्थान पर उन्हीं का राज्य कायम हुआ। यह राज्य अलाउद्दीन खिलजी ने छिन्न-भिन्न कर दिया था।
​शर्माजी के पितामह पं0 खुशालीराम बिटड़ी गांव छोड़कर उरई से दक्षिण में 20 किमी मुुहाना ग्राम में अपनी विधवा हुई बहिन का कामकाज संभालने के लिए आ गए थे। जब पं0 खुशालीराम के पुत्र पं0 चुन्नीलाल हुए, तब तक इनके यहां एक बैल की खेती प्रारंभ हो गई थी। बुंदेलखंड में किसान की हैसियत देखने का यह प्राचीन पैमाना है। इन्होंने खेती का विस्तार होने पर एक छोटा मकान खरीदकर पक्का बना लिया, साथ ही प्रौढ़ होने पर कुछ व्यवसाय भी शुरू कर लिया। प्रतिष्ठा बढ़ी। जमींदारी पैदा हुई। पं0 चुन्नीलाल का विवाह टीकमगढ़ रियासत के बम्होरी गांव के पं0 बृजलाल के सुपुत्री से हुआ। इन्हीं की कोख से मुहाना में स्वनामधन्य पं0 चतुर्भुज शर्मा का जन्म भाद्रपद कृष्ण 6, गुरुवार संवत् 1957, तदनुसार 15 अगस्त सन् 1900 को हुआ। मुहाना गांव बुंदेलखंड की गंगा कही गई नदी बेतवा के किनारे उरई और राठ (हमीरपुर) के मध्य स्थित है। मोहन नाम के किसी व्यक्ति द्वारा बसाए जाने के कारण इस गांव का नाम मुहाना हुआ, जिसमें करीब चौथाई की जमींदारी शर्माजी के पिताजी ने खरीद ली थी। मुहाना गांव के समीप ही पृथ्वीराज का प्रसिद्ध सामंत चौड़ा (चामुंडा) मारा गया था। यह पृथ्वीराज चौहान और चंदेलों की अंतिम लड़ाई थी, जिसमें चंदेले हार गए थे और परमर्दिदेव (परमाल) चंदेल के प्रमुख सामंत आल्हा और ऊदल में से ऊदल मारा गया था। 1857 ई के स्वतंत्रता संग्राम में मुहाना गांव बाग़ी था।
​पं0 चतुर्भुज शर्मा के दो छोटे भाई थे, जिनमें एक पं0 रामदास शर्मा तथा दूसरे पं0 दीपचंद शर्मा थे। रामदासजी की मृत्यु टीबी से हो गई थी, इनके एक पुत्री हुई। 1933 ई में दीपचंदजी एवं शर्मा जी के पिता की हत्या हो गई। शर्माजी के कोई बहिन नहीं थी।
​शर्माजी की शिक्षा का शुभारंभ मुहाना में ही हो गया। दर्जा दो तक की पढ़ाई के बाद निकटस्थ ग्राम डकोर में दर्जा चार तक पढ़ाई की। शर्माजी प्रारंभ से ही पढ़ने में अव्वल रहे। दर्जा पांच की मिडिल की पढ़ाई करने के लिए शर्माजी उरई आ गए। यहां वे दैनिक विश्वमित्र के संचालक एवं संपादक कोटरा (जालौन) निवासी मूलचंद्र अग्रवाल से बहुत प्रभावित हुए। बाबू मूलचंद्रजी की मां चक्की पीसकर अपने पुत्र मूलचंद्र को पढ़ाती। दर्जा सात की वर्नाक्युलर परीक्षा पास करके शर्माजी उरई आकर किराए के मकान में रहने लगे। यहां रहने का एक अन्य कारण यह भी था कि उस वर्ष देहातों में डकैतियां अधिक होने से ग्रामीण वातावरण अशांत एवं अरक्षित हो गया था।
​एक बार शर्माजी ने गल्लामंडी में प्रचलित बेगार करने से मना कर दिया, यहां से शर्माजी के बगावती तेवरों का आरंभ हुआ। 1919 ई का प्रथम महायुद्ध समाप्त होने पर अंग्रेजी सरकार ने स्कूल के विद्यार्थियों में अपनी जीत की खुशी में तमगे बांटे; शर्माजी अकेले थे, जिन्होंने इसे लगाने से इंकार कर दिया। उन्होंने कहा यह विजय तो अंग्रेजों की है, जो हम लोगों को गुलाम बनाए हुए हैं।
​आत्मकथा के अनुसार शर्माजी कहार तक के हाथ का पानी वे नहीं पिए थे, क्योंकि वह सबको एक ही लोटे से पानी पिलाता था, लेकिन बाद में वह समानता एवं बंधुत्व के कारण इन कुप्रथाओं से ऊपर उठ गए।1020-21 ई में असहयोग आंदोलन में शर्माजी ने अपनी फैल्ट कैप आग के हवाले कर दी थी। इसके बाद वे सदैव खादी की गांधी टोपी तथा खादी के ही कपड़े पहनने लगे। शर्माजी जालौन जनपद के मुख्यालय उरई के तत्कालीन कांग्रेस नेता पं0 मन्नीलाल पांडेय एडवोकेट के संपर्क में आए। शर्माजी ने 1925 ई में इंटर पास करके डीएवी कालेज कानपुर में बीए में दर्शन शास्त्र और अर्थशास्त्र विषयों के साथ प्रवेश ले लिया। इसी वर्ष वे कानपुर में कांग्रेस के अधिवेशन में सम्मिलित हुए। शर्माजी अपनी आत्मकथा में बेलाग होकर अपने जीवन की शल्य-क्रिया करते हैं। अखिल भारतीय विद्यार्थी संघ के सम्मेलन में शर्माजी ने स्वागत समिति के मंत्री पद का दायित्व संभाला। इसमें आए ढाका विश्वविद्यालय के छात्रों से मार्ग-व्यय के भुगतान को लेकर शर्माजी का झंझट हो गया। ढाका कालेज मैगजीन में शर्माजी के खिलाफ लेख लिखा गया। सम्मेलन शर्माजी के सत्प्रयासों से सफल रहा। इन्हीं दिनों शर्माजी गणेश शंकर विद्यार्थी और उनके पत्र ‘प्रताप’ से जुड़े।
​राजनीति में सक्रियता होने के बावजूद 1927 ई में बीए द्वितीय श्रेणी में पास करके शर्माजी ने वकालत की पढ़ाई करने के लिए इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। यहां वे आनंद भवन जाकर यूथ लीग में दिलचस्पी लेने लगे। पं0 जवाहरलाल नेहरू से मिले। विश्वविद्यालय के पुस्तकालय से आंकड़े इकट्ठे करके नेहरूजी को प्रदान किए। वकालत के प्रथम वर्ष में उरई के चार विद्यार्थियों में शर्माजी अकेले उत्तीर्ण हुए थे। इलाहाबाद में शर्माजी ने अन्य लोगों के साथ मिलकर 1928 में सायमन कमीशन का बहिष्कार किया।
​1925 में कोलकाता के कांग्रेस अधिवेशन में शर्माजी ने प्रतिनिधि बनकर भाग लिया। नेताजी सुभाष चंद्र बोस, मोतीलाल नेहरू जैसे नेताओं के दर्शन हुए। 1929 ई में वकालत की फाइनल परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की। शर्माजी उरई वापस आ गए और अपने सार्वजनिक जीवन का प्रारंभ किया। खादी प्रोत्साहन के लिए गांधीजी को पं0 मन्नीलाल पांडेय के साथ मिलकर जिले से 3500/- रुपए दान की व्यवस्था कर गांधीजी का उरई-जालौन दौरा सफल कराया। ठड़ेश्वरी मंदिर के पास गांधीजी की सार्वजनिक सभा हुई। यहां गांधीजी का स्वयं के काते गए सूत से बना गमछा खो गया, किंतु गांधीजी ने दूसरा लेने से मना कर दिया।
​सत्याग्रह आंदोलन में पं0 मन्नीलाल पांडेय, कालीचरण निगम के साथ शर्माजी जेल गए। शर्माजी और कालीचरण निगम को साधारण कैदी की तरह एक साल की सजा पर रखा गया। झूठी म्यूटिनी (गदर) घोषित कर जेल के कैदियों को पांच मिनट के लिए ‘पगली घंटी’ बजाकर रखा जाता था। यह कसरत जेल पर अधिकारियों के नियंत्रण को परखने के लिए होती थी। जेल में रहकर शर्माजी का स्वास्थ्य बिगड़ गया, उन्हें कफयुक्त खांसी  की शिकायत रहने लगी। एक बार साइकिल से कचहरी जाते समय पागल कुत्तों ने शर्माजी को काट लिया। उन दिनों कुत्तों के काटे का इलाज कसौली (तब पंजाब में, अब हिमाचल प्रदेश) में होता था। शर्माजी ने अपने भाई रामदासजी के साथ 15 दिन कसौली में रहकर इलाज कराया।
​सन् 1937 में हुए असेंबली चुनाव में कांग्रेस ने हिस्सा लिया। शर्माजी ने जालौन जनपद की एक जनरल सीट पर पं0 मन्नीलाल पांडेय को तथा बुंदेलखंड की एकमात्र सुरक्षित सीट पर श्री लोटनराम को कांग्रेस उम्मीदवार बनाया। धन के अभाव में शर्माजी ने स्वयं चुनाव नहीं लड़ा। दोनों प्रत्याशी चुनाव जीते और जमींदारों के गढ़ में ही रायसाहब कामतानाथ तथा रामसहाय चमार हार गए। इस चुनाव से जिले में कांग्रेस की धाक जम गई। डॉ आनंद की गीतों ने इस चुनाव में समां बांधा। संयुक्त प्रांत में कांग्रेस की सरकार पं0 गोविंद बल्लभ पंत की अगुवाई में बनी। 1939 में संग्रहणी रोग के कारण जिला जालौन के ‘शेर’ पं0 मन्नीलाल पांडेय एमएलए का निधन हो गया।
​कांग्रेसी सरकारों ने अंग्रेजी हुकूमत के विरोध में त्याग-पत्र दे दिया। जालौन जिले में पं0 बेनीमाधव तिवारी तथा चौधरी लोटनराम ने व्यक्तिगत सत्याग्रह शुरू किया। शर्माजी के घर की स्थितियां सर्वथा प्रतिकूल थीं, भाई व पिता का क़त्ल, एक अन्य भाई का तपेदिक से निधन, घर में शर्माजी की माता एवं पत्नी तथा छोटे-छोटे बच्चे थे। फिर भी शर्माजी की माता ने सत्याग्रह करने के लिए ढाढ़स बंधाकर शर्माजी को अश्रुपूरित विदाई दी। शर्माजी ने अपने अन्य साथियों के साथ नैनी संेट्रल जेल भेज दिए गए। यहां वे मौलाना आज़ाद, लालबहादुर शास्त्री, डॉ काटजू, पं0 बालकृष्ण शर्मा, चंद्रभानु गुप्त, पं0 कृष्णदत्त पालीवाल आदि हस्तियों के संपर्क में आए। यहां अपनी बैरक में शर्माजी ने गांधीवादी विचारधारा की एक कक्षा लगानी शुरू कर दी। जेल में पढ़ना-पढ़ाना इन नेताओं का शगल रहा। डॉ काटजू को शर्माजी ने प्रेमसागर (लल्लूजीलाल कृत) सुनाकर हिंदी सिखाई। शर्माजी ने 1941 ई में जेल से छूटने पर जिले में और जिले के बाहर भी कांग्रेस संगठन का कार्य प्रारंभ कर दिया।
​7 अगस्त 1942 को मुंबई में हुए अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अधिवेशन में शर्माजी ने भाग लिया। उस अधिवेशन के राष्ट्रपति (कांग्रेस अध्यक्ष) शर्माजी के नैनी जेल के साथी मौलाना आज़ाद थे। अधिवेशन में ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ का प्रस्ताव पं0 जवाहरलाल नेहरू ने पेश किया, जिसका सरदार पटेल ने समर्थन किया। महात्मा गांधी इस प्रस्ताव पर पूरे दो घंटे- हिंदी और अंग्रेजी- में बोले। उनके इस भाषण को आज़ादी का चार्टर कहा गया। गांधीजी ने कहा ‘मैंने अपनी सारी शक्ति कांग्रेस को समर्पित कर दी है और कांग्रेस या तो अपना उद्देश्य पूरा करेगी या मरेगी।’ इसे ‘करो या मरो’ कहा गया। आत्मकथा में अधिवेशन में प्रस्तुत भाषणों के प्रमुख बिंदुओं का वर्णन हुआ है। 9 अगस्त 1942 को गांधीजी गिरफ्तार हुए और फिर सारे देश में गिरफ्तारियों का दौर शुरू हो गया।
​शर्माजी 10 अगस्त को उरई में गिरफ्तार कर लिए गए। उरई जेल में कुछ दिन रहने के बाद वे कई साथियों सहित उन्नाव जेल भेज दिए गए। शर्माजी को तन्हाई की सजा हुई थी। वे अपनी आदत के अनुसार यहां स्वाध्याय करते रहे। उन्होंने जेल में ही एक दिन अखंड रामायण का पाठ शुरू कर दिया। जेल अधीक्षक ने धमकी दी, किंतु शर्माजी की दृढ़ता ने उसे अपने क़दम वापस करने पर मजबूर कर दिया। जेल में जब शर्माजी राजनीतिक तैयारियों को लेकर एक भाषण दे रहे थे कि तभी उनकी माताजी के निधन का तार उन्हें मिला, किंतु शर्माजी ने एक नज़र डालकर उस तार को अपनी जेब में रख लिया और अपना भाषण जारी रखा। मित्रों के कहने पर शर्माजी को जिलाधीश ने 15 दिन के पैरोल पर छोड़ दिया। 15 दिन बाद श्राद्ध करके शर्माजी पुनः जेल चले गए। उन्होंने पैरोल बढ़ाने की अर्जी भी नहीं दी। इसके छः माह बाद शर्माजी की पत्नी बीमार पड़ीं। उन्हें संग्रहणी की बीमारी थी, उनकी तीमारदारी के लिए कोई नहीं था। तीन छोटे-छोटे बच्चे, बड़े पं0 माणिकचंद्र शर्मा उस समय 8 वर्ष के थे। तब भी शर्माजी ने जेल की प्रतिज्ञा के चलते पैरोल की दरखास्त नहीं दी। जिलाधीश ने स्वयं 15 दिन के पैरोल पर छोड़ा। शर्माजी की पत्नी बेहोशी की अवस्था में थीं। शर्माजी के घर पहुंचने के चंद घंटों के बाद उनका देहांत हो गया। अंत्येष्टि क्रिया तथा श्राद्ध करके घर की चाबियां शर्माजी अपने परम मित्र और सहयोगी पं0 बालमुकुंद शास्त्री को सौंपकर पुनः जेल चले गए। कुछ महीने बाद वे जेल से छूटे। उस समय मि0 मदनी जालौन के जिलाधीश थे। यह कट्टर लीगी और कांग्रेस विरोधी थे। शर्माजी की इनसे खटपट हो गई। कानपुर के गोपीनाथसिंह जी के साथ शर्माजी को कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की मीटिंग लेनी थी। शर्माजी के मकान पर ही यह बैठक होनी थी। जिलाधीश ने इसे गैरक़ानूनी घोषित कर दिया। शर्माजी ने अपनी सूझ-बूझ से मीटिंग को संपन्न कर दिखाया, उन्होंने गोपीनाथसिंहजी को अलग कमरे में बिठाकर दो-दो तीन-तीन करके सारे कार्यकर्ताओं को बुलाकर बातचीत कर ली और अपनी मीटिंग का उद्देश्य पूरा कर लिया।
​राजर्षि कहे गए पुरुषोत्तम दास टंडन के आदेश से शर्माजी ने अपने जिले में कांग्रेस असेंबली बनाई। आत्मकथा के अंतिम अध्याय में शर्माजी ने जिला जालौन के सत्याग्रहियों की सूची दी है, जिसमें 1930 ई में उनतालीस, 1932 ई में तीन, 1940-41 में दो सौ बानबे तथा 1942 ई में इकहŸार सत्याग्रहियों ने देश के स्वाधीनता-संग्राम के इन चरणों में अपना योगदान किया।
​शर्माजी की यह आत्मकथा 1970 में प्रकाशित हुई, उनका निधन 1976 में में हुआ, किंतु इसमें 1942 ई तक की ही घटनाओं का वर्णन हुआ। शर्माजी कदाचित् यह संदेश देना चाहते हैं कि उनके जीवन का जो भाग सबके लिए प्रेरणा का स्रोत और संबल बने, वही सबके सम्मुख आना चाहिए, किंतु उनका जीवन मृत्यु-पर्यंत सार्वजनिक एवं उदात्त आदर्शों से संपृक्त रहा। प्रकाशक का यह वक्तव्य समीचीन है कि सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन में प्रवेश करने के इच्छुक नौजवानों को निस्संदेह ऐसे आत्मचरित उच्च आदर्श की ओर प्रेरित करेंगे। निश्चय ही इस ग्रंथ को पढ़कर उन्हें अन्याय से जूझने एवं सही समाज-सेवा की भावना जाग्रत करने में सहायता मिलेगी।’
​शर्माजी ने स्वयं घोषणा की है कि यह आत्मकथा ‘प्रशस्ति की कामना या पराभव से आत्मरक्षा के लिए नहीं, दूसरों के छिद्रान्वेषण द्वारा आत्मश्लाघा के लिए किंचित्मात्र भी नहीं, बदलते समय को नापने या गिनने के लिए नहीं, शायद इसलिए भी नहीं जो संभवतः दूसरे इसका अर्थ लगाएं और निवेदन कर दूं निरर्थक भी नहीं। साथ ही किसी निश्चित प्रयोजन के साथ भी नहीं।’
​शर्माजी ने पच्चीस वर्षों तक निरंतर उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष पद एवं उत्तर प्रदेश सरकार के विभिन्न विभागों के उपमंत्री, राज्यमंत्री एवं कैबिनेट मंत्री तथा चेयरमैन सिंचाई आयोग का दायित्व संभाला। अनेक बार विधायक निर्वाचित हुए, जालौन जनपद के इतिहास में सर्वाधिक पांच बार प्रदेश विधानसभा का सदस्य (एक बार 1946 में स्वतंत्रता पूर्व तथा चार बार स्वतंत्रता काल- 1952, 1962, 1967 तथा 1969 में) चुने जाने का गौरव शर्माजी को प्राप्त है। यह कीर्तिमान आने वाले दिनों में भी भंग होता नहीं दिखता। शर्माजी  1957 तक सार्वजनिक निर्माण विभाग में तथा 1958 से 1960 तक राजस्व विभाग में उपमंत्री रहे। आपने 1961 से मार्च 1962 तक स्वतंत्र शासन विभाग में राज्यमंत्री का तथा मार्च 1962 से दिसंबर 1962 तक सहकारिता मंत्री के रूप में प्रदेश शासन का दायित्व निभाया। 1963 से 1967 तक स्वायत्त शासन मंत्री एवं 1969 से 1970 तक राजस्व एवं शिक्षा मंत्री के रूप में कार्य किया। सन् 1972 से 1974 तक चेयरमैन सिंचाई आयोग उŸार प्रदेश रहे। 1948 से 1975 के बीच उरई में गांधी इंटर कालेज, गांधी महाविद्यालय, गांधी बाल विद्यालय तथा ग्राम गोहन में जवाहर हाईस्कूल के संस्थापक एवं मृत्युपर्यंत उनके संरक्षक व पदाधिकारी रहे। ग्राम उद्योग ट्रस्ट पुखरायां (कानपुर देहात) के आजीवन ट्रस्टी व गोस्वामी तुलसीदास की जन्मभूमि राजापुर (चित्रकूट) में तुलसी स्मारक की स्थापना, तुलसी समिति के आजीवन मंत्री तथा स्वामीजी महाराज द्वारा स्थापित पीतांबरा पीठ दतिया की शिष्य परंपरा के प्रमुख सदस्य, दयानंद वैदिक महाविद्यालय प्रबंध समिति के उपाध्यक्ष आदि के रूप में अहम् भूमिकाओं का निर्वहन किया। प्रदेश में मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशियों में भी शर्माजी के नाम की चर्चा रही थी। वह प्रदेश मंत्रिमंडल में मुख्यमंत्री के बाद सबसे बड़ी हैसियत के मंत्रियों में से रहे हैं, किंतु इनमें से किसी का उल्लेख उन्होंने अपनी आत्मकथा में नहीं किया है। शर्माजी जैसे निष्काम कर्मयोगियों की दृष्टि में यह उपलब्धियां मानो उल्लेखनीय भी नहीं। शर्माजी ने क्षेत्र के पिछड़े विद्यार्थियों की शिक्षा के लिए जिन शैक्षणिक संस्थाओं का निर्माण कराया, उनका नाम उन्होंने गांधीजी के नाम पर ही रखा। आत्मकथा में गांधीजी के जन्म शताब्दी वर्ष के बारे में शर्माजी लिखते हैं ‘हम उतावले से पूछते हैं एक दूसरे से - हम गांधीजी की कल्पना कहां तक साकार कर सके हैं, कितने डग बढ़ सके हैं, उनके पदचिन्हों की पगडंडी पर स्वतंत्रता का उदय सर्वोदय से कितनी दूर है, उत्सुकता होती है जानने की।’ शर्माजी ने राजनीति में उत्तरोत्तर स्वस्थ जनहितकारी चेतना के अभाव पर चिंता व्यक्त की है। उन्हें प्रतीत होता है कि मानो स्वतंत्र राष्ट्र में स्वतंत्रता की आत्मा प्रतिष्ठित नहीं हो सकी है। आज का भ्रष्टाचार की धुंध से भरा वातावरण देखकर हम सब यह मानने को विवश हैं।
​गांधीजी के सच्चे अनुयाई, बुंदेलखंड केसरी और बुंदेलखंड के बापू के रूप में स्वीकृत स्वर्गीय पं0 चतुर्भुज शर्माजी का व्यक्तित्व और उनके आदर्श समाज के पथ-प्रदर्शक हैं।
 
​​​​​​-शब्दार्णव, नया पटेल नगर, कोंच रोड, उरई (जालौन)
​​​​​​मो0 9236114604 बुंदेली  बसंत २०१४ में प्रकाशित

Thursday, November 25, 2021

भारत की संत परम्परा और परमहंस योगानंद भारत की संत परंपरा और परमहंस योगानंद राकेश नारायण द्विवेदी ​भारत की संत परंपरा विषयक पुस्तक में आलेख देने के लिए जब मेरे मित्र डाॅ जयशंकर तिवारी ने मुझसे कहा तो अन्य दिनो से अधिक व्यस्तता में रहने के बाद भी इसके लिए परमहंस योगानंद पर कुछ लिखने का विचार कौधा। इस विषय पर आलेख लिखने में अपूर्व उत्साह का संचार हुआ। ​परमहंस योगानंद के जीवन और दर्शन पर लिखने का निश्चय अवश्य किया, पर उनके वैविध्य और विस्तार को देखते हुए मेरी वाणी उनके अवदान को रेखांकित करने में समर्थ नहीं हैं। मुझे विश्वास है पाठक अपनी समझ और परंपरा के सूत्र के सहारे इस विषय का अवगाहन कर लेंगे। भारत की संत परंपरा वैदिक काल से अप्रतिहत अद्यावधि प्रवहमान है। वेद के अंतिम काल भाग, जिसे वेदांत कहा जाता है, उसका निदर्शन करने वाले उपनिषद हमारी संत परंपरा के जाज्वल्यमान नक्षत्र की भांति दुनिया भर में अपना प्रकाश बिखेर रहे हैं। उपनिषदों के कारण भारत जगतगुरु जैसी उपाधि को प्राप्त हुआ। उपनिषदों में संतो ने साक्षात्कार प्राप्त करके जो तत्वदर्शन वर्णन किया। जीवन, जगत, ईश्वर और प्रकृति के बारे में जो निर्वचन किया, वह संतों ने अपने अनुभव की प्रयोगशाला में उद्घाटित किया। इससे वह मात्र उनका अनुभव नहीं रह गया, अपितु वह मनुष्य मात्र की परमोपलब्धि बन गया। ​उपनिषदों का ज्ञान विश्व मानव की धरोहर बन गया। संसार की रेलमपेल में त्राण पाने के लिए यह ग्रंथ ऐसी खिडकी बनकर हमारे सम्मुख उपस्थित हैं, जहां से निकली निर्मल वायु हमारा परिष्कार कर देती है। उपनिषदों का ही ज्ञान समेकित रूप में श्रीमद्भगवद्गीता में मिलता है। प्रस्थानत्रयी में उपनिषद और गीता के अतिरिक्त ब्रह्मसूत्र आता है। ब्रह्मसूत्र की व्याख्या के आधार पर ही भारत के अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत इत्यादि विभिन्न संप्रदाय बने। इन संप्रदायों के आचार्यों ने जीवन और जगत के शाश्वत प्रश्नों पर ब्रह्मसूत्र का भाष्य करते हुए उसकी व्याख्या की है। भारत की एक परंपरा वैदिक है, जो वेदों में वर्णित पद्धति को अपना पाथेय मानती है, दूसरी परंपरा आगमशास्त्र की है। आगम को ही तंत्र कहा जाता है, तांत्रिक परंपरा को वर्तमान में कतिपय हेय दृष्टि से देखा जाता है। किंतु भारत के जनमानस के आचार-व्यवहार में वैदिक और तांत्रिक दोनों पद्धतियों का मिश्रण मिलता है। पुराण, स्मृतियां और सूत्र ग्रंथों में और पूजा पद्धतियों में यह दोनों पद्धतियां इस प्रकार एकमेक हो जाती हैं कि उन्हें पृथक कर पाना दुष्कर हैं। कौंन पद्धति तंत्र भी है और कौंन वेद की, इस प्रकार भी दोनों पक्षों के दावे देखने में आते हैं। वेदों का शास्त्रीय और साहित्यिक महत्व अन्यतम है, जबकि तंत्र का महत्व उसके विश्वव्यापी अवबोध के कारण है, जिससे वह विश्व की विभिन्न उपासना पद्धतियों में गति करने का सामथ्र्य रखता है। योगशास्त्र में इन दोनों पद्धतियों का समाहार विद्यमान है। वेद और तंत्र दोनों के लिए योग शास्त्र अपरिहार्य है। गीता में योगशास्त्र के अनुरूप वर्णन हुआ है। योग का मूल ग्रंथ पतंजलि का योगसूत्र है, जिसके सूत्रों में विज्ञान और धर्म का अंतर्भाव हुआ है। परस्पर विरोधी समझे जाने वाले विज्ञान और धर्म योगसूत्र में एक दूसरे को संपुष्ट करते हैं। भारत में समय-समय पर आततायियों और विदेशी शासकों ने आक्रमण किये। सनातन शास्त्रों का इससे विलुप्तीकरण हुआ और अंग्रेजी शासन के दौरान छापाखाने के आविष्कार के बाद छपी पुस्तको से सनातन धर्म के स्वरूप को लेकर अनेक मतवाद भी फैल गए। तत्वबोध तो प्रत्येक व्यक्ति को ही प्राप्त करना है, पर यदि इसके बाद अपना संप्रदाय फैलाने में कोई संलग्न हो जाए तो संभव है कुछ समय तक उसकी कीर्ति बढती हुए दिख जाए, पर वह अल्पावधि तक ही रहती है और वह वस्तुतः कीर्ति नही, अंततः उसके कृत्य अपकारी ही सिद्ध होते हैं। योग परंपरा के प्रसार में पुस्तको की वैसी आवश्यकता नहीं रहती, क्योकि यह एक व्यावहारिक पद्धति है। सिद्धों और संतो ने सुदूर पहाडों की गुफाओं में रहते हुए विदेशी आक्रमणो के बावजूद इसे अक्षुण्ण और निर्दोष बनाए रखा। योग की विभिन्न प्रविधियों के प्रयोग और अभ्यास से शीघ्रता से स्वास्थ्य और मन में अभूतपूर्व परिवर्तन देखे जाते हैं। परमहंस योगानंद (1893-1952) ने न केवल भारत में अपितु विश्व भर में क्रिया योग का प्रसार किया। यह क्रिया योग योग के भी ग्रंथों में सीधे-सीधे नहीं मिलता। महावतार बाबा जी से यह क्रियायोग 1861 में लाहिरी महाशय (1828-1894) को प्राप्त हुआ। लाहिरी महाशय ने इसे अपने शिष्यों को सिखाया। उन्होनें इसे बिना जाति और धर्म का भेद किए हुए सिखाया। लाहिरी महाशय के शिष्य स्वामी श्रीयुक्तेश्वर हुए। श्री युक्तेश्वर जी ने कैवल्य दर्शन (होली साइंस) पुस्तक लिखी। जिसके सूत्रों में उन्होनें ज्ञानात्मक एकता और उसके महत्वपूर्ण पक्षों पर प्रकाश डाला है। श्रीयुक्तेश्वर जी के शिष्य परमहंस योगानंद हुए। योगानंद जी ने अपनी आत्मकथा अंग्रेजी में आटोबायोग्राफी ऑफ़ अ योगी नाम से लिखी, यह आत्मकथा हिंदी में योगी कथामृत नाम से प्रकाशित हुई। 1946 में प्रकाशित इस आत्मकथा में योगानंद जी के जीवन की बहुत कम घटनाएं वर्णित हुई हैं। इस आत्मकथा में उन्होनें अपने समय के बडे-बडे योगियों और संतों से मिलकर उनके बारे में अज्ञात तथ्य प्रस्तुत किए। इस आत्मकथा में विश्व भर की वैज्ञानिक हलचलों का भी संज्ञान लिया गया है। उन वैज्ञानिक खोजों का आध्यात्मिक जगत से संबंध भी निरूपित किया गया है। दुनिया की 95 प्रतिशत जनसंख्या इस आत्मकथा को अपनी हुए अनुवादों के कारण पढ सकती है। बीसवीं शताब्दी की श्रेष्ठ आध्यात्मिक पुस्तकों में इसे सम्मिलित किया गया है। परमहंस योगानंद ने गुरु परंपरा से प्राप्त योग प्रविधियों को तो सिखाया ही, उन्होनें शक्ति संचार व्यायाम के अडतीस अभ्यासों का भी निर्माण और संकलन किया। यह व्यायाम योग परंपरा ग्रंथों में नहीं मिलते, योगानंद जी की यह अपनी खोज है। योगानंद जी ने बाल्यकाल से ही इस मार्ग पर जाने का निश्चय कर लिया था। नौकरी और विवाह के अच्छे प्रस्तावांे पर भी उनका यह संकल्प डिगा नहीं। स्नातक स्तर की पढाई में भी उनका मन नहीं लगा, यह पढाई उनके गुरुदेव श्रीयुक्तेश्वर जी के निर्देशों के बाद पूरी हुई। योगानंद जी ने रांची में उस समय लडकों और लडकियों को एक साथ पढाने के लिए विद्यालय खोला, जब इसकी बात भी करना चुनौती से कम नहीं था। रांची के इस विद्यालय में गांधी जी का आगमन हुआ था। बाद में अमेरिका से लौटकर वर्धा सेवा आश्रम में गांधी जी से परमहंस जी पुन मिले। जहां उन्होनें कुछ दिन रहकर गांधी और उनके सहयोगियों को क्रिया योग की दीक्षा दी। योगानंद जी ने क्रिया योग से तत्व जिज्ञासा शीघ्र शमन करने का मार्ग प्रशस्त किया और यह जनमानस को सुलभ कराया, जो पहले गुफाओं में ही सीमित था। संसार और मोक्ष में उन्होनें सुन्दर समन्वय किया, उन्होंने कहां हमें संसार में रहना है, पर संसार का होकर नहीं रह जाना है। शांति पूर्वक सक्रिय रहना है और सक्रियता पूर्वक शांत होना है। शांति, प्रेम और आनंद प्राप्ति के लिए ही मनुष्य धरती पर आया है। यह शांति, प्रेम और आनंद व्यक्ति योग मार्ग पर चलकर शीघ्रता से प्राप्त कर पाता है। यह मार्ग सभी जाति, धर्म और क्षेत्र के लोगो पर समान रूप से उपयोगी हैं। इस मार्ग में न आडंबर है, न पाखण्ड। हम जो कर रहे है, उसी जगह वही काम करते हुए इस मार्ग पर चला जा सकता है, फिर जो व्यग्रताएं हमारे भीतर ज्वार पैदा करती है, उनका समाधान कुछ भी बाह्य परिवर्तन के बिना हो जाता है। परमहंस योगानंद चमत्कार दिखाने के पक्षधर नहीं रहे, न उन्होनें स्वयं इसका प्रदर्शन किया। मनुष्य का मानसिक रूपांतरण अपने आप में एक चामत्कारिक घटना है। संसार में बहुत से तथाकथित गुरु और संतों का चोला धारण किए हुए लोग पाए जाते है। इसका उन्हें पूरा भान था, इसलिए उन्होनें यह व्यवस्था दी कि उनके देह पात के बाद उनकी शिक्षाएं ही गुरु होंगी। स्वामी और संन्यासी इन शिक्षाओं का प्रसार जिज्ञासुओं के लिए करेंगे। आध्यात्मिकता का विज्ञापन करने से परमहंस योगानंद जी परहेेज करते थे। विज्ञापन तो क्रय विक्रय करने के लिए किया जाता है। प्रचार करने की आवश्यकता आध्यात्मिक संस्थाओं को कदापि नहीं है। इसका प्रचार करने से लाभ भी नहीं होता। तीव्र जिज्ञासा उत्पन्न होने के बाद जब तक व्यक्ति स्वयं रूपांतरित नहीं होगा, समाज और राष्ट्र में वांछनीय परिवर्तन नहीं हो सकते। स्वयं का रूपांतरण उसकी जिज्ञासा और उसकी तीव्रता के फलस्वरूप संभव है, उसके बिना तो वह भी एक एषणा बनकर ही रह जाएगी। स्वयं के रूपांतरण में समाज की सभी बुराइयों का समाधान संनिहित है। इस रूपांतरण के बाद व्यक्ति को समाज सुधारक बनने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। उसका आचरण ही प्रेरक हो जाता है, बिना उद्घोष किए एक कोंपल कब पत्ती में बदल जाती है, इसका पता नहीं लगता। परमहंस योगानंद की बहुश्रुत और बहुपठित आत्मकथा में उनका जीवन उद्घाटित नहीं हुआ है। योगानंद जी का जीवन और दर्शन मेजदा नामक पुस्तक मिलता है। इस पुस्तक को उनके अनुज सनंद लाल घोष ने लिखा हैं। मेजदा बंगाली भाषा में मझले भ्राता के लिए कहां जाता है। योगानंद जी चार भाइयों में दूसरे नंबर के थे। उनके पिता जी भगवती चरण घोष रेलवे गोरखपुर में नौकरी करते थे, जहां योगानंद जी (मूल नाम मुकुंद लाल घोष) का जन्म 5 जनवरी 1893 को हुआ था। चमत्कारों पर योगानंद जी ने कहां है चमत्कार दिखाने से लोग आकर्षित तो होते हैं, परन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से उनका कोई लाभ नहीं होता। मनोरंजन के अतिरिक्त उनका कोई प्रयोजन नहीं होता। अतः ईश्वर की यथार्थ खोज से ये साधक को पथच्युत कर देते हैं। परमहंस योगानंद जी के वचनों का संकलन परमहंस योगानंद वचनामृत नाम से प्रकाशित हैं, पर यहां योगी कथामृत से कतिपय सूक्तिपरक अंश पाठकों की सुविधा के लिए दिए जा रहे हैं- ‘‘सत्य कोई सिद्धांत नहीं है, न ही वह दर्शनशास्त्र का कोई तत्व ज्ञान है और न ही वह बौद्धिक अंतर्दृष्टि है। वह तो प्रत्यक्ष वास्तविकता के साथ तदनुरूपता है। मनुष्य के साथ आत्मा के रूप में अपने सच्चे स्वरूप का अटल ज्ञान ही सत्य है।’’ ‘‘ईश्वर की गूढ लिपि को पढना एक ऐसी कला है जो कोई मनुष्य किसी मनुष्य को नहीं पढा सकता, इस मामले में ईश्वर स्वयं ही एक मात्र गुरु होता है।’’ ‘‘राष्ट्रों के अग्रज भारत द्वारा जमा किया ज्ञान सारी मानव जाति की विरासत हैं। सभी सत्यों की भांति वैदिक सत्य भी ईश्वर की संपत्ति है, भारतवर्ष की नहीं।’’’’सत्य के राज्य में जाति या राष्ट्र का भेदभाव निरर्थक है।’’ ​‘‘संसार को देने के लिए भारत के पास और कुछ नहीं होता तो क्रियायोग अकेला ही शाही भेंट माना जाने के लिए पर्याप्त होता।’’ ‘‘संसार (शब्दशः अर्थ प्रवाह के साथ बहना) मनुष्य को सबसे कम प्रतिरोध का मार्ग अपनाने के लिए प्रेरित करता हैं। इसलिए जो भी संसार का मित्र बनेगा, वह ईश्वर का शत्रु है।’’ ‘‘समाज के नाम जो बुराइयां मढ़ दी जाती हैं, उनके लिए वस्तुतः प्रत्येक मनुष्य को दोषी पाया जा सकता है।‘‘ ​‘‘रामराज्य पहले प्रत्येक ह्रदय में प्रकट होना चाहिए, तब वह समाज में फैलेगा, क्योंकि आंतरिक सुधार होने पर बाह्य सुधार अपने आप ही होते हैं। जो मनुष्य अपने आप को सुधार लेगा, वह हजारों को सुधार देगा।’’ परमहंस योगानंद ने भारत की संत परंपरा को विश्व के विभिन्न देशों में प्रसारित किया। सेल्फ रियलाइजेशन फैलोशिंप नामक संस्था का संचालन अमेरिका से किया जाता है। इस संगठन में बहुत पहुंचे हुए संत हुए है। इनमें राजर्षि जनकानंद, ज्ञानमाता, दयामाता, मृणालिनीमाता, स्वामी भक्तानंद इत्यादि प्रमुख हैं। यह देखना महत्वपूर्ण है कि अमेरिका जैसे भौतिकवादी देशों में भारत की संत परंपरा का उन्नयन इतने सुंदर ढंग से योेगानंद जी ने किया कि उससे समूची मानव जाति धन्य हुई है। राजर्षि जनकानंद अमेरिका के एक बडे उद्योगपति रहे हैं, उनका नामकरण योगानंद जी ने राजर्षि जनक के नाम पर किया। दयामाता प्रेम और करुणा की ही मूर्तिमंत रूप थीं। आॅनली लव पुस्तक उनके व्यक्तित्व को समझने के लिए पठनीय है। ज्ञानमाता के विभिन्न पत्र एक पुस्तक, गोड एलोन नामक पुस्तक में छपे है, यह पत्र उन्होनें अथवा उन्हें गुरुदेव परमहंस योगानंद को अथवा ज्ञानमाता को लिखे हैं। ज्ञानमाता द्वारा अन्य व्यक्तियों को लिखे पत्र भी इसमें दिए गए हैं। इन पत्रों को पढकर ज्ञानमाता का नाम चरितार्थ होता है। 4 जुलाई को एक पत्र में परमहंस योगानंद ने ज्ञानमाता को लिखा है- “I have never seen such selfish noble example in the west as in you and St. Lynn.(Rajarshi Janakananda). I never write , but I do write to you ever in my heart and spirit. I don’t talk, but I do ever talk to you in silence.” ज्ञानमाता ने आत्मा और चेतना के विषय पर अपने अनुभव में उतरे रहस्य को कितने सुंदर ढंग से व्यक्त किया है- Soul connected with body is called ego. Xxx consciousness is never tired. He never sleeps. Rest is nothing but a relative state of mind.” 245 नया पटेल नगर, कोंच रोड, उरई जिला जालौन उ0प्र0 मोबाइल 9236114604

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Wednesday, November 3, 2021

प्रकाशोदय पर्व दीपावली

ब्रह्मांड व्यापी पदार्थ और ऊर्जा का जब अखंड चेतना मे रूपांतरण होता है, तब प्रकाश का उदय होता है. यह चेतना उजाले और अंधेरे सब में भास्वर होती है. यह प्रकाश चेतना ध्वनि में है और श्वास प्रश्वास में भी. प्राणन में जो चेतना प्रवाहित हो रही है, उसी को उपलब्ध होना प्रकाशित होना है. इस उपलब्धि या अयोध्या में ही राम वापस आकर बसते हैं. चमकती हुयी रोशनी उसका स्थूल रूप है. स्थूलता में चमकती रोशनी में ही पदार्थ गतिमान दिखायी पड़ते हैं. 


सूर्य, चंद्र और तारे प्रकाश देते हैं, सदा अस्तित्वमान रहते हैं. पर दीपक अनथक प्रकाश देता है और प्रकाश देते हुए स्वयं को अर्पित कर देता है. यह जलता हुआ दीपक जीवन का प्रतीक है. जलते दिए की अस्थिरता की भाँति जीवन चलता है. 

दीपक का तेल/घी प्रेम और भक्ति का प्रतीक है, इसकी बाती इच्छा का प्रतीक है. दीपक की लौ का शीर्ष भाग ज्ञान का तो उसका ऊष्म भाग प्रेम और भक्ति  का प्रतीक है. ज्ञान भाग में ही हमारे गुरुदेव निवास करते हैं.


यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।��योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः।।गीता 6.19।।

जैसे स्पन्दनरहित वायुके स्थानमें स्थित दीपककी लौ चेष्टारहित हो जाती है, योगका अभ्यास करते हुए यतचित्तवाले योगीके चित्तकी वैसी ही उपमा कही गयी है।।


न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।

तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥कठोपनिषद २/२/१५, मुंडक और श्वेताश्वतर में भी है..

वहां न सूर्य प्रकाशित होता है और चन्द्र आभाहीन हो जाता है तथा तारे बुझ जाते हैं; वहां ये विद्युत् भी नहीं चमकतीं, तब यह पार्थिव अग्नि भी कैसे जल पायेगी? जो कुछ भी चमकता है, वह उसकी आभा से अनुभासित होता है, यह सम्पूर्ण विश्व उसी के प्रकाश से प्रकाशित एवं भासित हो रहा है।


गीता में यह इस प्रकार आया है..

न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।15.6।।

उसे न सूर्य प्रकाशित कर सकता है और न चन्द्रमा और न अग्नि। जिसे प्राप्त कर मनुष्य पुन: (संसार को) नहीं लौटते हैं, वह मेरा परम धाम है।। 


शुभ दीपावली🙏

Thursday, May 13, 2021

गायत्री मंत्र स्वरूप और महत्व

गायत्री : स्वरूप और महत्व
राकेश नारायण द्विवेदी

बृहदारण्यक उपनिषद के पांचवें कांड में गायत्री स्वरूप का विस्तृत विवेचन मिलता है। गायत्री के चार पाद हैं। एक द्यौ (स्वर्ग), भूमि और अंतरिक्ष से मिलकर, दूसरा वेदत्रयी से तो तीसरा प्राण, अपान और व्यान से मिलकर बनता है। चौथा पैर सूर्य का है, यह दिखाई देता भी है और नहीं भी दिखता। शरीर मे सूर्य आंख का अधिष्ठातृ देवता है। सूर्य आंख पर ही विश्राम करता है। भू सिर को भुवः हाथों को और स्व पैरों को कहा जाता है। 
गया की रक्षा करने के कारण गायत्री नाम हुआ। गया प्राण को कहा गया है।  बृहदारण्यक उपनिषद में कहा गया है। प्राणा वै गयाः,  तत्प्राणांस्तवे, तद्यद्गयांस्तवे, तस्माङ्गायत्री नाम।  गया के इस अर्थ से  गया शहर और बोधगया में बुद्ध को प्राप्त बोधि का भी क्या कोई सम्बन्ध है! क्या गो जिसका अर्थ इंद्रियां होता है, गोस्वामी से तो उसका अर्थ प्रकट ही है, गोकुल और गाय से भी क्या कोई अर्थ संगति बनती है!
ऋग्वेद में गायत्री के दो अलग-अलग मंत्र मिलते हैं। एक 3/62/2 में बहुप्रचलित गायत्री मंत्र मिलता है-

 तत्स॑वि॒तुर्वरे॑ण्यं॒ भर्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि। धियो॒ यो नः॑ प्रचो॒दया॑त्॥

हे मनुष्यो ! सब हम लोग (यः) जो (नः) हम लोगों की (धियः) बुद्धियों को (प्रचोदयात्) उत्तम गुण-कर्म और स्वभावों में प्रेरित करै उस (सवितुः) सम्पूर्ण संसार के उत्पन्न करनेवाले और सम्पूर्ण ऐश्वर्य्य से युक्त स्वामी और (देवस्य) सम्पूर्ण ऐश्वर्य के दाता प्रकाशमान सबके प्रकाश करनेवाले सर्वत्र व्यापक अन्तर्यामी के (तत्) उस (वरेण्यम्) सबसे उत्तम प्राप्त होने योग्य (भर्गः) पापरूप दुःखों के मूल को नष्ट करनेवाले प्रभाव को (धीमहि) धारण करैं।

दूसरा मंत्र ऋग्वेद 5/82/1 में दिया गया है- 

तत्स॑वि॒तुर्वृ॑णीमहे व॒यं दे॒वस्य॒ भोज॑नम्। श्रेष्ठं॑ सर्व॒धात॑मं॒ तुरं॒ भग॑स्य धीमहि ॥

हे मनुष्यो ! (वयम्) हम लोग (भगस्य) सम्पूर्ण ऐश्वर्य्य से युक्त (सवितुः) अन्तर्य्यामी (देवस्य) सम्पूर्ण के प्रकाशक जगदीश्वर का जो (श्रेष्ठम्) अतिशय उत्तम और (भोजनम्) पालन वा भोजन करने योग्य (सर्वधातमम्) सब को अत्यन्त धारण करनेवाले (तुरम्) अविद्या आदि दोषों के नाश करनेवाले सामर्थ्य को (वृणीमहे) स्वीकार करते और (धीमहि) धारण करते हैं (तत्) उसको तुम लोग स्वीकार करो। 
इन दोनों मंत्रो के अर्थ यहाँ स्वामी दयानन्द सरस्वती कृत दिये हुए हैं। इन अर्थों में गायत्री का रहस्य प्रकट नही होता है। 
पूज्यपाद स्वामी जी महाराज दतिया की पुस्तक वैदिक उपदेश में गायत्री मंत्र मूल तो नहीं मिलता है, पर उसका हिंदी अर्थ जो दिया है, वह ऋग्वेद 5/82/1 की व्याख्या प्रतीत होती है, उन्होंने लिखा है सभी वस्तुएं हम सबको प्राप्त हों तथा हे मनुष्यो सब लोग उस अमूल्य ब्रह्मलोक परमात्मा के परम प्रकाश को प्राप्त करो। 
गायत्री का रहस्य खुलता है छान्दोग्य उपनिषद में। जिसमे ऋग्वेद 5/82/1 का मंत्र इस प्रकार दिया गया है। अथ खल्वेतयर्चा पच्छ आचामति तत्सवितुर्वृणीमह इत्याचामति वयं देवस्य भोजनमित्याचामति श्रेष्ठं सर्वधातममित्याचामति तुरं भगस्य धीमहीति सर्वं पिबति निर्णिज्य कंसं चमसं वा पश्चादग्नेः संविशति चर्मणि वा स्थण्डिले वा वाचंयमोऽप्रसाहः स यदि स्त्रियं पश्येत्समृद्धं कर्मेति विद्यात् ॥ 5/2/7॥

. Then, while saying this Ṛk mantra foot by foot, he eats some of what is in the homa pot. He says, ‘We pray for that food of the shining deity,’ and then eats a little of what is in the homa pot. Saying, ‘We eat the food of that deity,’ he eats a little of what is in the homa pot. Saying, ‘It is the best and the support of all,’ he eats a little of what is in the homa pot. Saying, ‘We quickly meditate on Bhaga,’ he eats the rest and washes the vessel or spoon. Then, with his speech and mind under control, he lies down behind the fire, either on the skin of an animal or directly on the sacrificial ground. If he sees a woman in his dream, he knows that the rite has been successful [and that he will succeed in whatever he does].
छान्दोग्य उपनिषद के साथ बृहदारण्यक उपनिषद का पांचवां कांड देखना चाहिए। इसमे गायत्री मंत्र का स्वरूप स्पष्ट हुआ है। गायत्री की उपासना का संकेत  छान्दोग्य उपनिषद में किया गया है। ऋग्वेद के पांचवे मंडल का ही मंत्र आदि शंकराचार्य पर बनी डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म में बोला जाता है। किसी समय देखी इस फ़िल्म में सुने उस मंत्र पर ध्यान तो जाता है, पर बहुप्रचलित गायत्री मंत्र के बरक्स उसका पूरा महत्व नहीं मिलता, जिससे वह जिज्ञासा वही अधूरी रह जाती है। बृहदारण्यक उपनिषद के इस कांड को पढ़ने पर गायत्री मंत्र और उसकी उपासना का रहस्य खुल जाता है। गायत्री प्राण शक्ति है, इसीलिए इसे सूर्य उपासना के तौर पर भी लिया जाता है। उपनिषदों में आये अर्थ के बाद भी उपासना पूरी तरह नहीं खुलती, यह तो गुरुदेव की कृपा के फलस्वरूप ही साधक को प्राप्त होती है। लेकिन गायत्री उपासना पर इतना बल क्यो दिया गया है, यह सुस्पष्ट हो गया है।

Saturday, February 13, 2021

दस दिन हिमालय के संग संग

दस दिन हिमालय के संग संग
      चुप रहने के दौरान एक दिन अचानक भगवान बद्रीनाथ के दर्शन की इच्छा हुई। वहाँ जाने के लिए विचार-प्रकिया चल पड़ी। घर में बात की तो धर्मपत्नी ने वहाँ की दुर्गमता और मौसम की अनिश्चितता के भय से और पुत्री की जिम्मेदारी के कारण हिमालय यात्रा जाने मे अनिच्छा प्रकट की। पुत्री को यह यात्राएँ धार्मिक रीति की लगती हैं, इसलिए उसकी इच्छा पूर्व विदित ही थी। तथापि मुझे जाने की स्वीकृति इन लोगों की तरफ से मिल गई। 
तत्काल श्रेणी में कानपुर से हरिद्वार जाने के लिए मैंने आई आर सी टी सी की वेवसाइट पर आरक्षण कराने हेतु प्रयास किया, पर दो मिनट के लिए मेरे अकाउट को रोककर एजेंट सारी सीट बुक करा लेते हैं, इसलिए अगले दिन भी प्रयास करने पर टिकट आरक्षित नहीं हो सकी। विवश होकर उरई के एक एजेंट को टिकट कराने के लिए कहा उन्होने हरिद्वार तक संगम लिंक एक्सप्रेस में अगले दिन का टिकट करा दिया। 6 जून को सायं 6 बजे बस से कानपुर के लिए प्रस्थान कर गए। रेलगाड़ी के निर्धारित समय से कुछ विलंब से हमारी बस कानपुर पहुँची, किंतु रेलगाड़ी धीरे-धीरे तीन धंटे की देरी से कानपुर आई। हरिद्वार पहुँचते-पहुँचते रेलगाड़ी ने निर्धारित समय से सात घंटे का विलंब कर दिया। 
रेलगाड़ी के आरक्षण के बाद मैंने हरिद्वार से बद्रीनाथ जाने के लिए इंटरनेट पर साधन देखे। निजी संचालकों से संपर्क किया, पर उन पर भरोसा नहीं जमा, मेरे अकेले होने के कारण उन्होंने भी रुचि नहीं दर्शाई। यह देखते हुए गढ़वाल मंडल विकास निगम की साइट पर पहुंचे, वहां देखा कि बद्रीनाथ अकेले नहीं, बल्कि केदारनाथ और बद्रीनाथ का संयुक्त टूर जाता है, पर वह भी 8 जून को उपलब्ध नहीं था। 8 जून को उनका टूर नंबर 4 ऋषिकेश, उत्तराखण्ड के चारों धाम यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ तथा बद्रीनाथ जाने वाला था। इसमें तीन सीटे खाली थी। रूपए 23520/- जमा कराके एक सीट आरक्षित कर ली। इनोवा कार से यात्रा के लिए कम से कम चार सीटें आरक्षित होती हैं। सायं 7.30 बजे 7 जून 2019 को हरिद्वार से एक टेम्पो में सवार होकर ऋषिकेश के लिए चले। टेम्पो चालक ने एक सौ रूपए मागें थे। उसने रास्ते में एक दूसरे टेम्पो में बिठाया और एक सौ रूपए का नोट देने पर बीस रूपए वापस कर दिए। दूसरे टेम्पो में कुछ स्थानीय महिलाऐं सवार थी। वे हंसने लगीं, पूछने पर उन्होंने बताया किराया तो चालीस रुपए ही है। 
रात दस बजे गढ़वाल मंडल विकास निगम के ऋषिकेश स्थित भारत भूमि रेस्ट हाउस पहुंचे उन्होने तत्काल एक कमरा दे दिया, वहां भोजन किया। गढ़वाल मंडल विकास निगम (जी एम वी एन) उत्तराखण्ड सरकार का प्रतिष्ठान है। गढ़वाल में जगह-जगह महत्वपूर्ण स्थानों पर निगम के आधुनिक सुविधा युक्त सुंदर रेस्ट हाउस और होटल बने हैं। इन्ही में भोजन सुविधा भी उपलब्ध हैं। आरक्षित टिकट में निगम की तरफ से यात्रा के अतिरिक्त आवास व्यवस्था सम्मिलित है। भोजन का खर्चा यात्री को स्वयं वहन करना होता हैं। निगम की यह व्यवस्था यात्रियों के लिए सुविधाजनक हैं, यहां सुरक्षित, सुंदर और सुरुचिपूर्ण आवास और अपने खर्चे पर भोजन मिलता हैं। 
8 जून को प्रातः 7.30 बजे ऋषिकेश से हमारी बस यमुनोत्री जाने के लिए रवाना हुई। बस में तेलंगाना, राजस्थान, गुजरात, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, दिल्ली और बिहार राज्य के कुल चौबीस यात्री थे। इनमें गढ़वाल निवासी एक दंपत्ति मुंबई से आए थे। ऋषिकेश से देहरादून के रास्ते डाम्टा, बड़कोट होते हुए दिन भर की यात्रा के बाद सायं 6 बजे फूलचट्टी नामक स्थान पर निगम के रेस्ट हाउस पहुंचे। फूलचट्टी से प्रातः हम लोगों को बस द्वारा जानकी चट्टी पहुंचना था। वहां से पैदल यमुनोत्री 6 किमी है। यमुनोत्री सुबह 10.30 बजे पहुंच गए। यमुनोत्री चार धाम यात्रा का आरभिक स्थल हैं। यम और यमुना सूर्य और संज्ञा के जुडवां पुत्र एवं पुत्री है। संज्ञा जब सूर्य के ताप को सहन नहीं कर सकी तो उन्होनें छाया के नाम से एक क्लोन तैयार कर लिया। एक दिन यम ने छाया को लात मार दी। इस पर गुस्से में छाया ने यम को शाप दे दिया कि तेरी टांग सड़कर गिर जाए। जब यमुना धरती पर आई तो उसने अपने तपस्यारत भाई के इस कष्ट को दूर किया। यम इससे बहुत प्रसन्न हुआ और वरदान दिया कि यमुनोत्री में जो स्नान करेगा उसे दर्दनाक और अकाल मृत्यु से छुटकारा मिलेगा और मोक्ष की प्राप्ति होगी। 
हरिद्वार से यमुनोत्री 233 किमी0 है यमुनोत्री 12972 फुट (3291 मी0) की ऊँचाई पर स्थित हैं। यमुनोत्री के मुख्य ग्लेशियर को मंदिर के समीप से ही देखा जा सकता हैं। दर्शनार्थी उस ग्लेशियर पर चढ़ जाते हैं, जिसके नीचे से यमुना का जल निकलना शुरू होता है। यमुनोत्री के बगल में ही 89 सेटीग्रेड गर्म जल का सूर्य कुंड हैं। यमुनोत्री जाने के लिए घोड़े-खच्चर, पालकी और पोनी खूब मिलते हैं। खच्चरों की लीद पहाड़ों के झरनों से बह रहे जल से मिलकर सड़ांध या बदबू पैदा करती हैं। इसकी सफाई होती है पर इसमें अभी बहुत सुधार किये जाने की आवश्यकता है। एक टोकरी में यात्री को बिठाकर नेपाली युवक लादकर ले जाते हैं पालकी में चार व्यक्ति लगकर श्रद्धालुओं को ले जाते है। घोड़ों-खच्चरों की सुविधा से यह यात्रा सुगम हो जाती है। अधिकांश यात्री पैदल ही यहां जाते है। खच्चरों से यात्री गिरकर घायल भी होते हैं, पर इसकी फिक्र श्रद्धालु नहीं करते। यमुनोत्री में श्रद्धालु अपनी साड़ी और अन्य पहने हुए कपडें छोड़कर आ जाते हैं, जिससे वहां का सौदर्य तो विकृत होता ही हैं नदी का प्रवाह भी बाधित होता है। सरकार या व्यवस्थापकों को वह कपड़े निकालने में धन खर्च करना पड़ता हैं। यमुनोत्री से उसी दिन वापस आकर हम लोग फूलचट्टी में रात्रि विश्राम किए। यमुनोत्री के दर्शन और स्नान करने के उपरांत अब हम गंगोत्री जाने के लिए वापस बड़कोट के रास्ते धरासू, डुंडा उत्तरकाशी होते हुए हर्षिल में दिन भर की यात्रा करने के बाद रात्रि में 9 बजे पहुंचे। यहां करीब तीन धंटे हम लोग जाम में भी फंसे रहे। हर्षिल गंगोत्री से 25 किमी0 पहले एक सुरम्य स्थान हैं। यहां भी भागीरथी के किनारे निगम का सुन्दर होटल हैं। गंगोत्री से लेकर देवप्रयाग तक गंगा का नाम भागीरथी हैं राजा भगीरथ के तप से गंगा पृथ्वी पर आई हैं, इसलिए इसका सुयश भगीरथ को देने के लिए यह यहां भागीरथी कही जाती हैं। उत्तरकाशी से आगे मनेरी बांध हैं, जिससे बिजली भी बनाई जाती हैं और थल सेना का बड़ा केन्द्र हैं। यहां से चीन की सीमा निकट हैं, अतः सेना का अपना हैलीपैड भी यहां हैं। हर्षिल से प्रातः 6 बजे हम लोग निकले। निकलते ही कई ऊँचे- ऊँचे ग्लेशियरों का दर्शन हुआ। प्रकृति के समक्ष समर्पण मनुष्य का स्वभाव है, यह उसकी परिणति भी हैं। उत्तराखण्ड के पवित्र पहाड़ और नदियां प्रकृति के उच्चतर उदाहरण हैं। यहां श्रद्धालु और पर्यटक सब तरह के यात्री आते हैं। जो पर्यटक केवल मौज मस्ती और गर्मी से बचने के लिए यहां आते हैं। वे भी यहां के पोर-पोर में स्थापित आध्यात्मिक चेतना को अनुभव कर सकते हैं। ऊँचे पहाड़ों की यात्रा मनुष्य की चेतना को समस्वर करने के उद्देश्य से धार्मिक रीति नीति में जोड़ी गई। पहाड़ और नदियों से जुड़ी कहानियों को कोई गलत माने, पर भारत की चेतना में इन्हें बड़े गहरे आत्मसात् किया गया हैं, यह भारत की बड़ी विशेषता है। प्रकृति के रोमांच तो दुनिया भर में बिखरे पड़े हैं, लेकिन भारत की प्रकृति विशिष्ट है और भारत की मनीषा इन्हें स्वयं से अभिन्न रूप में जोड़ती हैं। हिन्दू, सिख, बौद्ध और जैन धर्मों के श्रद्धा केन्द्र उत्तराखण्ड में दर्शनीय हैं। 
ऊँचें पहाड़ों और हिमालय की दुर्गम यात्रा यहां के लोग सहजता से संपन्न कराते हैं। हिमालय भी पहाड़ ही हैं, बस यह सदा हिमावृत रहते हैं, और थोड़े और ऊँचें हैं इसलिए इन्हे हिमालय कहा गया हैं। 
मैदानी क्षेत्रों के राजमार्गों पर सौ किमी0 चलने पर भी हमें कोई न कोई दुर्घटना दिख जाएगी, पर यहां के सर्पिल घुमाव में पहाड़-दर-पहाड़ हजारों किमी0 संकरी सड़कों पर भी हमें कोई दुर्घटना नहीं दिखी। यह अवश्य है कि गर्मी के मौसम से भीड़-भाड़ बढ़ने से यहां वाहनों के लबे जाम लग जाते हैं, जो घंटों में खुल पाते हैं, पर यहां के ड्राइवर बड़े घैर्य, समझदारी और सहयोग से आने-जाने वाले वाहनों को पास कराते हैं। अगर अपने वाहनों को आगे पीछे करने की जरूरत हुई तो यह खुशी-खुशी कर लेते हैं। यहां के वाहन चालकों को कोई जल्दी नहीं होती और जाम में फंसे होने के कारण हुई देरी पर कोई क्षोभ भी नहीं। बरसात के मौसम में पहाड़ों पर भूस्खलन होता रहता हैं, पर यहां उसके प्रति भी एक तरह की सहजता है पर्यटन यहां के लोगों की आय का मुख्य साधन हैं। चार-पांच महीने में अर्जित आय से वर्ष भर का गुजारा होता हैं। 
उत्तराखण्ड में दुनिया की प्रचीनतम नगरी कहीं गई काशी हैं तो कई पवित्र नदियों के संगम प्रयाग भी हैं। यहां उत्तरकाशी में भगवान विश्वनाथ का मंदिर हैं। उत्तरकाशी का पुराना नाम बाड़ाहाट हैं। उत्तरकाशी वस्णा और अस्सी नदियों के मध्य में स्थित हैं। एक तरफ असी और भागीरथी का संगम हैं तो दूसरी सीमा पर वरूणा और भागीरथी का संगम हैं। उत्तरकाशी को सौम्यकाशी भी कहा गया। स्कंद पुराण में इयमुत्तर काशी हि प्राणिनां मुक्तिदायिनी कहा गया। यहां के विश्वनाथ मंदिर के सामने शक्ति स्तंभ लेख पर अंकित विवरण के अनुसार यह शहर 6-7 वीं शाताब्दी में मध्य हिमालय के प्रसिद्ध ब्रह्मपुर राज्य की राजधानी रहा हैं। यह विवरण ह्वेनसांग द्वारा दिया गया हैं। 
उत्तराखण्ड में समस्त तीर्थाें और पवित्र नदियों का संगम हुआ है। यहां प्रमुख रूप से पांच प्रयाग मिलते हैं। प्रयाग का अर्थ हैं दो नदियों का मिलन स्थल। बद्रीनाथ और जोशीमठ के बीच अलकनंदा और धौलीगंगा नदियों का संगम विष्णुप्रयाग कहा जाता हैं। पांच प्रयागों मे से यह हिमालय से उतरते समय पहला संगम हैं। इसके बाद नंद प्रयाग, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग तथा देवप्रयाग संगम मिलते हैं। नंदप्रयाग यदुवंशियों का राज्य रहा हैं। कर्णप्रयाग में अलकनंदा में पिंडर नदी मिलती है। अलकनंदा बद्रीनाथ के ऊपर से निकलती हैं और जब तक यह ऋषिकेश के पास देवप्रयाग में भगीरथी से नहीं मिलती, इस नदी में पांच पदियों के संगम हो जाते हैं। रुद्रप्रयाग में अलकनंदा और मंदाकिनी नंदियों का संगम होाता हैं। मंदाकिनी नदी केदारनाथ के पास से निकली हैं। पांचवां प्रयाग, देवप्रयाग हैं, यहां भागीरथी और अलकनंदा का संगम हुआ हैं। इसमें सरस्वती नदी का भी संगम हुआ। सरस्वती नदी बद्रीनाथ से आगे माणा गांव के पास निकली हैं जहां एक भीम शिला हैं। कहते हैं भीम ने इस शिला के द्वारा सरस्वती नदी पर पुल बना दिया और रास्ते पांडव सी स्वर्गारोपण किए। गंगा को मंदाकिनी भी कहा गया है। केदार क्षेत्र से निकली मंदाकिनी रुद्रप्रयाग में भागीरथी से मिलकर गंगा बन जाती है। हिमालय क्षेत्र में अनेक नदियां झरने और बर्फीले सोते मिलकर गंगा को समृद्ध करते जाते हैं। 
भागीरथी गोमुख और गंगोत्री से निकल कर देवप्रयाग में अलकनंदा से मिल जाती हैं भागीरथी और अलकनंदा दोनों नदियों का रंग मटमैला हैं, किन्तु मंदाकिनी नीलवर्णा हैं। देवप्रयाग में भागीरथी और अलकनंदा के संगम के बाद यह गंगा कही जाने लगती हैं। वस्तुतः राजा भगीरथ के कठिन तप के बाद गंगा जी स्वर्ग से जब उतरी तो पश्चात्वर्ती लोक मानस ने भागीरथी को श्रेय देने के आशय से देवप्रयाग तक इसे भागीरथी नाम दिया। गंगा को जह्नु ऋषि से जुड़ा होने से जाह्नवी भी कहा गया हैं। 
यमुनोत्री से निकली यमुना का रंग श्यामल हैं। यमुना की जलधारा उत्तराखण्ड के बाद पंजाब, हरियाणा और दिल्ली से होते हुए उत्तरप्रदेश के बड़े भूभाग से प्रवाहित होते हुए प्रयागराज में गंगा से मिलती हैं। 
उत्तराखण्ड में उत्तरकाशी ही नहीं, गुप्तकाशी भी हैं। केदारनाथ से निकली मंदाकिनी नदी के किनारे के एक ओर गुप्तकाशी है तो इसके दूसरे किनारे पर उरवी मठ हैं जहां के ओकारेश्वर मंदिर में बाबा केदार की पूजा की जाती हैं। केदारनाथ के कपाट बंद हो जाते हैं तब बाबा, केदार इस मंदिर में आकर विराजते हैं तो बद्रीनाथ की कपाट बंदी में बद्रीनारायण जोशीमठ के नरसिंह मंदिर में आकर  रहने लगते हैं। 
गुप्तकाशी से आगे फाटा होते हुए सोनप्रयाग पहुंचते हैं। सोन प्रयाग से आगे पांच किमी0 गौरीकुंड तक उत्तराखण्ड शासन से अनुबंधित चार पहिया वाहन यात्रियों को लेकर आते-जाते हैं। गौरीकुड से केदारनाथ 16 किमी0 का रास्ता पैदल अथवा खच्चर/पालकी से तय किया जाता हैं। गौरीकुंड में मंदाकिनी के किनारे एक तप्त कुंड हैं। गर्म जल के कुंड यमुनोत्री और बद्रीनाथ में भी हैं। सोनप्रयाग के नाम में प्रयाग जुड़ने से प्रतीत होता हैं कि यहां भी नदियों का संगम होगा, पर वर्तमान में मंदाकिनी ही यहां प्रवाहित होती हैं। 2013 में जब केदारनाथ में बाढ़ प्रलय हुई थी तब से वहां यात्रियों की संख्या एक निश्चित दबाव से अधिक न हो, इसके लिए शासन ने सोनप्रयाग में एक यात्री पंजीकरण/सुविधा केन्द्र खोल दिया हैं। यहां पंजीकरण करने के बाद ही यात्री को खच्चर/पालकी का पंजीकरण हो पाएगा। उत्तराखण्ड यात्रा का एप भी प्ले स्टोर से डाउनलोड करके केदारनाथ सहित सभी धामों की यात्रा का पंजीकरण किया जा सकता हैं। 
केदारनाथ क्षेत्र में 2013 की बाढ़ में एक बड़ी चट्टान बहकर मुख्य मंदिर के एक छोर पर टिक गई थी, जिससे मंरि को क्षति नहीं पहुंची यद्यपि मंदिर के आस पास के सारे होटल, धर्मशालाएं, बाजार इत्यादि बहकर समाप्त हो गए। तब से सरकार यहां निजी संचालकों को निर्माण कार्य कराने पर रोक लगाए हैं। आदि शंकराचार्य की समाधि भी उस बाढ़ में बह गई। केदारनाथ  मंदिर के मुख्य पुजारी ने बताया अब भगवत्वाद शंकराचार्य की समाधि का निर्माण कार्य प्रारंभ हो रहा हैं। केदारनाथ मंदिर के पुजारी कर्नाटक के वीरलिंग शैव संप्रदाय के आचार्य होते हैं। 
उत्तराखण्ड में विभिन्न पौराणिक नदियों के पांच प्रयाग हैं तो पांच बद्री और पांच केदार भी यहां हैं। हर बद्री और हर केदार की अपनी विशेषता है। प्रमुख या वर्तमान बद्रीनाथ मंदिर/क्षेत्र नर और नारायण पर्वत के मध्य में हैं। बद्रीनाथ मंदिर के पीछे नर और नारायण पर्वत के बीच हिमाच्छादित नीलकंठ पर्वत शिखर की शोभा दर्शनीय हैं। यहां नारद और सूर्यकुंड भी हैं, जिनमे गर्म जल उपलब्ध रहता है।
विशाल बदरी बद्रीनाथ से भिन्न स्थान हैं। योगध्यान बदरी पांडुकेश्वर में पांडु ने जिनका ध्यान किया हैं, वह कहलाए हैं। जोशीमठ और बद्रीनाथ के बीच में यह स्थान हैं। भविष्य बद्री जोशीमठ से 17 किमी0 दूर है। कहते हैं जब नर और नारायण पर्वत भविष्य में मिलकर एक हो जाएँगें और बद्रीनाथ के दर्शन लुप्त हो जाएंगें तब भविष्य बद्री पर आकर बद्रीनाथ के दर्शन सुलभ होंगे। यहां पत्थर पर बद्रीनाथ का आकार निरंतर बड़ा होता जा रहा हैं। आदि बद्री कर्णप्रयाग से 16 किमी0 दूर रानीखेत के रास्ते पर हैं। काले पत्थर की भगवान विष्णु की मूर्ति यहां हैं। वृद्ध बदरी जोशीमठ से 7 किमी0 दूर अनीमठ में हैं। यहां आदि जगतगुरु शंकराचार्य ने भगवान विष्णु की उपासना बद्रीनाथ जाने से पहले की थी। कहा जाता है कि भगवान विष्णु एक वृद्ध के रूप में यहां गणेश जी के याथ खेला करते थे।
महाभारत युद्ध में अपने भाइयों को मारने के बाद प्रायश्चित करने के आशय से पांडव भगवान शिव की आराधना काशी में रहकर करने लगे, पर भगवान शिव ने उन्हें दर्शन नहीं दिया और तब पांडव गुप्तकाशी में जाकर तपस्या करने लगें। भगवान शिव तब केदार क्षेत्र में जाकर रहने लगे। पांडवों ने शिव तपस्या जारी रखी। 
शिव एक भैंसे के रूप में वेष बदलकर छिप गए, पांडवों ने शिव की इस रूप में पहचान कर ली, शिव धरती में समा गए, लेकिन उनकी कूबड़ दिखती रही, इसी स्वरूप की पूजा केदारनाथ मंदिर में की जाती हैं। यहां शिव को घी का लेप किया जाता है। 
मान्यता है कि शिव की भुजाएं तुंगनाथ के शिव मंदिर में हैं, चेहरा रूद्रनाथ में नाभि मद महेश्वर मंदिर में तो जटा और सिर का भाग कल्पेश्वर मंदिर में मौजूद हैं। इन्ही पांच अलग-अलग पवित्र स्थानों को पंचकेदार कहा जाता हैं।
रुद्रनाथ में ही वैतरणी नदी बहती हैं कहा जाता हैं दिवंगत आत्माएं मुक्ति के लिए इस नदी को पार करके ही सूक्ष्म और कारण विश्व में जाती हैं। रुद्रनाथ गोपेश्वर से 23 किमी0 हैं, जिसमें पहले पांच किमी0 मोटर वाहन से और शेष 18 किमी0 पैदल जाना पड़ता हैं। पैकेज्ड टूर में पांचों बद्री और पांचों केदार नहीं ले जाया जाता हैं। यद्यपि पांच प्रयागों से होते हुए यह यात्रा संपन्न होती हैं। 
जोशीमठ से आगे गोविंद घाट से 15 किमी0 दूर पैदल/खच्चर के रास्ते हेमकुंड पहुंचा जा सकता हैं। यहां सिखों के दसवें गुरु गोविंद सिंह ने ध्यान किया था। सात बर्फीली चोटियों के नीचे हेमकुंड सरोवर और गुरूद्वारा बना हुआ हैं। गुरुद्वारा के समीप लक्ष्मण जी का मंदिर भी यहां हैं। इस पवित्र सरोवर को 1930 में एक सिख हवलदार सोलन सिंह ने खोजा था। 

Saturday, December 26, 2020

बुंदेली 'नर' और उसका अर्थविकास


बुंदेली 'नर' और उसका अर्थविकास
राकेश नारायण द्विवेदी
बुंदेली में अब भी कई शब्द ऐसे प्रचलित हैं, जिनकी संगति न केवल वैदिक वाङमय से बैठती है, अपितु बौद्ध और यहां तक कि संगम या तमिल साहित्य से भी उनका मेल बैठता है।
बुंदेली भाषा का प्रयोग क्षेत्र भारत के उत्तरी और दक्षिणी भागों के मध्य ही नहीं, पूर्वी और पश्चिमी भूभाग के बीच भी अवस्थित है। भारत के उत्तरी और दक्षिणी  हिस्सों में आर्य और द्रविड़ संस्कृति का विभाजन रहा है। बुन्देलखण्ड इन दोनों के बीच मे होने से उत्तरी और पूर्वी भाग की संस्कृत, प्राकृत, पाली और पुरानी हिंदी की शब्दावली से जुड़ा रहा है। बुंदेली में कतिपय शब्द-पद ऐसे भी मिलते हैं, जिनका प्रयोग क्षेत्र इस अंचल से बाहर वह क्षेत्र भी है, जिसे वैदिक संस्कृति में भी नहीं गिन सकते। इस आलेख में नर शब्द की अर्थ चर्चा करेंगे।
'नर' की अर्थव्याप्ति बहुत अधिक है। कोई शब्द अपने एक अर्थ से होता हुआ कहाँ तक पहुँच जाएगा, इसका अनुमान भी लगाना मुश्किल है। नर शब्द का प्रचलित हिंदी अर्थ व्यक्ति है, जिसमे स्त्री, पुरुष और उभयलिंगी मनुष्य सम्मिलित हैं, पर बुंदेली में नर का एक अर्थ पेट या उदर है। नर भरना मुहावरा यहां पेट भरने की व्यंजना के अर्थ में प्रयुक्त होता है, अन्न द्वारा भूख शांत करने के लिए नहीं। किसी शब्द का अर्थ विकास उन शब्दों के पर्यायवाची शब्दों में मिलता है, पर कई बार देखते हैं कि किसी शब्द के अनेकार्थ होते हैं। उन अर्थों में परस्पर समानता नहीं मिलती। उनमें संगति नहीं दिखती, उसका कारण है कि वह शब्द प्रसंग विशेष में प्रयुक्त हुआ, पर उसका उद्गम भाव कुछ अन्य था। पर्यायवाची शब्द वैयाकरणों ने अपनी सुविधा के लिए तय किये हैं, पर कोई शब्द दूसरे शब्द का पर्याय नहीं होता। प्रत्येक शब्द एक विशिष्ट भावदशा और क्रिया सम्पादन के लिए प्रयुक्त होता है, उसका समानार्थी किसी अन्य शब्द को मान लिया जाता है, पर वह ठीक-ठीक वही नहीं होता, जिसके लिए वह पहली बार प्रयुक्त होकर रूढ़ हुआ है। भाव सागर में जब व्यक्ति गोते लगाता है तो उसे व्यक्त करने के लिए शब्द बौने पड़ने लगते हैं। जिस व्यक्ति ने जितनी भावदशाओं को व्यक्त कर लिया, वह उतना बड़ा साहित्यकार बन गया। सम्पूर्ण भावदशाओं को व्यक्त नहीं किया जा सकता। साहित्य में इन भावों को पूरी तरह शब्दबद्ध न कर पाने के कारण विभिन्न ललित कलाएं विकसित हुई, चित्रकला, मूर्तिकला इत्यादि। इन कलाओं में भी जब यह भावालोडन बना ही रहा तो संगीत और वाद्य से भी उसे जानने समझने का प्रयत्न किया गया, पर फिर भी उसे केवल अवगाहन ही किया जा  सका है।
नर का अर्थ व्यक्ति हिंदी में है, पर बुंदेली में यह कभी न मिटने वाली क्षुधा को शांत करने वाला उदर है। नर का अर्थ व्यक्ति ग्रहण करने के लिए हमे बुंदेली भाषा के इस शब्द की गहराई में जाना होगा। बुंदेली में एक शब्द नरा भी है, जो गर्भस्थ शिशु और प्रसूता मां की नाभियों से जुड़ा रहता है। जनन के समय इसे काटकर जच्चा और बच्चा को पृथक किया जाता है। गर्भनाल ही बच्चे के विकास को प्रेरित करती है। इसी की वजह से बच्चा मां के गर्भ में जीवित रहता है। यह सुरक्षा के साथ-साथ पोषण देने का भी काम करती है। यह बच्चे को कई तरह के संक्रमण से सुरक्षित रखने का काम करती है। गर्भनाल मां और बच्चे को जोड़ने का काम करती है। मां जो कुछ भी खाती है, आहार नाल के माध्यम से उसका पोषण बच्चे को भी मिलता है। गर्भनाल बच्चे के लिए फिल्टर की तरह भी काम करती है। यह उस तक सिर्फ पोषण पहुंचाती है और विषैले पदार्थों को भ्रूण तक नहीं जाने देती। नरा काटने की प्रक्रिया यहां सम्पादित की जाती है। गर्भावस्था में बच्चे की गर्भनाल ही उसकी लाइफलाइन होती है जिसकी मदद से बच्चे को सभी पोषक तत्व और ऑक्सीजन मिलता है। ये गर्भाशय में आपको और बच्चे को छठे सप्ताह से बच्चे के जन्म तक जोड़े रखता है।
बच्चे के कुल वजन का छठा हिस्सा इसी गर्भनाल का होता है। नरा गाड़ना एक और बुंदेली मुहावरा है, जिससे व्यक्ति के मूल निवासी होने का बोध होता है। कोई व्यक्ति जहां जन्म लेगा, वहाँ का निवासी स्वाभाविक रूप में होगा ही, अब आवागमन बढ़ने से यह मुहावरा अर्थ छवि खो रहा है।
यहां भी नर का अर्थ व्यक्ति पूरी तरह स्पष्ट नहीं होता है। नर का एक अर्थ जल है, नार भी उसे कहते हैं। नारायण (Narayan) नार + अयन
नारायण में संधि का प्रकार (Type of Sandhi) : Dirgha Sandhi (दीर्घ संधि)। 
जल' एक बहुश्रुत शाश्वत वाक्य 'जन्मात् लयपर्यंतं यत् स्थितं तज्जलम्' का प्रत्याहार या 'शॉर्टफॉर्म' है। अर्थात जो वस्तु इस संसार के जन्म से लेकर उसके समाप्त होने तक मौजूद रहे, वह 'जल' कहलाती है। 'ज' अर्थात् जन्म और 'ल'अर्थात् 'लय' (अथवा प्रकृति में लीन हो जाना) इन दो क्रियाओं का वाचक जल कहलाता है।
मनुस्मृति में लिखा है कि 'नर' परमात्मा का नाम है । परमात्मा से सबसे पहले उत्पन्न होने का कारण जल को 'नार' कहते हैं । महाभारत के एक श्लोक के भाष्य में कहा गया है कि नर नाम है आत्मा या परमात्मा का । यह 'नार'' कारणस्वरूप होकर सर्वत्र व्याप्त है इससे परमात्मा का नाम नारायण हुआ । कई जगह ऐसा भी लिखा है कि किसी मन्वतंर में विष्णु 'नर' नामक ऋषि के पुत्र हुए थे जिससे उनका नाम नारायण पड़ा । ब्रह्मवैवर्त आदि पुराणों में और भी कई प्रकार की व्युत्पत्तियाँ बतलाई गई हैं । तैत्तिरीय आरण्यक में नारायण की गायत्री है जो इस प्रकार है—'नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्' । यजुर्वेद के पुरुषसूक्त और उत्तर नारायण सूक्त तथा शतपथ ब्राह्मण (१६ । ६ । २ । १) और शांखायन श्रौत सूत्र (१६ । १३ । १) में नारायण शब्द विष्णु या प्रथम पुरुष के अर्थ में आया है । जैन लोग नरनारायण को ९ वासुदेवों में से आठवाँ वासुदेव कहते हैं ।
जल को 'नीर' या 'नर' से जाना जाता है और भगवान विष्णु पानी में रहते है तो उनको नाम नारायण बना ।नारायण को मतलब है पानी के अंदर रहने वाले भगवान।

पानी का जन्म भगवान विष्णु के पैरों से हुआ है. पानी को नीर या नर भी कहा जाता है. भगवान विष्णु भी जल में ही निवास करते हैं. इसलिए नर शब्द से उनका नारायण नाम पड़ा है. इसका अर्थ ये है कि पानी में भगवान निवास करते हैं. इसीलिए भगवान विष्णु को उनके भक्त 'नारायण' नाम से बुलाते हैं.
नारायण का शाब्दिक अर्थ : नर के चलने के लिए दिखाया गया मार्ग (orbit) होता है।

चूंकि सनातन धर्म में ईश्वर को परम आत्मा माना गया है, और सभी मनुष्यों को उसी एक परम पिता की संतान, अतः उस ईश्वर के बताय रास्ते पर चलना ही सब मनुष्यों का ध्येय बनता है |
इसलिए परमात्मा के लिए भी नारायण शब्द का प्रयोग करते हैं |
नारासु अयनं,यस्य स: नारायण:। जल में है घर जिसका , अर्थात् नारायण --क्षीरशायी श्री हरि विष्णु। ईश्वर, भगवान,परमात्मा।
जल पीने से भूख भी शान्‍त हो जाती है; प्‍यासे मनुष्‍य की प्‍यास अन्‍न से नहीं बुझती। हमारे शरीर मे तीन चौथाई हिस्सा जल ही है, उसी प्रकार भूमण्डल का तीन चौथाई हिस्सा भी जलाप्लावित है। यह अलग बात है कि उसमें से 97.5 प्रतिशत जल पीने योग्य नहीं है।
सब प्राणी जल से पैदा होते हैं और जल से ही जीवन धारण करते हैं और उसी में लय हो जाते हैं। कबीर कहते हैं-
जल में कुंभ कुंभ में जल है बाहर भीतर पानी। 
फूटा कुंभ जल जलहिं समाना
यह तत कथ्यो ग्यानी। 
वेदों में वर्णित है- अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानि भेषजा।।
अग्निं च विश्वशम्भुवमापश्च विश्वभेषजीः।।

मुझ (मंत्रदृष्टा ऋषि) से सोमदेव ने कहा है कि जल में (जलसमूह में) सभी औषधियाँ समाहित हैं। जल में ही सर्व सुख प्रदायक अग्नि तत्व समाहित है। सभी औषधियाँ जलों से ही प्राप्त होती हैं।

 आपः पृणीत भेषजं वरुथं तन्वेsमम।।
ज्योक् च सूर्यं दृशे ।।

हे जल समूह! जीवनरक्षक औषधियों को हमारे शरीर में स्थित करें, जिससे हम निरोग होकर चिरकाल तक सूर्यदेव का दर्शन करते रहें।।

जल’ की उत्पत्ति के संबंध में एक अन्य पुरातन- अवधारणा भी विचारणीय है। लगभग सभी पुराणों और स्मृतियों में यह श्लोक (थोड़े-बहुत पाठभेद से) दिया रहता है जो इस अर्थ का वाचक है कि जल की उत्पत्ति ‘नर’ (पुरुष = परब्रह्म) से हुई है अतः उसका (अपत्य रूप में) प्राचीन नाम ‘नार’ है, चूंकि वह (नर) ‘नार’ में ही निवास करता है, अत: उस नर को ‘नारायण’ कहते हैं-

आपो नारा इति प्रोक्ता, आपो वै नरसूनवः।
अयनं तस्य ताः पूर्वं तेन नारायणः स्मृतः।।

-ब्रह्मपुराण/अ-1/श्लोक-38

विष्णुपुराण के अनुसार इस समग्र संसार के सृष्टि कर्ता ‘ब्रह्मा’ का सबसे पहला नाम नारायण है। दूसरे शब्दों में में भगवान का ‘जलमय रूप’ ही इस संसार की उत्पत्ति का कारण है-

जल रूपेण हि हरिः सोमो वरूण उत्तमः।
अग्नीषोममयं विश्वं विष्णुरापस्तु कारणम्।।

-अग्निपुराण /अ.-64/श्लोक 1-2

‘हरिवंश पुराण’ भी इसकी पुष्टि करता है कि ‘आपः’ सृष्टिकर्ता ब्रह्मा हैं। ‘हरिवंश’ में कहा गया है कि स्वयंभू भगवान् नारायण ने नाना प्रकार की प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा से सर्वप्रथम ‘जल’ की ही सृष्टि की। फिर उस जल में अपनी शक्ति का आधीन किया जिससे एक बहुत बड़ा ‘हिरण्यमय-अण्ड’ प्रकट हुआ। वह अण्ड दीर्घकाल तक जल में स्थित रहा। उसी में ब्रह्माजी प्रकट हुए-

ततः स्वयंभूर्भगवान् सिसृक्षुर्विविधाः प्रजाः।
अप एव ससर्जादौ तासु वीर्यमवासृजत्।।35।।
हिरण्य वर्णभभवत् तदण्डमुदकेशयम्।
तत्रजज्ञे स्वयं ब्रह्मा स्वयंभूरिति नः श्रुतम्।। 37।।

इस ‘हिरण्यमय अण्ड’ के दो खण्ड हो गये। ऊपर का खण्ड ‘द्युलोक’ कहलाया और नीचे का ‘भूलोक’। दोनों के बीच का खाली भाग ‘आकाश’ कहलाया। स्वयं ब्रह्माजी ‘आपव’ कहलाये-

‘उच्चावचानि भूतानि गात्रेभ्यस्तस्य ज्ञज्ञिरे।
आपवस्य प्रजासर्गें सृजतो ही प्रजापतेः।।49।।’

अर्थात्- इस प्रकार प्रजा की सृष्टि रचते हुए उन ‘आपव’ (अर्थात् जल में प्रकट हुए) प्रजापति ब्रह्मा के अंगों में से उच्च तथा साधारण श्रेणी के बहुत से प्राणी प्रकट हुए।

ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र का रसमय रूप आदि से अंत तक जो परब्रह्म है, जिसे तत् कहा गया, उसे आप कहा गया। आप सम्बोधन में वह जल ही आत्मतत्व को व्यक्त कर रहा है।

-हरिवंश/हरिवंश पर्व/प्रथम अध्याय

‘जल’ केवल ‘नारायण’ ही नहीं, ब्रह्मा विष्णु और महेश (रूद्र) तीनों है।

‘वायु पुराण’ के अनुसार जल शिव की अष्टमूर्तियों में से एक है। दूसरे शब्दों में ‘रूद्र’ की उपासना के लिए जो आठ प्रतीक निर्धारित हैं उनमें से एक जल है।
जल का कोई रंग नहीं होता। वह इंद्रधनुष के सभी रंगों को धारण कर सकता है। उसका कोई आकार नहीं, आवाज भी नहीं और गति भी नहीं। 

सिद्ध और नाथ परम्परा में भोगनाथ के नाम से विख्यात चीन के लाओत्से ने जल की तरह व्यक्ति को रहने का आह्वान किया है। उन्होंने कहा है 
 The supreme good is like water, which nourishes all things without trying to. It is content with the low places that people disdain. Thus it is like the Tao. In dwelling, live close to the ground. In thinking, keep to the simple. In conflict, be fair and generous. In governing, don't try to control. In work, do what you enjoy. In family life, be completely present. When you are content to be simply yourself and don't compare or compete, everybody will respect you.
बिहारी ने इसे एक सुंदर दोहे में इस प्रकार कहा है-
नर की अरु नर नीर की एकै गति कर जोइ । जेतो नीचे ह्वै चले तेतो ऊँचे होइ ।—बिहारी
आदिवासियों की एक लोककथा में आता है कि सृष्टि के आरंभ में केवल माता, रात्रि और जल ही था। 
जल ही सब सभ्यताओं और संस्कृतियों का विभाजक तत्व है। नदी के ऊपर या नदी के नीचे, इस प्रकार लोगों को बांटा जाता रहा। किस नदी से हो, यह पहचान व्यक्ति की रही। अपनी नदी या जल के प्रति सच्चे रहे तो अंततः समुद्र में मिल ही जायेंगे। दो भिन्न जल जब मिलते हैं तो प्रयाग बनता है, इसी से हमने भिन्न गोत्रों में विवाह करना सीखा है। मरने के बाद भी वैतरणी नदी का प्रतीक हमने बनाया, जो चाहे कहीं मौजूद न हो, पर जल तत्व ही हमारी मरणोत्तर गति के साधनो में है। 
गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है-
छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई। जस थोरेहुँ धन खल इतराई॥
भूमि परत भा ढाबर पानी। जनु जीवहि माया लपटानी।। 
भावार्थ- छोटी नदियाँ भरकर (किनारों को) तुड़ाती हुई चलीं, जैसे थोड़े धन से भी दुष्ट इतरा जाते हैं। (मर्यादा का त्याग कर देते हैं)। पृथ्वी पर पड़ते ही पानी गंदला हो गया है, जैसे शुद्ध जीव के माया लिपट गई हो।
 समिटि समिटि जल भरहिं तलावा। जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा॥
सरिता जल जलनिधि महुँ जोई। होइ अचल जिमि जिव हरि पाई॥
भावार्थ : जल एकत्र हो-होकर तालाबों में भर रहा है, जैसे सद्गुण (एक-एककर) सज्जन के पास चले आते हैं। नदी का जल समुद्र में जाकर वैसे ही स्थिर हो जाता है, जैसे जीव श्री हरि को पाकर अचल (आवागमन से मुक्त) हो जाता है।
स्कॉटलैंड में नर का अर्थ प्रसन्नता, कोरिया में देश, मंगोलिया में सूर्य तो कुर्दिस्तान में इसका अर्थ अनार वृक्ष होता है।
जापान के मध्य भूभाग में, होन्शु द्वीप स्थित है, वहां नर नामक एक शहर है, यह जापान की पहली राजधानी (710-784) रहा। जापानी बौद्धों का यह  महत्वपूर्ण केंद्र है। यहां के ऐतिहासिक स्मारक को यूनेस्को द्वारा संरक्षित स्मारकों में सम्मिलित किया गया है।
सायोनारा एक फिल्मी गीत में आया शब्द है, जिसका अर्थ अलविदा होता है।
अमेरिका में नर बहुत लोकप्रिय शिशु नाम है।
वराहमिहिर की वृहत्संहिता और बाल रामायण में नर का अर्थ हीरो या नायक से लिया गया है।
नर से ही विकसित होकर नीर बना है, जल के अर्थ में इसे प्रयुक्त किया जाता है। 
नर्दा (जलस्रोत), नरेटी (जल पूरित नारियल का बाह्य भाग), नर्र्याबो (जल की उग्रता के कारण चीत्कार का अर्थ), नरुवा (डंठल) इत्यादि शब्दों में जल की विभिन्न गतियों के कारण अर्थ उद्भासित हो रहे हैं।
कश्मीरी शैव दर्शन और त्रिक साधना पद्धति में शिव एवं शक्ति के अतिरिक्त तीसरा त्रिक नर नाम से है। यह नर यहां भी जीव के लिए प्रयुक्त हुआ है।
इस प्रकार नर का अर्थ जब जल से होते हुए व्यक्ति तक पहुचता है तो इसमे अर्थ की इयत्ता की सीमा नहीं रहती, उसी तरह जैसे 'मनुष्य' के अर्थ में असीम सौंदर्यबोध प्रकट होता है। नर और नारायण की युति भी यूं ही नहीं हुई। भगवान के चौबीस अवतारों में से यह एक अवतार हैं, जो बद्रीनाथ हिमालय में अगल बगल के दो पहाड़ों के रूप में मान्य हैं। करोड़ों वर्ष पहले आज के हिमालय की जगह समुद्र था। सब मिलाकर हिंदी में नर का अर्थ जल से होते हुए व्यक्ति तक विकसित हुआ है। 
245 शब्दार्णव, नया पटेल नगर, कोंच रोड, उरई -285001(जालौन) मोबाइल 9236114604