Monday, May 1, 2023

अप्रैल २०२३

2/4/23 वास्तव में देवलोक , ऋषिलोक और पितृलोक -- सब की प्रसवकारिणी माँ हैं । सुतरां , विश्व में मातृद्वार का सहारा लेकर ही प्रवेश करना पड़ता है । विश्व से विदा होने के समय सारा कुछ विश्व को वापस करके जाना होता है । किंतु ,इस मातृ संस्पर्श ,अर्थात काया लाभ के फलस्वरूप जीव जो कर्मशक्ति प्राप्त करता है तथा परावस्था में ज्ञान प्राप्त करके देह के अंत होने पर विश्वातीत सत्ता से युक्त होता है ,उसका प्रतिदान देने के लिए उसके पास कुछ नहीं होता । वहाँ से जो पाया जाता है , उसे लौटा देने से ही उसके प्रकृत ऋण का शोध नहीं होता । वास्तविक रूप में ऋण चुकाना हो, तो स्वयं को जो मिलता है ,अपने सभी लोगों को उसका भागी बनाना पड़ता है ।ब्रह्मप्राप्ति के बाद यदि मायिक जगत् को ब्रह्मरूप में बदलना सम्भव होता, तो कहा जा सकता कि ऋण शोध हुआ । लेकिन सृष्टिकाल से आजतक ऐसा नहीं हुआ । जिसने जो लिया है ,उसने वह लौटा दिया है ,बढ़ाकर वह नहीं दे सका है ।साधारण योगी ,साधक एवं ऋषि -मुनि आदि कोई भी आजतक माँ के अभाव को दूर नहीं कर सके । माँ सन्तान को पाल -पोसकर ,काम के योग्य बनाकर और ज्ञान देकर गठन करती हैं । माँ के द्वारा गठित होकर सन्तान अपना बोध जैसे ही प्राप्त करती है ,वह माँ को छोड़कर जाने को विवश होती है । जबतक वह माँ की गोद में रहती है , तबतक वह अपने को नहीं पहचानती । और उसे यों कहें ,जबतक वह अपने को पहचानती है ,तब माँ ही नहीं होती ,माँ की गोद भी नहीं होती । ब्रह्म और माया विरुद्ध हैं ,इसलिए उनका समन्वय नहीं होता । साधन पथ से ब्रह्म तक नहीं जाया जा सकता ।साधक जिन्हें ब्रह्म समझते हैं ,वह वास्तव में ब्रह्म नहीं । उसे जीव का ब्रह्म कहें ,तो कह सकते हैं ; पर वह प्रकृत ब्रह्म नहीं । कर्मी होने से योगी देहांत में ब्रह्मस्वरूप में स्थिति -लाभ करते हैं ,किन्तु उससे पहले उन्हें माया या महामाया के राज्य को त्याग करना पड़ता है । इसलिए माया और महामाया संतान की समृद्धि का पूर्ण फल नहीं पातीं और ब्रह्म में भी माया की सृष्टि के किसी आभास की क्षीण रेखा भी नहीं रहती । किन्तु ,दर्पी योगी इस अघटन को घटित कर सकते हैं । ये माँ की कृतज्ञ सन्तान हैं । ये अपने कर्म पूर्ण करके मातृभाव में प्रतिष्ठित होकर उद्वृत्त भाव से आत्मकर्म के प्रभाव द्वारा ब्रह्म-अवस्था प्राप्त करते हैं ,इसलिए ब्रह्म और माया का व्यवधान जाता रहता है । उन्हें माया त्याग करके ब्रह्म नहीं होना पड़ता , तथाकथित वैराग्य या सन्यास ग्रहण नहीं करना पड़ता । माया की गोद में बैठकर ही वह मायातीत ब्रह्मस्वरूप में स्थिति लाभ करते हैं । फलस्वरूप ,माया तब माया नहीं रह जाती । ब्रह्म भी तब सुदूर भावातीत अव्यक्त सत्तामात्र -रूप में नहीं रहते । निज स्वरूप में दोनों का नित्ययोग प्रतिष्ठित होता है । वास्तव में ,तब माया भी नहीं और ब्रह्म भी नहीं ।अर्थात माँ नहीं और गुरु भी नहीं ,किन्तु दोनों ही अपने में अभिन्न भाव से हैं । यही वास्तविक आत्मस्वरूप में स्थिति है , जिसमें कुछ भी त्याग या कुछ भी ग्रहण नहीं करना पड़ता । अथवा , नहीं होते हुए भी सब है औऱ रहते हुए भी कुछ नहीं है । योगी उस समय अभेद में माँ को निखार लेते हैं औऱ माँ ही ब्रह्म हैं , इस महासत्य को धारण कर माँ की प्रकृत मर्यादा को बढ़ाते हैं । साधक और योगी अखण्डमहायोग का पथ और मृत्यु विज्ञान पृष्ठ 30 3/3/1949 पहले मातृऋण चुकाने का प्रसङ्ग आया है । मातृऋण है क्या और वह कैसे चुकाया जाता है , और साधारणतया लोग माँ का ऋण क्यों नहीं चुका सकते ? इस प्रकार के प्रश्नों के सम्बन्ध में दो चार बातें बताई जा रही हैं । साधारणतया जीव तीन प्रकार के ऋण का भार लेकर जन्म ग्रहण करता है ,इस बात को हिन्दू समाज में सब लोग जानते हैं । इन तीन ऋणों के नाम हैं : ऋषि ऋण , पितृ ऋण और देव ऋण । ऋणी रहते हुए कोई मुक्ति नहीं पा सकता । मुक्तिलाभ के लिए ऋणशोध आवश्यक है । इसीलिए शास्त्र में कहा गया है : 'ऋणणानि त्रीण्यपाकृत्य मनो मोक्षे निवेशयेत् । ' इन्ही तीन ऋणों को चुकाने के लिए हिन्दू समाज में तीन आश्रमों की परिकल्पना की गई थी । ब्रह्मचर्याश्रम में विद्या विद्या -अर्जन पूर्वक एवं विद्या -प्रवचन के द्वारा ऋषि ऋण चुकाया जाता था । गृहस्थ आश्रम में सन्तान उत्पन्न करके पितृऋण चुकाना होता था । वानप्रस्थ आश्रम में यज्ञ आदि क्रियाओं के द्वारा देवऋण चुकाने की व्यवस्था थी । भौतिक सत्ता ,कारण सत्ता और विज्ञान सत्ता --इन तीन प्रकार की सत्ता को लेकर मनुष्य जन्म ग्रहण करता है । समष्टि देह से जब व्यष्टि देह उत्पन्न होती है ,तब व्यष्टि देह में प्रत्येक विभाग की रचना के लिए समष्टि से उपादान संग्रह करना पड़ता है । ऋषियों के सानिध्य में आध्यात्मिक सम्पद् अथवा ज्ञान की प्राप्ति होती है । पितरों से आधिभौतिक सम्पद् अथवा देह की प्राप्ति होती है तथा देवगण आधिदैविक सम्पद् अथवा आभ्यन्तर -ब्राह्य सभी इन्द्रियों की प्राप्ति होती है । इन्हीं सबसे मनुष्य का ब्राह्य जगत् में आत्म परिचय है । मनुष्य देह भाँति विश्व भी त्रिविध उपादानों से निर्मित है । मोक्ष प्राप्त करने के लिए , अर्थात विश्व से बाहर जाने के लिए इन तीन प्रकार की सम्पदाओं में कुछ भी अपने साथ नहीं ले जाया जा सकता ।जो जहाँ की वस्तु है ,उसे वहीं रख आना होता है । तन्तु रक्षा ही ऋण शोध का वास्तविक तात्पर्य है । पहली अवस्था में ज्ञान की धारा की रक्षा ,दूसरी अवस्था में भौतिक सत्ता की धारा की रक्षा और तीसरी अवस्था में दिव्य शक्ति समूह की धारा की रक्षा अवश्य कर्तव्य है । इस प्रकार से विश्व के प्रवाह और मर्यादा को अक्षुण्ण रखकर व्यक्ति विशेष को विश्व से अवकाश ग्रहण करना होता है । इसके बिना अव्याहृति नहीं पाई जा सकती । इस प्रसङ्ग में मातृऋण का कहीं उल्लेख नहीं है । साधक और योगी ( ग ) पृष्ठ 30 अखण्डमहायोग का पथ और मृत्यु विज्ञान 3/4/23 श्लोक  10.88.8  श्रीभगवानुवाच यस्याहमनुगृह्णामि हरिष्ये तद्धनं शनै: । ततोऽधनं त्यजन्त्यस्य स्वजना दु:खदु:खितम् ॥ ८ ॥ शब्दार्थ श्री-भगवान् उवाच—भगवान् ने कहा; यस्य—जिस पर; अहम्—मैं; अनुगृह्णामि—अनुग्रह करता हूँ; हरिष्ये—हरण कर लेता हूँ; तत्—उसका; धनम्—धन; शनै:—धीरे धीरे; तत:—तब; अधनम्—निर्धन; त्यजन्ति—छोड़ देते हैं; अस्य—उसके; स्व जना:—सम्बन्धी तथा मित्र; दु:ख-दु:खितम्—एक के बाद, एक दुख से दुखी ।. अनुवाद play_arrowpause  भगवान् ने कहा : यदि मैं किसी पर विशेष रूप से कृपा करता हू ँ, तो मैं धीरे धीरे उसे उसके धन से वंचित करता जाता हूँ। तब ऐसे निर्धन व्यक्ति के स्वजन तथा मित्र उसका परित्याग कर देते हैं। इस प्रकार वह कष्ट पर कष्ट सहता है श्लोक  10.88.9  स यदा वितथोद्योगो निर्विण्ण: स्याद् धनेहया । मत्परै: कृतमैत्रस्य करिष्ये मदनुग्रहम् ॥ ९ ॥ शब्दार्थ स:—वह; यदा—जब; वितथ—व्यर्थ; उद्योग:—प्रयास; निर्विण्ण:—विफल; स्यात्—हो जाता है; धन—धन के लिए; ईहया—अपने प्रयास से; मत्—मेरे; परै:—भक्तों के साथ; कृत—बनाने वाले के लिए; मैत्रस्य—मित्रता; करिष्ये— दिखलाऊँगा; मत्—मेरी; अनुग्रहम्—कृपा ।. अनुवाद play_arrowpause  जब वह धन कमाने के अपने प्रयासों में विफल होकर मेरे भक्तों को अपना मित्र बनाता है, तो मैं उस पर विशेष अनुग्रह प्रदर्शित करता हूँ श्लोक  10.88.10  तद् ब्रह्म परमं सूक्ष्मं चिन्मात्रं सदनन्तकम् । विज्ञायात्मतया धीर: संसारात्परिमुच्यते ॥ १० ॥ शब्दार्थ तत्—वह; ब्रह्म—निर्विशेष ब्रह्म; परमम्—परम; सूक्ष्मम्—सूक्ष्म; चित्—आत्मा; मात्रम्—शुद्ध; सत्—नित्य जगत; अनन्तकम्—अन्तहीन; विज्ञाय—भलीभाँति जान कर; आत्मतया—अपने ही आत्मा के रूप में; धीर:—धीर; संसारात्— भौतिक जीवन से; परिमुच्यते—छूट जाता है ।. अनुवाद play_arrowpause  इस तरह धीर बना हुआ व्यक्ति ब्रह्म को, जो आत्मा की सर्वाधिक सूक्ष्म तथा पूर्ण अभिव्यक्ति से एवं अन्तहीन जगत से परे है, सर्वोच्च सत्य के रूप में पूरी तरह से अनुभव करता है। इस तरह यह अनुभव करते हुए कि परम सत्य उसके अपने अस्तित्व का आधार है, वह भौतिक जीवन के चक्र से मुक्त हो जाता है तं भ्रंशयामिसंपद्यो यश्चेच्छाम्यनुग्रहम्! मैं जिस पर कृपा करता हूँ उसका संसार छीन लेता हूँ। भागवत ४/४/२३ श्वान का अर्थ कुत्ता है, पर इसका अर्थ स्रोत क्या हो सकता है। श्व का अर्थ कल होता, इससे स्रोत पर नहीं पहुँच पाते। श्वपाक का अर्थ चांडाल से भी ज्ञातव्य नहीं। शुनि से श्वान हुआ। शूनी अंतःप्रेरणा को कहते हैं। सरमा स्वर्ग की एक कुतिया हुई है। जो प्रकाश या गौओं को खोजने में इंद्र और अग्नि या देवताओं की सहायक रही है। सरमा सरस्वती की भाँति एक देवी है, जिसका वेदों में खूब वर्णन आया है, सरस्वती और इला के साथ। कुत्ता एक अंतर्ज्ञान प्राप्त जीव है। श्वान उसे इस अर्थ के कारण कहा गया प्रतीत होता है। वेद व्यास, बुद्ध, गुरुनानक, रैदास इत्यादि कितने महापुरुष अलग-अलग महीनों की पूर्णिमा के दिन बोध प्राप्त किए थे, वर्धमान महावीर अकेले हैं जो अमावस्या के दिन साक्षात्कार पाये दीपावली के दिन। महावीर स्वामी की विलक्षणता यह भी है कि उन्हें ध्यान लगाने के लिए बैठना नहीं पड़ा, खड़े-खड़े ही ध्यानस्थ होकर अर्हत हो गए। उन्हें शरीर ढंकने की आवश्यकता भी नहीं लगी, कितने मामलों में अनोखे हैं महावीर स्वामी, जयंती पर शुभकामनाएँ.... ५/४/२३ कबीर के पद बरसे कंबल भीजे पानी का अर्थ लगाते हैं कि संस्कार कंबल है और भक्ति पानी अथवा मन कंबल है, संस्कारों का प्रभाव मन पर होता है, उनके आलोड़न के बीच अगर भक्ति की धारा बह रही हो तो व्यक्ति उसके आनंद में भीगता रहता है। योग के अर्थ में कंबल यहाँ पलकों को लिया जा सकता है। ध्यान करते समय बंद पलको के बीच संस्कारों और चित्त का स्मरण होता रहता है, यदि ध्यान एकनिष्ठ हुआ तो रुलाई छूट जाती है। इन आंसुओं से साधक आनंद में सराबोर हो जाता है। यही बरसे कंबल भीजे पानी है। यह कबीर की अमृतवाणी है। वैसे यह और पहले गोरखनाथ जी ने गाया है... नाथ बोले अमृतबाणीं। बरसैगी कंबली भीजैगा पाणीं॥ गाडि पडरवा बाँधिलै खूँटा। चलै दमामा बाजिलै ऊँटा॥ कउवा की डाली पीपल बासौ। मूसा के सबद बिलइया नासै॥ चले बटावा थ की बाट। सोवै डुकरिया ठौरै खाट॥ ढूकिले कूकर भूकिले चोर। काढै धणीं पुकारै ढोर॥ ऊजड़ खेड़ा नगर मझारी। तलि गागर ऊपर पणिहारी॥ मगरी परि चूल्हा धुँधाई। पोवणहारी को रोटी खाइ॥ कामिनी जलै अंगीठी तापै। बिचि बैसंदर थरहर काँपै॥ एक जु रढिया रढती आई। बहू बिवाई सासू जाई॥ नगरी कौ पांणी कूवै आवै। उलटी चर्चा गोरख गावै॥ नाथ अमृतवाणी बोलता है तो कंबल बरसता है और जल भीगता है (जब अनहद शब्द सुनाई देता है तो शरीर अमृतरस बरसाता है जिससे आत्मा आनंदित होती है। कटड़े को गाड़ देते हैं और खूँटे को बाँध देते हैं (माया समाप्त हो जाती है और मन संयमित हो जाता है)। दमामा चलता है और ऊँट बजता है (श्वास चलता रहता है और शरीर में ध्वनि सुनाई देती रहती है)। कौआ डाली बन जाता है और पीपल उस पर बैठता है (काल के स्थान पर परब्रह्म की स्थिति होती है)। चूहे की आवाज़ सुनकर बिल्ली भाग जाती है (मन को ज्ञान होने से कुबुद्धि दूर होती है)। यात्री चलता है परंतु मार्ग थक जाता है। (जीव रूपी यात्री साधना पथ में आगे बढ़ता है और भवसागर रूपी मार्ग समाप्त हो जाता है)। बुढ़िया पर खाट सोती है, (आत्मा) में पंच ज्ञानेद्रियाँ और मन विश्राम लेते हैं। कुत्ता छिपता है और चोर भौंकता है (मन शांत हो जाता है और संसार में शोर चलता रहता है)। मालिक निकलता है और पशु पुकारता है (ईश्वर दूर हो जाता है ओर माया पुकारती रहती है)। नगर है, परंतु उजड़ स्थान बन गया है (शरीर में माया के गुण नहीं रहते, वह उजड़ी बस्ती के समान सूना हो गया है)। गागर नीचे है ओर पनिहारी ऊपर है (सांसारिकता नीचे रह जाती है और आत्मा सहस्रार में ऊपर पहुँच जाती है) लकड़ी पड़ी है, परंतु चूल्हा जल रहा है (माया निष्क्रिय रहती है और चित्त के संस्कार जल जाते हैं)। रोटी पोने वाली को रोटी खा रही है (कुमति को प्रभु का स्मरण खा रहा है)। नारी जल रही है और अंगीठी ताप सेंक रही है (कामनाएँ जल रही है और आत्मा ब्रह्माग्नि का ताप अनुभव कर रही है)। बीच में वैश्वानर थर−थर काँप रही है (इस ब्रह्माग्नि में विकार नष्ट हो रहे हैं)। एक हठी नारी हठ करती आई तो बहू ने सास को जन्म दिया (आत्मा ने जब प्रभु का स्मरण किया तो बुद्धि ने सुरति को जन्म दिया)। नगरी का जल कुएँ में आ रहा है (शरीर सहस्रकमल तक पहुँच गया है।) इस प्रकार गोरख उल्टी चर्चा गा रहा है। ६/४/२३ हनुमान प्राणदेव हैं। प्राणों के भगवान। सभी पाँचों प्राण उनमें पूरी शक्ति के साथ हैं। इसीलिए पंचमुखी हनुमान विग्रह भी खूब मिलते हैं। राम पुरुष और सीता प्रकृति है। हनुमान दोनों के बीच के प्राण रूपी सेतु बनकर उनकी सेवा करते हैं। यह प्राण ब्रह्मांडीय ऊर्जा हैं। राम सीता और हनुमान के संबंध की त्रियुति ही कृष्ण राधा और अर्जुन तथा शिव शक्ति और गणेश के संबंध की त्रियुति है। ७/४/२३ आचार्य विद्यानिवास मिश्र के शब्दों में -"विश्वास का अर्थ स्पष्ट ही है >> साँस लेना । नि:श्वास गहरी साँस लेने को कहते हैं । नि:श्वास में साँस नीचे छोड़ी जाती है , उच्छ्‌वास का अर्थ है >> साँस का ऊपर को उठना ।उमंग पूर्वक साँस । आश्वास का अर्थ हुआ >>इत्मीनान से साँस । खुली साँस । प्रश्वास का अर्थ है >> साँस का आना-जाना , जीवन प्राण का व्यापार ! विश्वास में वि उपसर्ग विशिष्ट है , विशेष प्रकार की साँस । आत्मबल देने वाली साँस । प्राणों के संबंध के कारण ऐसी प्रतीति ,जिसमें संशय की गुंजायश ही न हो । विश्वास चेतना का व्यापार है । विश्वास का उदाहरण ,जैसे मां के प्रति बालक का विश्वास ! पति और पत्नी का परस्पर विश्वास ।विश्वास की प्रतीति प्राणों के उच्छलन से होती है । यदि प्राणों का उच्छलन न हो तो विश्वास प्राणवान्‌ नहीं है ।""गोस्वामी तुलसी दास ने रामचरितमानस के प्रारंभ में श्रद्धा और विश्वास की परिभाषा कर दी है - भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धा-विश्वास रूपिणौ । भवानी श्रद्धा हैं और भगवान शिव विश्वास हैं । तुलसी दास ने विश्वास को इतनी बड़ी शक्ति कहा ? लोकजीवन पर संकट कोई नयी बात नहीं है , लोकजीवन का रथ संकटों में ही आगे बढता रहा है ,उसका यह अमृत-विश्वास कभी विचलित नहीं हुआ कि भगवान स्वयं लोकाराधन करते हैं ,लोक के कष्टों से व्यथित होकर नंगे पैरों दौड पडते हैं ।"ईश्वर की परिभाषा करते हुए गांधी जी कहते थे कि अपने में अनन्तगुना विश्वास ही ईश्वर है । [हरिजन ३जून १९३९]भारत का सामान्य आदमी निरक्षर जरूर है और अनेक आपदाओं ,संकटों,मानवरचित-विषमताओं से घिरा है,विवश है किन्तु यह पराजित नहीं है क्योंकि इसके पास जीवन का अडिग-विश्वास है -रामभरोसे जे रहें ;परबत पर हरियांइ । जब प्राण का उच्छलन न हो सके , यदि चेतना सो जाय तो वही फिर अंधविश्वास बन जायेगा ।विश्वास और अंधविश्वास में बहुत झीना अन्तर है , लेकिन उसके परिणाम में आकाश और पाताल का अन्तर है । विश्वास जीवनी-शक्ति है , संकल्प का बल है । अंधविश्वास निर्बलता है । अंधविश्वास बांधता है , जबकि विश्वास मुक्त करता है । विश्वास में विवेक होता है और अंधविश्वास में विवेचन की शक्ति ही नहीं होती । विश्वास अपनी अन्तर्निहित शक्तियों या आत्मशक्ति को जगाता है, अंधविश्वास किसी दूसरे आदमी ,प्राणी या पदार्थ या प्रतीक के प्रति होडा-होडी समर्पण जैसा होता है ।विश्वास जैसे आंख खोल कर आगे चलना और अंधविश्वास जैसे आंख बंद करके किसी का झगला पकड कर चलते रहना ।विश्वास वीर का पराक्रम है जबकि अंधविश्वास कायरता । पाखंड अन्धविश्वासी का शोषण कर लेता है । अंधविश्वास का मूल आदिम-मानस में होता है ,इसलिये समाज के ऊपर के तबके के लोग भी अंधविश्वास करते हैं और उनकी देखादेखी नीचे तबके के लोग भी उनको मानने लगते हैं । जैसे शकुन और टोटके हैं - लोग घर से निकलें और खाली-बर्तन सामने से आजाय या कोई आगे से छींक दे तो लौट आते हैं ,अपशकुन हो गया । रति स्पर्श सुख मात्र है, आरति या आरती रति या आनंद में आकंठ निमग्न होना है। इसमें व्यक्ति शब्द स्पर्श रूप रस और गंध को मन बुद्धि और चित्त से एकाकार होकर ग्रहण करता है। यह पूरी रति है, जिसे बाह्य क्रिया में देखा जाता है, पर उसका आनंद उसके स्वरूप से परिचित होकर ही लिया जा सकता है। १४/४/२३ दान क्या है! दानमात्मज्ञानम्। दान में द का अर्थ प्रकाश है, न का अर्थ सतत प्रवाह है। प्रकाश में सतत प्रवाहमान रहना दान कहलाता है। प्रकाश में प्रवाहित रहने का अर्थ है सदा ज्ञान में डूबे रहना और दूसरों को उसके आनंद से आप्लावित करना। एक सच्चा दानी योगी ही हो सकता है। वास्तविक दान एक योगी द्वारा योग दशा को उपलब्ध करने के लिए योगी को किया जाता है। यह दान की उच्चतम स्थिति है। इसीलिए सूत्र आया है योsविपस्थो ज्ञाहेतुश्च। यो योगीन्द्र, वि विज्ञानम या ज्ञान, प स्थिति का संकेतक है, स्थ का अर्थ उस दशा में ठहरना है। ज्ञ का अर्थ है जो जानता है, यह ज्ञान की ऊर्जा है, हे हेय का अर्थबोधक है, यानि जिसका परित्याग कर दिया जाए, किसका तु यानि तुच्छता का, विसर्ग विसर्गशक्ति का द्योतक है। च का अर्थ यहाँ और नहीं बल्कि वह जो यह करता है। क्या करता है.. प्रोक्त चैतन्य रूपस्य आत्मनो यत् ज्ञानं, साक्षात्कारः, तत् अस्य दानम्, दीयते परिपूर्णं स्वरूपं, दीयते खंड्यते विश्वभेदः दायते शोध्यते मायास्वरूपम्, दीयते रक्ष्यते लब्धः शिवात्मा... दीयते इति दानम्, आत्मज्ञानमेव अनेन अंतेवासिभ्यो दीयते। दर्शनात्स्पर्शनाद्वापि वितताद्भव सागरात्। तारयिष्यंति योगींद्राः कुलाचारप्रतिष्ठताः॥ १९/४/२३ योगदा की प्रार्थना निर्गुण से प्रारंभ होकर सगुण ब्रह्म की उपासना है। इस ब्रह्म का प्राकट्य सबसे पहले किस रूप में चिह्नित हुआ, उसे जानने का क्रम किस प्रकार आगे बढ़ा, किसने किसने उसे समझा। यह प्रार्थना उन सबके प्रति नतमस्तक और तदाकार होकर तादात्म्य स्थापित करती हैं। २०/४/२३ भाषा मूल की अभिव्यक्ति है, पर यह भी अनुवाद की ही भाँति है। क्योंकि मूल को जितना सटीक जिसने कहा वह उतना वास्तविक लगा, इसलिए भाषा और अनुवाद गौड़ है, उस वास्तविक का उसके मर्म तक पहुँचाने का कथन ही महत्वपूर्ण है, वह चाहे भाषा हो या उसका अनुवाद। भाषा तो बाज़ार के कार्यों के लिये भी प्रयुक्त होती है, क्या वह तब वैसी महत्व की रह पाएगी! 21/4/23 ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति। समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्‌॥ 18.54 [सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में एकीभाव से स्थित, प्रसन्न मनवाला योगी न तो किसी के लिए शोक करता है और न किसी की आकांक्षा ही करता है। ऐसा समस्त प्राणियों में समभाव वाला योगी मेरी पराभक्ति को प्राप्त हो जाता है ॥] ———————————————————— यह श्लोक ब्रम्हावस्था से परमपद तक समग्र क्रम का संक्षेप में निर्देश है। भेद ज्ञान निवृत्त न होने पर ब्रम्हावस्था में प्रतिष्ठित नहीं हुआ जा सकता। भेदज्ञान माया का कार्य है। माया का अतिक्रम किए बिना परमपद के मार्ग में पदार्पण नहि किया जा सकता। शोक, आकांक्षा, वैषम्य–दर्शन आदि माया के कार्य है। जब तक माया विद्यमान है, तबतक जीव कितने ही आनन्द का उत्तराधिकारी क्यों न हो, किसी भी प्रकार से दुखों से मुक्ति नहीं पा सकता है। प्रकृति के तीन गुणों का परस्पर नित्य सम्बंध होने के कारण जहाँ सत्त्वगुणों के कार्यों का आनन्द है, वहाँ अल्प मात्रा में रजोगुणों के कार्य दुःख अवश्य देंगे। त्रिगुणों से अतीत न होने तक दुख से मुक्ति पाने की कोई आशा नहीं है। प्राकृतिक वस्तु का अभाव बोध प्राकृतिक राज्य में ही होती है। अप्राकृतिक वस्तु की आकांक्षा प्राकृतिक राज्य से उत्पन्न नहीं होती। जब तक मायभेद करके त्रिगुणातीत ब्रम्हभाव की उपलब्धि नहीं हो जाती, तब तक प्राकृतिक अभाव विद्यमान रहेगा। किन्तु ब्रम्ह प्राप्ति के साथ साथ जब आत्मकाम अवस्था प्राप्त हो जाती है, तब ह्रदय की सारी आकांक्षाएं समाप्त हो जाती है। 🌹🌺💐🌻🥀 (सनातन साधना की गुप्त धारा) रमन्ते योगिनोsनंते सत्यानंदे चिदात्मनि। इति राम-पदेनासौ परं ब्रह्माभिधीयते।। पद्म पुराण शतनाम श्लोक 8 परम् सत्य राम कहलाता है, क्योंकि अध्यात्मवादी आध्यात्मिक अस्तित्व के असीम यथार्थ सुख में रमण करते हैं। २२/४/२३ पावका नः सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती । यज्ञं वष्टु धियावसुः || चोदयित्री सूनृतानां चेतन्ती सुमतीनाम् ।. यज्ञं दुधे सरस्वती ।| महो अर्ण: सरस्वती प्र चेतयति केतुना । धियो विश्वा वि राजति ।।ऋग्वेद १/३/१०-१२ सरस्वती सत्य की वह शक्ति है जिसे हम अन्त:प्रेरणा कहते है । सत्यसे आने वाली अन्त:प्रेरणा हमें संपूर्ण मिथ्यात्वसे छुड़ाकर पवित्र कर देती है ( पावका ) भारतीय विचारके अनुसार सब पाप केवल मिथ्यापन ही है। सरस्वती, अन्त:प्रेरणा, प्रकाशमय समृद्धताओंसे भरपूर हैं ( वाजेभिर्वाजिनीवती ), विचारकी संपत्तिसे ऐश्वर्यवती ( धियावसु:) है। वह यज्ञको धारण करती है, देवके प्रति दी गयी मर्त्य जीवकी क्रियाओंकी हविको धारण करती है, एक तो इस प्रकार कि वह मनुष्यकी चेतनाको जागृत कर देती है (चेतन्ती सुमतीनाम् ), जिससे वह चेतना भावना की समुचित अवस्थाओंको और विचारकी समुचित गतियोंको पा लेती है, जो अवस्थाएँ और गतियां उस 'सत्य' के अनुरूप होती हैं जहांसे सरस्वती अपने प्रकाशोंको उँडेला करती है और दूसरे इस प्रकार कि वह मनुष्य की इस चेतनाके अंदर उन सत्योंके उदय होनेको प्रेरित कर देती है ( चोदयित्री सूनृतानां) जो. सत्य वैदिक ऋषियोंके अनुसार जीवन और सत्ताको असत्य, निर्बलता और सीमा से छुड़ा देते हैं और उसके लिये परम सुखके द्वारोंको खोल देते हैं । इस सतत जागरण और प्रेरण (चेतयति) के द्वारा जो 'केतु' (अर्थात् बोधन ) इस एक शब्दमें संगृहीत हैं--जिस 'केतु'को वस्तुओंके मिथ्था मर्त्यदर्शनसे भेद करनेके लिये 'दैव्य-केतु' (दिव्य बोधन ) करके प्राय: कहा गया है,--सरस्वती मनुष्यकी क्रियाशील चेतनाके अंदर बड़ी भारी बाढ़को या महान् गतिको, स्वयं सत्य-चेतनाको ही, ला देती है और इससे वह हमारे सब विचारोंको प्रकाशमान कर देती है। ऋग्वेद १.१.१ – अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् । होतारं रत्नधातमम् ॥ इस विश्वव्याप्त कर्मकांड में वेद के मंत्र यथोचित कर्म (ऋतम्) के शिक्षक हैं और इसी कारण वेद उसका वर्णन यज्ञ के नाम से करता है। अग् धातु में संज्ञावाची नि प्रत्यय लगकर बना है। अग् धातु स्वयं होना अर्थ वाली एक मूल धातु अ से बना है, इसके चिह्न अनेक भाषाओं में पाये जाते हैं। ग् शक्ति के भाव को सूचित करता है। इसलिए अग् का अर्थ हैशक्ति के साथ प्रधान रूप में अस्तित्व रखना-तेजस्वी, बलशाली, श्रेष्ठ होना और अग्नि का अर्थ है शक्तिमान्, परम महान्, तेजोमय, प्रबल, दीप्तिमान्। सो अग्निर्यो वसु (सः अग्नि यः वसुः) अग्नि वह शक्ति है जो वस्तुओं के सारतत्व में निवास करती है। जातवेदा भी इसे कहा गया है, क्योंकि अग्नि में ज्ञान उसके जन्म के साथ ही उत्पन्न हुआ था। मूल धातु इळके अर्थ हैं प्रेम करना, आलिंगन करना। पुरोहित शब्द में पुर का अर्थ द्वार, सम्मुख होना, बाद में इसका अर्थ नगर हुआ। हि का अर्थ झोंक देना, रोपना। यज्ञ शब्द का वेद में सर्वोच्च महत्व है। कर्मकाण्डीय व्याख्या में इसका अर्थ सदा याज्ञिक क्रियाकलाप समझा जाता है। यज् धातु से यज्ञ शब्द बना है। य् के गुण है क्रिया, गति, रचना और संपर्क में pryukt की गई सामर्थ्य और मृदुता। य का मूल अर्थ है शांत-स्थिर भाव से गति करना। यज्ञ शब्द यज् धातु से न प्रत्यय लगाने से बना है, इसका अर्थ हुआ वह जो राज्य करता है, शासक या प्रभु, प्रेम और आराधना करने वाला, साथ ही प्रेम का विषय भी, प्रभुत्व प्राप्ति का साधन और अतएव योग- योग की प्रक्रियाएँ न कि उसकी उपलब्धियाँ, प्रभुत्व की रीति और अतएव धर्म अर्थात् कार्य या आत्मशासन का नियम, जबकि यजुः का अर्थ है आराधना या पूजा की क्रिया। इसका अभिप्राय है देना या उत्सर्ग करना। विष्णुपुराण बताता है कि सत्ययुग में विष्णु यज्ञ के रूप में आते हैं। त्रेता में विज़ेता और राजा तथा द्वापर में व्यास या शास्त्रकार के रूप में। देव शब्द दिव धातु से विकैत हुआ, जिसका अर्थ है चमकना या स्पंदित होना, क्रीड़ा करना। द व्यंजन के गुण हैं शक्ति, भारी उग्रता। दा काटना है, दि स्पंदित होना है aur दु पीड़ा पहुँचाना है। दी से द्यु और दिव् या दीव् धातु प्राप्त होती हैं। जिनका अर्थ है जगमगाते हुए स्पंदित होना। ऋत्विजम का अर्थ है वह जो ऋतु के अनुसार यज्ञ करता है। ऋत का मूल अर्थ स्पंदन करना, सीधे जाना। विज आनंदोन्मत्त दशा का नाम है। अतः ऋत्विज हुआ जो सत्य की पूर्ण समृद्धि से आनंदविभोर है। होतारम् होता का अर्थ है आहुति देने वाला पुरोहित। ह् व्यंजन के मूल गुण हैं उग्रता, प्रचंड क्रिया, ज़ोर ज़ोर से श्वास लेना, तीव्रता। इस प्रकार होतारम का अर्थ है योद्धा, दैत्यों का संहारक। हु (युद्ध करना) धातु से यह विकसित हुआ है। रत्नधातमम्। र रि रु ये तीन धातु र के प्रभेद हैं जिसका तात्विक अर्थ है सतत सकंप स्पंदन। रत्नम् का अर्थ है आनंद। धा धातु का अर्थ है स्थापित करना, उत्पन्न करना। अतएव ऋग्वेद की इस प्रथम ऋचा का आध्यात्मिक अर्थ हुआ- मैं भगवत्संकल्प रूप अग्नि को प्राप्त करने की अभीप्सा करता हूँ, उस पुरोहित को जो हमारे यज्ञ के अग्रणी के रूप में स्थापित हैं, दिव्य होता को जो सत्य के नियम-क्रम के अनुसार यज्ञ करता है और आनंद का पूर्णतया विधान करता है। ऋषि में ऋष् गति करने के अर्थ का सूचक शब्द है। रि का अर्थ भी गति है। २३/४/२३ समस्त भाषा अपने रूपों और विभक्तियों के समेत मनुष्य में 'प्रकृति' द्वारा प्रयुक्त की गई ध्वनि निर्माण की एक ही समृद्ध युक्ति का, एक ही निश्चित सिद्धांत का अवश्यंभावी परिणाम है। इस युक्ति या सिद्धांत को प्रकृति आश्चर्यजनक रूप से अल्पभेदों के साथ, विस्मयजनक रूप से निश्चित , अटल और लगभग निष्ठुर नियमितता के साथ, पर साथ ही रचना की एक स्वतंत्र और यहाँ तक कि निरर्थक आदिकालीन प्रचुरता के साथ प्रयोग में लाती है। आर्यों की भाषा का या विभक्तिमय स्वरूप स्वयं कोई आकस्मिक घटना नहीं, अपितु ध्वनि प्रक्रिया के प्रथम बीज चयन का लगभग स्थूल रूप से अनिवार्य परिणाम है। श्री अरबिंदो जब तक हम एक विशेष अर्थ का विशेष ध्वनि के साथ संबंध निर्धारित करने में एक नियमितता का, मनोवैज्ञानिक दृष्टि से एक निश्चित प्रक्रिया के इसी प्रकार के शासन का पता नहीं लगा पाते, भाषा के उद्भव और विकास का शासन करने वाले नियमों का बोध प्राप्त नहीं कर सकते हैं। उदाहरण के लिए क्रिकेट की फेंकी हुयी गेंद को लें, वह जिस दिशा में फेंकी गई, उसे तब तक नहीं बदल सकती जब तक कोई अन्य पदार्थ उसे मोड़ न दे। स्वयं स्वतंत्र न होते हुए भी उसकी दिशा और बल बदल सकते हैं। इस गेंद को कोई पक्षी टकराकर रोक सकता है, दिशा बदल सकता है, उस पक्षी को मानसिक स्वतंत्रता प्राप्त है, पर प्रकृति में उसे भी प्रभावित करने वाले, आकर्षित करने वाले कारक मौजूद होते हैं। प्राणिक शक्ति को वह घटा बढ़ा सकता है, पर बाहरी पदार्थ भी उसकी शक्ति और दिशा बदलने में सक्षम हैं। भाषा विज्ञान एक ऐसे ही मानसिक विज्ञान बनाने का प्रयत्न है। भाषा की सामग्री तो भौतिक है, क्योंकि वह ध्वनियों से निष्पन्न होती है, किंतु वह एक प्राणिक आवेग भी है। भाषा की संरचना, उसके बीज, मूल धातु, उसका निर्माण और विकास एक पक्ष है तो दूसरा पक्ष उसकी संरचना के उपयोग का मनोविज्ञान है। आधुनिक भाषा में शब्द एक निश्चित एवं रूढ़ प्रतीक है, हम प्रथावश जो अर्थ उसके साथ जोड़ने के लिए विवश हैं, वह किसी ज्ञात उचित कारण से उसका अर्थ होता नहीं है। वृक् का अर्थ फाड़ना है, संस्कृत में उसे भेड़िया माना गया है। भाषा का चमत्कार साझे शब्दों के संरक्षण में है, न कि उनके लुप्त कर देने में। भाषा शास्त्री का नृवंश विज्ञान से कोई संबंध बनता नहीं है। न उसका सरोकार समाजशास्त्र, मानव विज्ञान और पुरातत्व विज्ञान से है। उसका एकमात्र प्रयोजन शब्दों के इतिहास से है। विचार की प्रतिनिधिभूत ध्वनियों के प्रकट रूपों से उसका संबंध है या इनसे ही होना चाहिए। अश्वमेध यज्ञ का अर्थ है प्राण शक्ति को उसके सब आवेगों, कामनाओं और उपभोगों सहित दिव्य सत्ता के प्रति भेंट करना। सत्ता से निचोड़कर निकाले गए आनंद को सोम की मधु मदिरा के रूप में निरूपित किया गया है। यह दूध दही और धान्य से मिश्रित है, दूध है ज्योतिर्मय गौओं का दूध, दही है बौद्धिक मन में गौओं कि उपज (दूध) का स्थिरीकरण, धान्य है भौतिक मन कि शक्ति में प्रकाश कि रूप रचना। अदिति अनंत चेतना है, सब पदार्थों की माता।अदिति ऐसी ज्योति है जो सब वस्तुओं की माता है। अनंत सत्ता के रूप में वह दक्ष को अर्थात् विवेक और संविभाग करने वाले दिव्य मन के विचार को जन्म देती है। दक्ष की यह दिव्य पुत्री ही देवों की माता है। अदिति अद्वय है और दिति पृथक्कारी या द्वैधकारी चेतना है। इंद्र है दिव्य मन की निम्नतर सृष्टि में अभिव्यक्त शक्ति। वैदिक सूक्त में आया है कि इंद्र अपने पिता को पैरों से घसीटकर बध कर डालता है। आर्य है पाथ का यात्री, दिव्य यज्ञ के द्वारा अमरता का अभीप्सु, प्रकाश का एक दीप्तिमान् पुत्र, सत्य के स्वामियों का पुजारी, मानवीय यात्रा का विरोध करने वाली अंधकार की शक्तियों के विरोध में किए जाने वाले युद्ध में योद्धा। जो मनुष्य मित्र और वरुण की क्रियाओं के ऋजुपथ की खोज करता है और शब्द व स्तुति की शक्ति से अपनी समस्त सत्ता के द्वारा उनके विधान का आलिंगन करता है, वह अर्यमा के द्वारा अपनी प्रगति में रक्षित होता है। पुत्र का आशय है मानव जाति के भीतर निर्मित देवत्व का सर्जन और प्रजनन। २४/४/२३ यज्ञ का पुत्र वेद में एक सतत रूपक है. अग्निदेव स्वयं मनुष्य को पुत्र के रूप में दे देता है, ऐसे पुत्र के रूप में जो पिता का उद्धार करता है। साथ ही अग्नि युद्ध से पार कर हमारी यात्रा के लक्ष्य तक ले जाता है। २८/४/२३ यतो नान्या क्रिया नाम ज्ञानमेव हि तत्तथा। रूढेर्योगांततां प्राप्तमिति श्रीगम शासने॥ तंत्रालोक १/१४९ योगो नान्यः क्रिया नान्या तत्वारूढा हि या मतिः। स्वचित्त वासनाशांतौ सा क्रियेत्यभिधीयते॥१५० क्रिया ज्ञान से भिन्न नहीं है। योगांत दशा में पहुँचने पर ज्ञान शक्ति क्रिया शक्ति में विलीन हो जाती है। योग क्रिया शक्ति से चलता है ज्ञान ज्ञान शक्ति से। इच्छा प्रारंभिक बिंदु है। योग की अंतिम दशा में जब सब शक्तियाँ एक हो जाती हैं। तब इसे क्रिया योग कहते हैं। योग क्रिया और क्रिया योग से पृथक् नहीं। जब स्वचित्त वासना शांत हो जाती है, तब उसे क्रिया कहा जाता है। शिष्य का अर्थ है शासु अनुशिष्टौ। यह शास धातु से निष्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है सीखना, निर्देश देना, सूचित करना। बराबर चेतनागत प्रश्न करते जाने या प्रश्नाकुलता के बाद कोई शिष्य बन पाता है। यह स्वयंचेतना ही है जो प्रश्न करती है और वही उत्तर देती है। आगे चलकर यह गुरु शिष्य संबंध का निर्माण करती है। २९/४/२३ शरीर में मन नहीं, वरन् मन में शरीर रहता है। इसी तरह अहं में ही सारे प्राणी पर्यवसित हैं। इसी में सब निवास करते हैं। जब एक का अहं विगलित होता है और परम् में विलीन हो जाता है, तब दूसरों के अहंवादी कथन और आचरण एक खेल की भाँति लगने लगते हैं। " भारत दार्शनिक देश है "यानी भारत का अत्यन्त साधारण आदमी भी चाहे जितना व्यभिचारी , इन्द्रिय-लोलुप क्यों न हो,पुराने जमाने से चली आयी विचारमालिका को दुहराता रहता है। 'जीवन क्या है ?मृगतृष्णा है' ;'जीवन क्या है ?आखिर मरना है!'- इस तरह के उदगार यदि आत्मा की सफलता के चिह्न हैं तो उनकी कीमत भी है।परन्तु साधारणतःवे साधारण दार्शनिक वाक्य जन-साधारण के लिए ऐसे नहीं होते। उनका अर्थ अनुभूति द्वारा ग्रहण नहीं किया जाता। ऐसी परिस्थिति में फिलासफी कभी भी जन-साधारण को सत्पथ पर नहीं चला सकती,ऐसा मेरा ख्याल है।"- मुक्तिबोध

Saturday, April 1, 2023

मार्च २०२३

5/3/23 if you need to make an effort to go into meditation, you are still very far from being able to live the spiritual life. when it takes an effort to come out of it, then indeed your meditation can be an indication that you are in the spiritual life. says by the mother 6/३/23 होली पर अनेक कहानियाँ मिलती हैं। प्रह्लाद को उनके पिता हिरण्यकशिपु द्वारा अपनी बहिन और प्रह्लाद की बुआ होलिका द्वारा प्रह्लाद को जलाने की कहानी अधिकांश कही सुनी जाती है। होली रंगों का त्योहार है। रंग या वर्ण सृष्टि के व्यक्त होने की प्रारंभिक प्रक्रिया है। सृष्टि का उद्भव रंगों से हुआ है। रूप रंग में प्रकट होता है। आकाश और वायु अरूप है, इसलिए इनका कोई रंग नहीं होता। रूप अग्नितत्व से परिचालित होता है। अग्नि क्रिया होलिका पर्व का स्वरूप ही है। अग्नि से रूप बनते हैं, रूप रंगों में व्यक्त होते हैं। बिना रूप के सृष्टि कैसी? अर्थात् होली संसार का विलीनीकरण है। विभिन्न रंग एक के ऊपर एक डाले जाते हैं, उनका चटकपन तिरोहित होता जाता है। सब रंग बेरंग होकर रंगहीनता की ओर जा बढ़ते हैं। होली पर्व की यही सार्थकता है। होलिका में व्यक्ति का अहं रूप विलीन हो जाता है और इस पर्व के बदरंगी बहुविध हुल्लड़ और मूर्खताओं में से स्नात होकर वह अरूप होते हुए नवीनीकृत हो उठता है। ओशो कहते हैं.... होली जैसा उत्सव पृथ्वी पर खोजने से ना मिलेगा रंग गुलाल है आनंद उत्सव है तल्लीनता का मदहोशी का मस्ती का नृत्य का नाच का बड़ा सतरंगी उत्सव है | ७/३/२३ यू मानता हूँ मैं दौलत नहीं कमा पाया मगर तुम्हारा हर एक ग़म ख़रीद सकता हूँ। विष्णु सक्सेना ११/३/२३ वैदिक मंत्रों में गु (ग्वः) और गौ (गाव़ः) प्रारंभ से लेकर अंत तक बार-बार आते हैं। यह दो अर्थों में वेदों में आये हैं - गाय और प्रकाश की किरण। कर्मकाण्डी के लिए गौ का अर्थ भौतिक गाय मात्र है, परंतु गौ का अलंकार वेद में आने वाले सब प्रतीकों में सबसे अधिक महत्व का है। अश्व का अर्थ भी कर्मकाण्डी के लिए घोड़ा है, पर उसका प्रतीकार्थ है शक्ति। गौएँ प्रकाश की ही चमकती किरणें हैं, सूर्य की 'गौएँ' हैं। वे भौतिक शरीरधारी पशु नहीं हैं। वेद के गुह्य वचनों को 'निण्या वचांसि' कहा गया है। अग्नि की ज्वाला संकल्प की सप्त जिह्वा शक्ति है। यह परमेश्वर की ज्ञान प्रेरित शक्ति है। इंद्र शुद्ध सत् की शक्ति है जो भागवत मन के रूप में अभिव्यक्त है। इंद्र शक्ति से आविष्ट प्रकाश का ध्रुव है जो द्यौ से पृथ्वी पर उतरता है। सूर्य परम सत्य का स्वामी है। सोम आनंद का रस है वरुण एक वृहत् पवित्रता और स्वच्छ विशालता जो समस्त पाप और कुटिल मिथ्यात्व की विनाशक है। मित्र प्रेम और समग्र बोध की एक प्रकाशमय शक्ति है। अर्यमा सुस्पष्ट विवेचनशील अभीप्सा तथा प्रयत्न की एक अमरशक्ति है। भग सब वस्तुओं का उपयोग करने की एक सुखमय सहज अवस्था है। उक्त चारों सूर्य के सत्य की शक्तियां हैं। अश्विनौ हमारे ज्ञान के भागों और कर्म के भागों को अधिष्ठित करते हैं। ये हमारी मानसिक प्राणिक एवं भौतिक सत्ता को एक सुगम और विजयशाली आरोहण के लिए तैयार कर देते हैं। इला सत्य की दृढ़ आदिम वाणी सरस्वती- सत्य की बहती हुई धारा सरमा- अंतर्ज्ञान की देवी शुनी (अंतर्ज्ञान) दक्षिणा - ठीक ठीक विवेचन करना, क्रिया और हवि का विनियोग करना। वायु- प्राण का अधिपति पर्जन्य- द्युलोक की वर्षा देने वाला रुद्र- प्रचंड और दयालु, ऊर्जस्वी देव। विष्णु- विशाल व्यापक गति वाला। वैदिक कण्डिकाएँ और विधि विधान ऊपर से सर्वेश्वरवाद की और प्रकृति पूजा के लिए विहित हुए लगते हैं। वैदिक ऋचाएँ सायणाचार्य के अर्थों में कर्मकांड के लिए तो पाश्चात्य विचारकों के अर्थों में प्रकृति पूजा के लिए अस्तित्वमान हुई, परंतु गुप्त तौर से ये पवित्र वचन आध्यात्मिक अनुभूति और ज्ञान के प्रभावोत्पादक प्रतीक चिह्न और आत्मसाधना के आंतरिक नियम थे, जो उस समय मानव जाति का सर्वोच्च उपलब्ध ज्ञान था। यज्ञ का अभिप्राय है कर्म, ये कर्म आंतरिक हों या बाह्य। इस तरह यजमान होना चाहिए आत्मा अथवा व्यक्तित्व जो कर्ता है। यज्ञ संचालक होता, ऋत्विक, पुरोहित, ब्रह्मा, अध्वर्यु आदि कहे जाते हैं। देवता यज्ञ के पुरोहित हैं। एक अमानुषी सत्ता या शक्ति यज्ञ का अधिष्ठान करती है। पुरोहित का अर्थ है पुरः तथा हित यानि आगे रखा हुआ, प्रायः इससे अग्नि देवता का संकेत किया गया है। यह अग्नि ही उस दिव्य संकल्प या दिव्य शक्ति का प्रतीक है जो यज्ञ रूप से किए जाने वाले सब पवित्र कर्मों में क्रिया की संचालिका होती है। १२/३/२३ मन्म या मंत्र का अर्थ है मन के अंदर विचार का व्यक्तीकरण और ब्रह्म का अर्थ है हृदय या आत्मा का व्यक्तीकरण। हृदय में 'पुरुष' केंद्रभूत होकर आसीन हुआ माना गया है। हृदय की शक्ति द्वारा ही मंत्र रचित होता है। खाने वाला (भोक्ता) स्वयं भी खाया जाता है। मनुष्य देवों के पशु हैं। सत्य सत्तात्मक सत्य है ऋतम् गतिमय सत्य है बृहत् विशाल या विस्तृत है भू पृथ्वी द्यौ विशुद्ध मानसिक चेतना स्व द्यौ का ऊर्ध्व प्रदेश है अर्थात् प्रकाशमान मन भुवः वे विविध क्रियामय लोक है जो पृथ्वी के निर्मायक होते हैं। अंतरिक्ष भी इसे कहते हैं अंतराल में दिखाई देने वाला। विप्र यानि प्रकाशमान । सूर्य सत्य के प्रकाशों से मन वि विचारों को आलोकित करता है। सूर्य विप्र है। अग्नि वह दिव्य शक्ति है जो मर्त्य को ऊपर उठाने के लिए यहाँ शरीर में और मन में काम कर रही है। अदिति असीम सत्ता की देवी हैं। सविता का उपभोग सोम जो देवों का भोजन है, परम रस है। सव के दो अर्थ हैं उत्पत्ति, रचना और दूसरा रस का क्षरण। घृतम् अर्थात् मन का वह निर्मल प्रकाश जो सत्य को प्रतिबिंबित करता है। देवता गौ के अंदर जो ऊपर से आने वाले प्रकाश का प्रतीक हैं, इस घृतम् की शुद्ध धाराओं को पाते हैं। प्रकाश और शक्ति गौ और अश्व ये यज्ञ के उद्दिष्ट पदार्थ थे। इंद्र मन का अधिपति है वायु प्राण का। इंद्र के घोड़े भूरे रंग के तो सूर्य के हरित रंग के हैं जो अपेक्षाकृत अधिक गहरे पूर्ण और घने चमकीले सूचित होते हैं। वायु के नियुत है जो इंद्र द्वारा हांके जाते हैं। वसु अर्थात् सत्तत्व ऊर्ज् अर्थात् हमारी सत्ता का प्रचुर बल प्रियम् या मयस् अर्थात् हमारी सत्ता के वास्तविक तत्व के अंदर विद्यमान आनंद और प्रेम। यह वेदों में वेदांत का सच्चिदानंद है। न नूनमस्ति नो श्वः कस्तद् वेद यदद्भुतम्। अन्यस्य चित्तमभि संचरेन्यमुताधीतं वि नश्यति।। ऋग्वेद १/१७०/१ जो न आज है न कल जो देवों की गति से गतिमान होता है पर स्वयं मन जब उसे पकड़ने का प्रयत्न करता है तो उसके सामने से अंतर्धान हो जाता है। यही तत् है, जो तत्व कहा गया है। अतप्ततनूर्न न तदामो अश्नुते। जो व्यक्ति कच्चा है और जिसका शरीर तप्त नहीं हुआ है वह उसका आस्वादन नहीं ले सकता या उसका रस नहीं ले पाता। प्रभु का अर्थ है ऐसा होना कि चेतना के सम्मुख भाग में एक विशेष बिंदु पर किसी विशेष वस्तु या अनुभूति के रूप में अस्तित्व में आना। विभु का अर्थ है होना या व्यापक रूप में अस्तित्व में आना। अव स्पृधि पितरं योधि विद्वान् पुत्रो यस्ते सहसः सून ऊहे। ऋग्वेद ५/३/९ ....तू ज्ञानी होकर 'पिता' का उद्धार कर, जो हमारे अंदर तेरे 'पुत्र' के रूप में धारित है (पाप तथा अंधकार) को दूर भगा दे 'हे शक्ति के पुत्र' १६/३/२३ काम भावना का उद्दीपन न रहने पर जननांगों की क्रिया भी बाह्य अंगों की भाँति जड़वत हो जाती है। बाह्य अंग क्या क्रिया कर रहे, किस तरह परिचालित हो रहे हैं, बहुधा इसका नोटिस ही नहीं रहता। स्त्री पुरुष के जननागों के मिलने पर भी उद्दीपन नहीं वरन् एक जड़ता हो जाती है। सुप्तावस्था में जैसे गतिविधि शून्य शारीरिक अंग रहते हैं, परंतु यह स्वप्नावस्था का भाँति भी नहीं है, जिसमें मन चलता है, शरीर नहीं चलता। यह अवस्था तो मन और शरीर का जड़वत हो जाना है। जिसमें इच्छा या काम का लेश नहीं रहता और हम चैतन्य काष्ठा हो जाते हैं। १९/३/२३ विश्व धरोहर वेलूर या एलोरा (मूल नाम वेरुल) गुफ़ाएँ मानव सभ्यता के अनथक परिश्रम और कल्पना शक्ति के चामत्कारिक उत्कर्ष की विलक्षण उदाहरण हैं। एक पहाड़ को काटकर पूरा मंदिर बना दिया गया, कैलास मंदिर। एलोरा की ३४ गुफाओं में १७ बौद्ध, १२ हिंदुओं और ५ जैन गुफाओं का निर्माण एक पर्वत शृंखला में क्रम से किया गया है। यहाँ पास में घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग का मंदिर दर्शनीय है। यह संख्या में १२वाँ या अंतिम ज्योतिर्लिंग है, अपना यह नौवें ज्योतिर्लिंग का दर्शन है। यहाँ से १२ किमी दूर दौलताबाद है जो मुहम्मद तुगलक की राजधानी रही है। ३२ किमी औरंगाबाद है, जिसे अब छत्रपति शंभाजी नगर कर दिया गया है। सब मिलाकर देवगिरि की यह अनौखी धरती पौराणिक काल से लेकर सल्तनत और मुग़ल काल से होती हुई प्रसिद्धि को प्राप्त रही है। २०/३/२३ अगर पुरुष सूक्त या ब्राह्मणोस्य मुख मासीद.....ऋचा को बाद की रचना भी मान लिया जाए तो भी ऋग्वेद में अग्नि, इंद्र, मरुत इत्यादि देवताओं का वर्णन बार-बार आया है, यह वर्णोत्पत्ति के ही तो आधार हैं। बाद में वेदांत या उपनिषद ग्रंथों में ब्रह्म और क्षत्र पदो का वर्णन हुआ है। गीता में यह वर्ण विभाजन स्पष्ट हो गया है। गीता उपनिषदों का सार संग्रह जैसा है। यह सही है कि वर्ण विभाजन का आधार गुण कर्म ही रहे होंगे। किंतु इस विभाजन के सूत्र वेद ग्रंथों में भी मिलते हैं। वर्ण व्यवस्था से हम सबको कोई समस्या नहीं होनी चाहिए, उसमे ऊँच नीच की भावना यदि न रहे। वर्ण का अर्थ रंग है और रंग रूप की अभिव्यक्ति के प्रथम संकेतक हैं। इस प्रकार वर्ण सृष्टि उद्गम के परिचायक हैं, आप इसे कुछ और नाम भी दे सकते हैं, पर यह सृष्टि उद्गम की पहचान हैं, इसे कैसे अस्वीकार कर सकते हैं।🙏 इस पथ का उद्देश्य नहीं है श्रान्त भवन में टिक रहना, किन्तु पहुँचना उस सीमा तक जिसके आगे राह नहीं है। ~ जयशंकर प्रसाद २१/३/२३ ग्यान कहै अग्यान बिनु, तम बिनु कहै प्रकास। निरगुन कहै जो सगुन बिनु, सो गुरु तुलसीदास।। २५/३/२३ सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधा मात्रात्मिका स्थिता। हे देवि!ह्रासवृद्धि आदि परिणामों से रहीताप ही (देवताओं को हविर्दान के समय उच्चारित) स्वाहा मंत्र रूपिणी हो, आप ही (पितृ गणों को पिंडादि दान के समय उच्चारित) स्वधा मंत्र रूपिणी हो, आप ही (इंद्र को हविर्दान के समय सोलह विभिन्न धुनों पर आवृत्ति होकर) वषट् मंत्र स्वरूपिणी हो, आप ही स्वारात्मिका ( उदात्त, अनुदात्त एवं स्वरित अथवा अकारादि) हो, आप ही अमृत रूपिणी एवं (ह्रस्व दीर्घ प्लुत मात्रा रूपिणी अथवा अकार उकार मकार लक्षणा) त्रिविध मात्रा रूप में अवस्थित (प्रणवरूपिणी) हो। अर्धमात्रास्थिता नित्या यानुच्चार्या विशेषत:। कालोऽर्ध मात्राः कादीनां त्रयस्त्रिंशत उच्यते। अर्ध मात्रा प्रत्येक अक्षर में अनुस्यूत है। उदाहरण के लिए अ लें, जब यह अर्ध मात्रा हो जाता है, तब यह अनुच्चार्य हो जाता है। यह अ सभी तेतीस वर्णों में मिलता है तब वे वर्ण उच्चार योग्य बन पाते हैं। विशेष रूप से जो पूर्णतया उच्चार्य नहीं, वह वाक्यातीत अर्धमात्रा रूपी निर्गुण या तुरीय आप ही हो। हे द्योतनशीले! आप गायत्री मंत्र रूपिणी अथवा गायत्रीमंत्र की अधिष्ठात्री देवता सविता हो तथा आप ही विकारहीन श्रेष्ठ शक्ति तथा देवगणों की आदिमाता हो। स्वयं राजते इति स्वरः व्यक्ति योगात् व्यंजनः तत् व्हिच is made manifest. चंद्रश्च नाम नैवान्यो भोग्यं भोक्तुश्व नापरम्। भोक्तैव भोग्यभावेन द्वैविध्यात्संव्यवस्थितः। घटस्य न हि मोग्यत्वं स्वं वपुर्मातृगं हि तत्॥ when there are two elements (one is the observer and one is the observed) and they get contact with each other and the creation of the universe takes place. चमत्कार का अर्थ है आनंद, आस्वाद २६/३/२३ कलयति (गति), परामर्शयिति (जानना), सृजिति (निर्माण), क्षिपिति (फेंकना), संकोचायिति (सिकोड़ना) और विकासयिति (फैलाना) संकोचयिति विकासयिति च इति काली तु कालयः इच्छाशक्तिरुमा कुमारी। जगन्माता या परमपिता की इच्छाशक्ति को उमा कहा गया है, कुमारी कहा है। उमा परमात्मा की स्वातंत्र्य शक्ति है। कुमारी वह शक्ति है जो ब्रह्मांड की सृष्टि स्थिति और लय करती है। कुमार का धात्विक अर्थ क्रीड़ा से विकसित हुआ है। कुम् मारयति भी कुमारी को कहा गया - भेद दृष्टि का जो संहार कर दे और अपने स्वरूप में स्थित हो जाये। कुमारी को वर्जिन समझा गया है। वर्जिन का अर्थ है जिस ने किसी अन्य से क्रीड़ा न की हो। वह अपने आनंद स्वरूप में ही स्थित हो। उमा कुमारी पूरी तरह संसार से अनासक्त होती है, उसका आनंद परमुखापेक्षी नहीं होता और जब वह शिव सायुज्य प्राप्त करती है तो वह मात्र शिवमयी होकर रहती है। २८/३/२३ शब्द अंतःप्रेरित वाणी है, जो सत्य के उस विचार प्रकाश को अभिव्यक्त करती है जो आत्मा में से उठता है और मन द्वारा आकृतियुक्त होता है। २९/३/२३ चित्तमेव हि संसारस्तत्प्रयत्नेन शोधयेत्। यच्चित्तस्तन्मयो भाति गुह्यमेतत्सनातनम् ॥ चित्त ही संसार है। हर पुरुष को अभ्यास द्वारा अपने चित्त का शोधन करना चाहिए। जो अपने चित्त को ब्रह्म में लगाता है, वह मनुष्य ब्रह्ममय हो जाता है। यह शाश्वत और परम गोपनीय बात है ॥ या वर्णपदवाक्यार्थस्वरूपेण एव वर्तते. अनादिनिधनानंता सा मां पातु सरस्वती.. जो (क्रमशः उत्तरोत्तर) प्रत्येक वर्ण, पद तथा वाक्य द्वारा प्रतिपादित अर्थ के स्वरूप में विद्यामान हैं, वे आदिअंतहीना एवं अनंत सरस्वती मेरी रक्षा करें. ५/२/२२ की फ़ेसबुक पोस्ट तुलसी की स्त्री चेतना प्रचलित अर्थों में स्त्री द्वारा स्त्री के बारे में स्त्री के लिए किया गया साहित्य सृजन स्त्री विमर्श कहा जाता है। तुलसी साहित्य में स्त्री के बारे में और स्त्री के लिए प्रचुर लेखन हुआ है। तुलसी साहित्य में चित्रित स्त्री संवेदना पर विचार करते हुए डॉ रामकुमार वर्मा कहते हैं- ‘‘तुलसीदासजी ने नारी जाति के प्रति बहुत आदर-भाव प्रकट किया है। पार्वती, अनुसुइया, कौशल्या, सीता तथा ग्रामबधू आदि की चरित्र रेखा पवित्र और धर्मपूर्ण विचारों से निर्मित हुई है। कुछ आलोचकों का कथन है कि तुलसीदास ने नारी-जाति की निंदा की और उन्हें ढोल, गंवार की कोटि में रखा, परंतु मानस पर निष्पक्ष दृष्टि डाली जाए तो विदित होगा कि नारी के प्रति भर्त्सना के ऐसे प्रमाण उसी समय उपस्थित किए गए जब नारी ने धर्म विरोधी आचरण किए।’’ कुछ नवचिंतक स्त्री, ढोल, गंवार आदि को तुलसी द्वारा ताड़ना के अधिकारी कहे जाने की व्याख्या मारने के अर्थ में नहीं, अपितु पहचानने के अर्थ में करते हैं। ऐसी प्रगतिशीलता से यह तो स्पष्ट ही है कि हमारा समाज इन्हें मारने के अर्थ में नहीं ले रहा है। मिश्र बंधुओं की मान्यता है कि राम से संबंधित नारियां तो सुंदर और पवित्र हैं किंतु शेष नारियां जड़, अपावन तथा स्वतंत्रता के अयोग्य हैं। कुछ साहित्यकारों का अनुमान है कि नारी संपर्क के अभाव के कारण ही ऐसा हुआ है। गोस्वामीजी को न तो जननी का वात्सल्य मिला था और न नहीं स्त्री का प्यार। डॉ देवीशरण रस्तोगी ने तुलसी की मूलचेतना का प्रश्न उठाते हुए कहा है कि पात्रों की अच्छाई-बुराई की उनके पास एक ही कसौटी है- रामभक्ति और उस भक्ति का साधन श्रुतिसम्मत होना चाहिए। नारी रूप के चित्रांकन में भी इसी भावना का हाथ रहा है। तुलसी ने नारी के काम से युुक्त लावण्य और आकर्षण शक्ति से भयभीत होने के कारण संतों और ज्ञानियों की भांति निंदा की है। वहीं महात्मा गांधी कहते हैं कि गोस्वामीजी ने स्त्रियों पर अनिच्छा से अन्याय किया है। अन्यथा उनकी दृष्टि तो इतनी व्यापक रही है कि उनके ही शब्दों में- राम भगति रत नर अरु नारी। सकल परम गति के अधिकारी।। एक नारि ब्रत रत सब झारी। ते मन बच क्रम पति हितकारी।। रामचरितमानस की कथा चित्रित करते समय तत्कालीन समाज में स्त्री की ब्यथा का पूरा संज्ञान लिया गया है। परिवार में स्त्री पराधीन थी। पुरुष प्रधान समाज में स्त्री की दोयम स्थिति पर तुलसी को क्षोभ था। स्त्री की बंदिनी और दयनीय दशा को देखकर ही उन्होंने कहा- कत बिधि सृजी नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं।। और बहुरि-बहुरि भेंटहिं महतारीं। कहहिं बिरंचि रचीं कत नारीं।। तुलसी ने मानस में श्रीराम द्वारा बाली के प्रति कहलवाया है कि छोटे भाई की स्त्री, बहिन, पुत्र की स्त्री और कन्या - ये चारों समान है। इनको जो कोई बुरी दृष्टि से देखता है, उसे मारने में कुछ भी पाप नहीं होता- अनुजबधू भगिनी सुतनारी। सुनु सठ कन्या सम ए चारी।। इन्हहिं कुदृष्टि बिलोकइ जोई। ताहि बधे कछु पाप न होई।। किष्किंधाकांड 8/4 स्त्री पुरुष को किस प्रकार सन्मार्ग दिखाती है और पुरुष उसे कैसे धता बताता है। मानस में इस प्रकार के प्रसंग आते हैं। पत्नी मंदोदरी की सीख रावण नहीं मानता ह। सुग्रीव की पत्नी को रखे जाने पर पत्नी द्वारा मना किए जाने पर भी बाली नहीं मानता है, भगवान राम द्वारा बाली का बध किए जाने के समय बाली के पूछने पर राम स्मरण कराते हैं- मूढ़ तोहि अतिसय अभिमाना। नारि सिखावन करसि न काना।। किष्किंधाकांड 8/5 पिता जनक सीता को तपस्विनी वेश में देखकर विशेष प्रेम और संतोष करते हैं, वे कहते हैं’ पुत्रि पवित्र किए कुल दोऊ। सुजस धवल जगु कह सबु कोऊ।। अयोध्याकांड 286/1 स्त्री और पुरुष के संबंध में उŸारकांड में बहुत सी बातें की गई हैं, जो किसी कथा-पात्र द्वारा नहीं, अपितु मानस के अलग-अलग चार कथावाचकों में एक काकभुशुंडि द्वारा कही गई हैं। कलियुग और उसके प्रभाव वर्णन में स्त्री संबंधी पदों का आशय इस प्रकार है- कलियुग में सभी मनुष्य स्त्रियों के विशेष वश में है और बाजीगर के बंदी की तरह (उनके नचाए) नाचते हैं। सुहागिनी स्त्रियां तो आभूषणों से रहित होती हैं, पर विधवाओं के नित्य नए शृंगार होते हैं। जो पराई स्त्री में आसक्त , कपट करने में चतुर और मोह, द्रोह और ममता से लिपटे हुए हैं, वे ही मनुष्य अभेदवादी (ब्रह्म और जीव को एक बताने वाले) ज्ञानी हैं। कुलवती और सती स्त्री को पुरुष घर से निकाल देते हैं और अच्छी चाल को छोड़कर घर में दासी को ला रखते हैं। पुत्र अपने माता-पिता को तभी तक मानते हैं, जब तक स्त्री का मुंह नहीं दिखाई पड़ता। जब से ससुराल प्यारी लगने लगी, तब से कुटुंबी शत्रु रूप हो गए। स्त्रियों के बाल ही भूषण हैं (उनके शरीर पर कोई आभूषण नहीं रह गया) और उनको भूख बहुत लगती है (अर्थात् वे सदा अतृप्त ही रहती हैं)। वे धनहीन और बहुत प्रकार की ममता होने के कारण दुखी रहती हैं। क्या स्त्री और क्या पुरुष सभी शरीर के पालन-पोषण में ही लगे रहते हैं- तनु पोषक नारि नरा सगरे। वस्तुतः दांपत्य के जिस आदर्श रूप को तुलसी ग्राह्य समझते थे, उसे उनकी ‘कवितावली’ के इस पद में देखा जा सकता है- जल को गए लक्खनु, हैं लरिका/परिखौ पिय! छांह घरीक ह्वै ठाढ़े।/पोंछि पसेउ, बयारि करौं,/अरु पाय पखारिहौं भूभुरि-डाढ़े।।//तुलसी रघुबीर प्रिया श्रम जानि कै/बैठि विलंब लौं कंटक काढ़े।/जानकी नाह को नेहु लख्यो/ पुलको तनु, बारि बिलोचन बाढ़े।। कवितावली 2/12 ‘‘संसार-साहित्य में पति-पत्नी के पारस्परिक प्रेम, संवेदन एवं तादात्म्य का इतना सुंदर, पावन एवं प्रेरक चित्रण कहीं नहीं प्राप्त होता। कोमलतम-सुंदरतम सीता कठोरतम-अनुपयुक्ततम वनपथ पर चलते-चलते थक गई हैं। कवितावली के ग्यारहवें पद में सीता पर्णकुटी कहां बनाएंगे प्रश्न करती हैं, प्रिया की कठिनाइयों को समझकर भगवान राम की आंखों से आंसू झरने लगते हैं- तिय की लखि आतुरता, पिय की अंखियां अति चारु चलीं जल च्वै। पति को लक्ष्य प्राप्ति में बाधा न पहंुचे। इसीलिए सीता जल लाने गए लक्ष्मण की प्रतीक्षा के मिस विराम का आग्रह करती हैं। ‘लरिका’ की भावशबलता में शालीनता, संवेदन, सहयोग, वात्सल्य, स्नेह इत्यादि भावों की व्यंजना अनायास ही मर्म का स्पर्श कर जाती हैं। राम ने विराम ही नहीं किया , प्राणप्रिया के शरीर में चुभे कंटक निकालने के प्रेम-संपन्न बहाने से बहुत देर तक रुके भी रहे। इसे डॉ रामप्रसाद मिश्र दांपत्य का अपवर्ग कहते है, जहां से पतन संभव नहीं। सीता और राम का प्रेम कोरा और वायवी नहीं, वरन् वे दोनों पूर्ण कर्मपाकी और लोकसंग्रही प्रेम में संलग्न हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है ‘‘राम और सीता के प्रेम का विकास मिथिला या अयोध्या के महलों और बगीचों में न दिखाकर दण्डकारण्य के विस्तृत कर्मक्षेत्र के बीच दिखाया है। उनका प्रेम जीवन यात्रा के मार्ग में माधुर्य फैलाने वाला है, उससे अलग किसी कोने में चौकड़ी या आहें भरने वाला नहीं। ............ सीताहरण होने पर राम का वियोग जो सामने आता है, वह भी चारपाई पर करवटें बदलने वाला नहीं है, समुद्र पार कराकर पृथ्वी का भार उतारने वाला है। स्त्री विमर्श में आज मोटे तौर पर तीन तरह के रूप दिखाई पड़ते हैं। एक; जिसमें स्त्री की अधिकाधिक आर्थिक स्वतंत्रता पर बल दिया जाता है। दूसरे में स्त्री और पुरुष दोनों की सहमति और सहयोग से स्त्री सशक्तीकरण किया जाता है। तीसरा प्रकार ऐसे विमर्शकारों का है जो अपनी दैहिक स्वतंत्रता की घोषणा करते हुए तदनुसार जीवन जीने की हामी हैं। यह तीसरा प्रकार स्त्री विमर्श का अतिवादी रूप है, जिसकी कुछ व्याख्याओं से तुलसी की यह स्थापनाएं मेल न खाती हों, पर आज समाज का एक बड़ा हिस्सा तुलसी के आदर्श को श्रेयस्कर मानता है। जिस तरह पुरुषवाद समाज के लिए अभीष्ट नहीं, उसी तरह स्त्रीवाद भी किसी समाज के लिए कैसे उपयुक्त हो सकता है? ११/१/१५ की फ़ेसबुक पोस्ट ३०/३/२३ रामनवमी की आप सबको हार्दिक शुभकामनाएँ.... गतिः स्थानं स्वप्नजाग्रदुन्मेष निमेषणे। धावनं प्लवनं चैव आयासः शक्तिवेदनम्।। बुद्धिभेदास्तथा भावाः संज्ञाः कर्माण्यनेकशः। एष रामो.... गति, स्थान, विकल्प रूप स्वप्न, ज्ञान रूप जाग्रत, उन्मेषण, निमेषण, धावन, प्लवन, आयास, शक्तिवेदन, बुद्धि और उसके भेद, भाव, सारी संज्ञाएँ और सारे कर्म ये चौदह (शब्दतः और अर्थतः दोनो दृष्टियों से) राम ही हैं। राम को जानना है तो रामायण के साथ-साथ 'योग वासिष्ठ' से जानना होगा। भक्ति की अंधता को ज्ञान का दीपक दूर करता है। और ज्ञान का अहंकार भक्ति के प्रेम से कटता है। राम को योग वासिष्ठ से, कृष्ण को गीता से और शिव को शिव सूत्र से जानना चाहिए। इन सबको एक साथ जानने के लिए उपनिषदों को समझना चाहिए। राम एक परमात्मा वाची शब्द है। राम में जीव और परम का लीला विहार है. निशब्द से शब्द का और शब्द से ओंकार का उद्भव होता है. इस ॐ से रा और म अक्षर उत्पन्न होते हैं. एक विशेष ध्वनि रूपी प्रकंपन (vibration) से (जिसको शास्त्रों में शब्द कहा गया है) पूरी सृष्टि का खेल चल रहा है । इसी से सूर्य, चन्द्रमा, तारे आदि गति करते रहते हैं । इसी प्रकंपन (vibration) से मनुष्य़ का शरीर बालापन, जवानी और बुढ़ापा आदि को प्राप्त होता है । इसी प्रकंपन (vibration) से आज बनी एक मजबूत बिल्डिंग निश्चित समय बाद जर्जर होकर धराशायी हो जाती है । आधुनिक विज्ञान की समस्त क्रियायें इसी प्रकंपन (vibration) पर आश्रित हैं । जैसे मोबायल फ़ोन से बात होना, वायरलेस, इंटरनेट, टी. वी. आदि के सिग्नल । हमारी आपस की बातचीत । यानी हम हाथ भी हिलाते है तो वह भी इसी vibration की वजह से हिल पाता है । इसी को चेतना या करंट भी कह सकते हैं । शुद्ध रूप में यह *र्र्र्र्र्र्र्रर्र्रर्र्रर्र्र र्र्रर्र्रर्र्* इस तरह की धुन होती है । बाद में आदि शक्ति या महामाया द्वारा इसमें *म्म्म्म्म* जोड़ दिया गया । तब यह धुन *र्म्र्म्र्म्र्म र्म्र्म्र्म्र्म* इस तरह हो गई । सरलता से समझने के लिये *रररररर* हो रही धव्नि माया से अलग हो जाती है । लेकिन जब तक *रमरमरम* ऐसी धुनि है तब तक ये माया से संयुक्त हैं । इसीलिये परमपिता परमात्मा (सतपुरुष) को सबसे बडा माना जाता है । यही 'र' और 'म' पहले स्त्री पुरुष हैं । यही असली राम (सतपुरुष) है । संत या योगी इसी राम को पाने की या जानने की लालसा करते हैं । एक राम दशरथ का बेटा, एक राम घट घट में बैठा एक राम का सकल पसारा,एक राम त्रिभुवन से न्यारा . तीन राम को सब कोई ध्यावे, चौथे राम को मर्म न पावे। चौथा छाड़ि जो पंचम ध्यावे.. राम को जानने के लिए नव दुर्गा की उपासना और कृपा प्राप्त करनी होती है। तभी यह रामनवमी का दिन आता है। रामहि केवल प्रेमु पिआरा। जानि लेउ जो जाननिहारा। श्रीरामनाम श्रीभगवान का एक विशिष्ट नाम है । इसकी महिमा अनन्त है । शास्त्रों ने इसी को तारक ब्रह्म कहा है। यह प्रणव से अभिन्न है ,इस बात को ऋषि मुनियों ने बार बार बतलाया है । कहा जाता है कि परम भागवत श्री गोस्वामी तुलसीदास को देहत्याग के कुछ दिनों पूर्व अलौकिक भाव से श्रीमन महावीर जी ने रामनाम का रहस्य बतलाया था । उन्होंने कहा कि विश्लेषण करने पर रामनाम में पांच अवयव या कलाओं की प्राप्ति होती है । इसमें प्रथम का नाम तारक है और पिछले चारों नाम क्रमशः दण्डक , कुंडल , अर्धचन्द्र , और बिंदु हैं । मनुष्य स्थूल ,सूक्ष्म और कारण शरीर को लेकर इस मायिक जगत् में विचरण करता रहता है । जबतक माया का भेद नहीं होता , तबतक महाकारण देह की प्राप्ति नहीं हो सकती । साधक को गुरूपदिष्ट क्रम के अनुसार स्थूल देह के समस्त तत्वों को नाम के प्रथम अवयव तारक में लीन करना पड़ता है । स्थूल देह एवं अन्यान्य तीनों देह पाञ्चभौतिक हैं । स्थूल में अस्थि , त्वक आदि पाँच पृथ्वी के , भेद , रेत आदि पाँच जल के , क्षुधा , तृष्णा आदि पाँच तेज के , दौड़ना , चलना आदि , पाँच वायु के , और काम , क्रोध , लोभ आदि पाँच आकाश के कार्य हैं । अन्य तीन देहों में भी इस प्रकार पंचभूतों के अंश हैं । प्रत्येक तत्व की पाँच प्रकृति होती हैं । इसी से स्थूल देह में पाँच तत्वों की पच्चीस प्रकृति हैं । इसी प्रकार अन्य देहों में पच्चीस प्रकृति हैं । साधना के प्रभाव से स्थूल देह के पांचों तत्व जब तारक में लीन हो जाते हैं , तब सूक्ष्म देह के पांचों तत्वों को नाम के दूसरे अवयव दण्डक में लीन करना पड़ता है । इधर पूर्वोक्त तारक भी स्थूल तत्वों को लेकर दण्डक में लीन हो जाता है । इसके बाद कारण देह के तत्व नाम के तीसरे अवयव कुंडल में लीन हो जाते हैं । कारण देह की निवृत्ति के पश्चात शुद्ध सत्वमय महाकारण देह को नाम के चतुर्थ अवयव अर्धचन्द्र में लीन करना पड़ता है । महाकारण तक जड़ का ही खेल समझना चाहिए । हाँ , महाकारण देह जड़ होने पर भी शुद्ध है , परन्तु स्थूल , सूक्ष्म और कारण जड़ अशुद्ध हैं । महाकारण -देह के अर्धचंद्र में लीन हो जाने के बाद कैवल्य देहमात्र बच रहता है । यह विशुद्ध चित्स्वरूप और जड़ सम्बन्ध से रहित है । अर्धचन्द्र के बाद नाम का पाँचवां अवयव या कला बिंदु रूप से प्रसिद्ध है । बिंदु पराशक्ति श्री जानकी जी का स्वरूप है । बिंदुरूपा श्री जानकी जी का आश्रय लिए बिना कलातीत श्री राघव जी का सन्धान प्राप्त नहीं किया जा सकता । बिंदु के अतीत रेफ ही परब्रह्म श्री रामचंद्र हैं । बिंदु रूपिणी श्री सीता जी और रेफरूपी श्री रामचंद्र जी में दृढ़ अनुराग तब अचल हो जाता है , तब भवबंधन से मुक्ति मिल जाती है । और तभी सिद्ध पंचरसों का आस्वादन हो सकता है , इससे पहले नहीं । शांत रस के रसिक प्रह्लाद आदि , दास्य के हनुमान आदि , सख्य के सुग्रीव , विभीषण , वात्सल्य के दशरथ , और श्रृंगार -रस के मूर्त-स्वरूप जनकपुर की युवतियां ----विशेषतः श्री जानकी जी स्वयं हैं । कैवल्य- देह में चित्त्तव का स्फुरण वर्तमान है ।उसके बाद तत्वातीत ब्रह्मवस्तु है , जो शक्तिरूप में श्री जानकी के नाम से और शक्ति के आश्रय के रूप में श्री राम के नाम से भक्तों के लिए सुपरिचित है । महावीर जी ने जो उपदेश दिया है ,उसका तात्पर्य यही है कि बिंदु का आश्रय लिए बिना निष्कल परब्रह्म की ओर अग्रसर नहीं हुआ जा सकता । वैसे प्रयत्न से बड़े अनर्थ की संभावना है-- तुलसी मेटे रूप निज बिंदु सीय कौ रूप । देख लखै सीता हिये राघव रेफ अनूप ।। तुलसी जो तजि सीय कू बिंदु रेफ में चाहु । तौ कुम्भी में कल्प शत जाहु जाहु पर जाहु ।। अतएव जो रामनाम के रसिक हैं , वे अर्धचंद्र बिंदु और रेफ को एक कर डालते हैं ,पृथक नहीं होने देते । और इस एक में ही उनके आस्वादन के लिए अचिन्त्य विचित्र लीलाएं प्रस्फुटित हो उठती हैं । रामनाम की महिमा श्री साधना // पृष्ठ 110 ३१/३/२३ वेदों में वर्णित आर्य अक्रान्ताओं तथा गुहा निवासी द्रविड़ों के बीच राजनैतिक व सैनिक संघर्ष नहीं, वरन यह तो वह संघर्ष है जो 'प्रकाश' के अन्वेषकों और अंधकार की शक्तियों के बीच होता है। गौएँ हैं सूर्य तथा उषा की ज्योतियां, वे भौतिक गायें नहीं हो सकतीं। गौओं का विशाल भयरहित खेत जिसे इंद्र ने आर्यों के लिए जीता 'स्वः' का विशाल लोक है, सौर 'प्रकाश' का लोक है, द्यौ का त्रिगुण प्रकाशमय प्रदेश है। यदि हम चाहें तो यह भी कल्पना कर सकते हैं कि भारत में दो ऐसे विभिन्न सम्प्रदायों के बीच एक संघर्ष हुआ करता था। इन संप्रदायों के भौतिक संघर्ष को देखकर उससे ही ऋषियों ne इन प्रतीकों को लिया तथा उन्हें आध्यात्मिक संघर्ष में प्रयुक्त kar दिया, वैसे ही जैसे उन्होंने भौतिक जीवन के अन्य अंग उपांगों को आध्यात्मिक यज्ञ, आध्यात्मिक संपदा और आध्यात्मिक युद्ध तथा यात्रा के लिए प्रतीक के रूप में प्रयुक्त किया। यह कल्पना सही हो, न हो, इतना निश्चित है कि ऋग्वेद में जिस युद्ध और विजय का वर्णन हुआ है, वह कोई भौतिक युद्ध और लूटमार नहीं बल्कि एक आध्यात्मिक संघर्ष और आध्यात्मिक विजय है। वैदिक सूक्त वस्तुतः प्रतीकवादियों और रहस्यवादियों की पवित्र धार्मिक कविताएँ हैं, न कि प्रकृति पूजक जंगलियों के गीत और न उन असभ्य आर्य आक्रांताओं के जो कि सभ्य और वैदान्तिक द्रविड़ों से लड़ रहे थे। वर्ण का अर्थ स्वभाव है, क्या बिना स्वभाव कोई व्यक्ति हो सकता है। वर्ण या स्वभाव की व्यवस्था या नियमन मानव समाज के लिए करना अपरिहार्य है।

Wednesday, March 1, 2023

फ़रवरी २०२३

When there is desire, you are residing in rājoguṇa. When there is detachment – altogether detachment – then you are residing in sāttvaguṇa. When there is desire, you are in rājoguṇa, and that binds you too. When there is complete knowledge and complete absence of knowledge – that is complete knowledge – that is fullness of knowledge. Fullness of knowledge is not fullness of knowledge. Fullness of knowledge is: when you are full and you are not full – both – that is full. ६/२/२३ शास्त्रों में सोम(होम) रस लौकिक अर्थ में एक बलवर्धक पेय माना गया है, परंतु इसका एक पारलौकिक अर्थ भी देखने को मिलता है। साधना की ऊंची अवस्था में व्यक्ति के भीतर एक प्रकार का रस उत्पन्न होता है जिसको केवल ज्ञानीजन ही जान सकते हैं। सोमं मन्यते पपिवान् यत् संविषन्त्योषधिम्। सोमं यं ब्रह्माणो विदुर्न तस्याश्नाति कश्चन।। (ऋग्वेद-10-85-3) जाति का अर्थ है अपने को जानना। अपना गुण और स्वभाव व्यक्ति जाने बिना नहीं रहता। जाति कोई हेयर्थक शब्द नहीं है। दुनिया का कौन सा देश बिना जातीय पहचान के है! जन्मगत जाति से जो परंपरागत कौशल अपने यहाँ चलते आए हैं, वे क्या सही नहीं थे। कौशल विकास से भी वह हुनर विकसित नहीं हो पा रहे हैं। अपने को जानने में किसी को छोटा या बड़ा, ऊँचा या नीचा यह भेद अग्राह्य हैं, अनावश्यक हैं। यह ऊँच-नीच कैसे विकसित हुई, इसके लिए कोई एक जाति ज़िम्मेदार कैसे हो सकती है! जब तक पूरी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था इतने बड़े परिवर्तन में संलग्न नहीं होगी, यह विकृति घटित नहीं हो सकती। अपनी बुराई को दूसरे के मत्थे मढ़कर अथवा पलायन करके उसे दूर नहीं किया जा सकता। भगवान ने जातियों में भेद नहीं माना, यह बात किसने बतायी और पूर्व में भेदभाव होता रहा, यह बात भी किसने बतायी। उस भेदभाव को दूर करने में भी औपचारिक/संवैधानिक पहल किसने प्रारंभ की। थोड़ा विचार करें। स्वस्थ लोकतंत्र में किसी जाति का अवमूल्यन नहीं किया जाना चाहिए.... It is all right to enjoy life; the secret of happiness is not to become attached to anything. Enjoy the smell of the flower, but see God in it. I have kept the consciousness of the senses only that in using them I may always perceive and think of God. "Mine eyes were made to behold Thy beauty everywhere. My ears were made to hear Thine omnipresent voice." That is Yoga, union with God. It is not necessary to go to the forest to find Him. Worldly habits will hold us fast wherever we may be until we free ourselves from them. The yogi learns to find God in the cave of his heart. Wherever he goes, he carries with him the blissful consciousness of God's presence. -Sri Sri Paramahansa Yogananda, "Man's Eternal Quest". ७/२/२३ दी का अर्थ है बुद्धि या प्रकाश, क्षा का अर्थ है दूर क्षितिज या अंत। दीक्षा का अर्थ हुआ बुद्धि का संक्रमण, क्रिया या ज्ञान द्वारा गुरु अपने शिष्य को बोध कराता है, उसे दीक्षा कहते हैं। दीक्षा बोधांतरण है, जबकि इसका युग्म शब्द शिक्षा का अर्थ अनुशासन का अंतरण है। शिक्षा प्राप्त करने के लिए अनुशासन आवश्यक है तो वास्तविक अर्थ में दीक्षा प्राप्त करने के लिए ध्यान अनिवार्य है। और कोई सटीक उपाय नहीं है। गुरु दीक्षा देते हैं, तो शिक्षक शिक्षा। अनुशासन की पूर्णता शिक्षा है और बुद्धि की पूर्णता दीक्षा। व्यक्ति के जीवन में शांति, प्रेम और आनंद की व्याप्ति दीक्षोपरांत ही संभव है। गुरु के पास रहकर सीखी गई शिक्षा के समापन को दीक्षा कहा जाता है। गुरु द्वारा शिष्य को जब पूरी तरह शिक्षा दी जा चुकी होती है तब दीक्षांत होता है। दीक्षांत समारोह दीक्षा प्रदान करने का एक अवसर है। ८/२/२३ गर्भ में नाभिनालबद्ध व्यक्ति को सांसारिक आनंद मिलना प्रारंभ हो जाता है, यहाँ पर व्यक्ति परमात्मा के आनंद में भी सराबोर रहता है। किंतु जन्म और विकास की यात्रा में वह सांसारिक ही हो जाता है। गर्भावस्था व्यक्ति की माँ है, किंतु गर्भ के बाहर उसकी माँ पंचभूतात्म जगत् है, जिनका रस वह पाँच तन्मात्राओं- शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध- के माध्यम से ग्रहण करता है। हमें हिमालय दर्शन करना है, उसे फतह नहीं। आखिर क्या कारण है कि दुनिया के सबसे ऊंचे पर्वत शिखर एवरेस्ट पर बहुत से पर्वतारोही होकर आए हैं, पर कैलास शिखर पर आज तक कोई जाकर लौटा हो, ज्ञात नहीं। कैलास पर्वत हिंदुओं के लिए ही पवित्र नहीं है, तिब्बतियों के लामा वहाँ अष्टपथ में 'गुम्मा' बनाकर रहते हैं, जैनियों के लिए भी यह स्थान श्रद्धा का केंद्र है। कैलास दर्शन के श्रद्धालुओं की इच्छा तो उसके शिखर पर जाकर दर्शन करने की नही सुनाई देती। उसकी परिक्रमा या दर्शन करके ही वे धन्य हो जाते हैं। गांवों में कहा जाता था कि पहले जब भागवत कथा होती थी तो कथा मंडप में लगे हरे बांस की सात गांठे सातों दिनों में खुल जाती थीं। यह सात गांठें कुछ और नहीं वरन सात ऊर्जा केंद्र हैं। भागवत की रसमयी कथा में पिरोए सत्यं परं धीमहि का साक्षात्कार सातवें दिन तक हो जाता है। हिमालय की यात्रा का भी यही निहितार्थ है। हिमालय की चोटियां गो और गोचर में नहीं आती, जहां माया का विस्तार रहता है। उसकी महिमा लोकोत्तर है। केदारनाथ में मैंने देखा कि दक्षिण के एक लुंगी पहने श्रद्धालु ने अपने घर पर मोबाइल पर चिल्लाकर बताया कि वह केदारनाथ पहुच गया या जो भी.. तो उसकी आँखों मे परम् तृप्ति के आंसू थे और वह हर्षित होकर बल्लियों उछल रहा था, यह भगवद्दर्शन है। ऐसा कोई दर्शन अभी तक संसार मे नही हुआ है जो सभी प्रापंचिक रहस्यों को समझा देने में समग्रतः समर्थ हो। न ऐसा भविष्य में होने का निश्चय ही है। ज्ञात से ज्ञात तक की यात्रा नॉलेज है, पर ज्ञात से अज्ञात की यात्रा लर्निग है। दर्शन परम् तत्व के बारे में इतना ही जान पाए हैं कि वह अज्ञेय है। दर्शन अधूरे हों तो भी उनमें ग्रहणीय सत्य अंतर्निहित हैं। हिमालय में आई त्रासदी से भगवान सबको जल्द उबारे, यह प्रार्थना है। हिमालय देवभूमि है, उस भूमि पर निवास करने वाले देवपुत्र ही हैं। ८ फ़रवरी २०२१ की फ़ेसबुक पोस्ट १०/२/२३ यदि हम अपनी संस्थाओं में आध्यात्मिक प्रशिक्षण को छोड़ दें, तो हमें अपने संपूर्ण ऐतिहासिक विकास के प्रति झूठा होना पड़ेगा। धर्मनिरपेक्ष होने का मतलब धार्मिक रूप से अनपढ़ होना नहीं है। यह गहरा आध्यात्मिक होना है न कि संकीर्ण रूप से धार्मिक होना। विश्वविद्यालय शिक्षा रिपोर्ट में डॉक्टर राधाकृष्णन ११/२/२३ नाद पर जब आघात होता है, तब अक्षर बनता है। अवधूता! युगन युगन हम योगी आय ना जाय मिटै ना कबहूं सबद अनाहत भोगी। सबरे ठौर जमात हमारी सब ही ठौर पर मेला। हम सब में सब है हम माहीं हम है बहुरि अकेला। हम ही सिद्ध समाधि हमी ही हम मौनी हम बोले। रूप सरूप अरूप दिखा के हम ही हम तो खेलें। कहे कबीर सुनो भाई साधो नहीं न कोई इच्छा अपनी मढ़ी में आप मैं डोलूं खेलूं सहज स्वेच्छा। १५/२/२३ महाभारत हो सकता है किसी युद्ध को देखकर प्रेरित होकर लिखा गया हो, पर वह व्यक्ति की आंतरिक वृत्तियों की द्वंद्व कथा है। व्यक्ति के भीतर ही वे विरोधी वृत्तियां मौजूद रहती हैं, उनसे संघर्ष और विजय की कथा है महाभारत। भाइयों/बहनों या परिवारों के बीच संघर्ष होता है, पर अगर बात उतनी ही होती तो यह महाकाव्य ही न बन पाता, वह एक घटनाक्रम या इतिहास बनकर रह जाता। वह कालजयी महाकाव्य है क्योंकि वह प्रत्येक व्यक्ति को उसके अंतर्मन में ले जाने की कथा है। युधिष्ठिर, अर्जुन, दुर्योधन इत्यादि जितने पात्र हैं, उन सबके प्रतीकार्थ हैं, वे व्यक्ति के अंदर ही हैं। १५ फ़रवरी २०२१ की फ़ेसबुक पोस्ट यस्योन्मेषनिमेषाभ्यां जगतः प्रलयोदयौ । तं शक्तिचक्रविभवप्रभवं शङ्करं स्तुमः ॥ शिवो गुरु: शिवो देव: शिवो बन्धु: शरीरिणाम् । शिव आत्मा शिवो जीव: शिवादन्यन्न किञ्चन ॥ जब आप इस संसार से विदा होंगे, तो सांसारिक समृद्धि पीछे छूट जाएगी; परन्तु प्रत्येक भलाई का कार्य जो आपने किया है, वह आपके साथ जाएगा। धनी लोग जो कृपणता से जीते हैं और स्वार्थी लोग जो कभी भी दूसरों की सहायता नहीं करते, वे अपने अगले जीवन में धन-सम्पदा आकर्षित नहीं करते हैं। परन्तु जो दान देते हैं और बाँटते हैं, चाहे उनके पास अधिक या कम हो, वे समृद्धि को प्राप्त करेंगे। यह परमात्मा का नियम है। 16/2/23 तत् तद् इन्द्रिय मुखेन सन्ततं युष्मद अर्चन रसायनासवम् सव्र्वभावचषकेशु पूरिते— स्वापिवन्नपि भवेयम उन्मदः ” यह एक अद्भुद अवस्था है। यह जो भोग है यही श्रीभगवान की अर्चना है। प्रत्येक इन्द्रिय के द्वारा ही उनकी पूजा, रसायन रूप आसव आदि भाव रूपी चषक या पात्र में पूर्ण रूप से भर देने पर नशा जैसा भाव उदय होता है, यह भी वही है। आखों से रूप देखना, अर्थात आंखों द्वारा रूप नामक भाव में या चषक में पूजा–रस पान करना या फिर तन्मय हो जाना। कानों से शब्द सुनना भी यही है। यह भोग ही उपासना है। यह जाग्रत अवस्था में होता है, स्वप्न में भी होता है, सुषुप्ति में होता है, जब जिस रूप में रहा जाए, सभी समय उनकी पूजा होती है। यह दुर्बलों का काम नहीं है, यही वीरभाव है। भगवान शंकराचार्य ने कहा है — "यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम् ” — यह वही अवस्था है। 18/2/23 साधना की विधि गुरु द्वारा जानी जाती है ! ग्रन्थों में किसी भी साधना की विधि को बताने से अनाचार की ही वृद्धि होती है ,क्योंकि साधना की विधि ग्रन्थों में पढ़कर साधक ठीक ठीक नहीं जान सकता ! वह तो गुरु द्वारा ही जानी जाती है ,यही कारण है कि मैंने अपने ग्रन्थों में साधना की विधियाँ नहीं बतलाईं भगवद्गीता में श्री कृष्ण ने कहा है --'' अपाने जुह्यति प्राणं प्राणापानसमानयोः '' अर्थात अपान वायु में प्राण और प्राण वायु में अपान का हवन करना चाहिए ,यह क्रिया बिना बिना गुरु के कोई समझ सकता है ? जबकि गीता तो बहुत लोग पढ़ते हैं । गोपीनाथ कविराज जी💐💐 हमारा प्रत्येक कर्म यज्ञ है । हमारा जो खाना पीना है ,वह भी प्राणाग्निहोत्र यज्ञ है । सब ही यज्ञ है ,सब ही पूजा है । आत्मा ही परमात्मा है , परमात्मा ही आत्मा है । तभी जिसमें परमात्मा का सन्तर्पण होता है ,वही परमात्मा का तृप्तिसाधक है ,और उसकी जिससे तृप्ति होती है , वही है आत्मतृप्ति का उपकरण । दोनों में जो कल्पित विरोध तथा भेद परिलक्षित होता है ,वह है अविद्या मूलक । जैसे स्वयं कुछ भोगार्थ ग्रहण करने पर वह बंधन का कारण होता है । किन्तु स्वयं ग्रहण न करके वह परमात्मा को समर्पित कर दिया जाय ,तथा वह उनकी दृष्टि से पवित्र होकर साधक द्वारा गृहीत हो ,हमारे पास प्रसाद रूप से प्राप्त हो ,तब उससे बंधन तो होता ही नहीं ,प्रत्युत वह बंधन मुक्ति का कारण हो जाता है । यही है कर्मगत कौशल । इसप्रकार मनुष्य कर्म स्तर से ज्ञान स्तर पर स्वयं उन्नीत होता है । इस ज्ञान स्तर में कुछ समय संचरण करते - करते स्पष्ट ज्ञात होता है कि अचेतन गुण स्वयं संचारित होकर कर्म नहीं कर सकते । प्रकृति द्वारा ही सब कर्म निष्पन्न होते हैं । साधना का प्रारूप साधनपथ पृष्ठ 137 आज योगदा सत्संग मंडली में शिवाभिषेक में गोमुखी शृंगी से अभिषेक किया। गो का अर्थ इंद्रिय भी है। इंद्रियां रूपी गौमुख से रुद्राष्टाध्यायी पाठ के बीच तैलधार अभिषेक से स्पष्ट हुआ कि संसार जो इंद्रियों में बसा हुआ है, वह निरन्तर प्रवाहित होकर शंकर में लीन हो रहा है। अतः हमारे मन शिव संकल्प संयुक्त हों। यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति । दूरंगमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।। (शुक्लयजुर्वेद, ३४, १) जो मानव मन व्यक्ति के जाग्रत अवस्था में दूर तक चला जाता है और वही सुप्तावस्था में वैसे ही लौट आता है, जो दूर तक जाने की सामर्थ्य रखता है और सभी ज्योतिर्मयों की भी ज्योति है, वैसा मेरा मन शान्त, शुभ तथा कल्याणप्रद विचारों का होवे ।🙏 मनः कृतं कृतं लोके न शरीरं कृतं कृतं । जग में मन द्वारा किया हुआ ही कृत कर्म है, न कि शरीर द्वारा किया हुआ । 21/2/23 घोर अहंकार, लोलुपता और ईर्ष्या में डूबा समाज कितना उत्थान कर सकता है, उतना ही, जितना उससे वह बाहर आ पाए...यह वृत्तियाँ ही हमारी असल चुनौतियाँ हैं... 21/2/22 की फ़ेसबुक पोस्ट मातृभाषा आंखों के समान है और दूसरी भाषाएँ चश्मे की तरह। आंख जितनी सही होगी, चश्मा उतना अच्छा काम करेगा..#अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस 24/2/23 'तुममें सत्य के प्रति जितनी आस्था है,उससे अधिक भय और संकोच है.....भय और संकोच तुम्हें सत्य का पक्ष नहीं लेने देंगे….. सत्य बड़ा महसूल चाहता है।' -पं.हजारीप्रसाद मार्गे मार्गे निर्मलं ब्रह्मवृन्दं वृन्दे वृन्दे तत्त्वचिन्तानुवाद:। वादे वादे जायते तत्वबोध: बोधे बोधे भासते चन्द्रचूड:॥ पूर्वाम्नाय गोवर्धन मठ, पुरी, उड़ीसा ।। शंकरभारती विजयते।।। *५* क्रमशः......... हमारे ठाकुर( श्रीरामकृष्ण परमहंस ) कहते हैं ..."भाई गुड़ खा लिया किसी गूंगे ने अब कोई स्वाद पूछे कि कैसे लगा ? वह क्या करेगा ? आनंद से विह्वल होकर नृत्य करेगा... खुशी के मारे रोएगा...या उस स्रोत को खोजने दौड़ पड़ेगा जहाँ से एक बार यह स्वाद प्राप्त किया..." बस हमारी उपनिषदें भी इसी तथ्य को ही उद्घाटित करती हैं। जिसने उस ब्रह्म का साक्षात्कार किया वह वर्णन कैसे करे? " विज्ञातारमरे केन विजानीयात् " बृहदारण्यकोपनिषद् ( २.४.१४) याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी से सरलता में कहा - "अरे जिसके द्वारा सब विश्व जाना जाता है उस जानने वाले को कैसे जाना जाय?" वह आत्मा जिसके द्वारा ज्ञान प्राप्त होता है उसके विषय में कैसे जाने ....सब कुछ देखने वाली आँखों को कैसे देखें? सृष्टि के प्रारंभ से इसी प्रश्न के इर्द गिर्द 'विश्वमेधा' चिंतन का तान बाना बुन रही है..... ~~विज्ञातारमरे केन विजानीयात्~~ और सभी मौन...... जिन्हें ब्रह्म साक्षात्कार हो गया उसकी स्थिति के बारे में अवश्य कहा गया... "ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति" मुण्डकोपनिषद् (३.२.९) जो ब्रह्म को जान लेता है वह ब्रह्म ही हो जाता है। "तदेतद् ब्रह्मापूर्वमनपरमनन्तरमबाह्यम् अयमात्मा ब्रह्म सर्वानुभूः" बृहदारण्यक (२.५.१९) अर्थात् ब्रह्म के पहले कोई नहीं ...बाद भी कोई नहीं.. मध्य भी कोई नहीं.... न भीतर न बाहर कुछ... यह आत्मा ही ब्रह्म है ,दृष्टा , मन्ता, श्रोता, बोद्धा ,जानने वाला और बताने वाला है ...... तब कौन किसे क्या बताए? याने कि - वही गूँगे का गुड़ ..... जो खाए वही जाने.....

Friday, February 3, 2023

जनवरी 2023

१/१/२३ काल की अखंडता में सौंदर्य का दर्शन क्षण क्षण ही हो पाता है। एक क्षण से दूसरे क्षण के बीच को संधि काल कहते हैं। यह सदा नया रहता है। इसी का संधान व्यक्ति करता जाता है। नव और कुछ नहीं होना ही है, यह क्रियात्मक रूप में ग्रहणशील है। इस सतत हुबपन के हम ग्राहक बनें। आप सबको आंग्ल नववर्ष मंगलमय हो। यह आंग्ल नववर्ष भले हो, पर इसे सनातनी अपनी परंपरा में ढालकर मनाते हैं। पश्चिम में इस दिन मदिरापान करते हैं और नाचगान करके उत्सव मनाते हैं, जबकि यहाँ लोग मंदिरों में जाकर इस संधिकाल के साक्षी बनते हैं... क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदैव रूपं रमणीयतायाः। ४/१/२३ There are no absolute truths. Everything changes. Keep mind open and swim like a fish in the ocean of change ! ६/१/२३ नाद का अभ्यास ही वस्तुतः कर्म है। यही ज्ञान में पर्यवसित होता है। जब तक नाद स्वतः सिद्ध भाव से स्फुरित नही होता तब तक मन को संलग्न करने का कोई आधार नही है। नाद के अलावा मन को शुद्ध करने का कोई दूसरा उपाय नही है। नाद के प्रभाव मन की आवर्जना दूर होते होतें मन सूक्ष्म अवस्था प्राप्त करता है। नाद चैतन्यमय है चैतन्यमय का अवलंबन किये बिना मन को निरोध करने की चेष्टा तमोभाव और जड़त्व को आह्वान करना मात्र है। एक बार शुद्ध नाद का आश्रय पाने और उसे बराबर पकड़े रहने पे मन की मलिनता दूर हो जाती है। 🌹🌺💐🥀🌷 (सनातन साधना की गुप्त धारा) दिखने के लिए कुछ होना ज़रूरी है होने के लिए सब खोना ज़रूरी है। सुंदर! तिरोहिता❤️ ८/१/२३ दोहा यह रहस्य रघुनाथ कर बेगि न जानइ कोइ। जो जानइ रघुपति कृपाँ सपनेहुँ मोह न होइ॥ तुलसी दास जी पर नारी निंदा का आरोप लगाये जाते हैं। वस्तुतः गुरुदेव की कृपा के बाद अब अनुभूति हुई कि नारी माया और शक्ति दोनों रूपों में है। ज्ञानोपलब्धि पर मायारूपी नारी शक्तिस्वरूपा हो जाती है। यह भेद ना जानने के कारण व्यक्ति तुलसीदास जी के इस प्रकार के काव्य का वास्तविक अर्थों में अवगाहन नहीं कर पेट हैं। आजकल ध्यान एक लहर बन जाता है। समुद्र में जैसे लहरों का उठना गिरना चलता है, वैसे ही अनुभूति ध्यान की गहराई में होने लगती है। देह मन और बुद्धि की चेतना से पार एकतान सागर में गोता लगा हुआ। यह जानने वाला ही ईश्वरंश है। प्रणवो धनु: शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते। अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत॥" भावार्थ -- प्रणव धनुष है, आत्मा बाण है और ब्रह्म उसका लक्ष्य कहा जाता है। उसका सावधानी पूर्वक वेधन करना चाहिए और बाण के समान तन्मय हो जाना चाहिए। कठोपनिषद https://hi.bharatpedia.org/wiki/%E0%A5%90 ९/१/२३ एक काम से दूसरे काम के बीच हम क्या सोचते हैं, हमारी ख़ुशी और सुख उस पर निर्भर करता है। अगर हम उस अंतराल में आनंदित हैं तो सुखी हैं, और यदि चिंतित हैं तो दुःखी हैं। 11/1/23 सुख के तीन दुःख होते हैं। उसे पाने का दुःख, संजोए रखने का दुःख और छूटने का दुःख। बुद्ध १४/१/२३ रिवर्सल ऑफ़ माइंड इज नमः... लक्ष्मी वह अच्छी जो स्वतः आए और अध्यवसाय के लिए निविष्ट की जाए। सरस्वती वह अच्छी जो अध्यवसाय पूर्वक प्राप्त हो किंतु जन समूह में स्वतः प्रकाशित होती रहे। स्वाभाविक रूप में लक्ष्मी का आना भला और सरस्वती का जाना भला। 15/1/23 प्राचीन भारतीय ऋषियों द्वारा दी गई यह कितनी विलक्षण व्यवस्था है कि हज़ारों वर्षों पूर्व तक जब कोई यातायात का साधन नहीं था , उस समय सुदूर देश के कोने कोने में मकर संक्रांति का पर्व एक ही समय मनाया गया। यह सूर्य में राशि परिवर्तन भिन्न भिन्न नामों से भारत भर में लक्षित किया गया। सनातन काल से यह पर्व अन्य सभी पर्वों से अधिक व्याप्त देखा जा रहा है। देश और दुनिया में अलग अलग कैलेंडर हैं, उनमें बहुत सी भिन्नताएं हैं, किसी का वर्ष कभी शुरू होता है तो किसी का अन्य ऋतु में, पर मकर संक्रांति पर सबकी काल गणना एक हो जाती है। अंग्रेज़ी कैलेंडर से प्रतिवर्ष १५ जनवरी (पहले १४ जनवरी) को यह पर्व घटित होता है। एक दो दिन के अंतराल से यह कहीं लोहड़ी, कहीं खिचड़ी, कहीं उत्तरायण तो कहीं पोंगल इत्यादि नामों से मनाया जाता है। तरह तरह के ख़ान पान से भी यह त्योहार विशिष्ट हो जाता है। स्नान दान की परंपरा इस अवसर पर हिंदी क्षेत्र में दिखती है, स्नान यानि अपने को ताजा करना, अज्ञान को बहाना और ज्ञान में विलीन होना। अज्ञान से उत्तीर्ण होने के कारण पढ़े लिखे लोग विश्वविद्यालय से स्नातक और परा स्नातक उपाधि पाते हैं। संक्रांति या पोंगल के अवसर पर तमिलनाडु में गोदा नाम की अंदाल भक्त महिला ने जो कृष्ण परंपरा के गीत गाए हैं, वही मथुरा में सुनायी देते हैं, कृष्ण भक्ति के यही गीत गुजरात में तो असम में भी गाए जाते हैं... बुंदेली में सक्रांत गीत (एक तरह से अर्चना गीत या अचरी) इस अवसर पर गाने की परंपरा रही है... वर्ण रंग को कहते हैं। सृष्टि रंगों में परिलक्षित होती है। हिमालय की हिमाच्छादित चोटी पर सूर्य की जब पहली किरण पड़ती है तो विभिन्न रंग बिखरे हुए दिखते हैं, यह छटा दर्शनीय होती है। इन वर्णों से ही शब्द वर्णन आया है। रंग दर्शन और उनकी व्याख्या को वर्णन कहते हैं। वर्ण व्यवस्था सृष्टि उद्गम की भिन्न भिन्न दशाओं का नामकरण है। इसी को दुनिया में अन्यत्र रंग भेद के रूप में देखा जाता है। सृष्टि उत्पन्न होने पर भेदमूला है, अव्यक्त रूप में वह अभेदमूला है। इस भेदाभेद का सम्यक् दर्शन न करने के कारण ऊँच-नीच और विषमता फैल जाती है। गोस्वामी तुलसी दास जी की मानस की कतिपय चौपाइयों को हमें इसी आलोक में देखना श्रेयस्कर है। हमारे भीतर चारों वर्ण हैं, उनका क्रमिक विकास होता रहता है। वर्ण दशा के विकास क्रम में शूद्र को ताड़ने की आवश्यकता रहती ही है। अब आप ताड़ने का जो भी अर्थ ग्रहण करें, उससे कोई समस्या नहीं होगी। नारी अज्ञान का प्रतीक है, ज्ञान दशा में वही शक्तिस्वरूपा है। नर सृष्टि में जब माया का प्रभाव आत्यंतिक रूप से मनुष्य पर छा जाता है तो इसे नारी कहते हैं। नारियल में यह 'नारी' झांक रहा है। नारियल भीतर से कोमल होते हुए भी बाहर कितनी कठोरता से आवृत रहता है। माया का आवरण कठोर अवश्य है, पर अभेद्य नहीं। उसका भेद पा जाने पर वह सुस्वादु और पौष्टिक लगने लगती है। तुलसी ने इसी अर्थ में नारी को लेकर बातें की हैं, शूद्रों की ही भाँति उन्हें लेकर भी परेशान होने की आवश्यकता नहीं है। तुलसी ही नहीं, अन्य संतों की बानी भी इसी भाँति कही गई हैं। वस्तुतः सिद्धों और संतों की बातों में जब हम समाज सुधार के तत्व देखना चाहते हैं तब शूद्र और नारी को लेकर आयी बातों की वास्तविक सच्चाई जानने की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। संतों की बानियाँ समाज सुधार के लिए नहीं, व्यक्ति के रूपांतरण के लिए कही गई हैं। व्यक्ति के रूपांतरण होने पर समाज सुधार स्वयमेव हो जाएगा। और वे व्यक्ति के रूपांतरण के लिए भी नहीं कही गई, वरन् स्वान्तः सुखाय व्यक्त आनंदोच्छलन हैं। जिसको समझ न आ पा रही हों, तो उन्हें एस्केप कर जाइए। जब आयेंगी, तब आ ही जायेंगी। हमें भी पहले लगता था यह तुलसी बाबा क्या कह गये हैं, पर जब जितनी समझ आएगी, चीजें वैसी ग्रहण हो पाएंगी न! एक शिष्य का काम है गुरु को संतुष्ट करना। पर जो स्वयं तृप्त हैं उन्हें कैसे संतुष्ट किया जाये? श्री श्री रविशंकर २०/१/२३ बागेश्वर धाम सरकार पंडित धीरेंद्र कृष्ण जी को नेशनल मीडिया चैनलों पर समाचार के रूप में देखा । एक लंबे और लाइव कार्यक्रम में उन्हें सुना। उनके विभिन्न चमत्कारों पर यदा-कदा पहले भी उन्हें सुनते आए हैं। उनकी प्यारी और बेलौस बोली बुंदेली सुनकर अच्छा लगता है। पतंजलि योगसूत्र में विभिन्न सिद्धियों का वर्णन मिलता है। कोई मनुष्य उन सिद्धियों को प्राप्त कर सकता है। पर पंडित धीरेंद्र कृष्ण जी लोगों को सिद्धियों में बहलाना नहीं चाहते, वे तो भगवान और हनुमान जी का भक्त बनने की सतत प्रेरणा देते हैं। लोग उनके चमत्कारीं पर केंद्रित हो रहे हैं। अस्तु! मेरी तो कामना है शीघ्र वे इस प्रकार अपनी सिद्धियों का दर्शन कराना बंद कर दें। जनता को ज्ञान, भक्ति और कर्म के मार्ग पर चलना श्रेयस्कर है। चमत्कारों का भविष्य नहीं होता, न उनकी समाज में उपयोगिता है। यह सतही चमत्कार हैं, हमें इनसे आगे और गहरे चमत्कारों से जुड़ना चाहिए, जो हर प्राणी के साथ हर क्षण घटित हो रहे हैं.... पंडित जी के ऐसे आशय को जनता समझे तो कितना अच्छा हो.... २२/१/२३ श्रद्धा और विश्वास में अंध उपसर्ग लगाने से उनका अर्थ हनन हो जाता है। श्वास या सांस की विशिष्टता विश्वास है। श्वास केवल नाक से नहीं ली जाती, सारा शरीर और उसका पोर-पोर साँस लेता है। केवल नाक खोल दें और शेष शरीर बंद कर दें तो कहते हैं व्यक्ति तीन दिन से अधिक जीवित नहीं रह सकता। विश्वास और श्रद्धा बहुत बड़ी अर्थवत्ता के शब्द हैं। इन शब्दों के पहले अंध लगाने से उस अर्थवत्ता की ऊँचाई सोचनी कठिन हो जाती है। जब विश्वास और श्रद्धा का उदय हो जाता है तब अंधता और सूझता का स्थान ही नहीं रह जाता। व्यक्ति प्रकाशमय हो जाता है। अतः अंधविश्वास और अंधश्रद्धा जैसे शब्दों का कोई मूल्य नहीं है। यह वैसे ही है जैसे कोई कहे कुटिल भगवान, दुष्ट ईश्वर। भगवान और ईश्वर के आगे विशेषण रखने का कोई अर्थ नहीं। अंधविश्वास अंग्रेज़ी सुपरस्टीशन का प्रतिरूप रखा गया शब्द है। अंध श्रद्धा ब्लाइंड फेथ है। परंतु श्रद्धा फेथ नहीं है। श्रद्धा और विश्वास की ध्वनि और अर्थ, प्रयोग और परंपरा पर विचार किए बिना इसमें अंध लगा दिया गया। कहा गया है- भवानी शंकरौ वंदे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ। याभ्यां विना न पश्यंति सिद्धाः स्वान्तः स्थमीश्वरं॥ मैं भवानी और शंकर की वंदना करता हूँ, जो श्रद्धा और विश्वास के रूप में सबके हृदय में निवास करते हैं। बिना श्रद्धा और विश्वास के सिद्ध भी अपने अंदर बैठे ईश्वर को नहीं देख सकते हैं। विशेषण का अर्थ संज्ञा पर आरोपित करने से संज्ञा का सत्व तिरोहित हो जाता है.... अंधश्रद्धा और अंधविश्वास डिल्यूज़न, जिसे माया समझा जाता है, उसे ही कहा जाना चाहिए। उक्त बातें तब के लिए हैं जब व्यक्ति तर्क और आस्था का समुचित प्रयोग करना जान ले। २३/१/२३ आजकल सोते समय और जागते समय एक एक घंटा ध्यान और क्रिया हो रही है। स्टिलनेस में चक्रों में सहस्रार तक सुरसुरी चलती रहती है। कभी कभार क्या अक्सर यह स्थिति ध्यान के बिना भी रहती है। एक आनंद, निरालंबन, तुष्टि और निश्चिंतता। पढने के बाद लिखना और लिखने के बाद पढ़ना जिसने न किया उसका पढ़ना लिखना ब्यर्थ है। लेकिन कई गुना पढने के बाद ही कुछ लिखने की योग्यता पैदा कर सकता है। आत्माभिव्यक्ति के लिए भी लिखने का कौशल चाहिए। फेस बुक और अन्य सोशल साइट्स सबको मंच दे रहे हैं। अवश्य लिखे। मन की लिखें। २३ जनवरी २०१५ की फ़ेसबुक पोस्ट २७/१/२३ उच्चतम चेतना की दशा में स्त्री माता हो जाती है, निम्नतम चेतना में वह भोग्या लगती है। आदि शंकराचार्य, रमण महर्षि इत्यादि ऋषिगण ने ऐसे ही संकेत अपने उद्बोधनों में किए हैं। उच्चतम चेतना में शाकाहार और मांसाहार का अंतर नहीं रह जाता। कौन किसका आहार कर रहा है? अन्न हमारा और हम अन्न का आहार करते हैं। हम ही जब अन्न हैं तो क्या शाक और क्या मांस। उच्चतम दशा में यम नियम स्वयं घटित हो जाते हैं। या कह सकते हैं ऐसी अवस्था में जो कुछ हो रहा होता है वही यम और नियम हैं। किंतु यहाँ तक समझ ले जाने के लिए हमें संस्कृति के विभिन्न तत्वों से होकर गुजर जाना होता है। धर्म यहाँ महती भूमिका निभाता है, फिर जब छत पर पहुँच जाते हैं तो व्यक्ति अधार्मिक होकर रह ही नहीं सकता। the dancer is that who conceals his real nature. When you conceal your real nature of your Being and reveal another formation of your being to the public, that is the dancer, that is the way of dancing. २८/१/२३ योग वासिष्ठ में वसिष्ठ राम से कहते हैं यह सृष्टि 76 बार बनी है और तुम भी 76वे राम हो। योग वासिष्ठ के आधार पर हॉलीवुड में एक फ़िल्म 1999 में The Matrix बनी है। इसमें आता है Let me tell you why you are here. You are here because you know something. What you know you can’t explain, but you feel it. You felt it your entire life. You don’t know what it is, but it is there, like a splinter in your mind. It is this feeling that has brought you to me. Do you know what I’m talking about? The Matrix. Do you want to know what it is? The Matrix is everywhere, all around us, even now in this very room. Unfortunately no one can be told what the Matrix is. You have to see it for yourself.. २८ जनवरी २०२१ फेसबुक पोस्ट

Thursday, January 5, 2023

दिसंबर २०२२

३/१२/२२ You will learn by reading, But you will understand with LOVE. Rumi Silence is an ocean. Speech is a river. When the ocean is searching for you, don’t walk into the river. Listen to the ocean. Rumi ६/१२/२२ शताक्षरी मंत्र - ‘‘|| ह्लीं ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ग्लौं ह्लीं वगलामुखि स्फुर स्फुर सर्व-दुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय स्तम्भय प्रस्फुर प्रस्फुर  विकटांगि घोररुपि जिह्वां कीलय महाभ्मरि बुद्धिं नाशय विराण्मयि सर्व-प्रज्ञा-मयी प्रज्ञां नाशय, उन्मादं कुरु कुरु, मनो-पहारिणि ह्लीं ग्लौं श्रीं क्लीं ह्रीं ऐं ह्लीं स्वाहा ७/१२/२२ दो स्वरों के बीच एक महीन सुर को श्रुति कहते हैं। इसे साधारण कानों से नहीं सुना जा सकता। जो मुझे समझ सका उसे हक़ है मुझे बुरा कहने का, जो मुझे जान लिया वह मुझ पर जान देता है। ७/१२/२२ spiritual discipline is man's real work. ९/१२/२२ Talk 231. A visitor asked: ‘What is mouna (silence)?’ Maharshi.: Mouna is not closing the mouth. It is eternal speech. Devotee: I do not understand. Maharshi: That state which transcends speech and thought is mouna. Devotee: How to achieve it? Maharshi: Hold some concept firmly and trace it back. By such concentration silence results. When practice becomes natural it will end in silence. Meditation without mental activity is silence. Subjugation of the mind is meditation. Deep meditation is eternal speech. Devotee: How will worldly transaction go on if one observes silence? Maharshi: When women walk with water pots on their heads and chat with their companions they remain very careful, their thoughts concentrated on the loads on their heads. Similarly when a sage engages in activities, these do not disturb him because his mind abides in Brahman. Talk 232. The Master said on another occasion: “Only the sage is a true devotee.” - Talks with Sri Ramana Maharshi. Talk 231 & 232. अर्थ उतना उपयोगी जितने में उससे उपराम हो जाए. पेट भरने के लिए आवश्यक अर्थ तो प्राप्त हो ही जाता है. अतः अर्थ की सीढ़ी पर चढ़ते जाएं चढ़ते जाएं, वहां तक जहां से उसकी आवश्यकता तिरोहित होने लगे. परिवर्तन ही दुःख है। परिवर्तन अवश्यंभावी है। परिवर्तन को देखना न दुःख है, न सुख, वह तो परिवर्तन के साथ होना भर है। यह होना ही संसार है और न होना शिव है। सबके साथ और सबमें होना भी शिव है। यहां शिव और शक्ति का साहचर्य है, उनके सामरस्य में शिव और शक्ति दोनो निविष्ट हैं। हों सॉ में एक से सांस आ रही, दूसरे से जा रही है, अं ही पर्दा है, क्योंकि आने जाने वाली सांस तो एक ही है। वह एक जगह से ही आ रही है और वहीं पहुंच भी रही है। १२/१२/२२ झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें॥ जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई॥1॥ जिसके बिना जाने झूठ भी सत्य मालूम होता है, जैसे बिना पहचाने रस्सी में साँप का भ्रम हो जाता है और जिसके जान लेने पर जगत का उसी तरह लोप हो जाता है, जैसे जागने पर स्वप्न का भ्रम जाता रहता है। यश्च मूढतमो लोके यश्च बुद्धे: परं गत:।
तावुभौ सुखमेधेते क्लिश्नात्यन्तरितो जन:॥ श्रीमद्भागवतम् Only the one who is totally ignorant and the other who has transcended body awareness are happy in this world. The person different from these two categories suffers to a large extent. संसार में जो अत्यंत मूढ़ हैं और जो देहबुद्धि के परे जा चुका हो, इन दोनो तरह के लोग सुखी रहते हैं। परंतु जो इन दोनों तरह के व्यक्तियों से अलग हैं, वह दुखी रहता हैं। ज़िंदगी समझ में न आए तो मेले में अकेला! ज़िंदगी ग़र समझ आये तो अकेले में मेला। i "इच्छामात्रं प्रभो: सृष्टि:” अर्थात इच्छा मात्र से ही सृष्टि होती है। इच्छा का उदय होने से ही सृष्टि का उदय होता है। किंतु किसकी इच्छा? वह है, आत्मा की इच्छा.. आत्मा है शिव स्वरूप अर्थात सत्, चित‌्, आनंद स्वरूप.. इसमें चित‌् और आनंद सदा स्फुरित होते रहते है। आनंद में क्षोभ होने से ही इच्छा का आविर्भाव होता है। अगर आनंद क्षुब्ध नहीं है, तो किसी भी प्रकार की इच्छा प्रकट नहीं हो सकती। अर्थात चरम दृष्टि से आनंद ही सृष्टि का मूल है। परमेश्वर अपनी तिरोधान शक्ति के कारण ही वे स्वातंत्र्यवश आत्म–संकोच करके जीवभाव ग्रहण करते है। यह उनकी निरपेक्ष स्वाधीन इच्छाशक्ति से होता है। उन्होंने जीवभाव क्यों ग्रहण किया? शास्त्र कहते है.. यह उनकी स्वातंत्र्यवश लीला के कारण होता है.. अर्थात जब वे इच्छा करते है, तब यह सृष्टि प्रकाशित होती है। 🙏🌹 जय गुरु १३/१२/२२ उड़ जाएगा हंस अकेला,जग दर्शन का मेला, जैसे पात गिरे तरुवर से,मिलना बहुत दुहेला, ना जाने किधर गिरेगा,लगाए पवन का रेला, जब होवे उम्र पूरी,जब छूटेगा हुकुम हुज़ूरी, जमके दूत बड़े मज़बूत, जम से पड़ा झमेला,  दास कबीर हर के गुण गावे,वा हर को पारण पावे, गुरु की करनी गुरु जाएगा, चेले की करनी चेला। 18/12/22 संस्कृत दक्षिणा शब्द के अनेक अद्भुत अर्थ हैं। द का अर्थ अर्पित करना या देना क्षि का अर्थ निवास करना या उसमें रहना और णा सूचित करता है ज्ञान को। अतः दक्षिणा वह भेंट है जो एक शिष्य अपने गुरु को अर्पित करता है और जिसके द्वारा वह उस ज्ञान में प्रतिष्ठित हो जाता है जो उसे प्रदान किया गया है। दक्षिणा श्रद्धापूर्वक लेने और देने का भाव है। इसी अर्थ के आसपास दक्षिणा के सारे अर्थ घूमते हैं। एक शब्द का एक ही अर्थ होता है, वह तो समय के साथ यात्रा करते हुए अनेक अर्थों में विभक्त हो जाता है। दक्षिणा अर्पित करने से गुरु शिष्य संबंध शाश्वत बना रहता है। प्रदक्षिणा का उद्देश्य भी इस संबंध को सनातन बनाने से है। दक्षिण धर्म अगर वामाचार के उलट देखें तो अभीष्ट धर्म है। दक्षिणामूर्ति भगवान सदाशिव और गुरु के लिए कहा गया है। दक्ष प्रजापति का सिर बकरे का है। बकरे की बलि देने की प्रथा रही है, वह भी अर्पित करना है। दक्ष का अर्थ निष्णात या चतुर होता है। दक्ष प्रजापति ने देवता, मनुष्य और असुर तीनों को द दिया, एक ही शब्द से तीनों ने अपने अपने गुण धर्म और आवश्यकता के अनुसार उसका अर्थ ग्रहण किया। देवताओं ने इसका अर्थ लिया दमन यानि आत्म संयम, मनुष्यों ने दान से इसका अर्थ लिया तो असुरों ने दया से इसे समझा। यही अर्थ दक्ष प्रजापति समझाना चाहते थे। दक्षिणा देने का भाव आने मात्र से व्यक्ति परम ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है। छांदोग्य उपनिषद् में सत्यकाम जाबाल की इस कथा से यह स्पष्ट हो जाता है। अत्यंत निर्धन लेकिन सद्गुणों से सम्पन्न एक स्त्री थी ,जिसका नाम जबाला था। उसके एक पुत्र था, जिसे सभी सत्यकाम कहते थे। एक दिन उसके मन में गुरुकुल में रहकर शिक्षा ग्रहण करने की इच्छा पैदा हुई। वह चाहता था कि परमपिता परमात्मा के विषय में वह जाने। उसने अपनी माता से अपनी इच्छा प्रकट की। माँ बहुत प्रसन्न हुई और उन्होंने सहर्ष गुरुकुल में अपने पुत्र को जाने तथा अध्ययन करने की स्वीकृति प्रदान कर दी। जिस समय सत्यकाम जाने लगा, उसने अपनी माता से पूछा, 'यदि आचार्य उससे उसका गोत्र पूछेंगे तो वह क्या जवाब दे, क्योंकि उसने तो अपने पिता को देखा ही नहीं है और न उसका गोत्र ही वह जानता है। माँ बोली, 'बेटे, मुझे भी तुम्हारे गोत्र का पता नहीं है, क्योंकि जब तुम पैदा हुए थे तो घर अतिथियों से भरा रहता था। मैं सारे दिन उन्हीं की सेवा में लगी रहती थी, तुम्हारे पिता भी इतने व्यस्त रहते थे कि मुझे कभी यह फुर्सत ही नहीं मिली कि उनसे उनका गोत्र पूछ सकूं। इसलिए तुम अपने आचार्य से इतना कह देना कि मैं अपनी माँ जबाला का पुत्र सत्यकाम हूं।' सत्यकाम इस उत्तर से सतुष्ट होकर आश्रम के लिए चल पड़ा। वह हारिद्रमत गौतम के आश्रम में पहुँचा और उनसे परमपिता परमात्मा को जानने की शिक्षा देने का आग्रह किया। ऋषि ने उससे उसका गोत्र पूछा। ब्राहाण बालक ने माँ के द्वारा बताया गया वही उत्तर कि वह 'सत्यकाम जाबाल' है, बता दिया तथा बोला कि उसे अपने गोत्र का ज्ञान नहीं है। ऋषि उसके सत्य बोलने पर अत्यन्त प्रसन्न हुए और बोले, 'तुम किसी बहुत ही सज्जन माता-पिता की संतान हो, अतः जाओ, पहले कुछ समिधाएं लेकर आओ ताकि मैं तुम्हारा उपनयन संस्कार करूं, फिर शिक्षा की बात करेंगे।' इस संस्कार द्वारा सत्यकाम को उन्होंने यज्ञोपवीत (जनेऊ) धारण करवाया तथा अपने आश्रम में रख लिया। कुछ दिनों बाद उन्होंने आश्रम की गायों में से चार सौ दुर्बल गांए छांटी और उन्हें सत्यकाम को सौंपते हुए कहा, 'वत्स! इन गायों को लेकर पास के ही वन में चले जाओ और जब यह बढ़कर पूरी हो जाएं तब वापस आना। उस समय मैं तुम्हें ब्रह्म के विषय में बताऊंगा।' सत्यकाम तुंरत तैयार हो गया और उन गायों को लेकर वन में चला गया। दिन, माह और वर्ष बीतते चले गए लेकिन सत्यकाम को गुरु की आज्ञापालन अर्थात गौओं की सेवा के अतिरिक्त और कोई काम नहीं था। वह चौबीस घंटे, दिन और रात गायों का ध्यान रखता। उनकी सुरक्षा और उनकी देखभाल यह उसकी तपस्या थी। हिंसक जानवरों से उन्हें बचाना तथा उनकी भूख-प्यास का ध्यान रखना यही उसका धर्म, पूजा-पाठ तथा योग साधना थी। जब एक जगह की घास समाप्त हो जाती तो वह उन्हें लेकर दूसरी जगह पहुँच जाता और वहीं डेरा डाल देता। उसके पास रहने का कोई स्थान नहीं था। वृक्षों के साए और गुफ़ांए ही उसका घर थे तथा शरीर पर जो वस्त्र पहन कर वह चला था वही उसके वस्त्र थे। भोजन का कोई ठिकाना न था। गायों का दूध और जंगल के फल ही उसका भोजन थे। धीरे-धीरे समय के साथ-साथ गायों की संख्या भी बढ़ रही थी और एक दिन उसने देखा कि गायों की संख्या पूरी एक हज़ार थी। सभी गाएं स्वतत्रं विचरण, जंगल की खुली हवा तथा नदियों के स्वच्छ पानी एवं हरी-भरी ताजा घास-फूस खाने के कारण पूरी तरह स्वस्थ हो गई थीं। अब सत्यकाम उन्हें लेकर अपने गुरु के आश्रम की ओर चल दिया। गायों का निंरतर ध्यान, शुद्ध एवं शांत वातावरण, गौदुग्ध एवं फलों के आहार ने सत्यकाम को पूरी तरह एकाग्र एवं अतंर्मुखी बना दिया था। एकाकी रहकर दिन रात गायों का ध्यान एवं सेवा रूपी तपस्या से सभी ब्रह्म के विषय में उपदेश दिए। सर्वप्रथम एक सांड गायों में से ही आया फिर अग्निदेव, हंस तथा जलमुर्ग एक-एक करके उसके पास आए और बताया कि इस सारी सृष्टि इस ब्रह्माण्ड का रचयिता ब्रह्म कौन है। उन्होंने उसे साक्षात अनुभव भी कर दिया तथा अन्तर्धान हो गए। सत्यकाम के चेहरे पर ब्रह्मज्ञान का अनुभव करके एक तेज़ प्रकट हुआ। उसके नेत्रों में चमक और वाणी धीर-गम्भीर हो गई। उसकी चाल-ढाल बदल गई। जब वह गायों को लेकर आश्रम में पहुँचा और उसने अपने आचार्य के चरण छूकर बताया कि गायों की संख्या उनके आदेशानुसार एक हज़ार हो गई है तथा वे सभी स्वस्थ, नीरोगी एवं ह्रष्ट-पुष्ट हैं। आचार्य अत्यन्त प्रसन्न हुए। उन्होंने उसके चेहरे के तेज़ और आंखों की चमक को देखा और आश्चर्यचकित रह गए। सत्यकाम के यह कहने पर अब आचार्य उसे ब्रह्मज्ञान का उपदेश करें। आचार्य ने कहा, 'अब तुम्हें उसकी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि तुम्हारे चेहरे से यह ज्ञात होता है कि तुम्हें सत्य का ज्ञान प्राप्त हो गया है। यह बताओ कि तुम्हें किसने सत्य का ज्ञान दिया।' सत्यकाम ने सारी घटना सुनाई और बताया कि कैसे देवताओं ने विभिन्न रूपों में आकर उसे सत्य का उपदेश दिया था, लेकिन वह फिर भी उससे संतुष्ट नहीं है, वह तो अपने आचार्य के मुख से ही सत्य को, ब्रह्म को जानना चाहता है, क्योंकि आचार्य के द्वारा जो विद्या प्राप्त होती है वास्तव में वही श्रेष्ठ है। इस प्रकार उसने देवताओं से भी अधिक अपने आचार्य को महत्त्व प्रदान किया था। इस प्रकार सत्यकाम पूर्ण ज्ञानी होकर वापस अपनी माँ के पास आ गया और शांति एवं संतोष के साथ अपने धर्म का पालन करने लगा । पुष्प अर्पित करना प्रेम करना है। फल भेंट करने का अर्थ है कर्म फल सौंप देना। दक्षिणा गुरु से सदा के लिए जुड़ जाना है। स्मरण रहे, गुरु और ईश्वर भिन्न नहीं हैं। Dakshina Dakshina is one of the four Vedic goddesses of Knowledge, the other three being Ila, Sarama, Saraswati. Ila is Truth vision, Saraswati is Truth audition, Sarama is Intuition and Dakshina gives right discernment. Dakshina in the historical Vedic religion is the term for the recompense paid by the sacrificer for the services of a priest, originally consisting of a cow. The term itself is derived from this, the feminine dakṣiṇā being a term for a cow able to calve and give milk in the Rigveda. Dakshina is personified as a goddess along with Brahmanaspati, Indra and Soma in RV 1.18.5 and RV 10.103.8, तैत्तिरीय उपनिषद् में आता है- श्रद्ध्या देयम्। अश्रद्ध्याsदेयम्। श्रिया देयम्। ह्रिया देयम्। भिया देयम्। संविदा देयम्स। श्रद्धा के साथ दो। अश्रद्धा से कदापि मत दो। प्रचुरता से दो। नम्रता के साथ दो। अत्यंत आदरयुक्त भय के साथ दो। ऐसे हृदय से दो जो संविद् से अर्थात् जगमगाती हुई चिति से परिपूर्ण हो। SERVICE As the vital rays of the sun nurture all, so should you spread rays of hope in the hearts of the poor and forsaken, kindle courage in the hearts of the despondent, and light a new strength in the hearts of those who think that they are failures. When you realize that life is a joyous battle of duty and at the same time a passing dream, and when you become filled with the joy of making others happy by giving them kindness and peace, in God's eyes your life is a success. Sri Paramahansa Yogananda, in a "Para-gram २०/१२/२२ There’s no shame in admitting what you don’t know. The only shame is pretending you know all the answers. २४/१२/२२ हमने बेपर्दा तुझे माहजबीं देख लिया, अब ना कर पर्दा के ओ पर्दानशीं देख लिया, हमने देखा तुझे आंखों की सियाह पुतली में, सात पर्दों में तुझे पर्दानशीं देख लिया, हम नज़र-बाज़ों से तू छुप ना सका जान-ए-जहां, तू जहां जाके छुपा हमने वहीं देख लिया। - Jalaludin Rumi २५/१२/२२ काकचंचु पुटाकारं ध्यानधारणवर्जितम्। विषतत्वमनच्काख्यं तव स्नेहात्प्रकाशितम्।। तंत्रालोक ३/१६९ इच्छाकामो विषं ज्ञानं क्रिया देवी निरंजनम्। ऐतत्त्रयसमावेश शिवो भैरव उच्यते।।३/१७२ ब-१७३ अ when you digest each and every object in voidness, it becomes nothing. when there is nothing, it is full. केन नाम न रूपेण भासते परमेश्वर....१/९१ यतो नान्या क्रिया नाम ज्ञानमेव हि तत्तथा।१/१४९ the energy of action is not separate from the energy of knowledge. in fact, the energy of knowledge has become the energy of action that energy of knowledge has got entry in yoga. yoga is the last state of kriya. last in the sense of when yoga is in its full bloom. योगो नान्यः क्रिया नान्या तत्वारूढ़ा हि या मति। स्वचित्त वासनाशांतौ सा क्रियेत्यभिदीयते।१/१५० शोधना, बोधना, प्रवेशना, तब योजना २६/१२/२२ अ स्वर की रचना के बारे में वर्णोद्धारतंत्र में उल्लेख है। एक मात्रा से दो रेखाएँ मिलती हैं। एक रेखा दक्षिण ओर से घूमकर ऊपर संकुचित हो जाती है; दूसरी बाईं ओर से आकर दाहिनी ओर होती हुई मात्रा से मिल जाती है। इसका आकार प्राय इस प्रकार संगठित हो सकता है। “न भीतो मरणादस्मि, केवलं दूषितो यशः।” Teachings of Sufi Mevlana Jalaluddin Rumi What is poison? He replied with a beautiful answer: Anything which is more than our necessity is poison. It may be Power, Wealth, Hunger, Ego, Greed, Laziness, Love, Ambition, Hate or anything.... What is fear? Non acceptance of uncertainty. If we accept that uncertainty, it becomes adventure...! What is envy? Non acceptance of good in others. If we accept that good , it becomes inspiration...! What is anger? Non acceptance of things which are beyond our control. If we accept , it becomes tolerance...! What is hatred? Non acceptance of person as he is. If we accept person unconditionally, it becomes love...! २७/१२/२२ we achieved true cosmic vision only after seeing the unseeable. neil degrasse tyson काकचंच्वा पिबेद्वायु संध्ययोरुभयोरपि। कुण्डलिन्या मुखे ध्यात्वा क्षयरोगस्य शान्तये।।शिवसंहिता ८५ अहर्निश पिबेद्योगी काकचंच्वा विचक्षण। दूरश्रुतिर्दूरदृष्टिस्तथा स्याद्दर्शनं खलु। ८६ काकचंच्वा पिबेद्वायु शीतलं यो विचक्षण। प्राणापानविधानज्ञ स भवेन्मुक्तिभाजन।। ८१ 28/12/22 ये फूल मुझे कोई विरासत में मिले हैं तुम ने मिरा काँटों भरा बिस्तर नहीं देखा! one who acts on this movable and immovable universe, which is unknowable - and casts aside the supreme Brahman, which is knowable-he is absorbed in the unknowable. shiva samhita ५/२१७ स्वे स्वे कर्मनि वर्तंते सर्वे ते कर्म संभवाह। निमित्तमात्र कर्णे न दोषोsस्ति कदाचन।।२२८ ३१/१२/२२ सु प्रदीप्ते यथा वह्नौ शिखा दृश्येत चांबरे। देहप्राणस्थितोsप्यात्मा तद्वल्लीयेत तत्पदे।। श्री स्वच्छंदे देहोत्थिताभिर्मुद्राभिर्यः सदा मुद्रितो बुधः। स तु मुद्राधरः प्रोक्तः शेषा वै अस्थिधारकाः ।। त्रिकसार

Wednesday, November 30, 2022

नवंबर २२

हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्। तत्त्वं पूषन्नपातृणु सत्यधर्माय दृष्टये॥ ईशावास्योपनिषद् श्लोक १५।। अर्थात उस परमात्मा का मुख सोने के चमकदार पात्र से ढका हुआ है। परब्रह्म सूर्यमण्डल के मध्य स्थित है, किन्तु उसकी अत्यन्त प्रखर किरणों के तेज से हमारी ये भौतिक आँखेंं उसे नहीं देख पातीं। जो परमात्मा वहां स्थित है, वही मेरे भीतर विद्यमान है। मैं ध्यान द्वारा ही उसे देख पाता हूं। ६/११/२२ यस्याः प्राप्येत पर्यन्त-विशेषः कैर्मनोरथैः । मायामेकनिमेषेण मुष्णंस्तां पातु नः शिवः ।। ७/११/२२ वर्णमाला देश है और गिनती काल। यह सूत्र रूप में बात ध्यान करते समय उतरी। अभी व्याख्या नहीं हो पाएगी। ८/११/२२ जयानुकम्पादिगुणानपेक्षसहजोन्नते । जय भीष्ममहामृत्युघटनापूर्वभैरव ॥१५॥ न प्रक्रियापरं ज्ञानं! न क्रियारहितं ज्ञानं न ज्ञानरहिता क्रिया। गरीयानकर्मिणो योगी स च ज्ञानवतः शिशु! दश अंगुल पर्यंत वेदोक्त पुरुष सूक्त में है तो द्वादशांत आगम में आता है। यही दोनों का प्रस्थानबिंदु तो नहीं! सिद्धिकामस्य तत्सिद्धौ साधनैव हि कारणम् मुक्तिकामस्य नो किंचिन्निषिद्धं विहितं च नो। तंत्रालोक १५/२९१ सकार सृष्टि का सीत्कार है। स्वाहाप्रत्यवमर्शात्स्यात्समंत्रादद्वयं परं! स्वाहा शिव और शक्ति का मिलन है। यजमान का यज्ञ है। येन सर्वमिदं बुद्धं प्रकृतिर्विकृतिश्च या गतिज्यः सर्व भूतानां तं देवा ब्राह्मणम् विदु 9/11/22 Art is amoral; so is life. For me there are no obscene pictures or books; there are only poorly conceived and poorly executed ones. Every human life had its pattern that had to be worked out slowly to its ultimate conclusion. The real artist while he paints does not think of the sale, only of the need to make a beautiful living thing. A canvas that I have covered is worth more than a blank canvas. My pretensions go no further; that is my right to paint, my reason for painting. In order to paint life one must understand not only anatomy, but what people feel and thing about the world they live in. The painter who knows his own craft and nothing else will turn out to be a very superficial artist. There are neither good nor evil; only the existence and action. You cannot be firmly certain about anything. You can only have enough courage and strength to do what you consider to be right. Maybe it turns out that was wrong, but still you would have done this, and it is most important. Being mad is even pleasant. But only a madman understand that. A person may paint or talk about painting but he cannot do both at the same time. १०/११/२२ जीवन एक प्रसार , एक वृद्धि और एक प्रगति है। xxx वास्तव में वृद्धि का तात्पर्य है समय और स्थान में सब तरफ़ फैलना; और प्रगति का तात्पर्य है सब दिशाओं में समान गति; पीछे भी और आगे भी, और नीचे तथा दाएँ बाएँ और ऊपर भी। अतएव चरम वृद्धि है स्थान से परे फैल जाना और चरम प्रगति है समय की सीमा से आगे निकल जाना। समय स्थान की शिलाओं पर अंकित की हुयी ब्रह्मांड की स्मृति है। प्रसार के लिए सब मनुष्यों को समान भोजन मिलता है, पर उनका खाने और पचाने का सामर्थ्य समान नहीं होता, क्योंकि वे एक ही अंडाणु से एक ही समय और स्थान पर नहीं निकले हैं। समय-स्थान में उनके प्रसार में अंतर होने से कोई दो मनुष्य हूबहू एक जैसे नहीं मिलते। पृष्ठ २३५-२३७ किताबे मीरदाद से विवाद से बचो। सत्य स्वयं प्रमाणित है, जिसे तर्क और प्रमाण के सहारे की आवश्यकता होती है उसे देर सबेर तर्क और प्रमाण के सहारे ही गिरा दिया जाता है। वह प्रेम प्रेम नहीं जो प्रेमी को अपने अधीन कर लेता है! वह प्रेम प्रेम नहीं जो रक्त और मांस पर पलता है। वह प्रेम प्रेम नहीं जो स्त्री और पुरुष को शारीरिक बंधन में रखे। आत्मविजेता हर रक्त के साथ अपने रक्त का संबंध महसूस करता है। इसलिए वह किसी के साथ बंधा नहीं होता। हवा में छोड़ा तुम्हारा श्वास निश्चय ही किसी के फेफड़ों में प्रवेश करेगा। मत पूछो कि फेफड़े किसके हैं। केवल इतना ध्यान रखो की तुम्हारा श्वास पवित्र हो। १२/११/२२ किसी भी परिश्रम के लिए पुरस्कार मत माँगो। जो अपने परिश्रम से प्यार करता है, उसका परिश्रम स्वयं पर्याप्त पुरस्कार है। जो तुम्हारे पास आ जाता है वह तुम्हारा है। जो आने में विलम्ब करता हैवह इस योग्य नहीं कि उसकी प्रतीक्षा की जाए। प्रतीक्षा उसे करनव दो। कभी किसी चीज़ की शिकायत न करो। किसी चीज़ की शिकायत करना उसे अपने लिए अभिशप्त बना लेना है। उसे भली प्रकार सहन कर लेना उसे उचित दंड देना है। किंतु उसे समझ लेना एक सच्चा सेवक बना लेना है। तुम उसी को वश में रखते हो, जिससे तुम प्रेम करते हो, जिससे घृणा करते उसके तो वास में होते हो। जो मर रहे हैं उन्हें जीवन का उपदाह दो, जो जी रहे हैं उन्हें मरने का उपदेश दो किंतु जो आत्मविजय के लिए तड़प रहे हैं उन्हें दोनों से मुक्ति का उपदेश दो। अच्छा मार्गदर्शक बनने के लिए आवश्यक है कि स्वयं अच्छा मार्गदर्शन पाया हो। अपने मार्गदर्शक पर विश्वास रखो। मशाल को ऊँचे स्थान पर रखो, उसे देखने के लिए लीगों को बुलाते न फिरो। किसी मनुष्य से घृणा न करो। एक भी मनुष्य से घृणा करने की अपेक्षा प्रत्येक मनुष्य से घृणा पाना कहीं अच्छा है। प्रभु की खोज में लगे हृदय को सभी रास्ते प्रभु की ओर ले जाते हैं। जीवन के सब रूपों के प्रति आदर भाव रखो। ग़रीबी या अमीरी नाम की कोई चीज़ नहीं। बात वस्तुओं के उपयोग करने के कौशल की है। सबसे अधिक असह्य परेशानी है किसी बात को परेशानी समझना। अपनी पसंद का चुनाव कर लो, हर वस्तु का स्वामी बनना या किसी का भी नहीं, बच का कोई मार्ग संभव नहीं। रास्ते का हर रोड़ा एक चेतावनी है, उसे अच्छी तरह पढ़ लेने पर वह प्रकाश स्तंभ बन जाएगा। शब्द जहाज़ हैं जो स्थान के समुद्रों में चलते हैं और अनेक बंदरगाहों पर रुकते हैं। सावधान रहो की तुम उन्मे क्या लादते हो, क्योंकि अपनी यात्रा समाप्त करने के बाद वे अपना माल आख़िर तुम्हारे ही द्वार पर उतारेंगे। शब्द अधिक से अधिक बिजली की कौंध हैं जो क्षितिजों की झलक दिखाती है, ye उन क्षितिजों तक पहुँचने का मार्ग नहीं हैं, स्वयं क्षितिज तो बिल्कुल नहीं। अगर कौंध की दिशा में बढ़ चले तो शब्द कमज़ोर बुद्धि वाले के लिए बलशाली पंख भर हैं। जबतक तुम समय के खोल को बेध नहीं देते और स्थान की सीमा को लांघ नहीं तब तक कोई यह न कहे मैं प्रभु हूँ। बल्कि सब कहें प्रभि ही मैं हैं। समय द्वारा ही समय के विरुद्ध लदो। स्थान को ही स्थान का आहार बनने दो। दोनों में से एक का भी स्वागत करना दोनों का बंद होना तथा नेकी और बदी की अंतहीन हास्यजनक चेष्टाओं का बंधक बने रहना है। एक व्यक्ति स्वर्ण की शुद्धता और सुंदरता को देखने का आनंद लेता है और तृप्त हो जाता है जब की दूसरा स्वर्ण का स्वामी होने का रस लेता है और सदा भूखा रहता है। परमात्मा के सृजन की तुलना में मनुष्य का सृजन ऐसा ही है जैसे किसी महान वास्तुकार द्वारा निर्मित एक भव्य मंदिर या सुंदर दुर्ग की तुलना में एक बच्चे द्वारा बनाया गया ताश के पत्तों का घर। किंतु है तो वह फिर भी सृजन ही। जीवन निरंतर अंडाणु में से निकल रहा और वापस अंडाणु में विलीन हो रहा है। सृष्टि की प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक माँ अंडाणु का खोल टूट नहीं जाता और लघु परमात्मा विराट परमात्मा होकर बाहर नहीं निकल आता। जैसे धरती को वायु लपेटे हुए है, ऐसे ही इस अंडाणु को विकसित परमात्मा लपेटे हुए है। ब्रह्मांड में जो भी पदार्थ और जीव हैं, वे सब उसी लघु परमात्मा को लपेटे हुए समय-स्थान के अंडाणुओं से अधिक और कुछ नहीं, परंतु सबमें लघु परमात्मा प्रसार की भिन्न भिन्न अवस्थाओं में है। अन्याय को अकेला छोड़ दो, वह स्वयं ही अपने आपको मिटा देगा। क्या गधे को हांकने वाला उसकी दुम के पीछे पीछे नहीं चलता? क्या जेलर क़ैदियों से नहीं बंधा होता। एक तुच्छ मच्छर भी कुशल योद्धा को पछाड़ देता है। मनुष्य ने प्रभु के विधान का उल्लंघन करके पाप नहीं किया , बल्कि पाप किया है उस विधान के प्रति अपने अज्ञान पर पर्दा डालकर। द्वैत कोई दंड नहीं है, बल्कि एकत्व की प्रकृति में निहित एक प्रक्रिया है, उसकी दिव्यता के प्रकट होने का एक आवश्यक साधन। विश्वास से रहित ज्ञानेंद्रियाँ अत्यंत अविश्वसनीय मार्गदर्शक हैं। तनाव का अर्थ है आप कुछ और होना चाहते हैं जोकि आप नहीं हैं। १३/११/२२ अपना पेट भरने और विस्तार करने के प्रकृति के ढंग को हम युद्ध नहीं कह सकते। प्रकृति में कौन बलवान है और कौन दुर्बल। केवल प्रकृति हाई बलवान है। अन्य सभी जीव प्रकृति की इच्छा का पालन करते हैं। केवल मृत्यु से मुक्त जीवों को बलवान का दर्जा दिया जा सकता है। प्रकृति से अधिक शक्तिशाली मनुष्य है, क्योंकि वह समृद्ध प्रकृति का अभाव पूर्ति के लिए शोषण करता है। और संतानों के माध्यम से इसलिए विस्तार करता है कि अपने आपको ऐसे विस्तार से ऊपर उठा सके। अज्ञानी हृदय द्वैतपूर्ण होता है, ज्ञानवान हृदय एकतापूर्ण होता है। मनुष्य का मान तो केवल मनुष्य बने रहने में है। मनुष्य जो जीता जागता प्रभु का प्रतिबिंब और प्रतिरूप है। बाक़ी सब मान तो अपमान ही है। युद्ध करो उन सब वस्तुओं से जो तुम्हें और तुम्हारे पड़ोसी को आपस में लड़ाती हैं। ख़ूबी तो है उनके साथ शांतिपूर्वक जीने में जो ज़िंदा हैं। लोगों के होंठों पर प्रसिद्धि अंकित करना वैसा ही है जैसे समुद्र तट की रेत पर नाम अंकित करना। ओंठों पर उसे एक छींक ही उड़ा देगी। मनुष्य अपनी सम्पत्ति से उतना हाई बंधा हुआ है जितना अपने जीवन से। जो बलपूर्वक थोपा जाता है उसे देर सेबर बलपूर्वक हटा भी दिया जाता है। क्या सदा नहीं होता आया कि दुर्बल अपनी दुर्बलता के लिए संगठित हो जाते हैं। दिव्य ज्ञान स्वयं अपनी ढाल है, उसकी शक्तिशाली भुजा प्रेम है। यह किसी को सताता नहीं, यह तो हृदयों पर ओस की तरह गिरता है और जो इसे स्वीकार नहीं करते उन्हें भी पान करने वालों की तरह राहत देता है। क्योंकि इसे अपनी आंतरिक शक्ति पर बहुत गहरा विश्वास है। किसी भी सत्ता का रत्ती भर मूल्य नहीं है। सत्य का बीज प्रत्येक मनुष्य aur वस्तु के अंदर मौजूद है, उसे बोने की नहीं अंकुरित होने के लिए अनुकूल ऋतु तैयार करने की ज़रूरत है। मेरी अनुपम माँ। जिस प्रकार तूने अपना हृदय मेरे सामने फैला रखा है ताकि जो चाहिए ले लूँ, उसी प्रकार मेरा हृदय तेरे सम्मुख प्रस्तुत है कि जो चाहिए ले ले। धरती के हृदय से इस प्रकार की भावना प्रेरित होने पर इस बात का कोई महत्व नहीं रह जाता कि तुम क्या खाते हो। यह सच है की जीवों का मारना निश्चित है फिर भी धिक्कार है उसे जो किसी जीव की मृत्यु का कारण बनता है। प्रभु इच्छा किसी मनुष्य या पशु को मारने का काम नहीं सौंपती, जब तक कि उस मौत के लिए साधन के रूप में उसका उपयोग करना आवश्यक न समझती हो। धरती का पोषण धरती को ही करना है, वह कोई कंजूस गृहिणी नहीं। जो व्यक्ति वस्तुओं के पोर पोर का आनंद लेता है, वह उसके मालिक से अधिक धनी है। बच्चों की तुलना में बूढ़े सहानुभूति के अधिक अधिकारी होते हैं। महत्व शब्द की उस भावना का होता है, जो उसके भीतर गूंजती है, पशु भी उससे प्रभावित होते हैं। अपनी इच्छा शक्ति से तुम बहुत कुछ कर सकते हो, पर उस इच्छा शक्ति का अंत नहीं कर सकते, जो जीवन की इच्छा है, प्रभु की इच्छा है। जीवन या अस्तित्व अपनी इच्छा शक्ति से अस्तित्वहीन नहीं हो सकता न ही अस्तित्वहीन की कोई इच्छा हो सकती है। प्रेम ही प्रभु का विधान है। तुम जीते हो ताकि तुम प्रेम करना सीख लो। तुम प्रेम करते हो ताकि तुम जीना सीख लो। मनुष्य को और कुछ सीखने की आवश्यकता नहीं। और प्रेम करना क्या है, सिवाय इसके कि प्रेमी प्रियतम को सदा के लिए अपने अंदर लीन कर ले ताकि दोनों एक हो जाएँ। मीरदाद। भाग्य प्रभु इच्छा का ही दूसरा नाम है। समय और स्थान के अंदर कोई आकस्मिक घटना नहीं होती। हर पदार्थ में मनुष्य की इच्छा शामिल है और मनुष्य में शामिल है हर पदार्थ की इच्छा। समय स्थान की शिलाओं पर अंकित की हुयी ब्रह्मांड की स्मृति है। तुलना आनंद की चोर है। केवल प्रेम ही मोह से मुक्ति है। तुम जब हर वस्तु से प्रेम करते हो, तुम्हारा किसी भी वस्तु से मोह नहीं रह जाता। प्रेम ही समय और स्थान के अस्तित्व को मिटा पता है। समय का नियम पुनरावृत्ति है। सब वस्तुएँ मनुष्य में समायी हुयी हैं और मनुष्य सब वस्तुओं में। यह ब्रह्मांड केवल एक ही पिंड है। इसके सूक्ष्म से सूक्ष्म कण के साथ सम्पर्क कर लो और तुम्हारा सभी के साथ संपर्क हो जाएगा। यह शरीर समय और स्थान में विद्यमान हर पदार्थ में से लिया जाता है। जो अंश जिसका है उसी में वह जीता है। समय में कोई वस्तु इस योग्य नहीं कि उसके लिए आँसू बहाए जाएँ। तर्क का एकमात्र उपयोग मनुष्य को तर्क से छुटकारा दिलाना और उसको विश्वास की ओर प्रेरित करना है जो दिव्य ज्ञान की ओर ले जाता है। तर्क अपाहिजों के लिए वैसाखी है तेज पैर वालों के लिए एक बोझ है और पंख वालों के लिए तो और भी बड़ा बोझ। तर्क सठिया गया विश्वास है और विश्वास वयस्क हो गया तर्क है। अधिकांश लोग मरने के लिए जीते हैं। भाग्यशाली हैं वे जो जीने के लिए मारते हैं। मनुष्य परिवर्तन से इतना ऊब जाएगा कि उसका पूरा अस्तित्व परिवर्तन से अधिक शक्तिशाली वस्तु के लिए तरसेगा। कभी मंद न पड़ने वाली तीव्रता ke साथ तरसेगा। और निश्चय ही वह उसे अपने अंदर प्राप्त करेगा। समय का पहिया घूमता है पर इसकी धुरी सदा स्थिर है। गोलाई में हो रही गति कभी किसी अंत पर नहीं पहुँच सकती, न वह कभी ख़त्म होकर रुक सकती है। संसार में हो रही प्रत्येक गति गोलाई में हो रही गति है। समय का पहिया स्थान के शून्य में घूमता है। जो वस्तु एक के लिए समय और स्थान के एक बिंदु पर लुप्त होती हैं, वह दूसरे के लिए किसी दूसरे बिंदु पर प्रकट हो जाती हैं। सब ऋतुएँ समय और स्थान के प्रत्येक बिंदु पर एक ही हैं। समय सबसे बड़ा मदारी है और मनुष्य धोखे का सबसे बड़ा शिकार। क्या तुम निरंतर क्षीण होकर ही विकसित नहीं हो रहे हो? kya तुम निरंतर विकसित होकर हि क्षीण नहीं हो रहे हो। धीमे और और वेगवान को समय और स्थान के किसी भी बिंदु पर एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। धीमा ही वेग वान को जन्म देता है। वेगवान धीमे का वाहक है। समय में कुछ भी समाप्त और विसर्जित नहीं होता। कुछ भी आरंभ तथा पूर्ण नहीं होता। समय इंद्रियों के द्वारा रचित एक चक्र है और इंद्रियों के द्वारा ही उसे स्थान के शून्यों में घुमा दिया जाता है। ऋतुओं को प्रकट और विलीन करने वाली शक्ति एक रहती है, सदैव वही रहती है। शक्ति न विकसित होती है न क्षीण। कम खर्ची और परिश्रम ke लिए धन सम्पत्ति परमात्मा का उचित पुरस्कार है। लेनदार का ऋण देनदार के ऋण से अधिक बड़ा और भारी होता है। उधार देने के लिए तुम्हारे पास है क्या? क्या यह संसार एक संयुक्त कोष नहीं। संसार तुम्हें अपना नहीं सकता, क्योंकि वह तुम्हें नहीं जानता। परंतु तुम संसार को अपना सकते हो, क्योंकि तुम संसार को जानते हो। धरती हर मनुष्य और पशु की गंदगी स्वीकार कर लेती है और बदले में उन्हें मीठे फल, सुगंधित फूल, प्रचुर अनाज और घास सब देती है। नाले की गंदगी समुद्र तह में बिछाकर उसे स्वच्छ कर देता है। अपने पड़ोसी की आँखों की ज्योति को सम्भालकर रखो ताकि तुम अधिक स्पष्ट देख सको। अपनी दृष्टि सम्भालकर रखो ताकि तुम्हारा पड़ोसी ठोकर न खा जाए और कहीं तुम्हारे द्वार को ही न रोक ले। मनुष्य प्रभु का शब्द है। प्रभु मनुष्य का शब्द है। धन्य है वह जिसका शब्द मनुष्य है। धन्य है वह जिसका शब्द प्रभु है। जो कोई अपने हृदय में मंदिर को नहीं पा सकता, वह किसी भी मंदिर में अपने हृदय को नहीं पा सकता। शब्द व्यर्थ हैं यदि प्रत्येक अक्षर में हृदय अपनी पूर्ण जागरूकता के साथ उपस्थित न हो। कोई वचन कर्म कोई इच्छा या निश्वास, कोई क्षणिक विचार या अस्थायी सपना, मनुष्य या पशु का कोई श्वास, कोई परछाई, कोई भ्रम, इनमे से किसी एक ke साथ भी तुम अपने हृदय का सुर मिला लो, निश्चय ही वह उसके तारों पर धुन बजाने ke लिए तेजी से दौड़ा आएगा। जहां भूख है वहाँ भोजन है। जहां भोजन है, वहाँ भूख भी अवश्य होगी। भूख की पीड़ा से व्यथित होना तृप्त होने का आनंद लेने की सामर्थ्य रखना है। आवश्यकता में ही आवश्यकता की पूर्ति है। डींग मारती नेकी से ख़बरदार रही। जैसे अपनी शर्मिंदगी का मुँह बैंड रखते हो, वैसे ही अपने सम्मान का मुँह भी बंद रखो। डींग मारता सम्मान मूक कलंक से भी बदतर है, शोर मचाती नेकी गूँगी बदी से बदतर है। कितना कठिन है वह शब्द बोलना जिसे बोलना सचमुच आवश्यक है। बोले गए हज़ार शब्दों में से शायद एक केवल एक ऐसा हो जिसे बोलना सचमुच आवश्यक है। लिखे गए हज़ार शब्दों में से शायद एक, केवल एक ऐसा हो जिसे लिखना सचमुच आवश्यक है। ऐसा मौन हो जिसमें अनस्तित्व अस्तित्व में और अस्तित्व अनस्तित्व में बदल जाए। जब तुम्हारा मैं और मेरा मैं एक हो जाएँगे जैसे प्रभु ka मैं और मेरा मैं एक है, हम शब्दों को अलग कर देंगे और सच्चाई भरे मौन में खुलकर दिल की बात करेंगे। मुख से कही गयी बात अधिक से अधिक एक निष्कपट झूठ है, जबकि मौन कम से कम एक नग्न सत्य है। जिस किसी ने भी मौन की अजेय शांति का अनुभव किया है, उसे न कभी नाराज़ किया जा सकता है, न वह कभी किसी को नाराज़ कर सकता है। प्रेम एक क्रियाशील शक्ति है। जब प्रेम तुम्हारी दृष्टि को निर्मल कर देगा, तब कोई भी वस्तु तुम्हें प्रेम के अयोग्य दिखाई नहीं देगी। प्रेम को उसी सरलता और स्वतंत्रता के साथ स्वीकार करो जिस सरलता और स्वतंत्रता से तुम साँस लेते हो। प्रेम ही प्रेम का पर्याप्त पुरस्कार है जैसे घृणा ही घृणा का पर्याप्त दंड है। इसका लेना ही देना है और देना ही लेना है। आत्म प्रेम के अतिरिक्त कोई प्रेम संभव नहीं। अपने अंदर सबको समा लेने वाले अहं के अतिरिक्त कोई अहं वास्तविक नहीं है। जब तक प्रेम तुम्हें पीड़ा देता है, तुम्हें अपना वास्तविक अहं नहीं मिला है। जब तक तुम एक भी मनुष्य को शत्रु मानते हो, तुम्हारा कोई मित्र नहीं। जब तक तुम्हारे हृदय में घृणा है, तुम प्रेम के आनंद से अपरिचित हो। प्रेम ही प्रभु का विधान है। १४/११/२२ दृश्य में वह सब है जो दिख रहा है या दिख सकता है, अदृश्य में वह जो दिखता नहीं, पर दिख सकता है. दोनों में दिख सकना सामान्य है, पर इस दिख सकने में न दिख पाना भी शामिल है, जिसे कहा नहीं जा सका। १५/११/२२ सब मृतक जीने वालों में जी रहे हैं। यदि तुम बोझ को हल्का रखना चाहते हो तो किसी के विषय में फ़ैसला करने न बैठो। बोझ उतर जाए, इसके लिए शब्द में डूबकर सदा ले लिए उसमें खो जाओ। जीवन अंतर में सिमटना है मृत्यु बाहर बिखरना। जीवन जुड़ना है मृत्यु टूट जाना। मनुष्य सिमटेगा अवश्य पर बिखरकर ही। जुड़ेगा अवश्य, पर टूटकर। प्रभु और मनुष्य अलग अलग नहीं हैं। केवल हैं प्रभु मनुष्य या मनुष्य प्रभु । वह सदा एक है। इस तरह इच्छा करो की तुम स्वयं इच्छा हो। इस तरह सोचो मानो तुम्हारे हर विचार को को आकाश में आग से अंकित होना है ताकि उसे हर प्राणी और पदार्थ देख सके। इस तरह बोलो मानो सर संसार केवल एक ही कान है जो तुम्हारी बात सुनने के लिए उत्सुक है। इस तरह कर्म करो मानो तुम्हारे हर कर्म को palatkar तुम्हारे सिर पर आना है। इस तरह जीयो मानो स्वयं प्रभु को अपना जीवन जीने के लिए तुम्हारी आवश्यकता है। किसी भी वस्तु को ढकने का प्रयत्न न करो। और कुछ नहीं तो उनका आवरण ही उन्हें प्रकट कर देगा। क्या ढक्कन नहीं जानता वर्तन के अंदर क्या है? तुम्हारे अंदर से एक भी ऐसा श्वास नहीं निकलता जो तुम्हारे हृदय के गहरे से गहरे रहस्यों वायु में में बिखेर नहीं देता। यदि स्वयं अंधकार पर से आवरण हटा दिए जाएँ तो वह किसी वस्तु के लिए आवरण कैसे हो सकता है? किसी भी वस्तु का मोल न लगाओ, साधारण वस्तु भी अनमोल होती है। क्या रोटी बिना सूर्य धरती वायु सागर तथा मनुष्य के पसीने और चतुरता के बिना बन सकती है? भूखे के लिए भूख केवल भूख है, परंतु तृप्त के लिए कुछ देने का एक शुभ अवसर। भूखों की खोज करो उनकी भूख तुम्हारी तृप्ति है। यदि तुम मुझे अच्छी तरह जानना चाहते हो तो तुम पहले स्वयं को अच्छी तरह जान लो। जब मैं मनुष्यों के साथ होता हूँ तो परमात्मा हूँ। जब परमात्मा के साथ तो मनुष्य। परमात्मा एक है पर मनुष्य की परछाइयाँ अनेक और भिन्न भिन्न हैं। जब तक मनुष्यों की परछाइयाँ धरती पर पड़ती हैं तब तक किसी मनुष्य का परमात्मा उसकी परछाईं से बड़ा नहीं हो सकता। केवल परछाईं रहित मनुष्य ही पूरी तरह से प्रकाश में है। सेवक स्वामी का स्वामी है और और स्वामी सेवक का सेवक। सेवक को अपना सिर न झुकाने दो। स्वामी को अपना सिर न उठने दो। मस्तक पेट का स्वामी हैपरंतु पेट भी मस्तक का कम स्वामी नहीं है। कोई भी चीज सेवा नहीं कर सकती जब तक सेवा करने में उसकी अपनी सेवा न होती हो। aur कोई भी चीज सेवा नहीं करवा सकती जब तक उस सेवा से सेवा करने वाले की सेवा न होती हो। अपना कार्य करते हुए संसार तुम्हारा भी कार्य करता है। और अपना कार्य करते हुए तुम संसार का कार्य करते हो। शब्द एक है और उस शब्द के अक्षर होते हुए तुम भी वास्तव में एक ही हो। कोई भी अलशर किसी अन्य अलशर से श्रेष्ठ नहीं, न ही किसी अन्य अक्षर से अधिक आवश्यक है। अनेक अक्षर एक ही अक्षर हैं, यहाँ तक कि शब्द भी। तुम चाहो तो mujhe अस्वीकार कर दो परंतु मैं तुम्हें अस्वीकार नहीं कर सकता। मेरे शरीर का मांस तुम्हारे शरीर के मांस से भिन्न नहीं है। बुद्धिमानों के लिए सब कुछ बुद्धिमत्ता का भंडार है। बुद्धिहीनो के लिए बुद्धिमत्ता स्वयं एकि मूर्खता है। मनुष्य एक बादल है जो प्रभु को अपने अंदर लिए हुए है। रिक्त न हुआ तो अपने आपको नहीं पा सकता। कितना आनंद है रिक्त हो जाने में। शब्द सागर है तुम बादल हो। बादल सागर के बिना क्या रह सकता है? मूर्ख है वह बादल जो अपने रूप और अस्तित्व को सदा बनाए रखने के उद्देश्य से आकाश में आधार में टंगे रहने के प्रयास में ही अपना जीवन नष्ट करना चाहता है। यदि वह बादल के रूप में मरकर लुप्त नहीं हो जाता तो अपने अंदर के सागर को नहीं पा सकता जो उसका एकमात्र अस्तित्व है। यदि तुम अपने आपको सदा के लिए शब्द में खो नहीं देते, तो तुम उस शब्द को नहीं समझ सकते जो कि तुम स्वयं हो, जो कि तुम्हारा मैं ही है। कितना आनंद है खो जाने में। यदि मुझमें प्रकाश न होता तो क्या तुम्हारी आँखें मुझे देख पाती? यह मेरा प्रकाश है जो तुम्हारी आँखों में मुझे देखता है। यह तुम्हारा प्रकाश है जो मेरी आँखों में तुम्हें देखता है। मनुष्य को प्रभु से अलग नहीं किया जा सकता aur इसलिए केवल अपने साथी मनुष्यों से और अन्य प्राणियों से भी उसे अलग नहीं किया जा सकता क्योंकि वे भी शब्द से उत्पन्न हुए हैं। प्रभु ke शब्द में सब कुछ शामिल है। प्रभु का शब वह जीवन है जो जन्मा नही, इसीलिए अविनाशी है। क्या तुम केवल प्रभु के जीवन के सहारे जीवित नहीं हो? pahle शब्द का ज्ञान प्राप्त करो जिससे तुम अपने ख़ुद के शब्द को जान सको। जब तुम अपने शब्द को जान लोगे तब अपनी चलनियों को अग्नि की भेंट कर दोगे। प्रभु के शब्द के लिए समय और स्थान का कोई अस्तित्व नहीं है। प्रभु का शब्द एक कुठाली (CRUCIBLE) है जो कुछ वह रचता है उसको पिघलाकर एक कर देता है, न उसमें से किसी को अच्छा मानकर स्वीकार करता है, न ही बुरा मानकर ठुकराता है। उसकी रचना और वह स्वयं एक है। एक अंश को ठुकराना संपूर्ण को ठुकराना है, और संपूर्ण को ठुकराना अपने आपको ठुकराना है। जबकि मनुष्य का शब्द एक चलनी (cribbles) है। रचता है और लड़ाई झगड़े में लगा देता है। शत्रु और मित्र मैं की रचना है। सब कुछ पूरी तरह संतुलित होता है। तुम्हारा शब्द अभी भी पर्दों में छिपा हुआ है। मैं कहते हुए मनुष्य शब्द को दो भागों में चीर देता है। माँ भली प्रकार जानती है कि पोतड़े शिशु नहीं है। परंतु बच्चा यह नहीं जानता। मनुष्य का शब्द जो उसकी चेतना की अभिव्यक्ति है, कभी भी अर्थ में स्पष्ट और निश्चित नहीं होता। मैं कहते हुए मनुष्य शब्द को दो भागों में चीर देता है, एक उसके पोतड़े, दूसरा प्रभु का अमर अस्तित्व। पर अविभाज्य को कोई शक्ति विभाजित नहीं कर सकती। प्रभु को मैं से अधिक बोलने की कोई आवश्यकता नहीं। इसलिए मैं उसका एकमात्र शब्द है। चूँकि किसी शब्द का कोई अर्थ न हो तो वह शब्द शून्य में गूंजती केवल एक प्रतिध्वनि है। यदि इसका अर्थ सदा एक ही न हो तो यह गले का कैंसर और ज़बान पर पड़े छले से अधिक और कुछ नहीं। चेतना, शब्द और दिव्य ज्ञान यह त्रिपुटी पावन है। प्रत्येक शब्द होता है एक वस्तु का प्रतीक, प्रत्येक वस्तु होती है एक संसार का प्रतीक, प्रत्येक संसार होता होता है एक ब्रह्मांड का घटक अंग। यह ब्रह्मांड तुम्हारे मैं की रचना है जोनेक साथ स्रष्टा और सृष्टि दोनो है। जैसा सृष्टा वैसी रचना। सृष्टा केवल अपने आप को ही रचता है- न अधिक न कम। तुम्हारी आँखें बहुत से पर्दों से ढकी हुयी हैं। हर वस्तु जिस पर तुम दृष्टि डालते हो, मात्र एक पर्दा है। पदार्थों से उनके परदे उतार फेंकने के लिए मत कहो। अपने पर्दे उतार फेंको, पदार्थों के पर्दे स्वयं उतर जाएँगे। शब्दों में सबसे तुच्छ और सबसे महान शब्द है मैं। यह सिरजनहार है। शब्द - वे क्या अक्षरों और मात्राओं में बंद किए हुए पदार्थ नहीं हैं? १७/११/२२ जीने के लिए मरना और मरने के लिए जीना जान लेना जान लेना। फिर क्या मरना और क्या जीना। १८/११/२२ सोचना और करना होने से पृथक नहीं। १९/११/२२ do your best and leave the rest. 22/11/22 Shiva lingam is the holy symbol of union of Lord shiva and Shakti. The word is lingam is derived from two sanskrit words Laya(dissolution) and agaman (recreation). Thus the ling symbolizes both the creative and destructive power of the Lord and great sanctity is attached to it by the devotees. २३/११/२२ साथ रहकर भी फासला रखना, खुद को यूं दर्द से जुदा रखना! जिसको पाने की आरज़ू हो तुम्हें, उसको खोने का हौसला रखना! नीरज झा त्रयोदशी क्या है.... सृष्टि के भीतर सृष्टि, स्थिति, संहार और तुरीय- ये चार अवस्थाएँ हैं. इसी प्रकार सृष्टि, स्थिति और संहार - इनमे भी प्रत्येक में ये चारों अवस्थाएँ रहती हैं. इस प्रकार सब मिलाकर बारह शक्ति या देवी के खेल दिखलाई पड़ते हैं. ये बारह शक्तियाँ जिस महाशक्ति से निकलती हैं तथा जिनमें लीन होती हैं उन्ही को त्रयोदशी कहते हैं. वस्तुतः यह त्रयोदशी सबमें अनुस्यूत तुरीय के साथ सम्मिलित भासा के सिवा और कुछ नहीं है. आलेख - 'तांत्रिक पूजा का परम आदर्श' महमहोपाध्याय गोपीनाथ कविराज २४/११/२२ बचने या भूलने के लिए याद रखना ज़रूरी है। २५/११/२२ सत्य एक चुंबक है। सत्य को जी जाएँ, बन जाएँ और निश्चिंत रहें। बस! आध्यात्मिक अनुशासन ही मनुष्य का वास्तविक कार्य है। जब भी बोलिए वक़्त पर बोलिए मुद्दतों सोचिए मुख़्तसर बोलिए २६/११/२२ उतना ही कहो जितना तुमने स्वयं के अनुभवों से जाना हो, उनसे ही कहो जिसने तुम्हें पूछा हो और उतना ही कहो जितना पूछा है। २७/११/२२ किसी का नकार आत्म साक्षात्कार के लिए उचित नहीं। इसी तरह किसी का स्वीकार भी ग्राह्य नहीं। संपूर्ण का नकार या संपूर्ण का स्वीकार ही वरेण्य है। संपूर्ण का नकार उसका स्वीकार है और संपूर्ण का स्वीकार उसका नकार भी है। इस स्थिति में नकार और स्वीकार विरोधी या विपरीतार्थी नहीं हैं, वरन वे परस्पर सहगामी और पूरक हैं। एक साँस का छोर परस्पर विरोधी कैसे हो सकती है। साँस शुरू होती है तभी उसका अंत होता है और अंत होता है तभी उसका प्रारंभ होता है। अंत और प्रारंभ का जब लय होता है तब यह तय नहीं किया ja सकता कि कब अंत हुआ और कब प्रारंभ। यहाँ न काल रहता है, न ही देश भी, क्योंकि लय हुयी साँस के लिए kya देह और क्या देही। वह देह ke बाहर लय हो सकती है देह ke भीतर भी। लय hone par देह का पर्दा नहीं रह जाता। जल वॉटर है, पर जलाना एक क्रिया है जिसका प्रत्यक्ष रूप में जल से कोई संबंध नहीं है। जलाप्लावन से अग्निधर्म उत्पन्न हो जाता है। अग्नि का कार्य है वस्तु का रूप परिवर्तन। जल से नए रूप तब बनते हैं जब उनका अग्नि संस्कार हो जाता है। इसमें कौन किसका विरोधी या विपरीतार्थी है! देश कंट्री का हिंदी अनुवाद है, पर वास्तव में देश स्पेस है। इसकी कोई विभाजक रेखा नहीं है। कंट्री विभाजित भूखंडों का नाम है, देश समूची आकाशी इयत्ता को कहते हैं। दक्षिणपंथी वे हैं जो वामपंथी नहीं हैं। दक्षिणपंथी त्याग को आदर्श मानते हैं, पर देखा जाता है वे त्याग का अभिमान भी रखते हैं। सात्विक क्षेत्र में रहते हैं पर उसके अहंकार से मुक्त नहीं हो पाते। त्याग का अहंकार संग्रह के त्याग से भिन्न नहीं। वामपंथी (कम्युनिस्टों से आशय नहीं) वे हैं जो दक्षिणपंथी नहीं हैं। वामपंथी प्रकृति के रहस्य से परिचित देखे जाते हैं। पर वे प्रकृति की नियामिका शक्ति या शिव तत्व में विश्वास नहीं रखते, इसलिए उन्मादी होने के निकट होते हैं। इस प्रकार परम तत्व से यह दोनों दूर रह जाते हैं। परंतु जो परम तत्व को उपलब्ध हो जाता है वह दक्षिणपंथ और वामपंथ दोनों से ऊपर उठ जाता है। उसे दोनों की सीमाए ज्ञात हो जाती हैं। इस प्रकार के व्यक्ति ही हमारे आदर्श होने चाहिए। दो शरीरों का संभोग काम या सेक्स, दो मनों का संभोग प्रेम तो दो आत्माओं का संभोग आनंद कहलाता है। पृथ्वी को होने की क्रिया घटित होने के कारण भू कहा जाता है। भव से भू बनता है, यही भव अनुभव में है। बिना क्रिया पद के वाक्य भी नहीं बनता। क्रिया पद का होना हर भाषा में अवश्यंभावी है। अगर इस क्रिया पद की ध्वनियों का सूक्ष्म निरीक्षण करेंगे तो पाएँगे कि हर भाषा की क्रिया पद की ध्वनि एक ही है। समुच्छलन्त्यै जगदात्मिकायै , शान्तस्वरूपाय सदाशिवाय । सते भवन्त्यै , भवते च सत्यै , नम: शिवायै च नम: शिवाय ।। २९/११/२२ क्रोध अहंकार का प्रकटीकरण है। भो सिरी पाली में भगवान बुद्ध द्वारा बार बार नासमझी रखने वाले लोगों को दिया गया संबोधन है।