Sunday, October 1, 2023

सितंबर २३

१/९/२३ नीला और लीला ध्वनि विज्ञान के अनुसार एक ही शब्द होने चाहिए। परंतु दोनों के अर्थ अलग अलग प्रचलित हैं। नीला ब्रह्मांड का रंग है, लीला भी ब्रह्मांड की घटना पटीयसी है। इसी से लील जाना यानि निगल जाना। इस दृश्यमान जगत् को पचा जाना लीलना है। लीला अद्भुत शब्द है। लीला रचने वाले, उसे पचने वाले और पचाने वाले सब एक हैं। इसलिए लीला धारी की लीला का आनंद उठाना ही जीवन का ध्येय है। लीला में अपनी भूमिका का निर्वाह करना शरीर का गुणधर्म है। इस लीला का निर्देशक ईश्वर है, पर कैसे यह लीला या अभिनय किया जाना है, यह तो व्यक्ति को ही निर्धारित करना है। रमेश कुंतल मेघ जी और उनके अनुज शिवकुमार जी रोहिताश्व जी के संयोजन में गोवा के एक रीफ़्रेशर कोर्स में तीन दिन रुककर रिसोर्स पर्सन रहे। मिथक शास्त्र उनके व्याख्यान का विषय रहा। यद्यपि उनके अनुज के व्याख्यान अधिक बोधगम्य और सहज थे, पर मेघ जी की बालों की चुटिया और एक टांग में समस्या के कारण लचककर बोर्ड के सामने सेमेट्री बनाकर पढ़ाने और समझाने का उनका अंदाज़ निराला था। उस समय उनसे मैंने अपनी संपादित एक किताब भेंट की, उसमे बाईस भुजी नृत्य गणपति का एक चित्र दिया हुआ है, उसके बारे में सविस्तार जानने को उत्सुक हुए, उस स्थान पर जाने की हद तक। उनसे बच्चों की सी बालसुलभता रही। उनसे उनके नाम का निहितार्थ पूछा, उन्होंने यह बताया भी। नाम के अनुरूप unhone बालों का संयोजन कर रखा था। सौन्दर्यशास्त्री तो थे ही। बाद में मिथकों पर प्रकाशक से एक किताब मिथक और यथार्थ मंगायी, पर मिथक और स्वप्न करके मेघ जी की पुस्तक आ गई। उसे भी पढ़ा गया। गत वर्ष ललितपुर आया तो यहाँ उनके सहपाठी श्री लक्ष्मी नारायण तिवारी मिले। पेशे से वकील हैं, उनके पास एक दिन बैठकी में उन्होंने अपनी एक किताब दिखायी, जिसमें मेघ जी द्वारा भूमिका लिखी गई है। मेघ जी अब नहीं हैं। उन्होंने दीर्घायुष्य पाकर हिंदी आलोचना की श्रीवृद्धि की है। उन्हें विनत श्रद्धांजलि। २/९/२३ ज्यों मुख मुकुर मुकुर निज पानी। गहि न जाइ अस अद्भुत बानी।। परा, पश्यंती आदि वाणी के स्तर हैं। सरस्वती वाणी की देवी है। वाक्देवी। भाषा शब्द और अर्थ में व्यक्त होती है, पर वाणी कहे और अनकही दोनों में उपस्थित रहती है। वाणी, वीणा, वचन, बैन एक ही मूल के रूप हैं। शब्द और अर्थ तो मात्र उपकरण हैं, करण तो वाणी है। सुनि केबट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे। बिहंसे करुणा ऐन चितै जानकी लखन तन॥ कबीर भी कहते हैं ऐसी बानी बोलिये मन का आपा खोय। बानी में ही वह ताक़त है जो औरों को शीतल करती है और स्वयं भी शांत रस में आप्लावित रहती है। ब्रह्म ज्ञान प्रतिबोध से सम्भव है। जब इन्द्रियों का संबंध अपने विषयों से अर्थात बाहर की ओर होता है तो जो ज्ञान होता है उसे बोध कहते है। जब इंद्रियां विषयों की ओर जाना बंद कर दे और व्यक्ति भीतर की ओर खोजता है तो मन की चंचलता समाप्त हो जाती है। भौतिक आकर्षण उसे विचलित नहीं करते, उस समय का आंतरिक अनुभव जो उसे धारणा, ध्यान, समाधि द्वारा प्राप्त होता है उसे प्रतिबोध कहते हैं । उसी से अमृत प्राप्त होता है। ईशानी सिंह फ़ितूर होते हैं हर उम्र में जुदा खिलौने माशूक़ा रुतबा और ख़ुदा। मैं तो इस वास्ते चुप हूँ कि तमाशा न बने तू समझता है तो तुझसे मुझे गिला कुछ भी नहीं। ४/९/२३ ऐसे भी नास्तिक हो सकते हैं, जिन्होंने ईश्वर को जान लिया हो। ईश्वर को जानने के बाद आस्तिक और नास्तिक का भेद नहीं रहना चाहिए। आस्तिकता एक सरणि है, पाथेय नहीं। ५/९/२३ हर दिखाई देने वाला रूप प्रकाश है। प्रत्येक सुनाई देने वाला शब्द ध्वनि है। ॐ नाम का वाचक है तो फिर रूप का वाचक क्या हुआ! रूप का वाचक पंच महाभूत है। यह वाचक नहीं वाच्य है, दृश्य है। ॐ महाभूतों से निःसृत हो रहा है तैलधारवत् तो इन महाभूतों में ही वह लीन हो रहा है रज्जु सर्पवत। रज्जु में सर्प की प्रतीति का भान ज्ञात हो जाने पर सर्प का अस्तित्व नहीं रह जाता। प्रकाश में रूप बदलते रहते हैं। ध्वनि में शब्द बदलते जाते हैं। रूप अर्थात्मक नाम है तो नाम शब्दात्मक रूप। कौन पहले कौन बाद में, यह बहस मुर्गी पहले या अंडा जैसी बहस है। एक को जान लेंगे तो दूसरी जान ली जाएगी। बहस नहीं जानने से सत्य प्रकट होगा। दोनों में एक दूसरे का अस्तित्व जल और लहर की भाँति बना हुआ है। बीज और वृक्ष की भाँति इसका सातत्य सदा अवस्थित है। शरीर और उसकी छाया का जो संबंध है, शिव और शक्ति का जो संबंध है, वही संबंध नाम और रूप, शब्द और अर्थ, प्रकाश और ध्वनि के बीच है। निषेधशेषो जयतादशेषः। भागवतम् सबका निषेध हो जाने पर जो कुछ बचा रहता है, वह भगवान का स्वरूप है। एष धर्मों सनातनम्। न ही वेरेन वेरानि, सम्मन्तीध कुदाचनं अवेरेन च सम्मन्ति, एस धम्मो सनन्तनो।धम्मपद (वैर से वैर शांत नहीं होते, बल्कि अवैर से शांत होते हैं। यही सनातन धर्म हैं।) मनुस्मृति: अध्याय 4, श्लोक 138, सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् । प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः ॥138॥ 🔥 एष धर्मः सनातनः (१) ~~~~~~~~~~~ हिन्दू धर्म शाश्वत और सार्वभौम सत्य है _______________________________ जिस धार्मिक संस्कृति को हम आज हिन्दू धर्म के नाम से पुकारते हैं... उसने अपना कोई नाम नहीं रखा, क्योंकि उसने स्वयं अपनी कोई साम्प्रदायिक सीमा नहीं बाँधी। उसने सारे संसार को अपना अनुयायी बनाने का दावा नहीं किया। किसी एक ही सिद्धान्त की स्थापना नहीं की, मुक्ति का कोई एक ही संकीर्ण पथ या द्वार निश्चित् नहीं किया। वह किसी मत या पंथ की अपेक्षा कहीं अधिक आत्मा के ईश्वरोन्मुख प्रयास की एक सतत-विस्तारशील परम्परा थी। आध्यात्मिक आत्मनिर्माण और आत्म-उपलब्धि के लिये एक बहुमुखी और बहु-स्तरीय विशाल व्यवस्था होने के कारण उसे अपने विषय में 'सनातन धर्म' के उस एक मात्र नाम से, कुछ कहने का अधिकार प्राप्त था। हिन्दू धर्म कोई सम्प्रदाय या कट्टरपंथी मत नहीं है, सूत्रों का गट्ठर नहीं है, सामाजिक नियमों की आचार संहिता नहीं है, बल्कि यह है एक शक्तिशाली, शाश्वत और सार्वभौम सत्य। इसने भगवान् की अनंतता के साथ तादात्म्य के अंतिम लक्ष्य के लिये मनुष्य की आत्मा को तैयार करने का रहस्य जान लिया है। श्री अरविन्द _________ 🔥 एष धर्मः सनातनः(२) ~~~~~~~~~~~ हिन्दू धर्म क्या है? _____________ हिन्दू धर्म है क्या? यह धर्म क्या है जिसे हम सनातन कहते हैं। यह हिन्दू धर्म मात्र इसलिये कहलाया क्योंकि यह हिन्दू राष्ट्र में बढा, क्योंकि इस प्रायद्वीप में यह समुद्र और हिमालय से घिरे होने के कारण एकान्त में विकसित हुआ, क्योंकि इस पावन और प्राचीन भूमि में इसे युगों तक सुरक्षित रखने का कार्यभार आर्यजाति को सौंपा गया था। लेकिन यह किसी एक देश के सीमान्तों में सीमाबद्ध नहीं है। यह विश्व के किसी भी देश की सदा के लिये निजी बपौती नहीं है। जिसे हम हिन्दू धर्म कहते हैं , वह वास्तव में सनातन धर्म है, क्योंकि यह सार्वभौमिक धर्म ही है जो अन्य सबको गले लगाता है। यदि कोई धर्म सार्वभौमिक नहीं है, तो वह सनातन नहीं हो सकता। एक संकीर्ण धर्म, साम्प्रदायिक धर्म , ऐकान्तिक धर्म का उद्देश्य और अवधि सीमित ही होती है। यही एकमात्र ऐसा धर्म है जो विज्ञान के आविष्कारों और दर्शनशास्त्र के चिन्तन को सम्मिलित करते हुए और उनका पूर्वानुमान करते हुए भौतिकवाद पर विजय पा सकता है। यही एक मात्र वह धर्म है जो बराबर मानव जाति को यह कहता है कि भगवान् हमारे समीप हैं और उन तक पहुँचने के सभी सम्भव उपायों को अपनाता है। श्री अरविन्द _________ सतगुरु मैं तेरी पतंग, बाबा मैं तेरी पतंग, हवा विच उडदी जावांगी, हवा विच उडदी जावांगी । साईयां डोर हाथों छोड़ी ना, मैं कट्टी जावांगी ॥ तेरे चरना दी धूलि साईं माथे उते लावां, करा मंगल साईंनाथ गुण तेरे गावां। साईं भक्ति पतंग वाली डोर, अम्बरा विच उडदी फिरा ॥ बड़ी मुश्किल दे नाल मिलेय मेनू तेरा दवारा है । मेनू इको तेरा आसरा नाले तेरा ही सहारा है । हुन तेरे ही भरोसे, हवा विच उडदी जावांगी, साईंया डोर हाथों छोड़ी ना, मैं कट्टी जावांगी ॥ ऐना चरना कमला नालो मेनू दूर हटावी ना । इस झूठे जग दे अन्दर मेरा पेचा लाई ना । जे कट गयी ता सतगुरु, फेर मैं लुट्टी जावांगी, साईंया डोर हाथों छोड़ी ना, मैं कट्टी जावांगी ॥ अज्ज मलेया बूहा आके मैं तेरे द्वार दा । हाथ रख दे एक वारि तूं मेरे सर ते प्यार दा । फिर जनम मरण दे गेडे तो मैं बच्दी जावांगी, साईंया डोर हाथों छोड़ी ना, मैं कट्टी जावांगी ॥ आज शिक्षक दिवस पर यदि मैं अपने शिक्षकों को याद करूँ तो सबसे पहले प्राइमरी विद्यालय के गुरसराय के सर्व श्री नाथूराम अहिरवार और बानपुर के नन्दराम बरार याद आते हैं। उच्च प्राथमिक या जूनियर हाई स्कूल के सर्व श्री मनोहर लाल पुष्पकार, रामशंकर द्विवेदी, हज़ारी लाल नामदेव, गंगेले जी की याद आती है। हाई स्कूल और इंटरमीडिएट के उस समय के शिक्षक भदौरा जी, अध्वर्यु जी का स्मरण है। स्नातक कक्षाओं के प्रोफ़ेसर जटाशंकर सर, हरिशंकर उपाध्याय सर, हर्ष कुमार सर, योगेन्द्र प्रताप सिंह सर, राजेंद्र कुमार सर, रामकिशोर सर, निर्मला मैडम, मीरा दीक्षित मैडम आदि बहुत याद आते हैं। एम ए के अध्ययन के दौरान प्रोफ़ेसर भगवत् नारायण शर्मा जी का संस्मरण नहीं भूलता और पीएचडी के गाइड प्रोफ़ेसर श्यामलाल यादव सर, आरबीएस कालेज के ही प्रोफ़ेसर वी के सिंह, सुषमा सिंह, उमा अवस्थी, युवराज सिंह की याद आती है। फिर अध्यापन काल प्रारंभ होता है। उससे पहले सचिवालय में सेवा करते हुए शिक्षक न सही, पर अपने वरिष्ठ सहकर्मी खूब याद आते हैं, ख़ान साहब, पंडित जी, जयप्रकाश, रणवीर आदि। अध्यापन काल में उरई के प्रोफ़ेसर दिनेश चंद्र द्विवेदी, आर एन शर्मा जी, वी के सिंह, कनिष्ठ शिक्षक साथियों के नाम नहीं दे रहे हैं। दूसरे कॉलेज के अनिल श्रीवास्तव सर, राजेंद्र कुमार सर, सत्य प्रकाश सर, आदित्य कुमार जी, फिर यहाँ ललितपुर में नेहरू महाविद्यालय के शिक्षकों में अपने विषय की प्रतिभा के दर्शन होते हैं। आप सब और हमारे होनहार छात्र छात्राओं को हार्दिक शुभकामनाएँ। ६/९/२३ पाँच में से किसी एक इंद्रिय को जय कर लेने से मन नियंत्रित होता है। कहीं कहीं दीक्षा ग्रहण के समय या तीर्थाटन पर कोई खाने पाइन की चीज छोड़ देने का संकल्प लेकर लौटते हैं। उससे मन एयर वासना पर नियंत्रण का अभ्यास होता है। मन पर नियंत्रण ब्रह्म में रमण करने की योग्यता तय करता है। ब्रह्मचारी बनाता है। खाने पीने की कोई चीज छोड़ देने का उतना प्रभाव नहीं होगा, जितना शब्द स्पर्श रूप रस और गंध इन पाँच तन्मात्राओं में से किसी एक को छोड़ देने का प्रभाव होगा। यहाँ तक कि इन तन्मात्राओं को ग्रहण करने वाली कर्मेन्द्रियों में से कोई एक न रहने पर उस व्यक्ति के भीतर विलक्षण प्रतिभा का दर्शन होता है। संसारोsयमतीव विचित्रः। यह संसार अति विचित्र है। मुझे याद नहीं कि प्रत्यक्ष संपर्क में आया कोई व्यक्ति हमसे सदा प्रसन्न रहा हो, कभी न कभी, पहले या बाद में वह नाराज़ अवश्य हुआ। वे चाहे संबंधी हों, परिवारीजन हों या मित्रजन। जब हम यह देख रहे हों कि संसार में हम किसी को ख़ुश नहीं कर पाते, फिर उसका जतन किसलिए! किसी का कुछ छीना नहीं, किसी को दबाया और सताया नहीं, पीड़ित और शोषित नहीं किया, धन संग्रह नहीं किया, जो हुआ वह स्वतः, अनायास और बिना भागम भाग के। फिर लोग परेशान क्यों रहते हैं! जो दूसरों को छल कर या भ्रष्टाचरण से जो कुछ अर्जित करते हैं, क्या उनसे उनके संपर्कीजन सदा प्रसन्न रहते हैं, हम जानते हैं, कदापि नहीं। यह तक के लिए कि वे जिनके लिये ऐसा करते हैं, वे भी नहीं। फिर कदाचरण क्यों! फिर प्रश्न उठ सकता है कि हम आख़िर करें क्या! हम प्रसन्न रहें, आनंदित रहें, और इतने कि वह छलकता रहे, आप किसी अन्य को प्रसन्नता और आनंद प्रदान नहीं कर सकते हैं, आपकी छलकन से वे यदि और जब चाहें तो प्रसन्न और आनंदित हो सकते हैं। पुष्पों के मानिंद, वे दूसरों की प्रसन्नता के लिए नहीं खिलते हैं, अलबत्ता कोई सौंदर्यग्राही उन्हें देखकर जब तब आनंदित हो जाता है। झाड़ी या पौधे से उगे फूल उसकी प्रेमपूर्ण तपस्या से खिलते हैं। अपनी बास बिखेरते हैं, यहाँ तक कि कोई उन्हें मसल दे तो भी अपने गुणों से पृथक् नहीं होते। नाहं मन्ये सुवेदेति नो न वेदेति वेद च। यो नस्तद्वेद तद्वेद नो न वेदेति वेद च ॥ मैं तत्व को भलीभांति जानता हूँ- मैं नहीं मानता और न मानता हूं कि मैं तत्व को नहीं जानता। तत्व को जानता हूँ या नहीं, ऐसा सन्देह भी नहीं है। हममें से जो कोई उस तत्व को जानता है, वही इस वचन के तात्पर्य को जानता है। केनोपनिषद 2/2 'केनेषितं पतति प्रेषितं मनः' "किसके द्वारा उत्प्रेरित होकर मन अपने विषयों पर नीचे उतरता है?" ७/९/२३ कृष्णं वंदे जगद्गुरुम्। भगवान श्री कृष्ण जगद्गुरु हैं, जगद्गुरु की पात्रता समझनी हो तो कृष्ण को जानना आवश्यक होगा। कृष्ण हमारे योगक्षेम को वहन करने वाले हैं। उनकी ही शरण में जाने पर गंतव्य प्राप्त हो सकता है। कृष्ण कर्मयोगी हैं और उसी के लिए हम सबको अर्जुन बनाते हैं। ज्ञान, भक्ति और कर्म की त्रिवेणी का योग कृष्ण में होता है। इसीलिए वे योगेश्वर हैं, जहां योगेश्वर हैं वहाँ विजय होनी सुनिश्चित है। "येन केन प्रकारेण मनः कृष्णे निवेशयेत"- यह रूप गोस्वामी का निर्देश है। "किसी भी रीति-भाँति से मन को कृष्ण में स्थिर करो!" कृष्ण के जीवन से हमें प्रेमपूर्वक संघर्ष करना सीखने को मिलता है तो उनके गीतोपदेश से इससे पार जाने का उपाय प्राप्त होता है। रासलीला क्या है! यह हृदयंगम कर लेने पर उसका अर्थ विदित होता है। कृष्ण राधा और गोपियों के साथ रासलीला रचते हैं। यह प्रकृति के साथ पुरुष का सहचर है, जो वेदांतियों और शून्यवादियों से आगे का रस है।'लीला' भारतीय मनीषा का बीज शब्द है। अन्य भारतीय भाषाओं में इसके समानार्थी शब्दों की पड़ताल की जानी चाहिए। नीला और लीला ध्वनि विज्ञान के अनुसार एक ही शब्द होने चाहिए। परंतु दोनों के अर्थ अलग अलग प्रचलित हैं। नीला ब्रह्मांड का रंग है, लीला ब्रह्मांड की घटना पटीयसी है। इसी से लील जाना यानि निगल जाना शब्द विकसित हुए हैं। इस दृश्यमान जगत् को पचा जाना लीलना है। लीला अद्भुत शब्द है। लीला रचने वाले, उसे पचने वाले और पचाने वाले सब एक हैं। इसलिए लीला धारी की लीला का आनंद उठाना ही जीवन का ध्येय है। लीला में अपनी भूमिका का निर्वाह करना शरीर का गुणधर्म है। इस लीला का निर्देशक ईश्वर है, पर कैसे यह लीला या अभिनय किया जाना है, यह एक जीवन सत्य है, जो व्यक्ति को उपलब्ध करना है। नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत। स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव॥ आप सबको श्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ। ८/९/२३ ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में मौर्य साम्राज्य के दौरान यूनानी इतिहासकार मैगस्थनीज़ भारत आया, उसने इंडिका नाम से इतिहास की दृष्टि से एक बहुत महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी। इंडिया नाम का आधार यही पुस्तक है। मैगस्थनीज़ ने इंडिया नाम सिंधु नदी के किनारे बसी सभ्यता को नाम देते हुए दिया था। सिंधु को यूनानी इंडस कहते थे। इसी सिंधु नदी के उच्चार कारणों से हिंदू शब्द का विकास फ़ारसियों द्वारा हुआ। कोई स्थान नाम देने के पीछे भौगोलिक और ऐतिहासिक मुख्य आधार होते हैं। इस तरह यह नाम देने में हीनता तो नहीं दिखती, परंतु इंडियन नाम का अर्थ ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी में पहली मीनिंग के रूप में अ पर्सन फ्रॉम इंडिया दिया हुआ है पर दूसरी मीनिंग ओल्ड फ़ैशंड, ऑफ़ेंसिव दी गई है। आपत्ति का मूल यहाँ से शुरू होता है। अब हम इंडिया नाम से पीछा तो नहीं छुड़ा सकते हैं, भारत एकमेव नाम देकर भी दुनिया के देशों में भारत का पढ़ाया जा रहा इतिहास कैसे बदला जा सकता है। इंडोनेशिया, वेस्ट इंडीज, रेड इंडियन जैसे देशों के दिए गए नामों के पीछे क्या निहितार्थ हैं! भारत नाम देकर भी हम अमेरिका के रेड इंडियन, और ऐसे नामों के अर्थ नहीं बदल सकते हैं। यद्यपि इंडिया ध्वनि मूल के इंडिजेनस शब्द का अर्थ बड़ा अच्छा है। इसका अर्थ स्वदेशी है। मूल स्थान से संबंधित होना इसका अर्थ है। संस्कृति के रूप में इंडिया मूलार्थवाची है। इस मूलावस्था को कतिपय इतिहासकारों ने ओल्ड फ़ैशंड और आक्रामक समझा। अतएव भारत का विकास सर्वविध होकर जो उसके बारे में जो हीन मान्यताएँ रखीं गयीं, उनका प्रतिस्थापन किया जा सकता है। अपने देश का भारत एकमात्र नाम देने से कोई हानि नहीं। इस नाम परिवर्तन का अर्थ यही माना जाना चाहिए कि कोई अप्रिय अतीत यदि इस देश के नाम से या इस नाम के मूल से किसी के मन में जुड़ा हो तो वह उसका परिमार्जन कर ले। दुनिया के दर्जनों देशों ने अपने नाम बदले हैं, यह कोई नया काम नहीं है. सांस्कृतिक कारणों से इंडिया नाम रखा गया, उसी कारण उसका नाम केवल भारत किए जाने की चर्चा है, इसमें क्या अस्वाभाविक है। संस्कृति कोई जड़ वस्तु तो है नहीं। नाम का कोई शब्द हो उसमे अर्थ भरने वाले उसके प्रयोक्ता व्यक्ति ही होते हैं। हमें उस अर्थ के प्रति सचेत रहना चाहिए.... १०/९/२३ बारिश के समय ध्यान करने से अनुभूतियों को सघनता मिलती है। बारिश के बीच पहले बिजली चमकती है, फिर मेघ गर्जन होता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि प्रकाश की सत्ता पहले है, ध्वनि की बाद में। ये दोनों इतने पूर्वापर हैं कि इनका क्रम भी सामान्यतः ज्ञात नहीं हो पाता। हैं तो यह दोनों एक ही, पर किसकी सत्ता पहले। बीज और वृक्ष की भाँति, शब्द और अर्थ तथा जल और उसकी लहर के संबंधवत इनका क्रम है। वस्तुतः प्रकाश की ही ध्वनि है और ध्वनि का ही प्रकाश है। शब्द अर्थ में भासित होता है और अर्थ शब्द में उपस्थित रहता है। जल से लहर पैदा होती है और वह लहर जल में ही विलीन हो जाती है। प्रकाश और ध्वनि के संबंध की भाँति बाद के स्तरों का नियोंजन होता रहता है, जिनसे जगत् व्यापार चलता है। मूल में प्रकाश ही है। जे पहुंचे ते कहि गए, तिनकी एकै बात। सबै सयाने एकमत, उनकी एकै जात।। 12/9/23 अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च |
निर्ममो निरहङ्कार: समदु:खसुख: क्षमी || 12-13||
सन्तुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चय: |
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्त: स मे प्रिय: || 14|| 13/9/23 ध्वनि सदा यथा नाम या शब्द ग्रहण नहीं हो पाती। शब्द कुछ बोला गया है ध्वनि कुछ ग्रहण की गई। अक्सर फेरी लगाने वाले जब अलग अलग स्टाइल से अपने उत्पाद बेचते हैं तो दूर से सुनने वाले कुछ का कुछ समझ लेते हैं। फेरीवाले यह स्टाइल जान कर प्रयुक्त करते हैं, जिससे ग्राहक सुनने और जानने की चेष्टा करे। नाम और रूप की श्रृंखला बनती है। जो ध्वनि है वह अव्यक्त नाम है। ध्वनि भी शब्द या नाम बाद में बनते हैं। ऐसी ध्वनि के बाद बने नाम का अर्थ या रूप बनता है। शिव अगर नाम है तो शक्ति रूप। यह क्रम सर्वत्र, सर्वरूप और सब कालों में है। शिव He is तो शक्ति She does हैं। अतः जहां शिव हैं, नाम है वहाँ शक्ति या रूप भी है। नाम बिना रूप के अनभिव्यक्त रहता है और रूप बिना नाम के बोधगम्य नहीं। अनभिव्यक्त रूप में नाम और रूप एक ही रहते हैं। शिव और शक्ति में पार्थक्य नहीं। नाम और रूप को क्रमशः शब्द और अर्थ, बीज और वृक्ष, अण्ड और मुर्गी की तरह भी ले सकते हैं। यह सैद्धांतिक बात हुई। अब प्रश्न इसकी व्यावहारिक समझ का है। इन दोनों के एकरूप होने और पार्थक्य होने, फिर एक होने की प्रक्रिया क्या है, यह कैसे घटित हो रही है। नाम अव्यक्त से व्यक्त स्वरूप में जब प्रकट होता है तो उसमें समाया हुआ रूप खुलने लगता है, जैसे किसी पौधे की कली से उसका फूल विकसित हो रहा हो। कली से विकसित फूल या बीज से उत्पन्न हो रहे अंकुर की ठीक ठीक प्रक्रिया को हम देख नहीं पाते, पर यह होता है यह तो जानते ही हैं। यही प्रक्रिया सतत् और सर्वत्र संचरित है, प्रतिक्षण घटित हो रही है। हम सब उस प्रक्रिया के घटक मात्र हैं। यानि हम प्रकृति हैं और इसे जो देखे वह पुरुष है। यह देखना लीला है। साक्षी भाव है। करुणा है, प्रेम है, आनंद है। शांति है। परम है। बोध प्राप्ति इसे ही कहते हैं। प्रत्येक जीव को बोध प्राप्ति के उपाय अपनाने की महती आवश्यकता है। जब और जिस भाँति मिले, सदा सचेष्ट रहना होता है। गुरु कृपा हि केवलं। उक्त विवरण में बहुत सी बातें नहीं कही गई हैं, कही भी नहीं जा सकती। उन बातों को ग्रहण करने का काम आपका है। बल्कि जो नहीं कहा गया, उसी को पकड़ना है। आप इस कहे हुए या अन्य कहे हुए के माध्यम से भी ऐसा कर सकते हैं, पर बोधव्य वही है। वस्तुतः बोधव्य प्राप्ति के बाद इस या उस कुछ रहता नहीं। दूसरे बोधि का कहा हुआ पहले बोधि के कहे से तत्व रूप में भिन्न नहीं होता, उनकी कहन अलग अलग अवश्य रहेगी। ishani sinh की फ़ेसबुक पोस्ट पर की गई टिप्पणी संतति का भाव आने पर काम की आवश्यकता समाप्त हो जायेगी। सब में सब हैं तो संतति भी है। परंतु उस संतान का उदय करना होगा। ऐसी संतान जब जन्म लेती है तो कोई सौतेला और पराया नहीं रह जाता। पितृ ऋण यह संतान उदय करके ही चुकता है। जिस प्रकार भूख लगने पर किसी न किसी प्रकार शरीर भोजन ले लेता है, उसी प्रकार पुत्र पुत्री आदि भी प्रकृति पैदा करवा लेती है। उसमें कोई विशेष बात नहीं। इसका कारण नितांत प्राकृतिक है। इसमें व्यक्ति का कर्तापन कुछ नहीं है। परंतु, संतति का भाव आने पर काम की आवश्यकता समाप्त हो जायेगी। उसका बाहरी लक्षण भी दिखता है जब पुत्र पुत्री जन्म होने के बाद पति पत्नी के बीच वैसे संबंध घट जाते हैं। वस्तुतः सब में सब बनकर आप जो विराजते हैं, उसका अवबोध संतान का उदय होना है। ऐसी संतान जब जन्म लेती है तो अयं निजः परोवेत्ति चला जाता है। पितृ ऋण यह संतान उदय करके ही चुकता है। पितृ ऋण इतना सस्ता नहीं, जैसा प्रायः ग्रहण किया जाता है। दूसरे को जन्म देने की वासना काम बन जाती है; और अपने को बचाने की वासना लोभ बन जाती है। जवानी की बीमारी, काम; बुढ़ापे की बीमारी, लोभ। १४/९/२३ हिंदी दिवस इस नाते मनाना अच्छा है कि इस दिन हिंदी के बारे में हिन्दी भाषा भाषी और हिंदीतर भारतीय भाषा भाषी व्यक्ति अपनी भावनाओं को व्यक्त कर लेते हैं। लोग हिंदी दिवस के कार्यक्रमों में हिंदी के प्रति अपनी वेदना व्यथा और गौरव गान करते हुए पाये जाते हैं। दोनों का अपनी अपनी जगह एक स्थान है। हिंदी को या तो एक सुदृढ़ स्थिति संवैधानिक राजव्यवस्था शुरू होने के समय मिल जाती, जिससे वह राजकाज चलाने योग्य समझ ली जाती। हमें भरोसा है कि अब तक की संचालित शासन व्यवस्था के बाद यह साबित भी हो जाता। या फिर अब उसका स्थान मिल जाये, जब वह अपने को अपनी प्रतिस्पर्धी भाषा से अधिक योग्य सिद्ध कर दे। हिंदी की प्रतिस्पर्धा अंग्रेज़ी से है, किसी अन्य भारतीय भाषा से नहीं। और हाँ अंग्रेजी से हिंदी की प्रतिस्पर्धा ही है, वैर नहीं। भाषाएँ तो वे खिड़कियाँ हैं जो हमारे भीतर प्रकाश का संचरण करने का निमित्त बनती हैं। निःसंदेह बाज़ार की दृष्टि से हिंदी बहुत संपन्न भाषा है। चीनी भाषा के बाद दुनिया में हिंदी सबसे अधिक बोली समझी जाने वाली भाषा है। परंतु बाज़ार के लिए बनी भाषा का भविष्य बाज़ार से ही निर्धारित होता है। भाषा की समृद्धि उसके साहित्य से तय होती है। अतः हम हिंदी साहित्य के गंभीर अध्येता बनें, हिंदी के प्रति आपकी सेवा हो जाएगी। १५/९/२३ ऊँचाई और गहराई देखने में दो हैं, वास्तव में वे एक वृत्त के दो सिरे हैं। इस वृत्त के जिस केंद्र पर आप होंगे, वहाँ से ही ऊँचाई और गहराई होगी। दोनों समान रूप में हैं। यह हमें समझना है कि हम कहाँ पहुँच रहे हैं। उस वृत्त को पूरा देख पा रहे या नहीं। वृत्त के पार तभी जा पाएंगे। हृदय की बात भारतीय वांगमय में बहुत आई है। पर यह का एक अंग विशेष मात्र नहीं। यह जागरूकता का केंद्र है। यह शरीर में सर्वत्र उपस्थित है। १६/९/२३ Bhairavī means, uninterrupted awareness. मरुतोऽन्तर्बहिर्वापि वियद्युग्मानिवर्तनात् । भैरव्या भैरवस्येत्थं भैरवि व्यज्यते वपुः ॥२५॥ विज्ञान भैरव Antar bahir, internally or outwardly (vāpi means “or”), internally or outwardly, marutaḥ, this energy of breath, when [it] is followed by two voids by returning back to two ethers, viyat yugma ānuvartanāt, by maintaining the uninterrupted awareness there–[that] means “bhairavyā”, by means of Bhairavī (Bhairavī means, uninterrupted awareness)–when You maintain uninterrupted awareness in these two voids (internally and externally; there is an internal void and an external void), ithaṁ, by this way of treading on this process (ithaṁ, by this way), bhairavasya vapuḥ vyajyate, the formation of the svarūpa [nature] of Bhairava is revealed (vyajyate). सर्वं सर्वेन भावितम् महान्‌ कलाविद आनन्द के कुमारस्वामी ने विद्यापतिपदावली की भूमिका में लिखा था कि जैसे रस का पर्यायवाची कोई शब्द अंग्रेजी में नहीं है , वैसे ही काम शब्द का भी कोई पर्यायवाची नहीं है ! सेक्स तो मनुष्य की जैविक-प्रवृत्ति को ही व्यक्त कर सकता है ! कमनीयता , कामना , काम्य जैसे शब्द भी तो काम शब्द के ही पारिवारिक हैं ! यदि काम सेक्स का ही पर्याय होता तो भला काम को पुरुषार्थ क्यों माना जाता ? भाषा और जीवन:::समग्र दृष्टिकोण ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ संसार की किसी भी भाषा का अध्ययन आप करिये , भाषा को वहाँ के जीवन और जीवन की निरन्तर परंपरा से या जीवन की अविच्छिन्न धारा से अलग करके नहीं समझा जा सकता ! भाषा का एक एक शब्द आपको अपने परिवेश की कहानी सुना सकता है ! एक एक शब्द का अपना भूगोल होता है , अपना सामाजिक- आर्थिक-सांस्कृतिक परिवेश होता है ! उस भाषा में किन किन संस्कृतियों की अन्तर्भुक्ति हुई है , क्यों उसमें अन्य संस्कृतियों से आगत शब्द हैं ? आदमी है तो उसके पास उसकी भाषा भी है , जो उस आदमी की जिन्दगी में समायी हुई है , आदमी चलता है तो उसके साथ उसकी भाषा चलती है , दो आदमी मिलते हैं तो दो भाषाएं भी मिल जाती हैं , एक आदमी शक्तिशाली है , दूसरे को प्रभावित कर सकता है तो उसकी भाषा भी दूसरे आदमी को प्रभावित करेगी ही ! इसी प्रकार से एक जाति दूसरी जाति से मिलती है तो उनकी भाषाएं भी मिल जायेंगी ! जो जाति जितनी उन्नत होगी , उसकी शब्दावली भी उतनी ही विस्तृत होगी ! उन्नत भाषा के शब्द अन्य भाषाओं में समा जायेंगे ! इस लिए भाषा को उन्नत करने का सवाल उस जाति को उन्नत करने से जुड़ा हुआ है ! जिस मानव जाति के ज्ञान में विज्ञान में नये नये पुरुषार्थ होंगे तो उसके पास भाषा का भी उतना ही बड़ा पुरुषार्थ होगा ! भाषा का इतिहास उस जाति का इतिहास होता है ! इतिहास के मोड़ भाषा को भी दिशा देते हैं ! विजेता जाति की भाषा पराजित जाति की भाषा को उसी अनुपात में प्रभावित करती है ! उदाहरण के लिये आप एक गाँव की ही बोली का अध्ययन करके वहाँ के समाजशास्त्र और अर्थव्यवस्था ,वहाँ की संस्कृति को समझ सकते हैं । राजेंद्र रंजन चतुर्वेदी भारत का तत्वबोध स्पष्ट करता है कि इस विराट में कुछ भी विच्छिन्न नहीं है ।जैसे समुद्र में एक लहर से दूसरी लहर जुडी है, उसी प्रकार जीवन में सबकुछ सबकुछ से जुडा है ।भाषा ,कला , साहित्य ,संस्कृति,दर्शन,ज्ञान-विज्ञान में ऐसा कुछ भी नहीं है , जो उस समग्रता से भिन्न या विच्छिन्न हो । ज्ञान का आँगन एक है, वहाँ कोई लकीर नहीं है, यदि विश्वविद्यालयों ने बनायीं हैं तो वे उनकी सुविधा की बात है, ये कृत्रिम हैं , इनको हम नहीं मानते. हमको समझना है कि धरती और बीज के सम्बन्ध का मनुष्य पर और समग्र परिवेश पर क्या प्रभाव पड़ा? प्रो कपिला वात्स्यायन और प्रो राजेंद्र रंजन चतुर्वेदी लोक और वेद की दोनों धाराओं में हमारे पास ज्ञानविज्ञान की अथाह संपदा है ,हमने मैथोडोलोजी [ अध्ययन-अनुसंधान की विश्वस्तरीय -प्रणालियाँ ] विकसित नहीं की ।-हम अपने ज्ञानविज्ञान की अथाह संपदा की महिमा का चाहे जितना कीर्तन करते रहें किन्तु जब तक हमारे पास आधुनिक और विश्वस्तरीय - मैथोडोलोजी नहीं होगी तब तक हम अपने ज्ञानविज्ञान की अथाह संपदा को विश्वस्तर पर प्रतिष्ठित नहीं कर सकेंगे ।"उधर पश्चिम के मनीषी अपनी अध्ययन-अनुसंधान की प्रणालियाँ विकसित करते चले गये । परंतु! विधियां अवैयक्तिक होती हैं। जबकि अनुभव वैयक्तिक। अनुभवप्रसूत ज्ञान की क्या बनी बनायी प्रणाली हो सकती है। फिर भी अनुभवों की गहनता और उनकी सामान्यता को लेकर प्रणाली का सिरा तो पकड़ा ही जा सकता है। यह चुनौती भारत विद्या और उसे पसंद करने वाले व्यक्तियों के लिए स्वीकार करनी चाहिए। पश्चिम ने विधियाँ बनायीं, उनसे उनका भौतिक जीवन आसान हुआ है, इसमें कोई संदेह नहीं। भारत यदि अपने अनुभव को विधियों में ढाल ले तो यह सर्वोत्तम स्थिति होगी। १७/९/२३ आजकल वृंदावन में एक संत स्वामी प्रेमानंद जी महाराज की रील और क्लिप्स खूब सुनने को मिल रही हैं। पीले वस्त्रों और मस्तक पर्यंत पीले तिलक लगाये स्वामी जी कोई कथा नहीं करते, बस भक्तों के चरित्र सुनाते हैं, संस्कृत और भक्ति के पद गाते हैं, उनकी व्याख्या करते हैं और नाम महिमा कहते हैं। वे वृंदावन और राधा दोनों की महिमा में आकंठ और सतत् निमग्न दिखते हैं। राधा जिन्हें उनके श्री राधाबल्लभीय संप्रदाय में श्रीजी और कृष्ण को प्रियालालजू कहते हैं। श्री राधाबल्लभ संप्रदाय १६वीं शताब्दी में श्री हितहरिवंश जू द्वारा प्रवर्तित हुआ, उस संप्रदाय के यह संत श्रद्धालुजन को बहुत प्रभावित कर रहे हैं। वे परम दशा को उपलब्ध हुए जान पड़ते हैं। उनके मुखारविंद से केवल भगवन्नाम महिमा सुनने को मिलती है, जो शास्त्रसम्मत और अनुभवसिद्ध है। वे राजनीतिक बातें कहते हुए नहीं सुने जाते। किसी से कोई याचना नहीं करते हैं और नाम साधना के अतिरिक्त न किसी को कोई प्रवृत्ति प्रदान करते हैं। उनके बड़े-बड़े पंडाल नहीं लगे होते। मुँह पर मास्क लगाए हुए ७-८ भद्र व्यक्तियों के साथ नियत समय पर प्रश्नोत्तर शैली में वे एकांत सत्संग करते हैं। उनकी दिनचर्या नियमित है। रात ढाई तीन बजे जब वृंदावन में सैर करने निकलते हैं, उनके आम दर्शन केवल तब ही हो पाते हैं। उनकी दोनों किडनियाँ ख़राब हो चुकी हैं। पर उनके भीतर करुणा और प्रेम जिस प्रकार हिलोरें भरता है और उबाल मारता है, उसके छींटे पाने की अभिलाषा हर श्रद्धावान के भीतर जागती रहती है। मेडिकल डॉक्टर तो उन्हें १७-१८ वर्ष पहले उनके मात्र डेढ़ दो वर्ष जीवन रहने की घोषणा कर चुके थे, पर तब से वे डायलिसिस पर चल रहे हैं। ऐसे अद्भुत संत के दर्शन करने की चर्चा हम अपने लोगों के बीच किया करते हैं, दर्शन जब हों जैसे हों, पर हमें उनके प्रवचन इंटरनेट के माध्यम से नित्यप्रति सुनने का अवसर मिल जाता है। हम सब श्रीजी और अपने अपने इष्टदेव से उनके मंगल स्वास्थ्य की कामना करते हैं। वे इसी तरह भारतजन को अपनी भक्ति प्रदान करते रहें। आज का दिन कुछ विशेष है क्या! सुबह के ध्यान me आचार्य शंकर की पंक्तियाँ याद आई इह संसारे खलु दुस्तारे कृपया पारे पाहि मुरारे.. फिर मोबाइल देखा तो फ़ेसबुक आज के दिन की तीन वर्ष पहले की यह पोस्ट स्मरण करा रहा था. संसारोsयमतीव विचित्रः। संसारीजन अपने सुख और दुःख में खींचते है। इनसे जब अपेक्षा रखेंगे तो नहीं मिलेगा, जब नहीं मांगेगे तो ज़बरदस्ती देंगे। ज्ञाते तत्वे कः संसारः #आत्मबोध_विमर्श - 40....अनु में अनंत 😇 ------------- * अनंत अनु में व्याप्त होता है। अनु है सबसे लघु और अनंत है सबसे बृहद्, 'अ' द्योतक है पूर्व/आदि काल का। 'न्' द्योतक है बहुवचन या अनंत का। 'उ' द्योतक है उर्ध्व लोक का। अर्थात्, * 'अनु' आदिकाल से ही उस अनंत को धारण करता ‌है, जिसका बोध उर्ध्वरेता ध्यान-योगी करता है ध्यान में, उर्ध्वलोक में। -- इस अनु को ही बिन्दु, अव्यक्त ब्रह्म, कहा गया है उपनिषद् में, जिससे सृष्टि का प्राकट्य, संचालन व लोप होता है। * यह प्रक्रिया निरंतर घटित होती रहती है ब्रह्मांड में। नवीन सूर्य (तारे) बनते रहते हैं अपने ग्रहमंडलों के साथ और उनका क्षय भी होता रहता है कालावधि पूर्ण होने पर। * पृथ्वी पर जगत् का प्रादुर्भाव सूर्य की रश्मियों से हुआ ‌है और ‌इसका लय भी होगा यथा समय। सूर्य को जगत् का आत्मा कहा गया है यजुर्वेद (7/42) में, यथा, "#सूर्य_आत्मा_जगतस्तस्थुषश्च" * 'अनु' का बोध ध्यान में जिस योगी को हो‌ जाता है, वह‌ जीवन्मुक्त हो जाता है, स्वयं की प्रकृति ‌का ‌स्वामी हो जाता है। -- स्वयं की प्रकृति के‌ स्वामी को पुरुष संज्ञा ‌से विभूषित किया गया है, पुरुष है पुर् + उष !! -- पुर् को‌ पंचभूतात्मक शरीर कहते हैं जिसमें जीव-आत्मा का वास है। जीव त्रिगुणात्मिका प्रकृति है अंत:करण चतुष्टय, मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त, के साथ। * चित्त में वृत्तियों का, सूक्ष्म संस्कारों के रूप में, संचय ‌होता है। यह संस्कार कर्मफल हैं और जन्म-मृत्यु चक्र में बांधते ‌हैं जीव को। * ध्यान-योग, प्राणायाम आदि, के अनुशीलन से साधक-योगी सभी जन्म-जन्मांतरों की वृत्तियों का भोग करता है ध्यान में ही, जिससे वह कर्म में परिवर्तित नहीं होती हैं। इस तरह से चित्त निर्मल हो जाता है और होता है अपने चैतन्य स्वरूप में प्रतिष्ठित। -- यह चैतन्य स्वरूप ‌चित्त‌ ही आत्मा कहा जाता है, जो सदा अव्यक्त है और ‌बिन्दु स्वरूप में ही दीख पड़ता‌ है ध्यान में। * यह बिन्दु ‌उष् है, जिसके प्राकट्य को उषा कहा गया है ऋग्वेद में। ध्यान में भी उष् से आदित्य की प्रभा उदित होती है। आदित्य की रश्मियों से जगत् का, विश्व का, संसार का, संचालन संभव होता है। * आदित्य द्वादश हैं, जिनमें एक की संज्ञा विष्णु है। इसी आदित्य विष्णु के अवतार हैं श्रीराम व श्रीकृष्ण। धर्म की पुन: स्थापना के लिए, अधर्म का नाश करने के लिए, साधु पुरुषों, जो साधना में रत हैं, की रक्षा के लिए, आदित्य विष्णु का अवतार के रूप में आविर्भाव होता है जगत् में, जब अधर्मियों का प्रभुत्व स्थापित होने लगता है विश्व में। * श्रीमद्भगवद्गीता (4/8) का कथन है, "#परित्राणाय_साधूनां_विनाशाय_च_दुष्कृताम्। #धर्म_संस्थापनार्थाय_संभवामि_युगे_युगे"॥ * अनु भव, कि, अनु हो‌ जाओ, सर्वोत्तम आशिर्वाद होगा एक ब्रह्मगुरू का किसी योग्य ध्यान-योगी शिष्य के लिए !! #सुशील_जालान, 11.08.2021.😇 ------------ १८/९/२३ जगत्विख्यात महर्षि पतंजलि दूसरी से चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में हुए हैं। इनके तीन बड़े काम हैं योगसूत्र, पाणिनि के व्याकरण का भाष्य और रसायन विद्या।योग का जनक इन्हें कहा गया है। तमिल परंपरा में पतंजलि १८ सिद्धों में से एक हैं। यौगिक परंपरा में सर्प सोयी हुई शक्ति का प्रतीक है। पतंजलि ऋषि का स्वरूप साढ़े तीन वलय के भुजंग पर बैठे हुए मिलता है, जिसे सहस्र फ़नों से ढँका हुआ चित्रित किया जाता है। पतंजलि रहस्यपूर्ण ऋषि हुए हैं। इनके नाम और काम से भारत एक बनता है। उत्तर में अफ़ग़ानिस्तान से लेकर दक्षिण में तमिलनाडु तक यह पूज्य हैं। इनका अवतरण योग विद्या के प्रसार के निमित्त हुआ। एक छोटे सर्प के रूप में यह कुमारी माता गोनिका की अंजलि में गिरे थे, इसी से इनका नाम पतंजलि पड़ा। यह माता स्वयं शक्तिशाली योगिनी थी। पतंजलि को सहस्र मुखी शेषनाग या अनंत का अवतार माना जाता है। कश्मीर में अनंत भट्टारक पतंजलि से साम्य रखते हैं। इनके सर्प वलय भगवान विष्णु के कार्य किया करते हैं। नाग परंपरा में भी यह समादृत हैं। कल एक अंत्येष्टि संस्कार में ललितपुर के गाँव सैदपुर जाना हुआ, वहाँ लौटते हुए हमारे फूफा जी प्रबुद्ध अधिवक्ता अरविंद नायक जी ने नाग देव जी के नाम से तालाब किनारे प्रसिद्ध मंदिर के चलते चलते दर्शन कराये। पतंजलि का विग्रह घर में जो था, उसी से मिलता हुआ विग्रह उस मंदिर में है। योगेन चित्तस्य पदेन वाचां मलं शरीरस्य च वैद्यकेन। योऽपाकरोत्तं प्रवरं मुनीनां पतञ्जलिं प्राञ्जलिरानतोऽस्मि॥ I bow with my hands together to the eminent sage Patañjali, who removed the impurities of the mind through yoga, of speech through grammar, and of the body through medicine. वैदिक मान्यताएं उपसंहार (भाग 2) 88) उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान् निबोधत। (उठो, जागो, श्रेष्ठ पुरुषों से संपर्क कर, परमात्म- तत्त्व को जानो) यह हमारा सौभाग्य है कि हमने पृथ्वी के स्वर्ग सरीखे भूभाग भारतवर्ष में जन्म लिया तथा मां के दूध के साथ ही अमृतमयी वैदिक संस्कृति का पान किया। वैदिक (प्राच्य भारतीय) संस्कृति की महानता इसका आध्यात्मिक दृष्टिकोण है जो कण-कण में परमात्मा को एवं प्राणीमात्र में आत्मवत् तत्त्व को व्याप्त मानता है। यही आध्यात्मिक दृष्टिकोण इसे विश्व की सर्वश्रेष्ठ संस्कृति तथा भारत को विश्व गुरु का सम्मान प्राप्त कराता है। इसी आध्यात्मिक दृष्टिकोण के कारण महर्षि मनु, औरंगजेब के बड़े भाई दारा शिकोह तथा विश्व विख्यात दार्शनिक मैक्स मूलर, शोपनहार, विल्ड्युरां, मार्क ट्वैन आदि भारत की भूरि भूरि प्रशंसा करते हैं : i) " एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मन:। स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन्पृथिव्यां सर्वमानवा:।। " --- मनुस्मृति 2.20 अर्थात इस देश में उत्पन्न हुए पूर्व जनों के विचारों से, पृथ्वी के सभी लोग अपने-अपने चरित्र निर्माण के लिए शिक्षा प्राप्त करें। ii) " अध्यात्म विद्या के मैंने बहुत ग्रंथ पढ़ें, पर परमात्मा की खोज की प्यास कहीं नहीं बुझी। ... मैंने कुरान, तैरेत, इंजील, जबूर अधिक पढ़ें, उनमें ईश्वर संबंधी जो वर्णन है, उनसे मन की प्यास नहीं बुझी। तब हिंदुओं की ईश्वरीय पुस्तकें पढ़ी। इनमें उपनिषदों का ज्ञान ऐसा है जिससे आत्मा को शाश्वत शान्ति तथा सच्चे आनन्द की प्राप्ति होती है। " --- दारा शिकोह ( उपनिषदों के फारसी अनुवाद की भूमिका ) iii) " समस्त संसार में कोई भी अध्ययन इतना हितकर और इतना उन्नत करने वाला नहीं जितना कि उपनिषदों का अध्ययन। इनके अध्ययन ने मुझे जीवन में शान्ति दी है -- इनका अध्ययन मुझे मृत्यु समय भी शान्ति देगा। --- शेपनहार iv) " यदि कोई मुझसे पूछे कि गगन के किस भाग के नीचे मानव-मानस ने दैवी देन को पूर्णतः विकसित किया है, जीवन की गहन समस्याओं पर गंभीरता से विचार किया है तथा उनमें से कुछ का समाधान भी ढूंढा है, जो प्लेटो और कांट के अध्ययन - कर्त्ताओं का भी ध्यान आकर्षित करता है, मैं भारत की ओर संकेत करूंगा। " -- मैक्स मूलर ( इंडिया : वट कैन इट टीच अस ? - पृष्ठ 4 ) v) " भारत माता कई मायनों में हम सब की माता है।" -- विल्ड्युरां vi) " भारत मानव जाति का पलना है, मानव भाषा की जन्मस्थली है, इतिहास की मातृ , जनश्रुति की मातृमही एवं परम्परा की परमातृमही है। " -- मार्क ट्वेन vii) " हे प्रभो ! मेरा समस्त जीवन लेकर केवल एक दिन भारत निवास को दे दो, क्योंकि वहां पहुंचकर मनुष्य जीवन मुक्त हो जाता है। " ‌ -- उमर बिने हश्शाम ( उपनाम : ' अबुल हकम '-- ज्ञान का पिता) / हज़रत मुहम्मद के चाचा ) ऐसी महान संस्कृति जो विश्व में सर्वाग्रगण्य है ,सम्मानित है, और जिसके प्रति विश्व में दिग्दर्शन कराने की प्रत्याशा है, इसे अक्षुण्ण रखने का दायित्व इसकी वर्तमान पीढ़ी का है। इस संस्कृति के जीवन मूल्यों को न केवल हमने अपने जीवन में डालना है, अपितु अपनी सन्तति के जीवन में भी इनका संचार करना है। यह एक पितृऋण है जिससे उऋण होने का केवल एक ही मार्ग है कि परम्परागत जीवन मूल्यों पर स्वयं चले एवं अपनी सन्तति को इस पर चलने के लिए प्रेरित करें। ऐसा न हो कि भविष्य में कोई चिंतक स्वामी विवेकानन्द की भान्ति भारतीय संस्कृति के प्रति वही पीड़ात्मक शब्द दोहराए जो उन्होंने रोम की महान् संस्कृति ( Roman Civilisation) के विषय में कहे थे : "Spider weaves the web where Caesar ruled." अर्थात् जहां सीज़र ने राज्य किया वहां आज मकड़े जाला बुन रहे हैं। कहने का भाव यह कि वह संस्कृति अब लुप्त-प्राय हो गई है। मिस्र में पांच सहस्र वर्ष से पिरामिड आज भी गर्व से सिर उठाए खड़े हैं ; पर दुर्भाग्यवश आज मिस्र के लोग रेखा गणित एवं शिल्प विद्या के उन रहस्यों से अनभिज्ञ है। प्राचीन मिस्र के मृतकों के शव आज भी अपने जीवित शरीर की आकृति का आभास करा सकते हैं परन्त दुर्भाग्यवश यह अद्भुत रहस्य भी मिस्र के लोगों को आज ज्ञात नहीं। वह संस्कृति भी लुप्त-प्राय हो गई है। यह हमारा सौभाग्य है के प्राचीन भारत की महान् संस्कृति के विषय में ऐसा नहीं कहा जा सकता। हमारी संस्कृति के आधारभूत मूल्य आज भी जन जनार्दन के मानस पटल पर समुचित प्रभाव बनाए हुए हैं। तभी तो किसी पाश्चात्य विद्वान ने कहा है : " Every Indian is a born philosopher." अर्थात् प्रत्येक भारतीय एक जन्मजात दार्शनिक है। स्वामी विवेकानन्द के निम्न शब्द जहां भारतीय सभ्यता की अमरता के प्रति आश्वस्त करते हैं, वहां इन पर निष्ठापूर्वक आचरण के लिए सावधान भी करते हैं : " भारतीय राष्ट्र को मिटाया नहीं जा सकता। यह अ-मृत रहा है और अ-मृत रहेगा, जब तक इसकी आत्मा इसका आधारभूत रहेगी ; जब तक भारतवासी अपनी आध्यात्मिकता को नहीं छोड़ देते।" निष्कर्ष वैसे तो हमने पूर्व सभी लेखों में इस महान् भारतीय संस्कृति का विस्तार से वर्णन किया है, फिर भी संक्षिप्त रूप में, इसका सारांश यहां देना संदर्भ संगत है। वैदिक संस्कृति के दो आधारभूत स्तम्भ है : यज्ञ और योग। यज्ञ का अर्थ केवल अग्निहोत्र या हवन नहीं है; यह केवल प्रतीकात्मक है। हर श्रेष्ठ कार्य जो मानव मात्र के कल्याण के लिए किया जाता है , वह यज्ञ है। गीता (5.25) आश्वस्त करती है: " लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणं.... सर्वभूतहिते रता:।" अर्थात जो लोग प्राणी मात्र के हित में कार्यरत रहते हैं, वे मोक्ष को प्राप्त करते हैं, ईश्वर का साक्षात्कार करते हैं। ऋग्वेद (10.26.5) का मंत्राश है : " ऋषि: स यो मनुर्हित:।" अर्थात ऋषि वह है जो मानव मात्र का हित करता है। यज्ञ की आत्मा है " इदन्न मम "-- यह मेरा नहीं है, सब कुछ ईश्वर का है। नि:स्वार्थ भाव से, त्यागभाव से परोपकार के कार्य करने चाहिए। यजुर्वेद का उपदेश है : " मनो यज्ञेन कल्पताम् ... आत्मा यज्ञेन कल्पताम्।" अर्थात् मन को , आत्मा को यज्ञ से पवित्र करो; पुष्ट करो। गीता (3.9) का उपदेश है : " यज्ञार्थात् कर्मणोsन्यत्र लोकोsयं कर्मबन्धन:।" अर्थात यज्ञ की भावना से, ईश्वर समर्पित भाव से किए गए कर्मों के अतिरिक्त कर्म करने से मनुष्य कर्मों द्वारा बन्ध जाता है। यज्ञभाव से किया कर्म, निष्काम कर्म है, कर्म योग है। योग की पद्धति ज्ञानयोग और भक्तियोग का समन्वय है। पूर्व लेख में हमने बताया कि योग भारतीय संस्कृति की कार्यशाला है। इस से सत्य के दर्शन होते हैं। महर्षि याज्ञवल्क्य ने योग की परिभाषा इस प्रकार की है : " संयोगो योग: इति उक्तो जीवात्मपरमात्मनोरिति। " अर्थात् आत्मा और परमात्मा का संयोग योग कहलाता है। यज्ञ भी ईश्वर का रूप है : यज्ञो वै विष्णु:। यज्ञ और योग दोनों से इहलोक और परलोक, अभ्युदय व नि:श्रेयस की सिद्धि होती है -- सांसारिक सुख - सुविधाएं, मनोकामनाएं की पूर्ति होती है, तथा परम आनन्द व मोक्ष की प्राप्ति होती है। कालान्तर में जब यज्ञ और योग की अवहेलना होने लगी, त्याग यज्ञ का और तपस्या योग का प्रतीक बन गए। भारतीय संस्कृति त्याग और तपस्या की संस्कृति के रूप में जानी जाने लगी। अब योग पुनः अपनी आभा के साथ विश्व में प्रतिष्ठित होने लगा है। आशा है कि शीघ्र ही भोगवाद से संतप्त विश्व, " तेन त्यक्तेन भुंजिथा "-- (त्याग भाव से ईश्वर प्रदत्त साधनों का प्रयोग करो) के महत्त्व को पहचानेगा और तदानुसार प्रकृति संसाधनों का विवेकपूर्ण उपभोग करेगा और भातृभाव से प्रेरित होकर वंचितों की सहायता के लिए उद्यत होगा। किसी पाश्चात्य विद्वान का सटीक परामर्श है : " One should warm the hands without burning them." अर्थात् हाथों को गर्म करते समय ध्यान रखो कि वे जलें नहीं।" कहने का अभिप्राय यह कि भोग्य पदार्थों के असंयमित भोग से जहां आप अन्यों के लिए अभाव की स्थिति उत्पन्न करते हैं, आप अपना भी अहित करते हैं। त्याग और तपस्या की भारतीय संस्कृति के महत्त्व को रेखांकित करते हुए अमेरिकी दार्शनिक मार्क ट्वेन के शब्द अनुकरणीय हैं : " मानव इतिहास के इस सबसे अधिक भयावह काल में मुक्ति का एकमात्र उपाय प्राच्य हिन्दू जीवन पद्धति है।" अतः यह हमारा कर्तव्य बनता है कि हम इस महान् सांस्कृतिक निधि को, आध्यात्मिक जीवन पद्धति को, आगामी पीढ़ियों के लिए अक्षुण्ण रखें। तदर्थ आत्मविश्वास से, दृढ़ संकल्प होकर, हम अपने कर्तव्य का पालन करें। तभी भारत के विश्वगुरु बनने का सपना भी साकार हो पाएगा। विश्व तो हमारी ओर लालायित दृष्टि से देख रहा है परन्तु हमें भी तो अपनी संस्कृति के प्रचार प्रसार के लिए कर्मठ होना होगा। ब्रिटेन देश के सम्मानित लार्ड फलिंच के भारत के प्रति श्रद्धाभाव स्वर्णिम अक्षरों में अंकित होने योग्य है : " हे भारत माता क्या हमारी सहायता नहीं करोगी ? हमारे प्रति सहिष्णु बनो, हम तुम्हारे ही पुत्र हैं। तू हमारे आविर्भाव से पहले उन्नति की चरम सीमा पर पहुंच चुकी हो। हमारा मार्ग घातक और सकण्क है, सहायता करो भारत माता। हम तुम्हारे वास्तविक वैदिक पुत्र, अपनी मातृभूमि पर टकटकी लगाए हुए हैं। हम मिलकर, संसार में पुनरुत्थान और नैतिकता के शक्तिपुंज बन सकते हैं।" -- लार्ड फलिंच ( यह वैदिक मान्यताएं की ' इति ' नहीं, आरम्भ है ! ) ................ पादपाठ 1) Oh India ! Will you not help us? Be patient with us, India ! Remember we are your children. You are old and learned and wise before we existed. Our path is steep and thorny. Help us, Mother India ! We, your real Vedic children, are turning our gaze to our motherland, together We can be come the great regenerating and moralising force of this world. --- Lord Flint. 2) " व सहबी केयाम फ़ीमकामिल हिन्दे यौमन। व यक़ुलून लातहज़न फ़इन्नक तवज्जरू।। " --- उमर बिने हश्शाम ( से अरुल ओकुल पृष्ठ 235) / ( बिरला मंदिर दिल्ली प्रस्तर लेख ) 3) " यूनान मिश्र रोमा सब मिट गए जहां से, अब तक मगर है बाकी नामोनिशान हमारा। कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी सदियों रहा है दुश्मन दौरे जमां हमारा।। -- मोहम्मद इकबाल 4) "The Indian nation cannot be killed. Deathless it stands and it will stand, so long as that spirit shall remain as the background , so long as her people do not give up their spirituality." --- Swami Vivekananda 5) Study the past if you would divine the future . ---Confucius भूतकाल का अध्ययन करो यदि भविष्य को दिव्य बनाना चाहते हो। -- कन्फ्युशस 6) Awake, arise or be forever fallen. --John Milton (The Paradise Lost ) जागो, उठो अथवा सदा के लिए गर्त में पड़े रहो। --- मिल्टन ( पैराडाइज लास्ट ) 7) " At this extremely dangerous moment in human history , the only way of salvation is the ancient Hindu way. --- Mark Twain ............ Its English version is available on our page The Vedic Trinity The Epilogue ( Part 2 ) 88) Arise, Awake, Approach the wise and Know Thyself. ............... Best Wishes Vidya Sagar Verma Former Ambassador ................ २०/९/२३ गणेश और हनुमान शुक्ल यजुर्वेद 23/19 में यह प्रसिद्ध और बहुप्रयुक्त ऋचा आई है... ॐ गणानांत्वा गणपति ग्वं हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपति ग्वं हवामहे निधीनां त्वा निधिपति ग्वं हवामहे वसो मम । आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम् ॥ हे गणपते ! गणों के मध्य में गणों के पालक! हम तुम्हें आहूत करते हैं। हे प्रियों के मध्य में प्रियों के पालक! हम तुम्हें आहूत करते हैं । हे सुखनिधियों के मध्य में सुख निधियों के पालक! हम तुम्हें आहूत करते हैं । हे वसो! हे प्रजापते! व्यापक होकर संपूर्ण संसार में निवास करने के कारण आप मेरे पालक हों। जिस प्रकार पत्नी अपने पति को जानती है, उसी प्रकार मैं भी आपको जानूँ। मैं आपके निकट से निकटतर होता जाऊँ।। अधर पान करते हुए आपके शरीर के जीवन सत्व का रसास्वादन लूँ तथा आपके आत्मज को प्रकट करूँ। पञ्चप्राणों के पाँच सौम्य , और पाँच उग्र रूप -- दस महाविद्याएँ हैं। ये पञ्चप्राण ही गणेश जी के गण हैं, जिनके वे ओंकार रूप में अधिपति हैं। यहाँ उनके नाम के साथ श्री शब्द है जो रिद्धी सिद्धि का प्रतीक है। वे रिद्धी-सिद्धि के भी स्वामी हैं। वे परमात्मा के वाचक एकाक्षर ओंकार "ॐ" हैं, यानि वे प्रणव रूप में परमात्मा के वाचक हैं। ॐ ॐ विश्वास (शिव) एवं श्रद्धा (शक्ति) के संयोग से ज्ञानरूपी गणेश का प्राकट्य होता है। हनुमान" और "हनुमत" शब्द को समझने के लिए सब तरह के "मान" यानि अहंभाव से मुक्त होना पड़ेगा। अहंभाव से मुक्त हुये बिना न तो उनको समझ सकते है, और न ही उनके बीजमंत्र "हं" को। अहंभाव से युक्त रहते हुए -- तत्व की बात समझ में नहीं आयेगी। यह साधना का विषय है जो उनकी कृपा से ही हो सकती है। इसे समझना भी बहुत आवश्यक है क्योंकि हमें निज जीवन में राम जी को प्राप्त करना है। इसके लिए एक उच्चतर से भी अधिक उच्चतर चेतना में स्थित होना होगा जो उनके अनुग्रह के बिना संभव नहीं है -- "राम दुआरे तुम रखवारे, होत न आज्ञा बिनु पैसारे"। यहाँ पैसारे का अर्थ प्रवेश है, न कि रुपया पैसा। २२/९/२३ ज्ञान को jnana तो लिखा ही जाता है। यह जानना और जागना भी है। jnana और ध्यान भी मिलते हुए पद हैं। 23/9/23 संन्यास (१) श्रुति ने "न्यास: ब्रह्म:" संन्यास को ब्रह्मस्वरूप कहा है । संन्यास क्या है ? क्रमानुसार इच्छाओं के त्याग का नाम संन्यास है । विष्णुसहस्त्रनाम में भी संन्यास विष्णु भगवान् के हजार नामों में एक नाम कहा गया है । वृहदारण्यक उपनिषद् के तीसरे अध्याय के पांचवें ब्राह्मण के भाष्य में भाष्यकार श्रीशंकराचार्य जी लिखते हैं कि जीव को जन्म-मरण रूपी बन्धन की प्राप्ति कारण सहित है ; इसका कारण अध्यास या भ्रान्ति है । यह अनेकों प्रकार का है , उनमें एक देहाध्यास है । इस अध्यास की निवृत्ति आत्मा-अनात्मा के विवेक सहित भोगों के उपरामता बिना नहीं होती । इस बन्धन-मुक्ति का साधन संन्यास सहित आत्मज्ञान है । अतः कौषीतकि ऋषि के पुत्र कहोल ने याज्ञवल्क्य जी से आत्मा के सम्बन्ध में पूछा , तब उन्होंने उत्तर देते हुए कहा --- "आत्मा सर्वान्तर है तथा सूक्ष्म तथा सर्वरूप है ।" कहोल ने पूछा --- "सर्वान्तर आत्मा कौन है ?" महर्षि उत्तर देते हैं --- "योऽशनायापिपासे शोकं मोहं जरां मृत्युमत्येति । एतं वै तमात्मानं विदित्वा ब्राह्मणाः पुत्रैषणायाश्च वित्तैषणायाश्च लोकैषणायाश्च व्युत्थायाथ भिक्षाचर्यं चरन्ति । या ह्येव पुत्रैषणा सा वित्तैषणा या वित्तैषणा सा लोकैषणा । उभे ह्येते एषणे एव भवतः । तस्माद्ब्रामणः पाण्डित्यं निर्विद्य बाल्येन तिष्ठासेत् । बाल्यं च पाण्डित्यं च निर्विद्याथ मुनिः । अमौनं च मौनं च निर्विद्याथ ब्राह्मणः । स ब्राह्मणः केन स्याद्येन स्यात्तेनेदृश एव । अतोऽन्यदार्तम् । ततो ह कहोलः कौषीतकेय उपरराम ॥" (वृहदारण्यक ३/५/१) "जो भूख-प्यास-शोक-मोह-बुढापा तथा मृत्यु का अतिक्रमण करता है , ब्राह्मण पुत्र-धन तथा लोक कामना का त्याग करके इस आत्मा को जानकर भिक्षावृत्ति (संन्यास) से निर्वाह करते हैं । जो पुत्र की इच्छा है , वही धन की इच्छा है , वही लोकेच्छा है ; यह तीनों ही इच्छायें जिसमें है ; उसका त्याग करके ब्राह्मण पाण्डित्य का त्याग कर बालभाव से युक्त हो । आत्मा का बल ही बालभाव है , मुनि पाण्डित्य मौन तथा अमौन का जो त्याग करता है , वह ब्राह्मण है । ब्राह्मण किससे होता था ? इसका उत्तर दिया । इसके अतिरिक्त सब मिथ्या है । महर्षि का यह वचन सुनकर कौषीतकिनन्दन कहोल मौन हो गये ।" इस मन्त्र पर आचार्य शंकर भाष्य करते हुए कहते हैं कि -- एक ही आत्मा तीनों भेदों से रहित अखण्डमण्डलाकार सर्वव्यापी होने पर भी तीन शरीर , प्राण की उपाधियों से दो प्रकार का है। एक ब्रह्मात्मा तथा दूसरा जीवात्मा । ब्रह्मात्मा देश-काल-वस्तु के परिच्छेद से रहित होने के कारण सुख-दुःख-भूख-प्यास-शीत-उष्ण-मोह-भय आदि से रहित है । जीवात्मा तीन शरीर की उपाधियों को प्राप्त करके जन्म-मरण , भूख-प्यास आदि की संग भ्रांति से प्रतीत होता है। २५/९/२३ जो क्षण की नवता का दर्शन करता है, उस तत्व का नाम सौंदर्य है। बिना चेतना के सौंदर्य दर्शन संभव नहीं और बिना सौंदर्य के चेतना नहीं। भीड़ का दर्शन समझना हो तो स्वतः स्फूर्त भीड़ का दर्शन करना चाहिए। ऐसे में भीड़ के बाहर नहीं, भीड़ का होकर रहना आवश्यक है। दर्शन की भीड़ बनना होगा। ग्यारस या एकादशी का समय कुछ अलग होता है, आज की एकादशी परिवर्तन की एकादशी है, डोल ग्यारस; जिसमें भगवान भी मंदिरों से बाहर आते हैं, विहार करते हैं, मानो वे भी इस भीड़ समाज में एकाकार होने को आतुर हों। ललितपुर में जल विहार दर्शन पहली बार हुआ है। यहाँ सायंकाल के तीन चार घंटे में ३०-४०००० से ऊपर श्रद्धालुओं का मूवमेंट होता है। घर से विमानों में भगवान की शोभा यात्रा निकाली जाती है। लोग विमान के नीचे से निकलने में अपना सौभाग्य मानते हैं। स्वतः स्फूर्त इस भीड़ के पीछे जो तत्व काम कर रहा है, उसका दर्शन करना ही भक्त का उद्देश्य है। भीड़ से पृथक कोई गोट गाने में मगन हैं तो कोई गीत और भजन में तो कोई मंच से पुकारने के लिए आतुर अपने अपने नाम में तो कोई इन सबको आत्मसात् करने में। ऐसे पर्वों पर नेपथ्य में अगर किसी विशुद्ध राग में राम धुन या शबद बजता रहे तो और अच्छा। गाँव में जलविहार के अवसर पर निकले विमान छेड़े जाते थे, पंद्रह पंद्रह दिनों तक भगवान किसी के घर अथवा सार्वजनिक स्थान पर विराजते, उनकी पूजा मंदिर की भाँति ही होती। इस पर्व को देखकर लगता है, भगवान को और न उनके भक्तों को किसी मंदिर भर का होकर रहना नहीं सुहाता। बल्कि भक्त उन्हें अपने धाम से ही उतार लाता है। सनातन धर्म की परंपरा ईश्वर को कितनी कितनी तरह से आत्मसात् कर लेती है, कोई अंदाज़ा नहीं है। २६/९/२३ सच्चे अर्थों में दानी कोई योगी ही हो सकता है। योगिजन मात्र दर्शन और स्पर्श करके ही अपने शिष्यों को बोधि प्रदान करते हैं। किसी को कुछ देना ही तो दान है। दान देने और लेने की पात्रता विकसित करना असल काम है। चेतनापूर्ण व्यक्ति, जो माया, गुण और गो पार हो गया, केवल वही दान देने का पात्र है। वह जो कुछ करेगा, वह दान देना होगा। दान देने के अतिरिक्त और कुछ उसके जीवन का ध्येय नहीं। दानमात्मज्ञानं। दूसरी तरफ़ दान लेने की भी पात्रता विकसित करनी पड़ती है। जो यज्ञ कर्म क्या हैं, यह जानने की ओर बढ़ गया हो। जो साधक प्रयत्न करने के लिए उद्यत हुआ हो। दृश्य ही शरीर है, यह जानकर जिसने शरीर को हवि बना लिया हो। मातृका चक्र का संबोध प्राप्त किया हो। और सबसे बड़े उपाय के रूप में जिसने गुरु तत्व को मान लिया हो। गुरूरूपायः। २७/९/२३ कामना कल्पना से उत्पन्न होती है, इसका मूल स्वर असंतोष है। सारे फ़साद की जड़ यही है। बल से ही बालक बनता है। बालक वह जो बल संपन्न हो। बल की उपासना करने के लिए कहा गया है, जिससे बालक तैयार हों। ‘नास्ति सांख्य समं ज्ञानं , नास्ति योग समं बलं ‘। महाभारत ।योग को पहले हिरण्यगर्भ शास्त्र कहा जाता था। नास्ति मायासमं पापं नास्ति योगात्परं बलम् । नास्ति ज्ञानात्परो बन्धुर्नाहंकारात्परो रिपुः।। अर्थ- माया के समान दुनिया में कोई पाप नहीं और योग के समान दुनिया में कोई शक्ति नहीं। ज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई बन्धु नहीं और अहंकार से बढ़ कर कोई शत्रु नहीं। ( घेरण्ड संहिता ।।4।।) 28/9/23 प्रस्तुत चित्र पांडव वन धाम के हैं, जिसे यहाँ पांडवन कहा जाता है, लोकमान्यता है कि पाण्डवों ने अपने वनवास काल में यहाँ समय बिताया था। एक रमणीक, पूर्णतः निर्जन और सुरम्य स्थान। कामायनी के शब्दों में ... मधुर विश्रांत और एकांत— जगत का सुलझा हुआ रहस्य, एक करुणामय सुंदर मौन और चंचल मन का आलस्य! ललितपुर के दक्षिणी सीमांत गाँव पारौल से पाँच किमी ऊबड़ खाबड़ पहाड़ी रास्ते से होकर यहाँ कठिनाई से पहुँच पाते हैं। रास्ते की यह कठिनाई अगर न हो तो यहाँ की प्राकृतिक रमणीयता भी जाती रहे। इस रमणीयता को निर्दोष रखने की दृष्टि से एकांत और दूर के स्थानों पर सड़क या पहुँच मार्ग बनाने की आवश्यकता नहीं लगती। जहां तक बस्ती है, सड़कें वहीं तक बनें और अच्छी दशा में बनी रहें। विंध्याचल की पहाड़ियों से होकर जामनी नदी ज़िले की सीमा में सागर से आती हुई पांडवन से प्रवेश करती है। इसी नदी पर ऊपर सागर ज़िले में सुंदर दृश्यावलित कनकद्दर जल प्रपात है, जिसके चित्र कुछ दिन पूर्व साझा किए गये हैं। पांडवन ज़िला मुख्यालय से ६५-६६ किमी दूर दक्षिण में है। घने जंगलों और पहाड़ों के बीच यह स्थान है, पर जंगली जानवरों की आमद नहीं देखी जाती, पहले अवश्य रहे होंगे। कुछ लोगों ने कहा आपको वहाँ स्थानीय लोगों को लेकर जाना चाहिए। यहीं पास में जामनी बांध बना हुआ है। जामनी बेतवा की प्रमुख सहायक नदी है। बेतवा नदी पर ज़िले के पश्चिम में पहले राजघाट और फिर पश्चिमोत्तर में माताटीला बांध बने हैं। बेतवा बुंदेलखंड की प्रमुख नदी है, इसे बुंदेलखंड की सुरसरि कहा गया है। इसी नदी पर आगे झाँसी में पारीछा बांध बना है। हमीरपुर के पास बेतवा यमुना में मिल जाती है। जामनी ललितपुर जनपद की प्रमुख नदी है। बेतवा की यह प्रमुख सहायक नदी है। बेतवा ललितपुर ज़िले के किनारे से उसकी अशोकनगर और शिवपुरी मध्य प्रदेश की सीमा रेखा बनाती हुयी झाँसी और ओरछा की तरफ़ जाती है, जबकि जामनी या जामने ज़िले के बीच से होकर गुजरती है और पूर्व दिशा में टीकमगढ़ ज़िले की सीमा भी निर्धारित करती है। यह झाँसी में सुकवाँ ढुकवाँ बांध से पहले बेतवा में विलीन हो जाती है। जामनी नदी को ज़िला ललितपुर की गंगा कह सकते हैं। सदियों से ऐसी मान्यता है कि जामनी नदी का पानी फसलों पर छिड़कने से रोग व कीड़े नहीं लगते। जामनी बांध के अतिरिक्त इसी नदी पर एक और बांध भौरट में बन रहा है। इससे १६ हज़ार हेक्टेयर से अधिक भूमि की सिंचाई हो सकेगी। १२ हज़ार से अधिक किसानों को लाभ मिलेगा। १३ गेट लग चुके, १३ और लगने हैं। यह डबल गेट प्रणाली का बांध होगा। जामनी नदी के अतिरिक्त इसकी सहायक नदी सजनाम पर सजनाम और कचनौदा बांध बने हैं। सजनाम नदी चंदावली गाँव के पास जामनी में मिल जाती है। ललितपुर शहर से होकर शहज़ाद नदी पर शहर का गोविंद सागर बांध है तो और आगे हर्षपुर के पास शहज़ाद बांध है। शहज़ाद नदी भी जामनी में ज़िले के हजारिया गाँव के पास जाकर मिलती है। इसी जामनी में छोटी सी नदी जमडार भी कुंडेश्वर के पास अजयपार में मिलती है। जिसको प्राचीन काल में अजय अपार कहा जाता था। ऐसा इसलिए कि यहां पर कभी भी पानी की मात्रा कम नहीं होती थी। यह स्थान घने जंगलों के बीच है जिसके कारण यहां कई गुणकारी औषधियां भी पाई जाती हैं। समय के साथ आसपास का जंगल खेतों में बदल गया किंतु अभी भी नदी के किनारों पर कई औषधीय पौधे हैं। जमडार के मुहाने की यात्रा प्रसिद्ध साहित्यकार-पत्रकार राज्यसभा सदस्य बनारसीदास चतुर्वेदी ने की थी। वे प्रसिद्ध मधुकर पाक्षिक पत्र का कुंडेश्वर में रहते हुए संपादन करते रहे हैं। ललितपुर जनपद में उक्त बाँधों के अतिरिक्त उटारी नदी पर सूरी कलाँ गाँव के पास उटारी बांध, सजनाम नदी पर चंदावली गाँव के पास भावनी बांध, कुम्हेडी गाँव के पास जमड़ार बांध और मडावरा क्षेत्र में धसान की सहायक नदी रोहिणी पर रोहिणी एवं लोअर रोहिणी बांध निर्मित हैं। इस प्रकार ललितपुर ज़िले में शासन द्वारा निर्मित तेरह बांध/जलाशय हैं। भौरट में निर्माणाधीन बांध चौदहवाँ होगा। बाँधों की बहुतायत के कारण ललितपुर को बाँधों का ज़िला कहा जाता है। कोई नदी किसी एक जलधारा का परिणाम नहीं होती, उसमे कई छोटी छोटी जलधाराएँ एकमेक रहती हैं। छोटी छोटी जलधाराएँ जो नदी बनकर धरती पर सरकती है, कोई धारा भूमिसात् हो जाती है तो कोई और बड़ी नदी में जाकर मिल जाती है और अंततः सभी नदियाँ समुद्र में जाकर मिल जाती हैं। आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्। २९/९/२३ नदी बेतवा तीरे .... जखौरा से आगे बेतवा के मध्य करकरावल या ककरावल स्थान है। बेतवा यहाँ कई टापुओं में विभक्त हो गई है। यह स्थान नाम बेतवा के जलप्रवाह से हुए चिकने उसके बड़े बड़े पत्थरों के कारण पड़ा। पत्थर को यहाँ ककरा बोलते हैं। नदी का तेज बहाव है। जलप्रवाह एक अपूर्व और विलक्षण लय पैदा करता है। हर महाभूत तत्व का अपना नाद है। सहरिया या सौंर आदिवासी यहाँ अपने पूर्वजों का अस्थि विसर्जन करते है। उन्हीं के किशोर बच्चे मिल गये, वे अपने साथ रास्ता बताते हुए ढाई तीन किमी लंबे ऊबड़ खाबड़ पथरीले और अनिर्मित पथ से नदी की दूसरी धारा में ले गए। नदी के एक पाट से दूसरी धारा तक पहुँचने में एक घंटा लग गया। हम लोगों को यह रास्ता विदित नहीं था। ये बच्चे राहुल और सचेंद्र न मिलते तो वहाँ पहुँच भी न पाते। इनमे एक आठवी तक पढ़ा है, दूसरा नहीं पढ़ा। बताया इंदौर में बड़ी गाड़ी चलाता है। वापसी में वे बच्चे तैर कर आ गए। हम लोगों को उसी रास्ते आना पड़ा। यहाँ नर्मदा नदी के भेडा घाट की भाँति एक धारा से दूसरी धारा के बीच नाव या स्टीमर चलाकर पर्यटन विकसित हो सकता है। यहाँ नदी, पहाड़ और जंगल का संगम हुआ है। नदी ने अपनी गोद में पहाड़ और जंगल को समेट लिया है। नदी के बीच से चलकर पैदल पहुँचना एक अडवेंचरस यात्रा होती है, जैसा नीचे दिए चित्रों में देखा जा सकता है। 30/9/23 कोई ध्वनि अनाहत नहीं है। अनाहत जिसे हम समझते हैं, वह प्रकाश से टकराकर पैदा होती है। प्रकाशोदय भी ईश्वर और अव्यक्त से होता है। पंचमहाभूतों की ध्वनियाँ भी आहत स्पष्ट ही हैं। वे आपस में टकराने से उत्पन्न होती हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु में आकाश रहता है। आकाश में मन और इसी प्रकार आगे क्रमशः।

Thursday, August 31, 2023

अगस्त २३

१/८/२३ दो वस्तुओं के टकराव के बाद अथवा मशीन से निकली ध्वनि ooong ऊंग करती रहती है। मानव जिन पदार्थों को संयोजित करके रचना करता है, भले वह जड़ हो या चेतन, प्रकृतिगत हो या प्राकृत, उससे इसी प्रकार की ध्वनि गुंजायमान होती है। यह कोई सांयोगिक नहीं। यह ध्वनि प्रत्येक पदार्थ या तत्व में उपस्थित है। संसार इन ध्वनियों का संजाल ही है। पदार्थ का अर्थ ही है पद का अर्थ, पद जिससे वस्तु को नाम मिला है, अर्थ उसकी विशेषता है। तत्व का अर्थ भी वह जो है, उसे कुछ कहो या न कहो। ईश्वर हमसे जो काम लेना चाहेंगे, वह ले लेंगे। परंतु यह ज्ञात कैसे हो कि वह हमसे कोई काम लेना चाह रहे या नहीं, जिससे हम निर्णय कर सकें कि हम उसके रास्ते में बने रहें या पृथक् हो जाएँ। जब प्रकृति का एक-एक उपादान निमित्त बनकर समुपस्थित होता जाएगा। तब हमें मानना चाहिए कि वह आपको अपना टूल बना रही है। वैसे उसके रास्ते से पृथक् होना न होना भी अपना काम नहीं, वह स्वयमेव अलग कर देगी या प्रवृत्त कर देगी। फिर ईश्वर प्रदत्त स्वतंत्र इच्छा शक्ति का क्या जो मनुष्य को प्राप्त है। यह इच्छा शक्ति इच्छापूर्वक कर्म संपादन तक ही मौजूद रहती है, उससे आगे वह प्रकृत्यातीत हो जाती है। २/८/२३ शोपेन हावर, जिसके बारे में प्रचलित है कि वह उपनिषदो का इतना प्रेमी था कि उन्हें सिरहाने रखकर सोता था, जिससे उन्हें बिना कुछ पढ़े वह सोए नहीं और जब जागे तो वही पढ़े और गुने। Man can do what he wills but he cannot will what he wills." - Arthur Schopenhauer मनुष्य वह कर सकता है जो वह चाहता है, पर वह यह चाह नहीं सकता कि वह क्या चाहे। ६/८/२३ करुणा जब उदित होती है तो शब्द छूट जाते हैं। भाषा की आवश्यकता नहीं रह जाती। सत्य और प्रेम उस करुणा के लक्षण स्वरूप दिखने लगते हैं। अपूर्व शांति और आनंद छा जाते हैं। दुःख तिरोहित हो जाता है। प्रचलित अर्थों का सुख हो, न हो, अक्षय सुख की उपलब्धि हो जाती है। यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः। ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।।4.19।। Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas ।।4.19।। व्याख्या--'यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः' (टिप्पणी प0 245) विषयोंका बार-बार चिन्तन होनेसे, उनकी बार-बार याद आनेसे उन विषयोंमें 'ये विषय अच्छे हैं, काममें आनेवाले हैं, जीवनमें उपयोगी हैं और सुख देनेवाले हैं'--ऐसी सम्यग्बुद्धिका होना 'संकल्प' है और 'ये विषय-पदार्थ हमारे लिये अच्छे नहीं हैं, हानिकारक हैं'--ऐसी बुद्धिका होना 'विकल्प' है। ऐसे संकल्प और विकल्प बुद्धिमें होते रहते हैं। जब विकल्प मिटकर केवल एक संकल्प रह जाता है, तब 'ये विषय-पदार्थ हमें मिलने चाहिये, ये हमारे होने चाहिये'--इस तरह अन्तःकरणमें उनको प्राप्त करनेकी जो इच्छा पैदा हो जाती है, उसका नाम 'काम' (कामना) है। कर्मयोगसे सिद्ध हुए महापुरुषमें संकल्प और कामना--दोनों ही नहीं रहते अर्थात् उसमें न तो कामनाओंका कारण संकल्प रहता है और न संकल्पोंका कार्य कामना ही रहती है। अतः उसके द्वारा जो भी कर्म होते हैं, वे सब संकल्प और कामनासे रहित होते हैं।संकल्प और कामना--ये दोनों कर्मके बीज हैं। संकल्प और कामना न रहनेपर कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात् कर्म बाँधनेवाले नहीं होते। सिद्ध महापुरुषमें भी संकल्प और कामना न रहनेसे उसके द्वारा होनेवाले कर्म बन्धनकारक नहीं होते। उसके द्वारा लोकसंग्रहार्थ, कर्तव्यपरम्परासुरक्षार्थ सम्पूर्ण कर्म होते हुए भी वह उन कर्मोंसे स्वतः सर्वथा निर्लिप्त रहता है। मनुष्यकी सबसे उत्तम अवस्था यह है कि कामना न हो और कर्म होते रहें। ऐसी अवस्थावाले मनुष्यको ज्ञानिजन भी पण्डित कहते हैं। तमाहुः पण्डितं बुधाः'--जो कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करके परमात्मामें लगा हुआ है, उस मनुष्यको समझना तो सुगम है पर जो कर्मोंसे किञ्चिन्मात्र भी लिप्त हुए बिना तत्परतापूर्वक कर्म कर रहा है उसे समझना कठिन है। फ़ेसबुक पोस्ट ६ अगस्त २०२० पत्थर, धातु या लकड़ी से निर्मित भगवान देखने की परंपरा हमारे पूर्वजों ने इसलिये विकसित की कि जब हम इस तरह भगवद्दर्शन आत्मसात कर लेंगे तो चराचर जगत ईश्वरमय दिखेगा... उमा जे राम चरन रत बिगत काम मद क्रोध। निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध। ७/८/२३ आज इस कविता की प्रारंभिक पंक्ति ध्यान में आयी...देखा तो ये निराला जी की कविता है कौन तम के पार?—(रे, कह) अखिल-पल के स्रोत, जल-जग, गगन घन-घन-धार-(रे, कह) गंध-व्याकुल-कूल-उर-सर, लहर-कच कर कमल-मुख-पर हर्ष-अलि हर स्पर्श-शर, सर, गूँज बारंबार!—(रे, कह) उदय में तम-भेद सुनयन, अस्त-दल ढक पलक-कल तन, निशा-प्रिय-उर-शयन सुख-धन सार या कि असार?—(रे, कह) बरसता आतप यथा जल कलुष से कृत सुहृत कोमल, अशिव उपलाकार मंगल, द्रवित जल नीहार!—(रे, कह) इसे पढ़कर श्रद्धा सर्ग की पंक्तियाँ चली आयीं... “कौन तुम! संसृति-जलनिधि तीर तरंगों से फेंकी मणि एक, कर रहे निर्जन का चुपचाप प्रभा की धारा से अभिषेक! मधुर विश्रांत और एकांत— जगत का सुलझा हुआ रहस्य, एक करुणामय सुंदर मौन और चंचल मन का आलस्य!” ८/८/२३ एक बादल के से धुँधलके के बीच देव देवियों के दर्शन। एक के बाद एक। आते हुए और तिरोहित होकर दूसरे रूप में हनुमान, शंकर, माता और शिव। निःशब्द। कल देवी दर्शन एक कन्या के माध्यम से हुआ, जो शांत भाव से देखती रहीं और आश्वस्ति के साथ लुप्त हो गई। युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः ।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ॥6-28॥ ९/८/२३ आज प्रातः क्रिया के बाद कोई चींटी की भाँति नासापुटों की दीवार से होकर भीतर प्रविष्ट हुई। वह नासा के बाल की हलचल नहीं थी। ऐसा बहुधा होता रहता है। १२/८/२३ Little knowledge is dangerous. यश्च मूढतमो लोके यश्च बुद्धे: परं गत:। तावुभौ सुखमेधेते क्लिश्यत्यन्तरितो जन:।। भागवत अर्थ : इस जगतमें दो प्रकारके मनुष्य आनंदित रहते हैं - जो पूर्णत: अज्ञानी हो और दूसरे वे जिनका बुद्धिलय हो गया हो अर्थात उनकी बुद्धि विश्वबुद्धिसे एकरूप हो गयी हो | शेष सभी अधिकांशत: क्लेश का अनुभव करते रहते हैं | १३/८/२३ मन के अंदर जो है, उसे मंदिर कहते हैं। मन के अंदर जब जाते हैं तो कलुषताओं से बाहर चले जाते हैं। तथाता हो जाते हैं। १४/८/२३ कभी-कभी पद और क़द का मेल नही खाता। जनता इसका बेलाग और बेलौस मूल्यांकन करती रहती है। इसलिए व्यक्ति का उद्देश्य पद नहीं, अच्छे बनने का होना चाहिए। पद आते-जाते रहते हैं। यम और नियम ही अच्छाई के शाश्वत पैमाने हैं। इसी दिन २०२१ की फ़ेसबुक पोस्ट १५/८/२३ स्वतंत्र होना स्व का विस्तार है। एक अर्थ में इतना कि जिससे कुछ छूटे न, उसमें सब समा जाए। इस विस्तार को पा जाने के बाद व्यक्ति न दूसरे की स्वतंत्रता में बाधक बन सकता है और न उसकी स्वतंत्रता छीनी जा सकती है। फिर बाधक बनने वाली स्वच्छंदता और अराजकता का प्रवेश संभव नहीं। राजनीतिक स्वतंत्रता व्यक्ति को अनुशासित रखने और उसकी सामाजिक-सांस्कृतिक परंपराओं में जीने के लिए अनिवार्य है, पर यह स्वतंत्रता अधिकाधिक विस्तार की अपेक्षा रखती है। विस्तार के बिना इसका एक सीमित अर्थ और लाभ रह जाता है। विस्तार के बिना यह स्वतंत्रता टकराव में बदलती रहती है। राजनीतिक स्वतंत्रता विस्तार की आधार भूमि है। स्वतंत्रता का महत्व लोकतंत्र के लिए आत्यंतिक है। जितना लोकतंत्र फलीभूत होगा, समृद्ध होगा, स्वतंत्रता की अपरिहार्यता विदित होती जाएगी। हम स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं। यह बहुत बड़ा दिन है। अपने साथ-साथ सबमें समानता और बंधुत्व को देखने का गुण इस दिन को याद करने से विकसित होता है। हमें अपने राष्ट्रवीरों को इस दिन अवश्य याद करना चाहिए, जिनके मन में यह पाने की उत्कंठा जागी और फिर प्राणपण से उसके लिये जुट गये। अपना बलिदान दिया और लोगों में चेतना जगायी। तरह तरह की भिन्नता के देश में जागरण का काम आसान नहीं था, हमारे वीरों, बलिदानियों और चेतना संपन्न पुरोधाओं ने इसे संभव किया। इसे न केवल संभालने का दायित्व हम सब पर है, अपितु जो जो जिस कर्म से जुड़े हैं, उनमे अपना श्रेष्ठ योगदान करने की गुरुतर ज़िम्मेदारी हम सब पर ही है। १६/८/२३ भव का अर्थ होना है, इसका अर्थ संसार सर्वविदित है, भवसागर कहा ही जाता है। संसार भी होने के अतिरिक्त कुछ और नहीं। हव क्रिया पद अस्तित्ववाची है और होने के अर्थ को भी प्रकट करता है। छत्तीसगढ़ी और बुंदेली में तो यह इसी रूप में बोला जाता है, हिंदी की अन्य बोलियों में भी इस होने को सदा स्वीकारोक्ति की तरह अथवा तकियाकलाम की भाँति प्रयुक्त किया जाता है। संसार में सर्वत्र है या होना ही है, नहीं कहते हैं, तब भी न के बाद हीं जोड़कर बोला जाता है। दुनिया की बोलियों में यह अस्तित्ववाची क्रिया पद शब्दों में, नहीं तो ध्वनियों में अवश्यमेव प्रयुक्त होता है। किसी की बात सुनते समय हूँ, हम्म बिना शाब्दिक उच्चार के भी व्यक्त होता रहता है। १८/८/२३ मिथ्या का अर्थ झूठ नहीं है, जैसा प्रायः समझा जाता है। यह सदसत् दोनों है, अनिर्वचनीय की भाँति। मिथक भी मिथ्या से जुड़ा शब्द है। उसका अर्थ भी इसी तरह ग्रहण किया जाता है। मिथक न पुराण है, न इतिहास ही। १९/८/२३ जब हम सही अर्थों में ज्ञान या भक्ति पा लेते हैं, तभी वास्तव में कर्म का उदय होता है। २१/८/२३ कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।

स बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्।।4.18।। जो मनुष्य कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म को देखता है, वह सभी मनुष्यों में सबसे बुद्धिमान है और सभी प्रकार के कर्मों में लिप्त होते हुए भी दिव्य अवस्था में रहता है। अकर्म का अर्थ है कर्म के फल से रहित। हर देश की उच्चतर शिक्षण संस्थाओं को भरपूर स्वायत्तता मिलनी चाहिए। इंग्लैंड के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के जीसस कालेज में नौ दिवसीय रामकथा का आयोजन भी संपन्न हो जाता है। उसमें वहाँ के प्रधानमंत्री पहुँचते हैं। हर कृत्य को राजनीति से नहीं जोड़ा जा सकता, न राजनीति ऐसी अस्पृश्य ही होती है कि वह जो काम करेगी, उसका लक्ष्य सत्ता संधान ही होगा। और सत्ता संधान भी सदा हेय नहीं होता है। किस उद्देश्य और साधन से कोई काम हो रहा है, उसे देखना और समझना महत्वपूर्ण है। उच्चतर शिक्षा संस्थाओं में यह काम हो, जिससे सार्थक और समाज सापेक्ष निष्कर्ष प्राप्त हों। किसी के प्रति पूर्वाग्रह और दुराग्रह रखने से बचना चाहिए। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय दुनिया का तीसरा सबसे पुराना विश्वविद्यालय है। यहां किसी भी अन्य शहर की तुलना में अधिक नोबेल पुरस्कार विजेता हैं। दम यानि श्वास। दम भरना मुहावरा है। इसी का बल होता है, जिसकी उपासना पर छांदोग्य उपनिषद् में कहा गया है बलमुपास्व। चित्त तथा अहं चित्त शुद्धि हुई या नहीं इसका लक्षण ईर्ष्या से पता चलता है। यदि दूसरे से किंचित भी ईर्ष्या हो रही हो तो चित्त शुद्धि में अभी कसर मानिए। अहं इच्छा के माध्यम से प्रकट होता है। इच्छा शेष है तो अहं भी बना हुआ है। सब परिस्थितियों और प्राप्तियों पर राज़ी रहें, अहं का लेश कैसे रहेगा। २२/८/२३ कर्म आधारित जाति व्यवस्था खूब बनी हो, पर वह जन्म आधारित हो गई, यह एक तथ्य है। जन्म आधारित जाति में भी कोई समस्या सैकड़ों हज़ारों वर्षों तक नहीं रही, वरन वह भली प्रकार चली, जिसमें कोई कुछ कर्म करता हो, उसे निंदनीय या हेय नहीं समझा गया। पीढ़ी दर पीढ़ी कौशल हस्तांतरित होता गया। बिना औपचारिक शिक्षा और प्रशिक्षण के तरह तरह का शिल्प और कलात्मक कौशल विकसित हुआ। इसके बाद कैसे इस व्यवस्था में ऊँच नीच बन गई, उन्हें एक दूसरे से श्रेष्ठ और निम्न माना जाने लगा, उसका पता अवश्य लगना चाहिए। पर इस खोजबीन में हम आपस में आरोप प्रत्यारोप से आगे नहीं जा पा रहे। जाति कर्माधारित हुई, पर वर्ण बहुत गहरी दशा है। वर्ण रंग को भी कहते हैं। सृष्टि में जब रूपोद्भव होता है तो वह रंगों में दिखता है। एक ही व्यक्ति अलग अलग दशाओं में शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण होता है। ब्राह्मण बनना सबका लक्ष्य है, होना भी चाहिए। ब्राह्मण आदर्श हैं, और रहेंगे। इसका नाम कोई अन्य रख लें तो भी जिस भाव दशा या स्वरूप दशा को व्यक्ति कभी न कभी उपलब्ध होगा, वह ब्रह्म दशा ही होगी। २३/८/२३ कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः। अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।4.17।। [कर्म का तत्त्व जानना चाहिये ........................ क्योंकि कर्मकी गति गहन है।] —————————————— मूलाधार में सोई हुई कुण्डलिनी–शक्ति को उद्बुद्ध किए बिना कर्म, ज्ञान या भक्ति, कोई भी मुक्ति या अनर्थ–निवृत्ति के उपाय–रूप में नहीं परिणत हो सकती। जो कर्म, ज्ञान या भक्ति कुण्डलिनी–शक्ति के जागरण में सहायता करती है, वही यथार्थ कर्म, ज्ञान या भक्ति है। वही कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग है। इसके बिना कर्म आदि व्यर्थ प्रयास है। कुण्डलिनी के निद्राभंग के बिना आत्मा या परमात्मा में स्थिति पाना सम्भव नहीं। कुण्डलिनी के नहीं जगने से परम लक्ष्य की प्राप्ति की बात तो दूर, महापथ पर भी चलना संभव नहीं होता। मनुष्य जीवन का यही प्रकृत उद्देश्य है। कुण्डलिनी के जगे बिना चित्‌ और अचित्‌ का द्वंद नहीं मिट सकता। शक्ति की साधना के बिना शिवभाव की प्राप्ति असंभव है और कुण्डलिनी के जागरण के बिना शक्ति–साधना का कोई अंग ही वश में नहीं आता। 🌹💐🥀🌺 (तांत्रिक साधना और सिद्धान्त) परम तत्व को उपलब्ध होने के लिए हम जो मंत्र साधना करते हैं, वह शब्द पर आधारित नहीं है, बल्कि स्वर से उसका निकट संबंध दिखता है। स्वर से भी सूक्ष्म वह नाद में या ध्वनि में अनुभूत होता है। है तो वह अव्यक्त ही, उसे अनुभूत करने के लिए अव्यक्त की झलक पानी ही होगी, जिसमें जब डूबा जाता है, तभी पार हुआ जाता है। अव्यक्त की झलक मिटे बिना, व्यक्ति को निर्मूल किए बिना पाना संभव नहीं है। ध्यान में ही उसकी झलक पायी जा सकती है। झलक पाने के बाद फिर वह हस्तामलकवत् हो जाता है। इसलिए ध्यान एक तरह की मृत्यु है, पर ध्यान और समाधि के बाद की व्युत्थान दशा जीवन नहीं, जीवनमुक्त है। इस मृत्यु को घटित करने के बाद ही आनंद है, शांति है, प्रेम और करुणा है। मंत्र का उच्चार नहीं किया जा सकता, उसे तो बस गूँगे के गुड की भाँति समझा जा पाता है। अकेले अ को बोलने के लिए दर्जनों प्रकार बताये जाते हैं। संगीत में स प्रथम स्वर है, इसे षडज कहते हैं, क्योंकि यह मुख के छः विभिन्न अवयवों से प्रकट होता है। अ तो अनुत्तर भी है। सारी व्यक्ताव्यक्त ध्वनियों का मूल है। उसे जैसे बोलो सब सही है, पर उसके सब उच्चार अधूरे हैं। उसमे पूर्णांश अवश्य उपस्थित है, अ स में और ह में पर्यवसित और उच्छलित है, यह सब मंत्रों की ध्वनियों के बीजाक्षर हैं। निःशब्द पकड़ में आने पर सब शास्त्र समझ आ जाते है। छाया से मूल को नहीं प्राप्त कर पाते, शब्द छाया मात्र हैं। अगर मूल को पकड़ लिया तो सभी छायाएँ पकड़ जाती हैं। 22/8/23 गोस्वामी तुलसीदास ने हिंदीजन को वह दे दिया है, जिसे लेकर वे, जब तक लिखा हुआ पढ़ा समझा जाएगा, तब तक उपकृत बने रहेंगे। तुलसी हम सबके हैं और सब उनके हैं। वेद, उपनिषद, पुराण आदि ग्रंथ जनमानस को सीधे न समझ में आ पाते, न उनकी सुलभता हो पाती। भारतीय भाषाओं में कोई न कोई ग्रंथ परंपरा की कहानियों का पुनर्पाठ करता है, जिससे वह जनता में सर्व समादृत हुआ. वे ग्रंथ उसके लिए गले का हार बन गये। चाहे दासबोध हो, कृतिवास हो, उड़िया में लिखी भागवत हो या कंबन और तिरुवल्लूर के ग्रंथ हों। हिंदी भाषाभाषियों के लिए रामचरितमानस ऐसा ही ग्रंथ है। रामायण की भाँति केवल भागवत् पर मानस की तरह पुनर्पाठ (retelling) करता हुआ ग्रंथ हिंदी में अब भी नहीं है। दूसरी तरह से इस अभाव की पूर्ति मानस ही करता है। गीता को भी क्या हिंदी में रिटोल्ड किया जा सकता है, मराठी में जैसे ज्ञानेश्वरी आयी, उसकी ही भाँति जो ऊँचाई और वास्तविकता लिए हुए हो। #तुलसी जयंती आज के दिन भारत ने चाँद पर चंद्रयान लैंड करा दिया है। चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर पहुँचने वाला इकलौता देश बना। इसका बहुत बड़ा सांकेतिक महत्व है। सुंदर। २५/८/२३ हमारा जीवन उस मच्छर के समान है, जो रक्त पीते हुए कितना मुदित होता रहता है, अधिक पीने के बाद बेहोश हो जाता है, और अधिक पी लेने पर लुढ़क कर मार जाता है। विषय रस भोग भोगकर मनुष्य की भी यही गति होती है। रावरे रूप की रीति अनूप नयो नयो लागत है ज्यों ज्यों निहारिये। २६/८/२३ ध्यान के बाद उतरा कबीर का दोहा... दीपक दीया तेल भरि, बाती दई अघट्ट। पूरा किया बिसाहुणाँ, बहुरि न आवौं हट्ट॥ The tao that can be told is not the eternal Tao The name that can be named is not the eternal Name. The unnamable is the eternally real. Naming is the origin of all particular things. परम् सत्य को कहा नहीं जा सकता, जो कहा जा सकता है वह परम् सत्य नहीं हो सकता। आद सच- प्रारंभ होने के पहले सच था। जुगाद सच- युगों के पहले सच था। हैबी सच- अभी सच है। नानक होसी भी सच- आगे सब समय सच रहेगा। दुहराया गया 'सत्य' असत्य है। कृष्णमूर्ति २७/८/२३ karandhra-citi-madhyasthā brahma-pāśāvalambikāḥ / pīṭheśvaryo mahāghorā mohayanti muhur-muhuḥ // (Śrī Timirodghāṭa) करंध्रचितिमध्यस्था ब्रह्मपाशावलंबिकाः। पीठेश्वर्यो महाघोरा मोहयंति मुहुर्मुहुः॥ श्री तिमिरोद्घाट the universal mother (citi matrika) is situated in the center of brahmarandhra, and around that citi are situated pīṭheśvaryo (pīṭheśvaryo means those who are seated at his seat, around her, around the mother), and those pīṭheśvarīs are called organs of knowledge, organs of action, mind, intellect and ego. These are all pīṭheśvarīs to him. These pitheshvaris become very fearful (mahaghora). At every turn, the invariably create illusion and continually strive to bind him even more. Here, the mother (matrika) is the essential factor and pitheshvaris are the agents. Around universal mother gathered all the deities who delude the one she is playing with. But the one who is a player with mother is not deluded at all. शब्दराशि समुत्थस्य शक्तिवर्गस्य भोग्यताम् । कला विलुप्त विभवोगतः संसपशुः स्मृतः ॥स्पंद कारिका ३ः१३ अर्थ – अकार से अकार पर्यन्त जो शब्द समूह है उसी से उत्पन्न यह कादिवर्गात्मक भूत समुदाय है। यही शक्ति समूह बाह्य भोग्य का स्वरूप है। इस भोग्य समुदाय रूप शक्ति के वशीभूत पुरुष ककारादि अक्षरों की कलाओं में विलुप्त होकर अपनी महत्ता खोकर स्वभाव से च्युत हो जाता है और शिवत्व मे पशुत्व भाव को प्राप्त हो जाता है ॥ when by hearing some sound, good or bad, you are carried away from your own nature. दुर्बलोऽपि तदाक्रम्य यतः कार्ये प्रवर्तते । आच्छादयेन्द्बुभुक्षां च तथा योऽति बुभुक्षितः ॥३८॥ अर्थ- उत्साह और प्रयत्न के द्वारा दुर्बल भी आगे बढ़ जाता है और साहस से कार्य में प्रवृत्त हो जाता है। अशक्त भी व्यायाम के अभ्यास से महान् शक्ति प्राप्त कर लेता है। इसी प्रकार स्वभाव के अनुशीलन से, यानी अनुसरण से भूखा भी भूख को आच्छादित कर लेता है। इसी प्रकार सर्वत्र ही आत्मस्वरूप के कार्य-कारण सम्पादन में वह समर्थ हो जाता है ॥३८॥ स्वरूपावरणेचास्य शक्तयः सततोत्थिताः। यतः शब्दानुवेधेन न बिना प्रत्ययोद्भवः ॥ स्पंद कारिका ३/१५॥ अर्थ- उसके स्वरूप के आवृत हो जाने पर उससे बाह्य रूप में सतत् ही शक्ति का उदय होने लगता है। इसी से उस शब्दरहित ज्ञान का उदय नहीं होता है तथा शब्द के वेध किये बिना उस ज्ञान का उदय नहीं होता है ।। The energies of Lord shiva are always determined to cover and conceal your own nature. सेयं क्रियात्मिका शक्ति शिवस्य पशुवर्तनी । बन्धयित्री स्वमार्गस्था ज्ञाता सिद्धयुपपादिका ॥स्पंद कारिका अर्थ – यह पशु भाव से वर्तने वाली शक्ति ही भगवान् का क्रियात्मक स्वभाव है। यह स्वभाव से ही बन्धन का कारण है अथवा अज्ञात रहने पर बन्धन का कारण है, तथा ज्ञात होने पर परात्पर सिद्धिप्रद है। शिव की शक्ति ही परा और अपरा भावों में विद्यमान है जिनमें जीव-शक्ति प्रवर्तित नहीं होती है। तथा इन परा और अपरा भावों में जो शिव शक्ति रूप से व्यापक है उसका कोई अधिष्ठान नहीं है, अर्थात् जीव-शक्ति से उसका स्वरूप स्वतन्त्र है। इसलिये वह अज्ञात रहने के कारण बन्ध का हेतु है, ज्ञात होने पर परात्पर सिद्धिप्रद है॥ २८/८/२३ ध्यान के बाद उतरा गोस्वामी जी का श्लोकांश, भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंगव निर्भरां मे, जिसे यहाँ पूरा दिया जा रहा है। नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंगव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितंकुरु मानसं च॥2॥ *भावार्थ :* हे रघुनाथजी! मैं सत्य कहता हूँ और फिर आप सबके अंतरात्मा ही हैं (सब जानते ही हैं) कि मेरे हृदय में दूसरी कोई इच्छा नहीं है। हे रघुकुलश्रेष्ठ! मुझे अपनी निर्भरा (पूर्ण) भक्ति दीजिए और मेरे मन को काम आदि दोषों से रहित कीजिए॥2॥ २९/८/२३ क्रोध नाम का पिशाच ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~`` एक बार बलराम, कृष्ण और सात्यकि किसी वन में थे ।रात्रि हो गयी । उन्होंने तय किया कि बारी-बारी से एक व्यक्ति पहरा देगा और दो सोयेंगे । पहरे का पहला नंबर सात्यकि का था । वहां एक पिशाच प्रकट हुआ , बोला > तुमसे कुछ नहीं कहूंगा , इन दोनों का भक्षण करना है । सात्यकि क्रोध में भर कर उससे भिड गया । जैसे-जैसे सात्यकि को क्रोध आवे वैसे ही वैसे पिशाच का बल बढता जा रहा था । सात्यकि घायल हो गया ।प्रहर के बाद पिशाच अदृश्य हो गया । अब बलराम का नंबर आया । पिशाच प्रकट हुआ , बोला > तुमसे कुछ नहीं कहूंगा , इन दोनों का भक्षण करना है । बलराम को भी क्रोध आया । बलराम क्रोध में भर कर उससे भिड गये जैसे-जैसे बलराम को क्रोध आया , पिशाच का बल बढता गया ।बलराम भी लहूलुहान हो गये ।प्रहर के बाद पिशाच अदृश्य हो गया । कृष्ण का पहरा आया । पिशाच फिरसे आ गया । पिशाच क्रोध में भर कर कृष्ण पर आक्रामक हुआ, किन्तु कृष्ण हंसते-हंसते उसे घुमाते रहे । कृष्ण को क्रोध ही नहीं आया और पिशाच का बल घटता गया । अन्त में तो वह एक कीडे के बराबर हो गया । कृष्ण ने हंस कर उसे दुपट्टे में बांध लिया । सबेरा हुआ । सात्यकि और बलराम के हाथ-पैर में चोट के निशान थे । दोनों ने पिशाच की अपबीती कहानी सुनाई । कृष्ण ने हंस कर दुपट्टेसे बंधा पिशाच जमीन पर पटक दिया । बोले > यह क्रोध नाम का पिशाच है । आपने क्रोध किया तो यह बलवान हो गया , मैने क्रोध नहीं किया तो यह मुरझा गया । आत्मज्ञानी बुद्धिमत्ता तभी संभव है जब स्वयं से, 'मैं' से वास्तविक मुक्ति हो, यानी, जब मन अब 'अधिक' की मांग का केंद्र नहीं रह जाता है, अधिक और व्यापक की इच्छा में फंस नहीं जाता है। , अधिक विस्तृत अनुभव। बुद्धिमत्ता समय के दबाव से मुक्ति है, क्योंकि 'अधिक' का तात्पर्य समय से है, और जब तक मन 'अधिक' की मांग का केंद्र है, तब तक यह समय का परिणाम है। अतः 'अधिक' की साधना बुद्धिमत्ता नहीं है। इस पूरी प्रक्रिया की समझ ही आत्मज्ञान है। जब कोई स्वयं को बिना किसी संचय केंद्र के जानता है, तो उस आत्म-ज्ञान से वह बुद्धिमत्ता आती है जो जीवन से मिल सकती है; और वह बुद्धि रचनात्मक है. कृष्णमूर्ति की पुस्तक लाइफ अहेड से ३०/८/२३ कृष्णदासकविराज ने चैतन्यचरितामृत में काम और प्रेम का विश्लेषण किया- आत्मेन्द्रिय प्रीति-इच्छा तार नाम काम,कृष्णेन्द्रिय प्रीति-इच्छा तार नाम प्रेम । कामेर तात्पर्य प्रेमसंभोग केवल,कृ्ष्णसुख तात्पर्य प्रेम जो प्रबल॥ ध्यान या समाधि के बाद साधक सतोगुण में आता है। अगर रजोगुण में गया तो भी वह सतोगुण में ही लौटेगा। तमोगुण से उसकी सर्वथा निवृत्ति हो जाती है। रजोगुण में उसे शरीर के धर्म के कारण जाना होता है। सतोगुण उसके मन का स्वभाव बन जाता है। ध्यानावस्था में वह गुणातीत हो जाता है। देश-काल विरहित हो जाता है। ३१/८/२३ श्रावण पूर्णिमा/श्रावणी उपाकर्म/रक्षा बंधन/ संस्कृत दिवस श्रावण पूर्णिमा यानि रक्षा बंधन के दिन से प्राचीन भारत में शिक्षण सत्र आरंभ होता था। पौष पूर्णिमा तक यह सत्र चलता था। श्रावणी पूर्णिमा के दिन से छात्र वेदाध्ययन प्रारंभ करते रहे हैं। इसलिए इस दिन को वैदिक परंपरा का श्रावणी उपाकर्म कहा गया।भारत में १९६९ की श्रावणी पूर्णिमा से प्रतिवर्ष संस्कृत दिवस मनाया जा रहा है। दुनिया के जर्मनी, जापान, फ़्रांस जैसे विकसित देशों में संस्कृत दिवस/सप्ताह मनाया जाता है। विश्व के अधिकांश देशों के विश्वविद्यालयों में संस्कृत विभाग खुले हुए हैं। विश्व में अन्य किसी भारतीय भाषा का अध्ययन इतना नहीं किया जाता है। संस्कृत भाषा का समृद्धिशाली इतिहास रहा है। भारत की सबसे अधिक मूल्यवान शिक्षा और विविध विधाओं की सामग्री संस्कृत में मिलती है। वस्तुतः यह अध्ययन भारत की भाषा होने के कारण नहीं, बल्कि ज्ञान विज्ञान की संभावनाओं और उसके उत्स को खोजने के नाते किया जाता है। इसी तरह हमें भी ज्ञान विज्ञान की परंपरा को जिस भाषा से प्राप्त हो सके, उससे पाना चाहिए। अगर अंग्रेज़ी की पुस्तकों से जाना पड़े तो इसमें कोई हर्ज नहीं। प्रायः संस्कृत का केवल महत्व अवगत कराया जाता है, उसके कंटेंट या विषय वस्तु को समय-समय पर अपने नागरिकों को अवगत कराया जाना चाहिए। संस्कृत में किसी भी विचार और परंपरा के सूत्र मिल जाते हैं। इसलिए इसे जानने और समझने की उत्कंठा होनी ही चाहिए। बाबा साहेब आम्बेडकर स्वयं संस्कृत नहीं जानते थे, पर उस समय के धर्मशास्त्र के अधीती विद्वान भारत रत्न डॉ पीवी काणे से उन्होंने संस्कृत के तथ्यों को समझा था। सर्वविदित है कि संस्कृत भाषा में उपनिषद्, पुराण और परंपराओं की सामग्री मिलती है। परंतु वेदों की संस्कृत भिन्न है, उसकी ध्वनियों में विश्व की भाषाओं का समाहार हो जाता है। संस्कृत का मज़बूत पक्ष है कि केरल के शंकराचार्य से लेकर गांधार के पाणिनि तक की संस्कृत भाषा एक है। अन्य भाषाओं के रूप थोड़े अंतराल पर ही बदल जाते हैं, संस्कृत के साथ ऐसा नहीं है। व्याकरण के प्रति इस दृढ़ता के कारण वह लोकभाषा नहीं बन पायी, पर उससे क्या! लोक जिससे आलोक पा सके ऐसी भाषा तो वह बनी ही हुई है। वर्तमान में सीधे संस्कृत से उसके ज्ञान को जानने वाले बहुत कम (विरले ही) व्यक्ति पाये जाते हैं, स्वयं संस्कृत वाले भी नहीं हैं। इसलिए संस्कृत का व्यवहार करने वाले सज्जनों से आत्यंतिक रूप में प्रभावित होने की आवश्यकता नहीं है। परंतु थोड़ी भी संस्कृत उसके वास्तविक ध्वनिमूल के साथ अवगाहन कर लेने से एक अपूर्व प्रकाश उदित होता है। अतः आज के दिन से हम सब चाहे एक श्लोक ही सही, अंश भी सही, उसके मूल तक पहुँचने का प्रयत्न अवश्य करें। साँसों की माला पे सिमरूँ मैं पी का नाम। अपने मन की मैं जानूँ, और पी के मन की राम ये ही मेरी बंदगी है ये ही मेरी पूजा

Monday, July 31, 2023

जुलाई २३

३/७/२३ प्रातः जागने के बाद बैठे ध्यान में गुरु पादुका दर्शन हुए। घुटनों के ऊपर का दर्शन तो नहीं हुआ, पर गुरु जी पेंट और जुटे पहने हुए अपने दास पर इस प्रकार जो अनुग्रह किए, वह प्रत्यक्ष दिखाता है कि गुरुदेव हमारे पास ही हैं, सर्वदा उनकी कृपादृष्टि बनी रहे। जय गुरु❤️🌹🙏 गुरुपूर्णिमा दो दिन पूर्ण महावतार बाबा जी ध्यान के बीच पधारे थे। बाबा जी के प्रकाश पुंज में समा जाऊँ। गुरुदेव से प्रार्थना। गुरु पूर्णिमा... वेद व्यास का संबंध इस पूर्णिमा से है। व्यास जी ने वेदों को अलग अलग चार भागों में संहिताबद्ध किया है। प्रतिवर्ष आषाढ़ माह की पूर्णिमा को परंपरा से और वेद व्यास के कृपापूर्ण कृतित्व के कारण गुरु पूर्णिमा पर्व के रूप में मनाया जाता है। पूर्णिमा एक विशेष समय होता है। चंद्रमा और समुद्र की हलचल इस दिन अधिक होती है, चंद्रमा का पुत्र ही मन है। चंद्रमा मनसो जातः। मन का आलोड़न विलोडन पूर्णिमा के दिन रात में अधिक होता है। मन की गति को विनियमित न कर पाने के कारण सबसे अधिक पाग़ल इसी दिन होते हैं। वर्तमान में गुरु और शिक्षक एक नहीं हैं। यद्यपि भारत की शिक्षा प्रणाली में पूर्व में गुरु और शिक्षक प्रायः भिन्न नहीं होते थे। गुरु और शिष्य का संबंध दिव्य होता है। वह शाश्वत संबंधों में चलते है, जब तक वे मुक्त नहीं होंगे उनका संबंध बना रहेगा। जबकि माता-पिता और संतान का संबंध प्रारब्ध कर्मों पर आश्रित होता है। कर्म भोग के उपरांत उनका संबंध होने की आवश्यकता नहीं रह जाती। गुरु तत्व है, वह मार्ग है, जो मनुष्य में अंतर्निहित है। गुरु मिलन ईश्वर से तीव्र इच्छा का उदय होने पर होता है। समर्थ गुरु यानि जो स्वयं भागवत है, भगवत्प्राप्त हैं, वह शिष्य को उसके गंतव्य पर इसी जन्म में पहुँचा देते हैं। अपने गुरु की तुलना किसी अन्य के गुरु से करने की आवश्यकता नहीं है। अपने गुरु का आदेश मानते जाएँ, उनके दिए नाम या पद्धति को कभी न भूलें, उसी में शिष्य का कल्याण है। अन्य गुरुजन या श्रद्धेय जन के प्रति आदर और ग्रहणशीलता का भाव रखना उत्तम है। गुरु का शरीर में होना या न होना विचारणीय नहीं। गुरु शरीर और मन से पार एक असीम सत्ता है। वे अपने शिष्य के पास अशरीर होकर भी सदा कृपालु रहते हैं। गुरुदेव के माध्यम से प्राप्त बोध के उपरांत ही व्यक्ति का जीवन सार्थक होता है। चित्रं वटतरोर्मूले वृद्धाः शिष्या गुरुर्युवा । गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यास्तु छिन्नसंशयाः ॥ १२ ॥ आश्चर्य यह है कि वटवृक्षके नीचे शिष्य वृद्ध हैं और गुरु युवा हैं। गुरुका व्याख्यान मौन भाषामें है, किंतु शिष्योंके संशय नष्ट हो गये हैं ॥ १२ ॥ ॥श्रीदक्षिणामूर्तिस्तोत्रं॥ 4/7/23 फ़क़ीर बालक नूर का सज़दा किए शरीर क्या रोज़ा क्या बंदगी क्या मस्जिद क्या मंदिर! सुख की करें न चाहना दुःख में नहीं दिलग़ीर फ़ना करें सब फंद तो उनका नाम फ़क़ीर। प्रेमानंद जी महाराज के बीएमडब्ल्यू में चलने पर एक पोस्ट पर.. सूर्य पर थूकने का प्रयास नहीं करना चाहिए, स्वयं के ऊपर ही गिरता है। पता नहीं आपका क्या उद्देश्य है इसके पीछे। संतों का कहा हुआ करना चाहिए, किए हुए को कोई कदाचित् ही जान पाता है। 5/7/23 हिंदी भाषा में नहीं के साथ है भी संयुक्त होता है। अन्य भारतीय भाषाओं में भी यह हो, पर यह भाषा की बड़ी विचित्र व्यवस्था है। यानि नहीं कुछ भी नहीं, स्वीकार भाव की ही सत्ता है। ६/७/२३ समाज में किसी मुद्दे पर अपना निर्णयात्मक विचार देना बहुत आसान और लोकप्रिय तरीक़ा है। परंतु सतह पर आये किसी सामाजिक मुद्दे की परतों को देखना और समझना अधिक आवश्यक है। ज्योति गौतम और उसके पति को लेकर लोग स्वाभाविक रूप से अपने मंतव्य दे रहे हैं। समाज की कोई घटना जब घटित होती है तो उसमे पूरे समाज का अक्स दिख जाता है। प्रशासनिक नौकरियों का महिमामन्डन करना, किसी चकाचौध को पाने की इच्छा होना, इसके मूल में है। उस महिला को विवाहेतर संबंध से बचना चाहिए था, पर उस पुरुष ने भी अपने घर की लड़ाई को सार्वजनिक करके अपने बच्चों का अहित किया है। पुरुष को तो उस महिला को आगे बढ़ते देखकर प्रसन्न होना चाहिए था, अगर नहीं चल पा रहा था तो चुपचाप बाहर आ जाना चाहिए था। इस तरह सनसनी फैला कर किसी को समाज का नायक बनना ठीक नहीं। हर केस अलग होता है, इससे यह निष्कर्ष निकालना ठीक नहीं कि पत्नी को पढ़ाना उचित नहीं। पढ़ाने के पीछे कोई बड़ी नौक़री पाना भर उसका उद्देश्य न समझा जाये। मनुष्य बनना शिक्षा का उद्देश्य हो। मनुष्य बनने पर एक महिला एसडीएम का पति सफ़ाईकर्मी भी रह सकता था और एक सफ़ाईकर्मी अपनी एसडीएम पत्नी से अलग रहकर भी उससे प्रेम कर सकता था। यह विवाह/प्रेम का वास्तविक स्वरूप है। 8/7/23 *आज का विचार* *स्वतन्त्रता* *July 4* *श्री ज्ञानमाता का जन्म दिवस* दूसरों की सेवा ही मुक्ति का मार्ग है। ध्यान तथा ईश्वर के साथ समस्वरता ही सुख का मार्ग है।…अपने अहं की दीवारें गिरा दें; स्वार्थ का त्याग कर दें; स्वयं को देहबोध से मुक्त कर लें; अपने अस्तित्व को भुला दें; जन्म-जन्मांतरों के इस कारागार से निकल जायें; अपने हृदय को सबमें विलीन कर दें, सम्पूर्ण सृष्टि के साथ एक हो जायें। — *श्री श्री परमहंस योगानन्द*, *योगदा सत्संग पाठ* चाह में च का अर्थ और है। यह और और ही चाह है। अंग्रेज़ी विल का अर्थ संकल्पयुक्त चाह भी है और भविष्य भी। इसके सिवा और संसार में क्या है। संसार का एक शब्द मराठी में बड़ा प्यारा है इसे वहाँ नाना कहते हैं। 9/7/23 गुरुदेव की कृपा से पूरी दुनिया बदली हुई दिखने लगी है। न किसी से शिकायत, न दुःख या कष्ट, न राग ही; न विराग ही। इस तरह की दुनिया में कोई न पराया है, न कुछ आश्चर्यजनक। सब चीजें जैसे शीशे की तरह पारदर्शी हो गई हैं। अब कोई कहानी नहीं बची है, जिससे कुछ समझना पड़े। अब मात्र तथ्य शेष है कि हम उसमे हैं और वह हममें। संसार में रहते हुए वह हममें है और इससे पार रहने पर हम उसमें हैं। ध्यान भीतर, प्रेम बाहर। कोई सज्जन आचार्य प्रशांत से एक बातचीत में कह रहे थे कि हिंदू धर्म की सबसे बड़ी समस्या है कि उसका एक ढाँचा निर्धारित नहीं है। जाति और वर्ण को मानने वाला हिन्दू है और इन्हें न मानने वाला भी हिन्दू है। कोई क्रूर मनुष्य भी इसमें धार्मिक बनकर रह सकता है। यानि इसकी व्यापकता ही इसकी समस्या है। यह बात सही है कि हमें नीतिवान और विवेकवान् होना ही होगा, पर वास्तव में व्यापकता और उदारता हिंदू धर्म की विशेषता है। हिंदू धर्म की उदारमूलक वृत्ति के कारण किसी व्यक्ति में एक समय जो दुर्गुण होते हैं, वे अगले समय में निर्मूल भी हो जाते हैं या इसकी प्रबल संभावना उसके भीतर मौजूद रहती है। मूल रूप में हिंदू धर्म सर्वथा नीतिमूलक है। वह व्यक्ति को गुणी, उदार और सर्वमांगल्यकारी बनाता है। हिंदू धर्म की किसी अन्य धर्म से कोई असंगति नहीं बनती न उसका किसी और से संघर्ष बनता है। जो कुछ इसके दुर्गुणों की बात की जाती है, उनके मूल में संदर्भ से काटकर की गई बातें हैं। इन महोदय को ब्रह्मसूत्र, उपनिषदों और गीता के माध्यम से हिंदू धर्म को समझना चाहिए। यह मनुष्य की आत्यंतिक खोजें हैं। इनसे अधिक कुछ है नहीं और न इससे कुछ बाहर बचता है। उस अनंत को व्यक्त करने के ढंग अनंत हैं, वह अलग-अलग ढंग से व्यक्त किया जाता है। हर ढंग नया है, अनोखा है, पर वह अनंत है, यह सनातन या हिंदू धर्म ने सबसे पहले सिद्ध किया हुआ है और इसे दुनिया स्वीकार करती है। भारत की मनीषा ने समग्र रूप में तत्व की पकड़ कर ली है/थी। - [ ] हिंदू धर्म के अनुयायियों को पारलौकिक जुड़ाव के बाद या जुड़े रहते हुए लौकिक समृद्धि की और ध्यान देना होगा। पश्चिमी दुनिया के देशों ने छोटी-छोटी चीजों के ऊपर शोध और उनका विश्लेषण करते हुए उन्हें भौतिक समृद्धि के अनुकूल बना लिया है। वे अनुसंधान कर रहे हैं और समूची मानव जाति की सुविधा के लिए उन्हें सौंप रहे हैं। यह उनकी बड़ी उपलब्धि है। भारत जिस दिन यह दशा प्राप्त कर लेगा, उसकी सामाजिक समस्याओं का संभव सीमा तक समाधान हो जाएगा। - [ ] इसका रास्ता ईमानदारी और परिश्रम के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। १०/७/२३ यदि हिन्दू धर्म उदारता लिए हुए है तो जैन बौध ,शिक्ख धर्म का उदय भारत में ही क्यों हुआ।जो कि हिंदू धर्मका मूल ,ईश्वर की कल्पना भी नही करते । अरविंद नायक महरौनी! आलोचना करने के लिए यह बातें कहीं जाती हैं। यह स्वाभाविक है, इन धर्मों या संप्रदायों की अच्छाइयां क्या सनातन में नहीं हैं! विकासशीलता के कारण नए संप्रदाय बनते है, संप्रदाय बनते बदलते रहते हैं, वे सब भी धर्म के उत्स तक पहुंचना चाहते हैं और पहुंचते हैं। सनातन का मूल ईश्वर की कल्पना नहीं; वरन उस तत्व का साक्षात कर लेना है, जिसे कुछ लोग ईश्वर कहते हैं. उस तत्व का साक्षात ही वास्तव में धर्म है। प्रचलित स्वरूप में ईश्वर तो सांख्य दर्शन और आर्य समाजियों के यहां भी नहीं हैं, पर वे सब हिंदू हैं। अनेकानेक संप्रदायों और परम्पराओं का उदय और अस्त होता जाता है, पर क्या कारण है कि मूल धारा अक्षुण्ण बनी रहती है. उस धारा का वर्णन जब तत्वविद करते हैं तो भाषाओं, क्षेत्रों और संप्रदायों की सीमा टूट जाती है। बिना दुभाषिए के किसी महनीय कृति के अनुवाद की भांति सब साफ हो आता है। 12/7/23 कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय | भक्ति करे कोइ सूरमा, जाति वरन कुल खोय || 18/7/23 बुंदेलखंड विश्वविद्यालय झाँसी में पीएचडी के एक वाइवा (मौखिकी) में महत्वपूर्ण प्रश्न उठा कि वसुधैव कुटुंबकम् और वैश्वीकरण में क्या मूल अंतर है! वसुधैव कुटुंबकम् में सब प्राणियों के हित की बात है, तो वैश्वीकरण एक बाज़ार आधारित, मुनाफ़ा केंद्रित व्यवस्था है। बाज़ार समाज संचालन का आधार है, बाज़ार दैनन्दिन जीवन प्रक्रिया को गतिमान रखता है, किंतु मनुष्य की यात्रा यहाँ पूरी नहीं होती। अगर ऐसा होता तो मनुष्य जब पूरी तरह सुख सुविधा संपृक्त हो जाता है, फिर उसे कुछ और पाने की इच्छा क्यों बनी रहती है। वैश्वीकरण का तो लोकतंत्र से भी साम्य नहीं बनता, पर वसुधा कुटुंब ही है, इस प्रत्यय में सबका समाहार हो जाता है। 19/7/23 These three instructions, plus meditation, contain the only rule of life that any disciple needs: detachment; realization of God as the Giver; and unruffled patience. As long as we fail in any one of these three, we still have a serious spiritual defect to overcome. ~ Sri Gyanamata, "God Alone: The Life and Letters of a Saint" तर्क और प्रतितर्क संतर्क तक पहुँचने के मार्ग हैं। वे स्वयं पाथेय नहीं हैं। बहस में उलझे लोग तर्क और उसके प्रतिपक्ष में रचे तर्क में जाते हैं। असल बात है कि वे क्या इससे वे उसके निष्कर्ष तक पहुँचते हैं या नहीं। किसी व्यक्ति को निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए तर्क से या उसके प्रतितर्क से भीतर और अतल गहराइयों में उतर कर जाना होता है। उथले तो बहलाव और प्रदर्शन मात्र है। अतल गहराई में जाने पर दोनों के सिरे एकमेक हो जाते हैं। २०/७/२३ "If you meditate for a few minutes every day and live in harmony, you will always live in heaven, and will carry your own portable paradise within you wherever you go." - Paramahansa Yogananda २९/७/२३ 'बहुत सम्हल के फ़क़ीरों पे तब्सिरा करना ये लोग पानी भी सूखी नदी से लेते हैं' तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना। अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः।। ३०/७/२३ महामृत्युंजय मंत्र निम्नलिखित है । जो कि यजुर्वेद के तीसरे अध्याय का साठवां मन्त्र है—— ओ३म् त्र्यम्बकम् यजामहे सुगन्धिम् पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् । त्र्यम्बकम् यजामहे सुगन्धिम् पतिवेदनम् । उर्वारुकमिव बन्धनादितो मुक्षीय मामुत: । त्र्य॑म्बकं यजामहे सु॒गन्धिं॑ पुष्टि॒वर्ध॑नम् । उ॒र्वा॒रु॒कमि॑व॒ बन्ध॑नान्मृ॒त्योर्मु॑क्षीय॒ मामृता॑त् ॥
(त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीयमामृतात्॥) (ऋक्, ७/५९/१२, वाज. ३/६०, तैत्तिरीय सं, १/८/६/२, मैत्रायणी सं, १/१०/४, २०, काण्व सं, ९/७, ३६१४, शतपथ ब्राह्मण, २/६/२/१२, १४, तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/६/१०/५) तीन अम्बक वाले (सूर्य, चन्द्र, अग्नि नेत्र वाले, या जिसकी अम्बिका स्त्री हैं) की पूजा करते हैं, जो सुगन्ध या दिव्य गन्ध युक्त है तथा पुष्टि साधनों की वृद्धि करता है। जैसे ककड़ी का फल पकने पर स्वयं टूट जाता है, उसी प्रकार मृत्यु द्वारा शरीर से मुक्त हो जायेंगे, पर अमृत से हमारा सम्बन्ध नहीं छूटता। शरीर से आत्मा निकल कर परमात्मा से मिलती है, उसी प्रकार कन्या विवाह के पश्चात पिता के घर से निकल कर पति के घर जाती है। परमात्मा को ही पति कहा जाता है। कन्या विवाह सम्बन्धित मन्त्र वाजसनेयि संहिता मन्त्र के अगले भाग में है।
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पतिवेदनम्। उर्वारुकमिव बन्धनादितो मुक्षीयमामुतः (वाज, ३/६०-भाग २)
(कुमारियों के अर्थ में) पति की प्राप्ति करानेवाला, सुगन्धयुक्त, त्रिनेत्र की हम पूजा करती हैं। ककड़ी का फल जैसे अपने डण्ठल से छूट जाता है, उसी प्रकार हम कुमारियां माता, पिता, भाई आदि मातृगृह के बन्धुजनों से, उस कुल से, उस घर से दूर जायेंगी। किन्तु त्र्यम्बक के प्रसाद से हम पति से दूर न जांय, अर्थात् पति गोत्र में ही बनी रहें। २. इस अर्थ के निर्गुण गीत यजुर्वेद के इन दोनों मन्त्रों के समान अर्थ वाले हजारों निर्गुण गीत हैं, जिनमें मनुष्य को पत्नी, ब्रह्म को पति कहा गया है तथा शरीर से आत्मा निकलने को कन्या के ससुराल जाने जैसा कहा है। माया के बन्धन को ननद कहा गया है। इसे संस्कृत में ननान्दृ कहते हैं, अर्थात् जो प्रसन्न नहीं हो। पति अपनी बहन के अतिरिक्त पत्नी से भी प्रेम करने लगता है जिससे ननद का अधिकार कुछ न्यून हो जाता है। इस भाव का एक प्रसिद्ध निर्गुण गीत साहिर लुधियानवी ने लिखा तथा मन्ना डे ने गाया था।
लागा चुनरी में दाग, छुपाऊँ कैसे,
चुनरी में दाग, छुपाऊँ कैसे, घर जाऊँ कैसे
लागा चुनरी में दाग…
हो गई मैली मोरी चुनरिया
कोरे बदन सी कोरी चुनरिया
जाके बाबुल से नज़रें मिलाऊँ कैसे, घर जाऊँ कैसे
लागा चुनरी में दाग…
भूल गई सब बचन बिदा के
खो गई मैं ससुराल में आके
जाके बाबुल से नज़रे मिलाऊँ कैसे, घर जाऊँ कैसे
लागा चुनरी में दाग…
कोरी चुनरिया आत्मा मोरी
मैल है माया जाल
वो दुनिया मोरे बाबुल का घर
ये दुनिया ससुराल
जाके बाबुल से नज़रे मिलाऊँ कैसे, घर जाऊँ कैसे
लागा चुनरी में दाग…
कबीर से आरम्भ कर महेन्द्र मिश्र तक के इस अर्थ के बहुत से भोजपुरी गीत हैं।
इसी आशय का महेन्द्र मिश्र का प्रसिद्ध गीत है-
खेलइत रहलीं हम सुपुली मउनियाँ
ए ननदिया मोरी है, आई गइलें डोलिया कहाँर।
बाबा मोरा रहितें रामा, भइया मोरा रहितें
ए ननदिया मोरी हे, फेरि दीहतें डोलिया कहाँर।
काँच-काँच बाँसवा के डोलिया बनवलें,
ए नदिया मोरी है लागी गइलें चारि गो कहाँर।
नाहीं मोरा लूर ढंग एको न रहनवाँ
न ननदिया मोरी लेई के चलेलें ससुरार।
कहत महेन्दर मोरा लागे नाही मनवाँ
ए ननदिया मोरी हे छूटि गइलें बाबा के दुआर। अमीर ख़ुसरो के गीत यहीं से अनुकृत हैं। लोकपरंपरा में बाबुल संबंधी यह गीत खूब गए जाते हैं। ३१/७/२३ शरीरांत दशा के लिए बड़े प्यारे शब्द हैं। कुछ है नित्यलीलालीन, निधन, मृत्यु, स्वर्गवास इत्यादि। लीला समझे बिना उसमे लीन नहीं हुआ जा सकता। निधन से आशय निकलता है कि जीवन धन्यता है, ऐसा भी नहीं कि जीवन न होना धन्यता नहीं, पर उसका भोक्ता तो जीव ही है। मृत्यु में चार अक्षर विद्यमान है । म सीमा का द्योतक है, आर गति का त पहुँचने का तो या यात्रा का। चारों का समवेत स्वर यात्रा या गति ही उभरता है। स्पष्ट है कि मृत्यु में जीव की गतिविहीनता का भाव है। स्वर्ग तो एक कामना है, इसलिए मनुष्यों ने मृत्यु की अवस्था को स्वर्गवास नाम दे दिया। दूसरे, स्वर में गति करने का नाम स्वर्ग है। वर्णमाला में स्वर मूल ध्वनियाँ हैं, उनके बिना व्यंजन ध्वनियों का अस्तित्व नहीं। व्यंजन यदि शक्ति हैं तो स्वर शिव हैं। शक्ति के बिना शिव नहीं और शिव शक्ति का लक्ष्य है। शक्ति शिव में लीन रहती है और शिव शक्ति के माध्यम से प्रकट होते हैं।

Sunday, July 2, 2023

जून २३

१/६/२३ #आत्मबोध_विमर्श - 88....#गंगा 🐊 ------------- * वैदिक सनातन सभ्यता और संस्कृति के मूल में है मोक्षदायिनी गंगा। गंगाजल विष है, जीव‌ नहीं पनपता इसमें। जीवभाव मुक्त चैतन्य आत्मबोध ही अमृत है, मोक्ष है। * योगी आध्यात्मिक योग-तंत्र की विशिष्ट क्रियाओं से कुंडलिनी शक्ति को‌ जाग्रत करता है। एक ही योगासन में, एक प्रहर/3 घंटे (कम से कम दो घंटे) बाह्य केवल कुंभक प्राणायाम के साथ, स्थित होने से मोक्ष उपलब्ध होता है सक्षम योगी साधक को। * भगवती गंगा अपने वाहन मकर पर विराजती हैं स्वाधिष्ठान चक्र में, त्रिपथगामिनी है, इड़ा, पिंगला व सुषुम्ना नाड़ियों में, मोक्षदायिनी है अनाहत चक्र में। * गंगा योगी के भगीरथ प्रयत्न से व्योम से, शिव की जटाओं से, सुमेरु शीर्ष से, सहस्रार में प्रकट होती है, समाधि में, आनन्द कानन में। * परम् पुरुष के रूप में योगी शिवतत्त्व का बोध करता है, जिसके दो आयाम हैं, अनन्त और आनन्द, - अनन्त कालातीत है, कामनातीत है, गुणातीत है। - आनन्द इच्छा, ज्ञान और क्रिया वितान है। * योगेश्वर श्रीविष्णु के समस्त शरीर में व्याप्त है गंगा व उनके दाहिने पांव के अंगूठे से निसृत होती है, मोक्षदायिनी है। भगवान् श्रीराम ने अपने अंगूठे के स्पर्श से महर्षि गौतम की पत्नी अहिल्या का उद्धार किया था। * गंगा ब्रह्मदेव के कमंडलु में संकल्प शक्ति है, सरस्वती है, कामेश्वरि राजराजेश्वरि महात्रिपुरसुन्दरि है, ईक्षु धनुष व कामदेव के पंच बाण, पंच तन्मात्राएं, स्वर, स्पर्श, रूप, रस, गंध के संग। * नवनिधियां हैं, पद्म महापद्म नील मुकुंद नन्द मकर कच्छप शंख और खर्व, इन निधियों में गंगावाहन मकर मोक्ष प्रदान करता है। * हनुमान पुत्र है मकरध्वज, मकर (मत्स्य - शुक्राणु) + वानर (वायु - पुत्र), मकर गंगावाहक है मोक्षकारक ध्वज के रूप में, वायु तत्त्व/अनाहत चक्र में फहराता है। ✓✓ स्थूल रूप से गंगा नदी है, सूक्ष्म रूप से कुंडलिनी शक्ति है, कारण रूप से चैतन्य स्वरूप है। - गंगा की परिणति मोक्ष में है जहां आत्मबोध के साथ सक्षम योगी जीवन्मुक्ति रूपी अमृत फल का उपभोग करता है। #सुशील_जालान, 22.05.2022. 🐊 ------------ पुनः प्रेषित, 29.05.2023.🌹 ------------ दान, यज्ञ, तप, अपरा लौकिक ज्ञान आदि से पराध्यान-योग श्रेष्ठ है !! ८/६/२३ पूजिय विप्र सील गुन हीना शूद्र न गुन गन ग्यान प्रवीना क्या तुलसीदास इतने दलित विरोधी थे? इस पर ... यहाँ हम विप्र उसे कहेंगे जो वेदानुसंधान में संलग्न है। शूद्र वह है जो मात्र शरीर चेतना में संलग्न है। आप जब इसे प्रचलित जातियों में जोड़कर देखने लगते हैं, समस्या तब उत्पन्न होती है। आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धि: सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृति: स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्ष:। आहार की शुद्धि से सत्त्व की शुद्धि होती है, सत्त्वशुद्धि से स्मृति की शुद्धि होती है, वास्तविक ज्ञान प्राप्त हो जाता है, व उससे सारे बन्धन जिनसे आत्मा इस संसार में बंधा रहता है, वह सब कट जाते हैं। छान्दोग्योपनिषद इसमें विप्र का अर्थ आया है.... आज रात एक बड़ा सर्प स्वप्न में आया। वह बायीं बाजू में घुसकर चिपक गया। मैं देख रहा था वह डसता है या क्या करता है! वह शांति से चिपका था। मेरा ध्यान लग गया। थोड़ी देर बाद वह सर्प भी ध्यानस्थ हो गया। थोड़ी देर में नींद खुल गई। सुबह फिर ध्यान किया तो कूटस्थ में अपने गुरुदेव, रामकृष्ण परमहंस और भगवान शंकर और देवी देवताओं के विग्रह बनते और लुप्त होते रहे। ध्यान के बाद तो जैसे सर्प खड़ा होकर फ़ूत्कार मारता ही है। मूलाधार से सहस्रार पर्यंत यह दशा अनुभूत होती है। 11/6/23 गिरा का अर्थ वाणी है, क्योंकि यह कंठ से गिरती है। गीर्वाण का अर्थ भी गिरा से निकल रहा है, सुंदर या देवता। वर्णमाला के प्रत्येक वर्ग के अंत में अनुस्वार है। यह बिंदु ही मानो सब वर्णों को धारण किए हुए है। न् का अर्थ आत्मा, जो सतत प्रवाहित रहे। यह बिंदु ही सृष्टि के उन्मेष या वर्णमाला के विकास होने पर विसर्ग बनता है। वर्णमाला का अंत स पर है, यहीं से अ शुरू हो जाता है। ह् विसर्ग में भी अ है। अगर विसर्ग लगाकर ह् नहीं बोला जाय तो वह शक्ति का उत्फुल्ल रूप है। विसर्ग में वह विश्रांत होती है, वैसे ही जैसे संभोग के बाद कोई युगल विश्राम पाता है। न् में शिव ठहरते हैं तो ह् में शक्ति। १५/६/२३ श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्यः शृण्वन्तोऽपि बहवो यं न विद्युः।
आश्चर्यो वक्ता कुशलोऽस्य लब्धाश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः ॥ वह' (परतत्त्व) जिसका श्रवण भी बहुतों के लिए सुलभ नहीं है श्रवण करने वालों में से भी बहुत से लोग 'जिसे' जान नहीं पाते। 'उसका' ज्ञानपूर्वक कथन करने वाला व्यक्ति अथवा कुशलता से 'उसे' उपलब्ध करने वाला व्यक्ति होना एक आश्चर्यभरा चमत्कार है, तथा जब ऐसा कोई मिल जाये तो ऐसा श्रोता होना भी आश्चर्यपूर्ण है जो ज्ञानीजन से 'उसके' विषय में उपदेश ग्रहण करके भी 'ईश्वर' को जान सके। पता नहीं क्यों हमे लगता ये तुम भी जानो। हालाँकि तुम पहले से जानती हो। ठीक यह न भी जानती हो, पर तत्वबोध तो सम्यक् है ! यानि दूसरे को जनवाना अपना अज्ञान प्रदर्शित करना हुआ न! समान नागरिक संहिता तब तक लायी जानी समीचीन नहीं हो सकती जब तक कि हम अपने धर्म ग्रंथों का पाठ और उनकी व्याख्या समरूप कर उसी रूप में स्वीकार न कर लें। गीता की ही दर्जनों अलग-अलग व्याख्याएँ हुई हैं। किस व्याख्या में मानव हित शीघ्रता से सुलभ होता है, क्या हम यह ठीक से जान पाये हैं। रामचरितमानस जिसका प्रभाव बहुत अधिक उत्तर भारत के जनमानस पर है, उसके पाठ और व्याख्या में ही कितना अंतर मिलता है, जबकि यह कोई बहुत पुराना ग्रंथ नहीं है। भागवत् पुराण जो परमहंस संहिता है, उसका हिंदी पाठ ही अभी ठीक से होना शेष है। ऐसी स्थिति में हम आचार व्यवहार कैसे निर्धारित कर पायेगे। यह हिंदुओं के धर्मग्रंथों की स्थिति है, इस्लाम की भी कमोबेश यही स्थिति है, क़ुरान के कितने पाठ हुए। इन पाठों की बहुलता और विविधता के कारण इस्लाम मानने वालों के भीतर कितनी अलग-अलग परम्पराएँ और रीति रिवाज पाये जाते हैं। बाइबल और गुरुग्रंथ साहिब के मानने वाले भी अपने-अपने ढंग के हैं। सभी संप्रदायों का ऐसा पाठ तैयार हो जो भारतीय समाज में सर्वमान्य हो तभी समान नागरिक संहिता लाए जाने का औचित्य बनेगा। अगर हम यह कर सके तो यह बहुत बड़ा क्या सबसे बड़ा कार्य सिद्ध होगा। १७/६/२३ इंद्र व्यक्तिगत आत्मा को कहते हैं. वही सब देवताओं का अधिपति है. श्री अरबिंदो इंद्र को गिवर ओफ़ लाइट कहते हैं. यह व्यक्तिगत आत्मा जब दृश्य देखने का काम करती है तो उसे इंद्रिय कहते हैं. संस्कृत भाषा में इदं यह को कहते हैं द्र का अर्थ देखने से है, वह जो देखता है इंद्र कहलाता है. इदंद्र का संक्षिप्तीकरण इंद्र रूप में हुआ है. १८/६/२३ सृजन दृश्य है, जो अदृश्य में से होकर प्रकट होता है। मूर्तिकार पत्थर से मूर्ति तराश देता है। इस सृजन या निर्माण में वह पत्थर अदृश्य हुआ और मूर्ति दृश्य या सृजन हो गया। छांदोग्य उपनिषद् में ऊर्जा के अतिरेक को बल कहा गया है। इसकी उपासना पर यह उपनिषद् बल देता है बलमुपास्व। अथ यत्तपो दानमार्जवमहिँसा सत्यवचनमिति ता अस्य दक्षिणाः ॥ ४ ॥[86]

Now Tapas (austerity, meditation), Dāna (charity, alms-giving), Arjava (sincerity, uprightness and non-hypocrisy), Ahimsa (non-violence, don't harm others) and Satya-vacanam (telling truth), these are the Dakshina (gifts, payment to others) he gives [in life]. — Chandogya Upanishad 3.17.4 यो ह वै ज्येष्ठं च श्रेष्ठं च वेद ज्येष्ठश्च ह वै श्रेष्ठश्च भवति

When a man knows the best and the greatest, he becomes the best and the greatest. — Chandogya Upanishad 5.1.1 १९/६/२३ सहज सनेहँ स्वामि सेवकाई। स्वारथ छल फल चारि बिहाई॥
अग्यासम न सुसाहिब सेवा। सो प्रसादु जन पावै देवा।2॥ भावार्थ वह रुचि है- कपट, स्वार्थ और (अर्थ-धर्म-काम-मोक्ष रूप) चारों फलों को छोड़कर स्वाभाविक प्रेम से स्वामी की सेवा करना। और आज्ञा पालन के समान श्रेष्ठ स्वामी की और कोई सेवा नहीं है। हे देव! अब वही आज्ञा रूप प्रसाद सेवक को मिल जाए॥ २२/६/२३ गीता प्रेस का सम्मान... अब तो अन्य भारतीय भाषाओं में भी गीता प्रेस से भारतीय परंपरा की पुस्तकें छप रही हैं, पर हिंदी भाषा में विभिन्न शास्त्रों को अत्यंत कम मूल्य पर सतत रूप से भारतीय समाज को उपलब्ध कराते जाना गीता प्रेस की महनीय सेवा है। इस सेवा का मूल्य सरकार भी चुका नहीं सकती है। यह भी दिखता है कि गीता प्रेस से हिंदी अनुवाद के जो ग्रंथ निकले, वे उतने सटीक नहीं हैं, जितने उनके बाद के अन्य प्रकाशन/आध्यात्मिक संस्थानों से निकले उन ग्रंथों के अनुवाद हैं या जितना हमें दूसरी भाषाओं में प्राप्त होता है। किंतु इससे गीता प्रेस का जो महत्व और योगदान है, वह तनिक भी कम नहीं होता है। शास्त्रों को मूल और अविरल रूप में बिना वर्तनी दोष के प्रस्तुत करना ही बहुत बड़ा कार्य है। हिंदी जनमानस को वरना उन शास्त्रों का परिचय कैसे मिलता, जिनकी बार-बार आवृत्तियाँ छपती आयी हैं। शास्त्रीय महत्व की पुस्तकें लंबे समय तक प्रकाशित करने वाला खेमराज श्रीकृष्णदास बंबई का प्रेस बंद हो गया, या अब उसका पता नहीं है, पर गीता प्रेस बराबर चलता जा रहा है, बीच-बीच में उसके बंद होने की अफ़वाहजनक खबरों के बीच वह अस्तित्वमान है। वह संस्कृत भाषा ही नहीं अन्य भारतीय भाषाओं में निबद्ध शास्त्रों की प्रामाणिक व्याख्या और अलग-अलग अनुवाद छापता जाए, यही हम सबकी कामना है। आज भी हिंदी में शास्त्रीय ग्रंथों की अलग-अलग व्याख्याओं के अनुवादों की कमी बनी हुई है। अखंड ज्योति/गायत्री परिवार के प्रमुख डॉ प्रणव पंड्या जी ने भी राज्य सभा की सदस्यता लेना स्वीकार नहीं किया था। गीता प्रेस ने सम्मान लेना स्वीकार किया, पर एक करोड़ जैसी बड़ी पुरस्कार राशि नहीं। यह संस्थाएँ उन्हें आज बहुत याद आती हैं, जिनके जीवन में जब चारों तरफ़ घनघोर तमस् छाया था। इन्हें सम्मानपूर्वक याद करके हम मानो स्वयं उपकृत हो रहे हैं। कई बार लगता है गोरखपुर विलक्षण नगर है...गोरक्षनाथ पीठ, परमहंस योगानंद की जन्म स्थली और गीता प्रेस यह इसके स्थायी महत्व के अर्थात् अमर स्मारक हैं। गोरखपुर को जीवन में सबसे पहले गीता प्रेस के कारण ही जाना था। २३/६/२३ सेवा का व्युत्पत्तिगत अर्थ होगा वह ही। हम जो कर्म कर रहे हैं उसके लिए कर रहे हैं, केवन होना हमारे द्वारा हो रहा है, यही सेवा है। यह भाव बनने पर क्या करना है, कब करना है यह विचारणीय नहीं रह जाता है। गू शब्द कैसे बना होगा। गुरु में यह पहला अक्षर है। गु का अर्थ अंधकार है। अघोरी गू का भक्षण कर लेते हैं। अंधकार को निगलना और ज्ञान को प्रकाशित करना यह गुरु का अर्थ और प्रकार्य है। २४/६/२३ हाँग सौ नाम ही है। चाहे कोई नाम लें राधा/राम/शिव/ॐ/कृष्ण... श्वास में काम के बीच हाँग सौ की याद आ जाती है। यह अखंड हो जाये बस। वैसे स्वप्न में सोते हुए भी याद आती है और सघन हो जाए। पूरे व्यक्ति के लिए हर जगह तीर्थ है, हर समय मुहूर्त है और हर कृत्य पूजा है। मंगलं मंगलं🌹🌹 २५/६/२३ The Panchagni-Vidya is a meditation,—it is not an outward ritualistic sacrifice; it is a contemplation by the mind in which it harnesses every aspect of its force for the purpose of envisaging the reality that is transcendent to the visible parts of this inner sacrifice. the Panchagni-Vidya is a kind of remedy prescribed by way of a meditation which is regarded as a great secret by the Upanishadic teachers. Even if you hear it being expounded once, you will not be able to understand much out of it. It does not mean that you will get out of the law of Nature merely by listening to what the king appeared to have said, because they are secrets bound up with one’s own personal life. Based on this concept of the relationship of our life with the activity of Nature outside, the Upanishad tells us that our actions are like an oblation offered in a sacrifice. Our activities are not mere impotent movements of the physical body or the limbs; they are effective interferences in the way of Nature. When we pour ghee or charu into the flaming fire in a sacrifice, we are naturally modifying the nature of the burning of the fire. Much depends on what we pour into it. If we throw mud into it, well, something, indeed, happens to the fire. If we pour ghee into it, something else happens. So, likewise, is the activity of the human being or, for the matter of that, any other being. The interference by a human activity in the working of Nature is an important point to consider in the performance of the sacrifice. If we coordinate ourselves and cooperate with the activity of Nature, it becomes a yajna, but if we interfere with it and adversely affect its normal function, it will also set up a reaction of a similar character. Then, we would be the losers. The first oblation is the universal vibration in the celestial heaven; that is the first sacrifice, and that is the first oblation. The second oblation is in the second sacrifice which is the reverberation of the vibrations in the celestial region felt in the lower regions of the atmosphere, as the fall of the rain. The grosser manifestations which are the events that take place in this world are the third oblation. The fourth sacrifice is of man himself, who is involved in this entire activity, who consumes the food of the world and energises himself and produces virility. The fifth oblation is woman whose union with man brings about the birth of a child. These are the Five Fires. one who knows these Five Fires is free. It is difficult to know these Fires unless we live a life of meditation. Your whole life should be one of meditation. Perpetually, we must be seeing things in this light only. Our meditation should not mean merely a little act of half-an-hour’s closing of the eyes and thinking something ethereal. It is a way of living throughout. When you see a thing, you see only in this way; when you speak, you speak from this point of view; when you think, this is at the background of your thought. So, you cease to be an ordinary human being when you live a life of this Upanishad. The knower becomes coextensive with the way in which Nature works in all its ways. And everything is Nature working in some way, the desirable as well as the undesirable, as we may call it. We become commensurate with the way in which Nature works in every way because of the meditation conducted in this manner. Thus, we cannot be harmed by any atmosphere, by anyone or by anything that is around us. On the other hand, perhaps, we may be able to influence. positively the atmosphere in which we are living. “One who knows this,” reaches the higher realms reached only by meritorious deeds; “ya evam veda”; yea, “One who knows this.” २७/६/२३ ध्यान के बाद इस कविता के शुरुवाती बोल याद आये स्नेह-निर्झर बह गया है ! रेत ज्यों तन रह गया है । आम की यह डाल जो सूखी दिखी, कह रही है-"अब यहाँ पिक या शिखी नहीं आते; पंक्ति मैं वह हूँ लिखी नहीं जिसका अर्थ- जीवन दह गया है ।" "दिये हैं मैने जगत को फूल-फल, किया है अपनी प्रतिभा से चकित-चल; पर अनश्वर था सकल पल्लवित पल-- ठाट जीवन का वही जो ढह गया है ।" अब नहीं आती पुलिन पर प्रियतमा, श्याम तृण पर बैठने को निरुपमा । बह रही है हृदय पर केवल अमा; मै अलक्षित हूँ; यही कवि कह गया है । २८/६/२३ नाम-स्वाँस दोउ विलग चलत हैं, इनकौ भेद न मोकौं भावै॥
स्वाँसहि नाम नाम ही स्वाँसा, नाम स्वाँस कौ भेद मिटावै। रोम रोम जब रग रग प्रगटे तब कछु स्वाद नाम को पावे
बाहिर कछु न कछू तब भीतर, जिय और नाम एक ह्वै जावै॥
तब निज रूप नाम कौ प्रगटै, तन में श्री वन सहज दिखावै। भोरी सखी संसार परिणाम में दुःख ही देता है। क्रिया का परिणाम सुख है। क्रिया अपने भीतर है। अपने भीतर सुख होने से बाहर सुखाभास होता है, इसे संसार में पाने का हर प्रयास निष्फल जाता है। आदमी का अर्थ है जो दम यानी श्वास से चलता हो। व्यक्ति वह जो व्यक्त होता है। मनुष्य मन से संचालित हो रहा है। Man में भी मन या mind झांकता है। 30/6/23 अपनी बात लिखने में आत्म झांकता है और स्वयं को छिपाना मानव स्वभाव है। इसलिए व्यक्ति दूसरे की बातों के जरिये काम चलाते रहते हैं। पुरानी फ़ेसबुक पोस्ट