राकेश नारायण द्विवेदीगैर हिंदी राज्यों में हिंदीगैर हिंदी राज्यों में हिंदी की स्वीकार्यता बलात् नहीं, वरन् हर्षात् स्थापित हो, इससे पूर्व हिंदी को हिंदी भाषी भारतीय राज्यों द्वारा प्राथमिक भाषा के रूप में मान्यता प्रदान की जानी चाहिये। हिंदी भाषा भाषियों को यह भी ध्यान रखना होगा कि संपूर्ण देश में हिंदी को सभी भाषाओं के ऊपर रखने का आशय यह कदापि नहीं कि उसने दूसरी भारतीय भाषाओं पर अपनी श्रेष्ठता स्थापित कर ली है। हिंदी भाषी व्यक्ति को कम से कम एक अन्य भारतीय भाषा का ज्ञान प्राप्त करना ज़रूरी है। और नहीं तो संस्कृत का ही सामान्य ज्ञान एक हिंदी पाठक अवश्य ग्रहण करे, क्योंकि संस्कृत भाषा में वह रागात्मक एकता विद्यमान है, जिसमें सभी भारतीय भाषाओं की आत्मा का समुचित समाहार मिलता है। हमें अंग्रेजी को देशनिकाला देने की आवश्यकता नहीं है। वस्तुतः कोई भाषा अपने साथ ज्ञान-विज्ञान एवं संस्कृति की एक समुन्नत परंपरा लिए हुए होती है, फिर अंग्रेजी तो आजकल विश्व में एक संपर्क भाषा के रूप में प्रचलित हो चुकी है। यद्यपि अभी भी ज्ञान-विज्ञान की दृष्टि से जर्मनी, स्पैनिश आदि यूरोपीय भाषाएं बहुत से देशों में समादृत हैं। हमें अपने लिए ज्ञान के गवाक्ष बंद नहीं करने चाहिए, यह भाषाएं भी आधुनिक ज्ञान और विज्ञान की दृष्टि से क्षमतासंपन्न हो चुकी हैं। हमें अंग्रेजी में महारत नहीं तो कामकाजी ज्ञान हासिल करके ‘‘निजभाषा’’ की उन्नति एवं गौरव के लिए जुटना चाहिए। कोई हिंदी भाषी व्यक्ति मात्र हिंदी भाषा की जानकारी रखे, वह भारतीय भाषा या संस्कृत का ज्ञान न रखे और न सामान्य अंग्रेजी ही जाने और फिर वह हिंदी को राष्ट्रभाषा, राजभाषा, भारत की संपर्क भाषा और विश्व भाषाओं में अग्रणी स्थान पर सर्वमान्य रूप में देखना चाहे तो यह भारत की विविधता में संभव नहीं।सर्वप्रथम हिंदी भाषी व्यक्ति का ही कर्तव्य बनता है कि वह विश्व की अग्रणी भाषाओं में हिंदी की प्रतिष्ठा गैर हिंदी राज्यों में सौमनस्य स्वीकार्यता प्राप्त करे। हिंदी भाषा भाषी व्यक्ति एक तरह के पाखंड का शिकार होने लगता है, जब वह हिंदी को भारत की एकता और अखंडता के लिए देश के जन-जन को जोड़ने वाली भाषा के रूप में तो मानता है, पर इससे आगे हिंदी को ज्ञान-विज्ञान की भाषा बनाने के लिए अपेक्षित भाषायी समृद्धि की दृष्टि से इसके अधिकाधिक प्रयोग में पीछे रहता है। यही नहीं, साहित्य में रुचि लेने में तो हिंदीजन भारत की ही भाषाओं के व्यक्तियों से पीछे है। साहित्य में जैसी रुचि बंगाली, मराठी, मलयालम, तमिल और यहां तक कि असमी जैसी छोटी भाषाओं के व्यक्तियों में पाई जाती है, वैसी रुचि हिंदी पट्टी राज्यों में क्यों नहीं दिखाई देती। भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों का सम्मान आनुपातिक रूप में हिंदी साहित्यकार से कहीं अधिक है। हिंदी का पाठक उतना पठनशील नहीं, जितने अन्य भारतीय भाषा भाषी व्यक्ति होते हैं। हिंदी पुस्तकों के अधिकतम पांच सौ के संस्करण छपते हैं, इनमें से भी अनबिके रह जाते हैं। हिंदी की कमियों को हिंदी का जनमानस ही दूर करेगा। हिंदी केवल जनसंख्या के बल पर देश की प्रमुख भाषा नहीं है, अपितु इसकी समृद्ध साहित्यिक परंपरा एवं पाचक प्रवृत्ति के कारण हिंदी जन-गण-मन से जुड़ती है। हिंदी वह भाषा है, जिसमें लोकतंत्र मुखर होता है, वह सबकी बात कहने-सुनने वाली भाषा है, जन-जन की मुखरित अभिलाषा है। वह गुजरात के गांधी की भाषा है तो बंगाल के सुभाष की भाषा है, वह मराठी तिलक और गोखले की भाषा है तो वह सुदूर दक्षिण में रामेश्वरम के जन-मन की भाषा है। वह षडयंत्री राजनीति से विरहित मन की आकांक्षा है। वह मजदूर मन की व्यथा है तो पूंजीपति की कामकाजी सभ्यता का निमित्त भी। किसान का संघर्ष हो या व्यापारी का घात-संघात, इसकी रगड़ से हिंदी चमकदार बनती है। हिंदी में उर्दू ज़ुबान के लफ़्ज मिलते हैं तो उसमें लोच आती है और वह हिंदुस्तानी कही जाने लगती है तो तत्समी हिंदी किस तरह संस्कृत परंपरा का स्मरण कराती है, वहीं खांटी ग्राम वासियों के मुंह से निःसृत हिंदी भदेस रूप में कितनी मिठास घोलती है। हिंदी की संपर्क शक्ति के कारण इस भाषा के माध्यम से देश का स्वाधीनता आंदोलन चला। आम जन की भाषा होने के कारण देश की राष्ट्रभाषा के रूप में स्वाधीनता आंदोलन के पुरोधाओं द्वारा यह स्वीकृत हुई। हिंदी राजभाषा के रूप में 14 सितंबर 1949 को स्वीकृत हुई, पर पंद्रह वर्षों के लिए अंग्रेजी को सहराजभाषा बना दिया गया, यह घटना हिंदी के लिए अभिशाप सिद्ध हुई, क्योंकि पंद्रह वर्षों की यह निर्वासन अवधि बीते; इससे पूर्व ही सन् 1963 में यह प्रावधान कर दिया गया कि जब तक देश के सभी राज्य हिंदी को एकमात्र राजभाषा स्वीकार नहीं कर लेते, हिंदी को राजभाषा नहीं बनाया जाएगा। इस तरह अंग्रेजी के माध्यम से सरकारी कामकाज चलाने की यह व्यवस्था अनंत काल तक के लिए हो गई, क्योंकि 29 प्रदेशों के इस विविध भाषी देश में डेढ़ हजार से अधिक बोलियां हैं, सबके अपने राजनीतिक स्वार्थ है, वे भला कैसे और कब हिंदी को एकमात्र राजभाषा स्वीकार करेंगे। कुछ राज्यों ने तो अंग्रेजी को ही प्रथम राजभाषा बना रखा है। तुर्की और जापान जैसे देशों में जब यह बात आई कि उनके देशों की भाषाओं में कामकाज संपन्न होने में कठिनाई होगी तो वहां की तत्कालीन सत्ताओं ने कहा कि जो कठिनाई होगी, उसे दूर किया जाएगा, काम स्वभाषा में ही होना चाहिए और ऐसा ही हुआ, अपने देश में भी यही होना चाहिए था। भाषा की कठिनाईयां उसे प्रयोग करने से ही दूर हो सकती हैं। अब भी यदि कोई समाधान हिंदी को एकमात्र राजभाषा बनाने के लिए सत्ता केंद्रों द्वारा किए जाएं तो यह कार्य दुष्कर तो है, पर असंभव कदापि नहीं है। हिंदीतर भाषा भाषियों के रोजगार और उन भाषाओं की अस्मिता को पूर्ण संरक्षण देते हुए सर्वसम्मति बनाई जा सकती है। हिंदीतर भारतीय भाषाओं के राजनेताओं को भी देश की प्रतिष्ठा के लिए भाषा की राजनीति छोड़ देनी चाहिए। उनके हितों का संरक्षण कैसे हो, वे इसकी रूपरेखा निर्माण करें तो देश की प्रतिष्ठा भाषा के माध्यम से अवश्यमेव बढ़ सकती है। आखिर इसी देश से ही हम सब हैं, यदि देश की प्रतिष्ठा बढ़ेगी तो हमारा ही मान बढ़ेगा।
Tuesday, October 27, 2015
गैर हिंदी राज्यों में हिंदी
क्षेत्रीय भाषायें और उनका जिला/उच्च न्यायालयों में प्रयोग
क्षेत्रीय भाषायें और उनका जिला/उच्च न्यायालयों में प्रयोग
डा राकेश नारायण द्विवेदी
भारत के संविधान के अनुच्छेद 348(2) में कहा गया है, राज्य का राज्यपाल, राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति लेकर हिंदी भाषा या राज्य के सरकारी प्रयोजनों के लिये प्रयुक्त हो रही अन्य भाषा को उच्च न्यायालय की भाषा के रूप में प्राधिकृत कर सकता है। यद्यपि यह प्रावधान ऐसे उच्च न्यायालय द्वारा पारित किसी निर्णय, डिक्री या आदेश पर लागू नहीं होंगे।
किंतु इस संवैधानिक प्रावधान की उपधारा (3) के आधार पर राजभाषा अधिनियम की धारा 7 के अनुसार एक राज्य का राज्यपाल निर्धारित किये गये दिनांक से राष्ट्रपति की पूर्वानुमति से अंग्रेजी के अतिरिक्त हिंदी या राज्य की राजभाषा को राज्य के उच्च न्यायालय में पारित होने वाले निर्णय, डिक्री या आदेश के लिये प्राधिकृत कर सकता है। इस प्रावधान के अंतर्गत हिंदी या अन्य राजभाषाओं में पारित निर्णय, डिक्री या आदेश उच्च न्यायालय प्राधिकारी द्वारा कराये गये अंग्रेजी अनुवाद के साथ जारी किये जायेंगे।
इन प्रावधानों के आधार पर उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश तथा राजस्थान ने अपने-अपने उच्च न्यायालयों की भाषा के रूप में हिंदी के प्रयोग की अनुमति दी हुई है, जो न्यायालयों की प्रक्रिया के लिये ही नहीं, आदेश और निर्णयों को पारित करने में भी प्रयुक्त की जाती है। 'ऐसी ही स्थिति जिला स्तर तक के न्यायालयों की भी है। मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड, छत्तीसगढ और झारखंड राज्यों में विधानमंडल और जिला स्तर तक न्यायालयों की भाषा हिंदी है। मध्य प्रदेश और राजस्थान राज्यों में विधि के क्षेत्र में स्थिति यह है कि जिला स्तर पर केवल हिंदी में ही निर्णय दिये जा सकते हैं, लेकिन हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और दिल्ली जैसे अन्य हिंदी भाषी क्षेत्रों में विधानमंडल और न्यायालयों की भाषा अंग्रेजी ही बनी हुई है।' 1(स्मारिका विश्व हिंदी सम्मेलन, विदेश मंत्रालय, भारत सरकार हरीश कुमार सेठी का आलेख विधि न्याय के क्षेत्र में हिंदी पृ 185)इलाहाबाद उच्च न्यायालय के अवकाशप्राप्त न्यायमूर्ति प्रेमशंकर गुप्त आजीवन अपने निर्णय हिंदी में देते रहे। न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू अपने कार्यकाल में हिंदी का अधिकतम संभव प्रयोग करते रहे। 2(न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू की दनांक 20 सितंबर 2015 कीफेसबुक पोस्ट से) बहुत से और न्यायाधीश निर्णय लिखते समय हिंदी और भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों की उक्तियां उद्धृत कर निर्णय की बात को स्पष्ट करते हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के ही दयाशंकर मिश्र, प्रमोद कुमार जैसे अधिवक्ता न्यायालयों में हिंदी का ही प्रयोग करते हैं। उत्तर प्रदेश सरकार के पूर्व उप महाधिवक्ता महेश चंद्र चतुर्वेदी ने दिनांक 14 सितंबर 2015 कोव्हाट्सऐप पर बताया कि यहां अधिवक्ता तीन चौथाई से अधिक बहस हिंदी भाषा के माध्यम से ही पूरी करते हैं। वास्तव में जब हम अपनी बात को यथारूप कहना चाहते हैं तो अपनी ही भाषा में उसे अभिव्यक्त कर पाते हैं। कौन व्यक्ति होगा, जिसका मुकदमा जीवन मृत्यु के लिये चल रहा हो, क्योंकि जब प्रशासन और शासन के सब अंगों की तरफ से न्याय पाने में वह निराश हो चुका होता है, तब वह न्यायालय की शरण जाता है। वह अपनी पूरी बात न्यायाधीश तक पहुंचाना चाहता है। अधिवक्ताओं की भी भाषाई सीमा होती है। जीवन के घात-प्रतिघातों को विदेशी भाषा में यथारूप व्यक्त कर पाना सर्वदा दुष्कर होता है। पेड की शाखा चर्र-चर्र करके नीचे आ गिरी जैसे वाक्यांशों को अंग्रेजी भाषा में कह पाना मुश्किल होता है।
न्यायालयों की भाषा अपने राज्य की भाषा हो, इसमें किसी को भला क्या आपत्ति हो सकती है। जब तमिलनाडु में सितंबर माह में वहां के अधिवक्ताओं द्वारा उच्च न्यायालय की भाषा तमिल बनाने की मांग की गई तो अनेक बुद्धिजीवियों ने उनकी इस मांग से अपने को संबद्ध किया। मेरी सहमति भी इस मांग के साथ कतिपय शर्तों सहित है कि किसी अधिवक्ता को अपनी बहस तमिल अथवा अंग्रेजी में करने की अनुमति हो, जिससे जो न्यायाधीश बाहर से आते हैं और तमिल नहीं जानते, उन्हें असुविधा न हो। उच्च न्यायालयों की नीति के अनुसार किसी उच्च न्यायालय का प्रधान न्यायाधीश उस राज्य का निवासी नहीं होगा। अस्तु, सभी प्रधान न्यायाधीश उस राज्य से बाहर के ही होते हैं। स्वाभाविक है कि वे उस राज्य की भाषा को अनिवार्यत: समझते-जानते हो, ऐसा आवश्यक नहीं है। आदर्श स्थिति तो यह है कि न्यायालयों ही नहीं संसद और विधानमंडलों में भी हिंदी को अंग्रेजी के स्थान पर प्रमुख भाषा के रूप में स्थापित किया जाये, इससे राज्य की भाषा को लागू करने में भी समस्या उपस्थित नहीं होगी। हिंदी कम से कम समझने के स्तर पर पूरे देश में ग्राह्य बन सकती है , विडंबना है कि जो अपने देश की भाषा है, अपने संस्कारों में रची बसी है और जिसने अपने देशवासियों के जीवन संघर्ष को अभिव्यक्ति दी है, जिस भाषा में देश का स्वाधीनता संग्राम लडा गया। देश के चारों कोनों के स्वातंत्र्य योद्धा हिंदी भाषा के माध्यम से एकजुट हुये, उन्होंने हिंदी को देश की प्रतिनिधि भाषा बनाने की आवश्यकता बताई, किंतु कतिपय भयाक्रांत या स्वार्थी तत्वों द्वाराउस भाषा को सरकारी या न्यायालयों की प्रमुख भाषा के रूप में रखने का तो पुरजोर विरोध किया जाता है, जबकि अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा को सीखने में अपने नौनिहालों की ऊर्जा खर्च करा देते हैं।
अंग्रेजी भाषा का विरोध नहीं, पर इसे सीखने की मजबूरी न रखी जाये। स्वेच्छया किसी भी भाषा को सीखने की अनुमति और सुविधा दी जाये। पंजाब उच्च न्यायालय की भाषा क्यों नहीं पंजाबी हो सकती है। यह उच्च न्यायालय हरियाणा का भी क्षेत्राधिकार रखता है, जो हिंदी भाषी राज्य है। अत: समुचित होगा कि इसकी भाषा पंजाबी और हिंदी रखी जाये। असम उच्च न्यायालय की कामकाजी भाषा असमी है, किंतु सहभाषा के रूप में यहां अंग्रेजी, बोडो और बंगाली भी चलती है। पुडुचेरी में तमिल, मलयालम, तेलुगु तो दादरा और नगर हवेली जैसे संघ शासित राज्यों में मराठी, गुजराती और हिंदी में कामकाज चलता है। देश के सभी उच्च न्यायालयों - ओडिशा में उडिया, गोवा में कोंकणी, महाराष्ट्र में मराठी, गुजरात में गुजराती, पश्चिम बंगाल में बंगाली, आंध्र और तेलंगाना में तेलुगु, कर्नाटक में कन्न्ड, केरल में मलयालम-में उस राज्य की राजभाषा में कमोबेश कामकाज होता है तो पंजाब में ऐसा क्यों नहीं हो सकता!
सामाजिक सरोकार का सबसे बडा माध्यम भाषा है। भाषा का महत्व लोक-व्यवहार में अप्रतिम है। लोक-व्यवहार को नियंत्रित करने वाली संस्था 'न्यायपालिका' ही है। भारत एक विविधताओं वाला बडे भूभाग को समेटा हुआ राष्ट्र है, जहां कोस कोस पर पानी बदले, चार कोस पर बानी। 'भाषाई न्यायिक व्यवस्था में गतिरोध मुगलों द्वारा फारसी और अंग्रेजी को लागू करने से हुआ। फारसी तो धीरे-धीरे हिंदी में घुल-मिलकर पहले उर्दू और फिर हिंदुस्तानी में बदलने लगी, जिस कारण आम हिंदुस्तानी इस भाषा के निकट आने लगा। सन 1833 तक अंग्रेजों ने भी इसे ही शासन के समस्त निकायों में प्रयोग किया, लेकिन लार्ड मैकाले ने फारसी के स्थान पर अंगरेजी भाषा को राजभाषा के स्थान पर आरूढ करा दिया। नतीजा, न्यायिक क्षेत्र में एक ऐसी भाषा का प्रवेश हुआ, जिसकी जानकारी प्राय: पक्षकारों को भी नहीं होती। वादी और प्रतिवादी दोनों ही अंग्रेजी के जानकार वकीलों और न्यायाधीशों की समझ पर आश्रित हो गये।' 3 (स्मारिका विश्व हिंदी सम्मेलन भोपाल 2015 में विमल कुमार दुबे का आलेख न्यायालयों में हिंदी कार्रवाई की सार्थकता एवं उपयोगिता, पृ 187-188) न्यायिक प्रक्रिया के तीन मुख्य चरण होते हैं- न्यायालयों तक पहुंच, प्रभावी निर्णयात्मक शक्ति तथा निर्णय का क्रियान्वयन। यदि न्यायालय किसी ऐसी भाषा में कार्य करता है, जिससे वादी अनभिज्ञ हैतो वह अदालत में जाने से कतरायेगा। यदि निर्णय किसी ऐसी भाषा में लिखा गया है जो पक्षों के लिये अनभिज्ञ हैतो निर्णय की व्याख्या के लिये दूसरों पर आश्रित रहेगा। जब निर्णय ही समझ में नहीं आया तो उसका क्रियान्वयन भी किसी दूसरे की व्याख्या के अधीन रहेगा। इस प्रकार न्याय की पूरी प्रकिया ही दूषित एवं निरर्थक हो जायेगी। इसीलिये हंदी भाषी प्रदेशों में हिंदी में और अन्य राज्यों में न्यायिक प्रक्रिया उन राज्यों की भाषाओं में ही चलनी चाहिये।
कुछ अंग्रेजी परस्त लोगों के चलते व्यवधान आते हैं, इनका समाधान भी समय के साथ-साथ होता जायेगा। मसलन, जब कोई याचिका हिंदी में दाखिल की जाती है तो न्यायाधीश विवशता व्यक्त करते हैं कि अगर आप अपनी भाषा में याचिका देंगे और उसी भाषा में निर्णय देनें को कहेंगे तो हमें अंग्रेजी में अनुवाद कराना पडेगा, क्योंकि अंग्रेजी का ही पाठ प्रामाणिक माना जाता है। अनुवादकों की कमी का रोडा बताया जाता है, अनुवाद में समय लगने का बहाना बनाया जाता है। अधिवक्ता और पक्षकार को न्याय पाने की त्वरा होती है, जो स्वाभाविक ही है। वह मजबूरी में अपनी याचिका दाखिल कर देता है। इस समस्या को आधुनिक तकनीकी दूर कर सकती है। हमारे इंजीनियरों को क्षेत्रीय भाषाओं से अंग्रेजी में और अंग्रेजी से विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं में अच्छा अनुवाद करने की तकनीकी विकसित करनी होगी, जिससे अनुवाद की समस्या का निराकरण हो सके। इस बात को भी रेखांकित किया जाना चाहिये कि हम अपनी भाषा में कामकाज शुरू तो करें, व्यवधान दूर होते जायेंगे। हमें विश्वास है कि हम ऐसी दिशा में आगे बढ चले हैं कि अवश्य एक दिन सार्थक नतीजे देखने को मिलेंगे।
एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी,
गांधी महाविद्यालय, उरई
संबद्ध बुंदेलखंड विश्वविद्यालय, झांसी
मोबाइल 9236114604
डा राकेश नारायण िद्ववेदी
भारत के संविधान के अनुच्छेद 348(2) में कहा गया है, राज्य का राज्यपाल, राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति लेकर हिंदी भाषा या राज्य के सरकारी प्रयोजनों के लिये प्रयुक्त हो रही अन्य भाषा को उच्च न्यायालय की भाषा के रूप में प्राधिकृत कर सकता है। यद्यपि यह प्रावधान ऐसे उच्च न्यायालय द्वारा पारित किसी निर्णय, डिक्री या आदेश पर लागू नहीं होंगे।
किंतु इस संवैधानिक प्रावधान की उपधारा (3) के आधार पर राजभाषा अधिनियम की धारा 7 के अनुसार एक राज्य का राज्यपाल निर्धारित किये गये दिनांक से राष्ट्रपति की पूर्वानुमति से अंग्रेजी के अतिरिक्त हिंदी या राज्य की राजभाषा को राज्य के उच्च न्यायालय में पारित होने वाले निर्णय, डिक्री या आदेश के लिये प्राधिकृत कर सकता है। इस प्रावधान के अंतर्गत हिंदी या अन्य राजभाषाओं में पारित निर्णय, डिक्री या आदेश उच्च न्यायालय प्राधिकारी द्वारा कराये गये अंग्रेजी अनुवाद के साथ जारी किये जायेंगे।
इन प्रावधानों के आधार पर उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश तथा राजस्थान ने अपने-अपने उच्च न्यायालयों की भाषा के रूप में हिंदी के प्रयोग की अनुमति दी हुई है, जो न्यायालयों की प्रक्रिया के लिये ही नहीं, आदेश और निर्णयों को पारित करने में भी प्रयुक्त की जाती है। 'ऐसी ही स्थिति जिला स्तर तक के न्यायालयों की भी है। मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड, छत्तीसगढ और झारखंड राज्यों में विधानमंडल और जिला स्तर तक न्यायालयों की भाषा हिंदी है। मध्य प्रदेश और राजस्थान राज्यों में विधि के क्षेत्र में स्थिति यह है कि जिला स्तर पर केवल हिंदी में ही निर्णय दिये जा सकते हैं, लेकिन हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और दिल्ली जैसे अन्य हिंदी भाषी क्षेत्रों में विधानमंडल और न्यायालयों की भाषा अंग्रेजी ही बनी हुई है।' 1(स्मारिका विश्व हिंदी सम्मेलन, विदेश मंत्रालय, भारत सरकार हरीश कुमार सेठी का आलेख विधि न्याय के क्षेत्र में हिंदी पृ 185)इलाहाबाद उच्च न्यायालय के अवकाशप्राप्त न्यायमूर्ति प्रेमशंकर गुप्त आजीवन अपने निर्णय हिंदी में देते रहे। न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू अपने कार्यकाल में हिंदी का अधिकतम संभव प्रयोग करते रहे। 2(न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू की दनांक 20 सितंबर 2015 कीफेसबुक पोस्ट से) बहुत से और न्यायाधीश निर्णय लिखते समय हिंदी और भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों की उक्तियां उद्धृत कर निर्णय की बात को स्पष्ट करते हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के ही दयाशंकर मिश्र, प्रमोद कुमार जैसे अधिवक्ता न्यायालयों में हिंदी का ही प्रयोग करते हैं। उत्तर प्रदेश सरकार के पूर्व उप महाधिवक्ता महेश चंद्र चतुर्वेदी ने दिनांक 14 सितंबर 2015 कोव्हाट्सऐप पर बताया कि यहां अधिवक्ता तीन चौथाई से अधिक बहस हिंदी भाषा के माध्यम से ही पूरी करते हैं। वास्तव में जब हम अपनी बात को यथारूप कहना चाहते हैं तो अपनी ही भाषा में उसे अभिव्यक्त कर पाते हैं। कौन व्यक्ति होगा, जिसका मुकदमा जीवन मृत्यु के लिये चल रहा हो, क्योंकि जब प्रशासन और शासन के सब अंगों की तरफ से न्याय पाने में वह निराश हो चुका होता है, तब वह न्यायालय की शरण जाता है। वह अपनी पूरी बात न्यायाधीश तक पहुंचाना चाहता है। अधिवक्ताओं की भी भाषाई सीमा होती है। जीवन के घात-प्रतिघातों को विदेशी भाषा में यथारूप व्यक्त कर पाना सर्वदा दुष्कर होता है। पेड की शाखा चर्र-चर्र करके नीचे आ गिरी जैसे वाक्यांशों को अंग्रेजी भाषा में कह पाना मुश्किल होता है।
न्यायालयों की भाषा अपने राज्य की भाषा हो, इसमें किसी को भला क्या आपत्ति हो सकती है। जब तमिलनाडु में सितंबर माह में वहां के अधिवक्ताओं द्वारा उच्च न्यायालय की भाषा तमिल बनाने की मांग की गई तो अनेक बुद्धिजीवियों ने उनकी इस मांग से अपने को संबद्ध किया। मेरी सहमति भी इस मांग के साथ कतिपय शर्तों सहित है कि किसी अधिवक्ता को अपनी बहस तमिल अथवा अंग्रेजी में करने की अनुमति हो, जिससे जो न्यायाधीश बाहर से आते हैं और तमिल नहीं जानते, उन्हें असुविधा न हो। उच्च न्यायालयों की नीति के अनुसार किसी उच्च न्यायालय का प्रधान न्यायाधीश उस राज्य का निवासी नहीं होगा। अस्तु, सभी प्रधान न्यायाधीश उस राज्य से बाहर के ही होते हैं। स्वाभाविक है कि वे उस राज्य की भाषा को अनिवार्यत: समझते-जानते हो, ऐसा आवश्यक नहीं है। आदर्श स्थिति तो यह है कि न्यायालयों ही नहीं संसद और विधानमंडलों में भी हिंदी को अंग्रेजी के स्थान पर प्रमुख भाषा के रूप में स्थापित किया जाये, इससे राज्य की भाषा को लागू करने में भी समस्या उपस्थित नहीं होगी। हिंदी कम से कम समझने के स्तर पर पूरे देश में ग्राह्य बन सकती है , विडंबना है कि जो अपने देश की भाषा है, अपने संस्कारों में रची बसी है और जिसने अपने देशवासियों के जीवन संघर्ष को अभिव्यक्ति दी है, जिस भाषा में देश का स्वाधीनता संग्राम लडा गया। देश के चारों कोनों के स्वातंत्र्य योद्धा हिंदी भाषा के माध्यम से एकजुट हुये, उन्होंने हिंदी को देश की प्रतिनिधि भाषा बनाने की आवश्यकता बताई, किंतु कतिपय भयाक्रांत या स्वार्थी तत्वों द्वाराउस भाषा को सरकारी या न्यायालयों की प्रमुख भाषा के रूप में रखने का तो पुरजोर विरोध किया जाता है, जबकि अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा को सीखने में अपने नौनिहालों की ऊर्जा खर्च करा देते हैं।
अंग्रेजी भाषा का विरोध नहीं, पर इसे सीखने की मजबूरी न रखी जाये। स्वेच्छया किसी भी भाषा को सीखने की अनुमति और सुविधा दी जाये। पंजाब उच्च न्यायालय की भाषा क्यों नहीं पंजाबी हो सकती है। यह उच्च न्यायालय हरियाणा का भी क्षेत्राधिकार रखता है, जो हिंदी भाषी राज्य है। अत: समुचित होगा कि इसकी भाषा पंजाबी और हिंदी रखी जाये। असम उच्च न्यायालय की कामकाजी भाषा असमी है, किंतु सहभाषा के रूप में यहां अंग्रेजी, बोडो और बंगाली भी चलती है। पुडुचेरी में तमिल, मलयालम, तेलुगु तो दादरा और नगर हवेली जैसे संघ शासित राज्यों में मराठी, गुजराती और हिंदी में कामकाज चलता है। देश के सभी उच्च न्यायालयों - ओडिशा में उडिया, गोवा में कोंकणी, महाराष्ट्र में मराठी, गुजरात में गुजराती, पश्चिम बंगाल में बंगाली, आंध्र और तेलंगाना में तेलुगु, कर्नाटक में कन्न्ड, केरल में मलयालम-में उस राज्य की राजभाषा में कमोबेश कामकाज होता है तो पंजाब में ऐसा क्यों नहीं हो सकता!
सामाजिक सरोकार का सबसे बडा माध्यम भाषा है। भाषा का महत्व लोक-व्यवहार में अप्रतिम है। लोक-व्यवहार को नियंत्रित करने वाली संस्था 'न्यायपालिका' ही है। भारत एक विविधताओं वाला बडे भूभाग को समेटा हुआ राष्ट्र है, जहां कोस कोस पर पानी बदले, चार कोस पर बानी। 'भाषाई न्यायिक व्यवस्था में गतिरोध मुगलों द्वारा फारसी और अंग्रेजी को लागू करने से हुआ। फारसी तो धीरे-धीरे हिंदी में घुल-मिलकर पहले उर्दू और फिर हिंदुस्तानी में बदलने लगी, जिस कारण आम हिंदुस्तानी इस भाषा के निकट आने लगा। सन 1833 तक अंग्रेजों ने भी इसे ही शासन के समस्त निकायों में प्रयोग किया, लेकिन लार्ड मैकाले ने फारसी के स्थान पर अंगरेजी भाषा को राजभाषा के स्थान पर आरूढ करा दिया। नतीजा, न्यायिक क्षेत्र में एक ऐसी भाषा का प्रवेश हुआ, जिसकी जानकारी प्राय: पक्षकारों को भी नहीं होती। वादी और प्रतिवादी दोनों ही अंग्रेजी के जानकार वकीलों और न्यायाधीशों की समझ पर आश्रित हो गये।' 3 (स्मारिका विश्व हिंदी सम्मेलन भोपाल 2015 में विमल कुमार दुबे का आलेख न्यायालयों में हिंदी कार्रवाई की सार्थकता एवं उपयोगिता, पृ 187-188) न्यायिक प्रक्रिया के तीन मुख्य चरण होते हैं- न्यायालयों तक पहुंच, प्रभावी निर्णयात्मक शक्ति तथा निर्णय का क्रियान्वयन। यदि न्यायालय किसी ऐसी भाषा में कार्य करता है, जिससे वादी अनभिज्ञ हैतो वह अदालत में जाने से कतरायेगा। यदि निर्णय किसी ऐसी भाषा में लिखा गया है जो पक्षों के लिये अनभिज्ञ हैतो निर्णय की व्याख्या के लिये दूसरों पर आश्रित रहेगा। जब निर्णय ही समझ में नहीं आया तो उसका क्रियान्वयन भी किसी दूसरे की व्याख्या के अधीन रहेगा। इस प्रकार न्याय की पूरी प्रकिया ही दूषित एवं निरर्थक हो जायेगी। इसीलिये हंदी भाषी प्रदेशों में हिंदी में और अन्य राज्यों में न्यायिक प्रक्रिया उन राज्यों की भाषाओं में ही चलनी चाहिये।
कुछ अंग्रेजी परस्त लोगों के चलते व्यवधान आते हैं, इनका समाधान भी समय के साथ-साथ होता जायेगा। मसलन, जब कोई याचिका हिंदी में दाखिल की जाती है तो न्यायाधीश विवशता व्यक्त करते हैं कि अगर आप अपनी भाषा में याचिका देंगे और उसी भाषा में निर्णय देनें को कहेंगे तो हमें अंग्रेजी में अनुवाद कराना पडेगा, क्योंकि अंग्रेजी का ही पाठ प्रामाणिक माना जाता है। अनुवादकों की कमी का रोडा बताया जाता है, अनुवाद में समय लगने का बहाना बनाया जाता है। अधिवक्ता और पक्षकार को न्याय पाने की त्वरा होती है, जो स्वाभाविक ही है। वह मजबूरी में अपनी याचिका दाखिल कर देता है। इस समस्या को आधुनिक तकनीकी दूर कर सकती है। हमारे इंजीनियरों को क्षेत्रीय भाषाओं से अंग्रेजी में और अंग्रेजी से विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं में अच्छा अनुवाद करने की तकनीकी विकसित करनी होगी, जिससे अनुवाद की समस्या का निराकरण हो सके। इस बात को भी रेखांकित किया जाना चाहिये कि हम अपनी भाषा में कामकाज शुरू तो करें, व्यवधान दूर होते जायेंगे। हमें विश्वास है कि हम ऐसी दिशा में आगे बढ चले हैं कि अवश्य एक दिन सार्थक नतीजे देखने को मिलेंगे।
एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी,
गांधी महाविद्यालय, उरई
संबद्ध बुंदेलखंड विश्वविद्यालय, झांसी
मोबाइल 9236114604
डा राकेश नारायण िद्ववेदी
▶ Show quoted text
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...'हाउस आफ कलाम' रामेश्वरम् की यात्रा
'हाउस आफ कलाम' रामेश्वरम् की यात्रा
डा राकेश नारायण द्विवेदी
मार्च, 2013 में दक्षिण की यात्रा पर जब केरल में शार्ट टर्म कोर्स के बहाने से गया तब रामेश्वरम् की यात्रा करने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ। लोकमान्यता से सेतुबंध करने वाले भगवान राम के इष्ट ही नहीं जन-जन के महादेव, द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक भगवान रामेश्वरम् के दर्शन और खारे समुद्र के किनारे मीठे कुंओं का मज्जन पान करने का इच्छुक पर्यटक अब जब तक डा ए पी जे अब्दुल कलाम के घर 'हाउस आफ कलाम' जाकर उनके जीवन दर्शन का अहसास नहीं कर लेता, वह अपनी यात्रा पूरी हुई नहीं समझता। डा कलाम ने अपने घर के इस हिस्से को संग्रहालय का रूप दे दिया जिसमें उनके जन्म से लेकर शुरू हुई जीवन यात्रा के जो-जो प्रमुख पडाव आये, उनकी चित्र प्रदर्शनी छोटे से इस घर में दृष्टव्य है। घर के अंदर की फोटो लेना निषिद्ध है, अत: हाउस आफ कलाम का बाहरी चित्र ही इस आलेख के साथ देना संभव हो सका है। हाउस आफ कलाम का प्रथम तल जो पूर्व राष्ट्रपति के हिस्से में आया, उसी को संग्रहालय स्वरूप में परिवर्तित कर दिया गया है। यह किसी तीर्थ से अब कम नहीं रहा।
डा राकेश नारायण िद्ववेदी
मार्च, 2013 में दक्षिण की यात्रा पर जब केरल में शार्ट टर्म कोर्स के बहाने से गया तब रामेश्वरम् की यात्रा करने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ। लोकमान्यता से सेतुबंध करने वाले भगवान राम के इष्ट ही नहीं जन-जन के महादेव, द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक भगवान रामेश्वरम् के दर्शन और खारे समुद्र के किनारे मीठे कुंओं का मज्जन पान करने का इच्छुक पर्यटक अब जब तक डा ए पी जे अब्दुल कलाम के घर 'हाउस आफ कलाम' जाकर उनके जीवन दर्शन का अहसास नहीं कर लेता, वह अपनी यात्रा पूरी हुई नहीं समझता। डा कलाम ने अपने घर के इस हिस्से को संग्रहालय का रूप दे दिया जिसमें उनके जन्म से लेकर शुरू हुई जीवन यात्रा के जो-जो प्रमुख पडाव आये, उनकी चित्र प्रदर्शनी छोटे से इस घर में दृष्टव्य है। घर के अंदर की फोटो लेना निषिद्ध है, अत: हाउस आफ कलाम का बाहरी चित्र ही इस आलेख के साथ देना संभव हो सका है। हाउस आफ कलाम का प्रथम तल जो पूर्व राष्ट्रपति के हिस्से में आया, उसी को संग्रहालय स्वरूप में परिवर्तित कर दिया गया है। यह किसी तीर्थ से अब कम नहीं रहा।
डा राकेश नारायण िद्ववेदी
हिंदी और उसकी बोलियों का अंतर्संबंध
हिंदी और उसकी बोलियों का अंतर्संबंध
डा राकेश नारायण द्विवेदी
2001 की जनगणना के अनुसार हिंदी प्रदेश में हिंदी की 48 मातृभाषाएं बोली जाती हैं। इसमें दस हजार से कम प्रयोक्ताओं की बोलियों को शामिल नहीं किया गया है। यह मातृभाषाएं उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा एवं दिल्ली में तो हैं ही; अंडमान तथा निकोबार एवं अरुणाचल जैसे दूरस्थित क्षेत्र में भी बोली जाती हैं।
पाश्चात्य भाषाशास्त्री जार्ज ग्रियर्सन ने 1927 में भारतीय भाषा सर्वेक्षण में हिंदी प्रदेश में दो बोली समूहों - पश्चिमी हिंदी एवं पूर्वी हिंदी- को ही हिंदी की भाषाएं माना है किंतु डा सुनीति कुमार चटर्जी ने पहाड़ी हिंदी को छोड़कर चारों बोली समूहों को हिंदी के अंतर्गत स्वीकार किया है। बाद में डा धीरेंद्र वर्मा ने पहाड़ी हिंदी की भाषिक विशेषताओं को देखते हुए इसे भी हिंदी में ही माना। डा धीरेंद्र वर्मा का वर्गीकरण हिंदी भाषा विज्ञान में सर्वमान्य है, जिसके अनुसार हिंदी भाषी प्रदेश हिंदी की विभिन्न सत्तरह बोलियों से मिलकर बना है। ये सत्तरह बोलियां हिंदी के पांच बोली समूह - पश्चिमी हिंदी, पूर्वी हिंदी, राजस्थानी हिंदी, बिहारी हिंदी तथा पहाड़ी हिंदी - के अंतर्गत सम्मिलित है। पश्चिमी हिंदी में कौरवी या खड़ी बोली, ब्रज, बुंदेली, बांगरू या हरियाणवी तथा कन्नौजी बोलियां आती हैं तो पूर्वी हिंदी में अवधी, बघेली तथा छत्तीसगढ़ी बोलियां सम्मिलित हैं। वहीं राजस्थानी हिंदी में मेवाती, मारवाड़ी, जयपुरी तथा मालवी; बिहारी हिंदी में भोजपुरी, मगही तथा मैथिली एवं पहाड़ी हिंदी में कुमाउंनी तथा गढ़वाली बोलियां शामिल हैं। इन प्रमुख बोलियों के अतिरिक्त नाम भेद से प्रचलित अन्य बोलियां भी हिंदी भाषा की अंग हैं। जो स्थान हिंदी साहित्येतिहास लेखन में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का है, वही स्थान हिंदी भाषा विज्ञान में डा धीरेंद्र वर्मा का है।
अभी 2011 की जनगणना के भाषा संबंधी आंकड़े जारी नहीं हुए हैं। अत: 2001 की जनगणना को आधार बनाना होगा, जिसके अनुसार भारत की कुल जनसंख्या के 41.03 प्रतिशत व्यक्ति हिंदी भाषा का प्रयोग करते हैं। इसमें मैथिली भाषा सम्मिलित नहीं है। मैथिली भाषी व्यक्तियों की संख्या 1.18 प्रतिशत है। मैथिली हिंदी की ही बोली है जो बिहारी हिंदी के अंतर्गत आती है। मागधी अपभ्रंश से यह विकसित हुई, जिससे भोजपुरी और मगही बोलियों का भी उद्गम हुआ है। हिंदी और उर्दू में भी मुख्यत: लिपि का ही अंतर है। इन दोनों भाषाओं में इतनी अधिक भाषिक समानताएं हैं कि बहुधा लोग समझ ही नहीं पाते कि वे उर्दू शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं। अत: यदि हम उर्दू भाषी जनसंख्या- जो 5,15,36,111 व्यक्तियों के साथ 5.01 प्रतिशत है- को मिला दें तो इस प्रकार कुल 47.22 प्रतिशत जनसंख्या की भाषा हिंदी ही है। हिंदी भाषा भाषियों में सर्वाधिक दस बोली प्रयोक्ता व्यकितयों की संख्या इस प्रकार है-
1- भोजपुरी 3,30,99,497
2- राजस्थानी 1,83,55,613
3- मगही 1,39,78,565
4- छत्तीसगढ़ी 1,32,60,186
5- हरियाणवी 79,97,192
6- मारवाड़ी 79,36,183
7- मालवी 55,65,167
8- मेवाड़ी 50,91,797
9- खोट्टा/खोरठा 47,25,927
10- बुंदेली 30,72,147
यह सूची 48 की संख्या तक जाती है, जिसमें अवधी, खड़ी बोली और ब्रज जैसी साहित्यिक गरिमा प्राप्त बोलियों का भी नाम है, पर इसके प्रयोक्ता अपेक्षाकृत कम रह गए हैं। मातृभाषा में हिंदी के नाम से ही 25,79,19,635 व्यक्ति अंकित हैं। जाहिर है विभिन्न बोलियों के लोगों की भाषा भी हिंदी ही दी गई है। यही नहीं, इसमें मातृभाषा हिंदी के अन्य प्रयोक्ता 1,47,77,266 अलग से हैं। बोलियों की प्रचुरता और वैविध्य को देखते हुए इनका सर्वेक्षण कार्य अलग से किए जाने की आवश्यकता है। अलबत्ता, जनगणना विभाग के इन आंकड़ों से एक मोटा अनुमान लग जाता है। हिंदी की उन्हीं 48 मातृभाषाओं को जनगणना विभाग ने जारी किया, जिनके प्रयोक्ताओं की संख्या दस हजार से अधिक है।
यदि हम संपूर्ण प्रयोक्ताओं की संख्या की दृष्टि से बात करें, जिसमें मातृभाषा वक्ता (first language speakers) तथा द्वितीय भाषा वक्ता (second language speakers) दोनों को मिला दें तो हिंदी भाषियों की संख्या एक हजार मिलियन (सौ करोड़) होती है। मातृभाषा को अब मदर टंग पद की अस्पष्टता के कारण first language speakers कहा जा रहा है। इससे उन बेतुके प्रश्नों से भी बचना संभव हो गया कि अगर मां और पिता अलग-अलग बोलियों के हुए तो उसकी मातृभाषा क्या होगी! the language register to the world's language and speach communities में इसी कारण हिंदी भाषियों की संख्या 960 मिलियन मानी गई है। केंद्रीय हिंदी निदेशालय के तत्कालीन निदेशक प्रो महावीर सरन जैन द्वारा इसी आशय की जो रिपोर्ट यूनेस्को भेजी गई थी। इसके परिणामस्वरूप; भारतकोश पर दी गई जानकारी के अनुसार यह स्वीकृत हो गया है कि संसार की भाषाओं में चीनी भाषा के बाद हिंदी का दूसरा स्थान है। मंदारिन चीनी भाषाओं में सर्वप्रमुख है। यह विश्व की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। 1,36,50,53,177 से ज्यादा लोग इस भाषा का उपयोग करते हैं। चीन में जो स्थिति मंदारिन की है, वही स्थिति भारत में हिंदी की है। जिस प्रकार प्रचलित कहावत- कोस-कोस पर बदले पानी पांच कोस पर बानी- के अनुसार हिंदी भाषा क्षेत्र में विविध क्षेत्रीय भाषिक रूप बोले जाते हैं, वैसे ही मंदारिन भाषा क्षेत्र में विविध क्षेत्रीय भाषिक रूप बोले जाते हैं। हिंदी क्षेत्र की विविध बोलियों के एक छोर से दूसरे छोर के लोगों की पारस्परिक बोधगम्यता का प्रतिशत कम अवश्य है; किंतु है, पर मंदारिन भाषा के दो चरम छोरों पर बोले जाने वाले क्षेत्रीय भाषिक रूपों के बोलने वालों के बीच पारस्परिक बोधगम्यता बिल्कुल नहीं है। प्रो महावीर सरन जैन द्वारा दिए गए उदाहरण के अनुसार मंदारिन के एक छोर पर बोली जाने वाली हार्बिन और दूसरे छोर और दूसरे छोर पर बोली जाने वाली शिआनीज़ के वक्ता एक दूसरे से संवाद स्थापित नहीं कर पाते। वे आपस में मंदारिन के मानक भाषा रूप के माध्यम से ही बातचीत कर पाते हैं। मंदारिन के इन क्षेत्रीय रूपों को लेकर वहां कोई विवाद नहीं है। पाश्चात्य भाषावैज्ञानिक मंदारिन को लेकर कभी कोई विवाद पैदा भी नहीं कर पाते। सच्चाई यह भी है कि वहां राष्ट्रीय भावना के रूप में भाषा को लिया जाता है।
अपने यहां तो; एक जगह जहां सारी प्रमुख भारतीय भाषाओं के विद्वान एकत्रित थे मैंने सुना कि जब अपना देश धर्मनिरपेक्ष है और उसका कोई एक राजकीय या राष्ट्रीय धर्म नहीं है तो एक भाषा का होना क्यों आवश्यक है। संविधान की आठवीं अनुसूची में दर्ज बाईस भाषाएं समान रूप में यहां की भाषाएं हैं। उनसे मैंने निवेदन किया कि हमारा काम धर्म के बिना चल सकता है पर भाषा के बिना हम गूंगे हो जाएंगे। जब हम मातृभाषाओं को बढ़ाने के बारे में सोच रहे हैं तो साथ ही देश की राजभाषा मुख्यत: हिंदी को व्यावहारिक स्तर पर बनाने के बारे में भी अग्रगामी होना होगा। अन्यथा बहुत सी भारतीय भाषाएं कालकवलित हो जाएंगी। इस प्रकार के रुझान आलेख में दी गई तालिका में गोचरित हो रहे हैं। पता नहीं कैसे, वहां के कुछ लोगों को लगा कि मैं हिंदी को थोपने की बात कर रहा और उन्होंने जब मुझे कहा कि याद रखिए बांग्लादेश इसीलिए बना और इसे सुनकर मेरा अंतर्मन कांप उठा कि भाषा का प्रश्न अपने देश में किस तरह उलझा दिया गया है। उनका यह आरोप मुझे सही भी लगा कि हिंदी क्षेत्र के लोग एकभाषिक होते हैं, वे हिंदी के अतिरिक्त कोई भारतीय भाषा नहीं सीखते, जबकि हिंदीतर क्षेत्र के लोग द्विभाषी (दो भारतीय भाषाएं जानने वाले) ही नहीं त्रिभाषी (तीन भारतीय भाषाएं जानने वाले) भी होते हैं। यद्यपि यह आरोप उन्हीं के द्वारा लगाए गए एक अन्य आरोप के साथ विरोधाभासी हो जाता है, जब वह कहते हैं कि हिंदी कोई भाषा नहीं, वह तो अनेक बोलियों का समुच्चय है। उनके अनुसार हिंदी अलग है और मातृभाषा अलग तथा दोनों में इतना अंतर है कि एक दूसरे की बात समझ ही नहीं पाते। विरोधाभास ये कि फिर हिंदी खा व्यक्ति एकभाषी कैसे रहा, वह अपनी बोली के अलावा हिंदी भी जान रहा होता है। इन विद्वानों को हिंदी पट्टी के वे लोग बड़े प्रिय होते हैं जो कहते कि हमें हमारी मातृभाषा (बोली) में पढ़ने को मिले, हिंदी में न पढ़ना पड़े।
मंदारिन के दो विभिन्न क्षेत्रीय रूपों की पारस्परिक बोधगम्यता के उपर्युक्त उदाहरण से हमारे ऐसे प्रश्न उठाने वाले लोगों को सीख लेनी चाहिए। कुछ लोग पहाड़ी और राजस्थानी एवं हिंदी की अन्य बोलियों के नमूने रखते हुए कहते हैं क्या कोई भोजपुरी या अन्य हिंदी भाषी व्यक्ति इन्हैं समझ सकता है, किंतु क्या हम नहीं देखते कि हिंदी के एक बोली रूप को दूर के हिंदी के ही दूसरे वक्ता किसी न किसी मात्रा में समझ लेते हैं। हमें यह देखना होगा कि प्रत्येक बोली के विशिष्ट संज्ञा और क्रिया रूप होते हैं, उन्हें समझना पड़ोस के वक्ताओं को भी दुष्कर होता है। हिंदी जिस खड़ी बोली का मानक रूप है, उसका यह नमूना यहां रखने से और स्पष्ट हो जाएगा:-
कोई बादसा था। साब उसके दो राण्याँ थीं। वो एक रोज़ अपनी रान्नी से केने लगा मेरे समान ओर कोइ बादसा है बी? तो बड़ी बोल्ले के राजा तुम समान ओर कोन होगा। छोटी से पुच्छा तो किह्या कि एक बिजाण सहर हे उसके किल्ले में जितनी तुम्हारी सारी हैसियत है उतनी एक ईंट लगी है। ओ इसने मेरी कुच बात नई रक्खी इसको तग्मार्ती (निर्वासित) करना चाइए। उस्कू तग्मार्ती कर दिया। ओर बड़ी कू सब राज का मालक कर दिया।
उक्त उदाहरण में तग्मार्ती क्रिया का बोध आसान नहीं है।
यहां उल्लेखनीय है कि प्रयोग का क्षेत्र विस्तृत होने से किसी भाषा या बोली में स्थानीय तत्वों का समावेश होना स्वाभाविक है। चीनी बोलने वाले हिंदी से अधिक हैं, किंतु उसका प्रयोग क्षेत्र हिंदी से सीमित है। वहीं अंगरेजी भाषा का प्रयोग क्षेत्र हिंदी से भी अधिक है, किंतु उसके बोलने वाले हिंदी से अधिक नहीं हैं। पिछले पचास सालों में हिंदी भाषी व्यक्ति 26 करोड़ से बढ़कर 42 करोड़ हो गए जबकि अंगरेजी बोलने वाले 33 करोड़ से 49 करोड़ हुए। इस प्रकार हिंदी की वृद्धि दर अधिक है। भारत में अधिकांश व्यक्ति तीन भाषाएं जानते हैं। 1500 से अधिक मातृभाषाएं भारत में बोली जाती हैं। दस हजार से अधिक व्यक्तियों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं की संख्या 122 है। हिंदी को प्रथम भाषा मानने वाले 42 करोड़ व्यक्ति हैं, वहीं दूसरी या तीसरी भाषा के रूप में हिंदी जानने वाले व्यक्तियों की संख्या 13 करोड़ है। अंगरेजी के दावों में 2.26 लाख लोगों की मातृभाषा अंगरेजी है, वहीं 8.60 करोड़ लोगों की दूसरी भाषा और 3.12 करोड़ लोगों की तीसरी भाषा अंगरेजी बताई गई है। इनका जोड़ लगाकर ये दावेदार अंगरेजी को दूसरे स्थान पर बिठा देते हैं। दूसरी भाषा के रूप में भारतीय राज्यों की स्थिति अगर देखें तो तमिलनाडु में अंगरेजी 14 प्रतिशत तथा हिंदी 1.5 प्रतिशत प्रचलित है किंतु दक्षिण की ही अन्य भाषाओं में अंगरेजी से हिंदी बहुत पीछे नहीं है। केरल में 24.35 प्रतिशत व्यक्ति अंगरेजी जानते हैं तो हिंदी 19.07 प्रतिशत। आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में हिंदी से अधिक तीन प्रतिशत व्यक्ति ही अंगरेजी जानते हैं। वहीं पश्चिम बंगाल में 2.40 प्रतिशत अंगरेजी आगे है तो ओड़िशा में हिंदी और अंगरेजी की लगभग समान स्थिति है। असम में हिंदी जानने वाले अंगरेजी से अधिक है। यह रुझान पिछले तीस सालों का है। इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि हिंदीतर भाषा क्षेत्रों में जहां अंगरेजी हिंदी से अधिक प्रचलन में है, वहां इन तीस वर्षों में उन्ही की मातृभाषाओं की प्रचलन दर में गिरावट अधिक है। जनगणना विभाग की वेबसाइट पर दिनांक 25 अक्टूबर 2015 को जाने पर स्टेटमेंट पांच से पता लगा कि 1971 से 2001 तक के चार जनगणना वर्षों में हिंदी भाषियों की संख्या दर निरंतर बढ़ी है। अाठवीं अनुसूची की भाषाओं के प्रयोक्ताओं की तुलनात्मक तालिका देश की कुल जनसंख्या के प्रतिशत में द्रष्टव्य है:-
2001 की जनगणना के अनुसार हिंदी प्रदेश में हिंदी की 48 मातृभाषाएं बोली जाती हैं। इसमें दस हजार से कम प्रयोक्ताओं की बोलियों को शामिल नहीं किया गया है। यह मातृभाषाएं उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा एवं दिल्ली में तो हैं ही; अंडमान तथा निकोबार एवं अरुणाचल जैसे दूरस्थित क्षेत्र में भी बोली जाती हैं।
पाश्चात्य भाषाशास्त्री जार्ज ग्रियर्सन ने 1927 में भारतीय भाषा सर्वेक्षण में हिंदी प्रदेश में दो बोली समूहों - पश्चिमी हिंदी एवं पूर्वी हिंदी- को ही हिंदी की भाषाएं माना है किंतु डा सुनीति कुमार चटर्जी ने पहाड़ी हिंदी को छोड़कर चारों बोली समूहों को हिंदी के अंतर्गत स्वीकार किया है। बाद में डा धीरेंद्र वर्मा ने पहाड़ी हिंदी की भाषिक विशेषताओं को देखते हुए इसे भी हिंदी में ही माना। डा धीरेंद्र वर्मा का वर्गीकरण हिंदी भाषा विज्ञान में सर्वमान्य है, जिसके अनुसार हिंदी भाषी प्रदेश हिंदी की विभिन्न सत्तरह बोलियों से मिलकर बना है। ये सत्तरह बोलियां हिंदी के पांच बोली समूह - पश्चिमी हिंदी, पूर्वी हिंदी, राजस्थानी हिंदी, बिहारी हिंदी तथा पहाड़ी हिंदी - के अंतर्गत सम्मिलित है। पश्चिमी हिंदी में कौरवी या खड़ी बोली, ब्रज, बुंदेली, बांगरू या हरियाणवी तथा कन्नौजी बोलियां आती हैं तो पूर्वी हिंदी में अवधी, बघेली तथा छत्तीसगढ़ी बोलियां सम्मिलित हैं। वहीं राजस्थानी हिंदी में मेवाती, मारवाड़ी, जयपुरी तथा मालवी; बिहारी हिंदी में भोजपुरी, मगही तथा मैथिली एवं पहाड़ी हिंदी में कुमाउंनी तथा गढ़वाली बोलियां शामिल हैं। इन प्रमुख बोलियों के अतिरिक्त नाम भेद से प्रचलित अन्य बोलियां भी हिंदी भाषा की अंग हैं। जो स्थान हिंदी साहित्येतिहास लेखन में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का है, वही स्थान हिंदी भाषा विज्ञान में डा धीरेंद्र वर्मा का है।
अभी 2011 की जनगणना के भाषा संबंधी आंकड़े जारी नहीं हुए हैं। अत: 2001 की जनगणना को आधार बनाना होगा, जिसके अनुसार भारत की कुल जनसंख्या के 41.03 प्रतिशत व्यक्ति हिंदी भाषा का प्रयोग करते हैं। इसमें मैथिली भाषा सम्मिलित नहीं है। मैथिली भाषी व्यक्तियों की संख्या 1.18 प्रतिशत है। मैथिली हिंदी की ही बोली है जो बिहारी हिंदी के अंतर्गत आती है। मागधी अपभ्रंश से यह विकसित हुई, जिससे भोजपुरी और मगही बोलियों का भी उद्गम हुआ है। हिंदी और उर्दू में भी मुख्यत: लिपि का ही अंतर है। इन दोनों भाषाओं में इतनी अधिक भाषिक समानताएं हैं कि बहुधा लोग समझ ही नहीं पाते कि वे उर्दू शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं। अत: यदि हम उर्दू भाषी जनसंख्या- जो 5,15,36,111 व्यक्तियों के साथ 5.01 प्रतिशत है- को मिला दें तो इस प्रकार कुल 47.22 प्रतिशत जनसंख्या की भाषा हिंदी ही है। हिंदी भाषा भाषियों में सर्वाधिक दस बोली प्रयोक्ता व्यकितयों की संख्या इस प्रकार है-
1- भोजपुरी 3,30,99,497
2- राजस्थानी 1,83,55,613
3- मगही 1,39,78,565
4- छत्तीसगढ़ी 1,32,60,186
5- हरियाणवी 79,97,192
6- मारवाड़ी 79,36,183
7- मालवी 55,65,167
8- मेवाड़ी 50,91,797
9- खोट्टा/खोरठा 47,25,927
10- बुंदेली 30,72,147
यह सूची 48 की संख्या तक जाती है, जिसमें अवधी, खड़ी बोली और ब्रज जैसी साहित्यिक गरिमा प्राप्त बोलियों का भी नाम है, पर इसके प्रयोक्ता अपेक्षाकृत कम रह गए हैं। मातृभाषा में हिंदी के नाम से ही 25,79,19,635 व्यक्ति अंकित हैं। जाहिर है विभिन्न बोलियों के लोगों की भाषा भी हिंदी ही दी गई है। यही नहीं, इसमें मातृभाषा हिंदी के अन्य प्रयोक्ता 1,47,77,266 अलग से हैं। बोलियों की प्रचुरता और वैविध्य को देखते हुए इनका सर्वेक्षण कार्य अलग से किए जाने की आवश्यकता है। अलबत्ता, जनगणना विभाग के इन आंकड़ों से एक मोटा अनुमान लग जाता है। हिंदी की उन्हीं 48 मातृभाषाओं को जनगणना विभाग ने जारी किया, जिनके प्रयोक्ताओं की संख्या दस हजार से अधिक है।
यदि हम संपूर्ण प्रयोक्ताओं की संख्या की दृष्टि से बात करें, जिसमें मातृभाषा वक्ता (first language speakers) तथा द्वितीय भाषा वक्ता (second language speakers) दोनों को मिला दें तो हिंदी भाषियों की संख्या एक हजार मिलियन (सौ करोड़) होती है। मातृभाषा को अब मदर टंग पद की अस्पष्टता के कारण first language speakers कहा जा रहा है। इससे उन बेतुके प्रश्नों से भी बचना संभव हो गया कि अगर मां और पिता अलग-अलग बोलियों के हुए तो उसकी मातृभाषा क्या होगी! the language register to the world's language and speach communities में इसी कारण हिंदी भाषियों की संख्या 960 मिलियन मानी गई है। केंद्रीय हिंदी निदेशालय के तत्कालीन निदेशक प्रो महावीर सरन जैन द्वारा इसी आशय की जो रिपोर्ट यूनेस्को भेजी गई थी। इसके परिणामस्वरूप; भारतकोश पर दी गई जानकारी के अनुसार यह स्वीकृत हो गया है कि संसार की भाषाओं में चीनी भाषा के बाद हिंदी का दूसरा स्थान है। मंदारिन चीनी भाषाओं में सर्वप्रमुख है। यह विश्व की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। 1,36,50,53,177 से ज्यादा लोग इस भाषा का उपयोग करते हैं। चीन में जो स्थिति मंदारिन की है, वही स्थिति भारत में हिंदी की है। जिस प्रकार प्रचलित कहावत- कोस-कोस पर बदले पानी पांच कोस पर बानी- के अनुसार हिंदी भाषा क्षेत्र में विविध क्षेत्रीय भाषिक रूप बोले जाते हैं, वैसे ही मंदारिन भाषा क्षेत्र में विविध क्षेत्रीय भाषिक रूप बोले जाते हैं। हिंदी क्षेत्र की विविध बोलियों के एक छोर से दूसरे छोर के लोगों की पारस्परिक बोधगम्यता का प्रतिशत कम अवश्य है; किंतु है, पर मंदारिन भाषा के दो चरम छोरों पर बोले जाने वाले क्षेत्रीय भाषिक रूपों के बोलने वालों के बीच पारस्परिक बोधगम्यता बिल्कुल नहीं है। प्रो महावीर सरन जैन द्वारा दिए गए उदाहरण के अनुसार मंदारिन के एक छोर पर बोली जाने वाली हार्बिन और दूसरे छोर और दूसरे छोर पर बोली जाने वाली शिआनीज़ के वक्ता एक दूसरे से संवाद स्थापित नहीं कर पाते। वे आपस में मंदारिन के मानक भाषा रूप के माध्यम से ही बातचीत कर पाते हैं। मंदारिन के इन क्षेत्रीय रूपों को लेकर वहां कोई विवाद नहीं है। पाश्चात्य भाषावैज्ञानिक मंदारिन को लेकर कभी कोई विवाद पैदा भी नहीं कर पाते। सच्चाई यह भी है कि वहां राष्ट्रीय भावना के रूप में भाषा को लिया जाता है।
अपने यहां तो; एक जगह जहां सारी प्रमुख भारतीय भाषाओं के विद्वान एकत्रित थे मैंने सुना कि जब अपना देश धर्मनिरपेक्ष है और उसका कोई एक राजकीय या राष्ट्रीय धर्म नहीं है तो एक भाषा का होना क्यों आवश्यक है। संविधान की आठवीं अनुसूची में दर्ज बाईस भाषाएं समान रूप में यहां की भाषाएं हैं। उनसे मैंने निवेदन किया कि हमारा काम धर्म के बिना चल सकता है पर भाषा के बिना हम गूंगे हो जाएंगे। जब हम मातृभाषाओं को बढ़ाने के बारे में सोच रहे हैं तो साथ ही देश की राजभाषा मुख्यत: हिंदी को व्यावहारिक स्तर पर बनाने के बारे में भी अग्रगामी होना होगा। अन्यथा बहुत सी भारतीय भाषाएं कालकवलित हो जाएंगी। इस प्रकार के रुझान आलेख में दी गई तालिका में गोचरित हो रहे हैं। पता नहीं कैसे, वहां के कुछ लोगों को लगा कि मैं हिंदी को थोपने की बात कर रहा और उन्होंने जब मुझे कहा कि याद रखिए बांग्लादेश इसीलिए बना और इसे सुनकर मेरा अंतर्मन कांप उठा कि भाषा का प्रश्न अपने देश में किस तरह उलझा दिया गया है। उनका यह आरोप मुझे सही भी लगा कि हिंदी क्षेत्र के लोग एकभाषिक होते हैं, वे हिंदी के अतिरिक्त कोई भारतीय भाषा नहीं सीखते, जबकि हिंदीतर क्षेत्र के लोग द्विभाषी (दो भारतीय भाषाएं जानने वाले) ही नहीं त्रिभाषी (तीन भारतीय भाषाएं जानने वाले) भी होते हैं। यद्यपि यह आरोप उन्हीं के द्वारा लगाए गए एक अन्य आरोप के साथ विरोधाभासी हो जाता है, जब वह कहते हैं कि हिंदी कोई भाषा नहीं, वह तो अनेक बोलियों का समुच्चय है। उनके अनुसार हिंदी अलग है और मातृभाषा अलग तथा दोनों में इतना अंतर है कि एक दूसरे की बात समझ ही नहीं पाते। विरोधाभास ये कि फिर हिंदी खा व्यक्ति एकभाषी कैसे रहा, वह अपनी बोली के अलावा हिंदी भी जान रहा होता है। इन विद्वानों को हिंदी पट्टी के वे लोग बड़े प्रिय होते हैं जो कहते कि हमें हमारी मातृभाषा (बोली) में पढ़ने को मिले, हिंदी में न पढ़ना पड़े।
मंदारिन के दो विभिन्न क्षेत्रीय रूपों की पारस्परिक बोधगम्यता के उपर्युक्त उदाहरण से हमारे ऐसे प्रश्न उठाने वाले लोगों को सीख लेनी चाहिए। कुछ लोग पहाड़ी और राजस्थानी एवं हिंदी की अन्य बोलियों के नमूने रखते हुए कहते हैं क्या कोई भोजपुरी या अन्य हिंदी भाषी व्यक्ति इन्हैं समझ सकता है, किंतु क्या हम नहीं देखते कि हिंदी के एक बोली रूप को दूर के हिंदी के ही दूसरे वक्ता किसी न किसी मात्रा में समझ लेते हैं। हमें यह देखना होगा कि प्रत्येक बोली के विशिष्ट संज्ञा और क्रिया रूप होते हैं, उन्हें समझना पड़ोस के वक्ताओं को भी दुष्कर होता है। हिंदी जिस खड़ी बोली का मानक रूप है, उसका यह नमूना यहां रखने से और स्पष्ट हो जाएगा:-
कोई बादसा था। साब उसके दो राण्याँ थीं। वो एक रोज़ अपनी रान्नी से केने लगा मेरे समान ओर कोइ बादसा है बी? तो बड़ी बोल्ले के राजा तुम समान ओर कोन होगा। छोटी से पुच्छा तो किह्या कि एक बिजाण सहर हे उसके किल्ले में जितनी तुम्हारी सारी हैसियत है उतनी एक ईंट लगी है। ओ इसने मेरी कुच बात नई रक्खी इसको तग्मार्ती (निर्वासित) करना चाइए। उस्कू तग्मार्ती कर दिया। ओर बड़ी कू सब राज का मालक कर दिया।
उक्त उदाहरण में तग्मार्ती क्रिया का बोध आसान नहीं है।
यहां उल्लेखनीय है कि प्रयोग का क्षेत्र विस्तृत होने से किसी भाषा या बोली में स्थानीय तत्वों का समावेश होना स्वाभाविक है। चीनी बोलने वाले हिंदी से अधिक हैं, किंतु उसका प्रयोग क्षेत्र हिंदी से सीमित है। वहीं अंगरेजी भाषा का प्रयोग क्षेत्र हिंदी से भी अधिक है, किंतु उसके बोलने वाले हिंदी से अधिक नहीं हैं। पिछले पचास सालों में हिंदी भाषी व्यक्ति 26 करोड़ से बढ़कर 42 करोड़ हो गए जबकि अंगरेजी बोलने वाले 33 करोड़ से 49 करोड़ हुए। इस प्रकार हिंदी की वृद्धि दर अधिक है। भारत में अधिकांश व्यक्ति तीन भाषाएं जानते हैं। 1500 से अधिक मातृभाषाएं भारत में बोली जाती हैं। दस हजार से अधिक व्यक्तियों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं की संख्या 122 है। हिंदी को प्रथम भाषा मानने वाले 42 करोड़ व्यक्ति हैं, वहीं दूसरी या तीसरी भाषा के रूप में हिंदी जानने वाले व्यक्तियों की संख्या 13 करोड़ है। अंगरेजी के दावों में 2.26 लाख लोगों की मातृभाषा अंगरेजी है, वहीं 8.60 करोड़ लोगों की दूसरी भाषा और 3.12 करोड़ लोगों की तीसरी भाषा अंगरेजी बताई गई है। इनका जोड़ लगाकर ये दावेदार अंगरेजी को दूसरे स्थान पर बिठा देते हैं। दूसरी भाषा के रूप में भारतीय राज्यों की स्थिति अगर देखें तो तमिलनाडु में अंगरेजी 14 प्रतिशत तथा हिंदी 1.5 प्रतिशत प्रचलित है किंतु दक्षिण की ही अन्य भाषाओं में अंगरेजी से हिंदी बहुत पीछे नहीं है। केरल में 24.35 प्रतिशत व्यक्ति अंगरेजी जानते हैं तो हिंदी 19.07 प्रतिशत। आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में हिंदी से अधिक तीन प्रतिशत व्यक्ति ही अंगरेजी जानते हैं। वहीं पश्चिम बंगाल में 2.40 प्रतिशत अंगरेजी आगे है तो ओड़िशा में हिंदी और अंगरेजी की लगभग समान स्थिति है। असम में हिंदी जानने वाले अंगरेजी से अधिक है। यह रुझान पिछले तीस सालों का है। इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि हिंदीतर भाषा क्षेत्रों में जहां अंगरेजी हिंदी से अधिक प्रचलन में है, वहां इन तीस वर्षों में उन्ही की मातृभाषाओं की प्रचलन दर में गिरावट अधिक है। जनगणना विभाग की वेबसाइट पर दिनांक 25 अक्टूबर 2015 को जाने पर स्टेटमेंट पांच से पता लगा कि 1971 से 2001 तक के चार जनगणना वर्षों में हिंदी भाषियों की संख्या दर निरंतर बढ़ी है। अाठवीं अनुसूची की भाषाओं के प्रयोक्ताओं की तुलनात्मक तालिका देश की कुल जनसंख्या के प्रतिशत में द्रष्टव्य है:-
जनसंख्या 1971 1981 1991 2001
भारत 97.14 89.23 97.05 96.56
1 हिंदी 36.99 38.74 39.29 41.03
2 बंगाली 8.17 7.71 8.30 8.11
3 तेलुगु 8.16 7.61 7.87 7.19
4 मराठी 7.62 7.43 7.45 6.99
5 तमिल 6.88 ** 6.32 5.91
6 उर्दू 5.22 5.25 5.18 5.01
7 गुजराती 4.72 4.97 4.85 4.48
8 कन्नड़ 3.96 3.86 3.91 3.69
9 मलयालम 4.00 3.86 3.62 3.21
10 उड़िया 3.62 3.46 3.35 3.21
11 पंजाबी 2.57 2.95 2.79 2.83
12 असमी 1.63 ** 1.56 1.28
13 मैथिली 1.12 1.13 0.93 1.18
14 संथाली 0.69 0.65 0.62 0.63
15 कश्मीरी 0.46 0.48 # 0.54
16 नेपाली 0.26 0.20 0.25 0.28
17 सिंधी 0.31 0.31 0.25 0.25
18 कोंकणी 0.28 0.24 0.21 0.24
19 डोंगरी 0.24 0.23 # 0.22
20 मणिपुरी 0.14 0.14 0.15 0.14
21 बोडो 0.10 ** 0.15 0.13
22 संस्कृत N N 0.01 N
अंत में हमें कहना है कि हिंदी और उसकी बोलियों से मिलकर जो हिंदी की स्थिति बनती है, वह आशा का संचार करती है; लेकिन जब बात हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के परिप्रेक्ष्य में की जाये तो चाहिए कि हिंदी अपने बड़प्पन का परिचय दे और अन्य भारतीय भाषाओं के कालजयी साहित्य को अपने यहां लाए। जबकि हम जब अंगरेजी के सापेक्ष हिंदी को देखते हैं तो लगता है कि अभी ज्ञान-विज्ञान की भाषा बनने के लिए हिंदी को लंबी यात्रा तय करनी है।
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