Wednesday, December 22, 2021
जनपदीय साहित्य एवं इतिहास का अनूठा दस्तावेज़ - ‘विद्रोही की आत्मकथा’
Thursday, November 25, 2021
भारत की संत परम्परा और परमहंस योगानंद भारत की संत परंपरा और परमहंस योगानंद राकेश नारायण द्विवेदी भारत की संत परंपरा विषयक पुस्तक में आलेख देने के लिए जब मेरे मित्र डाॅ जयशंकर तिवारी ने मुझसे कहा तो अन्य दिनो से अधिक व्यस्तता में रहने के बाद भी इसके लिए परमहंस योगानंद पर कुछ लिखने का विचार कौधा। इस विषय पर आलेख लिखने में अपूर्व उत्साह का संचार हुआ। परमहंस योगानंद के जीवन और दर्शन पर लिखने का निश्चय अवश्य किया, पर उनके वैविध्य और विस्तार को देखते हुए मेरी वाणी उनके अवदान को रेखांकित करने में समर्थ नहीं हैं। मुझे विश्वास है पाठक अपनी समझ और परंपरा के सूत्र के सहारे इस विषय का अवगाहन कर लेंगे। भारत की संत परंपरा वैदिक काल से अप्रतिहत अद्यावधि प्रवहमान है। वेद के अंतिम काल भाग, जिसे वेदांत कहा जाता है, उसका निदर्शन करने वाले उपनिषद हमारी संत परंपरा के जाज्वल्यमान नक्षत्र की भांति दुनिया भर में अपना प्रकाश बिखेर रहे हैं। उपनिषदों के कारण भारत जगतगुरु जैसी उपाधि को प्राप्त हुआ। उपनिषदों में संतो ने साक्षात्कार प्राप्त करके जो तत्वदर्शन वर्णन किया। जीवन, जगत, ईश्वर और प्रकृति के बारे में जो निर्वचन किया, वह संतों ने अपने अनुभव की प्रयोगशाला में उद्घाटित किया। इससे वह मात्र उनका अनुभव नहीं रह गया, अपितु वह मनुष्य मात्र की परमोपलब्धि बन गया। उपनिषदों का ज्ञान विश्व मानव की धरोहर बन गया। संसार की रेलमपेल में त्राण पाने के लिए यह ग्रंथ ऐसी खिडकी बनकर हमारे सम्मुख उपस्थित हैं, जहां से निकली निर्मल वायु हमारा परिष्कार कर देती है। उपनिषदों का ही ज्ञान समेकित रूप में श्रीमद्भगवद्गीता में मिलता है। प्रस्थानत्रयी में उपनिषद और गीता के अतिरिक्त ब्रह्मसूत्र आता है। ब्रह्मसूत्र की व्याख्या के आधार पर ही भारत के अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत इत्यादि विभिन्न संप्रदाय बने। इन संप्रदायों के आचार्यों ने जीवन और जगत के शाश्वत प्रश्नों पर ब्रह्मसूत्र का भाष्य करते हुए उसकी व्याख्या की है। भारत की एक परंपरा वैदिक है, जो वेदों में वर्णित पद्धति को अपना पाथेय मानती है, दूसरी परंपरा आगमशास्त्र की है। आगम को ही तंत्र कहा जाता है, तांत्रिक परंपरा को वर्तमान में कतिपय हेय दृष्टि से देखा जाता है। किंतु भारत के जनमानस के आचार-व्यवहार में वैदिक और तांत्रिक दोनों पद्धतियों का मिश्रण मिलता है। पुराण, स्मृतियां और सूत्र ग्रंथों में और पूजा पद्धतियों में यह दोनों पद्धतियां इस प्रकार एकमेक हो जाती हैं कि उन्हें पृथक कर पाना दुष्कर हैं। कौंन पद्धति तंत्र भी है और कौंन वेद की, इस प्रकार भी दोनों पक्षों के दावे देखने में आते हैं। वेदों का शास्त्रीय और साहित्यिक महत्व अन्यतम है, जबकि तंत्र का महत्व उसके विश्वव्यापी अवबोध के कारण है, जिससे वह विश्व की विभिन्न उपासना पद्धतियों में गति करने का सामथ्र्य रखता है। योगशास्त्र में इन दोनों पद्धतियों का समाहार विद्यमान है। वेद और तंत्र दोनों के लिए योग शास्त्र अपरिहार्य है। गीता में योगशास्त्र के अनुरूप वर्णन हुआ है। योग का मूल ग्रंथ पतंजलि का योगसूत्र है, जिसके सूत्रों में विज्ञान और धर्म का अंतर्भाव हुआ है। परस्पर विरोधी समझे जाने वाले विज्ञान और धर्म योगसूत्र में एक दूसरे को संपुष्ट करते हैं। भारत में समय-समय पर आततायियों और विदेशी शासकों ने आक्रमण किये। सनातन शास्त्रों का इससे विलुप्तीकरण हुआ और अंग्रेजी शासन के दौरान छापाखाने के आविष्कार के बाद छपी पुस्तको से सनातन धर्म के स्वरूप को लेकर अनेक मतवाद भी फैल गए। तत्वबोध तो प्रत्येक व्यक्ति को ही प्राप्त करना है, पर यदि इसके बाद अपना संप्रदाय फैलाने में कोई संलग्न हो जाए तो संभव है कुछ समय तक उसकी कीर्ति बढती हुए दिख जाए, पर वह अल्पावधि तक ही रहती है और वह वस्तुतः कीर्ति नही, अंततः उसके कृत्य अपकारी ही सिद्ध होते हैं। योग परंपरा के प्रसार में पुस्तको की वैसी आवश्यकता नहीं रहती, क्योकि यह एक व्यावहारिक पद्धति है। सिद्धों और संतो ने सुदूर पहाडों की गुफाओं में रहते हुए विदेशी आक्रमणो के बावजूद इसे अक्षुण्ण और निर्दोष बनाए रखा। योग की विभिन्न प्रविधियों के प्रयोग और अभ्यास से शीघ्रता से स्वास्थ्य और मन में अभूतपूर्व परिवर्तन देखे जाते हैं। परमहंस योगानंद (1893-1952) ने न केवल भारत में अपितु विश्व भर में क्रिया योग का प्रसार किया। यह क्रिया योग योग के भी ग्रंथों में सीधे-सीधे नहीं मिलता। महावतार बाबा जी से यह क्रियायोग 1861 में लाहिरी महाशय (1828-1894) को प्राप्त हुआ। लाहिरी महाशय ने इसे अपने शिष्यों को सिखाया। उन्होनें इसे बिना जाति और धर्म का भेद किए हुए सिखाया। लाहिरी महाशय के शिष्य स्वामी श्रीयुक्तेश्वर हुए। श्री युक्तेश्वर जी ने कैवल्य दर्शन (होली साइंस) पुस्तक लिखी। जिसके सूत्रों में उन्होनें ज्ञानात्मक एकता और उसके महत्वपूर्ण पक्षों पर प्रकाश डाला है। श्रीयुक्तेश्वर जी के शिष्य परमहंस योगानंद हुए। योगानंद जी ने अपनी आत्मकथा अंग्रेजी में आटोबायोग्राफी ऑफ़ अ योगी नाम से लिखी, यह आत्मकथा हिंदी में योगी कथामृत नाम से प्रकाशित हुई। 1946 में प्रकाशित इस आत्मकथा में योगानंद जी के जीवन की बहुत कम घटनाएं वर्णित हुई हैं। इस आत्मकथा में उन्होनें अपने समय के बडे-बडे योगियों और संतों से मिलकर उनके बारे में अज्ञात तथ्य प्रस्तुत किए। इस आत्मकथा में विश्व भर की वैज्ञानिक हलचलों का भी संज्ञान लिया गया है। उन वैज्ञानिक खोजों का आध्यात्मिक जगत से संबंध भी निरूपित किया गया है। दुनिया की 95 प्रतिशत जनसंख्या इस आत्मकथा को अपनी हुए अनुवादों के कारण पढ सकती है। बीसवीं शताब्दी की श्रेष्ठ आध्यात्मिक पुस्तकों में इसे सम्मिलित किया गया है। परमहंस योगानंद ने गुरु परंपरा से प्राप्त योग प्रविधियों को तो सिखाया ही, उन्होनें शक्ति संचार व्यायाम के अडतीस अभ्यासों का भी निर्माण और संकलन किया। यह व्यायाम योग परंपरा ग्रंथों में नहीं मिलते, योगानंद जी की यह अपनी खोज है। योगानंद जी ने बाल्यकाल से ही इस मार्ग पर जाने का निश्चय कर लिया था। नौकरी और विवाह के अच्छे प्रस्तावांे पर भी उनका यह संकल्प डिगा नहीं। स्नातक स्तर की पढाई में भी उनका मन नहीं लगा, यह पढाई उनके गुरुदेव श्रीयुक्तेश्वर जी के निर्देशों के बाद पूरी हुई। योगानंद जी ने रांची में उस समय लडकों और लडकियों को एक साथ पढाने के लिए विद्यालय खोला, जब इसकी बात भी करना चुनौती से कम नहीं था। रांची के इस विद्यालय में गांधी जी का आगमन हुआ था। बाद में अमेरिका से लौटकर वर्धा सेवा आश्रम में गांधी जी से परमहंस जी पुन मिले। जहां उन्होनें कुछ दिन रहकर गांधी और उनके सहयोगियों को क्रिया योग की दीक्षा दी। योगानंद जी ने क्रिया योग से तत्व जिज्ञासा शीघ्र शमन करने का मार्ग प्रशस्त किया और यह जनमानस को सुलभ कराया, जो पहले गुफाओं में ही सीमित था। संसार और मोक्ष में उन्होनें सुन्दर समन्वय किया, उन्होंने कहां हमें संसार में रहना है, पर संसार का होकर नहीं रह जाना है। शांति पूर्वक सक्रिय रहना है और सक्रियता पूर्वक शांत होना है। शांति, प्रेम और आनंद प्राप्ति के लिए ही मनुष्य धरती पर आया है। यह शांति, प्रेम और आनंद व्यक्ति योग मार्ग पर चलकर शीघ्रता से प्राप्त कर पाता है। यह मार्ग सभी जाति, धर्म और क्षेत्र के लोगो पर समान रूप से उपयोगी हैं। इस मार्ग में न आडंबर है, न पाखण्ड। हम जो कर रहे है, उसी जगह वही काम करते हुए इस मार्ग पर चला जा सकता है, फिर जो व्यग्रताएं हमारे भीतर ज्वार पैदा करती है, उनका समाधान कुछ भी बाह्य परिवर्तन के बिना हो जाता है। परमहंस योगानंद चमत्कार दिखाने के पक्षधर नहीं रहे, न उन्होनें स्वयं इसका प्रदर्शन किया। मनुष्य का मानसिक रूपांतरण अपने आप में एक चामत्कारिक घटना है। संसार में बहुत से तथाकथित गुरु और संतों का चोला धारण किए हुए लोग पाए जाते है। इसका उन्हें पूरा भान था, इसलिए उन्होनें यह व्यवस्था दी कि उनके देह पात के बाद उनकी शिक्षाएं ही गुरु होंगी। स्वामी और संन्यासी इन शिक्षाओं का प्रसार जिज्ञासुओं के लिए करेंगे। आध्यात्मिकता का विज्ञापन करने से परमहंस योगानंद जी परहेेज करते थे। विज्ञापन तो क्रय विक्रय करने के लिए किया जाता है। प्रचार करने की आवश्यकता आध्यात्मिक संस्थाओं को कदापि नहीं है। इसका प्रचार करने से लाभ भी नहीं होता। तीव्र जिज्ञासा उत्पन्न होने के बाद जब तक व्यक्ति स्वयं रूपांतरित नहीं होगा, समाज और राष्ट्र में वांछनीय परिवर्तन नहीं हो सकते। स्वयं का रूपांतरण उसकी जिज्ञासा और उसकी तीव्रता के फलस्वरूप संभव है, उसके बिना तो वह भी एक एषणा बनकर ही रह जाएगी। स्वयं के रूपांतरण में समाज की सभी बुराइयों का समाधान संनिहित है। इस रूपांतरण के बाद व्यक्ति को समाज सुधारक बनने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। उसका आचरण ही प्रेरक हो जाता है, बिना उद्घोष किए एक कोंपल कब पत्ती में बदल जाती है, इसका पता नहीं लगता। परमहंस योगानंद की बहुश्रुत और बहुपठित आत्मकथा में उनका जीवन उद्घाटित नहीं हुआ है। योगानंद जी का जीवन और दर्शन मेजदा नामक पुस्तक मिलता है। इस पुस्तक को उनके अनुज सनंद लाल घोष ने लिखा हैं। मेजदा बंगाली भाषा में मझले भ्राता के लिए कहां जाता है। योगानंद जी चार भाइयों में दूसरे नंबर के थे। उनके पिता जी भगवती चरण घोष रेलवे गोरखपुर में नौकरी करते थे, जहां योगानंद जी (मूल नाम मुकुंद लाल घोष) का जन्म 5 जनवरी 1893 को हुआ था। चमत्कारों पर योगानंद जी ने कहां है चमत्कार दिखाने से लोग आकर्षित तो होते हैं, परन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से उनका कोई लाभ नहीं होता। मनोरंजन के अतिरिक्त उनका कोई प्रयोजन नहीं होता। अतः ईश्वर की यथार्थ खोज से ये साधक को पथच्युत कर देते हैं। परमहंस योगानंद जी के वचनों का संकलन परमहंस योगानंद वचनामृत नाम से प्रकाशित हैं, पर यहां योगी कथामृत से कतिपय सूक्तिपरक अंश पाठकों की सुविधा के लिए दिए जा रहे हैं- ‘‘सत्य कोई सिद्धांत नहीं है, न ही वह दर्शनशास्त्र का कोई तत्व ज्ञान है और न ही वह बौद्धिक अंतर्दृष्टि है। वह तो प्रत्यक्ष वास्तविकता के साथ तदनुरूपता है। मनुष्य के साथ आत्मा के रूप में अपने सच्चे स्वरूप का अटल ज्ञान ही सत्य है।’’ ‘‘ईश्वर की गूढ लिपि को पढना एक ऐसी कला है जो कोई मनुष्य किसी मनुष्य को नहीं पढा सकता, इस मामले में ईश्वर स्वयं ही एक मात्र गुरु होता है।’’ ‘‘राष्ट्रों के अग्रज भारत द्वारा जमा किया ज्ञान सारी मानव जाति की विरासत हैं। सभी सत्यों की भांति वैदिक सत्य भी ईश्वर की संपत्ति है, भारतवर्ष की नहीं।’’’’सत्य के राज्य में जाति या राष्ट्र का भेदभाव निरर्थक है।’’ ‘‘संसार को देने के लिए भारत के पास और कुछ नहीं होता तो क्रियायोग अकेला ही शाही भेंट माना जाने के लिए पर्याप्त होता।’’ ‘‘संसार (शब्दशः अर्थ प्रवाह के साथ बहना) मनुष्य को सबसे कम प्रतिरोध का मार्ग अपनाने के लिए प्रेरित करता हैं। इसलिए जो भी संसार का मित्र बनेगा, वह ईश्वर का शत्रु है।’’ ‘‘समाज के नाम जो बुराइयां मढ़ दी जाती हैं, उनके लिए वस्तुतः प्रत्येक मनुष्य को दोषी पाया जा सकता है।‘‘ ‘‘रामराज्य पहले प्रत्येक ह्रदय में प्रकट होना चाहिए, तब वह समाज में फैलेगा, क्योंकि आंतरिक सुधार होने पर बाह्य सुधार अपने आप ही होते हैं। जो मनुष्य अपने आप को सुधार लेगा, वह हजारों को सुधार देगा।’’ परमहंस योगानंद ने भारत की संत परंपरा को विश्व के विभिन्न देशों में प्रसारित किया। सेल्फ रियलाइजेशन फैलोशिंप नामक संस्था का संचालन अमेरिका से किया जाता है। इस संगठन में बहुत पहुंचे हुए संत हुए है। इनमें राजर्षि जनकानंद, ज्ञानमाता, दयामाता, मृणालिनीमाता, स्वामी भक्तानंद इत्यादि प्रमुख हैं। यह देखना महत्वपूर्ण है कि अमेरिका जैसे भौतिकवादी देशों में भारत की संत परंपरा का उन्नयन इतने सुंदर ढंग से योेगानंद जी ने किया कि उससे समूची मानव जाति धन्य हुई है। राजर्षि जनकानंद अमेरिका के एक बडे उद्योगपति रहे हैं, उनका नामकरण योगानंद जी ने राजर्षि जनक के नाम पर किया। दयामाता प्रेम और करुणा की ही मूर्तिमंत रूप थीं। आॅनली लव पुस्तक उनके व्यक्तित्व को समझने के लिए पठनीय है। ज्ञानमाता के विभिन्न पत्र एक पुस्तक, गोड एलोन नामक पुस्तक में छपे है, यह पत्र उन्होनें अथवा उन्हें गुरुदेव परमहंस योगानंद को अथवा ज्ञानमाता को लिखे हैं। ज्ञानमाता द्वारा अन्य व्यक्तियों को लिखे पत्र भी इसमें दिए गए हैं। इन पत्रों को पढकर ज्ञानमाता का नाम चरितार्थ होता है। 4 जुलाई को एक पत्र में परमहंस योगानंद ने ज्ञानमाता को लिखा है- “I have never seen such selfish noble example in the west as in you and St. Lynn.(Rajarshi Janakananda). I never write , but I do write to you ever in my heart and spirit. I don’t talk, but I do ever talk to you in silence.” ज्ञानमाता ने आत्मा और चेतना के विषय पर अपने अनुभव में उतरे रहस्य को कितने सुंदर ढंग से व्यक्त किया है- Soul connected with body is called ego. Xxx consciousness is never tired. He never sleeps. Rest is nothing but a relative state of mind.” 245 नया पटेल नगर, कोंच रोड, उरई जिला जालौन उ0प्र0 मोबाइल 9236114604
Wednesday, November 3, 2021
प्रकाशोदय पर्व दीपावली
ब्रह्मांड व्यापी पदार्थ और ऊर्जा का जब अखंड चेतना मे रूपांतरण होता है, तब प्रकाश का उदय होता है. यह चेतना उजाले और अंधेरे सब में भास्वर होती है. यह प्रकाश चेतना ध्वनि में है और श्वास प्रश्वास में भी. प्राणन में जो चेतना प्रवाहित हो रही है, उसी को उपलब्ध होना प्रकाशित होना है. इस उपलब्धि या अयोध्या में ही राम वापस आकर बसते हैं. चमकती हुयी रोशनी उसका स्थूल रूप है. स्थूलता में चमकती रोशनी में ही पदार्थ गतिमान दिखायी पड़ते हैं.
सूर्य, चंद्र और तारे प्रकाश देते हैं, सदा अस्तित्वमान रहते हैं. पर दीपक अनथक प्रकाश देता है और प्रकाश देते हुए स्वयं को अर्पित कर देता है. यह जलता हुआ दीपक जीवन का प्रतीक है. जलते दिए की अस्थिरता की भाँति जीवन चलता है.
दीपक का तेल/घी प्रेम और भक्ति का प्रतीक है, इसकी बाती इच्छा का प्रतीक है. दीपक की लौ का शीर्ष भाग ज्ञान का तो उसका ऊष्म भाग प्रेम और भक्ति का प्रतीक है. ज्ञान भाग में ही हमारे गुरुदेव निवास करते हैं.
यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।��योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः।।गीता 6.19।।
जैसे स्पन्दनरहित वायुके स्थानमें स्थित दीपककी लौ चेष्टारहित हो जाती है, योगका अभ्यास करते हुए यतचित्तवाले योगीके चित्तकी वैसी ही उपमा कही गयी है।।
न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥कठोपनिषद २/२/१५, मुंडक और श्वेताश्वतर में भी है..
वहां न सूर्य प्रकाशित होता है और चन्द्र आभाहीन हो जाता है तथा तारे बुझ जाते हैं; वहां ये विद्युत् भी नहीं चमकतीं, तब यह पार्थिव अग्नि भी कैसे जल पायेगी? जो कुछ भी चमकता है, वह उसकी आभा से अनुभासित होता है, यह सम्पूर्ण विश्व उसी के प्रकाश से प्रकाशित एवं भासित हो रहा है।
गीता में यह इस प्रकार आया है..
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।15.6।।
उसे न सूर्य प्रकाशित कर सकता है और न चन्द्रमा और न अग्नि। जिसे प्राप्त कर मनुष्य पुन: (संसार को) नहीं लौटते हैं, वह मेरा परम धाम है।।
शुभ दीपावली🙏
Thursday, May 13, 2021
गायत्री मंत्र स्वरूप और महत्व
Saturday, February 13, 2021
दस दिन हिमालय के संग संग
Saturday, December 26, 2020
बुंदेली 'नर' और उसका अर्थविकास
Friday, November 10, 2017
व्यक्ति नाम निर्वचन
व्यक्ति नाम निर्वचन
राकेश नारायण द्विवेदी
व्यक्ति नामों में स्वगुणार्थकता न होने के कारण उन्हें निरर्थक मानने वाला एक वर्ग है। विलियम शेक्सपियर (1564-1616) ने मानव जीवन की शाश्वत भावनाओं को बड़ी कुशलता से चित्रित किया है। रोमियो एंड जूलियट शेक्सपियर के प्रारंभिक नाटकों में है। इसकी कथावस्तु का सार है- जुलाई का महीना था। बसंत ऋतु अपनी जवानी पर थी। बेरोना नगर के एक कुलीन परिवार के मांटेग्यू के घर मासक्यूडवार (मुखौटा नृत्य) का आयोजन हुआ था, यह रोमियो का अपना घर था।
नृत्य के अवसर पर केपुलेट परिवार की जूलियट भी रोमियो के घर आई हुई थी। इसी नृत्य के दौरान दोनो की आंखें चार हो गईं और हृदय की गहराई में उतर गई। रोमियो अपने को न रोक सका, उसने जूलियट के घर जाकर उसके निजी कक्ष में पहुंचकर अपने प्रेम का इजहार किया। जूलियट भी रोमियो पर फिदा थी। वह उसे पाने के लिए तड़प रही थी, किंतु दोनो परिवारों के बीच वर्षो से चली आ रही शत्रुता से रोमियो और जूलियट की शादी संभव नहीं थी। दोनों ने ऐसे में चुपके से एक गिरजाघर में जाकर शादी कर ली, लेकिन दुर्भाग्य से दोनो परिवारों में जंग छिड़ गई।
लड़ाई में रोमियो के एक करीबी दोस्त की मौत हो गई बदले में रोमियो ने भी जूलियट के चचेरे भाई की हत्या कर दी। रोमियो को देश के बाहर जाने की सजा मिली। इसी बीच जूलियट के पिता ने उसका विवाह पेरिस के काउंट के साथ निश्चित कर दिया। रोमियो नगर से निष्कासित जीवन जी रहा था। वह जंगल-जंगल भटक रहा था और जूलियट-जूलियट रट रहा था। रोमियो की अनुपस्थिति में जूलियट उदास थी। शादी से बचने के लिए वह नींद वाली दवाई पीकर सो गई ताकि सबको लगे वह मर चुकी है।
रोमियो को इस नाटक के बारे में कुछ पता नहीं था। जूलियट के मरने की खबर पाकर वह वहां पहुंचा। उदास मन से उसने जूलियट को अपना आखिरी चुंबन दिया और जहर पीकर अपनी जान दे दी। जब जूलियट का नशा उतरा तो सामने अपने प्रेमी की लाश देखकर वह सन्न रह गई। उसने रोमियो के छुरे से ही खुद को मार डाला। इस प्रकार दोनों ने एक साथ दुनिया को अलविदा कह दिया। दोनो परिवार उस समय एक भी हुए किंतु तब प्रेमी युगल दुनिया से उठ चुका था।
इस नाटक की पंक्ति ॅींजश्े पद ं दंउमघ् अर्थात् नाम में क्या रखा है को नाम चर्चा के समय बहुत अधिक उद्धृत किया जाता है। इसका संदर्भ जानना आवश्यक है, नाटक के द्वितीय अंक के द्वितीय दृश्य में जूलियट रोमियो के संबंध में कहती है -
जूलियट - आह रोमियो! क्यों हो तुम रोमियो! अपने पिता को अस्वीकृत कर दो, अपना यह नाम त्याग दो। यदि तुम ऐसा नहीं कर सकते तो तुम मेरे प्रेम से प्रतिश्रुत हो, फिर मैं केपुलेट नहीं रहूंगी। रोमियो (स्वगत) क्या मै और सुनता रहूं या इसका उत्तर दूं। जूलियट तुम्हारा नाम ही तो मेरा शत्रु है, तुम तुम ही हो, तुम मांटेग्यू नहीं हो। क्या है मांटेग्यू़़? न हाथ, न पांव, न बाहु, न आनन मनुष्य का कोई भी तो अंग नहीं। कोई और नाम रख लो न?
नाम में है ही क्या? यदि हम गुलाब को किसी और नाम से पुकारते, तो तब भी उसमें इतनी ही सुगंध आती। यदि रोमियो को इस नाम से न पुकारा जाता, तब भी रोमियो तो वही रहता? इस नाम के बिना भी उसकी यह बहुमूल्य पूर्णता तो अभावग्रस्त न होती। रोमियो! छोड़ दो अपना यह नाम। नाम में तुम्हारा कोई भाग नहीं, इस नाम के बदले मुझ संपूर्ण को ले लो।
रोमियों -तुम्हारा वचन ही मेरा प्रमाण हो। प्रेम ही तो मुझे चाहिए, मैं पुनः नामकरण संस्कार कराऊंगा। अब मैं कभी भी रोमियो नहीं रहूँगा।
‘नाम में क्या रखा है’ शेक्सपियर की यह बात भाषा विज्ञान की दृष्टि से गलत थी। गुलाब को अगर और नाम से पुकारे तो उसकी खुशबू चली नहीं जाएगी, पर और किसी नाम से पुकारने पर गुलाब की पहचान ही नहीं रह पाऐगी, क्योंकि गुलाब नाम उस फूल के लिए सामाजिक मान्यता प्राप्त कर चुका है। हम गुलाब को अन्य जो भी कहें, दूसरे व्यक्ति उसे कैसे समझ पाएंगे। दूसरी बात; वस्तुओं के नाम और व्यक्तियों के नाम एक ही तरह के नहीं होते। वस्तुओं के नामों के लिए सामूहिक स्वीकृति अनिवार्य है, वहीं व्यक्तियों के नाम परिवार की संस्कृति के दिग्दर्शक होते हैं।
यह उक्ति वस्तुतः नाम और शब्द को एक मानने के कारण कही गई। यह ठीक है कि नामों की निर्मिति हमारे चिरपरिचित शब्दों से होती है, परंतु शब्द जब एक बार नाम के रूप में प्रयुक्त होते हैं तब वे शब्द नहंी रह जाते। आक्सीजन और हाइड्रोजन के संयोग से जल बनता है। जल में उक्त दोनों तत्वों की अवस्थिति तो है परंतु जल बनने के पूर्व जैसी नहीं। अतः जल का परीक्षण विश्लेषण उसके निर्माणक तत्वों के विश्लेषण परीक्षण से भिन्न होगा, इसमें कोई संदेह नहीं। इसीलिए शब्दों का अनुवाद अन्य भाषाओं में हो जाता है किंतु नामों को हमें यथारूप ही सभी भाषाओं में ग्रहण करना होता है। एक नाम से एक ही व्यक्ति या वस्तु का बोध होता है, परंतु जब वह नाम केवल शब्द ध्वनि मात्र होता है तब वह व्यक्तिवाचक से जातिवाचक बन जाता है।
इस उक्ति के समर्थक कहते हैं कि मानव मनोविज्ञान नाम को हल्का मानता हैं, इसलिए शेक्सपियर ने यह बात कही, लेकिन नामकरण के प्रति व्यक्ति की सजगता किसी से छिपी हुई नहीं है। नामकरण के समय मनुष्य के मन में बहुत सी सांस्कृतिक स्थितियां विद्यमान रहती हैं। चाहे वह किसी तरह का नाम रखे। शेक्सपियर के इस नाटक में ही नाम बदलने का मनोविज्ञान समझा जा सकता है, क्योंकि रोमियो और जूलियट के परिवारों में परस्पर शत्रुता थी और वे उस समस्यामूलक अतीत से अपना छुटकारा चाहते थे। जूलियट से प्रेम के कारण रोमियो अपना नाम बदलने के लिए तैयार भी हो जाता है। ऊपर दिए गए संवाद में दोनों प्रेमियों के परिवार नाम केपुलेट और मांटेग्यू के प्रति ही विरक्ति दिखाई पड़ती है। रोमियो के लिए तो जूलियट रोमियो नाम से ही पुकारती है।
नाम और शब्द को एक मानने का कारण यह भी रहा है कि इन दोनों के मूलरूपों का अध्ययन व्युत्पत्ति के माध्यम से किया जाता रहा है। वस्तुतः व्युत्पत्ति के लक्ष्य एवं उसकी प्रणालियों ने दीर्घकाल तक नामों को उन शब्दों के रूप में घटाने का प्रयास किया है, जो वे नाम बनने के पूर्व थे। इस प्रकार नामों के संकेतार्थ एवं वैशिष्ट्य को सर्वथा भुलाने का प्रयास किया गया है। जैसा हाल में सैफ अली और करीना कपूर के बच्चे का नाम तैमूर रखे जाने पर देखा गया। अर्थतत्व के रूप में बहुत से लोग तुर्की शब्द तैमूर का अर्थ लोहा लेते रहे, जबकि देश का बहुत बड़ा वर्ग इसे क्रूर मंगोल शासक तैमूर लंग से अनुकृत मानकर नामकर्ता की मानसिकता को दोषी बता रहा है। फेसबुक पर शबनम शुक्ला कहती है नाम अगर तलवार सिंह है तो क्या वह आदमी तलवार है। ऐसे भी नाम होते है, जिन्हें हम निरर्थक कह सकते हैं जैसे पप्पू, गुड्डू, गोलू, मुन्ना, पुल्लू, सट्टू इत्यादि। परंतु नाम रूप में वे सीधे भावना से जुड़कर एक विशिष्ट अर्थ की प्रतीति कराते हैं, जिसे हम नामवैज्ञानिक अर्थ कह सकते हैं। नाम का व्युत्पत्तिमूलक अन्वेषण ही नाम विज्ञानी का कार्य नहीं है, वह तो प्रत्येक नामवैज्ञानिक अध्ययन का प्रारंभिक सोपान है। प्रयोगवाद के नामकरण के सम्बन्ध में नामवर सिंह ने कहा है कि नामकरण प्रायः औचित्य-अनौचित्य का ध्यान रखे बिना ही हो जाता है। इसलिए प्रयोगवाद नाम निरर्थक और अपर्याप्त होते हुए भी हिंदी साहित्य के इतिहास में अब स्थापित तथ्य है। इससे अब एक निश्चित काल प्रवृत्ति का बोध होता है, प्रचलन से इसमें पर्याप्त अर्थवत्ता आ गई।
नाम के संबंध में पहली बात डाॅ भीमराव अंबेडकर ने भी यही मानी है कि नाम के अर्थ का प्रश्न उत्पन्न हो।
इसका अर्थ है कि नामी के बारे में पढ़ने-सुनने वाले व्यक्ति पर उसका पहला प्रभाव नाम से ही होता है। त्रिधा जिज्ञासा में नाम धाम और काम सम्मिलित है, किंतु नाम जिज्ञासा सर्वप्रथम है।
नाम और रूप का संबंध निरूपण करते हुए विद्याभूषण विभु ने लिखा है, नाम कल्पित एवं कृत्रिम है तो रूप प्रकृति-प्रदत्त। एक अदृश्य है तो दूसरा प्रत्यक्ष। दोनों में कला-कौशल है। एक में चातुर्य है, दूसरे में सौंदर्य। वाणी नाम का अनुष्ठान करती है, श्रवण उसका अभिनंदन करते हैं। रूप से नेत्रों का रंजन होता है। दोनों अंतःकरण के आकर्षण-विकर्षण के कारण होते हैं। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व चिरकाल तक स्थिर नहीं रह सकता। अनामी रूप या अरूपी नाम कहीं न मिलेगा। परंतु नाम में एक विशेषता यह है कि वह गतिवान है।
नाम कैसे बनते हैं-
भारत मे इस विषय पर विचार सर्वप्रथम यास्क ने किया, जिसेे निघंटु तथा निरुक्त कहा गया है। निघंटु भारत में ही नहीं, विश्व में कोश निर्माण का सर्वप्रथम ज्ञात प्रयास है। यह वैदिक ऋचाओं में प्रयुक्त थोड़े से दुर्लभ और दुरूह शब्दों का संग्रह है। इसमे ंशब्दों की व्याख्याएं नहीं है। इसलिए यह आधुनिक अर्थ में ‘कोश’ नहीं है, बल्कि शब्द संग्रह मात्र है जिसे परंपरा यास्ककृत मानती है। निघंटु में पांच अध्याय है। प्रथम तीन को नैघंटुक काण्ड, चतुर्थ को नैगम कांड और पंचम को दैवत कांड कहते हें। इन तीन कांडों के विषय क्रमशः पर्यायवाची शब्द, अनेकार्थवाची शब्द और देवता है। जिसमें प्रथम अध्याय में भौतिक वस्तुओं का वर्णन है जैसे पृथ्वी जल, वायु तथा प्रकृति की वस्तुएं जैसे मेष, उषा दिन व रात्रि इत्यादि। दूसरे अध्याय का विषय है मनुष्य और उसके बाहु अंगुलि इत्यादि अंग तथा उससे संबद्ध पदार्थ तथा गुण जैसे संपत्ति, संपत्ति, क्रोध, युद्ध इत्यादि। तृतीय अध्याय में भावात्मक गुणों का वर्णन है यथा गुरूता, लघुता इत्यादि। निघंटु तथा निरुक्त के संपादक तथा अंग्रेजी भाषांतरकार प्रो0 लक्ष्मण सरूप ने ही कहा है कि निघंटु की व्यवस्था वैज्ञानिक नहीं, न ही अधिकांशतः प्रणालीबद्ध है, परंतु कम से कम शब्दों के विधिपूर्वक वर्गीकरण का प्रयास अवश्य किया गया है।
निरुक्त निघंटु का महषि यास्क कृत सुप्रसिद्ध भाष्य है। यह निर्वचन, भाषा विज्ञान एवं शब्दार्थ विज्ञान का प्राचीनतम भारतीय ग्रंथ माना जाता है। यास्क की इस रचना का काल भारत रत्न से विभूषित डाॅ पाडरंग वामन काणे 800 से 500 भारत ई0 पू0 के बीच का मानते है। निरुक्त का प्रथम संस्करण रुडोल्फ राॅथ द्वारा प्रस्तुत किया गया था, जिसे 1852 में गाॅटिंगन में प्रकाशित किया गया। उस समय वैदिक वाङमय केवल पांडुलिपियों में ही प्राप्त था। ऋग्वेद का भी मुद्रित पाठ्य उपलब्ध नहीं था। उस समय लैटिन भाषा के ऋग्वेद नमूना ;त्पहअमकंम ैचमबपउमदद्ध के नाम से फ्रेडरिख अगस्त रोजन का 1830 में 121 ऋचाओं का आंशिक अनुवाद किया गया था। प्रो0 फ्र्रैडरिक मैक्समूलर ने ऋग्वेद का जर्मन अनुवाद 1856 में किया। सत्रहवीं सदी में मुगल बादशाह औरंगजेब के भाई दाराशिरोह ने कुछ उपनिषदों का फारसी में अनुवाद किया जो पहले फ्रांसीसी और बाद में अन्य भाषाओं में अनूदित हुए। यूरोप में इसके बाद वैदिक और संस्कृत साहित्य की ओर ध्यान गया। पाश्चात्य विद्वानों ने भी स्वीकार किया है वेद विश्व का प्राचीनतम साहित्य है। धर्मशास्त्र इतिहासकार डाॅ0 पांडुरण वामन काणे ने वेदों का रचनाकाल 4000 से 1000 ई0पू0 माना है। हिंदी में पहली बार वेदों का प्रकाशन ऋग्वेद भाष्य के रूप में दयानंद सरस्वती ने 1877 में कराया, लेकिन यह पूर्ण नहीं था। अंग्रेजी भाषा में 1850-1888 में एच.एच विल्सन ने, उसके बाद राॅल्फ टी एच ग्रिफिथ ने 1889-92 में, पश्चात ए ए मैक्डोनेल ने 1917 में महत्वपूर्ण अनुवाद किए। प्रो मैक्डोनैल एवं ए.बी. कीथ ने 1912 में वैदिक इंडैक्स आॅफ नेम्स एंड सब्जेक्ट्स तैयार किया जिसमें वैदिक नामों और विषयों की व्याख्यात्मक अनुसूची दी गई है। इससे पूर्व प्रो0 एम. मोनियर विलियम्स का 1899 में व्युत्पत्ति और भाषा की दृष्टि से संस्कृत अंग्रेजी शब्दकोश प्रकाशित हुआ, जिसमें भारत यूरोपीय भाषाओं का सामीप्य संस्कृत से दिखाया गया है। इन्होंने म्ना जो ‘नाम’ की धातु है, उसका संबंध मैन से जोड़ा है। निरुक्त में ‘मन’ धातु का अर्थ विचारना है, इसीलिए मनुष्य इस धातु से संबंद्ध हुए, क्योंकि वे अपने कार्य विचार पूर्वक करते हैं।
निघंटु और निरुक्त का महत्व देखने के लिए उपर्युक्त प्रसंग में हमें जाना पड़ा। नाम कैसे रखे जाते हैं, इस विषय पर निघंटु तथा निरुक्त की टीका में महत्वपूर्ण प्रकाश डाला गया है।ं यास्क समस्त शब्दों को मूल धातुओं से व्युत्पन्न बताते हैं। वह लोक के दैनंदिन व्यवहार में वस्तुओं की संज्ञा के लिए शब्द, व्यप्तिमान तथा सूक्ष्म होने के कारण व्यक्त शब्दों को अधिक मान्यता देते हैं। यास्क धातुओं के अलावा कुछ शब्दों की उत्पत्ति प्रकृति की ध्वनियों की अनुकृतियों से भी मानते हैं, जैसे पक्षियों के नाम। किंतु यह शब्दानुकृति भाषा के निर्माण में महत्वपूर्ण भाग नहीं लेती। वहीं प्लेटो (जन्म 428 ई.पू. निधन 348 ई.पू.) अपनी रचना क्रैटिलस ं;ब्तंजलसनेद्ध में वर्णमाला की ध्वनियों के मूल को प्रकृति की ध्वनियों में खोजने का प्रयास करते हैं और कहते है शब्दानुकृति भाषा के निर्माण में सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपादान है।
यास्क ने भाषा के चार भाग माने हैं- नाम, आख्यात (क्रिया), उपसर्ग तथा निपात (निरुक्त 1-1) संस्कृत में उपसर्गों का प्रयोग विभक्ति के रूप में कहीं-कहीं ही होता है।
संस्कृत में उपसर्ग क्रिया विशेषण का कार्य करते हैं। यास्क ने नाम व क्रिया के लक्षण बताए हैं। क्रिया की आधारभूत धारणा भाव (होना ठमबवउपदह) है, जबकि नाम की आधारभूत धारणा सत्व (या बनी हुई वस्तु, इमपदह) है। परंतु जहां दोनों में ‘भाव’ क्रिया के द्वारा निर्दिष्ट होता है, प्रारंभ से अंत तक सम्पूर्ण प्रक्रिया का मूर्तरूप, जिसने सत्व के गुण ले लिए हैं नाम के द्वारा निर्दिष्ट होता है, जैसे जाना (व्रज्या), पकाना (पक्ति) इत्यादि। क्रिया के छः विकार होते हैं- उत्पत्ति, सत्ता, विपरिणमन, वृद्धि, उपक्रम तथा विनाश। जबकि अरस्तू कहते हैं नाम या संज्ञा एक संश्लिष्ट ;ब्वउचवेपजद्ध सार्थक ध्वनि है, जिसमें काल का कोई विचार नहीं होता है, किंतु क्रिया भी संश्लिष्ट सार्थक ध्वनि है, पर उसमे ंकाल का विचार होता है।
अरस्तू (जन्म 384 ई0पू0 निधन 322 ई0पू0) ने क्रिया के लक्षण में काल के विचार पर बहुत बल दिया हे। वह इसमें होने वाले कार्य व्यापार (।बजपवद) के विचार की अपेक्षा करते हैं, किंतु क्रिया व्यापार तथा काल दोनों में प्रथम मुख्य तथा द्वितीय गौण महत्व का है। यास्क ने इसीलिए भाव शब्द चुनकर दोनों का समावेश किया है। नाम (संज्ञा) का अरस्तू कृत लक्षण निषेधात्मक है। वह नाम के लक्षण में ‘क्या नहीं है’ यह बताते हैं जबकि यास्क निश्चयात्मक लक्षण प्रस्तुत करते हुए बताते हैं कि सत्व नाम की आधारभूत धारणा है।
नामों की उत्पत्ति के संबंध में दुर्ग (निरुक्त भाष्यकार) ने कहा है कि नाम तीन तरह से मिलते हैं 1. वे जिनकी धातुएं स्पष्ट हैं, 2. वे जिनकी धातुओं को अनुमान से जाना जा सकता है तथा 3. वे नाम जिनकी धातुओं का अस्तित्व ही नहीं है। प्लेटो अपने क्रैटिलस में हर्मोजीनस के द्वारा इस सिद्धांत को प्रस्तुत करता है कि नाम रूढ़ है। स्वेच्छा से रख दिए जाते हैं तथा स्वेच्छा से बदल जिए जाते हैं । क्रैटिलस कहता है, वह स्वाभाविक हैं। सुबरात बीच का मार्ग अपनाते हुए कहते हैं नाम स्वाभाविक हैं परंतु उनमें रूढ़ि का भी अंश है। ‘यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि यास्क का काल प्लेटों से कम-से कम एक शताब्दी पूर्व था।’ यास्क व प्लेटो दोनों अपनी-अपनी पुस्तकों क्रमशः निरुक्त तथा क्रैटिलस में अपने पूर्ववर्ती विद्वानों तथा निरुक्त संबंधी गवेषणाओं को एकत्र करते हैं। यास्क और प्लेटो में मूल अंतर यह है कि यास्क धातुओं को उपसर्ग, आगम तथा प्रत्ययों से पृथक करते थे अर्थात् शब्दो को बनाने वाले तत्व से मूल तत्व को पृथक करके देखते थे और इसलिए वह शब्दों का उनके घटक अवयवों में विश्लेषण करने के सामान्य नियम बनाने में समर्थ हुए जबकि प्लेटो इस अंतर का नहीं समझते थे परिणामतः उन्होंने अटकल को निर्वचन का आधार बनाया और इसीलिए आगे चलकर शेक्सपियर (1564-1616) नाम में क्या रखा हैं जैसी निरर्थक उक्ति लिख गए।
निरुक्त में प्रथम अध्याय (12 से 14) में यास्क ‘नाम कैसे रखे जाते हैं’, इस समस्या पर विचार करते हुए युक्तियां देते है 1- प्रत्येक सत्व जो विशिष्ट कार्य करता है, समान नाम से व्यवहृत होना चाहिए उदाहरणार्थ प्रत्येक सड़क पर दौड़ने वाला अश्व (दौड़ने वाला) कहा जाना चाहिए न कि केवल घोड़ा ही 2- प्रत्येक सत्व के उतने नाम होने चाहिए जितनी क्रियाओं से वह संबद्ध है जैसे-खंभे को स्थूल (सीधा खड़ा होने वाला) ही नहीं, उसे दहशया (गर्त में स्थित) और संजनी (जो बांसो के साथ संयुक्त की जाती है) भी कहना चाहिए 3- नाम रखने के लिए केवल उन शब्दों का प्रयोग होना चाहिए जो धातुओं से व्याकरण के नियम के अनुसार बनाए गए हों, जिससे वे जिस पदार्थ के वाचक हों, उसका अर्थ बिल्कुल स्पष्ट और भ्रांतिरहित हो उदाहरण पुरुष (आदमी) के स्थान पर पुरिशय (अर्थात् नगरवासी) होना चाहिए, अश्व (घोड़ा) अर्थात् अष्टा (अर्थात दौड़ने वाला) 4- यदि पदार्थो का नाम क्रियाओं के आधार पर रखा जाना है तो पदार्थ (सत्व) क्रिया से पहले होते हैं (उदाहरणार्थ अश्व अस्तित्व में आ जाता है इससे पहले होते हैं (उदाहरणार्थ अश्व अस्तित्व मे आ जाता है इससे पहले कि वह वास्तव में दौड़े) 5- नामों की व्याख्या करने में लोग कुतर्क करते हैं उदाहरण जब वह कहते हैं कि पृथ्वी (पृथिवी) यह इसलिए कहलाती है, क्योकि यह फैली हुई है (प्रथ)। तब वे यह नहीं सोचते कि इसे किसने फैलाया और उसका आधार (ठहरने का स्थान) क्या था।
यास्क की उस आलोचना का का उत्तर भी निघंटु और निरुक्त के टीकाकार ने दिया है, जिसमे कहा जा सकता है कि ऐसे शब्द होते हैं जिनका मूलरूप समान होता है, परंतु अर्थ भिन्न होता है उदाहरण लैटिन बनचध्बनचपकव इच्छा करना तथा संस्कृत ानच क्रुद्ध होना है, किंतु दोनों का एक ही मूल है। यास्क की सीमाएं भी थीं वह संस्कृत के अतिरिक्त कोई अन्य भाषा नहीं जानते थे। वह वैदिक और लौकिक संस्कृत के रूपो से परिचित थे। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से संस्कृत का लौकिक रूप वैदिक रूप का ही विकास है।
अब संस्कृत के बाद और भी भाषाओं का अस्तित्व ज्ञात हुआ है, यदि उनका अर्थ न भुला दिया गया हो तो आज भी अधिकांश शब्दों का मूल संस्कृत धातु में मिल जाता है।
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