Friday, July 1, 2022

१/६/२२ बिना पूर्ण विश्वास और श्रद्धा के किसी आध्यात्मिक प्रथा में निष्ठा रखना पाखंड है. किसी प्रथा के बाह्य कर्मकांड से चिपके बिना, उसके पीछे विद्यमान सत्य में निष्ठा का होना विवेक है। परंतु आध्यात्मिक प्रथा, सिद्धांत, गुरु, इनमे से किसी के भी प्रति निष्ठा न होना आध्यात्मिक पतन है. ईश्वर और उनके दूत का साथ न छोड़िए, तब आप प्रत्येक वस्तु में उनके हाथ को कार्यरत देखेंगे. योगदा सत्संग पत्रिका. १७ मई आध्यात्मिक दैनंदिनी 2/6/22 स्त्री के गर्भ में आने के बाद शैशव, यौवन और वृद्धावस्था से होते हुए हिरण्यगर्भ में पहुँचने की यात्रा का नाम अध्यात्म है. हिरण्यगर्भ में पहुँचने के बाद वापस नहीं आना एक योगी का लक्ष्य होता है. जिस प्रकार एक शिशु माता के वक्ष से लिपटकर दूध पीते हुए आनंद लेता है, एक आध्यात्मिक या आत्मदर्शी व्यक्ति उसी आनंद से पूरे जीवन रहा करता है. तत त्वं असि! ऋषि उद्दालक और श्वेतकेतु का संवाद: छान्दोग्योपनिषद् की एक कथा है। बात उस समय की है जब धोम्य ऋषि के शिष्य आरुणी उद्दालक का पुत्र श्वेतकेतु गुरुकुल से शिक्षा प्राप्त करके अपने घर आया। एक दिन पिता आरुणी उद्दालक ने श्वेतकेतु से पूछा, “श्वेतकेतु! अभी और वेदाभ्यास करने की इच्छा है या विवाह?” पिता की यह बात सुनकर श्वेतकेतु बड़े गर्व से बोला, “एक बार राजा जनक की सभा को जीत लूँ, उसके बाद जैसा आप उचित समझे।” अपने पुत्र के मुँह से ऐसे अहंकार से युक्त वचन सुनकर ऋषि उद्दालक सहम से गए। वह बिना कुछ कहे वहाँ से उठकर चल दिए। श्वेतकेतु अपनी ही मस्ती में घर से निकल गया। तब श्वेतकेतु की माँ ने ऋषि उद्दालक का चेहरा पढ़ लिया और पूछा, “आप ऐसे सहमे हुए से क्यों हैं?” तब व्यथित होते हुए ऋषि उद्दालक बोले, “श्वेतकेतु की राजा जनक की सभा को जीतने की लालसा ही बता रही है कि उसने वेदों के मर्म को नहीं समझा। वह केवल शाब्दिक शिक्षाओं का बोझा ढोकर आया है। वह जब घर आए तो उसे मेरे पास भेजना।” इतना कहकर ऋषि उद्दालक अपने अध्ययन कक्ष की ओर चल दिए। जब श्वेतकेतु घर आया तो उसकी माँ ने उसे पिता के पास जाने के लिए कहा। पिता के पास जाकर श्वेतकेतु बोला, “तात! आपने मुझे बुलाया?” ऋषि उद्दालक बोले, “हाँ! बैठो! इतना कहकर वह अपना काम करने लगे।” श्वेतकेतु से धैर्य नहीं रखा गया अतः वह बोला, “तात! आपने मुझे क्यों बुलाया?” तब ऋषि उद्दालक बोले, “श्वेतकेतु! मुझे नहीं लगता कि तुमने वेदों का मर्म समझा है! क्या तुम उसे जानते हो, जिसे जानने से, जो सुना न गया हो, वो सुनाई देने लगता है। जिसका चिंतन नहीं किया गया हो, वो चिंतनीय बन जाता है। जो अज्ञात है, वो ज्ञात हो जाता है।” तब श्वेतकेतु बोला, “तात! मेरे महान आचार्यों ने मुझे इसकी शिक्षा नहीं दी। यदि वे जानते होते तो उन्होंने मुझे इसकी शिक्षा अवश्य दी होती। अतः आप ही मुझे इस बारे में बताएँ?” यह सुनकर तथा श्वेतकेतु की जिज्ञासा को जानकर ऋषि उद्दालक श्वेतकेतु को घर से बाहर ले गए। ऋषि आरुणि उद्दालक श्वेतकेतु को लेकर एक पेड़ के नीचे बैठ गए और कुछ मिट्टी उठाते हुए बोले, “श्वेतकेतु! जिस तरह जब तुम मिट्टी को जान लेते हो, तब तुम मिट्टी से बने सभी बर्तनों को जान लेते हो कि वह भी मिट्टी स्वरूप ही है। जब तुम स्वर्ण को जान लेते हो, तब तुम स्वर्ण से बने सभी स्वर्णाभूषणों को जान लेते हो। उसी तरह अब तुम ही बताओ? क्या है वह मूलभूत तत्व, जिसको जान लेने से तुम सबको जान लेते हो, जिससे यह सम्पूर्ण जगत बना है।” जिज्ञासु दृष्टि से श्वेतकेतु बोला, “मैं नहीं जानता! तात।” तब आरुणि उद्दालक बोले, “वह सर्वोच्च सत्य सत् है, अस्तित्व है, चेतना है। इसी चेतना से नाम और रूप के सारे संसार ने जन्म लिया है। जैसे स्वर्ण ही स्वर्णाभूषण है, मिट्टी ही मिट्टी का घड़ा है। वैसे ही चेतना या अस्तित्व ही सबकुछ है। इसलिए तुम वही सत् चेतना हो। तत त्वं असि = तत्वमसि।” तत्वमसि यह एक महावाक्य है जो यह घोषणा करता है कि “तुम वो ही हो, जो तुम खोज रहे हो।” यह साधक और साध्य के एक्य को दर्शाता है। इसी महावाक्य के माध्यम से आचार्य अपने शिष्य को उपदेश करता है, “वह तुम ही हो जो तुम खोज रहे हो!” श्वेतकेतु की ब्रह्म जिज्ञासा को देखकर आचार्य उद्दालक उसे फूलों के एक बगीचे में ले गए और बोले, “यहाँ विभिन्न फूलों से शहद इकठ्ठा कर रही मधुमखियों को देख रहे हो श्वेतकेतु?” श्वेतकेतु, “हाँ! तात।” आचार्य उद्दालक, “छत्ते में मिलने के बाद क्या वो शहद कह सकता है कि मैं उस फूल का हूँ और मैं उस फूल का हूँ?” श्वेतकेतु, “नहीं तात!” आचार्य उद्दालक, “ उसी तरह जब कोई व्यक्ति उस शुद्ध चेतना के साथ एक हो जाता है तो उसकी व्यक्तिगत पहचान खत्म हो जाती है। ठीक उसी तरह जैसे सागर में मिलने के बाद नदियाँ अपना अस्तित्व खो देती हैं। वह चेतना ही है जो सबको जोड़ती है। जिससे तुम, मैं और यह सब चराचर जगत बना है।” तब श्वेतकेतु बोला, “लेकिन तात! एक सत या चेतना से ही विविधता से भरे इस जगत की उत्पत्ति कैसे हुई?” आचार्य उद्दाक बोले, “जाओ! कहीं से बरगद के वृक्ष का फल लेके आओ।” श्वेतकेतु फल लाता है तो आचार्य उद्दालक उसे तोड़ने को कहते हैं और पूछते हैं कि इसमें क्या है? श्वेतकेतु कहता है, “इसमें बहुत सारे छोटे-छोटे बीज हैं।” तब आचार्य उद्दालक बोलते हैं, “इसके किसी एक बीज को तोड़के देखो, उसमें क्या है?” जब श्वेतकेतु ने छोटे से बीज को तोड़के देखा तो बोला, “यह इतना सूक्ष्म है कि इसे देख पाना संभव नहीं! तात।” तब आचार्य उद्दालक बोले, "यह सूक्ष्म बीज, जिसे तुम देख नहीं सकते। इसी से विशालकाय बरगद का वृक्ष अपनी विभिन्न शाखाओं और फूलों को लेकर उत्पन्न होता है। उसी तरह उस शुद्ध चेतन तत्व, (जिसे तुम देख नहीं सकते) से ही विविधता से भरा यह जगत उत्पन्न होता है।” इसके बाद आचार्य उद्दालक ने श्वेतकेतु को एक लोटे जल में नमक घोलकर लाने के लिए कहा और श्वेतकेतु से लोटे की उपरी सतह से जल पीने को कहा और पूछा, “कैसा है?” जल नमकीन था। फिर उसे लोटे के बीच का जल पीने को कहा। वो भी नमकीन था। अंत में उन्होंने उसे पैंदे का जल पीने को कहा। वो भी नमकीन था। तब आचार्य उद्दालक बोले, “जिस तरह दिखाई नहीं देते हुए भी जल की प्रत्येक बूँद में नमक है। उसी तरह दिखाई नहीं देते हुए भी सभी जगह वही चेतना विद्यमान है। वो मुझमें भी है, वही तुम हो। तत त्वं असि।” इस तरह ऋषि उद्दालक ने श्वेतकेतु को दैनिक जीवन के उदहारण लेकर “तत त्वं असि” महावाक्य की नौ बार उद्घोषणा की। जब तक कि श्वेतकेतु इसके अर्थ को हृदयंगम नहीं कर लिया। यह प्रसंग छान्दोग्योपनिषद् के छठवें अध्याय में वर्णित है। आनंदमस्तु! ऊँ तत् सत्। Tathastu प्रणाम! Sakshi Prem 10/6/22 उपनिषदों में ब्रह्म की ज्ञान शक्ति को गायत्री कहा गया है और क्रिया शक्ति को सावित्री। जड़ चेतनमय सृष्टि में ज्ञान और क्रिया दोनो की अनिवार्यता है और ब्रह्म में ही दोनो शक्तियां निहित हैं। व्रतों और त्योहारों में कहीं वेद और उपनिषदों की उक्तियाँ झांकती अवश्य हैं, रूप चाहे जितने बदल गए हों। आज वट सावित्री अमावस्या का दिन है। 10/6/21 फ़ेसबुक पोस्ट जब आप अपने हृदय में ईश्वर को अनुभव करना प्रारम्भ करेंगे, तो आप विश्व सभ्यता के प्रति इतना योगदान करेंगे, जितना किसी राजा अथवा किसी राजनीतिज्ञ ने पहले कभी नहीं किया होगा। गुरुदेव। किसी की कोई चीज पसंद नहीं है तो उसकी अवज्ञा मत करो सोचो ठाकुर ने उसे भी पैदा किया है वही उसे इस संसार मे लाया है । माँ सारदा कहत कठिन समुझत कठिन साधत कठिन बिबेक। होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्यूह अनेक॥ भावार्थ ज्ञान कहने (समझाने) में कठिन, समझने में कठिन और साधने में भी कठिन है। यदि घुणाक्षर न्याय से (संयोगवश) कदाचित यह ज्ञान हो भी जाए, तो फिर (उसे बचाए रखने में) अनेकों विघ्न हैं॥ कोऊ कह सत्य झूठ कह कोऊ जुगल प्रबल कोऊ माने तुलसीदास परिहरै तीनि भ्रम सो आपन पहिचाने। पैग़म्बर मोहम्मद का बड़ा सामाजिक योगदान है कि उन्होंने अपने समय के लड़ने वाले कबीलों को इकट्ठा किया. उन्हें अनुशासित किया. उनकी तपस्या से उन पर क़ुरान आयत्त हुयी. उसकी व्याख्या को लेकर उसी तरह के मतभेद हैं जैसे वेदों के विभिन्न भाष्य हुए हैं. कई व्याख्याये या भाष्य होने से क़ुरान या वेदों का महत्व तो नहीं घट जाएगा. मुश्किल उन लोगों से है जो न क़ुरान समझते हैं और न वेद ही. न समझ पाएँ, पर समझने वालों और उनके आचरण से ही सीख लें. 🙏 संसार की गति एक रेखीय नही होती. अतीत वर्तमान और भविष्य की भाँति भी नहीं और न उसका पूर्वापर क्रम निर्धारित किया जा सकता है. यह सब एक समय में ही घटित हो रहे हैं, किसे आगे और किसे पीछे कहा जा सकता है. इस समय को हम क्षण नाम देते हैं. इस क्षण में ही ईश्वर द्वारा सृष्टि, स्थिति और लय ही नहीं, पिधान और अनुग्रह भी घटित हो रहे हैं. इन सब ईश्वरीय विधानों को पृथक पृथक देखना-समझना ही बोध प्राप्त करना है. १२/६/२२ नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन, एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन। राजा भर्तृहरि ने कहा है- भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद्भयं माने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जराया भयं। शास्त्रे वादिभयं गुणे खलभयं काये कृतांताद्भयं सर्व वस्तु भयान्वितम भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयं।। अर्थात : विषयों के भोग में रोग का भय बना रहता है, कुल में आचार से भ्रष्ट होने का भय, धन-संचय में राजा द्वारा छीन लिये जाने का भय, मान-सम्मान में अपमानित होने का भय, शौर्य-वीरता में शत्रु से हार जाने का भय, शारीरिक सौंदर्य में वृद्धावस्था का भय, शास्त्रों के पांडित्य में प्रतिवादी से पराजित होने का भय, विद्या-विनय-दान-धर्म आदि सद्गुणों में दुष्टों द्वारा निंदा का भय और शरीर धारण के विषय में यम अर्थात मृत्यु का भय बना रहता है। इस प्रकार संसार में मनुष्यों के लिए सारी वस्तुएं ही भय से परिपूर्ण हैं, एकमात्र वैराग्य यानि इन सबसे अपने को समेटने की प्रक्रिया ही अभय प्रदान करने वाला है। परा और अपरा दो विद्याएँ बताई गयी हैं. स्वयं वेद अपरा विद्या हैं, पर उनमें परा विद्या भी मिलती है. सब कुछ बड़ा मिश्रित है. खोजने और पाने की पात्रता विकसित करनी होगी. ईशोपनिषद में विद्या और अविद्या को साथ साथ जानना आवश्यक कहा गया है. मुंडक उपनिषद की स्पष्ट घोषणा है... तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति । अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते ॥ मुंडक उप १/१/५ ॥ 5. Of these, the Apara is the Rig Veda, the Yajur Veda, the Sama Veda, and the Atharva Veda, the siksha, the code of rituals, grammar, nirukta, chhandas and astrology. Then the para is that by which the immortal is known.  अष्टावक्र उवाच । आचक्ष्व शृणु वा तात नानाशास्त्राण्यनेकशः । तथापि न तव स्वास्थ्यं सर्वविस्मरणादृते ॥ १६/१ ॥ aṣṭāvakra uvāca | ācakṣva śṛṇu vā tāta nānāśāstrāṇyanekaśaḥ | tathāpi na tava svāsthyaṃ sarvavismaraṇādṛte || 1 || Ashtavakra: My son, you may recite or listen to countless scriptures, but you will not be established within until you can forget everything. 14/6/22 शक्ति के विद्युतकण जो व्यस्त, विकल बिखरे हैं, हो निरूपाय: समन्वय उसका करें समस्त, विजयिनी मानवता हो जाय। (i) हरि , तुम बहुत अनुग्रह कीनों । साधनधाम विबुध दुर्लभ तन मोहि कृपा करि दीनों । तुलसी 16/6/22 वर्षा ईश्वर का वीर्य हैं. बूँदे गिरते समय और उनकी नमी से ही कितने जीवों का पुनरागमन हो जाता है. औषधियाँ और पादप बनते हैं, वे हमारे लिए अन्न बनते हैं. अंत में हम भी किसी का अन्न बन जाते हैं. १७/६/२२ इंद्र व्यक्तिगत आत्मा को कहते हैं. वही सब देवताओं का अधिपति है. श्री अरबिंदो इंद्र को गिवर ओफ़ लाइट कहते हैं. यह व्यक्तिगत आत्मा जब दृश्य देखने का काम करती है तो उसे इंद्रिय कहते हैं. संस्कृत भाषा में इदं यह को कहते हैं द्र का अर्थ देखने से है, वह जो देखता है इंद्र कहलाता है. इदंद्र का संक्षिप्तीकरण इंद्र रूप में हुआ है. ध्यान में देखे अनदेखे मंदिर और विग्रह दर्शन हो रहे हैं. क्षितिज में चमकते तैरते तारों के बीच पाते हैं. सिर के ऊपरी भाग में तरावट रहती है. शरीर याद कदा स्फुरित होता रहता है. बहुत से अनुभव लिखना चाहते तब भी लिखते समय भूल जाते हैं. फिर अगली बैठकी में उन्हें लिखने का प्रयास करते हैं, पर तब तक नया अनुभव आ जाता है, वह अनुभव तिरोहित ही रहता है. हिमालय के बद्रीनाथ क्षेत्र में शंकर और पार्वती निवास करते थे। एक दिन अचानक एक बालक उनके सम्मुख आया। पार्वती ने उसे उठाकर संभालने की इच्छा प्रकट की, पर शंकर ने रोका कि यह साधारण बालक नही है, अन्यथा इसके माता पिता के पदचिह्न बर्फ पर दिखते। पार्वती नही मानी, बालक की सम्भाल करने लगीं। एक दिन जब पार्वती और शंकर बाहर निकले और घर वापस आये तो बालक ने कुंडी लगा दी और खोली नहीं। मजबूरन शंकर पार्वती को अपना स्थान बदलना पड़ा और केदारनाथ जाकर रहने लगे। हिमालय की यात्रा कुछ पाने के लिए नही की जाती, वरन वहां जाकर संसार के सारे पदार्थ हिमालय के सामने बौने दिखने लगते हैं। यही इस यात्रा का निहितार्थ है। बद्रीनाथ और गंगोत्री के लिए अब मोटर वाहन सुलभ हो गए हैं, पर पहले लोग वहां पैदल जाते थे। बद्रीनाथ की यात्रा में वहां से पच्चीस किमी पूर्व गोविद घाट से अद्भुत दृश्य और शांति प्राप्त होती है। इस क्षेत्र को लोग विश्व के सभी क्षेत्रों से विरल मानते हैं। गोविंद घाट से ही सिखों के पवित्र हेमकुंड सरोवर की यात्रा आरम्भ होती है। आदि जगतगुरु आचार्य शंकर ने हज़ारो वर्ष पहले सुदूर दक्षिण के केरल में जन्म लेकर हिमालय की तीन हज़ार किमी से अधिक की यात्रा तीन बार पूरी की। यही नहीं, उन्होंने पूर्व से पश्चिम की यात्रा भी एक बार पूरी करके देश मे चार पीठें स्थापित की। यह कार्य उन्होंने कोई सम्प्रदाय या धर्म निर्मित करने के लिए नही किया, वरन सनातन धर्म को मौलिकता प्रदान करते हुए पुनर्स्थापित किया। आदि शंकराचार्य द्वारा सर्वप्रथम हिमालय के जोशीमठ (ज्योतिर्मठ) में पीठ स्थापित की गई। दुर्भाग्यवश, यही पीठ आजकल विवादित हो गयी है। इस पीठ पर शारदा पीठ के शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती और वासुदेवानंद सरस्वती के बीच अवर न्यायालय और हाइकोर्ट से होते हुए मुक़दमा सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है। वर्तमान में स्वरूपानंद जी ने कुछ ज़मीन लेकर मन्दिर और अन्य स्थापत्य निर्मित कर लिए, इसी से सटे क्षेत्र पर ऊपर पुराने भवन में वासुदेवानंद जी की पीठ चल रही है। स्वरूपानन्द जी पर आरोप है कि वह बद्रीनाथ क्षेत्र की पीठ हथियाने के लिए अपने को गुरु ब्रह्मानंद सरस्वती की जगह बोधाश्रमजी का शिष्य बताने लगे। ब्रह्मानंद जी के बाद शांतानंद और एक अन्य शंकराचार्य इस पीठ को सुशोभित किये और फिर वासुदेवानंद जी आसीन हुए। स्वरूपानन्द जी ब्रह्मानंद जी के बाद बोधाश्रम जी और फिर स्वयं पीठाचार्य बताते हैं। जो हो, लेकिन इस विवाद से नुकसान पहुच रहा है। यही नहीं आदि शंकराचार्य ने भारत की एकता और अखंडता के लिए बद्रीनाथ मंदिर की पूजा के लिए केरल के नंबूदरी ब्राह्मणों को नियुक्त किया। नंबूदरियो कि सहायता के लिए गढ़वाली ब्राह्मण रहते हैं। उनका दावा है कि इन दोनों शंकराचार्यो का दावा झूठा है यह तो नम्बूदरी ब्राह्मणों की पीठ है। परम्परा में भगवान बद्रीनाथ का स्वरूप जैसा मिलता है, उससे किंचित भिन्न यहां बद्रीनाथ पद्मासन में ध्यान करते हुए बिराजे हैं। हाथ चार ही हैं। दो अलग अलग हाथो में शंख और चक्र पर दो अन्य नीचे के हाथ ध्यान दशा में परस्पर मिले हुए हैं। इस स्वरूप से यह भी स्पष्ट है कि योग और ध्यान अपनी परम्परा में अति प्राचीन विधियां हैं। कहा जाता है भगवान विष्णु ध्यान करते गए और पत्नी लक्ष्मी ने बदरी पेड़ का रूप धारण कर उन्हें छाया प्रदान की, इससे वह बद्रीनाथ हुए। बद्री को बेर के पेड़ के रुप में जनसामान्य जानता है, पर बदरी बेर से भिन्न एक अन्य पेड़ हैं, यद्यपि वह पेड़ भी आजकल यहां मौजूद नहीं हैं। उत्तराखंड के चार धामों की यात्रा का क्रम यमुनोत्री से शुरू होता है। यमुना का उद्गम स्थल यमुनोत्री है। यमुना सूर्य की पुत्री हैं, इनका भाई यम है, पर माता अलग अलग हैं। यम के श्राप या दुःख को बहिन यमुना ने दूर किया था। यमी का उल्लेख वेद में भी है। इसलिए व्यक्ति असामयिक मृत्यु और उसके भय को दूर करने यहां आते हैं। गंगोत्री में व्यक्ति के पूर्वजों को भी मुक्त कर दिया जाता है, जैसा भागीरथ के प्रयासों से उनके पूर्वज राजा सगर के साठ हज़ार पुत्रों का उद्धार करने की कथा सर्वविदित है। गंगा का उद्गम स्थल गोमुख है। ग्लेशियरों से नदियां निकलती हैं। गंगा का ग्लेशियर गाय के मुख की आकृति की भांति है। गौमुख गंगोत्री से पैदल 18 किमी है और सरकार की अनुमति के बिना यहां नही जाया जा सकता है। यमुनोत्री और गंगोत्री के बाद केदारनाथ के दर्शन किये जाते हैं। केदारनाथ के पुजारी कर्नाटक के वीर शैव सम्प्रदाय के आचार्य हैं। केदारनाथ ज्योतिर्लिंग की आकृति भी प्रचलित शिवलिंग से भिन्न है। उत्तराखण्ड के चार धामों में अंत मे बद्रीनाथ की यात्रा सम्पन्न होती है। भगवान की पूजा उपासना में श्रृंगार इतना अधिक कर दिया जाता है कि उनका मूल स्वरूप ढंक जाता है। इससे लोगों को स्वरूपों की विलक्षणता पता नही लग पाती है। ओरछा में भी रामराजा पद्मासन में बिराजे हुए हैं और उनके दरबार मे दुर्गा माता भी विद्यमान हैं...१८ जून २०१९ फ़ेसबुक से * सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका॥ बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे॥3॥ भावार्थ:-शौर्य और धैर्य उस रथ के पहिए हैं। सत्य और शील (सदाचार) उसकी मजबूत ध्वजा और पताका हैं। बल, विवेक, दम (इंद्रियों का वश में होना) और परोपकार- ये चार उसके घोड़े हैं, जो क्षमा, दया और समता रूपी डोरी से रथ में जोड़े हुए हैं॥3॥ * ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना॥ दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा। बर बिग्यान कठिन कोदंडा॥4॥ भावार्थ:- ईश्वर का भजन ही (उस रथ को चलाने वाला) चतुर सारथी है। वैराग्य ढाल है और संतोष तलवार है। दान फरसा है, बुद्धि प्रचण्ड शक्ति है, श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष है॥4॥ * अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना॥ कवच अभेद बिप्र गुर पूजा। एहि सम बिजय उपाय न दूजा॥5॥ भावार्थ:-निर्मल (पापरहित) और अचल (स्थिर) मन तरकस के समान है। शम (मन का वश में होना), (अहिंसादि) यम और (शौचादि) नियम- ये बहुत से बाण हैं। ब्राह्मणों और गुरु का पूजन अभेद्य कवच है। इसके समान विजय का दूसरा उपाय नहीं है॥5॥ * सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें॥6॥ भावार्थ:- हे सखे! ऐसा धर्ममय रथ जिसके हो उसके लिए जीतने को कहीं शत्रु ही नहीं है॥6॥ sufficient precision, thus: — Principle 1. Pure Existence — Sat 2. Pure Consciousness — Chit 3. Pure Bliss — Ananda 4. Knowledge or Truth — Vijnana 5. Mind 6. Life (nervous being) 7. Matter World World of the highest truth of being (Satyaloka) World of infinite Will or con- scious force (Tapoloka) World of creative delight of existence (Janaloka) World of the Vastness (Maharloka) World of light (Swar) Worlds of various becoming (Bhuvar) The material world (Bhur) १९/६/२२ भगवान् कृष्ण का एक नाम है 'सत्कृति' भगवान् कृष्ण का एक नाम है 'सत्कृति'। सत्कृति का अर्थ है जो अपने भक्त के निर्याण (शरीर त्यागने के) समय में उसकी सहायता करते हैं। वराह पुराण में भगवान् हरि कहते हैं-- वातादि दोषेण मद्भक्तों मां न च स्मरेत्। अहं स्मरामि मद्भक्तं नयामि परमां गतिम्।। “यदि वातादि दोष के कारण मृत्यु के समय मेरा भक्त मेरा स्मरण नहीं कर पाता तो मैं उसका स्मरण कर उसे परम गति प्राप्त करवाता हूँ।“ मुकुंदमाला से.. कृष्ण त्वदीय पद पंकज पंजरान्तं अद्यैव मे विशतु मानस राज हंसः | प्राण प्रयाण समये कफ वात पित्तैः कंठावरोधनविधौ स्मरणम् कुतस्ते ।। हे कृष्ण! मेरा चित्तरूपी राजहंस आज ही आपके श्रीचरण रूपी कमल के केशर में जाकर प्रवेश करे, क्योंकि प्राण परित्याग के समय जब कफ, वायु तथा पित्त से कंठ अवरुद्ध हो जाएगा तब आपका स्मरण कैसे कर पाऊँगा. आदि शंकराचार्य कहते हैं बाल्ये दुःखातिरेको मललुलितवपु: स्तन्यपाने पिपासा नो शक्तश्चेन्द्रियेभ्यो भवगुणजनिता जन्तवो मां तुदन्ति । नाना रोगोत्थदुःखाद् रुदन परवशः शंकरं न स्मरामि क्षंतव्यो मे अपराधः शिव शिव शिव भोः श्रीमहादेव शंभो. आज अंतरराष्ट्रीय पितृ दिवस है। जिनके पिता जीवित नहीं हैं, उनका स्मरण तो आज वैसा ही हुआ, जैसा श्राद्ध कर्म में किया जाता है। कई व्यक्ति श्राद्ध को व्यर्थ बता देते हैं। कहीं यह कान घूमकर तो नहीं पकड़ा गया है। ऋग्वेद की एक ऋचा है.. ये अग्निदग्धा ये अनग्निदग्धा मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते । तेभिः स्वराळसुनीतिमेतां यथावशं तन्वं कल्पयस्व ॥ ॥ हमारे जिन पितरोंको अग्निने पावन किया है और जो अग्निद्वारा भस्मसात किये बिना ही स्वयं पितृभूत हैं तथा जो अपनी इच्छाके अनुसार स्वर्गके मध्यमें आनन्दसे निवास करते हैं । उन सभीकी अनुमतिसे, हे स्वराट् अग्ने ! ( पितृलोकमें इस नूतन मृतजीवके ) प्राण धारण करने योग्य ( उसके ) इस शरीरको उसकी इच्छाके अनुसार ही बना दो और उसे दे दो .२० जून २०२१ की फ़ेसबुक पोस्ट भागवत (1.3.28) में कहते हैं-- एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् | इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे || “ ये सब अवतार तो भगवान के अंशावतार अथवा कलावतार हैं, परन्तु भगवान श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान अवतारी ही हैं l २३/६/२२ मौलाना वाहिदुद्दीन की अनूदित पवित्र क़ुरान का विहगावलोकन किया, मौलाना साहब की भूमिका पूरी पढ़ी. इसमें कुछ ऐसा नहीं,क़ुरान में ऐसा कुछ नहीं, जिसे लेकर बखेड़ा खड़ा किया जाता है. ख़ुद मौलाना साहब ने कतिपय शंकाएँ उठाते हुए उनका निवारण इस भूमिका में किया है. गर्दन काटने और मारने की जो बातें क़ुरान में की गयी हैं, वे राज्य के लिए हैं, व्यक्ति के लिए नहीं. व्यक्ति अपना जिहाद शांतिपूर्वक किए गए आचरण से लड़ सकता है. हिंसक कार्यवाही की अनुमति राज्य के लिए ही है. कितनी सुखद अनुभूतियों को शब्दों में वर्णित नहीं कर सकते. बड़ी बड़ी अनुभूतियाँ शास्त्रों और गुरुदेव के ग्रंथों में आयी हैं, पर उनकी उन्हें आज्ञा रही, इसलिए वे आयी, मुझे न ऐसी आज्ञा है, न सामर्थ्य कि उन्हें व्यक्त कर पाएँ. २५/६/२२ कर्तृत्व की मूल कृति-- इच्छा नहीं । इच्छा का उदय पूर्व संस्कार से होता है ---- उस इच्छा की ओर yield करना या नहीं करना , यह कृति है । यही कृतित्व है । देवता कर्ता नहीं हैं ,उनकी देह कर्मदेह नहीं । क्योंकि उन्हें इच्छा होती है और उसी क्षण उसकी पूर्ति होती है । कृति का अवकाश नहीं रहता , प्रवृत्ति- निवृत्ति का अवकाश नहीं रहता , choice नहीं रहता । कर्तृत्व जब नहीं रहता , तब भी इच्छा का उदय होता है ।उस इच्छा का मूल क्या है ? स्वभाव । यह स्वभाव दो प्रकार का है ; ( क )योगमाया और ( ख) माया पूर्वस्थल में इच्छा का उदय होता है , उसकी पूर्ति होती है -- कृति की आवश्यकता नहीं होती । इच्छापूर्ति -- आनन्दावस्था । इच्छा के उदित होने से विलम्ब क्यों नहीं होता ? क्योंकि चिंतामणि राज्य है , पूर्ण राज्य -- विलम्ब का हेतु नहीं । उत्तर में राज्य अभाव और अपूर्णता का है । इसलिए , इच्छा का उदय तो होता है ,लेकिन तुरन्त उसकी पूर्ति नहीं होती । इसीलिए प्राप्ति के लिए कृति होती है । यहाँ कर्तृत्व का आरम्भ है । पूर्ण के राज्य में कर्तृत्व नहीं । अभाव के ही राज्य में कर्तृत्व है । कर्तृत्व के जाने से ही चेष्टा ,क्रिया आदि , moral life है । सब गया ,माया कट गई । तब लीला । यह योगमाया का राज्य है । पौर्णमासी का राज्य । स्व संवेदन / पृष्ठ 283 Date 23/ 1/ 1925 आग पर कागज़ रखने से जलता है । आग जलाती है इसलिए जलता है । दाह कार्य में आग का कर्तृत्व है । अतएव, यह भी वास्तव में स्वाभाविक कार्य नहीं । दाह करना आग का स्वभाव है -- यह महज लौकिक बात है । इस कार्य के मूल में भी इच्छा है । इसलिए ,इच्छा से यह नियमित हो सकता , स्तम्भित हो सकता है । संसार के सभी कार्यों का मूल इच्छा है । इच्छा और स्वभाव में भेद क्या है ? इच्छा की पूर्णता ही स्वभाव या आनन्द है । पूर्ण इच्छा = स्वभाव । स्वभाव का विकार नहीं -- इसीलिए , परमेश्वर की इच्छा या पूर्णइच्छा निर्विकार है । आधार- भेद से वही इच्छा नाना प्रकार से अपूर्ण होती है , सीमाबद्ध होती है , विकृत होती है । हम साधारणतया जिसे इच्छा कहते हैं , उसका उदय और अस्त है , वह जन्य और विकृत है । परमेश्वर की इच्छा नित्य प्रकाशमान है , निर्विकार -- इसीलिए वह स्वभाव है । वह पूर्ण है , इसलिए कोई उसे इच्छा नहीं कहते । वही आनन्द है । वह सदा एकरस है , इसलिए , उसे पूर्णता या स्वभाव कहना ही अच्छा है । आधार के सम्बंध से वही सीमाबद्ध होती है । तब वह इच्छा होती है -- पूर्ण के स्पर्श से आनन्द होती है । स्वभाव या पूर्ण निराधार है । इच्छा या आनन्द को लौकिक अर्थ में प्रयोग करने के लिए विषय - सम्बंध चाहिए , आधार -सम्बंध चाहिए । बिंदु ही मूल आधार है । उसी को ग्रहण करने से इच्छा का स्फुरण होता है , आनन्द का विकास होता है । वही सृष्टि का उन्मेष है । बिंदु का त्याग करने से ही पूर्णता है -- विशुद्ध स्वभाव । वह नित्यानन्द पारमैश्वर्य है -- उसका विकास और लय नहीं । स्व संवेदन पृष्ठ 329 Date 23 , 6 , 1927 आज एक और पुस्तक डाक से प्राप्त हुयी, श्री अरबिंदो की सीक्रेट आँफ वेद, ईबुक के रूप में जब इस पुस्तक को देखा तो मंगाए बिना न रहा गया. कभी-कभी अर्थोन्मेष की अनुभूति परम तक पहुचाने का आभास कराती है. अर्थ का यह प्रसार ही उसे मुद्रा या धन के अर्थ की सार्थकता व्यक्त करती है. धन्य करने के कारण वह धन है, प्रसन्न करने के चलते वह मुद्रा है. शब्द का अर्थ भी हमें यही अहसास कराता है. किसी शब्द के दो अलग अलग अर्थ बाद में विकसित हुए, मूलतः या तत्वतः एक शब्द का एक ही अर्थ है. गो का अर्थ प्रकाश है, गाय का अर्थ विकसित हुआ. अश्व का अर्थ प्राण के एक रूप से है, बाद में इससे घोड़ा का अर्थ विदित हुआ. ब्रह्म से अतीत भूमि में संचित सत्ता ही षोडश कलामय पूर्ण सत्ता है । उसकी पन्द्रह कला एवं सोलहवीं कला का त्रिपादांश ज्ञान राज्य में है । एक कला का पादांश मात्र ( 1/4 ) कार्य करने के लिए मर जगत में अवतीर्ण है । ज्ञान राज्य में अवशिष्ट पन्द्रह कला विश्वगुरु भृगुराम के रूप में स्थित है । बाकी त्रिपादांश ( 3/ 4 ) कला भृगुशक्ति के आधारभूत अचलानन्द या महातपा रूप से अवस्थित हैं । मात्र एक कला के पादांश ( 1/ 4 ) का प्रकाश ( इस मर जगत में ) विशुद्धानंद के रूप से हुआ । इन सब को मिलाकर विशुद्धसत्ता ( षोडशकलायुक्त ) हैं पुकार ( आर्तपुकार ) यदि माँ रूप है । अचलानन्द हैं , अनादि स्वरूप । अचल की क्षुब्ध अवस्था " आदि माँ " , "माँ की पुकार " या भावशक्ति है । आदि शक्ति से जिनका स्फुरण हुआ , वे हैं "कर्मशक्ति या श्यामा शक्ति । " जिनके कारण यह स्फुरण हुआ , वे ज्ञान या उमाशक्ति पद वाच्य हैं । उमा का स्वरूप है " ॐ माँ " अतएव अचल के तीन कोण हैं आदि माँ ( आदि शक्ति ) , श्यामा माँ ( कर्मशक्ति ) एवं उमा माँ ( ज्ञान शक्ति ) वहीं से ' ॐ माँ ' शब्द निर्गत हुआ पूर्व वर्णित एकपाद विशुद्धसत्ता , इस महाशब्द को चतुर्दश भुवन का अतिक्रमण कर , इस मर्त्यलोक में लाई । ज्ञान राज्य में ' ॐ माँ ' ध्वनि निरन्तर उत्थित हो रही है । किन्तु धारक में अभाववश , धृत न होकर वापस लौट जाती है । विशुद्धसत्ता का अवतरण मातृ स्वरूप आसन प्रतिष्ठा पृष्ठ 32 २७/६/२२ सृष्टि से परे उस निर्गुण ब्रह्म या परमपिता को कोई भी तब तक प्राप्त नही कर सकता जब तक वह पहले सृष्टि में व्याप्त कूटस्थ चैतन्य या पुत्र को अपने मे प्रकट न कर दे। गीता में आये मंत्र ॐ तत सत के अर्थ से इसे समझा जा सकता है। कूटस्थ चेतना परमपिता का एकमात्र पुत्र है। इसमें लिंग या जेंडर का प्रश्न नहीं है। वैसे तो सब प्राणी परमपिता की संतानें हैं, पर मनुष्य में ही यह पुत्र प्रकट होने की संभावना पाई जाती है। पितृ ऋण की अदायगी के नाम पर पुत्र पैदा करने की अभिधात्मक व्याख्या अथवा मैं ही ईश्वर का एकमात्र पुत्र हूँ, ऐसी व्याख्या करने से सनातन, ईसाई और अन्य शास्त्रों को सही रूप में नही समझा गया। एक बार गलत व्याख्या को पकड़कर आगे बढ़ते जाने से वह गलत ही बनी रहती है। लेखिका मैत्रेयी पुष्पा की तीन बेटियां हैं, इस पर एक बार उनसे पूछा कि ऐसा करने के पीछे क्या कारण रहा! उन्होंने स्पष्ट कहा पुत्र के लिए समाज का दबाव था। इससे अधिक हम लोग जोखिम नही ले सकते थे। जनसंख्या के बारे में पापुलेशन ट्रेंड वेबसाइट पर दिये ग्राफ कहते हैं कि आने वाले कुछ दशकों में भारत की जनसंख्या की वृद्धि दर और संख्या वर्तमान दर से कम हो जाएगी, पर जनसंख्या को एक तर्कसंगत स्तर पर उससे पहले अगर आज का समाज ले जाये तो उसमे हर्ज क्या है! फ़ेसबुक २३/६/२१ २८/६/२२ गाँठ को संधि भी बोलते हैं. कश्मीर में इसे संध कहा जाता है. यह एक खोज है, अवसर है दो छोरों को जानने का, उन्हें जोड़ने का. सब धर्मों या सम्प्रदायों की एकता संभव नही है. तत्व की उपलब्धि अनुभूति का विषय है. धार्मिक आचार और व्यवहार उस उपलब्धि को प्राप्त करने के साधन हैं. यह उपलब्धि प्रचार नहीं, परिवर्तन नहीं, फिर किस विधि से कोई अन्य जान पाएगा कि उपलब्धि क्या है🙏 भारतीय संस्कृति के सारे अंतर्विरोध द्वयर्थक या बहुअर्थक श्लोकों की अलग अलग व्याख्या के कारण है. वेदों का एक भाष्य आचार्य सायण का है और दूसरा भाष्य अन्य अनेक मनीषियों का. जब तक द्वयर्थी भावों का ग्रहण नहीं हो जाएगा, सार नहीं मिल पाएगा....

Tuesday, May 31, 2022

यस्तु क्रियावान स योगी मई २०२२

यस्तु क्रियाबान् स योगी १/५/२२ Then I told him to practise Kriya Yoga, with this further instruction: "After practising your Kriya, think that the divine Light is going into your brain, soothing it, calming your nerves, calming your emotions, wiping away all anger. And one day your temper tantrums will be gone." Not long after that, he came to me again, and this time he said, "I am free from the habit of anger. I am so thankful. The Divine Romance Pgno 334 २/५/२२ अर्थ शब्द का परिचय होता है और धन को भी अर्थ कहते हैं. दोनो मेन तत्विक अंतर नहीं हैं. बाह्य रूप में धन का पसारा संसार चलाता है, आंतरिक रूप में शब्दार्थ का पसारा ही संसार को गतिमान किए हुए है. स्वप्न में जाग्रत की करणीयता होने लगे तो समझना चाहिए जाग्रत अवस्था उचित ढंग से बीत रही है. स्वप्न अवस्था जाग्रत और सुषुप्ति की भाँति अवश्यंभावी है. जब सुषुप्ति अधिक होती है तो हम स्वप्न में चले जाते हैं. स्वप्न दशा व्यक्ति के जीवन यापन का पैमाना है, इसे कोई और नहीं, डॉक्टर भी नहीं, न कोई यंत्र ही माप सकते हैं, उसके प्रमाता हम ही हैं. अतः अपनी विकास यात्रा को हम ही जान सकते हैं, कोई अन्य नहीं. ५/५/२२ ध्यानं विना भवेन्मूकः सिद्धमंत्रोsपि साधकः. बग़लामुखी रहस्यम् मरणासन्न व्यक्ति अस्वीकृति, क्रोध, समझौता, अवसाद और स्वीकृति इन अवस्थाओं से होकर निकलता है। मरणासन्न व्यक्ति को प्राण त्यागने के सम्बंध में संवेदनशीलता और कौशल के साथ बताया जाना चाहिए। अधिकतर ऐसे व्यक्ति जान ही लेते हैं, परन्तु वे चाहते हैं डॉक्टर या सम्बन्धियों से इस बारे में पता चले। अगर सम्बन्धी नहीं बताते तो मरणासन्न व्यक्ति को लग सकता है उनके सम्बन्धी इस समाचार का सामना नही कर सकते। फिर वे भी इस विषय को नहीं उठाते। इससे वे अकेला और व्यथित अनुभव करते हैं। मरणासन्न व्यक्ति के साथ काम करने का अर्थ है कि हम अपनी वास्तविकता को दर्पण में देख रहे हैं। मरणासन्न व्यक्ति द्वारा सजग, सचेत व प्रशांत अवस्था के बीच अंतिम सांस लेना बहुत महत्वपूर्ण है। मरणासन्न व्यक्ति को पूरी शांति व मौन के बीच जाने दिया जाए। मरणासन्न व्यक्ति के पास एक सच्ची बुद्ध प्रकृति है, भले उसे इसका अहसास हो या न हो, पर वह सम्पूर्ण प्रबोध पाने की सम्भावना रखता है। मरणासन्न व्यक्ति को दाईं करवट लेटते हुए निद्रालीन सिंह की मुद्रा अपनानी चाहिए। अगर आपने मरना सीख लिया तो अपने जीना सीख लिया और जीना सीख लिया तो इस जन्म के साथ साथ अगले जन्मों के लिए भी जीना सीख लिया। उक्त विवरण जीवन और मरण की एक पुस्तक में दिया गया है। इस पुस्तक में मरण की प्रक्रिया और अन्य बातों का सविस्तार वर्णन दिया गया है। विगत वर्ष आज के दिन की फ़ेसबुक पोस्ट ६/५/२२ जैसे दिल्ली में लघु भारत बसता है, ऐसे ही क़रीब-क़रीब श्रीनगर में लघु विश्व का निवास है. श्रीनगर में एअरपोर्ट से उतरने के बाद श्रीनगर शहर को देखते आ रहे थे. यहाँ एरुशलम, इस्तांबुल, शारजाह, अरब, करॉची न जाने कितने देशों और उनके शहरों के नाम पर प्रतिष्ठान चलते हुए मिले. ब्राज़ील कॉफ़ी शाप को एक वहीं की महिला चलाते हुए मिली, वह दुकान के साथ अपने ३-४ वर्ष के बेटे को भी संभाल रही थी. ७० रुपए में ब्लैक कॉफ़ी उपलब्ध हुई. दूध की कॉफ़ी १०० रुपए में थी. डल झील के घेरे से आते समय आटो चालक वली मोहम्मद ने जब अपने से इशारा करते हुए बताया कि इस पहाड़ पर आदि शंकराचार्य पधारे थे तो मन कितना हर्षित और गर्वित हुआ. उसने कहा फ़ोटो ले लो. वली मोहम्मद ने आगे पूछा कि क्या उत्तर प्रदेश में भी मुसलमान रहते हैं. श्रीनगर में मस्जिदों की संख्या बहुतायत में है, आज शुक्रवार को मस्जिदों में उनके प्रवचन भी होते दिखे. ४ मई को हुयी ईद के त्योहार का असर यहाँ आज भी दिखा. शुक्रवार को साप्ताहिक बंदी रहती है. हिंदी में नाम पट्टिकाएँ केवल भारत सरकार के कार्यालयों की ही दिखीं, शेष उर्दू और अंग्रेज़ी में, वरन अंग्रेज़ी में ९० प्रतिशत तक. यहाँ की बोलचाल की स्थानीय भाषा उर्दू नहीं है, कश्मीरी है. यहाँ अरब और अन्य देशों की इम्पोर्टेड वस्तुएँ खूब मिलती हैं, यह सामान देश के अन्य बाज़ारों में इतना नहीं दिखता. आज यहाँ एक घंटे से अधिक झमाझम बारिश हुयी. स्वेटर पहनने लायक़ सर्दी है, सुरक्षा कारणों से सिम दूसरी मिली नहीं, जीयो की प्रीपेड सिम यहाँ काम नही करती. होटेल के वाइफ़ाई से इंटर्नेट चल रहा है. सायं काल होटेल मीडोस हिल साइड के अपने कमरे में जब ध्यान में बैठे तो गुरुदेव की स्मृति हो आयी. उनके चरणों में अपने को विलीन किया. यहाँ की आबोहवा में व्याप्त उनकी उस समय की यात्रा तिर रही है, इसका आभास हुआ. यह जानकर अश्रुपात होता रहा. भक्ति जल में सींच कर मानो प्रेम पुष्प अर्पित करता रहा. गुरुदेव की अनुभूति का इतना सघन अहसास बहुत कम हुआ है, कदाचित् इस सघनता से पहली बार. उनके साथ हम हुए और गुरुदेव तो हमारे साथ ही हैं. श्रीनगर के ऊँचे-ऊँचे पेड़ों और उनके ऊपर की ओर उठी हुयी पत्तियों को देखकर लगता है यहाँ की प्रकृति के कमल चक्र खिले हुए या जाग्रत हैं. उसी तरह जैसे षट्चक्र भेदन में ऊर्जा कमल खिल जाते हैं. लोग तो मिश्रित प्रकृति के ही सर्वत्र हैं, पर प्रकृति यहाँ की जीवंत है. दिल्ली के एअरपोर्ट पर प्रार्थना कक्ष बना दिखा, जैसे गुरुदेव ध्यान की आदत को बिना नागा पूरा करने के लिए परिस्थिति निर्माण कर रहे हों. एक के बाद एक छोटी, मामूली या बड़ी गतिविधि संचलन में लयबद्धता आ गयी है. सारी गतिविधियाँ मामूली ही हैं, आँख खोलने के मानिंद, आँख के भीतर से होकर जो संसार है, घर है, मूल ठिकाना है, वहाँ तक पहुँचने का रास्ता आँख से दिखने वाले संसार से होकर गुजर रहा है. लौकिक संसार की बस यही उपयोगिता है. प्रार्थना कक्ष में ध्यान करते समय बहुत से नमाज़ी आए. उनसे हमें समस्या नहीं हुयी और न उन्होंने हमसे कोई समस्या व्यक्त की. हर पूजा करने वाला व्यक्ति धार्मिक नहीं, उसी प्रकार हर नमाज़ी भी अल्लाह को प्राप्त नहीं. कर्मकांड की तरह चीजें होती देखी जाती हैं. ईश्वर का साक्षात्कार किए हुए व्यक्तियों को संगठन बनाने की आवश्यकता नहीं रह जाती. न वे शेष समाज से अलग दिखते हैं और न उनके व्यवहार में ऐसा परिवर्तन दिखता है कि वे संसार का ध्यान खींचें. जब तक आकर्षण नहीं रहेगा तब तक संगठन या राज्य कैसे चल सकता है. इसलिए यह पता कर पाना बेहद मुश्किल है कि किस धर्म के मानने वाले व्यक्ति अधिक संख्या में आत्मदर्शी हुए हैं. आत्मदर्शियों का संगठन कैसे बन सकता है और संगठन बनाकर चले तो अभेदावस्था कैसे रह सकती है. और अगर आत्मदर्शियों का ज्ञानगंज की भाँति अलग ठिकाना हुआ तो संसार ही फिर कैसे रह सकता है, फिर प्रभु की लीला क्या और आनंद क्या! 7/5/22 चैतन्यमात्मा शरीरं हविः. प्रयत्नः साधकः त्रितयभोक्ता वीरेशः त्रिषु चतुर्थं तैलवदासेच्यम् यथा तत्र तथान्यत्र ८/५/२२ कश्मीर पर बहुत कहा लिखा गया है. पर हम अपने अनुभव से दो तीन बातें कह सकते हैं. कश्मीर की जन संरचना विलक्षण है. यहाँ के हिंदुओं को पलायन करने पर विवश किया गया, यह यहाँ के इतिहास का स्याह पक्ष है. दुनिया भर के मुसलमानों के यहाँ बहुत से संप्रदाय निवास करते हैं, उनमें आपस में बहुत मतभेद और ऊँच नीच भी है, पर इस्लाम धर्म की छतरी के नीचे वे अपनी एकता भी महसूस करते हैं. अपने को ऋषि कहने वाले नुंद ऋषि के वाख (पद) रमज़ान जैसे पवित्र माह में चरारे शरीफ़ और खानकाह मस्जिदों में पढे जाते है. यह अनोखी बात है, इस्लाम में ग़ैर इस्लामिक चीज़ बर्दाश्त नहीं होती. नुंद मुस्लिम थे, पर अपने को ऋषि कहते थे. कश्मीर में मुस्लिमों के गुरु हिंदू और हिंदुओं के गुरु मुस्लिम होते आए हैं, अब भी यह परंपरा विद्यमान है, इसीलिए यहाँ के उपनाम दोनों सम्प्रदायों में एक से देखे जाते हैं. ज़फ़र साहब ने बताया उनके परदादा अवतार भट का नाम वे कैसे बदल सकते हैं. बारहवीं शताब्दी की भक्तिन लल्लद (लल्लेश्वरी) के वाख जब उद्धृत किए जाते हैं तो हिंदू मुस्लिम दोनों उन्हें सुनकर रोमांचित होते हैं. खीर भवानी के मंदिर में हिंदू मुस्लिम दोनो जाकर अपनी-अपनी तरह से पूजा करते हैं. यह बात यहाँ के पंडितों ने ही बतायी है. गणपतिहार में गणेश की मूर्ति तोड़ दी गयी, कई मंदिर नष्ट किए गए. ऐसे ही एक सूर्य मंदिर फिर से बनने के लिए कल ही शिलान्यास हुआ है. पंडितों को मामूली क़ीमत पर अपनी जायदाद बेचकर या छोड़कर यहाँ से जाना पड़ा, वे वापस आएँ, ऐसा होना मुश्किल अवश्य है, पर असम्भव तो नहीं. यह भी है कि जो जहाँ बस जाता है, वह वहीं का हो जाता है. कश्मीर के लोग चाहते हैं खूब पर्यटक आएँ, बस खर्च करके चलते भी बनें. यह बात सब जगहों पर लागू होती है. कश्मीर में पहले नाग जाति का अस्तित्व रहा, फिर बौद्धों के बाद ८वी शताब्दी से शैव दर्शन का इतिहास मिलता है. १४वी शताब्दी के आसपास से इस्लाम का आगमन यहाँ हुआ. अब यहाँ इस्लाम ही इस्लाम है, सुबह की नमाज़ सुनने के समय मानो सामगान हो रहा हो, ऐसा लगता है, शेष भारत की मस्जिदों में नमाज़ पढ़ने का ऐक्सेंट अलग है. आज की फ़्लाइट पौने आठ बजे सुबह की थी. जहां ठहरे वहाँ टैक्सी आने में विलंब देख रोड पर आए तो एक माँ बेटी टहलते हुए मिलीं, उनसे कहा तो बेटी इकरा ने तुरंत अपने भाई को फ़ोन लगाया. १० मिनट में टैक्सी लाने को कहा, मुझे लगा सुबह का समय है, सर्दी यहाँ सदा रहती ही है, फिर एक और मोर्निंग वॉकर के साथ चल दिया पैदल ही, दूसरी शेयरिंग गाड़ी में बैग रखा इतने में इकरा का भाई आकिब आ गया, बड़े आराम से पर शीघ्रता से एअरपोर्ट छोड़ दिया. हवाई यात्रा करने में फ़्लाइट पकड़ने का बड़ा तनाव रहता है, सुरक्षा कारणों से निर्धारित समय से बहुत पहले जाना होता है. फिर फ़्लाइट समय पूर्व भी चल देती है, अगर उसके सारे यात्री जहाज़ में बैठ जाएँ. इसी तरह अपने गंतव्य पर वह पहले पहुँच भी जाती है. कश्मीर की जलवायु इतनी अच्छी है कि यहाँ की धरती को जन्नत कहा गया है. यहाँ के घने और ऊँचे चिनार पेड़ इसे विशिष्टता प्रदान करते हैं. उत्तराखंड के हिमालय में चिनार पेड़ नहीं हैं, यहाँ बहुतायत में हैं. यहाँ शंकर पल यानि नदी के बीच एक बड़ी सी शंकर शिला है, जहां शैव दर्शन का प्रारंभिक ग्रंथ शिव सूत्र वसुगुप्त को उपलब्ध हुआ था, यह स्थान अब सेना के क़ब्ज़े में है, आज सेमिनार के कुछ साथी अनुमति लेकर वहाँ जा रहे हैं, पर हमें अब वापस होना है... ९/५/२२ एक स्वाभाविक जीवन क्रम में सभी उदात्त पहलुओं का समावेश हो जाता है. निसंदेह प्रकृति स्वयं एक सक्षम शिक्षक है, जिसके चलते आदिम मनुष्य भी कितना सहज दिखता आया है. विभिन्न समूहों और व्यक्तियों में हो रही अंतःक्रियाएँ उन्हें समुन्नत करेगी. ज़ोर ज़बरदस्ती इन अंतः क्रियाओं में सम्भव नहीं. क्रिया और प्रतिक्रिया भी अंततः अंतःक्रिया ही बनेगी🙏 आजकल वेदांत और कश्मीरी शैव पद्धतियों की बारीकियों में जा रहा हूँ. जब दोनो मेन अंतर्विरोध दिखता है तो गुरुदेव की बातें विवेक ज्ञान करा देती हैं. वास्तव में बोध के बाद अंतर रह ही नहीं जाता. वेदांत जगत् को मिथ्या कहता है, इसका अर्थ शैव दर्शन में अनिर्वचनीयता से लिया गया है. मिथ्या का अर्थ झूठा नहीं है. पर जब संसार का बोध हो जाता है तो यह झूठ भी लगता है और अनिर्वचनीय भी. तब इसका आनंद बौद्धों के शून्यता के बोध के बाद भी मिलता है. शैवों ने पहले से इसे आनंद के रूप में लिया है, वेदांत और बौद्ध में यह फलश्रुति के रूप में लभ्य है. गुरुदेव ने सूत्र रूप में कह दिया है संसार में रहो, पर संसार का होकर नहीं. लाहिरी महाशय कहते हैं न कोई तुम्हारा है और न तुम किसी के हो. टुकड़े-टुकड़े विभक्त करके चीजों को समझने की उत्कंठा पश्चिम में अद्भुत रूप में पायी जाती है, इसीलिए उनके यहाँ भौतिक विकास ने अपूर्व छलांग लगायी है. गुरुदेव इसका सामंजस्य करते हैं और कहते हैं हमें पश्चिम का भौतिक विकास और भारत की आध्यात्मिकता ग्रहण करने की आवश्यकता है. गुरुजी ने एक मुकम्मल या समग्र उपाय उन सिद्धांतो को समझने के लिए दिया है, यह सिद्धांत विमर्श और दर्शन शास्त्र की विषयवस्तु भर बनकर रह जाते हैं, अगर उनके भीतर का बोध प्राप्त न हुआ. 10 मई की पुरानी फ़ेसबुक पोस्ट आदि शंकराचार्य का श्लोक नलिनीदलगतजलमतितरलं तद्वज्जीवनमतिशयचपलम्। क्षणमिह सज्जनसंगतिरेका भवति भवार्णवतरणे नौका।। स्वामी श्री युक्तेश्वर द्वारा the holy science में किया गया भावार्थ... कमल के पत्ते पर स्थित पानी की बूंद के समान जीवन सदैव असुरक्षित और अस्थिर रहता है। एक पल के लिए भी सज्जन की संगति हमें बचाकर हमारा उद्धार कर सकती है। ईश्वर क्या है और जगत क्या है! इस श्लोक में कितने सुंदर ढंग से निरूपित किया गया है- अस्ति भाति प्रियं रूपं नाम चेत्यंशपंचकम। आद्यत्रयं ब्रह्मरूपं जगदरूपं ततो द्वयम।। अर्थात अस्ति(existence), भाति (cognizability- that which makes one aware of the existence of an object), प्रिय(attractiveness), रूप (form) तथा नाम (name)‒इन पाँचोंमें प्रथम तीन ब्रह्म के रूप हैं और अन्तिम दो जगत्‌ के ।’ ईश्वरकृष्ण की सांख्यकारिका में प्रकृति पर क्या अद्भुत कारिकाएँ कही गयी हैं, उनमें से एक है- प्रकृतेः सुकुमारतरं न किंचितस्तौतमे भतिर्भवति. या दृष्टास्मीति पुनर्न दर्शनमुपैति पुरुषस्य. कारिका ६१ प्रकृति अत्यंत लज्जावती है, जब उसे तनिक भी संशय होता है कि मैं देखी गयी हूँ तो बस फिर पुरुष के सम्मुख भूले से भी नहीं आती. अब यह सूफ़ी भजन पढ़ें... हमने बेपर्दा तुझे माहजबीं देख लिया अब ना कर पर्दा के ओ पर्दानशीं देख लिया हमने देखा तुझे आंखों की सियाह पुतली में सात पर्दों में तुझे पर्दानशीं देख लिया हम नज़र-बाज़ों से तू छुप ना सका जान-ए-जहां तू जहां जाके छुपा हमने वहीं देख लिया तेरे दीदार की थी हमको तमन्ना, सो तुझे लोग देखेंगे वहां, हमने यहीं देख लिया. उसकी हसरत है जिसे दिल से भुला भी न सकूँ ढूँढने उसको चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ. ये अमीर अपनी ग़ज़ल है कोई आयत तो नहीं कि घटा भी न सकूँ और बढ़ा भी न सकूँ. अमीर मीनाई ११/५/२२ आ संहार और ई सृष्टि है. प्रथम शिव और द्वितीय शक्ति है. १३/५/२२ साधना के लिए विशेष उग्र प्रयत्न नहीं करना चाहिए। साधना मात्र वायु घटित है। यहां तक कि प्राणायाम आदि न कर तीव्र रुप से ध्यान करने पर वायु की क्रिया अवश्य होगी। इस समय यथासंभव वायु की साम्यावस्था आवश्यक है, इसलिए नित्य कार्य के लिए जितना आवश्यक है, उसके अतिरिक्त किसी प्रकार की क्रिया या चिंता वर्जनीय है। नित्य-कर्म के साथ भक्तिभाव और आत्म निवेदन के भावों को मिलाकर रखने का प्रयत्न करना चाहिए। तब कर्म भावजनित त्रुटियाँ नहीं होंगी। एक मात्र उनकी ओर लक्ष्य रखते हुए प्रकृति के स्रोत में अपने को छोड़ देना चाहिए, इससे अभिमान शून्य द्रष्टा भाव में स्थिति होती है, तब कृत और अकृत कार्यों में कोई पार्थक्य नहीं रहता। कारण, प्राकृतिक प्रवाह का चेतन साक्षी-स्वरूप जो अपने को समझता है, वह अकर्ता होकर भी क्रतसन्नकर्मकृत हो जाता है। ज्ञान और कर्म के समन्वय का यही गूढ़ रहस्य है। 🥀🌼🌺🌺🌼🥀 श्रीगुरु बाबा गोपीनाथ कविराज जी (सनातन साधना की गुप्त धारा) क्ष- देश त्र- काल ज्ञ-वस्तु खाँड़ का कुत्ता, गधा, चूहा, बिल्ला मुँह में डालो ज़ायक़ा है खाँड़ का. १४/५/२२ पुराणो में आता है कि पुं नाम के नरक से पुत्र बचाता है. यह पुत्र कौन है और कैसे पैदा होता है. इसे बिना जाने हम सब इसे भौतिक रूप में ग्रहण कर लेते हैं. और तरह तरह की भ्रांतियों और विपदाओं के शिकार हो जाते हैं. हमारे शरीर की रोग और वृद्धता जन्य समस्याओं के कारण बहुत से व्यक्तियों को यह व्यवहार में आवश्यक भी लगता है, इसका समुचित समाधान खोजना संसार और उसकी सभ्यता के विकास पर निर्भर है, पर वास्तविक पुत्र ॐ तत्सत् की उपलब्धि होना है. सत से सुत विकसित हुआ है और तत से तात, तात का अर्थ पिता और पुत्र दोनो होता है. तत्सत् में पिता और पुत्र का ही सम्ब्न्ध निहित है.. यह व्यक्ति की ही उपलब्धि है, समाज की नहीं. इसे पाने के लिए व्यक्ति को जनेऊ या यज्ञोपवीत धारण करना पड़ता है जनेऊ धारण षट्चक्र भेदन है, जहां तिलक या बिंदी लगाते हैं उस कूटस्थ को सदा उद्बुद्ध रखना होता है. आदि कोटि और अंत कोटि का निभालन करते हुए शिखा बंधन करने के बाद यह कूटस्थ उद्बुद्ध होता है. तब तत्सत् कूटस्थ पर पुत्र उसी प्रकार उदित हो जाता है जैसे नदी की जलधार के बीच की रेत दिखने लगती है. पुत्र जन्म नदी की इस रेत के बनने की भाँति कठिन होता है. पर असल पुत्र यही है, सांसारिक संतति उसकी छाया है. पुत्रोदय ब्राह्मण बनकर ही संभव है. ब्राह्मण होने की निशानियाँ हैं शिखा, यज्ञोपवीत और तिलक. एक ब्राह्मण ही पुत्र जन्म कर सकता है, पुत्र जन्म होने पर वह ब्राह्मण ही रहता है. ब्राह्मण होना भी क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बने बिना संभव नहीं.. त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी। त्वं जीर्णो दण्डेन वञ्चसि त्वं जातो भवसि विश्वतोमुखः॥ यजुर्वेद श्वेताश्वतरोपनिषद आ ४ मं ३ तुम' ही स्त्री (प्रणयिनी) हो तथा 'तुम' ही पुरुष हो; 'तुम' ही कुमार हो एवं 'तुम' ही पुनः कुमारी कन्या हो; 'तुम' ही तो जरा-जीर्ण वृद्ध पुरुष हो जो अपने दण्ड के सहारे झुककर चलता है। अहो, 'तुम' ही तो जन्म लेते हो तथा सम्पूर्ण विश्व तुम्हारे ही नाना रूपों से परिपूर्ण हो. नीलः पतङ्गो हरितो लोहिताक्षस्तडिद्गर्भ ऋतवः समुद्राः। अनादिमत्त्वं विभुत्वेन वर्तसे यतो जातानि भुवनानि विश्वा॥। यजुर्वेद श्वेताश्वतरोपनिषद आ ४ मं ४ तुम' ही नील-विहंग हो तथा हरित एवं लोहिताक्ष हो; तडित्-गर्भ हो तथा नाना ऋतुएँ एवं अनेक सागर हो। 'तुम' अनादि हो तथा 'तुम' विभुभाव से सर्वत्र विचरण करते हो जिससे सकल भुवनों का उद्भव हुआ है। १७/५/२२ अयोध्या के राममंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद इस तरह के विवादों का पटाक्षेप हो जाना चाहिए था, पर ज्ञानवापी परिसर के सर्वे के बाद परिस्थिति बदल गयी है. जो मुक़दमे धर्मस्थल या उसकी पूजा को लेकर १९९१ के उस ऐक्ट से पहले दाखिल हुए और उन पर किसी कारण निर्णय नहीं हुआ या सुनवाई नहीं हुयी, उन मुक़दमों को १९९१ के ऐक्ट की परिधि से बाहर रखकर कोर्ट को सुन लेना चाहिए. तरह-तरह की अफ़वाहों पर विराम लगने के लिए यह आवश्यक है. किसी धार्मिक स्थल पर दूसरे धर्मावलंबी भी अगर जाना चाहें तो सुरक्षा जाँच से गुजरते हुए इसे बेरोकटोक खुला रखा जाना चाहिए. ताजमहल, क़ुतुबमीनार और जो-जो स्थान लोगों ने जाँच के लिए याचित किए हों, उन सबकी जाँच हो जाए, क्या समस्या है. एक गतिशील समाज के लिए अपने सब टेबुओं पर विचार करते रहना ग़लत नहीं, पर नए-नए कथानक और प्रवाद फैलाने से बचना चाहिए. अफ़वाहें और शंकाएँ भी तभी अधिक फैलतीं हैं जब उन्हें रोका जाए या उन पर समुचित विचार और निष्कर्ष न निकाले जाएँ. भारत में सबसे अधिक शिव की ही पूजा होती आयी है, यह पूजा सबसे प्राचीन भी भई. माँ की पूजा भी शिव पूजा से पृथक नहीं. इसके बाद कृष्ण, राम और अन्य आराध्यों की पूजा होती है. शिव पूजा उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम सर्वत्र अलग अलग सम्प्रदायों में विभक्त होकर होती है. कहीं यह अद्वैत शैव, तो कहीं पाशुपत शैव तो दक्षिण में यह वीर शैव के नाम से विख्यात है. जो सकल पदार्थों में ईश्वर का वास देखते हैं उन्हें उन सबमें ईश दर्शन होता है, पर उन्हें इसके लिए किसी अन्य से विरोध नहीं होता. विरोध हुआ तो परम दर्शन ही क्या. परम से बाहर क्या है. फिर भी जिनकी भी आस्था का प्रश्न है, उसे हाल किया जाना चाहिए, क्योंकि श्रद्धावान कहीं से ज्ञान की लब्धि कर सकता है. जो लोग कहते हैं देश को रोटी और रोज़गार की समस्याओं पर ध्यान देना ही अभीष्ट है, वे ग़लत नहीं, पर एक गतिशील लोकतंत्र में सब बातों पर एक साथ विचार किया जा सकता है. कहीं भी अटके न रहें.... दुखान्यपि सुखायंते विषमप्यमृतायते. मोक्षायते च संसारो यत्र मार्गः स शांकरः.. जिस मार्ग पर चलने से दुःख भी सुख बन जाते है ज़हर भी अमृत बन जाता है और यह (भीषण) संसार भी मोक्ष का साधन बन जाता है, वही मार्ग भगवान शंकर का मार्ग है. १८/५/२२ जब मनुष्य की वृत्ति रूपी लड़की (अपने) पति (स्व स्वरूप) के साथ विवाही जाती है अर्थात् आत्मा से तदाकार होती है तो उसके माता पिता अहंकार और बुद्धि के रोंगटे खड़े हो जाते हैं.... सैर कर और दूर से गुल देख उस गुलज़ार के पर बना अपने गले का इनको मत ज़िन्हार (कदापि) हार. रहिए अब ऐसी जगह चलकर जहां कोई न हो दुश्मने जाँ हो न कोई मिहरवाँ कोई न हो. पड़िए ग़र बीमार तो आकर कोई पूछे न बात और ग़र मर जाइए तो नौहा ख़्वां कोई न हो. Om Song Use when meditating on God as Cosmic Sound and Vibration and when meditating on the six spinal centers. Whence, Oh this soundless roar doth come
When drowseth matter’s dreary drum?
The booming Om on bliss’ shore breaks;
All heav’n, all earth, all body shakes. Cords bound to flesh are broken all, Vibrations vile do fly and fall; The hustling heart, the boasting breath No more disturb the yogi’s health. The house is lulled in darkness soft, Dim, shiny light is seen aloft. Subconscious dreams have gone to bed ‘Tis then that one doth hear Om’s tread. The bumble bee doth hum along, Baby Om, now hark ye! sings his song; Krishna’s flute is sounding sweet, ‘Tis time the wat’ry God to meet. The Gods of fire with fervor sing, Om, Om: their mystic harps now ring God of Prana sweetly sounds The wondrous bell, the soul resounds. Oh upward climb the living tree, Hear now the sound of etheral [sic] sea; Marching mind doth homeward hie To join the Christmas Symphony. २०/५/२२ रात में सोने के समय ऐसे लाता जैसे कहीं कुछ नया लिख रहे हों या लिखे गए की नयी व्याख्या कर रहे हों. शब्द दस दिक्पाल के माध्यम से व्याप्त होते हैं, कान उन्हें ग्रह। करते हैं, फिर वे अन्यत्र फैलते हैं... २२/५/२२ सोने के बाद सुबह लगा जैसे सिर में आग का गोला तीर रहा है, जिसमें समूचा ब्रह्मांड विचर रहा है. फिर ध्यान के बाद कूटस्थ पर प्रकाश चमका, वैसा प्रकाश आश्रम की वेदी पर चमकता है. मिथ्या का अर्थ झूठ जल्दबाज़ी का और एकांगी अर्थ है. यह मिथक के गोत्र का शब्द है. इसका अर्थ है वह सब कुछ जिसे हम पूर्णरूपेण वास्तविक भी नही कह सकते और वह सब कुछ जिसे पूर्णरूपेण अवास्तविक भी नहीं कह सकते और न ही इसे हम सत्य और असत्य दोनों की संज्ञा प्रदान कर सकते हैं तस्य बाक्तंतिर्नामानि दामानि तदस्वेदं वाचातंत्या. नामभिर्दामभिः सर्व सितं सर्व हीद नामनीति..(२-१-६-१ ऋग्वेद ऐतरेय आरण्यक) (प्राण के हाथ में) वाचा का लंबा रस्सा है और नाम फंदा है, अतः वाचा के रस्से और नाम के फंदों के साथ यह सब कुछ बंधा हुआ है, क्योंकि सब वस्तुएँ नाम ही नाम तो है. यथा पशुरेवग्वं स देवनाम्। वह (उपासक) उपास्य (देवताओं) के पशु की भाँति है . वृहदा उप १-४-१० २४/५/२२ पश्यंती से मध्यमा के बीच के कार्य व्यापार से शब्द और अर्थ का उद्गम और प्रसार हुआ, तब व्याकरण बना. सबका एक दूसरे पर प्रभाव हुआ. शब्द और अर्थ के संबंध में बिंब प्रतिबिम्बवाद दिखायी देता है. २५/५/२२ जब अधिक मात्रा में सो जाते हैं तब सुबह स्वप्न आने लगते हैं. आज स्वप्न में एक महिला का प्रस्ताव हमबिस्तर होने का था. ऐसे स्वप्नों के बाद नाइट फाल हो जाता रहा है, पर आज मन में बराबर दुविधा चलती रही, महिला को मातृ शक्ति के रूप में नमन करता रहा और बच गया. जागने पर जानकर अच्छा लगा कि जाग्रत दशा में जैसा सोचते हैं, वही असर स्वप्न में हो रहा है. २६/५/२२ ब्रह्म तं परादाद्योऽन्यत्रात्मनो ब्रह्म वेद क्षत्रं तं परादाद्योऽन्यत्रात्मनः क्षत्रं वेद लोकास्तं परादुर्योऽन्यत्रात्मनो लोकान्वेद देवास्तं परादुर्योऽन्यत्रात्मनो देवान्वेद भूतानि तं परादुर्योऽन्यत्रात्मनो भूतानि वेद सर्वं तं परादाद्योऽन्यत्रात्मनः सर्वं वेदेदं ब्रह्मेदं क्षत्रमिमे लोका इमे देवा इमानि भूतानीद सर्वं यदयमात्मा॥ वृहदा अध्याय दो Meaning "The brahmin rejects one who knows him as different from the Self. The xatriya rejects one who knows him as different from the Self. The worlds reject one who knows them as different from the Self. The gods reject one who knows them as different from the Self. The beings reject one who knows them as different from the Self. The All rejects one who knows it as different from the Self. This brahmin, this xatriya, these worlds, these gods, these beings and this All-are that Self. यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः। अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते ॥ कठ Meaning When every desire that harboureth in the heart of a man hath been loosened from its moorings, then this mortal putteth on immortality; even here he enjoyeth Brahman in this human body. Hindi Meaning ''जब मनुष्य के हृदय में आश्रित प्रत्येक कामना की जकड़ ढीली पड़ जाती है, तब यह मर्त्य (मानव) अमर हो जाता है; वह यहीं, इसी मानव शरीर में 'ब्रह्म' का रसास्वादन करता है। १२ शंकर व्याख्या करते हैंː "योग की जैसे उत्पत्ति होती है वैसे ही उसका क्षय भी होता है। किन्तु श्रुति ऐसा कथन नहीं करती। मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा

युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान्।।11.34।गीता काम तो भगवान ने पहले ही किया हुआ है. यह हम तुम व्यक्ति तो बहाना हैं. २७/५/२२ सत्य तो परावाणी में विराजित है, संगीत रचना स्थूल पश्यंती, मध्यमा की गति पश्यंती और बैखरी में रहती है. अस्तु! बैखरी में अत्यंत सावधानी की आवश्यकता है. न तो मैं कह सकता हूँ कि मैं जानता हूँ और न यह कह सकता हूँ कि मैं नहीं जानता, परंतु वह जो हमारे इस कथन को समझता है कि मैं नहीं जानता और जानता हूँ, वही जानता है. वेदानुवचन २८/५/२२ पंचाग्नि अग्नि लकड़ी ज्वाला धुंवा अंगारा चिंगारी यजमान फल द्युलोक सूर्य दिन किरण चंद्रमा तारे श्रद्धा सोम मेघ वायु धुंआ विद्युत ओले बिजली की चमक सोम वर्षा पृथ्वी संवत्सर रात्रि आकाश दिशाएँ अवांतर दिशाएँ वर्षा अन्न नर वाणी श्वास जिह्वा आँख इंद्रियाँ अन्न वीर्य नारी उपस्थ मिलाप प्रेरणा (समिल्लोम) योनि प्रवेश विषयानंद वीर्य गर्भ २९/५/२२ बिना यम के नियम नहीं और नियम के बिना आसन नहीं, योग की यह अष्टांग शृंखला, ध्यान, फिर समाधि तक जाती है। बिना सीढी चढ़े छत पर कैसे पहुंच सकते हैं ! छत पर चढ़ गए तो सीढियाँ ज्ञात हो जाती हैं। यम और नियम महत्वपूर्ण सोपान हैं। जिनका ध्यान या सात्विक वृत्तियों में मन नहीं लगता, उन्हें अपने पांच यम- सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह- एवं पांच नियम- शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान- की स्थिति देखनी चाहिए। इसी प्रकार इस सुभाषित में भी एक क्रम है। विद्या से विनय, विनय से पात्रता, पात्रता से धन, धन से धर्म और धर्म से सुख प्राप्ति का क्रम। विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम। पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्म ततः सुखं।। १९/११/२०२० यमों - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह- का पालन ही व्रत है जबकि द्वंद्व - भूख प्यास, शीत उष्ण इत्यादि -सहना तप है।४/११/१८ इस्लाम मे ब्रह्मचर्य अथवा यौन संयम अथवा नियोजन और संन्यास निषिद्ध है। फिर भी मुस्लिमों में परिवार नियोजन अनुपात में कम ही सही, पर दिखाई देता है। याने क्या यह नियोजित परिवार अपने धर्म को मानने वाले नहीं हैं? हिंदुओं में ब्रह्मचर्य और सन्यास की बहुत प्रतिष्ठा है। कहा गया है परिवार में अगर एक संन्यासी हो जाये तो उसकी सात पीढियों का उद्धार हो जाता है। फिर भी कुछ जगह परिवार नियोजन पुत्र मोह, सम्पत्ति और वंश चलाने की विवशता को मानकर नहीं दिखता है। इस्लाम को छोड़कर दुनिया के लगभग सभी धर्म किसी न किसी रूप और अवस्था मे ब्रह्मचर्य को आवश्यक मानते हैं। सब मिलाकर; केवल या निरी धार्मिक मान्यताओं से दुनिया का भला होने वाला नहीं है। इसका मतलब यह भी नहीं कि हम धर्मों को खारिज कर दें। धर्म हमें जीवन का सिरा पकड़ाता है, आगे बढ़ना हमारा काम है...२०/२/२०२० आध्यात्मिक यात्रा को सुगम बनाने के लिए हमें अधिक नहीं मात्र चार विभूतियों से होकर गुजरना पर्याप्त होगा. व्यावहारिक रास्ता परमहंस योगानंद के क्रिया योग से होकर जाता है. इस रास्ते के कंकड़ पत्थर पार करते समय स्वयं योगानंद जी और उनकी गुरूपरंपरा की शिक्षाओं के अलावा स्वामी रामतीर्थ, पं गोपीनाथ कविराज और स्वामी लक्ष्मणजू की पुस्तकों का पारायण उपयोगी है. रामतीर्थ जी भारत के मूलभूत ग्रंथों और शास्त्रों की सैर करा देते हैं, फिर हमें बहुत इधर-उधर जाने की आवश्यकता नहीं रह जाती. स्वामी जी भारत ही नहीं अरब और युरप के ग्रंथों और मान्यताओं से भी बावस्ता कराते हैं, वे आधुनिक ज्ञान विज्ञान और गणित के सूत्रों के सहारे आध्यात्मिक विषयों को इतनी स्पष्टता से खोलते हैं कि वेदांत जैसा नीरस और गूढ़ समझा जाने वाला विषय व्यावहारिक स्तर पर आनंद देने लगता है. गोपीनाथ जी तंत्र सिद्धांत के सहारे भारतीय संस्कृति के विविध पक्षों और उनकी व्यावहारिकता को सूक्ष्म रूप में सामने रखते हैं. गोपीनाथ जी के यहाँ योग के विभिन्न स्तर गणित के सूत्रों की भाँति खुलते हैं. स्वामी लक्ष्मणजू ने प्राचीन शैव दर्शन को व्याख्यायित किया है, जिनसे भारत विद्या के गूढ़ तत्वों का रहस्य खुलता है. इन्हें पढ़ते समय तो हम मानो वेदांत दर्शन के भी पार हो जाते हैं. छाँदोग्य श्रुति में तीन ही तत्व आए हैं अग्नि पृथ्वी और जल इनका त्रिवृत्तकरण होता है. सत सात भाग प्रत्येक तत्व के और दो दो भाग दूसरे तत्वों के शामिल हुए और इस तरह वे स्थूल हो गए. तब संसार बना. तत्व सूक्ष्मतर सूक्ष्म अग्नि वाक् पाचन स्वेद पृथ्वी अंतःकरण वीर्य विष्ठा जल प्राण वात पित्त कफ़ मूत्र यदग्ने रोहित रूपं तेजसस्तद्रूपं यच्छुक्लं तदपां यत्कृष्णं तदन्नस्यापागादग्नेरग्नित्वं वाचारम्भणं विकारो नामधेयं त्रीणि रूपाणीत्येव (मृत्तिकेत्येव) सत्यम्‌॥छांदोग्य० ६.४.१ Meaning "The red colour of gross fire is the colour of the original fire; the white colour of gross fire is the colour of the original water; the black colour of gross fire is the colour of the original earth. Thus vanishes from fire what is commonly called fire, the modification being only a name, arising from speech, while the three colours (forms) alone are true.

Sunday, May 1, 2022

२/४/२२ सबमें रमै रमावै जोई, ताकर नाम राम अस होई। घट - घट राम बसत हैं भाई, बिना ज्ञान नहीं देत दिखाई। आतम ज्ञान जाहि घट होई, आतम राम को चीन्है सोई। नव सम्वत्सर २०७९💐 4/4/22 स्वप्न संसार ज्ञान का सादि संकल्प अर्थात् पीछे का संकल्प है जबकि जाग्रत ज्ञान यानि ईश्वर का आदि संकल्प है. जाग्रत या बाह्य जगत् का उपादान कारण आदि संकल्प है जो प्रलय तक नहीं बदलता. स्वप्न में स्वप्न की कल्पना ज्ञान का तृतीय संकल्प है. प्रथम स्वप्न द्वितीय या सादि संकल्प है स्वप्न में स्वप्न देखने के बाद जागने पर प्रथम स्वप्न के संसार से उठेगा और स्वप्न के भीतर का स्वप्न संसार नष्ट हो जाएगा, क्योंकि उसका उपादान कारण तो ज्ञान का तृतीय संकल्प या जाग्रत अवस्था है. इस दशा में मनुष्य को प्रथम स्वप्न संसार स्वप्न के भीतर वाले स्वप्त संसार की अपेक्षा सत्य प्रतीत होगा तब व्यक्ति जाग्रत अवस्था में स्वप्न और स्वप्न के भीतर का स्वप्न दोनों को एक सा संकल्प जान लेता है. वह जान जाता है कि जो संबंध स्वप्न के भीतर वाले स्वप्न संसार का प्रथम स्वप्न संसार से है वही संबंध प्रथम स्वप्न संसार का जाग्रत जगत् से है. मृत्यु के समय यह संबंध व्यक्ति को प्रतीत हो जाता है, परंतु जिस प्रकार व्यक्ति स्वप्न से निकलकर जाग्रत जगत् में आ जाता है उसी प्रकार मृत्यु में इस जाग्रत जगत् से निकलकर परलोक में उठता है, वहाँ स्वर्ग और नरक व्यापारों को देखता है. परलोक जगत् स्थूल जगत् की अपेक्षा अधिक स्थायी है इसलिए परलोक सत्य प्रतीत होता है और जाग्रत जगत् कल्पित या स्वप्नवत् मालूम होता है. लोक और परलोक की यह यात्रा जन्म और मरण के क्रम में चलती रहती है. वास्तव में समस्त अवस्थाएँ भ्रम मात्र या संकल्प मात्र हैं, वास्तविक नहीं. जब वृत्तियों को संयम या अभ्यास से रोकने पर वृत्तियों का निरोध होता है, तब आत्मस्वरूप से इतर कुछ दिखायी नहीं देता. यही तुरियावस्था है. इस अवस्था में आत्मा से इतर जो कुछ है वह भ्रम या संकल्प मात्र है. वास्तव में न सृष्टि है और न सृष्टा, बल्कि एक ही वस्तु हर रूप व हर विभूति में प्रकाशमान हो रही है. जैसे देवदत्त बैठा था, खड़ा हो गया तो उसकी यह नयी महिमा हुयी. वास्तव में देवदत्त न सृष्टा है, न सृष्टि.भगवत् ज्ञान की दो विभूतियाँ व्यक्त और अव्यक्त हैं और प्रत्येक विभूति नयी और एक के बाद दूसरी होती है,. प्रत्येक वस्तु का एक ही तत्व से परस्पर संबंध है. उस एक ही तत्व की उपाधियाँ सर्वत्र छटा बिखेर रही हैं. सर्वं सर्वात्मकं. वास्तव में न मूल कारण है न रूप केवल भगवत् ज्ञान विद्यमान है. ज्ञान का विचित्र गुण यह है कि वह क्रिया और प्रतिक्रिया से रहित है. भगवत् ज्ञान के विचित्र रहस्य पढ़ते हुए.. यानि ध्यान भी स्वप्न ही है. बस इस स्वप्न में शेष स्वप्नों का साक्षात हो जाता है🙏 ५/४/२२ जाग्रत जगत् अपने से भिन्न अनेक व्यक्तियों के ख़याल से कल्पित है और स्वप्न संसार एक अकेले ख़्याल से कल्पित होता है इसलिए जाग्रत जगत् और स्वप्न संसार में सच और झूठ का अंतर मालूम होता है. वास्तव में दोनो कल्पित और भ्रम रूप हैं. ६/४/२२ जैसे हम मनुष्य के चरणों को छूने से चरण पूजक नहीं हो जाते, उसके चक्षु की ओर दृष्टि करने से चक्षु उपासक नहीं हो जाते, हाथ मिलाने या गले मिलने से देहोपासक नहीं हो जाते, वैसे ही विराट भगवान् की उपासना के समय पाषाण शिला पर हाथ रखने से हम पत्थर पूजक नहीं हो जाते और सूर्य की ओर दृष्टि करते समय हम सूर्योपासक नहीं हो जाते, वरन् जिस प्रकार मनुष्य की पूजा उसके चरणों को छूने से होती है उसी प्रकार विराट भगवान की पूजा पाषाण और धरती की ओर सिर झुकाने से होती है. व्यक्ति का सिर स्वतः झुकता है, किसी सभ्यता में सिर न झुके तो भी उसके शरीर का कोई अंग अन्य व्यक्ति से मिलते समय स्वाभाविक क्रम में झुकता ही है. वस्तुतः यह भ्रम विराट भगवान् की मूर्ति को पूरा-पूरा न जानने के कारण होता है. मनुष्य के मुख्य अंग वे हैं जिनसे ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है. फिर कुछ गौण अंग हैं और कुछ सेवक अंग हैं. मनुष्य विराट का प्रतिबिंब है. मनुष्य में जो काम अंतःकरण करता है, ईश्वर में वही काम हिरण्यगर्भ करता है. यानि हिरण्यगर्भ ईश्वर का अंतःकरण है. विराट भगवान का प्रत्येक अंग जिसमें पाषाण, शिला, तृण, सूर्य सब शामिल हैं. प्रत्येक पदार्थ विराटमय है और उसकी उपासना मूर्ति पूजा नहीं वरन् ईश्वरोपासना है. जब कोई वस्तु उत्पन्न करना चाहता है तो पहले हिरण्यगर्भ में संकल्प उठता है. वहाँ से उसका प्रभाव विराट के कपाल में, जो ईश्वर का मस्तिष्क है, होता है और जिस वस्तु की इच्छा होती है उसकी कल्पना होती है कि इस समय ये वनस्पतियाँ या वे वृक्ष उत्पन्न होने चाहिए और फिर नक्षत्रों के द्वारा उसका प्रभाव पृथ्वी रूपी पट्टी पर पहुँचता है और लेखनी अथवा चार तत्वों से सूर्य द्वारा उसकी उत्पत्ति बाह्य में होती है और वस्तु उत्पन्न हो जाती है. शब्द सामर्थ्य वस्तुतः अर्थ से बना है. अतः भगवत् ज्ञान जब किसी क्रिया को मनुष्य के हितार्थ बतलाता है तथा उसके बाद मानुषी संकल्प को उठाता है और फिर मानुषी प्रकृति द्वारा उसे पूर्ण करता है तो उसे सामर्थ्य बोलते हैं. क्योंकि मानुषी संकलप द्वारा अर्थ अनर्थ की कल्पना के बाद उसकी (क्रिया) उत्पत्ति और पूर्ति होती है, परंतु जहां संकल्प के केवल हिरण्यगर्भ या अविद्या में होने से मानुषी अंतःकरण के साधन बिना क्रिया की उत्पत्ति व पूर्ति होती है वहाँ शब्द सामर्थ्य नहीं बोला जाता है. उदाहरण के लिए स्वप्नावस्था में स्वप्न संसार का कारण भगवत् ज्ञान है, किंतु उसका प्रादुर्भाव चूँकि मानुषी संकल्प द्वारा और अर्थ अनर्थ के विवेक से नहीं होता इसलिए उसे सामर्थ्य के बाहर समझा जाता है. वास्तव में स्वप्न संसार का संकल्प भगवत् ज्ञान में ही होता है. सिर्फ़ मुस्लिम का मोहम्मद पे इजारा* तो नहीं ~कुंवर महेंद्र सिंह बेदी *अधिकार हज़रत सुल्तान बहू का नग़मा है... अलिफ़-अल्ला चम्बे दी बूटी, मुरशद मन विच लाई हू । नफी असबात दा पानी मिल्या, हर रगे हर जाई हू, अल्लाह हू, अल्लाह हू, अन्दर बूटी मुश्क मचाया, जां फुल्लन ते आई हू, जीवे मुरशद कामिल बाहू, जैं इह बूटी लाई हू । अल्लाह हू, अल्लाह हू, बग़दाद शहर दी की निशानी, उच्चियाँ लम्मियाँ चीड़ां हू, तन मन मेरा पुरज़े पुरज़े, ज्यों दरज़ी दियां लीरां हू, अल्लाह हू, अल्लाह हू, लीरां दी गल कफनी पा के, रलसां संग फ़कीरां हू । शहर बग़दाद दे टुकड़े मंगसां बाहू, करसां मीरां मीरां हू, पढ़ पढ़ इल्म ते हाफ़िज होइओ, ना गिया हिजाबों परदा हू, पढ़ पढ़ आलिम फाज़िल होइओं, अजे भी तालिब ज़र दा हू, कई हज़ार किताबां पढियां, अजे नफ़्स ना मरदा हू, बाज फ़कीरा किसे ना मारिया, ज़ालिम चोर अंदर दा हू, अल्लाह हू, अल्लाह हू, My Master Has Planted in My Heart the Jasmine of Allah’s Name. Both My Denial That the Creation is Real and My Embracing of God,  the Only Reality, Have Nourished the Seedling Down to its Core. -When the Buds of Mystery Unfolded Into the Blossoms of Revelation,  My Entire Being Was Filled with God’s Fragrance. -May the Perfect Master Who Planted this Jasmine in My Heart Be Ever Blessed, O Bahu! Were my whole body festooned with eyes, I would gaze at my Master with untiring zeal. O, how I wish that every pore of my body, Would turn into a million eyes – Then, as some closed to blink, others would open to see! But even then my thirst to see him, Might remain unquestioned. What else am I to do? To me, O Bahu, a glimpse of my Master, Is worth millions of pilgrimages to the holy Ka’ba! Believers pray to God for the protection of faith, But few pray for the gift of his love. I am ashamed at what they ask for, Even more at what they are willing to yield. Religion is quite unaware of the spiritual plane, To which love can raise us. O Lord, keep my love for you ever fresh, Says Bahu: I shall mortgage my religion for it. १३/४/२२ कबीरा कुआं एक है और पानी भरें अनेक भांडे ही में भेद है, पानी सबमें एक ।। भला हुआ मोरी गगरी फूटी, मैं पनियां भरन से छूटी मोरे सिर से टली बला… ।। भला हुआ मोरी माला टूटी, मैं तो राम भजन से छूटी मोरे सिर से टली बला… ।। माला कहे है है काठ की ,कबीरा तू का फेरत मोहे मन का मनका फेर दे तो तुरत मिला दूँ तोहे भला हुआ मोरी माला टूटी मैं तो राम भजन से छूटी मोरे सिर से टली बला… ।। माला जपु न कर जपूं और मुख से कहूँ न राम राम हमारा हमें जपे रे कबीरा हम पायों विश्राम मोरे सिर से टली बला… ।। कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई बनाय। ता चढि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय॥ कबीरा बहरा हुआ खुदाय हद हद करते सब गए बेहद गयो न कोई अरे अनहद के मैदान में कबीरा रहा कबीरा सोये हद हद जपे सो औलिये, बेहद जपे सो पीर हद(बौंडर) अनहद दोनों जपे सो वाको नाम फ़कीर कबीरा वाको नाम फ़कीर…. दुनिया कितनी बाबरी जो पत्थर पूजन जाए घर की जाकी कोई न पूजे कबीरा जका पीसा खाए चाकी चाकी….. चलती चाकी देखकर दिया कबीरा रोए,दो पाटन के बीच यार साबुत बचा ना कोए ।। चाकी चाकी सब कहें और कीली कहे ना कोए,जो कीली से लाग रहे, बाका बाल ना बीका होए ।। हर मरैं तो हम मरैं, और हमरी मरी बलाए साचैं उनका बालका कबीरा, मरै ना मारा जाए । माटी कहे कुम्हार से तू का रोधत मोए एक दिन ऐसा आयेगा कि मैं रौंदूगी तोय ।। १४/४/२२ प्यारी रचना है, जिसकी भी हो... तोरी हर एक अदा को मैं जान गयी ना रूप बदला तो क्या पहचान गयी ना। मूसा को तो बेहोश किया तूर पे जाकर मंसूर को मस्ताना किया जाम पिलाकर दीवाना किया क़ैस को लैला में समाकर फिर खुद ही बिके मिस्र के बाज़ार में आकर कुछ भेद नहीं खुलता कि तुम कौन हो, क्या हो आप ही भट्टी आप ही मडघर आप ही होत कलाला आपहि पीवे आप पिलावे आप फिरे मतवाला अपनी गोदी आपहि खेले बनकर मोहन लाला वो तो काली कमलिया थे ओढ़े हुए रूप बदला तो क्या पहचान गयी ना तोरी हर एक अदा को मैं जान गयी ना। अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयं। शेषा स्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम्।। महाभारत वनपर्व 313-116 इस संसार मे प्रतिदिन असंख्य जीव यमराज के लोक में जाते है, फिर भी जो बचे रहते हैं, वे यहां पर स्थायी पद की आकांक्षा करते हैं। भला इससे बढ़कर आश्चर्य की बात और क्या हो सकती है! 15/4/22 न तदस्ति न यत्सत्यं न तदस्ति न यंमृषा। यद्यथा येन निर्णीतं तत्तथा तं प्रति स्थितं।। There is nothing that is not true. There is also nothing that is not untrue. Whoever decides in whatever way, it will be like that for him. १६/४/२२ हनुमान वायु पुत्र हैं. मान का हन् करने पर वायु जब राम चेतना को उपलब्ध होती है, तब हनुमान हुआ जाता है. हनुमान ज्ञान गुण सागर हैं, अतुलित बल धाम हैं, हेम शैल की आभा युक्त देह हैं, दनुज वन कृशानु हैं, वानरों के अधीश हैं. ऐसे भगवान राम के प्रिय भक्त हनुमान को हम सब नमन करते हैं... मंसूर और मुझमें कुछ फ़र्क़ है तो इतना वो कह उठा कि मैं हूँ कहता हूँ मैं कि तू है... भीका बात अगम्म कि कहन सुनन की नाय. जाने है सो कहे नहीं कहे सो जाने नाय.. साजन हम तुम एक हैं बस कहन सुनन को दो. मन से मन को तोलिए सो दो मन कभउं न हो. दो नैन तेरे दो नैन मेरे जब मिले तो मिल के चार हुए ये अपनी अपनी क़िस्मत है दो जीत गए दो हार गए इस शर्त पे खेलूँगी मैं बाज़ी जीतूँ तो पिया मेरा हारूँ तो पिया की. खुसरो दरिया प्रेम का उल्टी बा की धार. जो उतरा सो डूब गया जो डूबा सो पार.. खुलता किसी पे क्यों मेरे दिल का मुआमला शेरों के इंतिखाब ने रुसवा किया मुझे. सौ बार ले गई मुझे बाज़ार मुफ़लिसी हर बार मैंने अपना अक़ीदा बचा लिया. मैंने पड़ी थी अपनी हिफ़ाज़त के वास्ते नादे अली ने सारा इलाका बचा लिया. दूसरों को बेवक़ूफ़ समझने और बनाने वाले कितने निरीह व्यक्ति होते हैं. १९/४/२२ अब आदमी कुछ और हमारी नज़र में है जब से सुना है यार लिबासे बशर में है. तुझे दर दर भटकने की बता दे क्या ज़रूरत है वही दरबार काफ़ी है निज़ामुद्दीन चिशती का. आँखों आँखों में कह दिया सब कुछ कानों कान एक को ख़बर न हुयी प्रीत करे तो ऐसी कि जैसे लम्बे खजूर चढ़े तो चाखे प्रेम रस गिरे तो चकनाचूर. उल्टी ही चाल चलते हैं दीवान गाने इश्क़ आँखों को बंद करते हैं दीदार के लिए. ये यार इशक़ दी बाज़ी है घर फूंक तमाशा देखे जा. प्रीत करे तो ऐसी करे कि जैसे करे कपास जीते-जी तो संग रहे और मरे न छोड़े साथ हद हद कर के सब गए और बेहद गया न कोय अनहद के मैदान में सो रहा 'कबीर' सोय घर नारी कँवारी चाहे जो कहे मैं निजाम से नैनाँ लगा आई रे सोहनी सूरत मोहिनि मूरत मैं तो हृदय बीच समा आई रे 'ख़ुसरव' 'निजाम' के बल-बल जइए मैं तो अनमोल चेरी कहा आई रे हर तरफ़ यार का तमाशा हैउस के दीदार का तमाशा है २२/४/२२ स यथा दुंदुभेः हन्यमानस्य न बाह्यांछब्दांछक्नुयाद् ग्रहणाय दुंदुभेस्तु ग्रहणेन दुंदुभ्याघातस्य वा शब्दोगृहीतः. स यथा शंखस्यध्मायमानस्य न बाह्यांछब्दांछक्नुयाद् ग्रहणाय शंखास्य तु ग्रहणेन शंखध्मस्य वा शब्दो ग्रहीतः. स यथा वीणायै वाद्यमानायै बाह्यांछब्दांछक्नुयाद् ग्रहणाय वीणायै तु ग्रहणेन वीणावादस्य वा शब्दो ग्रहीतः(वृह० उप० ४-५/८-१० एवं २-४/७-९) जैसे नगाड़ा या धौंसा जब पीटा जाता है तो उसके बाह्य शब्द पकड़े नहीं जा सकते, पर नगाड़े अथवा नगाड़े के पीटने वाले को पकड़ लेने से नगाड़े के शब्द पकड़े जाते हैं. जैसे शंख जब बजाया जाता है तो उसके बाहर के शब्द पकड़े नहीं जा सकते, पर शंख या शंख बजाने वाले को पकड़ने से शंख के शब्द पकड़े जाते हैं और जैसे वीणा जब बजाई जा रही हो तो वीणा के बाह्य शब्द पकड़े नहीं जा सकते, पर वीणा अथवा बजाने वाले को पकड़ने से वीणा के शब्द पकड़े जाते हैं. as one is not able to grasp by themselves the particular notes of a drum that is being beaten, but it is only grasping the general note of the drum, or the general effect of particular strokes on it, that those notes are grasped. [as the particular notes of a drum, conch or lute have no separate existence from the general notes of those instruments, so the particular knowledge of the existing universe in the waking and dream states has no validity of its own apart from the Intelligence (Brahman) which pervades it.] २३/४/२२ हरिनाम किसको कहते हैं एवं इसका अर्थ क्या है ? कर्णशुद्धि 'हरे कृष्ण ' इत्यादि सोलह नाम बत्तीस अक्षरों के द्वारा दस से बारह वर्ष की अवस्था के बीच अवश्य ही सम्पन्न करनी चाहिए । इसके बिना महाविद्या सिद्ध नहीं होती । कहना न होगा ,इस हरिनाम के ऋषि एवं देवता त्रिपुरा हैं । द्विज मुख से , दाहिने कान में नाम ग्रहण करना होता है । पहले छंद अर्थात गायत्री छंद ग्रहण करके बाद में नाम ग्रहण करना विधि है । कर्ण को अशुद्ध रखते हुए उसी अशुद्ध कर्ण में महाविद्या का श्रवण व ग्रहण करने से प्रत्यवाय होता है । षोडश वर्ष की आयु में महाविद्या का ग्रहण करना आवश्यक होता है । इसके बाद ही कुल रहस्य जाना जाता है । क्योंकि रहस्यहीन होकर मंत्र जपने से कोई फल प्राप्त नहीं होता । हरिनाम का रहस्य यह है -- 'ह ' = शिव , 'र ' = शक्ति ---त्रिपुरा = ( दश महाविद्यामयी ) ' ए ' = योनि । 'क ' = काम ,'ऋ ' = परमा शक्ति , दोनों मिलकर 'कृ ' = कामकला , 'ष ' = षोडश कलात्मक चन्द्र , ' ण ' = निर्वृति या आनन्द । सबका साकल्य होने पर -- त्रिपुर सुंदरी । सोलह वर्ष की आयु में जो दीक्षा लाभ होता है ,उसका नाम ज्येष्ठा दीक्षा है । दीक्षा ग्रहण किये बिना नाम जप करने से वह पशु- कर्म के रूप में गिना जाता है । इसके पश्चात -भगवती त्रिपुरा अपनी कण्ठस्थित माला उसे अर्पण करती हैं । ये मालायें साक्षात् आम्नाय स्वरूपा हैं । ये मणिमाला के रूप से ही विख्यात हैं । चार मालाओं के नाम हैं --हस्तिनी , चित्रिणी , गन्धिनी व पद्मिनी । ये मालायें पचास मातृका- रूपा अक्षमाला के नाम से परिचित हैं । तात्विक दृष्टि से इस माला में ही समस्त जगत का सम्पूर्ण ज्ञान निहित है । इस कारण इस माला को कोई कोई आत्मा की माला कहते हैं । 51 महापीठ इनके ही नामान्तर हैं । ये मालायें अपूर्व ढंग से गठित हैं । कामतत्व से भिन्न और किसी सूत्र द्वारा इसे नहीं गूँथा जा सकता । जगत की सृष्टि व संहार के मूल में ये पचास पीठ स्वरूप वर्तमान हैं । भगवती त्रिपुरा यह अपूर्व माला वासुदेव को अर्पण करती हैं ,जिसके प्रभाव से वासुदेव पूर्णत्वलाभ करने में समर्थ होते हैं । चारों मालाओं का स्वरूप व वर्ण इसप्रकार का है -- हस्तिनी --यह शुक्लवर्णा है , भगवान की दूती स्वरूपा है । चित्रिणी -- यह पीतवर्णा है । यह विचित्र स्वरूप वाले समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त होकर स्थित है । गन्धिनी --यह कृष्णवर्णा है । यह भी ब्रह्माण्ड व्यापक है । पद्मिनी -- वा रंगिनी रक्तवर्णा है यह सर्वदा ही कामकला के साथ युक्त रहती है । भावराज्य व लीला रहस्य श्रीकृष्ण प्रसङ्ग पृष्ठ 147 पंडित गोपीनाथ कविराज २४/४/२२ सना बशर के लिए बशर सना के लिए तमाम हम्द साज़वार है ख़ुदा के लिए अता के सामने या रब खता का ज़िक्र है क्या तू अता के लिए है बशर खता के लिए.. २५/४/२२ यार मनवा कमाले रानाई (सुंदरता) ख़ुद तमाशा ओ खुद तमाशाई. जो मुझमें बोलता है मैं नहीं हूँ ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ. जो मुझमें बोलता है मैं नहीं हूँ मैं नहीं हूँ मैं नहीं हूँ ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ. जलवा दिखा के यार ने दीवाना कर दिया. खुद शम्मा बन गए हमे परवाना कर दिया. ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ. ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ मैं नहीं हूँ मैं कहाँ हूँ तू ही तू है सब तेरा अंदाज़ है जो मुझमें बोलता है मैं नहीं हूँ जिसे देखो वो आमादा है घर का घर लुटाने पर जो मुझमें बोलता है मैं नहीं हूँ ये ना पूछो कैसे दीवाने बने आपने चाहा तो मस्ताने बने हैं जो मुझमें बोलता है मैं नहीं हूँ . मीरा ने जहर का प्याला पीके कहा ये उसकी शान है ये मैं नहीं हूँ जो मुझमें बोलता है मैं नहीं हूँ कहा मंसूर ने सूली पे चढ़ के अनहलक़ की सदा है मैं नहीं हूँ जो मुझमें बोलता है मैं नहीं हूँ मेरी आँखों की पुतली में तो देखो - वही जलवा नुमा है मैं नहीं हूँ जो मुझमें बोलता है मैं नहीं हूँ आँखों में तेरे कोई करिश्मा जरुर है तुझे देख ले जो वो तडफता जरुर है जो मुझमें बोलता है मैं नहीं हूँ तुम्हारी नजरे करम जिस पर आम हो जाए ज़माने भर में वो आलीम का हो जाए गुलाम जिस को तुम बना लो अपना उस गुलाम की दुनिया गुलाम हो जाए ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ. किसी परदे का पर्दा हूँ किसी जलवे का जलवा हूँ मुझे दुनिया से क्या मतलब मैं अपनी आप दुनिया हूँ ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ. वो खिड़की खोल के देखे है मेरी तरफ उसकी नजर मेरी तरफ मेरी नजर उसकी तरफ ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ. मेरी आखों में जन्नत है मैं उसकी आँखों का नूर हूँ - वो नूर का पर्दा है तो मैं तस्वीरे नूर हूँ ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ. कोई परदे को यूँ सरका गया है - खुद को देखने खुद आ गया है - निगाहों से कोई उतरा है दिल में तड़फ करके मुझे तडफा गया है तेरे परदे के अंदर कोई आकर तमाशा कर रहा है मैं नहीं हूँ *-- ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ. ये तेरी जलवागरी दुनिया तो खामोश है - आँख बंद थी तेरे दीदार मैं इतना तो मुझ को होश है उठा के शीशे को जो मैंने देखा ये कोई और है ये मैं नहीं हूँ ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ. ये बुतख़ाने में जाके बोले बेदम यहाँ नक़्शा मेरा है मैं नहीं हूँ. ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ जो मैं होता खता मुझसे भी होती मुझे खटका ही क्या मैं नहीं हूँ जो मुझ में बोलता है मैं नहीं हूँ ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ मैं नहीं हूँ या नबी (ईश्वर का गुणगान करने वाला) आपके जलवों में वो रानाई है. देखने पर भी मेरी आँख तमन्नाई है. ज़िंदगी ख़ुद ही इबादत है मगर होश नहीं. साहिबे होश यही है कि होश नही होश नहीं २६/४/२२ यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति । दूरंगं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।। अन्वय यत् जाग्रतः दूरं उदैति सुप्तस्य तथा एव एति तत् दूरं गमं ज्योतिषां ज्योतिः एकं दैवं तत् में मनः शिवसंकल्पं अस्तु । सरल भावार्थ हे परमात्मा ! जागृत अवस्था में जो मन दूर दूर तक चला जाता है और सुप्तावस्था में भी दूर दूर तक चला जाता है, वही मन इन्द्रियों रुपी ज्योतियों की एक मात्र ज्योति है अर्थात् इन्द्रियों को प्रकाशित करने वाली एक ज्योति है अथवा जो मन इन्द्रियों का प्रकाशक है, ऐसा हमारा मन शुभ-कल्याणकारी संकल्पों से युक्त हो ! क्या जाग्रत, क्या स्वप्न, क्या सुषुप्ति तीनों दशाओं में मेरा मन किसी और विचार की तरफ़ न जाने पाए, सिवाय शिवरूप आत्मचिंतन के. चलते फिरते बैठते खड़े मेरा मन शिव रूप सत्यरूप आत्मा के सिवा और कोई चिंतन न करने पाए. स्वामी रामतीर्थ ३०/४/२२ आज ध्यान से उठने वाले थे कि आश्रम में गुरुदेव की जो ऑल्टर या वेदी होती है, उसमें जो नीली रोशनी चमकती है, वह दिखी, फिर इस पद की पंक्तियाँ याद आयीं या पद शायद पहले याद आया, बाद में प्रकाश दर्शन हुआ. यह क्रम ध्यान नहीं है. पायो जी मैंने राम रतन धन पायो | वस्तु अमोलिक दी मेरे सतगुरु | कृपा कर अपनायो || जन्म जन्म की पूंजी पाई | जग में सबी खुबायो || खर्च ना खूटे, चोर ना लूटे | दिन दिन बढ़त सवायो || सत की नाव खेवटिया सतगुरु | भवसागर तरवयो || मीरा के प्रभु गिरिधर नगर | हर्ष हर्ष जस गायो ||🙏 आदि शंकराचार्य कहते हैं- एकान्ते सुखमास्यतां परतरे चेतः समाधीयतां, पूर्णात्मा सुसमीक्ष्यतां जगदिदं तद्वाधितं दृश्यताम्। प्राक्कर्म प्रविलाप्यतां चितिबलान्नाप्युत्तरैः श्लिश्यतां, प्रारब्धं त्विह भुज्यतामथ परब्रह्मात्मना स्थीयताम्॥ भावार्थ : एकांत के सुख का सेवन करें, परब्रह्म में चित्त को लगायें, परब्रह्म की खोज करें, इस विश्व को उससे व्याप्त देखें, पूर्व कर्मों का नाश करें, मानसिक बल से भविष्य में आने वाले कर्मों का आलिंगन करें, प्रारब्ध का यहाँ ही भोग करके परब्रह्म में स्थित हो जाएँ। 304/2020 की फ़ेसबुक पोस्ट लॉक डाउन के समय का उपयोग हमने भागवत सप्ताह पाठ में भी किया। नित्य 6-8 घंटे दो बार में बैठकर आज सम्पन्न हुआ। उसमें से एक श्लोक... एकोयनोsसौ द्विफलस्त्रिमूलश्चतूरसः पंचविधः षडात्मा। सप्तत्वगष्टविटपो नवाक्षो दशच्छदी द्विखगो ह्यादिवृक्षः। भागवत 10/2/27 यह संसार क्या है, एक सनातन वृक्ष। इस वृक्ष का आश्रय है- एक प्रकृति। इसके दो फल हैं- सुख और दुःख; तीन जड़ें हैं-सत्व, रज और तम; चार रस हैं - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इसके जानने के पांच प्रकार हैं-श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और नासिका। इसके छः स्वभाव हैं- पैदा होना, रहना, बढ़ना, बदलना, घटना और नष्ट हो जाना। इस वृक्ष की छाल हैं सात धातुएं- रस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र। आठ शाखाएं हैं- पांच महाभूत, मन, बुद्धि और अहंकार। इसमें मुख आदि नौ द्वार खोडर यानि गड्ढे हैं। प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय- ये दस प्राण ही इसके दस पत्ते हैं। इस संसार रूप वृक्ष पर दो पक्षी हैं- जीव और ईश्वर। २६/४/२०२० की फ़ेसबुक पोस्ट अब मुण्डकोपनिषद का वह प्रसिद्ध श्लोक देखें द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति।। दो सुन्दर पंखों वाले पक्षी, घनिष्ठ सखा, समान वृक्ष पर ही रहते हैं; उनमें से एक वृक्ष के स्वादिष्ट फलों को खाता है, अन्य खाता नहीं अपितु अपने सखा को देखता है।

Friday, April 1, 2022

मार्च २०२२

१/३/२२ यत्र सोsस्तमयमेति विवस्वान्श्चंद्रमा-प्रभृतिभिः सह सर्वैः कापि सा विजयते शिवरात्रि स्वप्रभाप्रसरभास्वररूपा! शिवस्तोत्रावली ४/२२ जिस अवस्था में 'सूर्य' अर्थात् प्राण प्रवाह और 'चंद्रमा' अर्थात् अपान प्रवाह सारे 'तारामंडल' अर्थात् विकल्प परंपराओं समेत अस्त हो जाते हैं, उसी अवर्णनीय एवं अपनी हाई चितप्रकाशमयी आभा के विस्फ़ार से चमकती हुयी शिवरात्रि की जय जयकार हो.. रात्रि समस्त व्यापार जगत् को समेट लेती है. इसी तरह सारी अख्याति या अविद्या का संहरण करने से इसे रात्रि कहते हैं. मंगलमय होने से इसे शिवरात्रि कहते हैं. शिवरात्रि यानि शिवसमावेशभूमि wonderful blissful night. विवस्वान् sun-inhaling breath, चंद्रमा मून- exhaling breath अस्तमयं एति has set or absorbed through the junction (संधि). यह संधि या शिवरात्रि भी संक्रांति की भाँति हर माह होती है, पर आज महाशिवरात्रि है, इसे शिव और शक्ति के विवाह के तौर पर भी लिया जाता है. यह विवाह यानि उक्तवत संधि ही है. इस संधि को उपलब्ध हुए व्यक्ति के लिए हर समय शिवरात्रि है. अस्तु! अंतरुल्लसदच्छाच्छभक्ति पीयूष पोषितम्. भवत्पूजोपयोगाय शरीरमिदमस्तु मे.. Call Me by My True Names Thich Nhat Hanh Do not say that I'll depart tomorrow because even today I still arrive. Look deeply: I arrive in every second to be a bud on a spring branch, to be a tiny bird, with wings still fragile, learning to sing in my new nest, to be a caterpillar in the heart of a flower, to be a jewel hiding itself in a stone. I still arrive, in order to laugh and to cry, in order to fear and to hope. The rhythm of my heart is the birth and death of all that are alive. I am the mayfly metamorphosing on the surface of the river, and I am the bird which, when spring comes, arrives in time to eat the mayfly. I am the frog swimming happily in the clear pond, and I am also the grass-snake who, approaching in silence, feeds itself on the frog. I am the child in Uganda, all skin and bones, my legs as thin as bamboo sticks, and I am the arms merchant, selling deadly weapons to Uganda. I am the twelve-year-old girl, refugee on a small boat, who throws herself into the ocean after being raped by a sea pirate, and I am the pirate, my heart not yet capable of seeing and loving. I am a member of the politburo, with plenty of power in my hands, and I am the man who has to pay his "debt of blood" to, my people, dying slowly in a forced labor camp. My joy is like spring, so warm it makes flowers bloom in all walks of life. My pain is like a river of tears, so full it fills the four oceans. Please call me by my true names, so I can hear all my cries and laughs at once, so I can see that my joy and pain are one. Please call me by my true names, so I can wake up, and so the door of my heart can be left open, the door of compassion. श्रीमद्भागवत जैसे सर्वाधिक महत्वपूर्ण पुराण में प्रह्लाद और हिरण्यकशिपु की कथा सातवे स्कंध के कई अध्यायों में वर्णन है, पर इसमें होलिका का नाम भी नहीं। कृत्या राक्षसी का उल्लेख इसमें है, पर होलिका जैसी कथा कृत्या के बारे में यहाँ नहीं है। भारत रत्न डॉ पी वी काणे ने अपने धर्मशास्त्र का इतिहास में भी होलिका नामक वरदान प्राप्त स्त्री का उल्लेख नहीं किया। यद्यपि होली पर्व ईसा की कई शताब्दियों पूर्व से ही मनाये जाने के प्रमाण मौजूद हैं। जैमिनी के मीमांसा सूत्र (400-200 ईसा पूर्व की रचना) और काठक गृह्य में इसे होलाका कहा गया, होला अन्न को भी कहते हैं। होरा ज्योतिष गणना में प्रयुक्त होता है. पर यहाँ उसका अर्थ अहोरात्र या दिनरात की गणना से है. भविष्यपुराण की कथा है कि एक ढोंढी नामक राक्षसी को शिव के वरदान से देव और मानव नहीं मार सकते थे, वह केवल बच्चों से डरती। तब फाल्गुन पूर्णिमा को लकड़ी से जलाकर इस राक्षसी का अंत किया गया। बंगाल में होलिका दहन नहीं होता, वहां इस दिन कृष्ण प्रतिमा की दोल (झूला) यात्रा निकलती है। अपनी अपनी परम्परा के अनुरूप यह पर्व मनाया जाता है। होली के अवसर पर दुश्मनी खूब निकालते रहे हैं. वैर भाव का विरेचन भी होता आया है. सबको हार्दिक शुभकामनाएं। फ़ेसबुक पोस्ट ३/३/२२ हम जितना चाहते हैं उतना जान नहीं पाते, जितना जानते हैं उतना बोल नहीं पाते, जितना बोलते हैं उतना कर नहीं पाते, जितना करते हैं उतना हो नही पाता और जितना होता है उसमें संतुष्ट नही रह पाते. इस असंतुष्टि के कारण हम और और नया नया चाहते रहते हैं. यह शृंखला ही संसार का सृजन करती है. यह सब करने में व्यक्ति अपमान और अभिमान में डूबे रहते हैं. बिना किए व्यक्ति रह नही सकता, क्योंकि आनंद पाना उसका मूल स्वभाव है, मनुष्य इस कार्यसंपादन में उक्त व्यतिक्रम के कारण कष्ट उठाता रहता है. संगति उससे एकाकार होने और तादात्म्य स्थापित करने में है. उसकी इच्छा में अपने कर्म को सार्थक करने में है. अन् में अ और न् दो वर्णों का योग है. अ प्रारंभ को कहते हैं. अ अनुत्तर दशा है इसलिए इसका प्रयोग न के अर्थ में होता है, साथ ही वह उत्तर दशा का प्रारंभ भी है. न् ब्रह्मांडीय जल की श्वास का नाम है. प्राण श्वास से जोड़कर चलें तो जल तत्व से प्राण का प्रारंभ माना जाएगा. जल अग्नि में नहीं है, किंतु जल में अग्नि है, इसी तरह वायु और आकाश में भी जल नहीं है, पर जल में ये तत्व उपस्थित हैं. प्राण रूप, स्पर्श और शब्द में हैं, पर उनकी स्थिति पृथ्वी से ऊपर की है. बात अन्न की करने के लिए अन् का उल्लेख हुआ. अन्न का अर्थ है जीवनी शक्ति. अन्न शब्द में यह अन् उल्टे क्रम में भी संयुक्त है अर्थात् अन्न में जीवनी शक्ति आगे-पीछे सभी क्रमों में विद्यमान है. हम अन्न ग्रहण करते हैं, साथ ही दूसरे प्राणियों का आहार भी बनते हैं. इस प्रकार अन्न भोज्य और भोक्ता दोनों है. अस्तु! भोज्य और भोक्ता की इस भुक्ति को देखते रहिए.... बहिर्मुख चेतना मन है, पर वही चेतना जब लौटकर अंतर्मुख होती है तो उसे नमः कहते हैं. मन ही नमः हो जाता है. अतः नमः का अर्थ है मुझमें लौट आना. प्रिया! नमन में हम अपनी ही बुद्धि, मन और आत्मा को प्रणाम करते हैं🙏 करुणा किसी के आंसू पोंछने भर को नहीं कहते, वरन् यह उन आंसुओं में भागीदार बनने की भावना है. करुणा रहम, दया, परोपकार या सहानुभूति नहीं है, अपितु यह पीड़ाजन्य प्रेमोदय है, जिसमें दृष्टि का अनंत विस्तार है. बस करुणा में पीड़ा है और प्रेम में आनंद है. करुणा में दुःख देने वाले के प्रति भी दया होती है, क्योंकि दुःख पाने वाला कर्मफल भोग कर रहा है, पर दुःख देने वाला कर्म संचय कर रहा है..., ४/३/२२ वीरभोग्या वसुंधरा! बलमुपास्व! नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः... आधिभौतिक कष्टों को दूर करने के लिए बल चाहिए, आधिदैविक दुखों से निवृत्ति के लिए भी संसाधन जुटाने ज़रूरी हैं, इसके लिए भी बल आवश्यक है. इनके बाद आध्यात्मिक कष्टों का निवारण करना है तो पहले दो से होकर गुजरना पडेगा, यहाँ पहुँचकर बल और सत्य एक हो जाते हैं. यहाँ बल अप्रासंगिक हो जाता है या वह अविभाज्य हो जाता है. व्यक्ति को बिना इन तीनो दुखों के निवारण के विश्राम प्राप्त होना संभव नहीं है... जब दो पक्ष या व्यक्ति लड़ रहे हों तो वे ही उसे शीघ्रता से और अच्छे ढंग से सुलटा सकते हैं. न्याय की आशा शक्ति के उपयोग और दुरुपयोग के बीच से होकर गुजरती है. हिंसक युद्ध का परिणाम विजय और पराजय में नहीं शोक में प्रकट होता है. शक्ति अगर शिव सायुज्य न हुयी तो दुःखद संहार ही होता है. जीवन अपने आप में आनंद प्राप्ति का प्रेममय संघर्ष है, पर विपक्ष बनाकर हिंसा और प्रतिहिंसा करके लड़ना उसकी आदिम मनोवृत्ति का पुनरोदय है. मनुष्येतर प्राणी अधिकार भावना के कारण हिंसा नहीं करते. कतिपय प्राणियों की हिंसा उनके आहार भर के लिए होती है. हाँ कुछ साँड़ यूँ भी यदा-कदा अपनी ज़ोर आज़माइश कर लेते हैं. मनुष्य ने न्याय पाने की कितनी प्रणालियाँ विकसित की हैं, क्या इन युद्धरत देशों के लिए उन सबसे कोई उम्मीद नहीं. इस हिंसा और प्रतिहिंसा का अंत शोक में ही होना है... ५/३/२२ अनंत का सुख इतना है कि कभी तृप्ति नहीं होती. सरदार पूरन सिंह की स्वामी राम जीवन कथा पढ़ी तो स्वामी रामतीर्थ मिशन की अन्य पुस्तकें जो स्वामी राम के व्याख्यानों के संकलन हैं वे भी आ रही हैं. गोपीनाथ कविराज की पुस्तकें स्वसंवेदन. मृत्यु विज्ञान, परातंत्र साधना पथ इत्यादि आ रही हैं, क्या अच्छा समय बीतेगा. ध्यान के बाद गुरुजी की चैंट्स मंत्र की तरह उठती हैं. यह चैंट्स साधारण गीत या भजन नहीं हैं. समाधि की दशा में यह मंत्रों का असर करती हैं, अन्य कोई मंत्र जानने की ज़रूरत नहीं रह जाती. तुझे पाया प्रभु मन सीमा पर अपनी. छुपो न भग़वन न अब छुपो न . छोड़ो न भग़वन छोड़ो न. ६/३/२२ everything is fare in war and love. यह दरअसल सर्वोच्च तल की सच्चाई है...वहाँ पहुँचकर हुए प्रेमोदय में जीवन संग्राम में सब मरते जीते रहते हैं.. ध्यान में चैंट्स गले से और नाक से ही नही गायी जाती, वरन शरीर का पोर-पोर इसे गाने लगता है और अंत में आंसू भी गाने लगते है, फिर नीरवता गाती है और गान स्वयं ही गाता रहता है. divine gurudeva. I came alone, I go alone, with Thee alone with Thee alone.गुरुदेव ७/३/२२ ....जहां गंगा, वन, हिमालय की कंदराएँ एवं मानव आत्मा का स्वप्न देखते हैं, मैं धन्य हुआ, मेरी काया ने वहाँ का स्पर्श किया...my india मनुष्य परमेश्वर के मन का मूर्त रूप है- गुरुदेव ८/३/२२ एक अपने स्वामी या दाता को पति तो दूसरी पिता मानती/मानता है, तीसरी/तीसरा मित्र मानता है. किसमें निकटता है उसमें जिसमें दोनों के संबंधों में प्रगाढ़ता है, समर्पण है. कोई काम करते समय या ख़ाली क्षण में अकस्मात् हांग सौ होने लगता है. इसमें श्वास रहितता का आनंद मिलने लगता है. यानि श्वास रहित होने को अभिधा में नहीं लिया जाना चाहिए. कश्मीर दर्शन में इसे प्रत्यभिज्ञा कहा गया है. ११/३/२२ घृणा, लज्जा, भय, शोक, जुगुप्सा, जाति का अभिमान, कुल का अभिमान तथा आत्माभिमान यह आठ पाश (बंधन) हैं। जिनका पति यानि धारक मनुष्य है। पशुपति (मनुष्य) के और पशुओं के भी नाथ यानी भगवान शिव की आज की रात्रि, जिनका रुद्र रूप संहारक हैं और शिव रूप कल्याणक हैं। यह दोनों अलग नहीं। वह आशुतोष हैं। बिल्वपत्र अर्पित करने के समय की स्तुति में उन्हें त्रिगुणाकार (सत, रज और तम) और त्रिजन्म (स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर) पाप संहारक कहा गया है। शिव भक्त तमाम तरह का नशा करके अपनी भक्ति प्रदर्शित करते हैं, क्योंकि शिव को धतूरा इत्यादि अर्पित किया जाता है। हमे उनकी भक्ति का नशा नशीले पदार्थों का सेवन करके नहीं, अपितु नाम खुमारी में डूबकर प्राप्त करना चाहिए। फ़ेसबुक पोस्ट अजनाभं नामैतद्वर्षम् भारतमिति यत आरभ्य व्यपदिशन्ति। भागवत 5/7/3 तेषां वै भरतो ज्येष्ठो नारायण परायणः। विख्यातं वर्षमेतद यन्नाम्ना भारतमद्भुतं 11/2/17 भागवत अर्थात् इस वर्ष को, जिसका नाम पहले अजनाभवर्ष था, राजा भरत के समय से ही 'भारतवर्ष' कहते हैं। यह भरत दुष्यंत और शकुंतला पुत्र नही, वरन् भगवान के चौबीस अवतारो में से एक ऋषभदेव के बड़े पुत्र थे। यही मृगयोनि से होते हुए जड़भरत जब हुए तो इन्होंने राजा रहूगण की पालकी ढोई और राजा को कहा तुम बड़े क्रूर और धृष्ट हो। तुमने इन बेचारे दीन दुखिया कहारों को बेगार में पकड़कर पालकी में जोत रखा है और फिर महापुरुषों की सभा में बढ़कर बाते बनाते हो कि मैं लोको की रक्षा करने वाला हूँ। राजा को चुनौती और उसे तत्वज्ञान देने वाले इन भरत के नाम पर ही इस देश का नाम भारत हो सकता था। १२/३/२२ ध्यान में कुछ भी विचार आते हैं, पर थोडे ही अंतराल में वे साक्षी की तरह आने जाने लगते हैं. बिल्कुल वैसे ही जैसे चित्रपट या फ़िल्म चल रही हो, यही चित्रपट कर्म जगत में भी चल रहा है... १३/३/२२ कभी का ज्ञात भी एक समय बाद अज्ञेय बन जाता है। भाषा, कला, संस्कृति, साहित्य इत्यादि जितने विकसित हुए, क्या वे सब जान लिए गए! क्या उन्हें पूरी तरह जाना जा सकता है! क्या उन्हें जानने के क्रम में हम पुनः अज्ञेय तक नहीं पहुँच जाते! स्थान और व्यक्ति नामों का अध्ययन करते समय वर्षो कितना श्रम किया, किंतु अनेक नामों की व्युत्पत्ति और इतिहास ज्ञात नहीं हो सके। जबकि यह सब व्यक्तियों ने ही तो बनाये हैं। इस प्रकार व्यक्ति द्वारा की हुई रचना भी ईश्वर की ही रचना बन जाती है। 15/3/22 वैदिक युग में कुछ अवसरों पर अविवाहित कुमारियां अग्नि के चारों ओर एकत्र हुआ करती थीं, वे जाज्वल्यमान अग्नि के सामने हाथ जोड़ा करती, उसकी परिक्रमा किया करती और यह गीत गाया करती थीं.. यही प्रसिद्ध महामृत्युंजय मंत्र हुआ... ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् | उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् || मंत्र का ऐतिहासिक अर्थ आओ हम सब सुगंधित देव, सर्वदृष्टा देव और हमारे पति के ज्ञाता देव की पूजा में निमग्न हो जाएँ. जिस प्रकार से भूसी से दानों को अलग कर दिया जाता है उसी प्रकार हम भी पितृ गृह के बंधनों से मुक्त हों, परंतु कभी, कदापि भी, पति गृह से विरत न हों. Let us be absorbed in the worship of the Fragrant One, the All-seeing One, the Husband-knowing One. As a seed from the husk, so may we be freed from bondage here (the parents' house), but never, never from there (the husband's home). swami ramtirth दूसरा अर्थ - हम त्रिनेत्र को पूजते हैं, जो सुगंधित हैं, हमारा पोषण करते हैं, जिस तरह फल, शाखा के बंधन से मुक्त हो जाता है, वैसे ही हम भी मृत्यु और नश्वरता से मुक्त हो जाएं। वैदिक मंत्र द्वारा गणपति से प्रार्थना की जाती है- ....आहमजानि गर्भधमात्वमजासि गर्भधम्॥ As a woman of a man, so shall I learn of Thee, I shall draw Thee closer and closer, I will drain Thy lips and the secret juices of Thy body, I will conceive of Thee, O Law! O Liberty! हे ईश्वर! हे शाश्वत विधान! जिस प्रकार पत्नी अपने पति को जानती है, उसी प्रकार मैं भी आपको जानूँ. मैं आपके निकट से निकटतर होता जाऊँ और आपके शरीर के जीवन-सत्व का रसास्वादन लूँ तथा आपके आत्मज को प्रकट कर सकूँ. 17/3/22 (होलिका दहन) दुनिया में १६ आना व्यक्त अग्नि नहीं है और न १६ आना सुप्त या अव्यक्त अग्नि है. सुप्त आग १५ आना तक रह सकती है. सुप्त आग कम हो तो बाह्य अधिक चाहिए और सुप्त अधिक हो तो बाह्य आग कम चाहिए. लकड़ी जितनी सूखी होगी, बाहरी आग की उतनी कम मात्रा आवश्यकता होगी और जितनी गीली होगी बाहर की मात्रा उतनी अधिक लगेगी. अंदर बाहर की अग्नि एक ही है. लकड़ी में चार आना सुप्त अग्नि है. इसमें बारह आना आवरण की अग्नि मिलाकर जलाना हमारा लक्ष्य होता है. जब इस प्रकार होलिका दहन होगा तब ऐसे रंग उड़ते हैं. उड़ा रहा हूँ मैं रंग भर-भर तरह-तरह की यह सारी दुनिया. चे खूब होली मचा रखी थी, पै अब तो होली यह सारी दुनिया. मैं साँस लेता हूँ रंग खुलते हैं, चाहूँ दम में अभी उड़ा दूँ. अजब तमाशा है रंगरलियाँ है खेल जादू यह सारी दुनिया. पड़ा हूँ मस्ती में गर्को-बेख़ुद न ग़ैर आया, चला न ठहरा. नशे में खर्राटा सा लिया था, जो शोर बरपा है सारी दुनिया(स्वामी रामतीर्थ की कविता) साँस, मन, सूर्य-चंद्र-अग्नि, संसार, जीवन यह सब एक सूत्र में गुँथे हुए हैं. एक से दूसरे जुड़े हुए. एक रुकता है तो दूसरा ठहर जाता है. सूर्य की उपस्थिति जाग्रत अवस्था में है. पति वह जो पत् को धारण करे, पत्नी उस पत् को आगे ले जाती है. पत् अस्तित्व को कहते हैं, लाज, भरोसा, रक्षा, शक्ति इत्यादि उसके बहुत से अर्थ लिए जाते हैं. १८/३/२२ भक्त गाते हैं... हो लाल मेरी पत रखियो बला झूले लालण, क्षणे-क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः अर्थात् जो क्षण-क्षण में नवीनता को प्राप्त हो,वही तो रमणीयता है अर्थात् सुंदरता है । फ़ेसबुक पोस्ट १८ मार्च २१ सौंदर्य चेतना में है या वस्तु में! व्यक्ति वस्तु भी है और चेतना भी। निःसंदेह सौंदर्य चेतना में है। चेतना को उज्ज्वल करने की आवश्यकता है..कुरूपता आगे बढ़ेगी ही नहीं। १८ मार्च 21 की फ़ेसबुक पोस्ट समझ में ज़िंदगी आए कहाँ से सबक़ पड़ता है हर दरमियाँ से! खुलता किसी पे क्यों मेरे दिल का मुआमला शेरों के इंतिख़ाब ने रुसवा किया मुझे! ग़ालिब है अनलहक हक़ मगर कहनी न थी यार की महफ़िल से बाहर यार की महफ़िल की बात. आइना बनकर मक़ाबिल उसके जब आता हूँ मै अपनी सूरत देखता हूँ और इतराता हूँ मैं. आज फ़रीद अयाज़ को सुना १९/३/२२ सत्य, प्रेम और करुणा क्रमशः मुक्ति, आनंद और स्वभाव के परिणाम हैं. सत्य में भाव और अभाव दोनों रहते, आनंद में अभाव रहता है और स्वभाव में न भाव और न अभाव रहता है. बोध तीनों में रहेगा. इश्क़ जब हद से गुज़र जाए तो बीमारी है. और जब हद से न गुज़रे तो अदाकारी है..बुल्ले शाह माला जपूं न कर जपूं और मुख से कहूँ न राम । राम हमारा हमे जपे और हम पायो विश्राम ।।कबीर राम नाम की खूंटी गाडी, सूरज ताना तंता। चढ़ते उतरते दम की खबर ले, फिर नहीं आना बनता कबीरा।। Meaning - Erect the loom of Ram's name, The sun its fibers & threads, Be aware of your breath which is arising and passing, You won't be coming back again अनहद बाजा बजे शहाना मुतरिब सुघड़ा ताल तराना. बुल्ले शाह जनेऊ को यज्ञोपवीत कहने का भाषा वैज्ञानिक आधार तो नहीं बनता. फिर जैसे भी जनेऊ को यज्ञोपवीत कहा जाने लगा हो. जनेऊ कुंडलिनी का प्रतीक है, जनेऊ संस्कार होने पर जातक द्विज कहलाने लगता है. द्विज यानि जिसका दूसरा जन्म हो गया हो. कुंडलिनी जागने पर यही होता है. कुंडलिनी का आवागमन जनेऊ की ही भाँति होता है. जनेऊ में गुँथे तीन धागे इड़ा पिंगला और सुषुम्ना हैं. फिर हर धागे के भी तीन तीन डोरे और होते हैं, वे त्रिगुणात्मिका प्रकृति, त्रिशूल तथा सुषुम्ना के भीतर की तीन नाड़ियों - वज्रा, चित्रा और ब्रह्मनाड़ी- के रूप हैं. ब्रह्म गाँठ भी जनेऊ में होती है. कुंडलिनी विज्ञान में ब्रह्म, विष्णु और रूद्र ग्रंथि का वर्णन मिलता है. ॐ श्रीश्चते लक्ष्मीश्च पत्न्या वहो रात्रे पार्श्वे नक्षत्राणि रूपमश्विनौभ्यात्तम् | इष्णं निखाणा मुम्मऽइखाण सर्भलोकं मऽइखाण || (-यजुर्वेद 22.22) Sriscate Lakshmisca patnyau ahoratre parsve Nakshatrani rupam aswinau vyaattam Ishtam manishaanaam Yajur Meaning:— Success and prosperity are thy maid-servants, day and night thy right and left sides, the splendour in stars thy looks, Heaven and Earth thy lips parted (in smiling). If ye desire anything, desire that. श्री और समृद्धि आपकी सहचरी हैं, वे दिन रात आपके दाएँ बाएँ रहती हैं, तारों की कांति आपकी चितवन है, स्वर्ग और पृथ्वी आपके मुस्कराते खुले अधर हैं, यदि आपको कोई अभिलाषा है तो उसकी कामना भर कीजिए... 20/3/22 bulle shah Alif Allah Chambe de booti Murshid mun vich laee Hu Nafi Asbaat da pani millia si har rage har jaee Hu Andar booti mushk machaya jaan phulan te aee Hu Jeevay Murshid mera kamil Bahu Jain aee booti laee Hu Alif. My Spiritual Guide planted the Love of Allah (all praises due) in my heart just like a jasmine plant. Hu With every vein [of mine] being watered by nothing but [the truth of] negation and affirmation [i.e. La ilaaha illa Allah]. ला यानि नहीं, इलाह ईश्वर, इल्ल लेकिन, अल्लाह ईश्वर there is no god but Allah . Hu This plant has caused much turmoil of fragrance within me upon reaching its full bloom. Hu Bahu! Long live my perfect Spiritual Guide who sowed [within me] this plant of Love of Allah Almighty. Hu. nafi asbat first the negation of everything other than God and second part is the affirmation of the Supreme Being. नफ़्स - वजूद, अस्तित्व, काम वासना, सच्चाई क़ल्ब- हृदय, मन सिर्र- रहस्य, क्रिया (जिसमें हल्की आवाज़ में नमाज़ पढ़ते हैं) खाफ़ी- गुप्त, दिया हुआ अख़्फ़ा- बहुत ज़्यादा गुप्त, सर्वाधिक गुप्त अरबी में पहले ला इलाह दूसरे में इल्लिल्लाह लिखा है, २५/३/२२ न्यूयार्क के एक समाचार पत्र में स्वामी रामतीर्थ के लिए लिखा गया- अमेरिका में एक विचित्र भारतीय साधु आया हुआ है, जो किसी धातु को नहीं छूता, अपने साथ भोजन की कोई सामग्री नहीं रखता. जब सैर करने निकलता है तो एक सामान्य कपड़े में कई कई दिन अत्यंत शीत स्थानों में घूमता रहता है. जब व्याख्यान देता है तो दिन में कई बार, और एक बार में तीन तीन घंटा लगातार बोलता रहता है. उसका रूप और छवि बड़ी ही मनोहर है. इन्हें 'लिविंग क्राइस्ट' कहा गया. स्वामी राम कहते थे भारत की जितनी सभाएँ, समाज और सम्प्रदाय हैं, वे सब राम के हैं और राम उन्हीं के माध्यम से कार्य करेगा. गणित के प्रोफ़ेसर रहे स्वामी जी के व्याख्यान हर किसी को पढने-गुनने चाहिए... भाव मानो फूल की कली है और प्रेम उसी का सुगंधित फूल. भाव परिपक्व होकर प्रेम में परिणति प्राप्त करता है. प्रेम उदय होने पर माँ संतान को गोद में ले लेती है. फिर व्यवधान नहीं रह जाता. अब रस भाव का उदय होता है. भावदेह, प्रेमदह और रसदेह यह क्रम है. भाव के पथ से प्रेम के द्वारा रस में नहीं पहुँच पाने से लीलाराज्य में प्रवेश पाने का अधिकार नहीं मिलता. आत्मा का रसास्वादन रसमय देह से होता है. सिद्धदेह से जागतिक व्यापार संपन्न होता है. गोपीनाथ कविराज भावदेह ज्ञानदेह प्राप्त होने पर मिलती है और ज्ञान स्थूल देह में आएगा. यही त्रिजन्म है. पहला स्थूल, दूसरा ज्ञान और तीसरा भाव देह का जन्म. हमने बेपर्दा तुझे माहजबीं देख लिया अब ना कर पर्दा के ओ पर्दानशीं देख लिया हमने देखा तुझे आंखों की सियाह पुतली में सात पर्दों में तुझे पर्दानशीं देख लिया हम नज़र-बाज़ों से तू छुप ना सका जान-ए-जहां तू जहां जाके छुपा हमने वहीं देख लिया तेरे दीदार की थी हमको तमन्ना, सो तुझे लोग देखेंगे वहां, हमने यहीं देख लिया. २६/३/२२ मन = शक्ति ; आत्मा =शक्तिमान मन जब समसूत्र में आत्मा से मिलित होता है ,तब अद्वैतावस्था होती है ---- सामरस्य । उसमें चैतन्य स्फूर्ति रहती है , मन का लय नहीं होता । उस समय मन आत्मा-कार होता है । इच्छा होते ही मन बाहर निकल सकता है , और बाहर होने से उसे कोई रोकने वाला नहीं । मन आत्मा का समकक्ष है ---तुल्य बल नहीं होने से मिलने पर यह अवस्था नहीं हो सकती । समान बल वाला मल्ल /पहलवान जैसे किसी को अभिभूत नहीं कर सकता , ठीक वैसा ही । यही स्वाधीनता या स्वातंत्र्य है । लेकिन मन का बल यदि कम हो और उस समय यदि आत्मा से मिलन हो तो मन अभिभूत हो जाता है । प्रबल से यदि दुर्बल मिलने जाये तो यही दशा होती है । यह चेतनाहीन जड़ अवस्था है । यह निर्वाण या मोक्ष है । सुतरां , निर्वाण को टालना हो , तो मन की सबलता आवश्यक है । इसीलिए शक्ति की उपासना होती है । जिस अनुपात में मन शक्तिमान होगा ,उसी अनुपात में यह आत्मा से समसूत्र में मिल सकेगा । शक्ति की क्रमिक वृद्धि से मिलन की गम्भीरता सम्पन्न होती है । इसीलिए साम्य अवस्था में भी नित्यक्रम है । चेतना ही शक्ति है । आनन्द ही मिलन है । स्वभाव ही आत्मा है । जीव ही मन है । चैतन्य या शक्ति के संचार -मात्र से ही इस साम्य का उदय होता है । वही शांत भाव । इस संचार के नहीं होने से मन बलहीन होता है ----उस अवस्था में आत्मलाभ नहीं होता । 8 , 12 , 1925 3 , 5, 2021 की पोस्ट आत्मा से यथार्थ साम्य एकमात्र महाशक्ति का है ---- दोनों तुल्यबल हैं, समरस । मन महाशक्ति से उद्भूत है । मन महाशक्ति का जितना ही समीपवर्ती होता है ,उतना ही अधिक रस का आस्वादन होता है । महाशक्ति नित्य सर्वरस का आधार है ,माधुर्य की खान । महाशक्ति की ओर जाने से मन का प्रसार होता है --क्रमशः चैतन्य-विकास होता है । महाशक्ति की ओर न जाकर सीधे आत्मा में जाने का मतलब है विषय का त्याग । विषय त्यागते ही मन आत्मा में लीन होता है । शून्य में लय ,जड़त्व । इसीलिए चैतन्य को पकड़ने के बाद ही विषय को छोड़ना चाहिए --तब फिर शून्य में लय नहीं होता । गीता में है "आत्म संस्थ मनम् कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत् "। बिना अवलम्ब के मन नहीं रहता । इसलिए आश्रित भाव -लाभ ही चैतन्य संचार है । महाशक्ति अवश्य ही निराश्रय है , वह स्वयं मन का आश्रय है । इसीलिए उनकी गोद में बैठकर मन आत्मा का रस ग्रहण करता है , स्वच्छंदता पाता है । माँ का आश्रय लिए बिना ज्ञान ,भक्ति --कुछ भी तो नहीं होसकती । कविराज ji 💐💐 इसका मतलब है जिनकी रुलाई छूटती है, वे शक्ति तत्व से वंचित रहते हैं और सीधे शिव तत्व में प्रवेश करते हैं ३०/३/२२ शारीरिक जनक और जननी ही पितर नहीं होते हैं. यह अग्निष्वाता पितर होते हैं. पाँच दिव्य पितर हैं पहला पितर सूर्य और चंद्रमा का जोड़ा है, उष्णता और तरलता का मिलापक. दूसरा पितर सम्वत्सर उत्तरायण और दक्षिणायन से मिलाप पा रहा है, तीसरा पितर मास जो शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष से मिलाप पा रहा है, चौथा पितर दिन रात है, यह प्रकाश और अंधकार से मिलाप पाता है. पाँचवाँ पितर अन्न है जो वीर्य और रज से दम्पित होता है. इनमें हर जोड़े का पहला पिता और दूसरी माता है. पहला प्राण है दूसरा रयि.

Wednesday, March 2, 2022

डायरी फ़रवरी २०२२


अनंत संसार समुद्र तार नौकायिताभ्यां गुरुभक्तिदाभ्यां।

वैराग्य साम्राज्यद् पूजनाभ्यां नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां॥१॥


उन गुरू की जो संसार रूपी अनंत समुद्र को पार करने के लिए

महानभक्ति रूपी नौका प्रदान करते हैं,

या अनंत संसार रूपी समुद्र को तारने वाली जो नौका की तरह है उस गुरू की,

जो वैराग्य रूपी साम्राज्य को प्रदान करने वाले हैं,

जो वैराग्य रूपी साम्राज्य में जो पूजनीय हैं उन गुरूओं की

हम चरण वंदना करते हैं।

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इस संसार रूपी अनंत समुद्र को गुरूभक्ति् रूपी नौका से पार करने योग्य बनाने वाले

और अमूल्य वैराग्य के साम्राज्य की राह दिखाने वाले गुरू के चरण वन्दना। गुरु पादुका स्तोत्र



श्रीशैलशृंगे विबुधातिसंगे तुलाद्रितुंगेऽपि मुदा वसन्तम्।

तमर्जुनं मल्लिकपूर्वमेकं नमामि संसारसमुद्रसेतुम्।।2।।

ऊंचाई की तुलना में जो अन्य पर्वतों से ऊंचा हैजिसमें देवताओं का समागम होता रहता हैऐसेश्रीशैलश्रृंग में जो प्रसन्नतापूर्वक निवास करते हैंऔर जो संसार सागर को पार करने के लिए सेतुके समान हैंउन्हीं एकमात्र श्री मल्लिकार्जुन भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ। द्वादश ज्योतिर्लिंगस्तोत्र


अपार संसार समुद्र मध्ये

निमज्जतो मे शरणं किमस्ति 

गुरो कृपालो कृपया वदैत-

द्विश्वेश पादाम्बुज दीर्घ नौका  १॥


प्रश्न :- हे दयामय गुरुदेव ! कृपा करके यह बताइये कि अपार संसाररूपी समुद्र में मुझ डूबते हुए काआश्रय क्या है ?


उत्तर :- विश्वपति परमात्मा के चरणकमलरूपी जहाज | प्रश्नोत्तरमणि माला



अहो निसर्ग गंभीरो घोर संसार सागरः.

अहो तत्तरणोपायः परः कोsपि मकेश्वरःस्तव चिंतामणि



तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।

भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्।।12.7।।

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka


।।12.7।।उनका क्या होता है --, हे पार्थ मुझ विश्वरूप परमेश्वरमें ही जिनका चित्त समाहित है ऐसेकेवल एक मुझ परमेश्वरकी उपासनामें ही लगे हुए उन भक्तोंका मैं ईश्वर उद्धार करनेवाला होता हूँ।किससे ( उनका उद्धार करते हैं ) सो कहते हैं कि मृत्युयुक्त संसारसमुद्रसे। मृत्युयुक्त संसारका नाममृत्युसंसार हैवही पार उतरनेमें कठिन होनेके कारण सागरकी भाँति सागर हैउससे मैं उनकाविलम्बसे नहींकिंतु शीघ्र ही उद्धार कर देता हूँ।



नलिनीदलगतजलवत्तरलं

तद्वज्जीवनमतिशयचपलम् 

क्षणमपि सज्जनसंगतिरेका

भवति भवार्णवतरणे नौका 

कमलपत्र पर पानी जैसा चंचल यह जीवन अतिशय चपल है  इसलिए एक क्षण भी की हुईसज्जनसंगति भवसागर को पार करनेवाली नौका है 


संसार क्यों है ! ओशो 

यह संसार क्यों है?” –  ओशो 

                                  

बहुत बार यह प्रश्न उठा है तुम मेंः ‘यह संसार क्यों हैइतनी ज्यादा पीड़ा क्यों हैयह सब किसलिएहैइसका प्रयोजन क्या है? ’ बहुत से लोग मेरे पास आते हैं और वे कहते हैं, ‘यह मूलभूत प्रश्न है किहम आखिर हैं ही क्योंऔर अगर जीवन इतनी पीड़ा से भरा हैतो प्रयोजन क्या है इसकायदिपरमात्मा हैतो वह इस सारी की सारी अराजकता को मिटा क्यों नहीं देताक्यों नहीं वह मिटा देताइस सारे दुख भरे जीवन कोइस नरक कोक्यों वह लोगों को विवश किए चला जाता है इस में जीनेके लिए? ’

योग के पास उत्तर है।


पतंजलि कहते हैं, ‘द्रष्टा को अनुभव उपलब्ध हो तथा अंततः मुक्ति फलित होइस हेतु यह होता है।


यह एक प्रशिक्षण है। पीड़ा एक प्रशिक्षण हैक्योंकि बिना पीड़ा के परिपक्व होने की कोई संभावनानहीं। यह आग हैसोने को शुद्ध होने के लिए इसमें से गुजरना ही होगा। यदि सोना कहेक्योंतोसोना अशुद्ध और मूल्यहीन ही बना रहता है। केवल आग से गुजरने पर ही वह सब जल जाता है जोकि सोना नहीं होता और केवल शुद्धतम वर्ण बच रहता है। मुक्ति का कुल मतलब इतना ही हैः एकपरिपक्वताइतना चरम विकास कि केवल शुद्धताकेवल निदाक्रषता ही बचती हैऔर वह सब जोकि व्यर्थ थाजल जाता है।


इसे जानने का कोई और उपाय नहीं है। कोई और उपाय हो भी नहीं सकता इसे जानने का। यदि तुमजानना चाहते हो कि तृप्ति क्या हैतो तुम्हें भूख को जानना ही होगा। यदि तुम बचना चाहते हो भूखसेतो तुम तृप्ति से भी बच जाओगे। यदि तुम जानना चाहते हो कि गहन तृप्ति क्या होती हैतो तुम्हेंजानना होगा प्यास कोगहन प्यास को। यदि तुम कहते हो, ‘मैं नहीं चाहता मुझे प्यास लगे’, तो तुमप्यास के बुझने कीउस गहन तृप्ति की सुंदर घड़ी को चूक जाओगे। यदि तुम जानना चाहते हो किप्रकाश क्या हैतो तुम्हें गुजरना ही पड़ेगा अंधेरी रात से। अंधेरी रात तुम्हें तैयार करती है जानने केलिए कि प्रकाश क्या है। यदि तुम जानना चाहते हो कि जीवन क्या हैतो तुम्हें गुजरना होगा मृत्यु से।मृत्यु तुम में जीवन को जानने की संवेदनशीलता निर्मित करती है।


वे विपरीत नहीं हैंवे परिपूरक हैं। ऐसा कुछ नहीं है संसार में जो कि विपरीत होहर चीज परिपूरकहै। ‘यह’ संसार अतित्व रखता है ताकि तुम जान सको ‘उस’ संसार को। ‘इसका’ अतित्व है ‘उसको’ जानने के लिए। भौतिक है आध्यात्मिक को जानने के लिएनरक है वर्ग तक आने के लिए। यही हैप्रयोजन। और यदि तुम एक से बचना चाहते हो तो तुम दोनों से बच जाओगेक्योंकि वे एक ही चीजके दो पहलू हैं। एक बार तुम इसे समझ लेते हो तो कोई पीड़ा नहीं रहतीः तुम जानते हो कि यह एकप्रशिक्षण हैएक अनुशासन है। अनुशासन कठिन होता है। कठिन होगा हीक्योंकि केवल तभी उससेसच्ची परिपक्वता आएगी।

योग कहता है कि यह संसार एक ट्रेनिंग स्कूल की भांति हैएक पाठशाला। इससे बचो मत औरइससे भागने की कोशिश मत करो। बल्कि जीओ इसेऔर इसे इतनी समग्रता से जीओ कि इसे फिरसे जीने को विवश  होना पड़े तुम्हें। यही है अर्थ जब हम कहते हैं कि एक बुद्ध पुरुष कभी वापस नहींलौटता। कोई जरूरत नहीं रहती। वह गुजर गया जीवन की सभी परीक्षाओं से। उसके लौटने कीजरूरत  रही।


तुम्हें फिर-फिर उसी जीवन में लौटने को विवश होना पड़ता हैक्योंकि तुम सीखते नहीं। बिना सीखेही तुम अनुभव की पुनरुक्ति किए चले जाते हो। तुम फिर-फिर दोहराते रहते हो वही अनुभववहीक्रोध। कितनी बारकितने हजारों बार तुम क्रोधित हुए होजरा गिनो तो। क्या सीखा तुमने इससेकुछ भी नहीं। फिर जब कोई स्थिति  जाएगी तो तुम फिर से क्रोधित हो जाओगेबिल्कुल उसीतरह जैसे कि तुम्हें पहली बार क्रोध  रहा हो!


कितनी बार तुम पर कब्जा कर लिया है लोभ नेकामवासना नेफिर कब्जा कर लेंगी ये चीजें। औरफिर तुम प्रतिक्रिया करोगे उसी पुराने ढंग सेजैसे कि तुमने  सीखने की ठान ही ली हो। और सीखनेके लिए राजी होने का अर्थ है योगी होने के लिए राजी होना। यदि तुमने  सीखने का ही तय करलिया हैयदि तुम आंखों पर पट्टी ही बांधे रखना चाहते होयदि तुम फिर-फिर दोहराए जाना चाहतेहो उसी नासमझी कोतो तुम वापस फेंक दिए जाओगे। तुम वापस भेज दिए जाओगे उसी कक्षा मेंजब तक कि तुम उत्तीर्ण  हो जाओ।


जीवन को किसी और ढंग से मत देखना। यह एक विराट पाठशाला हैएकमात्र विश्वविद्यालय है।विश्वविद्यालय’ शब्द आया है ‘विश्व’ से। असल में किसी विश्वविद्यालय को स्वयं कोविश्वविद्यालय नहीं कहना चाहिए। यह नाम तो बहुत विराट है। संपूर्ण विश्व ही है एकमात्रविश्वविद्यालय। लेकिन तुमने बना लिए हैं छोटे-छोटे विश्वविद्यालय और तुम सोचते हो कि जब तुमवहां से उत्तीर्ण होते हो तो तुम जान गए सबजैसे कि तुम बन गए ज्ञानी!


नहींये छोटे-मोटे मनुष्य-निर्मित विश्वविद्यालय  चलेंगे। तुम्हें इस विराट विश्वविद्यालय से जीवनभर गुजरना होगा।


      ओशो


यत् दृश्य तत् अल्प तत् नश्यदृग दृश्य विवेक That which is perceived is finite and perishable. 



2/2/22


शुद्धोसि बुद्धोसि निरँजनोऽसि

सँसारमाया परिवर्जितोऽसि

सँसारस्वप्नँ त्यज मोहनिद्राँ

मँदालसोल्लपमुवाच पुत्रम्।।मार्कण्डेय पुराण



एकायनोऽसौ द्विफलस्त्रिमूलश्चतूरसः पञ्चविधः षडात्मा।

सप्तत्वगष्टविटपो नवाक्षो दशच्छदी द्विखगो ह्यादिवृक्षः॥२७॥

भागवत १०..२७

भागवत १०..२७

भावार्थ:- यह संसार क्या है -

  • एक सनातन वृक्ष। इस वृक्ष का आश्रय है - प्रकृति।
  • इसके दो फल हैं - सुख और दुःख;
  • तीन जड़ें हैं - सत्त्वरज और तम;
  • चार रस हैं - धर्मअर्थकाम और मोक्ष।
  • इसके जानने के पाँच प्रकार हैंश्रोत्रत्वचानेत्ररसना और नासिका।
  • इसके छः स्वभाव हैं - पैदा होनारहनाबढ़नाबदलनाघटना और नष्ट हो जाना।
  • इस वृक्ष की छाल हैं सात धातुएँ - रसरुधिरमांसमेदअस्थिमज्जा और शुक्र।
  • आठ शाखाएँ हैं - पाँच महाभूतमनबुद्धि और अहंकार।
  • इसमें मुख आदि नवों द्वार खोड़र हैं।
  • प्राणअपानव्यानउदानसमाननागकूर्मकृकलदेवदत्त और धनंजय - ये दस प्राण हीइसके दस पत्ते हैं।
  • इस संसार रूपी वृक्ष पर दो पक्षी हैं - जीव और ईश्वर।



त्वमेक एवास्य सतः प्रसूतिस्त्वं सन्निधानं त्वमनुग्रहश्च।

त्वन्मायया संवृतचेतसस्त्वां पश्यन्ति नाना  विपश्चितो ये॥२८॥

भागवत १०..२८

भावार्थ:- इस संसार रूप वृक्ष की उत्पत्ति के आधार एकमात्र आप ही हैं। आपमें ही इसका प्रलय होताहै और आपके ही अनुग्रह से इसकी रक्षा भी होती है। जिनका चित्त आपकी माया से आवृत हो रहा हैइस सत्य को समझने की शक्ति खो बैठा है - वे ही उत्पत्तिस्थिति और प्रलय करने वाले ब्रह्मादिदेवताओं को अनेक देखते हैं। तत्त्वज्ञानी पुरुष तो सबके रूप में केवल आपका ही दर्शन करते हैं।


संसार वृक्ष का कथन और भगवत्प्राप्ति का उपाय

श्रीभगवानुवाच ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्‌  छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद  वेदवित्‌ गीता १५/
भावार्थ : श्री भगवान बोलेआदिपुरुष परमेश्वर रूप मूल वाले (आदिपुरुष नारायण वासुदेव भगवानही नित्य और अनन्त तथा सबके आधार होने के कारण और सबसे ऊपर नित्यधाम में सगुणरूप सेवास करने के कारण ऊर्ध्व नाम से कहे गए हैं और वे मायापतिसर्वशक्तिमान परमेश्वर ही इससंसाररूप वृक्ष के कारण हैंइसलिए इस संसार वृक्ष को 'ऊर्ध्वमूलवालाकहते हैंऔर ब्रह्मारूपमुख्य शाखा वाले (उस आदिपुरुष परमेश्वर से उत्पत्ति वाला होने के कारण तथा नित्यधाम से नीचेब्रह्मलोक में वास करने के कारणहिरण्यगर्भरूप ब्रह्मा को परमेश्वर की अपेक्षा 'अधःकहा है औरवही इस संसार का विस्तार करने वाला होने से इसकी मुख्य शाखा हैइसलिए इस संसार वृक्ष को'अधःशाखा वालाकहते हैंजिस संसार रूप पीपल वृक्ष को अविनाशी (इस वृक्ष का मूल कारणपरमात्मा अविनाशी है तथा अनादिकाल से इसकी परम्परा चली आती हैइसलिए इस संसार वृक्षको 'अविनाशीकहते हैंकहते हैंतथा वेद जिसके पत्ते (इस वृक्ष की शाखा रूप ब्रह्मा से प्रकट होनेवाले और यज्ञादि कर्मों द्वारा इस संसार वृक्ष की रक्षा और वृद्धि करने वाले एवं शोभा को बढ़ाने वालेहोने से वेद 'पत्तेकहे गए हैंकहे गए हैंउस संसार रूप वृक्ष को जो पुरुष मूलसहित सत्त्व से जानताहैवह वेद के तात्पर्य को जानने वाला है। (भगवान्‌ की योगमाया से उत्पन्न हुआ संसार क्षणभंगुरनाशवान और दुःखरूप हैइसके चिन्तन को त्याग कर केवल परमेश्वर ही नित्य-निरन्तरअनन्य प्रेमसे चिन्तन करना 'वेद के तात्पर्य को जाननाहै)1



Saṃsāra is a journey of the Atman.


Saṃsāra in Jainism represents the worldly life characterized by continuous rebirths and suffering in various realms of existence.


Samsara is considered permanent in Buddhism, just like other Indian religions. Karma drives this permanent Samsara in Buddhist thought, states Paul Williams, and "short of attaining enlightenment, in each rebirth one is born and dies, to be reborn elsewhere in accordance with the completely impersonal causal nature of one's own karma.


Sikhism, like the three ancient Indian traditions, believes that body is perishable, there is a cycle of rebirth, and that there is suffering with each cycle of rebirth.[123][127] These features of Sikhism, along with its belief in Saṃsāra and the grace of God, is similar to some bhakti-oriented sub-traditions within Hinduism such as those found in Vaishnavism.



संसार (संसारएक संस्कृत / पाली शब्द है जिसका अर्थ है "दुनिया" [1] [2] यह पुनर्जन्म कीअवधारणा और "सभी जीवनपदार्थअस्तित्व की चक्रीयताभी हैजो कि अधिकांश भारतीय धर्मोंका एक मौलिक विश्वास है  [3] [4] लोकप्रिय रूप सेयह मृत्यु और पुनर्जन्म का चक्र है  [2] [5]संसार को कभी-कभी शब्दों या वाक्यांशों के साथ संदर्भित किया जाता है जैसे कि स्थानांतरगमनकर्म चक्र, पुनर्जन्म या पुनर्जनमन , और "उद्देश्यहीन बहावभटकने या सांसारिक अस्तित्व का चक्र"[2] [6]


बौद्ध धर्म में भावचक्र संसार का वर्णन करते हैं

संसार की अवधारणा की जड़ें उत्तर वैदिक साहित्य में हैं ; वेदों में स्वयं सिद्धांत की चर्चा नहीं की गईहै  [7] [8] प्रारंभिक उपनिषदों में यह विकसित रूप में दिखाई देता हैलेकिन यंत्रवत विवरण केबिना  [9] [10] संसार के सिद्धांत की पूरी व्याख्या बौद्ध धर्म और जैन धर्म जैसे श्रमणिक धर्मों केसाथ - साथ पहली सहस्राब्दी ईसा पूर्व के मध्य में हिंदू दर्शन के विभिन्न स्कूलों में पाई जाती है।[10] [11] संसार का सिद्धांत कर्म से जुड़ा हुआ हैहिंदू धर्म का सिद्धांत , और संसार से मुक्ति भारतीयपरंपराओं की आध्यात्मिक खोज के साथ-साथ उनकी आंतरिक असहमति के मूल में रहा है। [12] [13] संसार से मुक्ति को मोक्ष , निर्वाण , मुक्ति या कैवल्य कहा जाता है 


संसार शब्द कई उपनिषदों में मोक्ष के साथ आता हैजैसे कि कथा उपनिषद के श्लोक 1.3.7 में , [26]श्वेताश्वतर उपनिषद के 6.16 , [27] मैत्री उपनिषद के छंद 1.4 और 6.34 में  


संसार कहीं बाहर नहीं है तुम्हारे रस में हैइसी तरह मोक्ष भी तुम्हारे विरस हो जाने में है...


साधना का आरम्भ संकल्प से होता है तथा समर्पण में इसका अंत होता है...


जीव के कर्मों और मन के अवसान को संध्या कहते हैंयहाँ ध्यान समाप्त हो जाता हैप्रार्थना हीएकमात्र मार्ग रह जाता हैधर्ममेघ समाधि की दशा यही है.


4/2/22

ब्रह्मैवेदममृतं पुरस्ताद् ब्रह्म पश्चाद् ब्रह्म दक्षिणश्चोत्तरेण

अधश्चोर्ध्वं  प्रसृतं ब्रह्मैवेदं विश्वमिदं वरिष्ठम्मुंडक उप /११

यह अमृत स्वरूप परब्रह्म ही सामने हैब्रह्म ही पीछे हैब्रह्म ही दाएँ और बाएँ हैनीचे और ऊपर भीफैला हैयह जो सम्पूर्ण जगत है वह सर्वश्रेष्ठ ब्रह्म ही है.


अग्नि अन्नाद है जो ईंधन रूपी अग्नि का भक्षण करके जीवित रहती हैजो कुछ भक्षण किया जाता हैवह सब अन्न है



ब्राह्मण अग्नि मुखी कहे गएदेवता सूक्ष्म आहार ग्रहण करते हैंसूक्ष्म आहार अग्नि के माध्यम सेलिया जाता हैस्थूल आहार लेने के चार तरीक़े हैं.

अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।

प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्।।गीता 15.14।।


मैं हीपेटमें रहनेवाला जठराग्नि होकर अर्थात् यह अग्नि वैश्वानर है जो कि पुरुषके भीतर स्थित हैऔर जिससे यह ( खाया हुआ ) अन्न पचता है इत्यादि श्रुतियोंसे जिसका वर्णन किया गया हैवहवैश्वानर होकरप्राणियोंके शरीरमें स्थित -- प्रविष्ट होकर प्राण और अपानवायुसे संयुक्त हुआभक्ष्यभोज्यलेह्य और चोष्य -- ऐसे चार प्रकारके अन्नोंको पचाता हूँ। वैश्वानर अग्नि खानेवाला हैऔर सोम खाया जानेवाला अन्न है। सुतरां यह सारा जगत् अग्नि और सोमस्वरूप हैइस प्रकारदेखनेवाला मनुष्य अन्नके दोषसे लिप्त नहीं होता। (हरिकृष्ण गोयनका द्वारा व्याख्यायित)




सूक्ष्म आहार अग्नि में भस्मीभूत होकर ग्रहण होता हैयज्ञ कार्यों के पीछे का यही रहस्य हैयद्यपि यज्ञकी अग्नि एक प्रकार की हैअग्नियाँ भी पाँच अलग अलग प्रकार की हैंपंचाग्नि उपासना का वर्णनउपनिषदों में हुआ हैकठोपनिषद में नचिकेता अग्नि कही गयी हैपृथ्वी पर रहने पर स्थूल आहार सेकाम चलता हैपर स्वर्ग में यह आहार नहीं होतापंचमहाभूत ही वहाँ आहार होते हैंब्राह्मणों को दानदेने का कारण यह आहार व्यवस्था हैअग्निमुखी ब्राह्मण को अन्न दान और अन्य दान करने सेव्यक्ति पर देवताओं की कृपा होगी और दानकर्ता व्यक्ति स्वर्ग में ब्राह्मण को प्रदत्त आहार काप्रतिदान लेंगे.

अग्नि की सूर्य से भी उच्चतर दशा हैअग्नि का ईंधन है सूर्य इस अग्निमुखता के कारण ब्राह्मण वर्णोंमें अग्रगण्य हुआ.


//२२


 विश्वकृद्विश्वविदात्मयोनिर्ज्ञः कालकारो गुणी सर्वविद्यः . प्रधान क्षेत्रज्ञपतिर्गुणेशःसंसारमोक्षस्थितिबंध हेतुःश्वेताश्वतर उप /१६

वह ज्ञानस्वरूप परमात्मा सर्वसृष्टासर्वज्ञस्वयं ही अपने प्राकट्य का हेतुकाल का भी महाकालसम्पूर्ण दिव्य गुणों से संपन्न और सबको जानने वाला हैजो प्रकृति और जीवात्मा का स्वामीसमस्तगुणों का शासक तथा जन्म-मृत्यु रूप संसार में बांधनेस्थित रखने और मुक्त करने वाला है


स्वस्ति  इंद्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाःवृद्धश्रवा इंद्र (सुयश वालेहमारा मंगल करेसमस्त विश्व (ज्ञानके आधार पूषा हमारा मंगल करेअथर्ववेदीय शांतिवचन


सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायतेसर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठतिसर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यतिसर्वं जगदिदंत्वयि प्रत्येतित्वं भूमिरापोsनलोsनिलो नभःत्वं चत्वारि वाक्पदानिगणपत्यथर्वशीर्षोपनिशत्  

यह समस्त संसार आपसे उत्पन्न होता हैयह समस्त संसार आपसे ही अस्तित्व में आया हैयहसमस्त संसार आपमें ही लय को प्राप्त होगायह समस्त संसार आप में ही लौट आता हैआप पृथ्वीजलअग्निवायु तथा आकाश होआप चतुष्पाद वाणी (परापश्यंतीमध्यमा तथा वैखरीहो.


विश्वाद्यं विश्वबीजं निखिल भयहरं पंचवक्त्रं त्रिनेत्रम्

जो विश्व के आदि हैं, , विश्व ke बीज (कारणहैंजो अशेष भयनाशक हैंपंचमुख तथा त्रिनयन हैंउन महेश का नित्य ध्यान करो


संसार रोगहरमौषधमद्वितीयम्संसार रूपी रोग के नाशक अद्वितीय औषधस्वरूप हैंउनको मैंप्रातःकाल नमन करता हूँ.


संसार दुःखगहनाज्जगदीश रक्षहे जगदीश संसाररूपी अरण्य से मुझ अनाथ की रक्षा करो

विश्वनाथ नाम ही उनका विश्वअधिपति होने के कारण है.


संसार सागरनिमग्नमनंतदीनम्

उद्धर्तुमर्हसि हरे पुरूषोत्तमोsसिसंसारसागर में निमग्न होकर मैं चिरकाल se कष्ट पा रहा हूँअतः हेपुरुषोत्तमहे सर्वसंतापों का हरण करने वालेमुझ पर कृपा करके मेरा उद्धार करो.


तं संसारध्वांतविनाशं हरिमीडेसंसार के अज्ञान -अंधकार के नाशक हरि की मैं स्तुति करता हूँ.


ऋग्वेद १०/९० और तैत्तिरीयआरण्यक /१२ में पुरुषसूक्त में संसार रचना का पूरा विवरण मिलता है...


सहस्त्रशीर्षा पुरुष:सहस्राक्ष:सहस्रपात् |


 भूमि सर्वतस्पृत्वाSत्यतिष्ठद्द्शाङ्गुलम् ||||

जो सहस्रों सिरवालेसहस्रों नेत्रवाले और सहस्रों चरणवाले विराट पुरुष हैंवे सारे ब्रह्मांड को आवृतकरके भी दस अंगुल शेष रहते हैं ||||

पुरुषSएवेदं सर्व यद्भूतं यच्च भाव्यम् |


उतामृतत्यस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ||||

जो सृष्टि बन चुकीजो बननेवाली हैयह सब विराट पुरुष ही हैं | इस अमर जीव-जगत के भी वे हीस्वामी हैं और जो अन्न द्वारा वृद्धि प्राप्त करते हैंउनके भी वे ही स्वामी हैं ||||

एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः |


पादोSस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ||||

विराट पुरुष की महत्ता अति विस्तृत है | इस श्रेष्ठ पुरुष के एक चरण में सभी प्राणी हैं और तीन भागअनंत अंतरिक्ष में स्थित हैं ||||

त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुष:पादोSस्येहाभवत्पुनः |


ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशनेSअभि ||||

चार भागोंवाले विराट पुरुष के एक भाग में यह सारा संसारजड़ और चेतन विविध रूपों में समाहित हैइसके तीन भाग अनंत अंतरिक्षमें समाये हुए हैं ||||

ततो विराडजायत विराजोSअधि पूरुषः |


 जातोSअत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुर: ||||

उस विराट पुरुष से यह ब्रह्मांड उत्पन्न हुआ | उस विराट से समष्टि जीव उत्पन्न हुए | वही देहधारी रूपमें सबसे श्रेष्ठ हुआजिसने सबसे पहले पृथ्वी कोफिर शरीरधारियों को उत्पन्न किया ||||


या वर्णपदवाक्यार्थस्वरूपेण एव वर्तते.

अनादिनिधनानंता सा मां पातु सरस्वती..


जो (क्रमशः उत्तरोत्तरप्रत्येक वर्णपद तथा वाक्य द्वारा प्रतिपादित अर्थ के स्वरूप में विद्यामान हैंवेआदिअंतहीना एवं अनंत सरस्वती मेरी रक्षा करें.


//२२

सुखमापतितं सेव्यं दु:खमापतितं तथा 

चक्रवत् परिवर्तन्ते दु:खानि  सुखानि  

जीवन में आनेवाले सुख का आनंद ले, , तथा दु: का भी स्वीकार करें 

सुख और दु: तो एक के बाद एक चक्रवत आते रहते है 


जान-ना

 

नीम का पेड़ नहीं जानता कि नीम है उसका नाम

 पीपल के पेड़ को पता कि वह पीपल है

यह तो आदमी है जो जानता है कि उसका नाम

बाँकेबिहारी दुबे है और उसके पड़ोसी का 

शेख़ रहीम.

आदमी अपने नाम के गौरव के बारे में जानता है.

 

और भी बहुत कुछ जानता है वह-

नामों की उत्पत्ति और नीति-वचनों के बारे में

इतिहास और न्याय के बारे में

तत्त्व-मीमांसा और वेदांत के बारे में

रामायणहदीस और क़ुरआन के बारे में

रहीम की दूसरी जोरू और तीसरी सन्तान के बारे में

पर आदमी यह नहीं जानता कि रहीम के बारे में जानना;

और रहीम को जानना-

दो अलग बातें हैं

 

आदमी यह भी नहीं जानता-

कि अतिरिक्त जानना एक तरह की अश्लीलता है.

 

आदमी केवल पेड़ों के नाम  जानता है

पेड़ों को नहींबाबुशा कोहली

-भाषा में

बाबुषा कोहली










लोग अपनी भाषा में क्या कहते हैंउसका बहुत अर्थ नहीं मेरे लिए। 

जो वे कहते नहींमेरे कानों से बच कर निकलता नहीं। 

सीखी नहीं

साध ली जीवन के लिए तरंग की भाषा। 

भाषाएँ उपयोग में लाती हूँ केवल कार्यालयीन अनुष्ठान संपन्न करने के लिए। 

काट देती हूँ कविता में भाषाशनिवार के नाख़ून की तरह

मन से निषेध के दिनों में। 

बचपन से लेकर अब तक गिनती के बीस मित्र हुए मेरे। 

एक नदीएक घाटदो वनदो सितारेएक कुत्ता और तेरह मनुष्य। 


//२२


आज स्वप्न आया कि अपने आश्रम में बारह-पंद्रह भक्तों के साथ बैठे हैंवहाँ एक बड़ी नागिन नागिनअलमारी में अपनी शक्ति से झूम झूम कर नृत्य कर रही हैउसकी नृत्य करते समय बंद अलमारी केकपाटों से टकराहट को देखकर स्वामीजी ने दरवाज़ा खोल दियावह बाहर आकर उन्मुक्त होकरनृत्य कर रही हैहम भक्तों के पीछे से वह सरककर जा रही हैआख़िर में यह शरीर बैठा थावहनागिन घूमकर आती है और मेरे घुटने से होकर शरीर से होकर गुजरती हैमेरी समाधि लग जाती हैमाँ माँ की पुकार करता हूँ और पता नहीं रहता क्या मेरे भीतर घटित हो रहा हैफिर वह नागिन अलगहोकर  दिखती है...




//२२



संसारवृक्ष-भवबीजमनन्तकर्म-शाखाशतं करणपत्रमनंगपुष्पम्‌।

आरुह्य दुःखफलित पततो दयालो लक्ष्मीनृसिंहम देहिकरावलम्बम्‌॥6

 हे कृपालुअघ जिसका मूल बीज हैअनगिनत कर्म शाखाएँ हैंअनंग फूल है और दुःख कष्ट हीजिसका फल हैऐसे संसार रूपी वृक्ष पर आरूढ़ होकर मैं अधःपतित हो रहा हूँहे लक्ष्मीनृसिंह ! मुझेअपने करकमल का अवलंब दीजिए.


१४//२२


गांधी कोई अवतार नहीं थेपर उनमें भारतीयता उतरी हुयी थीइसी कारण वे भारत के प्रतिनिधि हुएऔर पीढ़ी दर पीढ़ी लोगों को प्रभावित करते रहेअसल में जब से पैसे से सब विनिमय होने लगावहीमहत्वपूर्ण हो गया हैवरना जिसके यहाँ जो होता उससे जो अति आवश्यक वस्तु चाहिएउसे लेलिया जाता धन संग्रह की आवश्यकता रहती त्याग का आदर्श बघारने की मनःस्थितिअब जबआर्थिक ढाँचा बदल गया तो भारतीय समाज उसके अनुरूप अपने को जितना जल्दी ढाल ले उतनाअच्छापर फिर भी गांधी प्रासंगिक बने रहेंगे क्योंकि वे कोई व्यक्ति नहीं थेविचार भी नहींवरन वेजीवन जीने का एक सलीका थे...🙏


शब्द या आकाश में वायुअग्निजल और पृथ्वी नहींवायु में अग्निजल और पृथ्वी नहींअग्नि मेंजल और पृथ्वी नहीं एवं जल में पृथ्वी तत्व नहीं होतापर पृथ्वी में सभी पाँच महाभूतजल में अग्निवायु और शब्दअग्नि में शब्द और वायुवायु में शब्द और शब्द में मात्र शब्द रहता हैहर तत्व मेंअपना विषय रहेगा हीपर उससे नीचे के महाभूतों के विषय नहीं होतेपृथ्वी सबसे अंत का महाभूत हैइसलिए उसमें सभी महाभूत मिलते हैंअनुपात सबमें सबका अलग अलग रहता हैपृथ्वी तत्व में आधेहिस्से में गंध तो बचे आधे हिस्से में से बचे चारों विषय - शब्द स्पर्श रूप और रस बराबर बराबर होतेहैं.


१५//२२


All my questions have been answered, not through man but through God. He is, He is. It is His spirit that talks to you through me. It is  His love that I speak of. Thrill after thrill Like gentle zephyrs His love comes over the soul. Day and night, week after week, year after year, it goes on increasing you don't know where the end is. And that is what you are seeking, every one of you. You think you want  human love and prosperity, but behind these it is your Father who is calling you. If you realize He is greater than all His gifts, you will find Him.


~ Sri Sri Paramahansa Yogananda, 

"The Divine Romance"




इस विषय में हमें जो लगता है आदरणीया तुहिना कि संभोग तो हम पाँचों इंद्रियों का उनके विषयों सेमहाभूतों में रहकर निरंतर होते हुए देख ही रहे हैं तभी तो वह संभोग कहा गयाअच्छा शब्द चयन है. . पर उपस्थ इंद्रिय क्रीड़ा को मानव ने अधिक महत्वपूर्ण समझ लिया हैअनंत को किसी छोर सेपकड़ेंगेबोध होने पर ज्ञात हो ही जाएगा.



महाभारत हो सकता है किसी युद्ध को देखकर प्रेरित होकर लिखा गया होपर वह व्यक्ति कीआंतरिक वृत्तियों की द्वंद्व कथा है। व्यक्ति के भीतर ही वे विरोधी वृत्तियां मौजूद रहती हैंउनसे संघर्षऔर विजय की कथा है महाभारत। 

भाइयों/बहनों या परिवारों के बीच संघर्ष होता हैपर अगर बात उतनी ही होती तो यह महाकाव्य ही बन पातावह एक घटनाक्रम या इतिहास बनकर रह जाता। वह कालजयी महाकाव्य है क्योंकि वहप्रत्येक व्यक्ति को उसके अंतर्मन में ले जाने की कथा है। युधिष्ठिरअर्जुनदुर्योधन इत्यादि जितनेपात्र हैंउन सबके प्रतीकार्थ हैंवे व्यक्ति के अंदर ही हैं। १५//२१


विवादों से परे होना नेता का गुणधर्म नहींवरन उसमें नीति और न्याय क्या है उसके पक्ष में खड़ादिखना उसका कर्तव्य हैऔर कोई विवाद छोटा या बड़ा अथवा निजी या सार्वजनिक नहीं होताउसेहम कैसे लेते हैंमहत्वपूर्ण वही हैएक के निपटारे में कितनों के समाधान निहित होते हैं🙏



16/2/22

बेगमपुरा सहर को नाउदुखु-अंदोहु नहीं तिहि ठाउ।

ना तसवीस खिराजु  मालुखउफुन खता  तरसु जुवालु।

अब मोहि खूब बतन गह पाईऊहां खैरि सदा मेरे भाई।

काइमु-दाइमु सदा पातिसाहीदोम  सोम एक सो आही।

आबादानु सदा मसहूरऊहाँ गनी बसहि मामूर।

तिउ तिउ सैल करहिजिउ भावैमहरम महल  को अटकावै।

कह ‘रविदास’ खलास चमाराजो हम सहरी सु मीतु हमारा।


रैदास साहेब इस पद के द्वारा बताना चाहते हैं कि उनका आदर्श देश बेगमपुर हैजिसमें ऊंच-नीचअमीर-गरीब और छूतछात का भेद नहीं है। जहां कोई टैक्स देना नहीं पड़ता हैजहां कोई संपत्ति कामालिक नहीं है। कोई अन्यायकोई चिंताकोई आतंक और कोई यातना नहीं है। रैदास साहेब अपनेशिष्यों से कहते हैं- ‘ मेरे भाइयोमैंने ऐसा घर खोज लिया है यानी उस व्यवस्था को पा लिया हैजोहालांकि अभी दूर हैपर उसमें सब कुछ न्यायोचित है। उसमें कोई भी दूसरेतीसरे दर्जे का नागरिकनहीं हैबल्किसब एक समान हैं। वह देश सदा आबाद रहता है। वहां लोग अपनी इच्छा से जहां चाहेंजाते हैं। जो चाहे कर्म (व्यवसायकरते हैं। उन पर जातिधर्म या रंग के आधार पर कोई प्रतिबंधनहीं है। उस देश में महल (सामंतकिसी के भी विकास में बाधा नहीं डालते हैं। रैदास चमार कहते हैंकि जो भी हमारे इस बेगमपुरा के विचार का समर्थक हैवही हमारा मित्र है।


१७//२२


महावीर से उलट बुद्ध ने मांसाहार पर व्यावहारिक रूख अपनाया थाबुद्ध अपनी मौत से मरे हुएपशुओं का मांस खाना निषिद्ध नहीं मानते थेइसी मान्यता के कारण आज भी बुद्ध से प्रभावित देशोंजापानकम्बोडिया इत्यादि में तख़्तियाँ लगीं मिलती हैं कि यहाँ अपने से मरे जानवरों का मांसमिलता हैयद्यपि आश्चर्य है कि मांसाहारियों को सुलभ प्रचुर मांस की तुलना में कितने पशु सहजरूप में मरते होंगेफिर बूचड़खाने कैसे चल रहे हैं


अपनी मौत से मरे हुए पशुओं का मांस खाने वाली अकेली चमार जाति रही हैजो भारत में प्राचीनकाल से निवास कर रही हैइसी आधार पर डॉक्टर आम्बेडकर ने स्थापना दी थी कि चमार पहले केबौद्ध हैं



कोई एक जाति देखें तो सबसे अधिक चमार जाति ही भारत में मिलती है और यह भारत में सर्वत्रपायी जाती है



१९//२२


शिव संसार सार हैंस्थूलसूक्ष्म और कारण शरीरमनकामसमय और कार्य कारणता संसार हीहैशेष दृश्यमान जगत उक्त के कारण ही अस्तित्वमान हैविश्व नाम की भ्रांति केवल मलदोष सेआती हैस्वशक्तिप्रचयोsस्य विश्वंशिवसूत्रयह सर्व विश्व मेरा ऐश्वर्य हैयह विश्वात्म भाव उदितहोने पर भेदरूप विकल्प तिरोहित हो जाते हैंअनहद ध्वनि विश्व का कुल योग हैपरम ज्योति में यहसब समाया हुआ हैजगत ब्रह्म विलास हैजल की शीतलता का स्पर्श जल से भिन्न नहीं होताप्रत्यभिज्ञा हृदयम् में कहा गया है-

श्रीमत्परमशिवस्य पुनः विश्वोत्तीर्ण-विश्वात्मक-परमानंदमय-प्रकाशैकघनस्य एवंविधमेव शिवादि-धरण्यंतं अख़िलं अभेदेनैव स्फ़ुरति तु वस्तुतः अन्यत् किंचित् ग्राह्यं ग्राहकं वाअपि तुश्रीपरमशिवभट्टारक एव इत्थं नाना वैचित्र्यसहस्रैह स्फ़ुरति.

अर्थात् भगवान परशिव या पराशक्ति के लिए विश्व नाम की कोई वस्तु नहीं हैवे केवलसत्यनिर्गुणनिराकारव्यापक और पूर्ण हैंउनको शिव से लेकर पृथ्वी तक यानी स्थावर-जंगमात्मकदिखने वालाप्रकट अप्रकट सभी जगत अभेद रूप से परमानंदमय प्रकाशरूप अपने जैसा ही प्रतीतहोता हैवस्तुतः उनके सिवा अन्य कुछ भी नहीं हैदृष्टा-दृश्य भाव भी नहीं हैग्राह्य-ग्राहक भाव भीनहीं हैजीव शिव भाव भी नहीं हैजड़ चेतन भाव भी नहीं हैअपितु श्रीमत् परमशिव परमेश्वर अकेलाहाई इस जगत के चित्रविचित्र अनेक रूपों में स्फ़ुरता हैयह विश्व भगवान का शरीर है और विश्वरूपमें परमशिव अपनी आत्मस्थिति में खड़ा है

हरिरेव जगत

इति वा यस्य संवित्तिः क्रीड़ात्वेनाखिलं जगत्जो परशिव की पराशक्ति हैउसी संवित्ति की क्रीड़ाअथवा विलास यह सारा जगत हैस्पंदशास्त्र

इसीलिए स्तुतियाँ गायी गयीं हैं-

नमस्ते शरण्ये शिवे सानुकंपे

नमस्ते जगद्व्यापिके विश्वरूपे

नमस्ते जगद्वंद्यपादारविंदे

नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे.. 


२०//२२


आती और जाती श्वास के साथ संसार हैअकस्मात् ठहरी हुयी श्वास में उससे उपरामता हैइस क्षणमें संसार के होने और  होने का दर्शन हो जाता है.

असल में संसार शब्द बौद्ध दर्शन के प्रभाव से चलन में आयाउससे पहले वेदों और उपनिषदों मेंइसके लिए विश्व और जगत शब्द प्रचलित थे



सृष्टि प्रकाश और छाया दोनों ही हैअन्यथा कोई चित्र सम्भव नहीं हो सकतामाया के भले एवं बुरेगुण बारी बारी से एक दूसरे पर हावी होते रहते हैंयोगी कथामृत पृष्ठ ३७२


सृष्टि का मूल ताना बाना ही माया हैउसकी मूल रचना माया हैस्वयं प्रकृति माया है.xxxअपने क्षेत्रमें प्रकृति शाश्वत और अपार हैभावी वैज्ञानिक उसकी विविधरूपी अनंतता के एक के बाद एकपहलू की खोज करते जाने से अधिक कुछ नही कर पायेंगेब्रह्मांड के नियमों का पता लगाने की तोउसमें क्षमता है परंतु उसके विधाता और जगन्नियंता को ढूँढ पाने में वह असमर्थ हैपृष्ठ ३६१

न्यूटन का गति का सिद्धांत माया का ही एक नियम है 'प्रत्येक क्रिया के लिए उसके समतुल्य विपरीतप्रतिक्रिया होती हैकिन्ही भी दो पिंडों की एक दूसरे पर क्रियाएँ सदैव समतुल्य और परस्पर विरोधीदिशाओं में लक्षित होती है.

परस्पर विरोधी शक्तियों की जोड़ी या धनात्मक और ऋणात्मक ऊर्जा के बिना अणु गति नहीं करसकताअणु पदार्थ नहीं वरन शक्ति हैआण्विक ऊर्जा का स्वरूप मूलतः मनोमय है

विश्व माया मनुष्यों में अविद्या (अज्ञानभ्रमके रूप में प्रकट होती हैमाया या अविद्या को बौद्धिकविश्वास या विश्लेषण के द्वारा कभी नष्ट नहीं किया जा सकताकेवल निर्विकल्प समाधि कीआंतरिक स्थिति की प्राप्ति से ही उसे नष्ट किया जा सकता है.

दुर्बोध और शाश्वत समझे गए समय और दूरी (काल और देशभी सापेक्ष और सीमित हैंउनके मापका औचित्य केवल प्रकाश गति के संदर्भ में है.


भौतिक विज्ञान केवल परछाइयों के जगत से सम्बंधित हैमेरे हाथ की छाया टेबल की छाया परटिकी हुयी है और स्याही की छाया काग़ज़ की छाया पर अंकित हो रही हैयह सब प्रतीकात्मक हैरसायनशास्त्री प्रतीकों को उनके मूल स्वरूप में परिवर्तित कर देता हैनिष्कर्ष यह कि जगत का साराप्रपंच केवल मनोमय (मन जिस तत्व से बना हैउसी तत्व से बनाहै.

अस्तु परमहंस योगानंद कहते हैं यदि आध्यात्मिक शिक्षा द्वारा नहीं तो विज्ञान द्वारा ही सहीमनुष्यको यह दार्शनिक सत्य समझ लेना चाहिए कि भौतिक जगत नाम की कोई चीज़ ही नहीं हैउसकाताना बाना भी केवल। हराम हैमाया है.

आइंस्टाइन ने सुविख्यात समीकरण में सिद्ध किया है कि पदार्थ के किसी भी कण में निहित ऊर्जाuske वस्तुमान (mass) या वज़न के साथ प्रकाशगति के वर्ग के गुणनफल के बराबर होती है

केवल ऐसा पदार्थ पिंड की गति के साथ जा सकता है जिसका वस्तुमान अनंत हो.

सिद्ध योगी की चेतना उसके छोटे से शरीर से बंधी  रहकर अनायास ही ब्रह्मांड की रचना के साथतद्रूप हो जाती हैयहाँ गुरुत्वाकर्षण का नियम काम नहीं करता.


सृष्टि प्रकाश से ही बनी हैसृष्टि का मूलतत्व प्रकाश हैसृष्टि एक ही शक्ति की विविधअभिव्यक्तियाँ मात्र हैसारी अभिव्यक्तियाँ ईश्वरीय प्रज्ञा से युक्त प्रकाश की हैंजिस प्रकार सिनेमाके चित्र वास्तविक प्रतीत होते हैंपरंतु होते हैं मात्र प्रकाश और छाया के मिले जुले चित्रउसी प्रकारसृष्टि की विविधता भी एक भ्रम मात्र हैइसी संसार में यदि अखंड आनंद प्राप्त हो जाए तो क्यामनुष्य किसी दूसरे लोक की कामना करेगादुःख उसे याद दिलाने के लिए चुभोया जाने  वाला एकशूल हैदुःख से बचने का उपाय ज्ञान हैमृत्यु की विभीषिका मिथ्या हैअवास्तविक है



इदं हि विश्वं भगवानिवेतरो

यतो जगत्स्थाननिरोधसम्भवाः भागवतम //२०

पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान स्वयं विश्व स्वरूप हैं तथापि उससे निर्लिप्त भी हैंउन्हीं से यह दृश्य जगतउत्पन्न हुआ हैउन्हीं पर टिका है और संहार के बाद उन्हीं में प्रवेश करता है


द्वैते भद्राभद्र ज्ञान सब मनोधर्म

एइ भाल एइ मंद  एइ सब भ्रम..श्री चैतन्य चरितामृत /१७६


२१//२२


गति के बिना संसार नहीं रहताअंधेरे में हम अपने ही पैर नहीं बढ़ा पातेप्रकाश में हाथ पैर चलाने परतो वाक्चक्षु इत्यादि शेष कर्मेंद्रियाँ मानो स्वतः चलने लगती हैंश्रोत्र इंद्रिय ही अंधेरे में काम करपाती हैशब्द इसका विषय हैशब्दार्थ पर एक लम्बा आलेख पहले दिया गया हैआकाश काघनीभूत रूप ही हम सब हैंआकाश सब में सर्वत्र har काल में उपस्थित है


संसार की भीषण विकरालता पर हर जगह और हर सम्प्रदाय में कहा गया हैगुर्वाष्टक का पहलाश्लोक है-

संसार-दावानल-लीढ-लोक-

त्राणाय कारण्य-घनाघनत्वम्

प्राप्तस्य कल्याण-गुणार्णवस्य

वंदे गुरोः श्रीचरणारविंदम्

श्री गुरुदेव कृपासिंधु से आशीर्वाद प्राप्त करते हैंजिस प्रकार वन में लगी दावाग्नि को शांत करने हेतुबादल उस पर जल की वर्षा कर देता हैउसी प्रकार श्री गुरुदेव भौतिक जगत् की धधकती अग्नि कोशांत करकेभौतिक दुःखों से पीड़ित जगत् का उद्धार करते हैंशुभ गुणों के सागरऐसे श्री गुरुदेव केचरणकमलों में मैं सादर नमस्कार करता हूँ.


जीवन ईश्वर का नाटक हैइसका अंतिम अध्याय अधिक महत्वपूर्ण हैनायक और खलनायकस्वास्थ्य और रोगसुख और दुःखयह सब उसके प्रकाश और छाया के नाटक हैंजीवन में फ़िल्म कीभाँति ईश्वर प्रकाश बीम या पुंज हैद्वैत चल रही फ़िल्म है और हम सब उसके चित्रप्रकाश पुंज केसाथ एक हो जाने से कोई दुःख व्याप्त नहीं रहता


२२//२२

झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें॥

जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई॥1


जिसके बिना जाने झूठ भी सत्य मालूम होता हैजैसे बिना पहचाने रस्सी में साँप का भ्रम हो जाता हैऔर जिसके जान लेने पर जगत का उसी तरह लोप हो जाता हैजैसे जागने पर स्वप्न का भ्रम जातारहता है।



जय गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता।। नहिं तब आदि मध्य अवसाना। अमितप्रभाव बेदु नहिं जाना।। भव भव विभव पराभव कारिनि। विश्व विमोहिनि स्ववश विहारिनि।।कृष्णकोश पर दिए व्वरन में स्वामी करपात्री जी ने कहा हैब्रह्म का लक्षण है, ‘जन्माद्यस्य यतः’, ‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्तेयेन जातानि जीवन्तियत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति तद् ब्रह्म’ जिससेसम्पूर्ण प्रपन्च उत्पन्न होता हैजिसमें सम्पूर्ण प्रपन्च स्थित रहता है और जिसमें सम्पूर्ण प्रपन्च लीन होजाता है वही ब्रह्म है। गौरी भी ‘भव भव विभव पराभव कारिणी’ हैं अतः गौरी भी ब्रह्म है। तात्पर्य किजैसे कोई नट लीलार्थ अनेक वेष धारण कर अनेक भावों का प्रदर्शन करता है तथापि वह वैसे हीपरात्पर परब्रह्म ही लीलार्थ अनेकधा प्रकट होते हैं तथापि अपने मूल स्वरूप में तटस्थ है। 



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यहाँ पहले भव का अर्थ संसार है तो दूसरे भव का अर्थ जन्म से हैजीव का अर्थ भी जन्म लेने से ही है.

ब्रह्मविषयक जिज्ञासा के बाद ब्रह्मसूत्र के पहले अध्याय के पहले पाद का दूसरा सूत्र  है जन्माद्यस्ययतःइस जगत् के जन्म आदि जिससे होते हैंवह ब्रह्म हैयह सूत्र ही भागवतम् के पहले श्लोक कापहले चरण का हिस्सा बना हैजन्माद्यस्य यतोsन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट् 

बोलेपहले ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करो। ब्रह्म क्या हैजिससे सारे जगत की उत्पत्ति होती हैस्थितिहोती हैऔर जिसमें जगत का लय होता है वह ब्रह्म है। हम उस परम सत्य का ध्यान करते हैं।अर्थेष्वभिज्ञः स्वराट्’ - अभिज्ञ का अर्थ होता है चैतन्यस्वरूपतो वह सत्य चैतत्यस्वरूप है और वहीइस जगत का कारण है। जगत का जो भी कारण होगा , वह असत् तो नहीं हो सकता। उसकोसत्तास्वरूप होना चाहिए। ‘अभिज्ञ’ से बताया कि वह चैतन्यस्वरूप हैऔर ‘स्वराट्’ शब्द से यहदर्शाया गया कि वह स्वयं चैतन्यस्वरूप हैकिसी और के कारण चेतन नहीं हुआ है।


संसारांकुरकारणमाणवं....छः कंचुकों का समूह मिलकर अणु बनता हैइस आणव मल के कारणसंसार का उन्मेष होता है.


प्रत्यभिज्ञाहृदयं का कथन है बललाभे विश्वं आत्मसात्करोतिजो चिति का बल प्राप्त कर लेता है वहजगत् को आत्मात कर लेता है


स्वामी रामतीर्थ ने कहा है ब्रह्मभाव में स्थित होने पर यह सारा संसार ही सौंदर्य का स्फुरणआह्लादका प्रकाशआनंद की बाढ़ सा बन जाता हैजब दृष्टि की ससीमता नष्ट हो गयी तब फिर हमारे लिएअसुंदर कुछ भी नहीं रह जातासारा संसार ही निर्मल और सुंदर हो उठता हैरामपत्रों की झांकीपृष्ठ २७० स्वामी राम जीवन कथा 



२४//२२


संसार में सदा उथल पुथल एवं परेशानी रहेगीआप किस बात से चिंतित हैंईश्वर की शरण में जाएँजहां गुरुजन गए हैं और जहां से वे संसार को देख रहे हैं और उसकी सहायता कर रहे हैं परमहंसयोगानंद



२५//२२



बिस्वरूप रघुबंस मनि करहु बचन बिस्वासु।
लोक कल्पना बेद कर अंग अंग प्रति जासु॥14

भावार्थ : मेरे इन वचनों पर विश्वास कीजिए कि ये रघुकुल के शिरोमणि श्री रामचंद्रजी विश्व रूप हैं- (यह सारा विश्व उन्हीं का रूप है) वेद जिनके अंग-अंग में लोकों की कल्पना करते हैं॥14

चौपाई :

पद पाताल सीस अज धामा। अपर लोक अँग अँग बिश्रामा॥
भृकुटि बिलास भयंकर काला। नयन दिवाकर कच घन माला॥1

भावार्थ : पाताल (जिन विश्व रूप भगवान्‌ काचरण हैब्रह्म लोक सिर हैअन्य (बीच के सबलोकोंका विश्राम (स्थितिजिनके अन्य भिन्न-भिन्न अंगों पर है। भयंकर काल जिनका भृकुटि संचालन(भौंहों का चलनाहै। सूर्य नेत्र हैंबादलों का समूह बाल है॥1

जासु घ्रान अस्विनीकुमारा। निसि अरु दिवस निमेष अपारा॥
श्रवन दिसा दस बेद बखानी। मारुत स्वास निगम निज बानी॥2

भावार्थ : अश्विनी कुमार जिनकी नासिका हैंरात और दिन जिनके अपार निमेष (पलक मारना औरखोलनाहैं। दसों दिशाएँ कान हैंवेद ऐसा कहते हैं। वायु श्वास है और वेद जिनकी अपनी वाणीहै॥2

अधर लोभ जम दसन कराला। माया हास बाहु दिगपाला॥
आनन अनल अंबुपति जीहा। उतपति पालन प्रलय समीहा॥3

भावार्थ : लोभ जिनका अधर (होठहैयमराज भयानक दाँत हैं। माया हँसी हैदिक्पाल भुजाएँ हैं।अग्नि मुख हैवरुण जीभ है। उत्पत्तिपालन और प्रलय जिनकी चेष्टा (क्रियाहै॥3

रोम राजि अष्टादस भारा। अस्थि सैल सरिता नस जारा॥
उदर उदधि अधगो जातना। जगमय प्रभु का बहु कलपना॥4

भावार्थ : अठारह प्रकार की असंख्य वनस्पतियाँ जिनकी रोमावली हैंपर्वत अस्थियाँ हैंनदियाँ नसोंका जाल हैसमुद्र पेट है और नरक जिनकी नीचे की इंद्रियाँ हैं। इस प्रकार प्रभु विश्वमय हैंअधिककल्पना (ऊहापोहक्या की जाए?4

दोहा :

अहंकार सिव बुद्धि अज मन ससि चित्त महान।
मनुज बास सचराचर रूप राम भगवान॥15 क॥

भावार्थ : शिव जिनका अहंकार हैंब्रह्मा बुद्धि हैंचंद्रमा मन हैं और महान (विष्णुही चित्त हैं। उन्हींचराचर रूप भगवान श्री रामजी ने मनुष्य रूप में निवास किया है॥15 ()


संसार में रहो पर उसके होकर नहीं....संसार में जब हम आए तो गर्भ में सबसे पहले रीढ़ बनीउससेहमारी मूल चेतना भटक गयीक्रिया योग से यह चेतना वापस सहस्रार में जब जाती है तो पुनः हमेंआनंद और प्रेम उपलब्ध हो जाता है.


२६//२२


सृष्टि निर्माण कैसे होता है...

रहस्यमय सिद्धभूमि तथा सूर्यविज्ञान।


• डॉ पंगोपिनाथ कविराज

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सूर्य से जो उत्पन्न होते हैं

वे हैं वैवस्वत्।


 ये कौन हैंवैवस्वत्  

यम = काल = अग्निरुद्र (कालाग्नि रुद्र)


 'काल:पचति भूतानिइससे विदित होता है कि काल है अग्निस्वरूप। 


ये संहारक रुद्र हैं। 

ये जगत् के परिणाम साधक हैं। 


पुनः सूर्य से उत्पन्न होते हैं सोम तथा चन्द्र। 

तभी सूर्य हैं सविता। 


सोम = सूतजो जलस्वरूप है। अतः सूर्य सृष्टिसाधक हैं।

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एक वस्तु को यदि धूप में रखा जाये तब उसकी छाया पड़ती है। 


जितना ही सूर्य के निकट ले जाया जाये

उतनी ही छाया होती जायेगी। 


अन्त में छाया भी आलोक में विलीन हो जाती है।


 *यदि उस वस्तु को सूर्यगत कर देंतब जहाँ-जहाँ सूर्य का आलोक हैवहाँ उस वस्तु की छाया रहेगीतथापि दृष्टिगोचर नहीं होगी।*


 अतः सूर्य में जो कुछ हैवही उसके आलोक में है।

 मान लें वह वस्तु है ''

 उसकी छाया है  


सूर्य है बिन्दु। 

सूर्य प्रभा है प्रभा अथवा चक्र। वास्तव में  को आत्मा कहेंतब है स्थूल। 


 

(सभी वस्तुसभी आत्मासूर्य में है। 


सूर्यवत् समभावेन है। 

सभी सूर्य प्रभा में है।

 वहीं पाई जा सकती हैं। 


' को नीचे उतारने पर

 'घनीभूत हो जाता है।


जब समस्त प्रभामण्डल से किरणें एक स्थान पर जमती हैं,

तब सृष्टि होती है।

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स्वामी राम तीर्थ ने सूर्य की छाया हिमखंड पर पड़ने के उदाहरण से इसे स्पष्ट किया हैजब यह नदीबनती है तब उस पर प्रतिबिंब बनना प्रारंभ होता है..



27/2/22


27, 7 , 1938


आँख बंद करने से जो अंधकार है ,वही कलियुग का चिन्ह  वही शूद्रवर्ण है  उसके बाद जोपूर्णप्रकाश होता है ,वही सत्ययुग है  वही ब्राह्मण वर्ण है  

कलियुग में जन्म लेकर थोड़ी या सटीक साधना द्वारा , कोई  या विशेष चेष्टा के बिना किये हीसत्ययुग तक जाया जा सकता है  इसीलिए ,हम जितने लोगों को देखते हैं ,सभी कलियुग में वासकरते हैं ,ऐसा नहीं  कोई द्वापर ,कोई त्रेता ,कोई सत्य में भी वास करता है  लेकिन यह सत्य है किअधिकांश लोग कलि में वास करते हैं 

जो इच्छानुसार कलि से सत्य तक -जा सकता है , वह चार युग की लीला देख पाता है  

सत्ययुग में निद्रा नहीं है ,आलस्य नहीं है , अंधकार या अज्ञान नहीं है --अवश्य बीज है  कारण कालका व्यापार  है 

 स्व संवेदन पृष्ठ 246 गोपीनाथ कविराज



बीज एक होता है पर उसमें दो दल होते हैंयह द्वैत बीज में ही हैपर बीज जब गल जाता है और तनापत्तीपुष्प और फल बनता हैवह बंट जाता हैसबके लिए अपनी अपनी तरह से उपयोगी बनता हैफिर वह बीज बनता है और दो दलों को अपने में समेट लेता है....

२८//२२


योग सिखाता है कि सृष्टि की मौलिक संरचना ईश्वर का विचार है xxxx ब्रिटिश वैज्ञानिक सर जेम्सजींस ने लिखा विश्व एक मशीन की अपेक्षा एक महान विचार प्रतीत होने लगा है.

आइंस्टाइन ने कहा था मैं जानना चाहता हूँ कि ईश्वर ने यह संसार कैसे बनायामेरी इस या उसघटना मेंइस या उस तत्व के वर्णक्रम में रुचि नहीं हैमैं ईश्वर के विचारों को जानना चाहता हूँ बाक़ीसब तो विवरण हैजहां है प्रकाश परमहंस योगानंद पृष्ठ ११४११५ की पादटिप्पणी

अस्तु

संसारैकनिमित्ताय संसारैकविरोधिने

नमः संसाररूपाय निःसंसाराय शंभवेशिवस्तोत्रावली /


हम जितना चाहते हैं उतना जान नहीं पातेजितना जानते हैं उतना बोल नहीं पातेजितना बोलते हैंउतना कर नहीं पातेजितना करते हैं उतना हो नही पाता और जितना होता है उसमें संतुष्ट नही रहपातेइस असंतुष्टि के कारण हम और और नया नया चाहते रहते हैंयह शृंखला ही संसार का सृजनकरती हैयह सब करने में व्यक्ति अपमान और अभिमान में डूबे रहते हैंबिना किए व्यक्ति रह नहीसकताक्योंकि आनंद पाना उसका मूल स्वभाव हैमनुष्य इस कार्यसंपादन में उक्त व्यतिक्रम केकारण कष्ट उठाता रहता हैसंगति उससे एकाकार होने और तादात्म्य स्थापित करने में हैउसकीइच्छा में अपने कर्म को सार्थक करने में हैतत्सुखे सुखित्वं.


संसार  की सीमा को समझने  के लिए गोस्वामी तुलसीदास की यह चौपायी आसान है

गो गोचर जंह लग मन जाई

सो  सब माया जानेहु भाई।