Monday, September 12, 2022
अगस्त २०२२
३/८/२२
आज ध्यान में गुरु परंपरा के सब गुरुओं का स्मरण हुआ। प्रेम और स्नेह की बौछार गुरुदेव ने की। स्वामी श्रीयुक्तेशर जी कठोर अनुशासन में तो लाहिरी बाबा तक पहुँच बनाना मुश्किल लगा। महावतार बाबा जी में सब आप्लावित ही हैं।
४/८/२२
यूँ तो विगत दस माह से अपने वर्तमान कालेज में प्राचार्य पद का दायित्व निभाया जा रहा है, पर अपने गृह जनपद में,आयोग से चयनित होकर नियुक्ति की संस्तुति उच्च शिक्षा निदेशालय से होने के बाद का प्रसंग बदल जाता है। इस अवसर पर आप सबकी प्राप्त शुभकामनाओं से मेरी झोली भर गयी है। ललितपुर के और बाहर के भी मेरे सब सुधी मित्रजन बहुत अपनत्व के साथ ख़ुशी प्रकट किए हैं। आप सबका नेह, आशीष और सहयोग इसी प्रकार बना रहे। आपके सम्मिलित विश्वास को निभा सकूँ, वही मेरी पूँजी होगी। अस्तित्व को और उसका बोध कराने वाली गुरु परंपरा, पूर्वज, माता-पिता, प्रयागराज से भैया-भाभी, पत्नी, पुत्री, भाई बहिन, बाल्यकाल से लेकर अबतक के हितैषी मित्र, संबंधी, कुटुंबी सबके प्रति कृतज्ञता और अनुराग पूर्वक पूरी विनम्रता और सामर्थ्य से यह दायित्व स्वीकार करने के लिए प्रभु मुझे शक्ति दे।
....त्वया हृषीकेश हृदि स्थितोस्मि
यथा नियुक्तोस्मि तथा करोमि।
भाषा भगवद अनुभूति को पूर्णतः व्यक्त नहीं कर पाती, किंतु यह भी सही है कि हर भाषाई अथवा ग़ैर भाषाई अभिव्यक्ति एवं अनभिव्यक्ति अनंत का गुणगान है।
७/८/२२
Urge is when you are overpowered by your desire. Will is when you just like to do, bas, according to your choice. that is something else.
ऐश्वर्यज्ञानवैराग्य-धर्मेभ्योप्युपरि स्थितिं।
नाथ प्रार्थयमानानां त्वदृते का परा गतिः।। स्तव चिंतामणि ९३
सायंकाल के ध्यान के पश्चात् नाद श्रवण एक बड़े नगाड़े की ध्वनि की भाँति सुनाई दिया। एक बड़ी सी टंकार होती रही। बाद में बाएँ कान की ओर से प्रकाश पुंज कौंधा. आँख खोलने पर लुप्त हो गया। आँखें बंद रहने और खोलने के बीच यह दृश्य घटित हुआ।
८/८/२२
मानव शरीर में पंच
ज्ञानेंद्रियों श्रोत्र, त्वक्, चक्षु, जिह्वा और नासिका का स्थान ऊपर स्थित है। जबकि उनकी क्रमशः
पाँच कर्मेंद्रियाँ नीचे वाक् पाणि पादौ चोपस्थ पायू के रूप में अवस्थित रहती हैं। इन ज्ञानेंद्रियों और कर्मेंद्रियों के संघात से क्रमशः पाँच तन्मात्रायें या विषय शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध का उदय होता है। इन विषयों का आश्रय पाँच महाभूतो आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी में है। उक्त तत्व मन, बुद्धि और अहंकार से परिचालित जब होते हैं, तब संसार निर्मित होता है।
११/८/२२
रक्षासूत्र का मंत्र है- येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल:। तेन त्वामनुबध्नामि रक्षेन मा चल मा चल।। इस मंत्र का सामान्यत: अर्थ लिया जाता है कि दानवों के महाबली राजा बलि जिससे बांधे गए थे, उसी से तुम्हें बांधता हूं। हे रक्षे!(रक्षासूत्र) तुम चलायमान न हो, चलायमान न हो। धर्मशास्त्र के विद्वानों के अनुसार इसका अर्थ यह है कि रक्षा सूत्र बांधते समय ब्राह्मण या पुरोहित अपने यजमान को कहता है कि जिस रक्षासूत्र से दानवों के महापराक्रमी राजा बलि धर्म के बंधन में बांधे गए थे अर्थात् धर्म में प्रयुक्त किए गये थे, उसी सूत्र से मैं तुम्हें बांधता हूं, यानी धर्म के लिए प्रतिबद्ध करता हूं। इसके बाद पुरोहित रक्षा सूत्र से कहता है कि हे रक्षे तुम स्थिर रहना, स्थिर रहना। इस प्रकार रक्षा सूत्र का उद्देश्य ब्राह्मणों द्वारा अपने यजमानों को धर्म के लिए प्रेरित एवं प्रयुक्त करना है।
यही उद्देश्य भाई बहिन और परिजन का है।
१६/८/२२
परमपिता, जगन्माता, सखा, प्रियतम प्रभु! मैं तर्क करूँगा, मैं इच्छाशक्ति का प्रयोग करूँगा, मैं कार्यरत होऊँगा; परन्तु आप मेरे तर्क, इच्छाशक्ति एवं कार्य को उचित दिशा की ओर निर्देशित करें।
१९/८/२२
भारत की परंपरा वाचिक ज्ञान लेने देने की रही है। रामकृष्ण परमहंस निरक्षर या बहुत कम पढ़े लिखे थे, पर उनकी कही बातें उपनिषदों की भाँति पढ़ी और सराही जाती हैं।
२०/८/२२
ŚB 10.2.26
सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यंसत्यस्य योनिं निहितं च सत्ये । सत्यस्य सत्यमृतसत्यनेत्रंसत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्ना: ॥ २६ ॥
satya-vrataṁ satya-paraṁ tri-satyaṁ
satyasya yoniṁ nihitaṁ ca satye
satyasya satyam ṛta-satya-netraṁ
satyātmakaṁ tvāṁ śaraṇaṁ prapannāḥ
Synonyms
satya-vratam — the Personality of Godhead, who never deviates from His vow*; satya-param — who is the Absolute Truth (as stated in the beginning of Śrīmad-Bhāgavatam, satyaṁ paraṁ dhīmahi); tri-satyam — He is always present as the Absolute Truth, before the creation of this cosmic manifestation, during its maintenance, and even after its annihilation; satyasya — of all relative truths, which are emanations from the Absolute Truth, Kṛṣṇa; yonim — the cause; nihitam — entered*; ca — and; satye — in the factors that create this material world (namely, the five elements – earth, water, fire, air and ether); satyasya — of all that is accepted as the truth; satyam — the Lord is the original truth; ṛta-satya-netram — He is the origin of whatever truth is pleasing (sunetram); satya-ātmakam — everything pertaining to the Lord is truth (sac-cid-ānanda: His body is truth, His knowledge is truth, and His pleasure is truth); tvām — unto You, O Lord; śaraṇam — offering our full surrender; prapannāḥ — we are completely under Your protection.
२१/८/२२
श्रीमद्भागवत 1/5/38 में
श्री भगवान को 'मन्त्रमूर्तिममूर्तिकम् ' कहा गया है , इससे प्रतीत होता है कि मंत्र उनकी मूर्ति है तथापि वे अमूर्त हैं । भगवान् के मंत्र या शब्द-ब्रह्ममय रूप का वर्णन भागवत के अन्य स्थलों में स्पष्ट रूप से मिलता है । सिद्धावतार कपिलदेव के पिता प्रजापति कर्दम ऋषि के दीर्घकाल तक तपस्या करने पर प्रसन्न होकर भगवान् उनके सामने शब्द -ब्रह्मात्मक रूप धारण करके आविर्भूत हुए थे ।
तावत्प्रसन्नो भगवान् पुष्कराक्षः कृते युगे ।
दर्शयामास तं क्षत्तः शार्ब्द ब्रह्मदधद्वपु :
भारतीय संस्कृति और साधना पृष्ठ 503
२३/८/२२
शास्त्रों में लिखा है ; शब्द ब्रह्म में निष्णात होने पर परब्रह्म की उपलब्धि होती है । शब्दातीत परब्रह्म का साक्षात्कार यदि करना हो तो , शब्द का आश्रय लेकर ही शब्दराज्य का भेदन करना होगा । समग्र विश्व शब्द से ही उद्भूत है एवं शब्द में विधृत है ।
शास्त्र वचनों से ज्ञात होता है कि शब्द ही सृष्टि का मूल है । यदि सृष्टि से बाहर जाना हो, तो शब्द ही एकमात्र अवलंबन है । इसीलिए जप साधना में शब्द का अवलम्बन करके ही शब्दातीत परब्रह्म पद में जाने का उपदेश दिया गया है ।
जपविज्ञान
तांत्रिक वाङ्गमय में शाक्त दृष्टि / पृष्ठ 323
२४/८/२२
संसार में सुखपूर्वक रहने का सूत्र यही है कि हम दूसरों को देते रहें, जो कुछ हमारे पास है उसी में से। कोई इतना दरिद्र नहीं जिसके पास कुछ देने को न हो। इसे दर्शन पक्ष कह सकते हैं। दूसरा पक्ष जीवन का है, जिसमें देने के लिए प्रचलित विधियों का परिज्ञान आवश्यक हो जाता है। अन्यथा जीवन और दर्शन की संगति नहीं रह पाएगी।
२५/८/२२
एक दशा जाति विहीनता की होती है, जो पशुओं की है- पश्यति इति पशुः। दूसरी अवस्था किसी जाति में होकर सभी जातियों के होने की है। यह स्थिति मनुष्य की है - मननात् मनुष्यः। तीसरी इन दोनों से पार होने की अवस्था है।
२८/५/२२
भारत की पूरी बौद्धिक परंपरा वाचिक रही है। इसलिए इतिहास में हमारे यहाँ किसी घटना का ठीक-ठीक काल निर्धारण करने की कठिनाई आती रहती है। पश्चिमी जगत में ईसवी सन और उससे पूर्व की घटनाओं का कालक्रम बहुत हद तक सटीक रूप में अभिलिखित है। हमारे यहाँ इसकी कोई आवश्यकता ही प्रतीत नहीं हुयी। आज भी नहीं पता भागवतं किसकी रचना है। इसके रचनाकार बोपदेव (महाकवि जयदेव के भाई) पर मतैक्य नहीं। यहाँ देने का भाव रहा, उस पर क़ब्ज़ा करना यहाँ ध्येय रहा ही नहीं। वेद, उपनिषद और पुराण किस ऋषि द्वारा रचित हैं ठीक-ठीक कहा नहीं जा सकता। व्यास तो एक उपाधि का नाम है। जिन धरोहरों के कारण भारत जगतगुरु माना गया, वे सब वाचिक रूप में चली आयी हैं। कितने आक्रमण हुए, पर यह परंपरा अक्षुंण रही। अपनी वाचिक समृद्धि के कारण यह सुरक्षित भी रही।
बोलने में बहुत से शब्द और वाक्य निरर्थक हो सकते हैं, पर उनके भीतर जो सत्य अनुस्यूत रहता है, उसका तौल नहीं है। उसमें कौंधता हुआ सत्य प्रकट होता है, वह सत्य लिखित रूप में भी उस तरह व्यंजित नहीं हो पाता।
अतएव हमें अपनी वाचिक परंपरा का महत्व समझते हुए उसका सम्मान करना चाहिए।
२६/८/२२
ण आत्मा वाची अक्षर है। न उससे आगे श्वास और जल के लिए आया है। र रूप के अर्थ के लिए है, यह अग्नि बीज है। अग्नि तत्व से ही रूप का उद्भव होता है। इस प्रकार नर आत्मा से रूप निर्माण की यात्रा है। नारायण इस नर में निवास करते हैं। आज प्रातः ४ बजे नींद खुली। प्रथम तो आत्मा ने अपने शरीर के स्थान को चिह्नित किया। गाँव में ठहरे हैं। फिर यह नर खुला।
२७/८/२२
कर्मों की गति गहन है, समझना दुर्वह है। कल साधना विषयक चर्चा और खुलासा करने के बाद आज सुबह के ध्यान में अत्यंत कठिनाई प्रस्तुत हुयी। छोटी चींटियों का गुच्छ पैरों में ऐसे लिपटा कि बढ़ता ही गया। लघु सत्र के अनंतर ध्यान संपन्न हुआ।
३०/८/२२
प्राचार्य का संदेश
परम् सत्य की खोज और उसके साथ जुड़ा गुरु-शिष्य-संबंध प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति की विशेषता रही है। गुरु और शिक्षक में मोटा अंतर है कि शिक्षक से सीखने के बाद किसी से सीखने या जानने की आवश्यकता शेष रह सकती है किंतु गुरु से सीखने या गुरु-कृपा-प्राप्ति के बाद कुछ शेष नहीं रह जाता है। किसी व्यक्ति के जीवन में अनेक शिक्षक होते हैं, गुरु सामान्यतः एक ही होता है।
छात्र शब्द संस्कृत छत्र + ण पुल्लिंगी संज्ञा या विशेषण से मिलकर बना है। भारतीय परम्परा में संतान को विद्याध्ययन के लिए गुरु को सौंप दिया जाता था। सेवा के क्रम में यह विद्यार्थी गुरु के सिर पर छत्र या छतरी पकड़ते थे। छतरी पकड़कर पीछे-पीछे चलने वाले विद्यार्थियों को छात्र कहा जाने लगा।
छात्र एक दर्पण की तरह है, जिसमें शिक्षक का आत्म एवं राष्ट्र का दर्शन झांकता है। शिक्षक और छात्र का संबंध दूध और पानी के मिश्रण की भांति होता है, जिस प्रकार दूध का मिला पानी दूध ही कहलाता है, उसी तरह चरित्रवान् शिक्षक का छात्र भी चरित्रवान् हो जाता है। शिक्षक का कर्म केवल शिक्षा देना है, पर विद्यार्थी या छात्र का दायित्त्व न केवल सम्मानपूर्वक शिक्षा ग्रहण करना है, अपितु उस शिक्षा और संस्कार को परिवार, समाज और राष्ट्र में अपने आचरण के द्वारा प्रसारित करना भी है। यह दायित्त्व एक शिक्षक का भी होता है, इसलिए एक अच्छा शिक्षक भी सदैव छात्र होता है। किसी विषय-वस्तु को माध्यम बनाकर शिक्षक एवं शिक्षार्थी के बीच विचारों के आदान-प्रदान या परस्पर अन्तर्क्रिया को हम शिक्षण कहते हैं।
प्राचीनकाल में शिक्षा को विद्या के नाम से जाना जाता था। विद्या विद् धातु से निष्पन्न शब्द है, जिसका अर्थ है जानना। अतः विद्या का अर्थ ज्ञान से है। ज्ञान मानव का तृतीय नेत्र है, यह नेत्र अज्ञान को दूरकर सत्य का दर्शन करने में सहायक होता है। शिक्षा का शाब्दिक अर्थ भी 'विद्या प्राप्त करना' अर्थात ज्ञानार्जन करना है।
जुलाई 1968 में संस्थापित अपने नेहरू महाविद्यालय में बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झाँसी द्वारा संचालित विभिन्न पाठ्यक्रमों में प्रवेश लिया जाता है। वर्तमान में इस महाविद्यालय में 4500 छात्र/छात्राएं अध्ययनरत हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के अन्तर्गत महाविद्यालय में 10 विषयों - हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेज़ी, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, शारीरिक शिक्षा, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, इतिहास एवं गृहविज्ञान- में बी. ए. त्रिवर्षीय पाठ्यक्रम एवं सात विषयों - अर्थशास्त्र, हिंदी, संस्कृत, मनोविज्ञान, इतिहास, समाजशास्त्र एवं गृहविज्ञान में एम. ए., कृषि रसायन एवं मृदा विज्ञान में एम. एस-सी, बी.एस-सी. कृषि चार वर्षीय सेमेस्टर पाठ्यक्रम, राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अन्तर्गत बी.एस-सी (मैथ्स एवं बायो) एवं बी.कॉम त्रिवर्षीय पाठ्यक्रम के शिक्षण के साथ-साथ पांच विषयों - हिन्दी, संस्कृत, मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र एवं इतिहास - में पी-एच. डी. स्तर के शोध अध्ययन की सुविधा उपलब्ध है।
ललितपुर से सागर की ओर जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग-44 के दोनों तरफ़ फैले 41 एकड़ क्षेत्रफल में 55 कक्षों, दो छात्रावासों, जिम्नेजियम, अतिथि-गृह एवं विशाल क्रीड़ागन एवं बगीचे में विस्तृत बुंदेलखंड में अपनी विशिष्ट पहचान रखने वाले जनपद के एकमात्र और सर्वाधिक प्राचीन अशासकीय अनुदान प्राप्त महाविद्यालय का प्रांगण सुशोभित हो रहा है। महाविद्यालय के पुस्तकालय में 42 हजार से अधिक पुस्तकें संगृहीत हैं।
हम चाहते हैं कि यहाँ छात्रों को गुणवत्तापरक शिक्षा प्राप्त होने के साथ-साथ उनका सर्वांगीण उन्नयन हो। यू.जी.सी. एवं उच्च शिक्षा विभाग के मानकों और नागरिक समाज की आशा-आंकाक्षाओं के अनुरूप प्रबन्ध-समिति के दिशा-निर्देशन में महाविद्यालय अपने सोपान तय करता रहे। आएँ! हम सब इस आशा और विश्वास के साथ कार्य करने का संकल्प लें।
सह नौ यशः। सह नौ ब्रह्मवर्चसम्। (तैत्तिरीयोपनिषद तृतीय अनुवाक से)
हम दोनों (शिक्षक और छात्र) का यश एक साथ बढ़े। एक ही साथ हमारे ब्रह्मतेज में वृद्धि हो।
(प्रोफे० राकेश नारायण द्विवेदी)
प्राचार्य
३१/८/२२
पहले भगवान् के हुँकार से ॐकार की उत्पत्ति होती है ,
अर्थात् निःशब्द से शब्द का आविर्भाव होता है ।
यह एकाक्षर ॐकार शिशुवेद के नाम से प्रसिद्ध है ।
यह तीनों वेदों का मूलभूत तथा अनादि अक्षर स्वरूप है । इस स्थान से ' श' व 'म' दोनों अक्षरों की उत्पत्ति होती है ।
इसकी परवर्ती अवस्था में त्रिकोण प्रकट होता है ।
त्रिकोण त्रितत्व या तत्वत्रय का नामान्तर है ।
राम शब्द से राधा और कृष्ण एवं
त्रितत्व शब्द से जीव-परम -ब्रह्म , हरे -राम -कृष्ण , परा-रमा -कामबीज , ब्रह्मा-विष्णु-महेश्वर , गुरु शिष्य -भगवान् , कृष्ण- राधा-चन्द्रावली एवं जगन्नाथ-बलराम-सुभद्रा समझना चाहिए ।
'हरे- राम- कृष्ण' इन छः अक्षरों से अष्टकोण या अष्ट अक्षर उद्भूत होते हैं । इन आठ अक्षरों से चार तत्व बीजों या नामों को समझना चाहिए ।
इससे 'हरे - राम- कृष्ण-हरे ' इस अवस्था का उदय होता है । इससे 'हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ' यह षोडश अक्षर उत्पन्न होते हैं । सबके अंत में इन सोलह अक्षरों से फिर 'हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे' एवं 'हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे' ये सोलह नाम बत्तीस अक्षर उत्पन्न होते हैं ।
श्रीकृष्ण प्रसङ्ग पृष्ठ 140
आज गणेश चतुर्थी -
शुक्ल यजुर्वेद 23/19 की इस प्रसिद्ध और बहुप्रयुक्त ऋचा पर मनन करने का दिन है...
ॐ गणानांत्वा गणपति ग्वं हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपति ग्वं हवामहे निधीनां त्वा निधिपति ग्वं हवामहे वसो मम ।
आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम् ॥
हे गणपते ! गणों के मध्य में गणों के पालक! हम तुम्हें आहूत करते हैं। हे प्रियों के मध्य में प्रियों के पालक! हम तुम्हें आहूत करते हैं । हे सुखनिधियों के मध्य में सुख निधियों के पालक! हम तुम्हें आहूत करते हैं । हे वसो! हे प्रजापते! व्यापक होकर संपूर्ण संसार में निवास करने के कारण आप मेरे पालक हों। जिस प्रकार पत्नी अपने पति को जानती है, उसी प्रकार मैं भी आपको जानूँ। मैं आपके निकट से निकटतर होता जाऊँ।। अधर पान करते हुए आपके शरीर के जीवन सत्व का रसास्वादन लूँ तथा आपके आत्मज को प्रकट करूँ।
गण पहला श्वास है। जीवन का आरंभ। ग गति सूचक वर्ण है और ण आत्मावाची। आत्मा की जहां से यात्रा प्रारंभ होती है, वह गण हुआ।
गण का सांस्कृतिक विकास भारत में अलग अलग क्षेत्रों में अपनी अपनी तरह से हुआ, पर उन सबके मूल me आहम जानि गर्भ धमा त्वमजासि गर्भधम ही है....
Sunday, July 31, 2022
डायरी जुलाई २०२२
२/७/२२
जीव के अग्नि तत्व से जल तत्व में गमन करने की यात्रा का नाम नर है...इसका पति ही नृपति और ईश्वर नरेश है. राजा भी यही है.
गाय ज्ञान स्वरूप चेतना की प्रतीक है तो अश्व बलस्वरूप चेतना का. गु और गो वेदों में बहुत बार आता है, जिसका अर्थ चेतना से ही है.
3/7/22
नि दुरोणे अमृतो मर्त्यानां राजा ससाद विदथानि साधन् । घृतप्रतीक उर्विया व्यद्यौदग्निर्विश्वानि काव्यानि विद्वान् ॥ऋग्वेद ३/१/१८
"The immortal nature of the universe takes its place,
In the hearts of mortal humans,
And it also blesses them,
In all their sacred aspirations.
With its spiritual radiance,
Reflecting by intense love,
And knowing all secrets of wisdom,
It shines extensively."
श्वास -प्रश्वास में मन रखने से क्या होता है ?
मन - प्राण में ऐक्य होता है ।
प्राण की अंत में स्थिति है ,अपान की भी अंत में स्थिति ।
अर्थात प्राण और अपान की सन्धि = स्थिति या शून्य ।
मन जब प्राण के साथ साथ चलेगा तब प्रत्येक श्वास प्रश्वास में उस शून्य को स्पर्श करेगा । साधारणतः श्वास प्रश्वास चुपचाप चलता है ; क्योंकि मन विषय में है, प्राण का चलाचल वह लक्ष्य नहीं करता । किन्तु मन के प्राण का अनुगामी होने से प्राण की क्रिया Consciously होती है । यह निरन्तर होती है । इसलिए self - consciousness निरन्तर जगा रहता है ।
उस शून्य को स्पर्श करने से मन भी क्रमशः शून्य या निष्क्रिय हो जाता है ,सूक्ष्म या शुद्ध हो जाता है ,मन का आवरण या स्थूलाभिनिवेश कट जाता है ,कर्तृत्व कट जाता है । इस स्थिति में अद्वैत होता है : स्वभाव ही चालक होता है । जो भी होता है ,वह स्वभाव का खेल होता है ।
स्व संवेदन पृष्ठ 288
4/7/22
"I salute Lord Hanuman, Lord of Breath, Son of the Wind God- who bears five faces and dwells within us in the form of five winds or energies pervading our body, mind and soul.
Who reunited Prakriti (Sita) and purusha (Rama) - May He bless me By uniting his vital energy ~ prana~ with the Divine Spirit within."
5/7/22
ॐ
गायत्री का चतुर्थपाद गृहस्थों के लिए नहीं है ।
यहाँ कुछ गुह्य तथ्यों की सूचना दे रहा हूँ ।
अनुसंधान करते हुए समझने का प्रयत्न करना चाहिए ।
महासन्यास और महाज्ञान आदि
उपासक के निकट समय होने पर आविर्भूत होते हैं ।
वर्णश्रेष्ठ ब्राह्मण है । आश्रम श्रेष्ठ सन्यास है ।
किन्तु दोनों ही चरमावस्था में
आक्रांत हो जाते हैं --यद्यपि दोनों के चर्मोत्कर्ष
सिद्ध होने के बाद ।
एक गुह्य बात बता रहा हूँ ।
गायत्री वेदमाता और छंद जननी है ।
समग्र वेद और छंदों का मूल गायत्री है ।
वेद में है देवताओं ने मृत्यु से भीत होकर छंदों का आश्रय लिया था । छंदों की प्रसूति एवं शुद्धतम स्वरूप ही गायत्री है । फलतः गायत्री का आश्रय लेते ही दिव्य और द्वितीय जन्म प्राप्त होता है । यह जन्म शुद्ध देह प्राप्ति का नामान्तर है । इसे विद्या जन्म कहते हैं । स्पष्ट है कि गायत्री संस्कार विशिष्ट ब्राह्मण जन्म वस्तुतः वैन्दव देह है । वेदों के अनुसार गायत्री के छंद से ब्राह्मण का देह उत्पन्न होता है ,इसे स्मरण रखना होगा । अर्थात जिस देह का गठन गायत्री छंद से हुआ है तथा जो गायत्री छंद से शोधित हुआ है , वही शब्द ब्रह्म के अनुशीलन के लिए उपयोगी देह है । शब्द ब्रह्म का अनुशीलन ही वेदों का अनुशीलन है -- स्वाध्याय वैदिक कर्म इसके अंतर्गत हैं । कर्मकांड के बाद ज्ञानकाण्ड का अनुशीलन भी वेदों का अनुशीलन है । इतना होने पर तपस्या और ब्रह्मविद्या का चरम विकास सम्पन्न होता है । तब समना भेद होकर विन्दु - राज्य का लंघन होता है । यही है महा सन्यास की अवस्था ।
इसके बाद परमशुद्ध आत्मस्वरूप में चिन्मात्र रूप में या नित्य चिदानंद स्वरूप में स्थिति अथवा भगवत् भाव में उद्बोध दोनों ही हो सकते हैं ।
गायत्री / पृष्ठ 147 - 149 सनातन साधना की गुप्त धारा
भूमि अंतरिक्ष और द्यौ ये आठ अक्षर हैं
- आठ अक्षर वाला ही गायत्री का एक चरण है !
ऋचः यन्जूषि सामानि
ये आठ अक्षर हैं- आठ अक्षर वाला ही गायत्री का दूसरा चरण है !
प्राण अपान व्यान
ये आठ अक्षर हैं -आठ अक्षर वाला ही गायत्री का तीसरा चरण है !
प्रथम को जानकर भूमि द्यौ व अंतरिक्ष में प्राप्त करने योग्य को ,प्राप्त करता है , द्वितीय को जानकर ऋग्वेद यजुर्वेद सामवेद के ज्ञान के समतुल्य,
तृतीय को जान प्राण अपान व्यान से समस्त प्राणियों की अनुकूलता को ,प्राप्त करता है !
चतुर्थ पद तुरीय दर्शत परोरज है ,अर्थात दर्शनीय सबसे परे सूर्यवत है ,गायत्री उसमें ही प्रतिष्ठित है ,वह पद सत्य में प्रतिष्ठित है ,जैसे नेत्र सर्वश्रेष्ठ है -यदि दो पुरुष कहें कि मैंने देखा है ,मैंने सुना है तो देखने वाले का अधिक विश्वास माना जाता है !
वह तुरीय पद का आश्रयभूत सत्य ,
बल में प्रतिष्ठित है
प्राण ही बल है ,वह सत्य ,
प्राण में प्रतिष्ठित है ,इसी से कहते हैं सत्य की अपेक्षा बल ओजस्वी है !
इस प्रकार वह गायत्री अध्यात्म प्राण में प्रतिष्ठित है !
बृहदारण्यक २अ
जैसे मांडूक्य उप में आत्मा के चार पद कहे हैं, ऋग्वेद में त्रिपादस्यामृतंदिवि. कहा गया है, वृहदा उप में उक्तवत कहा ही है, उसी का विस्तार पं गोपीनाथ जी कर रहे हैं. यह अलग नहीं है, न इसमें द्वैत है. यह परम तक पहुँचने के मार्ग का वर्णन हुआ न!
एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पुरुषः।
पादोઽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतंदिवि।।3।।
त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत्पुनः।
ततो विष्वङ व्यक्रामत्साशनानशनऽअभि।।4।।
चार भागों वाले विराट पुरुष के एक भाग में यह सारा संसार, जड़ और चेतन विविध रूपों में समाहित है। इसके तीन भाग अनंत अंतरिक्ष में समाये हुए हैं।।4।।
७/७/२२
"To speak means to float on the surface; unless the mind remains on the surface, words will not come. So long as one is immersed in the depths, there is not even the possibility to talk; but as soon as one comes up to the surface, speech will issue forth. This is why language cannot always fully express one's feelings and ideas. One can often hear people say: 'I am unable to put into words what I feel'. Does this not show how limited and imperfect human language is? It cannot even convey the little you understand, how much less the enormous amount that lies beyond your ken! Try to learn the science of using and understanding the hidden language of the heart and you will be able to accomplish everything without words."
~ Sri Anandamayi Ma
(Her words are from"Sad Vani" #34, page 50)
“As we know there have been many invasions upon India to destroy its culture, its language, its religion, its people, all that made India great, but as Sri Aurobindo writes “no adverse situation, not even the time spirit nor the god of death has the power to destroy this country” Dr Sampadananda Misra.
शब्द का जन्म प्राण से होता है । प्राण का स्वभाव गति है ।गति ही जीवन है ।इसलिए शब्दों में भी जीवन होता है ।वे जन्म लेते हैं बढ़ते हैं ,वृद्ध होते हैं और मृत भी होते हैं । वे नये शब्द को जन्म देते हैं ।एक शब्द से उत्पन्न दूसरा शब्द अपना स्वभाव भी बदल लेता है कभी पूर्वज से श्रेष्ठ हो जाता है कभी नालायक भी हो जाता है । शब्दों की इस यात्रा और पुनर्जन्म का कारण अन्य जीवों की तरह शब्द की आत्मा है ।अर्थ ही शब्द का आत्मतत्व है । वेद में प्रयुक्त शब्द के कितने पुनर्जन्म हो गये हैं पर हम निरुक्त लिए बैठे हैं , व्याकरण में तद्धित कृदंत सिद्ध कर रहे हैं ।शब्द तो सिद्ध कर लेंगे पर उसकी आत्मा कहाँ से लायेंगे । अर्थ तो व्याकरण देगा नहीं वह तो लोक में निहित है ।व्युत्पत्ति से हम परिभाषा कर सकते हैं व्यवहार कैसे कर सकते हैं । इसी कारण शब्द की यात्रा में व्याकरण और निरुक्त अनुधावन करते हैं ।लोक शब्द को सिद्ध नहीं करता लोकसिद्ध शब्द व्याकरण के विवेचन का आधार बनते हैं । तमाम अर्थ खो चुके शब्द हमारे बीच विद्यमान हैं ।उन्हें हम प्रयुक्त भी करते हैं पर उनमें अपने आदिम अर्थ के मूर्तन की क्षमता नहीं है ।इन्हें शब्दरूढ़ि कहते हैं । ये ठूँठ हैं , विज्ञविनोद हैं ।परिभाषा और व्यवहार में बहुत अंतर है ।भक्त कहने से अब कौन रूप मूर्तित होता है ।मठाधीश किसे कहा जाता है ? लक्ष्मीकान्त पांडेय
वेद शास्त्र में वर्णित सोम रस को प्रचलित मदिरा के अर्थ में समझ लिया जाता है. किंतु यह दैवी प्रकाश है, जो सभी अस्तित्वमान वस्तुओं में प्रकाशित है. जब यह उदित होता है, तो अमृत बन जाता है।
८/७/२२
कल रात श्रीमती जी को लेकर डॉक्टर के यहाँ बाइक से जा रहे थे. एक दूधिया दूसरी तरफ़ से मुड़कर मेरी गाड़ी से जा टकराया. उसकी बाइक के पीछे की केन की जाली से हाथ पैर छिल गए. सायलेन्सर से पिंडली जल गयी. गाड़ी का अगला हिस्सा क्षतिग्रस्त हो गया. चलने लायक़ नही लगी. इतने में दो लोग आए उन्होंने अगला हिस्सा खींच कर कुछ चलने लायक़ किया. हम लोग वापस घर आ गए. गिराने वाले मेरे कर्म हुए पर बचाने वाला वही है, और बचने वाला भी वही न!
९/७/२२
हमारी हर सांस एक पुनर्जन्म है ---
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दो साँसों के मध्य का संधिक्षण वास्तविक संध्याकाल है, जिसमें की गयी साधना सर्वोत्तम होती है। हर सांस पर परमात्मा का स्मरण रहे, क्योंकि हर सांस तो परमात्मा स्वयं ही ले रहे हैं, न कि हम। प्राणायाम में स्वाभाविक रूप से कुंभक की अवधि बढ़नी चाहिए। साँसों का सन्धिकाल कुम्भक है। जब तक कोई गति है, तब तक ध्वनि है। गति नहीं, ध्वनि नहीं। कुम्भक में साँसों की गति नहीं है। कुम्भक ही मौन की अभिव्यक्ति है। हमारा मौन भगवान की अभिव्यक्ति है, इसलिए अधिक से अधिक समय मौन व्रत का पालन करना चाहिए। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कहते हैं --
"दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम्।
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्॥१०:३८॥"
अर्थात् - "मैं दमन करने वालों का दण्ड हूँ, और विजयेच्छुओं की नीति हूँ; मैं गुह्यों में मौन हूँ और ज्ञानवानों का ज्ञान हूँ।"
"मौनं चैवास्मि गुह्यानां" अर्थात् "गुप्त रखने योग्य भावों में मैं मौन हूँ"।
"हं" (प्रकृति) और "सः" (पुरुष) दोनों में कोई भेद नहीं है। प्रणवाक्षर परमात्मा का वाचक है। कोई अन्य नहीं है, सम्पूर्ण अस्तित्व उनकी ही अभिव्यक्ति है।
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भारत में जन्म लेकर भी जिसने परमात्मा की उपासना नहीं की, वह बहुत ही अभागा और इस पृथ्वी पर भार है। परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति भारत में ही हुई है। भारत में जन्म लेना एक सौभाग्य की बात है।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ जुलाई २०२२
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पुनश्च :-- यह विषय समझने में कठिन है क्योंकि यह एक गुरुमुखी विद्या है जो शिष्य को सामने बैठाकर गुरु द्वारा समझाई जाती है। जो साधक नित्य उपासना करते हैं, वे इसे तुरंत समझ जाएँगे। इससे अधिक सरल भाषा नहीं हो सकती। यह सरलतम भाषा है।
विभिन्न धाम और सरकार चमत्कारवाद को बढ़ावा देते हुए दिख रहे हैं. इनमे परस्पर ऊँचा नीचा दिखाने की प्रवृत्ति भी है। मेरा उद्देश्य उनके आस्थावान भक्तों की श्रद्धा को किसी प्रकार चोट पहुँचाना नहीं है. पर कौन घटना हमारे जीवन में कब हुयी या होनी है, इस पर ध्यान देने की अपेक्षा हमें क्या करना है और हम कौन हैं, इस पर सक्रिय होना चाहिए।
चमत्कारवाद का भविष्य नहीं होता, इससे लोगों में अंधविश्वास और निराशा फैलती है। ईश्वर के प्रति श्रद्धा चमत्कार दिखाकर नहीं बढ़ानी चाहिए।यह जीवन अपने आप में चमत्कार है।
१०/७/२२
अर्थ शब्द या व्याकरण की ओर दौड़ता है। आज पत्नी नहाते समय गायी कृष्णाय नमः हरिहर नमः. दो एक बार ऐसा गाते-गाते उन्होंने स्वतः ठीक किया और हरिहर नमः की जगह हरिहराय नमः बोलने लगी। ध्यातव्य है कि उन्हें संस्कृत नहीं आती।
काली माता...
काली निराकार परमात्मा की शक्ति, सृजनात्मक शक्ति या ऊर्जा की प्रतीक है। इस शक्ति में सृजन, पालन और संहार सम्मिलित हैं। संहारक गुण नकारात्मक नहीं है। बीज का संहार हुए बिना पौधा नहीं बनता। बाल्यावस्था के बाद ही युवावस्था आती है।
काली की चार भुजाएँ हैं। दो दायीं भुजाएँ सृजन शक्ति को और भक्तों को आशीर्वाद देने को दर्शाती हैं। बायीं दो भुजाएँ खड्ग और कटा सिर धारण करती हैं। यह ब्रह्मांड का पालन करने की शक्ति और सृष्टि का नृत्य समाप्त होने पर उसे ब्रह्मा में लीन करने की शक्ति को दर्शाती है।
माँ पचास मुंडों की माला धारण करती है। मुंड प्रज्ञा शक्ति और वर्णमाला की ध्वनियों को दर्शाती हैं। इन ध्वनियों से ही संस्कृत भाषा का उद्गम हुआ है।
माँ के झूलते हुए केश माया के पर्दे की तरह हैं। माँ का वर्ण काला है- प्रकाशहीन प्रकाश और अंधकारहीन अंधकार के परिमंडल से सृष्टि की उत्पत्ति हुयी है। आदि सृजनात्मक शक्ति होने के कारण माँ का वर्ण काला है। काले वर्ण में सभी रंगों का तिरोभाव हो जाता है।
माँ का निर्वस्त्र आकार अनंतता का संकेत करता है।उनकी कटि का कमरबंद मानव के इच्छाजनित पुनर्जन्मों के चक्रों का संकेत है। काली के तीन नेत्र सूर्य, चंद्र और अग्नि को दर्शाते हैं। माँ के स्तन ब्रह्मांडीय ऊर्जा(प्राण) प्रदान करते हैं। ईश्वर की खोज में लगे बच्चों को वे आनंददायक विद्यमानता का स्वाद देती हैं।
सफ़ेद चमकदार दांतों से माँ अपनी रकतजिह्वा को काटती हैं। लाल रंग रजोगुण और प्रकृति में क्रियाशीलता का गुण है।
सृष्टि के चक्रवत नृत्य में माँ का एक पैर सोए हुए शिव (परमात्मा) की छाती पर ठोकर मारता है। सृष्टि रचना के समय अपेक्षाकृत परमात्मा स्वयं प्रकृति के अधीन हो जाते है, परंतु जिस क्षण प्रकृति (माँ) परमात्मा का स्पर्श करती है, वह उनके वशीभूत हो जाती है।
माँ की पूजा प्रायः श्मशान में की जाती है। मृत्यु काली का रूपांतरक स्पर्श है, जो कष्ट, दुःख और चिंता दूर करता है और मुक्ति एवं शांति प्रदान करता है।
काली का स्वरूप डरावना है, क्योंकि उनकी शक्ति बुराई से समझौता नहीं करती। काली की मुस्कुराहट दया का सार है। वे हम सबकी जगन्माता हैं। इसीलिए सब प्राणी हमारे बंधु बांधव हैं।
काली को उत्तर दक्षिण और पूरब पश्चिम में स्थूल रूप में इतना ही डीकोड किया गया है। प्रॉपगैंडा करने के लिए कोई कुछ कहे। लोग काली को कहाँ क्या प्रसाद चढाते हैं, यह उनकी रूढ़ि है। पर हम उन्हें पुष्प प्रेम के रूप में और कर्म फल के रूप में अर्पित करते हैं।
११/७/२२
नाम मे क्या रखा है, यह 'पश्चिम' की राय है। यहां तो यथा नाम तथा गुण रखे जाने पर बल दिया गया है। पश्चिम और पूर्व का यह अंतर भाषाओं मे भी दिखता है। पश्चिम की भाषाओं के अधिकांश शब्द यू ही यानि अटकलो से रूढ़ होकर प्रचलित हुए, इसका अंग्रेजी जैसी भाषा को यह लाभ हुआ कि वह सब भाषाओं के शब्दों को अपना ली और उसने विश्व मे धाक जमा ली, जबकि भारतीय भाषाओं की अपनी शब्दावली का निर्माण उसके अर्थ, व्युत्पत्ति और प्रकृति को देखकर हुआ। यहां के शब्दों का सिरा किसी धातु से अवश्य जुड़ता है...११ जुलाई २०१८ की फ़ेसबुक पोस्ट
१२/७/२२
चेतन पुरुष से आनन्दरूपा प्रकृति
के अलग होने के कारण दोनों
एक दूसरे को चाहते हैं ,
नहीं तो पूर्णता नहीं हो सकती ,
आनन्द नहीं हो सकता ।
परन्तु अलग होते हुए भी
दोंनो में दोनों का आभास रहता है ।
पुरुष में प्रकृति का आभास नहीं रहने पर वह प्रकृति को चाह नहीं सकता ।
उसी प्रकार प्रकृति में पुरूष का आभास नहीं रहने पर वह पुरुष के साथ मिल नहीं सकती ।
अतएव ,सृष्टि में सर्वत्र यह अभाव बोध विद्यमान है ।
उसी के परिणाम स्वरूप आकर्षण होता है ।
कविराज ji💐💐
१३/७/२२
गुरु पूर्णिमा
....तस्मै श्री गुरुवे नमः।
चित्रं वटतरोर्मूले वृद्धाः शिष्या गुरुर्युवा ।
गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यास्तु छिन्नसंशयाः ॥
आश्चर्य तो यह है कि वटवृक्षके नीचे शिष्य वृद्ध हैं और गुरु युवा हैं। गुरुका व्याख्यान मौन भाषामें है, किंतु शिष्योंके संशय नष्ट हो गये हैं ॥ ॥
अर्थात शिष्य तो तरह-तरह की शंकाओं में भटकते हुए वृद्ध हो जाता है, तत्व रूप गुरु चिरयुवा हैं। मौन अवस्था में यह सब साफ दिखने लगता है।
गुरु और शिक्षक में मोटा अंतर है कि शिक्षक के बाद किसी से सीखने या जानने की आवश्यकता रह सकती है, पर गुरु से सीखने या कृपा पाने के बाद अन्य से सीखने की आवश्यकता नहीं रह जाती। सोइ जानहि जेहि देहु जनाईं। जानत तुम्हहि तुम्हहि होइ जाई।
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः॥
'योगी कथामृत' का पहला वाक्य है....
परम सत्य की खोज और उसके साथ जुड़ा गुरु-शिष्य संबंध प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति की विशेषता रही है....
प्रत्येक शब्द केवल ध्वनियों का योग नहीं है ।उसमें हमारे मन और बुद्धि का योग रहता है जिससे भाव और विचार बाहर आते हैं ।शब्द अपने मूल अर्थ में बहुत सरल, सौम्य और स्वाभाविक होता है । वक्रता और लाक्षणिकता उसके प्रयोग में होती है । ऐसा कोई शब्द नहीं है जो अपने अभिधार्थ में अश्लील या वर्ज्य हो ।और ऐसा भी नहीं है कि उसमें लाक्षणिकता या व्यंग्य न हो । अर्थभेदकता हर शब्द के प्रयोग, कहन, लहज़े,तान अनुतान में होती है । ऐसे में अगर हम संसदीय या असंसदीय मानक के नाम पर शब्द हत्या करेंगे तो कोश में कोई शब्द नहीं बचेगा । एक शब्द.हटायेंगे तो दूसरा उससे भी अधिक तीखा मिल जायेगा ।असंसदीय शब्द नहीं ,भाव या विचार होते हैं । इसलिए शब्दनिषेध से महत्वपूर्ण है संसदीय विवेक होना । लक्ष्मीकान्त पांडेय
१६/७/२२
बच्चा जब माँ के गर्भ से निष्क्रमण करता है एवं जिस समय उसका नालच्छेदन होता है ,उसी समय उसके शरीर में श्वास -प्रश्वास की क्रिया दिखाई पड़ती है । माता के गर्भ में रहते समय गर्भ धारण करने वाली माँ से अलग बच्चे की श्वास - प्रश्वास क्रिया नहीं रहती है । गर्भ में बच्चा माँ से भुक्त भोजन से तुष्ट होता है एवं माँ के श्वास- प्रश्वास से ही उसके शरीर का विकास होता है । किन्तु प्रसव के साथ वैष्णवी माया उसके ऊपर आक्रमण करती है ,और तभी से यह कालराज्य में रहना आरम्भ करता है । बच्चे का जो पहला श्वास लेना है उसका नाम जन्म है एवं उस श्वास का अंतिम भाग ही मृत्यु के नाम से प्रसिद्ध है । जन्म से लेकर मृत्यु तक मध्यवर्ती अवस्था उसका जीवन है । इसलिए मनुष्य का सारा का सारा जीवन श्वास -प्रश्वासमय है ।
मनुष्य आत्मविस्मृत अवस्था में श्वास-प्रश्वास के अधीन रहता है एवं निरन्तर काल की प्रेरणा से इड़ा और पिंगला नामक बांये और दायें मार्ग से संचरण करता है । यदि मूल में अविद्या का आवरणरूप पर्दा न रहे तो विक्षेप रूप श्वास - प्रश्वास की क्रिया नहीं रहती । वास्तव में श्वास -प्रश्वास काल का ही खेल है एवं जिसे हम लोग जीव कहते हैं वह काल अथवा मृत्यु के ही स्वप्रकाश की केवल महिमा है ।
योगी लोग कहते हैं ,योगमार्ग के नौ मुख्य विघ्न हैं ।
ये सब चित्त के विक्षेप रूप हैं । चित्त के विक्षेप के साथ साथ ये विद्यमान रहते हैं । नौ मुख्य विघ्नों के नाम हैं --
व्याधि , स्त्यान या चित्त की अकर्मण्यता , संशय , प्रमाद या समाधि साधन के अनुष्ठान का अभाव , देह और चित्त की अलसता , अविरति या विषयतृष्णा , भ्रांति - ज्ञान या मिथ्या- ज्ञान , समाधि की भूमिका की प्राप्ति होने पर भी उस पर प्रतिष्ठित न हो सकना ,दुःख , इच्छा की पूर्ति न हो ने से चित्त में क्षोभ ,देह में कम्पन तथा श्वास- प्रश्वास ये सब पूर्वोक्त मुख्य विघ्नों के आनुषंगिक सहकारी हैं ।
इस विवरण से समझ में आ जायेगा कि श्वास - प्रश्वास मूल रोग नहीं है ,रोग का केवल उपसर्ग मात्र है । श्वास - प्रश्वास का का कारण चित्त का विक्षेप है ,एवं विक्षेप का कारण है प्रत्यक चैतन्य की अप्राप्ति अर्थात साक्षात्कार रूप ज्ञान का अभाव । जिस उपाय से प्रत्यग आत्मा का साक्षात्कार होता है उसी के प्रभाव से श्वास - प्रश्वास रूप काल का खेल भी निवृत्त हो जाता है । प्रणव जप एवं प्रणव - एवं प्रणव वाच्य ईश्वर की भावना को योगियों ने आत्मज्ञान की प्राप्ति का मुख्य हेतु माना है । प्रणव जप का रहस्य अवगत होने पर यह समझ में आ सकता है कि अजपा - जप ही श्रेष्ठ जप है एवं अन्य जपों की चरम अवस्था का स्वाभाविक जप है ।
अजपा रहस्य 3
भारतीय संस्कृति और साधना / पृष्ठ 343
एक अहोरात्र में मनुष्य के स्वाभाविक
श्वास -प्रश्वास की संख्या 21600मान लेनी चाहिए । विशेष अवस्था में इसमें कुछ तारतम्य होने पर भी यही साधारण नियम है । ' हम् ' ध्वनि करता हुआ जो श्वास बाहर निकलता है ,उसका नाम प्रश्वास है एवं ' सः ' ध्वनि करता हुआ जो भीतर आता है उसका नाम निःश्वास है ।
योगियों का कहना है कि जीव निरन्तर श्वास- प्रश्वास के बहाने इस हंस -मंत्र या अजपा गायत्री का जप करता है ।
जीवमात्र ही जब इसे करता है ,तब मनुष्य भी करता है ,यह कहना फज़ूल है । किन्तु अन्य जीवों से मनुष्य का भेद यह है कि मनुष्य अपने पौरुष द्वारा ऐसी सामर्थ्य अर्जित कर सकता है ,जिससे श्वास प्रश्वास की इस स्वाभाविक गति में विपर्यय हो सके ।अर्थात मनुष्य साधना के बल पर 'हंस ' गति को 'सो s हम् ' गति में परिवर्तित कर सकता है । तब आत्मज्ञान का पथ खुल जाता है एवं इड़ा और पिंगला में संचार करने वाले वायु की वक्रगति सुषुम्ना में सरल-गति के रूप में बदल जाती है । सुषुम्ना ब्रह्ममार्ग है । वायु इड़ा और पिंगला के मार्ग से हटकर जितना ही सुषुम्ना में प्रविष्ट होता है ,उतना ही विकल्प का शमन होता है । निर्विकल्प आत्मज्ञान का बन्द मार्ग धीरे धीरे खुलने लगता है ।सुषुम्ना में प्रवेश किये बिना वायु और मन की ऊर्ध्वगति नहीं हो सकती एवं ऊर्ध्वगति के बिना विकार का त्याग कर चित्त साम्यभाव में नहीं पहुंच सकता । योगी लोग जिसे कुम्भक कहते हैं वह इस ऊर्ध्वगति से क्रमशः सिद्ध होता है । वस्तुतः कुम्भक में गति नहीं रहती है ,यह बात नहीं है । किन्तु उससे वक्रगति की निवृत्ति के साथ अंतर्मुखी सरल गति की सूचना होती है । इस सरल गति से अंत में गतिहीन अवस्था का आभास प्राप्त हो जाता है ।जिसे हम लोग सांसारिक भाषा में प्राण -अपान का व्यापार कहते हैं ,उसी को योगी की भाषा में हंसमन्त्र का उच्चारण समझना चाहिए ।
इस प्रकार विषम गति के कारण की गवेषणा करने पर ज्ञात हो सकता है कि प्रकृति के भीतर ही इस विषमता का बीज निहित है । प्राण अपान को और अपान प्राण को निरन्तर खींचता है ,किन्तु दोनों की स्वाभाविक गति परस्पर विरुद्ध है । प्राण जिस ओर संचार करता है अपान उसकी विपरीत दिशा में संचरण करता है । यदि वे अन्य निरपेक्ष होते तो ऐसी स्थिति में विरोध की कोई संभावना नहीं रहती । किन्तु यह बात नहीं है । अपान के न रहने से प्राण का काम नहीं चलता ,इसीलिए प्राण विरुद्ध दिशा में बहने वाले अपान को चाहता है और उसको खींचता है ।वैसे ही प्राण के अभाव में अपान का काम भी नहीं चलता है ,इसीलिए अपान प्राण को खींचता है । इससे स्पष्टतः प्रतीत हो सकता है कि यथार्थ साम्यावस्था से दोनों के च्युत होने में ही दोनों में विरुद्ध गति का उदय हुआ है ।
इसलिए अनजान में प्राण और अपान विरुद्ध संचारी होकर भी अविरुद्ध साम्यावस्था में फिर प्रतिष्ठित होना चाहते हैं । जब तक वह साम्यावस्था प्राप्त न होगी तब तक शांति की संभावना नहीं है । बद्ध जीव इन दो आकर्षणों के मध्य में पड़कर कभी उठता है और कभी गिरता है । बायें और दाहिने मार्ग में संचार करता है ,उससे छुटकारा नहीं पाता । योगी का लक्ष्य इन दोनों विरुद्ध गतियों में समन्वय स्थापित करना है । सब प्रकारों की अध्यात्म - साधनाओं का यही उद्देश्य है ।
अजपा रहस्य 4
नाम से बड़ी उपाधि क्या है!
नाम रूप दुइ ईश उपाधी।
किंतु नाम का अर्थ नम्यते इति = झुकने से है।
१७/७/२२
योग्यता को मापने की वस्तुनिष्ठ पद्धति तब तक विकसित नहीं हो सकती, जब तक चतुर्दिक उत्तम चरित्र और कर्तव्य परायणता विकसित न हो जाएँ। फिर व्यवस्था को इनमे से चयन करना होगा। पर इसे कैसे व्यवस्थित किया जाए, प्रश्न तो यही है।
१९/७/२२
"जिसे तुम समझे हो अभिशाप, जगत की ज्वालाओं का मूल,
ईश का वह रहस्य वरदान, कभी मत इसको जाओ भूल।
विषमता की पीडा से व्यक्त हो रहा स्पंदित विश्व महान,
यही दुख-सुख विकास का सत्य यही 'भूमा' का मधुमय दान |" जयशंकर प्रसाद
20/7/22
शिवशक्ति की विरहावस्था में आत्मा मन से एवं मन प्रकृति या प्राण से सम्बद्ध रहता है । आत्मा अपने बल से द्रष्टा बनकर यदि मन को दृश्य बनाता है ,तो मन भी तटस्थ होकर प्राण का यह खेल देख सकता है । इसलिए मन को श्वास गति के निरीक्षण कार्य में लगाना चाहिए ,एवं स्वयं मन की पृष्ठभूमि में चुपचाप स्थित रहना चाहिए । साधारण रूप से मन श्वास के साथ और प्राण के साथ संचालित होता है । इसी से श्वास चलता है । किन्तु जिस समय मन श्वास के साथ न चलकर उसकी गति का निरीक्षण करता रहता है ,उस समय 'अहम् ' भी उदासीन हो जाता है ,एवं उसके साथ ही श्वास की गति में भी मन्दता आ जाती है ।
इसकी एक परम अवस्था है ,वह अद्भुत रहस्य है ।
जिस समय शिव और शक्ति का मिलन होता है ,जिस समय प्राण और अपान का योग होता है ,जिस समय वायु सम्मिलित होता है ,सारा विश्व स्थगित हो जाता है ,काल की गति रुक जाती है ,परम शांति उत्पन्न होती है ; उस समय उस महास्थिति में भी भीतर ही भीतर एक व्यापार चलता है । यह हंस अवस्था से परमहंस अवस्था में पहुंचना है । इसी को आत्म- रमण कहते हैं । यह अपने ही साथ अपना विहार है । दूसरा तो उस समय कोई नहीं है । शिव और शक्ति उस समय मिल जाते हैं । मिलने पर भी उनके भीतर ही भीतर क्रिया रहती है । शिव और शक्ति का यह परस्पर अनुप्रविष्ट स्वरूप है । यह अति गुप्त है । आगम कहते हैं --यह अनुत्तर अक्षर रूपी परमेश्वर अपने अंगभूत और निखिल प्रपन्चलयात्मक
विमर्श शक्ति में अनुप्रविष्ट या प्रतिबिंबित होते हैं ,तदुपरांत वह विमर्श शक्ति अपने भीतर स्थित प्रकाशमय प्रतिबिंब में अनुप्रविष्ट होती है ।
आत्माराम अवस्था का यही पूर्वाभास है ।
अजपा रहस्य 9
२३/७/२२
किसी परीक्षा में शत प्रतिशत अंक अवार्ड किया जाना भारत की परंपरा से मेल नहीं खाता। पता नहीं कैसे इस पर नियामकों का ध्यान नहीं जा रहा। जीवन्मुक्त महापुरुष भी पौरुष अज्ञान से ग्रसित होता है। बौद्ध ज्ञानी होने के बाद उसे देह छोड़ने पर पूर्ण मुक्ति उपलब्ध होती है।
इसके अतिरिक्त यह मेधावी बच्चे ias ips, प्रोफ़ेसर. डॉक्टर, इंजीनिअर ही क्यों बनना चाहते हैं। कोई अपनी धुन का पियानो बजाने वाला, बिरहा या कजरी गाने वाला, फ़ुटवाल खेलने वाला, मुनाफ़ाख़ोरी के बिना व्यापार चलाने वाला, खुशहाल किसान, कुशल शिल्पी इत्यादि भी तो बनना चाहे न! और इन सबसे बढ़कर कोई उत्तम नागरिक और पूर्ण मनुष्य बनने की कामना करे।असफल और सफल होने के द्वंद्व में पड़कर देखने का अनुभव लेना चाहे।
क्या सूचना ज्ञान के लिए नहीं होती! नही तो फिर उनका क्या उपयोग। सूचना संग्रहण से ज्ञान पाने की राह कुछ खुलती तो है ही न!
किसी लिखे हुए को अंतिम कैसे कहा जा सकता है! वह गंतव्य तक पहुँचने का मार्ग ही हो सकता है।
मित्रता में न दैन्यता है, न स्वामित्व और दासत्व ही। किंतु मित्रता में यह सब हैं भी क्योंकि मित्र से कोई दुराव और सामाजिक कंडिशनिंग नही होती। सत्य, प्रेम और करुणा मित्रता में मूर्तमान हो जाते हैं।🙏
२४/७/२२
तस्यैवैषा परा देवी स्वरूपामर्शनोत्सुका ।
पूर्णत्वं सर्वभावेषु यस्या नाल्पं न चाधिकम् ॥ बोधपंचदशिका 5
Tasyaiva parā devī, this collective state of the universe, which is reflected in the mirror of God consciousness; this whole universe which is reflected in the mirror of God consciousness, is His supreme energy.
And why he has created this supreme energy in his own nature?
Just to recognize his own nature.
This whole universe is just the means to recognize Lord Shiva. You can recognize Lord Shiva through the universe. You cannot recognize Lord Shiva by abandoning the universe.
So you have to observe and experience God consciousness in the very activity of the world. If you remain cut off from the universe and try to realize God consciousness it will take centuries. If you remain in universal activity and be attentive to realize God consciousness it will be very easy for you to understand. So this outside universe is created just for the sake of realizing his own nature.
That is why it is called Shakti. This whole universal state is called Shakti, this is the means to realize one’s own nature.18
BRUCE P: Why should he want to recognize?
SWAMIJI: It is svātantrya. Because if he does not recognize it, what is the fun of the universe? The universe is created just to recognize him.
JOHN: Just for fun.
SWAMIJI: Just for fun, yes . . . it is svātantrya.
This is why in Śaivism this is svātantrya vāda [theory of svātantrya] everywhere.
If he were only Shiva . . . he was there, he was in his full splendor of God consciousness . . .
ERNIE: There is no lack there?
SWAMIJI: No, it is full, it is already full.
ERNIE: Yes.
SWAMIJI: When fullness is overflowed . . . you know what happens afterward?
He wants to remain incomplete, he wants to appear as incomplete, just to achieve completion. So this is the svātantrya. This svātantrya has created this whole universe. So in the universe, there is ignorance, and for ignorance, you want to get rid of that ignorance. And there is a way, there is a way, that in the activity of world you will meditate and bas, reach the state of God consciousness.
So this is the fun of svātantrya.
SWAMIJI: You leave it. You leave it when it is overjoyed [overflowing].
nijaśaktyā vaibhavabharāt aṇḍacatuṣṭya (paramarthasāra)19
When it is overflowed, when it overflows then you want to disconnect it.
ERNIE: So that’s his position?
SWAMIJI: That is his position . . . disconnected because of too much of it (joy). You want to get disconnected from that state and then connect yourself, (then) it gives pleasure, that is svātantrya. This is why this whole universe is created. Otherwise, there was no reason to create this universe, when God was there already in his own knowledge, completely.
To enjoy his own fullness of God consciousness. Fullness of God consciousness he has enjoyed already, he was enjoying already.
It was too much. So he wanted to disconnect it . . , for the time being, and realize it again. So it is unmeṣa and nimeṣa. Unmeṣa is flourishing of that God consciousness and nimeṣa is winding that God consciousness, extract and contract. Expansion and (contraction) i.e. unmeṣa and nimeṣa.20
This is svātantrya. So this is the way, how this universe is created. Otherwise, there was no room for this universe to be created.
What for . . . if God consciousness was already full?
But it was over, over . . .
GANJOO: Overflowing.
SWAMIJI: . . . overflowing, and then he wanted to do something else.
ERNIE: When it was overflowing, Shakti was still . . . ?
SWAMIJI: Shakti was in his own nature at that time. When it overflowed too much then he had to separate Shakti from his nature. And then in Shakti also Shiva is existing; and that Shiva was ignorant, and he wanted to have this fullness of his knowledge, as before.
This is the way.
JOHN: So he contains both of those in himself at the same moment, though. There is not a point where he is separated from the universe and then . . .
SWAMIJI: No, at the moment he realizes his nature from ignorance to knowledge, he experiences at that very moment that it was already there. This is the proof, this is the proof of his being already filled with knowledge, in ignorance also. In ignorance also, when this ignorance vanishes from that individual, he experiences and this memory comes in his mind, “that it was already there, it was already there.” (This memory comes) at the time of knowledge at the time of existence of God consciousness.
ERNIE: So there was never really any separation at all?
SWAMIJI: No, (that) separation seems to be by svātantrya.
______________
18 “O dear Pārvatī, just like by the light of your torch or candle, or by the rays of sun, all the differentiated points of deśa, or ‘space’ are known, are understood; in the same way Shiva is being understood by Shakti, by his energy. Energy is the means by which you can understand and enter in the state of Lord Shiva.” Swami Lakshmanjoo, Vijñāna Bhairava, Verse 21.
In Kashmir Shaivism ‘the showering of grace’ is called ‘Śaktipāta’. There is no such thing as Śivapāta, because for Shiva there is nowhere to go and nothing to realize. Shiva is the realizer! [Editor’s note]
19 “When the glamour of His own energies, cit śakti, ānanda śakti, icchā śakti, jñāna śakti and kṛiyā śakti are overflowing with glamour, he creates this universe. This is the creation because he was overflowing in his way, in his being.” Paramārthasāra, verse 4.
Cit śakti, ānanda śakti, icchā śakti, jñāna śakti and kṛiyā śakti, are Shiva’s energies of consciousness, bliss, will, knowledge and action, respectively. These are the five universal energies existing in the state of God consciousness. [Editor’s note]
20 “By whose unmeṣa and nimeṣa, by whose twinkling of eye – unmeṣa is opening of eye, nimeṣa is closing His eyes – you find jagataḥ pralayodayau, the rise and dissolution of one hundred and eighteen worlds. One hundred and eighteen worlds rise when He opens His eyes, and one hundred and eighteen worlds are destroyed when He closes His eyes.” Swami Lakshmanjoo, Spanda Kārika, verse 1.
२७/७/२२
प्रेम घृणा का विपरीतार्थी नहीं है। प्रेम करुणा और आनंद का प्रस्थान बिंदु है।
प्रोफ़ेसर पदनाम और उसका वेतनमान निर्धारण हुआ। दो एक ऐसे सुखों का भोग भी करना है। पजीवन की कड़ियाँ एक के बाद एक जुड़ती हुयीं सप्रयोजन प्रतीत होने लगी हैं। जितनी इच्छाएँ रही होंगी, वे सब फलीभूत होते हुए दिख रही हैं। गुरुदेव मार्ग पर बढ़ाते रहें🙏🌹🙏
३०/७/२२
कभी गौर किया होगा कि हम अकस्मात् सारी चीजें भूल जाते हैं। उस क्षण एक अपूर्व आनंद प्राप्त होता है। अगर इसे पकड़े रहे तो यह क्षण ईश्वर से मिला देता है।
कुछ न कुछ किए बिना नही रह सकते अतः सत्कर्म करो, यह धर्म है। कुछ जाने बिना नहीं रह सकते अतः अपने आप को जानो, यह ज्ञान है। कुछ माने बिना नहीं रह सकते अतः ईश्वर को मानो, यह भक्ति है। ज्ञान और भक्ति की उपलब्धि पर धर्म स्वतः होने लगेगा। धर्म के रास्ते ज्ञान और भक्ति तक पहुँचने का लक्ष्य प्राप्त होता है।
पति का अर्थ अगर मालिक है तो पत्नी का अर्थ हुआ उसे लेकर चलने वाली।
31/7/22
वर्णात्मक शब्द से ध्वन्यात्मक शब्द में प्रवेश न कर सकने पर योगपथ नहीं मिलता। ध्वन्यात्मक शब्द ही नाद है
वर्णरूपी शब्द विगलित होकर नादरूपी शब्द की उपलब्धि होती है नाद के बिना बिंदु की उपलब्धि कैसे हो सकती है? जैसे रेखा गतिहीन होने पर बिंदु का रूप धारण करती है, उसी प्रकार नाद भी प्रवाह हीन होकर बिन्दुरुप में परिणत होता है, यह बिंदु ही पूर्व वर्णित आत्म ज्योति है। आत्म स्वरूप का यही अभिव्यंजक है।
— जय गुरु
🙏🌹💐🌺
(सनातन साधना की धारा)
सायंकाल के ध्यान में महावतार बाबाजी का पीछे का स्वरूप दिखायी दिया, जिसमें उनके बाल कंधे तक शोभायमान हो रहे हैं। इस स्वरूप में पूरा ब्रह्मांड समा गया।
Friday, July 1, 2022
१/६/२२
बिना पूर्ण विश्वास और श्रद्धा के किसी आध्यात्मिक प्रथा में निष्ठा रखना पाखंड है. किसी प्रथा के बाह्य कर्मकांड से चिपके बिना, उसके पीछे विद्यमान सत्य में निष्ठा का होना विवेक है। परंतु आध्यात्मिक प्रथा, सिद्धांत, गुरु, इनमे से किसी के भी प्रति निष्ठा न होना आध्यात्मिक पतन है. ईश्वर और उनके दूत का साथ न छोड़िए, तब आप प्रत्येक वस्तु में उनके हाथ को कार्यरत देखेंगे. योगदा सत्संग पत्रिका. १७ मई आध्यात्मिक दैनंदिनी
2/6/22
स्त्री के गर्भ में आने के बाद शैशव, यौवन और वृद्धावस्था से होते हुए हिरण्यगर्भ में पहुँचने की यात्रा का नाम अध्यात्म है. हिरण्यगर्भ में पहुँचने के बाद वापस नहीं आना एक योगी का लक्ष्य होता है. जिस प्रकार एक शिशु माता के वक्ष से लिपटकर दूध पीते हुए आनंद लेता है, एक आध्यात्मिक या आत्मदर्शी व्यक्ति उसी आनंद से पूरे जीवन रहा करता है.
तत त्वं असि!
ऋषि उद्दालक और श्वेतकेतु का संवाद:
छान्दोग्योपनिषद् की एक कथा है। बात उस समय की है जब धोम्य ऋषि के शिष्य आरुणी उद्दालक का पुत्र श्वेतकेतु गुरुकुल से शिक्षा प्राप्त करके अपने घर आया।
एक दिन पिता आरुणी उद्दालक ने श्वेतकेतु से पूछा, “श्वेतकेतु! अभी और वेदाभ्यास करने की इच्छा है या विवाह?”
पिता की यह बात सुनकर श्वेतकेतु बड़े गर्व से बोला, “एक बार राजा जनक की सभा को जीत लूँ, उसके बाद जैसा आप उचित समझे।”
अपने पुत्र के मुँह से ऐसे अहंकार से युक्त वचन सुनकर ऋषि उद्दालक सहम से गए। वह बिना कुछ कहे वहाँ से उठकर चल दिए। श्वेतकेतु अपनी ही मस्ती में घर से निकल गया। तब श्वेतकेतु की माँ ने ऋषि उद्दालक का चेहरा पढ़ लिया और पूछा, “आप ऐसे सहमे हुए से क्यों हैं?”
तब व्यथित होते हुए ऋषि उद्दालक बोले, “श्वेतकेतु की राजा जनक की सभा को जीतने की लालसा ही बता रही है कि उसने वेदों के मर्म को नहीं समझा। वह केवल शाब्दिक शिक्षाओं का बोझा ढोकर आया है। वह जब घर आए तो उसे मेरे पास भेजना।” इतना कहकर ऋषि उद्दालक अपने अध्ययन कक्ष की ओर चल दिए।
जब श्वेतकेतु घर आया तो उसकी माँ ने उसे पिता के पास जाने के लिए कहा। पिता के पास जाकर श्वेतकेतु बोला, “तात! आपने मुझे बुलाया?”
ऋषि उद्दालक बोले, “हाँ! बैठो! इतना कहकर वह अपना काम करने लगे।” श्वेतकेतु से धैर्य नहीं रखा गया अतः वह बोला, “तात! आपने मुझे क्यों बुलाया?”
तब ऋषि उद्दालक बोले, “श्वेतकेतु! मुझे नहीं लगता कि तुमने वेदों का मर्म समझा है! क्या तुम उसे जानते हो, जिसे जानने से, जो सुना न गया हो, वो सुनाई देने लगता है। जिसका चिंतन नहीं किया गया हो, वो चिंतनीय बन जाता है। जो अज्ञात है, वो ज्ञात हो जाता है।”
तब श्वेतकेतु बोला, “तात! मेरे महान आचार्यों ने मुझे इसकी शिक्षा नहीं दी। यदि वे जानते होते तो उन्होंने मुझे इसकी शिक्षा अवश्य दी होती। अतः आप ही मुझे इस बारे में बताएँ?”
यह सुनकर तथा श्वेतकेतु की जिज्ञासा को जानकर ऋषि उद्दालक श्वेतकेतु को घर से बाहर ले गए।
ऋषि आरुणि उद्दालक श्वेतकेतु को लेकर एक पेड़ के नीचे बैठ गए और कुछ मिट्टी उठाते हुए बोले, “श्वेतकेतु! जिस तरह जब तुम मिट्टी को जान लेते हो, तब तुम मिट्टी से बने सभी बर्तनों को जान लेते हो कि वह भी मिट्टी स्वरूप ही है। जब तुम स्वर्ण को जान लेते हो, तब तुम स्वर्ण से बने सभी स्वर्णाभूषणों को जान लेते हो। उसी तरह अब तुम ही बताओ? क्या है वह मूलभूत तत्व, जिसको जान लेने से तुम सबको जान लेते हो, जिससे यह सम्पूर्ण जगत बना है।”
जिज्ञासु दृष्टि से श्वेतकेतु बोला, “मैं नहीं जानता! तात।”
तब आरुणि उद्दालक बोले, “वह सर्वोच्च सत्य सत् है, अस्तित्व है, चेतना है। इसी चेतना से नाम और रूप के सारे संसार ने जन्म लिया है। जैसे स्वर्ण ही स्वर्णाभूषण है, मिट्टी ही मिट्टी का घड़ा है। वैसे ही चेतना या अस्तित्व ही सबकुछ है। इसलिए तुम वही सत् चेतना हो। तत त्वं असि = तत्वमसि।”
तत्वमसि यह एक महावाक्य है जो यह घोषणा करता है कि “तुम वो ही हो, जो तुम खोज रहे हो।”
यह साधक और साध्य के एक्य को दर्शाता है। इसी महावाक्य के माध्यम से आचार्य अपने शिष्य को उपदेश करता है, “वह तुम ही हो जो तुम खोज रहे हो!”
श्वेतकेतु की ब्रह्म जिज्ञासा को देखकर आचार्य उद्दालक उसे फूलों के एक बगीचे में ले गए और बोले, “यहाँ विभिन्न फूलों से शहद इकठ्ठा कर रही मधुमखियों को देख रहे हो श्वेतकेतु?”
श्वेतकेतु, “हाँ! तात।”
आचार्य उद्दालक, “छत्ते में मिलने के बाद क्या वो शहद कह सकता है कि मैं उस फूल का हूँ और मैं उस फूल का हूँ?”
श्वेतकेतु, “नहीं तात!”
आचार्य उद्दालक, “ उसी तरह जब कोई व्यक्ति उस शुद्ध चेतना के साथ एक हो जाता है तो उसकी व्यक्तिगत पहचान खत्म हो जाती है। ठीक उसी तरह जैसे सागर में मिलने के बाद नदियाँ अपना अस्तित्व खो देती हैं। वह चेतना ही है जो सबको जोड़ती है। जिससे तुम, मैं और यह सब चराचर जगत बना है।”
तब श्वेतकेतु बोला, “लेकिन तात! एक सत या चेतना से ही विविधता से भरे इस जगत की उत्पत्ति कैसे हुई?”
आचार्य उद्दाक बोले, “जाओ! कहीं से बरगद के वृक्ष का फल लेके आओ।” श्वेतकेतु फल लाता है तो आचार्य उद्दालक उसे तोड़ने को कहते हैं और पूछते हैं कि इसमें क्या है?
श्वेतकेतु कहता है, “इसमें बहुत सारे छोटे-छोटे बीज हैं।” तब आचार्य उद्दालक बोलते हैं, “इसके किसी एक बीज को तोड़के देखो, उसमें क्या है?”
जब श्वेतकेतु ने छोटे से बीज को तोड़के देखा तो बोला, “यह इतना सूक्ष्म है कि इसे देख पाना संभव नहीं! तात।”
तब आचार्य उद्दालक बोले, "यह सूक्ष्म बीज, जिसे तुम देख नहीं सकते। इसी से विशालकाय बरगद का वृक्ष अपनी विभिन्न शाखाओं और फूलों को लेकर उत्पन्न होता है। उसी तरह उस शुद्ध चेतन तत्व, (जिसे तुम देख नहीं सकते) से ही विविधता से भरा यह जगत उत्पन्न होता है।”
इसके बाद आचार्य उद्दालक ने श्वेतकेतु को एक लोटे जल में नमक घोलकर लाने के लिए कहा और श्वेतकेतु से लोटे की उपरी सतह से जल पीने को कहा और पूछा, “कैसा है?” जल नमकीन था।
फिर उसे लोटे के बीच का जल पीने को कहा। वो भी नमकीन था। अंत में उन्होंने उसे पैंदे का जल पीने को कहा। वो भी नमकीन था।
तब आचार्य उद्दालक बोले, “जिस तरह दिखाई नहीं देते हुए भी जल की प्रत्येक बूँद में नमक है। उसी तरह दिखाई नहीं देते हुए भी सभी जगह वही चेतना विद्यमान है। वो मुझमें भी है, वही तुम हो। तत त्वं असि।”
इस तरह ऋषि उद्दालक ने श्वेतकेतु को दैनिक जीवन के उदहारण लेकर “तत त्वं असि” महावाक्य की नौ बार उद्घोषणा की। जब तक कि श्वेतकेतु इसके अर्थ को हृदयंगम नहीं कर लिया। यह प्रसंग छान्दोग्योपनिषद् के छठवें अध्याय में वर्णित है। आनंदमस्तु! ऊँ तत् सत्।
Tathastu
प्रणाम!
Sakshi Prem
10/6/22
उपनिषदों में ब्रह्म की ज्ञान शक्ति को गायत्री कहा गया है और क्रिया शक्ति को सावित्री।
जड़ चेतनमय सृष्टि में ज्ञान और क्रिया दोनो की अनिवार्यता है और ब्रह्म में ही दोनो शक्तियां निहित हैं। व्रतों और त्योहारों में कहीं वेद और उपनिषदों की उक्तियाँ झांकती अवश्य हैं, रूप चाहे जितने बदल गए हों। आज वट सावित्री अमावस्या का दिन है। 10/6/21 फ़ेसबुक पोस्ट
जब आप अपने हृदय में ईश्वर को अनुभव करना प्रारम्भ करेंगे, तो आप विश्व सभ्यता के प्रति इतना योगदान करेंगे, जितना किसी राजा अथवा किसी राजनीतिज्ञ ने पहले कभी नहीं किया होगा। गुरुदेव।
किसी की कोई चीज पसंद नहीं है तो उसकी अवज्ञा मत करो सोचो ठाकुर ने उसे भी पैदा किया है वही उसे इस संसार मे लाया है ।
माँ सारदा
कहत कठिन समुझत कठिन साधत कठिन बिबेक।
होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्यूह अनेक॥
भावार्थ
ज्ञान कहने (समझाने) में कठिन, समझने में कठिन और साधने में भी कठिन है। यदि घुणाक्षर न्याय से (संयोगवश) कदाचित यह ज्ञान हो भी जाए, तो फिर (उसे बचाए रखने में) अनेकों विघ्न हैं॥
कोऊ कह सत्य झूठ कह कोऊ
जुगल प्रबल कोऊ माने
तुलसीदास परिहरै तीनि भ्रम
सो आपन पहिचाने।
पैग़म्बर मोहम्मद का बड़ा सामाजिक योगदान है कि उन्होंने अपने समय के लड़ने वाले कबीलों को इकट्ठा किया. उन्हें अनुशासित किया. उनकी तपस्या से उन पर क़ुरान आयत्त हुयी. उसकी व्याख्या को लेकर उसी तरह के मतभेद हैं जैसे वेदों के विभिन्न भाष्य हुए हैं. कई व्याख्याये या भाष्य होने से क़ुरान या वेदों का महत्व तो नहीं घट जाएगा. मुश्किल उन लोगों से है जो न क़ुरान समझते हैं और न वेद ही. न समझ पाएँ, पर समझने वालों और उनके आचरण से ही सीख लें. 🙏
संसार की गति एक रेखीय नही होती. अतीत वर्तमान और भविष्य की भाँति भी नहीं और न उसका पूर्वापर क्रम निर्धारित किया जा सकता है. यह सब एक समय में ही घटित हो रहे हैं, किसे आगे और किसे पीछे कहा जा सकता है. इस समय को हम क्षण नाम देते हैं. इस क्षण में ही ईश्वर द्वारा सृष्टि, स्थिति और लय ही नहीं, पिधान और अनुग्रह भी घटित हो रहे हैं. इन सब ईश्वरीय विधानों को पृथक पृथक देखना-समझना ही बोध प्राप्त करना है.
१२/६/२२
नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन,
एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन।
राजा भर्तृहरि ने कहा है-
भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद्भयं
माने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जराया भयं।
शास्त्रे वादिभयं गुणे खलभयं काये कृतांताद्भयं
सर्व वस्तु भयान्वितम भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयं।।
अर्थात : विषयों के भोग में रोग का भय बना रहता है, कुल में आचार से भ्रष्ट होने का भय, धन-संचय में राजा द्वारा छीन लिये जाने का भय, मान-सम्मान में अपमानित होने का भय, शौर्य-वीरता में शत्रु से हार जाने का भय, शारीरिक सौंदर्य में वृद्धावस्था का भय, शास्त्रों के पांडित्य में प्रतिवादी से पराजित होने का भय, विद्या-विनय-दान-धर्म आदि सद्गुणों में दुष्टों द्वारा निंदा का भय और शरीर धारण के विषय में यम अर्थात मृत्यु का भय बना रहता है। इस प्रकार संसार में मनुष्यों के लिए सारी वस्तुएं ही भय से परिपूर्ण हैं, एकमात्र वैराग्य यानि इन सबसे अपने को समेटने की प्रक्रिया ही अभय प्रदान करने वाला है।
परा और अपरा दो विद्याएँ बताई गयी हैं. स्वयं वेद अपरा विद्या हैं, पर उनमें परा विद्या भी मिलती है. सब कुछ बड़ा मिश्रित है. खोजने और पाने की पात्रता विकसित करनी होगी. ईशोपनिषद में विद्या और अविद्या को साथ साथ जानना आवश्यक कहा गया है. मुंडक उपनिषद की स्पष्ट घोषणा है...
तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति ।
अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते ॥ मुंडक उप १/१/५ ॥
5. Of these, the Apara is the Rig Veda, the Yajur Veda, the Sama Veda, and the Atharva Veda, the siksha, the code of rituals, grammar, nirukta, chhandas and astrology. Then the para is that by which the immortal is known.

अष्टावक्र उवाच ।
आचक्ष्व शृणु वा तात नानाशास्त्राण्यनेकशः ।
तथापि न तव स्वास्थ्यं सर्वविस्मरणादृते ॥ १६/१ ॥
aṣṭāvakra uvāca |
ācakṣva śṛṇu vā tāta nānāśāstrāṇyanekaśaḥ |
tathāpi na tava svāsthyaṃ sarvavismaraṇādṛte || 1 ||
Ashtavakra: My son, you may recite or listen to countless scriptures, but you will not be established within until you can forget everything.
14/6/22
शक्ति के विद्युतकण जो व्यस्त, विकल बिखरे हैं, हो निरूपाय: समन्वय उसका करें समस्त, विजयिनी मानवता हो जाय। (i)
हरि , तुम बहुत अनुग्रह कीनों ।
साधनधाम विबुध दुर्लभ तन
मोहि कृपा करि दीनों ।
तुलसी
16/6/22
वर्षा ईश्वर का वीर्य हैं. बूँदे गिरते समय और उनकी नमी से ही कितने जीवों का पुनरागमन हो जाता है. औषधियाँ और पादप बनते हैं, वे हमारे लिए अन्न बनते हैं. अंत में हम भी किसी का अन्न बन जाते हैं.
१७/६/२२
इंद्र व्यक्तिगत आत्मा को कहते हैं. वही सब देवताओं का अधिपति है. श्री अरबिंदो इंद्र को गिवर ओफ़ लाइट कहते हैं. यह व्यक्तिगत आत्मा जब दृश्य देखने का काम करती है तो उसे इंद्रिय कहते हैं.
संस्कृत भाषा में इदं यह को कहते हैं द्र का अर्थ देखने से है, वह जो देखता है इंद्र कहलाता है. इदंद्र का संक्षिप्तीकरण इंद्र रूप में हुआ है.
ध्यान में देखे अनदेखे मंदिर और विग्रह दर्शन हो रहे हैं. क्षितिज में चमकते तैरते तारों के बीच पाते हैं. सिर के ऊपरी भाग में तरावट रहती है. शरीर याद कदा स्फुरित होता रहता है. बहुत से अनुभव लिखना चाहते तब भी लिखते समय भूल जाते हैं. फिर अगली बैठकी में उन्हें लिखने का प्रयास करते हैं, पर तब तक नया अनुभव आ जाता है, वह अनुभव तिरोहित ही रहता है.
हिमालय के बद्रीनाथ क्षेत्र में शंकर और पार्वती निवास करते थे। एक दिन अचानक एक बालक उनके सम्मुख आया। पार्वती ने उसे उठाकर संभालने की इच्छा प्रकट की, पर शंकर ने रोका कि यह साधारण बालक नही है, अन्यथा इसके माता पिता के पदचिह्न बर्फ पर दिखते। पार्वती नही मानी, बालक की सम्भाल करने लगीं। एक दिन जब पार्वती और शंकर बाहर निकले और घर वापस आये तो बालक ने कुंडी लगा दी और खोली नहीं। मजबूरन शंकर पार्वती को अपना स्थान बदलना पड़ा और केदारनाथ जाकर रहने लगे।
हिमालय की यात्रा कुछ पाने के लिए नही की जाती, वरन वहां जाकर संसार के सारे पदार्थ हिमालय के सामने बौने दिखने लगते हैं। यही इस यात्रा का निहितार्थ है। बद्रीनाथ और गंगोत्री के लिए अब मोटर वाहन सुलभ हो गए हैं, पर पहले लोग वहां पैदल जाते थे। बद्रीनाथ की यात्रा में वहां से पच्चीस किमी पूर्व गोविद घाट से अद्भुत दृश्य और शांति प्राप्त होती है। इस क्षेत्र को लोग विश्व के सभी क्षेत्रों से विरल मानते हैं। गोविंद घाट से ही सिखों के पवित्र हेमकुंड सरोवर की यात्रा आरम्भ होती है।
आदि जगतगुरु आचार्य शंकर ने हज़ारो वर्ष पहले सुदूर दक्षिण के केरल में जन्म लेकर हिमालय की तीन हज़ार किमी से अधिक की यात्रा तीन बार पूरी की। यही नहीं, उन्होंने पूर्व से पश्चिम की यात्रा भी एक बार पूरी करके देश मे चार पीठें स्थापित की। यह कार्य उन्होंने कोई सम्प्रदाय या धर्म निर्मित करने के लिए नही किया, वरन सनातन धर्म को मौलिकता प्रदान करते हुए पुनर्स्थापित किया। आदि शंकराचार्य द्वारा सर्वप्रथम हिमालय के जोशीमठ (ज्योतिर्मठ) में पीठ स्थापित की गई। दुर्भाग्यवश, यही पीठ आजकल विवादित हो गयी है। इस पीठ पर शारदा पीठ के शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती और वासुदेवानंद सरस्वती के बीच अवर न्यायालय और हाइकोर्ट से होते हुए मुक़दमा सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है। वर्तमान में स्वरूपानंद जी ने कुछ ज़मीन लेकर मन्दिर और अन्य स्थापत्य निर्मित कर लिए, इसी से सटे क्षेत्र पर ऊपर पुराने भवन में वासुदेवानंद जी की पीठ चल रही है। स्वरूपानन्द जी पर आरोप है कि वह बद्रीनाथ क्षेत्र की पीठ हथियाने के लिए अपने को गुरु ब्रह्मानंद सरस्वती की जगह बोधाश्रमजी का शिष्य बताने लगे। ब्रह्मानंद जी के बाद शांतानंद और एक अन्य शंकराचार्य इस पीठ को सुशोभित किये और फिर वासुदेवानंद जी आसीन हुए। स्वरूपानन्द जी ब्रह्मानंद जी के बाद बोधाश्रम जी और फिर स्वयं पीठाचार्य बताते हैं। जो हो, लेकिन इस विवाद से नुकसान पहुच रहा है। यही नहीं आदि शंकराचार्य ने भारत की एकता और अखंडता के लिए बद्रीनाथ मंदिर की पूजा के लिए केरल के नंबूदरी ब्राह्मणों को नियुक्त किया। नंबूदरियो कि सहायता के लिए गढ़वाली ब्राह्मण रहते हैं। उनका दावा है कि इन दोनों शंकराचार्यो का दावा झूठा है यह तो नम्बूदरी ब्राह्मणों की पीठ है।
परम्परा में भगवान बद्रीनाथ का स्वरूप जैसा मिलता है, उससे किंचित भिन्न यहां बद्रीनाथ पद्मासन में ध्यान करते हुए बिराजे हैं। हाथ चार ही हैं। दो अलग अलग हाथो में शंख और चक्र पर दो अन्य नीचे के हाथ ध्यान दशा में परस्पर मिले हुए हैं। इस स्वरूप से यह भी स्पष्ट है कि योग और ध्यान अपनी परम्परा में अति प्राचीन विधियां हैं। कहा जाता है भगवान विष्णु ध्यान करते गए और पत्नी लक्ष्मी ने बदरी पेड़ का रूप धारण कर उन्हें छाया प्रदान की, इससे वह बद्रीनाथ हुए। बद्री को बेर के पेड़ के रुप में जनसामान्य जानता है, पर बदरी बेर से भिन्न एक अन्य पेड़ हैं, यद्यपि वह पेड़ भी आजकल यहां मौजूद नहीं हैं।
उत्तराखंड के चार धामों की यात्रा का क्रम यमुनोत्री से शुरू होता है। यमुना का उद्गम स्थल यमुनोत्री है। यमुना सूर्य की पुत्री हैं, इनका भाई यम है, पर माता अलग अलग हैं। यम के श्राप या दुःख को बहिन यमुना ने दूर किया था। यमी का उल्लेख वेद में भी है। इसलिए व्यक्ति असामयिक मृत्यु और उसके भय को दूर करने यहां आते हैं। गंगोत्री में व्यक्ति के पूर्वजों को भी मुक्त कर दिया जाता है, जैसा भागीरथ के प्रयासों से उनके पूर्वज राजा सगर के साठ हज़ार पुत्रों का उद्धार करने की कथा सर्वविदित है। गंगा का उद्गम स्थल गोमुख है। ग्लेशियरों से नदियां निकलती हैं। गंगा का ग्लेशियर गाय के मुख की आकृति की भांति है। गौमुख गंगोत्री से पैदल 18 किमी है और सरकार की अनुमति के बिना यहां नही जाया जा सकता है। यमुनोत्री और गंगोत्री के बाद केदारनाथ के दर्शन किये जाते हैं। केदारनाथ के पुजारी कर्नाटक के वीर शैव सम्प्रदाय के आचार्य हैं। केदारनाथ ज्योतिर्लिंग की आकृति भी प्रचलित शिवलिंग से भिन्न है। उत्तराखण्ड के चार धामों में अंत मे बद्रीनाथ की यात्रा सम्पन्न होती है। भगवान की पूजा उपासना में श्रृंगार इतना अधिक कर दिया जाता है कि उनका मूल स्वरूप ढंक जाता है। इससे लोगों को स्वरूपों की विलक्षणता पता नही लग पाती है। ओरछा में भी रामराजा पद्मासन में बिराजे हुए हैं और उनके दरबार मे दुर्गा माता भी विद्यमान हैं...१८ जून २०१९ फ़ेसबुक से
* सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका॥
बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे॥3॥
भावार्थ:-शौर्य और धैर्य उस रथ के पहिए हैं। सत्य और शील (सदाचार) उसकी मजबूत ध्वजा और पताका हैं। बल, विवेक, दम (इंद्रियों का वश में होना) और परोपकार- ये चार उसके घोड़े हैं, जो क्षमा, दया और समता रूपी डोरी से रथ में जोड़े हुए हैं॥3॥
* ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना॥
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा। बर बिग्यान कठिन कोदंडा॥4॥
भावार्थ:- ईश्वर का भजन ही (उस रथ को चलाने वाला) चतुर सारथी है। वैराग्य ढाल है और संतोष तलवार है। दान फरसा है, बुद्धि प्रचण्ड शक्ति है, श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष है॥4॥
* अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना॥
कवच अभेद बिप्र गुर पूजा। एहि सम बिजय उपाय न दूजा॥5॥
भावार्थ:-निर्मल (पापरहित) और अचल (स्थिर) मन तरकस के समान है। शम (मन का वश में होना), (अहिंसादि) यम और (शौचादि) नियम- ये बहुत से बाण हैं। ब्राह्मणों और गुरु का पूजन अभेद्य कवच है। इसके समान विजय का दूसरा उपाय नहीं है॥5॥
* सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें॥6॥
भावार्थ:- हे सखे! ऐसा धर्ममय रथ जिसके हो उसके लिए जीतने को कहीं शत्रु ही नहीं है॥6॥
sufficient precision, thus: —
Principle
1. Pure Existence — Sat
2. Pure Consciousness — Chit
3. Pure Bliss — Ananda
4. Knowledge or Truth — Vijnana
5. Mind
6. Life (nervous being)
7. Matter
World
World of the highest truth of being (Satyaloka)
World of infinite Will or con- scious force (Tapoloka)
World of creative delight of existence (Janaloka)
World of the Vastness (Maharloka)
World of light (Swar) Worlds of various becoming
(Bhuvar)
The material world (Bhur)
१९/६/२२
भगवान् कृष्ण का एक नाम है 'सत्कृति'
भगवान् कृष्ण का एक नाम है 'सत्कृति'। सत्कृति का अर्थ है जो अपने भक्त के निर्याण (शरीर त्यागने के) समय में उसकी सहायता करते हैं। वराह पुराण में भगवान् हरि कहते हैं--
वातादि दोषेण मद्भक्तों मां न च स्मरेत्।
अहं स्मरामि मद्भक्तं नयामि परमां गतिम्।।
“यदि वातादि दोष के कारण मृत्यु के समय मेरा भक्त मेरा स्मरण नहीं कर पाता तो मैं उसका स्मरण कर उसे परम गति प्राप्त करवाता हूँ।“
मुकुंदमाला से..
कृष्ण त्वदीय पद पंकज पंजरान्तं
अद्यैव मे विशतु मानस राज हंसः |
प्राण प्रयाण समये कफ वात पित्तैः कंठावरोधनविधौ स्मरणम् कुतस्ते ।।
हे कृष्ण! मेरा चित्तरूपी राजहंस आज ही आपके श्रीचरण रूपी कमल के केशर में जाकर प्रवेश करे, क्योंकि प्राण परित्याग के समय जब कफ, वायु तथा पित्त से कंठ अवरुद्ध हो जाएगा तब आपका स्मरण कैसे कर पाऊँगा.
आदि शंकराचार्य कहते हैं
बाल्ये दुःखातिरेको मललुलितवपु: स्तन्यपाने पिपासा नो शक्तश्चेन्द्रियेभ्यो भवगुणजनिता जन्तवो मां तुदन्ति ।
नाना रोगोत्थदुःखाद् रुदन परवशः शंकरं न स्मरामि
क्षंतव्यो मे अपराधः शिव शिव शिव भोः श्रीमहादेव शंभो.
आज अंतरराष्ट्रीय पितृ दिवस है। जिनके पिता जीवित नहीं हैं, उनका स्मरण तो आज वैसा ही हुआ, जैसा श्राद्ध कर्म में किया जाता है। कई व्यक्ति श्राद्ध को व्यर्थ बता देते हैं। कहीं यह कान घूमकर तो नहीं पकड़ा गया है।
ऋग्वेद की एक ऋचा है..
ये अग्निदग्धा ये अनग्निदग्धा मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते ।
तेभिः स्वराळसुनीतिमेतां यथावशं तन्वं कल्पयस्व ॥ ॥
हमारे जिन पितरोंको अग्निने पावन किया है और जो अग्निद्वारा भस्मसात किये बिना ही स्वयं पितृभूत हैं तथा जो अपनी इच्छाके अनुसार स्वर्गके मध्यमें आनन्दसे निवास करते हैं । उन सभीकी अनुमतिसे, हे स्वराट् अग्ने ! ( पितृलोकमें इस नूतन मृतजीवके ) प्राण धारण करने योग्य ( उसके ) इस शरीरको उसकी इच्छाके अनुसार ही बना दो और उसे दे दो .२० जून २०२१ की फ़ेसबुक पोस्ट
भागवत (1.3.28) में कहते हैं--
एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् |
इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे || “
ये सब अवतार तो भगवान के अंशावतार अथवा कलावतार हैं, परन्तु भगवान श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान अवतारी ही हैं l
२३/६/२२
मौलाना वाहिदुद्दीन की अनूदित पवित्र क़ुरान का विहगावलोकन किया, मौलाना साहब की भूमिका पूरी पढ़ी. इसमें कुछ ऐसा नहीं,क़ुरान में ऐसा कुछ नहीं, जिसे लेकर बखेड़ा खड़ा किया जाता है. ख़ुद मौलाना साहब ने कतिपय शंकाएँ उठाते हुए उनका निवारण इस भूमिका में किया है. गर्दन काटने और मारने की जो बातें क़ुरान में की गयी हैं, वे राज्य के लिए हैं, व्यक्ति के लिए नहीं. व्यक्ति अपना जिहाद शांतिपूर्वक किए गए आचरण से लड़ सकता है. हिंसक कार्यवाही की अनुमति राज्य के लिए ही है.
कितनी सुखद अनुभूतियों को शब्दों में वर्णित नहीं कर सकते. बड़ी बड़ी अनुभूतियाँ शास्त्रों और गुरुदेव के ग्रंथों में आयी हैं, पर उनकी उन्हें आज्ञा रही, इसलिए वे आयी, मुझे न ऐसी आज्ञा है, न सामर्थ्य कि उन्हें व्यक्त कर पाएँ.
२५/६/२२
कर्तृत्व की मूल कृति-- इच्छा नहीं ।
इच्छा का उदय पूर्व संस्कार से होता है ---- उस इच्छा की ओर yield करना या नहीं करना , यह कृति है । यही कृतित्व है ।
देवता कर्ता नहीं हैं ,उनकी देह कर्मदेह नहीं । क्योंकि उन्हें इच्छा होती है और उसी क्षण उसकी पूर्ति होती है । कृति का अवकाश नहीं रहता , प्रवृत्ति- निवृत्ति का अवकाश नहीं रहता , choice नहीं रहता ।
कर्तृत्व जब नहीं रहता , तब भी इच्छा का उदय होता है ।उस इच्छा का मूल क्या है ? स्वभाव ।
यह स्वभाव दो प्रकार का है ;
( क )योगमाया और ( ख) माया
पूर्वस्थल में इच्छा का उदय होता है ,
उसकी पूर्ति होती है -- कृति की आवश्यकता नहीं होती ।
इच्छापूर्ति -- आनन्दावस्था । इच्छा के उदित होने से विलम्ब क्यों नहीं होता ? क्योंकि चिंतामणि राज्य है ,
पूर्ण राज्य -- विलम्ब का हेतु नहीं ।
उत्तर में राज्य अभाव और अपूर्णता का है । इसलिए , इच्छा का उदय तो होता है ,लेकिन तुरन्त उसकी पूर्ति नहीं होती । इसीलिए प्राप्ति के लिए कृति होती है । यहाँ कर्तृत्व का आरम्भ है । पूर्ण के राज्य में कर्तृत्व नहीं ।
अभाव के ही राज्य में कर्तृत्व है । कर्तृत्व के जाने से ही चेष्टा ,क्रिया आदि , moral life है । सब गया ,माया कट गई । तब लीला । यह योगमाया का राज्य है । पौर्णमासी का राज्य ।
स्व संवेदन / पृष्ठ 283
Date 23/ 1/ 1925
आग पर कागज़ रखने से जलता है ।
आग जलाती है इसलिए जलता है । दाह कार्य में आग का कर्तृत्व है । अतएव, यह भी वास्तव में स्वाभाविक कार्य नहीं । दाह करना आग का स्वभाव है -- यह महज लौकिक बात है । इस कार्य के मूल में भी इच्छा है । इसलिए ,इच्छा से यह नियमित हो सकता , स्तम्भित हो सकता है ।
संसार के सभी कार्यों का मूल इच्छा है ।
इच्छा और स्वभाव में भेद क्या है ? इच्छा की पूर्णता ही स्वभाव या आनन्द है । पूर्ण इच्छा = स्वभाव । स्वभाव का विकार नहीं -- इसीलिए , परमेश्वर की इच्छा या पूर्णइच्छा निर्विकार है । आधार- भेद से वही इच्छा नाना प्रकार से अपूर्ण होती है , सीमाबद्ध होती है , विकृत होती है ।
हम साधारणतया जिसे इच्छा कहते हैं , उसका उदय और अस्त है , वह जन्य और विकृत है । परमेश्वर की इच्छा नित्य प्रकाशमान है , निर्विकार -- इसीलिए वह स्वभाव है । वह पूर्ण है , इसलिए कोई उसे इच्छा नहीं कहते । वही आनन्द है । वह सदा एकरस है , इसलिए , उसे पूर्णता या स्वभाव कहना ही अच्छा है । आधार के सम्बंध से वही सीमाबद्ध होती है । तब वह इच्छा होती है -- पूर्ण के स्पर्श से आनन्द होती है । स्वभाव या पूर्ण निराधार है । इच्छा या आनन्द को लौकिक अर्थ में प्रयोग करने के लिए विषय - सम्बंध चाहिए , आधार -सम्बंध चाहिए । बिंदु ही मूल आधार है । उसी को ग्रहण करने से इच्छा का स्फुरण होता है , आनन्द का विकास होता है । वही सृष्टि का उन्मेष है । बिंदु का त्याग करने से ही पूर्णता है -- विशुद्ध स्वभाव । वह नित्यानन्द पारमैश्वर्य है -- उसका विकास और लय नहीं ।
स्व संवेदन पृष्ठ 329
Date 23 , 6 , 1927
आज एक और पुस्तक डाक से प्राप्त हुयी, श्री अरबिंदो की सीक्रेट आँफ वेद, ईबुक के रूप में जब इस पुस्तक को देखा तो मंगाए बिना न रहा गया.
कभी-कभी अर्थोन्मेष की अनुभूति परम तक पहुचाने का आभास कराती है. अर्थ का यह प्रसार ही उसे मुद्रा या धन के अर्थ की सार्थकता व्यक्त करती है. धन्य करने के कारण वह धन है, प्रसन्न करने के चलते वह मुद्रा है. शब्द का अर्थ भी हमें यही अहसास कराता है. किसी शब्द के दो अलग अलग अर्थ बाद में विकसित हुए, मूलतः या तत्वतः एक शब्द का एक ही अर्थ है. गो का अर्थ प्रकाश है, गाय का अर्थ विकसित हुआ. अश्व का अर्थ प्राण के एक रूप से है, बाद में इससे घोड़ा का अर्थ विदित हुआ.
ब्रह्म से अतीत भूमि में संचित सत्ता ही षोडश कलामय पूर्ण सत्ता है । उसकी पन्द्रह कला एवं सोलहवीं कला का त्रिपादांश ज्ञान राज्य में है । एक कला का पादांश मात्र ( 1/4 ) कार्य करने के लिए मर जगत में अवतीर्ण है ।
ज्ञान राज्य में अवशिष्ट पन्द्रह कला विश्वगुरु भृगुराम के रूप में स्थित है । बाकी त्रिपादांश ( 3/ 4 ) कला भृगुशक्ति के आधारभूत अचलानन्द या महातपा रूप से अवस्थित हैं । मात्र एक कला के पादांश ( 1/ 4 ) का प्रकाश ( इस मर जगत में ) विशुद्धानंद के रूप से हुआ ।
इन सब को मिलाकर विशुद्धसत्ता ( षोडशकलायुक्त ) हैं
पुकार ( आर्तपुकार ) यदि माँ रूप है । अचलानन्द हैं , अनादि स्वरूप ।
अचल की क्षुब्ध अवस्था " आदि माँ " , "माँ की पुकार " या भावशक्ति है । आदि शक्ति से जिनका स्फुरण हुआ ,
वे हैं "कर्मशक्ति या श्यामा शक्ति । " जिनके कारण यह स्फुरण हुआ , वे ज्ञान या उमाशक्ति पद वाच्य हैं । उमा का स्वरूप है " ॐ माँ " अतएव अचल के तीन कोण हैं
आदि माँ ( आदि शक्ति ) , श्यामा माँ ( कर्मशक्ति ) एवं उमा माँ ( ज्ञान शक्ति ) वहीं से ' ॐ माँ ' शब्द निर्गत हुआ पूर्व वर्णित एकपाद विशुद्धसत्ता , इस महाशब्द को चतुर्दश भुवन का अतिक्रमण कर , इस मर्त्यलोक में लाई । ज्ञान राज्य में ' ॐ माँ ' ध्वनि निरन्तर उत्थित हो रही है । किन्तु धारक में अभाववश , धृत न होकर वापस लौट जाती है ।
विशुद्धसत्ता का अवतरण
मातृ स्वरूप आसन प्रतिष्ठा पृष्ठ 32
२७/६/२२
सृष्टि से परे उस निर्गुण ब्रह्म या परमपिता को कोई भी तब तक प्राप्त नही कर सकता जब तक वह पहले सृष्टि में व्याप्त कूटस्थ चैतन्य या पुत्र को अपने मे प्रकट न कर दे। गीता में आये मंत्र ॐ तत सत के अर्थ से इसे समझा जा सकता है। कूटस्थ चेतना परमपिता का एकमात्र पुत्र है। इसमें लिंग या जेंडर का प्रश्न नहीं है। वैसे तो सब प्राणी परमपिता की संतानें हैं, पर मनुष्य में ही यह पुत्र प्रकट होने की संभावना पाई जाती है।
पितृ ऋण की अदायगी के नाम पर पुत्र पैदा करने की अभिधात्मक व्याख्या अथवा मैं ही ईश्वर का एकमात्र पुत्र हूँ, ऐसी व्याख्या करने से सनातन, ईसाई और अन्य शास्त्रों को सही रूप में नही समझा गया। एक बार गलत व्याख्या को पकड़कर आगे बढ़ते जाने से वह गलत ही बनी रहती है।
लेखिका मैत्रेयी पुष्पा की तीन बेटियां हैं, इस पर एक बार उनसे पूछा कि ऐसा करने के पीछे क्या कारण रहा! उन्होंने स्पष्ट कहा पुत्र के लिए समाज का दबाव था। इससे अधिक हम लोग जोखिम नही ले सकते थे।
जनसंख्या के बारे में पापुलेशन ट्रेंड वेबसाइट पर दिये ग्राफ कहते हैं कि आने वाले कुछ दशकों में भारत की जनसंख्या की वृद्धि दर और संख्या वर्तमान दर से कम हो जाएगी, पर जनसंख्या को एक तर्कसंगत स्तर पर उससे पहले अगर आज का समाज ले जाये तो उसमे हर्ज क्या है! फ़ेसबुक २३/६/२१
२८/६/२२
गाँठ को संधि भी बोलते हैं. कश्मीर में इसे संध कहा जाता है. यह एक खोज है, अवसर है दो छोरों को जानने का, उन्हें जोड़ने का.
सब धर्मों या सम्प्रदायों की एकता संभव नही है. तत्व की उपलब्धि अनुभूति का विषय है. धार्मिक आचार और व्यवहार उस उपलब्धि को प्राप्त करने के साधन हैं. यह उपलब्धि प्रचार नहीं, परिवर्तन नहीं, फिर किस विधि से कोई अन्य जान पाएगा कि उपलब्धि क्या है🙏
भारतीय संस्कृति के सारे अंतर्विरोध द्वयर्थक या बहुअर्थक श्लोकों की अलग अलग व्याख्या के कारण है. वेदों का एक भाष्य आचार्य सायण का है और दूसरा भाष्य अन्य अनेक मनीषियों का. जब तक द्वयर्थी भावों का ग्रहण नहीं हो जाएगा, सार नहीं मिल पाएगा....
Tuesday, May 31, 2022
यस्तु क्रियावान स योगी मई २०२२
यस्तु क्रियाबान् स योगी
१/५/२२
Then I told him to practise Kriya Yoga, with this further instruction: "After practising your Kriya, think that the divine Light is going into your brain, soothing it, calming your nerves, calming your emotions, wiping away all anger. And one day your temper tantrums will be gone." Not long after that, he came to me again, and this time he said, "I am free from the habit of anger. I am so thankful.
The Divine Romance
Pgno 334
२/५/२२
अर्थ शब्द का परिचय होता है और धन को भी अर्थ कहते हैं. दोनो मेन तत्विक अंतर नहीं हैं. बाह्य रूप में धन का पसारा संसार चलाता है, आंतरिक रूप में शब्दार्थ का पसारा ही संसार को गतिमान किए हुए है.
स्वप्न में जाग्रत की करणीयता होने लगे तो समझना चाहिए जाग्रत अवस्था उचित ढंग से बीत रही है. स्वप्न अवस्था जाग्रत और सुषुप्ति की भाँति अवश्यंभावी है. जब सुषुप्ति अधिक होती है तो हम स्वप्न में चले जाते हैं. स्वप्न दशा व्यक्ति के जीवन यापन का पैमाना है, इसे कोई और नहीं, डॉक्टर भी नहीं, न कोई यंत्र ही माप सकते हैं, उसके प्रमाता हम ही हैं. अतः अपनी विकास यात्रा को हम ही जान सकते हैं, कोई अन्य नहीं.
५/५/२२
ध्यानं विना भवेन्मूकः सिद्धमंत्रोsपि साधकः.
बग़लामुखी रहस्यम्
मरणासन्न व्यक्ति अस्वीकृति, क्रोध, समझौता, अवसाद और स्वीकृति इन अवस्थाओं से होकर निकलता है। मरणासन्न व्यक्ति को प्राण त्यागने के सम्बंध में संवेदनशीलता और कौशल के साथ बताया जाना चाहिए। अधिकतर ऐसे व्यक्ति जान ही लेते हैं, परन्तु वे चाहते हैं डॉक्टर या सम्बन्धियों से इस बारे में पता चले। अगर सम्बन्धी नहीं बताते तो मरणासन्न व्यक्ति को लग सकता है उनके सम्बन्धी इस समाचार का सामना नही कर सकते। फिर वे भी इस विषय को नहीं उठाते। इससे वे अकेला और व्यथित अनुभव करते हैं।
मरणासन्न व्यक्ति के साथ काम करने का अर्थ है कि हम अपनी वास्तविकता को दर्पण में देख रहे हैं। मरणासन्न व्यक्ति द्वारा सजग, सचेत व प्रशांत अवस्था के बीच अंतिम सांस लेना बहुत महत्वपूर्ण है। मरणासन्न व्यक्ति को पूरी शांति व मौन के बीच जाने दिया जाए। मरणासन्न व्यक्ति के पास एक सच्ची बुद्ध प्रकृति है, भले उसे इसका अहसास हो या न हो, पर वह सम्पूर्ण प्रबोध पाने की सम्भावना रखता है।
मरणासन्न व्यक्ति को दाईं करवट लेटते हुए निद्रालीन सिंह की मुद्रा अपनानी चाहिए।
अगर आपने मरना सीख लिया तो अपने जीना सीख लिया और जीना सीख लिया तो इस जन्म के साथ साथ अगले जन्मों के लिए भी जीना सीख लिया।
उक्त विवरण जीवन और मरण की एक पुस्तक में दिया गया है। इस पुस्तक में मरण की प्रक्रिया और अन्य बातों का सविस्तार वर्णन दिया गया है। विगत वर्ष आज के दिन की फ़ेसबुक पोस्ट
६/५/२२
जैसे दिल्ली में लघु भारत बसता है, ऐसे ही क़रीब-क़रीब श्रीनगर में लघु विश्व का निवास है. श्रीनगर में एअरपोर्ट से उतरने के बाद श्रीनगर शहर को देखते आ रहे थे. यहाँ एरुशलम, इस्तांबुल, शारजाह, अरब, करॉची न जाने कितने देशों और उनके शहरों के नाम पर प्रतिष्ठान चलते हुए मिले. ब्राज़ील कॉफ़ी शाप को एक वहीं की महिला चलाते हुए मिली, वह दुकान के साथ अपने ३-४ वर्ष के बेटे को भी संभाल रही थी. ७० रुपए में ब्लैक कॉफ़ी उपलब्ध हुई. दूध की कॉफ़ी १०० रुपए में थी. डल झील के घेरे से आते समय आटो चालक वली मोहम्मद ने जब अपने से इशारा करते हुए बताया कि इस पहाड़ पर आदि शंकराचार्य पधारे थे तो मन कितना हर्षित और गर्वित हुआ. उसने कहा फ़ोटो ले लो. वली मोहम्मद ने आगे पूछा कि क्या उत्तर प्रदेश में भी मुसलमान रहते हैं. श्रीनगर में मस्जिदों की संख्या बहुतायत में है, आज शुक्रवार को मस्जिदों में उनके प्रवचन भी होते दिखे. ४ मई को हुयी ईद के त्योहार का असर यहाँ आज भी दिखा. शुक्रवार को साप्ताहिक बंदी रहती है. हिंदी में नाम पट्टिकाएँ केवल भारत सरकार के कार्यालयों की ही दिखीं, शेष उर्दू और अंग्रेज़ी में, वरन अंग्रेज़ी में ९० प्रतिशत तक. यहाँ की बोलचाल की स्थानीय भाषा उर्दू नहीं है, कश्मीरी है. यहाँ अरब और अन्य देशों की इम्पोर्टेड वस्तुएँ खूब मिलती हैं, यह सामान देश के अन्य बाज़ारों में इतना नहीं दिखता. आज यहाँ एक घंटे से अधिक झमाझम बारिश हुयी. स्वेटर पहनने लायक़ सर्दी है, सुरक्षा कारणों से सिम दूसरी मिली नहीं, जीयो की प्रीपेड सिम यहाँ काम नही करती. होटेल के वाइफ़ाई से इंटर्नेट चल रहा है.
सायं काल होटेल मीडोस हिल साइड के अपने कमरे में जब ध्यान में बैठे तो गुरुदेव की स्मृति हो आयी. उनके चरणों में अपने को विलीन किया. यहाँ की आबोहवा में व्याप्त उनकी उस समय की यात्रा तिर रही है, इसका आभास हुआ. यह जानकर अश्रुपात होता रहा. भक्ति जल में सींच कर मानो प्रेम पुष्प अर्पित करता रहा. गुरुदेव की अनुभूति का इतना सघन अहसास बहुत कम हुआ है, कदाचित् इस सघनता से पहली बार. उनके साथ हम हुए और गुरुदेव तो हमारे साथ ही हैं.
श्रीनगर के ऊँचे-ऊँचे पेड़ों और उनके ऊपर की ओर उठी हुयी पत्तियों को देखकर लगता है यहाँ की प्रकृति के कमल चक्र खिले हुए या जाग्रत हैं. उसी तरह जैसे षट्चक्र भेदन में ऊर्जा कमल खिल जाते हैं. लोग तो मिश्रित प्रकृति के ही सर्वत्र हैं, पर प्रकृति यहाँ की जीवंत है. दिल्ली के एअरपोर्ट पर प्रार्थना कक्ष बना दिखा, जैसे गुरुदेव ध्यान की आदत को बिना नागा पूरा करने के लिए परिस्थिति निर्माण कर रहे हों. एक के बाद एक छोटी, मामूली या बड़ी गतिविधि संचलन में लयबद्धता आ गयी है. सारी गतिविधियाँ मामूली ही हैं, आँख खोलने के मानिंद, आँख के भीतर से होकर जो संसार है, घर है, मूल ठिकाना है, वहाँ तक पहुँचने का रास्ता आँख से दिखने वाले संसार से होकर गुजर रहा है. लौकिक संसार की बस यही उपयोगिता है.
प्रार्थना कक्ष में ध्यान करते समय बहुत से नमाज़ी आए. उनसे हमें समस्या नहीं हुयी और न उन्होंने हमसे कोई समस्या व्यक्त की. हर पूजा करने वाला व्यक्ति धार्मिक नहीं, उसी प्रकार हर नमाज़ी भी अल्लाह को प्राप्त नहीं. कर्मकांड की तरह चीजें होती देखी जाती हैं. ईश्वर का साक्षात्कार किए हुए व्यक्तियों को संगठन बनाने की आवश्यकता नहीं रह जाती. न वे शेष समाज से अलग दिखते हैं और न उनके व्यवहार में ऐसा परिवर्तन दिखता है कि वे संसार का ध्यान खींचें. जब तक आकर्षण नहीं रहेगा तब तक संगठन या राज्य कैसे चल सकता है. इसलिए यह पता कर पाना बेहद मुश्किल है कि किस धर्म के मानने वाले व्यक्ति अधिक संख्या में आत्मदर्शी हुए हैं. आत्मदर्शियों का संगठन कैसे बन सकता है और संगठन बनाकर चले तो अभेदावस्था कैसे रह सकती है. और अगर आत्मदर्शियों का ज्ञानगंज की भाँति अलग ठिकाना हुआ तो संसार ही फिर कैसे रह सकता है, फिर प्रभु की लीला क्या और आनंद क्या!
7/5/22
चैतन्यमात्मा
शरीरं हविः.
प्रयत्नः साधकः
त्रितयभोक्ता वीरेशः
त्रिषु चतुर्थं तैलवदासेच्यम्
यथा तत्र तथान्यत्र
८/५/२२
कश्मीर पर बहुत कहा लिखा गया है. पर हम अपने अनुभव से दो तीन बातें कह सकते हैं. कश्मीर की जन संरचना विलक्षण है. यहाँ के हिंदुओं को पलायन करने पर विवश किया गया, यह यहाँ के इतिहास का स्याह पक्ष है. दुनिया भर के मुसलमानों के यहाँ बहुत से संप्रदाय निवास करते हैं, उनमें आपस में बहुत मतभेद और ऊँच नीच भी है, पर इस्लाम धर्म की छतरी के नीचे वे अपनी एकता भी महसूस करते हैं.
अपने को ऋषि कहने वाले नुंद ऋषि के वाख (पद) रमज़ान जैसे पवित्र माह में चरारे शरीफ़ और खानकाह मस्जिदों में पढे जाते है. यह अनोखी बात है, इस्लाम में ग़ैर इस्लामिक चीज़ बर्दाश्त नहीं होती. नुंद मुस्लिम थे, पर अपने को ऋषि कहते थे. कश्मीर में मुस्लिमों के गुरु हिंदू और हिंदुओं के गुरु मुस्लिम होते आए हैं, अब भी यह परंपरा विद्यमान है, इसीलिए यहाँ के उपनाम दोनों सम्प्रदायों में एक से देखे जाते हैं. ज़फ़र साहब ने बताया उनके परदादा अवतार भट का नाम वे कैसे बदल सकते हैं. बारहवीं शताब्दी की भक्तिन लल्लद (लल्लेश्वरी) के वाख जब उद्धृत किए जाते हैं तो हिंदू मुस्लिम दोनों उन्हें सुनकर रोमांचित होते हैं. खीर भवानी के मंदिर में हिंदू मुस्लिम दोनो जाकर अपनी-अपनी तरह से पूजा करते हैं. यह बात यहाँ के पंडितों ने ही बतायी है. गणपतिहार में गणेश की मूर्ति तोड़ दी गयी, कई मंदिर नष्ट किए गए. ऐसे ही एक सूर्य मंदिर फिर से बनने के लिए कल ही शिलान्यास हुआ है.
पंडितों को मामूली क़ीमत पर अपनी जायदाद बेचकर या छोड़कर यहाँ से जाना पड़ा, वे वापस आएँ, ऐसा होना मुश्किल अवश्य है, पर असम्भव तो नहीं. यह भी है कि जो जहाँ बस जाता है, वह वहीं का हो जाता है. कश्मीर के लोग चाहते हैं खूब पर्यटक आएँ, बस खर्च करके चलते भी बनें. यह बात सब जगहों पर लागू होती है.
कश्मीर में पहले नाग जाति का अस्तित्व रहा, फिर बौद्धों के बाद ८वी शताब्दी से शैव दर्शन का इतिहास मिलता है. १४वी शताब्दी के आसपास से इस्लाम का आगमन यहाँ हुआ. अब यहाँ इस्लाम ही इस्लाम है, सुबह की नमाज़ सुनने के समय मानो सामगान हो रहा हो, ऐसा लगता है, शेष भारत की मस्जिदों में नमाज़ पढ़ने का ऐक्सेंट अलग है.
आज की फ़्लाइट पौने आठ बजे सुबह की थी. जहां ठहरे वहाँ टैक्सी आने में विलंब देख रोड पर आए तो एक माँ बेटी टहलते हुए मिलीं, उनसे कहा तो बेटी इकरा ने तुरंत अपने भाई को फ़ोन लगाया. १० मिनट में टैक्सी लाने को कहा, मुझे लगा सुबह का समय है, सर्दी यहाँ सदा रहती ही है, फिर एक और मोर्निंग वॉकर के साथ चल दिया पैदल ही, दूसरी शेयरिंग गाड़ी में बैग रखा इतने में इकरा का भाई आकिब आ गया, बड़े आराम से पर शीघ्रता से एअरपोर्ट छोड़ दिया. हवाई यात्रा करने में फ़्लाइट पकड़ने का बड़ा तनाव रहता है, सुरक्षा कारणों से निर्धारित समय से बहुत पहले जाना होता है. फिर फ़्लाइट समय पूर्व भी चल देती है, अगर उसके सारे यात्री जहाज़ में बैठ जाएँ. इसी तरह अपने गंतव्य पर वह पहले पहुँच भी जाती है. कश्मीर की जलवायु इतनी अच्छी है कि यहाँ की धरती को जन्नत कहा गया है. यहाँ के घने और ऊँचे चिनार पेड़ इसे विशिष्टता प्रदान करते हैं. उत्तराखंड के हिमालय में चिनार पेड़ नहीं हैं, यहाँ बहुतायत में हैं. यहाँ शंकर पल यानि नदी के बीच एक बड़ी सी शंकर शिला है, जहां शैव दर्शन का प्रारंभिक ग्रंथ शिव सूत्र वसुगुप्त को उपलब्ध हुआ था, यह स्थान अब सेना के क़ब्ज़े में है, आज सेमिनार के कुछ साथी अनुमति लेकर वहाँ जा रहे हैं, पर हमें अब वापस होना है...
९/५/२२
एक स्वाभाविक जीवन क्रम में सभी उदात्त पहलुओं का समावेश हो जाता है. निसंदेह प्रकृति स्वयं एक सक्षम शिक्षक है, जिसके चलते आदिम मनुष्य भी कितना सहज दिखता आया है. विभिन्न समूहों और व्यक्तियों में हो रही अंतःक्रियाएँ उन्हें समुन्नत करेगी. ज़ोर ज़बरदस्ती इन अंतः क्रियाओं में सम्भव नहीं. क्रिया और प्रतिक्रिया भी अंततः अंतःक्रिया ही बनेगी🙏
आजकल वेदांत और कश्मीरी शैव पद्धतियों की बारीकियों में जा रहा हूँ. जब दोनो मेन अंतर्विरोध दिखता है तो गुरुदेव की बातें विवेक ज्ञान करा देती हैं. वास्तव में बोध के बाद अंतर रह ही नहीं जाता. वेदांत जगत् को मिथ्या कहता है, इसका अर्थ शैव दर्शन में अनिर्वचनीयता से लिया गया है. मिथ्या का अर्थ झूठा नहीं है. पर जब संसार का बोध हो जाता है तो यह झूठ भी लगता है और अनिर्वचनीय भी. तब इसका आनंद बौद्धों के शून्यता के बोध के बाद भी मिलता है. शैवों ने पहले से इसे आनंद के रूप में लिया है, वेदांत और बौद्ध में यह फलश्रुति के रूप में लभ्य है. गुरुदेव ने सूत्र रूप में कह दिया है संसार में रहो, पर संसार का होकर नहीं. लाहिरी महाशय कहते हैं न कोई तुम्हारा है और न तुम किसी के हो.
टुकड़े-टुकड़े विभक्त करके चीजों को समझने की उत्कंठा पश्चिम में अद्भुत रूप में पायी जाती है, इसीलिए उनके यहाँ भौतिक विकास ने अपूर्व छलांग लगायी है. गुरुदेव इसका सामंजस्य करते हैं और कहते हैं हमें पश्चिम का भौतिक विकास और भारत की आध्यात्मिकता ग्रहण करने की आवश्यकता है.
गुरुजी ने एक मुकम्मल या समग्र उपाय उन सिद्धांतो को समझने के लिए दिया है, यह सिद्धांत विमर्श और दर्शन शास्त्र की विषयवस्तु भर बनकर रह जाते हैं, अगर उनके भीतर का बोध प्राप्त न हुआ.
10 मई की पुरानी फ़ेसबुक पोस्ट
आदि शंकराचार्य का श्लोक
नलिनीदलगतजलमतितरलं तद्वज्जीवनमतिशयचपलम्।
क्षणमिह सज्जनसंगतिरेका
भवति भवार्णवतरणे नौका।।
स्वामी श्री युक्तेश्वर द्वारा the holy science में किया गया भावार्थ...
कमल के पत्ते पर स्थित पानी की बूंद के समान जीवन सदैव असुरक्षित और अस्थिर रहता है। एक पल के लिए भी सज्जन की संगति हमें बचाकर हमारा उद्धार कर सकती है।
ईश्वर क्या है और जगत क्या है!
इस श्लोक में कितने सुंदर ढंग से निरूपित किया गया है-
अस्ति भाति प्रियं रूपं नाम चेत्यंशपंचकम। आद्यत्रयं ब्रह्मरूपं जगदरूपं ततो द्वयम।।
अर्थात अस्ति(existence), भाति (cognizability- that which makes one aware of the existence of an object), प्रिय(attractiveness), रूप (form) तथा नाम (name)‒इन पाँचोंमें प्रथम तीन ब्रह्म के रूप हैं और अन्तिम दो जगत् के ।’
ईश्वरकृष्ण की सांख्यकारिका में प्रकृति पर क्या अद्भुत कारिकाएँ कही गयी हैं, उनमें से एक है-
प्रकृतेः सुकुमारतरं न किंचितस्तौतमे भतिर्भवति.
या दृष्टास्मीति पुनर्न दर्शनमुपैति पुरुषस्य. कारिका ६१
प्रकृति अत्यंत लज्जावती है, जब उसे तनिक भी संशय होता है कि मैं देखी गयी हूँ तो बस फिर पुरुष के सम्मुख भूले से भी नहीं आती.
अब यह सूफ़ी भजन पढ़ें...
हमने बेपर्दा तुझे माहजबीं देख लिया
अब ना कर पर्दा के ओ पर्दानशीं देख लिया
हमने देखा तुझे आंखों की सियाह पुतली में
सात पर्दों में तुझे पर्दानशीं देख लिया
हम नज़र-बाज़ों से तू छुप ना सका जान-ए-जहां
तू जहां जाके छुपा हमने वहीं देख लिया
तेरे दीदार की थी हमको तमन्ना, सो तुझे
लोग देखेंगे वहां, हमने यहीं देख लिया.
उसकी हसरत है जिसे दिल से भुला भी न सकूँ
ढूँढने उसको चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ.
ये अमीर अपनी ग़ज़ल है कोई आयत तो नहीं
कि घटा भी न सकूँ और बढ़ा भी न सकूँ.
अमीर मीनाई
११/५/२२
आ संहार और ई सृष्टि है. प्रथम शिव और द्वितीय शक्ति है.
१३/५/२२
साधना के लिए विशेष उग्र प्रयत्न नहीं करना चाहिए। साधना मात्र वायु घटित है। यहां तक कि प्राणायाम आदि न कर तीव्र रुप से ध्यान करने पर वायु की क्रिया अवश्य होगी। इस समय यथासंभव वायु की साम्यावस्था आवश्यक है, इसलिए नित्य कार्य के लिए जितना आवश्यक है, उसके अतिरिक्त किसी प्रकार की क्रिया या चिंता वर्जनीय है।
नित्य-कर्म के साथ भक्तिभाव और आत्म निवेदन के भावों को मिलाकर रखने का प्रयत्न करना चाहिए। तब कर्म भावजनित त्रुटियाँ नहीं होंगी। एक मात्र उनकी ओर लक्ष्य रखते हुए प्रकृति के स्रोत में अपने को छोड़ देना चाहिए, इससे अभिमान शून्य द्रष्टा भाव में स्थिति होती है, तब कृत और अकृत कार्यों में कोई पार्थक्य नहीं रहता। कारण, प्राकृतिक प्रवाह का चेतन साक्षी-स्वरूप जो अपने को समझता है, वह अकर्ता होकर भी क्रतसन्नकर्मकृत हो जाता है। ज्ञान और कर्म के समन्वय का यही गूढ़ रहस्य है।
🥀🌼🌺🌺🌼🥀
श्रीगुरु बाबा गोपीनाथ कविराज जी
(सनातन साधना की गुप्त धारा)
क्ष- देश
त्र- काल
ज्ञ-वस्तु
खाँड़ का कुत्ता, गधा, चूहा, बिल्ला
मुँह में डालो ज़ायक़ा है खाँड़ का.
१४/५/२२
पुराणो में आता है कि पुं नाम के नरक से पुत्र बचाता है. यह पुत्र कौन है और कैसे पैदा होता है. इसे बिना जाने हम सब इसे भौतिक रूप में ग्रहण कर लेते हैं. और तरह तरह की भ्रांतियों और विपदाओं के शिकार हो जाते हैं. हमारे शरीर की रोग और वृद्धता जन्य समस्याओं के कारण बहुत से व्यक्तियों को यह व्यवहार में आवश्यक भी लगता है, इसका समुचित समाधान खोजना संसार और उसकी सभ्यता के विकास पर निर्भर है, पर वास्तविक पुत्र ॐ तत्सत् की उपलब्धि होना है. सत से सुत विकसित हुआ है और तत से तात, तात का अर्थ पिता और पुत्र दोनो होता है. तत्सत् में पिता और पुत्र का ही सम्ब्न्ध निहित है.. यह व्यक्ति की ही उपलब्धि है, समाज की नहीं. इसे पाने के लिए व्यक्ति को जनेऊ या यज्ञोपवीत धारण करना पड़ता है जनेऊ धारण षट्चक्र भेदन है, जहां तिलक या बिंदी लगाते हैं उस कूटस्थ को सदा उद्बुद्ध रखना होता है. आदि कोटि और अंत कोटि का निभालन करते हुए शिखा बंधन करने के बाद यह कूटस्थ उद्बुद्ध होता है. तब तत्सत् कूटस्थ पर पुत्र उसी प्रकार उदित हो जाता है जैसे नदी की जलधार के बीच की रेत दिखने लगती है. पुत्र जन्म नदी की इस रेत के बनने की भाँति कठिन होता है. पर असल पुत्र यही है, सांसारिक संतति उसकी छाया है. पुत्रोदय ब्राह्मण बनकर ही संभव है. ब्राह्मण होने की निशानियाँ हैं शिखा, यज्ञोपवीत और तिलक. एक ब्राह्मण ही पुत्र जन्म कर सकता है, पुत्र जन्म होने पर वह ब्राह्मण ही रहता है. ब्राह्मण होना भी क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बने बिना संभव नहीं..
त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी।
त्वं जीर्णो दण्डेन वञ्चसि त्वं जातो भवसि विश्वतोमुखः॥ यजुर्वेद श्वेताश्वतरोपनिषद आ ४ मं ३
तुम' ही स्त्री (प्रणयिनी) हो तथा 'तुम' ही पुरुष हो; 'तुम' ही कुमार हो एवं 'तुम' ही पुनः कुमारी कन्या हो; 'तुम' ही तो जरा-जीर्ण वृद्ध पुरुष हो जो अपने दण्ड के सहारे झुककर चलता है। अहो, 'तुम' ही तो जन्म लेते हो तथा सम्पूर्ण विश्व तुम्हारे ही नाना रूपों से परिपूर्ण हो.
नीलः पतङ्गो हरितो लोहिताक्षस्तडिद्गर्भ ऋतवः समुद्राः।
अनादिमत्त्वं विभुत्वेन वर्तसे यतो जातानि भुवनानि विश्वा॥। यजुर्वेद श्वेताश्वतरोपनिषद आ ४ मं ४
तुम' ही नील-विहंग हो तथा हरित एवं लोहिताक्ष हो; तडित्-गर्भ हो तथा नाना ऋतुएँ एवं अनेक सागर हो। 'तुम' अनादि हो तथा 'तुम' विभुभाव से सर्वत्र विचरण करते हो जिससे सकल भुवनों का उद्भव हुआ है।
१७/५/२२
अयोध्या के राममंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद इस तरह के विवादों का पटाक्षेप हो जाना चाहिए था, पर ज्ञानवापी परिसर के सर्वे के बाद परिस्थिति बदल गयी है.
जो मुक़दमे धर्मस्थल या उसकी पूजा को लेकर १९९१ के उस ऐक्ट से पहले दाखिल हुए और उन पर किसी कारण निर्णय नहीं हुआ या सुनवाई नहीं हुयी, उन मुक़दमों को १९९१ के ऐक्ट की परिधि से बाहर रखकर कोर्ट को सुन लेना चाहिए. तरह-तरह की अफ़वाहों पर विराम लगने के लिए यह आवश्यक है. किसी धार्मिक स्थल पर दूसरे धर्मावलंबी भी अगर जाना चाहें तो सुरक्षा जाँच से गुजरते हुए इसे बेरोकटोक खुला रखा जाना चाहिए. ताजमहल, क़ुतुबमीनार और जो-जो स्थान लोगों ने जाँच के लिए याचित किए हों, उन सबकी जाँच हो जाए, क्या समस्या है. एक गतिशील समाज के लिए अपने सब टेबुओं पर विचार करते रहना ग़लत नहीं, पर नए-नए कथानक और प्रवाद फैलाने से बचना चाहिए. अफ़वाहें और शंकाएँ भी तभी अधिक फैलतीं हैं जब उन्हें रोका जाए या उन पर समुचित विचार और निष्कर्ष न निकाले जाएँ.
भारत में सबसे अधिक शिव की ही पूजा होती आयी है, यह पूजा सबसे प्राचीन भी भई. माँ की पूजा भी शिव पूजा से पृथक नहीं. इसके बाद कृष्ण, राम और अन्य आराध्यों की पूजा होती है. शिव पूजा उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम सर्वत्र अलग अलग सम्प्रदायों में विभक्त होकर होती है. कहीं यह अद्वैत शैव, तो कहीं पाशुपत शैव तो दक्षिण में यह वीर शैव के नाम से विख्यात है. जो सकल पदार्थों में ईश्वर का वास देखते हैं उन्हें उन सबमें ईश दर्शन होता है, पर उन्हें इसके लिए किसी अन्य से विरोध नहीं होता. विरोध हुआ तो परम दर्शन ही क्या. परम से बाहर क्या है. फिर भी जिनकी भी आस्था का प्रश्न है, उसे हाल किया जाना चाहिए, क्योंकि श्रद्धावान कहीं से ज्ञान की लब्धि कर सकता है.
जो लोग कहते हैं देश को रोटी और रोज़गार की समस्याओं पर ध्यान देना ही अभीष्ट है, वे ग़लत नहीं, पर एक गतिशील लोकतंत्र में सब बातों पर एक साथ विचार किया जा सकता है. कहीं भी अटके न रहें....
दुखान्यपि सुखायंते विषमप्यमृतायते.
मोक्षायते च संसारो यत्र मार्गः स शांकरः..
जिस मार्ग पर चलने से दुःख भी सुख बन जाते है ज़हर भी अमृत बन जाता है और यह (भीषण) संसार भी मोक्ष का साधन बन जाता है, वही मार्ग भगवान शंकर का मार्ग है.
१८/५/२२
जब मनुष्य की वृत्ति रूपी लड़की (अपने) पति (स्व स्वरूप) के साथ विवाही जाती है अर्थात् आत्मा से तदाकार होती है तो उसके माता पिता अहंकार और बुद्धि के रोंगटे खड़े हो जाते हैं....
सैर कर और दूर से गुल देख उस गुलज़ार के
पर बना अपने गले का इनको मत ज़िन्हार (कदापि) हार.
रहिए अब ऐसी जगह चलकर जहां कोई न हो
दुश्मने जाँ हो न कोई मिहरवाँ कोई न हो.
पड़िए ग़र बीमार तो आकर कोई पूछे न बात
और ग़र मर जाइए तो नौहा ख़्वां कोई न हो.
Om Song
Use when meditating on God as Cosmic Sound and Vibration and when meditating on the six spinal centers.
Whence, Oh this soundless roar doth come
When drowseth matter’s dreary drum?
The booming Om on bliss’ shore breaks;
All heav’n, all earth, all body shakes.
Cords bound to flesh are broken all,
Vibrations vile do fly and fall;
The hustling heart, the boasting breath
No more disturb the yogi’s health.
The house is lulled in darkness soft,
Dim, shiny light is seen aloft.
Subconscious dreams have gone to bed
‘Tis then that one doth hear Om’s tread.
The bumble bee doth hum along,
Baby Om, now hark ye! sings his song;
Krishna’s flute is sounding sweet,
‘Tis time the wat’ry God to meet.
The Gods of fire with fervor sing,
Om, Om: their mystic harps now ring
God of Prana sweetly sounds
The wondrous bell, the soul resounds.
Oh upward climb the living tree,
Hear now the sound of etheral [sic] sea;
Marching mind doth homeward hie
To join the Christmas Symphony.
२०/५/२२
रात में सोने के समय ऐसे लाता जैसे कहीं कुछ नया लिख रहे हों या लिखे गए की नयी व्याख्या कर रहे हों. शब्द दस दिक्पाल के माध्यम से व्याप्त होते हैं, कान उन्हें ग्रह। करते हैं, फिर वे अन्यत्र फैलते हैं...
२२/५/२२
सोने के बाद सुबह लगा जैसे सिर में आग का गोला तीर रहा है, जिसमें समूचा ब्रह्मांड विचर रहा है. फिर ध्यान के बाद कूटस्थ पर प्रकाश चमका, वैसा प्रकाश आश्रम की वेदी पर चमकता है.
मिथ्या का अर्थ झूठ जल्दबाज़ी का और एकांगी अर्थ है. यह मिथक के गोत्र का शब्द है. इसका अर्थ है वह सब कुछ जिसे हम पूर्णरूपेण वास्तविक भी नही कह सकते और वह सब कुछ जिसे पूर्णरूपेण अवास्तविक भी नहीं कह सकते और न ही इसे हम सत्य और असत्य दोनों की संज्ञा प्रदान कर सकते हैं
तस्य बाक्तंतिर्नामानि दामानि तदस्वेदं वाचातंत्या.
नामभिर्दामभिः सर्व सितं सर्व हीद नामनीति..(२-१-६-१ ऋग्वेद ऐतरेय आरण्यक)
(प्राण के हाथ में) वाचा का लंबा रस्सा है और नाम फंदा है, अतः वाचा के रस्से और नाम के फंदों के साथ यह सब कुछ बंधा हुआ है, क्योंकि सब वस्तुएँ नाम ही नाम तो है.
यथा पशुरेवग्वं स देवनाम्।
वह (उपासक) उपास्य (देवताओं) के पशु की भाँति है . वृहदा उप १-४-१०
२४/५/२२
पश्यंती से मध्यमा के बीच के कार्य व्यापार से शब्द और अर्थ का उद्गम और प्रसार हुआ, तब व्याकरण बना. सबका एक दूसरे पर प्रभाव हुआ. शब्द और अर्थ के संबंध में बिंब प्रतिबिम्बवाद दिखायी देता है.
२५/५/२२
जब अधिक मात्रा में सो जाते हैं तब सुबह स्वप्न आने लगते हैं. आज स्वप्न में एक महिला का प्रस्ताव हमबिस्तर होने का था. ऐसे स्वप्नों के बाद नाइट फाल हो जाता रहा है, पर आज मन में बराबर दुविधा चलती रही, महिला को मातृ शक्ति के रूप में नमन करता रहा और बच गया. जागने पर जानकर अच्छा लगा कि जाग्रत दशा में जैसा सोचते हैं, वही असर स्वप्न में हो रहा है.
२६/५/२२
ब्रह्म तं परादाद्योऽन्यत्रात्मनो ब्रह्म वेद क्षत्रं तं परादाद्योऽन्यत्रात्मनः क्षत्रं वेद लोकास्तं परादुर्योऽन्यत्रात्मनो लोकान्वेद देवास्तं परादुर्योऽन्यत्रात्मनो देवान्वेद भूतानि तं परादुर्योऽन्यत्रात्मनो भूतानि वेद सर्वं तं परादाद्योऽन्यत्रात्मनः सर्वं वेदेदं ब्रह्मेदं क्षत्रमिमे लोका इमे देवा इमानि भूतानीद सर्वं यदयमात्मा॥ वृहदा अध्याय दो
Meaning
"The brahmin rejects one who knows him as different from the Self. The xatriya rejects one who knows him as different from the Self. The worlds reject one who knows them as different from the Self. The gods reject one who knows them as different from the Self. The beings reject one who knows them as different from the Self. The All rejects one who knows it as different from the Self. This brahmin, this xatriya, these worlds, these gods, these beings and this All-are that Self.
यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः।
अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते ॥ कठ
Meaning
When every desire that harboureth in the heart of a man hath been loosened from its moorings, then this mortal putteth on immortality; even here he enjoyeth Brahman in this human body.
Hindi Meaning
''जब मनुष्य के हृदय में आश्रित प्रत्येक कामना की जकड़ ढीली पड़ जाती है, तब यह मर्त्य (मानव) अमर हो जाता है; वह यहीं, इसी मानव शरीर में 'ब्रह्म' का रसास्वादन करता है। १२ शंकर व्याख्या करते हैंː "योग की जैसे उत्पत्ति होती है वैसे ही उसका क्षय भी होता है। किन्तु श्रुति ऐसा कथन नहीं करती।
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा
युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान्।।11.34।गीता
काम तो भगवान ने पहले ही किया हुआ है. यह हम तुम व्यक्ति तो बहाना हैं.
२७/५/२२
सत्य तो परावाणी में विराजित है, संगीत रचना स्थूल पश्यंती, मध्यमा की गति पश्यंती और बैखरी में रहती है. अस्तु! बैखरी में अत्यंत सावधानी की आवश्यकता है.
न तो मैं कह सकता हूँ कि मैं जानता हूँ और न यह कह सकता हूँ कि मैं नहीं जानता, परंतु वह जो हमारे इस कथन को समझता है कि मैं नहीं जानता और जानता हूँ, वही जानता है. वेदानुवचन
२८/५/२२
पंचाग्नि
अग्नि लकड़ी ज्वाला धुंवा अंगारा चिंगारी यजमान फल
द्युलोक सूर्य दिन किरण चंद्रमा तारे श्रद्धा सोम
मेघ वायु धुंआ विद्युत ओले बिजली की चमक सोम वर्षा
पृथ्वी संवत्सर रात्रि आकाश दिशाएँ अवांतर दिशाएँ वर्षा अन्न
नर वाणी श्वास जिह्वा आँख इंद्रियाँ अन्न वीर्य
नारी उपस्थ मिलाप प्रेरणा (समिल्लोम) योनि प्रवेश विषयानंद वीर्य गर्भ
२९/५/२२
बिना यम के नियम नहीं और नियम के बिना आसन नहीं, योग की यह अष्टांग शृंखला, ध्यान, फिर समाधि तक जाती है। बिना सीढी चढ़े छत पर कैसे पहुंच सकते हैं ! छत पर चढ़ गए तो सीढियाँ ज्ञात हो जाती हैं। यम और नियम महत्वपूर्ण सोपान हैं। जिनका ध्यान या सात्विक वृत्तियों में मन नहीं लगता, उन्हें अपने पांच यम- सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह- एवं पांच नियम- शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान- की स्थिति देखनी चाहिए।
इसी प्रकार इस सुभाषित में भी एक क्रम है। विद्या से विनय, विनय से पात्रता, पात्रता से धन, धन से धर्म और धर्म से सुख प्राप्ति का क्रम।
विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम।
पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्म ततः सुखं।। १९/११/२०२०
यमों - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह- का पालन ही व्रत है जबकि द्वंद्व - भूख प्यास, शीत उष्ण इत्यादि -सहना तप है।४/११/१८
इस्लाम मे ब्रह्मचर्य अथवा यौन संयम अथवा नियोजन और संन्यास निषिद्ध है। फिर भी मुस्लिमों में परिवार नियोजन अनुपात में कम ही सही, पर दिखाई देता है। याने क्या यह नियोजित परिवार अपने धर्म को मानने वाले नहीं हैं?
हिंदुओं में ब्रह्मचर्य और सन्यास की बहुत प्रतिष्ठा है। कहा गया है परिवार में अगर एक संन्यासी हो जाये तो उसकी सात पीढियों का उद्धार हो जाता है। फिर भी कुछ जगह परिवार नियोजन पुत्र मोह, सम्पत्ति और वंश चलाने की विवशता को मानकर नहीं दिखता है।
इस्लाम को छोड़कर दुनिया के लगभग सभी धर्म किसी न किसी रूप और अवस्था मे ब्रह्मचर्य को आवश्यक मानते हैं। सब मिलाकर; केवल या निरी धार्मिक मान्यताओं से दुनिया का भला होने वाला नहीं है। इसका मतलब यह भी नहीं कि हम धर्मों को खारिज कर दें। धर्म हमें जीवन का सिरा पकड़ाता है, आगे बढ़ना हमारा काम है...२०/२/२०२०
आध्यात्मिक यात्रा को सुगम बनाने के लिए हमें अधिक नहीं मात्र चार विभूतियों से होकर गुजरना पर्याप्त होगा. व्यावहारिक रास्ता परमहंस योगानंद के क्रिया योग से होकर जाता है. इस रास्ते के कंकड़ पत्थर पार करते समय स्वयं योगानंद जी और उनकी गुरूपरंपरा की शिक्षाओं के अलावा स्वामी रामतीर्थ, पं गोपीनाथ कविराज और स्वामी लक्ष्मणजू की पुस्तकों का पारायण उपयोगी है. रामतीर्थ जी भारत के मूलभूत ग्रंथों और शास्त्रों की सैर करा देते हैं, फिर हमें बहुत इधर-उधर जाने की आवश्यकता नहीं रह जाती. स्वामी जी भारत ही नहीं अरब और युरप के ग्रंथों और मान्यताओं से भी बावस्ता कराते हैं, वे आधुनिक ज्ञान विज्ञान और गणित के सूत्रों के सहारे आध्यात्मिक विषयों को इतनी स्पष्टता से खोलते हैं कि वेदांत जैसा नीरस और गूढ़ समझा जाने वाला विषय व्यावहारिक स्तर पर आनंद देने लगता है. गोपीनाथ जी तंत्र सिद्धांत के सहारे भारतीय संस्कृति के विविध पक्षों और उनकी व्यावहारिकता को सूक्ष्म रूप में सामने रखते हैं. गोपीनाथ जी के यहाँ योग के विभिन्न स्तर गणित के सूत्रों की भाँति खुलते हैं. स्वामी लक्ष्मणजू ने प्राचीन शैव दर्शन को व्याख्यायित किया है, जिनसे भारत विद्या के गूढ़ तत्वों का रहस्य खुलता है. इन्हें पढ़ते समय तो हम मानो वेदांत दर्शन के भी पार हो जाते हैं.
छाँदोग्य श्रुति में तीन ही तत्व आए हैं
अग्नि
पृथ्वी और
जल
इनका त्रिवृत्तकरण होता है. सत सात भाग प्रत्येक तत्व के और दो दो भाग दूसरे तत्वों के शामिल हुए और इस तरह वे स्थूल हो गए. तब संसार बना.
तत्व सूक्ष्मतर सूक्ष्म
अग्नि वाक् पाचन स्वेद
पृथ्वी अंतःकरण वीर्य विष्ठा
जल प्राण वात पित्त कफ़ मूत्र
यदग्ने रोहित रूपं तेजसस्तद्रूपं यच्छुक्लं तदपां यत्कृष्णं तदन्नस्यापागादग्नेरग्नित्वं वाचारम्भणं विकारो नामधेयं त्रीणि रूपाणीत्येव (मृत्तिकेत्येव) सत्यम्॥छांदोग्य० ६.४.१
Meaning
"The red colour of gross fire is the colour of the original fire; the white colour of gross fire is the colour of the original water; the black colour of gross fire is the colour of the original earth. Thus vanishes from fire what is commonly called fire, the modification being only a name, arising from speech, while the three colours (forms) alone are true.
Sunday, May 1, 2022
२/४/२२
सबमें रमै रमावै जोई, ताकर नाम राम अस होई।
घट - घट राम बसत हैं भाई, बिना ज्ञान नहीं देत दिखाई।
आतम ज्ञान जाहि घट होई, आतम राम को चीन्है सोई। नव सम्वत्सर २०७९💐
4/4/22
स्वप्न संसार ज्ञान का सादि संकल्प अर्थात् पीछे का संकल्प है जबकि जाग्रत ज्ञान यानि ईश्वर का आदि संकल्प है. जाग्रत या बाह्य जगत् का उपादान कारण आदि संकल्प है जो प्रलय तक नहीं बदलता. स्वप्न में स्वप्न की कल्पना ज्ञान का तृतीय संकल्प है. प्रथम स्वप्न द्वितीय या सादि संकल्प है स्वप्न में स्वप्न देखने के बाद जागने पर प्रथम स्वप्न के संसार से उठेगा और स्वप्न के भीतर का स्वप्न संसार नष्ट हो जाएगा, क्योंकि उसका उपादान कारण तो ज्ञान का तृतीय संकल्प या जाग्रत अवस्था है. इस दशा में मनुष्य को प्रथम स्वप्न संसार स्वप्न के भीतर वाले स्वप्त संसार की अपेक्षा सत्य प्रतीत होगा तब व्यक्ति जाग्रत अवस्था में स्वप्न और स्वप्न के भीतर का स्वप्न दोनों को एक सा संकल्प जान लेता है. वह जान जाता है कि जो संबंध स्वप्न के भीतर वाले स्वप्न संसार का प्रथम स्वप्न संसार से है वही संबंध प्रथम स्वप्न संसार का जाग्रत जगत् से है.
मृत्यु के समय यह संबंध व्यक्ति को प्रतीत हो जाता है, परंतु जिस प्रकार व्यक्ति स्वप्न से निकलकर जाग्रत जगत् में आ जाता है उसी प्रकार मृत्यु में इस जाग्रत जगत् से निकलकर परलोक में उठता है, वहाँ स्वर्ग और नरक व्यापारों को देखता है. परलोक जगत् स्थूल जगत् की अपेक्षा अधिक स्थायी है इसलिए परलोक सत्य प्रतीत होता है और जाग्रत जगत् कल्पित या स्वप्नवत् मालूम होता है. लोक और परलोक की यह यात्रा जन्म और मरण के क्रम में चलती रहती है.
वास्तव में समस्त अवस्थाएँ भ्रम मात्र या संकल्प मात्र हैं, वास्तविक नहीं. जब वृत्तियों को संयम या अभ्यास से रोकने पर वृत्तियों का निरोध होता है, तब आत्मस्वरूप से इतर कुछ दिखायी नहीं देता. यही तुरियावस्था है. इस अवस्था में आत्मा से इतर जो कुछ है वह भ्रम या संकल्प मात्र है.
वास्तव में न सृष्टि है और न सृष्टा, बल्कि एक ही वस्तु हर रूप व हर विभूति में प्रकाशमान हो रही है. जैसे देवदत्त बैठा था, खड़ा हो गया तो उसकी यह नयी महिमा हुयी. वास्तव में देवदत्त न सृष्टा है, न सृष्टि.भगवत् ज्ञान की दो विभूतियाँ व्यक्त और अव्यक्त हैं और प्रत्येक विभूति नयी और एक के बाद दूसरी होती है,.
प्रत्येक वस्तु का एक ही तत्व से परस्पर संबंध है. उस एक ही तत्व की उपाधियाँ सर्वत्र छटा बिखेर रही हैं. सर्वं सर्वात्मकं. वास्तव में न मूल कारण है न रूप केवल भगवत् ज्ञान विद्यमान है. ज्ञान का विचित्र गुण यह है कि वह क्रिया और प्रतिक्रिया से रहित है.
भगवत् ज्ञान के विचित्र रहस्य पढ़ते हुए..
यानि ध्यान भी स्वप्न ही है. बस इस स्वप्न में शेष स्वप्नों का साक्षात हो जाता है🙏
५/४/२२
जाग्रत जगत् अपने से भिन्न अनेक व्यक्तियों के ख़याल से कल्पित है और स्वप्न संसार एक अकेले ख़्याल से कल्पित होता है इसलिए जाग्रत जगत् और स्वप्न संसार में सच और झूठ का अंतर मालूम होता है. वास्तव में दोनो कल्पित और भ्रम रूप हैं.
६/४/२२
जैसे हम मनुष्य के चरणों को छूने से चरण पूजक नहीं हो जाते, उसके चक्षु की ओर दृष्टि करने से चक्षु उपासक नहीं हो जाते, हाथ मिलाने या गले मिलने से देहोपासक नहीं हो जाते, वैसे ही विराट भगवान् की उपासना के समय पाषाण शिला पर हाथ रखने से हम पत्थर पूजक नहीं हो जाते और सूर्य की ओर दृष्टि करते समय हम सूर्योपासक नहीं हो जाते, वरन् जिस प्रकार मनुष्य की पूजा उसके चरणों को छूने से होती है उसी प्रकार विराट भगवान की पूजा पाषाण और धरती की ओर सिर झुकाने से होती है. व्यक्ति का सिर स्वतः झुकता है, किसी सभ्यता में सिर न झुके तो भी उसके शरीर का कोई अंग अन्य व्यक्ति से मिलते समय स्वाभाविक क्रम में झुकता ही है.
वस्तुतः यह भ्रम विराट भगवान् की मूर्ति को पूरा-पूरा न जानने के कारण होता है.
मनुष्य के मुख्य अंग वे हैं जिनसे ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है. फिर कुछ गौण अंग हैं और कुछ सेवक अंग हैं. मनुष्य विराट का प्रतिबिंब है. मनुष्य में जो काम अंतःकरण करता है, ईश्वर में वही काम हिरण्यगर्भ करता है. यानि हिरण्यगर्भ ईश्वर का अंतःकरण है. विराट भगवान का प्रत्येक अंग जिसमें पाषाण, शिला, तृण, सूर्य सब शामिल हैं. प्रत्येक पदार्थ विराटमय है और उसकी उपासना मूर्ति पूजा नहीं वरन् ईश्वरोपासना है.
जब कोई वस्तु उत्पन्न करना चाहता है तो पहले हिरण्यगर्भ में संकल्प उठता है. वहाँ से उसका प्रभाव विराट के कपाल में, जो ईश्वर का मस्तिष्क है, होता है और जिस वस्तु की इच्छा होती है उसकी कल्पना होती है कि इस समय ये वनस्पतियाँ या वे वृक्ष उत्पन्न होने चाहिए और फिर नक्षत्रों के द्वारा उसका प्रभाव पृथ्वी रूपी पट्टी पर पहुँचता है और लेखनी अथवा चार तत्वों से सूर्य द्वारा उसकी उत्पत्ति बाह्य में होती है और वस्तु उत्पन्न हो जाती है.
शब्द सामर्थ्य वस्तुतः अर्थ से बना है. अतः भगवत् ज्ञान जब किसी क्रिया को मनुष्य के हितार्थ बतलाता है तथा उसके बाद मानुषी संकल्प को उठाता है और फिर मानुषी प्रकृति द्वारा उसे पूर्ण करता है तो उसे सामर्थ्य बोलते हैं. क्योंकि मानुषी संकलप द्वारा अर्थ अनर्थ की कल्पना के बाद उसकी (क्रिया) उत्पत्ति और पूर्ति होती है, परंतु जहां संकल्प के केवल हिरण्यगर्भ या अविद्या में होने से मानुषी अंतःकरण के साधन बिना क्रिया की उत्पत्ति व पूर्ति होती है वहाँ शब्द सामर्थ्य नहीं बोला जाता है. उदाहरण के लिए स्वप्नावस्था में स्वप्न संसार का कारण भगवत् ज्ञान है, किंतु उसका प्रादुर्भाव चूँकि मानुषी संकल्प द्वारा और
अर्थ अनर्थ के विवेक से नहीं होता इसलिए उसे सामर्थ्य के बाहर समझा जाता है. वास्तव में स्वप्न संसार का संकल्प भगवत् ज्ञान में ही होता है.
सिर्फ़ मुस्लिम का मोहम्मद पे इजारा* तो नहीं
~कुंवर महेंद्र सिंह बेदी *अधिकार
हज़रत सुल्तान बहू का नग़मा है...
अलिफ़-अल्ला चम्बे दी बूटी,
मुरशद मन विच लाई हू ।
नफी असबात दा पानी मिल्या,
हर रगे हर जाई हू,
अल्लाह हू, अल्लाह हू,
अन्दर बूटी मुश्क मचाया,
जां फुल्लन ते आई हू,
जीवे मुरशद कामिल बाहू,
जैं इह बूटी लाई हू ।
अल्लाह हू, अल्लाह हू,
बग़दाद शहर दी की निशानी,
उच्चियाँ लम्मियाँ चीड़ां हू,
तन मन मेरा पुरज़े पुरज़े,
ज्यों दरज़ी दियां लीरां हू,
अल्लाह हू, अल्लाह हू,
लीरां दी गल कफनी पा के,
रलसां संग फ़कीरां हू ।
शहर बग़दाद दे टुकड़े मंगसां बाहू,
करसां मीरां मीरां हू,
पढ़ पढ़ इल्म ते हाफ़िज होइओ,
ना गिया हिजाबों परदा हू,
पढ़ पढ़ आलिम फाज़िल होइओं,
अजे भी तालिब ज़र दा हू,
कई हज़ार किताबां पढियां,
अजे नफ़्स ना मरदा हू,
बाज फ़कीरा किसे ना मारिया,
ज़ालिम चोर अंदर दा हू,
अल्लाह हू, अल्लाह हू,
My Master Has Planted in My Heart the Jasmine of Allah’s Name.
Both My Denial That the Creation is Real and My Embracing of God,
the Only Reality, Have Nourished the Seedling Down to its Core.
-When the Buds of Mystery Unfolded Into the Blossoms of Revelation,
My Entire Being Was Filled with God’s Fragrance.
-May the Perfect Master Who Planted this Jasmine in My Heart Be Ever Blessed, O Bahu!
Were my whole body festooned with eyes,
I would gaze at my Master with untiring zeal.
O, how I wish that every pore of my body, Would turn into a million eyes –
Then, as some closed to blink, others would open to see!
But even then my thirst to see him,
Might remain unquestioned. What else am I to do?
To me, O Bahu, a glimpse of my Master,
Is worth millions of pilgrimages to the holy Ka’ba!
Believers pray to God for the protection of faith,
But few pray for the gift of his love.
I am ashamed at what they ask for,
Even more at what they are willing to yield.
Religion is quite unaware of the spiritual plane,
To which love can raise us.
O Lord, keep my love for you ever fresh,
Says Bahu: I shall mortgage my religion for it.
१३/४/२२
कबीरा कुआं एक है और पानी भरें अनेक
भांडे ही में भेद है, पानी सबमें एक ।।
भला हुआ मोरी गगरी फूटी,
मैं पनियां भरन से छूटी
मोरे सिर से टली बला… ।।
भला हुआ मोरी माला टूटी,
मैं तो राम भजन से छूटी
मोरे सिर से टली बला… ।।
माला कहे है है काठ की ,कबीरा तू का फेरत
मोहे
मन का मनका फेर दे तो तुरत मिला दूँ तोहे
भला हुआ मोरी माला टूटी
मैं तो राम भजन से छूटी
मोरे सिर से टली बला… ।।
माला जपु न कर जपूं और मुख से कहूँ न राम
राम हमारा हमें जपे रे कबीरा हम
पायों विश्राम
मोरे सिर से टली बला… ।।
कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई बनाय।
ता चढि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय॥
कबीरा बहरा हुआ खुदाय
हद हद करते सब गए बेहद गयो न कोई
अरे अनहद के मैदान में कबीरा रहा कबीरा सोये
हद हद जपे सो औलिये, बेहद जपे सो पीर
हद(बौंडर) अनहद दोनों जपे सो वाको नाम
फ़कीर
कबीरा वाको नाम फ़कीर….
दुनिया कितनी बाबरी जो पत्थर पूजन जाए
घर की जाकी कोई न पूजे
कबीरा जका पीसा खाए
चाकी चाकी…..
चलती चाकी देखकर
दिया कबीरा रोए,दो पाटन के बीच यार
साबुत बचा ना कोए ।।
चाकी चाकी सब कहें और कीली कहे
ना कोए,जो कीली से लाग रहे, बाका बाल
ना बीका होए ।।
हर मरैं तो हम मरैं, और हमरी मरी बलाए
साचैं उनका बालका कबीरा, मरै
ना मारा जाए ।
माटी कहे कुम्हार से तू का रोधत मोए
एक दिन ऐसा आयेगा कि मैं रौंदूगी तोय ।।
१४/४/२२
प्यारी रचना है, जिसकी भी हो...
तोरी हर एक अदा को मैं जान गयी ना
रूप बदला तो क्या पहचान गयी ना।
मूसा को तो बेहोश किया तूर पे जाकर
मंसूर को मस्ताना किया जाम पिलाकर
दीवाना किया क़ैस को लैला में समाकर
फिर खुद ही बिके मिस्र के बाज़ार में आकर
कुछ भेद नहीं खुलता कि तुम कौन हो, क्या हो
आप ही भट्टी आप ही मडघर आप ही होत कलाला
आपहि पीवे आप पिलावे आप फिरे मतवाला
अपनी गोदी आपहि खेले बनकर मोहन लाला
वो तो काली कमलिया थे ओढ़े हुए
रूप बदला तो क्या पहचान गयी ना
तोरी हर एक अदा को मैं जान गयी ना।
अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयं।
शेषा स्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम्।। महाभारत वनपर्व 313-116
इस संसार मे प्रतिदिन असंख्य जीव यमराज के लोक में जाते है, फिर भी जो बचे रहते हैं, वे यहां पर स्थायी पद की आकांक्षा करते हैं। भला इससे बढ़कर आश्चर्य की बात और क्या हो सकती है!
15/4/22
न तदस्ति न यत्सत्यं न तदस्ति न यंमृषा। यद्यथा येन निर्णीतं तत्तथा तं प्रति स्थितं।।
There is nothing that is not true. There is also nothing that is not untrue. Whoever decides
in whatever way, it will be like that for him.
१६/४/२२
हनुमान वायु पुत्र हैं. मान का हन् करने पर वायु जब राम चेतना को उपलब्ध होती है, तब हनुमान हुआ जाता है. हनुमान ज्ञान गुण सागर हैं, अतुलित बल धाम हैं, हेम शैल की आभा युक्त देह हैं, दनुज वन कृशानु हैं, वानरों के अधीश हैं. ऐसे भगवान राम के प्रिय भक्त हनुमान को हम सब नमन करते हैं...
मंसूर और मुझमें कुछ फ़र्क़ है तो इतना
वो कह उठा कि मैं हूँ कहता हूँ मैं कि तू है...
भीका बात अगम्म कि कहन सुनन की नाय.
जाने है सो कहे नहीं कहे सो जाने नाय..
साजन हम तुम एक हैं बस कहन सुनन को दो.
मन से मन को तोलिए सो दो मन कभउं न हो.
दो नैन तेरे दो नैन मेरे
जब मिले तो मिल के चार हुए
ये अपनी अपनी क़िस्मत है
दो जीत गए दो हार गए
इस शर्त पे खेलूँगी मैं बाज़ी
जीतूँ तो पिया मेरा हारूँ तो पिया की.
खुसरो दरिया प्रेम का उल्टी बा की धार.
जो उतरा सो डूब गया जो डूबा सो पार..
खुलता किसी पे क्यों मेरे दिल का मुआमला
शेरों के इंतिखाब ने रुसवा किया मुझे.
सौ बार ले गई मुझे बाज़ार मुफ़लिसी
हर बार मैंने अपना अक़ीदा बचा लिया.
मैंने पड़ी थी अपनी हिफ़ाज़त के वास्ते
नादे अली ने सारा इलाका बचा लिया.
दूसरों को बेवक़ूफ़ समझने और बनाने वाले कितने निरीह व्यक्ति होते हैं.
१९/४/२२
अब आदमी कुछ और हमारी नज़र में है
जब से सुना है यार लिबासे बशर में है.
तुझे दर दर भटकने की बता दे क्या ज़रूरत है
वही दरबार काफ़ी है निज़ामुद्दीन चिशती का.
आँखों आँखों में कह दिया सब कुछ
कानों कान एक को ख़बर न हुयी
प्रीत करे तो ऐसी कि जैसे लम्बे खजूर
चढ़े तो चाखे प्रेम रस गिरे तो चकनाचूर.
उल्टी ही चाल चलते हैं दीवान गाने इश्क़
आँखों को बंद करते हैं दीदार के लिए.
ये यार इशक़ दी बाज़ी है
घर फूंक तमाशा देखे जा.
प्रीत करे तो ऐसी करे
कि जैसे करे कपास
जीते-जी तो संग रहे
और मरे न छोड़े साथ
हद हद कर के सब गए
और बेहद गया न कोय
अनहद के मैदान में
सो रहा 'कबीर' सोय
घर नारी कँवारी चाहे जो कहे
मैं निजाम से नैनाँ लगा आई रे
सोहनी सूरत मोहिनि मूरत
मैं तो हृदय बीच समा आई रे
'ख़ुसरव' 'निजाम' के बल-बल जइए
मैं तो अनमोल चेरी कहा आई रे
हर तरफ़ यार का तमाशा हैउस के दीदार का तमाशा है
२२/४/२२
स यथा दुंदुभेः हन्यमानस्य न बाह्यांछब्दांछक्नुयाद् ग्रहणाय दुंदुभेस्तु ग्रहणेन दुंदुभ्याघातस्य वा शब्दोगृहीतः. स यथा शंखस्यध्मायमानस्य न बाह्यांछब्दांछक्नुयाद् ग्रहणाय शंखास्य तु ग्रहणेन शंखध्मस्य वा शब्दो ग्रहीतः. स यथा वीणायै वाद्यमानायै बाह्यांछब्दांछक्नुयाद् ग्रहणाय वीणायै तु ग्रहणेन वीणावादस्य वा शब्दो ग्रहीतः(वृह० उप० ४-५/८-१० एवं २-४/७-९)
जैसे नगाड़ा या धौंसा जब पीटा जाता है तो उसके बाह्य शब्द पकड़े नहीं जा सकते, पर नगाड़े अथवा नगाड़े के पीटने वाले को पकड़ लेने से नगाड़े के शब्द पकड़े जाते हैं. जैसे शंख जब बजाया जाता है तो उसके बाहर के शब्द पकड़े नहीं जा सकते, पर शंख या शंख बजाने वाले को पकड़ने से शंख के शब्द पकड़े जाते हैं और जैसे वीणा जब बजाई जा रही हो तो वीणा के बाह्य शब्द पकड़े नहीं जा सकते, पर वीणा अथवा बजाने वाले को पकड़ने से वीणा के शब्द पकड़े जाते हैं.
as one is not able to grasp by themselves the particular notes of a drum that is being beaten, but it is only grasping the general note of the drum, or the general effect of particular strokes on it, that those notes are grasped.
[as the particular notes of a drum, conch or lute have no separate existence from the general notes of those instruments, so the particular knowledge of the existing universe in the waking and dream states has no validity of its own apart from the Intelligence (Brahman) which pervades it.]
२३/४/२२
हरिनाम किसको कहते हैं
एवं इसका अर्थ क्या है ?
कर्णशुद्धि 'हरे कृष्ण '
इत्यादि सोलह नाम बत्तीस अक्षरों के द्वारा दस से बारह वर्ष की अवस्था के बीच अवश्य ही सम्पन्न करनी चाहिए ।
इसके बिना महाविद्या सिद्ध नहीं होती । कहना न होगा ,इस हरिनाम के ऋषि एवं देवता त्रिपुरा हैं । द्विज मुख से , दाहिने कान में नाम ग्रहण करना होता है । पहले छंद अर्थात गायत्री छंद ग्रहण करके बाद में नाम ग्रहण करना विधि है । कर्ण को अशुद्ध रखते हुए उसी अशुद्ध कर्ण में महाविद्या का श्रवण व ग्रहण करने से प्रत्यवाय होता है । षोडश वर्ष की आयु में महाविद्या का ग्रहण करना आवश्यक होता है । इसके बाद ही कुल रहस्य जाना जाता है । क्योंकि रहस्यहीन होकर मंत्र जपने से कोई फल प्राप्त नहीं होता । हरिनाम का रहस्य यह है --
'ह ' = शिव , 'र ' = शक्ति ---त्रिपुरा = ( दश महाविद्यामयी ) ' ए ' = योनि । 'क ' = काम ,'ऋ ' = परमा शक्ति , दोनों मिलकर 'कृ ' = कामकला ,
'ष ' = षोडश कलात्मक चन्द्र , ' ण ' = निर्वृति या आनन्द । सबका साकल्य होने पर -- त्रिपुर सुंदरी ।
सोलह वर्ष की आयु में जो दीक्षा लाभ होता है ,उसका नाम ज्येष्ठा दीक्षा है । दीक्षा ग्रहण किये बिना नाम जप करने से वह पशु- कर्म के रूप में गिना जाता है । इसके पश्चात -भगवती त्रिपुरा अपनी कण्ठस्थित माला उसे अर्पण करती हैं । ये मालायें साक्षात् आम्नाय स्वरूपा हैं ।
ये मणिमाला के रूप से ही विख्यात हैं । चार मालाओं के नाम हैं --हस्तिनी , चित्रिणी , गन्धिनी व पद्मिनी । ये मालायें पचास मातृका- रूपा अक्षमाला के नाम से
परिचित हैं । तात्विक दृष्टि से इस माला में ही समस्त जगत का सम्पूर्ण ज्ञान निहित है । इस कारण इस माला को कोई कोई आत्मा की माला कहते हैं । 51 महापीठ इनके ही नामान्तर हैं । ये मालायें अपूर्व ढंग से गठित हैं ।
कामतत्व से भिन्न और किसी सूत्र द्वारा इसे नहीं गूँथा जा सकता । जगत की सृष्टि व संहार के मूल में ये पचास पीठ स्वरूप वर्तमान हैं । भगवती त्रिपुरा यह अपूर्व माला वासुदेव को अर्पण करती हैं ,जिसके प्रभाव से वासुदेव पूर्णत्वलाभ करने में समर्थ होते हैं । चारों मालाओं का स्वरूप व वर्ण इसप्रकार का है -- हस्तिनी --यह शुक्लवर्णा है , भगवान की दूती स्वरूपा है । चित्रिणी -- यह पीतवर्णा है । यह विचित्र स्वरूप वाले समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त होकर स्थित है । गन्धिनी --यह कृष्णवर्णा है । यह भी ब्रह्माण्ड व्यापक है । पद्मिनी -- वा रंगिनी रक्तवर्णा है यह सर्वदा ही कामकला के साथ युक्त रहती है ।
भावराज्य व लीला रहस्य
श्रीकृष्ण प्रसङ्ग पृष्ठ 147 पंडित गोपीनाथ कविराज
२४/४/२२
सना बशर के लिए बशर सना के लिए
तमाम हम्द साज़वार है ख़ुदा के लिए
अता के सामने या रब खता का ज़िक्र है क्या
तू अता के लिए है बशर खता के लिए..
२५/४/२२
यार मनवा कमाले रानाई (सुंदरता)
ख़ुद तमाशा ओ खुद तमाशाई.
जो मुझमें बोलता है मैं नहीं हूँ
ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ.
जो मुझमें बोलता है मैं नहीं हूँ मैं नहीं हूँ मैं नहीं हूँ
ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ.
जलवा दिखा के यार ने दीवाना कर दिया.
खुद शम्मा बन गए हमे परवाना कर दिया.
ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ.
ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ मैं नहीं हूँ
मैं कहाँ हूँ तू ही तू है सब तेरा अंदाज़ है
जो मुझमें बोलता है मैं नहीं हूँ
जिसे देखो वो आमादा है घर का घर लुटाने पर
जो मुझमें बोलता है मैं नहीं हूँ
ये ना पूछो कैसे दीवाने बने आपने चाहा तो मस्ताने बने हैं
जो मुझमें बोलता है मैं नहीं हूँ
.
मीरा ने जहर का प्याला पीके कहा ये उसकी शान है ये मैं नहीं हूँ
जो मुझमें बोलता है मैं नहीं हूँ
कहा मंसूर ने सूली पे चढ़ के अनहलक़ की सदा है मैं नहीं हूँ
जो मुझमें बोलता है मैं नहीं हूँ
मेरी आँखों की पुतली में तो देखो -
वही जलवा नुमा है मैं नहीं हूँ
जो मुझमें बोलता है मैं नहीं हूँ
आँखों में तेरे कोई करिश्मा जरुर है
तुझे देख ले जो वो तडफता जरुर है
जो मुझमें बोलता है मैं नहीं हूँ
तुम्हारी नजरे करम जिस पर आम हो जाए
ज़माने भर में वो आलीम का हो जाए
गुलाम जिस को तुम बना लो अपना
उस गुलाम की दुनिया गुलाम हो जाए
ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ.
किसी परदे का पर्दा हूँ किसी जलवे का जलवा हूँ
मुझे दुनिया से क्या मतलब मैं अपनी आप दुनिया हूँ
ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ.
वो खिड़की खोल के देखे है मेरी तरफ
उसकी नजर मेरी तरफ मेरी नजर उसकी तरफ
ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ.
मेरी आखों में जन्नत है मैं उसकी आँखों का नूर हूँ -
वो नूर का पर्दा है तो मैं तस्वीरे नूर हूँ
ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ.
कोई परदे को यूँ सरका गया है -
खुद को देखने खुद आ गया है -
निगाहों से कोई उतरा है दिल में
तड़फ करके मुझे तडफा गया है
तेरे परदे के अंदर कोई आकर तमाशा कर रहा है मैं नहीं हूँ *--
ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ.
ये तेरी जलवागरी दुनिया तो खामोश है -
आँख बंद थी तेरे दीदार मैं इतना तो मुझ को होश है
उठा के शीशे को जो मैंने देखा ये कोई और है ये मैं नहीं हूँ
ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ.
ये बुतख़ाने में जाके बोले बेदम यहाँ नक़्शा मेरा है मैं नहीं हूँ. ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ
जो मैं होता खता मुझसे भी होती
मुझे खटका ही क्या मैं नहीं हूँ
जो मुझ में बोलता है मैं नहीं हूँ
ये जलवा यार का है मैं नहीं हूँ मैं नहीं हूँ
या नबी (ईश्वर का गुणगान करने वाला) आपके जलवों में वो रानाई है.
देखने पर भी मेरी आँख तमन्नाई है.
ज़िंदगी ख़ुद ही इबादत है मगर होश नहीं.
साहिबे होश यही है कि होश नही होश नहीं
२६/४/२२
यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति ।
दूरंगं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।।
अन्वय
यत् जाग्रतः दूरं उदैति सुप्तस्य तथा एव एति तत् दूरं गमं ज्योतिषां ज्योतिः एकं दैवं तत् में मनः शिवसंकल्पं अस्तु ।
सरल भावार्थ
हे परमात्मा ! जागृत अवस्था में जो मन दूर दूर तक चला जाता है और सुप्तावस्था में भी दूर दूर तक चला जाता है, वही मन इन्द्रियों रुपी ज्योतियों की एक मात्र ज्योति है अर्थात् इन्द्रियों को प्रकाशित करने वाली एक ज्योति है अथवा जो मन इन्द्रियों का प्रकाशक है, ऐसा हमारा मन शुभ-कल्याणकारी संकल्पों से युक्त हो !
क्या जाग्रत, क्या स्वप्न, क्या सुषुप्ति तीनों दशाओं में मेरा मन किसी और विचार की तरफ़ न जाने पाए, सिवाय शिवरूप आत्मचिंतन के. चलते फिरते बैठते खड़े मेरा मन शिव रूप सत्यरूप आत्मा के सिवा और कोई चिंतन न करने पाए. स्वामी रामतीर्थ
३०/४/२२
आज ध्यान से उठने वाले थे कि आश्रम में गुरुदेव की जो ऑल्टर या वेदी होती है, उसमें जो नीली रोशनी चमकती है, वह दिखी, फिर इस पद की पंक्तियाँ याद आयीं या पद शायद पहले याद आया, बाद में प्रकाश दर्शन हुआ. यह क्रम ध्यान नहीं है.
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो |
वस्तु अमोलिक दी मेरे सतगुरु |
कृपा कर अपनायो ||
जन्म जन्म की पूंजी पाई |
जग में सबी खुबायो ||
खर्च ना खूटे, चोर ना लूटे |
दिन दिन बढ़त सवायो ||
सत की नाव खेवटिया सतगुरु |
भवसागर तरवयो ||
मीरा के प्रभु गिरिधर नगर |
हर्ष हर्ष जस गायो ||🙏
आदि शंकराचार्य कहते हैं-
एकान्ते सुखमास्यतां परतरे चेतः समाधीयतां,
पूर्णात्मा सुसमीक्ष्यतां जगदिदं तद्वाधितं दृश्यताम्।
प्राक्कर्म प्रविलाप्यतां चितिबलान्नाप्युत्तरैः श्लिश्यतां,
प्रारब्धं त्विह भुज्यतामथ परब्रह्मात्मना स्थीयताम्॥
भावार्थ : एकांत के सुख का सेवन करें, परब्रह्म में चित्त को लगायें, परब्रह्म की खोज करें, इस विश्व को उससे व्याप्त देखें, पूर्व कर्मों का नाश करें, मानसिक बल से भविष्य में आने वाले कर्मों का आलिंगन करें, प्रारब्ध का यहाँ ही भोग करके परब्रह्म में स्थित हो जाएँ। 304/2020 की फ़ेसबुक पोस्ट
लॉक डाउन के समय का उपयोग हमने भागवत सप्ताह पाठ में भी किया। नित्य 6-8 घंटे दो बार में बैठकर आज सम्पन्न हुआ। उसमें से एक श्लोक...
एकोयनोsसौ द्विफलस्त्रिमूलश्चतूरसः पंचविधः षडात्मा। सप्तत्वगष्टविटपो नवाक्षो दशच्छदी द्विखगो ह्यादिवृक्षः। भागवत 10/2/27
यह संसार क्या है, एक सनातन वृक्ष। इस वृक्ष का आश्रय है- एक प्रकृति। इसके दो फल हैं- सुख और दुःख; तीन जड़ें हैं-सत्व, रज और तम; चार रस हैं - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इसके जानने के पांच प्रकार हैं-श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और नासिका। इसके छः स्वभाव हैं- पैदा होना, रहना, बढ़ना, बदलना, घटना और नष्ट हो जाना। इस वृक्ष की छाल हैं सात धातुएं- रस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र। आठ शाखाएं हैं- पांच महाभूत, मन, बुद्धि और अहंकार। इसमें मुख आदि नौ द्वार खोडर यानि गड्ढे हैं। प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय- ये दस प्राण ही इसके दस पत्ते हैं। इस संसार रूप वृक्ष पर दो पक्षी हैं- जीव और ईश्वर। २६/४/२०२० की फ़ेसबुक पोस्ट
अब मुण्डकोपनिषद का वह प्रसिद्ध श्लोक देखें
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति।।
दो सुन्दर पंखों वाले पक्षी, घनिष्ठ सखा, समान वृक्ष पर ही रहते हैं; उनमें से एक वृक्ष के स्वादिष्ट फलों को खाता है, अन्य खाता नहीं अपितु अपने सखा को देखता है।
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