Wednesday, March 1, 2023
फ़रवरी २०२३
When there is desire, you are residing in rājoguṇa. When there is detachment – altogether detachment – then you are residing in sāttvaguṇa. When there is desire, you are in rājoguṇa, and that binds you too.
When there is complete knowledge and complete absence of knowledge – that is complete knowledge – that is fullness of knowledge.
Fullness of knowledge is not fullness of knowledge. Fullness of knowledge is: when you are full and you are not full – both – that is full.
६/२/२३
शास्त्रों में सोम(होम) रस लौकिक अर्थ में एक बलवर्धक पेय माना गया है, परंतु इसका एक पारलौकिक अर्थ भी देखने को मिलता है। साधना की ऊंची अवस्था में व्यक्ति के भीतर एक प्रकार का रस उत्पन्न होता है जिसको केवल ज्ञानीजन ही जान सकते हैं।
सोमं मन्यते पपिवान् यत् संविषन्त्योषधिम्।
सोमं यं ब्रह्माणो विदुर्न तस्याश्नाति कश्चन।। (ऋग्वेद-10-85-3)
जाति का अर्थ है अपने को जानना। अपना गुण और स्वभाव व्यक्ति जाने बिना नहीं रहता। जाति कोई हेयर्थक शब्द नहीं है। दुनिया का कौन सा देश बिना जातीय पहचान के है! जन्मगत जाति से जो परंपरागत कौशल अपने यहाँ चलते आए हैं, वे क्या सही नहीं थे। कौशल विकास से भी वह हुनर विकसित नहीं हो पा रहे हैं। अपने को जानने में किसी को छोटा या बड़ा, ऊँचा या नीचा यह भेद अग्राह्य हैं, अनावश्यक हैं। यह ऊँच-नीच कैसे विकसित हुई, इसके लिए कोई एक जाति ज़िम्मेदार कैसे हो सकती है! जब तक पूरी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था इतने बड़े परिवर्तन में संलग्न नहीं होगी, यह विकृति घटित नहीं हो सकती। अपनी बुराई को दूसरे के मत्थे मढ़कर अथवा पलायन करके उसे दूर नहीं किया जा सकता।
भगवान ने जातियों में भेद नहीं माना, यह बात किसने बतायी और पूर्व में भेदभाव होता रहा, यह बात भी किसने बतायी। उस भेदभाव को दूर करने में भी औपचारिक/संवैधानिक पहल किसने प्रारंभ की। थोड़ा विचार करें। स्वस्थ लोकतंत्र में किसी जाति का अवमूल्यन नहीं किया जाना चाहिए....
It is all right to enjoy life; the secret of happiness is not to become attached to anything. Enjoy the smell of the flower, but see God in it. I have kept the consciousness of the senses only that in using them I may always perceive and think of God. "Mine eyes were made to behold Thy beauty everywhere. My ears were made to hear Thine omnipresent voice." That is Yoga, union with God. It is not necessary to go to the forest to find Him. Worldly habits will hold us fast wherever we may be until we free ourselves from them. The yogi learns to find God in the cave of his heart. Wherever he goes, he carries with him the blissful consciousness of God's presence.
-Sri Sri Paramahansa Yogananda,
"Man's Eternal Quest".
७/२/२३
दी का अर्थ है बुद्धि या प्रकाश, क्षा का अर्थ है दूर क्षितिज या अंत। दीक्षा का अर्थ हुआ बुद्धि का संक्रमण, क्रिया या ज्ञान द्वारा गुरु अपने शिष्य को बोध कराता है, उसे दीक्षा कहते हैं। दीक्षा बोधांतरण है, जबकि इसका युग्म शब्द शिक्षा का अर्थ अनुशासन का अंतरण है। शिक्षा प्राप्त करने के लिए अनुशासन आवश्यक है तो वास्तविक अर्थ में दीक्षा प्राप्त करने के लिए ध्यान अनिवार्य है। और कोई सटीक उपाय नहीं है। गुरु दीक्षा देते हैं, तो शिक्षक शिक्षा। अनुशासन की पूर्णता शिक्षा है और बुद्धि की पूर्णता दीक्षा। व्यक्ति के जीवन में शांति, प्रेम और आनंद की व्याप्ति दीक्षोपरांत ही संभव है। गुरु के पास रहकर सीखी गई शिक्षा के समापन को दीक्षा कहा जाता है।
गुरु द्वारा शिष्य को जब पूरी तरह शिक्षा दी जा चुकी होती है तब दीक्षांत होता है। दीक्षांत समारोह दीक्षा प्रदान करने का एक अवसर है।
८/२/२३
गर्भ में नाभिनालबद्ध व्यक्ति को सांसारिक आनंद मिलना प्रारंभ हो जाता है, यहाँ पर व्यक्ति परमात्मा के आनंद में भी सराबोर रहता है। किंतु जन्म और विकास की यात्रा में वह सांसारिक ही हो जाता है। गर्भावस्था व्यक्ति की माँ है, किंतु गर्भ के बाहर उसकी माँ पंचभूतात्म जगत् है, जिनका रस वह पाँच तन्मात्राओं- शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध- के माध्यम से ग्रहण करता है।
हमें हिमालय दर्शन करना है, उसे फतह नहीं। आखिर क्या कारण है कि दुनिया के सबसे ऊंचे पर्वत शिखर एवरेस्ट पर बहुत से पर्वतारोही होकर आए हैं, पर कैलास शिखर पर आज तक कोई जाकर लौटा हो, ज्ञात नहीं। कैलास पर्वत हिंदुओं के लिए ही पवित्र नहीं है, तिब्बतियों के लामा वहाँ अष्टपथ में 'गुम्मा' बनाकर रहते हैं, जैनियों के लिए भी यह स्थान श्रद्धा का केंद्र है। कैलास दर्शन के श्रद्धालुओं की इच्छा तो उसके शिखर पर जाकर दर्शन करने की नही सुनाई देती। उसकी परिक्रमा या दर्शन करके ही वे धन्य हो जाते हैं।
गांवों में कहा जाता था कि पहले जब भागवत कथा होती थी तो कथा मंडप में लगे हरे बांस की सात गांठे सातों दिनों में खुल जाती थीं। यह सात गांठें कुछ और नहीं वरन सात ऊर्जा केंद्र हैं। भागवत की रसमयी कथा में पिरोए सत्यं परं धीमहि का साक्षात्कार सातवें दिन तक हो जाता है। हिमालय की यात्रा का भी यही निहितार्थ है। हिमालय की चोटियां गो और गोचर में नहीं आती, जहां माया का विस्तार रहता है। उसकी महिमा लोकोत्तर है। केदारनाथ में मैंने देखा कि दक्षिण के एक लुंगी पहने श्रद्धालु ने अपने घर पर मोबाइल पर चिल्लाकर बताया कि वह केदारनाथ पहुच गया या जो भी.. तो उसकी आँखों मे परम् तृप्ति के आंसू थे और वह हर्षित होकर बल्लियों उछल रहा था, यह भगवद्दर्शन है।
ऐसा कोई दर्शन अभी तक संसार मे नही हुआ है जो सभी प्रापंचिक रहस्यों को समझा देने में समग्रतः समर्थ हो। न ऐसा भविष्य में होने का निश्चय ही है। ज्ञात से ज्ञात तक की यात्रा नॉलेज है, पर ज्ञात से अज्ञात की यात्रा लर्निग है। दर्शन परम् तत्व के बारे में इतना ही जान पाए हैं कि वह अज्ञेय है। दर्शन अधूरे हों तो भी उनमें ग्रहणीय सत्य अंतर्निहित हैं।
हिमालय में आई त्रासदी से भगवान सबको जल्द उबारे, यह प्रार्थना है। हिमालय देवभूमि है, उस भूमि पर निवास करने वाले देवपुत्र ही हैं। ८ फ़रवरी २०२१ की फ़ेसबुक पोस्ट
१०/२/२३
यदि हम अपनी संस्थाओं में आध्यात्मिक प्रशिक्षण को छोड़ दें, तो हमें अपने संपूर्ण ऐतिहासिक विकास के प्रति झूठा होना पड़ेगा। धर्मनिरपेक्ष होने का मतलब धार्मिक रूप से अनपढ़ होना नहीं है। यह गहरा आध्यात्मिक होना है न कि संकीर्ण रूप से धार्मिक होना।
विश्वविद्यालय शिक्षा रिपोर्ट में डॉक्टर राधाकृष्णन
११/२/२३
नाद पर जब आघात होता है, तब अक्षर बनता है।
अवधूता! युगन युगन हम योगी
आय ना जाय मिटै ना कबहूं
सबद अनाहत भोगी।
सबरे ठौर जमात हमारी
सब ही ठौर पर मेला।
हम सब में सब है हम माहीं
हम है बहुरि अकेला।
हम ही सिद्ध समाधि हमी ही
हम मौनी हम बोले।
रूप सरूप अरूप दिखा के
हम ही हम तो खेलें।
कहे कबीर सुनो भाई साधो
नहीं न कोई इच्छा
अपनी मढ़ी में आप मैं डोलूं
खेलूं सहज स्वेच्छा।
१५/२/२३
महाभारत हो सकता है किसी युद्ध को देखकर प्रेरित होकर लिखा गया हो, पर वह व्यक्ति की आंतरिक वृत्तियों की द्वंद्व कथा है। व्यक्ति के भीतर ही वे विरोधी वृत्तियां मौजूद रहती हैं, उनसे संघर्ष और विजय की कथा है महाभारत।
भाइयों/बहनों या परिवारों के बीच संघर्ष होता है, पर अगर बात उतनी ही होती तो यह महाकाव्य ही न बन पाता, वह एक घटनाक्रम या इतिहास बनकर रह जाता। वह कालजयी महाकाव्य है क्योंकि वह प्रत्येक व्यक्ति को उसके अंतर्मन में ले जाने की कथा है। युधिष्ठिर, अर्जुन, दुर्योधन इत्यादि जितने पात्र हैं, उन सबके प्रतीकार्थ हैं, वे व्यक्ति के अंदर ही हैं। १५ फ़रवरी २०२१ की फ़ेसबुक पोस्ट
यस्योन्मेषनिमेषाभ्यां जगतः प्रलयोदयौ ।
तं शक्तिचक्रविभवप्रभवं शङ्करं स्तुमः ॥
शिवो गुरु: शिवो देव: शिवो बन्धु: शरीरिणाम् ।
शिव आत्मा शिवो जीव: शिवादन्यन्न किञ्चन ॥
जब आप इस संसार से विदा होंगे, तो सांसारिक समृद्धि पीछे छूट जाएगी; परन्तु प्रत्येक भलाई का कार्य जो आपने किया है, वह आपके साथ जाएगा। धनी लोग जो कृपणता से जीते हैं और स्वार्थी लोग जो कभी भी दूसरों की सहायता नहीं करते, वे अपने अगले जीवन में धन-सम्पदा आकर्षित नहीं करते हैं। परन्तु जो दान देते हैं और बाँटते हैं, चाहे उनके पास अधिक या कम हो, वे समृद्धि को प्राप्त करेंगे। यह परमात्मा का नियम है।
16/2/23
तत् तद् इन्द्रिय मुखेन सन्ततं
युष्मद अर्चन रसायनासवम्
सव्र्वभावचषकेशु पूरिते—
स्वापिवन्नपि भवेयम उन्मदः ”
यह एक अद्भुद अवस्था है। यह जो भोग है यही श्रीभगवान की अर्चना है। प्रत्येक इन्द्रिय के द्वारा ही उनकी पूजा, रसायन रूप आसव आदि भाव रूपी चषक या पात्र में पूर्ण रूप से भर देने पर नशा जैसा भाव उदय होता है, यह भी वही है। आखों से रूप देखना, अर्थात आंखों द्वारा रूप नामक भाव में या चषक में पूजा–रस पान करना या फिर तन्मय हो जाना। कानों से शब्द सुनना भी यही है। यह भोग ही उपासना है। यह जाग्रत अवस्था में होता है, स्वप्न में भी होता है, सुषुप्ति में होता है, जब जिस रूप में रहा जाए, सभी समय उनकी पूजा होती है। यह दुर्बलों का काम नहीं है, यही वीरभाव है। भगवान शंकराचार्य ने कहा है — "यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम् ” — यह वही अवस्था है।
18/2/23
साधना की विधि गुरु द्वारा जानी जाती है !
ग्रन्थों में किसी भी साधना की विधि को बताने से
अनाचार की ही वृद्धि होती है ,क्योंकि साधना की विधि ग्रन्थों में पढ़कर साधक ठीक ठीक नहीं जान सकता ! वह तो गुरु द्वारा ही जानी जाती है ,यही कारण है कि मैंने अपने ग्रन्थों में साधना की विधियाँ नहीं बतलाईं भगवद्गीता में श्री कृष्ण ने कहा है --'' अपाने जुह्यति प्राणं प्राणापानसमानयोः '' अर्थात अपान वायु में प्राण और प्राण वायु में अपान का हवन करना चाहिए ,यह क्रिया बिना बिना गुरु के कोई समझ सकता है ? जबकि गीता तो बहुत लोग पढ़ते हैं ।
गोपीनाथ कविराज जी💐💐
हमारा प्रत्येक कर्म यज्ञ है ।
हमारा जो खाना पीना है ,वह भी प्राणाग्निहोत्र यज्ञ है ।
सब ही यज्ञ है ,सब ही पूजा है ।
आत्मा ही परमात्मा है , परमात्मा ही आत्मा है ।
तभी जिसमें परमात्मा का सन्तर्पण होता है ,वही परमात्मा का तृप्तिसाधक है ,और उसकी जिससे तृप्ति होती है , वही है आत्मतृप्ति का उपकरण । दोनों में जो कल्पित विरोध तथा भेद परिलक्षित होता है ,वह है अविद्या मूलक । जैसे स्वयं कुछ भोगार्थ ग्रहण करने पर वह बंधन का कारण होता है ।
किन्तु स्वयं ग्रहण न करके वह परमात्मा को समर्पित कर दिया जाय ,तथा वह उनकी दृष्टि से पवित्र होकर साधक द्वारा गृहीत हो ,हमारे पास प्रसाद रूप से प्राप्त हो ,तब उससे बंधन तो होता ही नहीं ,प्रत्युत वह बंधन मुक्ति का कारण हो जाता है ।
यही है कर्मगत कौशल । इसप्रकार मनुष्य कर्म स्तर से ज्ञान स्तर पर स्वयं उन्नीत होता है । इस ज्ञान स्तर में कुछ समय संचरण करते - करते स्पष्ट ज्ञात होता है कि अचेतन गुण स्वयं संचारित होकर कर्म नहीं कर सकते । प्रकृति द्वारा ही सब कर्म निष्पन्न होते हैं ।
साधना का प्रारूप
साधनपथ पृष्ठ 137
आज योगदा सत्संग मंडली में शिवाभिषेक में गोमुखी शृंगी से अभिषेक किया। गो का अर्थ इंद्रिय भी है। इंद्रियां रूपी गौमुख से रुद्राष्टाध्यायी पाठ के बीच तैलधार अभिषेक से स्पष्ट हुआ कि संसार जो इंद्रियों में बसा हुआ है, वह निरन्तर प्रवाहित होकर शंकर में लीन हो रहा है। अतः हमारे मन शिव संकल्प संयुक्त हों। यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति । दूरंगमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।। (शुक्लयजुर्वेद, ३४, १)
जो मानव मन व्यक्ति के जाग्रत अवस्था में दूर तक चला जाता है और वही सुप्तावस्था में वैसे ही लौट आता है, जो दूर तक जाने की सामर्थ्य रखता है और सभी ज्योतिर्मयों की भी ज्योति है, वैसा मेरा मन शान्त, शुभ तथा कल्याणप्रद विचारों का होवे ।🙏
मनः कृतं कृतं लोके न शरीरं कृतं कृतं ।
जग में मन द्वारा किया हुआ ही कृत कर्म है, न कि शरीर द्वारा किया हुआ ।
21/2/23
घोर अहंकार, लोलुपता और ईर्ष्या में डूबा समाज कितना उत्थान कर सकता है, उतना ही, जितना उससे वह बाहर आ पाए...यह वृत्तियाँ ही हमारी असल चुनौतियाँ हैं... 21/2/22 की फ़ेसबुक पोस्ट
मातृभाषा आंखों के समान है और दूसरी भाषाएँ चश्मे की तरह। आंख जितनी सही होगी, चश्मा उतना अच्छा काम करेगा..#अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस
24/2/23
'तुममें सत्य के प्रति जितनी आस्था है,उससे अधिक भय और संकोच है.....भय और संकोच तुम्हें सत्य का पक्ष नहीं लेने देंगे…..
सत्य बड़ा महसूल चाहता है।'
-पं.हजारीप्रसाद
मार्गे मार्गे निर्मलं ब्रह्मवृन्दं
वृन्दे वृन्दे तत्त्वचिन्तानुवाद:।
वादे वादे जायते तत्वबोध:
बोधे बोधे भासते चन्द्रचूड:॥
पूर्वाम्नाय गोवर्धन मठ, पुरी, उड़ीसा
।। शंकरभारती विजयते।।। *५*
क्रमशः.........
हमारे ठाकुर( श्रीरामकृष्ण परमहंस ) कहते हैं ..."भाई गुड़ खा लिया किसी गूंगे ने अब कोई स्वाद पूछे कि कैसे लगा ? वह क्या करेगा ? आनंद से विह्वल होकर नृत्य करेगा... खुशी के मारे रोएगा...या उस स्रोत को खोजने दौड़ पड़ेगा जहाँ से एक बार यह स्वाद प्राप्त किया..."
बस हमारी उपनिषदें भी इसी तथ्य को ही उद्घाटित करती हैं।
जिसने उस ब्रह्म का साक्षात्कार किया वह वर्णन कैसे करे?
" विज्ञातारमरे केन विजानीयात् "
बृहदारण्यकोपनिषद् ( २.४.१४)
याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी से सरलता में कहा - "अरे जिसके द्वारा सब विश्व जाना जाता है उस जानने वाले को कैसे जाना जाय?"
वह आत्मा जिसके द्वारा ज्ञान प्राप्त होता है उसके विषय में कैसे जाने ....सब कुछ देखने वाली आँखों को कैसे देखें? सृष्टि के प्रारंभ से इसी प्रश्न के इर्द गिर्द 'विश्वमेधा' चिंतन का तान बाना बुन रही है.....
~~विज्ञातारमरे केन विजानीयात्~~
और सभी मौन......
जिन्हें ब्रह्म साक्षात्कार हो गया उसकी स्थिति के बारे में अवश्य कहा गया...
"ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति"
मुण्डकोपनिषद् (३.२.९)
जो ब्रह्म को जान लेता है वह ब्रह्म ही हो जाता है।
"तदेतद् ब्रह्मापूर्वमनपरमनन्तरमबाह्यम्
अयमात्मा ब्रह्म सर्वानुभूः" बृहदारण्यक (२.५.१९)
अर्थात् ब्रह्म के पहले कोई नहीं ...बाद भी कोई नहीं.. मध्य भी कोई नहीं.... न भीतर न बाहर कुछ... यह आत्मा ही ब्रह्म है ,दृष्टा , मन्ता, श्रोता, बोद्धा ,जानने वाला और बताने वाला है ......
तब कौन किसे क्या बताए?
याने कि - वही गूँगे का गुड़ ..... जो खाए वही जाने.....
Friday, February 3, 2023
जनवरी 2023
१/१/२३
काल की अखंडता में सौंदर्य का दर्शन क्षण क्षण ही हो पाता है। एक क्षण से दूसरे क्षण के बीच को संधि काल कहते हैं। यह सदा नया रहता है। इसी का संधान व्यक्ति करता जाता है।
नव और कुछ नहीं होना ही है, यह क्रियात्मक रूप में ग्रहणशील है। इस सतत हुबपन के हम ग्राहक बनें। आप सबको आंग्ल नववर्ष मंगलमय हो।
यह आंग्ल नववर्ष भले हो, पर इसे सनातनी अपनी परंपरा में ढालकर मनाते हैं। पश्चिम में इस दिन मदिरापान करते हैं और नाचगान करके उत्सव मनाते हैं, जबकि यहाँ लोग मंदिरों में जाकर इस संधिकाल के साक्षी बनते हैं...
क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदैव रूपं रमणीयतायाः।
४/१/२३
There are no absolute truths.
Everything changes.
Keep mind open and swim like a fish in the ocean of change !
६/१/२३
नाद का अभ्यास ही वस्तुतः कर्म है। यही ज्ञान में पर्यवसित होता है। जब तक नाद स्वतः सिद्ध भाव से स्फुरित नही होता तब तक मन को संलग्न करने का कोई आधार नही है। नाद के अलावा मन को शुद्ध करने का कोई दूसरा उपाय नही है। नाद के प्रभाव मन की आवर्जना दूर होते होतें मन सूक्ष्म अवस्था प्राप्त करता है। नाद चैतन्यमय है चैतन्यमय का अवलंबन किये बिना मन को निरोध करने की चेष्टा तमोभाव और जड़त्व को आह्वान करना मात्र है। एक बार शुद्ध नाद का आश्रय पाने और उसे बराबर पकड़े रहने पे मन की मलिनता दूर हो जाती है।
🌹🌺💐🥀🌷
(सनातन साधना की गुप्त धारा)
दिखने के लिए कुछ होना ज़रूरी है
होने के लिए सब खोना ज़रूरी है।
सुंदर! तिरोहिता❤️
८/१/२३
दोहा
यह रहस्य रघुनाथ कर बेगि न जानइ कोइ।
जो जानइ रघुपति कृपाँ सपनेहुँ मोह न होइ॥
तुलसी दास जी पर नारी निंदा का आरोप लगाये जाते हैं। वस्तुतः गुरुदेव की कृपा के बाद अब अनुभूति हुई कि नारी माया और शक्ति दोनों रूपों में है। ज्ञानोपलब्धि पर मायारूपी नारी शक्तिस्वरूपा हो जाती है।
यह भेद ना जानने के कारण व्यक्ति तुलसीदास जी के इस प्रकार के काव्य का वास्तविक अर्थों में अवगाहन नहीं कर पेट हैं।
आजकल ध्यान एक लहर बन जाता है। समुद्र में जैसे लहरों का उठना गिरना चलता है, वैसे ही अनुभूति ध्यान की गहराई में होने लगती है। देह मन और बुद्धि की चेतना से पार एकतान सागर में गोता लगा हुआ। यह जानने वाला ही ईश्वरंश है।
प्रणवो धनु: शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत॥"
भावार्थ -- प्रणव धनुष है, आत्मा बाण है और ब्रह्म उसका लक्ष्य कहा जाता है। उसका सावधानी पूर्वक वेधन करना चाहिए और बाण के समान तन्मय हो जाना चाहिए। कठोपनिषद
https://hi.bharatpedia.org/wiki/%E0%A5%90
९/१/२३
एक काम से दूसरे काम के बीच हम क्या सोचते हैं, हमारी ख़ुशी और सुख उस पर निर्भर करता है।
अगर हम उस अंतराल में आनंदित हैं तो सुखी हैं, और यदि चिंतित हैं तो दुःखी हैं।
11/1/23
सुख के तीन दुःख होते हैं। उसे पाने का दुःख, संजोए रखने का दुःख और छूटने का दुःख। बुद्ध
१४/१/२३
रिवर्सल ऑफ़ माइंड इज नमः...
लक्ष्मी वह अच्छी जो स्वतः आए और अध्यवसाय के लिए निविष्ट की जाए। सरस्वती वह अच्छी जो अध्यवसाय पूर्वक प्राप्त हो किंतु जन समूह में स्वतः प्रकाशित होती रहे। स्वाभाविक रूप में लक्ष्मी का आना भला और सरस्वती का जाना भला।
15/1/23
प्राचीन भारतीय ऋषियों द्वारा दी गई यह कितनी विलक्षण व्यवस्था है कि हज़ारों वर्षों पूर्व तक जब कोई यातायात का साधन नहीं था , उस समय सुदूर देश के कोने कोने में मकर संक्रांति का पर्व एक ही समय मनाया गया। यह सूर्य में राशि परिवर्तन भिन्न भिन्न नामों से भारत भर में लक्षित किया गया। सनातन काल से यह पर्व अन्य सभी पर्वों से अधिक व्याप्त देखा जा रहा है। देश और दुनिया में अलग अलग कैलेंडर हैं, उनमें बहुत सी भिन्नताएं हैं, किसी का वर्ष कभी शुरू होता है तो किसी का अन्य ऋतु में, पर मकर संक्रांति पर सबकी काल गणना एक हो जाती है। अंग्रेज़ी कैलेंडर से प्रतिवर्ष १५ जनवरी (पहले १४ जनवरी) को यह पर्व घटित होता है। एक दो दिन के अंतराल से यह कहीं लोहड़ी, कहीं खिचड़ी, कहीं उत्तरायण तो कहीं पोंगल इत्यादि नामों से मनाया जाता है।
तरह तरह के ख़ान पान से भी यह त्योहार विशिष्ट हो जाता है।
स्नान दान की परंपरा इस अवसर पर हिंदी क्षेत्र में दिखती है, स्नान यानि अपने को ताजा करना, अज्ञान को बहाना और ज्ञान में विलीन होना। अज्ञान से उत्तीर्ण होने के कारण पढ़े लिखे लोग विश्वविद्यालय से स्नातक और परा स्नातक उपाधि पाते हैं।
संक्रांति या पोंगल के अवसर पर तमिलनाडु में गोदा नाम की अंदाल भक्त महिला ने जो कृष्ण परंपरा के गीत गाए हैं, वही मथुरा में सुनायी देते हैं, कृष्ण भक्ति के यही गीत गुजरात में तो असम में भी गाए जाते हैं...
बुंदेली में सक्रांत गीत (एक तरह से अर्चना गीत या अचरी) इस अवसर पर गाने की परंपरा रही है...
वर्ण रंग को कहते हैं। सृष्टि रंगों में परिलक्षित होती है। हिमालय की हिमाच्छादित चोटी पर सूर्य की जब पहली किरण पड़ती है तो विभिन्न रंग बिखरे हुए दिखते हैं, यह छटा दर्शनीय होती है। इन वर्णों से ही शब्द वर्णन आया है। रंग दर्शन और उनकी व्याख्या को वर्णन कहते हैं।
वर्ण व्यवस्था सृष्टि उद्गम की भिन्न भिन्न दशाओं का नामकरण है। इसी को दुनिया में अन्यत्र रंग भेद के रूप में देखा जाता है। सृष्टि उत्पन्न होने पर भेदमूला है, अव्यक्त रूप में वह अभेदमूला है। इस भेदाभेद का सम्यक् दर्शन न करने के कारण ऊँच-नीच और विषमता फैल जाती है।
गोस्वामी तुलसी दास जी की मानस की कतिपय चौपाइयों को हमें इसी आलोक में देखना श्रेयस्कर है। हमारे भीतर चारों वर्ण हैं, उनका क्रमिक विकास होता रहता है। वर्ण दशा के विकास क्रम में शूद्र को ताड़ने की आवश्यकता रहती ही है। अब आप ताड़ने का जो भी अर्थ ग्रहण करें, उससे कोई समस्या नहीं होगी।
नारी अज्ञान का प्रतीक है, ज्ञान दशा में वही शक्तिस्वरूपा है। नर सृष्टि में जब माया का प्रभाव आत्यंतिक रूप से मनुष्य पर छा जाता है तो इसे नारी कहते हैं। नारियल में यह 'नारी' झांक रहा है। नारियल भीतर से कोमल होते हुए भी बाहर कितनी कठोरता से आवृत रहता है। माया का आवरण कठोर अवश्य है, पर अभेद्य नहीं। उसका भेद पा जाने पर वह सुस्वादु और पौष्टिक लगने लगती है। तुलसी ने इसी अर्थ में नारी को लेकर बातें की हैं, शूद्रों की ही भाँति उन्हें लेकर भी परेशान होने की आवश्यकता नहीं है।
तुलसी ही नहीं, अन्य संतों की बानी भी इसी भाँति कही गई हैं।
वस्तुतः सिद्धों और संतों की बातों में जब हम समाज सुधार के तत्व देखना चाहते हैं तब शूद्र और नारी को लेकर आयी बातों की वास्तविक सच्चाई जानने की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। संतों की बानियाँ समाज सुधार के लिए नहीं, व्यक्ति के रूपांतरण के लिए कही गई हैं। व्यक्ति के रूपांतरण होने पर समाज सुधार स्वयमेव हो जाएगा।
और वे व्यक्ति के रूपांतरण के लिए भी नहीं कही गई, वरन् स्वान्तः सुखाय व्यक्त आनंदोच्छलन हैं। जिसको समझ न आ पा रही हों, तो उन्हें एस्केप कर जाइए। जब आयेंगी, तब आ ही जायेंगी।
हमें भी पहले लगता था यह तुलसी बाबा क्या कह गये हैं, पर जब जितनी समझ आएगी, चीजें वैसी ग्रहण हो पाएंगी न!
एक शिष्य का काम है गुरु को संतुष्ट करना। पर जो स्वयं तृप्त हैं उन्हें कैसे संतुष्ट किया जाये? श्री श्री रविशंकर
२०/१/२३
बागेश्वर धाम सरकार पंडित धीरेंद्र कृष्ण जी को नेशनल मीडिया चैनलों पर समाचार के रूप में देखा । एक लंबे और लाइव कार्यक्रम में उन्हें सुना।
उनके विभिन्न चमत्कारों पर यदा-कदा पहले भी उन्हें सुनते आए हैं। उनकी प्यारी और बेलौस बोली बुंदेली सुनकर अच्छा लगता है।
पतंजलि योगसूत्र में विभिन्न सिद्धियों का वर्णन मिलता है। कोई मनुष्य उन सिद्धियों को प्राप्त कर सकता है। पर पंडित धीरेंद्र कृष्ण जी लोगों को सिद्धियों में बहलाना नहीं चाहते, वे तो भगवान और हनुमान जी का भक्त बनने की सतत प्रेरणा देते हैं। लोग उनके चमत्कारीं पर केंद्रित हो रहे हैं। अस्तु! मेरी तो कामना है शीघ्र वे इस प्रकार अपनी सिद्धियों का दर्शन कराना बंद कर दें।
जनता को ज्ञान, भक्ति और कर्म के मार्ग पर चलना श्रेयस्कर है। चमत्कारों का भविष्य नहीं होता, न उनकी समाज में उपयोगिता है। यह सतही चमत्कार हैं, हमें इनसे आगे और गहरे चमत्कारों से जुड़ना चाहिए, जो हर प्राणी के साथ हर क्षण घटित हो रहे हैं....
पंडित जी के ऐसे आशय को जनता समझे तो कितना अच्छा हो....
२२/१/२३
श्रद्धा और विश्वास में अंध उपसर्ग लगाने से उनका अर्थ हनन हो जाता है। श्वास या सांस की विशिष्टता विश्वास है। श्वास केवल नाक से नहीं ली जाती, सारा शरीर और उसका पोर-पोर साँस लेता है। केवल नाक खोल दें और शेष शरीर बंद कर दें तो कहते हैं व्यक्ति तीन दिन से अधिक जीवित नहीं रह सकता।
विश्वास और श्रद्धा बहुत बड़ी अर्थवत्ता के शब्द हैं। इन शब्दों के पहले अंध लगाने से उस अर्थवत्ता की ऊँचाई सोचनी कठिन हो जाती है। जब विश्वास और श्रद्धा का उदय हो जाता है तब अंधता और सूझता का स्थान ही नहीं रह जाता। व्यक्ति प्रकाशमय हो जाता है।
अतः अंधविश्वास और अंधश्रद्धा जैसे शब्दों का कोई मूल्य नहीं है। यह वैसे ही है जैसे कोई कहे कुटिल भगवान, दुष्ट ईश्वर। भगवान और ईश्वर के आगे विशेषण रखने का कोई अर्थ नहीं।
अंधविश्वास अंग्रेज़ी सुपरस्टीशन का प्रतिरूप रखा गया शब्द है। अंध श्रद्धा ब्लाइंड फेथ है। परंतु श्रद्धा फेथ नहीं है। श्रद्धा और विश्वास की ध्वनि और अर्थ, प्रयोग और परंपरा पर विचार किए बिना इसमें अंध लगा दिया गया।
कहा गया है-
भवानी शंकरौ वंदे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यंति सिद्धाः स्वान्तः स्थमीश्वरं॥
मैं भवानी और शंकर की वंदना करता हूँ, जो श्रद्धा और विश्वास के रूप में सबके हृदय में निवास करते हैं। बिना श्रद्धा और विश्वास के सिद्ध भी अपने अंदर बैठे ईश्वर को नहीं देख सकते हैं।
विशेषण का अर्थ संज्ञा पर आरोपित करने से संज्ञा का सत्व तिरोहित हो जाता है....
अंधश्रद्धा और अंधविश्वास डिल्यूज़न, जिसे माया समझा जाता है, उसे ही कहा जाना चाहिए।
उक्त बातें तब के लिए हैं जब व्यक्ति तर्क और आस्था का समुचित प्रयोग करना जान ले।
२३/१/२३
आजकल सोते समय और जागते समय एक एक घंटा ध्यान और क्रिया हो रही है।
स्टिलनेस में चक्रों में सहस्रार तक सुरसुरी चलती रहती है।
कभी कभार क्या अक्सर यह स्थिति ध्यान के बिना भी रहती है।
एक आनंद, निरालंबन, तुष्टि और निश्चिंतता।
पढने के बाद लिखना और लिखने के बाद पढ़ना जिसने न किया उसका पढ़ना लिखना ब्यर्थ है। लेकिन कई गुना पढने के बाद ही कुछ लिखने की योग्यता पैदा कर सकता है। आत्माभिव्यक्ति के लिए भी लिखने का कौशल चाहिए। फेस बुक और अन्य सोशल साइट्स सबको मंच दे रहे हैं। अवश्य लिखे। मन की लिखें। २३ जनवरी २०१५ की फ़ेसबुक पोस्ट
२७/१/२३
उच्चतम चेतना की दशा में स्त्री माता हो जाती है, निम्नतम चेतना में वह भोग्या लगती है। आदि शंकराचार्य, रमण महर्षि इत्यादि ऋषिगण ने ऐसे ही संकेत अपने उद्बोधनों में किए हैं। उच्चतम चेतना में शाकाहार और मांसाहार का अंतर नहीं रह जाता। कौन किसका आहार कर रहा है? अन्न हमारा और हम अन्न का आहार करते हैं। हम ही जब अन्न हैं तो क्या शाक और क्या मांस।
उच्चतम दशा में यम नियम स्वयं घटित हो जाते हैं। या कह सकते हैं ऐसी अवस्था में जो कुछ हो रहा होता है वही यम और नियम हैं।
किंतु यहाँ तक समझ ले जाने के लिए हमें संस्कृति के विभिन्न तत्वों से होकर गुजर जाना होता है। धर्म यहाँ महती भूमिका निभाता है, फिर जब छत पर पहुँच जाते हैं तो व्यक्ति अधार्मिक होकर रह ही नहीं सकता।
the dancer is that who conceals his real nature. When you conceal your real nature of your Being and reveal another formation of your being to the public, that is the dancer, that is the way of dancing.
२८/१/२३
योग वासिष्ठ में वसिष्ठ राम से कहते हैं यह सृष्टि 76 बार बनी है और तुम भी 76वे राम हो। योग वासिष्ठ के आधार पर हॉलीवुड में एक फ़िल्म 1999 में The Matrix बनी है। इसमें आता है Let me tell you why you are here. You are here because you know something. What you know you can’t explain, but you feel it. You felt it your entire life. You don’t know what it is, but it is there, like a splinter in your mind. It is this feeling that has brought you to me. Do you know what I’m talking about? The Matrix. Do you want to know what it is? The Matrix is everywhere, all around us, even now in this very room. Unfortunately no one can be told what the Matrix is. You have to see it for yourself.. २८ जनवरी २०२१ फेसबुक पोस्ट
Thursday, January 5, 2023
दिसंबर २०२२
३/१२/२२
You will learn by reading,
But you will understand with LOVE.
Rumi
Silence is an ocean. Speech is a river. When the ocean is searching for you, don’t walk into the river. Listen to the ocean.
Rumi
६/१२/२२
शताक्षरी मंत्र -
‘‘|| ह्लीं ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ग्लौं ह्लीं वगलामुखि स्फुर स्फुर सर्व-दुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय स्तम्भय प्रस्फुर प्रस्फुर
विकटांगि घोररुपि जिह्वां कीलय महाभ्मरि बुद्धिं नाशय विराण्मयि सर्व-प्रज्ञा-मयी प्रज्ञां नाशय, उन्मादं कुरु कुरु, मनो-पहारिणि ह्लीं ग्लौं श्रीं क्लीं ह्रीं ऐं ह्लीं स्वाहा
७/१२/२२
दो स्वरों के बीच एक महीन सुर को श्रुति कहते हैं। इसे साधारण कानों से नहीं सुना जा सकता।
जो मुझे समझ सका उसे हक़ है मुझे बुरा कहने का, जो मुझे जान लिया वह मुझ पर जान देता है।
७/१२/२२
spiritual discipline is man's real work.
९/१२/२२
Talk 231.
A visitor asked: ‘What is mouna (silence)?’
Maharshi.: Mouna is not closing the mouth. It is eternal speech.
Devotee: I do not understand.
Maharshi: That state which transcends speech and thought is mouna.
Devotee: How to achieve it?
Maharshi: Hold some concept firmly and trace it back. By such concentration
silence results. When practice becomes natural it will end in silence.
Meditation without mental activity is silence.
Subjugation of the mind is meditation.
Deep meditation is eternal speech.
Devotee: How will worldly transaction go on if one observes silence?
Maharshi: When women walk with water pots on their heads and chat with their
companions they remain very careful, their thoughts concentrated on the loads on their heads. Similarly when a sage engages in activities, these do not disturb him because his mind abides in Brahman.
Talk 232.
The Master said on another occasion:
“Only the sage is a true devotee.”
- Talks with Sri Ramana Maharshi.
Talk 231 & 232.
अर्थ उतना उपयोगी जितने में उससे उपराम हो जाए. पेट भरने के लिए आवश्यक अर्थ तो प्राप्त हो ही जाता है. अतः अर्थ की सीढ़ी पर चढ़ते जाएं चढ़ते जाएं, वहां तक जहां से उसकी आवश्यकता तिरोहित होने लगे.
परिवर्तन ही दुःख है। परिवर्तन अवश्यंभावी है। परिवर्तन को देखना न दुःख है, न सुख, वह तो परिवर्तन के साथ होना भर है।
यह होना ही संसार है और न होना शिव है। सबके साथ और सबमें होना भी शिव है। यहां शिव और शक्ति का साहचर्य है, उनके सामरस्य में शिव और शक्ति दोनो निविष्ट हैं।
हों सॉ में एक से सांस आ रही, दूसरे से जा रही है, अं ही पर्दा है, क्योंकि आने जाने वाली सांस तो एक ही है। वह एक जगह से ही आ रही है और वहीं पहुंच भी रही है।
१२/१२/२२
झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें॥
जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई॥1॥
जिसके बिना जाने झूठ भी सत्य मालूम होता है, जैसे बिना पहचाने रस्सी में साँप का भ्रम हो जाता है और जिसके जान लेने पर जगत का उसी तरह लोप हो जाता है, जैसे जागने पर स्वप्न का भ्रम जाता रहता है।
यश्च मूढतमो लोके यश्च बुद्धे: परं गत:।
तावुभौ सुखमेधेते क्लिश्नात्यन्तरितो जन:॥
श्रीमद्भागवतम्
Only the one who is totally ignorant and the other who has transcended body awareness are happy in this world. The person different from these two categories suffers to a large extent.
संसार में जो अत्यंत मूढ़ हैं और जो देहबुद्धि के परे जा चुका हो, इन दोनो तरह के लोग सुखी रहते हैं। परंतु जो इन दोनों तरह के व्यक्तियों से अलग हैं, वह दुखी रहता हैं।
ज़िंदगी समझ में न आए तो मेले में अकेला!
ज़िंदगी ग़र समझ आये तो अकेले में मेला।
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"इच्छामात्रं प्रभो: सृष्टि:” अर्थात इच्छा मात्र से ही सृष्टि होती है। इच्छा का उदय होने से ही सृष्टि का उदय होता है। किंतु किसकी इच्छा? वह है, आत्मा की इच्छा..
आत्मा है शिव स्वरूप अर्थात सत्, चित्, आनंद स्वरूप.. इसमें चित् और आनंद सदा स्फुरित होते रहते है। आनंद में क्षोभ होने से ही इच्छा का आविर्भाव होता है। अगर आनंद क्षुब्ध नहीं है, तो किसी भी प्रकार की इच्छा प्रकट नहीं हो सकती। अर्थात चरम दृष्टि से आनंद ही सृष्टि का मूल है।
परमेश्वर अपनी तिरोधान शक्ति के कारण ही वे स्वातंत्र्यवश आत्म–संकोच करके जीवभाव ग्रहण करते है। यह उनकी निरपेक्ष स्वाधीन इच्छाशक्ति से होता है। उन्होंने जीवभाव क्यों ग्रहण किया? शास्त्र कहते है.. यह उनकी स्वातंत्र्यवश लीला के कारण होता है.. अर्थात जब वे इच्छा करते है, तब यह सृष्टि प्रकाशित होती है।
🙏🌹
जय गुरु
१३/१२/२२
उड़ जाएगा हंस अकेला,जग दर्शन का मेला,
जैसे पात गिरे तरुवर से,मिलना बहुत दुहेला,
ना जाने किधर गिरेगा,लगाए पवन का रेला,
जब होवे उम्र पूरी,जब छूटेगा हुकुम हुज़ूरी,
जमके दूत बड़े मज़बूत, जम से पड़ा झमेला,
दास कबीर हर के गुण गावे,वा हर को पारण पावे,
गुरु की करनी गुरु जाएगा, चेले की करनी चेला।
18/12/22
संस्कृत दक्षिणा शब्द के अनेक अद्भुत अर्थ हैं। द का अर्थ अर्पित करना या देना क्षि का अर्थ निवास करना या उसमें रहना और णा सूचित करता है ज्ञान को। अतः दक्षिणा वह भेंट है जो एक शिष्य अपने गुरु को अर्पित करता है और जिसके द्वारा वह उस ज्ञान में प्रतिष्ठित हो जाता है जो उसे प्रदान किया गया है।
दक्षिणा श्रद्धापूर्वक लेने और देने का भाव है।
इसी अर्थ के आसपास दक्षिणा के सारे अर्थ घूमते हैं। एक शब्द का एक ही अर्थ होता है, वह तो समय के साथ यात्रा करते हुए अनेक अर्थों में विभक्त हो जाता है।
दक्षिणा अर्पित करने से गुरु शिष्य संबंध शाश्वत बना रहता है।
प्रदक्षिणा का उद्देश्य भी इस संबंध को सनातन बनाने से है।
दक्षिण धर्म अगर वामाचार के उलट देखें तो अभीष्ट धर्म है।
दक्षिणामूर्ति भगवान सदाशिव और गुरु के लिए कहा गया है।
दक्ष प्रजापति का सिर बकरे का है। बकरे की बलि देने की प्रथा रही है, वह भी अर्पित करना है।
दक्ष का अर्थ निष्णात या चतुर होता है। दक्ष प्रजापति ने देवता, मनुष्य और असुर तीनों को द दिया, एक ही शब्द से तीनों ने अपने अपने गुण धर्म और आवश्यकता के अनुसार उसका अर्थ ग्रहण किया। देवताओं ने इसका अर्थ लिया दमन यानि आत्म संयम, मनुष्यों ने दान से इसका अर्थ लिया तो असुरों ने दया से इसे समझा। यही अर्थ दक्ष प्रजापति समझाना चाहते थे।
दक्षिणा देने का भाव आने मात्र से व्यक्ति परम ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है। छांदोग्य उपनिषद् में सत्यकाम जाबाल की इस कथा से यह स्पष्ट हो जाता है।
अत्यंत निर्धन लेकिन सद्गुणों से सम्पन्न एक स्त्री थी ,जिसका नाम जबाला था। उसके एक पुत्र था, जिसे सभी सत्यकाम कहते थे। एक दिन उसके मन में गुरुकुल में रहकर शिक्षा ग्रहण करने की इच्छा पैदा हुई। वह चाहता था कि परमपिता परमात्मा के विषय में वह जाने। उसने अपनी माता से अपनी इच्छा प्रकट की। माँ बहुत प्रसन्न हुई और उन्होंने सहर्ष गुरुकुल में अपने पुत्र को जाने तथा अध्ययन करने की स्वीकृति प्रदान कर दी। जिस समय सत्यकाम जाने लगा, उसने अपनी माता से पूछा, 'यदि आचार्य उससे उसका गोत्र पूछेंगे तो वह क्या जवाब दे, क्योंकि उसने तो अपने पिता को देखा ही नहीं है और न उसका गोत्र ही वह जानता है। माँ बोली, 'बेटे, मुझे भी तुम्हारे गोत्र का पता नहीं है, क्योंकि जब तुम पैदा हुए थे तो घर अतिथियों से भरा रहता था। मैं सारे दिन उन्हीं की सेवा में लगी रहती थी, तुम्हारे पिता भी इतने व्यस्त रहते थे कि मुझे कभी यह फुर्सत ही नहीं मिली कि उनसे उनका गोत्र पूछ सकूं। इसलिए तुम अपने आचार्य से इतना कह देना कि मैं अपनी माँ जबाला का पुत्र सत्यकाम हूं।' सत्यकाम इस उत्तर से सतुष्ट होकर आश्रम के लिए चल पड़ा। वह हारिद्रमत गौतम के आश्रम में पहुँचा और उनसे परमपिता परमात्मा को जानने की शिक्षा देने का आग्रह किया। ऋषि ने उससे उसका गोत्र पूछा। ब्राहाण बालक ने माँ के द्वारा बताया गया वही उत्तर कि वह 'सत्यकाम जाबाल' है, बता दिया तथा बोला कि उसे अपने गोत्र का ज्ञान नहीं है।
ऋषि उसके सत्य बोलने पर अत्यन्त प्रसन्न हुए और बोले, 'तुम किसी बहुत ही सज्जन माता-पिता की संतान हो, अतः जाओ, पहले कुछ समिधाएं लेकर आओ ताकि मैं तुम्हारा उपनयन संस्कार करूं, फिर शिक्षा की बात करेंगे।' इस संस्कार द्वारा सत्यकाम को उन्होंने यज्ञोपवीत (जनेऊ) धारण करवाया तथा अपने आश्रम में रख लिया। कुछ दिनों बाद उन्होंने आश्रम की गायों में से चार सौ दुर्बल गांए छांटी और उन्हें सत्यकाम को सौंपते हुए कहा, 'वत्स! इन गायों को लेकर पास के ही वन में चले जाओ और जब यह बढ़कर पूरी हो जाएं तब वापस आना। उस समय मैं तुम्हें ब्रह्म के विषय में बताऊंगा।' सत्यकाम तुंरत तैयार हो गया और उन गायों को लेकर वन में चला गया। दिन, माह और वर्ष बीतते चले गए लेकिन सत्यकाम को गुरु की आज्ञापालन अर्थात गौओं की सेवा के अतिरिक्त और कोई काम नहीं था। वह चौबीस घंटे, दिन और रात गायों का ध्यान रखता। उनकी सुरक्षा और उनकी देखभाल यह उसकी तपस्या थी। हिंसक जानवरों से उन्हें बचाना तथा उनकी भूख-प्यास का ध्यान रखना यही उसका धर्म, पूजा-पाठ तथा योग साधना थी। जब एक जगह की घास समाप्त हो जाती तो वह उन्हें लेकर दूसरी जगह पहुँच जाता और वहीं डेरा डाल देता। उसके पास रहने का कोई स्थान नहीं था। वृक्षों के साए और गुफ़ांए ही उसका घर थे तथा शरीर पर जो वस्त्र पहन कर वह चला था वही उसके वस्त्र थे। भोजन का कोई ठिकाना न था। गायों का दूध और जंगल के फल ही उसका भोजन थे। धीरे-धीरे समय के साथ-साथ गायों की संख्या भी बढ़ रही थी और एक दिन उसने देखा कि गायों की संख्या पूरी एक हज़ार थी। सभी गाएं स्वतत्रं विचरण, जंगल की खुली हवा तथा नदियों के स्वच्छ पानी एवं हरी-भरी ताजा घास-फूस खाने के कारण पूरी तरह स्वस्थ हो गई थीं। अब सत्यकाम उन्हें लेकर अपने गुरु के आश्रम की ओर चल दिया। गायों का निंरतर ध्यान, शुद्ध एवं शांत वातावरण, गौदुग्ध एवं फलों के आहार ने सत्यकाम को पूरी तरह एकाग्र एवं अतंर्मुखी बना दिया था। एकाकी रहकर दिन रात गायों का ध्यान एवं सेवा रूपी तपस्या से सभी ब्रह्म के विषय में उपदेश दिए। सर्वप्रथम एक सांड गायों में से ही आया फिर अग्निदेव, हंस तथा जलमुर्ग एक-एक करके उसके पास आए और बताया कि इस सारी सृष्टि इस ब्रह्माण्ड का रचयिता ब्रह्म कौन है। उन्होंने उसे साक्षात अनुभव भी कर दिया तथा अन्तर्धान हो गए। सत्यकाम के चेहरे पर ब्रह्मज्ञान का अनुभव करके एक तेज़ प्रकट हुआ। उसके नेत्रों में चमक और वाणी धीर-गम्भीर हो गई। उसकी चाल-ढाल बदल गई। जब वह गायों को लेकर आश्रम में पहुँचा और उसने अपने आचार्य के चरण छूकर बताया कि गायों की संख्या उनके आदेशानुसार एक हज़ार हो गई है तथा वे सभी स्वस्थ, नीरोगी एवं ह्रष्ट-पुष्ट हैं। आचार्य अत्यन्त प्रसन्न हुए। उन्होंने उसके चेहरे के तेज़ और आंखों की चमक को देखा और आश्चर्यचकित रह गए। सत्यकाम के यह कहने पर अब आचार्य उसे ब्रह्मज्ञान का उपदेश करें। आचार्य ने कहा, 'अब तुम्हें उसकी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि तुम्हारे चेहरे से यह ज्ञात होता है कि तुम्हें सत्य का ज्ञान प्राप्त हो गया है। यह बताओ कि तुम्हें किसने सत्य का ज्ञान दिया।' सत्यकाम ने सारी घटना सुनाई और बताया कि कैसे देवताओं ने विभिन्न रूपों में आकर उसे सत्य का उपदेश दिया था, लेकिन वह फिर भी उससे संतुष्ट नहीं है, वह तो अपने आचार्य के मुख से ही सत्य को, ब्रह्म को जानना चाहता है, क्योंकि आचार्य के द्वारा जो विद्या प्राप्त होती है वास्तव में वही श्रेष्ठ है। इस प्रकार उसने देवताओं से भी अधिक अपने आचार्य को महत्त्व प्रदान किया था। इस प्रकार सत्यकाम पूर्ण ज्ञानी होकर वापस अपनी माँ के पास आ गया और शांति एवं संतोष के साथ अपने धर्म का पालन करने लगा ।
पुष्प अर्पित करना प्रेम करना है। फल भेंट करने का अर्थ है कर्म फल सौंप देना। दक्षिणा गुरु से सदा के लिए जुड़ जाना है। स्मरण रहे, गुरु और ईश्वर भिन्न नहीं हैं।
Dakshina
Dakshina is one of the four Vedic goddesses of Knowledge, the other three being Ila, Sarama, Saraswati. Ila is Truth vision, Saraswati is Truth audition, Sarama is Intuition and Dakshina gives right discernment.
Dakshina in the historical Vedic religion is the term for the recompense paid by the sacrificer for the services of a priest, originally consisting of a cow. The term itself is derived from this, the feminine dakṣiṇā being a term for a cow able to calve and give milk in the Rigveda. Dakshina is personified as a goddess along with Brahmanaspati, Indra and Soma in RV 1.18.5 and RV 10.103.8,
तैत्तिरीय उपनिषद् में आता है-
श्रद्ध्या देयम्। अश्रद्ध्याsदेयम्।
श्रिया देयम्। ह्रिया देयम्।
भिया देयम्। संविदा देयम्स।
श्रद्धा के साथ दो। अश्रद्धा से कदापि मत दो। प्रचुरता से दो। नम्रता के साथ दो।
अत्यंत आदरयुक्त भय के साथ दो।
ऐसे हृदय से दो जो
संविद् से अर्थात् जगमगाती हुई चिति से परिपूर्ण हो।
SERVICE
As the vital rays of the sun nurture all, so should you spread rays of hope in the hearts of the poor and forsaken, kindle courage in the hearts of the despondent, and light a new strength in the hearts of those who think that they are failures. When you realize that life is a joyous battle of duty and at the same time a passing dream, and when you become filled with the joy of making others happy by giving them kindness and peace, in God's eyes your life is a success.
Sri Paramahansa Yogananda,
in a "Para-gram
२०/१२/२२
There’s no shame in admitting what you don’t know. The only shame is pretending you know all the answers.
२४/१२/२२
हमने बेपर्दा तुझे माहजबीं देख लिया,
अब ना कर पर्दा के ओ पर्दानशीं देख लिया,
हमने देखा तुझे आंखों की सियाह पुतली में,
सात पर्दों में तुझे पर्दानशीं देख लिया,
हम नज़र-बाज़ों से तू छुप ना सका जान-ए-जहां,
तू जहां जाके छुपा हमने वहीं देख लिया।
- Jalaludin Rumi
२५/१२/२२
काकचंचु पुटाकारं ध्यानधारणवर्जितम्।
विषतत्वमनच्काख्यं तव स्नेहात्प्रकाशितम्।। तंत्रालोक ३/१६९
इच्छाकामो विषं ज्ञानं क्रिया देवी निरंजनम्।
ऐतत्त्रयसमावेश शिवो भैरव उच्यते।।३/१७२ ब-१७३ अ
when you digest each and every object in voidness, it becomes nothing.
when there is nothing, it is full.
केन नाम न रूपेण भासते परमेश्वर....१/९१
यतो नान्या क्रिया नाम ज्ञानमेव हि तत्तथा।१/१४९
the energy of action is not separate from the energy of knowledge. in fact, the energy of knowledge has become the energy of action that energy of knowledge has got entry in yoga.
yoga is the last state of kriya. last in the sense of when yoga is in its full bloom.
योगो नान्यः क्रिया नान्या तत्वारूढ़ा हि या मति। स्वचित्त वासनाशांतौ सा क्रियेत्यभिदीयते।१/१५०
शोधना, बोधना, प्रवेशना, तब योजना
२६/१२/२२
अ स्वर की रचना के बारे में वर्णोद्धारतंत्र में उल्लेख है। एक मात्रा से दो रेखाएँ मिलती हैं। एक रेखा दक्षिण ओर से घूमकर ऊपर संकुचित हो जाती है; दूसरी बाईं ओर से आकर दाहिनी ओर होती हुई मात्रा से मिल जाती है। इसका आकार प्राय इस प्रकार संगठित हो सकता है।
“न भीतो मरणादस्मि, केवलं दूषितो यशः।”
Teachings of
Sufi Mevlana Jalaluddin Rumi
What is poison?
He replied with a beautiful answer:
Anything which is more than our necessity is poison.
It may be Power, Wealth, Hunger, Ego, Greed, Laziness, Love, Ambition, Hate or anything....
What is fear?
Non acceptance of uncertainty. If we accept that uncertainty, it becomes adventure...!
What is envy?
Non acceptance of good in others. If we accept that good , it becomes inspiration...!
What is anger?
Non acceptance of things which are beyond our control. If we accept , it becomes tolerance...!
What is hatred?
Non acceptance of person as he is. If we accept person unconditionally, it becomes love...!
२७/१२/२२
we achieved true cosmic vision only after seeing the unseeable. neil degrasse tyson
काकचंच्वा पिबेद्वायु संध्ययोरुभयोरपि।
कुण्डलिन्या मुखे ध्यात्वा क्षयरोगस्य शान्तये।।शिवसंहिता ८५
अहर्निश पिबेद्योगी काकचंच्वा विचक्षण।
दूरश्रुतिर्दूरदृष्टिस्तथा स्याद्दर्शनं खलु। ८६
काकचंच्वा पिबेद्वायु शीतलं यो विचक्षण।
प्राणापानविधानज्ञ स भवेन्मुक्तिभाजन।। ८१
28/12/22
ये फूल मुझे कोई विरासत में मिले हैं
तुम ने मिरा काँटों भरा बिस्तर नहीं देखा!
one who acts on this movable and immovable universe, which is unknowable - and casts aside the supreme Brahman, which is knowable-he is absorbed in the unknowable. shiva samhita ५/२१७
स्वे स्वे कर्मनि वर्तंते सर्वे ते कर्म संभवाह।
निमित्तमात्र कर्णे न दोषोsस्ति कदाचन।।२२८
३१/१२/२२
सु प्रदीप्ते यथा वह्नौ शिखा दृश्येत चांबरे।
देहप्राणस्थितोsप्यात्मा तद्वल्लीयेत तत्पदे।। श्री स्वच्छंदे
देहोत्थिताभिर्मुद्राभिर्यः सदा मुद्रितो बुधः।
स तु मुद्राधरः प्रोक्तः शेषा वै अस्थिधारकाः ।। त्रिकसार
Wednesday, November 30, 2022
नवंबर २२
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
तत्त्वं पूषन्नपातृणु सत्यधर्माय दृष्टये॥
ईशावास्योपनिषद् श्लोक १५।।
अर्थात उस परमात्मा का मुख सोने के चमकदार पात्र से ढका हुआ है। परब्रह्म सूर्यमण्डल के मध्य स्थित है, किन्तु उसकी अत्यन्त प्रखर किरणों के तेज से हमारी ये भौतिक आँखेंं उसे नहीं देख पातीं। जो परमात्मा वहां स्थित है, वही मेरे भीतर विद्यमान है। मैं ध्यान द्वारा ही उसे देख पाता हूं।
६/११/२२
यस्याः प्राप्येत पर्यन्त-विशेषः कैर्मनोरथैः ।
मायामेकनिमेषेण मुष्णंस्तां पातु नः शिवः ।।
७/११/२२
वर्णमाला देश है और गिनती काल। यह सूत्र रूप में बात ध्यान करते समय उतरी। अभी व्याख्या नहीं हो पाएगी।
८/११/२२
जयानुकम्पादिगुणानपेक्षसहजोन्नते ।
जय भीष्ममहामृत्युघटनापूर्वभैरव ॥१५॥
न प्रक्रियापरं ज्ञानं!
न क्रियारहितं ज्ञानं न ज्ञानरहिता क्रिया।
गरीयानकर्मिणो योगी स च ज्ञानवतः शिशु!
दश अंगुल पर्यंत वेदोक्त पुरुष सूक्त में है तो द्वादशांत आगम में आता है। यही दोनों का प्रस्थानबिंदु तो नहीं!
सिद्धिकामस्य तत्सिद्धौ साधनैव हि कारणम्
मुक्तिकामस्य नो किंचिन्निषिद्धं विहितं च नो। तंत्रालोक १५/२९१
सकार सृष्टि का सीत्कार है।
स्वाहाप्रत्यवमर्शात्स्यात्समंत्रादद्वयं परं!
स्वाहा शिव और शक्ति का मिलन है। यजमान का यज्ञ है।
येन सर्वमिदं बुद्धं प्रकृतिर्विकृतिश्च या
गतिज्यः सर्व भूतानां तं देवा ब्राह्मणम् विदु
9/11/22
Art is amoral; so is life. For me there are no obscene pictures or books; there are only poorly conceived and poorly executed ones.
Every human life had its pattern that had to be worked out slowly to its ultimate conclusion.
The real artist while he paints does not think of the sale, only of the need to make a beautiful living thing.
A canvas that I have covered is worth more than a blank canvas. My pretensions go no further; that is my right to paint, my reason for painting.
In order to paint life one must understand not only anatomy, but what people feel and thing about the world they live in. The painter who knows his own craft and nothing else will turn out to be a very superficial artist.
There are neither good nor evil; only the existence and action.
You cannot be firmly certain about anything. You can only have enough courage and strength to do what you consider to be right. Maybe it turns out that was wrong, but still you would have done this, and it is most important.
Being mad is even pleasant. But only a madman understand that.
A person may paint or talk about painting but he cannot do both at the same time.
१०/११/२२
जीवन एक प्रसार , एक वृद्धि और एक प्रगति है। xxx वास्तव में वृद्धि का तात्पर्य है समय और स्थान में सब तरफ़ फैलना; और प्रगति का तात्पर्य है सब दिशाओं में समान गति; पीछे भी और आगे भी, और नीचे तथा दाएँ बाएँ और ऊपर भी। अतएव चरम वृद्धि है स्थान से परे फैल जाना और चरम प्रगति है समय की सीमा से आगे निकल जाना। समय स्थान की शिलाओं पर अंकित की हुयी ब्रह्मांड की स्मृति है। प्रसार के लिए सब मनुष्यों को समान भोजन मिलता है, पर उनका खाने और पचाने का सामर्थ्य समान नहीं होता, क्योंकि वे एक ही अंडाणु से एक ही समय और स्थान पर नहीं निकले हैं। समय-स्थान में उनके प्रसार में अंतर होने से कोई दो मनुष्य हूबहू एक जैसे नहीं मिलते। पृष्ठ २३५-२३७ किताबे मीरदाद से
विवाद से बचो। सत्य स्वयं प्रमाणित है, जिसे तर्क और प्रमाण के सहारे की आवश्यकता होती है उसे देर सबेर तर्क और प्रमाण के सहारे ही गिरा दिया जाता है।
वह प्रेम प्रेम नहीं जो प्रेमी को अपने अधीन कर लेता है!
वह प्रेम प्रेम नहीं जो रक्त और मांस पर पलता है।
वह प्रेम प्रेम नहीं जो स्त्री और पुरुष को शारीरिक बंधन में रखे।
आत्मविजेता हर रक्त के साथ अपने रक्त का संबंध महसूस करता है। इसलिए वह किसी के साथ बंधा नहीं होता।
हवा में छोड़ा तुम्हारा श्वास निश्चय ही किसी के फेफड़ों में प्रवेश करेगा। मत पूछो कि फेफड़े किसके हैं। केवल इतना ध्यान रखो की तुम्हारा श्वास पवित्र हो।
१२/११/२२
किसी भी परिश्रम के लिए पुरस्कार मत माँगो। जो अपने परिश्रम से प्यार करता है, उसका परिश्रम स्वयं पर्याप्त पुरस्कार है।
जो तुम्हारे पास आ जाता है वह तुम्हारा है। जो आने में विलम्ब करता हैवह इस योग्य नहीं कि उसकी प्रतीक्षा की जाए। प्रतीक्षा उसे करनव दो।
कभी किसी चीज़ की शिकायत न करो। किसी चीज़ की शिकायत करना उसे अपने लिए अभिशप्त बना लेना है। उसे भली प्रकार सहन कर लेना उसे उचित दंड देना है। किंतु उसे समझ लेना एक सच्चा सेवक बना लेना है।
तुम उसी को वश में रखते हो, जिससे तुम प्रेम करते हो, जिससे घृणा करते उसके तो वास में होते हो।
जो मर रहे हैं उन्हें जीवन का उपदाह दो, जो जी रहे हैं उन्हें मरने का उपदेश दो किंतु जो आत्मविजय के लिए तड़प रहे हैं उन्हें दोनों से मुक्ति का उपदेश दो।
अच्छा मार्गदर्शक बनने के लिए आवश्यक है कि स्वयं अच्छा मार्गदर्शन पाया हो। अपने मार्गदर्शक पर विश्वास रखो।
मशाल को ऊँचे स्थान पर रखो, उसे देखने के लिए लीगों को बुलाते न फिरो।
किसी मनुष्य से घृणा न करो। एक भी मनुष्य से घृणा करने की अपेक्षा प्रत्येक मनुष्य से घृणा पाना कहीं अच्छा है।
प्रभु की खोज में लगे हृदय को सभी रास्ते प्रभु की ओर ले जाते हैं।
जीवन के सब रूपों के प्रति आदर भाव रखो।
ग़रीबी या अमीरी नाम की कोई चीज़ नहीं। बात वस्तुओं के उपयोग करने के कौशल की है।
सबसे अधिक असह्य परेशानी है किसी बात को परेशानी समझना।
अपनी पसंद का चुनाव कर लो, हर वस्तु का स्वामी बनना या किसी का भी नहीं, बच का कोई मार्ग संभव नहीं।
रास्ते का हर रोड़ा एक चेतावनी है, उसे अच्छी तरह पढ़ लेने पर वह प्रकाश स्तंभ बन जाएगा।
शब्द जहाज़ हैं जो स्थान के समुद्रों में चलते हैं और अनेक बंदरगाहों पर रुकते हैं। सावधान रहो की तुम उन्मे क्या लादते हो, क्योंकि अपनी यात्रा समाप्त करने के बाद वे अपना माल आख़िर तुम्हारे ही द्वार पर उतारेंगे।
शब्द अधिक से अधिक बिजली की कौंध हैं जो क्षितिजों की झलक दिखाती है, ye उन क्षितिजों तक पहुँचने का मार्ग नहीं हैं, स्वयं क्षितिज तो बिल्कुल नहीं।
अगर कौंध की दिशा में बढ़ चले तो शब्द कमज़ोर बुद्धि वाले के लिए बलशाली पंख भर हैं।
जबतक तुम समय के खोल को बेध नहीं देते और स्थान की सीमा को लांघ नहीं तब तक कोई यह न कहे मैं प्रभु हूँ। बल्कि सब कहें प्रभि ही मैं हैं।
समय द्वारा ही समय के विरुद्ध लदो। स्थान को ही स्थान का आहार बनने दो। दोनों में से एक का भी स्वागत करना दोनों का बंद होना तथा नेकी और बदी की अंतहीन हास्यजनक चेष्टाओं का बंधक बने रहना है।
एक व्यक्ति स्वर्ण की शुद्धता और सुंदरता को देखने का आनंद लेता है और तृप्त हो जाता है जब की दूसरा स्वर्ण का स्वामी होने का रस लेता है और सदा भूखा रहता है।
परमात्मा के सृजन की तुलना में मनुष्य का सृजन ऐसा ही है जैसे किसी महान वास्तुकार द्वारा निर्मित एक भव्य मंदिर या सुंदर दुर्ग की तुलना में एक बच्चे द्वारा बनाया गया ताश के पत्तों का घर। किंतु है तो वह फिर भी सृजन ही।
जीवन निरंतर अंडाणु में से निकल रहा और वापस अंडाणु में विलीन हो रहा है। सृष्टि की प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक माँ अंडाणु का खोल टूट नहीं जाता और लघु परमात्मा विराट परमात्मा होकर बाहर नहीं निकल आता।
जैसे धरती को वायु लपेटे हुए है, ऐसे ही इस अंडाणु को विकसित परमात्मा लपेटे हुए है। ब्रह्मांड में जो भी पदार्थ और जीव हैं, वे सब उसी लघु परमात्मा को लपेटे हुए समय-स्थान के अंडाणुओं से अधिक और कुछ नहीं, परंतु सबमें लघु परमात्मा प्रसार की भिन्न भिन्न अवस्थाओं में है।
अन्याय को अकेला छोड़ दो, वह स्वयं ही अपने आपको मिटा देगा।
क्या गधे को हांकने वाला उसकी दुम के पीछे पीछे नहीं चलता? क्या जेलर क़ैदियों से नहीं बंधा होता।
एक तुच्छ मच्छर भी कुशल योद्धा को पछाड़ देता है।
मनुष्य ने प्रभु के विधान का उल्लंघन करके पाप नहीं किया , बल्कि पाप किया है उस विधान के प्रति अपने अज्ञान पर पर्दा डालकर।
द्वैत कोई दंड नहीं है, बल्कि एकत्व की प्रकृति में निहित एक प्रक्रिया है, उसकी दिव्यता के प्रकट होने का एक आवश्यक साधन।
विश्वास से रहित ज्ञानेंद्रियाँ अत्यंत अविश्वसनीय मार्गदर्शक हैं।
तनाव का अर्थ है आप कुछ और होना चाहते हैं जोकि आप नहीं हैं।
१३/११/२२
अपना पेट भरने और विस्तार करने के प्रकृति के ढंग को हम युद्ध नहीं कह सकते। प्रकृति में कौन बलवान है और कौन दुर्बल। केवल प्रकृति हाई बलवान है। अन्य सभी जीव प्रकृति की इच्छा का पालन करते हैं।
केवल मृत्यु से मुक्त जीवों को बलवान का दर्जा दिया जा सकता है। प्रकृति से अधिक शक्तिशाली मनुष्य है, क्योंकि वह समृद्ध प्रकृति का अभाव पूर्ति के लिए शोषण करता है। और संतानों के माध्यम से इसलिए विस्तार करता है कि अपने आपको ऐसे विस्तार से ऊपर उठा सके।
अज्ञानी हृदय द्वैतपूर्ण होता है, ज्ञानवान हृदय एकतापूर्ण होता है।
मनुष्य का मान तो केवल मनुष्य बने रहने में है। मनुष्य जो जीता जागता प्रभु का प्रतिबिंब और प्रतिरूप है। बाक़ी सब मान तो अपमान ही है।
युद्ध करो उन सब वस्तुओं से जो तुम्हें और तुम्हारे पड़ोसी को आपस में लड़ाती हैं।
ख़ूबी तो है उनके साथ शांतिपूर्वक जीने में जो ज़िंदा हैं।
लोगों के होंठों पर प्रसिद्धि अंकित करना वैसा ही है जैसे समुद्र तट की रेत पर नाम अंकित करना। ओंठों पर उसे एक छींक ही उड़ा देगी।
मनुष्य अपनी सम्पत्ति से उतना हाई बंधा हुआ है जितना अपने जीवन से।
जो बलपूर्वक थोपा जाता है उसे देर सेबर बलपूर्वक हटा भी दिया जाता है।
क्या सदा नहीं होता आया कि दुर्बल अपनी दुर्बलता के लिए संगठित हो जाते हैं।
दिव्य ज्ञान स्वयं अपनी ढाल है, उसकी शक्तिशाली भुजा प्रेम है। यह किसी को सताता नहीं, यह तो हृदयों पर ओस की तरह गिरता है और जो इसे स्वीकार नहीं करते उन्हें भी पान करने वालों की तरह राहत देता है। क्योंकि इसे अपनी आंतरिक शक्ति पर बहुत गहरा विश्वास है।
किसी भी सत्ता का रत्ती भर मूल्य नहीं है।
सत्य का बीज प्रत्येक मनुष्य aur वस्तु के अंदर मौजूद है, उसे बोने की नहीं अंकुरित होने के लिए अनुकूल ऋतु तैयार करने की ज़रूरत है।
मेरी अनुपम माँ। जिस प्रकार तूने अपना हृदय मेरे सामने फैला रखा है ताकि जो चाहिए ले लूँ, उसी प्रकार मेरा हृदय तेरे सम्मुख प्रस्तुत है कि जो चाहिए ले ले।
धरती के हृदय से इस प्रकार की भावना प्रेरित होने पर इस बात का कोई महत्व नहीं रह जाता कि तुम क्या खाते हो।
यह सच है की जीवों का मारना निश्चित है फिर भी धिक्कार है उसे जो किसी जीव की मृत्यु का कारण बनता है।
प्रभु इच्छा किसी मनुष्य या पशु को मारने का काम नहीं सौंपती, जब तक कि उस मौत के लिए साधन के रूप में उसका उपयोग करना आवश्यक न समझती हो।
धरती का पोषण धरती को ही करना है, वह कोई कंजूस गृहिणी नहीं।
जो व्यक्ति वस्तुओं के पोर पोर का आनंद लेता है, वह उसके मालिक से अधिक धनी है।
बच्चों की तुलना में बूढ़े सहानुभूति के अधिक अधिकारी होते हैं।
महत्व शब्द की उस भावना का होता है, जो उसके भीतर गूंजती है, पशु भी उससे प्रभावित होते हैं।
अपनी इच्छा शक्ति से तुम बहुत कुछ कर सकते हो, पर उस इच्छा शक्ति का अंत नहीं कर सकते, जो जीवन की इच्छा है, प्रभु की इच्छा है। जीवन या अस्तित्व अपनी इच्छा शक्ति से अस्तित्वहीन नहीं हो सकता न ही अस्तित्वहीन की कोई इच्छा हो सकती है।
प्रेम ही प्रभु का विधान है।
तुम जीते हो ताकि तुम प्रेम करना सीख लो।
तुम प्रेम करते हो ताकि तुम जीना सीख लो।
मनुष्य को और कुछ सीखने की आवश्यकता नहीं।
और प्रेम करना क्या है, सिवाय इसके कि प्रेमी प्रियतम को
सदा के लिए अपने अंदर लीन कर ले
ताकि दोनों एक हो जाएँ। मीरदाद।
भाग्य प्रभु इच्छा का ही दूसरा नाम है।
समय और स्थान के अंदर कोई आकस्मिक घटना नहीं होती।
हर पदार्थ में मनुष्य की इच्छा शामिल है और मनुष्य में शामिल है हर पदार्थ की इच्छा।
समय स्थान की शिलाओं पर अंकित की हुयी ब्रह्मांड की स्मृति है।
तुलना आनंद की चोर है।
केवल प्रेम ही मोह से मुक्ति है। तुम जब हर वस्तु से प्रेम करते हो, तुम्हारा किसी भी वस्तु से मोह नहीं रह जाता।
प्रेम ही समय और स्थान के अस्तित्व को मिटा पता है।
समय का नियम पुनरावृत्ति है।
सब वस्तुएँ मनुष्य में समायी हुयी हैं और मनुष्य सब वस्तुओं में। यह ब्रह्मांड केवल एक ही पिंड है। इसके सूक्ष्म से सूक्ष्म कण के साथ सम्पर्क कर लो और तुम्हारा सभी के साथ संपर्क हो जाएगा।
यह शरीर समय और स्थान में विद्यमान हर पदार्थ में से लिया जाता है। जो अंश जिसका है उसी में वह जीता है।
समय में कोई वस्तु इस योग्य नहीं कि उसके लिए आँसू बहाए जाएँ।
तर्क का एकमात्र उपयोग मनुष्य को तर्क से छुटकारा दिलाना और उसको विश्वास की ओर प्रेरित करना है जो दिव्य ज्ञान की ओर ले जाता है।
तर्क अपाहिजों के लिए वैसाखी है तेज पैर वालों के लिए एक बोझ है और पंख वालों के लिए तो और भी बड़ा बोझ।
तर्क सठिया गया विश्वास है और विश्वास वयस्क हो गया तर्क है।
अधिकांश लोग मरने के लिए जीते हैं। भाग्यशाली हैं वे जो जीने के लिए मारते हैं।
मनुष्य परिवर्तन से इतना ऊब जाएगा कि उसका पूरा अस्तित्व परिवर्तन से अधिक शक्तिशाली वस्तु के लिए तरसेगा। कभी मंद न पड़ने वाली तीव्रता ke साथ तरसेगा। और निश्चय ही वह उसे अपने अंदर प्राप्त करेगा।
समय का पहिया घूमता है पर इसकी धुरी सदा स्थिर है।
गोलाई में हो रही गति कभी किसी अंत पर नहीं पहुँच सकती, न वह कभी ख़त्म होकर रुक सकती है। संसार में हो रही प्रत्येक गति गोलाई में हो रही गति है।
समय का पहिया स्थान के शून्य में घूमता है। जो वस्तु एक के लिए समय और स्थान के एक बिंदु पर लुप्त होती हैं, वह दूसरे के लिए किसी दूसरे बिंदु पर प्रकट हो जाती हैं। सब ऋतुएँ समय और स्थान के प्रत्येक बिंदु पर एक ही हैं।
समय सबसे बड़ा मदारी है और मनुष्य धोखे का सबसे बड़ा शिकार।
क्या तुम निरंतर क्षीण होकर ही विकसित नहीं हो रहे हो? kya तुम निरंतर विकसित होकर हि क्षीण नहीं हो रहे हो।
धीमे और और वेगवान को समय और स्थान के किसी भी बिंदु पर एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। धीमा ही वेग वान को जन्म देता है। वेगवान धीमे का वाहक है।
समय में कुछ भी समाप्त और विसर्जित नहीं होता। कुछ भी आरंभ तथा पूर्ण नहीं होता।
समय इंद्रियों के द्वारा रचित एक चक्र है और इंद्रियों के द्वारा ही उसे स्थान के शून्यों में घुमा दिया जाता है। ऋतुओं को प्रकट और विलीन करने वाली शक्ति एक रहती है, सदैव वही रहती है। शक्ति न विकसित होती है न क्षीण।
कम खर्ची और परिश्रम ke लिए धन सम्पत्ति परमात्मा का उचित पुरस्कार है।
लेनदार का ऋण देनदार के ऋण से अधिक बड़ा और भारी होता है।
उधार देने के लिए तुम्हारे पास है क्या? क्या यह संसार एक संयुक्त कोष नहीं।
संसार तुम्हें अपना नहीं सकता, क्योंकि वह तुम्हें नहीं जानता। परंतु तुम संसार को अपना सकते हो, क्योंकि तुम संसार को जानते हो।
धरती हर मनुष्य और पशु की गंदगी स्वीकार कर लेती है और बदले में उन्हें मीठे फल, सुगंधित फूल, प्रचुर अनाज और घास सब देती है। नाले की गंदगी समुद्र तह में बिछाकर उसे स्वच्छ कर देता है।
अपने पड़ोसी की आँखों की ज्योति को सम्भालकर रखो ताकि तुम अधिक स्पष्ट देख सको। अपनी दृष्टि सम्भालकर रखो ताकि तुम्हारा पड़ोसी ठोकर न खा जाए और कहीं तुम्हारे द्वार को ही न रोक ले।
मनुष्य प्रभु का शब्द है।
प्रभु मनुष्य का शब्द है।
धन्य है वह जिसका शब्द मनुष्य है।
धन्य है वह जिसका शब्द प्रभु है।
जो कोई अपने हृदय में मंदिर को नहीं पा सकता, वह किसी भी मंदिर में अपने हृदय को नहीं पा सकता। शब्द व्यर्थ हैं यदि प्रत्येक अक्षर में हृदय अपनी पूर्ण जागरूकता के साथ उपस्थित न हो। कोई वचन कर्म कोई इच्छा या निश्वास, कोई क्षणिक विचार या अस्थायी सपना, मनुष्य या पशु का कोई श्वास, कोई परछाई, कोई भ्रम, इनमे से किसी एक ke साथ भी तुम अपने हृदय का सुर मिला लो, निश्चय ही वह उसके तारों पर धुन बजाने ke लिए तेजी से दौड़ा आएगा।
जहां भूख है वहाँ भोजन है। जहां भोजन है, वहाँ भूख भी अवश्य होगी। भूख की पीड़ा से व्यथित होना तृप्त होने का आनंद लेने की सामर्थ्य रखना है। आवश्यकता में ही आवश्यकता की पूर्ति है।
डींग मारती नेकी से ख़बरदार रही। जैसे अपनी शर्मिंदगी का मुँह बैंड रखते हो, वैसे ही अपने सम्मान का मुँह भी बंद रखो। डींग मारता सम्मान मूक कलंक से भी बदतर है, शोर मचाती नेकी गूँगी बदी से बदतर है।
कितना कठिन है वह शब्द बोलना जिसे बोलना सचमुच आवश्यक है। बोले गए हज़ार शब्दों में से शायद एक केवल एक ऐसा हो जिसे बोलना सचमुच आवश्यक है।
लिखे गए हज़ार शब्दों में से शायद एक, केवल एक ऐसा हो जिसे लिखना सचमुच आवश्यक है।
ऐसा मौन हो जिसमें अनस्तित्व अस्तित्व में और अस्तित्व अनस्तित्व में बदल जाए।
जब तुम्हारा मैं और मेरा मैं एक हो जाएँगे जैसे प्रभु ka मैं और मेरा मैं एक है, हम शब्दों को अलग कर देंगे और सच्चाई भरे मौन में खुलकर दिल की बात करेंगे।
मुख से कही गयी बात अधिक से अधिक एक निष्कपट झूठ है, जबकि मौन कम से कम एक नग्न सत्य है।
जिस किसी ने भी मौन की अजेय शांति का अनुभव किया है, उसे न कभी नाराज़ किया जा सकता है, न वह कभी किसी को नाराज़ कर सकता है।
प्रेम एक क्रियाशील शक्ति है।
जब प्रेम तुम्हारी दृष्टि को निर्मल कर देगा, तब कोई भी वस्तु तुम्हें प्रेम के अयोग्य दिखाई नहीं देगी।
प्रेम को उसी सरलता और स्वतंत्रता के साथ स्वीकार करो जिस सरलता और स्वतंत्रता से तुम साँस लेते हो।
प्रेम ही प्रेम का पर्याप्त पुरस्कार है जैसे घृणा ही घृणा का पर्याप्त दंड है। इसका लेना ही देना है और देना ही लेना है।
आत्म प्रेम के अतिरिक्त कोई प्रेम संभव नहीं। अपने अंदर सबको समा लेने वाले अहं के अतिरिक्त कोई अहं वास्तविक नहीं है।
जब तक प्रेम तुम्हें पीड़ा देता है, तुम्हें अपना वास्तविक अहं नहीं मिला है।
जब तक तुम एक भी मनुष्य को शत्रु मानते हो, तुम्हारा कोई मित्र नहीं।
जब तक तुम्हारे हृदय में घृणा है, तुम प्रेम के आनंद से अपरिचित हो।
प्रेम ही प्रभु का विधान है।
१४/११/२२
दृश्य में वह सब है जो दिख रहा है या दिख सकता है, अदृश्य में वह जो दिखता नहीं, पर दिख सकता है. दोनों में दिख सकना सामान्य है, पर इस दिख सकने में न दिख पाना भी शामिल है, जिसे कहा नहीं जा सका।
१५/११/२२
सब मृतक जीने वालों में जी रहे हैं।
यदि तुम बोझ को हल्का रखना चाहते हो तो किसी के विषय में फ़ैसला करने न बैठो। बोझ उतर जाए, इसके लिए शब्द में डूबकर सदा ले लिए उसमें खो जाओ।
जीवन अंतर में सिमटना है मृत्यु बाहर बिखरना। जीवन जुड़ना है मृत्यु टूट जाना। मनुष्य सिमटेगा अवश्य पर बिखरकर ही। जुड़ेगा अवश्य, पर टूटकर।
प्रभु और मनुष्य अलग अलग नहीं हैं। केवल हैं प्रभु मनुष्य या मनुष्य प्रभु । वह सदा एक है।
इस तरह इच्छा करो की तुम स्वयं इच्छा हो।
इस तरह सोचो मानो तुम्हारे हर विचार को को आकाश में आग से अंकित होना है ताकि उसे हर प्राणी और पदार्थ देख सके।
इस तरह बोलो मानो सर संसार केवल एक ही कान है जो तुम्हारी बात सुनने के लिए उत्सुक है।
इस तरह कर्म करो मानो तुम्हारे हर कर्म को palatkar तुम्हारे सिर पर आना है।
इस तरह जीयो मानो स्वयं प्रभु को अपना जीवन जीने के लिए तुम्हारी आवश्यकता है।
किसी भी वस्तु को ढकने का प्रयत्न न करो। और कुछ नहीं तो उनका आवरण ही उन्हें प्रकट कर देगा। क्या ढक्कन नहीं जानता वर्तन के अंदर क्या है?
तुम्हारे अंदर से एक भी ऐसा श्वास नहीं निकलता जो तुम्हारे हृदय के गहरे से गहरे रहस्यों वायु में में बिखेर नहीं देता।
यदि स्वयं अंधकार पर से आवरण हटा दिए जाएँ तो वह किसी वस्तु के लिए आवरण कैसे हो सकता है?
किसी भी वस्तु का मोल न लगाओ, साधारण वस्तु भी अनमोल होती है। क्या रोटी बिना सूर्य धरती वायु सागर तथा मनुष्य के पसीने और चतुरता के बिना बन सकती है?
भूखे के लिए भूख केवल भूख है, परंतु तृप्त के लिए कुछ देने का एक शुभ अवसर। भूखों की खोज करो उनकी भूख तुम्हारी तृप्ति है।
यदि तुम मुझे अच्छी तरह जानना चाहते हो तो तुम पहले स्वयं को अच्छी तरह जान लो।
जब मैं मनुष्यों के साथ होता हूँ तो परमात्मा हूँ। जब परमात्मा के साथ तो मनुष्य।
परमात्मा एक है पर मनुष्य की परछाइयाँ अनेक और भिन्न भिन्न हैं। जब तक मनुष्यों की परछाइयाँ धरती पर पड़ती हैं तब तक किसी मनुष्य का परमात्मा उसकी परछाईं से बड़ा नहीं हो सकता। केवल परछाईं रहित मनुष्य ही पूरी तरह से प्रकाश में है।
सेवक स्वामी का स्वामी है और और स्वामी सेवक का सेवक। सेवक को अपना सिर न झुकाने दो। स्वामी को अपना सिर न उठने दो। मस्तक पेट का स्वामी हैपरंतु पेट भी मस्तक का कम स्वामी नहीं है। कोई भी चीज सेवा नहीं कर सकती जब तक सेवा करने में उसकी अपनी सेवा न होती हो। aur कोई भी चीज सेवा नहीं करवा सकती जब तक उस सेवा से सेवा करने वाले की सेवा न होती हो। अपना कार्य करते हुए संसार तुम्हारा भी कार्य करता है। और अपना कार्य करते हुए तुम संसार का कार्य करते हो।
शब्द एक है और उस शब्द के अक्षर होते हुए तुम भी वास्तव में एक ही हो। कोई भी अलशर किसी अन्य अलशर से श्रेष्ठ नहीं, न ही किसी अन्य अक्षर से अधिक आवश्यक है। अनेक अक्षर एक ही अक्षर हैं, यहाँ तक कि शब्द भी।
तुम चाहो तो mujhe अस्वीकार कर दो परंतु मैं तुम्हें अस्वीकार नहीं कर सकता। मेरे शरीर का मांस तुम्हारे शरीर के मांस से भिन्न नहीं है।
बुद्धिमानों के लिए सब कुछ बुद्धिमत्ता का भंडार है। बुद्धिहीनो के लिए बुद्धिमत्ता स्वयं एकि मूर्खता है।
मनुष्य एक बादल है जो प्रभु को अपने अंदर लिए हुए है। रिक्त न हुआ तो अपने आपको नहीं पा सकता। कितना आनंद है रिक्त हो जाने में। शब्द सागर है तुम बादल हो। बादल सागर के बिना क्या रह सकता है? मूर्ख है वह बादल जो अपने रूप और अस्तित्व को सदा बनाए रखने के उद्देश्य से आकाश में आधार में टंगे रहने के प्रयास में ही अपना जीवन नष्ट करना चाहता है। यदि वह बादल के रूप में मरकर लुप्त नहीं हो जाता तो अपने अंदर के सागर को नहीं पा सकता जो उसका एकमात्र अस्तित्व है।
यदि तुम अपने आपको सदा के लिए शब्द में खो नहीं देते, तो तुम उस शब्द को नहीं समझ सकते जो कि तुम स्वयं हो, जो कि तुम्हारा मैं ही है। कितना आनंद है खो जाने में।
यदि मुझमें प्रकाश न होता तो क्या तुम्हारी आँखें मुझे देख पाती? यह मेरा प्रकाश है जो तुम्हारी आँखों में मुझे देखता है। यह तुम्हारा प्रकाश है जो मेरी आँखों में तुम्हें देखता है।
मनुष्य को प्रभु से अलग नहीं किया जा सकता aur इसलिए केवल अपने साथी मनुष्यों से और अन्य प्राणियों से भी उसे अलग नहीं किया जा सकता क्योंकि वे भी शब्द से उत्पन्न हुए हैं। प्रभु ke शब्द में सब कुछ शामिल है। प्रभु का शब वह जीवन है जो जन्मा नही, इसीलिए अविनाशी है। क्या तुम केवल प्रभु के जीवन के सहारे जीवित नहीं हो?
pahle शब्द का ज्ञान प्राप्त करो जिससे तुम अपने ख़ुद के शब्द को जान सको। जब तुम अपने शब्द को जान लोगे तब अपनी चलनियों को अग्नि की भेंट कर दोगे। प्रभु के शब्द के लिए समय और स्थान का कोई अस्तित्व नहीं है।
प्रभु का शब्द एक कुठाली (CRUCIBLE) है जो कुछ वह रचता है उसको पिघलाकर एक कर देता है, न उसमें से किसी को अच्छा मानकर स्वीकार करता है, न ही बुरा मानकर ठुकराता है। उसकी रचना और वह स्वयं एक है। एक अंश को ठुकराना संपूर्ण को ठुकराना है, और संपूर्ण को ठुकराना अपने आपको ठुकराना है।
जबकि मनुष्य का शब्द एक चलनी (cribbles) है। रचता है और लड़ाई झगड़े में लगा देता है। शत्रु और मित्र मैं की रचना है।
सब कुछ पूरी तरह संतुलित होता है।
तुम्हारा शब्द अभी भी पर्दों में छिपा हुआ है।
मैं कहते हुए मनुष्य शब्द को दो भागों में चीर देता है।
माँ भली प्रकार जानती है कि पोतड़े शिशु नहीं है। परंतु बच्चा यह नहीं जानता। मनुष्य का शब्द जो उसकी चेतना की अभिव्यक्ति है, कभी भी अर्थ में स्पष्ट और निश्चित नहीं होता।
मैं कहते हुए मनुष्य शब्द को दो भागों में चीर देता है, एक उसके पोतड़े, दूसरा प्रभु का अमर अस्तित्व। पर अविभाज्य को कोई शक्ति विभाजित नहीं कर सकती।
प्रभु को मैं से अधिक बोलने की कोई आवश्यकता नहीं। इसलिए मैं उसका एकमात्र शब्द है।
चूँकि किसी शब्द का कोई अर्थ न हो तो वह शब्द शून्य में गूंजती केवल एक प्रतिध्वनि है। यदि इसका अर्थ सदा एक ही न हो तो यह गले का कैंसर और ज़बान पर पड़े छले से अधिक और कुछ नहीं।
चेतना, शब्द और दिव्य ज्ञान यह त्रिपुटी पावन है।
प्रत्येक शब्द होता है एक वस्तु का प्रतीक, प्रत्येक वस्तु होती है एक संसार का प्रतीक, प्रत्येक संसार होता होता है एक ब्रह्मांड का घटक अंग। यह ब्रह्मांड तुम्हारे मैं की रचना है जोनेक साथ स्रष्टा और सृष्टि दोनो है। जैसा सृष्टा वैसी रचना। सृष्टा केवल अपने आप को ही रचता है- न अधिक न कम।
तुम्हारी आँखें बहुत से पर्दों से ढकी हुयी हैं। हर वस्तु जिस पर तुम दृष्टि डालते हो, मात्र एक पर्दा है।
पदार्थों से उनके परदे उतार फेंकने के लिए मत कहो। अपने पर्दे उतार फेंको, पदार्थों के पर्दे स्वयं उतर जाएँगे।
शब्दों में सबसे तुच्छ और सबसे महान शब्द है मैं। यह सिरजनहार है।
शब्द - वे क्या अक्षरों और मात्राओं में बंद किए हुए पदार्थ नहीं हैं?
१७/११/२२
जीने के लिए मरना
और
मरने के लिए जीना
जान लेना
जान लेना।
फिर क्या मरना
और क्या जीना।
१८/११/२२
सोचना और करना होने से पृथक नहीं।
१९/११/२२
do your best and
leave the rest.
22/11/22
Shiva lingam is the holy symbol of union of Lord shiva and Shakti. The word is lingam is derived from two sanskrit words Laya(dissolution) and agaman (recreation). Thus the ling symbolizes both the creative and destructive power of the Lord and great sanctity is attached to it by the devotees.
२३/११/२२
साथ रहकर भी फासला रखना,
खुद को यूं दर्द से जुदा रखना!
जिसको पाने की आरज़ू हो तुम्हें,
उसको खोने का हौसला रखना! नीरज झा
त्रयोदशी क्या है....
सृष्टि के भीतर सृष्टि, स्थिति, संहार और तुरीय- ये चार अवस्थाएँ हैं. इसी प्रकार सृष्टि, स्थिति और संहार - इनमे भी प्रत्येक में ये चारों अवस्थाएँ रहती हैं. इस प्रकार सब मिलाकर बारह शक्ति या देवी के खेल दिखलाई पड़ते हैं. ये बारह शक्तियाँ जिस महाशक्ति से निकलती हैं तथा जिनमें लीन होती हैं उन्ही को त्रयोदशी कहते हैं. वस्तुतः यह त्रयोदशी सबमें अनुस्यूत तुरीय के साथ सम्मिलित भासा के सिवा और कुछ नहीं है.
आलेख - 'तांत्रिक पूजा का परम आदर्श'
महमहोपाध्याय गोपीनाथ कविराज
२४/११/२२
बचने या भूलने के लिए याद रखना ज़रूरी है।
२५/११/२२
सत्य एक चुंबक है। सत्य को जी जाएँ, बन जाएँ और निश्चिंत रहें। बस!
आध्यात्मिक अनुशासन ही मनुष्य का वास्तविक कार्य है।
जब भी बोलिए वक़्त पर बोलिए
मुद्दतों सोचिए मुख़्तसर बोलिए
२६/११/२२
उतना ही कहो जितना तुमने स्वयं के अनुभवों से जाना हो, उनसे ही कहो जिसने तुम्हें पूछा हो और उतना ही
कहो जितना पूछा है।
२७/११/२२
किसी का नकार आत्म साक्षात्कार के लिए उचित नहीं। इसी तरह किसी का स्वीकार भी ग्राह्य नहीं। संपूर्ण का नकार या संपूर्ण का स्वीकार ही वरेण्य है। संपूर्ण का नकार उसका स्वीकार है और संपूर्ण का स्वीकार उसका नकार भी है। इस स्थिति में नकार और स्वीकार विरोधी या विपरीतार्थी नहीं हैं, वरन वे परस्पर सहगामी और पूरक हैं। एक साँस का छोर परस्पर विरोधी कैसे हो सकती है। साँस शुरू होती है तभी उसका अंत होता है और अंत होता है तभी उसका प्रारंभ होता है। अंत और प्रारंभ का जब लय होता है तब यह तय नहीं किया ja सकता कि कब अंत हुआ और कब प्रारंभ। यहाँ न काल रहता है, न ही देश भी, क्योंकि लय हुयी साँस के लिए kya देह और क्या देही। वह देह ke बाहर लय हो सकती है देह ke भीतर भी। लय hone par देह का पर्दा नहीं रह जाता।
जल वॉटर है, पर जलाना एक क्रिया है जिसका प्रत्यक्ष रूप में जल से कोई संबंध नहीं है। जलाप्लावन से अग्निधर्म उत्पन्न हो जाता है। अग्नि का कार्य है वस्तु का रूप परिवर्तन। जल से नए रूप तब बनते हैं जब उनका अग्नि संस्कार हो जाता है। इसमें कौन किसका विरोधी या विपरीतार्थी है!
देश कंट्री का हिंदी अनुवाद है, पर वास्तव में देश स्पेस है। इसकी कोई विभाजक रेखा नहीं है। कंट्री विभाजित भूखंडों का नाम है, देश समूची आकाशी इयत्ता को कहते हैं।
दक्षिणपंथी वे हैं जो वामपंथी नहीं हैं। दक्षिणपंथी त्याग को आदर्श मानते हैं, पर देखा जाता है वे त्याग का अभिमान भी रखते हैं। सात्विक क्षेत्र में रहते हैं पर उसके अहंकार से मुक्त नहीं हो पाते। त्याग का अहंकार संग्रह के त्याग से भिन्न नहीं।
वामपंथी (कम्युनिस्टों से आशय नहीं) वे हैं जो दक्षिणपंथी नहीं हैं। वामपंथी प्रकृति के रहस्य से परिचित देखे जाते हैं। पर वे प्रकृति की नियामिका शक्ति या शिव तत्व में विश्वास नहीं रखते, इसलिए उन्मादी होने के निकट होते हैं।
इस प्रकार परम तत्व से यह दोनों दूर रह जाते हैं। परंतु जो परम तत्व को उपलब्ध हो जाता है वह दक्षिणपंथ और वामपंथ दोनों से ऊपर उठ जाता है। उसे दोनों की सीमाए ज्ञात हो जाती हैं। इस प्रकार के व्यक्ति ही हमारे आदर्श होने चाहिए।
दो शरीरों का संभोग काम या सेक्स, दो मनों का संभोग प्रेम तो दो आत्माओं का संभोग आनंद कहलाता है।
पृथ्वी को होने की क्रिया घटित होने के कारण भू कहा जाता है। भव से भू बनता है, यही भव अनुभव में है। बिना क्रिया पद के वाक्य भी नहीं बनता। क्रिया पद का होना हर भाषा में अवश्यंभावी है। अगर इस क्रिया पद की ध्वनियों का सूक्ष्म निरीक्षण करेंगे तो पाएँगे कि हर भाषा की क्रिया पद की ध्वनि एक ही है।
समुच्छलन्त्यै जगदात्मिकायै ,
शान्तस्वरूपाय सदाशिवाय ।
सते भवन्त्यै , भवते च सत्यै ,
नम: शिवायै च नम: शिवाय ।।
२९/११/२२
क्रोध अहंकार का प्रकटीकरण है।
भो सिरी पाली में भगवान बुद्ध द्वारा बार बार नासमझी रखने वाले लोगों को दिया गया संबोधन है।
Monday, October 31, 2022
अक्टूबर 2022
२/१०/२२
लश्कर-ए-गांधी को हथियारों की कुछ हाजत नहीं, हां मगर बेइंतिहा सब्र-ओ-कनाअत चाहिए
गुरु कहे सो कीजिए करे सो कीजिए नाहि
४/१०/२२
मेधा ऋषि राजा सुरथ और समाधि नामक वैश्य को भगवती की महिमा बताते हुए मधु कैटभ वध का प्रसंग सुनाते हैं। देवी भगवती महिषासुर की सेना और उसका वध करती हैं। फिर भगवती घोषणा करती है- जो मुझे संग्राम में जीत लेगा, मेरा दर्प दूर करेगा, मेरे समान बलवान होगा, वही मेरा भर्त्ता होगा। अतः शुम्भ या निशुम्भ कोई भी आकर मुझे जीतकर पाणिग्रहण कर ले”-
“यो मां जयति संग्रामे यो मे दर्प व्यपोहति।
यो मे प्रतिबलो लोके स मे भर्त्ता भविष्यति।।
इसके बाद भगवती शुंभ निशुंभ के सेनानी धूम्रलोचन, चंड और मुंड, रक्तबीज, निशुंभ एवं शुंभ आदि असुरों का संहार करती हैं।
इसका सीधा अर्थ है कि मनुष्य के विकार रूप बड़े - बड़े असुर भी सूर्य, चंद्र और अग्नि नेत्र रूपा भगवती को परास्त नहीं कर सकते। मां के साथ सहचर हुआ जा सकता है बस, शिव बनकर।
कथा के अनुसार देवी के वरदान से यह सुरथ (यानि अच्छे रथ पर सवार) क्षत्रिय ही सावर्णि (यानि स (उस) वर्ण के) मनु हुए।
नवरात्रोपासना के उपरांत जब दस रथ की सवारी करके अर्थात् दशद्वार से उत्पन्न राम की चेतना मनुष्य में जाग्रत होती है तभी रावण जैसे महा असुर का संहार होता है।
मधु का अर्थ राग, कैटभ का अर्थ द्वेष है। रक्तबीज हमारी नकारात्मकता और वासनाएँ है। महिषासुर का अर्थ जड़ता है। शुंभ का अर्थ है स्वयं पर संशय जबकि निशुंभ का अर्थ है सब पर संशय।
नवरात्र के नौ दिनों में तीन तीन दिन तीन गुणों के अनुरूप हैं। हमारी चेतना तामस और रजस के बीच बहते हुए अंत के तीन दिनों में सत्व गुण में प्रस्फुटित होती है। सत्व गुण बढ़ने पर ही विजय की प्राप्ति होती है।
इनमे से किसी पात्र को इतिहास और जाति में मत खोजिए। यह सब हर मनुष्य के भीतर उपस्थित अंतर्द्वंद्व हैं. वैश्य उदर चेतना तो क्षत्रिय कर्म चेतना को अभिव्यक्त करने वाले वर्ग हैं।
आप सबको नवरात्र की हार्दिक शुभकामनाएँ...
मंत्राणां मातृका देवी शब्दानां ज्ञानरूपिणी ।
ज्ञानानां चिन्मयातीता शून्यानां शून्यसाक्षिणी ।
यस्याः परतरं नास्ति सैषा दुर्गा प्रकीर्तिता ॥
६/१०/२२
बद्धो हि को यो विषयानुरागी
को वा दरिद्रो हि विशालतृष्णः
श्रीमांश्च को यस्य समस्ततोषः।
विद्या हि का या ब्रह्मगतिप्रदा या
बोधो हि को यस्तु विमुक्तिहेतुः ।
को लाभ आत्मावगमो हि यो वै
जितं जगत्केन मनो हि येन । ११ ।
विषाद्विषम् किं विषयाः समस्ता
दुःखी सदा को विषयानुरागी।
धन्योस्ति को यो परोपकारी
कः पूजनीयः शिवतत्वनिष्ठः। १३ ।
संसारमूलं हि किमस्ति चिंता।
लघुत्वमूलं च किमर्थितैव
गुरुत्वमूलं यदयाचनं च ।
जातो हि को यस्य पुनर्न जन्म
को वा मृतो यस्य पुनर्न मृत्युः । १८ ।
विद्युच्चलं हि धन यौवनायु
१४/१०/२२
हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् |
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम | यजु. १३/४
Hiranyagarbha was the only one at the beginning of the Universe who was the guardian of everything. He/it used to hold the earth and space, let us worship that Deity by offering Havi.
१९/१०/२२
यस्मिंसर्वः यतं सर्वः यत्सर्वः सर्वत:च यत |
ब्रह्म तस्मिनमहाभाग कीन संभाववत: ही || 36 ||
वह जिसमें सब वस्तुएँ निवास करती हैं, और जिससे सब कुछ उत्पन्न होता है; जो सब में है; और जो कहीं सब में हो, वही हो जिसे तुम सब कह सको, और जिसके अतिरिक्त कोई न हो।
एको भावः सर्वभावस्वभावः
सर्वे भावा एकभावस्वभावाः ।
एको भावस्तत्त्वतो येन दृष्टः
सर्वे भावास्तत्त्वतस्तेन दृष्टाः ॥
Eko bhāvaḥ, one Being (one Being, that is Śiva, Lord Śiva, Parabhairava) has become sarva bhāva svabhāva, He has become many; many, right from that insect to śānta kala.86 He has become so many. Sarve bhāvā eka bhāva svabhāvā, and all these are actually eka bhāva svabhāvā, actually this is only the drama of One, i.e., Parabhairava, bas. It is only eka bhāva (one Being). All are one. One are many; The One has become many.
२१/१०/२२
"तपस्वी, क्यों हो इतने क्लांत? वेदना का यह कैसा वेग?
आह! तुम कितने अधिक हताश, बताओ यह कैसा उद्वेग?
जिसे तुम समझे हो अभिशाप, जगत की ज्वालाओं का मूल।
ईश का वह रहस्य वरदान, कभी मत इसको जाओ भूल।
विषमता की पीडा से व्यक्त, हो रहा स्पंदित विश्व महान।
यही दुख-सुख विकास का सत्य, यही भूमा का मधुमय दान।
(कामायनी)
इंद्र - प्रकाश दाता, दैवीय मन
अग्नि - प्रकाशित इच्छा, डैवीय इच्छा शक्ति
सूर्य सावित्री- सर्जक और विकासक
भग सावित्री- आनंद भोक्ता
वायु- जीवनी ऊर्जा का नियामक
बृहस्पति- आत्मा की शक्ति
अश्विन- आनंद के देवता
रिभु- अमरत्व के कारीगर
विष्णु- सर्व व्यापक प्रधानदेव
सोम- आनंद और और अमरत्व के भगवान
वरुण- प्रेम की प्रकाशमान शक्ति. आत्मा को घेरे हुए चतुर्दिक सागर, उच्चतम स्वर्ग
मित्र- विचारों और कार्यों की एकता का देव
सूर्य- प्रकाश का संरक्षक
पूषन- विकासक
सावित्री- सर्जक
आर्यमन- पथ यात्री, डैवीय यज्ञों के द्वारा अमरता के आराधक, प्रकाश में चमकते शिशु, सत्योपासक, अंधकार से संघर्ष करने वाले, मानवता का पथ प्रशस्त करने वाले
भग- मनुष्य का दैवीय आनंद
गाय- ज्ञान रूप में चेतना, प्रकाश की प्रतीक, उषा काल का प्रकाश (आंतरिक प्रकाश)
अश्व- शक्ति रूप में चेतना
हिरण्य- उच्चतम प्रकाश, सुनहरा प्रकाश
अंगिरस ऋषि- - सत्य के पुत्र
उषा- गाय की माँ
दस्यु- स्वाभाविक शत्रु
Kaviraj ji has given a beautiful meaning of 'Hare Krishna '
Ha - Shiva
Ra - Shakti (Tripurasundari)
E - Yoni
K - Kama
Ru - Paramashakti (Ka + Ru = Kamakala)
Sa - Moon with 16 Kalas
Na - Nivritti or Ananda
All combined become Tripurasundari
🙏
२२/१०/२२
धन वह जो धन्य करे। इसकी इकाई का अन्य नाम मुद्रा है, जो मुदित करती है। वित्त भी इसका अपर नाम है, इससे प्रसार का बोध होता है। धन का अर्थ निरंकारी इस तरह करते हैं..
ध= कहते है धरती को,
न= कहते है नव को आकाश को।
न निवृत्ति या आनंद को कहा जाता है।
उनके यहाँ धन निरंकार एक अभिवादन है।
धनतेरस के दिन धन से धातु लायी जाती है, धातु जिसे हम धारण करते हैं, धातु पर ही शरीर अवलंबित है। धातु या धारण करने के कारण धनतेरस का दिन आयुर्वेद से जुड़ा है। आयु को भी हम धारित करते हैं, इसका परिज्ञान करना आयुर्वेद है। जन्म और मरण के बीच का कालखंड आयु है। आयु ही जन्म और मरण का बोध कराती है।
धनतेरस की आप सबको शुभकामनाएँ।
प्रसरद्विन्दुनादाय शुद्धामृतमयात्मने ।
नमोऽनन्तप्रकाशाय शंकरक्षीरसिन्धवे ॥३॥
prasaradbindunādāya śuddhāmṛtamayātmane /
namo’nantaprakāśāya śaṅkarakṣīrasindhave //3//
"He is the Light of all
Darkness, all Ignorance of
Light. All absence of Light
and Presence of Light Have
come out from that Light.
Swami Lakshmanjoo
I bow to that Śaṅkara,3 who is just like the ocean of milk, a milk ocean. I bow to that Śaṅkara who is just like a milk ocean, a vast milk ocean, and prasarat bindu nādāya, where there are flows, two-fold flows, of bindu and nāda.
Bindu is prakāśa and nāda is [vimarśa].4 Bindu is I-consciousness; nāda is to observe I-consciousness.5 Consciousness is bindu; “I am consciousness, I am God consciousness,” this is nāda.
For instance, this prakāśa of sūrya (sun), the prakāśa of the light of the moon, [the prakāśa of] the light of fire, it is bindu, but there is no nāda in it, there is no understanding power of that prakāśa. There is prakāśa in the sun, but [the sun] does not know that, “I am prakāśa.” He is just a [star].6 He does not understand that, “I am filled with this prakāśa.”
गुरुग्रंथ साहिब में कहा गया है
अव्वल अल्ला नूर उपाया, क़ुदरत के सब वंदे
First, God created the Light; then, by His
Creative Power, He made all mortal beings.
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावक: ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥
उस (आत्मज्योति)-को न सूर्य प्रकाशित करता है, न चन्द्रमा और न अग्नि। जिसको प्राप्त होकर फिर नहीं लौटते, वह मेरा परम धाम है।
All the lights of the world cannot be compared even to a ray of the inner light of the Self. Merge yourself in this light of lights and enjoy the supreme Deepavali. ….
भगवान् कृष्ण का एक नाम है 'सत्कृति'
भगवान् कृष्ण का एक नाम है 'सत्कृति'। सत्कृति का अर्थ है जो अपने भक्त के निर्याण (शरीर त्यागने के) समय में उसकी सहायता करते हैं। वराह पुराण में भगवान् हरि कहते हैं--
वातादि दोषेण मद्भक्तों मां न च स्मरेत्।
अहं स्मरामि मद्भक्तं नयामि परमां गतिम्।।
“यदि वातादि दोष के कारण मृत्यु के समय मेरा भक्त मेरा स्मरण नहीं कर पाता तो मैं उसका स्मरण कर उसे परम गति प्राप्त करवाता हूँ।“
🙏🙏
२४/१०/२२
अगर दिया जल गया तो सब पारदर्शी होकर दिखने लगता है। इस दिए के प्रकाश में देखने वाला दिखता है और दिखने वाला दृश्य भी दिखता है। फिर देखना कुछ शेष नहीं रह जाता है, दृष्टा में दृष्टि एकमेक हो जाती है। इसमें दीपक की मिट्टी, बाती और तेल बदलता रहता है। दीपक की मिट्टी से, तेल से, बाती से रोशनी दिखेगी और बने हुए तेल बाती युक्त दीपक से भी प्रकाश दर्शन होगा। फिर तो उस प्रकाश दर्शन में दीपक की मिट्टी, बाती और तेल कैसे बन रहे हैं, बदल रहे हैं, यह भी दिखेगा।
तो हमें अपने प्रकाश को जाग्रत करना है, जिससे हम दृष्टा होने का अपना मूल स्वरूप प्राप्त कर सकें। तमसो मा ज्योतिर्गमय।
यः प्रकाशः स सर्वस्य प्रकाशत्वं प्रयच्छति |
न च तद्व्यतिरेक्यस्ति विश्वं सद्वावभासते ||
That Prakāśa offers its luminosity to all. Apart from that Prakāśa, there is nothing in the world. Indeed, whatever is there in the world is the luminosity of the Prakāśh.
All the lights of the world cannot be compared even to a ray of the inner light of the Self. Merge yourself in this light of lights and enjoy the supreme Deepavali. ….
दीपावली की शुभकामनाएँ।
न निर्मिता केन न दृष्टपूर्वा न श्रूयते हेममयी कुरङ्गी । तथाऽपि तृष्णा रघुनन्दनस्य विनाशकाले विपरीतबुद्धिः॥
Shatavdhani | Samhita
भावार्थ :
सोने की हिरणी न तो किसी ने बनायी, न किसी ने इसे देखा और न यह सुनने में ही आता है कि हिरणी सोने का भी होती है । फिर भी रघुनन्दन की तृष्णा देखिये ! वास्तव में विनाश का समय आने पर बुद्धि विपरीत हो जाती है ।
२५/१०/२२
It is as if the earth meditated, the atmosphere meditated
It is as if the sky meditated, the water meditated
It is as if the mountains meditated”
Chandogya Upanishad
२६/१०/२२
कदा नवरसार्द्रार्द्र संभोगास्वादनोत्सुकं।
प्रवर्तेत विहान्यान्यन् मम त्वत्स्पर्शने मनः॥ शिवस्तोत्रावली
त्वदेकरक्तस्त्वत्पादपूजामात्र महाधनः।
कदा साक्षात्करिष्यामि भवंतमयमुत्सुकः॥
२८/१०/२२
"When in deep sleep he does not know, yet he is knowing, because knowing is inseparable from the Knower, because it is indestructible. But there is, then, no second thing, nothing else different from him that he would know" 🕉 Brihadaranyaka Upanishad
३०/१०/२२
''When there is complete knowledge and complete absence of knowledge – that is complete knowledge – that is fullness of knowledge.
Fullness of knowledge is not fullness of knowledge. Fullness of knowledge is: when you are full and you are not full – both – that is full.''
उक्त कथन ईशोपनिषद के इस मंत्र का विस्तार लगता है...
यः विद्यां च अविद्यां च तत् उभयं सह ।
वेद अविद्यया मृर्त्युं तीर्त्वा विद्यया अमृतम् अश्नुते ॥
जो तत् को इस रूप में जानता है कि वह एक साथ विद्या और अविद्या दोनों है, वह अविद्या से मृत्यु को पार कर विद्या से अमरता का आस्वादन करता है।
३१/१०/२२
किसी अमीर आदमी के परमात्मा के देश में प्रवेश पाने ऊँट का सुई के नाके या छेद में से निकल जाना कहीं आसान है। ईसा मसीह
मैं अपने प्यारे भक्तों तीन दुर्लभ उपहार देता हूँ ग़रीबी, अमीरी और निरादर। भागवत में कृष्ण उद्धव से
आने वाली विपत्ति का डर हमें खुद उस विपत्ति से कहीं अधिक दुःखी कर देता है। शेक्सपीयर
अगर मुझे किसी की निंदा करनी हो तो मैं अपनी माता की ही निंदा करूँगा, ताकि मेरे अच्छे कर्मों का फल यदि किसी को मिलना है तो वह मेरी माँ को ही मिले।शेख़ सादी
रत्ती भर अभ्यास मन भर ज्ञान से कहीं अच्छा है।
Saturday, October 22, 2022
सितंबर २०२२
६/९/२२
शिशु गर्भस्थ हो, वह ईश्वरीय अवस्था है। फिर तो क्रमशः तम राज और सत्व गुण में उसका विकास होता है। पुनः गर्भस्थ आनंद में लौटना घर की ओर जाना है।
८/९/२२
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥
Forsaking all other dharmas (duties), remember Me alone; I will free thee from all sins (accruing from nonperformance of those lesser duties). Do not grieve!
A PROSAIC INTERPRETATION OF THIS COUNSEL unequivocally advises the deeply devoted Arjuna, and all true renunciants, to relinquish worldly duties entirely in order to be single-pointedly with God. “O Arjuna, forsake all lesser duties to fulfill the highest duty: find your lost home, your eternal shelter, in Me! Remember, no duty can be performed by you without powers borrowed from Me, for I am the Maker and Sustainer of your life. More important than your engagement with other duties is your engagement with Me; because at any time I can recall you from this earth, canceling all your duties and actions.
THE WORD DHARMA, DUTY, comes from the Sanskrit root dhri, “to hold (anything).” The universe exists because it is held together by the will of God manifesting as the immutable cosmic principles of creation. Therefore He is the real Dharma. Without God no creature can exist. The highest dharma or duty of every human being is to find out, by realization, that he is sustained by God.
Dharma,therefore, is the cosmic law that runs the
mechanism of the universe; and after accomplishing the primary God-uniting yogadharma (religious duties), man should perform secondarily his duties to the cosmic laws of nature. As an air-breathing creature, he should not foolishly drown himself by jumping into the water and trying to breathe there; he should observe rational conduct in all ways, obeying the natural laws of living in an environment where air, sunshine, and proper food are plentiful.
Man should perform virtuous dharma, for by obedience to righteous duty he can free himself from the law of cause and effect gov. erning all actions. He should avoid irreligion (adharma) which takes him away from God, and follow religion (Sanatana Dharma), by which he finds Him. Man should observe the religious duties (yoga-dharma) enjoined in the true scriptures of the world.
Sri Paramahansa Yogananda,
18/66, God talks with Arjuna,
The Bhagavad Gita.
९/८/२२
ŚRIMAD BHAGVATAM 10.14.58
समाश्रिता ये पदपल्लवप्लवं
महत्पदं पुण्ययशो मुरारे: ।
भवाम्बुधिर्वत्सपदं परं पदं
पदं पदं यद् विपदां न तेषाम् ॥
For those who have accepted the boat of the lotus feet of the Lord, who is the shelter of the cosmic manifestation and is famous as Murāri, the enemy of the Mura demon, the ocean of the material world is like the water contained in a calf’s hoof-print. Their goal is paraṁ padam, Vaikuṇṭha, the place where there are no material miseries, not the place where there is danger at every step.
कल रात ललितपुर से उरई पहुँचे। घर में बेटी पीयूषा से वार्ता हुयी। १५-२० दिन पहले ही उसने जीवन और जगत के अनेक प्रश्न मुझसे पूछे थे, पर आज स्थिति अलग थी। प्रश्न हम कर रहे थे उत्तर वह दे रही थी। ऐसे प्रश्न जिन्हें जानने समझने में जन्म जन्मांतरों की यात्रा करनी पड़ती है। उनके सारगर्भित उत्तर जानकर मुझे स्पष्ट हुआ कि उस पर गुरुदेव की अहैतुकी कृपा हुयी है। ललितपुर जाने से पहले उसे शारीरिक संचार व्यायाम बताकर गए थे और योगदा की वेब्सायट से पंजीकरण कराते हुए इसे अपने दैनन्दिन जीवन का अंग बनाने के आशय से बताए थे। बाद में उसने फ़ोन से योगदा के पाठों को पढ़ने में रुचि प्रकट की। उसका पाठमाला का रेजिस्ट्रेशन दो वर्ष पूर्व से ही है। उससे अनेक प्रकार के प्रश्नो ke उत्तर पाकर क्रिया लेशन पढ़ने का निर्देश भी कर दिया। अपने जवाबों में बार बार गुरुजी का नाम ले रही थी। कहती हमें गुरुजी मार्ग दिखाते हैं। महावतार बाबाजी के दर्शन हुए हैं। यह सब केवल पढ़ने से उपलब्ध हुआ नहीं जान पड़ता। अगर पढ़ने से भी है तो काम का ही है। काम ऊर्जा यानि लस्ट पर भी उसने क्या अद्भुत बातें की कि आत्मानंद के आगे उसका आनंद कुछ नहीं है।यह तो मात्र शरीर के तल का आनंद है। ईश्वर, माया, अन्य व्यक्तियों से संबंध, क्रोध, मोह, मोक्ष, दूसरों के द्वारा किए अपमान पर उसने सिद्ध महात्माओं की तरह बातें की. पिछले जन्म की बात की कि वह विगत जन्म में बहुत अमीर थी। गुरुदेव उसे अपनी शरण में लें, आप आशीर्वाद बनाए रखें।
१०/८/२२
सफलता का अर्थ है अपने दिव्य स्वरूप अर्थात् आत्मा के अंतर्जात गुणों को अभिव्यक्त करना। स्वामी चिदानंद
ईश्वर वह आनंद है, जिसे आप प्रत्येक वस्तु में खोज रहे हैं।
स्वयं अपनी चेतना का शासक होना यथार्थ राजत्व है।
प्रसन्नता इस बात पर अत्यधिक निर्भर करती है कि आप अपनी असफलताओं के पश्चात् कितने अच्छे ढंग से पुनः सामान्य अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं।
ईश्वर के लिए किया गया कार्य पूजा है।
दीक्ष का अर्थ स्वयं को समर्पित करना है।
मुझे इसकी चिंता नहीं है कि ईश्वर हमारे पक्ष में है या नहीं, मेरी सबसे बड़ी चिंता यह है कि क्या हम ईश्वर के पक्ष में हैं, क्योंकि ईश्वर सदा सही होते हैं।
अच्छाई और बुराई को पृथक करने वाली रेखा अवस्थाओं, वर्गों अटगी राजनैतिक दलों के बीच से नहीं अपितु मानव हृदय के मध्य से होकर गुजरती है।
विनम्रत का अर्थ है स्वयं को निरंतर दूसरों से अधिक श्रेष्ठ सिद्ध करने की आवश्यकता से मुक्ति, किंतु अहंकार एक छोटी- आत्मकेंद्रित, प्रतिस्पर्धात्मक और प्रतिष्ठा पिपासु- परिधि में एक हिंसक भूख है।
आत्मसम्मान बाह्य विजय से नहीं, अपितु आंतरिक विजय से उत्पन्न होता है।
स्वतं अपनी दुर्बलता के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए विनम्रत सबसे महान गुण होता है। विनम्रता आपको स्मरण कराती है कि आप ब्रह्मांड के केंद्र नहीं अपितु आप एक उससे भी बड़ी व्यवस्था के लिए कार्य कर रहे हैं।
संघर्ष के मार्ग का आकार होता आगे बढ़ो- पीछे जाओ- आगे बढ़ो। u के आकार की भाँति।
लड़खड़ाने में जीवन का सौंदर्य और अर्थ छिपा रहता है। विनम्रत से अपने आप को समझने की क्षमता उत्पन्न होती है।
संभोग को रति क्रिया मात्र मानने से इसके वास्तविक अर्थ की ओर ध्यान नहीं जा पाया है. संभोग सभी इंद्रियों द्वारा सम्यक रूपेण किया गया आस्वाद है, कब्जा या अधिग्रहण नहीं। संभोग में सभी तत्व समन्वित रूप में क्रियाशील होते हैं. दूसरे शब्दों में, आत्मा और परमात्मा के योग का नाम संभोग है।
११/८/२२
सुरति समाँनी निरति मैं, निरति रही निरधार।
सुरति निरति परचा भया, तब खूले स्यंभ दुवार॥
सुरति- निरति शब्द का अर्थ :-
*सुरति* = सु + रति = सु- सुनने में, रति- लगे हुए ।
*निरति* = नि + रति = निरखना, देखना; रति = लगे हुए ।
*१. सुरति* :-
सुरति आत्मा की वह अवस्था है जो कि शब्द (सृष्टि में जो शब्द/रमा हुआ है) को सुनने की अवस्था को ही सुरति कहते हैं ।
'सुरति' शब्द आम आदमी के लिये अपरिचित ही है । सत्संग में जब सुरति शब्द का प्रयोग प्रायः होता रहता है तो नये लोग सिर्फ़ मुंह ताकते रह जाते हैं कि आखिर यह किसके विषय में बात हो रही है....? जबकि निरति शब्द अक्सर पढने को मिल जाता है ।
मनुष्य की अपनी अज्ञानता के कारण उसकी सुरति 7 शून्य नीचे उतर आई है, इसीलिये मनुष्य को यह संसार अजीब और रहस्यमय दिखाई देता है...? अब सबसे पहले एक शून्य की बात करते हैं । प्रथम शून्य- यहां पर कुछ भी नहीं हैं, लेकिन बेहद अजीब बात यह है कि "इसी कुछ भी नहीं से ही है"....! सब कुछ हुआ है या कुछ नहीं ही सब कुछ है (Everything is nothing but nothing to everything)...!
सतगुरु कबीर साहेब जी महाराज ने इसी विषय में कहा है कि:-
*"चाह गई चिंता गई,*
*मनुआ बेपरवाह ।*
*जाको कछु न चाहिए,*
*वो ही शहंशाह" ।।*
पहले शून्य में थोडी हलचल या थोडा प्रकंपन (vibration) होता है। दुसरे शून्य में यह प्रकंपन (vibration) कुछ अधिक हो जाता है । तीसरे शून्य में कुछ और भी अधिक हो जाता है । चौथे शून्य में यह प्रकंपन (vibration) और भी बढ़ जाता है, फिर पांचवां शुन्य और उसके बाद छटा शून्य । अब सातवें शून्य में यह प्रकंपन (vibration) शब्द रूप में यानी निरंतर होने लगा । इसी तरह के एक विशेष ध्वनि रूपी प्रकंपन (vibration) से (जिसको शास्त्रों में शब्द कहा गया है) पूरी सृष्टि का खेल चल रहा है । इसी से सूर्य, चन्द्रमा, तारे आदि गति करते रहते हैं । इसी प्रकंपन (vibration) से मनुष्य़ का शरीर बालापन, जवानी और बुढ़ापा आदि को प्राप्त होता है । इसी प्रकंपन (vibration) से आज बनी एक मजबूत बिल्डिंग निश्चित समय बाद जर्जर होकर धराशायी हो जाती है । आधुनिक विज्ञान की समस्त क्रियायें इसी प्रकंपन (vibration) पर आश्रित हैं । जैसे मोबायल फ़ोन से बात होना, वायरलेस, इंटरनेट, टी. वी. आदि के सिग्नल । हमारी आपस की बातचीत । यानी हम हाथ भी हिलाते है तो वह भी इसी vibration की वजह से हिल पाता है । इसी को चेतना या करंट भी कह सकते हैं । शुद्ध रूप में यह *र्र्र्र्र्र्र्रर्र्रर्र्रर्र्र र्र्रर्र्रर्र्* इस तरह की धुन होती है । बाद में आदि शक्ति या महामाया द्वारा इसमें *म्म्म्म्म* जोड़ दिया गया । तब यह धुन *र्म्र्म्र्म्र्म र्म्र्म्र्म्र्म* इस तरह हो गई । सरलता से समझने के लिये *रररररर* हो रही धव्नि माया से अलग हो जाती है । लेकिन जब तक *रमरमरम* ऐसी धुनि है तब तक ये माया से संयुक्त हैं । इसीलिये परमपिता परमात्मा (सतपुरुष) को सबसे बडा माना जाता है ।
यही 'र' और 'म' पहले स्त्री पुरुष हैं । यही असली राम (सतपुरुष) है ।
संत या योगी इसी राम को पाने की या जानने की लालसा करते हैं । यही आकर्षण यानी कृष्ण या श्रीकृष्ण में भी है ।
मेरा अनुभव ये कहता है कि यदि आदमी संसार को निसार देखता है या कामवासना, धन, ऐश्वर्य को भोग चुका है और खुद की अपनी वास्तविकता जानना चाहता है तथा उसे सतगुरु के सान्निध्य में ध्यान का थोडा पूर्व अभ्यास है तो सिर्फ़ सात दिन में इस शुन्य को जाना जा सकता है ।
बस शर्ते यही है कि ये सात दिन उसे एकान्त में और सतगुरु द्वारा बताई गई विधि के अनुसार अभ्यास करना होगा । इस तरह सुरति इस शब्द या अक्षर को जान लेगी और यहां पहुंचकर सुरति निरति हो जायेगी यानी सुनना बन्द करके प्रकृति के रहस्यों या माया को देखने लगेगी...? क्योंकि यहीं से जुडकर आदि शक्ति यानी पहली औरत अपना खेल कर रही है । ये नारी रूपा प्रकृति अक्षर (निरंजन) से निरंतर सम्भोग करती रहती है । ये सब महज ज्ञान की बातें नहीं हैं । सुरति शब्द योग द्वारा इसको आसानी से जाना जा सकता है ।
*२.निरति :-*
*निरति* = नि + रति = निरखना, देखना; रति = लगे हुए ।
निरति आत्मा की उस अवस्था को कहते हैं जिसमें वह शब्द स्वरुप/ ज्योति स्वरूप यानि परमपिता परमात्मा को निरखने/ देखने में लीन रहने लग जाए।
*सुरति और निरति = "श्रुति और निऋति"।*
परवर्ती हठ-योगियों की परिभाषा में अन्तर्नाद सुनना और उसी में लीन हो जाना। (अर्थात् ससीम का असीम में या व्यक्त का अव्यक्त में समा जाना। रूपाली सक्सेना
११/८/२२
कुछ लोग कहते हैं जीवित व्यक्ति के प्रति श्रद्धा रखें, सुश्रूषा करें, उन्हें तृप्त रखें, फिर मरने के बाद तर्पण करने की आवश्यकता नहीं।
पुरखों की सेवा और तृप्ति की बात ग़लत नहीं है।
तर्पण और श्राद्ध क्रियाओं में देखा जाता है कि ब्रह्म और अन्य देवताओं की तृप्ति सर्वप्रथम करते हैं, उनके बाद पुरखों को जोड़ते हुए हवि अर्पित की जाती है। यह सीधा प्रमाण है कि हमारी मृत्यु नहीं होती, ब्रह्म में लय होता है बस। कर्मकांड पर किसी की आपत्ति हो सकती है, पर कर्मकांड से बाहर क्या है आख़िर! आप विशेष प्रकार के कर्मकांड से परहेज़ बरतें तो भी... अपने प्रकार का कर्मकांड करेंगे ही, जो आपको अनुकूल लगे। आप अपने स्रोत को याद किए बिना, उससे जुड़े बिना नहीं रह सकते।
१३/८/२२
ब नामे ऊ कि ऊ नामे नदारद
ब हर नामे कि ख़्वानी सर बरारद। मौलाना रूम
१५/८/२२
स्वयं का पिंडदान ---
.
जब यह दृढ़ अनुभूति हो जाये कि मैं यह भौतिक शरीर नहीं, एक शाश्वत आत्मा हूँ, उसी समय हमारा स्वयं का पिंडदान हो जाता है। मूलाधारस्थ कुंडलिनी -- "पिंड" है। गुरु-प्रदत्त विधि से बार-बार कुंडलिनी महाशक्ति को मूलाधार-चक्र से उठाकर सहस्त्रार में भगवान विष्णु के चरण-कमलों (विष्णुपद) में अर्पित करना यथार्थ "पिंडदान" है। इसे श्रद्धा के साथ करना "श्राद्ध" है।
.
लेकिन शास्त्रों के आदेशानुसार गृहस्थों का दायित्व है कि परिवार में अपने से बड़े-बूढ़ों की सेवा करे, और पितृ-पक्ष में पूरी श्रद्धा से अपने पित्तरों का श्राद्ध करे। इस विषय पर मनु महाराज और याज्ञवल्क्य ऋषि के शास्त्रों में कथन ही अंतिम प्रमाण हैं।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !! कृपाशंकर मुद्गल
१४ सितंबर २०२२
जानें बिनु न होइ परतीती। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती॥
प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई। जिमि खगपति जल कै चिकनाई॥
१७/९/२२
प्रधानता
वनस्पति - जल
कीड़ों मकोड़ों - वायु तथा अग्नि, उड़ने वाले कीड़ों में अग्नि और वायु, रेंगने वालों में पृथ्वी और अग्नि
पशु- पृथ्वी जल अग्नि और वायु
मनुष्य- सभी पाँच तत्व होते हैं।
१८/९/२२
संसार मे जितने भी धर्म हैं सब के प्रवर्तक एक ही हैं ।
देश काल तथा अधिकारी भेद के कारण भिन्न भिन्न पथ का भेद परिलक्षित होता है । ईसाई मतानुसार अनन्त स्वर्ग एवं नरकों की स्थिति है । बौद्धगण भी ऐसा ही मानते हैं ।अब भिन्नता का वर्णन करता हूँ ।
बुद्धदेव जन्मांतर मानते हैं । जिन देशों में बुद्धधर्म का प्रचार हुआ है , वे सब भी जन्मांतर मानते हैं । एतद विपरीत ईसा मसीह ने जहाँ धर्म का प्रचार किया था ,वह देश इस गम्भीर तत्व को ग्रहण करने में समर्थ नहीं था । वहाँ पर तत्व को हृदयंगम करने योग्य जनमानस का उत्कर्ष नही हो सका था । अतः तत्वोपदेश देते समय श्रोता के सामर्थ्य को देखकर उतना ही उपदेश दिया गया ,जितना वहाँ का जनमानस समझ सकता था । अतएव आधारगत भिन्नता के कारण उपदेशगत भिन्नता परिलक्षित होने लगती है । शाश्वत स्वर्ग एवं नरक का सिद्धांत जिसे ईसाई गण स्वीकार करते हैं ,वह बौद्धधर्म का ही सिद्धांत है ।
महापथ पृष्ठ 70
२०/९/२२
बैखरी, जिसे जिह्वा और होंठों द्वारा बोला जाता है
मध्यमा गले में चुपचाप उच्चारण किया जाता है
पश्यंती मन ही मन (हृदय में) जाप किया जाता है
परा जिसे योगी नाभि से हिपोर उठाकर उत्पन्न करते हैं।
सुरत यानि आत्मा की शक्ति
निरत अंतर में देखने की शक्ति
जब तक निरत अर्थात् आत्मा की देखने की शक्ति जागृत नहीं होती, आत्मा अंतर में ऊपर नहीं चढ़ती। आत्मा की दोनों शक्तियों सुरत और निरत की सहायता के बिना आध्यात्मिक उन्नति सम्भव नहीं। सुनने पर बल देने की अपेक्षा अंतर में देखने शक्ति प्रबल है। निरत सबल होगी तभी शब्द भी साफ़ सुनाई देगा।
पहला बंधन शरीर का
दूसरा स्त्री का फिर संतान
चौथा पोते पोतियों
पाँचवाँ पड़पोते पड़पोतियों
छठा धन संपत्ति
सत्व अहंकार अपनी सदाचारिता के मान का
आठवाँ रीति रिवाज और कर्मकांड का होता है
२१/९/२२
अंजन माहिं निरंजन भेट्या, तिल मुप भेट्या तेलं । मुरति माहिं अमरति परस्या, भया निरतरि घेलं । गोरखबानी
२३/९/२२
सच जानने वाले व्यक्ति के समक्ष झूठ का कार्य व्यापार करने वाले कितने निरीह और बेचारे जान पड़ते हैं। ज्ञानी और प्रेमी के आगे मूर्ख और ईर्ष्यालु व्यक्ति कितने असहाय दिखते हैं। इन सबके प्रति करुणा भाव उदित होना ही साक्षात्कार है, बोध है।
Man is the expression of God and God is the reality of man.
२४/९/२२
कर लूंगा जमा दौलत ओ ज़र उस के बाद क्या
कर लूंगा जमा दौलत-ओ-ज़र उस के बाद क्या
ले लूँगा शानदार सा घर उस के बाद क्या
(ज़र = धन-दौलत, रुपया-पैसा)
मय की तलब जो होगी तो बन जाऊँगा मैं रिन्द
कर लूंगा मयकदों का सफ़र उस के बाद क्या
(रिन्द = शराबी)
होगा जो शौक़ हुस्न से राज़-ओ-नियाज़ का
कर लूंगा गेसुओं में सहर उस के बाद क्या
(राज़-ओ-नियाज़ = राज़ की बातें, परिचय, मुलाक़ात), (गेसुओं =ज़ुल्फ़ें, बाल), (सहर = सुबह)
शे'र-ओ-सुख़न की ख़ूब सजाऊँगा महफ़िलें
दुनिया में होगा नाम मगर उस के बाद क्या
(शे'र-ओ-सुख़न = काव्य, Poetry)
मौज आएगी तो सारे जहाँ की करूँगा सैर
वापस वही पुराना नगर उस के बाद क्या
इक रोज़ मौत ज़ीस्त का दर खटखटाएगी
बुझ जाएगा चराग़-ए-क़मर उस के बाद क्या
(ज़ीस्त = जीवन), (चराग़-ए-क़मर = चन्द्रमा का चराग़)
उठी थी ख़ाक, ख़ाक से मिल जाएगी वहीं
फिर उस के बाद किस को ख़बर उस के बाद क्या
-ओम प्रकाश भंडारी "क़मर" जलालाबादी
यह कथन भी पूरा नहीं लगता। क्योंकि अगर बोध हो गया तो उसके बाद और उसके पहले आनंद ही शेष रहता है।
२७/९/२२
तुलसीदासजी ने लिखा है, 'सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे।। गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी। तव प्रेरित माया उपजाए। सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए।।'
काकभुशुण्डिजी ने कहा-हे गरुडज़ी सुनिए! समुद्र ने भयभीत होकर चरण पकड़कर श्रीरामजी से कहा मेरे सब अपराध क्षमा करें। आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इन सबकी करनी स्वभाव से जड़ है। आपकी माया से प्रेरित होकर ये सब उपयोगी बनते हैं।' जब परमात्मा हस्तक्षेप करता है तो हम इनका भरपूर फायदा उठा सकते हैं।
सुरत आत्मा को कहते हैं, शब्द धुनात्मक नाम है और योग का अर्थ है जुड़ना। सुरत शब्द योग का अर्थ है आत्मा का शब्द के साथ जुड़ना।
आत्मा का शब्द के प्रति सहज आकर्षण है, क्योंकि शब्द आत्मा का स्रोत है। शब्द एक आत्मिक राग है।
ब्रह्मांड के छः चक्रों का प्रतिबिंब अंड में है। एंड के छः चक्रों का प्रतिबिंब पिंड में है।
हरि रूठे गुरु ठौर है गुरु रूठे नहिं ठौर। कबीर
शिवे रुश्ते गुरुस्त्राता गुरौ रुश्टे न कश्चन।
३०/९/२२
यज्ञ/हवन का वास्तविक तत्व
—————————————
वैदिक दृष्टि के अनुसार अग्नि ही एक मात्र भोक्ता एवं सोम ही एकमात्र भोग्य है। कर्तृत्वाभिमान विगलित होने पर यह स्पष्ट रूप से देख सकते है कि हम कर्ता और भोक्ता दोनों ही नहीं है। कर्तृत्व और भोक्तृत्व दोनों ही आरोपित होता है। जगत के जो एक मात्र भोक्ता है, वे सभी आधारों में रहते हुए भोग करते रहते है। इन सब आधारों के अभिमानी पुरुष अपने को व्यर्थ में ही भोक्ता समझते है। जगत के इस मूल भोक्ता को वैदिक ऋषियों ने अग्नि के रूप मे वर्णन किया है।
इसी प्रकार भोग्य भी मूल रूप से एक ही वस्तु है। उसे सोम के रूप में वर्णन किया गया है। सोम का दूसरा नाम अमृत है। अतएव ये सोम अथवा अमृतकण ही जीव मात्र के लिए भोग का विषय है। सभी इसी का एकमात्र आहरण करते रहते है। इसीलिए इसे आहार या आहार्य कहा जाता है। जीव किसी भी प्रकार की खाद्य वस्तु ग्रहण करे,उसकी सार-सत्ता सोम ही है। सभी प्रकार के खाद्यों में मात्रा-भेद के अनुसार इसी सोम का अंश है। समग्र जगत इसी प्रकार अग्नि एवं सोम इन दो भागों में विभक्त है।
ज्ञाता, ज्ञेय / कर्ता, कर्म जिस प्रकार संश्लिष्ट है, उसी प्रकार भोक्ता और भोग भी परस्पर संश्लिष्ट है। शिव और शक्ति के बीच जिस प्रकार नित्य सम्बन्ध स्वीकार किया गया है, ठीक उसी प्रकार भोक्ता-भोग्य के बीच भी नित्य सम्बन्ध विद्यमान है। यही यज्ञ है, यज्ञ वास्तव में नित्य सिद्ध परम भोक्ता के निकट भोग्य पदार्थ का अर्पण करने के अलावा और कुछ नहीं है। अग्नि में सोम की आहुति प्रदान करना यज्ञ का तत्व है।
—जय गुरु
🙏💐🌹🌺🌺
(सनातन साधना की गुप्त धारा)
Monday, September 12, 2022
अगस्त २०२२
३/८/२२
आज ध्यान में गुरु परंपरा के सब गुरुओं का स्मरण हुआ। प्रेम और स्नेह की बौछार गुरुदेव ने की। स्वामी श्रीयुक्तेशर जी कठोर अनुशासन में तो लाहिरी बाबा तक पहुँच बनाना मुश्किल लगा। महावतार बाबा जी में सब आप्लावित ही हैं।
४/८/२२
यूँ तो विगत दस माह से अपने वर्तमान कालेज में प्राचार्य पद का दायित्व निभाया जा रहा है, पर अपने गृह जनपद में,आयोग से चयनित होकर नियुक्ति की संस्तुति उच्च शिक्षा निदेशालय से होने के बाद का प्रसंग बदल जाता है। इस अवसर पर आप सबकी प्राप्त शुभकामनाओं से मेरी झोली भर गयी है। ललितपुर के और बाहर के भी मेरे सब सुधी मित्रजन बहुत अपनत्व के साथ ख़ुशी प्रकट किए हैं। आप सबका नेह, आशीष और सहयोग इसी प्रकार बना रहे। आपके सम्मिलित विश्वास को निभा सकूँ, वही मेरी पूँजी होगी। अस्तित्व को और उसका बोध कराने वाली गुरु परंपरा, पूर्वज, माता-पिता, प्रयागराज से भैया-भाभी, पत्नी, पुत्री, भाई बहिन, बाल्यकाल से लेकर अबतक के हितैषी मित्र, संबंधी, कुटुंबी सबके प्रति कृतज्ञता और अनुराग पूर्वक पूरी विनम्रता और सामर्थ्य से यह दायित्व स्वीकार करने के लिए प्रभु मुझे शक्ति दे।
....त्वया हृषीकेश हृदि स्थितोस्मि
यथा नियुक्तोस्मि तथा करोमि।
भाषा भगवद अनुभूति को पूर्णतः व्यक्त नहीं कर पाती, किंतु यह भी सही है कि हर भाषाई अथवा ग़ैर भाषाई अभिव्यक्ति एवं अनभिव्यक्ति अनंत का गुणगान है।
७/८/२२
Urge is when you are overpowered by your desire. Will is when you just like to do, bas, according to your choice. that is something else.
ऐश्वर्यज्ञानवैराग्य-धर्मेभ्योप्युपरि स्थितिं।
नाथ प्रार्थयमानानां त्वदृते का परा गतिः।। स्तव चिंतामणि ९३
सायंकाल के ध्यान के पश्चात् नाद श्रवण एक बड़े नगाड़े की ध्वनि की भाँति सुनाई दिया। एक बड़ी सी टंकार होती रही। बाद में बाएँ कान की ओर से प्रकाश पुंज कौंधा. आँख खोलने पर लुप्त हो गया। आँखें बंद रहने और खोलने के बीच यह दृश्य घटित हुआ।
८/८/२२
मानव शरीर में पंच
ज्ञानेंद्रियों श्रोत्र, त्वक्, चक्षु, जिह्वा और नासिका का स्थान ऊपर स्थित है। जबकि उनकी क्रमशः
पाँच कर्मेंद्रियाँ नीचे वाक् पाणि पादौ चोपस्थ पायू के रूप में अवस्थित रहती हैं। इन ज्ञानेंद्रियों और कर्मेंद्रियों के संघात से क्रमशः पाँच तन्मात्रायें या विषय शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध का उदय होता है। इन विषयों का आश्रय पाँच महाभूतो आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी में है। उक्त तत्व मन, बुद्धि और अहंकार से परिचालित जब होते हैं, तब संसार निर्मित होता है।
११/८/२२
रक्षासूत्र का मंत्र है- येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल:। तेन त्वामनुबध्नामि रक्षेन मा चल मा चल।। इस मंत्र का सामान्यत: अर्थ लिया जाता है कि दानवों के महाबली राजा बलि जिससे बांधे गए थे, उसी से तुम्हें बांधता हूं। हे रक्षे!(रक्षासूत्र) तुम चलायमान न हो, चलायमान न हो। धर्मशास्त्र के विद्वानों के अनुसार इसका अर्थ यह है कि रक्षा सूत्र बांधते समय ब्राह्मण या पुरोहित अपने यजमान को कहता है कि जिस रक्षासूत्र से दानवों के महापराक्रमी राजा बलि धर्म के बंधन में बांधे गए थे अर्थात् धर्म में प्रयुक्त किए गये थे, उसी सूत्र से मैं तुम्हें बांधता हूं, यानी धर्म के लिए प्रतिबद्ध करता हूं। इसके बाद पुरोहित रक्षा सूत्र से कहता है कि हे रक्षे तुम स्थिर रहना, स्थिर रहना। इस प्रकार रक्षा सूत्र का उद्देश्य ब्राह्मणों द्वारा अपने यजमानों को धर्म के लिए प्रेरित एवं प्रयुक्त करना है।
यही उद्देश्य भाई बहिन और परिजन का है।
१६/८/२२
परमपिता, जगन्माता, सखा, प्रियतम प्रभु! मैं तर्क करूँगा, मैं इच्छाशक्ति का प्रयोग करूँगा, मैं कार्यरत होऊँगा; परन्तु आप मेरे तर्क, इच्छाशक्ति एवं कार्य को उचित दिशा की ओर निर्देशित करें।
१९/८/२२
भारत की परंपरा वाचिक ज्ञान लेने देने की रही है। रामकृष्ण परमहंस निरक्षर या बहुत कम पढ़े लिखे थे, पर उनकी कही बातें उपनिषदों की भाँति पढ़ी और सराही जाती हैं।
२०/८/२२
ŚB 10.2.26
सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यंसत्यस्य योनिं निहितं च सत्ये । सत्यस्य सत्यमृतसत्यनेत्रंसत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्ना: ॥ २६ ॥
satya-vrataṁ satya-paraṁ tri-satyaṁ
satyasya yoniṁ nihitaṁ ca satye
satyasya satyam ṛta-satya-netraṁ
satyātmakaṁ tvāṁ śaraṇaṁ prapannāḥ
Synonyms
satya-vratam — the Personality of Godhead, who never deviates from His vow*; satya-param — who is the Absolute Truth (as stated in the beginning of Śrīmad-Bhāgavatam, satyaṁ paraṁ dhīmahi); tri-satyam — He is always present as the Absolute Truth, before the creation of this cosmic manifestation, during its maintenance, and even after its annihilation; satyasya — of all relative truths, which are emanations from the Absolute Truth, Kṛṣṇa; yonim — the cause; nihitam — entered*; ca — and; satye — in the factors that create this material world (namely, the five elements – earth, water, fire, air and ether); satyasya — of all that is accepted as the truth; satyam — the Lord is the original truth; ṛta-satya-netram — He is the origin of whatever truth is pleasing (sunetram); satya-ātmakam — everything pertaining to the Lord is truth (sac-cid-ānanda: His body is truth, His knowledge is truth, and His pleasure is truth); tvām — unto You, O Lord; śaraṇam — offering our full surrender; prapannāḥ — we are completely under Your protection.
२१/८/२२
श्रीमद्भागवत 1/5/38 में
श्री भगवान को 'मन्त्रमूर्तिममूर्तिकम् ' कहा गया है , इससे प्रतीत होता है कि मंत्र उनकी मूर्ति है तथापि वे अमूर्त हैं । भगवान् के मंत्र या शब्द-ब्रह्ममय रूप का वर्णन भागवत के अन्य स्थलों में स्पष्ट रूप से मिलता है । सिद्धावतार कपिलदेव के पिता प्रजापति कर्दम ऋषि के दीर्घकाल तक तपस्या करने पर प्रसन्न होकर भगवान् उनके सामने शब्द -ब्रह्मात्मक रूप धारण करके आविर्भूत हुए थे ।
तावत्प्रसन्नो भगवान् पुष्कराक्षः कृते युगे ।
दर्शयामास तं क्षत्तः शार्ब्द ब्रह्मदधद्वपु :
भारतीय संस्कृति और साधना पृष्ठ 503
२३/८/२२
शास्त्रों में लिखा है ; शब्द ब्रह्म में निष्णात होने पर परब्रह्म की उपलब्धि होती है । शब्दातीत परब्रह्म का साक्षात्कार यदि करना हो तो , शब्द का आश्रय लेकर ही शब्दराज्य का भेदन करना होगा । समग्र विश्व शब्द से ही उद्भूत है एवं शब्द में विधृत है ।
शास्त्र वचनों से ज्ञात होता है कि शब्द ही सृष्टि का मूल है । यदि सृष्टि से बाहर जाना हो, तो शब्द ही एकमात्र अवलंबन है । इसीलिए जप साधना में शब्द का अवलम्बन करके ही शब्दातीत परब्रह्म पद में जाने का उपदेश दिया गया है ।
जपविज्ञान
तांत्रिक वाङ्गमय में शाक्त दृष्टि / पृष्ठ 323
२४/८/२२
संसार में सुखपूर्वक रहने का सूत्र यही है कि हम दूसरों को देते रहें, जो कुछ हमारे पास है उसी में से। कोई इतना दरिद्र नहीं जिसके पास कुछ देने को न हो। इसे दर्शन पक्ष कह सकते हैं। दूसरा पक्ष जीवन का है, जिसमें देने के लिए प्रचलित विधियों का परिज्ञान आवश्यक हो जाता है। अन्यथा जीवन और दर्शन की संगति नहीं रह पाएगी।
२५/८/२२
एक दशा जाति विहीनता की होती है, जो पशुओं की है- पश्यति इति पशुः। दूसरी अवस्था किसी जाति में होकर सभी जातियों के होने की है। यह स्थिति मनुष्य की है - मननात् मनुष्यः। तीसरी इन दोनों से पार होने की अवस्था है।
२८/५/२२
भारत की पूरी बौद्धिक परंपरा वाचिक रही है। इसलिए इतिहास में हमारे यहाँ किसी घटना का ठीक-ठीक काल निर्धारण करने की कठिनाई आती रहती है। पश्चिमी जगत में ईसवी सन और उससे पूर्व की घटनाओं का कालक्रम बहुत हद तक सटीक रूप में अभिलिखित है। हमारे यहाँ इसकी कोई आवश्यकता ही प्रतीत नहीं हुयी। आज भी नहीं पता भागवतं किसकी रचना है। इसके रचनाकार बोपदेव (महाकवि जयदेव के भाई) पर मतैक्य नहीं। यहाँ देने का भाव रहा, उस पर क़ब्ज़ा करना यहाँ ध्येय रहा ही नहीं। वेद, उपनिषद और पुराण किस ऋषि द्वारा रचित हैं ठीक-ठीक कहा नहीं जा सकता। व्यास तो एक उपाधि का नाम है। जिन धरोहरों के कारण भारत जगतगुरु माना गया, वे सब वाचिक रूप में चली आयी हैं। कितने आक्रमण हुए, पर यह परंपरा अक्षुंण रही। अपनी वाचिक समृद्धि के कारण यह सुरक्षित भी रही।
बोलने में बहुत से शब्द और वाक्य निरर्थक हो सकते हैं, पर उनके भीतर जो सत्य अनुस्यूत रहता है, उसका तौल नहीं है। उसमें कौंधता हुआ सत्य प्रकट होता है, वह सत्य लिखित रूप में भी उस तरह व्यंजित नहीं हो पाता।
अतएव हमें अपनी वाचिक परंपरा का महत्व समझते हुए उसका सम्मान करना चाहिए।
२६/८/२२
ण आत्मा वाची अक्षर है। न उससे आगे श्वास और जल के लिए आया है। र रूप के अर्थ के लिए है, यह अग्नि बीज है। अग्नि तत्व से ही रूप का उद्भव होता है। इस प्रकार नर आत्मा से रूप निर्माण की यात्रा है। नारायण इस नर में निवास करते हैं। आज प्रातः ४ बजे नींद खुली। प्रथम तो आत्मा ने अपने शरीर के स्थान को चिह्नित किया। गाँव में ठहरे हैं। फिर यह नर खुला।
२७/८/२२
कर्मों की गति गहन है, समझना दुर्वह है। कल साधना विषयक चर्चा और खुलासा करने के बाद आज सुबह के ध्यान में अत्यंत कठिनाई प्रस्तुत हुयी। छोटी चींटियों का गुच्छ पैरों में ऐसे लिपटा कि बढ़ता ही गया। लघु सत्र के अनंतर ध्यान संपन्न हुआ।
३०/८/२२
प्राचार्य का संदेश
परम् सत्य की खोज और उसके साथ जुड़ा गुरु-शिष्य-संबंध प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति की विशेषता रही है। गुरु और शिक्षक में मोटा अंतर है कि शिक्षक से सीखने के बाद किसी से सीखने या जानने की आवश्यकता शेष रह सकती है किंतु गुरु से सीखने या गुरु-कृपा-प्राप्ति के बाद कुछ शेष नहीं रह जाता है। किसी व्यक्ति के जीवन में अनेक शिक्षक होते हैं, गुरु सामान्यतः एक ही होता है।
छात्र शब्द संस्कृत छत्र + ण पुल्लिंगी संज्ञा या विशेषण से मिलकर बना है। भारतीय परम्परा में संतान को विद्याध्ययन के लिए गुरु को सौंप दिया जाता था। सेवा के क्रम में यह विद्यार्थी गुरु के सिर पर छत्र या छतरी पकड़ते थे। छतरी पकड़कर पीछे-पीछे चलने वाले विद्यार्थियों को छात्र कहा जाने लगा।
छात्र एक दर्पण की तरह है, जिसमें शिक्षक का आत्म एवं राष्ट्र का दर्शन झांकता है। शिक्षक और छात्र का संबंध दूध और पानी के मिश्रण की भांति होता है, जिस प्रकार दूध का मिला पानी दूध ही कहलाता है, उसी तरह चरित्रवान् शिक्षक का छात्र भी चरित्रवान् हो जाता है। शिक्षक का कर्म केवल शिक्षा देना है, पर विद्यार्थी या छात्र का दायित्त्व न केवल सम्मानपूर्वक शिक्षा ग्रहण करना है, अपितु उस शिक्षा और संस्कार को परिवार, समाज और राष्ट्र में अपने आचरण के द्वारा प्रसारित करना भी है। यह दायित्त्व एक शिक्षक का भी होता है, इसलिए एक अच्छा शिक्षक भी सदैव छात्र होता है। किसी विषय-वस्तु को माध्यम बनाकर शिक्षक एवं शिक्षार्थी के बीच विचारों के आदान-प्रदान या परस्पर अन्तर्क्रिया को हम शिक्षण कहते हैं।
प्राचीनकाल में शिक्षा को विद्या के नाम से जाना जाता था। विद्या विद् धातु से निष्पन्न शब्द है, जिसका अर्थ है जानना। अतः विद्या का अर्थ ज्ञान से है। ज्ञान मानव का तृतीय नेत्र है, यह नेत्र अज्ञान को दूरकर सत्य का दर्शन करने में सहायक होता है। शिक्षा का शाब्दिक अर्थ भी 'विद्या प्राप्त करना' अर्थात ज्ञानार्जन करना है।
जुलाई 1968 में संस्थापित अपने नेहरू महाविद्यालय में बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झाँसी द्वारा संचालित विभिन्न पाठ्यक्रमों में प्रवेश लिया जाता है। वर्तमान में इस महाविद्यालय में 4500 छात्र/छात्राएं अध्ययनरत हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के अन्तर्गत महाविद्यालय में 10 विषयों - हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेज़ी, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, शारीरिक शिक्षा, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, इतिहास एवं गृहविज्ञान- में बी. ए. त्रिवर्षीय पाठ्यक्रम एवं सात विषयों - अर्थशास्त्र, हिंदी, संस्कृत, मनोविज्ञान, इतिहास, समाजशास्त्र एवं गृहविज्ञान में एम. ए., कृषि रसायन एवं मृदा विज्ञान में एम. एस-सी, बी.एस-सी. कृषि चार वर्षीय सेमेस्टर पाठ्यक्रम, राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अन्तर्गत बी.एस-सी (मैथ्स एवं बायो) एवं बी.कॉम त्रिवर्षीय पाठ्यक्रम के शिक्षण के साथ-साथ पांच विषयों - हिन्दी, संस्कृत, मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र एवं इतिहास - में पी-एच. डी. स्तर के शोध अध्ययन की सुविधा उपलब्ध है।
ललितपुर से सागर की ओर जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग-44 के दोनों तरफ़ फैले 41 एकड़ क्षेत्रफल में 55 कक्षों, दो छात्रावासों, जिम्नेजियम, अतिथि-गृह एवं विशाल क्रीड़ागन एवं बगीचे में विस्तृत बुंदेलखंड में अपनी विशिष्ट पहचान रखने वाले जनपद के एकमात्र और सर्वाधिक प्राचीन अशासकीय अनुदान प्राप्त महाविद्यालय का प्रांगण सुशोभित हो रहा है। महाविद्यालय के पुस्तकालय में 42 हजार से अधिक पुस्तकें संगृहीत हैं।
हम चाहते हैं कि यहाँ छात्रों को गुणवत्तापरक शिक्षा प्राप्त होने के साथ-साथ उनका सर्वांगीण उन्नयन हो। यू.जी.सी. एवं उच्च शिक्षा विभाग के मानकों और नागरिक समाज की आशा-आंकाक्षाओं के अनुरूप प्रबन्ध-समिति के दिशा-निर्देशन में महाविद्यालय अपने सोपान तय करता रहे। आएँ! हम सब इस आशा और विश्वास के साथ कार्य करने का संकल्प लें।
सह नौ यशः। सह नौ ब्रह्मवर्चसम्। (तैत्तिरीयोपनिषद तृतीय अनुवाक से)
हम दोनों (शिक्षक और छात्र) का यश एक साथ बढ़े। एक ही साथ हमारे ब्रह्मतेज में वृद्धि हो।
(प्रोफे० राकेश नारायण द्विवेदी)
प्राचार्य
३१/८/२२
पहले भगवान् के हुँकार से ॐकार की उत्पत्ति होती है ,
अर्थात् निःशब्द से शब्द का आविर्भाव होता है ।
यह एकाक्षर ॐकार शिशुवेद के नाम से प्रसिद्ध है ।
यह तीनों वेदों का मूलभूत तथा अनादि अक्षर स्वरूप है । इस स्थान से ' श' व 'म' दोनों अक्षरों की उत्पत्ति होती है ।
इसकी परवर्ती अवस्था में त्रिकोण प्रकट होता है ।
त्रिकोण त्रितत्व या तत्वत्रय का नामान्तर है ।
राम शब्द से राधा और कृष्ण एवं
त्रितत्व शब्द से जीव-परम -ब्रह्म , हरे -राम -कृष्ण , परा-रमा -कामबीज , ब्रह्मा-विष्णु-महेश्वर , गुरु शिष्य -भगवान् , कृष्ण- राधा-चन्द्रावली एवं जगन्नाथ-बलराम-सुभद्रा समझना चाहिए ।
'हरे- राम- कृष्ण' इन छः अक्षरों से अष्टकोण या अष्ट अक्षर उद्भूत होते हैं । इन आठ अक्षरों से चार तत्व बीजों या नामों को समझना चाहिए ।
इससे 'हरे - राम- कृष्ण-हरे ' इस अवस्था का उदय होता है । इससे 'हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ' यह षोडश अक्षर उत्पन्न होते हैं । सबके अंत में इन सोलह अक्षरों से फिर 'हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे' एवं 'हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे' ये सोलह नाम बत्तीस अक्षर उत्पन्न होते हैं ।
श्रीकृष्ण प्रसङ्ग पृष्ठ 140
आज गणेश चतुर्थी -
शुक्ल यजुर्वेद 23/19 की इस प्रसिद्ध और बहुप्रयुक्त ऋचा पर मनन करने का दिन है...
ॐ गणानांत्वा गणपति ग्वं हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपति ग्वं हवामहे निधीनां त्वा निधिपति ग्वं हवामहे वसो मम ।
आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम् ॥
हे गणपते ! गणों के मध्य में गणों के पालक! हम तुम्हें आहूत करते हैं। हे प्रियों के मध्य में प्रियों के पालक! हम तुम्हें आहूत करते हैं । हे सुखनिधियों के मध्य में सुख निधियों के पालक! हम तुम्हें आहूत करते हैं । हे वसो! हे प्रजापते! व्यापक होकर संपूर्ण संसार में निवास करने के कारण आप मेरे पालक हों। जिस प्रकार पत्नी अपने पति को जानती है, उसी प्रकार मैं भी आपको जानूँ। मैं आपके निकट से निकटतर होता जाऊँ।। अधर पान करते हुए आपके शरीर के जीवन सत्व का रसास्वादन लूँ तथा आपके आत्मज को प्रकट करूँ।
गण पहला श्वास है। जीवन का आरंभ। ग गति सूचक वर्ण है और ण आत्मावाची। आत्मा की जहां से यात्रा प्रारंभ होती है, वह गण हुआ।
गण का सांस्कृतिक विकास भारत में अलग अलग क्षेत्रों में अपनी अपनी तरह से हुआ, पर उन सबके मूल me आहम जानि गर्भ धमा त्वमजासि गर्भधम ही है....
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