Monday, July 31, 2023
जुलाई २३
३/७/२३
प्रातः जागने के बाद बैठे ध्यान में गुरु पादुका दर्शन हुए। घुटनों के ऊपर का दर्शन तो नहीं हुआ, पर गुरु जी पेंट और जुटे पहने हुए अपने दास पर इस प्रकार जो अनुग्रह किए, वह प्रत्यक्ष दिखाता है कि गुरुदेव हमारे पास ही हैं, सर्वदा उनकी कृपादृष्टि बनी रहे। जय गुरु❤️🌹🙏 गुरुपूर्णिमा
दो दिन पूर्ण महावतार बाबा जी ध्यान के बीच पधारे थे। बाबा जी के प्रकाश पुंज में समा जाऊँ। गुरुदेव से प्रार्थना।
गुरु पूर्णिमा...
वेद व्यास का संबंध इस पूर्णिमा से है। व्यास जी ने वेदों को अलग अलग चार भागों में संहिताबद्ध किया है।
प्रतिवर्ष आषाढ़ माह की पूर्णिमा को परंपरा से और वेद व्यास के कृपापूर्ण कृतित्व के कारण गुरु पूर्णिमा पर्व के रूप में मनाया जाता है।
पूर्णिमा एक विशेष समय होता है। चंद्रमा और समुद्र की हलचल इस दिन अधिक होती है, चंद्रमा का पुत्र ही मन है। चंद्रमा मनसो जातः। मन का आलोड़न विलोडन पूर्णिमा के दिन रात में अधिक होता है। मन की गति को विनियमित न कर पाने के कारण सबसे अधिक पाग़ल इसी दिन होते हैं।
वर्तमान में गुरु और शिक्षक एक नहीं हैं। यद्यपि भारत की शिक्षा प्रणाली में पूर्व में गुरु और शिक्षक प्रायः भिन्न नहीं होते थे।
गुरु और शिष्य का संबंध दिव्य होता है। वह शाश्वत संबंधों में चलते है, जब तक वे मुक्त नहीं होंगे उनका संबंध बना रहेगा। जबकि माता-पिता और संतान का संबंध प्रारब्ध कर्मों पर आश्रित होता है। कर्म भोग के उपरांत उनका संबंध होने की आवश्यकता नहीं रह जाती।
गुरु तत्व है, वह मार्ग है, जो मनुष्य में अंतर्निहित है। गुरु मिलन ईश्वर से तीव्र इच्छा का उदय होने पर होता है। समर्थ गुरु यानि जो स्वयं भागवत है, भगवत्प्राप्त हैं, वह शिष्य को उसके गंतव्य पर इसी जन्म में पहुँचा देते हैं।
अपने गुरु की तुलना किसी अन्य के गुरु से करने की आवश्यकता नहीं है। अपने गुरु का आदेश मानते जाएँ, उनके दिए नाम या पद्धति को कभी न भूलें, उसी में शिष्य का कल्याण है। अन्य गुरुजन या श्रद्धेय जन के प्रति आदर और ग्रहणशीलता का भाव रखना उत्तम है।
गुरु का शरीर में होना या न होना विचारणीय नहीं। गुरु शरीर और मन से पार एक असीम सत्ता है। वे अपने शिष्य के पास अशरीर होकर भी सदा कृपालु रहते हैं।
गुरुदेव के माध्यम से प्राप्त बोध के उपरांत ही व्यक्ति का जीवन सार्थक होता है।
चित्रं वटतरोर्मूले वृद्धाः शिष्या गुरुर्युवा ।
गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यास्तु छिन्नसंशयाः ॥ १२ ॥
आश्चर्य यह है कि वटवृक्षके नीचे शिष्य वृद्ध हैं और गुरु युवा हैं। गुरुका व्याख्यान मौन भाषामें है, किंतु शिष्योंके संशय नष्ट हो गये हैं ॥ १२ ॥
॥श्रीदक्षिणामूर्तिस्तोत्रं॥
4/7/23
फ़क़ीर बालक नूर का सज़दा किए शरीर
क्या रोज़ा क्या बंदगी क्या मस्जिद क्या मंदिर!
सुख की करें न चाहना दुःख में नहीं दिलग़ीर
फ़ना करें सब फंद तो उनका नाम फ़क़ीर।
प्रेमानंद जी महाराज के बीएमडब्ल्यू में चलने पर एक पोस्ट पर..
सूर्य पर थूकने का प्रयास नहीं करना चाहिए, स्वयं के ऊपर ही गिरता है।
पता नहीं आपका क्या उद्देश्य है इसके पीछे।
संतों का कहा हुआ करना चाहिए, किए हुए को कोई कदाचित् ही जान पाता है।
5/7/23
हिंदी भाषा में नहीं के साथ है भी संयुक्त होता है। अन्य भारतीय भाषाओं में भी यह हो, पर यह भाषा की बड़ी विचित्र व्यवस्था है। यानि नहीं कुछ भी नहीं, स्वीकार भाव की ही सत्ता है।
६/७/२३
समाज में किसी मुद्दे पर अपना निर्णयात्मक विचार देना बहुत आसान और लोकप्रिय तरीक़ा है। परंतु सतह पर आये किसी सामाजिक मुद्दे की परतों को देखना और समझना अधिक आवश्यक है। ज्योति गौतम और उसके पति को लेकर लोग स्वाभाविक रूप से अपने मंतव्य दे रहे हैं।
समाज की कोई घटना जब घटित होती है तो उसमे पूरे समाज का अक्स दिख जाता है। प्रशासनिक नौकरियों का महिमामन्डन करना, किसी चकाचौध को पाने की इच्छा होना, इसके मूल में है। उस महिला को विवाहेतर संबंध से बचना चाहिए था, पर उस पुरुष ने भी अपने घर की लड़ाई को सार्वजनिक करके अपने बच्चों का अहित किया है। पुरुष को तो उस महिला को आगे बढ़ते देखकर प्रसन्न होना चाहिए था, अगर नहीं चल पा रहा था तो चुपचाप बाहर आ जाना चाहिए था। इस तरह सनसनी फैला कर किसी को समाज का नायक बनना ठीक नहीं। हर केस अलग होता है, इससे यह निष्कर्ष निकालना ठीक नहीं कि पत्नी को पढ़ाना उचित नहीं। पढ़ाने के पीछे कोई बड़ी नौक़री पाना भर उसका उद्देश्य न समझा जाये। मनुष्य बनना शिक्षा का उद्देश्य हो। मनुष्य बनने पर एक महिला एसडीएम का पति सफ़ाईकर्मी भी रह सकता था और एक सफ़ाईकर्मी अपनी एसडीएम पत्नी से अलग रहकर भी उससे प्रेम कर सकता था। यह विवाह/प्रेम का वास्तविक स्वरूप है।
8/7/23
*आज का विचार*
*स्वतन्त्रता*
*July 4*
*श्री ज्ञानमाता का जन्म दिवस*
दूसरों की सेवा ही मुक्ति का मार्ग है। ध्यान तथा ईश्वर के साथ समस्वरता ही सुख का मार्ग है।…अपने अहं की दीवारें गिरा दें; स्वार्थ का त्याग कर दें; स्वयं को देहबोध से मुक्त कर लें; अपने अस्तित्व को भुला दें; जन्म-जन्मांतरों के इस कारागार से निकल जायें; अपने हृदय को सबमें विलीन कर दें, सम्पूर्ण सृष्टि के साथ एक हो जायें।
— *श्री श्री परमहंस योगानन्द*,
*योगदा सत्संग पाठ*
चाह में च का अर्थ और है। यह और और ही चाह है। अंग्रेज़ी विल का अर्थ संकल्पयुक्त चाह भी है और भविष्य भी। इसके सिवा और संसार में क्या है। संसार का एक शब्द मराठी में बड़ा प्यारा है इसे वहाँ नाना कहते हैं।
9/7/23
गुरुदेव की कृपा से पूरी दुनिया बदली हुई दिखने लगी है। न किसी से शिकायत, न दुःख या कष्ट, न राग ही; न विराग ही। इस तरह की दुनिया में कोई न पराया है, न कुछ आश्चर्यजनक। सब चीजें जैसे शीशे की तरह पारदर्शी हो गई हैं। अब कोई कहानी नहीं बची है, जिससे कुछ समझना पड़े। अब मात्र तथ्य शेष है कि हम उसमे हैं और वह हममें। संसार में रहते हुए वह हममें है और इससे पार रहने पर हम उसमें हैं। ध्यान भीतर, प्रेम बाहर।
कोई सज्जन आचार्य प्रशांत से एक बातचीत में कह रहे थे कि हिंदू धर्म की सबसे बड़ी समस्या है कि उसका एक ढाँचा निर्धारित नहीं है। जाति और वर्ण को मानने वाला हिन्दू है और इन्हें न मानने वाला भी हिन्दू है। कोई क्रूर मनुष्य भी इसमें धार्मिक बनकर रह सकता है। यानि इसकी व्यापकता ही इसकी समस्या है।
यह बात सही है कि हमें नीतिवान और विवेकवान् होना ही होगा, पर वास्तव में व्यापकता और उदारता हिंदू धर्म की विशेषता है। हिंदू धर्म की उदारमूलक वृत्ति के कारण किसी व्यक्ति में एक समय जो दुर्गुण होते हैं, वे अगले समय में निर्मूल भी हो जाते हैं या इसकी प्रबल संभावना उसके भीतर मौजूद रहती है। मूल रूप में हिंदू धर्म सर्वथा नीतिमूलक है। वह व्यक्ति को गुणी, उदार और सर्वमांगल्यकारी बनाता है। हिंदू धर्म की किसी अन्य धर्म से कोई असंगति नहीं बनती न उसका किसी और से संघर्ष बनता है। जो कुछ इसके दुर्गुणों की बात की जाती है, उनके मूल में संदर्भ से काटकर की गई बातें हैं। इन महोदय को ब्रह्मसूत्र, उपनिषदों और गीता के माध्यम से हिंदू धर्म को समझना चाहिए। यह मनुष्य की आत्यंतिक खोजें हैं। इनसे अधिक कुछ है नहीं और न इससे कुछ बाहर बचता है। उस अनंत को व्यक्त करने के ढंग अनंत हैं, वह अलग-अलग ढंग से व्यक्त किया जाता है। हर ढंग नया है, अनोखा है, पर वह अनंत है, यह सनातन या हिंदू धर्म ने सबसे पहले सिद्ध किया हुआ है और इसे दुनिया स्वीकार करती है। भारत की मनीषा ने समग्र रूप में तत्व की पकड़ कर ली है/थी।
- [ ] हिंदू धर्म के अनुयायियों को पारलौकिक जुड़ाव के बाद या जुड़े रहते हुए लौकिक समृद्धि की और ध्यान देना होगा। पश्चिमी दुनिया के देशों ने छोटी-छोटी चीजों के ऊपर शोध और उनका विश्लेषण करते हुए उन्हें भौतिक समृद्धि के अनुकूल बना लिया है। वे अनुसंधान कर रहे हैं और समूची मानव जाति की सुविधा के लिए उन्हें सौंप रहे हैं। यह उनकी बड़ी उपलब्धि है। भारत जिस दिन यह दशा प्राप्त कर लेगा, उसकी सामाजिक समस्याओं का संभव सीमा तक समाधान हो जाएगा।
- [ ] इसका रास्ता ईमानदारी और परिश्रम के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
१०/७/२३
यदि हिन्दू धर्म उदारता लिए हुए है तो जैन बौध ,शिक्ख धर्म का उदय भारत में ही क्यों हुआ।जो कि हिंदू धर्मका मूल ,ईश्वर की कल्पना भी नही करते । अरविंद नायक महरौनी!
आलोचना करने के लिए यह बातें कहीं जाती हैं। यह स्वाभाविक है, इन धर्मों या संप्रदायों की अच्छाइयां क्या सनातन में नहीं हैं! विकासशीलता के कारण नए संप्रदाय बनते है, संप्रदाय बनते बदलते रहते हैं, वे सब भी धर्म के उत्स तक पहुंचना चाहते हैं और पहुंचते हैं। सनातन का मूल ईश्वर की कल्पना नहीं; वरन उस तत्व का साक्षात कर लेना है, जिसे कुछ लोग ईश्वर कहते हैं. उस तत्व का साक्षात ही वास्तव में धर्म है। प्रचलित स्वरूप में ईश्वर तो सांख्य दर्शन और आर्य समाजियों के यहां भी नहीं हैं, पर वे सब हिंदू हैं। अनेकानेक संप्रदायों और परम्पराओं का उदय और अस्त होता जाता है, पर क्या कारण है कि मूल धारा अक्षुण्ण बनी रहती है. उस धारा का वर्णन जब तत्वविद करते हैं तो भाषाओं, क्षेत्रों और संप्रदायों की सीमा टूट जाती है। बिना दुभाषिए के किसी महनीय कृति के अनुवाद की भांति सब साफ हो आता है।
12/7/23
कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय | भक्ति करे कोइ सूरमा, जाति वरन कुल खोय ||
18/7/23
बुंदेलखंड विश्वविद्यालय झाँसी में पीएचडी के एक वाइवा (मौखिकी) में महत्वपूर्ण प्रश्न उठा कि वसुधैव कुटुंबकम् और वैश्वीकरण में क्या मूल अंतर है!
वसुधैव कुटुंबकम् में सब प्राणियों के हित की बात है, तो वैश्वीकरण एक बाज़ार आधारित, मुनाफ़ा केंद्रित व्यवस्था है। बाज़ार समाज संचालन का आधार है, बाज़ार दैनन्दिन जीवन प्रक्रिया को गतिमान रखता है, किंतु मनुष्य की यात्रा यहाँ पूरी नहीं होती। अगर ऐसा होता तो मनुष्य जब पूरी तरह सुख सुविधा संपृक्त हो जाता है, फिर उसे कुछ और पाने की इच्छा क्यों बनी रहती है। वैश्वीकरण का तो लोकतंत्र से भी साम्य नहीं बनता, पर वसुधा कुटुंब ही है, इस प्रत्यय में सबका समाहार हो जाता है।
19/7/23
These three instructions, plus meditation, contain the only rule of life that any disciple needs: detachment; realization of God as the Giver; and unruffled patience. As long as we fail in any one of these three, we still have a serious spiritual defect to overcome.
~ Sri Gyanamata,
"God Alone: The Life and Letters of a Saint"
तर्क और प्रतितर्क संतर्क तक पहुँचने के मार्ग हैं। वे स्वयं पाथेय नहीं हैं। बहस में उलझे लोग तर्क और उसके प्रतिपक्ष में रचे तर्क में जाते हैं। असल बात है कि वे क्या इससे वे उसके निष्कर्ष तक पहुँचते हैं या नहीं। किसी व्यक्ति को निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए तर्क से या उसके प्रतितर्क से भीतर और अतल गहराइयों में उतर कर जाना होता है। उथले तो बहलाव और प्रदर्शन मात्र है। अतल गहराई में जाने पर दोनों के सिरे एकमेक हो जाते हैं।
२०/७/२३
"If you meditate for a few minutes every day and live in harmony, you will always live in heaven, and will carry your own portable paradise within you wherever you go."
- Paramahansa Yogananda
२९/७/२३
'बहुत सम्हल के फ़क़ीरों पे तब्सिरा करना
ये लोग पानी भी सूखी नदी से लेते हैं'
तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना।
अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः।।
३०/७/२३
महामृत्युंजय मंत्र निम्नलिखित है । जो कि यजुर्वेद के तीसरे अध्याय का साठवां मन्त्र है—— ओ३म् त्र्यम्बकम् यजामहे सुगन्धिम् पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् । त्र्यम्बकम् यजामहे सुगन्धिम् पतिवेदनम् । उर्वारुकमिव बन्धनादितो मुक्षीय मामुत: ।
त्र्य॑म्बकं यजामहे सु॒गन्धिं॑ पुष्टि॒वर्ध॑नम् । उ॒र्वा॒रु॒कमि॑व॒ बन्ध॑नान्मृ॒त्योर्मु॑क्षीय॒ मामृता॑त् ॥
(त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीयमामृतात्॥)
(ऋक्, ७/५९/१२, वाज. ३/६०, तैत्तिरीय सं, १/८/६/२, मैत्रायणी सं, १/१०/४, २०, काण्व सं, ९/७, ३६१४, शतपथ ब्राह्मण, २/६/२/१२, १४, तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/६/१०/५)
तीन अम्बक वाले (सूर्य, चन्द्र, अग्नि नेत्र वाले, या जिसकी अम्बिका स्त्री हैं) की पूजा करते हैं, जो सुगन्ध या दिव्य गन्ध युक्त है तथा पुष्टि साधनों की वृद्धि करता है। जैसे ककड़ी का फल पकने पर स्वयं टूट जाता है, उसी प्रकार मृत्यु द्वारा शरीर से मुक्त हो जायेंगे, पर अमृत से हमारा सम्बन्ध नहीं छूटता।
शरीर से आत्मा निकल कर परमात्मा से मिलती है, उसी प्रकार कन्या विवाह के पश्चात पिता के घर से निकल कर पति के घर जाती है। परमात्मा को ही पति कहा जाता है। कन्या विवाह सम्बन्धित मन्त्र वाजसनेयि संहिता मन्त्र के अगले भाग में है।
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पतिवेदनम्। उर्वारुकमिव बन्धनादितो मुक्षीयमामुतः (वाज, ३/६०-भाग २)
(कुमारियों के अर्थ में) पति की प्राप्ति करानेवाला, सुगन्धयुक्त, त्रिनेत्र की हम पूजा करती हैं। ककड़ी का फल जैसे अपने डण्ठल से छूट जाता है, उसी प्रकार हम कुमारियां माता, पिता, भाई आदि मातृगृह के बन्धुजनों से, उस कुल से, उस घर से दूर जायेंगी। किन्तु त्र्यम्बक के प्रसाद से हम पति से दूर न जांय, अर्थात् पति गोत्र में ही बनी रहें।
२. इस अर्थ के निर्गुण गीत
यजुर्वेद के इन दोनों मन्त्रों के समान अर्थ वाले हजारों निर्गुण गीत हैं, जिनमें मनुष्य को पत्नी, ब्रह्म को पति कहा गया है तथा शरीर से आत्मा निकलने को कन्या के ससुराल जाने जैसा कहा है। माया के बन्धन को ननद कहा गया है। इसे संस्कृत में ननान्दृ कहते हैं, अर्थात् जो प्रसन्न नहीं हो। पति अपनी बहन के अतिरिक्त पत्नी से भी प्रेम करने लगता है जिससे ननद का अधिकार कुछ न्यून हो जाता है। इस भाव का एक प्रसिद्ध निर्गुण गीत साहिर लुधियानवी ने लिखा तथा मन्ना डे ने गाया था।
लागा चुनरी में दाग, छुपाऊँ कैसे,
चुनरी में दाग, छुपाऊँ कैसे, घर जाऊँ कैसे
लागा चुनरी में दाग…
हो गई मैली मोरी चुनरिया
कोरे बदन सी कोरी चुनरिया
जाके बाबुल से नज़रें मिलाऊँ कैसे, घर जाऊँ कैसे
लागा चुनरी में दाग…
भूल गई सब बचन बिदा के
खो गई मैं ससुराल में आके
जाके बाबुल से नज़रे मिलाऊँ कैसे, घर जाऊँ कैसे
लागा चुनरी में दाग…
कोरी चुनरिया आत्मा मोरी
मैल है माया जाल
वो दुनिया मोरे बाबुल का घर
ये दुनिया ससुराल
जाके बाबुल से नज़रे मिलाऊँ कैसे, घर जाऊँ कैसे
लागा चुनरी में दाग…
कबीर से आरम्भ कर महेन्द्र मिश्र तक के इस अर्थ के बहुत से भोजपुरी गीत हैं।
इसी आशय का महेन्द्र मिश्र का प्रसिद्ध गीत है-
खेलइत रहलीं हम सुपुली मउनियाँ
ए ननदिया मोरी है, आई गइलें डोलिया कहाँर।
बाबा मोरा रहितें रामा, भइया मोरा रहितें
ए ननदिया मोरी हे, फेरि दीहतें डोलिया कहाँर।
काँच-काँच बाँसवा के डोलिया बनवलें,
ए नदिया मोरी है लागी गइलें चारि गो कहाँर।
नाहीं मोरा लूर ढंग एको न रहनवाँ
न ननदिया मोरी लेई के चलेलें ससुरार।
कहत महेन्दर मोरा लागे नाही मनवाँ
ए ननदिया मोरी हे छूटि गइलें बाबा के दुआर।
अमीर ख़ुसरो के गीत यहीं से अनुकृत हैं।
लोकपरंपरा में बाबुल संबंधी यह गीत खूब गए जाते हैं।
३१/७/२३
शरीरांत दशा के लिए बड़े प्यारे शब्द हैं। कुछ है नित्यलीलालीन, निधन, मृत्यु, स्वर्गवास इत्यादि। लीला समझे बिना उसमे लीन नहीं हुआ जा सकता। निधन से आशय निकलता है कि जीवन धन्यता है, ऐसा भी नहीं कि जीवन न होना धन्यता नहीं, पर उसका भोक्ता तो जीव ही है। मृत्यु में चार अक्षर विद्यमान है । म सीमा का द्योतक है, आर गति का त पहुँचने का तो या यात्रा का। चारों का समवेत स्वर यात्रा या गति ही उभरता है। स्पष्ट है कि मृत्यु में जीव की गतिविहीनता का भाव है। स्वर्ग तो एक कामना है, इसलिए मनुष्यों ने मृत्यु की अवस्था को स्वर्गवास नाम दे दिया। दूसरे, स्वर में गति करने का नाम स्वर्ग है। वर्णमाला में स्वर मूल ध्वनियाँ हैं, उनके बिना व्यंजन ध्वनियों का अस्तित्व नहीं। व्यंजन यदि शक्ति हैं तो स्वर शिव हैं। शक्ति के बिना शिव नहीं और शिव शक्ति का लक्ष्य है। शक्ति शिव में लीन रहती है और शिव शक्ति के माध्यम से प्रकट होते हैं।
Sunday, July 2, 2023
जून २३
१/६/२३
#आत्मबोध_विमर्श - 88....#गंगा 🐊
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* वैदिक सनातन सभ्यता और संस्कृति के मूल में है मोक्षदायिनी गंगा। गंगाजल विष है, जीव नहीं पनपता इसमें। जीवभाव मुक्त चैतन्य आत्मबोध ही अमृत है, मोक्ष है।
* योगी आध्यात्मिक योग-तंत्र की विशिष्ट क्रियाओं से कुंडलिनी शक्ति को जाग्रत करता है। एक ही योगासन में, एक प्रहर/3 घंटे (कम से कम दो घंटे) बाह्य केवल कुंभक प्राणायाम के साथ, स्थित होने से मोक्ष उपलब्ध होता है सक्षम योगी साधक को।
* भगवती गंगा अपने वाहन मकर पर विराजती हैं स्वाधिष्ठान चक्र में, त्रिपथगामिनी है, इड़ा, पिंगला व सुषुम्ना नाड़ियों में, मोक्षदायिनी है अनाहत चक्र में।
* गंगा योगी के भगीरथ प्रयत्न से व्योम से, शिव की जटाओं से, सुमेरु शीर्ष से, सहस्रार में प्रकट होती है, समाधि में, आनन्द कानन में।
* परम् पुरुष के रूप में योगी शिवतत्त्व का बोध करता है, जिसके दो आयाम हैं,
अनन्त और आनन्द,
- अनन्त कालातीत है, कामनातीत है, गुणातीत है।
- आनन्द इच्छा, ज्ञान और क्रिया वितान है।
* योगेश्वर श्रीविष्णु के समस्त शरीर में व्याप्त है गंगा व उनके दाहिने पांव के अंगूठे से निसृत होती है, मोक्षदायिनी है। भगवान् श्रीराम ने अपने अंगूठे के स्पर्श से महर्षि गौतम की पत्नी अहिल्या का उद्धार किया था।
* गंगा ब्रह्मदेव के कमंडलु में संकल्प शक्ति है, सरस्वती है, कामेश्वरि राजराजेश्वरि महात्रिपुरसुन्दरि है, ईक्षु धनुष व कामदेव के पंच बाण, पंच तन्मात्राएं, स्वर, स्पर्श, रूप, रस, गंध के संग।
* नवनिधियां हैं,
पद्म महापद्म नील मुकुंद नन्द
मकर कच्छप शंख और खर्व,
इन निधियों में गंगावाहन मकर मोक्ष प्रदान करता है।
* हनुमान पुत्र है मकरध्वज,
मकर (मत्स्य - शुक्राणु)
+ वानर (वायु - पुत्र),
मकर गंगावाहक है मोक्षकारक ध्वज के रूप में, वायु तत्त्व/अनाहत चक्र में फहराता है।
✓✓ स्थूल रूप से गंगा नदी है,
सूक्ष्म रूप से कुंडलिनी शक्ति है,
कारण रूप से चैतन्य स्वरूप है।
- गंगा की परिणति मोक्ष में है जहां आत्मबोध के साथ सक्षम योगी जीवन्मुक्ति रूपी अमृत फल का उपभोग करता है।
#सुशील_जालान, 22.05.2022. 🐊
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पुनः प्रेषित, 29.05.2023.🌹
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दान, यज्ञ, तप,
अपरा लौकिक ज्ञान आदि से
पराध्यान-योग श्रेष्ठ है !!
८/६/२३
पूजिय विप्र सील गुन हीना शूद्र न गुन गन ग्यान प्रवीना
क्या तुलसीदास इतने दलित विरोधी थे?
इस पर ...
यहाँ हम विप्र उसे कहेंगे जो वेदानुसंधान में संलग्न है। शूद्र वह है जो मात्र शरीर चेतना में संलग्न है। आप जब इसे प्रचलित जातियों में जोड़कर देखने लगते हैं, समस्या तब उत्पन्न होती है।
आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धि: सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृति: स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्ष:।
आहार की शुद्धि से सत्त्व की शुद्धि होती है, सत्त्वशुद्धि से स्मृति की शुद्धि होती है, वास्तविक ज्ञान प्राप्त हो जाता है, व उससे सारे बन्धन जिनसे आत्मा इस संसार में बंधा रहता है, वह सब कट जाते हैं।
छान्दोग्योपनिषद
इसमें विप्र का अर्थ आया है....
आज रात एक बड़ा सर्प स्वप्न में आया। वह बायीं बाजू में घुसकर चिपक गया। मैं देख रहा था वह डसता है या क्या करता है! वह शांति से चिपका था। मेरा ध्यान लग गया। थोड़ी देर बाद वह सर्प भी ध्यानस्थ हो गया। थोड़ी देर में नींद खुल गई।
सुबह फिर ध्यान किया तो कूटस्थ में अपने गुरुदेव, रामकृष्ण परमहंस और भगवान शंकर और देवी देवताओं के विग्रह बनते और लुप्त होते रहे।
ध्यान के बाद तो जैसे सर्प खड़ा होकर फ़ूत्कार मारता ही है। मूलाधार से सहस्रार पर्यंत यह दशा अनुभूत होती है।
11/6/23
गिरा का अर्थ वाणी है, क्योंकि यह कंठ से गिरती है। गीर्वाण का अर्थ भी गिरा से निकल रहा है, सुंदर या देवता।
वर्णमाला के प्रत्येक वर्ग के अंत में अनुस्वार है। यह बिंदु ही मानो सब वर्णों को धारण किए हुए है। न् का अर्थ आत्मा, जो सतत प्रवाहित रहे। यह बिंदु ही सृष्टि के उन्मेष या वर्णमाला के विकास होने पर विसर्ग बनता है। वर्णमाला का अंत स पर है, यहीं से अ शुरू हो जाता है। ह् विसर्ग में भी अ है। अगर विसर्ग लगाकर ह् नहीं बोला जाय तो वह शक्ति का उत्फुल्ल रूप है। विसर्ग में वह विश्रांत होती है, वैसे ही जैसे संभोग के बाद कोई युगल विश्राम पाता है। न् में शिव ठहरते हैं तो ह् में शक्ति।
१५/६/२३
श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्यः शृण्वन्तोऽपि बहवो यं न विद्युः।
आश्चर्यो वक्ता कुशलोऽस्य लब्धाश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः ॥
वह' (परतत्त्व) जिसका श्रवण भी बहुतों के लिए सुलभ नहीं है श्रवण करने वालों में से भी बहुत से लोग 'जिसे' जान नहीं पाते। 'उसका' ज्ञानपूर्वक कथन करने वाला व्यक्ति अथवा कुशलता से 'उसे' उपलब्ध करने वाला व्यक्ति होना एक आश्चर्यभरा चमत्कार है, तथा जब ऐसा कोई मिल जाये तो ऐसा श्रोता होना भी आश्चर्यपूर्ण है जो ज्ञानीजन से 'उसके' विषय में उपदेश ग्रहण करके भी 'ईश्वर' को जान सके।
पता नहीं क्यों हमे लगता ये तुम भी जानो। हालाँकि तुम पहले से जानती हो। ठीक यह न भी जानती हो, पर तत्वबोध तो सम्यक् है ! यानि दूसरे को जनवाना अपना अज्ञान प्रदर्शित करना हुआ न!
समान नागरिक संहिता तब तक लायी जानी समीचीन नहीं हो सकती जब तक कि हम अपने धर्म ग्रंथों का पाठ और उनकी व्याख्या समरूप कर उसी रूप में स्वीकार न कर लें। गीता की ही दर्जनों अलग-अलग व्याख्याएँ हुई हैं। किस व्याख्या में मानव हित शीघ्रता से सुलभ होता है, क्या हम यह ठीक से जान पाये हैं। रामचरितमानस जिसका प्रभाव बहुत अधिक उत्तर भारत के जनमानस पर है, उसके पाठ और व्याख्या में ही कितना अंतर मिलता है, जबकि यह कोई बहुत पुराना ग्रंथ नहीं है। भागवत् पुराण जो परमहंस संहिता है, उसका हिंदी पाठ ही अभी ठीक से होना शेष है।
ऐसी स्थिति में हम आचार व्यवहार कैसे निर्धारित कर पायेगे। यह हिंदुओं के धर्मग्रंथों की स्थिति है, इस्लाम की भी कमोबेश यही स्थिति है, क़ुरान के कितने पाठ हुए। इन पाठों की बहुलता और विविधता के कारण इस्लाम मानने वालों के भीतर कितनी अलग-अलग परम्पराएँ और रीति रिवाज पाये जाते हैं। बाइबल और गुरुग्रंथ साहिब के मानने वाले भी अपने-अपने ढंग के हैं। सभी संप्रदायों का ऐसा पाठ तैयार हो जो भारतीय समाज में सर्वमान्य हो तभी समान नागरिक संहिता लाए जाने का औचित्य बनेगा। अगर हम यह कर सके तो यह बहुत बड़ा क्या सबसे बड़ा कार्य सिद्ध होगा।
१७/६/२३
इंद्र व्यक्तिगत आत्मा को कहते हैं. वही सब देवताओं का अधिपति है. श्री अरबिंदो इंद्र को गिवर ओफ़ लाइट कहते हैं. यह व्यक्तिगत आत्मा जब दृश्य देखने का काम करती है तो उसे इंद्रिय कहते हैं.
संस्कृत भाषा में इदं यह को कहते हैं द्र का अर्थ देखने से है, वह जो देखता है इंद्र कहलाता है. इदंद्र का संक्षिप्तीकरण इंद्र रूप में हुआ है.
१८/६/२३
सृजन दृश्य है, जो अदृश्य में से होकर प्रकट होता है। मूर्तिकार पत्थर से मूर्ति तराश देता है। इस सृजन या निर्माण में वह पत्थर अदृश्य हुआ और मूर्ति दृश्य या सृजन हो गया।
छांदोग्य उपनिषद् में ऊर्जा के अतिरेक को बल कहा गया है। इसकी उपासना पर यह उपनिषद् बल देता है बलमुपास्व।
अथ यत्तपो दानमार्जवमहिँसा सत्यवचनमिति ता अस्य दक्षिणाः ॥ ४ ॥[86]
Now Tapas (austerity, meditation), Dāna (charity, alms-giving), Arjava (sincerity, uprightness and non-hypocrisy), Ahimsa (non-violence, don't harm others) and Satya-vacanam (telling truth), these are the Dakshina (gifts, payment to others) he gives [in life].
— Chandogya Upanishad 3.17.4
यो ह वै ज्येष्ठं च श्रेष्ठं च वेद ज्येष्ठश्च ह वै श्रेष्ठश्च भवति
When a man knows the best and the greatest, he becomes the best and the greatest.
— Chandogya Upanishad 5.1.1
१९/६/२३
सहज सनेहँ स्वामि सेवकाई। स्वारथ छल फल चारि बिहाई॥
अग्यासम न सुसाहिब सेवा। सो प्रसादु जन पावै देवा।2॥
भावार्थ
वह रुचि है- कपट, स्वार्थ और (अर्थ-धर्म-काम-मोक्ष रूप) चारों फलों को छोड़कर स्वाभाविक प्रेम से स्वामी की सेवा करना। और आज्ञा पालन के समान श्रेष्ठ स्वामी की और कोई सेवा नहीं है। हे देव! अब वही आज्ञा रूप प्रसाद सेवक को मिल जाए॥
२२/६/२३
गीता प्रेस का सम्मान...
अब तो अन्य भारतीय भाषाओं में भी गीता प्रेस से भारतीय परंपरा की पुस्तकें छप रही हैं, पर हिंदी भाषा में विभिन्न शास्त्रों को अत्यंत कम मूल्य पर सतत रूप से भारतीय समाज को उपलब्ध कराते जाना गीता प्रेस की महनीय सेवा है। इस सेवा का मूल्य सरकार भी चुका नहीं सकती है।
यह भी दिखता है कि गीता प्रेस से हिंदी अनुवाद के जो ग्रंथ निकले, वे उतने सटीक नहीं हैं, जितने उनके बाद के अन्य प्रकाशन/आध्यात्मिक संस्थानों से निकले उन ग्रंथों के अनुवाद हैं या जितना हमें दूसरी भाषाओं में प्राप्त होता है। किंतु इससे गीता प्रेस का जो महत्व और योगदान है, वह तनिक भी कम नहीं होता है। शास्त्रों को मूल और अविरल रूप में बिना वर्तनी दोष के प्रस्तुत करना ही बहुत बड़ा कार्य है। हिंदी जनमानस को वरना उन शास्त्रों का परिचय कैसे मिलता, जिनकी बार-बार आवृत्तियाँ छपती आयी हैं।
शास्त्रीय महत्व की पुस्तकें लंबे समय तक प्रकाशित करने वाला खेमराज श्रीकृष्णदास बंबई का प्रेस बंद हो गया, या अब उसका पता नहीं है, पर गीता प्रेस बराबर चलता जा रहा है, बीच-बीच में उसके बंद होने की अफ़वाहजनक खबरों के बीच वह अस्तित्वमान है। वह संस्कृत भाषा ही नहीं अन्य भारतीय भाषाओं में निबद्ध शास्त्रों की प्रामाणिक व्याख्या और अलग-अलग अनुवाद छापता जाए, यही हम सबकी कामना है।
आज भी हिंदी में शास्त्रीय ग्रंथों की अलग-अलग व्याख्याओं के अनुवादों की कमी बनी हुई है।
अखंड ज्योति/गायत्री परिवार के प्रमुख डॉ प्रणव पंड्या जी ने भी राज्य सभा की सदस्यता लेना स्वीकार नहीं किया था। गीता प्रेस ने सम्मान लेना स्वीकार किया, पर एक करोड़ जैसी बड़ी पुरस्कार राशि नहीं। यह संस्थाएँ उन्हें आज बहुत याद आती हैं, जिनके जीवन में जब चारों तरफ़ घनघोर तमस् छाया था। इन्हें सम्मानपूर्वक याद करके हम मानो स्वयं उपकृत हो रहे हैं। कई बार लगता है गोरखपुर विलक्षण नगर है...गोरक्षनाथ पीठ, परमहंस योगानंद की जन्म स्थली और गीता प्रेस यह इसके स्थायी महत्व के अर्थात् अमर स्मारक हैं। गोरखपुर को जीवन में सबसे पहले गीता प्रेस के कारण ही जाना था।
२३/६/२३
सेवा का व्युत्पत्तिगत अर्थ होगा वह ही। हम जो कर्म कर रहे हैं उसके लिए कर रहे हैं, केवन होना हमारे द्वारा हो रहा है, यही सेवा है। यह भाव बनने पर क्या करना है, कब करना है यह विचारणीय नहीं रह जाता है।
गू शब्द कैसे बना होगा। गुरु में यह पहला अक्षर है। गु का अर्थ अंधकार है। अघोरी गू का भक्षण कर लेते हैं। अंधकार को निगलना और ज्ञान को प्रकाशित करना यह गुरु का अर्थ और प्रकार्य है।
२४/६/२३
हाँग सौ नाम ही है। चाहे कोई नाम लें राधा/राम/शिव/ॐ/कृष्ण...
श्वास में काम के बीच हाँग सौ की याद आ जाती है। यह अखंड हो जाये बस। वैसे स्वप्न में सोते हुए भी याद आती है और सघन हो जाए।
पूरे व्यक्ति के लिए हर जगह तीर्थ है, हर समय मुहूर्त है और हर कृत्य पूजा है। मंगलं मंगलं🌹🌹
२५/६/२३
The Panchagni-Vidya is a meditation,—it is not an outward ritualistic sacrifice; it is a contemplation by the mind in which it harnesses every aspect of its force for the purpose of envisaging the reality that is transcendent to the visible parts of this inner sacrifice.
the Panchagni-Vidya is a kind of remedy prescribed by way of a meditation which is regarded as a great secret by the Upanishadic teachers. Even if you hear it being expounded once, you will not be able to understand much out of it. It does not mean that you will get out of the law of Nature merely by listening to what the king appeared to have said, because they are secrets bound up with one’s own personal life.
Based on this concept of the relationship of our life with the activity of Nature outside, the Upanishad tells us that our actions are like an oblation offered in a sacrifice. Our activities are not mere impotent movements of the physical body or the limbs; they are effective interferences in the way of Nature. When we pour ghee or charu into the flaming fire in a sacrifice, we are naturally modifying the nature of the burning of the fire. Much depends on what we pour into it. If we throw mud into it, well, something, indeed, happens to the fire. If we pour ghee into it, something else happens. So, likewise, is the activity of the human being or, for the matter of that, any other being. The interference by a human activity in the working of Nature is an important point to consider in the performance of the sacrifice. If we coordinate ourselves and cooperate with the activity of Nature, it becomes a yajna, but if we interfere with it and adversely affect its normal function, it will also set up a reaction of a similar character. Then, we would be the losers.
The first oblation is the universal vibration in the celestial heaven; that is the first sacrifice, and that is the first oblation. The second oblation is in the second sacrifice which is the reverberation of the vibrations in the celestial region felt in the lower regions of the atmosphere, as the fall of the rain. The grosser manifestations which are the events that take place in this world are the third oblation. The fourth sacrifice is of man himself, who is involved in this entire activity, who consumes the food of the world and energises himself and produces virility. The fifth oblation is woman whose union with man brings about the birth of a child. These are the Five Fires.
one who knows these Five Fires is free. It is difficult to know these Fires unless we live a life of meditation. Your whole life should be one of meditation. Perpetually, we must be seeing things in this light only. Our meditation should not mean merely a little act of half-an-hour’s closing of the eyes and thinking something ethereal. It is a way of living throughout. When you see a thing, you see only in this way; when you speak, you speak from this point of view; when you think, this is at the background of your thought. So, you cease to be an ordinary human being when you live a life of this Upanishad.
The knower becomes coextensive with the way in which Nature works in all its ways. And everything is Nature working in some way, the desirable as well as the undesirable, as we may call it. We become commensurate with the way in which Nature works in every way because of the meditation conducted in this manner. Thus, we cannot be harmed by any atmosphere, by anyone or by anything that is around us. On the other hand, perhaps, we may be able to influence.
positively the atmosphere in which we are living. “One who knows this,” reaches the higher realms reached only by meritorious deeds; “ya evam veda”; yea, “One who knows this.”
२७/६/२३
ध्यान के बाद इस कविता के शुरुवाती बोल याद आये
स्नेह-निर्झर बह गया है !
रेत ज्यों तन रह गया है ।
आम की यह डाल जो सूखी दिखी,
कह रही है-"अब यहाँ पिक या शिखी
नहीं आते; पंक्ति मैं वह हूँ लिखी
नहीं जिसका अर्थ-
जीवन दह गया है ।"
"दिये हैं मैने जगत को फूल-फल,
किया है अपनी प्रतिभा से चकित-चल;
पर अनश्वर था सकल पल्लवित पल--
ठाट जीवन का वही
जो ढह गया है ।"
अब नहीं आती पुलिन पर प्रियतमा,
श्याम तृण पर बैठने को निरुपमा ।
बह रही है हृदय पर केवल अमा;
मै अलक्षित हूँ; यही
कवि कह गया है ।
२८/६/२३
नाम-स्वाँस दोउ विलग चलत हैं, इनकौ भेद न मोकौं भावै॥
स्वाँसहि नाम नाम ही स्वाँसा, नाम स्वाँस कौ भेद मिटावै।
रोम रोम जब रग रग प्रगटे तब कछु स्वाद नाम को पावे
बाहिर कछु न कछू तब भीतर, जिय और नाम एक ह्वै जावै॥
तब निज रूप नाम कौ प्रगटै, तन में श्री वन सहज दिखावै। भोरी सखी
संसार परिणाम में दुःख ही देता है। क्रिया का परिणाम सुख है। क्रिया अपने भीतर है। अपने भीतर सुख होने से बाहर सुखाभास होता है, इसे संसार में पाने का हर प्रयास निष्फल जाता है।
आदमी का अर्थ है जो दम यानी श्वास से चलता हो। व्यक्ति वह जो व्यक्त होता है। मनुष्य मन से संचालित हो रहा है। Man में भी मन या mind झांकता है।
30/6/23
अपनी बात लिखने में आत्म झांकता है और स्वयं को छिपाना मानव स्वभाव है। इसलिए व्यक्ति दूसरे की बातों के जरिये काम चलाते रहते हैं। पुरानी फ़ेसबुक पोस्ट
Thursday, June 1, 2023
मई २३
२/५/२३
मालिनीविजयतंत्र में आता है...
अकिंचिच्चिंतकस्यैव गुरुणा प्रतिबोधतः।
उत्पद्यते य आवेशः शांभवोऽसावुदीरितः॥ तंत्रालोक १/१६७
उच्चाररहितं वस्तु चेतसैव विचिंतयन्।
यं समावेशमाप्नोति शाक्तः सोऽत्राभिधीयते॥ १६८
उच्चारकरणध्यानवर्णस्थानप्रकल्पनैः।
यो भवेत्स समावेशः सम्यगाणव उच्यते॥१६९
५/५/२३
भारत में बौद्ध लुप्त हुए, अच्छा है, इनका पुनरुत्थान भारत में हो और उसकी परंपरानुसार हो। यह परंपरा किसी बौद्ध वर्ग से विरोधी नहीं होगी, अन्यथा वह बौद्ध कैसे...
बौद्धों का विरोध तो तब भी सामने नहीं आया जब बामियांन/अफ़ग़ानिस्तान में बुद्ध की बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ तोड़ी गईं।
बुद्ध भारत के नमक हैं यानि आस्वाद हैं। वेद समर्थक न होने के बावज़ूद बुद्ध और अद्वैतवादी शंकर में कोई तात्विक अंतर नहीं है। ज्ञान और उसके महत्व के रूप में वेदों का कोई विरोध संभव नहीं। ईसाईयत भी यह स्वीकार करती है। बुद्ध सबके हैं। वे दशावतार में हैं। कंबोडिया, वियतनाम, जापान, श्रीलंका, चीन, थाईलैण्ड, म्यांमार इत्यादि कितने ही देशों में और दुनिया भर में उनके जानने और मानने वाले लोग फैले हैं।
बुद्ध कहते है...
'तुम मुझे सम्मान दो, तो यह तुम्हारा बुद्धत्व को ही दिया गया सम्मान है, लेकिन तुम मेरा अंधानुकरण मत करना। क्योंकि तुम अंधे होकर मेरे पीछे चले तो बुद्ध कैसे हो पाओगे? बुद्धत्व तो खुली आंखों से उपलब्ध होता है, बंद आंखों से नहीं और बुद्धत्व तो तभी उपलब्ध होता है, जब तुम किसी के पीछे नहीं चलते, खुद के भीतर जाते हो।
गीतगोविंदकार जयदेव गाते हैं..
निन्दसि यज्ञ-विधेरहह श्रुतिजातम्
सदय-हृदय दर्शितपशुघातम् ।
केशव धृत-बुद्धशरीर जय जगदीश हरे॥९॥
अनुवाद- हे जगदीश्वर! हे हरे! हे केशिनिसूदन! आपने बुद्ध शरीर धारण कर सदय और सहृदय होकर यज्ञ विधानों द्वारा पशुओं की हिंसा देखकर श्रुति समुदाय की निन्दा की है। आपकी जय हो॥९॥
पद्यानुवाद
निन्दे यज्ञ नियम श्रुति-मगके,
माने मानव सम पश जगके।
केशव बुद्ध-शरीर लसे, जय जगदीश हरे॥९॥
बालबोधिनी- नवें पद में भगवान्के बुद्धावतार की स्तुति की जा रही है। वेद श्रीभगवान्के श्वासस्वरूप हैं; ‘तस्य निःश्वसितं वेदाः’। वेदों को स्वयं भगवान की आज्ञास्वरूप माना जाता है। वेद शास्त्रों में जब विरोधी मत अर्थात् वेदों के विरुद्ध विचार धाराएँ बढ़ने लगीं, तब आपने बुद्धावतार ग्रहण किया।
यह प्रश्न होता है कि स्वयं यज्ञ विधि को बनाकर फिर यज्ञ विधायिका श्रुतियों की क्यों निन्दा की? अत्यन्त आश्चर्य की बात है कि स्वयं ही वेदों के प्रकाशक हैं और स्वयं ही वेदों की भर्त्सना कर रहे हैं।
इसके उत्तर में ‘सदय हृदय दर्शित पशुधातम्’ अर्थात् आपने पशुओं के प्रति दयावान होकर अहिंसा परमो धर्मः, यह उपदेश प्रदानकर दैत्यों को मोहित किया है। आपने जैसे अमृत की रक्षा करने के लिए दैत्यों को मोहित किया था, उसी प्रकार प्राणियों की रक्षा करने के लिए आपने दैत्यों को मोहितकर यज्ञों को अनुचित बतलाया है।।
यज्ञ में की जानेवाली पशुओं की हिंसा को देखकर श्रीभगवान्के हृदय में दया प्रसूत हुई और दया विवश होकर अपने इस अवतार में यज्ञ प्रतिपादक वेद शास्त्रों की निन्दा की।
इस पद के नायक धीर शान्त हैं। भगवान् बुद्ध को शान्त रस का अधिष्ठाता माना गया है॥९॥
७/५/२३
हमारे देश की बड़ी ऊर्जा संवेदनशील मुद्दों पर क़ानूनों के निर्माण और उनके क्रियान्वयन की तिकड़मों पर खर्च हो जाती है।
इससे उबरना बहुत आवश्यक है। विकास और उत्थान में लोगों की रचनात्मकता लगनी चाहिए। कला एक राष्ट्रीय मूल्य है, लोग झंझटों से निकलेंगे तो कला सृजन किए बिना नहीं रहेंगे।
स्त्री और दलितों के मुद्दों से दुनिया कितनी आगे जा चुकी है, हम लोग अभी भी अटके हुए से दिखते हैं।
पहले इन मुद्दों पर क़ानून नहीं थे, पर विषमताएँ व्याप्त थीं। अब वैसी विषमताएँ तो नहीं, पर कानून का वैषम्य और लचरपन अब भी है।
१४/५/२३
आज रात माँ का आकार सुंदर स्त्री के रूप में तरह तरह से बनता हुआ दिखा। ऐसी सुंदरता किसी स्त्री में भी देखी नहीं गई। यह स्वरूप भी एक तरह का नहीं था। एक पल में अनंत स्वरूप, फिर उनका लुप्त होना और प्रकट होना चलता रहा। हम आनंदमग्न।
अगर यह स्वप्न भी मानें तो ऐसे दृश्य समुपस्थित होते रहने की कामना है, जिसके आनंद में सदा आप्लावित रहें।
माँ केवल केयर नहीं है। वह तो ऐसी आँधी भी है, जिसमें सब कुछ उखड़ जाता है। हाँ इस आँधी और झंझावात के बीच जो कुछ बच रहता है, वह माँ है। माँ तो वह है जिससे हम हैं, जिससे होने की क्रिया हो रही है। माँ में होना भी लय हो जाता है। इसलिए जो मही दिखता या होता, माँ तो वहाँ भी अस्तित्वमान है।
मातृ दिवस या प्रचलित अर्थ में माँ की अर्थवत्ता यह है कि माँ की करुणा को अनुभव में उतारकर हम संपूर्ण माँ तक पहुँच सकते हैं। संपूर्ण माँ में केयर है फेयर है और शेयर है, संभोग है और उपभोग है, आकर्षण और विकर्षण है, विलय है और उदय है। उसमे क्या नहीं है, सब होने में और न होने में वही तो है। न होने में वह शिव है तो होने में वही शक्ति है।
. प्रेम का अर्थ, जिसे तुम देख रहे हो उससे तुम जुड़ गए हो– वह विजातीय नहीं है। तुम्हारा हृदय और उसका हृदय साथ-साथ धड़क रहा है। तुम्हारी श्वास और उसकी श्वास साथ-साथ चल रही है, तुम्हारे होने में और उसके होने में अब बीच में कोई दीवाल नहीं है। प्रेम का इतना ही अर्थ है। सब दीवालें विसर्जित हो गयी हैं। दृष्टा दृश्य बन गया है।
कृष्णमूर्ति निरंतर कहते हैं: दि आब्जर्व्ड इज दि आब्जर्वर, दि आब्जर्वर इज दि आब्जर्व्ड। वह प्रेम की व्याख्या कर रहे हैं–देखनेवाला दृश्य हो गया, दृश्य देखनेवाला हो गया है। दोनों ऐसे मिल गए हैं जैसे दूध पानी मिल जाते हैं। फिर अलग करना मुश्किल हो जाता है। मिलने के बहुत ढंग हैं। पानी और तेल भी मिलाया जा सकता है। लेकिन मिलाओ, फासला बना ही रहता है–पानी तेल मिलते ही नहीं। अप्रेम की दृष्टि पानी और तेल का मिलन है। तुम देखते हो, पर मिलते नहीं। बिना मिले कैसे देखोगे? बिना मिले कैसे उतरोगे अंतरतम में यथार्थ के? बिना मिले कैसे पहुंचोगे गहराई तक? दूध-पानी जैसे मिल जाओ।
फूल को देखने गए हो: वहां फूल रहे, यहां तुम रहो; धीरे-धीरे, धीरे-धीरे दोनों खो जाए, सिर्फ फूल का अनुभव रहे–न तो अनुभव करने वाला बचे, न फूल बचे–सिर्फ बीच में तैरता एक अनुभव रह जाए। जहां दृष्टा और दृश्य खो जाते हैं, वहां दर्शन फलित होता है।
प्रेम पराकाष्ठा है। प्रेम के अतिरिक्त, जानने का कोई उपाय नहीं। तुमने कभी सोचा; तुमने कभी निरखा, परखा, पहचाना कि जीवन के, ज्ञान के अन्यतम क्षण प्रेम की छाया की तरफ आते हैं। तुम केवल उसी व्यक्ति को जान पाते हो जिसे तुमने प्रेम किया। जिसे तुमने प्रेम नहीं किया, उसके आसपास तुम कितनी ही परिक्रमा करो–जैसे लोग मंदिर में परिक्रमा करते हैं–पर वह परिक्रमा आसपास ही रहेगी, बाहर ही बाहर घूमोगे, भीतर न जा सकोगे। क्योंकि भीतर जाने की तो संभावना तभी है जब तुम अपने को डुबाने और मिटाने को राजी हो जाओ। तब तुम मिटने को राजी होते हो तब दूसरा भी मिटने को राजी हो जाता है–तुम्हारा राजीपन उसमें राजीपन की प्रतिध्वनि पैदा करता है। जैसे दो बूंद करीब आती हैं, करीब आती जाती हैं–राजी हैं मिटने को–फिर पास आ जाती हैं और एक बूंद हो जाती हैं। ऐसा एक बूंद हो जाना प्रेम है।
~ओशो
१६/५/२३
दो जलती हुई मोमबत्तियाँ जब मिलती हैं तो टकराव कहा जाएगा कि मिलन कहा जाएगा। वह संभोग दशा में हैं या विछोह अवस्था में। वह एक हो गयीं या अनंत में बिखर कर अनंत हो गयीं। विवाह का उच्चतम आदर्श तो दो का एक होना है। समत्व योग है।
अतएव मेरा विवाह तो हर उस जली हुई मोमबत्ती से हुआ है जो योगांत दशा को उपलब्ध हो चुकी है। यही विवाह और संभोग आगे उनसे भी होगा जो इसे पाएँगे।
पु शुद्ध करने के भाव का शब्द है। प्योर अंग्रेज़ी में भी कहा गया। पोता लगाना यानि सफ़ाई करना। पोत का अर्थ है जहाज़ जो पार करा दे। पुत्र/पुत्री व्यक्ति को शुद्ध करने और बेड़ा पार लगाने के अर्थद्योतक हैं। पूतना का अर्थ है जो शुद्ध या साफ़ नहीं है।
पुत्र या पुत्री को संतति के तौर पर लिया जाता है, पर उसका गहरा अर्थ यही है जो हमें संस्कारित कर दे, स्वच्छ कर दें और इस अज्ञान रूपी मल से पार करा दे, जिससे व्यक्ति ज्ञानराज्य में प्रवेश कर जाए। पोटना भी एक विलक्षण भाववाची शब्द है, धीरे-धीरे सहमत करने का भाव इसमें समाहित है। पुं नाम का नरक भी वह अज्ञान या मल है, जिससे जातक को बाहर आना होता है। पितृ ऋण भी यही अज्ञान या आवरण है। पितृ ऋण की क़ीमत अधिक है, मात्र संतति उत्पाद से इसे नहीं चुकाया जा सकता।
१९/५/२३
अभिवादन हाथ मिलाने में, चरण स्पर्श करने में अथवा हाथ जोड़कर करने में दो अलग अलग शक्तियों का एक होना है। एक शक्ति बाहर जा रही तो दूसरी भीतर जा रही है। इन दोनों का योग ही प्रणामाभिवादन है। प्रणाम में नम्यता है, अर्थात् झुक जाना, समर्पित होना। दोनों शक्तियों का विलीन होने की क्रिया प्रणाम है।
२३/५/२३
भीतर नौ महीने मल मूत्र से उपजा व्यक्ति बाहर आकर पाख करने लगता है। इसे ही शास्त्रों में अविद्या कहा गया है। इसे आणव मल भी कहा गया है।
आध्यात्मिक परिपक्वता क्या है....??
🍁1। आध्यात्मिक परिपक्वता तब होती है जब आप दूसरों को बदलने की कोशिश करना बंद कर देते हैं ... इसके बजाय स्वयं को बदलने पर ध्यान केंद्रित करते हैं। •
🍁2। आध्यात्मिक परिपक्वता तब होती है जब आप लोगों को स्वीकार करते हैं। •
🍁3। आध्यात्मिक परिपक्वता तब होती है जब आप समझते हैं कि हर कोई स्वयं के परिप्रेक्ष्य में सही है। •
🍁4। आध्यात्मिक परिपक्वता तब होती है जब आप "जाने दो" सीखते हैं। •
🍁5। आध्यात्मिक परिपक्वता तब होती है जब आप रिश्ते से "उम्मीदों" को छोड़ने और देने के लिए दे सकते हैं। •
🍁6। आध्यात्मिक परिपक्वता तब होती है जब आप जो भी करते हैं उसे समझते हैं, आप अपनी शांति के लिए करते हैं। •
🍁7। आध्यात्मिक परिपक्वता तब होती है जब आप दुनिया को साबित करना बंद कर देते हैं कि आप कितने बुद्धिमान हैं। •
🍁8। आध्यात्मिक परिपक्वता तब होती है जब आप दूसरों से अनुमोदन नहीं लेते हैं। •
🍁9। आध्यात्मिक परिपक्वता तब होती है जब आप दूसरों के साथ तुलना करना बंद कर देते हैं। •
🍁10। आध्यात्मिक परिपक्वता तब होती है जब आप अपने साथ शांति रखते हैं। •
🍁11। आध्यात्मिक परिपक्वता तब होती है जब आप "ज़रूरत" और "चाहते हैं" के बीच अंतर करने में सक्षम होते हैं और आपकी इच्छाओं को छोड़ने में सक्षम होते हैं। •
और आखिरी लेकिन सबसे सार्थक!
🍁12। जब आप भौतिक चीज़ों को "खुशी" से संलग्न करना बंद करते हैं तो आप आध्यात्मिक परिपक्वता प्राप्त करते हैं !! •
💐 "सभी को आध्यात्मिक रूप से परिपक्व जीवन की शुभकामनाएं
महामुद्रा तिरोहिता
२५/५/२३
एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच बियोगी॥
जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब सब बिषय बिलास बिरागा॥2॥
भावार्थ
इस जगत् रूपी रात्रि में योगी लोग जागते हैं, जो परमार्थी हैं और प्रपंच (मायिक जगत) से छूटे हुए हैं। जगत् में जीव को जागा हुआ तभी जानना चाहिए, जब सम्पूर्ण भोग-विलासों से वैराग्य हो जाए॥2॥
आरती यानि पूरी तरह रति। संपूर्ण समर्पण। आनंद में सराबोर।
प्रार्थना भी प्रकृष्ट अर्थना है। सकल पसारे के रूप में फैले अर्थ का बोध हो जाने पर प्रार्थना संभव होती है।
शब्द होता है, फिर अर्थ ही अर्थ है। अगर अर्थ शब्द के मूल और मर्म तक न पहुँचा तो क्या ख़ाक शब्द को समझा।
आदमी यानि जो दमी है। दम रखता है। दम पर ही जो आश्रित है। दम का अर्थ श्वास से है। दमादम मस्त कलंदर। श्वास के आने और जाने को दमादम कहते हैं। कलंदर बाबा इस आवाजाही के साक्षी हुए, इसलिए वे मस्त कहे गए। वे मुर्शीद हो गये।
२८/५/२३
समज का अर्थ झुंड या समूह होता है। इस शब्द के मध्य में जब दंड लग जाता है तब यह एक ऐसी इकाई का अर्थ द्योतन करता है, जिसकी अपनी सभ्यता और संस्कृति होती है। बिना दंड के कोई समूह अपनी सार्थकता ग्रहण नहीं कर पाता। दंड एक अनुशासन है।
किसी पद का हमारे समाज में कितना आदर और सम्मान देखा जाता है। किसी समाज में पद का सम्मान इसलिए होता है कि वह उतना अनुशासित है। वह दंड व्यवस्था से स्वतः परिचालित है। पदानुक्रम में सम्मान के स्तरों का आशय है कि वह प्राधिकारी उतना अनुशासित है।
इस अनुशासन का प्रतीक सेंगोल है, जो आज फिर चर्चा का विषय बना है। सेंगोल तमिल शब्द 'सेम्मई' से लिया गया है, जिसका अर्थ है 'नीतिपरायणता'। चोल राजवंश में राजदंड धारण करके शासन किया जाता था।राजदंड का अर्थ है न्याय। महाभारत काल से राजदंड सत्ता हस्तांतरण का प्रतीक रहा है। तमिल परंपरा का राजदंड का प्रतीक सेंगोल प्रथम प्रधानमंत्री को भेंट किया गया, फिर यह संग्रहालय में सुरक्षित रहा, अब नवनिर्मित संसद भवन में स्थापित हो रहा है।
सेंगोल बताता है कि दुनिया फ्लैट नहीं है, गोल है और अंततः वहीं लौटती है जहां उसे लौटना चाहिये था। सेंगोल यह भी बताता है कि सत्ता का चक्र परिवर्तन होता रहता है। वह एक हाथ से दूसरे हाथ में जाती रहती है।
सेंगोल राजा और धर्म के बीच एक संवाद का प्रतीक है। सेंगोल में सबसे ऊपर एक वृषभ है। वृषभ को धर्म का प्रतिनिधि कामायनी के आनंद सर्ग में जयशंकर प्रसाद जी ने कहा ही था तो वह उसी शास्त्रीय दृष्टि की आधारभूमि से कहा था।
या सोम लता से आवृत वृष
धवल, धर्म का प्रतिनिधि,
घंटा बजता तालों में
उसकी थी मंथर गति-विधि। पुराणों में वृषभ या नंदी को शक्ति-संपन्नता और कर्मठता का प्रतीक माना जाता है।
धर्म साक्षी है और निरन्तर शासक को सेंगोल देख रहा है। सेंगोल आग्रह है, संग्रह नहीं। यह शासन की शिवता की ओर धर्म-दृष्टि है।
राजदंड भारत ही नहीं बल्कि दुनिया की लगभग सभी सभ्यताओं का हिस्सा रहा है।पुरातन काल में यदि राजा किसी और को राज्य का प्रभार देकर कहीं यात्रा पर भी जाता था तो उस व्यक्ति को राजदंड सौंपना पड़ता था।
हिंदू धर्म के चारों प्रमुख शंकराचार्यों सहित ईसाई धर्म के प्रमुख पोप भी ऐसे ही एक धर्म राजदंड को अपने साथ रखते हैं। यह उनकी शक्ति तथा सत्ता का प्रतीक है। भारतीय शास्त्रों के अनुसार इसे राजा-महाराजा सिंहासन पर बैठते समय धारण करते थे।
हिंदू देवी देवताओं को विभिन्न शस्त्रों के साथ चित्रित किया जाता है, वह भी राजदंड का संकेत करता है। शक्ति बिना अनुशासन के उच्छृंखल हो जाती है।
प्रजा जागर्ति लोकेऽस्मिन् दण्डो जागर्ति तासु च ।
सर्वं संक्षिपते दण्डः पितामहसमप्रभः॥ महाभारत
कि इस लोक में प्रजा जागती है और प्रजाओं में दण्ड जागता है। वह ब्रह्माजी के समान तेजस्वी दण्ड सब को मर्यादा के भीतर रखता है॥
कामायनी में प्रसाद जी आनंद सर्ग में ही कहते है
इस वृषभ धर्म-प्रतिनिधि को
उत्सर्ग करेंगे जाकर,
चिर मुक्त रहे यह निर्भय
स्वच्छंद सदा सुख पाकर।"
Monday, May 1, 2023
अप्रैल २०२३
2/4/23
वास्तव में देवलोक , ऋषिलोक और पितृलोक
-- सब की प्रसवकारिणी माँ हैं ।
सुतरां , विश्व में मातृद्वार का सहारा लेकर ही प्रवेश करना पड़ता है । विश्व से विदा होने के समय सारा कुछ विश्व को वापस करके जाना होता है । किंतु ,इस मातृ संस्पर्श ,अर्थात काया लाभ के फलस्वरूप जीव जो कर्मशक्ति प्राप्त करता है तथा परावस्था में ज्ञान प्राप्त करके देह के अंत होने पर विश्वातीत सत्ता से युक्त होता है ,उसका प्रतिदान देने के लिए उसके पास कुछ नहीं होता । वहाँ से जो पाया जाता है , उसे लौटा देने से ही उसके प्रकृत ऋण का शोध नहीं होता । वास्तविक रूप में ऋण चुकाना हो, तो स्वयं को जो मिलता है ,अपने सभी लोगों को उसका भागी बनाना पड़ता है ।ब्रह्मप्राप्ति के बाद यदि मायिक जगत् को ब्रह्मरूप में बदलना सम्भव होता, तो कहा जा सकता कि ऋण शोध हुआ । लेकिन सृष्टिकाल से आजतक ऐसा नहीं हुआ । जिसने जो लिया है ,उसने वह लौटा दिया है ,बढ़ाकर वह नहीं दे सका है ।साधारण योगी ,साधक एवं ऋषि -मुनि आदि कोई भी आजतक माँ के अभाव को दूर नहीं कर सके ।
माँ सन्तान को पाल -पोसकर ,काम के योग्य बनाकर और ज्ञान देकर गठन करती हैं । माँ के द्वारा गठित होकर सन्तान अपना बोध जैसे ही प्राप्त करती है ,वह माँ को छोड़कर जाने को विवश होती है । जबतक वह माँ की गोद में रहती है , तबतक वह अपने को नहीं पहचानती ।
और उसे यों कहें ,जबतक वह अपने को पहचानती है ,तब माँ ही नहीं होती ,माँ की गोद भी नहीं होती । ब्रह्म और माया विरुद्ध हैं ,इसलिए उनका समन्वय नहीं होता । साधन पथ से ब्रह्म तक नहीं जाया जा सकता ।साधक जिन्हें ब्रह्म समझते हैं ,वह वास्तव में ब्रह्म नहीं । उसे जीव का ब्रह्म कहें ,तो कह सकते हैं ;
पर वह प्रकृत ब्रह्म नहीं । कर्मी होने से योगी देहांत में ब्रह्मस्वरूप में स्थिति -लाभ करते हैं ,किन्तु उससे पहले उन्हें माया या महामाया के राज्य को त्याग करना पड़ता है ।
इसलिए माया और महामाया संतान की समृद्धि का पूर्ण फल नहीं पातीं और ब्रह्म में भी माया की सृष्टि के किसी आभास की क्षीण रेखा भी नहीं रहती । किन्तु ,दर्पी योगी इस अघटन को घटित कर सकते हैं । ये माँ की कृतज्ञ सन्तान हैं । ये अपने कर्म पूर्ण करके मातृभाव में प्रतिष्ठित होकर उद्वृत्त भाव से आत्मकर्म के प्रभाव द्वारा ब्रह्म-अवस्था प्राप्त करते हैं ,इसलिए ब्रह्म और माया का व्यवधान जाता रहता है । उन्हें माया त्याग करके ब्रह्म नहीं होना पड़ता , तथाकथित वैराग्य या सन्यास ग्रहण नहीं करना पड़ता । माया की गोद में बैठकर ही वह मायातीत ब्रह्मस्वरूप में स्थिति लाभ करते हैं । फलस्वरूप ,माया तब माया नहीं रह जाती । ब्रह्म भी तब सुदूर भावातीत अव्यक्त सत्तामात्र -रूप में नहीं रहते । निज स्वरूप में दोनों का नित्ययोग प्रतिष्ठित होता है । वास्तव में ,तब माया भी नहीं और ब्रह्म भी नहीं ।अर्थात माँ नहीं और गुरु भी नहीं ,किन्तु दोनों ही अपने में अभिन्न भाव से हैं । यही वास्तविक आत्मस्वरूप में स्थिति है , जिसमें कुछ भी त्याग या कुछ भी ग्रहण नहीं करना पड़ता । अथवा , नहीं होते हुए भी सब है औऱ रहते हुए भी कुछ नहीं है । योगी उस समय अभेद में माँ को निखार लेते हैं औऱ माँ ही ब्रह्म हैं , इस महासत्य को धारण कर माँ की प्रकृत मर्यादा को बढ़ाते हैं ।
साधक और योगी
अखण्डमहायोग का पथ और मृत्यु विज्ञान पृष्ठ 30
3/3/1949
पहले मातृऋण चुकाने का प्रसङ्ग आया है । मातृऋण है क्या और वह कैसे चुकाया जाता है , और साधारणतया लोग माँ का ऋण क्यों नहीं चुका सकते ? इस प्रकार के प्रश्नों के सम्बन्ध में दो चार बातें बताई जा रही हैं । साधारणतया जीव तीन प्रकार के ऋण का भार लेकर जन्म ग्रहण करता है ,इस बात को हिन्दू समाज में सब लोग जानते हैं । इन तीन ऋणों के नाम हैं : ऋषि ऋण , पितृ ऋण और देव ऋण । ऋणी रहते हुए कोई मुक्ति नहीं पा सकता । मुक्तिलाभ के लिए ऋणशोध आवश्यक है । इसीलिए शास्त्र में कहा गया है : 'ऋणणानि त्रीण्यपाकृत्य मनो मोक्षे निवेशयेत् । ' इन्ही तीन ऋणों को चुकाने के लिए हिन्दू समाज में तीन आश्रमों की परिकल्पना की गई थी ।
ब्रह्मचर्याश्रम में विद्या विद्या -अर्जन पूर्वक एवं विद्या -प्रवचन के द्वारा ऋषि ऋण चुकाया जाता था । गृहस्थ आश्रम में सन्तान उत्पन्न करके पितृऋण चुकाना होता था । वानप्रस्थ आश्रम में यज्ञ आदि क्रियाओं के द्वारा देवऋण चुकाने की व्यवस्था थी ।
भौतिक सत्ता ,कारण सत्ता और विज्ञान सत्ता --इन तीन प्रकार की सत्ता को लेकर मनुष्य जन्म ग्रहण करता है । समष्टि देह से जब व्यष्टि देह उत्पन्न होती है ,तब व्यष्टि देह में प्रत्येक विभाग की रचना के लिए समष्टि से उपादान संग्रह करना पड़ता है । ऋषियों के सानिध्य में आध्यात्मिक सम्पद् अथवा ज्ञान की प्राप्ति होती है । पितरों से आधिभौतिक सम्पद् अथवा देह की प्राप्ति होती है तथा देवगण आधिदैविक सम्पद् अथवा आभ्यन्तर -ब्राह्य सभी इन्द्रियों की प्राप्ति होती है । इन्हीं सबसे मनुष्य का ब्राह्य जगत् में आत्म परिचय है । मनुष्य देह भाँति विश्व भी त्रिविध उपादानों से निर्मित है । मोक्ष प्राप्त करने के लिए , अर्थात विश्व से बाहर जाने के लिए इन तीन प्रकार की सम्पदाओं में कुछ भी अपने साथ नहीं ले जाया जा सकता ।जो जहाँ की वस्तु है ,उसे वहीं रख आना होता है ।
तन्तु रक्षा ही ऋण शोध का वास्तविक तात्पर्य है । पहली अवस्था में ज्ञान की धारा की रक्षा ,दूसरी अवस्था में भौतिक सत्ता की धारा की रक्षा और तीसरी अवस्था में दिव्य शक्ति समूह की धारा की रक्षा अवश्य कर्तव्य है । इस प्रकार से विश्व के प्रवाह और मर्यादा को अक्षुण्ण रखकर व्यक्ति विशेष को विश्व से अवकाश ग्रहण करना होता है । इसके बिना अव्याहृति नहीं पाई जा सकती । इस प्रसङ्ग में मातृऋण का कहीं उल्लेख नहीं है ।
साधक और योगी ( ग ) पृष्ठ 30
अखण्डमहायोग का पथ और मृत्यु विज्ञान
3/4/23
श्लोक 10.88.8
श्रीभगवानुवाच
यस्याहमनुगृह्णामि हरिष्ये तद्धनं शनै: ।
ततोऽधनं त्यजन्त्यस्य स्वजना दु:खदु:खितम् ॥ ८ ॥
शब्दार्थ
श्री-भगवान् उवाच—भगवान् ने कहा; यस्य—जिस पर; अहम्—मैं; अनुगृह्णामि—अनुग्रह करता हूँ; हरिष्ये—हरण कर लेता हूँ; तत्—उसका; धनम्—धन; शनै:—धीरे धीरे; तत:—तब; अधनम्—निर्धन; त्यजन्ति—छोड़ देते हैं; अस्य—उसके; स्व जना:—सम्बन्धी तथा मित्र; दु:ख-दु:खितम्—एक के बाद, एक दुख से दुखी ।.
अनुवाद
play_arrowpause भगवान् ने कहा : यदि मैं किसी पर विशेष रूप से कृपा करता हू ँ, तो मैं धीरे धीरे उसे उसके धन से वंचित करता जाता हूँ। तब ऐसे निर्धन व्यक्ति के स्वजन तथा मित्र उसका परित्याग कर देते हैं। इस प्रकार वह कष्ट पर कष्ट सहता है
श्लोक 10.88.9
स यदा वितथोद्योगो निर्विण्ण: स्याद् धनेहया ।
मत्परै: कृतमैत्रस्य करिष्ये मदनुग्रहम् ॥ ९ ॥
शब्दार्थ
स:—वह; यदा—जब; वितथ—व्यर्थ; उद्योग:—प्रयास; निर्विण्ण:—विफल; स्यात्—हो जाता है; धन—धन के लिए; ईहया—अपने प्रयास से; मत्—मेरे; परै:—भक्तों के साथ; कृत—बनाने वाले के लिए; मैत्रस्य—मित्रता; करिष्ये— दिखलाऊँगा; मत्—मेरी; अनुग्रहम्—कृपा ।.
अनुवाद
play_arrowpause जब वह धन कमाने के अपने प्रयासों में विफल होकर मेरे भक्तों को अपना मित्र बनाता है, तो मैं उस पर विशेष अनुग्रह प्रदर्शित करता हूँ
श्लोक 10.88.10
तद् ब्रह्म परमं सूक्ष्मं चिन्मात्रं सदनन्तकम् ।
विज्ञायात्मतया धीर: संसारात्परिमुच्यते ॥ १० ॥
शब्दार्थ
तत्—वह; ब्रह्म—निर्विशेष ब्रह्म; परमम्—परम; सूक्ष्मम्—सूक्ष्म; चित्—आत्मा; मात्रम्—शुद्ध; सत्—नित्य जगत; अनन्तकम्—अन्तहीन; विज्ञाय—भलीभाँति जान कर; आत्मतया—अपने ही आत्मा के रूप में; धीर:—धीर; संसारात्— भौतिक जीवन से; परिमुच्यते—छूट जाता है ।.
अनुवाद
play_arrowpause इस तरह धीर बना हुआ व्यक्ति ब्रह्म को, जो आत्मा की सर्वाधिक सूक्ष्म तथा पूर्ण अभिव्यक्ति से एवं अन्तहीन जगत से परे है, सर्वोच्च सत्य के रूप में पूरी तरह से अनुभव करता है। इस तरह यह अनुभव करते हुए कि परम सत्य उसके अपने अस्तित्व का आधार है, वह भौतिक जीवन के चक्र से मुक्त हो जाता है
तं भ्रंशयामिसंपद्यो यश्चेच्छाम्यनुग्रहम्!
मैं जिस पर कृपा करता हूँ उसका संसार छीन लेता हूँ। भागवत
४/४/२३
श्वान का अर्थ कुत्ता है, पर इसका अर्थ स्रोत क्या हो सकता है। श्व का अर्थ कल होता, इससे स्रोत पर नहीं पहुँच पाते। श्वपाक का अर्थ चांडाल से भी ज्ञातव्य नहीं। शुनि से श्वान हुआ। शूनी अंतःप्रेरणा को कहते हैं। सरमा स्वर्ग की एक कुतिया हुई है। जो प्रकाश या गौओं को खोजने में इंद्र और अग्नि या देवताओं की सहायक रही है। सरमा सरस्वती की भाँति एक देवी है, जिसका वेदों में खूब वर्णन आया है, सरस्वती और इला के साथ।
कुत्ता एक अंतर्ज्ञान प्राप्त जीव है। श्वान उसे इस अर्थ के कारण कहा गया प्रतीत होता है।
वेद व्यास, बुद्ध, गुरुनानक, रैदास इत्यादि कितने महापुरुष अलग-अलग महीनों की पूर्णिमा के दिन बोध प्राप्त किए थे, वर्धमान महावीर अकेले हैं जो अमावस्या के दिन साक्षात्कार पाये दीपावली के दिन। महावीर स्वामी की विलक्षणता यह भी है कि उन्हें ध्यान लगाने के लिए बैठना नहीं पड़ा, खड़े-खड़े ही ध्यानस्थ होकर अर्हत हो गए। उन्हें शरीर ढंकने की आवश्यकता भी नहीं लगी, कितने मामलों में अनोखे हैं महावीर स्वामी, जयंती पर शुभकामनाएँ....
५/४/२३
कबीर के पद बरसे कंबल भीजे पानी का अर्थ लगाते हैं कि संस्कार कंबल है और भक्ति पानी अथवा मन कंबल है, संस्कारों का प्रभाव मन पर होता है, उनके आलोड़न के बीच अगर भक्ति की धारा बह रही हो तो व्यक्ति उसके आनंद में भीगता रहता है।
योग के अर्थ में कंबल यहाँ पलकों को लिया जा सकता है। ध्यान करते समय बंद पलको के बीच संस्कारों और चित्त का स्मरण होता रहता है, यदि ध्यान एकनिष्ठ हुआ तो रुलाई छूट जाती है। इन आंसुओं से साधक आनंद में सराबोर हो जाता है। यही बरसे कंबल भीजे पानी है। यह कबीर की अमृतवाणी है। वैसे यह और पहले गोरखनाथ जी ने गाया है...
नाथ बोले अमृतबाणीं।
बरसैगी कंबली भीजैगा पाणीं॥
गाडि पडरवा बाँधिलै खूँटा।
चलै दमामा बाजिलै ऊँटा॥
कउवा की डाली पीपल बासौ।
मूसा के सबद बिलइया नासै॥
चले बटावा थ की बाट।
सोवै डुकरिया ठौरै खाट॥
ढूकिले कूकर भूकिले चोर।
काढै धणीं पुकारै ढोर॥
ऊजड़ खेड़ा नगर मझारी।
तलि गागर ऊपर पणिहारी॥
मगरी परि चूल्हा धुँधाई।
पोवणहारी को रोटी खाइ॥
कामिनी जलै अंगीठी तापै।
बिचि बैसंदर थरहर काँपै॥
एक जु रढिया रढती आई।
बहू बिवाई सासू जाई॥
नगरी कौ पांणी कूवै आवै।
उलटी चर्चा गोरख गावै॥
नाथ अमृतवाणी बोलता है तो कंबल बरसता है और जल भीगता है (जब अनहद शब्द सुनाई देता है तो शरीर अमृतरस बरसाता है जिससे आत्मा आनंदित होती है। कटड़े को गाड़ देते हैं और खूँटे को बाँध देते हैं (माया समाप्त हो जाती है और मन संयमित हो जाता है)। दमामा चलता है और ऊँट बजता है (श्वास चलता रहता है और शरीर में ध्वनि सुनाई देती रहती है)। कौआ डाली बन जाता है और पीपल उस पर बैठता है (काल के स्थान पर परब्रह्म की स्थिति होती है)। चूहे की आवाज़ सुनकर बिल्ली भाग जाती है (मन को ज्ञान होने से कुबुद्धि दूर होती है)। यात्री चलता है परंतु मार्ग थक जाता है। (जीव रूपी यात्री साधना पथ में आगे बढ़ता है और भवसागर रूपी मार्ग समाप्त हो जाता है)। बुढ़िया पर खाट सोती है, (आत्मा) में पंच ज्ञानेद्रियाँ और मन विश्राम लेते हैं। कुत्ता छिपता है और चोर भौंकता है (मन शांत हो जाता है और संसार में शोर चलता रहता है)। मालिक निकलता है और पशु पुकारता है (ईश्वर दूर हो जाता है ओर माया पुकारती रहती है)। नगर है, परंतु उजड़ स्थान बन गया है (शरीर में माया के गुण नहीं रहते, वह उजड़ी बस्ती के समान सूना हो गया है)। गागर नीचे है ओर पनिहारी ऊपर है (सांसारिकता नीचे रह जाती है और आत्मा सहस्रार में ऊपर पहुँच जाती है) लकड़ी पड़ी है, परंतु चूल्हा जल रहा है (माया निष्क्रिय रहती है और चित्त के संस्कार जल जाते हैं)। रोटी पोने वाली को रोटी खा रही है (कुमति को प्रभु का स्मरण खा रहा है)। नारी जल रही है और अंगीठी ताप सेंक रही है (कामनाएँ जल रही है और आत्मा ब्रह्माग्नि का ताप अनुभव कर रही है)। बीच में वैश्वानर थर−थर काँप रही है (इस ब्रह्माग्नि में विकार नष्ट हो रहे हैं)। एक हठी नारी हठ करती आई तो बहू ने सास को जन्म दिया (आत्मा ने जब प्रभु का स्मरण किया तो बुद्धि ने सुरति को जन्म दिया)। नगरी का जल कुएँ में आ रहा है (शरीर सहस्रकमल तक पहुँच गया है।) इस प्रकार गोरख उल्टी चर्चा गा रहा है।
६/४/२३
हनुमान प्राणदेव हैं। प्राणों के भगवान। सभी पाँचों प्राण उनमें पूरी शक्ति के साथ हैं। इसीलिए पंचमुखी हनुमान विग्रह भी खूब मिलते हैं। राम पुरुष और सीता प्रकृति है। हनुमान दोनों के बीच के प्राण रूपी सेतु बनकर उनकी सेवा करते हैं। यह प्राण ब्रह्मांडीय ऊर्जा हैं। राम सीता और हनुमान के संबंध की त्रियुति ही कृष्ण राधा और अर्जुन तथा शिव शक्ति और गणेश के संबंध की त्रियुति है।
७/४/२३
आचार्य विद्यानिवास मिश्र के शब्दों में -"विश्वास का अर्थ स्पष्ट ही है >> साँस लेना । नि:श्वास गहरी साँस लेने को कहते हैं । नि:श्वास में साँस नीचे छोड़ी जाती है , उच्छ्वास का अर्थ है >> साँस का ऊपर को उठना ।उमंग पूर्वक साँस । आश्वास का अर्थ हुआ >>इत्मीनान से साँस । खुली साँस । प्रश्वास का अर्थ है >> साँस का आना-जाना , जीवन प्राण का व्यापार ! विश्वास में वि उपसर्ग विशिष्ट है , विशेष प्रकार की साँस । आत्मबल देने वाली साँस । प्राणों के संबंध के कारण ऐसी प्रतीति ,जिसमें संशय की गुंजायश ही न हो । विश्वास चेतना का व्यापार है । विश्वास का उदाहरण ,जैसे मां के प्रति बालक का विश्वास ! पति और पत्नी का परस्पर विश्वास ।विश्वास की प्रतीति प्राणों के उच्छलन से होती है । यदि प्राणों का उच्छलन न हो तो विश्वास प्राणवान् नहीं है ।""गोस्वामी तुलसी दास ने रामचरितमानस के प्रारंभ में श्रद्धा और विश्वास की परिभाषा कर दी है - भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धा-विश्वास रूपिणौ । भवानी श्रद्धा हैं और भगवान शिव विश्वास हैं । तुलसी दास ने विश्वास को इतनी बड़ी शक्ति कहा ?
लोकजीवन पर संकट कोई नयी बात नहीं है , लोकजीवन का रथ संकटों में ही आगे बढता रहा है ,उसका यह अमृत-विश्वास कभी विचलित नहीं हुआ कि भगवान स्वयं लोकाराधन करते हैं ,लोक के कष्टों से व्यथित होकर नंगे पैरों दौड पडते हैं ।"ईश्वर की परिभाषा करते हुए गांधी जी कहते थे कि
अपने में अनन्तगुना विश्वास ही ईश्वर है । [हरिजन ३जून १९३९]भारत का सामान्य आदमी निरक्षर जरूर है और अनेक आपदाओं ,संकटों,मानवरचित-विषमताओं से घिरा है,विवश है किन्तु यह पराजित नहीं है क्योंकि इसके पास जीवन का अडिग-विश्वास है -रामभरोसे जे रहें ;परबत पर हरियांइ ।
जब प्राण का उच्छलन न हो सके , यदि चेतना सो जाय तो वही फिर अंधविश्वास बन जायेगा ।विश्वास और अंधविश्वास में बहुत झीना अन्तर है , लेकिन उसके परिणाम में आकाश और पाताल का अन्तर है ।
विश्वास जीवनी-शक्ति है , संकल्प का बल है । अंधविश्वास निर्बलता है ।
अंधविश्वास बांधता है , जबकि विश्वास मुक्त करता है ।
विश्वास में विवेक होता है और अंधविश्वास में विवेचन की शक्ति ही नहीं होती ।
विश्वास अपनी अन्तर्निहित शक्तियों या आत्मशक्ति को जगाता है, अंधविश्वास किसी दूसरे आदमी ,प्राणी या पदार्थ या प्रतीक के प्रति होडा-होडी समर्पण जैसा होता है ।विश्वास जैसे आंख खोल कर आगे चलना और अंधविश्वास जैसे आंख बंद करके किसी का झगला पकड कर चलते रहना ।विश्वास वीर का पराक्रम है जबकि अंधविश्वास कायरता । पाखंड अन्धविश्वासी का शोषण कर लेता है ।
अंधविश्वास का मूल आदिम-मानस में होता है ,इसलिये समाज के ऊपर के तबके के लोग भी अंधविश्वास करते हैं और उनकी देखादेखी नीचे तबके के लोग भी उनको मानने लगते हैं । जैसे शकुन और टोटके हैं -
लोग घर से निकलें और खाली-बर्तन सामने से आजाय या कोई आगे से छींक दे तो लौट आते हैं ,अपशकुन हो गया ।
रति स्पर्श सुख मात्र है, आरति या आरती रति या आनंद में आकंठ निमग्न होना है। इसमें व्यक्ति शब्द स्पर्श रूप रस और गंध को मन बुद्धि और चित्त से एकाकार होकर ग्रहण करता है। यह पूरी रति है, जिसे बाह्य क्रिया में देखा जाता है, पर उसका आनंद उसके स्वरूप से परिचित होकर ही लिया जा सकता है।
१४/४/२३
दान क्या है! दानमात्मज्ञानम्। दान में द का अर्थ प्रकाश है, न का अर्थ सतत प्रवाह है। प्रकाश में सतत प्रवाहमान रहना दान कहलाता है। प्रकाश में प्रवाहित रहने का अर्थ है सदा ज्ञान में डूबे रहना और दूसरों को उसके आनंद से आप्लावित करना। एक सच्चा दानी योगी ही हो सकता है। वास्तविक दान एक योगी द्वारा योग दशा को उपलब्ध करने के लिए योगी को किया जाता है। यह दान की उच्चतम स्थिति है। इसीलिए सूत्र आया है योsविपस्थो ज्ञाहेतुश्च। यो योगीन्द्र, वि विज्ञानम या ज्ञान, प स्थिति का संकेतक है, स्थ का अर्थ उस दशा में ठहरना है। ज्ञ का अर्थ है जो जानता है, यह ज्ञान की ऊर्जा है, हे हेय का अर्थबोधक है, यानि जिसका परित्याग कर दिया जाए, किसका तु यानि तुच्छता का, विसर्ग विसर्गशक्ति का द्योतक है। च का अर्थ यहाँ और नहीं बल्कि वह जो यह करता है। क्या करता है..
प्रोक्त चैतन्य रूपस्य आत्मनो यत् ज्ञानं, साक्षात्कारः, तत् अस्य दानम्, दीयते परिपूर्णं स्वरूपं, दीयते खंड्यते विश्वभेदः दायते शोध्यते मायास्वरूपम्, दीयते रक्ष्यते लब्धः शिवात्मा...
दीयते इति दानम्, आत्मज्ञानमेव अनेन अंतेवासिभ्यो दीयते।
दर्शनात्स्पर्शनाद्वापि वितताद्भव सागरात्।
तारयिष्यंति योगींद्राः कुलाचारप्रतिष्ठताः॥
१९/४/२३
योगदा की प्रार्थना निर्गुण से प्रारंभ होकर सगुण ब्रह्म की उपासना है। इस ब्रह्म का प्राकट्य सबसे पहले किस रूप में चिह्नित हुआ, उसे जानने का क्रम किस प्रकार आगे बढ़ा, किसने किसने उसे समझा। यह प्रार्थना उन सबके प्रति नतमस्तक और तदाकार होकर तादात्म्य स्थापित करती हैं।
२०/४/२३
भाषा मूल की अभिव्यक्ति है, पर यह भी अनुवाद की ही भाँति है। क्योंकि मूल को जितना सटीक जिसने कहा वह उतना वास्तविक लगा, इसलिए भाषा और अनुवाद गौड़ है, उस वास्तविक का उसके मर्म तक पहुँचाने का कथन ही महत्वपूर्ण है, वह चाहे भाषा हो या उसका अनुवाद।
भाषा तो बाज़ार के कार्यों के लिये भी प्रयुक्त होती है, क्या वह तब वैसी महत्व की रह पाएगी!
21/4/23
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥ 18.54
[सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में एकीभाव से स्थित, प्रसन्न मनवाला योगी न तो किसी के लिए शोक करता है और न किसी की आकांक्षा ही करता है। ऐसा समस्त प्राणियों में समभाव वाला योगी मेरी पराभक्ति को प्राप्त हो जाता है ॥]
————————————————————
यह श्लोक ब्रम्हावस्था से परमपद तक समग्र क्रम का संक्षेप में निर्देश है। भेद ज्ञान निवृत्त न होने पर ब्रम्हावस्था में प्रतिष्ठित नहीं हुआ जा सकता। भेदज्ञान माया का कार्य है। माया का अतिक्रम किए बिना परमपद के मार्ग में पदार्पण नहि किया जा सकता। शोक, आकांक्षा, वैषम्य–दर्शन आदि माया के कार्य है। जब तक माया विद्यमान है, तबतक जीव कितने ही आनन्द का उत्तराधिकारी क्यों न हो, किसी भी प्रकार से दुखों से मुक्ति नहीं पा सकता है।
प्रकृति के तीन गुणों का परस्पर नित्य सम्बंध होने के कारण जहाँ सत्त्वगुणों के कार्यों का आनन्द है, वहाँ अल्प मात्रा में रजोगुणों के कार्य दुःख अवश्य देंगे। त्रिगुणों से अतीत न होने तक दुख से मुक्ति पाने की कोई आशा नहीं है। प्राकृतिक वस्तु का अभाव बोध प्राकृतिक राज्य में ही होती है। अप्राकृतिक वस्तु की आकांक्षा प्राकृतिक राज्य से उत्पन्न नहीं होती। जब तक मायभेद करके त्रिगुणातीत ब्रम्हभाव की उपलब्धि नहीं हो जाती, तब तक प्राकृतिक अभाव विद्यमान रहेगा। किन्तु ब्रम्ह प्राप्ति के साथ साथ जब आत्मकाम अवस्था प्राप्त हो जाती है, तब ह्रदय की सारी आकांक्षाएं समाप्त हो जाती है।
🌹🌺💐🌻🥀
(सनातन साधना की गुप्त धारा)
रमन्ते योगिनोsनंते सत्यानंदे चिदात्मनि।
इति राम-पदेनासौ परं ब्रह्माभिधीयते।। पद्म पुराण शतनाम श्लोक 8
परम् सत्य राम कहलाता है, क्योंकि अध्यात्मवादी आध्यात्मिक अस्तित्व के असीम यथार्थ सुख में रमण करते हैं।
२२/४/२३
पावका नः सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती ।
यज्ञं वष्टु धियावसुः ||
चोदयित्री सूनृतानां चेतन्ती सुमतीनाम् ।.
यज्ञं दुधे सरस्वती ।|
महो अर्ण: सरस्वती प्र चेतयति केतुना ।
धियो विश्वा वि राजति ।।ऋग्वेद १/३/१०-१२
सरस्वती सत्य की वह शक्ति है जिसे हम अन्त:प्रेरणा कहते है । सत्यसे आने वाली अन्त:प्रेरणा हमें संपूर्ण मिथ्यात्वसे छुड़ाकर पवित्र कर देती है ( पावका )
भारतीय विचारके अनुसार सब पाप केवल मिथ्यापन ही है।
सरस्वती, अन्त:प्रेरणा, प्रकाशमय समृद्धताओंसे भरपूर हैं ( वाजेभिर्वाजिनीवती ), विचारकी संपत्तिसे ऐश्वर्यवती ( धियावसु:) है। वह यज्ञको धारण करती है, देवके प्रति दी गयी मर्त्य जीवकी क्रियाओंकी हविको धारण करती है, एक तो इस प्रकार कि वह मनुष्यकी चेतनाको जागृत कर देती है (चेतन्ती सुमतीनाम् ), जिससे वह चेतना भावना की समुचित अवस्थाओंको और विचारकी समुचित गतियोंको पा लेती है, जो अवस्थाएँ और गतियां उस 'सत्य' के अनुरूप होती हैं जहांसे सरस्वती अपने प्रकाशोंको उँडेला करती है और दूसरे इस प्रकार कि वह मनुष्य की इस चेतनाके अंदर उन सत्योंके उदय होनेको प्रेरित कर देती है ( चोदयित्री सूनृतानां) जो. सत्य वैदिक ऋषियोंके अनुसार जीवन और सत्ताको असत्य, निर्बलता और सीमा से छुड़ा देते हैं और उसके लिये परम सुखके द्वारोंको खोल देते हैं ।
इस सतत जागरण और प्रेरण (चेतयति) के द्वारा जो 'केतु' (अर्थात् बोधन ) इस एक शब्दमें संगृहीत हैं--जिस 'केतु'को वस्तुओंके मिथ्था मर्त्यदर्शनसे भेद करनेके लिये 'दैव्य-केतु' (दिव्य बोधन ) करके प्राय: कहा गया है,--सरस्वती मनुष्यकी क्रियाशील चेतनाके अंदर बड़ी भारी बाढ़को या महान् गतिको, स्वयं सत्य-चेतनाको ही, ला देती है और इससे वह हमारे सब विचारोंको प्रकाशमान कर देती है।
ऋग्वेद १.१.१ – अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् । होतारं रत्नधातमम् ॥
इस विश्वव्याप्त कर्मकांड में वेद के मंत्र यथोचित कर्म (ऋतम्) के शिक्षक हैं और इसी कारण वेद उसका वर्णन यज्ञ के नाम से करता है।
अग् धातु में संज्ञावाची नि प्रत्यय लगकर बना है। अग् धातु स्वयं होना अर्थ वाली एक मूल धातु अ से बना है, इसके चिह्न अनेक भाषाओं में पाये जाते हैं। ग् शक्ति के भाव को सूचित करता है। इसलिए अग् का अर्थ हैशक्ति के साथ प्रधान रूप में अस्तित्व रखना-तेजस्वी, बलशाली, श्रेष्ठ होना और अग्नि का अर्थ है शक्तिमान्, परम महान्, तेजोमय, प्रबल, दीप्तिमान्। सो अग्निर्यो वसु (सः अग्नि यः वसुः) अग्नि वह शक्ति है जो वस्तुओं के सारतत्व में निवास करती है।
जातवेदा भी इसे कहा गया है, क्योंकि अग्नि में ज्ञान उसके जन्म के साथ ही उत्पन्न हुआ था।
मूल धातु इळके अर्थ हैं प्रेम करना, आलिंगन करना।
पुरोहित शब्द में पुर का अर्थ द्वार, सम्मुख होना, बाद में इसका अर्थ नगर हुआ। हि का अर्थ झोंक देना, रोपना।
यज्ञ शब्द का वेद में सर्वोच्च महत्व है। कर्मकाण्डीय व्याख्या में इसका अर्थ सदा याज्ञिक क्रियाकलाप समझा जाता है। यज् धातु से यज्ञ शब्द बना है। य् के गुण है क्रिया, गति, रचना और संपर्क में pryukt की गई सामर्थ्य और मृदुता। य का मूल अर्थ है शांत-स्थिर भाव से गति करना।
यज्ञ शब्द यज् धातु से न प्रत्यय लगाने से बना है, इसका अर्थ हुआ वह जो राज्य करता है, शासक या प्रभु, प्रेम और आराधना करने वाला, साथ ही प्रेम का विषय भी, प्रभुत्व प्राप्ति का साधन और अतएव योग- योग की प्रक्रियाएँ न कि उसकी उपलब्धियाँ, प्रभुत्व की रीति और अतएव धर्म अर्थात् कार्य या आत्मशासन का नियम, जबकि यजुः का अर्थ है आराधना या पूजा की क्रिया। इसका अभिप्राय है देना या उत्सर्ग करना।
विष्णुपुराण बताता है कि सत्ययुग में विष्णु यज्ञ के रूप में आते हैं। त्रेता में विज़ेता और राजा तथा द्वापर में व्यास या शास्त्रकार के रूप में।
देव शब्द दिव धातु से विकैत हुआ, जिसका अर्थ है चमकना या स्पंदित होना, क्रीड़ा करना। द व्यंजन के गुण हैं शक्ति, भारी उग्रता। दा काटना है, दि स्पंदित होना है aur दु पीड़ा पहुँचाना है। दी से द्यु और दिव् या दीव् धातु प्राप्त होती हैं। जिनका अर्थ है जगमगाते हुए स्पंदित होना।
ऋत्विजम का अर्थ है वह जो ऋतु के अनुसार यज्ञ करता है। ऋत का मूल अर्थ स्पंदन करना, सीधे जाना। विज आनंदोन्मत्त दशा का नाम है। अतः ऋत्विज हुआ जो सत्य की पूर्ण समृद्धि से आनंदविभोर है।
होतारम्
होता का अर्थ है आहुति देने वाला पुरोहित।
ह् व्यंजन के मूल गुण हैं उग्रता, प्रचंड क्रिया, ज़ोर ज़ोर से श्वास लेना, तीव्रता। इस प्रकार होतारम का अर्थ है योद्धा, दैत्यों का संहारक। हु (युद्ध करना) धातु से यह विकसित हुआ है।
रत्नधातमम्। र रि रु ये तीन धातु र के प्रभेद हैं जिसका तात्विक अर्थ है सतत सकंप स्पंदन। रत्नम् का अर्थ है आनंद। धा धातु का अर्थ है स्थापित करना, उत्पन्न करना।
अतएव ऋग्वेद की इस प्रथम ऋचा का आध्यात्मिक अर्थ हुआ-
मैं भगवत्संकल्प रूप अग्नि को प्राप्त करने की अभीप्सा करता हूँ, उस पुरोहित को जो हमारे यज्ञ के अग्रणी के रूप में स्थापित हैं, दिव्य होता को जो सत्य के नियम-क्रम के अनुसार यज्ञ करता है और आनंद का पूर्णतया विधान करता है।
ऋषि में ऋष् गति करने के अर्थ का सूचक शब्द है। रि का अर्थ भी गति है।
२३/४/२३
समस्त भाषा अपने रूपों और विभक्तियों के समेत मनुष्य में 'प्रकृति' द्वारा प्रयुक्त की गई ध्वनि निर्माण की एक ही समृद्ध युक्ति का, एक ही निश्चित सिद्धांत का अवश्यंभावी परिणाम है। इस युक्ति या सिद्धांत को प्रकृति आश्चर्यजनक रूप से अल्पभेदों के साथ, विस्मयजनक रूप से निश्चित , अटल और लगभग निष्ठुर नियमितता के साथ, पर साथ ही रचना की एक स्वतंत्र और यहाँ तक कि निरर्थक आदिकालीन प्रचुरता के साथ प्रयोग में लाती है। आर्यों की भाषा का या विभक्तिमय स्वरूप स्वयं कोई आकस्मिक घटना नहीं, अपितु ध्वनि प्रक्रिया के प्रथम बीज चयन का लगभग स्थूल रूप से अनिवार्य परिणाम है। श्री अरबिंदो
जब तक हम एक विशेष अर्थ का विशेष ध्वनि के साथ संबंध निर्धारित करने में एक नियमितता का, मनोवैज्ञानिक दृष्टि से एक निश्चित प्रक्रिया के इसी प्रकार के शासन का पता नहीं लगा पाते, भाषा के उद्भव और विकास का शासन करने वाले नियमों का बोध प्राप्त नहीं कर सकते हैं।
उदाहरण के लिए क्रिकेट की फेंकी हुयी गेंद को लें, वह जिस दिशा में फेंकी गई, उसे तब तक नहीं बदल सकती जब तक कोई अन्य पदार्थ उसे मोड़ न दे। स्वयं स्वतंत्र न होते हुए भी उसकी दिशा और बल बदल सकते हैं। इस गेंद को कोई पक्षी टकराकर रोक सकता है, दिशा बदल सकता है, उस पक्षी को मानसिक स्वतंत्रता प्राप्त है, पर प्रकृति में उसे भी प्रभावित करने वाले, आकर्षित करने वाले कारक मौजूद होते हैं। प्राणिक शक्ति को वह घटा बढ़ा सकता है, पर बाहरी पदार्थ भी उसकी शक्ति और दिशा बदलने में सक्षम हैं। भाषा विज्ञान एक ऐसे ही मानसिक विज्ञान बनाने का प्रयत्न है। भाषा की सामग्री तो भौतिक है, क्योंकि वह ध्वनियों से निष्पन्न होती है, किंतु वह एक प्राणिक आवेग भी है। भाषा की संरचना, उसके बीज, मूल धातु, उसका निर्माण और विकास एक पक्ष है तो दूसरा पक्ष उसकी संरचना के उपयोग का मनोविज्ञान है।
आधुनिक भाषा में शब्द एक निश्चित एवं रूढ़ प्रतीक है, हम प्रथावश जो अर्थ उसके साथ जोड़ने के लिए विवश हैं, वह किसी ज्ञात उचित कारण से उसका अर्थ होता नहीं है। वृक् का अर्थ फाड़ना है, संस्कृत में उसे भेड़िया माना गया है। भाषा का चमत्कार साझे शब्दों के संरक्षण में है, न कि उनके लुप्त कर देने में। भाषा शास्त्री का नृवंश विज्ञान से कोई संबंध बनता नहीं है। न उसका सरोकार समाजशास्त्र, मानव विज्ञान और पुरातत्व विज्ञान से है। उसका एकमात्र प्रयोजन शब्दों के इतिहास से है। विचार की प्रतिनिधिभूत ध्वनियों के प्रकट रूपों से उसका संबंध है या इनसे ही होना चाहिए।
अश्वमेध यज्ञ का अर्थ है प्राण शक्ति को उसके सब आवेगों, कामनाओं और उपभोगों सहित दिव्य सत्ता के प्रति भेंट करना।
सत्ता से निचोड़कर निकाले गए आनंद को सोम की मधु मदिरा के रूप में निरूपित किया गया है। यह दूध दही और धान्य से मिश्रित है, दूध है ज्योतिर्मय गौओं का दूध, दही है बौद्धिक मन में गौओं कि उपज (दूध) का स्थिरीकरण, धान्य है भौतिक मन कि शक्ति में प्रकाश कि रूप रचना।
अदिति अनंत चेतना है, सब पदार्थों की माता।अदिति ऐसी ज्योति है जो सब वस्तुओं की माता है। अनंत सत्ता के रूप में वह दक्ष को अर्थात् विवेक और संविभाग करने वाले दिव्य मन के विचार को जन्म देती है। दक्ष की यह दिव्य पुत्री ही देवों की माता है। अदिति अद्वय है और दिति पृथक्कारी या द्वैधकारी चेतना है। इंद्र है दिव्य मन की निम्नतर सृष्टि में अभिव्यक्त शक्ति। वैदिक सूक्त में आया है कि इंद्र अपने पिता को पैरों से घसीटकर बध कर डालता है।
आर्य है पाथ का यात्री, दिव्य यज्ञ के द्वारा अमरता का अभीप्सु, प्रकाश का एक दीप्तिमान् पुत्र, सत्य के स्वामियों का पुजारी, मानवीय यात्रा का विरोध करने वाली अंधकार की शक्तियों के विरोध में किए जाने वाले युद्ध में योद्धा।
जो मनुष्य मित्र और वरुण की क्रियाओं के ऋजुपथ की खोज करता है और शब्द व स्तुति की शक्ति से अपनी समस्त सत्ता के द्वारा उनके विधान का आलिंगन करता है, वह अर्यमा के द्वारा अपनी प्रगति में रक्षित होता है।
पुत्र का आशय है मानव जाति के भीतर निर्मित देवत्व का सर्जन और प्रजनन।
२४/४/२३
यज्ञ का पुत्र वेद में एक सतत रूपक है. अग्निदेव स्वयं मनुष्य को पुत्र के रूप में दे देता है, ऐसे पुत्र के रूप में जो पिता का उद्धार करता है। साथ ही अग्नि युद्ध से पार कर हमारी यात्रा के लक्ष्य तक ले जाता है।
२८/४/२३
यतो नान्या क्रिया नाम ज्ञानमेव हि तत्तथा।
रूढेर्योगांततां प्राप्तमिति श्रीगम शासने॥ तंत्रालोक १/१४९
योगो नान्यः क्रिया नान्या तत्वारूढा हि या मतिः।
स्वचित्त वासनाशांतौ सा क्रियेत्यभिधीयते॥१५०
क्रिया ज्ञान से भिन्न नहीं है। योगांत दशा में पहुँचने पर ज्ञान शक्ति क्रिया शक्ति में विलीन हो जाती है।
योग क्रिया शक्ति से चलता है ज्ञान ज्ञान शक्ति से। इच्छा प्रारंभिक बिंदु है। योग की अंतिम दशा में जब सब शक्तियाँ एक हो जाती हैं। तब इसे क्रिया योग कहते हैं।
योग क्रिया और क्रिया योग से पृथक् नहीं। जब स्वचित्त वासना शांत हो जाती है, तब उसे क्रिया कहा जाता है।
शिष्य का अर्थ है शासु अनुशिष्टौ। यह शास धातु से निष्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है सीखना, निर्देश देना, सूचित करना। बराबर चेतनागत प्रश्न करते जाने या प्रश्नाकुलता के बाद कोई शिष्य बन पाता है। यह स्वयंचेतना ही है जो प्रश्न करती है और वही उत्तर देती है। आगे चलकर यह गुरु शिष्य संबंध का निर्माण करती है।
२९/४/२३
शरीर में मन नहीं, वरन् मन में शरीर रहता है। इसी तरह अहं में ही सारे प्राणी पर्यवसित हैं। इसी में सब निवास करते हैं। जब एक का अहं विगलित होता है और परम् में विलीन हो जाता है, तब दूसरों के अहंवादी कथन और आचरण एक खेल की भाँति लगने लगते हैं।
" भारत दार्शनिक देश है "यानी भारत का अत्यन्त साधारण आदमी भी चाहे जितना व्यभिचारी , इन्द्रिय-लोलुप क्यों न हो,पुराने जमाने से चली आयी विचारमालिका को दुहराता रहता है। 'जीवन क्या है ?मृगतृष्णा है' ;'जीवन क्या है ?आखिर मरना है!'- इस तरह के उदगार यदि आत्मा की सफलता के चिह्न हैं तो उनकी कीमत भी है।परन्तु साधारणतःवे साधारण दार्शनिक वाक्य जन-साधारण के लिए ऐसे नहीं होते। उनका अर्थ अनुभूति द्वारा ग्रहण नहीं किया जाता। ऐसी परिस्थिति में फिलासफी कभी भी जन-साधारण को सत्पथ पर नहीं चला सकती,ऐसा मेरा ख्याल है।"- मुक्तिबोध
Saturday, April 1, 2023
मार्च २०२३
5/3/23
if you need to make an effort to go into meditation, you are still very far from being able to live the spiritual life. when it takes an effort to come out of it, then indeed your meditation can be an indication that you are in the spiritual life. says by the mother
6/३/23
होली पर अनेक कहानियाँ मिलती हैं। प्रह्लाद को उनके पिता हिरण्यकशिपु द्वारा अपनी बहिन और प्रह्लाद की बुआ होलिका द्वारा प्रह्लाद को जलाने की कहानी अधिकांश कही सुनी जाती है।
होली रंगों का त्योहार है। रंग या वर्ण सृष्टि के व्यक्त होने की प्रारंभिक प्रक्रिया है। सृष्टि का उद्भव रंगों से हुआ है। रूप रंग में प्रकट होता है। आकाश और वायु अरूप है, इसलिए इनका कोई रंग नहीं होता। रूप अग्नितत्व से परिचालित होता है। अग्नि क्रिया होलिका पर्व का स्वरूप ही है। अग्नि से रूप बनते हैं, रूप रंगों में व्यक्त होते हैं। बिना रूप के सृष्टि कैसी? अर्थात् होली संसार का विलीनीकरण है। विभिन्न रंग एक के ऊपर एक डाले जाते हैं, उनका चटकपन तिरोहित होता जाता है। सब रंग बेरंग होकर रंगहीनता की ओर जा बढ़ते हैं। होली पर्व की यही सार्थकता है। होलिका में व्यक्ति का अहं रूप विलीन हो जाता है और इस पर्व के बदरंगी बहुविध हुल्लड़ और मूर्खताओं में से स्नात होकर वह अरूप होते हुए नवीनीकृत हो उठता है।
ओशो कहते हैं....
होली जैसा उत्सव पृथ्वी पर खोजने से ना मिलेगा रंग गुलाल है आनंद उत्सव है तल्लीनता का मदहोशी का मस्ती का नृत्य का नाच का बड़ा सतरंगी उत्सव है |
७/३/२३
यू मानता हूँ मैं दौलत नहीं कमा पाया
मगर तुम्हारा हर एक ग़म ख़रीद सकता हूँ। विष्णु सक्सेना
११/३/२३
वैदिक मंत्रों में गु (ग्वः) और गौ (गाव़ः) प्रारंभ से लेकर अंत तक बार-बार आते हैं। यह दो अर्थों में वेदों में आये हैं - गाय और प्रकाश की किरण।
कर्मकाण्डी के लिए गौ का अर्थ भौतिक गाय मात्र है, परंतु गौ का अलंकार वेद में आने वाले सब प्रतीकों में सबसे अधिक महत्व का है।
अश्व का अर्थ भी कर्मकाण्डी के लिए घोड़ा है, पर उसका प्रतीकार्थ है शक्ति।
गौएँ प्रकाश की ही चमकती किरणें हैं, सूर्य की 'गौएँ' हैं। वे भौतिक शरीरधारी पशु नहीं हैं।
वेद के गुह्य वचनों को 'निण्या वचांसि' कहा गया है।
अग्नि की ज्वाला संकल्प की सप्त जिह्वा शक्ति है। यह परमेश्वर की ज्ञान प्रेरित शक्ति है।
इंद्र शुद्ध सत् की शक्ति है जो भागवत मन के रूप में अभिव्यक्त है। इंद्र शक्ति से आविष्ट प्रकाश का ध्रुव है जो द्यौ से पृथ्वी पर उतरता है।
सूर्य परम सत्य का स्वामी है।
सोम आनंद का रस है
वरुण एक वृहत् पवित्रता और स्वच्छ विशालता जो समस्त पाप और कुटिल मिथ्यात्व की विनाशक है।
मित्र प्रेम और समग्र बोध की एक प्रकाशमय शक्ति है।
अर्यमा सुस्पष्ट विवेचनशील अभीप्सा तथा प्रयत्न की एक अमरशक्ति है।
भग सब वस्तुओं का उपयोग करने की एक सुखमय सहज अवस्था है। उक्त चारों सूर्य के सत्य की शक्तियां हैं।
अश्विनौ हमारे ज्ञान के भागों और कर्म के भागों को अधिष्ठित करते हैं। ये हमारी मानसिक प्राणिक एवं भौतिक सत्ता को एक सुगम और विजयशाली आरोहण के लिए तैयार कर देते हैं।
इला सत्य की दृढ़ आदिम वाणी
सरस्वती- सत्य की बहती हुई धारा
सरमा- अंतर्ज्ञान की देवी
शुनी (अंतर्ज्ञान)
दक्षिणा - ठीक ठीक विवेचन करना, क्रिया और हवि का विनियोग करना।
वायु- प्राण का अधिपति
पर्जन्य- द्युलोक की वर्षा देने वाला
रुद्र- प्रचंड और दयालु, ऊर्जस्वी देव।
विष्णु- विशाल व्यापक गति वाला।
वैदिक कण्डिकाएँ और विधि विधान ऊपर से सर्वेश्वरवाद की और प्रकृति पूजा के लिए विहित हुए लगते हैं। वैदिक ऋचाएँ सायणाचार्य के अर्थों में कर्मकांड के लिए तो पाश्चात्य विचारकों के अर्थों में प्रकृति पूजा के लिए अस्तित्वमान हुई, परंतु गुप्त तौर से ये पवित्र वचन आध्यात्मिक अनुभूति और ज्ञान के प्रभावोत्पादक प्रतीक चिह्न और आत्मसाधना के आंतरिक नियम थे, जो उस समय मानव जाति का सर्वोच्च उपलब्ध ज्ञान था।
यज्ञ का अभिप्राय है कर्म, ये कर्म आंतरिक हों या बाह्य। इस तरह यजमान होना चाहिए आत्मा अथवा व्यक्तित्व जो कर्ता है। यज्ञ संचालक होता, ऋत्विक, पुरोहित, ब्रह्मा, अध्वर्यु आदि कहे जाते हैं।
देवता यज्ञ के पुरोहित हैं। एक अमानुषी सत्ता या शक्ति यज्ञ का अधिष्ठान करती है। पुरोहित का अर्थ है पुरः तथा हित यानि आगे रखा हुआ, प्रायः इससे अग्नि देवता का संकेत किया गया है। यह अग्नि ही उस दिव्य संकल्प या दिव्य शक्ति का प्रतीक है जो यज्ञ रूप से किए जाने वाले सब पवित्र कर्मों में क्रिया की संचालिका होती है।
१२/३/२३
मन्म या मंत्र का अर्थ है मन के अंदर विचार का व्यक्तीकरण और ब्रह्म का अर्थ है हृदय या आत्मा का व्यक्तीकरण।
हृदय में 'पुरुष' केंद्रभूत होकर आसीन हुआ माना गया है। हृदय की शक्ति द्वारा ही मंत्र रचित होता है।
खाने वाला (भोक्ता) स्वयं भी खाया जाता है।
मनुष्य देवों के पशु हैं।
सत्य सत्तात्मक सत्य है
ऋतम् गतिमय सत्य है
बृहत् विशाल या विस्तृत है
भू पृथ्वी
द्यौ विशुद्ध मानसिक चेतना
स्व द्यौ का ऊर्ध्व प्रदेश है अर्थात् प्रकाशमान मन
भुवः वे विविध क्रियामय लोक है जो पृथ्वी के निर्मायक होते हैं। अंतरिक्ष भी इसे कहते हैं अंतराल में दिखाई देने वाला।
विप्र यानि प्रकाशमान ।
सूर्य सत्य के प्रकाशों से मन वि विचारों को आलोकित करता है। सूर्य विप्र है।
अग्नि वह दिव्य शक्ति है जो मर्त्य को ऊपर उठाने के लिए यहाँ शरीर में और मन में काम कर रही है।
अदिति असीम सत्ता की देवी हैं।
सविता का उपभोग सोम जो देवों का भोजन है, परम रस है।
सव के दो अर्थ हैं उत्पत्ति, रचना और दूसरा रस का क्षरण।
घृतम् अर्थात् मन का वह निर्मल प्रकाश जो सत्य को प्रतिबिंबित करता है।
देवता गौ के अंदर जो ऊपर से आने वाले प्रकाश का प्रतीक हैं, इस घृतम् की शुद्ध धाराओं को पाते हैं।
प्रकाश और शक्ति गौ और अश्व ये यज्ञ के उद्दिष्ट पदार्थ थे।
इंद्र मन का अधिपति है
वायु प्राण का।
इंद्र के घोड़े भूरे रंग के तो सूर्य के हरित रंग के हैं जो अपेक्षाकृत अधिक गहरे पूर्ण और घने चमकीले सूचित होते हैं। वायु के नियुत है जो इंद्र द्वारा हांके जाते हैं।
वसु अर्थात् सत्तत्व
ऊर्ज् अर्थात् हमारी सत्ता का प्रचुर बल
प्रियम् या मयस् अर्थात् हमारी सत्ता के वास्तविक तत्व के अंदर विद्यमान आनंद और प्रेम। यह वेदों में वेदांत का सच्चिदानंद है।
न नूनमस्ति नो श्वः कस्तद् वेद यदद्भुतम्।
अन्यस्य चित्तमभि संचरेन्यमुताधीतं वि नश्यति।। ऋग्वेद १/१७०/१ जो न आज है न कल जो देवों की गति से गतिमान होता है पर स्वयं मन जब उसे पकड़ने का प्रयत्न करता है तो उसके सामने से अंतर्धान हो जाता है। यही तत् है, जो तत्व कहा गया है।
अतप्ततनूर्न न तदामो अश्नुते। जो व्यक्ति कच्चा है और जिसका शरीर तप्त नहीं हुआ है वह उसका आस्वादन नहीं ले सकता या उसका रस नहीं ले पाता।
प्रभु का अर्थ है ऐसा होना कि चेतना के सम्मुख भाग में एक विशेष बिंदु पर किसी विशेष वस्तु या अनुभूति के रूप में अस्तित्व में आना।
विभु का अर्थ है होना या व्यापक रूप में अस्तित्व में आना।
अव स्पृधि पितरं योधि विद्वान् पुत्रो यस्ते सहसः सून ऊहे। ऋग्वेद ५/३/९
....तू ज्ञानी होकर 'पिता' का उद्धार कर, जो हमारे अंदर तेरे 'पुत्र' के रूप में धारित है (पाप तथा अंधकार) को दूर भगा दे 'हे शक्ति के पुत्र'
१६/३/२३
काम भावना का उद्दीपन न रहने पर जननांगों की क्रिया भी बाह्य अंगों की भाँति जड़वत हो जाती है। बाह्य अंग क्या क्रिया कर रहे, किस तरह परिचालित हो रहे हैं, बहुधा इसका नोटिस ही नहीं रहता। स्त्री पुरुष के जननागों के मिलने पर भी उद्दीपन नहीं वरन् एक जड़ता हो जाती है। सुप्तावस्था में जैसे गतिविधि शून्य शारीरिक अंग रहते हैं, परंतु यह स्वप्नावस्था का भाँति भी नहीं है, जिसमें मन चलता है, शरीर नहीं चलता। यह अवस्था तो मन और शरीर का जड़वत हो जाना है। जिसमें इच्छा या काम का लेश नहीं रहता और हम चैतन्य काष्ठा हो जाते हैं।
१९/३/२३
विश्व धरोहर वेलूर या एलोरा (मूल नाम वेरुल) गुफ़ाएँ मानव सभ्यता के अनथक परिश्रम और कल्पना शक्ति के चामत्कारिक उत्कर्ष की विलक्षण उदाहरण हैं।
एक पहाड़ को काटकर पूरा मंदिर बना दिया गया, कैलास मंदिर। एलोरा की ३४ गुफाओं में १७ बौद्ध, १२ हिंदुओं और ५ जैन गुफाओं का निर्माण एक पर्वत शृंखला में क्रम से किया गया है।
यहाँ पास में घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग का मंदिर दर्शनीय है। यह संख्या में १२वाँ या अंतिम ज्योतिर्लिंग है, अपना यह नौवें ज्योतिर्लिंग का दर्शन है।
यहाँ से १२ किमी दूर दौलताबाद है जो मुहम्मद तुगलक की राजधानी रही है। ३२ किमी औरंगाबाद है, जिसे अब छत्रपति शंभाजी नगर कर दिया गया है।
सब मिलाकर देवगिरि की यह अनौखी धरती पौराणिक काल से लेकर सल्तनत और मुग़ल काल से होती हुई प्रसिद्धि को प्राप्त रही है।
२०/३/२३
अगर पुरुष सूक्त या ब्राह्मणोस्य मुख मासीद.....ऋचा को बाद की रचना भी मान लिया जाए तो भी ऋग्वेद में अग्नि, इंद्र, मरुत इत्यादि देवताओं का वर्णन बार-बार आया है, यह वर्णोत्पत्ति के ही तो आधार हैं।
बाद में वेदांत या उपनिषद ग्रंथों में ब्रह्म और क्षत्र पदो का वर्णन हुआ है। गीता में यह वर्ण विभाजन स्पष्ट हो गया है। गीता उपनिषदों का सार संग्रह जैसा है। यह सही है कि वर्ण विभाजन का आधार गुण कर्म ही रहे होंगे। किंतु इस विभाजन के सूत्र वेद ग्रंथों में भी मिलते हैं। वर्ण व्यवस्था से हम सबको कोई समस्या नहीं होनी चाहिए, उसमे ऊँच नीच की भावना यदि न रहे। वर्ण का अर्थ रंग है और रंग रूप की अभिव्यक्ति के प्रथम संकेतक हैं। इस प्रकार वर्ण सृष्टि उद्गम के परिचायक हैं, आप इसे कुछ और नाम भी दे सकते हैं, पर यह सृष्टि उद्गम की पहचान हैं, इसे कैसे अस्वीकार कर सकते हैं।🙏
इस पथ का उद्देश्य नहीं है
श्रान्त भवन में टिक रहना,
किन्तु पहुँचना उस सीमा तक
जिसके आगे राह नहीं है।
~ जयशंकर प्रसाद
२१/३/२३
ग्यान कहै अग्यान बिनु, तम बिनु कहै प्रकास।
निरगुन कहै जो सगुन बिनु, सो गुरु तुलसीदास।।
२५/३/२३
सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधा मात्रात्मिका स्थिता।
हे देवि!ह्रासवृद्धि आदि परिणामों से रहीताप ही (देवताओं को हविर्दान के समय उच्चारित) स्वाहा मंत्र रूपिणी हो, आप ही (पितृ गणों को पिंडादि दान के समय उच्चारित) स्वधा मंत्र रूपिणी हो, आप ही (इंद्र को हविर्दान के समय सोलह विभिन्न धुनों पर आवृत्ति होकर) वषट् मंत्र स्वरूपिणी हो, आप ही स्वारात्मिका ( उदात्त, अनुदात्त एवं स्वरित अथवा अकारादि) हो, आप ही अमृत रूपिणी एवं (ह्रस्व दीर्घ प्लुत मात्रा रूपिणी अथवा अकार उकार मकार लक्षणा) त्रिविध मात्रा रूप में अवस्थित (प्रणवरूपिणी) हो।
अर्धमात्रास्थिता नित्या यानुच्चार्या विशेषत:।
कालोऽर्ध मात्राः कादीनां त्रयस्त्रिंशत उच्यते।
अर्ध मात्रा प्रत्येक अक्षर में अनुस्यूत है। उदाहरण के लिए अ लें, जब यह अर्ध मात्रा हो जाता है, तब यह अनुच्चार्य हो जाता है। यह अ सभी तेतीस वर्णों में मिलता है तब वे वर्ण उच्चार योग्य बन पाते हैं।
विशेष रूप से जो पूर्णतया उच्चार्य नहीं, वह वाक्यातीत अर्धमात्रा रूपी निर्गुण या तुरीय आप ही हो। हे द्योतनशीले! आप गायत्री मंत्र रूपिणी अथवा गायत्रीमंत्र की अधिष्ठात्री देवता सविता हो तथा आप ही विकारहीन श्रेष्ठ शक्ति तथा देवगणों की आदिमाता हो।
स्वयं राजते इति स्वरः
व्यक्ति योगात् व्यंजनः तत् व्हिच is made manifest.
चंद्रश्च नाम नैवान्यो भोग्यं भोक्तुश्व नापरम्।
भोक्तैव भोग्यभावेन द्वैविध्यात्संव्यवस्थितः।
घटस्य न हि मोग्यत्वं स्वं वपुर्मातृगं हि तत्॥
when there are two elements (one is the observer and one is the observed) and they get contact with each other and the creation of the universe takes place.
चमत्कार का अर्थ है आनंद, आस्वाद
२६/३/२३
कलयति (गति), परामर्शयिति (जानना), सृजिति (निर्माण), क्षिपिति (फेंकना), संकोचायिति (सिकोड़ना) और विकासयिति (फैलाना)
संकोचयिति विकासयिति च इति काली तु कालयः
इच्छाशक्तिरुमा कुमारी।
जगन्माता या परमपिता की इच्छाशक्ति को उमा कहा गया है, कुमारी कहा है।
उमा परमात्मा की स्वातंत्र्य शक्ति है। कुमारी वह शक्ति है जो ब्रह्मांड की सृष्टि स्थिति और लय करती है। कुमार का धात्विक अर्थ क्रीड़ा से विकसित हुआ है। कुम् मारयति भी कुमारी को कहा गया - भेद दृष्टि का जो संहार कर दे और अपने स्वरूप में स्थित हो जाये।
कुमारी को वर्जिन समझा गया है। वर्जिन का अर्थ है जिस ने किसी अन्य से क्रीड़ा न की हो। वह अपने आनंद स्वरूप में ही स्थित हो। उमा कुमारी पूरी तरह संसार से अनासक्त होती है, उसका आनंद परमुखापेक्षी नहीं होता और जब वह शिव सायुज्य प्राप्त करती है तो वह मात्र शिवमयी होकर रहती है।
२८/३/२३
शब्द अंतःप्रेरित वाणी है, जो सत्य के उस विचार प्रकाश को अभिव्यक्त करती है जो आत्मा में से उठता है और मन द्वारा आकृतियुक्त होता है।
२९/३/२३
चित्तमेव हि संसारस्तत्प्रयत्नेन शोधयेत्। यच्चित्तस्तन्मयो भाति गुह्यमेतत्सनातनम् ॥
चित्त ही संसार है। हर पुरुष को अभ्यास द्वारा अपने चित्त का शोधन करना चाहिए। जो अपने चित्त को ब्रह्म में लगाता है, वह मनुष्य ब्रह्ममय हो जाता है। यह शाश्वत और परम गोपनीय बात है ॥
या वर्णपदवाक्यार्थस्वरूपेण एव वर्तते.
अनादिनिधनानंता सा मां पातु सरस्वती..
जो (क्रमशः उत्तरोत्तर) प्रत्येक वर्ण, पद तथा वाक्य द्वारा प्रतिपादित अर्थ के स्वरूप में विद्यामान हैं, वे आदिअंतहीना एवं अनंत सरस्वती मेरी रक्षा करें.
५/२/२२ की फ़ेसबुक पोस्ट
तुलसी की स्त्री चेतना
प्रचलित अर्थों में स्त्री द्वारा स्त्री के बारे में स्त्री के लिए किया गया साहित्य सृजन स्त्री विमर्श कहा जाता है। तुलसी साहित्य में स्त्री के बारे में और स्त्री के लिए प्रचुर लेखन हुआ है। तुलसी साहित्य में चित्रित स्त्री संवेदना पर विचार करते हुए डॉ रामकुमार वर्मा कहते हैं- ‘‘तुलसीदासजी ने नारी जाति के प्रति बहुत आदर-भाव प्रकट किया है। पार्वती, अनुसुइया, कौशल्या, सीता तथा ग्रामबधू आदि की चरित्र रेखा पवित्र और धर्मपूर्ण विचारों से निर्मित हुई है। कुछ आलोचकों का कथन है कि तुलसीदास ने नारी-जाति की निंदा की और उन्हें ढोल, गंवार की कोटि में रखा, परंतु मानस पर निष्पक्ष दृष्टि डाली जाए तो विदित होगा कि नारी के प्रति भर्त्सना के ऐसे प्रमाण उसी समय उपस्थित किए गए जब नारी ने धर्म विरोधी आचरण किए।’’ कुछ नवचिंतक स्त्री, ढोल, गंवार आदि को तुलसी द्वारा ताड़ना के अधिकारी कहे जाने की व्याख्या मारने के अर्थ में नहीं, अपितु पहचानने के अर्थ में करते हैं। ऐसी प्रगतिशीलता से यह तो स्पष्ट ही है कि हमारा समाज इन्हें मारने के अर्थ में नहीं ले रहा है। मिश्र बंधुओं की मान्यता है कि राम से संबंधित नारियां तो सुंदर और पवित्र हैं किंतु शेष नारियां जड़, अपावन तथा स्वतंत्रता के अयोग्य हैं। कुछ साहित्यकारों का अनुमान है कि नारी संपर्क के अभाव के कारण ही ऐसा हुआ है। गोस्वामीजी को न तो जननी का वात्सल्य मिला था और न नहीं स्त्री का प्यार। डॉ देवीशरण रस्तोगी ने तुलसी की मूलचेतना का प्रश्न उठाते हुए कहा है कि पात्रों की अच्छाई-बुराई की उनके पास एक ही कसौटी है- रामभक्ति और उस भक्ति का साधन श्रुतिसम्मत होना चाहिए। नारी रूप के चित्रांकन में भी इसी भावना का हाथ रहा है। तुलसी ने नारी के काम से युुक्त लावण्य और आकर्षण शक्ति से भयभीत होने के कारण संतों और ज्ञानियों की भांति निंदा की है। वहीं महात्मा गांधी कहते हैं कि गोस्वामीजी ने स्त्रियों पर अनिच्छा से अन्याय किया है। अन्यथा उनकी दृष्टि तो इतनी व्यापक रही है कि उनके ही शब्दों में- राम भगति रत नर अरु नारी। सकल परम गति के अधिकारी।। एक नारि ब्रत रत सब झारी। ते मन बच क्रम पति हितकारी।। रामचरितमानस की कथा चित्रित करते समय तत्कालीन समाज में स्त्री की ब्यथा का पूरा संज्ञान लिया गया है। परिवार में स्त्री पराधीन थी। पुरुष प्रधान समाज में स्त्री की दोयम स्थिति पर तुलसी को क्षोभ था। स्त्री की बंदिनी और दयनीय दशा को देखकर ही उन्होंने कहा- कत बिधि सृजी नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं।। और बहुरि-बहुरि भेंटहिं महतारीं। कहहिं बिरंचि रचीं कत नारीं।। तुलसी ने मानस में श्रीराम द्वारा बाली के प्रति कहलवाया है कि छोटे भाई की स्त्री, बहिन, पुत्र की स्त्री और कन्या - ये चारों समान है। इनको जो कोई बुरी दृष्टि से देखता है, उसे मारने में कुछ भी पाप नहीं होता- अनुजबधू भगिनी सुतनारी। सुनु सठ कन्या सम ए चारी।। इन्हहिं कुदृष्टि बिलोकइ जोई। ताहि बधे कछु पाप न होई।। किष्किंधाकांड 8/4 स्त्री पुरुष को किस प्रकार सन्मार्ग दिखाती है और पुरुष उसे कैसे धता बताता है। मानस में इस प्रकार के प्रसंग आते हैं। पत्नी मंदोदरी की सीख रावण नहीं मानता ह। सुग्रीव की पत्नी को रखे जाने पर पत्नी द्वारा मना किए जाने पर भी बाली नहीं मानता है, भगवान राम द्वारा बाली का बध किए जाने के समय बाली के पूछने पर राम स्मरण कराते हैं- मूढ़ तोहि अतिसय अभिमाना। नारि सिखावन करसि न काना।। किष्किंधाकांड 8/5 पिता जनक सीता को तपस्विनी वेश में देखकर विशेष प्रेम और संतोष करते हैं, वे कहते हैं’ पुत्रि पवित्र किए कुल दोऊ। सुजस धवल जगु कह सबु कोऊ।। अयोध्याकांड 286/1 स्त्री और पुरुष के संबंध में उŸारकांड में बहुत सी बातें की गई हैं, जो किसी कथा-पात्र द्वारा नहीं, अपितु मानस के अलग-अलग चार कथावाचकों में एक काकभुशुंडि द्वारा कही गई हैं। कलियुग और उसके प्रभाव वर्णन में स्त्री संबंधी पदों का आशय इस प्रकार है- कलियुग में सभी मनुष्य स्त्रियों के विशेष वश में है और बाजीगर के बंदी की तरह (उनके नचाए) नाचते हैं। सुहागिनी स्त्रियां तो आभूषणों से रहित होती हैं, पर विधवाओं के नित्य नए शृंगार होते हैं। जो पराई स्त्री में आसक्त , कपट करने में चतुर और मोह, द्रोह और ममता से लिपटे हुए हैं, वे ही मनुष्य अभेदवादी (ब्रह्म और जीव को एक बताने वाले) ज्ञानी हैं। कुलवती और सती स्त्री को पुरुष घर से निकाल देते हैं और अच्छी चाल को छोड़कर घर में दासी को ला रखते हैं। पुत्र अपने माता-पिता को तभी तक मानते हैं, जब तक स्त्री का मुंह नहीं दिखाई पड़ता। जब से ससुराल प्यारी लगने लगी, तब से कुटुंबी शत्रु रूप हो गए। स्त्रियों के बाल ही भूषण हैं (उनके शरीर पर कोई आभूषण नहीं रह गया) और उनको भूख बहुत लगती है (अर्थात् वे सदा अतृप्त ही रहती हैं)। वे धनहीन और बहुत प्रकार की ममता होने के कारण दुखी रहती हैं। क्या स्त्री और क्या पुरुष सभी शरीर के पालन-पोषण में ही लगे रहते हैं- तनु पोषक नारि नरा सगरे। वस्तुतः दांपत्य के जिस आदर्श रूप को तुलसी ग्राह्य समझते थे, उसे उनकी ‘कवितावली’ के इस पद में देखा जा सकता है- जल को गए लक्खनु, हैं लरिका/परिखौ पिय! छांह घरीक ह्वै ठाढ़े।/पोंछि पसेउ, बयारि करौं,/अरु पाय पखारिहौं भूभुरि-डाढ़े।।//तुलसी रघुबीर प्रिया श्रम जानि कै/बैठि विलंब लौं कंटक काढ़े।/जानकी नाह को नेहु लख्यो/ पुलको तनु, बारि बिलोचन बाढ़े।। कवितावली 2/12 ‘‘संसार-साहित्य में पति-पत्नी के पारस्परिक प्रेम, संवेदन एवं तादात्म्य का इतना सुंदर, पावन एवं प्रेरक चित्रण कहीं नहीं प्राप्त होता। कोमलतम-सुंदरतम सीता कठोरतम-अनुपयुक्ततम वनपथ पर चलते-चलते थक गई हैं। कवितावली के ग्यारहवें पद में सीता पर्णकुटी कहां बनाएंगे प्रश्न करती हैं, प्रिया की कठिनाइयों को समझकर भगवान राम की आंखों से आंसू झरने लगते हैं- तिय की लखि आतुरता, पिय की अंखियां अति चारु चलीं जल च्वै। पति को लक्ष्य प्राप्ति में बाधा न पहंुचे। इसीलिए सीता जल लाने गए लक्ष्मण की प्रतीक्षा के मिस विराम का आग्रह करती हैं। ‘लरिका’ की भावशबलता में शालीनता, संवेदन, सहयोग, वात्सल्य, स्नेह इत्यादि भावों की व्यंजना अनायास ही मर्म का स्पर्श कर जाती हैं। राम ने विराम ही नहीं किया , प्राणप्रिया के शरीर में चुभे कंटक निकालने के प्रेम-संपन्न बहाने से बहुत देर तक रुके भी रहे। इसे डॉ रामप्रसाद मिश्र दांपत्य का अपवर्ग कहते है, जहां से पतन संभव नहीं। सीता और राम का प्रेम कोरा और वायवी नहीं, वरन् वे दोनों पूर्ण कर्मपाकी और लोकसंग्रही प्रेम में संलग्न हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है ‘‘राम और सीता के प्रेम का विकास मिथिला या अयोध्या के महलों और बगीचों में न दिखाकर दण्डकारण्य के विस्तृत कर्मक्षेत्र के बीच दिखाया है। उनका प्रेम जीवन यात्रा के मार्ग में माधुर्य फैलाने वाला है, उससे अलग किसी कोने में चौकड़ी या आहें भरने वाला नहीं। ............ सीताहरण होने पर राम का वियोग जो सामने आता है, वह भी चारपाई पर करवटें बदलने वाला नहीं है, समुद्र पार कराकर पृथ्वी का भार उतारने वाला है। स्त्री विमर्श में आज मोटे तौर पर तीन तरह के रूप दिखाई पड़ते हैं। एक; जिसमें स्त्री की अधिकाधिक आर्थिक स्वतंत्रता पर बल दिया जाता है। दूसरे में स्त्री और पुरुष दोनों की सहमति और सहयोग से स्त्री सशक्तीकरण किया जाता है। तीसरा प्रकार ऐसे विमर्शकारों का है जो अपनी दैहिक स्वतंत्रता की घोषणा करते हुए तदनुसार जीवन जीने की हामी हैं। यह तीसरा प्रकार स्त्री विमर्श का अतिवादी रूप है, जिसकी कुछ व्याख्याओं से तुलसी की यह स्थापनाएं मेल न खाती हों, पर आज समाज का एक बड़ा हिस्सा तुलसी के आदर्श को श्रेयस्कर मानता है। जिस तरह पुरुषवाद समाज के लिए अभीष्ट नहीं, उसी तरह स्त्रीवाद भी किसी समाज के लिए कैसे उपयुक्त हो सकता है?
११/१/१५ की फ़ेसबुक पोस्ट
३०/३/२३
रामनवमी की आप सबको हार्दिक शुभकामनाएँ....
गतिः स्थानं स्वप्नजाग्रदुन्मेष निमेषणे।
धावनं प्लवनं चैव आयासः शक्तिवेदनम्।।
बुद्धिभेदास्तथा भावाः संज्ञाः कर्माण्यनेकशः।
एष रामो....
गति, स्थान, विकल्प रूप स्वप्न, ज्ञान रूप जाग्रत, उन्मेषण, निमेषण, धावन, प्लवन, आयास, शक्तिवेदन, बुद्धि और उसके भेद, भाव, सारी संज्ञाएँ और सारे कर्म ये चौदह (शब्दतः और अर्थतः दोनो दृष्टियों से) राम ही हैं।
राम को जानना है तो रामायण के साथ-साथ 'योग वासिष्ठ' से जानना होगा। भक्ति की अंधता को ज्ञान का दीपक दूर करता है। और ज्ञान का अहंकार भक्ति के प्रेम से कटता है।
राम को योग वासिष्ठ से, कृष्ण को गीता से और शिव को शिव सूत्र से जानना चाहिए। इन सबको एक साथ जानने के लिए उपनिषदों को समझना चाहिए।
राम एक परमात्मा वाची शब्द है।
राम में जीव और परम का लीला विहार है. निशब्द से शब्द का और शब्द से ओंकार का उद्भव होता है. इस ॐ से रा और म अक्षर उत्पन्न होते हैं.
एक विशेष ध्वनि रूपी प्रकंपन (vibration) से (जिसको शास्त्रों में शब्द कहा गया है) पूरी सृष्टि का खेल चल रहा है । इसी से सूर्य, चन्द्रमा, तारे आदि गति करते रहते हैं । इसी प्रकंपन (vibration) से मनुष्य़ का शरीर बालापन, जवानी और बुढ़ापा आदि को प्राप्त होता है । इसी प्रकंपन (vibration) से आज बनी एक मजबूत बिल्डिंग निश्चित समय बाद जर्जर होकर धराशायी हो जाती है । आधुनिक विज्ञान की समस्त क्रियायें इसी प्रकंपन (vibration) पर आश्रित हैं । जैसे मोबायल फ़ोन से बात होना, वायरलेस, इंटरनेट, टी. वी. आदि के सिग्नल । हमारी आपस की बातचीत । यानी हम हाथ भी हिलाते है तो वह भी इसी vibration की वजह से हिल पाता है । इसी को चेतना या करंट भी कह सकते हैं । शुद्ध रूप में यह *र्र्र्र्र्र्र्रर्र्रर्र्रर्र्र र्र्रर्र्रर्र्* इस तरह की धुन होती है । बाद में आदि शक्ति या महामाया द्वारा इसमें *म्म्म्म्म* जोड़ दिया गया । तब यह धुन *र्म्र्म्र्म्र्म र्म्र्म्र्म्र्म* इस तरह हो गई । सरलता से समझने के लिये *रररररर* हो रही धव्नि माया से अलग हो जाती है । लेकिन जब तक *रमरमरम* ऐसी धुनि है तब तक ये माया से संयुक्त हैं । इसीलिये परमपिता परमात्मा (सतपुरुष) को सबसे बडा माना जाता है । यही 'र' और 'म' पहले स्त्री पुरुष हैं । यही असली राम (सतपुरुष) है । संत या योगी इसी राम को पाने की या जानने की लालसा करते हैं ।
एक राम दशरथ का बेटा, एक राम घट घट में बैठा एक राम का सकल पसारा,एक राम त्रिभुवन से न्यारा . तीन राम को सब कोई ध्यावे, चौथे राम को मर्म न पावे। चौथा छाड़ि जो पंचम ध्यावे..
राम को जानने के लिए नव दुर्गा की उपासना और कृपा प्राप्त करनी होती है।
तभी यह रामनवमी का दिन आता है।
रामहि केवल प्रेमु पिआरा। जानि लेउ जो जाननिहारा।
श्रीरामनाम
श्रीभगवान का एक विशिष्ट नाम है ।
इसकी महिमा अनन्त है ।
शास्त्रों ने इसी को तारक ब्रह्म कहा है।
यह प्रणव से अभिन्न है ,इस बात को ऋषि मुनियों ने बार बार बतलाया है । कहा जाता है कि परम भागवत श्री गोस्वामी तुलसीदास को देहत्याग के कुछ दिनों पूर्व अलौकिक भाव से श्रीमन महावीर जी ने रामनाम का रहस्य बतलाया था । उन्होंने कहा कि विश्लेषण करने पर रामनाम में पांच अवयव या कलाओं की प्राप्ति होती है ।
इसमें प्रथम का नाम तारक है और पिछले चारों नाम क्रमशः दण्डक , कुंडल , अर्धचन्द्र , और बिंदु हैं ।
मनुष्य स्थूल ,सूक्ष्म और कारण शरीर को लेकर इस मायिक जगत् में विचरण करता रहता है ।
जबतक माया का भेद नहीं होता ,
तबतक महाकारण देह की प्राप्ति नहीं हो सकती ।
साधक को गुरूपदिष्ट क्रम के अनुसार
स्थूल देह के समस्त तत्वों को नाम के प्रथम अवयव तारक में लीन करना पड़ता है ।
स्थूल देह एवं अन्यान्य तीनों देह पाञ्चभौतिक हैं । स्थूल में अस्थि , त्वक आदि पाँच पृथ्वी के , भेद , रेत आदि पाँच जल के , क्षुधा , तृष्णा आदि पाँच तेज के , दौड़ना , चलना आदि , पाँच वायु के , और काम , क्रोध , लोभ आदि पाँच आकाश के कार्य हैं । अन्य तीन देहों में भी इस प्रकार पंचभूतों के अंश हैं । प्रत्येक तत्व की पाँच प्रकृति होती हैं । इसी से स्थूल देह में पाँच तत्वों की पच्चीस प्रकृति हैं । इसी प्रकार अन्य देहों में पच्चीस प्रकृति हैं ।
साधना के प्रभाव से स्थूल देह के पांचों तत्व जब तारक में लीन हो जाते हैं , तब सूक्ष्म देह के पांचों तत्वों को नाम के दूसरे अवयव दण्डक में लीन करना पड़ता है । इधर पूर्वोक्त तारक भी स्थूल तत्वों को लेकर दण्डक में लीन हो जाता है । इसके बाद कारण देह के तत्व नाम के तीसरे अवयव कुंडल में लीन हो जाते हैं । कारण देह की निवृत्ति के पश्चात शुद्ध सत्वमय महाकारण देह को नाम के चतुर्थ अवयव अर्धचन्द्र में लीन करना पड़ता है । महाकारण तक जड़ का ही खेल समझना चाहिए । हाँ , महाकारण देह जड़ होने पर भी शुद्ध है , परन्तु स्थूल , सूक्ष्म और कारण जड़ अशुद्ध हैं । महाकारण -देह के अर्धचंद्र में लीन हो जाने के बाद कैवल्य देहमात्र बच रहता है । यह विशुद्ध चित्स्वरूप और जड़ सम्बन्ध से रहित है ।
अर्धचन्द्र के बाद नाम का पाँचवां अवयव या कला बिंदु रूप से प्रसिद्ध है । बिंदु पराशक्ति श्री जानकी जी का स्वरूप है ।
बिंदुरूपा श्री जानकी जी का आश्रय लिए बिना कलातीत श्री राघव जी का सन्धान प्राप्त नहीं किया जा सकता । बिंदु के अतीत रेफ ही परब्रह्म श्री रामचंद्र हैं । बिंदु रूपिणी श्री सीता जी और रेफरूपी श्री रामचंद्र जी में दृढ़ अनुराग तब अचल हो जाता है , तब भवबंधन से मुक्ति मिल जाती है । और तभी सिद्ध पंचरसों का आस्वादन हो सकता है , इससे पहले नहीं । शांत रस के रसिक प्रह्लाद आदि , दास्य के हनुमान आदि , सख्य के सुग्रीव , विभीषण , वात्सल्य के दशरथ , और श्रृंगार -रस के मूर्त-स्वरूप जनकपुर की युवतियां ----विशेषतः श्री जानकी जी स्वयं हैं ।
कैवल्य- देह में चित्त्तव का स्फुरण वर्तमान है ।उसके बाद तत्वातीत ब्रह्मवस्तु है , जो शक्तिरूप में श्री जानकी के नाम से और शक्ति के आश्रय के रूप में श्री राम के नाम से भक्तों के लिए सुपरिचित है । महावीर जी ने जो उपदेश दिया है ,उसका तात्पर्य यही है कि बिंदु का आश्रय लिए बिना निष्कल परब्रह्म की ओर अग्रसर नहीं हुआ जा सकता । वैसे प्रयत्न से बड़े अनर्थ की संभावना है--
तुलसी मेटे रूप निज बिंदु सीय कौ रूप ।
देख लखै सीता हिये राघव रेफ अनूप ।।
तुलसी जो तजि सीय कू बिंदु रेफ में चाहु ।
तौ कुम्भी में कल्प शत जाहु जाहु पर जाहु ।।
अतएव जो रामनाम के रसिक हैं , वे अर्धचंद्र बिंदु और रेफ को एक कर डालते हैं ,पृथक नहीं होने देते । और इस एक में ही उनके आस्वादन के लिए अचिन्त्य विचित्र लीलाएं प्रस्फुटित हो उठती हैं ।
रामनाम की महिमा
श्री साधना // पृष्ठ 110
३१/३/२३
वेदों में वर्णित आर्य अक्रान्ताओं तथा गुहा निवासी द्रविड़ों के बीच राजनैतिक व सैनिक संघर्ष नहीं, वरन यह तो वह संघर्ष है जो 'प्रकाश' के अन्वेषकों और अंधकार की शक्तियों के बीच होता है। गौएँ हैं सूर्य तथा उषा की ज्योतियां, वे भौतिक गायें नहीं हो सकतीं। गौओं का विशाल भयरहित खेत जिसे इंद्र ने आर्यों के लिए जीता 'स्वः' का विशाल लोक है, सौर 'प्रकाश' का लोक है, द्यौ का त्रिगुण प्रकाशमय प्रदेश है।
यदि हम चाहें तो यह भी कल्पना कर सकते हैं कि भारत में दो ऐसे विभिन्न सम्प्रदायों के बीच एक संघर्ष हुआ करता था। इन संप्रदायों के भौतिक संघर्ष को देखकर उससे ही ऋषियों ne इन प्रतीकों को लिया तथा उन्हें आध्यात्मिक संघर्ष में प्रयुक्त kar दिया, वैसे ही जैसे उन्होंने भौतिक जीवन के अन्य अंग उपांगों को आध्यात्मिक यज्ञ, आध्यात्मिक संपदा और आध्यात्मिक युद्ध तथा यात्रा के लिए प्रतीक के रूप में प्रयुक्त किया। यह कल्पना सही हो, न हो, इतना निश्चित है कि ऋग्वेद में जिस युद्ध और विजय का वर्णन हुआ है, वह कोई भौतिक युद्ध और लूटमार नहीं बल्कि एक आध्यात्मिक संघर्ष और आध्यात्मिक विजय है।
वैदिक सूक्त वस्तुतः प्रतीकवादियों और रहस्यवादियों की पवित्र धार्मिक कविताएँ हैं, न कि प्रकृति पूजक जंगलियों के गीत और न उन असभ्य आर्य आक्रांताओं के जो कि सभ्य और वैदान्तिक द्रविड़ों से लड़ रहे थे।
वर्ण का अर्थ स्वभाव है, क्या बिना स्वभाव कोई व्यक्ति हो सकता है। वर्ण या स्वभाव की व्यवस्था या नियमन मानव समाज के लिए करना अपरिहार्य है।
Wednesday, March 1, 2023
फ़रवरी २०२३
When there is desire, you are residing in rājoguṇa. When there is detachment – altogether detachment – then you are residing in sāttvaguṇa. When there is desire, you are in rājoguṇa, and that binds you too.
When there is complete knowledge and complete absence of knowledge – that is complete knowledge – that is fullness of knowledge.
Fullness of knowledge is not fullness of knowledge. Fullness of knowledge is: when you are full and you are not full – both – that is full.
६/२/२३
शास्त्रों में सोम(होम) रस लौकिक अर्थ में एक बलवर्धक पेय माना गया है, परंतु इसका एक पारलौकिक अर्थ भी देखने को मिलता है। साधना की ऊंची अवस्था में व्यक्ति के भीतर एक प्रकार का रस उत्पन्न होता है जिसको केवल ज्ञानीजन ही जान सकते हैं।
सोमं मन्यते पपिवान् यत् संविषन्त्योषधिम्।
सोमं यं ब्रह्माणो विदुर्न तस्याश्नाति कश्चन।। (ऋग्वेद-10-85-3)
जाति का अर्थ है अपने को जानना। अपना गुण और स्वभाव व्यक्ति जाने बिना नहीं रहता। जाति कोई हेयर्थक शब्द नहीं है। दुनिया का कौन सा देश बिना जातीय पहचान के है! जन्मगत जाति से जो परंपरागत कौशल अपने यहाँ चलते आए हैं, वे क्या सही नहीं थे। कौशल विकास से भी वह हुनर विकसित नहीं हो पा रहे हैं। अपने को जानने में किसी को छोटा या बड़ा, ऊँचा या नीचा यह भेद अग्राह्य हैं, अनावश्यक हैं। यह ऊँच-नीच कैसे विकसित हुई, इसके लिए कोई एक जाति ज़िम्मेदार कैसे हो सकती है! जब तक पूरी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था इतने बड़े परिवर्तन में संलग्न नहीं होगी, यह विकृति घटित नहीं हो सकती। अपनी बुराई को दूसरे के मत्थे मढ़कर अथवा पलायन करके उसे दूर नहीं किया जा सकता।
भगवान ने जातियों में भेद नहीं माना, यह बात किसने बतायी और पूर्व में भेदभाव होता रहा, यह बात भी किसने बतायी। उस भेदभाव को दूर करने में भी औपचारिक/संवैधानिक पहल किसने प्रारंभ की। थोड़ा विचार करें। स्वस्थ लोकतंत्र में किसी जाति का अवमूल्यन नहीं किया जाना चाहिए....
It is all right to enjoy life; the secret of happiness is not to become attached to anything. Enjoy the smell of the flower, but see God in it. I have kept the consciousness of the senses only that in using them I may always perceive and think of God. "Mine eyes were made to behold Thy beauty everywhere. My ears were made to hear Thine omnipresent voice." That is Yoga, union with God. It is not necessary to go to the forest to find Him. Worldly habits will hold us fast wherever we may be until we free ourselves from them. The yogi learns to find God in the cave of his heart. Wherever he goes, he carries with him the blissful consciousness of God's presence.
-Sri Sri Paramahansa Yogananda,
"Man's Eternal Quest".
७/२/२३
दी का अर्थ है बुद्धि या प्रकाश, क्षा का अर्थ है दूर क्षितिज या अंत। दीक्षा का अर्थ हुआ बुद्धि का संक्रमण, क्रिया या ज्ञान द्वारा गुरु अपने शिष्य को बोध कराता है, उसे दीक्षा कहते हैं। दीक्षा बोधांतरण है, जबकि इसका युग्म शब्द शिक्षा का अर्थ अनुशासन का अंतरण है। शिक्षा प्राप्त करने के लिए अनुशासन आवश्यक है तो वास्तविक अर्थ में दीक्षा प्राप्त करने के लिए ध्यान अनिवार्य है। और कोई सटीक उपाय नहीं है। गुरु दीक्षा देते हैं, तो शिक्षक शिक्षा। अनुशासन की पूर्णता शिक्षा है और बुद्धि की पूर्णता दीक्षा। व्यक्ति के जीवन में शांति, प्रेम और आनंद की व्याप्ति दीक्षोपरांत ही संभव है। गुरु के पास रहकर सीखी गई शिक्षा के समापन को दीक्षा कहा जाता है।
गुरु द्वारा शिष्य को जब पूरी तरह शिक्षा दी जा चुकी होती है तब दीक्षांत होता है। दीक्षांत समारोह दीक्षा प्रदान करने का एक अवसर है।
८/२/२३
गर्भ में नाभिनालबद्ध व्यक्ति को सांसारिक आनंद मिलना प्रारंभ हो जाता है, यहाँ पर व्यक्ति परमात्मा के आनंद में भी सराबोर रहता है। किंतु जन्म और विकास की यात्रा में वह सांसारिक ही हो जाता है। गर्भावस्था व्यक्ति की माँ है, किंतु गर्भ के बाहर उसकी माँ पंचभूतात्म जगत् है, जिनका रस वह पाँच तन्मात्राओं- शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध- के माध्यम से ग्रहण करता है।
हमें हिमालय दर्शन करना है, उसे फतह नहीं। आखिर क्या कारण है कि दुनिया के सबसे ऊंचे पर्वत शिखर एवरेस्ट पर बहुत से पर्वतारोही होकर आए हैं, पर कैलास शिखर पर आज तक कोई जाकर लौटा हो, ज्ञात नहीं। कैलास पर्वत हिंदुओं के लिए ही पवित्र नहीं है, तिब्बतियों के लामा वहाँ अष्टपथ में 'गुम्मा' बनाकर रहते हैं, जैनियों के लिए भी यह स्थान श्रद्धा का केंद्र है। कैलास दर्शन के श्रद्धालुओं की इच्छा तो उसके शिखर पर जाकर दर्शन करने की नही सुनाई देती। उसकी परिक्रमा या दर्शन करके ही वे धन्य हो जाते हैं।
गांवों में कहा जाता था कि पहले जब भागवत कथा होती थी तो कथा मंडप में लगे हरे बांस की सात गांठे सातों दिनों में खुल जाती थीं। यह सात गांठें कुछ और नहीं वरन सात ऊर्जा केंद्र हैं। भागवत की रसमयी कथा में पिरोए सत्यं परं धीमहि का साक्षात्कार सातवें दिन तक हो जाता है। हिमालय की यात्रा का भी यही निहितार्थ है। हिमालय की चोटियां गो और गोचर में नहीं आती, जहां माया का विस्तार रहता है। उसकी महिमा लोकोत्तर है। केदारनाथ में मैंने देखा कि दक्षिण के एक लुंगी पहने श्रद्धालु ने अपने घर पर मोबाइल पर चिल्लाकर बताया कि वह केदारनाथ पहुच गया या जो भी.. तो उसकी आँखों मे परम् तृप्ति के आंसू थे और वह हर्षित होकर बल्लियों उछल रहा था, यह भगवद्दर्शन है।
ऐसा कोई दर्शन अभी तक संसार मे नही हुआ है जो सभी प्रापंचिक रहस्यों को समझा देने में समग्रतः समर्थ हो। न ऐसा भविष्य में होने का निश्चय ही है। ज्ञात से ज्ञात तक की यात्रा नॉलेज है, पर ज्ञात से अज्ञात की यात्रा लर्निग है। दर्शन परम् तत्व के बारे में इतना ही जान पाए हैं कि वह अज्ञेय है। दर्शन अधूरे हों तो भी उनमें ग्रहणीय सत्य अंतर्निहित हैं।
हिमालय में आई त्रासदी से भगवान सबको जल्द उबारे, यह प्रार्थना है। हिमालय देवभूमि है, उस भूमि पर निवास करने वाले देवपुत्र ही हैं। ८ फ़रवरी २०२१ की फ़ेसबुक पोस्ट
१०/२/२३
यदि हम अपनी संस्थाओं में आध्यात्मिक प्रशिक्षण को छोड़ दें, तो हमें अपने संपूर्ण ऐतिहासिक विकास के प्रति झूठा होना पड़ेगा। धर्मनिरपेक्ष होने का मतलब धार्मिक रूप से अनपढ़ होना नहीं है। यह गहरा आध्यात्मिक होना है न कि संकीर्ण रूप से धार्मिक होना।
विश्वविद्यालय शिक्षा रिपोर्ट में डॉक्टर राधाकृष्णन
११/२/२३
नाद पर जब आघात होता है, तब अक्षर बनता है।
अवधूता! युगन युगन हम योगी
आय ना जाय मिटै ना कबहूं
सबद अनाहत भोगी।
सबरे ठौर जमात हमारी
सब ही ठौर पर मेला।
हम सब में सब है हम माहीं
हम है बहुरि अकेला।
हम ही सिद्ध समाधि हमी ही
हम मौनी हम बोले।
रूप सरूप अरूप दिखा के
हम ही हम तो खेलें।
कहे कबीर सुनो भाई साधो
नहीं न कोई इच्छा
अपनी मढ़ी में आप मैं डोलूं
खेलूं सहज स्वेच्छा।
१५/२/२३
महाभारत हो सकता है किसी युद्ध को देखकर प्रेरित होकर लिखा गया हो, पर वह व्यक्ति की आंतरिक वृत्तियों की द्वंद्व कथा है। व्यक्ति के भीतर ही वे विरोधी वृत्तियां मौजूद रहती हैं, उनसे संघर्ष और विजय की कथा है महाभारत।
भाइयों/बहनों या परिवारों के बीच संघर्ष होता है, पर अगर बात उतनी ही होती तो यह महाकाव्य ही न बन पाता, वह एक घटनाक्रम या इतिहास बनकर रह जाता। वह कालजयी महाकाव्य है क्योंकि वह प्रत्येक व्यक्ति को उसके अंतर्मन में ले जाने की कथा है। युधिष्ठिर, अर्जुन, दुर्योधन इत्यादि जितने पात्र हैं, उन सबके प्रतीकार्थ हैं, वे व्यक्ति के अंदर ही हैं। १५ फ़रवरी २०२१ की फ़ेसबुक पोस्ट
यस्योन्मेषनिमेषाभ्यां जगतः प्रलयोदयौ ।
तं शक्तिचक्रविभवप्रभवं शङ्करं स्तुमः ॥
शिवो गुरु: शिवो देव: शिवो बन्धु: शरीरिणाम् ।
शिव आत्मा शिवो जीव: शिवादन्यन्न किञ्चन ॥
जब आप इस संसार से विदा होंगे, तो सांसारिक समृद्धि पीछे छूट जाएगी; परन्तु प्रत्येक भलाई का कार्य जो आपने किया है, वह आपके साथ जाएगा। धनी लोग जो कृपणता से जीते हैं और स्वार्थी लोग जो कभी भी दूसरों की सहायता नहीं करते, वे अपने अगले जीवन में धन-सम्पदा आकर्षित नहीं करते हैं। परन्तु जो दान देते हैं और बाँटते हैं, चाहे उनके पास अधिक या कम हो, वे समृद्धि को प्राप्त करेंगे। यह परमात्मा का नियम है।
16/2/23
तत् तद् इन्द्रिय मुखेन सन्ततं
युष्मद अर्चन रसायनासवम्
सव्र्वभावचषकेशु पूरिते—
स्वापिवन्नपि भवेयम उन्मदः ”
यह एक अद्भुद अवस्था है। यह जो भोग है यही श्रीभगवान की अर्चना है। प्रत्येक इन्द्रिय के द्वारा ही उनकी पूजा, रसायन रूप आसव आदि भाव रूपी चषक या पात्र में पूर्ण रूप से भर देने पर नशा जैसा भाव उदय होता है, यह भी वही है। आखों से रूप देखना, अर्थात आंखों द्वारा रूप नामक भाव में या चषक में पूजा–रस पान करना या फिर तन्मय हो जाना। कानों से शब्द सुनना भी यही है। यह भोग ही उपासना है। यह जाग्रत अवस्था में होता है, स्वप्न में भी होता है, सुषुप्ति में होता है, जब जिस रूप में रहा जाए, सभी समय उनकी पूजा होती है। यह दुर्बलों का काम नहीं है, यही वीरभाव है। भगवान शंकराचार्य ने कहा है — "यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम् ” — यह वही अवस्था है।
18/2/23
साधना की विधि गुरु द्वारा जानी जाती है !
ग्रन्थों में किसी भी साधना की विधि को बताने से
अनाचार की ही वृद्धि होती है ,क्योंकि साधना की विधि ग्रन्थों में पढ़कर साधक ठीक ठीक नहीं जान सकता ! वह तो गुरु द्वारा ही जानी जाती है ,यही कारण है कि मैंने अपने ग्रन्थों में साधना की विधियाँ नहीं बतलाईं भगवद्गीता में श्री कृष्ण ने कहा है --'' अपाने जुह्यति प्राणं प्राणापानसमानयोः '' अर्थात अपान वायु में प्राण और प्राण वायु में अपान का हवन करना चाहिए ,यह क्रिया बिना बिना गुरु के कोई समझ सकता है ? जबकि गीता तो बहुत लोग पढ़ते हैं ।
गोपीनाथ कविराज जी💐💐
हमारा प्रत्येक कर्म यज्ञ है ।
हमारा जो खाना पीना है ,वह भी प्राणाग्निहोत्र यज्ञ है ।
सब ही यज्ञ है ,सब ही पूजा है ।
आत्मा ही परमात्मा है , परमात्मा ही आत्मा है ।
तभी जिसमें परमात्मा का सन्तर्पण होता है ,वही परमात्मा का तृप्तिसाधक है ,और उसकी जिससे तृप्ति होती है , वही है आत्मतृप्ति का उपकरण । दोनों में जो कल्पित विरोध तथा भेद परिलक्षित होता है ,वह है अविद्या मूलक । जैसे स्वयं कुछ भोगार्थ ग्रहण करने पर वह बंधन का कारण होता है ।
किन्तु स्वयं ग्रहण न करके वह परमात्मा को समर्पित कर दिया जाय ,तथा वह उनकी दृष्टि से पवित्र होकर साधक द्वारा गृहीत हो ,हमारे पास प्रसाद रूप से प्राप्त हो ,तब उससे बंधन तो होता ही नहीं ,प्रत्युत वह बंधन मुक्ति का कारण हो जाता है ।
यही है कर्मगत कौशल । इसप्रकार मनुष्य कर्म स्तर से ज्ञान स्तर पर स्वयं उन्नीत होता है । इस ज्ञान स्तर में कुछ समय संचरण करते - करते स्पष्ट ज्ञात होता है कि अचेतन गुण स्वयं संचारित होकर कर्म नहीं कर सकते । प्रकृति द्वारा ही सब कर्म निष्पन्न होते हैं ।
साधना का प्रारूप
साधनपथ पृष्ठ 137
आज योगदा सत्संग मंडली में शिवाभिषेक में गोमुखी शृंगी से अभिषेक किया। गो का अर्थ इंद्रिय भी है। इंद्रियां रूपी गौमुख से रुद्राष्टाध्यायी पाठ के बीच तैलधार अभिषेक से स्पष्ट हुआ कि संसार जो इंद्रियों में बसा हुआ है, वह निरन्तर प्रवाहित होकर शंकर में लीन हो रहा है। अतः हमारे मन शिव संकल्प संयुक्त हों। यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति । दूरंगमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।। (शुक्लयजुर्वेद, ३४, १)
जो मानव मन व्यक्ति के जाग्रत अवस्था में दूर तक चला जाता है और वही सुप्तावस्था में वैसे ही लौट आता है, जो दूर तक जाने की सामर्थ्य रखता है और सभी ज्योतिर्मयों की भी ज्योति है, वैसा मेरा मन शान्त, शुभ तथा कल्याणप्रद विचारों का होवे ।🙏
मनः कृतं कृतं लोके न शरीरं कृतं कृतं ।
जग में मन द्वारा किया हुआ ही कृत कर्म है, न कि शरीर द्वारा किया हुआ ।
21/2/23
घोर अहंकार, लोलुपता और ईर्ष्या में डूबा समाज कितना उत्थान कर सकता है, उतना ही, जितना उससे वह बाहर आ पाए...यह वृत्तियाँ ही हमारी असल चुनौतियाँ हैं... 21/2/22 की फ़ेसबुक पोस्ट
मातृभाषा आंखों के समान है और दूसरी भाषाएँ चश्मे की तरह। आंख जितनी सही होगी, चश्मा उतना अच्छा काम करेगा..#अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस
24/2/23
'तुममें सत्य के प्रति जितनी आस्था है,उससे अधिक भय और संकोच है.....भय और संकोच तुम्हें सत्य का पक्ष नहीं लेने देंगे…..
सत्य बड़ा महसूल चाहता है।'
-पं.हजारीप्रसाद
मार्गे मार्गे निर्मलं ब्रह्मवृन्दं
वृन्दे वृन्दे तत्त्वचिन्तानुवाद:।
वादे वादे जायते तत्वबोध:
बोधे बोधे भासते चन्द्रचूड:॥
पूर्वाम्नाय गोवर्धन मठ, पुरी, उड़ीसा
।। शंकरभारती विजयते।।। *५*
क्रमशः.........
हमारे ठाकुर( श्रीरामकृष्ण परमहंस ) कहते हैं ..."भाई गुड़ खा लिया किसी गूंगे ने अब कोई स्वाद पूछे कि कैसे लगा ? वह क्या करेगा ? आनंद से विह्वल होकर नृत्य करेगा... खुशी के मारे रोएगा...या उस स्रोत को खोजने दौड़ पड़ेगा जहाँ से एक बार यह स्वाद प्राप्त किया..."
बस हमारी उपनिषदें भी इसी तथ्य को ही उद्घाटित करती हैं।
जिसने उस ब्रह्म का साक्षात्कार किया वह वर्णन कैसे करे?
" विज्ञातारमरे केन विजानीयात् "
बृहदारण्यकोपनिषद् ( २.४.१४)
याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी से सरलता में कहा - "अरे जिसके द्वारा सब विश्व जाना जाता है उस जानने वाले को कैसे जाना जाय?"
वह आत्मा जिसके द्वारा ज्ञान प्राप्त होता है उसके विषय में कैसे जाने ....सब कुछ देखने वाली आँखों को कैसे देखें? सृष्टि के प्रारंभ से इसी प्रश्न के इर्द गिर्द 'विश्वमेधा' चिंतन का तान बाना बुन रही है.....
~~विज्ञातारमरे केन विजानीयात्~~
और सभी मौन......
जिन्हें ब्रह्म साक्षात्कार हो गया उसकी स्थिति के बारे में अवश्य कहा गया...
"ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति"
मुण्डकोपनिषद् (३.२.९)
जो ब्रह्म को जान लेता है वह ब्रह्म ही हो जाता है।
"तदेतद् ब्रह्मापूर्वमनपरमनन्तरमबाह्यम्
अयमात्मा ब्रह्म सर्वानुभूः" बृहदारण्यक (२.५.१९)
अर्थात् ब्रह्म के पहले कोई नहीं ...बाद भी कोई नहीं.. मध्य भी कोई नहीं.... न भीतर न बाहर कुछ... यह आत्मा ही ब्रह्म है ,दृष्टा , मन्ता, श्रोता, बोद्धा ,जानने वाला और बताने वाला है ......
तब कौन किसे क्या बताए?
याने कि - वही गूँगे का गुड़ ..... जो खाए वही जाने.....
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