Friday, August 8, 2025

भारत नाम वंशावली एक विहगावलोकन

भारत नाम वंशावली : एक विहगावलोकन प्रोफे राकेश नारायण द्विवेदी आज के वैज्ञानिक मानते हैं कि प्राचीन युग में यह भूमंडल सात महाद्वीपों में बंट गया था। आधुनिक युग में यह द्वीप महासागरों के आधार पर बंटे हुए मान्य किए जाते हैं। भारत के विभिन्न पुराण ग्रंथों में इन द्वीपों के बारे में विवरण प्राप्त होता है। इन विवरणों को पढ़ा-गुना जाना चाहिए, इनसे हमें ज्ञान की नई और महत्वपूर्ण दिशा का अवबोध हो सकता है। इस क्रम में भारत के पुराने नाम जंबूद्वीप के बारे में अपनी समझ बढ़ाना अनुपयुक्त नहीं होगा। वायु पुराण में आया है- सप्तद्वीप परिक्रांतं जंबूद्वीपं निबोधत। अग्नीध्रं ज्येष्ठदायादं काम्यापुत्रं महाबलम्।। 33/37 यह सात द्वीप हैं, उनके अलग-अलग शासक रहे हैं। उनके आधुनिक देशो के नाम भी सामने दिए जा रहे हैं- 1- जंबूद्वीप - अग्नीध्र - एसिया 2- शकद्वीप - मेधातिथि - अंग द्वीप आस्ट्रेलिया 3- क्रोंचद्वीप - ज्योतिष्मान - उत्तर अमेरिका 4- शाल्मलिद्वीप - द्युतिमान - विषुव के दक्षिण अफ्रीकी देश 5- गोमेद/कुश द्वीप - हव्य - उत्तर अफ्रीका 6 - प्लक्षद्वीप - वपुष्मान - यूरोप 7 - पुष्करद्वीप - सवण - दक्षिण अमेरिका सात द्वीपों से घिरे जंबू द्वीप में वायुपुराण के अनुसार आरंभिक अर्थात् स्वायंभुव मनु के पुत्र प्रियव्रत ने (प्रियव्रत और उनकी पत्नी काम्या) अपने महाबली ज्येष्ठ पुत्र अग्नीध्र को जंबूद्वीप का राजा बनाकर अभिषिक्त किया। धर्मात्मा अग्नीध्र का ज्येष्ठ पुत्र नाभि, उससे छोटा किंपुरुष, तीसरा हरिवर्ष, चौथा इलावृत, पांचवां रम्य, छठा हरिण्मान, सातवां कुरू, आठवां भद्राश्व और नवां केतुमाल नाम का पुत्र हुआ। नाभि को उसके पिता ने हिम नामक दक्षिण देश, किंपुरुष को हेमकूट, हरिवर्ष को नैषध, इलावृत को सुमेरु का मध्यप्रदेश, रम्य को नील, हरिण्मान को उत्तर का श्वेत देश, कुरु को उत्तर दिशा में शृंगवान देश, भद्राश्व को माल्यवान और केतुमाल को गंधमादन देश दिया। महात्मा नाभि और उनकी पत्नी मेरू से एक अतिशय कांतिमान पुत्र ऋषभदेव हुए। ऋषभदेव जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर मान्य हुए। उनके सौ पुत्र थे, जिनमें सबसे बड़े राजा भरत हुए। राजा भरत की गणना महाभारत में वर्णित सोलह सर्वश्रेष्ठ राजाओं में होती है। महाभारत के अनुसार भरत ने बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान किया एवं महर्षि भरद्वाज के कृपा से भूमन्यु नामक पुत्र प्राप्त किया। श्रीमद्भागवत के अनुसार भरत के अलग-अलग तीन रानियों से कुल नौ पुत्र थे, परंतु उन्होंने इनमें से किसी को भी राज्य चलाने योग्य नहीं समझा। तब भरत ने मरुत्स्तोम यज्ञ किया और मरुद्गणों ने भरत को भारद्वाज नामक पुत्र दिया। भारद्वाज जन्म से ब्राह्मण थे, किंतु भरत का पुत्र बन जाने के कारण क्षत्रिच कहलाए। भारद्वाज ने स्वयं शासन नहीं किया। भरत के देहावसान के बाद उन्होंने वृहस्पति के भाई वितथ को राज्य का भार सौंप दिया और स्वयं वन में चले गए। इस वंश के सब राजा भरतवंशी ही कहलाएं। यह वितथ वृहस्पति के भाई उतथ्य की पत्नी ममता से पैदा हुए थे। वितथ एक महान राजा सिद्ध हुए, उनके चौदह पीढ़ी बाद शांतनु हुए जो भीष्म के पिता व पांडवों और कौरवों के परदादा थे। भारद्वाज के जन्म की विचित्र कथा है। वृहस्पति ने अपने भाई उतथ्य की की गर्भवती पत्नी का बलपूर्वक गर्भाधान किया, उसके गर्भ में दीर्घतमा नाम की संतान पहले से विद्यमान थी। वृहस्पति ने उससे कहा इसका पालन पोषण (भर) कर। यह मेरा औरस और भाई का क्षेत्रज पुत्र होने के कारण दोनों का (द्वाज) पुत्र है। किंतु ममता तथा वृहस्पति दोनों में से कोई भी उसका पालन पोषण करने को तैयार नहीं हुआ। भारद्वाज को वे वहीं छांड़ गए,। मरुद्गणों ने उसे ग्रहण किया तथा उसे राजा भरत को दे दिया। माना जाता है कि इन्हीं राजा भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत रखा गया। राजा भरत की वंश परंपरा में आगे सुमति हुए, यह जैन धर्म के पांचवें तीर्थंकर के रूप में मान्य हैं। ऋग्वेद में आर्यों के निवास स्थान को ‘सप्त सिंधु’ प्रदेश कहा गया है। विभिन्न पूजा और अनुष्ठान कार्यों में पंडितजी एक संकल्प बोलते हैं। इस संकल्प में उस समय के नक्षत्र, घडी, वार, तिथि, संवत्सर का, स्थान का और यजमान का विवरण उस पूजा के उद्देश्य सहित बोला जाता है। स्थान विवरण में जंबूद्वीप का उल्लेख आता है। हम किसी सार्वजनिक भाषण या वक्तव्य देने के प्रारंभ में जो संबोधन व्यक्त करते हैं, वह इसी संकल्प का प्रतिरूप ही है। इस प्रकार हम उस अवस्था में सन्निविष्ट हो जाते हैं। प्राचीन पूजा पद्वति यह जानने के लिए महत्वपूर्ण स्रोत है कि भारत की क्या समूचे विश्व में जब ज्ञान-विज्ञान की कोई आधुनिकतावादी परंपरा मौजूद नहीं थी, यह पद्वति तब की हैं, और यह पद्वति आज विश्व भर में वक्तृता देने के क्रम में सर्वत्र उपस्थित पायी जाती है। इन पूजन कार्यों में अंतर्निहित संस्कृति के तत्व हमें अपनी ऐतिहासिक और भौगोलिक साक्ष्यों का भान कराते हैं। विदेशी इतिहासकारों को भारत की बहु भाषाओं, क्षेत्रों और उनकी बोलियों में व्यक्त और अव्यक्त विराट सांस्कृतिक विरासत में अंतर्निहित सभी तत्वों का पूरी तरह बोध हो गया हो, यह मानना ज्ञान की धारा को बंद करने जैसा होगा। सबसे पहले महाभारत के आदि पर्व में राजा दुष्यंत और शकुंतला पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत रखा हुआ बताया गया है। इसके बाद यही कथा कालिदास के अभिज्ञान शाकुंतलम् में आई है। इसका कोई ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। हमारे यहां वेदों और उपनिषदों के गूढ़ सूत्रों को समझने के लिए रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों की रचना हुई है। पश्चात्वर्ती कालखंड में इसी आशय से पुराणों की रचना की गई। यह सब कार्य वेदार्थ करने के लिए हुआ हैं। परम ज्ञान का भलीभांति आशय ग्रहण करने में अतिशय कठिनाई होती है। फिर उस अनंत को नाना प्रकार से व्यक्त किया जाना स्वाभाविक ही है। जो भी कह दिया जाता है, उसका सौंदर्य तो उसके साथ रहता है, पर वह पूर्ण और अखंड नहीं होता। इसलिए पुनः-पुनः उस अव्यक्त और परम तत्च को हम अपनी अपनी तरह से व्यक्त करते रहते हैं। अस्तु! राजा दुष्यंत पुत्र भरत को ऐतिहासिक से अधिक लाक्षणिक अर्थ में माना जाना श्रेयस्कर है। यह संभव है कि इस नाम के राजा हुए हों, परंतु उस नामकरण का भी आधार होगा, वह क्या हो सकता है। अतः भारत देश का नामकरण भायं रतः भारतः। भायं अर्थात् ज्ञान और रत अर्थात् उसमें संलग्न रहना। इस आलेख में आगे प़ढ़ते हुए यह तथ्य और स्पष्ट होता जाएगा। आधुनिक विज्ञान यह मानता है कि धरती पर मनुष्य का आगमन करोड़ों वर्ष पूर्व हो चुका था। फिर इतिहासकारों की यह बात अंतिम रूप में कैसे स्वीकार की जा सकती है कि पांच हजार वर्ष पूर्व जो साक्ष्य मिलते हैं, उसके आधार पर मात्र तथ्यों का निरूपण मान लिया जाए। पूजा पद्धति के संकल्प वाचन में लगभग दो अरब के आसपास के समय से अपनी परंपरा जोड़ी जाती है। वायु पुराण में ही कहा गया है- हिमालयं दक्षिणं वर्ष भरताय न्यवेदयत्। तस्माद् तद्भारतं वर्ष तस्य नाम्ना विदुर्बुधाः।। अर्थात् हिमालय से दक्षिण दिशा में अवस्थित भूभाग भारतवर्ष है। अब हम भारत के पूर्व विहित नाम को समझने की चेष्टा करते हैं। इस भूमंडल की संरचना कमल पुष्प की भांति है। मेरू पर्वत और उसके चतुर्दिक व्याप्त भूभाग को भूमंडल कहा जाता है। कमल के पुष्प की ही भांति इसमें सात महाद्वीप हैं, जिनका परिचय इस आलेख ऊपर दिया गया है। जिस प्रकार कमल पुष्प की मध्य कली होती है, पृथ्वी पर जंबूद्वीप उसी की तरह अवस्थित है। यह स्थिति शरीर की भी समझनी चाहिए। शरीर के मध्य सुषुम्णा नाड़ी होती है। सुमेरू पर्वत इस द्वीप में ही स्थित है। सहस्रार चक्र को सुमेरू के रूप में समझा जा सकता है। माला फेरने के समय हम उसके अंतिम मनका जो माला से अलग से जुड़ा रहता है, उसे पार नहीं किया जाता है। माला को वहीं से वापस करते हुए जाप किया जाता है, क्योंकि सुमेरू इस भूमंडल का केंद्रबिंदु है। इस पर्वत पर यह भूमंडल अवलंबित है। आज हम देखते हैं कि कैलास पर्वत माउंट एवरेस्ट से ऊंचाई में छोटा है, परंतु उस पर कोई पर्यटक नहीं जा पाता है, जबकि एवरेस्ट की चोटी पर अनेक पर्वतारोही होकर आए हैं। भारतवर्ष इस जंबूद्वीप पर बसे एक क्षेत्र का नाम है, जो ज्ञान और कर्म की भूमि के रूप में मान्य है। इस जंबूद्वीप में भारतवर्ष ही नहीं है, अपितु और वर्षों का भी अवस्थान है। वर्ष का तात्पर्य भूभाग से है। इसे समय की इकाई के रूप में भी हम जानते हैं। वस्तुतः समय और स्थान महाकाल एवं भूमा तत्व को समझने से सोपान हैं। इन सब वर्षों में भारतवर्ष ही कर्मभूमि है। शेष आठ वर्ष तो स्वर्गवासी पुरुषों के स्वर्गभोग से बचे हुए पुण्यों को भोगने के स्थान हैं। इसलिए इन्हें भूलोक के स्वर्ग भी कहते हैं। श्रीमद्भागवत् 5/7/11 जंबूद्वीप में भारतवर्ष के अतिरिक्त सम्मिलित भू-भागों के नाम हैं- इलावर्त वर्ष, जिसमें भगवान शंकर एकमात्र पुरुष हैं। वे अपनी पत्नी भवानी के साथ इसमें रहते हैं। इस वर्ष में दूसरे किसी पुरुष को आने की मनाही है, यदि कोई ऐसा दुस्साहस करता है तो वह भी स्त्री बन जाता है। भगवान शिव का स्वरूप ध्यानमंगलम् है। भद्राश्ववर्ष के शासक भद्रश्रवा हैं। यहां के भगवान हयग्रीव हैं। हर कल्पांत में जब अज्ञान वेदों को चुराता है, भगवान हयग्रीव आकर वेदों की रक्षा करते हैं और इन्हें ब्रह्मा जी को प्रदान करते हैं। हरिवर्ष में भक्त प्रह्लाद महाराज का निवास है, जो भगवान नृसिंहदेव की पूजा करते हैं। केतुमाल वर्ष में हृषीकेश कामदेव रूप में निवास करते हैं। जो स्त्री हृषीकेश के चरणों का पूजन चाहती है और किसी वस्तु की इच्छा नहीं रहती, उसकी सभी कामनाएं पूर्ण हो जाती हैं, किंतु जो किसी एक कामना को लेकर उपासना करती है, उसे आप केवल वही वस्तु देते हैं। जब उसका भोग समाप्त हो जाता है तो वह नष्ट हो जाती है और फिर उसे संतप्त होना पड़ता है। रम्यकवर्ष में भगवान ने वहां के अधिपति मनु को पूर्व काल में अपना परमप्रिय मत्स्यरूप दिखलाया था। हिरण्यमय वर्ष में भगवान कच्छप रूप धारण करके रहते हैं। वहां पितृराज अर्यमा उनकी उपासना करते हैं। उत्तरकुरूवर्ष में भगवान यज्ञपुरुष वराहमूर्ति धारण करके विराजमान हैं। पृथ्वीदेवी इनकी अविचल भक्तिभाव से उपासना करती है। किंपुरुषवर्ष में भगवान रामचंद्र की उपासना की जाती है, यहां हनुमानजी महाराज अविचल भक्तिभाव से भगवान राम की उपासना करते हैं। जब जब होय धरम की हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी।। तब तब प्रभु धरि विविध शरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।। भगवद्गीता 15/15 में कहा गया है- वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यः अर्थात् सभी वेदों के द्वारा मैं ही जानने योग्य हूं। अस्तु! वैदिक साहित्य के अध्ययन का उद्देश्य भगवान की उपासना करना ही है। यदि यह नही किया गया तो किसी का पठन-पाठन निरर्थक ही है। भारतवर्ष में भगवान दयावश नर-नारायण रूप धारण कर संयमशील पुरुषों पर अनुग्रह करने के लिए अव्यक्त रूप से कल्प के अंत तक तप करते रहते हैं। भगवान बदरीनाथ आज इसी स्थान को कहा जाता है। भारतवर्ष की प्रमुख सांस्कृतिक विशेषता उसकी वर्णाश्रम व्यवस्था है। इस व्यवस्था में वर्तमान में जो व्यवधान देखने को मिल रहे हैं, वे सभी जैसा कि भागवतम् में नारद मुनि कह रहे हैं किसी भी समय व्यवस्थित हो सकते हैं। वर्णाश्रम पद्धति से चलकर व्यक्ति आध्यात्मिक उत्थान करता है। वस्तुतः योगमार्गी होकर कोई व्यक्ति वर्णाश्रम व्यवस्था को आत्मसात करता है, अन्यथा वह अपनी भेदबुद्धि से बाहर नहीं आ पाता। भारतवर्ष में यदि कोई सर्वकाम भक्त है, अर्थात् व्यक्ति यदि कामना पूर्ति के लिए भक्ति करता है तो भी वह भगवान को प्राप्त कर सकता है। ऐसा करते हुए भी वह कर्मयोगी बनकर शुद्ध भक्त और परम ज्ञानी हो सकता है और फिर वह अपने स्वरूप में जाकर स्थित हो जाता है। भागवतम् 2/3/10 में इसे और स्पष्ट करके कहा गया है- अकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत् पुरुषं परम्।। अर्थात् जो व्यक्ति व्यापक बुद्धि रखता है, वह चाहे समस्त भौतिक कामनाएं रखे या उनसे रहित हो या मोक्ष की इच्छा रखता हो, उसे परम पुरुष के ध्यान में प्रवेश करना चाहिए। यह स्वरूपबोध ही भारतबोध है। भारतवर्ष के नाम का यही रहस्य है। इसीलिए यथानाम तथा गुण भारतीय मनीषा ने कहा है। नाम में क्या रखा है नहीं। विष्णुपुराण अध्याय 2 में कहा गया है। जंबू वृक्ष के फल एशियाई हाथियों जितने बड़े होते हैं और जब वे सड़ जाते हैं और पहाड़ों की चोटियों पर गिरते हैं तो उनके रस से एक नदी बन जाती है। जंबू का अर्थ जामुन फल नहीं है, जैसा कि उसका भाषाई अर्थ है। यह उसी तरह है जैसे बद्री नाथ को हम बेर के फल से समझने की चेष्टा करें, क्योंकि बदरी का अर्थ बेर होता है। बदरीनाथ क्षेत्र में बेर वृक्ष पाए ही नहीं जाते है। विष्णुपुराण में अभिव्यक्त रस की नदी का यह रूपक वास्तव में गंगा ही है। यह गंगा भारत में प्रवहमान होकर हम सबको कृतार्थ कर रही है। परंतु इसका परिज्ञान योग-गंगा में स्नात होने के पश्चात ही हो पाता है। हम सबको प्रतीकों में कहे गए इन भारतीय सांस्कृतिक प्रतिमानों का रहस्य समझने की आवश्यकता है। तीव्र जिज्ञासा और उत्कंठ होने पर गुरूकृपा से जब बोध प्राप्त होता है, तब यह ज्ञान रस झरने लगता है- महाभारत में आता है - धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां। धर्म का तत्व गुहा या अपनी अंतरात्मा में सन्निहित है। आगे कबीर भी गाते हैं- रस गगन गुफा में अजर झरै। बिन बाजा झंकार बजै जहां समझ परै जब ध्यान धरै। भारतवर्ष के भूगोल को और इसकी संस्कृति को योगीजन नर शरीर से एकात्म होकर समझते हैं। विश्व के मानचित्र में भारत मध्य में अवस्थित है और यह कमलपुष्प के बीच की पंखुड़ी की भांति दिखता है। मध्य नाड़ी सुषुम्णा नाडी है। इसी का रूपक सरस्वती नदी है, सुषुम्णा की तरह वह भी गुप्त रहती है। चक्रवर्ती राजा का अर्थ मानव शरीर के योग विज्ञान में वर्णित चक्रों के अधिपति होने से है। षट्चक्रों का अधिवास मानव शरीर में होता है। ज बवे उद्बुद्ध होते हैं तो कमलवत हमारे भीतर खिलते हैं। तब कोई चक्रवर्ती बनता हैं पूजा कार्यों में किया जाने वाला चक्र विधान का भी यही आशय है। राजा को सिंह की भांति कहा गया है। वह निर्भय होता है। राजा भरत चक्रवर्ती सम्राट थे। जैन परंपरा के अनुसार भारतवर्ष का नाम प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ के ज्येष्ठपुत्र चक्रवर्ती राजा भरत के नाम पर पड़ा है। भरत का एक अर्थ होता है जो पालन-पोषण करे। श्रीरामचरितमानस में आया है कि भगवान राम के छोटे भाई भरत का नामकरण इसी आधार पर किया गया - विश्व भरण पोषण कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई।। ऋग्वेद में भरत नाम की एक वैदिक जनजाति का उल्लेख है, जिन्होंने दशराज्ञ युद्ध में भाग लिया था। भरत ने पूरे भू-भाग पर शासन किया, इसलिए उनके नाम पर इस देश का नाम भारत रखा गया। पूरे भू-भाग का अर्थ है शरीर के समस्त चक्र, जो संख्या में छः हैं। इन षट्चक्रों का भेदन करके ही व्यक्ति उन पर शासन कर सकता है। राजा भरत के बारे में कहा गया है, उन्होंने पृथ्वी के छः भागों पर विजय प्राप्त की थी। राजा भरत महायोगी थे। योग परंपरा का अनुगमन करने पर चक्रवर्ती राजा होने का और भरत का वास्तविक अर्थ ज्ञात हो पाता है। राजा भरत क्षत्रिय थे। क्षत्रिय वह होता है जो शरीर की रक्षा करे। नर शरीर ही पृथ्वी का भू-भाग है, यह हम आलेख में इससे पूर्व देख चुके हैं। यहां नर-नारी और उनके अनेक भेदों में देखने की आवश्यकता नहीं है। क्षत्रिय चार वर्णों में से एक है। महाभारत की कथा के अनुसार राजा भरत ने शासन चलाने के लिए अपने उत्तराधिकारी का चयन अपनी वंश-परंपरा से नहीं किया। योग्य शासक ही राज-काज चलाने का अधिकारी होता है। योग्य शब्द भी योग से निकला है। योग्यता की खोज ब्राह्मण बने बिना संभव नहीं है। किसी राज्य का उदर पोषण और अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु वैश्य चाहिए तो उसकी सेवा करने लिए शूद्र भी आवश्यक हैं। सेवा करने से अर्थोपागम होना स्वाभाविक है। किसी राज्य की अर्थव्यवस्था के सूत्रधार यह सेवक या शूद्र ही हो सकते हैं। उदर से वैश्यों को संबद्ध किया गया है, हमारे शरीर का उदर भाग संपोषित रहेगा तो शेष शरीर ठीक से क्रियावान रह पाएगा। उदर-पूर्ति के अतिरिक्त इस शरीर की सेवा करने वाले शूद्रों की आवश्यकता समाज संचालन के लिए रहती है। भूमंडल की सेवा करने के लिए अधिकाधिक व्यक्तियों की आवश्यकता है। अस्तु! शरीर के नीचे पादपर्यंत भाग को शूद्रों से ही संबद्ध किया गया है। हमारे देश की जनसंख्या का अधिभाग भी शूद्र ही है। वर्ण व्यवस्था का प्रतीकार्थ यही है। वस्तुतः इन वर्णों में उच्च-निम्न भाव उत्पन्न करने के बाद से विसंगति उत्पन्न हो गई है। आश्रम व्यवस्था में ऐसा कोई विवाद नहीं उत्पन्न होता है। मानव शरीर और भारत के भू-भाग को मिलाकर देखने से एक संगति का निर्माण होता है। इस संगति में ही इस भू-भाग की संस्कृति पुष्पित-पल्लवित हुई है। दुर्भाग्यवश इसमें बाह्य व्यवधानों का जाने-अनजाने समावेश हो जाने से भ्रम की स्थिति निर्मित हो गई है। प्रस्तुत संगोष्ठी अपने प्रतिपाद्य विषय के अनुरूप उपस्थापन करती हुई इस भ्रम का निवारण करने में सहायक सिद्ध होगी, ऐसा हमें विश्वास है। बौद्ध परंपरा में भी भारतवर्ष को मुख्यतः जंबूद्वीप कहा जाता है। तिब्बती बौद्ध धर्म में भारत को म्यागर या फग्युल कहा गया है। म्यागर का अर्थ है विहार या मठ, जबकि फग्युल का अर्थ कुलीनों की भूमि से है। चीनी बौद्ध परंपरा में भारत का नाम तियानझू कहा जाता है, इसका अर्थ दिव्य भूमि से लिया जाता है। भारत का नाम आर्यावर्त वेदों और प्राचीन हिंदू ग्रंथों में मिलता है। गंगा और यमुना नदी के बीच के भू-भाग के लिए यह नाम प्रचलित हुआ है। भारत का यूनानी नाम इंडिका रखा गया। यूनानी इतिहासकार मेगस्थनीज ने अपनी पुस्तक इंडिका का नाम ही इस देश की संस्कृति के बारे में लिखे जाने के कारण दिया है। सिंधु नदी से प्रेरित होकर ग्रीक भाषा में यह नाम दिया गया है। बाइबिलीय हिबू्र भाषा में भारत को होड़ू कहा गया है। यह भी संस्कृत सिंधु से लिया गया है। यहूदियों द्वारा यह नाम प्रयुक्त किया जाता है। भारत का मैसोपोटामियाई नाम मैलुहा है। यह भी सिंधु घाटी सभ्यता के निवासियों को दिया गया नाम है। भारत का फारसी नाम हिंद है। यह नाम भी सिंधु से लिया गया है। बाद में इसी से हिंदुस्तान शब्द प्रचलित हुआ। सिंधु भारत का वैदिक कालीन नाम है। सिंधु नदी के किनारे बसे होने के कारण इस अंचल को यह नाम दिया गया। अंग्रेजों द्वारा इसे यूनानी भाषा के प्रभाव से इंडिया कहा गया और यह भारत का संवैधानिक नाम भी है। संविधान के अनुच्छेद एक में ही कहा गया है- इंडिया दैट इज भारत। इंडियन नाम का प्रयोग अतीत में अमेरिका के मूल निवासियों के लिए किया जाता था। अब इसका प्रयोग पुराना और अपमानजनक माना जाता है। आज यदि कोई भारत के निवासियों से घृणा करता होगा और वह कुछ ऐसा अपमानजनक भाव रखता होगा तो यह समस्या उसकी है, भारत नाम की नहीं। -ध्यानमंगलम्, सिल्वर सिटी, कैलगुवां रोड, ललितपुर उप्र-284403 मो 9236114604

Saturday, July 19, 2025

रामायण में रूपक योग

रामायण में रूपक योग विदित है कि विश्व का आदि महाकाव्य रामायण रचने की प्रेरणा महर्षि वाल्मीकि को तब हुई, जब एक आखेटक द्वारा मैथुनरत क्रोंच युगल में से नर क्रोंच को मार दिया गया और इसे वाल्मीकि ने देखा। इस संताप से दुःखी अंतर्मन से अयोध्या की निर्मिति की कल्पना आदि कवि में सृजक मन में उदित हुई। अयोध्या वह है, जहां चंचल मन शांत होकर निर्द्वंद्व एवं वृत्तियुद्ध विहीन हो जाए। साधक को साध्य से मिलने की तड़पन तब अधिक तीव्र हो जाती है, जब नर क्रोंच (आत्मा) और मादा क्रोंच (शरीर) के मधुर मिलन के दौरान आत्मा अर्थात् नर क्रोंच का बध कर दिया गया हो। अयोध्या नगरी की स्थापना मनु अर्थात्् मन की उच्चतर अवस्था द्वारा हुई। मन सदा वृत्तियों के युद्ध से पीड़ित रहता है। मन जब निर्द्वंद्व एवं वृत्तियुद्ध विहीन होता है, रामायणकार तब उस दशा को अयोध्या कहते हैं। अयोध्यापुरी का विस्तार दस और दो अर्थात् दस इंद्रियों एवं मन और बुद्धि के संयोग से किया गया है। पुरुष सूक्त में त्यत्तिष्ठद्दशांगुलम् को भी इसी अर्थ में ग्रहण करना चाहिए। तंत्रशास्त्र में बार-बार द्वादशांत का उल्लेख हुआ है, उसे श्वांस-प्रश्वांस के बारह अंगुल बाहर और भीतर के आकाश को निरूपित करते हैं। यह भी प्रकारांतर से अयोध्या ही है। अयोध्यापुरी का विस्तार द्वादश पर्यंत ले जाने की योजना की गई है। यह योजना ही योजन है। संत ज्ञानेश्वर के एक अभंग में आया है- शब्द बिना संवाद बिना दूसरे के अनुवाद- इसका आशय है कि मेरी आंखें बंद थीं। कान सुन रहे थे, परंतु शब्दों के आशय न समझकर मेरे मनःचक्षुओं के सामने उन घटनाओं के चित्र सरकते थे। रामायण में आया चित्रकूट इसी अवस्था का अभिधान है। श्रीमती त्रीणि अर्थात् तीन मुख्य नाड़ियां योग मार्ग के रास्ते हैं- इड़ा, पिंगला एवं सुषुम्णा। इस नगरी के राजा दशरथ है। कठोपनिषद 1.3.3 में दिए गए एक रूपक के अनुसार यह शरीर एक रथ है, बुद्धि उसका सारथी और मन लगाम है। शरीर रूपी इस रथ का स्वामी आत्मा है। एक इंद्रिय का स्वामी एक रथ है तो दस इंद्रियों के स्वामी दशरथ हैं। दशरथ रूप पिण्ड का आत्मानंद रूप ‘राम’ पुत्र है। योगियों के चित्त में रहने वाले आत्मानंद को ‘राम’ कहते हैं। रमंते योगिना चित्तस्य इति रामः। राम जैसे पुत्र की प्राप्ति साधना रूप यज्ञ के परिणामस्वरूप होती है। जीवन यज्ञ में अर्पण का साधन, जिसे पूजा पद्धति में स्रुवा कहा जाता है, वह ब्रह्म है। हवन किए जाने योग्य द्रव्य भी ब्रह्म हैं तथा ब्रह्मरूप क्रिया भी ब्रह्म है। उस ब्रह्म कर्म में स्थित रहने वाले योगी द्वारा प्राप्त किए जाने योग्य फल भी ब्रह्म ही है। राजा दशरथ के अष्ट प्रधान सलाहकार अष्टांग योग की आठ साधनाएं हैं। राजा दशरथ की तीन रानियां कुशलता से साधना करने वाली वृत्ति कोसल्या हैं, कायाभाव से ऊपर रहने वाली वृत्ति कैकेयी तथा सभी से प्राणि भाव से मित्रता का बर्ताव करने वाली वृत्ति रानी सुमित्रा हैं। साधक द्वारा व्यवस्थित साधना करने पर भी प्रतिफल न मिलने पर वह बेचैन रहता है। यह प्रतिफल अपत्य या पुत्र प्राप्ति की इच्छा कही जाती है। तब साधक वाजिमेध अर्थात् कामना से किया जाने वाला अश्वमेध यज्ञ करते हैं। यह यज्ञ सरयू नदी के किनारे किया जाता है। ब्रह्म की ओर ले जाने वाले चित्त प्रवाह को रामायणकार सरयू कहते हैं। सरयू नदी का प्रवाह अयोध्या नगरी के समीप रहता है। साधना के लिए इष्ट वृत्तियां साधक में बसना आवश्यक हैं। इन्हें वसिष्ठ कहते हैं। इनके द्वारा यज्ञ करने का निर्देश किए जाने पर राजा दशरथ पुत्रकामेष्टि या अश्वमेध यज्ञ करते हैं। पुत्रकामेष्टि यज्ञ करने के लिए विभाण्डक ऋषि के पुत्र ऋष्यशृंग को बुलाया जाता है। विभाण्डक अर्थात् साधक की विशुद्ध अवस्था। इनका पुत्र ऋष्यशृंग अर्थात् ऋषियों में शृग अर्थात् उच्च अवस्था में हो। ऐसा उच्च ऋषि ही यज्ञ का मुख्य होता बनने के योग्य हो सकता है। ऋष्यशृंग को अयोध्या बुलाने के लिए राजा दशरथ ने वारवनिताओं को भेजा, उनमें से एक ने नादब्रह्म रूप गायन सुनाकर ऋष्यशृंग को आकर्षित किया। निर्द्वंद्व चित्त की ओर वृत्ति शून्य दशा में ब्रह्मानंद सूचक अनाहत नाद साधक को सुनाई देता है। इस प्रसंग में यह वेश्याएं अनाहत नाद हैं, जिनसे मोहित होकर ऋष्यशृंग अयोध्या में आते हैं। वैदिक परंपरा में ब्रह्मचारी व्यक्ति यज्ञ का पौरोहित्य नही ंकर सकते। यज्ञ करने का अर्थ है कुछ चाहना। जो ब्रह्म का आचरण करने वाले हैं, वे सदा अचाह रहते हैं, इसलिए वे पौरोहित्य कर्म नही ंकर सकते। तब ऋष्यशृग के विवाह के लिए एक शांता नामक लड़की खोजी जाती है। यह राजा दशरथ की दत्तक पुत्री थी। ऋष्यशृंग का शांता से विवाह कराया जाता है। शांता अर्थात् शांत वृत्ति। वैदिक परंपरा में सभी ऋषि मुनि विवाहित बताए गए हैं, तब भी वे ब्रह्मचारी हैं। आध्यात्मिक पुरुष के अंतःकरण में जा पशुभाव है, साधनरूप यज्ञ में उसकी बलि दी जाती है। पशुभाव से मुक्त होने के लिए तीन सौ बार अर्थात् अनेक बार उस पशुभाव रहित अवस्था को नियमित करने पर राजा दशरथ को उत्तम अश्व अवस्था प्राप्त होती है। पशूनां त्रिशतं तत्र युपेषु नियतं तदा में बलि देने का वास्तविक अर्थ उक्तवत ही है। श्व संस्कृत की एक अद्भुद घ्वनि या धातु है। श्वान कुत्ते को कहा गया क्योंकि उसमें रजस गुण की तीव्रता रहती है। वह अपनी श्वासं को गहराई से बार-बार लेता और छोड़ता है, उसमें बेचैनी देखी जाती है। श्वान को पालना इसीलिए निषिद्ध माना गया है। बिल्ली में तामसिक प्राण होते हैं, इसलिए उसके द्वारा रास्ता काटने पर कुछ पल ठहरकर यात्रा प्रारंभ करते हैं। सर्वाधिक सात्विक प्राण देसी गाय के गोबर में होते हैं। इसीलिए गाय का महत्व निरूपित किया गया है। चांडाल को श्वपाकी कहते हैं, क्योंकि वह अपनी श्वास विशेष या अवस्था विशेष पर अवलंबित रहता है। इसे इसीलिए वर्णबाह्य माना गया है। अश्व घोडे को कहा गया है। यह बल या ताकत का पर्याय है। योग शास्त्र में स्पष्ट निर्देश है कि श्वास के अवलंब के बिना ही हम बलशाली हो सकते हैं। इसमें कुंभकों की विभिन्न दशाओं का निर्देश आता है। अश्व अवस्था से बाहर आने की क्रिया को अश्वमेध कहते हैं। घोड़े का बध करने से इसका वास्तविक आशय योग विज्ञान में समझ बढ़ाने के बाद ग्रहण हो पाता है। अश्वमेध प्राणायाम की क्रिया का हिस्सा है। प्राणायाम प्रक्रिया में सिद्ध होने पर साधक की श्वास का आना-जाना किसी समय ठहर जाता है। प्राणायाम में इसे केवल कुंभक, किंतु महर्षि वाल्मीकि एवं वेदव्यास इसे अश्व अवस्था कहते हैं। इसी अवस्था में साधक समाधि लाभ ग्रहण कर पाता है। और तभी वह वास्तव में ब्रह्मज्ञानी और ब्राह्मण बनता है। केवल कुंभक में मन विचलित होता है, परंतु शरीर को कुछ नुकसान नहीं होता। साधक मन की विचलन को भी नष्ट कर देना चाहता है, अश्वमेध इसी अवस्था को कहा जाता है। राम पुत्र प्राप्ति इसी अवस्था में हो पाती है। राजा दशरथ की तीन रानियां पूरी रात उसी अश्व की सेवा कर उससे समागम करती हैं। यह समागम अर्थात् वृत्तियों का समाधि अवस्था में जाना मध्य रात्रि में होता है, तत्पश्चात् देवताओं द्वारा पायस अर्थात् दिव्य शक्ति साधक को उच्च अनुभूति रूप पुत्र प्राप्ति कराती है। शरद पूर्णिमा अर्थात् आश्विन या क्वांर माह की पूर्णिमा की रात्रि खीर बनाकर ग्रहण कराने की परंपरा इसी का प्रतिस्मरण है। योगी जन रात्रि को कठिन साधनाएं करते हैं। गुफाओं में जाकर साधना करने का भी यही रहस्य है। पायस या खीर वृत्ति रूप रानियों ने ग्रहण की होती है। अधिक समय तक पशुभाव से विरहित अश्व अवस्था में स्पंदित होने साधक का शरीर स्वर्ण जैसा निर्मित हो जाता है, अर्थात् कंचन काया बन जाती है और अनेक अपत्य ‘पुत्र पौत्रान्’ की उपलब्धि होती है। राजा दशरथ को चार पुरुषार्थ बताने वाले चार पुत्र प्राप्त होते हैं। राम अर्थात् आनंद रमयति इति रामः। दूसरे भरत अर्थात् वैराग्य, ज्ञान, जो भ याने ज्ञान में रत हो। लक्ष्मण अर्थात् विवेक, लक्ष्यं$अनः जो अपने लक्ष्य की ओर स्पंदित है अर्थात् जाग्रत है। जिसका कोई शत्रु नहीं है, जिसने अपने मन से शत्रुत्व की भावना हटा ली है, हन- नष्ट कर ली है, उसे शत्रुघ्न कहते हैं। राम का भूमि से प्राप्त अर्थात् पुथ्वी से निकली सीता से स्वयंवर विवाह होता है। सीता शक्ति हैं और राम शिव। शक्ति बिना शिव का प्रकटन संभव नहीं और शिव के बिना शक्ति का आधान नहीं हो सकता। अर्द्धनारीश्वर की उपासना इसीलिए की जाती है। साधक यदि सीता रूपी अपने जड़ शरीर को सुख देगा तो वह कभी भगवान राम नहीं बन सकेगा। राम ने सीता रूपी जड़ शरीर को कष्ट दिया, फिर भी सीता राम से एकनिष्ठ रहीं। साधना रूपी कष्टमय जीवन के वनवास में भी राम से अलग नहीं रहीं। रामरूप साधक जब ज्ञानरूप भरत से एकरूप होता है तब उसकी भेंट चित्रकूट पर होती है। यह अपने अंदर की ज्ञानावस्था है। साधक यदि थोड़ा आमोद-प्रमोद में संलग्न हुआ तो उसका अहंकारी रूप रावण सीता रूपी जड़ शरीर का हरण कर लेता है। फिर भी सीता राम के प्रति एकनिष्ठ रहती है। अहंकारी रावण स्वयंवर के समय शिवधनुष भंग न कर पाने पर भी सीता का पीछा नहीं छोड़ता। पंच कमेंद्रियों से बनी पंचवटी में वह सीता को ले जाता है। राम के विरह मे सीता को पृथ्वीत त्व में पुनः प्रतिष्ठित हो जाती हैं। समाधि की श्रेष्ठ अवस्था पाने की इच्छा करने वाला बाली (बा अलम्) अपने पीछे पड़े हुए दुंदुभिनाद रूप राक्षस को मारने के लिए उसका पीछा करता है और उसको नष्ट कर अपनी राजधानी किष्किंधा रूप समाधि अवस्था में लौट आता है। मेघों का नाद सुनने वाला श्रेष्ठ साधक रावणपुत्र मेघनाद है, जो संयमी है, इसीलिए इंद्रजित है। साधक जब उच्च तत्व में प्रविष्ट होता है तो उसे कायारूपी सीता इसी पृथ्वी पर छोड़नी पड़ती है। सीता कभी सुखी नहीं रहीं। रावण चिल्ला चिल्लाकर अपना ज्ञान दूसरों को सुनाता था, उस पर राम ने नौ दिन शक्ति की आराधना करके विजयादशमी के दिन विजय प्राप्त की। आकाशतत्वीय राम के वाहक वायुतत्वीय वायुसुत हनुमान बने। राम ने राज्याभिषेक होने के बाद पुनः सीता रूपी पृथ्वीत त्व का त्याग कर स्वतः आत्मस्थ होकर सरयू में समाविष्ट होकर निर्वाण प्राप्त किया। सरयू के रूपक के बारे में ऊपर संकेत किया जा चुका है। रावण को अपने दस ग्रंथों का मुखोद्गत पाठ के अहंकार ने दसमुखी बनाया है, परंतु राम अपने दश इंद्रियों रूपी रथ पर सवार होकर रावण के दशों मुख काट दिए, फिर भी वह मरा नहीं, क्योंकि उसकी नाभि में अमृत जो था। प्राण रूपी अमृत नाभिदेश में रहता है, इसकी सूचना अहंकारी रावण के अन्य भाई सात्विक वृत्तिरूप विभीषण द्वारा ही राम को दी जाती है और वे उसमें वाण संधान करके रावण को मार देते हैं। मरने के बाद रावण की प्राण ज्योति राम में विलीन हो जाती है। रामायण और महाभारत की कथाओं को जो लोग काल्पनिक कहते है, वे ऐसा करके वस्तुतः उन महाकाव्यों के सार्वकालिक महत्व और मानव मात्र के लिए उसकी उपादेयता को तिरोहित करते हैं। अगर वह कल्पना है भी तो ऐसी कि जो सारे जीवन यथार्थ का परिज्ञान कराती है। इस कल्पना का हम सबको आश्रय लेना चाहिए। इन कहानियों के माध्यम से व्यक्ति को उसके जीवन की आदर्श और यथार्थ परिस्थितियों का सम्यक् परिशीलन होता है। जो वर्ग इनसे अपना संबंध जोड़ते हैं, उनके ऐसा करने पर किसी को कोई नुक़सान नहीं है। यह कथा जन गण के मन की ही है। जो उससे जुड़ेगे उनका लाभ ही है। रामायण के उक्त रूपक योग से उस कथा में अंतर्निहित महत्व का, घटनाओं की कालक्रमिकता का, बाह्य परिवेश से भीतरी चित्त का एवं भारतीय परंपरा का बोध प्राप्त होता है। रामायण, महाभारत, पुराण, भागवत इत्यादि महाकाव्यों में जड़ इतिहास खोजने की आवश्यकता नहीं है, वे तो वेदज्ञान सम्मत कथाएं हैं, जिनमें साहित्यिक उत्कर्ष का दर्शन भी होता है। रामायण के सारे कथा प्रसंग दिव्य साधना अवस्थाओं के रूपकात्मक वर्णन हैं। साधक इन्हें समझकर आत्मारूप राम के अयन याने उस मार्ग में अग्रसर होता है।

Friday, July 18, 2025

कृष्ण और अर्जुन के नामो की प्रतीकात्मकता

श्रीमद्भगवद्गीता को हमारी युवा पीढ़ी अपने दिवंगतजन की तेरहवीं संस्कार में वितरित करते हुए पुस्तक परिचय के रूप में जान पाती है। प्राण छूटते समय व्यक्ति के परिजन गीता के कुछ श्लोक पढ़कर जाते हुए व्यक्ति को सुनाते हैं। गीता एक महान रचना है, इसलिए इसके कतिपय शब्दों की भनक कान में पड़ जाएगी तो उसका भी प्रभाव हमारे जीवन पर अवश्य होगा, परंतु गीता केवल इतने भर के लिए नहीं है। जब हम वयस्क हो जाते हैं तो सर्वप्रथम गीता के अर्थ को जानकर आजीविका में प्रवेश करना चाहिये। गीता का अर्थ विशेष तभी जान सकते हैं जब हम उसमें ही दी हुई विधि के अनुसार उसे जानने का यत्न करें। प्राणायाम और योग गीता में ही दिया गया है, किंतु यह उसमें सूत्र रूप में मिलता है। उसे डिकोड करके ही जाना जा सकता है, इसके लिए हमें गुरु की आवश्यकता होती है। इस रहस्य को समझने की चेष्टा के कारण ही गीता की सैकड़ों व्याख्याएँ मूर्धन्य मनीषियों द्वारा की गई है। हम कितनी ही और किन्हीं की गीता व्याख्या को पढ़ लें, ज्ञानार्जन तो होगा, अनुभववर्धन नहीं हो पाता। अनुभव स्वयं करने पर होता है, कैसे करना है, उसके लिए महान गुरुजन ने गीता में आए शब्दों और पात्रों की प्रतीकात्मक विवेचना की है, हमें उसे समझना होगा। इस समझ को धारण करते हुए ध्यान में उतरने के बाद जो अनुभव होंगे, वे गीता और उसके ज्ञान को समझने में सहायक होंगे। गीता को समझने का यही उपाय है। श्लोकों को याद करके उनके दिये गये अर्थ सुनने सुनाने से उसका बाहरी रूप ही ज्ञात होता है। इतने से हमारा भ्रम दूर नहीं हो पाता है। अनुभवों को जानने के लिए गीता के पात्रों की प्रतीकात्मकता जानेंगे, यह योग का मार्ग प्रशस्त करेगा। धृतराष्ट्र का अर्थ है अंधा मन। जो अपना राष्ट्र पकड़कर रखे हुए है। इंद्रियों के राज्य को धारण करने के कारण यह धृतराष्ट्र हैं। संजय- निष्पक्ष अंतर्निरीक्षण, जिन्होंने पूर्ण रूप से विजय प्राप्त कर ली हो। ऐसे ही व्यक्तियों को वह दैवी अंतर्दृष्टि प्राप्त होती है। जिससे वह अपने भीतर और दूर का देख सकें। कौरव- अनैतिक और मानसिक ऐंद्रिक वृत्तियों का समूह है। पांडव- शुद्ध विवेकवान वृत्तियाँ है। धर्मक्षेत्र- पवित्र मैदान है, जिस पर कुरुक्षेत्र अवस्थित है। कुरुक्षेत्र कर्म संपादन के लिए विहित मैदान है। कुरुक्षेत्र पर कौरव और पाण्डव अपनी सर्वोच्चता स्थापित करने के लिए संघर्ष करते हैं। कुरु संस्कृत क्रि से निष्पन्न शब्द है, जिसका अर्थ है कार्य या भौतिक क्रिया। क्षेत्र उस मैदान को कहते हैं, जिस पर यह क्रिया या कार्य किए जाते हैं। सांसारिक चेतना कुरुक्षेत्र पर कार्य करती है तो आध्यात्मिक चेतना धर्मक्षेत्र में कार्यरत रहती है। बुद्धि विवेकवान प्रज्ञा का नाम है, यह रूपक में पांडु से जुड़ती है, पांडु की पत्नी कुंती हैं, जो नैतिक सिद्धांतों को धारण करती हैं। पांडु पंड से निष्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है श्वेत । श्वेत रंग शुद्ध दशा का द्योतन करता है। बुद्धि पांडु का प्रतिनिधित्व करती है। पांडु निवृत्ति सूचक हैं। बुद्धि अधिचेतन से प्रेरित होकर सन्मार्ग की ओर ले जाती है। बुद्धि शाश्वत वास्तविकता अर्थात् सत्य की ओर ले जाती है। मन अंधे राजा धृतराष्ट्र का प्रतिनिधि है, जिसके एक सौ पुत्र हैं। यह प्रवृत्ति सूचक हैं। मन इंद्रियों के माध्यम से कार्य करता है, इंद्रियाँ भौतिक सुखों को खोजती रहती हैं। मन इंद्रिय चेतना है। यह ऐसी लगाम है जो इंद्रिय रूपी घोड़ों को चलाती है। शरीर रथ है। आत्मा इस रथ की मालिक है। मन को अंधा कहा गया है, क्योंकि यह बिना इंद्रिय और बुद्धि के देख नहीं पाता। अगर हम विवेकी बुद्धि से परिचालित हुए तो इंद्रियाँ नियंत्रित रहती हैं किंतु यदि बुद्धिमत्ता सांसारिक इच्छाओं से शासित हुई तो इंद्रियाँ अनियंत्रित हो जाती हैं और वे विनाशकारी आदतों का निर्माण करती हैं। मन एक सूक्ष्म चुंबकीय पोल है, जो सदा इंद्रियों को अपनी खुराक देता रहता है। शरीर रचना विज्ञान में आता है कि मेडुला ओब्लांगटा और मध्य मस्तिष्क के बीच एक पोंस वरोली (pons varolii) होती है। यह सेतु का काम करती है, जो अनुमस्तिष्क को प्रमस्तिष्क से जोड़ती है और मस्तिष्क के विभिन्न क्षेत्रों और मेरुमज्जा के बीच संकेतों का संचार करती है। पोंस श्वास और नींद जैसे महत्वपूर्ण कार्यों के नियमन में भी शामिल है।यह मन ही है। गीता में कृष्ण और अर्जुन अर्थात् गुरु और शिष्य का संवाद व्यक्त हुआ है। इस ग्रंथ में कृष्ण और अर्जुन के अलग अलग अनेक नामों से उन्हें अभिहित किया गया है। उन सब अलग अलग नामों के अपने अपने विशिष्ट अर्थ हैं। उन्हें यहाँ जान लेना उपयुक्त होगा... भगवान कृष्ण: अच्युत- जो परिवर्तित न हों, जिनका जोड़ न हो। अनंतरूप- जिनके अलग अलग रूप हैं, और वे कभी समाप्त न हो। अप्रमेय- जिन्हें मापा न जा सके। अप्रतिमप्रभाव- जिनकी शक्ति कभी तोली या नापी न जा सके। अरिसूदन- शत्रु को नष्ट करने वाले। भगवान- ऐश्वर्यवान देव- भगवान देवेश- देवताओं के स्वामी। गोविंद- चरवाहों के प्रमुख, इंद्रियों रूपी गायों को नियंत्रित करने एवं उन्हें चराने वाले। हरि- हृदय को चुराने वाले या आकर्षक लगने वाले। हृषिकेश- इंद्रियों के अधिष्ठाता या भगवान। ईशम ईद्यम- वंदनीय जगन्निवास- ब्रह्मांड के संरक्षक। विश्व को जो आकर्षित करें। जनार्दन- मनुष्य की प्रार्थनाओं को पूरा करने वाले। कमल पत्राक्ष- कमल के से नेत्रों वाले। केशव, केशिनिसूदन- केशि राक्षस का संहार करने वाले, दोषों को नष्ट करने वाले। माधव- भाग्य के भगवान मधुसूदन- मधु राक्षस का संहार करने वाले अर्थात् अज्ञान को नष्ट करने वाले। महात्मन्- संप्रभु आत्मा प्रभु- स्वामी के भगवान प्रजापति- असंख्य वंशों के दैवी पिता पुरुषोत्तम- सर्वोच्च स्पिरिट सहस्रबाहो- हज़ार भुजाओं वाले वार्ष्णेय- वृष्णि गोत्र के वंशज वासुदेव- विश्व के भगवान, जनक/पालक/संहारक ईश्वर। विष्णु- सर्वव्यापी रक्षक विश्वमूर्ते- ब्रह्मांड स्वरूप यादव- यदुवंश के उत्तराधिकारी योगेश्वर- योग के भगवान अर्जुन: अनघ- पाप रहित भारत- राजा भरत के उत्तराधिकारी भरतश्रेष्ठ- भरत राजाओं में श्रेष्ठ भरतर्षभ- भरत का बैल या बछड़ा अर्थात् भरत राजवंश का महान और श्रेष्ठ उत्तराधिकारी भरतसत्तम- भरत राजाओं में श्रेष्ठ देहभृतं वर- देहधारियों में सर्वोच्च। धनंजय- धन को जीतने वाले। धनविजयी। गुडाकेश- निद्रा को जीतने वाले(सदा तत्पर, निद्राविजित, माया को पराभूत करने वाले। कौंतेय- कुंती के पुत्र किरीटिन- मुकुटधारी कुरुनंदन- कुरु वंश के चहेते और गौरवशाली पुत्र कुरुप्रवीर- कुरु वंश के महान नायक कुरुसत्तम- कुरु श्रेष्ठ कुरुश्रेष्ठ- कुरु राजकुमारों में श्रेष्ठ महाबाहो- बलशाली भुजाओं वाले पांडव- पांडु के उत्तराधिकारी परंतप- शत्रुओं को भस्मीभूत करने वाले पार्थ- पृथा पुत्र पुरुषर्षभ- मनुष्यों में पुष्प( मनुष्यों के प्रमुख या वृषभ) पुरुष व्याघ्र- मनुष्यों में बाघ। निर्भय और शत्रुंजयी। सव्यसाचिन- किसी भी हाथ से धनुष वाण चलाने वाले।

महाभारत के पात्रों का योग रहस्य

श्री मद्भगवद्गीता महाभारत के भीष्म पर्व का भाग है। महाभारत दो पक्षों के बीच के भीषण युद्ध का काव्यात्मक चित्रण करता हुआ संस्कृत भाषा में निबद्ध महाकाव्य है। किसी युद्ध में पुरुषों या नर का ही वर्चस्व देखा जाता है। युद्ध की प्रकृति स्त्रियों के अनुकूल नहीं रहती अथवा कहा जाय स्त्री की प्रकृति युद्ध करने की नहीं है, किंतु युद्ध में जिस शक्ति की आवश्यकता होती है, वह स्त्री से ही आती है। उसकी मृदुता में कैसी दृढ़ता का सन्निवेश है। यह हम सबको ज्ञात कर लेना चाहिए। इसके ज्ञान के लिए हमें महाभारत को योग परंपरा से समझना आवश्यक होगा। महाभारत की ऐतिहासिकता से अधिक उसकी प्रतीकात्मकता जानना हमारे लिए अधिक महत्वपूर्ण है। कहानी के रूप में महाभारत को उसकी बोधगम्यता के लिए प्रस्तुत किया गया है। यह कहानी भी बेजोड़ है। इसमें जीवन के सभी संदर्भों को अनुस्यूत कर लिया गया है। महाभारत के पात्रों के निहितार्थ ग्रहण करने के लिए हमें योग परंपरा में उतरना होता है। इस परंपरा में ज्ञान किताबी नहीं होता, यह श्रुति परंपरा भी नहीं है, यह तो स्वयं ज्ञान हो जाने अर्थात् अनुभव में उतर जाने की परंपरा है। योग मनीषियों ने अपनी समाधि दशा में जो कुछ अपने शिष्यों के सामने व्यक्त किया अथवा कुछ संकेत किए या सूत्र दिए, उनकी कृपा से प्राप्त अनुभव से उनके आधार पर हम भारत की ज्ञान परंपरा को उसके वास्तविक रूप में समझ पाने में समर्थ हो सकते हैं। इस दृष्टि से श्रीमद्भगवद्गीता की व्याख्या काशी के जिन क्रियायोगी महापुरुष ने की है, वे श्री परमहंस प्रणबानंद जी हैं, जिनके अनुभवाभाष बंग भाषा के वचनों को सुनकर हिंदी में प्रणब गीता नाम से ज्ञानेंद्रनाथ मुखोपाध्याय ने 1917 में पहली बार प्रकाशित कराया। प्रस्तुत आलेख की विषय वस्तु श्री प्रणब गीता पर आधारित जानकारी से ली गई है। महाभारत में कौरव और पांडव पक्षों के जो पात्र वर्णित हुए हैं, वस्तुतः उनका ऐतिहासिक संदर्भ लेने भर से बात नहीं बन पाती है, महाभारत के पात्रों का एक आध्यात्मिक अर्थ है। महाभारत की कथासार कहने की आवश्यकता यहां नहीं है, उससे हमारे आबालवृद्ध सब परिचित ही हैं। महाभारत में आए स्त्री पात्रों के नाम और उनका आध्यात्मिक अर्थ दिया जाना यहां समीचीन होगा- गंगा- चैतन्या प्रकृति सत्यवती- जड़ प्रकृति अंबिका- संशय वृत्ति अंबालिका- निश्चय वृत्ति गांधारी- प्रवृत्ति शक्ति कुंती- निवृत्ति शक्ति माद्री- निवृत्ति आसक्ति द्रौपदी- कुलकुंडलिनी सुभद्रा- अतिशय मंगलशक्ति स्त्री पात्रों की प्रकृति समझने के लिए हमें महाभारत के पुरुष पात्रों के आध्यात्मिक अर्थ को जानना भी आवश्यक होगा। गीता के प्रथम श्लोक में धृतराष्ट्र नामक पात्र समुपस्थित हुए हैं। धृतराष्ट्र धृतं राष्ट्रं येन सः धृतराष्ट्रः। धृत का अर्थ है जो पहले से धारण किया हुआ है और राष्ट्र अर्थात् राज्य। जो पहले से किसी राज्य को धारण कर रहे हैं, वे धृतराष्ट्र हैं। इस शरीर रूपी राज्य को सुख-दुःख पूर्वक भोग करने वाला धृतराष्ट्र समझा जाना चाहिए। शरीर के सुख-दुःख का भोक्ता मन होता है। संजय साधक की क्रियालब्ध मानस दृष्टि, अंतर्दृष्टि या दिव्य दृष्टि का नाम है। दुर्योधन का अर्थ है दुःख में युद्ध करना। जिसके साथ अतिकष्ट में युद्ध किया जाए, वही दुर्योधन है। कामना या विषय वासना दुर्योधन का लक्षित रूप है। धृतराष्ट्र अर्थात् मन का यह ज्येष्ठ पुत्र है। द्रोण संस्कारज बुद्धि का नाम है। इसीलिए वह द्विज हैं। जैसे कौआ दो आंखें होते हुए भी एक आंख से ही देखने के लिए विवश होता है। सर्वतोमुखी होने पर भी एक ओर लक्ष्य रखने से यह बुद्धि निर्मल नहीं है। युयुधान- श्रद्धा है। यह अकेले होते हुए भी अनंत विपक्ष सैन्य समूह के साथ युद्ध करने की क्षमता रखती है। श्रद्धा का फलक विस्तीर्ण है, यह राई से पर्वत और पर्वत से राई करने की क्षमता रखती है। विराट का आशय समाधि से है। वि- विगत राट्- राज्य। जो अपना राज्य दूसरों के हाथ में देकर सदा अलग रहते हैं। द्रुपद। द्रु- द्रुत पद- गमने। अंतर्यामीत्व शक्ति, वैद्युतिक शक्ति या तीव्रवान वेग से संपन्न योद्धा। धृष्टकेतु यम के अर्थ में ग्रहणीय है। सा धृष्टानि- संयतानि, केतनानि- स्थानानि। अर्थात् जिस अवस्था में स्थान समूह यानि छहों चक्रों की क्रियाएं संयत होती हैं। चेकितान- स्मृति। क्षीण झिंझिट स्वर जो अनहद नाद से पूर्व सुना जाता है। काशिराज- प्रज्ञा, श्रेष्ठ, प्रकाश शक्ति को कहा गया है। पुरुजित्- प्रत्याहार, सामान्य विश्राम की अवस्था है। कुंतिभोज- आसन दशा है। कुन्- कर्षण। शैव्य- नियम है, यह कल्याण दायिनी शक्ति है। युधामन्यु- प्राणायाम के अर्थ से है। युद्ध सुनते ही जिनके क्रोध का उदय होता है। उत्तमौजा- वीर्य के अर्थ से है। सौभद्र- संयम। धारणा, ध्यान और समाधि का एकत्र समावेश। अभिमन्यु को यह कहा गया है। द्रौपदेय- पंचबिंदु। पंचीभूत दशा को उपलब्ध। पांडु, जिसकी बुद्धि निर्मल है। पांडु ने विषय भोग परित्याग कर एकमा़त्र ईश्वर की आराधना में मन लगाया था। यह निर्मल बुद्धि भी जीव का बंधन है। इसे लय करने के लिए थोड़ी आसक्ति का प्रयोग करना पड़ता है। माद्री में आसक्त होने के कारण पांडु की मृत्यु होने का यही तात्पर्य है। निर्मल बुद्धि में कोई पुरुष होकर भी नपुंसक हो सकता है। भीष्म- आभास चैतन्य या अस्मिता का नाम है। अविद्या जनित अहंकार बड़ा भीषण होता है। कर्ण- कर्तव्य कर्म या राग विकर्ण- अकर्तव्य कर्म या द्वेष कृप- कल्पना या अविद्या। अश्वत्थामा- रुद्र, यम, काम और क्रोध इन चारों शक्तियों का एकत्र समावेश या कर्मफल। यह अमर माना गया है, क्योंकि कर्मफल की शृंखला विच्छिन्न नहीं हो पाती। एक के कर्मफल द्वारा दो तीन पुरुष पर्यंत भोग भोगना पड़ता है। विशेषतः पितामह का दोष-गुण पौत्र पर उतरता है। सौमदत्ति- भूरिश्रवा- भूरिश्रवति यः सः। कर्म अथवा संसार। जयद्रथ- अभिनिवेश या मृत्युभय। शल्य- कंटक या शैल, जिसके रहने से क्रमान्वय क्लेश भोगना पड़ता है। कर्म संस्कार चाहे अच्छा हो या बुरा, वह जीव के संसार बंधन का कारण है। इसलिए शल्य जीव का संस्कारज कर्म है। क्रतवर्मा- शरीर के प्रति मोह अथवा शरीर की रक्षा करने की प्रवृत्ति का अर्थसूचक पात्र है। युद्धविशारदाः- वह सब वृत्तियां जो सत्कर्म की सिद्धि के पक्ष में कंटक स्वरूप होने से जीव को संसार मार्ग से आबद्ध कर रखने के लिए समर्थ हैं। उन सबमें कोई एक भी रहने से जीव का निस्तार नहीं होता। धृष्टद्युम्न- द्रोण का शिष्य है। इसका आशय यह है कि चैतन्य ज्योति बुद्धि के द्वारा ही प्रकाश पाती है। शकुनि - मोह का अर्थद्योतक है। योग विज्ञान के अनुसार मनुष्य शरीर के प्रत्येक चक्र में प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों पक्ष विद्यमान हैं। यही महाभारत के कौरव एवं पांडव हैं। यथा- स्थान​​​पांडव​​​​​​कौरव मूलाधार- क्षिति, सहदेव - शम​​​​​​काम- दुर्योधन स्वाधिष्ठान- अप्, नकुल- दम​​​​क्रोध- दुःशासन और मृत्युभय- जयद्रथ मणिपूर- तेज, अर्जुन- तितिक्षा​​​लोभ- कर्ण-कर्तव्य कर्म और विकर्ण- अकर्तव्य कर्म अनाहत- महत्, भीम- उपरति ​​ मोह- शकुनि, जिसने मोह उत्पन्न करके द्यूतक्रीडा कराई विशुद्ध- व्योम, युधिष्ठिर- श्रद्धा​​​​​मद- महाराज शल्य आज्ञा- कूटस्थ चैतन्य, श्री कृष्ण- समाधान​​​मत्सरता- भीष्म, द्रोण और कृप ​शमादि बंधु और कामादि रिपु जीवों के कर्मफल का प्रकाश है, इसलिए अश्वत्थामा इन मूलाधारादि छः स्थानों में ही हैं। इनके अतिरिक्त कुछ नाम और हैं, जैसे- ​शांतनु- निर्विकार चैतन्य ​वेदव्यास- भेदज्ञान ​चित्रांगद- ऐश महत्तत्व ​विचित्रवीर्य- ऐश अहंकार ​हृषीका- इंद्रिय समूह को कहा जाता है। ईश- नियंता है। जो इंद्रियों के नियंता हैं, जिनके तेज से इंद्रिय समूह अपना काम करता है। यह नियंता स्थान कूटस्थ चैतन्य है, आज्ञा चक्र में यह अवस्थित है। शरीर का केंद्र मूलाधार है, मन का केंद्र हृदय है तो आत्मा का केंद्र सहस्रार है। मूलाधारादि पांच चक्रों से उठे हुए पांच स्वर एक साथ मिलकर आज्ञाचक्र के भीतर से अनुभव में आते हैं। इसलिए श्रीकृष्ण के शंख का नाम पांचजन्य है। ​धनंजय- धन या विभूति को जय करने का नाम है। जन्म, मृत्यु, दुःख, क्षुधा एवं तृष्णा यह विभूतियां हैं। तेज तत्व का नाम धनंजय है। इनका स्थान मणिपूर चक्र है, वह यहां वैश्वानर नाम से जीव की जीवनी शक्ति (अन्न पचन रस रूप अमृत) प्रदान करते हैं। यह वैश्वानर देव सब देवताओं के मुख स्वरूप हैं। मणिपूर चक्र से वीणा शब्दवत् शब्द उठता है, उसका नाम देवदत्त शंखध्वनि है। ​वृकोदर- वृक् का अर्थ अग्नि है। अग्नि वायु से उत्पन्न होकर फिर वायु में ही लय हो जाती है। वायु का स्थान अनाहत् चक्र है। यहां साधन क्रम से निनादवतृ दीर्घघंटा एक शब्द उठता है, उसी का नाम पौंड्र शंख ध्वनि है, जो भीम द्वारा बजाया गया बताया गया है। ​युधिष्ठिर- युद्ध करके जिसको कोई हरा न सके। यह आकाश तत्व है। विशुद्ध चक्र से मेघ गर्जनवत् शब्द जब उठता है, उसे युधिष्ठिर के अनंतविजय शंख ध्वनि कहा जाता है। ​नकुल रसतत्व है। जितने रस हैं, उनका कोई भोग करके उन्हैं शेष नहीं कर सकता, इसलिए उसका नाम नकुल है। लिंगमूल स्वाधिष्ठान चक्र से साधन क्रम में वेणुशब्दवत् शब्द जो उत्पन्न करे, उस शंख का नाम सुघोष है। ​सहदेव पृथ्वीतत्व है। सह- सहित, देव जो खेलता रहता है। पृथ्वी के साथ ही जीव का खेेल अर्थात् पांच भूतों के भीतर शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध। यह स्थान मूलाधार है, जहां मत्तभृंगशब्दवत् शब्द उठता है, यही मणिपुष्पक शंखध्वनि है। ​कपिध्वज- जिह्वा को उलटकर नासारंध्र के ऊपर श्लेष्मा के स्थान को अतिक्रम करके रखने की अवस्था को कपिध्वज कहते हैं। इसे प्रचलित भाषा में खेचरी मुद्रा कहा गया है। ​धनुरुद्यम- मेरुदंड अर्थात् पीठ की रीढ़ का नाम धनु है। ध्यान अवस्था में बैठने का नाम धनुरुद्यम है। ​अर्जुन- अ$रज्जु$न। जो पाशमुक्त नहीं। संसाराबद्ध जीवावस्था का नाम अर्जुन है। ​गुडाका- यानि निद्रा । ईश- नियंता। निद्राजित् अर्थात् अनलस साधक को गुडाकेश कहते हैं। विषयचिंता करते-करते उनसे उत्पन्न अवसन्नता से अभिभूत होकर रहने का नाम अज्ञानज निद्रा है, परंतु आत्मलक्ष्य करते-करते अपने से विषय वृत्ति मिट जाने पर मन का जो अकंप विश्राम होता है, उसका नाम ज्ञानज निद्रा है। ​पार्थ- पृथा का पुत्र जो है। पृथ- विख्यात होना। अ- कर्तृवाचक शब्द। प्रकृति ही स्वनामख्याता है, इससे उत्पन्न जीव पार्थ है। कुंती के सभी पुत्रों को पार्थ कहा गया है। ​पीठ की तरफ संकोच होकर समकायशिरोग्रीव होकर बैठने से पीठ डोंगा की भांति बन जाती है। इस अवस्था में स्थित मेरुदंड को गांडीव कहते हैं। ​भारत- आत्मज्योति निविष्टचित्त दशा का नाम है। ​जन- अंतःकरणवृत्ति समूह को कहा गया है। ​गो- विश्व समूह है, यह पंचकोश समन्वित शरीर का नाम है। विद्- जानना है। इन्हीं शब्दों से मिलकर गोविंद हुआ। ​सुर- स ईश्वर। प्राणोहि भगवानीशः। उ- सहस्रार स्थिति पद। र- तेज। प्राण सहस्रार में स्थित होने के पश्चात् जो तेजोराशि प्रकाश पाती है, वही सुर है। ​संख्या- सम्यक्, ख- आकाश, या- यान। देहाभिमान त्यागकर संपूर्ण रूप से आकाश यान में स्थित होना। ​मधु- मीठा द्रव्य। जीव की संसार भोग वासना। सूदन- नष्ट करने वाले। मधुसूदन- कूटस्थ तारक ब्रह्म। उनमें ज्ञान वैराग्यादि समस्त ऐश्वर्य सर्वदा विराजमान हैं, इसलिए वह भगवान हैं। ​विष- व्यापन शक्ति, आ- आसक्ति, द- दान करना। व्याप्ति में आसक्ति देने का नाम विषाद है। ​मेरुदंड सीधा न रखने से प्राण (शर) सरल राह की ओर नहीं उठ सकता। वह टेढ़ी-मेढ़ी गति पकड़ लेता है, इसलिए प्रणव या ओंकार की उपासना मेरुदंड सीधा रखकर ही संभव है। प्रणव की उपासना इस प्रकार करने से ही आंेकार को प्रणव कहा जाता है। प्रणवोपासना करने से ही हम रथ में उपस्थापित हो पाते हैं। ​जनार्दन- जन- जन्म, अर्दन-पीड़ा। जन्म को जो पीड़ित करते हैं, अर्थात् जातक को जो मुक्ति देते हैं, वे जनार्दन हैं। ​दस इंद्रियां, पंच प्राण, मन और बुद्धि- यह सप्तदश कला हैं। वासना, वैराग्य आदि जो कुछ वृत्तियां हैं, वे इन सप्तदशा कला से ही उत्पन्न होती हैं। इसी समुदाय को कुल कहा गया है। कु- शब्द स्पर्शादि विषय, ल- भोग वासना। विषय भोग वासना का नाम कुल है। ​जिसके गर्भ से संतान उत्पत्ति होती है, उसी को स्त्री कहते हैं। यह शरीर और इंद्रियां स्त्री ही हैं। ​माधव में मा- लक्ष्मी, धव- लक्ष्मी। यह भाग्य के अधिष्ठाता हैं। ​कृष्ण- कूटस्थ चैतन्य हैं। कृषिर्भूर्वाचकः शब्दो णश्च निर्वृत्तिवाचकः तयोरैक्यं परंब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते।। कृषि- कर्षणे, भू- वाचक शब्द, ण- निर्वृत्ति वाचक शब्द है। मुक्ति इच्छा न रखने से भी जो महापुरुष खींच कर निर्वाण प्राप्त करा देते हैं, वही कृष्ण हैं। स्वर्ग में स- सूक्ष्म श्वास है, व- शून्य है, र- तेज है एवं ग- गति है। सूक्ष्म श्वास के शून्य होने के पश्चात् जो तेजोमयगति हो, वही स्वर्ग अर्थात् आत्मज्योति की उपलब्धि है। कर्म की सिद्धि हो जाने के पश्चात् जो ख्याति होती है, उसी का नाम कीर्ति है। स्त्री एक शक्ति की प्रतीक है। उसमें प्रवृत्ति और निवृत्ति, संशय और निश्चय, जड़ और चैतन्य, आसक्ति और मंगलशक्ति दोनों प्रकार की शक्ति या वृत्ति विद्यमान रहती है। आलेख में महाभारत के पात्रों और उनके वैशिष्ट्य को संक्षेप और सूत्ररूप में ही व्यक्त किया गया है। इनके अनुभवमूलक मर्म को समझने के लिए हमें ऐसे ही किसी महापुरुष का सानिध्य प्राप्त करना होगा।

Wednesday, March 12, 2025

साहित्य चिंतन में सौंदर्य की अवधारणा

साहित्य चिंतन में सौंदर्य की अवधारणा प्रोफे0 राकेश नारायण द्विवेदी ​सौंदर्य की अवधारणा मानव चिंतन की मूल धाराओं में से एक है। सौंदर्य मनुष्य के केंद्र में प्रारंभ से ही रहा है। सौंदर्य के प्रति आकर्षण उसका जन्मजात स्वभाव है। सौंदर्य मनुष्य का स्वभाविक और अन्वेषणीय मर्म है। सौंदर्य का उद्घाटन करना उसके जीवन का ध्येय है। सौंदर्य वस्तुतः वह तत्व है, जिसके सहारे हम ब्रह्म तत्व तक पहुंच जाते हैं। बिना सौंदर्य का मूल ग्रहण किए हुए हम धार्मिक नहीं हो सकते। धर्म व्यक्ति की स्वाभाविक स्फुरणा है। मनुष्य के स्वाभाविक जीवन का नाम धर्म है। किंतु स्वभाव क्या है बिना इसे जाने व्यक्ति धर्म के मर्म को नहीं जान सकता। यह स्वभाव तत्व सौंदर्य हीह ै। ​सौंदर्य पर भारतीय चिंतक अलग-अलग तरह से समय-समय पर विचार करते आए हैं। वस्तुतः मनुष्य सौंदर्य का इतना आग्रही है िकवह उसे बिना पाए नहीं रह सकता। वह उसका आनंद है, मनुष्य आनंद में रहकर आता है, आनंद में रहता है और आनंद में ही विलीन हो जाता है। सौंदर्य से बाहर कोई सत्ता नहीं, जो कुछ दृश्यमान है, वह इस सौंदर्य के घटक हैं। विचारकों की उत्कंठा सौंदर्य की अवधारणा को जानने की रहा करती है। साहित्य का उद्देश्य भी सौंदर्य का उद्धाटन करना है। सौंदर्य का एक निकट समानार्थी रस है। रस ही भारतीय साहित्य के चिंतन की आत्मा है। ​रस क्या है! सौंदर्य ही तो। जब हमारी सहज भावनाएं उद्भूत होती हैं, जिनसे सामाजिक के कोमल हृदय में एक प्रकार की आनंदानुभूति होने लगती है, इसे ही तो रस कहा गया है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल इस दशा को साधारणीकरण की दशा कहते हैं। रस की न उत्पत्ति होती है, न अनुमिति होती है और न भुक्ति ही। काश्मीर के शैव आचार्य अभिनवगुप्त ने पहली बार यह माना कि रस की तो मात्र अभिव्यक्ति होती है। सब जगह बस हो रहा है, इस हुब्बपन को देखने वाला ही तो रस है। मुंडक एवं श्वेताश्वतर उपनिषदों में आए एक रूपक के माध्यम से यह बात भलीभांति समझी जा सकती है- ​द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। ​तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति।। आशय यह कि दो सुंदर पंखों वाले पक्षी, जो एक दूसरे के निकट मित्र हैं, एक ही पेड़ से लटकते हैं। इनमें से एक पक्षी पेड़ के मीठे फल खाता है, जबकि दूसरी पक्षी मा़त्र अपने मित्र पक्षी को देखता है। इस रूपक में भले फल खाने वाले पक्षी को हम प्रथम दृष्टया कहेगे कि रस का उपभोग करने वाला पक्षी ही रसोपभोग कर रहा है, परंतु वास्तविकता यह है कि उस रस का दर्शन करने वाला अपर पक्षी ही रसग्राही है। खाने वाले पक्षी को उसकी रसनेंद्रिय को अच्छी अनुभूति हो रही है और उसका उदर पोषण हो रहा है, परंतु यह सब देखने वाला पक्षी रस की उद्भावना अपने भीतर कर रहा है। दोनों पक्षियों का नाम, काम और स्वभाव लगभग एक जैसा है, किंतु इनमें भिन्नता यह है कि एक एकदेशीय है और दूसरा सर्वव्यापी। एक मात्र भोक्ता और दूसरा उसका साक्षी। दोनों एक होते हुए भी विलक्षणता उस रस की यानि सौंदर्य की हीह ै। जिसका रूप निरंतर बदलता रहे, उस शक्ति का नाम वृक्ष है। देखने वाला पक्षी समान वृक्ष पर होते हुए भी अलग दशा में निवास करता है। सौंदर्य की हीह म प्रार्थना करते हैं। सबसे अच्छे गीत प्रार्थना गीत ही होते हैं। प्रार्थना में सौंदर्य भर-भर के छलकता है। भारतीय चिंतन की आरंभिक प्रार्थनाएं वेदों के रूप में हमारे सम्मुख आती हैं। वेदोें में प्रार्थना का सौंदर्य सर्वत्र विकीर्णित हो रहा है। भारत का समूचा साहित्यिक वाड़मय वेदों का विस्तार हीह ै। सुंदर विशेषण का संज्ञा पद सौंदर्य है। संज्ञा में विशेषण उपस्थित रहता है। सुंदरता की प्रतीति हमारे आंतरिक आकाश को फैलाव देती है, उसे व्यापक बनाती है। सुंदरता हमें अनंत से जोड़ने का माध्यम बनती है। दृश्यमान जगत् ब्रह्म का सौंदर्य ही है, जो अनंत रूपों और उनके नामों में अभिव्यक्त हो रहा है। हम उस सौंदर्य का विविध प्रकार से गान करते हैं, तरह-तरत से सम्मान करते हैं और भांति-भांति से अनुपान करते हैं। उसका आस्वाद लेते हैं। पूजा और उपासना उस सौंदर्य का गौरव-गान है। पूजा करना सौंदर्य का उपस्थापन है। पूजा का अर्थ ह ैपूर्ण जागरण। सौंदर्य जागरूकता के बिना उद्घाटित नहीं होता। सौंदर्य सत्य है, ज बवह हमारे भीतर कौंधता है तो स्पष्ट हो जाता है कि हमें इसी की इच्छा थी। वस्तुतः सौंदर्य के अन्वेषण की मूल प्रेरक इच्छा ही है। सौंदर्य अखंड है, निस्सीम है, परंतु जब उसकी प्रतीति होती है तो वह खंड-खंड, क्षण-क्षण एवुं सीमाओं में विभाजित होता हुआ प्रकट होता है। संसार और उसकी विविध कलाएं और साहित्य खंड सौंदर्य ही हैं। यहां यह भी कहना आवश्यक है कि वस्तुतः सौंदर्य खंड-खंड दिखता हुआ भी अखंड और संपूर्ण है। पूर्ण परमात्मा से पूर्ण ही व्यक्त होता है और वह पूर्ण में ही विलीन होता है। व्यक्ति जहां से जो कुछ जान रहा हो, वहां से ह ीवह सौंदर्य को प्राप्त कर सकता है, क्योंकि वह सर्वत्र है और सार्वकालिक है। सौंदर्य वर्तमान है, वह अतीत और भविष्य नहीं है। अतीत स्मृति का सौंदर्य है और भविष्य कल्पना का। ​सौंदर्य को यदि किसी नियम और व्यवस्था से आबद्ध करेंगे तो वह खंडित हो जाएगा। उस पर कोई यदि अपना अधिकार जमाना चाहेगा तो वह तिरोहित हो जाएगा। वह तो एक नन्हें शिशु की भांति है। सौंदर्य का ेपाने के लिए धनी-मानी होना आवश्यक नहीं, वह तो एक प्रकाश है, जिसकी आभा मे ंहम सब स्नात हो रहे हैं। जब हमारा प्रेम इतना घनीभूत हो जाए, जैसा अनुराग हमें अपने शरीर के साथे हैं। अप्रतिबंधित, अनन्य और दृढ़ भक्ति का जब उदय होता है तो सौंदर्य का उद्घाटन वैसे ही हो जाता है, जैसे हिमाच्छादित पर्वत पर सूर्य की प्रथम रश्मि का आगमन होता है। देखने से, सुनने से, छूने से, आस्वादन से और घ्राण करने से सौंदर्य खंडित होकर हमारे सामने आता है, किंतु विडंबना देखें कि हमें इन्हीं इंद्रियों के माध्यम से उसकी प्रतीति होती है। अंतःकरण के अवलंब से सौंदर्य इंद्रियों द्वारा प्रकट होता है। इंद्रिय इंद्र से बना है, इंद्र का अर्थ है झांकना। इंद्र इंदियों के स्वामी हैं, क्यांेकि वे सौंदर्य का प्रथम अवगाहन करते हैं। ​व्यक्ति के जीवन का लगभग 80 प्रतिशत कार्य व्यापार आंखांे से चलता है, इसलिए हम समझते हैं सौंदर्य बाहर हीह ै, किंतु केवल आंखें ही सौंदर्य की संवाहक नहीं होती, अंधकार में स्पर्श और अव्यक्त दशा में अवचेतन के सौंदर्य की प्रतीति अंतःकरण के माध्यम से होती है। यदि कहा जाए यह फुल सुंदर है, इसका आशय है कि वास्तव में जो मैं बताना चाहता हूं वह यह कि मैं उस प्रकार का व्यक्ति हूं जिसे यह फूल इस समय सुंदर दिख रहा है। किसी को यह फूल उक्त व्यक्ति की भांति सुंदर नहीं भी लग सकता है तो बहुतों का उस पर ध्यान भी नहीं जा रहा होता है। यदि सबको कोई व्यक्ति या वस्तु संुदर लग भी रही है तो उसकी प्रतीति हर व्यक्ति या उद्भावक को पृथक्-पृथक् ही हो रही होगी। किंतु यह प्रतीति पृथक-पृथक् होकर भी थोक में अर्थात् संपूर्ण होती है। किसी को वह फूल जब सुंदर लगा, आवश्यक नहीं कि उसे आने वाले समय में भी वह फूल सुंदर लगेगा। फूल के रूप में परिवर्तन आने पर व्यक्ति की दृष्टि समान रहने पर भी उसका भाव परिवर्तित हो जाता है। हमारी ही जवानी एक समय हमें सुंदर लगती है और जब यह बुढ़ापे में परिवर्तित हो जाती है तो कुरूप लगने लगती है। ​तो सौंदर्य विषयगत है या वस्तुगत! क्या यह हमारी निजी या आंतरिक भावना है या फिर वस्तुओं का वास्तविक रूप! वे क्या हैं, सौंदर्य का आश्रय हमारे मन की संवेदनाएं और छायाएं हैं। ​निर्णायक बुद्धि को किनारे रखकर फूल को और स्वयं को अलग-अलग रखकर देखें। फूल की सुंदरता और कुरूपता या आपेक्षिक सुंदरता के प्रति कोई धारणा न रखें। समग्र अस्तित्व के साथ एकतान होते चले जाने पर हम ब्रह्मांडीय चेतना से लयबद्ध हो जाते हैं। हमारे हृदय की धड़कन और ब्रह्मांडीय धड़कन एक साथ लयबद्ध हो जाने पर कुरूपता या असत् वृत्ति से हम ऊपर उठ जाते हैं। इसी दशा में पहुंचकर हमारे ऋषियों ने वाड़मय का सृजन किया है। विभिन्न कलाओं को मूर्तिमान किया है, संगीत के विविध राम और रागिनियों में निबद्ध करते हुए पदों को गाया है। साहित्यकारों ने ऊंची कृतियों और कविताओं की रचना की है। व्यक्ति के इस प्रकार रहने पर उसके शारीरिक कर्म भी उन्नत हो जाते हैं। इस दशा में रहते हुए व्यक्ति की रचनाशीलता से व्यक्ति स्वयं, उसका परिवेश और राष्ट्र का उत्थान होता है। ​साहित्य सौंदर्य की अभिव्यक्ति का महत्वपूर्ण एवं सशक्त माध्यम है। साहित्य के माध्यम से रचनाकार सौंदर्य के क्षणों को इस प्रकार शब्दबद्ध करता है कि उसके पाठक उसका आस्वाद लिए बिना नहीं रहते। साहित्य वह माध्यम है, जिसमें सौंदर्य के बाहरी और भीतरी स्वरूप की अनंत संभावनाओं के द्वार खुलते हैं। बाह्य यानि जागतिक सौंदर्य वास्तविक सौंदर्य तक पहुंचने का उपस्कारक है। जागतिक सौंदर्य अभिव्यक्ति का सौंदर्य है। अभिव्यक्ति ही तो सौंदर्य की संवाहिका है। बाह्य सौंदर्य के कतिपय साहित्यिक उदाहरण वर्ण्य आलेख के अंतर्गत यहां समाहित किए जाने हेतु अनुपयुक्त नहीं होंगे। ​कविवर बिहारी ने नायिका के सौंदर्य को शब्द और उनके अर्थ से जोड़ा है कि जैसे शब्दों से उनके अर्थ का प्रकाश फैलता है, नायिका का आंगिक सौंदर्य भी छिपाते हुए भी छिप नहीं पा रहा है। ऐसा भी नहीं कि शब्द अपने अर्थ को प्रकट न करना चाहते हों, अन्यथा वह अभिव्यक्त ही क्यों होगे। ​दुरत न कुच बिन कंचुकी चुपरी सारी सेत। ​कवि आंकनु के अरथ लौं प्रगटि दिखाई देत।। ​भारतीय साहित्य में सौंदर्य को एक सिद्धांत समझकर विषय प्रवर्तन नहीं किया गया है, किंतु उसके मूल तत्व पर गहन चिंतन अवश्य किया गया है। ​भारतीय काव्यशास्त्र को सौंदर्यशास्त्र का अग्रदूत कहा जा सकता है। काव्य की आत्मा क्या है अर्थात् उसका सौंदर्य क्या है, जिससे उसकी ओर लोग खिंचे चले जाते हैं। उसमें ऐसा क्या है कि पढ़ने-समझने के बाद उसका प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। इस पर विचार करने के लिए भारतीय काव्य शास्त्र अलग-अलग कालक्रमिक संप्रदाय लेकर हमारे सामने आता है। रस, ध्वनि, अलंकार, रीति-गुण, वक्रोक्ति एवं औचित्य यह संप्रदाय काव्य की आत्मा पर जैसे कि उनके नाम हैं, उन्हें केंद्र में रखकर अपनी स्थापना देते हैं। सौंदर्य शब्द का काव्यशास़्त्रीय प्रयोग सर्वप्रथम आचार्य भामह ने अपने काव्यशास्त्र में किया। उन्होंने कहा- ​सौंदर्यमलंकारः। अर्थात् अलंकार किसी रचना के सौंदर्य का हेतु हैं। पंडितराज जगन्नाथ कहते हैं- ​रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्। अर्थात् सुंदर अर्थ के प्रतिपादक शब्दों से मिलकर काव्य बनता है। ​संस्कृत साहित्य के आचार्य माघ अपने शिशुपाल बध नामक महाकाव्य में लिखते है- ​क्षणे-क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः अर्थात् क्षण-क्षण में जो नवता होती है, वही रमणीयता है। यानि यह कभी फीका नहीं पड़ता। ​आधुनिक भारतीय चिंतकों ने सौंदर्य के अनुद्घाटित पक्षों को और उद्घाटित पक्षों को नए संदर्भ मेें व्यक्त किया है। रवींद्रनाथ ठाकुर का मत है कि उपयोगिता के बिना भी जो हमें आनंद मिलता है, उसे सौंदर्य की भावना कहा जाता है। ​डॉ नगेंद्र ने कहा है कि भारतीय सौंदर्य अद्वंद्व एवं सामरस्य का दर्शन है। अभिव्यक्ति के स्तर पर यह सौंदर्य है और अनुभूति के स्तर पर आनंद है। ​संसार का रहस्य और अनंतता का ज्ञान प्राप्त होने के बाद व्यक्तिगत सूख-दुःख, माया-मोह, सफलता-विफलता आदि सब तुच्छ लगता है। जीवन में विराट दृष्टि संपन्न होने पर मोह दूर हो जाता है, आंखें उज्ज्वल और तेजयुक्त, गति में वीरता और हृदय में एक अद्भुद प्रसाद का आविर्भाव होता है। महाभारत में इस गंभीर अनुभव को शांति कहा गया है। इस अनुभव को प्राप्त कर लेने के बाद व्यक्ति संघर्ष करता है, परंतु उसके परिणाम से अप्रभावित रहता है। जीवन को वह एक प्रेममय संघर्ष में रूपांतरित कर लेता है। ​एक सौंदर्य ग्राही व्यक्ति के लिए दुःख या कुरूपता पापों या दुष्कर्म का परिणाम नहीं होता। वह समझ जाता है कि वास्तव में दुःख निवृत्ति तो कभी किसी तत्वज्ञानी की संगत का परिणाम है, व्यक्ति का मन बिना दुःख पाए भागता ही नहीं है। कुरूपता बिना सौंदर्य दर्शन के ज्ञात कैसे हो सकती है। इसका आशय यह नहीं कि हमें कुरूपता या जागतिक समस्याओं से पार जाने की आवश्यकता नहीं है। हम यथास्थितिवादी होकर नहीं रह सकते। शरीर की प्रकृति ही ऐसी नहीं है। जहाज हमेशा किनारे पर सुरक्षित रहता है, किंतु वह इसके लिए नहीं बनाया गया है। हृदय और आंखें अपने शरीर में सुरक्षित स्थानों पर और सुरक्षा साधनों के साथ स्थित हैं, किंतु वे निश्चेष्ट होने के लिए नहीं रखे गए हैं। आयासपूर्वक हमें निठल्ले होकर तो कदापि नहीं बैठना चाहिए। ​सौंदर्य को उपलब्ध किसी व्यक्ति में प्रेम और करुणा छलकने लगेगी। उसे किसी अन्य से शिकायत नहीं रह जाएगी, अपितु उसके संसर्ग में जो आएगा, उसे ही अपूर्व शांति का अनुभव होने लगेगा। ​समकालीन साहित्यकार बाबुषा कोहली कहती है- यदि वह तुम्हें बेहतर, सुंदर और सरल नही ंकर रहा है तो चाहे जो हो, वह प्रेम नहीं है। ​बाबुषा एक कविता में गाती हैं- ​जीत की चाहना से लथपथ इस संसार में ​एक सुंदर दृश्य की तरह उगता ह ैहारा हुआ पुरुष ​जैसे पथरीली जमीन पर बिना किसी तैयारी के उग आता ​कोई हरा बिरवा। यह हरा बिरवा बनने के लिए हमें हारना तो पडे़गा। बुंदेली भाषा मे ंतो हार उस जंगल को भी कहते हैं, जिसमें जानवर चरते हैं और जहां किसान अपने खेत जोतते हैं। ​एक और समकालीन रचनाकार निरंजन श्रोत्रिय की सौंदर्य शीर्षक कविता की पंक्तियां हैं- ​आज मैंने मोर के बदसूरत पैर देखे ​और खुश हुआ ​इन्हीं पैरों पर सवार हो आएगी बरसात ​............ ​आज मैंने सौंदर्य को उलट-पलट कर देखा ​और खुश हुआ। ​​​​-ध्यानमंगलम्, सिल्वर सिटी, कैलगुवां रोड, ललितपुर - उ0प्र0-284403 मोबाइल 9236114604

Sunday, November 17, 2024

सितंबर २२

६/९/२२ शिशु गर्भस्थ हो, वह ईश्वरीय अवस्था है। फिर तो क्रमशः तम राज और सत्व गुण में उसका विकास होता है। पुनः गर्भस्थ आनंद में लौटना घर की ओर जाना है। ८/९/२२ सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥ Forsaking all other dharmas (duties), remember Me alone; I will free thee from all sins (accruing from nonperformance of those lesser duties). Do not grieve! A PROSAIC INTERPRETATION OF THIS COUNSEL unequivocally advises the deeply devoted Arjuna, and all true renunciants, to relinquish worldly duties entirely in order to be single-pointedly with God. “O Arjuna, forsake all lesser duties to fulfill the highest duty: find your lost home, your eternal shelter, in Me! Remember, no duty can be performed by you without powers borrowed from Me, for I am the Maker and Sustainer of your life. More important than your engagement with other duties is your engagement with Me; because at any time I can recall you from this earth, canceling all your duties and actions. THE WORD DHARMA, DUTY, comes from the Sanskrit root dhri, “to hold (anything).” The universe exists because it is held together by the will of God manifesting as the immutable cosmic principles of creation. Therefore He is the real Dharma. Without God no creature can exist. The highest dharma or duty of every human being is to find out, by realization, that he is sustained by God. Dharma,therefore, is the cosmic law that runs the mechanism of the universe; and after accomplishing the primary God-uniting yogadharma (religious duties), man should perform secondarily his duties to the cosmic laws of nature. As an air-breathing creature, he should not foolishly drown himself by jumping into the water and trying to breathe there; he should observe rational conduct in all ways, obeying the natural laws of living in an environment where air, sunshine, and proper food are plentiful. Man should perform virtuous dharma, for by obedience to righteous duty he can free himself from the law of cause and effect gov. erning all actions. He should avoid irreligion (adharma) which takes him away from God, and follow religion (Sanatana Dharma), by which he finds Him. Man should observe the religious duties (yoga-dharma) enjoined in the true scriptures of the world. Sri Paramahansa Yogananda, 18/66, God talks with Arjuna, The Bhagavad Gita. ९/८/२२ ŚRIMAD BHAGVATAM 10.14.58 समाश्रिता ये पदपल्लवप्लवंमहत्पदं पुण्ययशो मुरारे: ।भवाम्बुधिर्वत्सपदं परं पदंपदं पदं यद् विपदां न तेषाम् ॥ For those who have accepted the boat of the lotus feet of the Lord, who is the shelter of the cosmic manifestation and is famous as Murāri, the enemy of the Mura demon, the ocean of the material world is like the water contained in a calf’s hoof-print. Their goal is paraṁ padam, Vaikuṇṭha, the place where there are no material miseries, not the place where there is danger at every step. कल रात ललितपुर से उरई पहुँचे। घर में बेटी पीयूषा से वार्ता हुयी। १५-२० दिन पहले ही उसने जीवन और जगत के अनेक प्रश्न मुझसे पूछे थे, पर आज स्थिति अलग थी। प्रश्न हम कर रहे थे उत्तर वह दे रही थी। ऐसे प्रश्न जिन्हें जानने समझने में जन्म जन्मांतरों की यात्रा करनी पड़ती है। उनके सारगर्भित उत्तर जानकर मुझे स्पष्ट हुआ कि उस पर गुरुदेव की अहैतुकी कृपा हुयी है। ललितपुर जाने से पहले उसे शारीरिक संचार व्यायाम बताकर गए थे और योगदा की वेब्सायट से पंजीकरण कराते हुए इसे अपने दैनन्दिन जीवन का अंग बनाने के आशय से बताए थे। बाद में उसने फ़ोन से योगदा के पाठों को पढ़ने में रुचि प्रकट की। उसका पाठमाला का रेजिस्ट्रेशन दो वर्ष पूर्व से ही है। उससे अनेक प्रकार के प्रश्नो ke उत्तर पाकर क्रिया लेशन पढ़ने का निर्देश भी कर दिया। अपने जवाबों में बार बार गुरुजी का नाम ले रही थी। कहती हमें गुरुजी मार्ग दिखाते हैं। महावतार बाबाजी के दर्शन हुए हैं। यह सब केवल पढ़ने से उपलब्ध हुआ नहीं जान पड़ता। अगर पढ़ने से भी है तो काम का ही है। काम ऊर्जा यानि लस्ट पर भी उसने क्या अद्भुत बातें की कि आत्मानंद के आगे उसका आनंद कुछ नहीं है।यह तो मात्र शरीर के तल का आनंद है। ईश्वर, माया, अन्य व्यक्तियों से संबंध, क्रोध, मोह, मोक्ष, दूसरों के द्वारा किए अपमान पर उसने सिद्ध महात्माओं की तरह बातें की. पिछले जन्म की बात की कि वह विगत जन्म में बहुत अमीर थी। गुरुदेव उसे अपनी शरण में लें, आप आशीर्वाद बनाए रखें। १०/८/२२ सफलता का अर्थ है अपने दिव्य स्वरूप अर्थात् आत्मा के अंतर्जात गुणों को अभिव्यक्त करना। स्वामी चिदानंद ईश्वर वह आनंद है, जिसे आप प्रत्येक वस्तु में खोज रहे हैं। स्वयं अपनी चेतना का शासक होना यथार्थ राजत्व है। प्रसन्नता इस बात पर अत्यधिक निर्भर करती है कि आप अपनी असफलताओं के पश्चात् कितने अच्छे ढंग से पुनः सामान्य अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं। ईश्वर के लिए किया गया कार्य पूजा है। दीक्ष का अर्थ स्वयं को समर्पित करना है। मुझे इसकी चिंता नहीं है कि ईश्वर हमारे पक्ष में है या नहीं, मेरी सबसे बड़ी चिंता यह है कि क्या हम ईश्वर के पक्ष में हैं, क्योंकि ईश्वर सदा सही होते हैं। अच्छाई और बुराई को पृथक करने वाली रेखा अवस्थाओं, वर्गों अटगी राजनैतिक दलों के बीच से नहीं अपितु मानव हृदय के मध्य से होकर गुजरती है। विनम्रत का अर्थ है स्वयं को निरंतर दूसरों से अधिक श्रेष्ठ सिद्ध करने की आवश्यकता से मुक्ति, किंतु अहंकार एक छोटी- आत्मकेंद्रित, प्रतिस्पर्धात्मक और प्रतिष्ठा पिपासु- परिधि में एक हिंसक भूख है। आत्मसम्मान बाह्य विजय से नहीं, अपितु आंतरिक विजय से उत्पन्न होता है। स्वतं अपनी दुर्बलता के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए विनम्रत सबसे महान गुण होता है। विनम्रता आपको स्मरण कराती है कि आप ब्रह्मांड के केंद्र नहीं अपितु आप एक उससे भी बड़ी व्यवस्था के लिए कार्य कर रहे हैं। संघर्ष के मार्ग का आकार होता आगे बढ़ो- पीछे जाओ- आगे बढ़ो। u के आकार की भाँति। लड़खड़ाने में जीवन का सौंदर्य और अर्थ छिपा रहता है। विनम्रत से अपने आप को समझने की क्षमता उत्पन्न होती है। संभोग को रति क्रिया मात्र मानने से इसके वास्तविक अर्थ की ओर ध्यान नहीं जा पाया है. संभोग सभी इंद्रियों द्वारा सम्यक रूपेण किया गया आस्वाद है, कब्जा या अधिग्रहण नहीं। संभोग में सभी तत्व समन्वित रूप में क्रियाशील होते हैं. दूसरे शब्दों में, आत्मा और परमात्मा के योग का नाम संभोग है। ११/८/२२ सुरति समाँनी निरति मैं, निरति रही निरधार। सुरति निरति परचा भया, तब खूले स्यंभ दुवार॥ सुरति- निरति शब्द का अर्थ :-*सुरति* = सु + रति = सु- सुनने में, रति- लगे हुए । *निरति* = नि + रति = निरखना, देखना; रति = लगे हुए । *१. सुरति* :-सुरति आत्मा की वह अवस्था है जो कि शब्द (सृष्टि में जो शब्द/रमा हुआ है) को सुनने की अवस्था को ही सुरति कहते हैं । 'सुरति' शब्द आम आदमी के लिये अपरिचित ही है । सत्संग में जब सुरति शब्द का प्रयोग प्रायः होता रहता है तो नये लोग सिर्फ़ मुंह ताकते रह जाते हैं कि आखिर यह किसके विषय में बात हो रही है....? जबकि निरति शब्द अक्सर पढने को मिल जाता है । मनुष्य की अपनी अज्ञानता के कारण उसकी सुरति 7 शून्य नीचे उतर आई है, इसीलिये मनुष्य को यह संसार अजीब और रहस्यमय दिखाई देता है...? अब सबसे पहले एक शून्य की बात करते हैं । प्रथम शून्य- यहां पर कुछ भी नहीं हैं, लेकिन बेहद अजीब बात यह है कि "इसी कुछ भी नहीं से ही है"....! सब कुछ हुआ है या कुछ नहीं ही सब कुछ है (Everything is nothing but nothing to everything)...! सतगुरु कबीर साहेब जी महाराज ने इसी विषय में कहा है कि:-*"चाह गई चिंता गई,**मनुआ बेपरवाह ।**जाको कछु न चाहिए,**वो ही शहंशाह" ।।* पहले शून्य में थोडी हलचल या थोडा प्रकंपन (vibration) होता है। दुसरे शून्य में यह प्रकंपन (vibration) कुछ अधिक हो जाता है । तीसरे शून्य में कुछ और भी अधिक हो जाता है । चौथे शून्य में यह प्रकंपन (vibration) और भी बढ़ जाता है, फिर पांचवां शुन्य और उसके बाद छटा शून्य । अब सातवें शून्य में यह प्रकंपन (vibration) शब्द रूप में यानी निरंतर होने लगा । इसी तरह के एक विशेष ध्वनि रूपी प्रकंपन (vibration) से (जिसको शास्त्रों में शब्द कहा गया है) पूरी सृष्टि का खेल चल रहा है । इसी से सूर्य, चन्द्रमा, तारे आदि गति करते रहते हैं । इसी प्रकंपन (vibration) से मनुष्य़ का शरीर बालापन, जवानी और बुढ़ापा आदि को प्राप्त होता है । इसी प्रकंपन (vibration) से आज बनी एक मजबूत बिल्डिंग निश्चित समय बाद जर्जर होकर धराशायी हो जाती है । आधुनिक विज्ञान की समस्त क्रियायें इसी प्रकंपन (vibration) पर आश्रित हैं । जैसे मोबायल फ़ोन से बात होना, वायरलेस, इंटरनेट, टी. वी. आदि के सिग्नल । हमारी आपस की बातचीत । यानी हम हाथ भी हिलाते है तो वह भी इसी vibration की वजह से हिल पाता है । इसी को चेतना या करंट भी कह सकते हैं । शुद्ध रूप में यह *र्र्र्र्र्र्र्रर्र्रर्र्रर्र्र र्र्रर्र्रर्र्* इस तरह की धुन होती है । बाद में आदि शक्ति या महामाया द्वारा इसमें *म्म्म्म्म* जोड़ दिया गया । तब यह धुन *र्म्र्म्र्म्र्म र्म्र्म्र्म्र्म* इस तरह हो गई । सरलता से समझने के लिये *रररररर* हो रही धव्नि माया से अलग हो जाती है । लेकिन जब तक *रमरमरम* ऐसी धुनि है तब तक ये माया से संयुक्त हैं । इसीलिये परमपिता परमात्मा (सतपुरुष) को सबसे बडा माना जाता है । यही 'र' और 'म' पहले स्त्री पुरुष हैं । यही असली राम (सतपुरुष) है । संत या योगी इसी राम को पाने की या जानने की लालसा करते हैं । यही आकर्षण यानी कृष्ण या श्रीकृष्ण में भी है । मेरा अनुभव ये कहता है कि यदि आदमी संसार को निसार देखता है या कामवासना, धन, ऐश्वर्य को भोग चुका है और खुद की अपनी वास्तविकता जानना चाहता है तथा उसे सतगुरु के सान्निध्य में ध्यान का थोडा पूर्व अभ्यास है तो सिर्फ़ सात दिन में इस शुन्य को जाना जा सकता है । बस शर्ते यही है कि ये सात दिन उसे एकान्त में और सतगुरु द्वारा बताई गई विधि के अनुसार अभ्यास करना होगा । इस तरह सुरति इस शब्द या अक्षर को जान लेगी और यहां पहुंचकर सुरति निरति हो जायेगी यानी सुनना बन्द करके प्रकृति के रहस्यों या माया को देखने लगेगी...? क्योंकि यहीं से जुडकर आदि शक्ति यानी पहली औरत अपना खेल कर रही है । ये नारी रूपा प्रकृति अक्षर (निरंजन) से निरंतर सम्भोग करती रहती है । ये सब महज ज्ञान की बातें नहीं हैं । सुरति शब्द योग द्वारा इसको आसानी से जाना जा सकता है । *२.निरति :-**निरति* = नि + रति = निरखना, देखना; रति = लगे हुए । निरति आत्मा की उस अवस्था को कहते हैं जिसमें वह शब्द स्वरुप/ ज्योति स्वरूप यानि परमपिता परमात्मा को निरखने/ देखने में लीन रहने लग जाए। *सुरति और निरति = "श्रुति और निऋति"।*परवर्ती हठ-योगियों की परिभाषा में अन्तर्नाद सुनना और उसी में लीन हो जाना। (अर्थात् ससीम का असीम में या व्यक्त का अव्यक्त में समा जाना। रूपाली सक्सेना ११/८/२२ कुछ लोग कहते हैं जीवित व्यक्ति के प्रति श्रद्धा रखें, सुश्रूषा करें, उन्हें तृप्त रखें, फिर मरने के बाद तर्पण करने की आवश्यकता नहीं। पुरखों की सेवा और तृप्ति की बात ग़लत नहीं है। तर्पण और श्राद्ध क्रियाओं में देखा जाता है कि ब्रह्म और अन्य देवताओं की तृप्ति सर्वप्रथम करते हैं, उनके बाद पुरखों को जोड़ते हुए हवि अर्पित की जाती है। यह सीधा प्रमाण है कि हमारी मृत्यु नहीं होती, ब्रह्म में लय होता है बस। कर्मकांड पर किसी की आपत्ति हो सकती है, पर कर्मकांड से बाहर क्या है आख़िर! आप विशेष प्रकार के कर्मकांड से परहेज़ बरतें तो भी... अपने प्रकार का कर्मकांड करेंगे ही, जो आपको अनुकूल लगे। आप अपने स्रोत को याद किए बिना, उससे जुड़े बिना नहीं रह सकते। १३/८/२२ ब नामे ऊ कि ऊ नामे नदारद ब हर नामे कि ख़्वानी सर बरारद। मौलाना रूम १५/८/२२ स्वयं का पिंडदान --- . जब यह दृढ़ अनुभूति हो जाये कि मैं यह भौतिक शरीर नहीं, एक शाश्वत आत्मा हूँ, उसी समय हमारा स्वयं का पिंडदान हो जाता है। मूलाधारस्थ कुंडलिनी -- "पिंड" है। गुरु-प्रदत्त विधि से बार-बार कुंडलिनी महाशक्ति को मूलाधार-चक्र से उठाकर सहस्त्रार में भगवान विष्णु के चरण-कमलों (विष्णुपद) में अर्पित करना यथार्थ "पिंडदान" है। इसे श्रद्धा के साथ करना "श्राद्ध" है। . लेकिन शास्त्रों के आदेशानुसार गृहस्थों का दायित्व है कि परिवार में अपने से बड़े-बूढ़ों की सेवा करे, और पितृ-पक्ष में पूरी श्रद्धा से अपने पित्तरों का श्राद्ध करे। इस विषय पर मनु महाराज और याज्ञवल्क्य ऋषि के शास्त्रों में कथन ही अंतिम प्रमाण हैं। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !! कृपाशंकर मुद्गल १४ सितंबर २०२२ जानें बिनु न होइ परतीती। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती॥प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई। जिमि खगपति जल कै चिकनाई॥ १७/९/२२ प्रधानता वनस्पति - जल कीड़ों मकोड़ों - वायु तथा अग्नि, उड़ने वाले कीड़ों में अग्नि और वायु, रेंगने वालों में पृथ्वी और अग्नि पशु- पृथ्वी जल अग्नि और वायु मनुष्य- सभी पाँच तत्व होते हैं। १८/९/२२ संसार मे जितने भी धर्म हैं सब के प्रवर्तक एक ही हैं । देश काल तथा अधिकारी भेद के कारण भिन्न भिन्न पथ का भेद परिलक्षित होता है । ईसाई मतानुसार अनन्त स्वर्ग एवं नरकों की स्थिति है । बौद्धगण भी ऐसा ही मानते हैं ।अब भिन्नता का वर्णन करता हूँ । बुद्धदेव जन्मांतर मानते हैं । जिन देशों में बुद्धधर्म का प्रचार हुआ है , वे सब भी जन्मांतर मानते हैं । एतद विपरीत ईसा मसीह ने जहाँ धर्म का प्रचार किया था ,वह देश इस गम्भीर तत्व को ग्रहण करने में समर्थ नहीं था । वहाँ पर तत्व को हृदयंगम करने योग्य जनमानस का उत्कर्ष नही हो सका था । अतः तत्वोपदेश देते समय श्रोता के सामर्थ्य को देखकर उतना ही उपदेश दिया गया ,जितना वहाँ का जनमानस समझ सकता था । अतएव आधारगत भिन्नता के कारण उपदेशगत भिन्नता परिलक्षित होने लगती है । शाश्वत स्वर्ग एवं नरक का सिद्धांत जिसे ईसाई गण स्वीकार करते हैं ,वह बौद्धधर्म का ही सिद्धांत है । महापथ पृष्ठ 70 २०/९/२२ बैखरी, जिसे जिह्वा और होंठों द्वारा बोला जाता है मध्यमा गले में चुपचाप उच्चारण किया जाता है पश्यंती मन ही मन (हृदय में) जाप किया जाता है परा जिसे योगी नाभि से हिपोर उठाकर उत्पन्न करते हैं। सुरत यानि आत्मा की शक्ति निरत अंतर में देखने की शक्ति जब तक निरत अर्थात् आत्मा की देखने की शक्ति जागृत नहीं होती, आत्मा अंतर में ऊपर नहीं चढ़ती। आत्मा की दोनों शक्तियों सुरत और निरत की सहायता के बिना आध्यात्मिक उन्नति सम्भव नहीं। सुनने पर बल देने की अपेक्षा अंतर में देखने शक्ति प्रबल है। निरत सबल होगी तभी शब्द भी साफ़ सुनाई देगा। पहला बंधन शरीर का दूसरा स्त्री का फिर संतान चौथा पोते पोतियों पाँचवाँ पड़पोते पड़पोतियों छठा धन संपत्ति सत्व अहंकार अपनी सदाचारिता के मान का आठवाँ रीति रिवाज और कर्मकांड का होता है २१/९/२२ अंजन माहिं निरंजन भेट्या, तिल मुप भेट्या तेलं । मुरति माहिं अमरति परस्या, भया निरतरि घेलं । गोरखबानी २३/९/२२ सच जानने वाले व्यक्ति के समक्ष झूठ का कार्य व्यापार करने वाले कितने निरीह और बेचारे जान पड़ते हैं। ज्ञानी और प्रेमी के आगे मूर्ख और ईर्ष्यालु व्यक्ति कितने असहाय दिखते हैं। इन सबके प्रति करुणा भाव उदित होना ही साक्षात्कार है, बोध है। Man is the expression of God and God is the reality of man. २४/९/२२ कर लूंगा जमा दौलत ओ ज़र उस के बाद क्या कर लूंगा जमा दौलत-ओ-ज़र उस के बाद क्या ले लूँगा शानदार सा घर उस के बाद क्या (ज़र = धन-दौलत, रुपया-पैसा) मय की तलब जो होगी तो बन जाऊँगा मैं रिन्द कर लूंगा मयकदों का सफ़र उस के बाद क्या (रिन्द = शराबी) होगा जो शौक़ हुस्न से राज़-ओ-नियाज़ का कर लूंगा गेसुओं में सहर उस के बाद क्या (राज़-ओ-नियाज़ = राज़ की बातें, परिचय, मुलाक़ात), (गेसुओं =ज़ुल्फ़ें, बाल), (सहर = सुबह) शे'र-ओ-सुख़न की ख़ूब सजाऊँगा महफ़िलें दुनिया में होगा नाम मगर उस के बाद क्या (शे'र-ओ-सुख़न = काव्य, Poetry) मौज आएगी तो सारे जहाँ की करूँगा सैर वापस वही पुराना नगर उस के बाद क्या इक रोज़ मौत ज़ीस्त का दर खटखटाएगी बुझ जाएगा चराग़-ए-क़मर उस के बाद क्या (ज़ीस्त = जीवन), (चराग़-ए-क़मर = चन्द्रमा का चराग़) उठी थी ख़ाक, ख़ाक से मिल जाएगी वहीं फिर उस के बाद किस को ख़बर उस के बाद क्या -ओम प्रकाश भंडारी "क़मर" जलालाबादी यह कथन भी पूरा नहीं लगता। क्योंकि अगर बोध हो गया तो उसके बाद और उसके पहले आनंद ही शेष रहता है। २७/९/२२ तुलसीदासजी ने लिखा है, 'सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे।। गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी। तव प्रेरित माया उपजाए। सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए।।' काकभुशुण्डिजी ने कहा-हे गरुडज़ी सुनिए! समुद्र ने भयभीत होकर चरण पकड़कर श्रीरामजी से कहा मेरे सब अपराध क्षमा करें। आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इन सबकी करनी स्वभाव से जड़ है। आपकी माया से प्रेरित होकर ये सब उपयोगी बनते हैं।' जब परमात्मा हस्तक्षेप करता है तो हम इनका भरपूर फायदा उठा सकते हैं। सुरत आत्मा को कहते हैं, शब्द धुनात्मक नाम है और योग का अर्थ है जुड़ना। सुरत शब्द योग का अर्थ है आत्मा का शब्द के साथ जुड़ना। आत्मा का शब्द के प्रति सहज आकर्षण है, क्योंकि शब्द आत्मा का स्रोत है। शब्द एक आत्मिक राग है। ब्रह्मांड के छः चक्रों का प्रतिबिंब अंड में है। एंड के छः चक्रों का प्रतिबिंब पिंड में है। हरि रूठे गुरु ठौर है गुरु रूठे नहिं ठौर। कबीर शिवे रुश्ते गुरुस्त्राता गुरौ रुश्टे न कश्चन। ३०/९/२२ यज्ञ/हवन का वास्तविक तत्व ————————————— वैदिक दृष्टि के अनुसार अग्नि ही एक मात्र भोक्ता एवं सोम ही एकमात्र भोग्य है। कर्तृत्वाभिमान विगलित होने पर यह स्पष्ट रूप से देख सकते है कि हम कर्ता और भोक्ता दोनों ही नहीं है। कर्तृत्व और भोक्तृत्व दोनों ही आरोपित होता है। जगत के जो एक मात्र भोक्ता है, वे सभी आधारों में रहते हुए भोग करते रहते है। इन सब आधारों के अभिमानी पुरुष अपने को व्यर्थ में ही भोक्ता समझते है। जगत के इस मूल भोक्ता को वैदिक ऋषियों ने अग्नि के रूप मे वर्णन किया है। इसी प्रकार भोग्य भी मूल रूप से एक ही वस्तु है। उसे सोम के रूप में वर्णन किया गया है। सोम का दूसरा नाम अमृत है। अतएव ये सोम अथवा अमृतकण ही जीव मात्र के लिए भोग का विषय है। सभी इसी का एकमात्र आहरण करते रहते है। इसीलिए इसे आहार या आहार्य कहा जाता है। जीव किसी भी प्रकार की खाद्य वस्तु ग्रहण करे,उसकी सार-सत्ता सोम ही है। सभी प्रकार के खाद्यों में मात्रा-भेद के अनुसार इसी सोम का अंश है। समग्र जगत इसी प्रकार अग्नि एवं सोम इन दो भागों में विभक्त है। ज्ञाता, ज्ञेय / कर्ता, कर्म जिस प्रकार संश्लिष्ट है, उसी प्रकार भोक्ता और भोग भी परस्पर संश्लिष्ट है। शिव और शक्ति के बीच जिस प्रकार नित्य सम्बन्ध स्वीकार किया गया है, ठीक उसी प्रकार भोक्ता-भोग्य के बीच भी नित्य सम्बन्ध विद्यमान है। यही यज्ञ है, यज्ञ वास्तव में नित्य सिद्ध परम भोक्ता के निकट भोग्य पदार्थ का अर्पण करने के अलावा और कुछ नहीं है। अग्नि में सोम की आहुति प्रदान करना यज्ञ का तत्व है। —जय गुरु 🙏💐🌹🌺🌺 (सनातन साधना की गुप्त धारा)

डायरी जून २२

१/६/२२ बिना पूर्ण विश्वास और श्रद्धा के किसी आध्यात्मिक प्रथा में निष्ठा रखना पाखंड है. किसी प्रथा के बाह्य कर्मकांड से चिपके बिना, उसके पीछे विद्यमान सत्य में निष्ठा का होना विवेक है। परंतु आध्यात्मिक प्रथा, सिद्धांत, गुरु, इनमे से किसी के भी प्रति निष्ठा न होना आध्यात्मिक पतन है. ईश्वर और उनके दूत का साथ न छोड़िए, तब आप प्रत्येक वस्तु में उनके हाथ को कार्यरत देखेंगे. योगदा सत्संग पत्रिका. १७ मई आध्यात्मिक दैनंदिनी 2/6/22 स्त्री के गर्भ में आने के बाद शैशव, यौवन और वृद्धावस्था से होते हुए हिरण्यगर्भ में पहुँचने की यात्रा का नाम अध्यात्म है. हिरण्यगर्भ में पहुँचने के बाद वापस नहीं आना एक योगी का लक्ष्य होता है. जिस प्रकार एक शिशु माता के वक्ष से लिपटकर दूध पीते हुए आनंद लेता है, एक आध्यात्मिक या आत्मदर्शी व्यक्ति उसी आनंद से पूरे जीवन रहा करता है. तत त्वं असि! ऋषि उद्दालक और श्वेतकेतु का संवाद: छान्दोग्योपनिषद् की एक कथा है। बात उस समय की है जब धोम्य ऋषि के शिष्य आरुणी उद्दालक का पुत्र श्वेतकेतु गुरुकुल से शिक्षा प्राप्त करके अपने घर आया। एक दिन पिता आरुणी उद्दालक ने श्वेतकेतु से पूछा, “श्वेतकेतु! अभी और वेदाभ्यास करने की इच्छा है या विवाह?” पिता की यह बात सुनकर श्वेतकेतु बड़े गर्व से बोला, “एक बार राजा जनक की सभा को जीत लूँ, उसके बाद जैसा आप उचित समझे।” अपने पुत्र के मुँह से ऐसे अहंकार से युक्त वचन सुनकर ऋषि उद्दालक सहम से गए। वह बिना कुछ कहे वहाँ से उठकर चल दिए। श्वेतकेतु अपनी ही मस्ती में घर से निकल गया। तब श्वेतकेतु की माँ ने ऋषि उद्दालक का चेहरा पढ़ लिया और पूछा, “आप ऐसे सहमे हुए से क्यों हैं?” तब व्यथित होते हुए ऋषि उद्दालक बोले, “श्वेतकेतु की राजा जनक की सभा को जीतने की लालसा ही बता रही है कि उसने वेदों के मर्म को नहीं समझा। वह केवल शाब्दिक शिक्षाओं का बोझा ढोकर आया है। वह जब घर आए तो उसे मेरे पास भेजना।” इतना कहकर ऋषि उद्दालक अपने अध्ययन कक्ष की ओर चल दिए। जब श्वेतकेतु घर आया तो उसकी माँ ने उसे पिता के पास जाने के लिए कहा। पिता के पास जाकर श्वेतकेतु बोला, “तात! आपने मुझे बुलाया?” ऋषि उद्दालक बोले, “हाँ! बैठो! इतना कहकर वह अपना काम करने लगे।” श्वेतकेतु से धैर्य नहीं रखा गया अतः वह बोला, “तात! आपने मुझे क्यों बुलाया?” तब ऋषि उद्दालक बोले, “श्वेतकेतु! मुझे नहीं लगता कि तुमने वेदों का मर्म समझा है! क्या तुम उसे जानते हो, जिसे जानने से, जो सुना न गया हो, वो सुनाई देने लगता है। जिसका चिंतन नहीं किया गया हो, वो चिंतनीय बन जाता है। जो अज्ञात है, वो ज्ञात हो जाता है।” तब श्वेतकेतु बोला, “तात! मेरे महान आचार्यों ने मुझे इसकी शिक्षा नहीं दी। यदि वे जानते होते तो उन्होंने मुझे इसकी शिक्षा अवश्य दी होती। अतः आप ही मुझे इस बारे में बताएँ?” यह सुनकर तथा श्वेतकेतु की जिज्ञासा को जानकर ऋषि उद्दालक श्वेतकेतु को घर से बाहर ले गए। ऋषि आरुणि उद्दालक श्वेतकेतु को लेकर एक पेड़ के नीचे बैठ गए और कुछ मिट्टी उठाते हुए बोले, “श्वेतकेतु! जिस तरह जब तुम मिट्टी को जान लेते हो, तब तुम मिट्टी से बने सभी बर्तनों को जान लेते हो कि वह भी मिट्टी स्वरूप ही है। जब तुम स्वर्ण को जान लेते हो, तब तुम स्वर्ण से बने सभी स्वर्णाभूषणों को जान लेते हो। उसी तरह अब तुम ही बताओ? क्या है वह मूलभूत तत्व, जिसको जान लेने से तुम सबको जान लेते हो, जिससे यह सम्पूर्ण जगत बना है।” जिज्ञासु दृष्टि से श्वेतकेतु बोला, “मैं नहीं जानता! तात।” तब आरुणि उद्दालक बोले, “वह सर्वोच्च सत्य सत् है, अस्तित्व है, चेतना है। इसी चेतना से नाम और रूप के सारे संसार ने जन्म लिया है। जैसे स्वर्ण ही स्वर्णाभूषण है, मिट्टी ही मिट्टी का घड़ा है। वैसे ही चेतना या अस्तित्व ही सबकुछ है। इसलिए तुम वही सत् चेतना हो। तत त्वं असि = तत्वमसि।” तत्वमसि यह एक महावाक्य है जो यह घोषणा करता है कि “तुम वो ही हो, जो तुम खोज रहे हो।” यह साधक और साध्य के एक्य को दर्शाता है। इसी महावाक्य के माध्यम से आचार्य अपने शिष्य को उपदेश करता है, “वह तुम ही हो जो तुम खोज रहे हो!” श्वेतकेतु की ब्रह्म जिज्ञासा को देखकर आचार्य उद्दालक उसे फूलों के एक बगीचे में ले गए और बोले, “यहाँ विभिन्न फूलों से शहद इकठ्ठा कर रही मधुमखियों को देख रहे हो श्वेतकेतु?” श्वेतकेतु, “हाँ! तात।” आचार्य उद्दालक, “छत्ते में मिलने के बाद क्या वो शहद कह सकता है कि मैं उस फूल का हूँ और मैं उस फूल का हूँ?” श्वेतकेतु, “नहीं तात!” आचार्य उद्दालक, “ उसी तरह जब कोई व्यक्ति उस शुद्ध चेतना के साथ एक हो जाता है तो उसकी व्यक्तिगत पहचान खत्म हो जाती है। ठीक उसी तरह जैसे सागर में मिलने के बाद नदियाँ अपना अस्तित्व खो देती हैं। वह चेतना ही है जो सबको जोड़ती है। जिससे तुम, मैं और यह सब चराचर जगत बना है।” तब श्वेतकेतु बोला, “लेकिन तात! एक सत या चेतना से ही विविधता से भरे इस जगत की उत्पत्ति कैसे हुई?” आचार्य उद्दाक बोले, “जाओ! कहीं से बरगद के वृक्ष का फल लेके आओ।” श्वेतकेतु फल लाता है तो आचार्य उद्दालक उसे तोड़ने को कहते हैं और पूछते हैं कि इसमें क्या है? श्वेतकेतु कहता है, “इसमें बहुत सारे छोटे-छोटे बीज हैं।” तब आचार्य उद्दालक बोलते हैं, “इसके किसी एक बीज को तोड़के देखो, उसमें क्या है?” जब श्वेतकेतु ने छोटे से बीज को तोड़के देखा तो बोला, “यह इतना सूक्ष्म है कि इसे देख पाना संभव नहीं! तात।” तब आचार्य उद्दालक बोले, "यह सूक्ष्म बीज, जिसे तुम देख नहीं सकते। इसी से विशालकाय बरगद का वृक्ष अपनी विभिन्न शाखाओं और फूलों को लेकर उत्पन्न होता है। उसी तरह उस शुद्ध चेतन तत्व, (जिसे तुम देख नहीं सकते) से ही विविधता से भरा यह जगत उत्पन्न होता है।” इसके बाद आचार्य उद्दालक ने श्वेतकेतु को एक लोटे जल में नमक घोलकर लाने के लिए कहा और श्वेतकेतु से लोटे की उपरी सतह से जल पीने को कहा और पूछा, “कैसा है?” जल नमकीन था। फिर उसे लोटे के बीच का जल पीने को कहा। वो भी नमकीन था। अंत में उन्होंने उसे पैंदे का जल पीने को कहा। वो भी नमकीन था। तब आचार्य उद्दालक बोले, “जिस तरह दिखाई नहीं देते हुए भी जल की प्रत्येक बूँद में नमक है। उसी तरह दिखाई नहीं देते हुए भी सभी जगह वही चेतना विद्यमान है। वो मुझमें भी है, वही तुम हो। तत त्वं असि।” इस तरह ऋषि उद्दालक ने श्वेतकेतु को दैनिक जीवन के उदहारण लेकर “तत त्वं असि” महावाक्य की नौ बार उद्घोषणा की। जब तक कि श्वेतकेतु इसके अर्थ को हृदयंगम नहीं कर लिया। यह प्रसंग छान्दोग्योपनिषद् के छठवें अध्याय में वर्णित है। आनंदमस्तु! ऊँ तत् सत्। Tathastu प्रणाम! Sakshi Prem 10/6/22 उपनिषदों में ब्रह्म की ज्ञान शक्ति को गायत्री कहा गया है और क्रिया शक्ति को सावित्री। जड़ चेतनमय सृष्टि में ज्ञान और क्रिया दोनो की अनिवार्यता है और ब्रह्म में ही दोनो शक्तियां निहित हैं। व्रतों और त्योहारों में कहीं वेद और उपनिषदों की उक्तियाँ झांकती अवश्य हैं, रूप चाहे जितने बदल गए हों। आज वट सावित्री अमावस्या का दिन है। 10/6/21 फ़ेसबुक पोस्ट जब आप अपने हृदय में ईश्वर को अनुभव करना प्रारम्भ करेंगे, तो आप विश्व सभ्यता के प्रति इतना योगदान करेंगे, जितना किसी राजा अथवा किसी राजनीतिज्ञ ने पहले कभी नहीं किया होगा। गुरुदेव। किसी की कोई चीज पसंद नहीं है तो उसकी अवज्ञा मत करो सोचो ठाकुर ने उसे भी पैदा किया है वही उसे इस संसार मे लाया है । माँ सारदा कहत कठिन समुझत कठिन साधत कठिन बिबेक। होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्यूह अनेक॥ भावार्थ ज्ञान कहने (समझाने) में कठिन, समझने में कठिन और साधने में भी कठिन है। यदि घुणाक्षर न्याय से (संयोगवश) कदाचित यह ज्ञान हो भी जाए, तो फिर (उसे बचाए रखने में) अनेकों विघ्न हैं॥ कोऊ कह सत्य झूठ कह कोऊ जुगल प्रबल कोऊ माने तुलसीदास परिहरै तीनि भ्रम सो आपन पहिचाने। पैग़म्बर मोहम्मद का बड़ा सामाजिक योगदान है कि उन्होंने अपने समय के लड़ने वाले कबीलों को इकट्ठा किया. उन्हें अनुशासित किया. उनकी तपस्या से उन पर क़ुरान आयत्त हुयी. उसकी व्याख्या को लेकर उसी तरह के मतभेद हैं जैसे वेदों के विभिन्न भाष्य हुए हैं. कई व्याख्याये या भाष्य होने से क़ुरान या वेदों का महत्व तो नहीं घट जाएगा. मुश्किल उन लोगों से है जो न क़ुरान समझते हैं और न वेद ही. न समझ पाएँ, पर समझने वालों और उनके आचरण से ही सीख लें. 🙏 संसार की गति एक रेखीय नही होती. अतीत वर्तमान और भविष्य की भाँति भी नहीं और न उसका पूर्वापर क्रम निर्धारित किया जा सकता है. यह सब एक समय में ही घटित हो रहे हैं, किसे आगे और किसे पीछे कहा जा सकता है. इस समय को हम क्षण नाम देते हैं. इस क्षण में ही ईश्वर द्वारा सृष्टि, स्थिति और लय ही नहीं, पिधान और अनुग्रह भी घटित हो रहे हैं. इन सब ईश्वरीय विधानों को पृथक पृथक देखना-समझना ही बोध प्राप्त करना है. १२/६/२२ नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन, एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन। राजा भर्तृहरि ने कहा है- भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद्भयं माने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जराया भयं। शास्त्रे वादिभयं गुणे खलभयं काये कृतांताद्भयं सर्व वस्तु भयान्वितम भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयं।। अर्थात : विषयों के भोग में रोग का भय बना रहता है, कुल में आचार से भ्रष्ट होने का भय, धन-संचय में राजा द्वारा छीन लिये जाने का भय, मान-सम्मान में अपमानित होने का भय, शौर्य-वीरता में शत्रु से हार जाने का भय, शारीरिक सौंदर्य में वृद्धावस्था का भय, शास्त्रों के पांडित्य में प्रतिवादी से पराजित होने का भय, विद्या-विनय-दान-धर्म आदि सद्गुणों में दुष्टों द्वारा निंदा का भय और शरीर धारण के विषय में यम अर्थात मृत्यु का भय बना रहता है। इस प्रकार संसार में मनुष्यों के लिए सारी वस्तुएं ही भय से परिपूर्ण हैं, एकमात्र वैराग्य यानि इन सबसे अपने को समेटने की प्रक्रिया ही अभय प्रदान करने वाला है। परा और अपरा दो विद्याएँ बताई गयी हैं. स्वयं वेद अपरा विद्या हैं, पर उनमें परा विद्या भी मिलती है. सब कुछ बड़ा मिश्रित है. खोजने और पाने की पात्रता विकसित करनी होगी. ईशोपनिषद में विद्या और अविद्या को साथ साथ जानना आवश्यक कहा गया है. मुंडक उपनिषद की स्पष्ट घोषणा है... तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति । अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते ॥ मुंडक उप १/१/५ ॥ 5. Of these, the Apara is the Rig Veda, the Yajur Veda, the Sama Veda, and the Atharva Veda, the siksha, the code of rituals, grammar, nirukta, chhandas and astrology. Then the para is that by which the immortal is known. अष्टावक्र उवाच । आचक्ष्व शृणु वा तात नानाशास्त्राण्यनेकशः । तथापि न तव स्वास्थ्यं सर्वविस्मरणादृते ॥ १६/१ ॥ aṣṭāvakra uvāca | ācakṣva śṛṇu vā tāta nānāśāstrāṇyanekaśaḥ | tathāpi na tava svāsthyaṃ sarvavismaraṇādṛte || 1 || Ashtavakra: My son, you may recite or listen to countless scriptures, but you will not be established within until you can forget everything. 14/6/22 शक्ति के विद्युतकण जो व्यस्त, विकल बिखरे हैं, हो निरूपाय: समन्वय उसका करें समस्त, विजयिनी मानवता हो जाय। (i) हरि , तुम बहुत अनुग्रह कीनों । साधनधाम विबुध दुर्लभ तन मोहि कृपा करि दीनों । तुलसी 16/6/22 वर्षा ईश्वर का वीर्य हैं. बूँदे गिरते समय और उनकी नमी से ही कितने जीवों का पुनरागमन हो जाता है. औषधियाँ और पादप बनते हैं, वे हमारे लिए अन्न बनते हैं. अंत में हम भी किसी का अन्न बन जाते हैं. १७/६/२२ इंद्र व्यक्तिगत आत्मा को कहते हैं. वही सब देवताओं का अधिपति है. श्री अरबिंदो इंद्र को गिवर ओफ़ लाइट कहते हैं. यह व्यक्तिगत आत्मा जब दृश्य देखने का काम करती है तो उसे इंद्रिय कहते हैं. संस्कृत भाषा में इदं यह को कहते हैं द्र का अर्थ देखने से है, वह जो देखता है इंद्र कहलाता है. इदंद्र का संक्षिप्तीकरण इंद्र रूप में हुआ है. ध्यान में देखे अनदेखे मंदिर और विग्रह दर्शन हो रहे हैं. क्षितिज में चमकते तैरते तारों के बीच पाते हैं. सिर के ऊपरी भाग में तरावट रहती है. शरीर याद कदा स्फुरित होता रहता है. बहुत से अनुभव लिखना चाहते तब भी लिखते समय भूल जाते हैं. फिर अगली बैठकी में उन्हें लिखने का प्रयास करते हैं, पर तब तक नया अनुभव आ जाता है, वह अनुभव तिरोहित ही रहता है. हिमालय के बद्रीनाथ क्षेत्र में शंकर और पार्वती निवास करते थे। एक दिन अचानक एक बालक उनके सम्मुख आया। पार्वती ने उसे उठाकर संभालने की इच्छा प्रकट की, पर शंकर ने रोका कि यह साधारण बालक नही है, अन्यथा इसके माता पिता के पदचिह्न बर्फ पर दिखते। पार्वती नही मानी, बालक की सम्भाल करने लगीं। एक दिन जब पार्वती और शंकर बाहर निकले और घर वापस आये तो बालक ने कुंडी लगा दी और खोली नहीं। मजबूरन शंकर पार्वती को अपना स्थान बदलना पड़ा और केदारनाथ जाकर रहने लगे। हिमालय की यात्रा कुछ पाने के लिए नही की जाती, वरन वहां जाकर संसार के सारे पदार्थ हिमालय के सामने बौने दिखने लगते हैं। यही इस यात्रा का निहितार्थ है। बद्रीनाथ और गंगोत्री के लिए अब मोटर वाहन सुलभ हो गए हैं, पर पहले लोग वहां पैदल जाते थे। बद्रीनाथ की यात्रा में वहां से पच्चीस किमी पूर्व गोविद घाट से अद्भुत दृश्य और शांति प्राप्त होती है। इस क्षेत्र को लोग विश्व के सभी क्षेत्रों से विरल मानते हैं। गोविंद घाट से ही सिखों के पवित्र हेमकुंड सरोवर की यात्रा आरम्भ होती है। आदि जगतगुरु आचार्य शंकर ने हज़ारो वर्ष पहले सुदूर दक्षिण के केरल में जन्म लेकर हिमालय की तीन हज़ार किमी से अधिक की यात्रा तीन बार पूरी की। यही नहीं, उन्होंने पूर्व से पश्चिम की यात्रा भी एक बार पूरी करके देश मे चार पीठें स्थापित की। यह कार्य उन्होंने कोई सम्प्रदाय या धर्म निर्मित करने के लिए नही किया, वरन सनातन धर्म को मौलिकता प्रदान करते हुए पुनर्स्थापित किया। आदि शंकराचार्य द्वारा सर्वप्रथम हिमालय के जोशीमठ (ज्योतिर्मठ) में पीठ स्थापित की गई। दुर्भाग्यवश, यही पीठ आजकल विवादित हो गयी है। इस पीठ पर शारदा पीठ के शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती और वासुदेवानंद सरस्वती के बीच अवर न्यायालय और हाइकोर्ट से होते हुए मुक़दमा सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है। वर्तमान में स्वरूपानंद जी ने कुछ ज़मीन लेकर मन्दिर और अन्य स्थापत्य निर्मित कर लिए, इसी से सटे क्षेत्र पर ऊपर पुराने भवन में वासुदेवानंद जी की पीठ चल रही है। स्वरूपानन्द जी पर आरोप है कि वह बद्रीनाथ क्षेत्र की पीठ हथियाने के लिए अपने को गुरु ब्रह्मानंद सरस्वती की जगह बोधाश्रमजी का शिष्य बताने लगे। ब्रह्मानंद जी के बाद शांतानंद और एक अन्य शंकराचार्य इस पीठ को सुशोभित किये और फिर वासुदेवानंद जी आसीन हुए। स्वरूपानन्द जी ब्रह्मानंद जी के बाद बोधाश्रम जी और फिर स्वयं पीठाचार्य बताते हैं। जो हो, लेकिन इस विवाद से नुकसान पहुच रहा है। यही नहीं आदि शंकराचार्य ने भारत की एकता और अखंडता के लिए बद्रीनाथ मंदिर की पूजा के लिए केरल के नंबूदरी ब्राह्मणों को नियुक्त किया। नंबूदरियो कि सहायता के लिए गढ़वाली ब्राह्मण रहते हैं। उनका दावा है कि इन दोनों शंकराचार्यो का दावा झूठा है यह तो नम्बूदरी ब्राह्मणों की पीठ है। परम्परा में भगवान बद्रीनाथ का स्वरूप जैसा मिलता है, उससे किंचित भिन्न यहां बद्रीनाथ पद्मासन में ध्यान करते हुए बिराजे हैं। हाथ चार ही हैं। दो अलग अलग हाथो में शंख और चक्र पर दो अन्य नीचे के हाथ ध्यान दशा में परस्पर मिले हुए हैं। इस स्वरूप से यह भी स्पष्ट है कि योग और ध्यान अपनी परम्परा में अति प्राचीन विधियां हैं। कहा जाता है भगवान विष्णु ध्यान करते गए और पत्नी लक्ष्मी ने बदरी पेड़ का रूप धारण कर उन्हें छाया प्रदान की, इससे वह बद्रीनाथ हुए। बद्री को बेर के पेड़ के रुप में जनसामान्य जानता है, पर बदरी बेर से भिन्न एक अन्य पेड़ हैं, यद्यपि वह पेड़ भी आजकल यहां मौजूद नहीं हैं। उत्तराखंड के चार धामों की यात्रा का क्रम यमुनोत्री से शुरू होता है। यमुना का उद्गम स्थल यमुनोत्री है। यमुना सूर्य की पुत्री हैं, इनका भाई यम है, पर माता अलग अलग हैं। यम के श्राप या दुःख को बहिन यमुना ने दूर किया था। यमी का उल्लेख वेद में भी है। इसलिए व्यक्ति असामयिक मृत्यु और उसके भय को दूर करने यहां आते हैं। गंगोत्री में व्यक्ति के पूर्वजों को भी मुक्त कर दिया जाता है, जैसा भागीरथ के प्रयासों से उनके पूर्वज राजा सगर के साठ हज़ार पुत्रों का उद्धार करने की कथा सर्वविदित है। गंगा का उद्गम स्थल गोमुख है। ग्लेशियरों से नदियां निकलती हैं। गंगा का ग्लेशियर गाय के मुख की आकृति की भांति है। गौमुख गंगोत्री से पैदल 18 किमी है और सरकार की अनुमति के बिना यहां नही जाया जा सकता है। यमुनोत्री और गंगोत्री के बाद केदारनाथ के दर्शन किये जाते हैं। केदारनाथ के पुजारी कर्नाटक के वीर शैव सम्प्रदाय के आचार्य हैं। केदारनाथ ज्योतिर्लिंग की आकृति भी प्रचलित शिवलिंग से भिन्न है। उत्तराखण्ड के चार धामों में अंत मे बद्रीनाथ की यात्रा सम्पन्न होती है। भगवान की पूजा उपासना में श्रृंगार इतना अधिक कर दिया जाता है कि उनका मूल स्वरूप ढंक जाता है। इससे लोगों को स्वरूपों की विलक्षणता पता नही लग पाती है। ओरछा में भी रामराजा पद्मासन में बिराजे हुए हैं और उनके दरबार मे दुर्गा माता भी विद्यमान हैं...१८ जून २०१९ फ़ेसबुक से * सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका॥ बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे॥3॥ भावार्थ:-शौर्य और धैर्य उस रथ के पहिए हैं। सत्य और शील (सदाचार) उसकी मजबूत ध्वजा और पताका हैं। बल, विवेक, दम (इंद्रियों का वश में होना) और परोपकार- ये चार उसके घोड़े हैं, जो क्षमा, दया और समता रूपी डोरी से रथ में जोड़े हुए हैं॥3॥ * ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना॥ दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा। बर बिग्यान कठिन कोदंडा॥4॥ भावार्थ:- ईश्वर का भजन ही (उस रथ को चलाने वाला) चतुर सारथी है। वैराग्य ढाल है और संतोष तलवार है। दान फरसा है, बुद्धि प्रचण्ड शक्ति है, श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष है॥4॥ * अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना॥ कवच अभेद बिप्र गुर पूजा। एहि सम बिजय उपाय न दूजा॥5॥ भावार्थ:-निर्मल (पापरहित) और अचल (स्थिर) मन तरकस के समान है। शम (मन का वश में होना), (अहिंसादि) यम और (शौचादि) नियम- ये बहुत से बाण हैं। ब्राह्मणों और गुरु का पूजन अभेद्य कवच है। इसके समान विजय का दूसरा उपाय नहीं है॥5॥ * सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें॥6॥ भावार्थ:- हे सखे! ऐसा धर्ममय रथ जिसके हो उसके लिए जीतने को कहीं शत्रु ही नहीं है॥6॥ sufficient precision, thus: — Principle 1. Pure Existence — Sat 2. Pure Consciousness — Chit 3. Pure Bliss — Ananda 4. Knowledge or Truth — Vijnana 5. Mind 6. Life (nervous being) 7. Matter World World of the highest truth of being (Satyaloka) World of infinite Will or con- scious force (Tapoloka) World of creative delight of existence (Janaloka) World of the Vastness (Maharloka) World of light (Swar) Worlds of various becoming (Bhuvar) The material world (Bhur) १९/६/२२ भगवान् कृष्ण का एक नाम है 'सत्कृति' भगवान् कृष्ण का एक नाम है 'सत्कृति'। सत्कृति का अर्थ है जो अपने भक्त के निर्याण (शरीर त्यागने के) समय में उसकी सहायता करते हैं। वराह पुराण में भगवान् हरि कहते हैं-- वातादि दोषेण मद्भक्तों मां न च स्मरेत्। अहं स्मरामि मद्भक्तं नयामि परमां गतिम्।। “यदि वातादि दोष के कारण मृत्यु के समय मेरा भक्त मेरा स्मरण नहीं कर पाता तो मैं उसका स्मरण कर उसे परम गति प्राप्त करवाता हूँ।“ मुकुंदमाला से.. कृष्ण त्वदीय पद पंकज पंजरान्तं अद्यैव मे विशतु मानस राज हंसः | प्राण प्रयाण समये कफ वात पित्तैः कंठावरोधनविधौ स्मरणम् कुतस्ते ।। हे कृष्ण! मेरा चित्तरूपी राजहंस आज ही आपके श्रीचरण रूपी कमल के केशर में जाकर प्रवेश करे, क्योंकि प्राण परित्याग के समय जब कफ, वायु तथा पित्त से कंठ अवरुद्ध हो जाएगा तब आपका स्मरण कैसे कर पाऊँगा. आदि शंकराचार्य कहते हैं बाल्ये दुःखातिरेको मललुलितवपु: स्तन्यपाने पिपासा नो शक्तश्चेन्द्रियेभ्यो भवगुणजनिता जन्तवो मां तुदन्ति । नाना रोगोत्थदुःखाद् रुदन परवशः शंकरं न स्मरामि क्षंतव्यो मे अपराधः शिव शिव शिव भोः श्रीमहादेव शंभो. आज अंतरराष्ट्रीय पितृ दिवस है। जिनके पिता जीवित नहीं हैं, उनका स्मरण तो आज वैसा ही हुआ, जैसा श्राद्ध कर्म में किया जाता है। कई व्यक्ति श्राद्ध को व्यर्थ बता देते हैं। कहीं यह कान घूमकर तो नहीं पकड़ा गया है। ऋग्वेद की एक ऋचा है.. ये अग्निदग्धा ये अनग्निदग्धा मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते । तेभिः स्वराळसुनीतिमेतां यथावशं तन्वं कल्पयस्व ॥ ॥ हमारे जिन पितरोंको अग्निने पावन किया है और जो अग्निद्वारा भस्मसात किये बिना ही स्वयं पितृभूत हैं तथा जो अपनी इच्छाके अनुसार स्वर्गके मध्यमें आनन्दसे निवास करते हैं । उन सभीकी अनुमतिसे, हे स्वराट् अग्ने ! ( पितृलोकमें इस नूतन मृतजीवके ) प्राण धारण करने योग्य ( उसके ) इस शरीरको उसकी इच्छाके अनुसार ही बना दो और उसे दे दो .२० जून २०२१ की फ़ेसबुक पोस्ट भागवत (1.3.28) में कहते हैं-- एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् | इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे || “ ये सब अवतार तो भगवान के अंशावतार अथवा कलावतार हैं, परन्तु भगवान श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान अवतारी ही हैं l २३/६/२२ मौलाना वाहिदुद्दीन की अनूदित पवित्र क़ुरान का विहगावलोकन किया, मौलाना साहब की भूमिका पूरी पढ़ी. इसमें कुछ ऐसा नहीं,क़ुरान में ऐसा कुछ नहीं, जिसे लेकर बखेड़ा खड़ा किया जाता है. ख़ुद मौलाना साहब ने कतिपय शंकाएँ उठाते हुए उनका निवारण इस भूमिका में किया है. गर्दन काटने और मारने की जो बातें क़ुरान में की गयी हैं, वे राज्य के लिए हैं, व्यक्ति के लिए नहीं. व्यक्ति अपना जिहाद शांतिपूर्वक किए गए आचरण से लड़ सकता है. हिंसक कार्यवाही की अनुमति राज्य के लिए ही है. कितनी सुखद अनुभूतियों को शब्दों में वर्णित नहीं कर सकते. बड़ी बड़ी अनुभूतियाँ शास्त्रों और गुरुदेव के ग्रंथों में आयी हैं, पर उनकी उन्हें आज्ञा रही, इसलिए वे आयी, मुझे न ऐसी आज्ञा है, न सामर्थ्य कि उन्हें व्यक्त कर पाएँ. २५/६/२२ कर्तृत्व की मूल कृति-- इच्छा नहीं । इच्छा का उदय पूर्व संस्कार से होता है ---- उस इच्छा की ओर yield करना या नहीं करना , यह कृति है । यही कृतित्व है । देवता कर्ता नहीं हैं ,उनकी देह कर्मदेह नहीं । क्योंकि उन्हें इच्छा होती है और उसी क्षण उसकी पूर्ति होती है । कृति का अवकाश नहीं रहता , प्रवृत्ति- निवृत्ति का अवकाश नहीं रहता , choice नहीं रहता । कर्तृत्व जब नहीं रहता , तब भी इच्छा का उदय होता है ।उस इच्छा का मूल क्या है ? स्वभाव । यह स्वभाव दो प्रकार का है ; ( क )योगमाया और ( ख) माया पूर्वस्थल में इच्छा का उदय होता है , उसकी पूर्ति होती है -- कृति की आवश्यकता नहीं होती । इच्छापूर्ति -- आनन्दावस्था । इच्छा के उदित होने से विलम्ब क्यों नहीं होता ? क्योंकि चिंतामणि राज्य है , पूर्ण राज्य -- विलम्ब का हेतु नहीं । उत्तर में राज्य अभाव और अपूर्णता का है । इसलिए , इच्छा का उदय तो होता है ,लेकिन तुरन्त उसकी पूर्ति नहीं होती । इसीलिए प्राप्ति के लिए कृति होती है । यहाँ कर्तृत्व का आरम्भ है । पूर्ण के राज्य में कर्तृत्व नहीं । अभाव के ही राज्य में कर्तृत्व है । कर्तृत्व के जाने से ही चेष्टा ,क्रिया आदि , moral life है । सब गया ,माया कट गई । तब लीला । यह योगमाया का राज्य है । पौर्णमासी का राज्य । स्व संवेदन / पृष्ठ 283 Date 23/ 1/ 1925 आग पर कागज़ रखने से जलता है । आग जलाती है इसलिए जलता है । दाह कार्य में आग का कर्तृत्व है । अतएव, यह भी वास्तव में स्वाभाविक कार्य नहीं । दाह करना आग का स्वभाव है -- यह महज लौकिक बात है । इस कार्य के मूल में भी इच्छा है । इसलिए ,इच्छा से यह नियमित हो सकता , स्तम्भित हो सकता है । संसार के सभी कार्यों का मूल इच्छा है । इच्छा और स्वभाव में भेद क्या है ? इच्छा की पूर्णता ही स्वभाव या आनन्द है । पूर्ण इच्छा = स्वभाव । स्वभाव का विकार नहीं -- इसीलिए , परमेश्वर की इच्छा या पूर्णइच्छा निर्विकार है । आधार- भेद से वही इच्छा नाना प्रकार से अपूर्ण होती है , सीमाबद्ध होती है , विकृत होती है । हम साधारणतया जिसे इच्छा कहते हैं , उसका उदय और अस्त है , वह जन्य और विकृत है । परमेश्वर की इच्छा नित्य प्रकाशमान है , निर्विकार -- इसीलिए वह स्वभाव है । वह पूर्ण है , इसलिए कोई उसे इच्छा नहीं कहते । वही आनन्द है । वह सदा एकरस है , इसलिए , उसे पूर्णता या स्वभाव कहना ही अच्छा है । आधार के सम्बंध से वही सीमाबद्ध होती है । तब वह इच्छा होती है -- पूर्ण के स्पर्श से आनन्द होती है । स्वभाव या पूर्ण निराधार है । इच्छा या आनन्द को लौकिक अर्थ में प्रयोग करने के लिए विषय - सम्बंध चाहिए , आधार -सम्बंध चाहिए । बिंदु ही मूल आधार है । उसी को ग्रहण करने से इच्छा का स्फुरण होता है , आनन्द का विकास होता है । वही सृष्टि का उन्मेष है । बिंदु का त्याग करने से ही पूर्णता है -- विशुद्ध स्वभाव । वह नित्यानन्द पारमैश्वर्य है -- उसका विकास और लय नहीं । स्व संवेदन पृष्ठ 329 Date 23 , 6 , 1927 आज एक और पुस्तक डाक से प्राप्त हुयी, श्री अरबिंदो की सीक्रेट आँफ वेद, ईबुक के रूप में जब इस पुस्तक को देखा तो मंगाए बिना न रहा गया. कभी-कभी अर्थोन्मेष की अनुभूति परम तक पहुचाने का आभास कराती है. अर्थ का यह प्रसार ही उसे मुद्रा या धन के अर्थ की सार्थकता व्यक्त करती है. धन्य करने के कारण वह धन है, प्रसन्न करने के चलते वह मुद्रा है. शब्द का अर्थ भी हमें यही अहसास कराता है. किसी शब्द के दो अलग अलग अर्थ बाद में विकसित हुए, मूलतः या तत्वतः एक शब्द का एक ही अर्थ है. गो का अर्थ प्रकाश है, गाय का अर्थ विकसित हुआ. अश्व का अर्थ प्राण के एक रूप से है, बाद में इससे घोड़ा का अर्थ विदित हुआ. ब्रह्म से अतीत भूमि में संचित सत्ता ही षोडश कलामय पूर्ण सत्ता है । उसकी पन्द्रह कला एवं सोलहवीं कला का त्रिपादांश ज्ञान राज्य में है । एक कला का पादांश मात्र ( 1/4 ) कार्य करने के लिए मर जगत में अवतीर्ण है । ज्ञान राज्य में अवशिष्ट पन्द्रह कला विश्वगुरु भृगुराम के रूप में स्थित है । बाकी त्रिपादांश ( 3/ 4 ) कला भृगुशक्ति के आधारभूत अचलानन्द या महातपा रूप से अवस्थित हैं । मात्र एक कला के पादांश ( 1/ 4 ) का प्रकाश ( इस मर जगत में ) विशुद्धानंद के रूप से हुआ । इन सब को मिलाकर विशुद्धसत्ता ( षोडशकलायुक्त ) हैं पुकार ( आर्तपुकार ) यदि माँ रूप है । अचलानन्द हैं , अनादि स्वरूप । अचल की क्षुब्ध अवस्था " आदि माँ " , "माँ की पुकार " या भावशक्ति है । आदि शक्ति से जिनका स्फुरण हुआ , वे हैं "कर्मशक्ति या श्यामा शक्ति । " जिनके कारण यह स्फुरण हुआ , वे ज्ञान या उमाशक्ति पद वाच्य हैं । उमा का स्वरूप है " ॐ माँ " अतएव अचल के तीन कोण हैं आदि माँ ( आदि शक्ति ) , श्यामा माँ ( कर्मशक्ति ) एवं उमा माँ ( ज्ञान शक्ति ) वहीं से ' ॐ माँ ' शब्द निर्गत हुआ पूर्व वर्णित एकपाद विशुद्धसत्ता , इस महाशब्द को चतुर्दश भुवन का अतिक्रमण कर , इस मर्त्यलोक में लाई । ज्ञान राज्य में ' ॐ माँ ' ध्वनि निरन्तर उत्थित हो रही है । किन्तु धारक में अभाववश , धृत न होकर वापस लौट जाती है । विशुद्धसत्ता का अवतरण मातृ स्वरूप आसन प्रतिष्ठा पृष्ठ 32 २७/६/२२ सृष्टि से परे उस निर्गुण ब्रह्म या परमपिता को कोई भी तब तक प्राप्त नही कर सकता जब तक वह पहले सृष्टि में व्याप्त कूटस्थ चैतन्य या पुत्र को अपने मे प्रकट न कर दे। गीता में आये मंत्र ॐ तत सत के अर्थ से इसे समझा जा सकता है। कूटस्थ चेतना परमपिता का एकमात्र पुत्र है। इसमें लिंग या जेंडर का प्रश्न नहीं है। वैसे तो सब प्राणी परमपिता की संतानें हैं, पर मनुष्य में ही यह पुत्र प्रकट होने की संभावना पाई जाती है। पितृ ऋण की अदायगी के नाम पर पुत्र पैदा करने की अभिधात्मक व्याख्या अथवा मैं ही ईश्वर का एकमात्र पुत्र हूँ, ऐसी व्याख्या करने से सनातन, ईसाई और अन्य शास्त्रों को सही रूप में नही समझा गया। एक बार गलत व्याख्या को पकड़कर आगे बढ़ते जाने से वह गलत ही बनी रहती है। लेखिका मैत्रेयी पुष्पा की तीन बेटियां हैं, इस पर एक बार उनसे पूछा कि ऐसा करने के पीछे क्या कारण रहा! उन्होंने स्पष्ट कहा पुत्र के लिए समाज का दबाव था। इससे अधिक हम लोग जोखिम नही ले सकते थे। जनसंख्या के बारे में पापुलेशन ट्रेंड वेबसाइट पर दिये ग्राफ कहते हैं कि आने वाले कुछ दशकों में भारत की जनसंख्या की वृद्धि दर और संख्या वर्तमान दर से कम हो जाएगी, पर जनसंख्या को एक तर्कसंगत स्तर पर उससे पहले अगर आज का समाज ले जाये तो उसमे हर्ज क्या है! फ़ेसबुक २३/६/२१ २८/६/२२ गाँठ को संधि भी बोलते हैं. कश्मीर में इसे संध कहा जाता है. यह एक खोज है, अवसर है दो छोरों को जानने का, उन्हें जोड़ने का. सब धर्मों या सम्प्रदायों की एकता संभव नही है. तत्व की उपलब्धि अनुभूति का विषय है. धार्मिक आचार और व्यवहार उस उपलब्धि को प्राप्त करने के साधन हैं. यह उपलब्धि प्रचार नहीं, परिवर्तन नहीं, फिर किस विधि से कोई अन्य जान पाएगा कि उपलब्धि क्या है🙏 भारतीय संस्कृति के सारे अंतर्विरोध द्वयर्थक या बहुअर्थक श्लोकों की अलग अलग व्याख्या के कारण है. वेदों का एक भाष्य आचार्य सायण का है और दूसरा भाष्य अन्य अनेक मनीषियों का. जब तक द्वयर्थी भावों का ग्रहण नहीं हो जाएगा, सार नहीं मिल पाएगा....