Monday, November 24, 2025
रामचरितमानस - साधना का कथारूप
रामचरितमानस - साधना का कथारूप
राकेश नारायण द्विवेदी
रमंते योगिनो यस्मिन् स रामः - योगियों के भीतर जो रमते हैं, वे राम है।
रामचरितमानस में भगवान राम की लौकिक कथा का वर्णन गोस्वामी तुलसीदास ने किया है, किंतु इसका लक्ष्य मनुष्य को कल्याण का मार्ग दिखाना है। गोस्वामी जी रामचरित के माध्यम से व्यक्ति के मानस या मन की प्रक्रिया को बताना चाहते हैं। अतएव, रामचरितमानस किसी साधक के आंतरिक जगत का कथारूप है।
महात्माओं ने इस कथारूप को अपने मानस में जिस तरह ढलते हुए देखा है, उसका निरूपण आगे की पंक्तियों में दृष्टव्य है-
सर्वप्रथम इस महाकाव्य में गणेश वंदना की गई है। इंद्रियगण के अधिष्ठाता देव होते हैं, इन देवों में सर्वप्रमुख मन है, वह गणों का ईश या गणेश है।
जब साधक के मन में भजन करने का शुभ संकल्प जाग्रत होता है, तब साधक की बुद्धि में वाणी के योग से कल्याण मार्ग प्रशस्त हो जाता है। मन में कल्याणकारी संकल्प का बीजारोपण ही गणेश स्तवन है। ईश्वरोन्मुख मन को गणेश या गणपति कहा गया है। सबसे पहले इसी की पूजा की जाती है, क्योंकि इसकी अनुकूलता से तप, त्याग, योग, वैराग्य सब संभव हो पाते हैं।
मन के बाद वाणी और फिर शंकर और पार्वती को श्रद्धा और विश्वास के रूप में लिया गया है। इस कायारूपी काशी में विश्वासरूपी विश्वनाथ रहते हैं। श्रद्धा हमें भजन में संलग्न करती है। श्रद्धा बिना विश्वास के नहीं रह सकती। श्रद्धा और विश्वास एक दूसरे के पूरक हैं। इन दोनों के पुत्र गणेश हैं। गणेश के माध्यम से हीह म अपने भीतर बैठे परमात्मा को जो आत्मरूप ब्रह्म है और सबमें रमने के कारण इसे राम कहा गया, उसे पाने के लिए गुरु की आवश्यकता है। गुरु शंकर रूप है, शंकर जो शंकाओं के अरि हैं, शंकाओं का निवारण करके ही वे हमारा कल्याण करते हैं।
विषयी मन चंद्रमा टेढ़ा-मेढ़ा होकर भी जब शंकर के सिर पर बैठ जाता है तो वह भी वंदनीय हो जाता है।
गोस्वामी जी कहते हैं गुरु नर रूप में हरि हैं, भगवान हीह ैं-
बंदउं गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
साधक के भीतर ज्ञान का स्वरूप राम का है, रावण मोहरूप है। ज्ञान स्वरूप राम ही मोह रूपी रावण का अंत कर सकते हैं और तब जीव रूप विभीषण को मुक्ति मिलती है। साधक अज्ञानवश अपने स्वरूप को भूल गया है। अज्ञान यानि माया, माया जिसका अस्तित्व नहीं, पर फिर भी है। रामकथा सुनने और जानने से यह माया दूर होती है।साधक के अंदर चलने वाली साधना गूढ़ रामकथा है। यह चित्त की अखंडधारा है, जो चित्त रूपी चित्रकूट में प्रवाहित होने वाली मंदाकिनी जैसी है। मंदाकिनी जो मन को दाग दे। यह रामकथा रूपी मंदाकिनी जिसके अनुराग युक्त चित्त में बहने लगती है, तब वही चित्त चित्रकूट यानि भगवान का निवास बनता है।
भजन प्रक्रिया अनवरत चलने से रामकथा अंदर स्फुरित हो जाती है, तब भगवान उस साधक के अंदर पर्णकुटी बनाकर कामदगिरि की छाया मंे निवास करने लगेंगे। कामद का अर्थ है कामनाओं का दहन होना। यह असली रामकथा है। राम के चरित मन से ग्रहण करने पर इसका बोध होता है। मन के अंदर जो राम के चरित होते हैं, उन्हें गोस्वामी जी ने सर्वसाधारण को ग्राह्य और सुलभ बनाने के लिए कथारूप प्रदान किया है। अपने-अपने मन को मानस बनाना है, फिर उसमें श्वासा रूपी सरयू की धारा में रामचरित का प्रवाह बहता है। यह अमृत प्रवाह अपने मानस में बहने से भक्ति रूपी गंगा से भंेट कराता है। इस मानस की रचना अवधपुरी में होती है। चैत के महीने में, नौवीं तिथि मंगलवार के दिन अर्थात् साधक जब चेत जाए, नौ की नौ इंद्रियां अनुकूल हो जाएं, तभी साधक के मंगल होने की घड़ी आती है। इस घड़ी या समय को ही अवधि या अवध कहा गया है। मध्य दिवस का समय यानि श्वासा की समस्थिति अर्थात् सुख-दुःखादि द्वंद्वों में सम की स्थिति।
साधक का हृदय ही प्रयाग है, यहां भजन रूपी भरद्वाज रहते हैं। जानकारी रूपी याज्ञवल्क्य उन्हें यहां मिलते हैं और यजन रूपी यज्ञ होने लगता है। इन दोनों के मिलन को माघ (मा$अघ) अर्थात् अघ से रहित हो जाते हैं। साधक का मन मकरगत होने पर अघरहित होता है। मकरगत अर्थात् क्रियोन्मुख होना। यह कथा त्रेता युग की है। त्रेता का अर्थ है जब मन में त्याग आ जाए। त्याग होने पर मन ईश्वर में लगता है और फिर कुंभज या कुंडलिनी में जाकर सत्य या शंकर उद्घाटित हो जाता है। सती का मतलब है साधक की सत्य के प्रति आस्था। दक्ष कहते हैं दक्षता को, जो बाहरी संसार की चतुराई है। श्रद्धा शुरू में सती का ही रूप है। फिर वह प्रेमाभक्ति रूप पार्वती बनकर हृदय रूपी हिमालय के घर आ जाती है। यह मैना से पैदा होती है। मैना का अर्थ है मैं नहीं।
साधना की सात भूमिकाएं सप्तर्षियों के प्रतिरूप हैं। सद्गुरु का आश्रय मिलने के बाद साधक में पहले षट्बदन का जन्म होता है, जिन्हें दक्षिण भारत में मुरुगन और उत्तर भारत में गणेश के बड़े भाई स्वामी कार्तिक कहा जाता है। यह षट संपत्तियों का प्रतिरूप है- शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा व समाधान। इनसे षड्विकारों का हनन किया जाता है, यहां नारद की सहायता मिलती है। नारद नभ को कहते हैं। हृदयाकाश से साधक निर्देशित होता है। इसी कथा प्रसंग में शंकर जी कामदेव को जलाते हैं। कामदेव मन का विकार है। इस कामदेव का ही रूप मेघनाद है, कुंभकर्ण क्रोध का प्रतिरूप है। लक्ष्मण के रूप में विवेक तीसरा नेत्र है, इससे काम रूपी विकार मेघनाद से त्राण मिलता है।
जब साधक भजन ध्यान करता है, अपने ध्येय में तन्मय होता है, उस समय सुषुप्ति की अवस्था मेें क्षण भर के लिए आकाशवत् अनुभव करता है, यह छोटी सी झलक ही बालरूप है-
बंदउं बालरूप सोइ रामू।
रामचरितमानस में अलग-अलग कल्पों की कथा कही गई है, कल्प काया का ही नाम है। वृंदा बुद्धि का प्रतिरूप है। जब तक यह जगज्जाल रूपी जलंधर से लगी रहती है, सुर कारज या ईश्वरीय साधना नहीं हो पाएगी, किंतु जब यह विष्णु से जा मिलेगी तो काम बन जाएगा। मन अगर शतरूपा अर्थात् श्रद्धा के साथ ईश्वर के लिए तत्पर हो जाए तो भगवान को प्रत्यक्ष कर लेता है। मनु और शतरूपा इसी शरीर रूपी अवध में राम को उत्पन्न कर लेते हैं।
मन रूपी मनु और श्रद्धा रूपी शतरूपा नैमिषारण्य में अर्थात् नियमबद्ध होकर लगन से भजन करते हैं तब उन्हें पुत्र प्राप्ति होती है। पुत्र आत्मज को कहते हैं, भगवान जीवात्मा, ईश्वरात्मा और परमात्मा तीन स्तर से हमारे अंदर प्रकट होते हैं। स्वर जहां गमन करता है, उसे स्वर्ग कहते हैं। स्वर शंकर के प्रतिरूप हैं। शरीर के अंदर जो श्वास चलती है, उसमें य िद साधक के मन का वास हो जाए तो समझो हम स्वर्गवासी हो गए। ऐसी दशा में हमारा मन दसों इंद्रियों सहित ईश्वर में लग जाएगा और हम दशरथ बन जाएंगे। भजन की प्रशक्ति शतरूपा अब कोशल्या अर्थात् प्रगाढ़ भक्ति के रूप में आ गई। ईश्वरीय कर्तव्य कैकेयी है तो सुमति ही सुमित्रा है। सुरति रूपी श्रंगी ऋषि को ईश्वर की जानकारी रूपी यज्ञ में लगाया तो ज्ञान रूपी राम, विवेक रूपी लक्ष्मण, भाव रूपी भरत और सत्संग रूपी शत्रुघ्न साधक के अंदर आ गए।
भगवान हमेशा अपनी माया के साथ अवतार लेते हैं। माया कला हैं। सामान्य मनुष्य में दो-चार कलाएं होती हैं किंतु 12, 15, 16 कला वालों को भगवान कहते हैं। यह मानव तन ही सोने का किला है। यह काम की काया है, इसलिए इसे सोने का किला कहा गया। इसमें जीव की आसक्ति हो जाने पर यह लंका बन जाती है। मोहरूप रावण इसमें राजा बनकर बैठ जाता है। षड्रिपु इसमें राक्षस बनकर डेरा जमा लेते हैं। इन सबके बीच जीवरूप विभीषण दबा रहता है। ईर्ष्या-द्वेष रूपी खर-दूषण भी इन राक्षसों में ही सम्मिलित हैं।
श्वास में भजन के द्वारा जो महात्मा मन को एकाग्र करके परमात्मा को प्रत्यक्ष करते आए हैं, ऐसे विरक्त संतों की परंपरा को सूर्यकुल कहा गया है। सूर्यकुल में ही भगवान का मनुज अवतार होता है। साधन जगत में एक दोहा कहा जाता है-
पहले दही जमाइए पीछे दुहिए गाय।
बछड़ा वाके पैर में माखन हाट बिकाय।।
दही जमने का अर्थ है सही ध्यान लगाना। जब ध्यान लगने लगता है तो गाय या इंद्रियों से जो चाहो व ेवह देंगी, अब तक तो वे विषय रूप जहर ही देती रही हैं। इसलिए कबीर अपने इस दोहे में कहते हैं भगवान को ध्यान द्वारा पकड़ लो फिर वह कामधेनु मिल जाएगी जो सब कुछ देती है। तब ब्रह्म रूप बछड़ा अंदर आकर बैठ जाएगा, और तब महिमा रूपी माखन बाज़ार में खूब बिकेगा।
शरीर में चलने वाली श्वासा का प्रतीक सूर्य है। साधन प्रक्रिया में श्वासा रूपी सूर्य जब रुकता है तो इसे भक्ति रूपी कोशल्या समझ पाती है। ध्यान धनुष का काम है, त्याग तरकश का और वाणी वाण का काम है। यह शस्त्र ही साधक के पास हैं। जब मन रूपी मारीच यज्ञ नहीं करने देता। स्वभाव रूपी सुबाहु यज्ञ में हट्टी फेंक देता है। तर्कना रूपी ताड़का के इन दोनों लड़कों को मारने के लिए आत्म विश्वास रूपी विश्वामित्र राम को लेकर आते हैं। वशिष्ठ विशिष्ट ज्ञान है, इनके निर्देश पर ही विश्वामित्र को राम और लक्ष्मण प्राप्त होते हैं।
जनक का अर्थ है, जिससे शक्ति जनी जाए। पिता जनक हैं, इसलिए वह योग हैं। योग करने से सीता अर्थात् शक्ति पैदा होगी। योग रूपी जनक के ध्यान रूपी धनुष को ज्ञान रूपी राम जब तोड़ेंगे तो वह उस शक्ति का वरण करेंगे। अतः ध्या नही योग की कसौटी है। गौतम का मतलब है श्रेष्ठ सजातीय भावनाओं से युक्त इंद्रियों में चेतन का प्रतिबिंब और अहल्या अ- अनुराग, ह- हृदय और ल- लव या लगन। हृदय में प्रेम की लगन का रूप अहल्या है। मन रूपी इंद्र इसे दूषित करता है। सूर्यवंश के राजा भगीरथ गंगा को धरती पर लाए थे अर्थात् निवृत्ति मार्गी महात्माओं की मेहनत से यह ज्ञान हमारे समाज में आया है। प्रत्येक साधक सूर्यवंशी राजा ही तो है-
देश देश के भूपति नाना।
देश देह को कहते हैं। सीता वैदेही है, बिना देह वाली अर्थात् वह दिव्य शक्ति है। वह जनक यानि विदेहराज के यहां उत्पन्न होती है।
यज्ञ जानकारी को कहते हैं। धनुष ध्यान है, संसार समुद्र है, कुंभज नाभि कमल का प्रतीक है। नियम ही निमि हैं। परशुराम प्रकृति हैं, राम लक्ष्मण का जो दम बिगाड़ देते हैं। साधक में राम की तरह क्षमता और गंभीरता होनी आवश्यक है जो कालचक्र अथवा प्रकृति के प्रभाव को धैर्य के साथ हटा सके। क्षत्रिय उन साधकों को कहते हैं जो सद्गुणों और दुर्गुणांे के युद्ध को अपने अंतःकरण में लड़ रहे हैं। इन्हें परशुराम रूपी प्रकृति बार बार 21 बार कहा गया है अपनी कसौटी पर कसती है। 21 की संख्या भी एक प्रतीक है। दस इंद्रियां, पांच तन्मात्रा, पंचमहाभूत एवं मन मिलकर यह 21 की संख्या पूरी होती है।
बैल शंकर जी की सवारी है। बैल धैर्य का प्रतीक है। ब्रह्मा का वाहन हंस विवेक का प्रतीक है। गणेश का वाहन चूहा चित्त का प्रतीक है। चित्त चूहा है। लक्ष्मी का वाहन उल्लू है। धन के पीछे लगने वाला मन उल्लू ही तो है। अनुरागी साधक अर्जुन है, कृष्ण गुरु या गाइड है। मन की अभय स्थिति अभिमन्यु है। भावह ी भीम है। घटोत्कच उस प्रबल आवेग का प्रतीक है जो भाव की प्रधानता से साधक के अंदर उत्पन्न होता है।
उर्मिला विवेक की प्रशक्ति है। भरत को उसकी प्रशक्ति मांडवी मिलती है, जो हमेशा मन का मंडन करती रहेगी। श्रुतिकीर्ति संतों से श्रुतियों के सत्य सिद्धांत सुनने का प्रतीक है।
मंथरा मन को थरती है, वह बुद्धि की प्रशक्ति है। भाव रूपी भरत से ही संसार पलता है। भावो हि भवकारणं। ईश्वरीय कर्तव्य और सांसारिकता का निर्वाह दोनों का निर्वाह भाव से ही होता है। दस इंद्रियां और चार अंतःकरण ये 14 अध्यात्म है। इन 4 की पूरी साधना को वनवास काल कहा गया है। इन्हें चौदह भुवन भी कहा जाता है। वनगमन के साथ ही सूक्ष्म की साधना शुरू हो जाती है। सरस्वती विचार शक्ति है। वनवास के समय भरत ननिहाल में रहते हैं। ननिहाल नियम है। भाव का नियम में रहने का मतलब है िकवह भव और भगवान दोनों को लेकर चल सकता है।
सांसारिक मनोरथों, इच्छाओं और वासनाओं का त्याग करके जो आगे की साधना है, उसमें आरूढ़ हो जाना ही वनवास है। इस समय दशरथ का मरण हो जाता है। वे स्थूल साधना के ही साक्षी हैं। वनवास के समय अत्रि से भेंट होनी है, तभी त्रिगुणातीत हुआ जाएगा। कर्मरूपी बालि को मारना है। ब्रह्मज्ञान रूपी बंदरों को साथ लेकर संयम रूपी सेतु बनाना है। असुरों को मारकर खोई हुई शक्ति को फिर से प्राप्त करना है। राम और लक्ष्मण अर्थात् ज्ञान और विवेक साथ-साथ रहते हैं। साधक और साधक की क्षमता दोनो एक ही हैं। क्षमता से साधक है और साधक में ही क्षमता है। अस्तु! सीता और राम अलग अलग नहीं, वरन एक ही हैं-
गिरा अरथ जल बीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न।
त्याग ही तमसा है। त्याग से साधना में प्रगति हुई तो श्रंगवेरपुर आ गया। यहां सुरसरि का दर्शन हुआ। निषादराज गुह यहीं मिलेंगे। गुह का अर्थ गुप्त है, यह गुप्त या पूर्व पुण्यों का प्रतीक है। पूर्व पुण्यों का साधन क्षेत्र में बहुत महत्व है। गंगा का अर्थ है- गो नाम इंद्रियगत विषयों से उपरामता की स्थिति को प्राप्त करना। यहां भजन रूपी भरद्वाज से भेंट होगी। श्वास जप की प्रक्रिया में जब इड़ा रूपी गंगा, पिंगला रूपी यमुना और सुषुम्ना रूपी सरस्वती सम्यक् रूपेण गमन करने लगती है, त्रिकुटी में सम होती है, तब इनका संगम होता है।
सचिव सत्य श्रद्धा प्रिय नारी।
सत्य और श्रद्धा मिलकर साधक के अंदर तीर्थराज का निर्माण करते हैं, उसे राजा बनाते हैं। नेता वही है, जिसने अपने मन और इंद्रियों को लीड कर लिया हो।
चित्त की कूटस्थ दशा को चित्रकूट कहते हैं। यहां राम रहते हैं। चित्रकूट में मन को नियंत्रित करने वाली नदी मंदाकिनी बहती है। जब दशों इंद्रियां ईश्वरीय कर्तव्य में लग गईंतो यह दशरथ की मृत्यु है। दशरथ की मृत्यु के बाद भरत अयोध्या आते हैं।
स्थूल शरीर से सेवा, सूक्ष्म से भजन-ध्यान और चिंतन-भजन तथा कारण से आत्मिक अनुभूतियां होती हैं। भाव की परख करने में विवेक भी फेल हो जाता है। जब लक्ष्मण कहते हैं नहि कोउ अस जनमा जग माही।
प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं।
पादुका परम प्रेम का प्रतीक हैं। साधक के चित्त की निर्मलता स्फटिक शिला हे। जब हम अपनी पहुंच या उपलब्धि पर प्रसन्न होते हैं, आत्मप्रशंसा से विभोर हो जाते हैं तब जयंत का आक्रमण होता है। इंद्र विषय अनुगत मन को कहते हैं और मन के अंदर इस विषय की जानकारी को जयंत कहते हैं। इस आक्रमण पर ध्यान रूपी धनुष में जब यह परावाणी रूपी वाण आया और उसमें सुरति लगी तो संधान हो गया। अब जयंत को कौन बचाता।
अनसूया माया से मुक्त स्थिति को कहते हैं। पूर्व में किए गए खराब कर्मों के जो संचित संस्कार हैं, यह विराध है। कुंभज या कुंडलिनी के पास ले जाने वाले मुनि सुतीक्ष्ण हैं। सही ढंग से तीव्र आराधना होने लगे तब सुतीक्ष्ण दशा मिलती है। कुंडलिनी जाग्रत होने पर साधक पंचवटी में पहंुचता है।
खर ईर्ष्या को तो द्वेष दूषण को कहते हैं। तीन गुणों में आसक्ति को त्रिसिरा कहते हैं। ग वर्ण गो नामक इंद्रिय के अर्थ में आता है, ध का अर्थ है धारण करना, इसलिए गीध का अर्थ मुंह होता है। जटायु का यही आशय है, क्योंकि उसे दाढ़ी मूंछ भी होती है।
सूपनखा माया का रूप है। वह मोह को बढ़ाती है। मोह माया का सबसे ताकतवर तत्व है। सूपनखा चेतन प्रकृति का रूप है, कंचन जड़ प्रकृति है। कबंध का मतलब है कमर के नीचे रहने वाला खराब कर्मों का केंद्र।
संतोष ही शबरी है। साधक का हृदय जब भगवान के अनुराग से भर जाता है, प्रेम से सराबोर हो जाता है तब उसे पंपा सरोवर कहते हैं, शबरी यहीं रहती है।
पतंजलि ने कहा है- मूर्धं ज्योतिषि सिद्ध दर्शनं। साधना की उच्च स्थिति में ऋषि मुनि और सिद्ध देव दिखाई देते हैं।
वीणा शब्द का प्रतीक है, शब्द आकाश का गुण है। गोस्वामी जी नाम साधना के महान विशेषज्ञ थे। वह बताना चाहते हैं कि जप करने के लिए राम नाम सबसे अधिक उपयुक्त है। नाम जब श्वासा में अवस्थित हो जाता है तो शब्द लीन हो जाते हैं।
रघु शब्द आगे बढ़ने के अर्थ में आया है। ऋष्यमूक अर्थात् जिसके विषय में ऋषि मनीषियों की वाणी मौन हो जाती है। साधक की सुरति रूपी सुग्रीव का यहीं निवास होता है। अभिमान रहित अवस्था के द्योतक हनुमान सुग्रीव के मित्र हैं। एक बार मिलने के बाद हनुमान का साथ राम कभी नहीं छोड़ते। सुरति यानि सुग्रीव और कर्म यानि बालि दोनों सहोदर भ्राता हैं, वे एक दूसरे के बिना नहीं रहते।
जो मैं से परे हो जाए, उसे मित्र कहते हैं। कर्म कि होहिं सरूपहि चीन्हे। स्वरूप ज्ञान के बाद कर्म निःशेष हो जाते हैं।
साधना की सात सीढ़ियां हैं, मानस के कांड या अध्याय उसी के सूचक हैं। शुभेच्छा, सुविचारणा, तनुमानसा, सत्वापत्ति, असंसक्ति, पदार्थ अभावनी तथा तुर्यगा, इन सात सीढ़ियों को पार करने वाला साधक ही बालि को मार सकता है। कर्मणा गति से पार जाना कितना कठिन है।
बालि और सुग्रीव के युद्ध के समय पहचान करने के लिए भगवान ने सुग्रीव को माला पहनाई। नाम की माला का महत्व साधक समाज में सर्वत्र सुविदित है। अनुराग रूपी अंगद, त्याग रूपी तारा, वैराग्य रूप हनुमान एवं सुरति रूप सुग्रीव की मदद यह नाम करता है। तब साधक के साथ ब्रह्मज्ञान रूपी बंदरों का समूह भी साथ रहेगा। प्रवर्षण पर्वत पर यह समागम होता है, जहां अमृत रस बरसता रहता है।
ईश्वरीय विषय की जानकारी का नाम जामवंत है। नल-नील यम नियम के प्रतीक हैं। संपाती के रूप में साधक को अंतर्जगत से मार्गदशन मिलता है। संपाती अनुभूतियों की निपुणता में अनुगत चेतन का प्रतिबिंब है। यह तीनों कालों में अबाधित है। जटायु का यह भाई है। जटायु वाक् चेतना का प्रतिबिंब है।
सुंदरकांड में शक्ति या सीता का विशेष वर्णन हुआ है। यह मानस का पांचवां सोपान है, इसमें असंसक्ति की साधना चलती है।
हमारी इंद्रियों और अंतःकरण में संसार की गहरी छाप है। मूल कामना का नाम सुरसा है। यह स्थूल शरीर की पहरेदार है। इसे मनाने का तरीका है कि ज बवह बड़ी होती गई तो हनुमान लघु होते गए और प्रवेश होकर भी बाहर आ गए। सिंहिका सूक्ष्म शरीर की पहरेदार है और कारण शरीर की पहरेदार लंकिनी है। यह सब साधक की परीक्षा लिया करती हैं।
शरीर में विषयासक्ति की सुरत लगाने वाली विघ्न शक्ति सुरसा है। सूक्ष्म शरीर संकल्पों की दुनिया है। संकल्प परछाई की तरह हैं, परछाई से सिंहिका पकड़ती है। आसक्ति के अंश कारण शरीर में भी रहते हैं, यहां लंकिनी रहती है। वैराग्य या हनुमान ही इन सब आसक्तियों से पार ले जाने में सक्षमह ै।
विषय से लव लगाने का नाम लंका है। अक्षय कुमार इच्छा का नाम है, इसे भी हनुमान मार देते हैं। ब्रह्मास्त्र प्रकृति की नियमावली को कहते हैं। मेघनाद द्वारा ब्रह्मास्त्र संधान का अर्थ है काम का सर्वत्र और व्यापक प्रभाव हो जाना। शक्ति होते हुए भी क्षमा करने से क्षमता आती है। साधक के भीतर हनुमान और रावण के रूप में सजातीय और विजातीय परस्पर विरोधी विचार रहते हैं।
पूंछ सूझबूझ को कहते हैं। लंका दहन में विभीषण का घर नहीं जला। आकाश से सूक्ष्म महत्तत्व है, उससे सूक्ष्म प्रकृति, प्रकृति से बारीक आत्मा है, उसका नाम विभीषण है। विभीषण का कोई नाम नहीं हो सकता, इसलिए विभीषण नामकरण नहीं किया जाता।
मानस में- अंतःकरण में जो चरित्र हो रहा है, वह राम कहानी हीह ै। राम का चरित्र मन है। संसार रूपी समुद्र बड़ा भयंकर है। अथाह विषय रूपी जल इसमें भरा है। इसके विस्तार में माया रूपी मगर और संशय रूपी सर्प जैसे भयंकर जीव-जंतु भरे पड़े हैं।
मंदोदरी बुद्धि को कहते हैं, क्योंकि वह बुद्धि को दोदती या उत्प्रेरित करती है। मोह यानि रावण के अधीन रहने पर भी वह सजातीय भावना लिए रहती है। अर्जुन यानि अनुराग ही कृष्ण से मार्गदर्शन पाता है। मोह रूपी दुर्योधन पर अर्जुन को विजय पाना है तो भ्रम रूपी भीष्म, द्वैत- द्रोणाचार्य, कर्मरूपी कर्ण सभी को मारना पड़े़गा।
संसार प्रार्थना से नियंत्रण में नहीं आता। यम-नियम रूपी नल-नील की सहायता लेनी पड़ती है, जो संयम रूपी सेतु का निर्माण करते हैं। शुभेच्छा, सुविचारणा, तनुमानसा, सत्वापत्ति और असंसक्ति इन पांच भूमिकाओं के बाद साधक ईश्वर की प्रेमाभक्ति को प्राप्त होता है। लंकाकांड छठी भूमिका पदार्थ अभावनी का कथानक है। इस दशा में साधक स्थूल पदार्थों का अभाव कर लेता है। वह सूक्ष्म जगत में रमने लगता है।
लंकाकांड के एक प्रसंग में ध्यान दशा का सुंदर चित्रण हुआ है। साधक का स्वच्छ हृदय शुभ्रशिला है, जिस पर भगवान राम आसीन हैं। भगवान में लगाई हुई सुरति सुग्रीव है, वहां लक्ष्मण रूपी विवेक सजग है, अनुराग अंगद और हनुमान वैराग्य है। यह सब भगवान को घेरे हुए हैं, जिससे वे हृदय से हटने न पाएं। विभीषण यह सब जानते हैं क्योंकि वे जीवात्मा हैं। इसी अवसर पर गोस्वामी जी लिखते हैं-
धन्य ते नर एहिं ध्यान जे रहत सदा लवलीन।
लड़का लगन को कहते हैं। राक्षसों से लड़ाई भजन करना है। रावण वह है जो दिन रात पदार्थों के लिए रोता रहता है। दस इंद्रियां रावण के दस मुख हैं। विभीषण को राजा बना देने तक भजन चलता है। युद्ध चलता रहता है। ध्यान रूपी धनुष में जब अंदर अनुभूतिमयी वाणी वाण का संधान करेगी, तब माया का अंधेरा मिट पाएगा। पहाड़ पाप पुंज है, जिसे हनुमान उखाड़ ले जाते हैं। सुख का अयन सुखेन वै़द्य हैं, जो सुख का केंद्र है। वह मेघनाद रूपी काम प्रहार से बचाने का तरीका बताते हैं। कालनेमि कपट का नाम है, जो साधक का रास्ता रोकता है। क्रोध व्यक्ति में कभी-कभी जागता है, कुंभकर्ण उसी का प्रतीक है। हर काया में राम रम रहे हैं, चरित कर रहे हैं, इसीलिए रामायन सतकोटि अपारा है। जितने मनुष्य है, सब एक-एक रामायन हैं। राम अयन स रामायन। हर घर राम का हीह ै। जैसे अपना मुख हम दर्पण में देखते है राम या मन के आयना या दर्पण में अपने को देखना चाहिए। परंतु उस दर्पण पर काई या मैल जमा रहने से हम देख नहीं पाते।
सुख-दुःख दोनों इस संसार में रहेंगे। एक दूसरे के बिना नहीं हो सकता, क्योंकि दोनांे एक ही हैं। आत्मा आकाशवत् है। सर्वत्र एकरस, निर्लेप। इसे जानने के लिए सुनना है, समझना है और फिर करना है। करने को निदिध्यासन कहा गया है। यम, नियम, त्याग, मौन, देश, काल, आसन, मूलबंध, देह की समता, नेत्रों की स्थिति, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। पतंजलि इन्हें क्रियायोग कहते हैं। यह क्रियायोग मनु, इक्ष्वाकु से होकर द्वापर में कृष्ण ने अर्जुन को दिया, आधुनिक युग में महावतार बाबा ने लाहिड़ी महाशय को 1861 ई में प्रदान किया। उनके निर्देशन से यह विश्व भर में प्रसारित हो गया।
अच्छा-बुरा सब ईश्वर से पैदा होता है। क्रोध क्षमा लाने के लिए, लोभ धन को वर्जित कर संतोष लाने के लिए, अशांति शांति लाने के लिए पैदा किया जाता है। साधक पहले अपनी बुराई को समाप्त करता है, फिर वह अच्छाई का त्याग कर देता है, क्योंकि परमात्मा सर्कुलेशन के बाहर है। विद्या को रखने से अविद्या फिर आ जाएगी।
कामदेव की मार साधक के लिए सबसे बड़ी मार है, इसलिए उसका नाम महात्माओं ने मार रख दिया। गरुड़ जीते हुए मन को कहते हैं। विषय में संकल्प रूपी सर्पों को यह खा जाता है। निकुंभला देवी का आशय स्त्री के योनि अंग से है, यह काम रूपी मेघनाद की इष्ट देवी है।
लंका के चार द्वार हैं- मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। शंकर स्थूल शरीर अनुगत चेतन का प्रतिबिंब है तो ब्रह्मा सूक्ष्म और विष्णु कारण शरीर के। रामायण की लड़ाई संकल्पों की लड़ाई है, इसलिए प्रहार एक बार होता है, जबकि बाहर की लड़ाई में ऐसा नहीं होता।
अविद्या की पलटन का चीफ कमांडर मोह अर्थात् रावण है तो विद्या पक्ष के चीफ हैं ज्ञान रूप श्री राम। सीता कहीं आती जाती नहीं है, वह तो योग साधना करके प्राप्त की जाती है। साधक द्वारा अर्जित क्षमता का नाम सीता है। जामवंत को बूढ़ा कहा गया, क्योंकि जानकारी शुरू से चली आ रही है। अशोक आत्मीय क्षेत्र को कहते हैं, जहां कोई शोक नहीं। मैं का भावह ी मय दानव है, जो सतयुग से लेकर कलियुग सभी युगों में रहता है, इसका पुत्र मन है। यह आसक्ति रूपी लंका हर युग में बनाता है। इसी की पुत्री मंदोदरी यानि बुद्धि है जो वह रावण को सौंप देता है। जब तक मोह रूपी रावण मिट नहीं जाता, बुद्धि रूपी मंदोदरी उसी की पत्नी होकर रहती है- यह नियम है। जब विभीषण का शासन होगा तो यह बुद्धि या मंदोदरी उसकी पत्नी हो जाएगी।
नेग पाने वाले को नेगी कहा गया है- नाई, लोहार, भाट इत्यादि। मूलतः नेगी का अर्थ है साक्षी या सहयोगी। मानस में लक्ष्मण को धर्म का नेगी कहा गया है। पावक का अर्थ है पवित्र करने वाला, उससे गुजरना हर साधक के लिए आवश्यक है।
संसार में अन्योन्याश्रय दोष है। यहां स्तुति होगी तो निंदा भी होगी ही। धोबी प्रसंग इसी की उद्भावना है। जो सदैव सजीव और एकरस है, वह सत्य है। देवासुर, राम-रावण और कौरव-पांडव संग्राम सब एक ही उद्देश्य से चित्रित किए गए हैं। मानस इस संग्राम का मूल है। मन में संकल्प उठते हैं, नाभि कमल में वे बीज बनते हैं। फिर अंकुरण होता है, किल्ले फूटते हैं, हृदय कमल में वे पुष्ट होते हैं, कंठकूप में आकार लेते हैं, वाणी बनते हैं, तब कहने-सुनने में आते हैं, फिर बाहर संबंध बनकर क्रिया-प्रतिक्रिया या संसार बन जाते हैं। संसार में जो कहो सब ठीक लगता है, क्योंकि यह स्वप्नवत् ह,ै इसमें सही गलत सब बराबर हो जाता है।
साधक की अंतिम अवस्था तुर्यगा है, उत्तरकांड में उसी का निरूपण है। बुद्धि ऋतंभरा होने पर वह परमात्मा को गर्भ में ले लेती है। रामराज्य यहीह ै। यहां भक्ति माता है, ज्ञान पिता है। क्षमा दया बहनें हैं, विवेक वैराग्य भाई हैं। शांति स्त्री है और प्रेम पुत्र हैं। सरलता, सच्चाई, संतोष यह सब सद्गुण संबंधी और हितैषी हैं। हनुमान को राम कभी नहीं छोड़ते, हनुमान के बिना कोई महात्मा नहीं रह सकता। स्वरूप को चीन्ह लेने पर कोई कर्म शेष नहीं रह जाता- कर्म कि होहिं सरूपहिं चीन्हे। तब लवक ुश पैदा होते हैं। लव अशुक्ल कर्म हैं तो कुश अकृष्ण। यह महाप्राणाष्टक योग्यता है, जिसके बाद बिना कर्म किए ही वह किसी चीज को दे सकता है। जो कुछ नहीं है, वह सब कुछ है और जो सब कुछ है, वह कुछ नहीं, यह कला ही लव और कुश है।
यह प्रताप रवि जाके उर जब करइ प्रकास।
पछिले बाढ़हि प्रथम जे कहे ते पावहि नास।।
यह उपलब्धि ही दीपावली है। इसमें पूरि प्रकाश रहेउ तिहुं लोका। तीनों लोकों में प्रकाश छा जाता है। इस दशा में सनकादि और नारद स्तुति गान करते हैं। सनकादि पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु के तो नारद आकाश के प्रतिरूप हैं। कागभुसंुडि उत्तर में नीलगिरि पर्वत के ऊपर रहते हैं। उस निर्मल आकाश में त्याग रूपी तालाब है, जब जब मन रूपी गरुड़ को संशय होता है, कागभुसंुडि से समाधान मिलता है।
सनातन वैदिक धर्म को मुख्ष्तः अनेक कथा-कहानियों के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है। उन कथाओं में निहित गूढ़ तत्व का उद्घाटन तत्वदर्शी महात्माओं ने करके उन लोगों की शंकाओं का समाधान कर दिया है जो इन कथाओं में इतिहास मात्र खोजना चाहते हैं या इन्हें अपनी तरह की वैज्ञानिक कसौटियों पर कसना चाहते हैं। ऐसा करके वे हिंदू धर्म को हीन रूप में दिखाना चाहते हैं। रामचरितमानस जैसे विश्वविश्रुत महाकाव्य को जब हम साधना पक्ष की दृष्टि से समझते हुए उसमें अवगाहन करते हैं तो इससे इन कथाओं की शाश्वत उपादेयता स्वतःसिद्ध हो जाती है।
- ध्यानमंगलम्, सिल्वर सिटी, कैलगुवां रोड, ललितपुर -284403 मो 9236114604
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