1/8/21 जहां सूर्य और चंद्र दोनों अस्त होते हैं, ज्योतिष के अनुसार वही अमा होती है। प्राण और अपान के अस्त केंद्र को इसीलिए अमा केंद्र कहते हैं। इसका तीसरा नाम चिति है, यहाँ प्राण और अपान दोनो न रहने पर एक तरह का मरण हो जाता है, तब चिति उद्दीप्त होती है। इसका चौथा नाम नासिक्य द्वादशान्त भी है। यह प्रत्येक व्यक्ति के नासाग्र से 12 अंगुल पर अवस्थित होता है। 84 अंगुल का शरीर होता है। इसमे 12 अंगुल नासिक्य द्वादशान्त और 12 अंगुल ऊर्ध्व द्वादशान्त जोड़ने पर 108 अंगुल हो जाते हैं। नासिक्य द्वादशान्त में जब प्राण और अपान दोनो जहां अस्त हो जाते हैं, उसे शिव बिंदु कह सकते हैं। जिस क्षण शरीर मे आने के लिए वहां से श्वास का उद्गम हो, उस उत्स को शाक्त बिंदु कह सकते हैं। दोनो बिंदुओं के मध्य के अंतराल शैवसुधा का समुद्र है। हृदय से ऊर्ध्व द्वादशांतपर्यंत क्षेत्र में उदान वायु सक्रिय रहता है, यह स्पन्द से आंदोलित रहता है। उर्ध्वद्वादशान्त का या क्षेत्र सहस्रार के अधोमुख कमल के ऊपर निकलने वाले नाल दंड के ऊपरी भाग के 12 अंगुल के परिवेश में अवस्थित है। 108 अंगुल के ऊपर अनाख़्य शिव का प्रकल्पन किया जाता है। ऊर्ध्व होने पर यह ऐहिक देह विश्व मे रहता है और अधःवाह में यह शरीर से बाहर विश्वातीत चिति केंद्र से संपृक्त होता है। जीवन मृत्यु दोनों का यह उत्स है। पारिभाषिक अर्थ में मायोत्तीर्णता ही आसन है। अग्नि वास्तव मे शिव का शुक्र ही माना जाता है। 2/8/21 किस वर्ण का शरीर मे कौन सा स्थान है! कैसे उस वर्ण के शब्द और रूप का विकास हुआ! क्या उसकी साम्यता दुनिया की दूसरी भाषाओं और लिपियों से है! कोई भाषा तो सर्वस्वीकृत नही है, पर क्या कोई वर्ण और पद सामान्य तौर पर सभी भाषाओं में स्वीकृत हैं! सर्वत्र प्रचलित या अप्रचलित ध्वनियां संस्कृत वर्णमाला में अनुस्यूत हैं। अतः इन ध्वनियों के सहारे क्या इन प्रश्नों के समाधान पाए जा सकते हैं! योगियों ने परा, पश्यंती, मध्यमा और बैखरी का भेद करके इन प्रश्नों के उत्तर खोजे हैं। हं॒सः शु॑चि॒षद्वसु॑रन्तरिक्ष॒सद्धोता॑ The Hamsa homed in light, the Vasu in mid-air, the priest beside the altar, in the house the guest, Dweller in noblest place, mid men, in truth, in sky, born of flood, kine, truth, mountain, he is holy Law. -हे मनुष्यो ! जो (शुचिषत्) पवित्रों में स्थित होने (वसुः) शरीरादिकों में रहने (अन्तरिक्षसत्) अन्तरिक्ष वा आकाश में स्थित होने (होता) दान वा ग्रहण करने और (वेदिषत्) वेदी पर स्थित होनेवाला (अतिथिः) जिसकी कोई तिथि नियत न हो वह (दुरोणसत्) गृह में (नृषत्) मनुष्यों में (वरसत्) श्रेष्ठों में (व्योमसत्) अन्तरिक्ष में (ऋतसत्) और सत्य में स्थित होनेवाला (अब्जाः) जलों से उत्पन्न (गोजाः) वा पृथिवी आदिकों में उत्पन्न (ऋतजाः) तथा सत्य से और (अद्रिजाः) मेघों से उत्पन्न हुआ (हंसः) पापों को हन्ता है और (ऋतम्) सत्य का आचरण करता है, वही जगदीश्वर का प्रिय होता है ॥५॥ Connotation: -जो जीव उत्तम गुण, कर्म और स्वभाववाले ईश्वर की आज्ञा के अनुकूल वर्त्ताव करते हैं, वे ही परमेश्वर के साथ आनन्द को भोगते हैं ॥५॥ इस सूक्त में राजा और प्रजा के कृत्यों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछिले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥५॥ 3/8/21 द्वादशान्त ह और हृदय अ का उदय स्थान है। साक्षी पुल्लिंग है, स्त्रीलिंग या नपुंसकलिंग, या यह तीनो में चलता है। यह सबमे चलता है। यह आत्मा है और उसका कोई विशिष्ट लिंग नही होता। आत्मा को साक्षी कहा गया है। आत्मा के साथ भी यही व्याकरण प्रचलित है। साक्षी नाम भी स्त्री और पुरुष दोनों के मिलते हैं। ई कारांत होने से इसे स्त्रीलिंग समझ लिया जाता है, इसी तरह आत्मा को भी, पर यह दोनो शब्द लिंग बाह्य हैं। पूर्णता और शून्यता में कोई अंतर नहीं होता। एक शून्य की आकृति पूर्णाकार होती है और पूर्ण अगर आकृति में ढालकर देखेगे तो वह शून्यवत दिखाई देगा। इसलिए किसी शून्यवादी को नकारात्मक मान लेना सही नही। अभाव और भाव को भी इसी तरह लेना चाहिए। 4/8/21 हम ब्रह्म द्वारा जी रहे हैं परन्तु संयोगवश एक शरीर धारण किये हुए हैं। शरीर मे रहकर हम इस पर अनुग्रह कर रहे हैं। हम अनंत ब्रह्म हैं। हम शरीर के पिंजड़े में पकड़कर नहीं रखे जा सकते, ऐसा कभी नही हो सकेगा। हमारा ज्ञान सर्वव्यापक है, हम स्वर्ग के अंग हैं। हमारे अनंतता के पंख सम्पूर्ण अंतरिक्ष मे व्याप्त हैं। हम मात्र स्वप्न देख रहे हैं कि हम शरीर के पिजड़े में बंद हैं। ###जब हम अपनी आंखें बंद कर लेते हैं तो हम इस छोटे से शरीर को नहीं देखते, हम अनंत होते हैं। इस सत्य को जानने से अधिक महत्वपूर्ण और कुछ भी नहीं है। पाठ 149 स्वप्न एक मानसिक चलचित्र है। जब स्वप्न देखते हैं तो हम विश्राम नहीं वरन चलचित्रों को देख रहे होते हैं। इस विश्व और स्वप्नलोक के बीच एकमात्र अंतर है कि यह विश्व देर तक चलने वाला स्वप्न है। xxx ईश्वर हमारे माध्यम से स्वप्न देख रहे हैं। जब हमारा विचार ईश्वर के विचार से अन्तरसम्पर्क करने के लिए पर्याप्त उन्नत हो जाता है, तब यह जानने में समर्थ होते हैं कि जीवन एक स्वप्न मात्र है। हम प्रकाश और आनंद का वह मंडल हैं जिसमें सभी वस्तुएं विलीन हो गयी हैं तथा जिसमे सभी वस्तुएं पुनः प्रकट हो सकती हैं। पाठ 155 एक देश का अच्छा नागरिक होना ही पर्याप्त नहीं है, हालांकि वह भी आवश्यक है। सच्चे मूल्य सभी व्यक्तिगत, सामुदायिक, राष्ट्रीय तथा जातीय पूर्वाग्रहों, विचार की आदतों, प्रथाओं आदि को हटाने से ही प्रकाश में लाये जा सकते हैं। दुनिया के आदर्श नागरिक को पृथक अस्तित्व का विकास अवश्य करना चाहिए। जैसे सत्य को आप समझते हैं, उसका निडर होकर अनुकरण करें। पाठ 156 5/8/21 हमारे पास चेहरा है और दर्पण भी। एक सिरविहीन व्यक्ति शिवजी की तपस्या करके उन्हें प्रसन्न कर रहा था। शिवजी प्रकट हुए तो उसने कहा आप हमारे साथ सदा कैसे रहेंगे। शिवजी ने कहा इसके लिए तुम्हे एक हेडलेस मनुष्य की खोज करनी होगी। व्यक्ति ने खूब खोजा, पर कोई मिला नही, अंत मे थककर ध्यान में गया तो उसे बोध हुआ अरे वाह। हेडलेस हम ही तो हैं। राजा जनक तपस्या कर रहे थे मैं वह हूं। हंस हंस । उधर से ऋषि अष्टावक्र आये तो वे अपना कमंडल बगल में रखकर यह कमंडल मेरा है यह कमंडल मेरा है बोलकर तपस्या करने लगे। जनक बोले इसमे क्या विवाद है यह कमंडल आपका ही है। अष्टावक्र ने कहा जी हां इसमे भी कोई विवाद नही कि मैं वह हूं। जनक को बोध हो गया। ![]() जीव और शिव शब्दों में ज और श ध्वनि मुख के भीतर एक ही जगह सॉफ्ट palate यानि तालु से उत्पन्न होती है। जिह्वाग्र दोनो ध्वनियों को उच्चरित करने में प्रयुक्त होता है। ज ध्वनि रूप तन्मात्रा में निवास करती है, उसी तरह जैसे साउंड में शब्द निवास करता है। च वर्गीय ध्वनियों में पांचों तन्मात्राएँ रहती हैं। रूप तन्मात्रा सूचक ज ध्वनि परमात्मा की इ और ई स्वरों के माध्यम से व्यक्त इच्छाशक्ति के फलस्वरूप बनती है। इच्छा का अर्थ डिजायर नहीं, वरन यहाँ उसका अर्थ विल पावर से है। इ में इच्छा शक्ति अनिच्छुक स्तर पर तो ई में यह आंदोलित रूप में होती है। श ध्वनि शुद्धविद्या की निवास है। इस ध्वनि को वैयाकरणों ने ऊष्म कहा है। श ष स और ह ध्वनियां ऊष्म ध्वनियां हैं। इनमे अपने स्वभाव की ऊष्मा होती है। असीमित विस्तार की क्षमता सम्पन्न यह ध्वनियां हैं। शुद्धविद्या में व्यक्ति मैं मैं हूँ और यह यह है (अहं अहं व इदं इदं) के स्तर पर होता है। इससे आगे ईश्वर जो इदं अहं यानि this-I जिसकी ध्वनि ष होती है, तब सदाशिव जिसकी ध्वनि स है और स्तर अहं इदं I this, फिर शक्ति का स्तर I-I और तब शिव का स्तर I या अहं होता है, शिव और शक्ति की ध्वनि ह होती है। इस प्रकार जीव और शिव में जितना तात्विक अभेद है, उतनी ही उच्चारणिक और अर्थ के स्तर पर भी एकता है। केवल रूप को हटा देना है, दोनों के अभिन्न होने में फिर कोई पर्दा नहीं रह जाता है। 6/8/21 वर्ण अ सभी व्यंजनों में अंतर्यामी रूप में मौजूद रहता है। अ शिव है, तो ह शक्ति वर्ण है, यह प्राण बीज भी है। अ और ह के बीच ही सारी वर्णमाला विद्यमान है। अ का उदय हृदय से तो ह का द्वादशान्त से उदय होता है। अ और ह में अनुस्वार लगकर अहं बनता है। अनुस्वार वर्ण में शिव अपने स्वभाव में रहते हैं, वे गति नही करते, जब गतिमान होते हैं तब विसर्ग की उत्पत्ति होती है। यह सृष्टि विसर्गरूपा ही है। विसर्ग को दो बिंदु बनाकर लिखा जाता है। यह शिव और शक्ति की एकता का सूचक है। अ और ह के बिना कोई मंत्र नहीं बनता। अहं को अंग्रेजी में I से लिखा जाता है। वहां भी देखना दिलचस्प है कि इस एक वर्ण से ही केवल एक शब्द बनता है, जिसे सदा कैपिटल अक्षर में लिखा जाता है। अ वर्ण या ध्वनि की ऐसी ही महिमा दुनिया की भाषाओं में देखने को मिलती है। या वे ये ध्वनियां यहूदी भाषा की मूल ध्वनियां हैं। यिन यांग चीन की मूल ध्वनियां हैं। अलिफ अरबी फारसी का पहला हर्फ है। अल्फा ग्रीक और लैटिन का पहला वर्ण है। द्रविड़ भाषाओं में भी यही होगा, देखना पड़ेगा। शब्दज्ञानानुपाती वस्तु शून्यो विकल्पः।1/9 योग सूत्र when word do not correspond to reality, verbal delusion arises{is created}. शब्दार्थप्रत्ययानामितरेतराध्या The sound, object and idea are present together in a confused state. By performing samyama they are separated, and then comes the knowledge of the meaning of sounds uttered by any living being. the fouteen fold states rama moving (gati), sthanam(staying), going in dreams, staying in wakefulness, the twinkling of the eyes (unmesh and nimesh), running, jumping, notknowing(ayasah, not knowing, ignorance) and knowing ones' own energies. light on tantra vol 1 Bindu is prakasha and nada is (vimarsha). bindu is I consciousness, nada is to observe I consciousness. Consviousness is bindu, "I am consciousness, I am God consciousness" that is nada. when there is understanding power, the understanding that, "i am this prakasha", that is nada. bindu and nada are both found in God consciousness. In other lights, only bindu is found, not nada, nada is understanding. bindu (prakash) arises from the internal turning point of breath in the heart, while nada (visarga) arises from the exrernal turning point of the breath, which is twelve finger spaces outside the body. swami lakshmanjoo nirodha, the stoppage of breath, and you go in. swami lakshmanjoo 7/8/21 मनुष्य और अन्य प्राणी, वनस्पति इत्यादि के कार्यव्यापार तो ओंकार रूपी हैं ही, दुनिया मे जो मशीनें हैं, वे जब चलती हैं तो उनसे भी ओंकार ध्वनि निकलती है अर्थात व्यक्ति जो है और वह जो भी करता है, वह सब भी ओंकार ही है। गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं जड़ चेतन गुण दोषमय सकल विश्व करतार। संत हंस गुन गहहि पय परिहरि वारि विकार।। 8/8/21 परम् तत्व को पूरी तरह दुनिया के सभी धर्म और उनके सारे शास्त्र समझने का दावा नहीं कर सकते हैं। सब ग्रन्थों और पूजा पद्धतियों से वह सदा बड़ा है, व्यापक है। जितना समझते हैं उससे अनन्त गुना अनसमझा रह जाता है। जो समझ लेते हैं वह आगे चलकर अज्ञेय हो जाता है। ज्ञात और अज्ञात में से अज्ञेयता ही बचती है। ज्ञात और अज्ञात का उपयोग इतना ही है कि इससे अज्ञेय को जान सकते हैं। 9/8/21 कश्मीरी शैव दर्शन भारत के चिंतन और मनीषा का उत्कर्ष बिंदु है। शैव दर्शन में आस्तिक और नास्तिक दर्शनों का समाहार हो जाता है। इसमे वैदिक और अवैदिक पद्धतियों का संश्लेषण हो जाता है। जीवन, जगत और ब्रह्म के प्रश्नों को समझाने में अत्यंत उपयोगी पद्धति है। आश्चर्य यह कि जितना कश्मीरी वांग्मय और उसके प्रस्तोता प्रकाशित रूप में उपलब्ध हैं, उसके आधार पर यह बात कही जा रही है। शैव दर्शन का बहुत से साहित्य नष्ट हो गया है। चार्वाकों का साहित्य नष्ट होने से जो क्षति हुई, उससे कई गुना अधिक नुकसान शैव दर्शन के गायब होने से है। शैव साधक जितना सूक्ष्म और गहन स्तर उपलब्ध कर लिए थे उतना स्तर पाना और उसे व्यक्त करना चमत्कार ही लगता है। 10/8/21 [8/8, 13:04] Priya mishra: Rup zyada attract karta hai [8/8, 13:05] Priya mishra: Naam to rup ki ek abhivyakti hai.. [8/8, 13:14] Rakesh Narayan Dwivedi: जी। नाम चेतना का फल है और रूप पदार्थ का। नाम काल है तो रूप देश। पर नाम और रूप में पहले कौन, कहीं दोनो में प्राणापान सम्बन्ध तो नही ![]() [8/8, 13:20] Priya mishra: Rup pehle aaya [8/8, 13:20] Priya mishra: Sambandh to hai zarur [8/8, 13:25] Rakesh Narayan Dwivedi: रूप पहले या उसे पहचानने वाली चेतना पहले... [8/8, 13:34] Rakesh Narayan Dwivedi: इसी तरह बिंदु पहले या नाद। दोनो अन्योन्याश्रित हैं न! [8/8, 13:45] Priya mishra: Zarir hai chetna hi sab hai aur isi chetna mei sab maaya roop upasthit hai [8/8, 13:46] Priya mishra: Bindu mei vibration nahi hai to ye pehle hi aayeha [8/8, 13:48] Rakesh Narayan Dwivedi: जी। ये दार्शनिक प्रश्न हैं, इनके अंतिम समाधान केवल अनुभव में मिलते हैं। अनुभव रूप के जरिये हो या नाम के जरिय, जब होता है तो दोनो अभेद हो जाते हैं। ![]() [8/8, 13:50] Rakesh Narayan Dwivedi: पदार्थ शब्द का कॉउंटेरपार्ट नहीं? जब सृष्टि का निर्माण हुआ तो महाभूतों में पहले आकाश आया, आकाश का गुण शब्द है, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी बाद में बने। [8/8, 13:51] Rakesh Narayan Dwivedi: क्रमशः [8/8, 13:52] Priya mishra: Ji [8/8, 13:53] Priya mishra: Akash ka gun shabd hai ya uska tanmatra shabd hai? [8/8, 13:53] Priya mishra: Mahabhoot om ke spandan se bane [8/8, 13:53] Rakesh Narayan Dwivedi: तन्मात्रा गुण ही है न [8/8, 13:54] Rakesh Narayan Dwivedi: यानी प्राण पहले [8/8, 13:54] Rakesh Narayan Dwivedi: फिर महाभूत [8/8, 13:55] Rakesh Narayan Dwivedi: प्राण चेतना ही तो है, यद्यपि महाभूत भी चिन्मय है [8/8, 14:08] Rakesh Narayan Dwivedi: ईश्वरीय चेतना में शब्द और पदार्थ, कार्य और कारण, निमित्त और उपादान, दोनों प्रतिबिंबित हो रहे हैं। [8/8, 14:10] Rakesh Narayan Dwivedi: ब्रह्मांड की छाया परब्रह्म के दर्पण में दिखती है। [8/8, 14:18] Priya mishra: Ji ![]() 11/8/21 श्री शिवस्तोत्रावलि, परमार्थसार और परात्रिंसिका विवरण पढ़ रहे हैं। आजकल srf के वर्ल्ड कॉन्वोकेशन का भी हिस्सा है। मध्य रात्रि के सत्र नहीं सुन पाते हैं। पहले ध्यान जब करना शुरू किया था और कभी कभी आज्ञा चक्र पर गुदगुदी होती तो लगता था यह बढ़ते बढ़ते कहाँ जाएगा, यह गुदगुदी ब्रह्मरन्ध्र और कान के बगल में भी होने लगी, लगा अब अंत होगा, पर अब ऊपरी कपाल में यह होने लगी है। सिर का ऊपरी भाग जब शीतलता का अहसास कराते हुए हलचल करता है तो अनिर्वचनीय आनंद की अनुभूति होती है। अब जाकर लगने लगा है कि कितनी ही ऊर्जा हो शरीर से होकर प्रवाहित ही तो होनी है। अब स्पष्ट हुआ कि असीमित शक्ति मानव शरीर मे विद्यमान है। 12/8/21 अंधेरे में पैरों को गोलचक्कर में घुमाने पर असुविधा होती है, जबकि प्रकाश में वे आसानी से घूम जाते हैं। स्पष्ट है कि हमारा शरीर भी प्रकाश की तरंग में ही स्थित है। 'घनीभूत आकाश' गुरुजी का जो पद है, वह यही अनुभूति कराता है। ब्रह्मांड के सारे पदार्थ रूपांतरित होते हुए प्रकाश किरणों में तैर रहे होते हैं। 13/8/21 व्यवस्था के छिद्रों की आड़ में अपनी कमजोरी छिपाकर लाभ उठाए व्यक्ति को बधाई न दें, पर शुभकामना अवश्य दें, पता नहीं उसमें क्या शुभ निहित है, हम नहीं जान सकते। प्राचार्य पद के रिजल्ट में नाम प्रतीक्षा सूची में 31वे नम्बर पर। 14/8/21 शरीर का अपना एक औरा या आभामंडल होता है। कोई कीट पतंगा जब शरीर के पास आता है तो वह कुछ अंगुल दूरी पर ठहर जाता है। बाह्य द्वादशान्त का क्षेत्र शरीर का ही हिस्सा होता है। व्यान वायु इसी में बहती है। बाह्य द्वादशान्त बहिर्गामी श्वास का अंतिम छोर है। 15/8/21 जब लोग अपने-अपने आग्रहों के कारण एक दूसरे को कन्विंस कर रहे होते हैं तो सत्य उन्हें देखकर मुस्कुराता है और उनसे प्रेम करता है। स्वातंत्र्य यही सत्य है, जो हम सबका पाथेय है, हम सबका उत्तरदायित्व है। 75वें स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं। ![]() ![]() अपने गुरु की बात अगर गलत लग रही हो तो हम उसे गलत निरूपित न करें। उस बात का सन्दर्भ और उसकी समीचीनता का प्रसंग दूसरा होगा। गुरु का कहा हुआ किया जाना चाहिए, किया हुआ नहीं। अगर किये हुए को कह रहे हों तब उसे करना ज़रूरी है। when we do all actions and watch each and every breath...the impressions of those actions do not remain. when he goes into dreaming state, those (impressions of) things which he has done in the daytime, he won't dream those. He will dream God consciousness at that time. this is the only way how to get rid of the entanglement of actions.. swami lakshman joo 16/8/21 लगता है योगियों ने दोनो नासिका पुटों से समान वायु निकलने को सुषुम्ना से इसलिये कहते हुए जोड़ा है कि उससे श्वास का निरीक्षण सतत करने का अभ्यास बनेगा। महत्वपूर्ण ईश्वरता की दशा में श्वास का निरीक्षण करते जाना ही है। वैसे एक क्षण के लिए भी ईश्वरता का बोध उदय हो जाये तो वह काफी है, किसी तरह संसार के प्रबल आकर्षण से उसका तिरोधान न हो जाये, बासी न हो जाये, फीकी न पड़े, इसलिए निरन्तर उसी पर चिंतन करते रहना आवश्यक है। 17/8/21 जातीय जनगणना अपनी मनोवृत्तियों की गणना करने जैसा है, जो समय-समय पर बदलती रहती हैं। व्यक्ति आज कुछ सोच रहा है, कल कुछ और, यानी आज वह जाति का है तो कल जाति से असम्बद्ध, सर्वसम्बद्ध या उनसे परे मान रहा होता है। इसलिए जातीय जनगणना की ज़रूरत नहीं है। जातीय जनगणना से समस्याएं उलझेंगी, सुलझेंगी नहीं। मुश्किल तब होती है और जनता दिग्भ्रमित होती है, जब राष्ट्रीय राजनीतिक दल इस मुद्दे पर समय-समय पर अपना स्टैंड बदलते रहते हैं। किसी सत्ताधारी दल के लिए यह काम करना कठिन है और अनावश्यक भी। अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे की खबरों से कौन विचलित न हो! इस पर संयुक्त राष्ट्र और दुनिया के बड़े और ज़िम्मेदार देशों को सोचना चाहिए। सारे देश अपने-अपने नागरिकों की फिक्र कर रहे होंगे। अफगानिस्तान के लोगो का क्या होगा, और क्या होगा दुनिया का, जैसे जैसे तालिबान की शक्ति का विस्तार होगा। वर्ल्ड ट्रेड टावर न्यूयार्क पर तालिबान का कहर भुलाया नही जा सकता। कोई अपना दड़बा कितना सुरक्षित कर सकता है। जब सबको बुराई का मूल ज्ञात है तो उस पर प्रहार करना ज़रूरी है। अमेरिका वहां से वापस हो गया, रूस ने तालिबान को मान्यता दे दी। कोई जान सकता है कि दुनिया बेहतरी की ओर जा रही या विध्वंस की ओर... 18/8/21 ध्यान में जाती हुई बिजली कौंधी। आंखे खोली तो छिपकली जा रही थी। तो क्या प्राणी और पदार्थ बिजली की ही तरंग हैं। वह निखिल ब्रह्मांड ईश्वर का प्रकाश है। द्वादशान्त के कुल पांच केंद्र मालूम पड़ते हैं। एक भ्रूमध्य से भीतर हृदय की ओर अंतः द्वादशान्त। एक भ्रूमध्य से शरीर के बाहर की ओर बाह्य द्वादशान्त। एक भ्रूमध्य से ब्रह्मरन्ध्र से बाहर बाह्य द्वादशान्त। जब हम श्वास लेते हैं तो जहां से वह उठी उस स्थान को द्वादशान्त कहा जाता है, जब श्वास छोड़ते हैं और जहां अंत होती है, वह भी द्वादशान्त है। दोनो का सिरा शरीर के सामने नाक की सीध में एक ही दिशा में होता है। दो केंद्र बाहर वहीं हुए, इसी प्रकार अंदर भी दो केंद्र हैं। एक हृदय केंद्र, दूसरा भ्रूमध्य। श्वास लेते समय वायु बाहर के केंद्र से भीतर आएगी, पर वह उठती मूलाधार केंद्र से है। इसी तरह श्वास जब छोड़ते है तो वह बाहर छूटेगी, पर उसका एक सिरा अपान वायु बनता है यह स्वाधिष्ठान और मूलाधार क्षेत्रों में विलीन होती है। इस प्रकार प्राण और अपान के दो-दो छोर होते है। यह चारों छोर उदान वायु में ऊर्ध्व द्वादशान्त में विलीन हो जाते हैं। वैसे सब कुछ द्वादशान्त की परिधि में ही है। शरीर के दो पोरो के बीच के स्थान को द्वादशान्त कहते हैं। इसका कोई नियत स्थान नहीं है। 19/8/21 भ्रष्टाचार की चक्की में सरकार कौर नही डालेगी तो निकलते निकलते भी वह होता हुआ दिखेगा, पर कौर न डाले, चक्की बंद कर दे, या चक्की समय पर न पीसे या गेहूं के कौर की जगह जौ का कौर डाल दे, या हम अपने लोगो का गेहूं पीस दे, बाकी के लिए उक्त में से कुछ लागू कर दें, तब यह सब भी अव्यवस्था ही है और भ्रष्टाचार से कम नहीं है। इसे कदाचार कह सकते हैं। इसलिए भ्रष्टाचार पर प्रहार चतुर्दिक अंगों पर हो, व्यवस्था पूरी तरह बदली दिखे तभी यह रुकेगा। ![]() प्राचार्य भर्ती के समय हमें यह उम्मीद थी कि जो शिक्षक अर्हता के सभी प्रतिमानों पर खरे उतरेंगे, अंततः उन्ही का चयन किया जाएगा, भले जगह खाली रह जाएं। लेकिन एपीआई वाले तो प्रतीक्षा करेंगे या हो सकता है बाहर हों/रह जाएं। आयोग ने एपीआई को मानो ठेंगा दिखा दिया, वरना उनके पद ही नहीं भर पाते। भाषणवीर शिक्षकों ने अपनी एपीआई उन भाषणों के प्रमाण पत्रों से पूरी की है। वे भाषण भी अकादमिक श्रेणी के नही थे। एक शिक्षक ने हम से यह कहते हुए आवेदन करवाया कि आवेदन करवा दीजिए बस। फिर भी अराजकता जैसी जो स्थिति कॉलेजो में व्याप्त है, उम्मीद करते हैं ये आयोग वाले उसमे कुछ सुधार करेंगे। 20/8/21 प्रकाश ईश्वर चेतना की सीट है, विमर्श चेतना का आत्मनिष्ठ प्रवाह। बिंदु नाद का निवास है, नाद की विश्राम दशा बिंदु है। नाद ईश्वरीय चेतना का लक्षण है। जबकि विमर्श चैतन्य या अवेयरनेस है। बिना विमर्श के प्रकाश तक गति संभव नहीं। 21/8/21 ध्यान गहरा होता जा रहा है। रांत या दिन में नीद में हो या सपने में स्व बोध बना रहता है। शेष संसार बाद में याद आता है। संसार याद करने पर ही सम्मुख होता है। उसे परे करना भी स्वाभाविक होता जा रहा है। स्मृति किसलिए है, स्थायी तत्व को याद करने के लिए, स्थायी क्या है, स्व ही तो, संसार इस तरह याद आकर भी ओझल होता रहता है। ध्यान में सीधे बैठने पर ऊर्जा मूलाधार से सहस्रार की ओर गमन करती रहती है। सहस्रार ही नहीं ब्रह्मरन्ध्र से वह अनन्त में विलीन होती जाती है और तब स्पष्ट होता है कि असीम शक्ति हमारे भीतर है। असल मे वह असीमता हमारे शरीर के आर-पार हो रही है। शरीर तो पदार्थ है, उसकी क्या बिसात जो इतनी ऊर्जा संवरण कर पाए। संसार याद आता है तो वह विकल्पात्मक ब्रह्म हुआ, निर्विकल्प ब्रह्म से सविकल्पक ब्रह्म में रमण करना केवल इसलिए कि वह निर्विकल्प का आदेश है। From Joy I have come, in Joy I live and have my being, and in that sacred Joy I will one day melt again. guruji in the light of taittiriya upanishad 22/8/21 प्रतिदिन अपनी बात लिखते समय ध्यान रखना पड़ता है कि पुनरावृत्ति न हो जाये। पर जैसे भगवान ने मनुष्य जातिं के अलग अलग चेहरे बनाये हैं, उनके स्वभाव भी अपनी प्रकृति के हैं। इसी तरह व्यक्ति की अभिव्यक्ति बिल्कुल एक जैसी नहीं हो सकती। व्यक्ति ईश्वर की ही तो प्रतिकृति है। उस अनंत का प्रकटीकरण भाषा और भाव के माध्यम से सतत हो रहा है। हर बार की पृथक पृथक अभिव्यक्ति यह दर्शाती है कि व्यक्ति उसे चाहे जिस कोण से और जिस तैयारी से प्रकट करे, वह सम्पूर्ण रूप से ज्ञेय नही हो सकता। अनन्त के चमत्कार की झलकियां ही इतनी प्रकाशमान हैं कि व्यक्ति उनमे अपनी सुधबुध खो देता है। यह तो तब है जब संसार की परिधि अपनी है, उस परिधि से बाहर कितनी चमत्कृतियाँ विद्यमान हैं, कौन जान सकता है। लाखों रवि चंद्र तेरी काया से हैं चमकते, कौन कहता तू है काली हे माँ जगदम्बे। कल्याण सिंह का शासन साफ सुथरा और जातिवादी मानसिकता से परे था। उनकी जाति के लोग अवश्य खुश थे, पर उनका झुकाव बिरादरी वालों के प्रति नहीं दिखा। कानून व्यवस्था के लिहाज से भी उनका कार्यकाल उत्तम रहा। राम मंदिर आंदोलन के प्रति उनका समर्पण वास्तविक और आत्मिक था। किसी मुद्दे पर इतना जुनूनी होना किसी नेता के लिए मुश्किल होता है, जिसमे सरकार ही कुर्बान हो गयी। मेरी उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि ![]() श्रीमद्भागवत में अनेक गीत है। वैसे तो पूरा श्रीमद्भागवत ही पद्यात्मक है कुछ स्थलों को छोड़कर जैसे पंचम स्कन्ध के और कुछ अन्य भी। फिर भी कुछ गीत बहुत ही प्रसिद्ध हैं। कुछ की चर्चा कम होती है। मेरी जानकारी में भागवत जी के गीत हैं - १- वेणुगीत , २ - प्रणयगीत , ३ - गोपी गीत , ४ - युगल गीत , ५ - भ्रमर गीत , ६ - कुररी विलाप गीत , ७ - भिक्षु गीत , ८ - ऐल गीत , ९ - पिंगला गीत , १० - भूमि गीत और ११ - रूद्र गीत। रूद्र गीत चतुर्थ स्कन्ध के २४ वें अध्याय में है। वेणु गीत दशम स्कन्ध के २१ वें अध्याय में है। प्रणय गीत दशम स्कन्ध के २९ अध्याय के श्लोक ३१ से ४१ तक है। गोपी गीत दशम स्कन्ध के ही अध्याय ३१ में है। युगल गीत दशम स्कन्ध के ३५ वें अध्याय में है। भ्रमर गीत दशम स्कन्ध के ४७ वें अध्याय में श्लोक ११ से २१ तक है। कुररी विरह या विलाप गीत दशम स्कन्ध के ही अध्याय ९० में श्लोक १५ से है। क्रमशः …....मनोज पांडेय भागवत 23/8/21 विज्ञान भैरव में ध्यान करने की अनेक विधियां ढ़ी हुई हैं। वस्तुतः वे धारणाएं हैं, जिनसे ध्यान लगता है। पर जब हम हम ध्यान कर रहे होते हैं तो वे धारणाएं हमारे भीतर आ चुकी होती हैं। इस पुस्तक से अलग धारणा भी आई होती हैं। इसलिए करना ही बेहतर है। पढ़ने का लाभ यह है कि इससे हमें पता लग जाता है कि हम सही दिशा में जा रहे या नहीं, वैसे गुरु जी के प्रति एकनिष्ठ रहकर हम कभी च्युत नहीं हो सकते। गुरुजी और भगवान ही जब कृपा करतें हैं तभी अपने स्वरूप को प्राप्त हो सकते हैं, चाहे हम लाख जतन कर लें। इन विधियों से ध्यान करके अधिक से अधिक हम अपने मायीय और कार्म मलों को दूर कर सकते हैं, आणव मल प्रभु कृपा से ही दूर होता है। 24/8/21 जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं में तुरीया व्याप्त रहती है। तुरीया इनमे अलग-अलग आती है और जाती भी है। उस तुरीया से ही आनंद प्राप्त होता है। इसे चतुर्थी भी कहते हैं। स्वप्न से सुषुप्ति में जाते है, सुषुप्ति से जाग्रत में अथवा जाग्रत से सुषुप्ति में अथवा उल्टे क्रम में भी तुरीया गतिमान जब रहती है तो हमारा सम्पर्क परमात्मा से अविच्छिन्न रहता है। यह तुरीया हर सांस के साथ सम्बद्ध हो जाये तो क्या कहने, कम से कम संक्रमण अवस्थाओं में तो खुल ही जाए। 25/8/21 विज्ञान भैरव की कुछ धारणाएं जो गुरु जी की कृपा से उतरी हैं, उनमे से एक धारणा देखें... यत्र यत्र मनोयाति तत्तत्तेनैव तत्क्षणं। परित्यज्यानवस्थित्या निस्तरंगस्ततो भवेत।। 129 धारणा 103 जहां भी मन जाता है, उसे तत्क्षण वहां से हटा लें। इस तरह मन को किसी भी प्रमेय पर लिप्त न होने दें। मन को आधारहीन बनाने से मन की अस्थिरता शांत हो जाती है। टिप्पणी:- मन की चंचलता वैराग्य एवं अभ्यास से दूर की जा सकती है। वैराग्य ऋणात्मक विधि है, अभ्यास धनात्मक विधि है। दोनो के एक साथ उपयोग करना चाहिए। वैराग्य में प्रमेयों से ध्यान हटाया जाता है, अभ्यास में लक्ष्य पर ध्यान किया जाता है। यतो यतो निश्चरति मनस्चंचलमस्थिरं। ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत।। गीता 6/26चंचल मन जहां गति करता है, उसे वहां से रोक कर नियंत्रण कर लेना चाहिए। 26/8/21 यत्र यत्र मनो याति बाह्ये वाभ्यंतरेsपि वा। तत्र तत्र शिवावस्था व्यापकत्वाक्व यास्यति। विज्ञान भैरव 116, धारणा 90 जहााँ कहीं भी मन जाता है, चाहे बाहर या भीतर, हर जगह शिवावस्था है। चूंकि शिवावस्था सर्वव्यापी है, मन शिव को छोड़ कर कहाँ जा सकता है। : - छंद के दो पहलू हैं, एक तात्विक एक रहस्यवादी। तात्विक पहलूका मत है कि सृष्टि में सब कुछ, प्रमातृ अथवा प्रमेय, शिव ही हैं। रहस्य वादी मत है चूंकि सब कुछ शिव है, साधक को व्याकुल नहीं होना चाहिए कि वह रहस्यमय सार्वभौम सत्य पर ध्यान एकाग्र करने में सक्षम नहीं हो पा रहा है। जो कुछ भी मन को आकर्षित कर रहा है, चाहे कोई बाहरी वस्तु, सौन्दर्य अथवा भीतरी भावना, विचार आदि हो, साधक दृढ़ता से विश्वास करता है कि ये सब शिव ही हैं और इन पर ही ध्यान करना है। परिणाम आश्चर्यजनक होते हैं। जिस किसी भाव या वस्तु पर ध्यान किया जा रहा है, वह शिव से अभिन्न हो जाती है। इस तरह समस्त विश्व सार्वभौम चेतना से एक हो जाता है तथा साधक को अक्रम अंतर्ज्ञान हो जाता है। सारे विकल्प शांत हो जाते है। स्पंदकारिका 2-3/4/5 में यही भाव व्यक्त हुए हैं- यस्मात्सर्वमयो जीवः सर्वभावसमुद्भवात। तत्संवेदन रूपेण तादात्म्य प्रतिपत्तितः।। तस्माच्छब्दार्थचिंतासु न सावस्था न या शिवः। भोक्तैव भोग्य भावेन सदा सर्वत्र संस्थितः।। इति वा यस्य संवित्ति क्रीड़ात्वेनाखिलं जगत। स पश्यंसततं युक्तो जीवन्मुक्तो न संशयः।। 27/8/21 अनंत ऊर्जा को सचेतन होकर शरीर से पार कर जाना ही योगाभ्यास का आत्यंतिक उद्देश्य है। इस ऊर्जा के पारगमन से व्यक्ति अपना प्राप्त कर लेता है। उसे बोध हो जाता है कि वह देह नही है, अनंत शक्ति सागर का घनीभूत प्रकाश है। ध्यान करते समय मक्खी मच्छर काटकर खून चूसकर बेहोश हो जाते हैं, कभी कभी मर ही जाते हैं। विषयासक्त मनुष्य का भी यही हाल होता है। काल और देश क्या है! सांस लेने में लगा समय काल है, जबकि जितनी दूर तक सांस जाती है उतना स्पेस या देश है। हम क्रिया द्वारा देश को सीमित करते जाते हैं और काल बढ़ता जाता है। काल अनन्त में समा गया, देश शून्य हो गया। 28/8/21 सुनना __________ * संवाद का सबसे महत्वपूर्ण भाग सुनना है ।लेकिन हम बोलने को इतना महत्व देते हैं कि सुनना भूल जाते हैं। *खुद के बारे में बोला तब जाए जब कोई सुनने की इच्छा व्यक्त करे। अन्यथा हम बोलकर अपनी ऊर्जा नष्ट करते हैं और सामने वाले का समय भी। इसी प्रकार ज्ञान और सलाह भी तभी दी जाए जब कोई इसके लिए आग्रह करे। *हमारी जीवन गाथा और शैली कितनी भी रोचक क्यों न हो ,हमें उसे बार-बार दोहराकर नया कुछ हासिल नहीं होता। किसी और को सुनने से हम कुछ नया संचित करते हैं। सुनना खुद को समृद्ध करना है। *अगर एक शब्द बोला जाए तो सौ शब्द सुने जाने चाहिए। *एक अच्छा श्रोता दुर्लभ है । अगर कहीं मिल जाये तो उससे सुनना सीखना चाहिए।बोलना सिखाने वाले बहुतेरे मिलेंगे।सुनना हर कोई नहीं सिखा सकता। *जैसे जैसे हमारे भीतर श्रोता पैदा होता है ,वैसे वैसे हम अच्छा बोलना भी सीखने लगते हैं लेकिन ठीक उसी के साथ हमारे भीतर बोलने की इच्छा कम होने लगती है। *जब हम एक श्रोता होना चुनते हैं तो वक्ता का चयन हमारी सबसे बड़ी काबिलियत होना चाहिए। *और जब हम सुनना शुरू करते हैं तो एक दिन हम पाते हैं कि हम नदी ,पहाड़ ,जंगल और पंछियों को भी सुनने लगे हैं। ------पल्लवी ( एक बातूनी जिसे सुनने में आनन्द आता है ) #बैरंगचिट्ठियाँ पल्लवी त्रिवेदी कर्म में योग कर्मयोग है, जबकि अकर्म में योग ज्ञानयोग है और ज्ञान प्राप्ति पर आई कृतकृत्यता भक्ति योग है। कृतकृत्य होने पर कोई कर्म करने के लिए नहीं रह जाता है। आज 8 घंटे का लंबा ध्यान हुआ। ऊर्जा जैसे नदी की भांति हहराती हुई शरीर के पार हो जाती। [8/29, 19:48] Rakesh Narayan Dwivedi: क्रोध आने पर गुरु जी ने कहा है, छोटे बच्चे भाई या बहिन समझना चाहिए, जिन पर क्रोध आ रहा हो [8/29, 19:50] Rakesh Narayan Dwivedi: हम उसे अबोध मानकर, अपना जानकर क्षमा कर देते हैं। 30/8/21 ब्रह्मवैवर्त पुराण में कृष्ण के अनेक अर्थ आये हैं, उनमे से एक कृष्ण का अर्थ है सार्वभौमिक परमात्मा। कृष् एक जातीय शब्द के अर्थ में है, जबकि ण आत्मा के विचार को व्यक्त करता है। इस प्रकार सर्वज्ञ आत्मा अर्थ बनता है। प्रत्येक व्यक्ति को कुरुक्षेत्र की अपनी लड़ाई स्वयं लड़नी है। यह युद्ध व्यक्ति को कभी न कभी जीतना ही होगा। तभी यह दुनिया सुंदर बनेगी। अस्तु! हम एतदर्थ कृष्ण का आह्वान और आराधन करते हैं। हरि ॐ तत् सत्। जन्माष्टमी की आप सबको मंगलकामनाएं.... आराधना शब्द में राधा अनुस्यूत है। 'राधा' बने बिना कृष्ण कैसे उपलब्ध हो सकते हैं! [8/30, 19:42] Rakesh Narayan Dwivedi: हमे भगवान की की हुई हर गतिविधि में आनंद लेना चाहिए, किया वही जाना चाहिए जो उन्होंने कहा है। ![]() [8/30, 19:47] Rakesh Narayan Dwivedi: हमें नही पता उत्सव भट्टाचार्य की किताब में कामसूत्र की व्याख्या किस प्रकार की गई है, पर भागवत का रासपंचाध्यायी उसका मर्म है और उसमें भी एक अध्याय गोपी गीत उसका सर्वस्व है, सार है। ![]() [8/30, 19:52] Rakesh Narayan Dwivedi: प्रतिक्रियाओं के कारण हमारे यहां तंत्र शास्त्र की समृद्ध परम्परा बुरी तरह बदनाम हो गयी ![]() [8/30, 19:53] Rakesh Narayan Dwivedi: बाहर जाकर हमारे नेतागण और विचारक चार्वाक का नाम लेते नहीं थकते, उनका भी महत्वपूर्ण साहित्य नष्ट हो गया। ![]() 31/8/21 ध्यान में या तो चेतना का संविलयन हो जाता है और शरीर, मन, बुद्धि आदि का भान नहीं रह जाता या फिर जो विचार आते हैं वे ईश्वरगामी हो जाते हैं। जिन विचारों से गुरुजी की कृपा से पूर्व विचलन होता था, वही विचार अब ईशोपासना लगने लगते हैं। यदि कोई अहंपोषी विचार आया तो उसे वहीं साइड कर दिया जाता है। विचारों की रेलमपेल में विचार खो भी जाते हैं तब यह साफ दिखता है कि कचरा कैसे मंडरा मंडरा कर उड़ गया। जो याद रहा, वह कुछ उपयोगी मालूम पड़ा। अंततः कोई विचार किसी काम का नहीं रहता। कॉलेज शिक्षकों के लिये प्रोफेसर पदनाम देना और उसके लिए प्रकाशन कार्यों को जोड़ना आवश्यक हो गया है। अभी कॉलेजो में एसोसिएट प्रोफेसर बनने के लिये कोई शोध प्रकाशन अनिवार्य नहीं है, इससे शोध और सृजन को जो प्रोत्साहन मिलता, वह बंद हो गया। फिर विवि में सीनियर प्रोफेसर भी दे दिया गया है तो कॉलेजो को पीछे नही रख सकते। प्रदेश की उच्च शिक्षा अभी भी अधिकांशतः कॉलेजो के ही हवाले है। विश्वविद्यालयों में तो चुनिदा विभाग ही खुले हुए हैं और उनमें प्रवेश और पहुँच सीमित है। देखना है शासनादेश किस तरह सामने आता है। ![]()
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