पदार्थ का तात्पर्य इसकी संधि विच्छेद से समझा का सकता है। पद का अर्थ। पद किसी वस्तु की वाचिक अभिव्यक्ति है। जो कुछ दृश्यमान जगत है, उसे खंड-खंड में जानने के लिए उन्हें पदो में व्यक्त किया गया है। पद शब्दों से मिलकर बने होते हैं। जगत के नाना विध उपादान की भाषिक अभिव्यक्ति ही पदार्थ हैं। ठोस, द्रव और गैस ये तीन अवस्थाएं पदार्थ की होती हैं।
आम भाषा के स्तर पर हिंदी समृद्ध है। देश के कोने-कोने में उसे समझा जाता है। यही कारण है कि देश का स्वाधीनता संघर्ष इसी भाषा के माध्यम से सम्भव हुआ। आज इस भाषा मे ज्ञान-विज्ञान की पुस्तकों के सृजन की आवश्यकता है। हिंदी भाषा रोजगार की साधन बने, हम सबकी यह कामना है। हिंदी भाषा दैनंदिन कामकाज के लिए सरल लगती है, पर इसके लिखित रूप को जानने-समझने के लिए समुचित अध्ययन आवश्यक है। हिंदी दिवस के शुभ अवसर यह बात भी रेखांकित की जाती है कि हम हिंदी भाषा भाषी अन्य भारतीय भाषाओं का भी सम्मान करते हैं।
कभी ज्ञान पथ सटीक लगता है तो कभी भक्ति पथ। भक्ति पथ में भावुकता है, अवसाद की संभावना है। जबकि ज्ञान में अहंकार उत्पन्न होने की आशंका है। जब बोध हो तो प्रेम का उदय होना आवश्यक है। प्रेम हो तो वैसे तो सब पूरा होता है, पर जब प्रेमी रूठ जाए, या उसे क्षति पहुँच जाने का अंदेशा हो तब केवल एक होने में ही आनंद है। इस दशा में दो अलग अलग प्रेमी में से एक दुखी हो सकता है। अद्वैतावस्था को परम प्रेम कहेंगे और यह ज्ञान मार्ग के बिना कैसे संभव है!
भूदान के विचार के कारण ही कई उपयोगी संस्थाओं को खोलने के लिए लोगों ने अपनी ज़मीनें दी। विनोबा गांधी के साथ वर्षों रहे, किंतु बिना पहचान बनाये। गांधी ने विनोबा कौन लेख लिखकर सबको बताया। गांधी अगर विचार है तो विनोबा उसका मूर्तमान रूप हैं। गांधी ने पहला सत्याग्रही विनोबा को बताया। मैला उठाये दलित के गिरने पर विनोबा ने मैला उठाते हुए उसे सहारा दिया। वे कभी अपना नाम बढ़ाने के नही, वरन उसे मिटाने के पक्षधर थे। विनोबा जैसे उदाहरण भारत की राजनीति और समाज मे विरल हैं, अनुपम और अप्रतिम हैं।
विनोबा तीन भाई थे, तीनो नैष्ठिक ब्रह्मचारी। ऐसे संत प्रकृति के राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ता को आज आपने भली प्रकार याद किया। सादर नमन। प्रो भगवत नारायण शर्मा की पोस्ट पर
12/9/21
विद्यां परां कतिचिदंबरमंब केचि
दानंदमेव कतिचित्कतिचिच्च मायाम्।
त्वां विश्वमाहुरपरे वयमामनाम
साक्षादपारकरुणां गुरुमूर्तिमेव।। पंचस्तवी 4/31
हे माता। कई तो आपको विद्या का स्वरूप मानते हैं। कई आकाश अर्थात शून्य स्वरूप मानते हैं। कुछ लोग आपको आनंद स्वरूप ही मानते हैं। कई माया का स्वरूप मानते हैं और कई जन आपको विश्वाकार बतलाते हैं। हम तो आपके स्वरूप को अनन्त करुणा पूर्ण साक्षात गुरु रूप ही मानते हैं।
तत्वज्ञस्य तृणं शास्त्रं
गीता में तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।
वेदों में...
विजानन् विद्वान् भवति नातिवादी।
न शिवः शक्ति रहितो न शक्तिः शिववर्जिता।
प्रलीने.शब्दौघे तदनु विरते बिंदुविभवे
ततस्तत्वे चाष्टध्वनि वपुरुपाधिन्युपरते।
श्रिते शास्त्रे पर्वण्यनुकलितचिन्मात्रगहनां
स्वसंवित्तिं योगी रसयति शिवाख्यां परतनुम्। पंचस्तवी 5/18
अनथक अभ्यास करता हुआ योगी जब स्वात्म समावेश की ओर अग्रसर होता है तो प्रथम में उसे दस प्रकार के शब्दों के समूह प्रादुर्भूत होता है। उन समस्त शब्दों के लय होने के पश्चात बिंदु विभव अर्थात अनंत प्रकारों वाला प्रकाश पुंज अनुभव होने लगता है। उसके भी शांत होने के पश्चात अपने आधार स्थान हृदय में आठ प्रकार के दिव्य शब्द प्रकट होते हैं। उनके भी उपरत होने पर योगी शक्ति, व्यापिनी और समना रूपी परा शक्ति के स्थान पर पहुँच जाता है। तदनन्तर ही यह भाग्यशाली योगी उस स्वात्म संवित्ति का अनुभव करता है जो चिदानंद परामर्श से पूर्ण तथा परापारमेश्वरी का पारमार्थिक परस्वरूप है।
आठ ध्वनियां
घोषो नादः स्वनः.शब्दः स्फोटाख्यो ध्वनिरेव च।
झांकारो धुक्कृतिश्चैव अष्टधानाहतः स्मृतः।।
दशधा नाद
नदते दशधा सा तु दिव्या नन्द प्रदायिका।
चिनी तु प्रथमः शब्दः चिंचिनी तु.द्वितीयकः।।
चीरवाकी तृतीयस्तु शंखशब्दश्चतुर्थकः।
तंत्री घोषः पंचमस्तु षष्ठो वंशरवस्तथा।।
सप्तमः कांस्यतालस्तु मेघशब्दोsष्टमस्तथा।
नवमो दाव निर्घोषो दशमो दुंदुभिस्वनः।।
13/9/21
गतिः स्थानं स्वप्नजाग्रदुन्मेष निमेषणे।
धावनं प्लवनं चैव आयासः शक्तिवेदनम्।।
बुद्धिभेदास्तथा भावाः संज्ञाः कर्माण्यनेकशः।
एष रामो व्यापकोsत्र शिवः परमकारणम्।। 1/87-88 तंत्रालोक
गति, स्थान, विकल्प रूप स्वप्न, ज्ञान रूप जाग्रत, उन्मेषण, निमेषण, धावन, प्लवन, आयास, शक्तिवेदन, बुद्धि और उसके भेद, भाव, सारी संज्ञाएँ और सारे कर्म ये चौदह (शब्दतः और अर्थतः दोनो दृष्टियों से) राम ही हैं। इस रूप में भी परम कारण रूप शिव ही व्यापक है।
14/9/21
राम को जानना है तो रामायण के साथ-साथ 'योग वासिष्ठ' से जानना होगा। भक्ति की अंधता को ज्ञान का दीपक दूर करता है। और ज्ञान का अहंकार भक्ति के प्रेम से कटता है।

15/9/21
राम को योग वासिष्ठ से, कृष्ण को गीता से और शिव को शिव सूत्र से जानना चाहिए। इन सबको एक साथ जानने के लिए उपनिषदों को समझना चाहिए।
यतो हस्तः ततो दृष्टि यतो दृष्टि ततो मनः।
यतो मनः ततो भावः यतो भावः ततो रसः।। अभिनवदर्पण
भानौ नष्टे काशते चंद्रबिम्बम् तस्मिन्नष्टे काशते चित्तमेव। चित्ते नष्टे दृश्यजातं क्षणेन पृथ्व्यादीदं गच्छति क्वापि सर्वं।। कश्मीरी में लल्लेश्वरिवाक्यानि 9 अनुवाद राजानक भास्कर द्वारा मुक्तबोध इंडोलोजिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट से
16/9/21
महान् कलाविद आनन्द के कुमारस्वामी ने विद्यापतिपदावली की भूमिका में लिखा था कि
जैसे रस का पर्यायवाची कोई शब्द अंग्रेजी में नहीं है , वैसे ही काम शब्द का भी कोई पर्यायवाची नहीं है !
सेक्स तो मनुष्य की जैविक-प्रवृत्ति को ही व्यक्त कर सकता है !
कमनीयता , कामना , काम्य जैसे शब्द भी तो काम
शब्द के ही पारिवारिक हैं !
यदि काम सेक्स का ही पर्याय होता तो भला
काम को पुरुषार्थ क्यों माना जाता ? राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी
बिल्कुल। कुछ विद्वान काम को अंग्रेजी में डिजायर कहते हैं, यह शब्द भी उसे व्यक्त नहीं कर पाता। कुछ स्वाभाविक करने की इच्छा और प्रेरणा काम है, रस वह है जिसके न होने पर रिक्तता प्रतीत होती है। यही स्थिति शब्द, स्पर्श, रूप और गन्ध तन्मात्राओं की है। उनके अनुवाद भी अन्य भाषाओं में ठीक ठीक नहीं हो पाते।
यूं, अनुवाद किसी भाषा से दूसरी भाषा मे समुचित नहीं हो सकता। एक भाषा का भी कोई शब्द दूसरे शब्द का पर्यायवाची नहीं हो सकता। अनंत व्यक्त हो रहा है। हम तन्मात्राओं के आधार पर उसमे समानताएं ढूंढते है, पर वे सब विशिष्ट है। किसी मनुष्य, पशु, पक्षी, जीव जंतु की आकृति दूसरे से उसी के समान नहीं मिलती। पहचान के लिए उन्हें वर्ग और जाति में बांटकर समझा जाता है।
16/9/21
कभी बंदरों और पशु पक्षियों को ध्यान से देखा होगा, जब वे कान हिलाते हैं तो लगता है वे इस प्रकार के संवेदनों से कुछ समझ रहे हैं। यह क्रिया मनुष्य भी कोई कोई कर लेते हैं।
17/9/21
ध्यान में कामायनी की यह पक्तियां स्मरण में आईं।
नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन,
एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन।
पुलिस थानों में ऊंचा सा चबूतरा बना रहता है, जिसमें थानों का कार्यालय स्थित रहता है। यह अंग्रेजों के समय की व्यवस्था मालूम होती है, जिससे भारत के लोग फरियादी बनकर झुककर खड़े रहें, उन्हें फरियादी समझा जाये। क्या अब भी कोई ऐसी जगह बनी रहनी चाहिए...
पुलिस आज भी रिश्वत की सुनती है, कुछ नेताओं की और बची खुची सिफारिशों की। नागरिक और जनता उसके लिए गाजर मूली और भेड बकरी की तरह ही हैं। पुलिस न्यायालय से अपराध सिद्ध होने से पहले ही लोगों को अपराधी मानकर ऐसे व्यवहार करती है, जो उनके अधिकार और दायित्व क्षेत्र से बाहर है। सबसे अधिक प्रहार पुलिस का निरीह कबाड़ियों पर होता है, जो घर का अप्रयुक्त और कचरा सामान बीनते हैं, संभव है परिस्थितिवश कभी चुरा भी लेते होंगे। पर उनके चुराए माल का मूल्य नगण्य ही होता है, उन चोरों और ठगों की तुलना में जो फर्जी गुटखा बनाते हैं, सड़क और भवन बनाने में भ्रष्टाचार करते हैं, सड़कों पर अतिक्रमण करते हैं। और उन सब लोगों से जिनका बंधा महीना कोतवाली या थानों में पहुंचता है।
पुलिसकर्मियों के लिए कहा जाता है, बड़े तनाव में काम करते हैं, पर असल तनाव धन कमाने का होता है। धन कमाने की दृष्टि से नियुक्ति चाहेंगे तो तनाव झेलना ही होगा न! और धन कमाने का तनाव तो पुलिस क्या हर विभाग में और सर्वत्र ही देखा जाता है...
क्या पुलिस का इकबाल उसकी दबंगई के बिना संभव नहीं...
18/9/21
अन्न और अन्नाद का सम्बन्ध भिन्न और अभिन्न दोनों तरह का होता है। अन्नाद अन्न का भोक्ता होता है। हम अन्न भी हैं और अन्नाद भी। हम अन्न ग्रहण करते हैं, साथ ही अन्य प्राणियों का अन्न भी बनते हैं। हमारे शरीर से कितने जीव जंतुओं, मक्खी मच्छरों का भरण होता है और हम शाकाहार के रूप में भी अनजाने ही, कितनी तरह के प्राणों का आहार करते हैं। प्राण आहार करते हैं और आहरित भी होते हैं। अन्न से सब भूतों यानि प्राणियों की उत्पत्ति हुई है। प्राणियों से पर्जन्य यानि वे तन्मात्राएँ जिनसे रसास्वाद मिलता है। प्राणियों के लिए वर्षा यही है। यह पर्जन्य यज्ञ या कर्म से उत्पन्न होते हैं। पर्जन्य और प्राणी भोक्ता हैं और अन्न भोग्य है। कर्म, ब्रह्म और अक्षर मोक्ष के अंतर्गत हैं, यह भीतरी हैं।
19/9/21
साधना और सेवा का संतुलन आवश्यक है। साधना का परीक्षण सेवा से ही सम्भव है और सेवा करने के लिए साधना की शक्ति होना अनिवार्य है। साधना और सेवा में पहले क्या! स्वामी ईश्वरानंद जी ने कहा है साधना ही हमे सेवा करने योग्य बना सकती है। सेवा प्रेम का प्रकटीकरण है। प्रेम बहुत शक्ति मांगता है। वह शक्ति ईश्वर की कृपा और गुरु प्रदत्त साधना से आती है।
नाद और बिंदु पदार्थ और चेतना के भिन्न भिन्न स्तरों पर भिन्न भिन्न होंगे। नाद चेतना है बिंदु पदार्थ है। संसार एक बिंदु है और उसमे ली जा रही श्वास नाद है। केवल नासिका से लिंज रही श्वास नहीं, अपितु हमारे शरीर का कण कण नादमय है। ईश्वर का रचा हुआ संसार उसके लिए नाद है और बिंदु परब्रह्म। इसी तरह जो जो बीच मे या आगे हैं, उन सबका सम्बन्ध नाद और बिंदु का है, पूर्वापर का है और क्रमोत्तर है। उन्मीलन और निमीलन। जो कुछ हो रहा है, वह दो से हो रहा है। और उन दो में से एक बिंदु है और दूसरा नाद।
20/9/21
शैव दर्शन की कतिपय पुस्तकें पठनीय और ग्रहणीय हैं, जिनमे शिव सूत्र, सीक्रेट सुप्रीम, विज्ञान भैरव, स्पन्द कारिका इत्यादि। स्तव चिंतामणि, शिव स्तोत्रावली, श्री साम्बपंचाशिका, पंचस्तवी भी बहुत अच्छे ग्रन्थ हैं, ग्रन्थ हैं और उनकी विवृत्ति स्वामी लक्ष्मण जू ने सुंदर ढंग से की है। गीता की अभिनवगुप्त कृत व्याख्या भी स्वामी जी की पारायणीय है।
कश्मीर की योगिनी का उल्लेख योगी कथामृत में गुरुजी ने किया है। लल्लेश्वरी के चार चार पंक्तियों के पद वाख नाम से मिलते हैं। कश्मीरी से इनका अनुवाद संस्कृत, अंग्रेजी भाषाओं में कई लोगों ने अलग अलग किया है। पेंगुइन क्लासिक की अंग्रेजी में I, Lalla नाम से पुस्तक है हिंदी में इनका अनुवाद नहीं मिला है। लल्ले दद को कश्मीर में हिन्दू ही नहीं मुस्लिम भी गाते गुनगुनाते हैं। यह बाबर अकबर से पहले की शिव भक्त हुई हैं। लल्लेश्वरी की 12 वर्ष में शादी हो गयी और 26 वर्ष की आयु में वे घर छोड़कर संन्यासी हो गईं। यह पद जिस भाषा मे समझ मे आएं, अवश्य पढ़े जाने चाहिए।
कर्नाटक की वीर लिंगायत शैव दर्शन की अक्क महादेवी के पद भी पढ़ने चाहिए। महादेवी लल्ला से थोड़ा पहले हुई। । कर्नाटक में अक्क महादेवी का स्थान हिंदी के गोस्वामी तुलसीदास और कबीर से कम नहीं है।
[9/20, 11:59] rakeshndwivedi563162: dhyan me sarp ka dansna achha hota
[9/20, 12:02] Priya mishra: Maine dekha hai sarp.. ek dam se meri or fann uthaye hue.. mai darr gayee
[9/20, 12:02] Priya mishra: Ek baar merudand mei dekha
[9/20, 12:03] Priya mishra: Aaj subhah ka dhyan bahut accha hua.. jab dhayn gehra hota tab uthne ka mann nahi hota.. lekin majburi hai..
[9/20, 12:03] rakeshndwivedi563162: sadhnA aur sewa ka santulan awashyak he
[9/20, 12:04] Priya mishra: Ji ye bhi sahi hai
[9/20, 12:04] rakeshndwivedi563162: ab dhyan me jane ke kuch der bad hi lagna shuru ho jata
[9/20, 12:05] Priya mishra: Haan
[9/20, 12:06] rakeshndwivedi563162: bas. achha he
[9/20, 12:06] rakeshndwivedi563162: marne ki dasha anubhut ho jati
[9/20, 12:07] rakeshndwivedi563162: marna ajuba nahi lagta
[9/20, 12:13] rakeshndwivedi563162: padartho ki ekta lagne lagti
[9/20, 12:18] Priya mishra: Marte samay conscious reh kar sharir tyag karna hai
[9/20, 12:19] rakeshndwivedi563162: bilkul..
22/9/21
प्रकाश कहिए,ध्वनि कहिए, प्राण या श्वास, एक ही हैं यह सब, यौगिक क्रियाओं के अनुभव में. रात में सोते समय लगाश्वास ब्रह्मरंध्र से होकर बाहर शून्य में मिल रही है. और शून्य से भीतर उसी रास्ते आ रही है. ब्रह्मरंध्र में स्पंदन सोनेके दौरान पहली बार महसूस हुआ.
23/9/21
if the breath itself is fragrant, who needs flowers? if one has patience, calmness, peace and forbearance
What need is there for the final peace f samadhi?
If one becomes the world itself
What need for solitude
Channamallikarjuna, jasmine-tender? Akka Mahadevi
आत्महत्या करने वाले व्यक्ति से सहानुभूति समाज में बहुत कम होती है। जीवन एक संघर्षमय आनंद है। अब गुरु और शिष्य दोनों की बदनामी होगी।
संत का नाम होता ही नही कि उसे बदनामी का भी डर हो। वह नाम बदनाम से, मान अपमान से पार हो चुका होता है। इसीलिए यह पंथ महा विकराल है। छुरे की तीक्ष्ण धार पर चलने की भांति। कठोपनिषद गाता है
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं तत् पथः कवयः वदन्ति
#स्वामी नरेंद्र गिरि आत्महत्या प्रकरण
24/9/21
हिंदी की देवनागरी लिपि में अंक चार ४ लिखे देखे होंगे. hong sau टेकनीक में श्वास का आवागमन का क्रम इस चार की आकृति में चलता है. चार के दाहिनी तरफ़ के छोर से श्वास आरम्भ होती है, यह आरंभ बिंदु बाह्य द्वादशांत कहलाता है. इसी समय शरीर में यह श्वास शून्यवत गर्भ से उठकर चार के बायीं तरफ़ के छोर पर जाकर विलीन होता है. बायीं तरफ़ का यह छोर ब्रह्मरंध्र और उससे ऊपर उन्मना दशा का स्थान है. यह ऊर्ध्व द्वादशांत है. चार की आकृति जिस कारण निर्धारित की गयी हो, पर श्वासचार का क्रम इस आकृति के समान है. यह भी सम्भव है कि लिपि और अंकों की आकृति तय करने के पीछे यही सब आधार हों.
यह हँ (प्राण) का क्रम हुआ. सौ (अपान) का श्वास चार के बाएँ छोर से शुरू होकर शून्य गर्भ से होते हुए दाएं छोर से बाहर जाता है. श्वास के प्रवाह का आवागमन नाक से ही होना है, पर प्रत्येक श्वासचार में बाहर के शून्य से प्राण आकर भीतर मूलाधार और ब्रह्मरंध्र से होते हुये शिव समुद्र में विलीन होते रहते हैं.
वस्तुतः यह अनुभव घटित होने के बाद ज्ञात होता है. लिखने और पढने से कुछ कौतूहल जग सकता है, लिखने पढ़ने का लाभ तभी है, जब उसे किया भी जाए. करने के बाद पढ़ने पर वह टेली हो जाता है.
25/9/21
स्वामी मुक्तानंद की सिद्ध योग प्रकाशन से प्रकाशित चितशक्ति विलास प्रति उपलब्ध न होने के कारण डाउनलोड करके प्रिंट की है. universal शैव प्रकाशन की शैव दर्शन पर प्रकाशित पुस्तकें भी इसी प्रकार पढ़ीं हैं.
26/9/21
आज लाहिड़ी महाशय महासमाधि दिवस है. तीन घंटे के ध्यान मे अपूर्व गहराई प्रतीत हुयी. एक के बाद एक दृश्य आए, अनेक संतों और महात्माओं का दर्शन हुआ, रामकृष्ण परमहंस का भी. सिर में एक के बाद एक कमल खिलते हुए प्रतीत हुए. चिड़िया उड़ती और चुगती हुयी दिखीं. ऊर्जा का प्रवाह ज्वालामुखी की भाँति उठता हुआ लगा. हँ सः पहले करते हैं, यह करने के समय उक्त अनुभव हुए.
लाहिरी महाशय का गृहस्थ रहकर इतने बडे सन्यासी होने का उत्कृष्ट उदाहरण है. रामकृष्ण परमहंस का भी उदाहरण है, उन्होंने विवाह करके संतान उत्पन्न नहीं करने का उदाहरण प्रस्तुत किया. लाहिरी महाशय की चार संतानें थीं. कितने ऊँचे विरक्त थे, यह कई उदाहरणो से सिद्ध हुआ है. अपने पुत्रों के नाम दुकौड़ी तिनकौड़ी रखे, यह नामकरण जताता है कि उन्हें परमात्मा के अतिरिक्त सब कुछ सारहीन लगता था.
He I am (सोहम), the emphasis is shifted from ego to Spirit. He I am is impossible unless breath is still and the soul is free from the bondage of the body and realizes itself one with Spirit.
Therefore correct mantra for the practice technique is Hong-Sau. The consiousness of Sau-Hong referred to by Paramahansa Yogananda manifests automatically when one enters an exalted state of samadhi.
२७/९/२१
ध्यान मे क्रिया के बाद ध्यान दशा में एक ज्योति पुंज दिखा. पहले मेरे ही स्वरूप में था. फिर वही स्वरूप गुरुदेव का हुआ और गुरुओं और सिद्धों का हुआ.
28/9/21
छोटे से तालाब मे कमल की प्रजाति के पुष्प कुमुद खिले रहते हैं. प्रातः उनका खिला हुआ दर्शन आह्लादक होता है. कभी उन्हें तोड़ने का मन कर जाता है, फिर मन समझाता है इनके खिले रहने और लगे रहने में अविकल सौंदर्य है. फिर देखता हूँ कोई कीट रोज़ इन फूलो में से एक दो को क्षत विक्षत कर जाता है. एक दिन कुछ लोगों को इन्हें यह कहकर तोड़ते देखा की लक्ष्मी पर जोड़ा चढ़ायेंगे. लगा उन्हें रोकने के लिए कहें, फिर लगा मनुष्य उस कीट की भाँति भी तो हो सकता है, वह भी तो प्रकृति ही है, अस्तु! उसके तोड़ने में और फूलो को लगे रहने देने के सौंदर्य में कुछ अंतर नही है.
मनसैवानुद्रष्टव्यं, नेह नानास्ति किंचन ।
मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति ॥ brihadaranyak upnishad 4/4/19
manasaivānudraṣṭavyaṃ, neha nānāsti kiṃcana |
mṛtyoḥ sa mṛtyumāpnoti ya iha nāneva paśyati || 19 ||
19. Through the mind alone (It) is to be realised. There is no difference[22] whatsoever in It. He goes from death to death, who sees difference, as it were, in It.
29/9/21
अपुत्रस्य गतिर्नास्ति ...
यह श्लोक गरुड़ पुराण मे भी आया है, अन्यत्र भी.
यह पूर्वश्रुति का कथन है, पूर्वश्रुति को दुर्बल श्रुति कहते है.
उत्तर श्रुति प्रबल श्रुति कही जाती है. उसी प्रकार जैसे साधनकालीन विचार साधनोत्तर अवस्था में प्रामाणिक नहीं रह जाते हैं.
उत्तर श्रुति कहती है न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः (महानारायण उपनिषद ८/१४) याने कर्म से, पुत्र से, धन से सद्गति नहीं होती, केवल त्याग से ही अमरता की प्राप्ति होती है.
यह त्याग क्या है! इसकी समझ ज़रूरी है. अभिनिवेश का त्याग ही सच्चा त्याग है....
दो दिन वेबिनार के माध्यम से आर्य समाज के एक स्वामी जी को ईश्वर जीव और प्रकृति (त्रैतवाद) विषय पर सुना. जितना इनसे सुना है उससे तो लगता है इन प्रश्नो पर यह संगठन बुरी तरह भ्रम का शिकार है. जब इनके पास उत्तर नही होता है तो चिढ़कर प्रतिप्रश्न करने लगते हैं, लोगों को झिड़क देते हैं. आयोजक मंडल उन जिज्ञासुओं की निंदा करने लग जाता है, यह किसी आध्यात्मिक संगठन के लिए समीचीन नहीं है. इनका यह तरीका होगा, पर यह अंततः लोगों की तत्वजिज्ञासा शांत नही कर पाता.
समाज मे प्रचलित परम्पराओं को लेकर इनकी बातें उत्तेजक और सुविधाजनक होने के कारण ध्यान आकृष्ट करती हैं, उदारीकरण के कारण उन परम्पराओं की समस्याएँ स्वतः किनारे लग चुकी हैं. पर अध्यात्म के विषय मे इनकी समझ एकांगी और दुराग्रही लगती है. अध्यात्म मे दुराग्रहों का कोई स्थान नहीं हो सकता.
स्वामी दयानंद जी और रामकृष्ण परमहंस की एक बार हुयी भेंट के बारे मे इन्हें ज्ञात नहीं है. या संभव है न बताना चाह रहे हों. इस भेंट के बाद रामकृष्ण जी का दयानंद जी के प्रति कहना था, व्यक्ति तो तेजस्वी है, पर अहंकारी मालूम पड़ता है.
किन उपनिषदो को आर्यसमाजी प्रामाणिक मानते हैं, किन्हे नहीं! गीता जैसे प्रतिनिधि ग्रंथ को इतिहास की किताब बताकर उसके महत्व को हीन करते हैं. वेदों का इतना अर्थवाद है, केवल उनसे कैसे किसी निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं.
मात्र वेदों को प्रामाणिक मानते हैं, पर उपनिषद तो वेदांत हैं और गीता वेदार्थ. गीता उपनिषद और ब्रह्मसूत्र मिलकर प्रस्थानत्रयी बनते हैं. वेदों का भाष्य भी यह अपना ही मानते हैं. पुरुष सूक्त और कई अंशो को प्रक्षिप्त कहते हैं. यह सब देखकर लगता है, जैन और बौद्ध जैसे दर्शन वेदों को न मानकर भी सनातन धर्म की धारा मे किस क़दर अनुस्यूत हैं, किंतु ऐसे आर्यसमाजी वेदों को मानकर भी सनातन के मर्म से कितने दूर दिख जाते हैं...
आदि शंकराचार्य को भी नहीं छोड़ेंगे! अपनी ज्ञान सरणी का क्या स्रोत है आपके पास आख़िर. क्यों भूलते हैं कि वेदों का विभाजन और संकलन शंकराचार्य जी के पुरखे वेदव्यास ने किया हैं. बनारस मे लाहिरी महाशय से दयानंद जी की भेंट का वर्णन योगिराज चरित में दिया गया है, पर आप लोग अपने से प्रतिकूल बात को ख़ारिज कर देते है. जनता में आर्य समाज के आंदोलन का कितना असर हुआ, यह देखना चाहिए, वर्तमान मे उसका भी कोई उल्लेखनीय प्रभाव नहीं दिखता. अलबत्ता देश के स्वतंत्रता संघर्ष मे स्वामी दयानंद जी के योगदान को नही भूला जा सकता.
ईश्वर निराकार है और साकार भी, लाहिरी महाशय ने पानी का उदाहरण देकर दयानंद जी को समझाया था. इस्लाम भी निराकार ईश्वर मानता है, पर उनसे भी आपकी नही बनती, जिन बातों को आप लोग अंधविश्वास कहते हैं, वे तो इस्लाम और ईसाईयत सब मे हैं. उपनिषदो के ज्ञान मे मनुष्य मात्र का त्राण निहित है, इन्हीं के कारण दुनिया भर के चिंतको ने भारत को ज्ञान का सिरमौर कहा. भारत की महिमा गायी. उपनिषदो ने वेदों के निगूढ़ अर्थ को प्रकट किया. स्वामी रामदेव का नाम लेते हैं, उनकी रुचि आर्य समाज आंदोलन मे नहीं, अपितु अपनी बनायी पीठ मे और पतंजलि आयुर्वेद मे है.
निसंदेह वेदों का पारायण करके आप लोग अच्छा कार्य करते हैं. इससे वेदों के प्रति हमारी जिज्ञासा और निष्ठा बनती है. वैदिक संहिता (जिसमें आरण्यक और उपनिषद इत्यादि सम्मिलित हैं) और उसके वांगमय (पुराणादि)
से परिचित रहिए और उनके धवल पक्षों को सामने लाइए भी...
३०/९/२१
सहस्रार मे प्राण या ऊर्जा भंडारित होती है, उद्गम मूलाधार से होता है. ऊर्जा का आगमन मेरुशीर्ष से तो गमन ब्रह्मरंध्र से होता है. श्वास उसका स्थूल रूप है, जो नाक या मुँह से प्राण अपान के रूप में प्रवाहित होती है. आत्मा का वाहन प्राण हैं. द्वादशांत के माध्यम से शरीर के प्राण परमात्मा से उसी तरह जुड़े रहते हैं, जैसे शरीर और आत्मा को श्वास जोड़े रखती है. शरीर की प्रत्येक श्वास मे पंच महाभूतों से बने पदार्थ की जीवन मरण की प्रक्रिया गतिमान है, यह प्रक्रिया प्राणन से संपन्न होती रहती है. पदार्थों का रूपाकार प्राणन की प्रक्रिया में बदलता रहता है. सभी प्राणियों के शरीरों मे प्राण हैं. पर वह श्वास की तरह अविभाज्य है. परमात्मा की मानो श्वास से सारे दृश्य अदृश्य जगत में प्राण प्रसरित हो रहे हैं. अस्तु! यह प्रश्न बेमानी है कि कितनी आत्माएँ जीवित अवस्था में हैं कितनी नहीं. आत्मा को विभाजित नही किया जा सकता, उसका स्थूल रूप प्राण, प्राण का स्थूल श्वास है, हम अपनी श्वास को नही काट सकते, न अलग कर सकते हैं. श्वास शरीर से अलग हो जती है, तब यह शरीर पदार्थ रह जाता है, पर वह श्वास अपने मूल रूप में अक्षुण्ण रहती है.
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