डायरी जुलाई 211/7/21 विशुद्ध चेतना शिव है, यह अव्यक्त है। इससे मूल प्रकृति या अव्याकृत का उद्गम होता है। तब सात्विक अहंकार और प्राण ब्रह्मांडीय कारण शरीर में प्रकट होते हैं, यह ईश्वर है। हिरण्यगर्भ भी इसे कहा गया। तब जीव का कारण शरीर उत्पन्न होता है। इसके बाद तामसिक अहंकार जिससे आवरण और विक्षेप शक्ति बनती है। यह विक्षेप शक्ति पंचतत्व और तन्मात्राओं का निर्माण करती है। व्यक्तिगत मन 24 विभिन्न तत्वों से मिलकर बनता है। 5 ज्ञानेन्द्रियाँ, 5 कर्मेन्द्रियां, 5 तन्मात्राएं, 5 तत्व और 4 अंतःकरण। इंद्रियों को मन से अलग करने पर तन्मात्राएं हट जाती हैं। मन चित्त से, चित्त बुद्धि से, बुद्धि अहंकार से अलग हो जाते हैं तब मूल चेतना प्रकट होने लगती है। 2/7/21 गुरु जी द्वारा बताई विधियों का लिखित स्रोत सोच रहे थे, कही तो मिलेगा। होंग सौ और ॐ प्रविधियों के बारे में कुछ मिलता है, पर क्रिया के बारे में अब तक नही मिला है। अब कुछ और पुस्तके मंगाई हैं, जैसे योग और क्रिया विधियों पर बिहार स्कूल ऑफ योग से, वहीं से घेरण्ड संहिता, विज्ञान भैरव तंत्र, ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से तिब्बतन योग और सीक्रेट डॉक्टरीन्स। बिहार स्कूल की ही हठयोग प्रदीपिका पढ़ चुके हैं। अवधूत गीता हठ योग प्रदीपिका में आये सुंदर उद्धरणों के कारण मंगा ली है। विज्ञान भैरव मोतीलाल बनारसीदास की पहले पढ़े है, पर बिहार स्कूल की पुस्तकें अधिक उपयोगी और प्रामाणिक हैं, घेरण्ड संहिता भी इसीलिए यहाँ से मंगाई है। 3/7/21 संसार के नाटक में अभिनय भूलकर कर कभी-कभी इसे वास्तविक मानकर संलिप्त हो जाते हैं और जब ऐसा होता है तो अगले क्षण संसार मे हैं, संसार के नहीं, याद हो आता है। ध्यान में विचारों के प्रवाह के साथ यह होता है तो ध्यान के बाद कार्य करते हुए भी यह स्मरण बना रहता है। कर्म करते हुए अधिक चुनौतीपूर्ण होता है, तब मान और अपमान को भूलना होता है, अहं किसी स्तरके और किसी रूप में न आ पाए, यह देखना होता है। संसार का आकर्षण अत्यधिक सघन होता है, इसलिए तुरंत न भी यह हो, पर हो जाता है। तुरंत भी हो सकता है क्या! गुरुदेव जानें.. 4/7/21 जन्मदिनं जन्मदिनं प्रिय सखे तव। मंगलमय जन्मदिनं प्रिय सखे तव। आयुरारोग्यमस्तु प्रिय सखे तब। जीवन च धन्यमस्तु प्रिय सखे तव। प्रिया। गुरुदेव भगवान तुम्हारी अभिलषित कामनाएं पूरी करें। अंततः इच्छारहित और सदा ईश्वरोन्मुख रखें। प्रणाम और शुभकामनाएं ![]() अपने जन्म दिन की तिथि सोशल मीडिया पर नहीं लिखे हैं, पर जीमेल में है। मेरा जीमेल खाता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वेबसाइट पर पंजीकृत है, अतः आज उनके यहां से शुभकामना संदेश प्राप्त हुआ। उन्हें लिखा... जन्मदिन की शुभकामनाओं के लिए सादर धन्यवाद आदरणीय प्रधानमंत्री जी। बोधगया के महाबोधि मंदिर के भेजे गए फोटो के साथ यह मेरे लिए विशिष्ट हो जाता है। सादर। राकेश नारायण द्विवेदी ॐ के देवनागरी लिखित रूप में चूल्हे का बायां हिस्सा मानव शरीर की इड़ा नाड़ी है, दायां भाग पिंगला नाड़ी है। दोनों हिस्सों को मिलाकर बीच की छोटी रेखा सुषुम्ना नाड़ी है। इससे लगकर आगे जो शून्य जैसी आकृति है, वह नाद है, नन्दी शंकर का वाहन है। वह बैल होता है। बैल जिस हौद मे रखा भूसा या आटा मिली सानी खाता है, उसे भी नाद कहा जाता है। बैल या गाय को कभी खातेहुए देखेंगे तो उसके भीतर से जो ध्वनि निकलती है, वह नाद सरीखी होती है। उसके ऊपर अर्द्ध चंद्र है, यह कला है। बिंदु से चंद्रमा के घटने-बढ़ने जैसी कलाएं उत्पन्न होती हैं। बिंदु बड़ा करिश्माई है। बिंदु विस्तार का प्रारंभ है और उसका अंत भी। रेखा बिंदु से बढ़ेगी और अगर रेखा को समाप्त करना है तो भी वह बिंदु पर ही समाप्त होगी। बिंदु ऐसा मिलन स्थल है जहाँ सृष्टि और लय का समागम होता है। शिव और शक्ति के एकीकरण को इस बिंदु से ही निरूपित किया गया है। बिंदु पुरुष के वीर्य और स्त्री के रज को भी कहते हैं। वीर्य श्वेत है और इसका स्थान सहस्रार में है, रज लाल रंग का है, इसका स्थान मूलाधार है, दोनो विपरीत दिशाओं में दिखते हैं, इन्हें एक करने का भाव प्राप्त करना होता है। इन बिंदुओं को मिलाने की तांत्रिक क्रियाएं हैं, जिनका उद्देश्य महाबिन्दु तक पहुंचने की यात्रा का ही है। विशेष विधियों से मैथुन करके या पूरी तरह इससे परहेज करके दोनो ही इसके उपाय हैं। ब्रह्मरन्ध्र और उससे ऊपर महाबिन्दु का सन्धान करना सबका लक्ष्य है। 5/7/21 ध्यान में गुरुदेव से आज्ञा लेकर कल से अमरोली शुरू की है। गुरुदेव की दी हुई विधियों में और गुरुदेव में अखंड, अनन्य और अनुपम श्रद्धा और विश्वास है, यह बात पूरे होशो हवास में देख समझकर कही जा रही है।आध्यात्मिक साहित्य कोई भी पढ़ते गुनते हैं। बिहार स्कूल ऑफ योग की सिस्टेमेटिक टेक्निक्स ऑफ योग एंड क्रिया पढ़ रहे हैं। इससे तंत्र शास्त्र को समझने में सहायता मिली है। शहद मधुमक्खी का मूत्र है या लार, गोंद पेड़ का एस्क्रेशन ही तो है। मशरूम कैसे पैदा किया जाता है। कहा जाता है कुत्ते जहां मूतते हैं, वहां यह उगता है। हाइब्रिड कल्चर के चलन में इसे उगाने का जो तरीक़ा विकसित हुआ हो। फूलों की चाय पी जाती है, पत्तियों की चाय तो सर्वाधिक पी जाती है। प्रकृति का कोई अंश अनुपयोगी नहीं। नास्ति मूलमनौषधम के अनुसार सबमें औषधीय गुण होते हैं। दूध जो पीते हैं, वह भी तो एक तरह का एस्क्रेशन ही है। जीवो जीवस्य जीवनं होता है। अन्न इस शरीर के लिए होता लेकिन यह शरीर भी किसी अन्य के लिए अन्न है। मनुष्य भी प्रकृति से बाहर नहीं, पता नही कैसे उसने अपने लिए शुभ अशुभ और अच्छा बुरा तय कर लिया। उसका एस्क्रेशन और यूरिनल भी तो इसी तरह किसी न किसी उपयोग का हुआ। आयुर्वेद के सुश्रुताचार्य ने इसे समझा है। तंत्र शास्त्र ने इसे गहराई से अनुभूत किया है। वह कोई दर्शनशास्त्र नहीं, वरन अनुभव की प्रयोगशाला है, ऐसी प्रयोगशाला जिसमे से हर व्यक्ति को गुजरना है। उसे वाममार्गी और दक्षिणमार्गी में बांटकर बदनाम किया हुआ है। क्या विडम्बना है कि वैदिक और तांत्रिक दोनो पद्धतियों को परस्पर लांछित किया जाता है, और दोनो पर एक दूसरे का गहरा असर भी है, एक की प्रक्रिया दूसरे में खूब अपनायी जाती है। जिसे उसके प्रयोक्ता जानते हों या न जानते हों। गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है आगम निगम पुरान बखाना। आगम जो शिव ने पार्वती को बोध कराया हैं, वे विधियां और शास्त्र हैं, इनका अनुमोदन विष्णु ने किया। इसी को तंत्र कहते हैं, वैष्णव, शैव, शाक्त, गाणपत्य और सौर ये पांच सम्प्रदाय प्रमुख हुए हैं। निगम वेदो, श्रुतियों व स्मृतियों को कहते हैं। तंत्र प्रकृति को समझने में सटीक असर करता है, प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनो मार्ग उसके यहां मिलते हैं। योग भी उसी का हिस्सा है। योग तंत्र का पुत्र है। तंत्र शास्त्र पाणिनीय संस्कृत में लिखा मिलता है, इससे कुछ लोग अनुमान लगाते हैं कि यह वैदिक साहित्य का ही उत्तर भाग है या वेदों से निकला है। किंतु तंत्र वेदों से उत्पन्न नही हुआ, तंत्र शास्त्र कई बार नष्ट हुआ फिर भी वह घोषणा करता है कि हमारा लिखा अंतिम नही, समय के साथ सब बदलता है। यह तंत्र शास्त्र की सुखद स्वीकारोक्ति है, वह मनुष्य को हर स्तर पर स्वतंत्र करता है। कंडीशनिंग की उसे जैसे जरूरत ही नहीं। जो लोग इस शास्त्र का दुरुपयोग काला जादू और मारण, मोहन या उच्चाटन के लिए जब करने लगते हैं वे बहुत अभागे हैं, क्योंकि इसका घातक दुष्परिणाम उन्हें उठाना पड़ता है। यहां तक कि इसका सदुपयोग या चिकित्सिकीय उपयोग भी लोग कमाई करने के लिए नहीं वरन परमार्थ और दूसरों के हित के लिए करते हैं, अन्यथा यह विद्या उनके पास से ओझल हो जाती है। ![]() 6/7/21 कुत्ता हड्डी को पाकर कितना प्रफुल्लित होता है, मुंह मे दबाकर तेजी से भागता है। उसी हड्डी को चूसते समय अपने दांतों से निकले रक्त का स्वाद लेकर सोचता है, आहा! क्या आनंद आ रहा है.. गंगा को अंग्रेजी में ganges पुरानी ग्रीक भाषा के कारण लिखा जाता है, उसी तरह जैसे सिंधु को इंडस कहते हैं। 7/7/21 तंत्र के इनसाइक्लोपीडिया विज्ञान भैरव जैसे ग्रन्थों में द्वादशान्त शब्द आता है। द्वादशान्त भीतर के 12 अंगुल तक गयी प्राण वायु के स्थान को कहते हैं। जब प्राण भीतर बारह अंगुल नीचे जाता है, वह ह्रदय है, जबकि 12 अंगुल ऊपर बिंदु स्थान है। प्राण और अपान में यह आवाजाही होती है। जब प्राण बिंदु में होता है तो अपान हृदय में और जब अपान बिंदु में होगा तो प्राण हृदय में रहता है। 8/7/21 ध्यान में ऐसे लगता है, जैसे दो में से एक सांस भगवान ले रहे हैं और उनकी प्रश्वास या अपान वायु से प्राणि जगत प्राण वायु ले रहा है। जागतिक पदार्थ भगवान के इन प्राणों से बन रहे, मिट रहे और बदल रहे हैं। 9/7/21 नाद या ध्वनि(sound), प्रकाश या बिंदु(light) और वायु (air) के योग से रूप (form) बनते और बदलते रहते हैं। इन दृश्यमान रूपों का नामकरण मनुष्य करता है। यह सृष्टि चेतना में उसी तरह झांकती है, जैसे दर्पण में स्वयं का मुख। जब चाहो देख लो, इससे अधिक यह संसार कुछ नहीं है। इसे स्वप्न भी कहा गया। संसार स्वप्नं त्यज मोहनिद्रा। कुछ लोग इसे भगवान की रचना मानकर वास्तविक कहते हैं, वह केवल एक सांत्वना है। यह कदाचित इसलिए कहा गया, क्योंकि साधक संसार के घनीभूत आकर्षण के मूल तक जल्दी से पहुंच नहीं पाते, इससे कहीं वे निराश न हो जाएं। दूसरे, संसार के प्रति नकारात्मक, निष्क्रिय और उपेक्षक भी न हो जाये। बोध प्राप्त होने पर चीजें स्फटिकवत साफ दिखती हैं। 10/7/21 प्राण आज्ञा, बिंदु और सहस्रार में जब पहुचते हैं, वहां यह बने रहते हैं, तब समझ मे आता है कि बिजली का जैसे कनेक्शन हो गया हो परमात्मा में आत्मा का सम्बन्ध। आज्ञा चक्र में साधना के प्रारंभिक सोपान में यदा-कदा गुदगुदी होती थी, वह बढ़ती गयी बिंदु और सहस्रार में होने लगी। लगा अब क्या होगा। यह कनेक्शन जुडा रहे, गुरुदेव कृपा करें। इस कनेक्शन से स्पष्ट लगता है कि दृष्यमान संसार लाइट और साउंड के बने रूपों के अलावा कुछ नहीं है। जब साधना करते हैं तब यह होता है, कभी-कभार बीच मे भी शरीर मे रीढ़ और सिर में स्पंदन होते रहते हैं। 11/7/21 सृष्टि के सारे पदार्थ साउंड और लाइट से मिलकर बनते हैं। फिर क्या बचा, बस चेतना ही तो। वाच्य पदार्थो का नाम है, वाचक नाम शब्द हैं, इनसे पृथक वाचन ही हो रहा है। इन तीनो में अनुभूतिं के बाद चेतना कहाँ है, तीनो में ही और किसी मे भी नही या तीनो के पार। इसे तुरीया कहते हैं। इस दशा में सदा बने रहने के लिए गुरुदेव और परमात्मा का अनुग्रह आवश्यक है। आजकल लक्षमनजू की व्याख्या की हुई शिव सूत्र पढ़ रहे हैं। अद्भुत है। बोध को कैसे सरल भाषा में कहा जा सकता है, यह आज इस पुस्तक के जरिये जाना। कश्मीरी शैव दर्शन के अंतिम आचार्य स्वामी लक्ष्मण जू हुए हैं। इसी पुस्तक से पता चलता है शैव दर्शन पर कितना समृद्ध साहित्य लिखा गया है। शिव सूत्र की शब्दावली अलग है, पर गंतव्य योग, तंत्र और वेदांत से पृथक नहीं है। 12/7/21 बिना ध्यान के नाद श्रवण के समय की दशा उस हिरन जैसी हो जाती है जिसकी नाभि में कस्तूरी का वास है और वह उस सुवास का स्रोत खोजता देखता रहता है। सर जान वुडरफ़ की पुस्तक the garland of letters पढ़ रहे हैं। 13/7/21 अगर हमें अपने गुरुदेव पर और गुरुदेव की बनाई संस्थाओं पर गर्व है, और यह मानना कि गुरुदेव ने व्यावहारिक विधियों का सर्वोत्तम मानव सभ्यता को पहुचाया है तो यह कहना अतिश्योक्ति तो नहीं है, पर क्या इस तरह का घमंड करना अनुचित है। बिल्कुल नहीं। हां हमें किसी अन्य गुरु की उनकी संस्थाओं की निंदा करनी आवश्यक नहीं है। नाम पहले या रूप। इस प्रश्न के उत्तर में जगत की गुत्थी सुलझने का सूत्र छिपा है। तत्व सृष्टि के क्रम में शब्द आकाश का गुण है, अतः नाम पहले हुए, रूप बिना रंग के सम्भव नहीं। काला रंग घोषित करता है कि रूप निर्माण नहीं हुआ। रूप सृष्टि के लिए आकाश, वायु और अग्नि तत्व का संयोग करना होगा। शब्द में भी किंचित मात्रा वायु की होती है, एयर टाइट जार में आकाश होगा, पर शब्द नहीं प्रकट होगा। इसीलिए यह मान्य है कि शब्द की पंच महाभूतों से पृथक सत्ता है जो शिवशक्ति से अशब्द या परा, फिर पश्यंती, मध्यमा और बैखरी के रूप में शब्द सृष्टि करती है। शब्द ब्रह्म है। अब जब नाम सृष्टि क्रम में पहले हुई तो पदार्थ अवश्य बाद में आये। नाम या शब्द मन की व्यंजकता है, उसके अनुरूप या काउंटर पार्ट के रूप में पदार्थ, अर्थ या रूप बन जाते हैं। यानि वेद पहले जगत बाद में। यह संसार मानसिक सृष्टि होने के कारण आभास मात्र इसीलिए तो है। 14/7/21 मातृका चक्र में वर्णमाला का क्रम और उसका अर्थ शिव सूत्र में स्वामी लक्ष्मण जू ने बहुत स्पष्टता से बताया है। इस पुस्तक में उन्होंने इसे विस्तार से समझने के लिए आचार्य अभिनवगुप्त की तंत्रालोक और परात्रिंसिका पढ़ने के लिए कहा है। वेदांत और अन्य दर्शनों की तरह शिव गतिहीन तत्व नहीं, वे सतत और अविकल गतिमान हैं। वर्णमाला के अ से विसर्ग पर्यंत 16 स्वर उनकी गति के ही विभिन्न स्तर हैं, जो उनकी पांच शक्तियों चित, आनंद, इच्छा, ज्ञान और क्रिया शक्तियों के क्रम हैं। यह स्वर ही सब व्यंजन ध्वनियों को संभव बनाते हैं। अ और आ स्वरों में शिव की पांचों शक्तियां विद्यमान हैं। इनमे से आ कार आनंद शक्ति से महाभूत कवर्गीय, इ कार इच्छा शक्ति से तन्मात्राएँ च वर्गीय, ऋ रिर रूपी अनाश्रित शिव से कर्मेन्द्रियां ट वर्गीय, लृ कार से ज्ञानेन्द्रियाँ जो तवर्गीय ध्वनियों का प्रतिनिधित्व करती हैं। उ ऊ कार स्वरों से पवर्गीय ध्वनियां जो मन, बुद्धि, अहंकार, प्रकृति और पुरुष को व्यक्त करती हैं। इस प्रकार इन 25 ध्वनियों में शिव अपनी पांचों शक्तियों के साथ उपस्थित हैं। अगली ध्वनियां य र ल व अन्तस्थ हैं यह माया की षट कंचुक माया के साथ साथ कला, विद्या, राग, काल और नियति हैं जो नियति में राग और कला में काल के इकट्ठे होने से चार ध्वनियों में प्रकट होती हैं। शैव दर्शन में इन्हें माया को हटाकर पांच स्वीकार करते हुए अन्तस्थ की जगह धारणा कहा गया है। अब ऊष्म ध्वनियां है श ष स और ह। आंतरिक प्रकाशक होने से यह ऊष्म ध्वनियां कही गईं। इनमे श शुद्धविद्या , ष ईश्वर, स सदाशिव तथा ह शक्ति को व्यंजित कर रही हैं। यहाँ वर्णमाला पूरी हो जाती है। स अमृत बीज है, इससे प्राण बीज ह बनता है। यह प्राण शिव है। इसमे अनुस्वार लगकर सोहम बनता है। यह बनते नहीं, अनुभूत होते हैं। यह अनहत है। यह स्थिति शिव की अनुत्तर शक्ति यानि अ स्वर में पहुचा देती है। अ और ह में अनुस्वार लेकर अहं बनता है। अनुत्तर दशा आत्मनिष्ठ संसार है, अनहत दशा वस्तुनिष्ठ संसार है। क्ष में क और स मिले है। यह कूटबीज है। 15/7/21 तंत्र की वैदिक परंपरा से दो तीन बातों में नही बनती, शेष तो दोनो एकमेक ही हैं। पूजा पद्धति में तंत्र में वैदिक परंपरा की तरह कड़ा अनुशासन नहीं है। सेक्स सम्बन्ध बनाने की तंत्र में छूट है, पर वैदिक पद्धति में संयम की बात है। देह शुद्धि की क्रियाएं दोनो पद्धतियों में कुछ अलग-अलग हैं। यह सब बाह्याचार हैं, तंत्र, वेदांत और योग सबका लक्ष्य परमानंद प्राप्ति ही है। अस्तु इन पर अटककर हम विवाद क्यो बनाएं। लक्ष्य पर पहुचे व्यक्ति में कुछ गलत नही रह जाता और लक्ष्य तक पहुचने में हम समाज की दृष्टि में गलतियां कर रहे होंगे। आध्यात्मिक लक्ष्य तक पहुचने के लिए हमे सभी तरह के सामाजिक मापडंडों को अघोषित रूप में परे रखना होगा। वैदिक परंपरा में इतने मत समाविष्ट हो गए कि उसका मूल स्वर तय करने में भी विवाद बनते हैं। तंत्र की भी अनेक परम्पराएं हैं, पर उसके भीतर अपने आग्रह नहीं है। तंत्र को इससे समस्या नहीं कि वह किस परम्परा का है, वह तो भुक्ति और मुक्ति दोनों का डिंडिम घोष करता है। इसलिए जनसामान्य तंत्र की तरफ शीघ्र आकृष्ट हो जाता है। वैदिक परम्परा के कुछ व्यक्तियों ने जैसे तंत्र को बदनाम कर रखा है। तंत्र की स्वीकार्यता दुनिया भर में प्राचीन समय से ही है। योग और तंत्र एक सिक्के के ही पहलू हैं। तंत्र की पद्धति विश्व मानव को एक करती हुई मालूम पड़ती है। वैदिक परंपरा के पहले से तंत्र की परम्परा चली आयी है। 16/7/21 किसी एक दर्शन में जीव, जगत और ब्रह्म की जिज्ञासाओं का समाधान मुश्किल है, पर गुरुदेव के दिखाए रास्ते पर चलने से उन जिज्ञासाओं का क्रमशः समाधान हमारे सम्मुख आता,रहता है, चाहे वह किसी दर्शन या आध्यात्मिक संस्था से हुआ हो। पता ही नही चलता दूसरी आध्यात्मिक संस्था तक कैसे पहुचे और पहुचकर भी गुरुदेव के प्रति श्रद्धा और समर्पण में रत्ती भर भी गिरावट नहीं हुई, अपितु वहां के श्रेय और प्रेय को जानने में गुरुदेव की कृपा ही विदित हुई। ॐ की महिमा से शास्त्र अटे पड़े हैं, पर योग की दृष्टि से उसका सम्यक समाधान कश्मीरी शैव दर्शन में मिलता है। ॐ के 12 चरणो का पूरा विवरण वहां सुलभ है। अकार, उकार, म(म नही अनुस्वार) कार की समान एक एक मात्रा और आगे उन्मना पर्यंत उससे क्रमशः आधी करते हुए बिंदु, अर्धचंद्र, निरोधिका। बिंदु पहले अर्धचंद्र बाद में पहले के ग्रंथों में मिलता है, बाद में किसी ने लगता टाइपिंग की सुविधा के लिए इसे चन्द्र के ऊपर लगा दिया और वही चल पड़ा। निरोधिका का समानांतर रेखा लगती है। इसके बाद नाद, नादान्त और अंजिनी का स्तर आता है। यह सहस्रार में घटित होता है। फिर ब्रह्मरन्ध्र में व्यापिनी, समना और उन्मना का स्तर है। उन्मना शिखा के ऊपरी स्तर में घटित होती है, समना शिखा के मूल में, जबकि व्यापिनी शिखा के चारो ओर। इन स्तरों के अलग अलग अनुभव हैं, जो गुरुकृपा और साधना करने के बाद घटित होते हैं। मनुष्य केवल अ उ और म कार का उच्चारण करता है, शेष स्वतः घटित होता है। 17/7/21 लगता है समना सविकल्प समाधि और उन्मना निर्विकल्प समाधि को कहा गया है। सविकल्प समाधि वह है जिसमे व्यक्ति प्रकृति के माध्यम से शिव को प्राप्त होता है, निर्विकल्प में प्रकृतिं के माध्यम की ज़रूरत नही रहती। एक गिलास पानी दो सविकल्प समाधि में जाने वाले साधक के लिए इन शब्दों का अर्थ होगा, जबकि निर्विकल्पं समाधि के लिए इन शब्दों का कोई अर्थ नहीं, वे केवल वर्ण भर हैं। किंतु निर्विकल्प समाधि सीधे व्यक्ति को प्राप्त नही हो सकती, सविकल्प से होते हुए ही उसे आगे जाना होगा। गुरुजी कहते हैं सविकल्प में साधक अपनी आत्मा परमात्मा में खो देता है जबकि निर्विकल्प में साधक परमात्मा में आत्मा को खोजता है। 18/7/21 आज 6 घण्टे का प्रातःकाल में ध्यान हुआ। टांग में खिंचाव लग रहा है। कूलर से दूर रहना होगा, acसे तो दूर रहते ही हैं। टांगका दर्द ध्यानकी गहराई में तिरोहित हो जाता है, काश यह ध्यानके बाद भी बना रहे। ध्यान की बैठकी में सीधी हवा पंखे की भी उचित नहीं। इससे अच्छा पसीने में तरबतर होकर ध्यान करें। पसीने के चरम निकलकर ठंडक भी आ जाती है। 19/7/21 क्या व्यक्ति की कोई स्वाभाविक भाषा है! वह जो सबको बोधगम्य हो। ऐसी भाषा को समझने वाले प्रत्येक देश और सभी क्षेत्रो में हो तभी वह नेचुरल लैंग्वेज कही जाएगी। संस्कृत, लैटिन, ग्रीक, हिब्रू सहित किसी प्राचीनतम भाषा का व्यवहार इस रूप में नहीं होता। संस्कृत की वर्णमाला को देखें तो अवश्य यह माना जा सकता है कि उसमें सभी तरह के वर्ण और ध्वनियां मौजूद हैं। संस्कृत वर्णमाला जैसी सटीकता और वैज्ञानिकता किसी अन्य भाषा मे मिलना दुर्लभ है। इसकी ध्वनियों की संगति सब मनुष्यों के भीतर उद्घाटित की जा सकती है। पूरी तरह नही, पर संस्कृत के कतिपय बीजाक्षर लगभग नेचुरल भाषा का रूप बनाते हैं, यह बीजाक्षर एक वर्ण में होते हैं। जिनका अर्थ निकालना भी मुश्किल है। इन्हें मंत्र कहा जाता है। श्रुति में आता है वह एक था, उसे बहुत बनने का मन मे विचार आया और इस तरह एकोहम बहुस्याम के आधार पर सृष्टि बनती चली गयी। लगता है प्रारम्भ में एक वर्णीय शब्द प्रचलित हुए होंगे। उसके बाद विभिन्न समूहों की अपनी-अपनी भाषाएं बनती चली गयी। यह कहानी हिब्रू बाइबल की जेनेसिस में आती है कि ईश्वर ने विभिन्न पदार्थ बनाये, लोगो ने उनका अलग अलग नामकरण किया, उन लोगो ने स्वर्ग जाने के लिए एक ऊंचे टावर का निर्माण भी किया। यह देखकर ईश्वर ने श्राप दिया कि जाओ तुम सब अपनी अपनी भाषाएं बना लो। इस तरह सेम हेम और जफिथ इत्यादि ग्रुप के लोग अलग अलग भाषाएं बना दिये और इस तरह भाषाओं का झगड़ा उठ खड़ा हुआ। भाषाओं की विविधता को दिखाता हुआ यह बहुत शुरुआती सन्दर्भ मिलता है और इसी आधार पर अंग्रेज विचारकों ने कई भाषा परिवारो की अवधारणा प्रस्तुत की, इस अवधारणा से आज भी भाषा विज्ञान बाहर नही आ पाया है। वास्तव में मंत्र वह है जिसे प्रत्येक मनुष्य अनुभूत कर सके, दुनिया की विविध भाषाओं को देखते हुए शब्दों और भाषाओं में वह सम्भव नहीं है। ध्वनि का उद्गम कैसे होता है, इसे जानना इसके लिए अत्यंत आवश्यक है। हम ॐ को सार्वभौमिक मंत्र कहते हैं, पर यह भी मंत्र के निकट ही है। ॐ गुंजार का श्रवण अवश्य एक प्रभावशाली और महत्वपूर्ण मंत्र है। श्रवण में भाषा नहीं आती, ध्वनि भी नही क्योंकि वह नाद में प्रकट होती है। उसे रेडियो की फ्रीक्वेंसी के मानिंद सुनना पड़ेगा। मानव शरीर रेडियो की भांति हैं, जिनके भीतर यह मंत्र गूंज रहा है। अ उ म (अनुस्वार) तीन अक्षर तो बैखरी वाणी से व्यक्त होते हैं, पर उससे आगे जो नौ स्तर घटित होते हैं, वह सार्वभौम है और सृष्टि पर्यंत उपस्थित हैं। यह स्तर स्थूल शरीर की वाणी के प्रकट रूपों में नही वरन सूक्ष्म और कारण शरीरों में घटित होते हैं। यह मानव शरीर क्या है, गुरुजी के भजन से साफ होता है जिसमे वह गाते हैं मैं हूँ आकाश मां मैं हूं आकाश। मैं हूँ नीला महासागर आकाशीय। मैं हूँ नन्ही सी बूंद आकाशीय। घनीभूत आकाश। आकाश बिंदु ही यह शरीर हैं। जिनमे प्राण दौड़ रहा है। प्राण तो शून्यवत इस पूरे महासागर में विद्यमान है, कर्मों के अनुसार जहां आकाश मिलकर उसे घनीभूत कर दे, वह शरीर हो गया। बारिश की बूंदे जिस तरह गिरती मिटती रहती हैं। शरीरों का भी वही हाल है। शब्द आकाश का गुण है, किंतु शब्द आकाश महाभूत में सीमित नही है। शब्द परा, पश्यंती, मध्यमा और बैखरी के स्तरों पर अभिव्यक्त होते है। कर्मेन्द्रियों में भी एक वागिन्द्रिय परिगणित है। वाक का कार्य भाषा के रूप में स्वयं को अभिव्यक्त करना है। इससे स्पष्ट है कि शब्द सृष्टि अलग है। शक्ति इसे वर्णमाला के माध्यम से रचती है। वर्णमाला में स्वर ध्वनियां बीज हैं तो व्यंजन ध्वनियां योनि है। दोनो के योग से वर्ण बनता है। वर्णमाला में शिव, शक्ति, सदाशिव, ईश्वर, शुद्धविद्या, महाभूत, तन्मात्राएँ, ज्ञानेंद्रियां, कर्मेन्द्रियां, माया, प्रकाशक (ऊष्म) अक्षर, अमृत और प्राण बीज इत्यादि मौजूद हैं। 20/7/21 आज बहुत अच्छा ध्यान लगा। हम ध्यान को तब अच्छा मानते हैं जब स्वयं परमात्मा के साथ एकाकार हैं और मन में आये विचारों का प्रवाह ईश्वर की तरफ ही मुडा है। मन निष्पंद क्षण मात्र के लिए ही होगा, पर ध्यानावस्था में मन प्रवाहित होकर भी भटकेगा नही। वह जैसे हरे घास के मैदान में लंबी रस्सी से खूंटे पर बंधी गाय है, जो चारों तरफ कहीं चरे, उसे खूंटे से बंधे होने का अहसास होता रहता है, नही तो खूंटा ही उसको यह बोध करा देता है। गुरुजी ने कितनी अचूक और शीघ्र असर करने वाली विधियां दी हैं। उन तीन विधियों में से किसी एक से ही शीघ्र तत्वबोध हो जाएगा। यहाँ तक कि शरीर संचार व्यायाम भी ध्यान दशा में ले जाता है। पतंजलि के आठ योगांगों में से किसी एक को अगर उपलब्ध कर लिया तो शेष सातो स्वतः विकसित हो जायेगे। प्राण प्राणन करते हैं और मन धारणा करता है। प्राणन कर्मो को व्यावहारिक स्तर पर संभव करता है, इसलिए वह कर्म फल के लिए उत्तरदायी है। प्राणों का कार्य व्यापार अत्यंत सूक्ष्म रूप में चलता है। प्राणन के लिये ही सनातन धर्म में छोटे बड़े कर्मकांड, रीति रिवाज, संस्कार और पूजा उपासना की जाती है। यह बाह्याचार हैं। व्यक्ति के स्व पर इनका असर न के बराबर हो पाता है। तंत्र में यह कार्य हठ योग की विभिन्न शारीरिक क्रियाओं, प्राणायाम और ओली क्रियाओं से होता है, जो बहुत तेजी से असर करता है। हठ योग को चीन और जापान में हीट योग भी कहा जाता है। धारणा मानसिक कार्यो को फलीभूत करती है। कोई कल्पना धारणा शक्ति से साकार हो जाती है। प्राणन और धारणा जब संतुलित होकर सुषुम्ना में एक हो जाते हैं तब शून्य से एकरूप हो जाते हैं। शून्य यहां अभाव या भाव का द्योतक नहीं, वरण पूर्णता का बोधक है। सुषुम्णा से मिलने की दशा में ध्यानावस्था में शरीर में से प्राणों का उत्प्रवाह सहस्रार के ऊपर होने लगता है। सब कर्म बंधन शिथिल हो जाते हैं और नए कर्म नहीं बनते। 21/7/21 आजकल डब्ल्यू वाई एवांस वेंज़ की तिब्बतन योग एंड सीक्रेट डॉक्टरीन्स पढ़ रहे हैं। इस पुस्तक को पढ़ने की इच्छा तब हुई जब योगदा मैगज़ीन में इनका परिचय इस पुस्तक के लेखक के रूप में देखा। इवान्स वेंज़ ने ऑटोबीओग्राफी ऑफ अ योगी की प्रस्तावना लिखी है। तिब्बतन बुक ऑफ डेड के लेखक के रूप में भी यह चर्चित हुए। कुछ दिन यह भारत मे साधु बनकर रहे। जीवन के आखिरी 23 वर्ष अमेरिका के एक होटल में रहे। उनमे से कुछ वर्ष सेल्फ realisation फ़ेलोशिप के मुख्यालय भी गुरुजी के साथ रहे। सीक्रेट डॉक्टरीन्स में डोनाल्ड एस लोपेज जु ने लिखी भूमिका में दिया है कि इस पुस्तक के अभ्यास जब तक इन प्रविधियों का कोई और तिब्बती संस्करण न पढ़ लें, क्योंकि इन प्रविधियों के अनुवाद पर उन्हें सन्देह है। पुस्तक पढ़ने के बाद इस बात से सहमत होना पड़ेगा। सात अलग अलग योग विधियां इसमे दी गयी हैं। थुम्मो, बारदो और उसके पहले व बाद की विधियों का समाहार पुस्तक में किया गया है। ठुम्मो विधि के बारे में जानने के लिए बद्रीनाथ के आगे माना गांव में कई लोगो से 2018 की उत्तराखंड यात्रा में पूछताछ की, पर वहां यह ज्ञात नही है। इसका सन्दर्भ स्वामी राम की पुस्तकों में मिलता है। ध्यान की हर विधि धारणा ही है। क्या धारणा करनी है यह आये, और किस मंत्र या अभ्यास के साथ उसे किया जना है, यह ज्ञात हो, बिना गुरुदेव की कृपा यह सुलभ नहीं, फलदायी नहीं। तांत्रिक क्रियाओं को जीवित गुरुदेव के निर्देशन में ही करना चाहिए। इस पुस्तक में तिब्बती मंत्र और उनके ट्रांसलिटेरेशन की यथातथ्यता पर अन्यत्र सन्दर्भों से मिलान करना आवश्यक है। किंतु हमे यह करने की कोई ज़रूरत नही है। कश्मीरी शैव तंत्र की पुस्तकों में तंत्र दर्शन का सुंदर और सर्वोत्कृष्ट समाहार हुआ है, वही पढ़ेंगे। विधियां जानने की ज़रूरत वहां से भी नहीं है, गुरुदेव की ध्यान विधियां सर्वोत्तम हैं। पर कश्मीरी शैव दर्शन में धारणाओं को सूक्ष्मता से पकडा गया है, यह हम शिव सूत्र और स्पन्द शास्त्र में देख चुके हैं। स्वामी लक्ष्मण जू की मंगाई गई पुस्तक सीक्रेट सुप्रीम के मिलने का इंतज़ार है। डॉ परमहंस मिश्र का तंत्रालोक सेट जिसमे आठ खण्ड हैं, उसे भी देखने की इच्छा हो रही है। 22/7/21 हमने अथर्ववेद का यह मंत्र पढा है येन देवं सविस्तारं परिदेवा अधारयन। तेनेमं ब्रह्मणस्पते परि राष्ट्राय धत्त नः।। जिस प्रकार विजयी राजा की रक्षा अन्य रक्षक सेनापति करते हैं। इसी प्रकार हे वेदज्ञ विद्वानों! आप सब भी राष्ट्र की रक्षा के लिए राजा की रक्षा करते रहो। अथर्ववेद 19/27/1 लेकिन गो तुलसीदास जी का यह दोहा भी रहरहकर याद आता है कि सचिव वैद गुरु तीनि जो प्रिय बोलहि भय आस। राज धर्म तनु तीनि ही होय बेगिही नाश।। हे परमपिता! हमे आपकी ध्वनि को सुनना सिखाइये। ब्रह्मांडीय ध्वनि जिससे सारे स्पंदन उत्पन्न होते हैं, हमें ॐ के रूप में दर्शन दीजिए, जो सभी ध्वनियों का ब्रह्मांडीय गीत है। गुरुदेव इच्छाओं को पूरा कर रहे है। कश्मीर शैविस्म द सीक्रेट सुप्रीम पुस्तक के साथ साथ ईश्वर आश्रम ट्रस्ट के लोगो ने मालिनी पत्रिका का अंक भी भेज दिया। पढ़कर आनंद आ रहा है। [7/22, 20:55] Priya mishra: Kashmir Shaivism advait se bhi upar ka gyan hai [7/22, 20:55] Rakesh Narayan Dwivedi: बिल्कुल [7/22, 20:56] Rakesh Narayan Dwivedi: क्रिस्टल लाइक क्लियर [7/22, 20:56] Priya mishra: Ji [7/22, 20:56] Rakesh Narayan Dwivedi: गुरु जी इससे प्रभावित रहे होंगे अवश्य [7/22, 20:57] Rakesh Narayan Dwivedi: उनके ज्ञान की आधारभूमि कश्मीर के शैविस्म से मिलकर बनी है, बल्कि उसमे भी यह शैविस्म ही आधारभूत है [7/22, 20:58] Priya mishra: Accha, iske bare mei nahi pata tha mujhe [7/22, 20:58] Rakesh Narayan Dwivedi: यह सांख्य, अद्वैत और तंत्र का मिलाजुला रूप है [7/22, 20:59] Rakesh Narayan Dwivedi: लेकिन उनकी अपनी विरासत है बहुत बड़ी [7/22, 20:59] Rakesh Narayan Dwivedi: 8 खंडों में केवल तंत्रालोक है [7/22, 20:59] Rakesh Narayan Dwivedi: आचार्य अभिनवगुप्त का, उनके 40 ग्रन्थ हैं [7/22, 21:00] Rakesh Narayan Dwivedi: बहुत समृद्ध ज्ञानभूमि रही है कश्मीर [7/22, 21:02] Rakesh Narayan Dwivedi: इस दर्शन में वसुगुप्त का शिवसूत्र भी गजब है। श्रीनगर में महादेवशिला पर बैठकर उन्हें उपलब्ध हुआ था [7/22, 21:04] Priya mishra: Aur ab kya hua is bhoomi par? Us pavitra bhoomi ka jo haal hai dekh kar mann tootta hai mera... [7/22, 21:06] Rakesh Narayan Dwivedi: हम्म 23/7/21 आज स्वप्न में सर्प दिखा, उसने हमें देखा। हमने उसकी आँखों मे आंखे मिलाकर देखा, वह शर्मा गया। मुस्कुराते हुए सरक गया। namo namastestu sahasrakritwah, I bow before You, one thousand times I bow before You. After that, punashch bhuyopi namo, I bow before You again another one thousand times. How can I end my bowing before You? You are great! I have not understood You! namah purstad, I bow before you in front, I bow before you on the right side, I bow before You on the (left) side, You are ...{I bow before You} on the backside also (because) You are existing {everywhere}. How can I bow before You? You are everywhere. 24/7/21 गुरु और शिष्य के बीच पांच तरह के सम्बंध बताए गए हैं। जब गुरु शिव और शिष्य सदाशिव हो तब यह महान सम्बन्ध है। गुरु सदाशिव हों और शिष्य अनन्तभट्टारक तब यह अंतराल सम्बन्ध है। गुरु अनन्तभट्टारक और शिष्य श्रीकंठ तो यह दिव्य सम्बन्ध है, गुरू श्रीकंठ और शिष्य सनत्कुमार ऋषि होने पर यह दिव्यातिदिव्य सम्बन्ध है, जबकि गुरु सनत्कुमार और शिष्य मनुष्य हुआ तब यह अदिव्य सम्बन्ध है। इन पांच के अलावा गुरु शिष्य में एक परा सम्बन्ध होता है जिसमे दोनों शिव तत्व में अभिन्न हो जाते हैं, यह श्रेष्ठ सम्बन्ध है, यह महान सम्बन्ध से भी उत्कृष्ट है। ...तस्मै श्री गुरुवे नमः।। आज ध्यान में क्रिया के बाद सहस्रार में टंकार हुई, जैसे कोई कीट टकराकर चला गया हो। स्पंदन और स्फोट दोनो का अहसास हुआ। पृथ्वी पर तेजस्वी रत्नों की भांति चतुर्दिक बिखरे क्रियायोगियों को प्रेम की तरंगें भेजते हुए मैं कृतज्ञ भाव से प्रायः सोचता हूँ: "भगवान! आपने इस संन्यासी को इतना बड़ा परिवार दिया है।" गुरुदेव मा किंचित्यज मा गृहाण। इस विश्व मे न कुछ छोडो और न कुछ ग्रहण करो। अनुत्तरामृत उक्तो य एष उच्चारस्तत्र योsसौ स्फुरन् स्थितः।तंत्रालोक 5-131 अव्यक्तानुकृतिंप्रायो ध्वनिर्वणः स कथ्यते। सृष्टि संहार बीज च तस्य मुख्यं वपुर्विदुः।। 132 प्राण रूप उच्चार में स्फुरित अव्यक्त ध्वनि ही वर्ण है। स्व तंत्र 7/57 के अनुसार इसका उच्चारण कोई नहीं कर सकता। उसका प्रतिघात भी नहीं किया जा सकता। प्राणियों के हृदय में यह दिव्य शक्ति सम्पन्न तत्व स्वयं उच्चरित होता है। सब वर्णों से अविभाजित रूप से स्थित नादात्मक अनाहत ध्वनि को वर्ण कहा गया है। वर्णों की उत्पत्ति का निमित्त होने के कारण इसे वर्ण कहते हैं। इस वर्ण के मुख्य शरीर दो है 1 सृष्टि बीज 2 संहार बीज। ये दोनों वर्ण की अभिव्यक्ति के मुख्य स्थान है। सकार सृष्टि बीज तो क्ष संहार बीज है। 25/7/21 आज स्वप्न में आया कि एकं मधुमक्खी जैसा कीड़ा शरीर मे बनियान के अंदर घुस कर घूम रहा है, कभी कभी काट रहा है। उसे खोज लिया, और बाहर कर दिया। एक अहिंसक भाव उसके साथ जो स्वप्न में भी व्याप्त रहा, वह संतोषजनक लगा। 26/7/21 श्वासों पर ध्यान देने के क्रम में लगा कि हम प्राण शरीर के भीतर लेते हैं, वहां वे अनेकविध शरीर का पोषण करते हैं। यह हम सब जानते ही हैं, किंतु पूर्ण से हम कैसे अविभाज्य रूप में संलग्न हैं यह बात भी प्राण अपान के प्राणन से प्रमाणित होती है। हमारे प्राण भीतर जो चल रहे हैं उनका एक केंद्र बाहर भी रहता है। जहाँ भी हम होते हैं वहां वह केंद्र उपस्थित रहता है। द्वादशान्त का वह केंद्र हमारे अस्तित्व का मूल स्थान है। यह बात ध्यान करते हुए गुरुदेव की कृपा से आई और बाद में उन्ही की कृपा से तंत्रालोक में यह बात पढ़ी भो। महामहेश्वरचार्य श्रीमदभिनव गुप्त का श्रीतंत्रालोक तंत्र साहित्य का विश्वकोश कहा गया है। हिंदी में इसका अनुवाद सम्पूर्णानंद विवि के प्रो परमहंस मिश्र ने किया जो 8 खंडों में छपा है। 27/7/21 आज रात में लगा कि सुषुप्ति में भी ध्यान लग गया हो। दिन में भी जब कभी नींद की झप्पी लगती है तो उस समय लगता है हम जगन्माता की गोद मे हैं। 28/7/21 जिह्वाग्र बहुत सम्वेदनशील और महत्वपूर्ण भाग है योग की दृष्टि से भी। लगता है, समूचा अस्तित्व अगर किसी एक भाग पर इकट्ठा महसूस करना हो तो यही एक रास्ता मुख्य है। परा से बैखरी वाक का स्रोत यह स्थान है। बैखरी का प्रत्यक्ष साधन है और परा तक पहुँचने का प्रवेश द्वार भी यह स्थान है। हमारे शरीर मे प्राण का आवागमन जब किंचित समय के लिए ठहर जाता है तब उनकी विश्रांति का स्थान कौन सा है, द्वादशान्त उसी स्थान को कहेंगे। यह भीतर होता है और बाहर भी। अनुभव से लगता है अधिकांशतः यह बाहर ही विश्राम करता है। बाहर के द्वादशान्त पर ठहरने के कारण ही अमावस्या है, भीतर के द्वादशान्त में वह पूर्णिमा है। प्राण संचरण सभी ग्रह, राशि और अस्तित्व से होते हुए हमारे शरीर मे होता है। इसलिए प्राणन द्वारा बहुत महत्वपूर्ण कार्य किया जाता है, मनुष्य को इस प्राणन के प्रति अत्यंत सचेष्ट रहना चाहिए। हम कहीं रहें यह प्राणन नहीं रुकता, इसका एक केंद्र शरीर के बाहर ही रहता है। शरीर मे आती हुई श्वास का केंद्र बाहर होता है, शरीर से जाती हुई श्वास का केंद्र भी बाहर ही होता है, पर यह दोनो क्या एक ही जगह से आते जाते हैं? 29/7/21 प्राण जहां से आते हैं, वह हमारा मूल स्रोत है। इस प्रकार जो स्रोत का है वह हमारा है और जहाँ प्राण अपान के रुप मे जाते हैं वह भी स्रोत ही है अतः हमारा न कुछ था, न अब रहा। यह प्रत्येक श्वास के आवागमन के साथ घटित हो रहा है। 30/7/21 बारिश भगवान का शुक्र या सीमेन है। ऐसा नहीं तो यह परमात्मा की संजीवनी अवश्य है, इस बूटी से प्राणी नवसंचार पाते हैं। बारिश की बूंदों की सरस् ध्वनि के बीच ध्यान करना और आनन्ददायी होता है। प्राण की यात्रा कहाँ से कहाँ होती है, आजकल इसी पर ध्यान जाता है। श्वास के 36 अंगुल जाने और 36 अंगुल आने में प्राणपान प्रवाह रूप एक अहोरात्र होता है। बाहर का द्वादशान्त अमावस्या होता है, जहाँ प्राण क्षीण होते होते विश्राम करता है। भीतर का द्वादशान्त पूर्णमासी केंद्र होता है, जहां से प्राण उदित होता है। काल प्राण में, प्राण स्पन्द में, स्पन्द शून्य में और शून्य चिति तत्व में प्रतिष्ठित है। इसीलिए कहा गया है जो यहां नही है वह आकाश कुसुम है। देह प्राण का बाह्य स्पन्द ही है। शिव, मंत्रमहेश्वर, मंत्रेश्वर, मंत्र, विज्ञानाकल, प्रलयाकल और सकल ये सात शक्तिमन्त रूप हैं। इनकी क्रमशः चित, आनंद, इच्छा, ज्ञान, क्रिया, महामाया और माया ये सात शक्तियां हैं। इन 14 रूपों के अतिरिक्त पृथ्वीत्व शुद्धमेय रूप ल पृथक परिकल्पन किया गया है। पृथ्वी के इस स्वरूप की विश्रांति में शक्ति और शक्तिमन्त एक हो जाते हैं। यह भेदवाद पांचदश्य सिद्धांत कहा जाता है। इसमे आखिरी का एक एक तत्व घटता है तब त्र्योदश्य, नवम, सप्तम, पंचम, त्रय और अंत मे शिव ही रहता है। सकल में तीनों मल आणव, मायीय और कार्म रहते हैं, प्रलयाकल में कार्म मल नहीं रहता और विज्ञानाकल में केवल आणव मल ही रह जाता है। मुझे लगता है मरने के बाद त्रयोदशी संस्कार यही से लिया गया है। वैदिक देवताओ के आधार पर वर्ण विभाजन हुआ। अग्नि देवता ब्राह्मण हुए, मरुत, इंद्र, वरुण इत्यादि क्षत्रिय, रुद्र वैश्य तो पूषा से शूद्र बने। शरीर में ही यह देवता निवास करते हैं, उनके गुणधर्म से इन देवताओं का साम्य हुआ और फिर उसी आधार पर वर्णों का नामकरण। जब यह व्यवस्था स्पष्ट रूप में दिखने लगी तो जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था चलने लगी। यह व्यवस्था भी अच्छी तरह चली, क्योंकि हुनर वाले काम परम्परागत रूप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरित होते चले गए। आज वे काम प्रधानमंत्री कौशल योजना से भी ठीक से सीखे नही जा पा रहे हैं। किसी व्यवस्था के प्रति गर्हित या मोह का भाव नही, पर एक श्रेष्ठ व्यवस्था बने, यह हम सब चाहते हैं। 31/7/21 इंद्रियों की अपेक्षा उनके विषय शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध अधिक बलशाली व श्रेष्ठ हैं, जिनसे इन इंद्रियों को उत्तेजना मिलती है। इन विषयों से मन, मन से अधिक बुद्धि और बुद्धि से भी आत्मा महान है। वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्त# शरीरं।ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर ।।ईश017 अब मेरा प्राण सर्वात्मक वायु रूप सूत्रात्मा को प्राप्त हो और यह शरीर भस्म शेष हो जाये। हे मेरे संकल्पात्मक मन! अब तू स्मरण कर, अपने किये हुए को स्मरण कर, अब तू स्मरण कर, अपने किये हुए को स्मरण कर। वायु, अनिल आदि (मेरी) प्राण शक्तियों, अमृत प्राण (ब्रह्मांडीय ऊर्जा) में समाने को है, तथा या (मर्त्य) शरीर भस्मीभूत हो जाएगा। ॐ हे मेरे मन याद कर, अपने (पुण्य) कर्मों को याद कर, हे मन, अपने (पुण्य) कर्मों को याद कर। एक जर्मन कवि ने कहा नींद मीठी है, मृत्यु है उससे अच्छी किंतु कभी जन्म ही न होना सबसे अच्छा था। श्री तंत्रालोक 19 वी आह्निक में कहा गया है- श्रीमद्दीक्षोत्तरे त्वेष विधिर्वह्निपुटीकृतः। हंसः पुमानधस्तस्य रुद्रबिंदुसमन्वितः।।21 शिष्यदेहे नियोज्यै तदनुद्विग्नमनः शतं जपेत्। उत्क्रम्योर्ध्वनिमेषेण शिष्य इत्यं परं व्रजेत्।।22 ह्रूं बीजमंत्र में प्राण के उत्क्रमण कराने की अद्भुत क्षमता होती है। यह शास्त्रीय विधि किसी अन्य कर्मकांड की अपेक्षा नही रखती। शांतिपूर्वक एक माला के जाप से ऊर्ध्व निमेष मात्र में उत्क्रमण घटित हो जाएगा।
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