Saturday, December 26, 2020

बुंदेली 'नर' और उसका अर्थविकास


बुंदेली 'नर' और उसका अर्थविकास
राकेश नारायण द्विवेदी
बुंदेली में अब भी कई शब्द ऐसे प्रचलित हैं, जिनकी संगति न केवल वैदिक वाङमय से बैठती है, अपितु बौद्ध और यहां तक कि संगम या तमिल साहित्य से भी उनका मेल बैठता है।
बुंदेली भाषा का प्रयोग क्षेत्र भारत के उत्तरी और दक्षिणी भागों के मध्य ही नहीं, पूर्वी और पश्चिमी भूभाग के बीच भी अवस्थित है। भारत के उत्तरी और दक्षिणी  हिस्सों में आर्य और द्रविड़ संस्कृति का विभाजन रहा है। बुन्देलखण्ड इन दोनों के बीच मे होने से उत्तरी और पूर्वी भाग की संस्कृत, प्राकृत, पाली और पुरानी हिंदी की शब्दावली से जुड़ा रहा है। बुंदेली में कतिपय शब्द-पद ऐसे भी मिलते हैं, जिनका प्रयोग क्षेत्र इस अंचल से बाहर वह क्षेत्र भी है, जिसे वैदिक संस्कृति में भी नहीं गिन सकते। इस आलेख में नर शब्द की अर्थ चर्चा करेंगे।
'नर' की अर्थव्याप्ति बहुत अधिक है। कोई शब्द अपने एक अर्थ से होता हुआ कहाँ तक पहुँच जाएगा, इसका अनुमान भी लगाना मुश्किल है। नर शब्द का प्रचलित हिंदी अर्थ व्यक्ति है, जिसमे स्त्री, पुरुष और उभयलिंगी मनुष्य सम्मिलित हैं, पर बुंदेली में नर का एक अर्थ पेट या उदर है। नर भरना मुहावरा यहां पेट भरने की व्यंजना के अर्थ में प्रयुक्त होता है, अन्न द्वारा भूख शांत करने के लिए नहीं। किसी शब्द का अर्थ विकास उन शब्दों के पर्यायवाची शब्दों में मिलता है, पर कई बार देखते हैं कि किसी शब्द के अनेकार्थ होते हैं। उन अर्थों में परस्पर समानता नहीं मिलती। उनमें संगति नहीं दिखती, उसका कारण है कि वह शब्द प्रसंग विशेष में प्रयुक्त हुआ, पर उसका उद्गम भाव कुछ अन्य था। पर्यायवाची शब्द वैयाकरणों ने अपनी सुविधा के लिए तय किये हैं, पर कोई शब्द दूसरे शब्द का पर्याय नहीं होता। प्रत्येक शब्द एक विशिष्ट भावदशा और क्रिया सम्पादन के लिए प्रयुक्त होता है, उसका समानार्थी किसी अन्य शब्द को मान लिया जाता है, पर वह ठीक-ठीक वही नहीं होता, जिसके लिए वह पहली बार प्रयुक्त होकर रूढ़ हुआ है। भाव सागर में जब व्यक्ति गोते लगाता है तो उसे व्यक्त करने के लिए शब्द बौने पड़ने लगते हैं। जिस व्यक्ति ने जितनी भावदशाओं को व्यक्त कर लिया, वह उतना बड़ा साहित्यकार बन गया। सम्पूर्ण भावदशाओं को व्यक्त नहीं किया जा सकता। साहित्य में इन भावों को पूरी तरह शब्दबद्ध न कर पाने के कारण विभिन्न ललित कलाएं विकसित हुई, चित्रकला, मूर्तिकला इत्यादि। इन कलाओं में भी जब यह भावालोडन बना ही रहा तो संगीत और वाद्य से भी उसे जानने समझने का प्रयत्न किया गया, पर फिर भी उसे केवल अवगाहन ही किया जा  सका है।
नर का अर्थ व्यक्ति हिंदी में है, पर बुंदेली में यह कभी न मिटने वाली क्षुधा को शांत करने वाला उदर है। नर का अर्थ व्यक्ति ग्रहण करने के लिए हमे बुंदेली भाषा के इस शब्द की गहराई में जाना होगा। बुंदेली में एक शब्द नरा भी है, जो गर्भस्थ शिशु और प्रसूता मां की नाभियों से जुड़ा रहता है। जनन के समय इसे काटकर जच्चा और बच्चा को पृथक किया जाता है। गर्भनाल ही बच्चे के विकास को प्रेरित करती है। इसी की वजह से बच्चा मां के गर्भ में जीवित रहता है। यह सुरक्षा के साथ-साथ पोषण देने का भी काम करती है। यह बच्चे को कई तरह के संक्रमण से सुरक्षित रखने का काम करती है। गर्भनाल मां और बच्चे को जोड़ने का काम करती है। मां जो कुछ भी खाती है, आहार नाल के माध्यम से उसका पोषण बच्चे को भी मिलता है। गर्भनाल बच्चे के लिए फिल्टर की तरह भी काम करती है। यह उस तक सिर्फ पोषण पहुंचाती है और विषैले पदार्थों को भ्रूण तक नहीं जाने देती। नरा काटने की प्रक्रिया यहां सम्पादित की जाती है। गर्भावस्था में बच्चे की गर्भनाल ही उसकी लाइफलाइन होती है जिसकी मदद से बच्चे को सभी पोषक तत्व और ऑक्सीजन मिलता है। ये गर्भाशय में आपको और बच्चे को छठे सप्ताह से बच्चे के जन्म तक जोड़े रखता है।
बच्चे के कुल वजन का छठा हिस्सा इसी गर्भनाल का होता है। नरा गाड़ना एक और बुंदेली मुहावरा है, जिससे व्यक्ति के मूल निवासी होने का बोध होता है। कोई व्यक्ति जहां जन्म लेगा, वहाँ का निवासी स्वाभाविक रूप में होगा ही, अब आवागमन बढ़ने से यह मुहावरा अर्थ छवि खो रहा है।
यहां भी नर का अर्थ व्यक्ति पूरी तरह स्पष्ट नहीं होता है। नर का एक अर्थ जल है, नार भी उसे कहते हैं। नारायण (Narayan) नार + अयन
नारायण में संधि का प्रकार (Type of Sandhi) : Dirgha Sandhi (दीर्घ संधि)। 
जल' एक बहुश्रुत शाश्वत वाक्य 'जन्मात् लयपर्यंतं यत् स्थितं तज्जलम्' का प्रत्याहार या 'शॉर्टफॉर्म' है। अर्थात जो वस्तु इस संसार के जन्म से लेकर उसके समाप्त होने तक मौजूद रहे, वह 'जल' कहलाती है। 'ज' अर्थात् जन्म और 'ल'अर्थात् 'लय' (अथवा प्रकृति में लीन हो जाना) इन दो क्रियाओं का वाचक जल कहलाता है।
मनुस्मृति में लिखा है कि 'नर' परमात्मा का नाम है । परमात्मा से सबसे पहले उत्पन्न होने का कारण जल को 'नार' कहते हैं । महाभारत के एक श्लोक के भाष्य में कहा गया है कि नर नाम है आत्मा या परमात्मा का । यह 'नार'' कारणस्वरूप होकर सर्वत्र व्याप्त है इससे परमात्मा का नाम नारायण हुआ । कई जगह ऐसा भी लिखा है कि किसी मन्वतंर में विष्णु 'नर' नामक ऋषि के पुत्र हुए थे जिससे उनका नाम नारायण पड़ा । ब्रह्मवैवर्त आदि पुराणों में और भी कई प्रकार की व्युत्पत्तियाँ बतलाई गई हैं । तैत्तिरीय आरण्यक में नारायण की गायत्री है जो इस प्रकार है—'नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्' । यजुर्वेद के पुरुषसूक्त और उत्तर नारायण सूक्त तथा शतपथ ब्राह्मण (१६ । ६ । २ । १) और शांखायन श्रौत सूत्र (१६ । १३ । १) में नारायण शब्द विष्णु या प्रथम पुरुष के अर्थ में आया है । जैन लोग नरनारायण को ९ वासुदेवों में से आठवाँ वासुदेव कहते हैं ।
जल को 'नीर' या 'नर' से जाना जाता है और भगवान विष्णु पानी में रहते है तो उनको नाम नारायण बना ।नारायण को मतलब है पानी के अंदर रहने वाले भगवान।

पानी का जन्म भगवान विष्णु के पैरों से हुआ है. पानी को नीर या नर भी कहा जाता है. भगवान विष्णु भी जल में ही निवास करते हैं. इसलिए नर शब्द से उनका नारायण नाम पड़ा है. इसका अर्थ ये है कि पानी में भगवान निवास करते हैं. इसीलिए भगवान विष्णु को उनके भक्त 'नारायण' नाम से बुलाते हैं.
नारायण का शाब्दिक अर्थ : नर के चलने के लिए दिखाया गया मार्ग (orbit) होता है।

चूंकि सनातन धर्म में ईश्वर को परम आत्मा माना गया है, और सभी मनुष्यों को उसी एक परम पिता की संतान, अतः उस ईश्वर के बताय रास्ते पर चलना ही सब मनुष्यों का ध्येय बनता है |
इसलिए परमात्मा के लिए भी नारायण शब्द का प्रयोग करते हैं |
नारासु अयनं,यस्य स: नारायण:। जल में है घर जिसका , अर्थात् नारायण --क्षीरशायी श्री हरि विष्णु। ईश्वर, भगवान,परमात्मा।
जल पीने से भूख भी शान्‍त हो जाती है; प्‍यासे मनुष्‍य की प्‍यास अन्‍न से नहीं बुझती। हमारे शरीर मे तीन चौथाई हिस्सा जल ही है, उसी प्रकार भूमण्डल का तीन चौथाई हिस्सा भी जलाप्लावित है। यह अलग बात है कि उसमें से 97.5 प्रतिशत जल पीने योग्य नहीं है।
सब प्राणी जल से पैदा होते हैं और जल से ही जीवन धारण करते हैं और उसी में लय हो जाते हैं। कबीर कहते हैं-
जल में कुंभ कुंभ में जल है बाहर भीतर पानी। 
फूटा कुंभ जल जलहिं समाना
यह तत कथ्यो ग्यानी। 
वेदों में वर्णित है- अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानि भेषजा।।
अग्निं च विश्वशम्भुवमापश्च विश्वभेषजीः।।

मुझ (मंत्रदृष्टा ऋषि) से सोमदेव ने कहा है कि जल में (जलसमूह में) सभी औषधियाँ समाहित हैं। जल में ही सर्व सुख प्रदायक अग्नि तत्व समाहित है। सभी औषधियाँ जलों से ही प्राप्त होती हैं।

 आपः पृणीत भेषजं वरुथं तन्वेsमम।।
ज्योक् च सूर्यं दृशे ।।

हे जल समूह! जीवनरक्षक औषधियों को हमारे शरीर में स्थित करें, जिससे हम निरोग होकर चिरकाल तक सूर्यदेव का दर्शन करते रहें।।

जल’ की उत्पत्ति के संबंध में एक अन्य पुरातन- अवधारणा भी विचारणीय है। लगभग सभी पुराणों और स्मृतियों में यह श्लोक (थोड़े-बहुत पाठभेद से) दिया रहता है जो इस अर्थ का वाचक है कि जल की उत्पत्ति ‘नर’ (पुरुष = परब्रह्म) से हुई है अतः उसका (अपत्य रूप में) प्राचीन नाम ‘नार’ है, चूंकि वह (नर) ‘नार’ में ही निवास करता है, अत: उस नर को ‘नारायण’ कहते हैं-

आपो नारा इति प्रोक्ता, आपो वै नरसूनवः।
अयनं तस्य ताः पूर्वं तेन नारायणः स्मृतः।।

-ब्रह्मपुराण/अ-1/श्लोक-38

विष्णुपुराण के अनुसार इस समग्र संसार के सृष्टि कर्ता ‘ब्रह्मा’ का सबसे पहला नाम नारायण है। दूसरे शब्दों में में भगवान का ‘जलमय रूप’ ही इस संसार की उत्पत्ति का कारण है-

जल रूपेण हि हरिः सोमो वरूण उत्तमः।
अग्नीषोममयं विश्वं विष्णुरापस्तु कारणम्।।

-अग्निपुराण /अ.-64/श्लोक 1-2

‘हरिवंश पुराण’ भी इसकी पुष्टि करता है कि ‘आपः’ सृष्टिकर्ता ब्रह्मा हैं। ‘हरिवंश’ में कहा गया है कि स्वयंभू भगवान् नारायण ने नाना प्रकार की प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा से सर्वप्रथम ‘जल’ की ही सृष्टि की। फिर उस जल में अपनी शक्ति का आधीन किया जिससे एक बहुत बड़ा ‘हिरण्यमय-अण्ड’ प्रकट हुआ। वह अण्ड दीर्घकाल तक जल में स्थित रहा। उसी में ब्रह्माजी प्रकट हुए-

ततः स्वयंभूर्भगवान् सिसृक्षुर्विविधाः प्रजाः।
अप एव ससर्जादौ तासु वीर्यमवासृजत्।।35।।
हिरण्य वर्णभभवत् तदण्डमुदकेशयम्।
तत्रजज्ञे स्वयं ब्रह्मा स्वयंभूरिति नः श्रुतम्।। 37।।

इस ‘हिरण्यमय अण्ड’ के दो खण्ड हो गये। ऊपर का खण्ड ‘द्युलोक’ कहलाया और नीचे का ‘भूलोक’। दोनों के बीच का खाली भाग ‘आकाश’ कहलाया। स्वयं ब्रह्माजी ‘आपव’ कहलाये-

‘उच्चावचानि भूतानि गात्रेभ्यस्तस्य ज्ञज्ञिरे।
आपवस्य प्रजासर्गें सृजतो ही प्रजापतेः।।49।।’

अर्थात्- इस प्रकार प्रजा की सृष्टि रचते हुए उन ‘आपव’ (अर्थात् जल में प्रकट हुए) प्रजापति ब्रह्मा के अंगों में से उच्च तथा साधारण श्रेणी के बहुत से प्राणी प्रकट हुए।

ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र का रसमय रूप आदि से अंत तक जो परब्रह्म है, जिसे तत् कहा गया, उसे आप कहा गया। आप सम्बोधन में वह जल ही आत्मतत्व को व्यक्त कर रहा है।

-हरिवंश/हरिवंश पर्व/प्रथम अध्याय

‘जल’ केवल ‘नारायण’ ही नहीं, ब्रह्मा विष्णु और महेश (रूद्र) तीनों है।

‘वायु पुराण’ के अनुसार जल शिव की अष्टमूर्तियों में से एक है। दूसरे शब्दों में ‘रूद्र’ की उपासना के लिए जो आठ प्रतीक निर्धारित हैं उनमें से एक जल है।
जल का कोई रंग नहीं होता। वह इंद्रधनुष के सभी रंगों को धारण कर सकता है। उसका कोई आकार नहीं, आवाज भी नहीं और गति भी नहीं। 

सिद्ध और नाथ परम्परा में भोगनाथ के नाम से विख्यात चीन के लाओत्से ने जल की तरह व्यक्ति को रहने का आह्वान किया है। उन्होंने कहा है 
 The supreme good is like water, which nourishes all things without trying to. It is content with the low places that people disdain. Thus it is like the Tao. In dwelling, live close to the ground. In thinking, keep to the simple. In conflict, be fair and generous. In governing, don't try to control. In work, do what you enjoy. In family life, be completely present. When you are content to be simply yourself and don't compare or compete, everybody will respect you.
बिहारी ने इसे एक सुंदर दोहे में इस प्रकार कहा है-
नर की अरु नर नीर की एकै गति कर जोइ । जेतो नीचे ह्वै चले तेतो ऊँचे होइ ।—बिहारी
आदिवासियों की एक लोककथा में आता है कि सृष्टि के आरंभ में केवल माता, रात्रि और जल ही था। 
जल ही सब सभ्यताओं और संस्कृतियों का विभाजक तत्व है। नदी के ऊपर या नदी के नीचे, इस प्रकार लोगों को बांटा जाता रहा। किस नदी से हो, यह पहचान व्यक्ति की रही। अपनी नदी या जल के प्रति सच्चे रहे तो अंततः समुद्र में मिल ही जायेंगे। दो भिन्न जल जब मिलते हैं तो प्रयाग बनता है, इसी से हमने भिन्न गोत्रों में विवाह करना सीखा है। मरने के बाद भी वैतरणी नदी का प्रतीक हमने बनाया, जो चाहे कहीं मौजूद न हो, पर जल तत्व ही हमारी मरणोत्तर गति के साधनो में है। 
गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है-
छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई। जस थोरेहुँ धन खल इतराई॥
भूमि परत भा ढाबर पानी। जनु जीवहि माया लपटानी।। 
भावार्थ- छोटी नदियाँ भरकर (किनारों को) तुड़ाती हुई चलीं, जैसे थोड़े धन से भी दुष्ट इतरा जाते हैं। (मर्यादा का त्याग कर देते हैं)। पृथ्वी पर पड़ते ही पानी गंदला हो गया है, जैसे शुद्ध जीव के माया लिपट गई हो।
 समिटि समिटि जल भरहिं तलावा। जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा॥
सरिता जल जलनिधि महुँ जोई। होइ अचल जिमि जिव हरि पाई॥
भावार्थ : जल एकत्र हो-होकर तालाबों में भर रहा है, जैसे सद्गुण (एक-एककर) सज्जन के पास चले आते हैं। नदी का जल समुद्र में जाकर वैसे ही स्थिर हो जाता है, जैसे जीव श्री हरि को पाकर अचल (आवागमन से मुक्त) हो जाता है।
स्कॉटलैंड में नर का अर्थ प्रसन्नता, कोरिया में देश, मंगोलिया में सूर्य तो कुर्दिस्तान में इसका अर्थ अनार वृक्ष होता है।
जापान के मध्य भूभाग में, होन्शु द्वीप स्थित है, वहां नर नामक एक शहर है, यह जापान की पहली राजधानी (710-784) रहा। जापानी बौद्धों का यह  महत्वपूर्ण केंद्र है। यहां के ऐतिहासिक स्मारक को यूनेस्को द्वारा संरक्षित स्मारकों में सम्मिलित किया गया है।
सायोनारा एक फिल्मी गीत में आया शब्द है, जिसका अर्थ अलविदा होता है।
अमेरिका में नर बहुत लोकप्रिय शिशु नाम है।
वराहमिहिर की वृहत्संहिता और बाल रामायण में नर का अर्थ हीरो या नायक से लिया गया है।
नर से ही विकसित होकर नीर बना है, जल के अर्थ में इसे प्रयुक्त किया जाता है। 
नर्दा (जलस्रोत), नरेटी (जल पूरित नारियल का बाह्य भाग), नर्र्याबो (जल की उग्रता के कारण चीत्कार का अर्थ), नरुवा (डंठल) इत्यादि शब्दों में जल की विभिन्न गतियों के कारण अर्थ उद्भासित हो रहे हैं।
कश्मीरी शैव दर्शन और त्रिक साधना पद्धति में शिव एवं शक्ति के अतिरिक्त तीसरा त्रिक नर नाम से है। यह नर यहां भी जीव के लिए प्रयुक्त हुआ है।
इस प्रकार नर का अर्थ जब जल से होते हुए व्यक्ति तक पहुचता है तो इसमे अर्थ की इयत्ता की सीमा नहीं रहती, उसी तरह जैसे 'मनुष्य' के अर्थ में असीम सौंदर्यबोध प्रकट होता है। नर और नारायण की युति भी यूं ही नहीं हुई। भगवान के चौबीस अवतारों में से यह एक अवतार हैं, जो बद्रीनाथ हिमालय में अगल बगल के दो पहाड़ों के रूप में मान्य हैं। करोड़ों वर्ष पहले आज के हिमालय की जगह समुद्र था। सब मिलाकर हिंदी में नर का अर्थ जल से होते हुए व्यक्ति तक विकसित हुआ है। 
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