Monday, July 31, 2023

जुलाई २३

३/७/२३ प्रातः जागने के बाद बैठे ध्यान में गुरु पादुका दर्शन हुए। घुटनों के ऊपर का दर्शन तो नहीं हुआ, पर गुरु जी पेंट और जुटे पहने हुए अपने दास पर इस प्रकार जो अनुग्रह किए, वह प्रत्यक्ष दिखाता है कि गुरुदेव हमारे पास ही हैं, सर्वदा उनकी कृपादृष्टि बनी रहे। जय गुरु❤️🌹🙏 गुरुपूर्णिमा दो दिन पूर्ण महावतार बाबा जी ध्यान के बीच पधारे थे। बाबा जी के प्रकाश पुंज में समा जाऊँ। गुरुदेव से प्रार्थना। गुरु पूर्णिमा... वेद व्यास का संबंध इस पूर्णिमा से है। व्यास जी ने वेदों को अलग अलग चार भागों में संहिताबद्ध किया है। प्रतिवर्ष आषाढ़ माह की पूर्णिमा को परंपरा से और वेद व्यास के कृपापूर्ण कृतित्व के कारण गुरु पूर्णिमा पर्व के रूप में मनाया जाता है। पूर्णिमा एक विशेष समय होता है। चंद्रमा और समुद्र की हलचल इस दिन अधिक होती है, चंद्रमा का पुत्र ही मन है। चंद्रमा मनसो जातः। मन का आलोड़न विलोडन पूर्णिमा के दिन रात में अधिक होता है। मन की गति को विनियमित न कर पाने के कारण सबसे अधिक पाग़ल इसी दिन होते हैं। वर्तमान में गुरु और शिक्षक एक नहीं हैं। यद्यपि भारत की शिक्षा प्रणाली में पूर्व में गुरु और शिक्षक प्रायः भिन्न नहीं होते थे। गुरु और शिष्य का संबंध दिव्य होता है। वह शाश्वत संबंधों में चलते है, जब तक वे मुक्त नहीं होंगे उनका संबंध बना रहेगा। जबकि माता-पिता और संतान का संबंध प्रारब्ध कर्मों पर आश्रित होता है। कर्म भोग के उपरांत उनका संबंध होने की आवश्यकता नहीं रह जाती। गुरु तत्व है, वह मार्ग है, जो मनुष्य में अंतर्निहित है। गुरु मिलन ईश्वर से तीव्र इच्छा का उदय होने पर होता है। समर्थ गुरु यानि जो स्वयं भागवत है, भगवत्प्राप्त हैं, वह शिष्य को उसके गंतव्य पर इसी जन्म में पहुँचा देते हैं। अपने गुरु की तुलना किसी अन्य के गुरु से करने की आवश्यकता नहीं है। अपने गुरु का आदेश मानते जाएँ, उनके दिए नाम या पद्धति को कभी न भूलें, उसी में शिष्य का कल्याण है। अन्य गुरुजन या श्रद्धेय जन के प्रति आदर और ग्रहणशीलता का भाव रखना उत्तम है। गुरु का शरीर में होना या न होना विचारणीय नहीं। गुरु शरीर और मन से पार एक असीम सत्ता है। वे अपने शिष्य के पास अशरीर होकर भी सदा कृपालु रहते हैं। गुरुदेव के माध्यम से प्राप्त बोध के उपरांत ही व्यक्ति का जीवन सार्थक होता है। चित्रं वटतरोर्मूले वृद्धाः शिष्या गुरुर्युवा । गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यास्तु छिन्नसंशयाः ॥ १२ ॥ आश्चर्य यह है कि वटवृक्षके नीचे शिष्य वृद्ध हैं और गुरु युवा हैं। गुरुका व्याख्यान मौन भाषामें है, किंतु शिष्योंके संशय नष्ट हो गये हैं ॥ १२ ॥ ॥श्रीदक्षिणामूर्तिस्तोत्रं॥ 4/7/23 फ़क़ीर बालक नूर का सज़दा किए शरीर क्या रोज़ा क्या बंदगी क्या मस्जिद क्या मंदिर! सुख की करें न चाहना दुःख में नहीं दिलग़ीर फ़ना करें सब फंद तो उनका नाम फ़क़ीर। प्रेमानंद जी महाराज के बीएमडब्ल्यू में चलने पर एक पोस्ट पर.. सूर्य पर थूकने का प्रयास नहीं करना चाहिए, स्वयं के ऊपर ही गिरता है। पता नहीं आपका क्या उद्देश्य है इसके पीछे। संतों का कहा हुआ करना चाहिए, किए हुए को कोई कदाचित् ही जान पाता है। 5/7/23 हिंदी भाषा में नहीं के साथ है भी संयुक्त होता है। अन्य भारतीय भाषाओं में भी यह हो, पर यह भाषा की बड़ी विचित्र व्यवस्था है। यानि नहीं कुछ भी नहीं, स्वीकार भाव की ही सत्ता है। ६/७/२३ समाज में किसी मुद्दे पर अपना निर्णयात्मक विचार देना बहुत आसान और लोकप्रिय तरीक़ा है। परंतु सतह पर आये किसी सामाजिक मुद्दे की परतों को देखना और समझना अधिक आवश्यक है। ज्योति गौतम और उसके पति को लेकर लोग स्वाभाविक रूप से अपने मंतव्य दे रहे हैं। समाज की कोई घटना जब घटित होती है तो उसमे पूरे समाज का अक्स दिख जाता है। प्रशासनिक नौकरियों का महिमामन्डन करना, किसी चकाचौध को पाने की इच्छा होना, इसके मूल में है। उस महिला को विवाहेतर संबंध से बचना चाहिए था, पर उस पुरुष ने भी अपने घर की लड़ाई को सार्वजनिक करके अपने बच्चों का अहित किया है। पुरुष को तो उस महिला को आगे बढ़ते देखकर प्रसन्न होना चाहिए था, अगर नहीं चल पा रहा था तो चुपचाप बाहर आ जाना चाहिए था। इस तरह सनसनी फैला कर किसी को समाज का नायक बनना ठीक नहीं। हर केस अलग होता है, इससे यह निष्कर्ष निकालना ठीक नहीं कि पत्नी को पढ़ाना उचित नहीं। पढ़ाने के पीछे कोई बड़ी नौक़री पाना भर उसका उद्देश्य न समझा जाये। मनुष्य बनना शिक्षा का उद्देश्य हो। मनुष्य बनने पर एक महिला एसडीएम का पति सफ़ाईकर्मी भी रह सकता था और एक सफ़ाईकर्मी अपनी एसडीएम पत्नी से अलग रहकर भी उससे प्रेम कर सकता था। यह विवाह/प्रेम का वास्तविक स्वरूप है। 8/7/23 *आज का विचार* *स्वतन्त्रता* *July 4* *श्री ज्ञानमाता का जन्म दिवस* दूसरों की सेवा ही मुक्ति का मार्ग है। ध्यान तथा ईश्वर के साथ समस्वरता ही सुख का मार्ग है।…अपने अहं की दीवारें गिरा दें; स्वार्थ का त्याग कर दें; स्वयं को देहबोध से मुक्त कर लें; अपने अस्तित्व को भुला दें; जन्म-जन्मांतरों के इस कारागार से निकल जायें; अपने हृदय को सबमें विलीन कर दें, सम्पूर्ण सृष्टि के साथ एक हो जायें। — *श्री श्री परमहंस योगानन्द*, *योगदा सत्संग पाठ* चाह में च का अर्थ और है। यह और और ही चाह है। अंग्रेज़ी विल का अर्थ संकल्पयुक्त चाह भी है और भविष्य भी। इसके सिवा और संसार में क्या है। संसार का एक शब्द मराठी में बड़ा प्यारा है इसे वहाँ नाना कहते हैं। 9/7/23 गुरुदेव की कृपा से पूरी दुनिया बदली हुई दिखने लगी है। न किसी से शिकायत, न दुःख या कष्ट, न राग ही; न विराग ही। इस तरह की दुनिया में कोई न पराया है, न कुछ आश्चर्यजनक। सब चीजें जैसे शीशे की तरह पारदर्शी हो गई हैं। अब कोई कहानी नहीं बची है, जिससे कुछ समझना पड़े। अब मात्र तथ्य शेष है कि हम उसमे हैं और वह हममें। संसार में रहते हुए वह हममें है और इससे पार रहने पर हम उसमें हैं। ध्यान भीतर, प्रेम बाहर। कोई सज्जन आचार्य प्रशांत से एक बातचीत में कह रहे थे कि हिंदू धर्म की सबसे बड़ी समस्या है कि उसका एक ढाँचा निर्धारित नहीं है। जाति और वर्ण को मानने वाला हिन्दू है और इन्हें न मानने वाला भी हिन्दू है। कोई क्रूर मनुष्य भी इसमें धार्मिक बनकर रह सकता है। यानि इसकी व्यापकता ही इसकी समस्या है। यह बात सही है कि हमें नीतिवान और विवेकवान् होना ही होगा, पर वास्तव में व्यापकता और उदारता हिंदू धर्म की विशेषता है। हिंदू धर्म की उदारमूलक वृत्ति के कारण किसी व्यक्ति में एक समय जो दुर्गुण होते हैं, वे अगले समय में निर्मूल भी हो जाते हैं या इसकी प्रबल संभावना उसके भीतर मौजूद रहती है। मूल रूप में हिंदू धर्म सर्वथा नीतिमूलक है। वह व्यक्ति को गुणी, उदार और सर्वमांगल्यकारी बनाता है। हिंदू धर्म की किसी अन्य धर्म से कोई असंगति नहीं बनती न उसका किसी और से संघर्ष बनता है। जो कुछ इसके दुर्गुणों की बात की जाती है, उनके मूल में संदर्भ से काटकर की गई बातें हैं। इन महोदय को ब्रह्मसूत्र, उपनिषदों और गीता के माध्यम से हिंदू धर्म को समझना चाहिए। यह मनुष्य की आत्यंतिक खोजें हैं। इनसे अधिक कुछ है नहीं और न इससे कुछ बाहर बचता है। उस अनंत को व्यक्त करने के ढंग अनंत हैं, वह अलग-अलग ढंग से व्यक्त किया जाता है। हर ढंग नया है, अनोखा है, पर वह अनंत है, यह सनातन या हिंदू धर्म ने सबसे पहले सिद्ध किया हुआ है और इसे दुनिया स्वीकार करती है। भारत की मनीषा ने समग्र रूप में तत्व की पकड़ कर ली है/थी। - [ ] हिंदू धर्म के अनुयायियों को पारलौकिक जुड़ाव के बाद या जुड़े रहते हुए लौकिक समृद्धि की और ध्यान देना होगा। पश्चिमी दुनिया के देशों ने छोटी-छोटी चीजों के ऊपर शोध और उनका विश्लेषण करते हुए उन्हें भौतिक समृद्धि के अनुकूल बना लिया है। वे अनुसंधान कर रहे हैं और समूची मानव जाति की सुविधा के लिए उन्हें सौंप रहे हैं। यह उनकी बड़ी उपलब्धि है। भारत जिस दिन यह दशा प्राप्त कर लेगा, उसकी सामाजिक समस्याओं का संभव सीमा तक समाधान हो जाएगा। - [ ] इसका रास्ता ईमानदारी और परिश्रम के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। १०/७/२३ यदि हिन्दू धर्म उदारता लिए हुए है तो जैन बौध ,शिक्ख धर्म का उदय भारत में ही क्यों हुआ।जो कि हिंदू धर्मका मूल ,ईश्वर की कल्पना भी नही करते । अरविंद नायक महरौनी! आलोचना करने के लिए यह बातें कहीं जाती हैं। यह स्वाभाविक है, इन धर्मों या संप्रदायों की अच्छाइयां क्या सनातन में नहीं हैं! विकासशीलता के कारण नए संप्रदाय बनते है, संप्रदाय बनते बदलते रहते हैं, वे सब भी धर्म के उत्स तक पहुंचना चाहते हैं और पहुंचते हैं। सनातन का मूल ईश्वर की कल्पना नहीं; वरन उस तत्व का साक्षात कर लेना है, जिसे कुछ लोग ईश्वर कहते हैं. उस तत्व का साक्षात ही वास्तव में धर्म है। प्रचलित स्वरूप में ईश्वर तो सांख्य दर्शन और आर्य समाजियों के यहां भी नहीं हैं, पर वे सब हिंदू हैं। अनेकानेक संप्रदायों और परम्पराओं का उदय और अस्त होता जाता है, पर क्या कारण है कि मूल धारा अक्षुण्ण बनी रहती है. उस धारा का वर्णन जब तत्वविद करते हैं तो भाषाओं, क्षेत्रों और संप्रदायों की सीमा टूट जाती है। बिना दुभाषिए के किसी महनीय कृति के अनुवाद की भांति सब साफ हो आता है। 12/7/23 कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय | भक्ति करे कोइ सूरमा, जाति वरन कुल खोय || 18/7/23 बुंदेलखंड विश्वविद्यालय झाँसी में पीएचडी के एक वाइवा (मौखिकी) में महत्वपूर्ण प्रश्न उठा कि वसुधैव कुटुंबकम् और वैश्वीकरण में क्या मूल अंतर है! वसुधैव कुटुंबकम् में सब प्राणियों के हित की बात है, तो वैश्वीकरण एक बाज़ार आधारित, मुनाफ़ा केंद्रित व्यवस्था है। बाज़ार समाज संचालन का आधार है, बाज़ार दैनन्दिन जीवन प्रक्रिया को गतिमान रखता है, किंतु मनुष्य की यात्रा यहाँ पूरी नहीं होती। अगर ऐसा होता तो मनुष्य जब पूरी तरह सुख सुविधा संपृक्त हो जाता है, फिर उसे कुछ और पाने की इच्छा क्यों बनी रहती है। वैश्वीकरण का तो लोकतंत्र से भी साम्य नहीं बनता, पर वसुधा कुटुंब ही है, इस प्रत्यय में सबका समाहार हो जाता है। 19/7/23 These three instructions, plus meditation, contain the only rule of life that any disciple needs: detachment; realization of God as the Giver; and unruffled patience. As long as we fail in any one of these three, we still have a serious spiritual defect to overcome. ~ Sri Gyanamata, "God Alone: The Life and Letters of a Saint" तर्क और प्रतितर्क संतर्क तक पहुँचने के मार्ग हैं। वे स्वयं पाथेय नहीं हैं। बहस में उलझे लोग तर्क और उसके प्रतिपक्ष में रचे तर्क में जाते हैं। असल बात है कि वे क्या इससे वे उसके निष्कर्ष तक पहुँचते हैं या नहीं। किसी व्यक्ति को निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए तर्क से या उसके प्रतितर्क से भीतर और अतल गहराइयों में उतर कर जाना होता है। उथले तो बहलाव और प्रदर्शन मात्र है। अतल गहराई में जाने पर दोनों के सिरे एकमेक हो जाते हैं। २०/७/२३ "If you meditate for a few minutes every day and live in harmony, you will always live in heaven, and will carry your own portable paradise within you wherever you go." - Paramahansa Yogananda २९/७/२३ 'बहुत सम्हल के फ़क़ीरों पे तब्सिरा करना ये लोग पानी भी सूखी नदी से लेते हैं' तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना। अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः।। ३०/७/२३ महामृत्युंजय मंत्र निम्नलिखित है । जो कि यजुर्वेद के तीसरे अध्याय का साठवां मन्त्र है—— ओ३म् त्र्यम्बकम् यजामहे सुगन्धिम् पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् । त्र्यम्बकम् यजामहे सुगन्धिम् पतिवेदनम् । उर्वारुकमिव बन्धनादितो मुक्षीय मामुत: । त्र्य॑म्बकं यजामहे सु॒गन्धिं॑ पुष्टि॒वर्ध॑नम् । उ॒र्वा॒रु॒कमि॑व॒ बन्ध॑नान्मृ॒त्योर्मु॑क्षीय॒ मामृता॑त् ॥
(त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीयमामृतात्॥) (ऋक्, ७/५९/१२, वाज. ३/६०, तैत्तिरीय सं, १/८/६/२, मैत्रायणी सं, १/१०/४, २०, काण्व सं, ९/७, ३६१४, शतपथ ब्राह्मण, २/६/२/१२, १४, तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/६/१०/५) तीन अम्बक वाले (सूर्य, चन्द्र, अग्नि नेत्र वाले, या जिसकी अम्बिका स्त्री हैं) की पूजा करते हैं, जो सुगन्ध या दिव्य गन्ध युक्त है तथा पुष्टि साधनों की वृद्धि करता है। जैसे ककड़ी का फल पकने पर स्वयं टूट जाता है, उसी प्रकार मृत्यु द्वारा शरीर से मुक्त हो जायेंगे, पर अमृत से हमारा सम्बन्ध नहीं छूटता। शरीर से आत्मा निकल कर परमात्मा से मिलती है, उसी प्रकार कन्या विवाह के पश्चात पिता के घर से निकल कर पति के घर जाती है। परमात्मा को ही पति कहा जाता है। कन्या विवाह सम्बन्धित मन्त्र वाजसनेयि संहिता मन्त्र के अगले भाग में है।
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पतिवेदनम्। उर्वारुकमिव बन्धनादितो मुक्षीयमामुतः (वाज, ३/६०-भाग २)
(कुमारियों के अर्थ में) पति की प्राप्ति करानेवाला, सुगन्धयुक्त, त्रिनेत्र की हम पूजा करती हैं। ककड़ी का फल जैसे अपने डण्ठल से छूट जाता है, उसी प्रकार हम कुमारियां माता, पिता, भाई आदि मातृगृह के बन्धुजनों से, उस कुल से, उस घर से दूर जायेंगी। किन्तु त्र्यम्बक के प्रसाद से हम पति से दूर न जांय, अर्थात् पति गोत्र में ही बनी रहें। २. इस अर्थ के निर्गुण गीत यजुर्वेद के इन दोनों मन्त्रों के समान अर्थ वाले हजारों निर्गुण गीत हैं, जिनमें मनुष्य को पत्नी, ब्रह्म को पति कहा गया है तथा शरीर से आत्मा निकलने को कन्या के ससुराल जाने जैसा कहा है। माया के बन्धन को ननद कहा गया है। इसे संस्कृत में ननान्दृ कहते हैं, अर्थात् जो प्रसन्न नहीं हो। पति अपनी बहन के अतिरिक्त पत्नी से भी प्रेम करने लगता है जिससे ननद का अधिकार कुछ न्यून हो जाता है। इस भाव का एक प्रसिद्ध निर्गुण गीत साहिर लुधियानवी ने लिखा तथा मन्ना डे ने गाया था।
लागा चुनरी में दाग, छुपाऊँ कैसे,
चुनरी में दाग, छुपाऊँ कैसे, घर जाऊँ कैसे
लागा चुनरी में दाग…
हो गई मैली मोरी चुनरिया
कोरे बदन सी कोरी चुनरिया
जाके बाबुल से नज़रें मिलाऊँ कैसे, घर जाऊँ कैसे
लागा चुनरी में दाग…
भूल गई सब बचन बिदा के
खो गई मैं ससुराल में आके
जाके बाबुल से नज़रे मिलाऊँ कैसे, घर जाऊँ कैसे
लागा चुनरी में दाग…
कोरी चुनरिया आत्मा मोरी
मैल है माया जाल
वो दुनिया मोरे बाबुल का घर
ये दुनिया ससुराल
जाके बाबुल से नज़रे मिलाऊँ कैसे, घर जाऊँ कैसे
लागा चुनरी में दाग…
कबीर से आरम्भ कर महेन्द्र मिश्र तक के इस अर्थ के बहुत से भोजपुरी गीत हैं।
इसी आशय का महेन्द्र मिश्र का प्रसिद्ध गीत है-
खेलइत रहलीं हम सुपुली मउनियाँ
ए ननदिया मोरी है, आई गइलें डोलिया कहाँर।
बाबा मोरा रहितें रामा, भइया मोरा रहितें
ए ननदिया मोरी हे, फेरि दीहतें डोलिया कहाँर।
काँच-काँच बाँसवा के डोलिया बनवलें,
ए नदिया मोरी है लागी गइलें चारि गो कहाँर।
नाहीं मोरा लूर ढंग एको न रहनवाँ
न ननदिया मोरी लेई के चलेलें ससुरार।
कहत महेन्दर मोरा लागे नाही मनवाँ
ए ननदिया मोरी हे छूटि गइलें बाबा के दुआर। अमीर ख़ुसरो के गीत यहीं से अनुकृत हैं। लोकपरंपरा में बाबुल संबंधी यह गीत खूब गए जाते हैं। ३१/७/२३ शरीरांत दशा के लिए बड़े प्यारे शब्द हैं। कुछ है नित्यलीलालीन, निधन, मृत्यु, स्वर्गवास इत्यादि। लीला समझे बिना उसमे लीन नहीं हुआ जा सकता। निधन से आशय निकलता है कि जीवन धन्यता है, ऐसा भी नहीं कि जीवन न होना धन्यता नहीं, पर उसका भोक्ता तो जीव ही है। मृत्यु में चार अक्षर विद्यमान है । म सीमा का द्योतक है, आर गति का त पहुँचने का तो या यात्रा का। चारों का समवेत स्वर यात्रा या गति ही उभरता है। स्पष्ट है कि मृत्यु में जीव की गतिविहीनता का भाव है। स्वर्ग तो एक कामना है, इसलिए मनुष्यों ने मृत्यु की अवस्था को स्वर्गवास नाम दे दिया। दूसरे, स्वर में गति करने का नाम स्वर्ग है। वर्णमाला में स्वर मूल ध्वनियाँ हैं, उनके बिना व्यंजन ध्वनियों का अस्तित्व नहीं। व्यंजन यदि शक्ति हैं तो स्वर शिव हैं। शक्ति के बिना शिव नहीं और शिव शक्ति का लक्ष्य है। शक्ति शिव में लीन रहती है और शिव शक्ति के माध्यम से प्रकट होते हैं।

Sunday, July 2, 2023

जून २३

१/६/२३ #आत्मबोध_विमर्श - 88....#गंगा 🐊 ------------- * वैदिक सनातन सभ्यता और संस्कृति के मूल में है मोक्षदायिनी गंगा। गंगाजल विष है, जीव‌ नहीं पनपता इसमें। जीवभाव मुक्त चैतन्य आत्मबोध ही अमृत है, मोक्ष है। * योगी आध्यात्मिक योग-तंत्र की विशिष्ट क्रियाओं से कुंडलिनी शक्ति को‌ जाग्रत करता है। एक ही योगासन में, एक प्रहर/3 घंटे (कम से कम दो घंटे) बाह्य केवल कुंभक प्राणायाम के साथ, स्थित होने से मोक्ष उपलब्ध होता है सक्षम योगी साधक को। * भगवती गंगा अपने वाहन मकर पर विराजती हैं स्वाधिष्ठान चक्र में, त्रिपथगामिनी है, इड़ा, पिंगला व सुषुम्ना नाड़ियों में, मोक्षदायिनी है अनाहत चक्र में। * गंगा योगी के भगीरथ प्रयत्न से व्योम से, शिव की जटाओं से, सुमेरु शीर्ष से, सहस्रार में प्रकट होती है, समाधि में, आनन्द कानन में। * परम् पुरुष के रूप में योगी शिवतत्त्व का बोध करता है, जिसके दो आयाम हैं, अनन्त और आनन्द, - अनन्त कालातीत है, कामनातीत है, गुणातीत है। - आनन्द इच्छा, ज्ञान और क्रिया वितान है। * योगेश्वर श्रीविष्णु के समस्त शरीर में व्याप्त है गंगा व उनके दाहिने पांव के अंगूठे से निसृत होती है, मोक्षदायिनी है। भगवान् श्रीराम ने अपने अंगूठे के स्पर्श से महर्षि गौतम की पत्नी अहिल्या का उद्धार किया था। * गंगा ब्रह्मदेव के कमंडलु में संकल्प शक्ति है, सरस्वती है, कामेश्वरि राजराजेश्वरि महात्रिपुरसुन्दरि है, ईक्षु धनुष व कामदेव के पंच बाण, पंच तन्मात्राएं, स्वर, स्पर्श, रूप, रस, गंध के संग। * नवनिधियां हैं, पद्म महापद्म नील मुकुंद नन्द मकर कच्छप शंख और खर्व, इन निधियों में गंगावाहन मकर मोक्ष प्रदान करता है। * हनुमान पुत्र है मकरध्वज, मकर (मत्स्य - शुक्राणु) + वानर (वायु - पुत्र), मकर गंगावाहक है मोक्षकारक ध्वज के रूप में, वायु तत्त्व/अनाहत चक्र में फहराता है। ✓✓ स्थूल रूप से गंगा नदी है, सूक्ष्म रूप से कुंडलिनी शक्ति है, कारण रूप से चैतन्य स्वरूप है। - गंगा की परिणति मोक्ष में है जहां आत्मबोध के साथ सक्षम योगी जीवन्मुक्ति रूपी अमृत फल का उपभोग करता है। #सुशील_जालान, 22.05.2022. 🐊 ------------ पुनः प्रेषित, 29.05.2023.🌹 ------------ दान, यज्ञ, तप, अपरा लौकिक ज्ञान आदि से पराध्यान-योग श्रेष्ठ है !! ८/६/२३ पूजिय विप्र सील गुन हीना शूद्र न गुन गन ग्यान प्रवीना क्या तुलसीदास इतने दलित विरोधी थे? इस पर ... यहाँ हम विप्र उसे कहेंगे जो वेदानुसंधान में संलग्न है। शूद्र वह है जो मात्र शरीर चेतना में संलग्न है। आप जब इसे प्रचलित जातियों में जोड़कर देखने लगते हैं, समस्या तब उत्पन्न होती है। आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धि: सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृति: स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्ष:। आहार की शुद्धि से सत्त्व की शुद्धि होती है, सत्त्वशुद्धि से स्मृति की शुद्धि होती है, वास्तविक ज्ञान प्राप्त हो जाता है, व उससे सारे बन्धन जिनसे आत्मा इस संसार में बंधा रहता है, वह सब कट जाते हैं। छान्दोग्योपनिषद इसमें विप्र का अर्थ आया है.... आज रात एक बड़ा सर्प स्वप्न में आया। वह बायीं बाजू में घुसकर चिपक गया। मैं देख रहा था वह डसता है या क्या करता है! वह शांति से चिपका था। मेरा ध्यान लग गया। थोड़ी देर बाद वह सर्प भी ध्यानस्थ हो गया। थोड़ी देर में नींद खुल गई। सुबह फिर ध्यान किया तो कूटस्थ में अपने गुरुदेव, रामकृष्ण परमहंस और भगवान शंकर और देवी देवताओं के विग्रह बनते और लुप्त होते रहे। ध्यान के बाद तो जैसे सर्प खड़ा होकर फ़ूत्कार मारता ही है। मूलाधार से सहस्रार पर्यंत यह दशा अनुभूत होती है। 11/6/23 गिरा का अर्थ वाणी है, क्योंकि यह कंठ से गिरती है। गीर्वाण का अर्थ भी गिरा से निकल रहा है, सुंदर या देवता। वर्णमाला के प्रत्येक वर्ग के अंत में अनुस्वार है। यह बिंदु ही मानो सब वर्णों को धारण किए हुए है। न् का अर्थ आत्मा, जो सतत प्रवाहित रहे। यह बिंदु ही सृष्टि के उन्मेष या वर्णमाला के विकास होने पर विसर्ग बनता है। वर्णमाला का अंत स पर है, यहीं से अ शुरू हो जाता है। ह् विसर्ग में भी अ है। अगर विसर्ग लगाकर ह् नहीं बोला जाय तो वह शक्ति का उत्फुल्ल रूप है। विसर्ग में वह विश्रांत होती है, वैसे ही जैसे संभोग के बाद कोई युगल विश्राम पाता है। न् में शिव ठहरते हैं तो ह् में शक्ति। १५/६/२३ श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्यः शृण्वन्तोऽपि बहवो यं न विद्युः।
आश्चर्यो वक्ता कुशलोऽस्य लब्धाश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः ॥ वह' (परतत्त्व) जिसका श्रवण भी बहुतों के लिए सुलभ नहीं है श्रवण करने वालों में से भी बहुत से लोग 'जिसे' जान नहीं पाते। 'उसका' ज्ञानपूर्वक कथन करने वाला व्यक्ति अथवा कुशलता से 'उसे' उपलब्ध करने वाला व्यक्ति होना एक आश्चर्यभरा चमत्कार है, तथा जब ऐसा कोई मिल जाये तो ऐसा श्रोता होना भी आश्चर्यपूर्ण है जो ज्ञानीजन से 'उसके' विषय में उपदेश ग्रहण करके भी 'ईश्वर' को जान सके। पता नहीं क्यों हमे लगता ये तुम भी जानो। हालाँकि तुम पहले से जानती हो। ठीक यह न भी जानती हो, पर तत्वबोध तो सम्यक् है ! यानि दूसरे को जनवाना अपना अज्ञान प्रदर्शित करना हुआ न! समान नागरिक संहिता तब तक लायी जानी समीचीन नहीं हो सकती जब तक कि हम अपने धर्म ग्रंथों का पाठ और उनकी व्याख्या समरूप कर उसी रूप में स्वीकार न कर लें। गीता की ही दर्जनों अलग-अलग व्याख्याएँ हुई हैं। किस व्याख्या में मानव हित शीघ्रता से सुलभ होता है, क्या हम यह ठीक से जान पाये हैं। रामचरितमानस जिसका प्रभाव बहुत अधिक उत्तर भारत के जनमानस पर है, उसके पाठ और व्याख्या में ही कितना अंतर मिलता है, जबकि यह कोई बहुत पुराना ग्रंथ नहीं है। भागवत् पुराण जो परमहंस संहिता है, उसका हिंदी पाठ ही अभी ठीक से होना शेष है। ऐसी स्थिति में हम आचार व्यवहार कैसे निर्धारित कर पायेगे। यह हिंदुओं के धर्मग्रंथों की स्थिति है, इस्लाम की भी कमोबेश यही स्थिति है, क़ुरान के कितने पाठ हुए। इन पाठों की बहुलता और विविधता के कारण इस्लाम मानने वालों के भीतर कितनी अलग-अलग परम्पराएँ और रीति रिवाज पाये जाते हैं। बाइबल और गुरुग्रंथ साहिब के मानने वाले भी अपने-अपने ढंग के हैं। सभी संप्रदायों का ऐसा पाठ तैयार हो जो भारतीय समाज में सर्वमान्य हो तभी समान नागरिक संहिता लाए जाने का औचित्य बनेगा। अगर हम यह कर सके तो यह बहुत बड़ा क्या सबसे बड़ा कार्य सिद्ध होगा। १७/६/२३ इंद्र व्यक्तिगत आत्मा को कहते हैं. वही सब देवताओं का अधिपति है. श्री अरबिंदो इंद्र को गिवर ओफ़ लाइट कहते हैं. यह व्यक्तिगत आत्मा जब दृश्य देखने का काम करती है तो उसे इंद्रिय कहते हैं. संस्कृत भाषा में इदं यह को कहते हैं द्र का अर्थ देखने से है, वह जो देखता है इंद्र कहलाता है. इदंद्र का संक्षिप्तीकरण इंद्र रूप में हुआ है. १८/६/२३ सृजन दृश्य है, जो अदृश्य में से होकर प्रकट होता है। मूर्तिकार पत्थर से मूर्ति तराश देता है। इस सृजन या निर्माण में वह पत्थर अदृश्य हुआ और मूर्ति दृश्य या सृजन हो गया। छांदोग्य उपनिषद् में ऊर्जा के अतिरेक को बल कहा गया है। इसकी उपासना पर यह उपनिषद् बल देता है बलमुपास्व। अथ यत्तपो दानमार्जवमहिँसा सत्यवचनमिति ता अस्य दक्षिणाः ॥ ४ ॥[86]

Now Tapas (austerity, meditation), Dāna (charity, alms-giving), Arjava (sincerity, uprightness and non-hypocrisy), Ahimsa (non-violence, don't harm others) and Satya-vacanam (telling truth), these are the Dakshina (gifts, payment to others) he gives [in life]. — Chandogya Upanishad 3.17.4 यो ह वै ज्येष्ठं च श्रेष्ठं च वेद ज्येष्ठश्च ह वै श्रेष्ठश्च भवति

When a man knows the best and the greatest, he becomes the best and the greatest. — Chandogya Upanishad 5.1.1 १९/६/२३ सहज सनेहँ स्वामि सेवकाई। स्वारथ छल फल चारि बिहाई॥
अग्यासम न सुसाहिब सेवा। सो प्रसादु जन पावै देवा।2॥ भावार्थ वह रुचि है- कपट, स्वार्थ और (अर्थ-धर्म-काम-मोक्ष रूप) चारों फलों को छोड़कर स्वाभाविक प्रेम से स्वामी की सेवा करना। और आज्ञा पालन के समान श्रेष्ठ स्वामी की और कोई सेवा नहीं है। हे देव! अब वही आज्ञा रूप प्रसाद सेवक को मिल जाए॥ २२/६/२३ गीता प्रेस का सम्मान... अब तो अन्य भारतीय भाषाओं में भी गीता प्रेस से भारतीय परंपरा की पुस्तकें छप रही हैं, पर हिंदी भाषा में विभिन्न शास्त्रों को अत्यंत कम मूल्य पर सतत रूप से भारतीय समाज को उपलब्ध कराते जाना गीता प्रेस की महनीय सेवा है। इस सेवा का मूल्य सरकार भी चुका नहीं सकती है। यह भी दिखता है कि गीता प्रेस से हिंदी अनुवाद के जो ग्रंथ निकले, वे उतने सटीक नहीं हैं, जितने उनके बाद के अन्य प्रकाशन/आध्यात्मिक संस्थानों से निकले उन ग्रंथों के अनुवाद हैं या जितना हमें दूसरी भाषाओं में प्राप्त होता है। किंतु इससे गीता प्रेस का जो महत्व और योगदान है, वह तनिक भी कम नहीं होता है। शास्त्रों को मूल और अविरल रूप में बिना वर्तनी दोष के प्रस्तुत करना ही बहुत बड़ा कार्य है। हिंदी जनमानस को वरना उन शास्त्रों का परिचय कैसे मिलता, जिनकी बार-बार आवृत्तियाँ छपती आयी हैं। शास्त्रीय महत्व की पुस्तकें लंबे समय तक प्रकाशित करने वाला खेमराज श्रीकृष्णदास बंबई का प्रेस बंद हो गया, या अब उसका पता नहीं है, पर गीता प्रेस बराबर चलता जा रहा है, बीच-बीच में उसके बंद होने की अफ़वाहजनक खबरों के बीच वह अस्तित्वमान है। वह संस्कृत भाषा ही नहीं अन्य भारतीय भाषाओं में निबद्ध शास्त्रों की प्रामाणिक व्याख्या और अलग-अलग अनुवाद छापता जाए, यही हम सबकी कामना है। आज भी हिंदी में शास्त्रीय ग्रंथों की अलग-अलग व्याख्याओं के अनुवादों की कमी बनी हुई है। अखंड ज्योति/गायत्री परिवार के प्रमुख डॉ प्रणव पंड्या जी ने भी राज्य सभा की सदस्यता लेना स्वीकार नहीं किया था। गीता प्रेस ने सम्मान लेना स्वीकार किया, पर एक करोड़ जैसी बड़ी पुरस्कार राशि नहीं। यह संस्थाएँ उन्हें आज बहुत याद आती हैं, जिनके जीवन में जब चारों तरफ़ घनघोर तमस् छाया था। इन्हें सम्मानपूर्वक याद करके हम मानो स्वयं उपकृत हो रहे हैं। कई बार लगता है गोरखपुर विलक्षण नगर है...गोरक्षनाथ पीठ, परमहंस योगानंद की जन्म स्थली और गीता प्रेस यह इसके स्थायी महत्व के अर्थात् अमर स्मारक हैं। गोरखपुर को जीवन में सबसे पहले गीता प्रेस के कारण ही जाना था। २३/६/२३ सेवा का व्युत्पत्तिगत अर्थ होगा वह ही। हम जो कर्म कर रहे हैं उसके लिए कर रहे हैं, केवन होना हमारे द्वारा हो रहा है, यही सेवा है। यह भाव बनने पर क्या करना है, कब करना है यह विचारणीय नहीं रह जाता है। गू शब्द कैसे बना होगा। गुरु में यह पहला अक्षर है। गु का अर्थ अंधकार है। अघोरी गू का भक्षण कर लेते हैं। अंधकार को निगलना और ज्ञान को प्रकाशित करना यह गुरु का अर्थ और प्रकार्य है। २४/६/२३ हाँग सौ नाम ही है। चाहे कोई नाम लें राधा/राम/शिव/ॐ/कृष्ण... श्वास में काम के बीच हाँग सौ की याद आ जाती है। यह अखंड हो जाये बस। वैसे स्वप्न में सोते हुए भी याद आती है और सघन हो जाए। पूरे व्यक्ति के लिए हर जगह तीर्थ है, हर समय मुहूर्त है और हर कृत्य पूजा है। मंगलं मंगलं🌹🌹 २५/६/२३ The Panchagni-Vidya is a meditation,—it is not an outward ritualistic sacrifice; it is a contemplation by the mind in which it harnesses every aspect of its force for the purpose of envisaging the reality that is transcendent to the visible parts of this inner sacrifice. the Panchagni-Vidya is a kind of remedy prescribed by way of a meditation which is regarded as a great secret by the Upanishadic teachers. Even if you hear it being expounded once, you will not be able to understand much out of it. It does not mean that you will get out of the law of Nature merely by listening to what the king appeared to have said, because they are secrets bound up with one’s own personal life. Based on this concept of the relationship of our life with the activity of Nature outside, the Upanishad tells us that our actions are like an oblation offered in a sacrifice. Our activities are not mere impotent movements of the physical body or the limbs; they are effective interferences in the way of Nature. When we pour ghee or charu into the flaming fire in a sacrifice, we are naturally modifying the nature of the burning of the fire. Much depends on what we pour into it. If we throw mud into it, well, something, indeed, happens to the fire. If we pour ghee into it, something else happens. So, likewise, is the activity of the human being or, for the matter of that, any other being. The interference by a human activity in the working of Nature is an important point to consider in the performance of the sacrifice. If we coordinate ourselves and cooperate with the activity of Nature, it becomes a yajna, but if we interfere with it and adversely affect its normal function, it will also set up a reaction of a similar character. Then, we would be the losers. The first oblation is the universal vibration in the celestial heaven; that is the first sacrifice, and that is the first oblation. The second oblation is in the second sacrifice which is the reverberation of the vibrations in the celestial region felt in the lower regions of the atmosphere, as the fall of the rain. The grosser manifestations which are the events that take place in this world are the third oblation. The fourth sacrifice is of man himself, who is involved in this entire activity, who consumes the food of the world and energises himself and produces virility. The fifth oblation is woman whose union with man brings about the birth of a child. These are the Five Fires. one who knows these Five Fires is free. It is difficult to know these Fires unless we live a life of meditation. Your whole life should be one of meditation. Perpetually, we must be seeing things in this light only. Our meditation should not mean merely a little act of half-an-hour’s closing of the eyes and thinking something ethereal. It is a way of living throughout. When you see a thing, you see only in this way; when you speak, you speak from this point of view; when you think, this is at the background of your thought. So, you cease to be an ordinary human being when you live a life of this Upanishad. The knower becomes coextensive with the way in which Nature works in all its ways. And everything is Nature working in some way, the desirable as well as the undesirable, as we may call it. We become commensurate with the way in which Nature works in every way because of the meditation conducted in this manner. Thus, we cannot be harmed by any atmosphere, by anyone or by anything that is around us. On the other hand, perhaps, we may be able to influence. positively the atmosphere in which we are living. “One who knows this,” reaches the higher realms reached only by meritorious deeds; “ya evam veda”; yea, “One who knows this.” २७/६/२३ ध्यान के बाद इस कविता के शुरुवाती बोल याद आये स्नेह-निर्झर बह गया है ! रेत ज्यों तन रह गया है । आम की यह डाल जो सूखी दिखी, कह रही है-"अब यहाँ पिक या शिखी नहीं आते; पंक्ति मैं वह हूँ लिखी नहीं जिसका अर्थ- जीवन दह गया है ।" "दिये हैं मैने जगत को फूल-फल, किया है अपनी प्रतिभा से चकित-चल; पर अनश्वर था सकल पल्लवित पल-- ठाट जीवन का वही जो ढह गया है ।" अब नहीं आती पुलिन पर प्रियतमा, श्याम तृण पर बैठने को निरुपमा । बह रही है हृदय पर केवल अमा; मै अलक्षित हूँ; यही कवि कह गया है । २८/६/२३ नाम-स्वाँस दोउ विलग चलत हैं, इनकौ भेद न मोकौं भावै॥
स्वाँसहि नाम नाम ही स्वाँसा, नाम स्वाँस कौ भेद मिटावै। रोम रोम जब रग रग प्रगटे तब कछु स्वाद नाम को पावे
बाहिर कछु न कछू तब भीतर, जिय और नाम एक ह्वै जावै॥
तब निज रूप नाम कौ प्रगटै, तन में श्री वन सहज दिखावै। भोरी सखी संसार परिणाम में दुःख ही देता है। क्रिया का परिणाम सुख है। क्रिया अपने भीतर है। अपने भीतर सुख होने से बाहर सुखाभास होता है, इसे संसार में पाने का हर प्रयास निष्फल जाता है। आदमी का अर्थ है जो दम यानी श्वास से चलता हो। व्यक्ति वह जो व्यक्त होता है। मनुष्य मन से संचालित हो रहा है। Man में भी मन या mind झांकता है। 30/6/23 अपनी बात लिखने में आत्म झांकता है और स्वयं को छिपाना मानव स्वभाव है। इसलिए व्यक्ति दूसरे की बातों के जरिये काम चलाते रहते हैं। पुरानी फ़ेसबुक पोस्ट