Sunday, May 21, 2017

साँस साँस में बांस

हर साँस में बांस
डॉ राकेश नारायण द्विवेदी
बांस घास परिवार (हतंउपदंम िंउपसल) का एक अत्यंत उपयोगी पौधा है, जो अपने कुल के साथ सदा हरा-भरा बना रहता है। घास की ही तरह यह तेजी से बढ़ता है और दुनिया में अंटार्कटिका को छोड़कर हर महाद्वीप में पाया जाता है।
रोचक तथ्य-
विश्व भर में सौ करोड़ से अधिक लोग बांस से बने घरों में रहते हैं।
जापान में हुए परमाणु विस्फोटों के बाद बांस ही सबसे पहले उगा।
एलेक्जेंडर ग्राहम बेल से पहले फोर्नोग्राफ की सुई बांस से बनाई गयी थी।
थॉमस अल्वा एडिसन के पहले सफल लाइट बल्ब में बांस के फिलामेंट का उपयोग किया गया था।
बांस से बना हुआ खिलौना ’ड्रैगन फ्लाई’ आधुनिक हेलीकाप्टर का जनक माना जाता है।
बांस स्टील से भी ज़्यादा मज़बूत होता है।
बांस में फोटोसिंथेसिस की प्रक्रिया विश्व के किसी भी पौधे से अधिक होती है।
बांस किसी अन्य पौधे से दो तिहाई अधिक कार्बन डाई ऑक्साइड सोखता है और दो तिहाई अधिक ऑक्सीजन उत्सर्जित करता है।
बांस गर्मी में ठंडक एवं सर्दी में गर्मी का अहसास देता है।
बांस की पत्तिया हाथी और चीन में बहुतायत में पाये जाने वाले पांडा जानवर का प्रिय भोजन है।
अपने लचीलेपन की वजह से बांस भारी तनाव सहन कर सकता है। भूकंप के समय इसका अच्छा उपयोग हो सकता है।
बांस की कुछ प्रजातियां 150 फ़ीट या किसी 10 मंजिला इमारत की ऊंचाई तक बढ़ सकती है।
बांस का एक भिर्रा पांच वर्ष में लगभग 200 बांस देता है। इमारती लकड़ी के स्थान पर बांस का उपयोग करने से प्राकृतिक वनो को बचाया जा सकता है।
बांस का पौधा भूमि संरक्षण का कार्य करता है,
यह भूमि के कटाव को रोकता है।
बांस 100 प्रतिशत सड़नशील (बायोडिग्रेडेबल) उत्पाद है।
बांस की जड़ें भूमि एवं जल से प्रभावी रूप से धातुओ को अवशोषित कर प्रदुषण नियंत्रित करती हैं।
बांस के लगभग 1500 दस्तावेज़ी उपयोग हैं।
बांस सभी तरह की मिटटी जैसे दोमट, मुर्मीली, लैटेरिटिक, लाल पीली, कंकरीली, पथरीली और काली मिटटी में आसानी से उगाया जा सकता है, जिसमे नमी की पर्याप्त मात्रा हो।
बांस एक बार स्थापित हो जाने के बाद मरता नहीं है, जब तक कि वह अपनी आयु पूरी न कर ले। बांस की आयु 32 वर्षबसे लेकर 48 वर्ष मानी गयी है।
बांस एक दिन में 6 इंच से लेकर 1 मीटर तक बढ़ जाता है और यह एक माह के भीतर पूरी लंबाई ग्रहण कर लेता है।
बांस को उगाने के लिए किसी कीटनाशक या फंफूदीनाशक की आवश्यकता नहीं होती।
बांस को चौथे वर्ष से काटकर प्रतिवर्ष बांस प्राप्त किया जा सकता है।
बांस के पौधे का हर हिस्सा उपयोगी है। इसका हर हिस्सा किसी न किसी रूप में उपयोग किया जा सकता है।
एक अनुमान के अनुसार विश्व अर्थव्यवस्था में बांस का योगदान 12 अरब अमेरिकी डॉलर से अधिक है, जिसमे विकासशील देश अग्रणी है। बांस की प्राकृतिक सुंदरता के कारण इसकी मांग सौंदर्य एवं डिज़ाइन की दुनिया में तेजी से बढ़ती जा रही है। ऐसी कई नवीनतम प्रौद्योगिकियों का विकास हुआ है, जिससे लकड़ी के उपयोग को बांस द्वारा प्रतिस्थापित किया जा सके।
बांस का सांस्कृतिक महत्व- भारत में बांस का सांस्कृतिक महत्व है। बांस से बने बर्तनों का उपयोग भारत के विभिन्न तीज त्योहारों पर होता है। हरे बांस का प्रयोग हिंदुओं के विवाह समारोहों में अवश्यमेव किया जाता है। हिंदी क्षेत्र में ’हरा बांस’ भावनाप्रवण पद है। हरे बांस के मंडप के नीचे विवाह समारोहों के अतिरिक्त अन्य शुभ कार्य भी संपन्न होते हैं। बुन्देलखंड में हरे बांस के मंडप को कहने भर से श्रोता के मन में विवाह समारोह का पूरा चित्र उतर आता है। हरा रंग भारतीय संस्कृति में भरा-पूरा होने का प्रतीक है। बांस की प्रकृति ऐसी है कि यह बिना प्रयास बढ़ता जाता है। इसीलिए यह वंश वृद्धि का प्रतीक और शुभ संस्कारो में अपरिहार्य प्रयोग से  माध्यम बना हुआ है। बांस एक गांठ से दूसरी गांठ एवं एक पोर से दूसरी पोर तक श्रृंखलाबद्ध रहता है। इस रूप में यह भारत की एकसूत्रता का उदाहरण बन जाता है। बांस का प्रत्येक हिस्सा किसी न किसी उपयोग में आता है। इससे यह जन-मन में अपनी उपयोगिता को तो दिखाता ही है, भारत के जन गण मन की एकलयता और सार्थकता इस प्रतीक में निबद्ध है। बांस जब पक जाता है, तब अत्यंत महत्वपूर्ण औषधि इससे निसृत होती है, जिसे वंशलोचन कहते हैं। यह कई पुराने और गंभीर रोगों में उपयोगी है। इसका प्रतीकार्थ है कि जो व्यक्ति अनुभवसम्पन्न हो गया या वृद्धावस्था को प्राप्त हो गया, वह हमारे लिए अधिक ग्राह्य है। बांस से सूप बनता है, जिसे बुंदेलखंड में सूपा कहा जाता है। सूप से हमें अनाज के सारतत्व को ग्रहण करने में मदद मिलती है। कबीरदास के एक दोहा में साधू का स्वभाव सूप की भांति कहा गया है-
साधू ऐसा चाहिए जैसे सूप सुभाय।
सार सार को गहि रहे थोथा देय उड़ाय।।
बांस के सम्बन्ध में कई लोकृतियां प्रचलित हैं। कहते हैं, बांस का पौधा घर में नहीं लगाना चाहिए, इससे दरिद्रता आती है। बांस को जलाने का भी निषेध किया गया है, क्योंकि मृत्युशय्या बांस के सरकंडों पर जाती है। दाह संस्कार में कपाल क्रिया करने के लिए बांस का प्रयोग होता है, पर इसे जलाया नहीं जाता।
देश ही नही, विदेशो में भी बांस को सकारात्मक ऊर्जा का स्रोत माना गया है। बांस को ज्ञान का प्रतीक भी माना जाता है। अपनी प्रकृति से बांस यह सन्देश देता है कि जीवन में जब भी मुश्किल दौर आये तो थोडा झुककर विनम्र बन जाना, लेकिन टूटना नहीं, क्योंकि बुरा दौर निकलने पर पुनः अपनी स्थिति में दोबारा पहुच सकते हो। बांस न केवल हर तनाव को झेल जाता है, बल्कि वह उस तनाव को अपनी शक्ति भी बना लेता है और ऐसे में वह दोगुनी शक्ति से ऊपर उठता है। तनाव से निपटने का यह सुन्दर सन्देश हमें बांस के माध्यम से मिलता है, जिससे वर्तमान सामाजिक परिवेश कुछ ज़्यादा ही संत्रस्त है। बांस के लचीलेपन से हमें और एक सन्देश मिलता है कि तेज हवाएँ बांसों के झुरमुट को झकझोर कर उखाड़ने की कोशिश करती हैं, तदपि वह आगे पीछे डोलने के बावजूद मज़बूती से धरती में जमा रहता है।
फेंगशुई में लंबी आयु के लिए बांस के पौधे बहुत शक्तिशाली प्रतीक माने जाते हैं। यह पौधा अच्छे स्वास्थ्य का प्रतीक है। यह अच्छे स्वास्थ्य का भी संकेत देता है। चीन में बांस के पौधे का वैसा ही महत्व है, जैसा भारत में पीपल के पेड़ का महत्व माना जाता है। बांस का पेड़ विद्युत् यंत्र का काम करता है। जहाँ यह पौधे लगे होते हैं, वहां आकाशीय बिजली गिरने की संभावना कम हो जाती है।
मिज़ोरम से 2005 में एक समाचार आया था कि बांस के बीजो का सेवन करने से वहां के संतानहीन ईसाई दंपत्ति के यहाँ बच्चा उत्पन्न हुआ। सौ ग्राम बांस के बीज में 60.36 ग्राम कारबोहाईड्रेट और 265.6 किलो कैलोरी ऊर्जा रहती है। पूर्वोत्तर के राज्यों में बांस के बीजो का अचार भी खाया जाता है। बसोर अनुसूचित जातियों में से एक है, जो बांस के शिल्प से अपना आजीविका निर्वाह परंपरा से करती आई है। बांस के शिल्पकार होने के कारण ये अपने नाम में वंशकार जोड़ते हैं।
बचपन में भगवान कृष्ण अपने पास बांसुरी रखते थे। बांस द्वारा विशेष प्रकार से निर्मित करने के बाद सुर निकलने के कारण इसे बांसुरी कहा गया। संभवतः आसुरी शक्तियों के भय से बचना कृष्ण द्वारा बांसुरी रखने का उद्देश्य था। आसुरी शक्तियों को कमज़ोर करने एवं उन पर विजय पाने में बांसुरी द्वारा उत्पन्न सकारात्मक ऊर्जा से कृष्ण को मदद मिलती थी। भारतीय वास्तु विज्ञान में बांस को शुभ माना गया है। माना जाता है कि बांस का पौधा जहाँ होता है, वहां बुरी आत्माएं नहीं आती हैं। विवाह, जनेऊ, मुंडन में बांस की पूजा एवं बांस का मंडप बनाने के पीछे यही कारण है।
बांस की दिव्यता और उसके उपयोग के कारण पर्यावरणविद् इसे ’हरा सोना’ भी कहते हैं। बांस की प्रचुर उपलब्धता और उसके सांस्कृतिक महत्व के कारण देश के बहुत से स्थानों के नाम बांस पर रखे गए हैं। चीन में बांस की कोपलें लोगो की पसंदीदा सब्जी है।
आश्चर्य है कि बांस को वनस्पति विज्ञान स्पष्ट रूप से घास मानता है, उसे भारत सरकार स्वतंत्रता के छह दशक बाद तक लकड़ी पेड़ ही मानती रही। भारतीय वन अधिनियम बांस को लकड़ी मानता रहा, जिसके कारण इस पर वन विभाग का अधिकार रहा। वन विभाग की अनुमति के बिना बांस की खेती करने वाले किसान भी इसे काट नहीं सकते थे। बांस की ऐसी विडम्बना पर राजेश्वर दयाल पाठक की यह कविता सटीक बैठती हैं-
हम तो बांस हैं,
जितना काटोगे,उतना हरियायेंगे.
हम कोई आम नहीं
जो पूजा के काम आयेंगे
हम चंदन भी नहीं
जो सारे जग को महकायेंगे
हम तो बांस हैं,
जितना काटोगे, उतना हरियायेंगे.
बांसुरी बन के,
सबका मन तो बहलायेंगे,
फिर भी बदनसीब कहलायेंगे.
जब भी कहीं मातम होगा,
हम ही बुलाये जायेंगे,
आखिरी मुकाम तक साथ देने के बाद
कोने में फेंक दिये जायेंगे.
हम तो बांस हैं,
जितना काटोगे ,उतना हरियायेंगे.
हम तो बांस हैं,
जितना काटोगे
लेकिन अब जाकर केंद्र सरकार ने राज्यों के मुख्यमंत्रियों को लिखा है कि बांस घास है, लकड़ी नहीं। अब इस पर किसानो का अधिकार हो गया है। एक अध्ययन के अनुसार बांस देश के पांच करोड़ ग्रामीणों को रोज़गार दे सकता है। देश में बांस की लगभग 66 प्रतिशत पैदावार पूर्वोत्तर के राज्यों में होती है।
पहला वैश्विक बांस सम्मलेन 2016 में मध्य प्रदेश के इंदौर में हुआ। गौरतलब है कि भारत के वन क्षेत्र का 13वां हिस्सा बांस वन है।
बांस लंबाई नापने का भी एक माध्यम रहा है। कहा गया है-
चार बांस चौबीस गज अंगुल अष्ट प्रमाण।
ता ऊपर सुल्तान है मत चूको चौहान।।
29 जून 2016 को आईबीएन से एक खबर आई थी कि जापानियों ने बांस की एक कार बनाने का कारनामा कर दिखाया। ओशो रजनीश कहते थे- ’एक खोखले बांस के समान अपने शरीर के साथ सहजता के साथ विश्राम करो। अनुभव करो कि तुम एक बांस हो। अंदर एकदम खोखला और खाली। अचानक तुम्हारे अंदर अनंत ऊर्जा प्रवाहित होने लगती है। तुम अज्ञात से, रहस्यमयता से, दिव्यता से भर उठते हो। एक खोखला बांस बांसुरी बन जाता है और दिव्यता इसे बजाती है। खोखला बांस यानि कोई कामना नहीं। तब तुम मुक्त हो।’
बांस पर भावपूर्ण लोकगीतों से प्रेरणा पाकर अमीर खुसरो ने यह क़लाम लिखा होगा-
हरे हरे बांस कटा मोरे अंगना नीका मंडा छबाओ रे।
पर्वत बांस मंगा मोरे बाबुल कानू मंडा छबाओ रे।
सगरे नजूमी जोतिसी बाबुल सबको भेज बुलाओ रे।
जैसी लाड़ली बिटिया रे बाबुल वैसा ही दाज रचा रे।
मांडे ऊपर कलश बिराजे देखे राजा रावरे।
घोड़े हाथी सूहा दीना बाबुल दिल दरियाव रे।
एक न दीनी सर को री कंघी मोरी सास बोलत बोल रे।
सोना भी दीना रूपा भी दीना दीना छतर चढाव रे।
यह एक यूँ तो शादी गीत है, जिसे पाकिस्तानी गायको - रिज़वान-मुअज़्ज़म तथा शाज़िया मंज़ूर ने सुन्दर ढंग से गाया है, पर गीत के शब्दों को बिगाड़ दिया है। अवधी भाषा में यह गीत है, पर गीत के कुछ हिस्सों को उन्होंने जिस तरह गाया है, उसका अर्थ ही नहीं निकलता। ऊपर मूल भावना को सुरक्षित कर इसे परिष्कृत रूप में दिया गया है। इस गीत का आध्यात्मिक अर्थ भी है। इसमें अमीर खुसरो ने स्वयं को एक लड़की माना है, जिसकी शादी हज़रत निजामुद्दीन औलिया से होनी। सुविदित है कि औलिया साहब उनके गुरु थे। शादी के बाद कहीं दूर आध्यात्मिक दुनिया में वे चले जायेगे। खुसरो इसीलिए शादी की अच्छी तैयारी कर लेना चाहते हैं, जिससे वह मरने से पहले आध्यात्मिक दुनिया में रच बस जाएँ।
हरे बांस को लेकर हज़ारो वर्षो से अपने यहाँ प्रायः हर बोली-भाषा में गीत मिलते हैं। बुन्देली गीत है-
हरे बांस मंडप छाये सियाजु खां राम ब्याहन आये। हरे बांस,,,,
जब सियाजु की लिखती लगुनिया रक़म रक़म कागज़ आये। हरे बांस...
जब सियाजु के होत हैं टीका ऐरावत हाथी आये। हरे बांस...
जब सियाजु के चढत चढ़ाये नीक नीक गहने आये। हरे बांस..
जब सियाजु की परती भांवरे ब्रह्मा पंडित बन आये। हरे बांस...
जब सियाजु की होत बिदा है सब सखियन आंसू ढाये। हरे बांस...
बांस का सम्बन्ध लोक से अधिक है। यह शास्त्रीयता से बहुत दूर है। लोक कैसे शास्त्र में ढलता है, बांस उसका सबल उदाहरण है। लोकोपयोगी बांस मांगलिक अवसरों पर ही नहीं प्रयोग होता, मारने पीटने और अर्थी बनाने जैसी दुखद स्थितियों का भी वह माध्यम है। ’बांस की फांस’ शरीर में फंस जाती है और ’फटा बांस’ बहुत चुभता है तो बांसुरी के रूप में यह मोहक सुर भी देता है। यह किसान और मजदूर की आय का माध्यम है तो वृद्ध की लाठी तो प्रत्यक्ष ही है। यह शिशु को आराम देने वाली ‘दौरिया’ है और विवाह के मंडप में काम आता है तो अर्थी के रूप में यह हमें अंतिम यात्रा तक ले जाता है। बांस गरीब का ‘बिजना’ याने व्यजन - पंखा है और उसकी झोपडी का आधार है तो मठाधीशों की कुर्सी का आसन भी। वह शासन का डंडा है तो संन्यासी का दंड भी। बांस के बहुत रूप हैं, परस्पर विरोधी भी। इस प्रकार यह हमारे लोक की साँस साँस में बसा हुआ है।
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