Friday, April 1, 2022

मार्च २०२२

१/३/२२ यत्र सोsस्तमयमेति विवस्वान्श्चंद्रमा-प्रभृतिभिः सह सर्वैः कापि सा विजयते शिवरात्रि स्वप्रभाप्रसरभास्वररूपा! शिवस्तोत्रावली ४/२२ जिस अवस्था में 'सूर्य' अर्थात् प्राण प्रवाह और 'चंद्रमा' अर्थात् अपान प्रवाह सारे 'तारामंडल' अर्थात् विकल्प परंपराओं समेत अस्त हो जाते हैं, उसी अवर्णनीय एवं अपनी हाई चितप्रकाशमयी आभा के विस्फ़ार से चमकती हुयी शिवरात्रि की जय जयकार हो.. रात्रि समस्त व्यापार जगत् को समेट लेती है. इसी तरह सारी अख्याति या अविद्या का संहरण करने से इसे रात्रि कहते हैं. मंगलमय होने से इसे शिवरात्रि कहते हैं. शिवरात्रि यानि शिवसमावेशभूमि wonderful blissful night. विवस्वान् sun-inhaling breath, चंद्रमा मून- exhaling breath अस्तमयं एति has set or absorbed through the junction (संधि). यह संधि या शिवरात्रि भी संक्रांति की भाँति हर माह होती है, पर आज महाशिवरात्रि है, इसे शिव और शक्ति के विवाह के तौर पर भी लिया जाता है. यह विवाह यानि उक्तवत संधि ही है. इस संधि को उपलब्ध हुए व्यक्ति के लिए हर समय शिवरात्रि है. अस्तु! अंतरुल्लसदच्छाच्छभक्ति पीयूष पोषितम्. भवत्पूजोपयोगाय शरीरमिदमस्तु मे.. Call Me by My True Names Thich Nhat Hanh Do not say that I'll depart tomorrow because even today I still arrive. Look deeply: I arrive in every second to be a bud on a spring branch, to be a tiny bird, with wings still fragile, learning to sing in my new nest, to be a caterpillar in the heart of a flower, to be a jewel hiding itself in a stone. I still arrive, in order to laugh and to cry, in order to fear and to hope. The rhythm of my heart is the birth and death of all that are alive. I am the mayfly metamorphosing on the surface of the river, and I am the bird which, when spring comes, arrives in time to eat the mayfly. I am the frog swimming happily in the clear pond, and I am also the grass-snake who, approaching in silence, feeds itself on the frog. I am the child in Uganda, all skin and bones, my legs as thin as bamboo sticks, and I am the arms merchant, selling deadly weapons to Uganda. I am the twelve-year-old girl, refugee on a small boat, who throws herself into the ocean after being raped by a sea pirate, and I am the pirate, my heart not yet capable of seeing and loving. I am a member of the politburo, with plenty of power in my hands, and I am the man who has to pay his "debt of blood" to, my people, dying slowly in a forced labor camp. My joy is like spring, so warm it makes flowers bloom in all walks of life. My pain is like a river of tears, so full it fills the four oceans. Please call me by my true names, so I can hear all my cries and laughs at once, so I can see that my joy and pain are one. Please call me by my true names, so I can wake up, and so the door of my heart can be left open, the door of compassion. श्रीमद्भागवत जैसे सर्वाधिक महत्वपूर्ण पुराण में प्रह्लाद और हिरण्यकशिपु की कथा सातवे स्कंध के कई अध्यायों में वर्णन है, पर इसमें होलिका का नाम भी नहीं। कृत्या राक्षसी का उल्लेख इसमें है, पर होलिका जैसी कथा कृत्या के बारे में यहाँ नहीं है। भारत रत्न डॉ पी वी काणे ने अपने धर्मशास्त्र का इतिहास में भी होलिका नामक वरदान प्राप्त स्त्री का उल्लेख नहीं किया। यद्यपि होली पर्व ईसा की कई शताब्दियों पूर्व से ही मनाये जाने के प्रमाण मौजूद हैं। जैमिनी के मीमांसा सूत्र (400-200 ईसा पूर्व की रचना) और काठक गृह्य में इसे होलाका कहा गया, होला अन्न को भी कहते हैं। होरा ज्योतिष गणना में प्रयुक्त होता है. पर यहाँ उसका अर्थ अहोरात्र या दिनरात की गणना से है. भविष्यपुराण की कथा है कि एक ढोंढी नामक राक्षसी को शिव के वरदान से देव और मानव नहीं मार सकते थे, वह केवल बच्चों से डरती। तब फाल्गुन पूर्णिमा को लकड़ी से जलाकर इस राक्षसी का अंत किया गया। बंगाल में होलिका दहन नहीं होता, वहां इस दिन कृष्ण प्रतिमा की दोल (झूला) यात्रा निकलती है। अपनी अपनी परम्परा के अनुरूप यह पर्व मनाया जाता है। होली के अवसर पर दुश्मनी खूब निकालते रहे हैं. वैर भाव का विरेचन भी होता आया है. सबको हार्दिक शुभकामनाएं। फ़ेसबुक पोस्ट ३/३/२२ हम जितना चाहते हैं उतना जान नहीं पाते, जितना जानते हैं उतना बोल नहीं पाते, जितना बोलते हैं उतना कर नहीं पाते, जितना करते हैं उतना हो नही पाता और जितना होता है उसमें संतुष्ट नही रह पाते. इस असंतुष्टि के कारण हम और और नया नया चाहते रहते हैं. यह शृंखला ही संसार का सृजन करती है. यह सब करने में व्यक्ति अपमान और अभिमान में डूबे रहते हैं. बिना किए व्यक्ति रह नही सकता, क्योंकि आनंद पाना उसका मूल स्वभाव है, मनुष्य इस कार्यसंपादन में उक्त व्यतिक्रम के कारण कष्ट उठाता रहता है. संगति उससे एकाकार होने और तादात्म्य स्थापित करने में है. उसकी इच्छा में अपने कर्म को सार्थक करने में है. अन् में अ और न् दो वर्णों का योग है. अ प्रारंभ को कहते हैं. अ अनुत्तर दशा है इसलिए इसका प्रयोग न के अर्थ में होता है, साथ ही वह उत्तर दशा का प्रारंभ भी है. न् ब्रह्मांडीय जल की श्वास का नाम है. प्राण श्वास से जोड़कर चलें तो जल तत्व से प्राण का प्रारंभ माना जाएगा. जल अग्नि में नहीं है, किंतु जल में अग्नि है, इसी तरह वायु और आकाश में भी जल नहीं है, पर जल में ये तत्व उपस्थित हैं. प्राण रूप, स्पर्श और शब्द में हैं, पर उनकी स्थिति पृथ्वी से ऊपर की है. बात अन्न की करने के लिए अन् का उल्लेख हुआ. अन्न का अर्थ है जीवनी शक्ति. अन्न शब्द में यह अन् उल्टे क्रम में भी संयुक्त है अर्थात् अन्न में जीवनी शक्ति आगे-पीछे सभी क्रमों में विद्यमान है. हम अन्न ग्रहण करते हैं, साथ ही दूसरे प्राणियों का आहार भी बनते हैं. इस प्रकार अन्न भोज्य और भोक्ता दोनों है. अस्तु! भोज्य और भोक्ता की इस भुक्ति को देखते रहिए.... बहिर्मुख चेतना मन है, पर वही चेतना जब लौटकर अंतर्मुख होती है तो उसे नमः कहते हैं. मन ही नमः हो जाता है. अतः नमः का अर्थ है मुझमें लौट आना. प्रिया! नमन में हम अपनी ही बुद्धि, मन और आत्मा को प्रणाम करते हैं🙏 करुणा किसी के आंसू पोंछने भर को नहीं कहते, वरन् यह उन आंसुओं में भागीदार बनने की भावना है. करुणा रहम, दया, परोपकार या सहानुभूति नहीं है, अपितु यह पीड़ाजन्य प्रेमोदय है, जिसमें दृष्टि का अनंत विस्तार है. बस करुणा में पीड़ा है और प्रेम में आनंद है. करुणा में दुःख देने वाले के प्रति भी दया होती है, क्योंकि दुःख पाने वाला कर्मफल भोग कर रहा है, पर दुःख देने वाला कर्म संचय कर रहा है..., ४/३/२२ वीरभोग्या वसुंधरा! बलमुपास्व! नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः... आधिभौतिक कष्टों को दूर करने के लिए बल चाहिए, आधिदैविक दुखों से निवृत्ति के लिए भी संसाधन जुटाने ज़रूरी हैं, इसके लिए भी बल आवश्यक है. इनके बाद आध्यात्मिक कष्टों का निवारण करना है तो पहले दो से होकर गुजरना पडेगा, यहाँ पहुँचकर बल और सत्य एक हो जाते हैं. यहाँ बल अप्रासंगिक हो जाता है या वह अविभाज्य हो जाता है. व्यक्ति को बिना इन तीनो दुखों के निवारण के विश्राम प्राप्त होना संभव नहीं है... जब दो पक्ष या व्यक्ति लड़ रहे हों तो वे ही उसे शीघ्रता से और अच्छे ढंग से सुलटा सकते हैं. न्याय की आशा शक्ति के उपयोग और दुरुपयोग के बीच से होकर गुजरती है. हिंसक युद्ध का परिणाम विजय और पराजय में नहीं शोक में प्रकट होता है. शक्ति अगर शिव सायुज्य न हुयी तो दुःखद संहार ही होता है. जीवन अपने आप में आनंद प्राप्ति का प्रेममय संघर्ष है, पर विपक्ष बनाकर हिंसा और प्रतिहिंसा करके लड़ना उसकी आदिम मनोवृत्ति का पुनरोदय है. मनुष्येतर प्राणी अधिकार भावना के कारण हिंसा नहीं करते. कतिपय प्राणियों की हिंसा उनके आहार भर के लिए होती है. हाँ कुछ साँड़ यूँ भी यदा-कदा अपनी ज़ोर आज़माइश कर लेते हैं. मनुष्य ने न्याय पाने की कितनी प्रणालियाँ विकसित की हैं, क्या इन युद्धरत देशों के लिए उन सबसे कोई उम्मीद नहीं. इस हिंसा और प्रतिहिंसा का अंत शोक में ही होना है... ५/३/२२ अनंत का सुख इतना है कि कभी तृप्ति नहीं होती. सरदार पूरन सिंह की स्वामी राम जीवन कथा पढ़ी तो स्वामी रामतीर्थ मिशन की अन्य पुस्तकें जो स्वामी राम के व्याख्यानों के संकलन हैं वे भी आ रही हैं. गोपीनाथ कविराज की पुस्तकें स्वसंवेदन. मृत्यु विज्ञान, परातंत्र साधना पथ इत्यादि आ रही हैं, क्या अच्छा समय बीतेगा. ध्यान के बाद गुरुजी की चैंट्स मंत्र की तरह उठती हैं. यह चैंट्स साधारण गीत या भजन नहीं हैं. समाधि की दशा में यह मंत्रों का असर करती हैं, अन्य कोई मंत्र जानने की ज़रूरत नहीं रह जाती. तुझे पाया प्रभु मन सीमा पर अपनी. छुपो न भग़वन न अब छुपो न . छोड़ो न भग़वन छोड़ो न. ६/३/२२ everything is fare in war and love. यह दरअसल सर्वोच्च तल की सच्चाई है...वहाँ पहुँचकर हुए प्रेमोदय में जीवन संग्राम में सब मरते जीते रहते हैं.. ध्यान में चैंट्स गले से और नाक से ही नही गायी जाती, वरन शरीर का पोर-पोर इसे गाने लगता है और अंत में आंसू भी गाने लगते है, फिर नीरवता गाती है और गान स्वयं ही गाता रहता है. divine gurudeva. I came alone, I go alone, with Thee alone with Thee alone.गुरुदेव ७/३/२२ ....जहां गंगा, वन, हिमालय की कंदराएँ एवं मानव आत्मा का स्वप्न देखते हैं, मैं धन्य हुआ, मेरी काया ने वहाँ का स्पर्श किया...my india मनुष्य परमेश्वर के मन का मूर्त रूप है- गुरुदेव ८/३/२२ एक अपने स्वामी या दाता को पति तो दूसरी पिता मानती/मानता है, तीसरी/तीसरा मित्र मानता है. किसमें निकटता है उसमें जिसमें दोनों के संबंधों में प्रगाढ़ता है, समर्पण है. कोई काम करते समय या ख़ाली क्षण में अकस्मात् हांग सौ होने लगता है. इसमें श्वास रहितता का आनंद मिलने लगता है. यानि श्वास रहित होने को अभिधा में नहीं लिया जाना चाहिए. कश्मीर दर्शन में इसे प्रत्यभिज्ञा कहा गया है. ११/३/२२ घृणा, लज्जा, भय, शोक, जुगुप्सा, जाति का अभिमान, कुल का अभिमान तथा आत्माभिमान यह आठ पाश (बंधन) हैं। जिनका पति यानि धारक मनुष्य है। पशुपति (मनुष्य) के और पशुओं के भी नाथ यानी भगवान शिव की आज की रात्रि, जिनका रुद्र रूप संहारक हैं और शिव रूप कल्याणक हैं। यह दोनों अलग नहीं। वह आशुतोष हैं। बिल्वपत्र अर्पित करने के समय की स्तुति में उन्हें त्रिगुणाकार (सत, रज और तम) और त्रिजन्म (स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर) पाप संहारक कहा गया है। शिव भक्त तमाम तरह का नशा करके अपनी भक्ति प्रदर्शित करते हैं, क्योंकि शिव को धतूरा इत्यादि अर्पित किया जाता है। हमे उनकी भक्ति का नशा नशीले पदार्थों का सेवन करके नहीं, अपितु नाम खुमारी में डूबकर प्राप्त करना चाहिए। फ़ेसबुक पोस्ट अजनाभं नामैतद्वर्षम् भारतमिति यत आरभ्य व्यपदिशन्ति। भागवत 5/7/3 तेषां वै भरतो ज्येष्ठो नारायण परायणः। विख्यातं वर्षमेतद यन्नाम्ना भारतमद्भुतं 11/2/17 भागवत अर्थात् इस वर्ष को, जिसका नाम पहले अजनाभवर्ष था, राजा भरत के समय से ही 'भारतवर्ष' कहते हैं। यह भरत दुष्यंत और शकुंतला पुत्र नही, वरन् भगवान के चौबीस अवतारो में से एक ऋषभदेव के बड़े पुत्र थे। यही मृगयोनि से होते हुए जड़भरत जब हुए तो इन्होंने राजा रहूगण की पालकी ढोई और राजा को कहा तुम बड़े क्रूर और धृष्ट हो। तुमने इन बेचारे दीन दुखिया कहारों को बेगार में पकड़कर पालकी में जोत रखा है और फिर महापुरुषों की सभा में बढ़कर बाते बनाते हो कि मैं लोको की रक्षा करने वाला हूँ। राजा को चुनौती और उसे तत्वज्ञान देने वाले इन भरत के नाम पर ही इस देश का नाम भारत हो सकता था। १२/३/२२ ध्यान में कुछ भी विचार आते हैं, पर थोडे ही अंतराल में वे साक्षी की तरह आने जाने लगते हैं. बिल्कुल वैसे ही जैसे चित्रपट या फ़िल्म चल रही हो, यही चित्रपट कर्म जगत में भी चल रहा है... १३/३/२२ कभी का ज्ञात भी एक समय बाद अज्ञेय बन जाता है। भाषा, कला, संस्कृति, साहित्य इत्यादि जितने विकसित हुए, क्या वे सब जान लिए गए! क्या उन्हें पूरी तरह जाना जा सकता है! क्या उन्हें जानने के क्रम में हम पुनः अज्ञेय तक नहीं पहुँच जाते! स्थान और व्यक्ति नामों का अध्ययन करते समय वर्षो कितना श्रम किया, किंतु अनेक नामों की व्युत्पत्ति और इतिहास ज्ञात नहीं हो सके। जबकि यह सब व्यक्तियों ने ही तो बनाये हैं। इस प्रकार व्यक्ति द्वारा की हुई रचना भी ईश्वर की ही रचना बन जाती है। 15/3/22 वैदिक युग में कुछ अवसरों पर अविवाहित कुमारियां अग्नि के चारों ओर एकत्र हुआ करती थीं, वे जाज्वल्यमान अग्नि के सामने हाथ जोड़ा करती, उसकी परिक्रमा किया करती और यह गीत गाया करती थीं.. यही प्रसिद्ध महामृत्युंजय मंत्र हुआ... ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् | उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् || मंत्र का ऐतिहासिक अर्थ आओ हम सब सुगंधित देव, सर्वदृष्टा देव और हमारे पति के ज्ञाता देव की पूजा में निमग्न हो जाएँ. जिस प्रकार से भूसी से दानों को अलग कर दिया जाता है उसी प्रकार हम भी पितृ गृह के बंधनों से मुक्त हों, परंतु कभी, कदापि भी, पति गृह से विरत न हों. Let us be absorbed in the worship of the Fragrant One, the All-seeing One, the Husband-knowing One. As a seed from the husk, so may we be freed from bondage here (the parents' house), but never, never from there (the husband's home). swami ramtirth दूसरा अर्थ - हम त्रिनेत्र को पूजते हैं, जो सुगंधित हैं, हमारा पोषण करते हैं, जिस तरह फल, शाखा के बंधन से मुक्त हो जाता है, वैसे ही हम भी मृत्यु और नश्वरता से मुक्त हो जाएं। वैदिक मंत्र द्वारा गणपति से प्रार्थना की जाती है- ....आहमजानि गर्भधमात्वमजासि गर्भधम्॥ As a woman of a man, so shall I learn of Thee, I shall draw Thee closer and closer, I will drain Thy lips and the secret juices of Thy body, I will conceive of Thee, O Law! O Liberty! हे ईश्वर! हे शाश्वत विधान! जिस प्रकार पत्नी अपने पति को जानती है, उसी प्रकार मैं भी आपको जानूँ. मैं आपके निकट से निकटतर होता जाऊँ और आपके शरीर के जीवन-सत्व का रसास्वादन लूँ तथा आपके आत्मज को प्रकट कर सकूँ. 17/3/22 (होलिका दहन) दुनिया में १६ आना व्यक्त अग्नि नहीं है और न १६ आना सुप्त या अव्यक्त अग्नि है. सुप्त आग १५ आना तक रह सकती है. सुप्त आग कम हो तो बाह्य अधिक चाहिए और सुप्त अधिक हो तो बाह्य आग कम चाहिए. लकड़ी जितनी सूखी होगी, बाहरी आग की उतनी कम मात्रा आवश्यकता होगी और जितनी गीली होगी बाहर की मात्रा उतनी अधिक लगेगी. अंदर बाहर की अग्नि एक ही है. लकड़ी में चार आना सुप्त अग्नि है. इसमें बारह आना आवरण की अग्नि मिलाकर जलाना हमारा लक्ष्य होता है. जब इस प्रकार होलिका दहन होगा तब ऐसे रंग उड़ते हैं. उड़ा रहा हूँ मैं रंग भर-भर तरह-तरह की यह सारी दुनिया. चे खूब होली मचा रखी थी, पै अब तो होली यह सारी दुनिया. मैं साँस लेता हूँ रंग खुलते हैं, चाहूँ दम में अभी उड़ा दूँ. अजब तमाशा है रंगरलियाँ है खेल जादू यह सारी दुनिया. पड़ा हूँ मस्ती में गर्को-बेख़ुद न ग़ैर आया, चला न ठहरा. नशे में खर्राटा सा लिया था, जो शोर बरपा है सारी दुनिया(स्वामी रामतीर्थ की कविता) साँस, मन, सूर्य-चंद्र-अग्नि, संसार, जीवन यह सब एक सूत्र में गुँथे हुए हैं. एक से दूसरे जुड़े हुए. एक रुकता है तो दूसरा ठहर जाता है. सूर्य की उपस्थिति जाग्रत अवस्था में है. पति वह जो पत् को धारण करे, पत्नी उस पत् को आगे ले जाती है. पत् अस्तित्व को कहते हैं, लाज, भरोसा, रक्षा, शक्ति इत्यादि उसके बहुत से अर्थ लिए जाते हैं. १८/३/२२ भक्त गाते हैं... हो लाल मेरी पत रखियो बला झूले लालण, क्षणे-क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः अर्थात् जो क्षण-क्षण में नवीनता को प्राप्त हो,वही तो रमणीयता है अर्थात् सुंदरता है । फ़ेसबुक पोस्ट १८ मार्च २१ सौंदर्य चेतना में है या वस्तु में! व्यक्ति वस्तु भी है और चेतना भी। निःसंदेह सौंदर्य चेतना में है। चेतना को उज्ज्वल करने की आवश्यकता है..कुरूपता आगे बढ़ेगी ही नहीं। १८ मार्च 21 की फ़ेसबुक पोस्ट समझ में ज़िंदगी आए कहाँ से सबक़ पड़ता है हर दरमियाँ से! खुलता किसी पे क्यों मेरे दिल का मुआमला शेरों के इंतिख़ाब ने रुसवा किया मुझे! ग़ालिब है अनलहक हक़ मगर कहनी न थी यार की महफ़िल से बाहर यार की महफ़िल की बात. आइना बनकर मक़ाबिल उसके जब आता हूँ मै अपनी सूरत देखता हूँ और इतराता हूँ मैं. आज फ़रीद अयाज़ को सुना १९/३/२२ सत्य, प्रेम और करुणा क्रमशः मुक्ति, आनंद और स्वभाव के परिणाम हैं. सत्य में भाव और अभाव दोनों रहते, आनंद में अभाव रहता है और स्वभाव में न भाव और न अभाव रहता है. बोध तीनों में रहेगा. इश्क़ जब हद से गुज़र जाए तो बीमारी है. और जब हद से न गुज़रे तो अदाकारी है..बुल्ले शाह माला जपूं न कर जपूं और मुख से कहूँ न राम । राम हमारा हमे जपे और हम पायो विश्राम ।।कबीर राम नाम की खूंटी गाडी, सूरज ताना तंता। चढ़ते उतरते दम की खबर ले, फिर नहीं आना बनता कबीरा।। Meaning - Erect the loom of Ram's name, The sun its fibers & threads, Be aware of your breath which is arising and passing, You won't be coming back again अनहद बाजा बजे शहाना मुतरिब सुघड़ा ताल तराना. बुल्ले शाह जनेऊ को यज्ञोपवीत कहने का भाषा वैज्ञानिक आधार तो नहीं बनता. फिर जैसे भी जनेऊ को यज्ञोपवीत कहा जाने लगा हो. जनेऊ कुंडलिनी का प्रतीक है, जनेऊ संस्कार होने पर जातक द्विज कहलाने लगता है. द्विज यानि जिसका दूसरा जन्म हो गया हो. कुंडलिनी जागने पर यही होता है. कुंडलिनी का आवागमन जनेऊ की ही भाँति होता है. जनेऊ में गुँथे तीन धागे इड़ा पिंगला और सुषुम्ना हैं. फिर हर धागे के भी तीन तीन डोरे और होते हैं, वे त्रिगुणात्मिका प्रकृति, त्रिशूल तथा सुषुम्ना के भीतर की तीन नाड़ियों - वज्रा, चित्रा और ब्रह्मनाड़ी- के रूप हैं. ब्रह्म गाँठ भी जनेऊ में होती है. कुंडलिनी विज्ञान में ब्रह्म, विष्णु और रूद्र ग्रंथि का वर्णन मिलता है. ॐ श्रीश्चते लक्ष्मीश्च पत्न्या वहो रात्रे पार्श्वे नक्षत्राणि रूपमश्विनौभ्यात्तम् | इष्णं निखाणा मुम्मऽइखाण सर्भलोकं मऽइखाण || (-यजुर्वेद 22.22) Sriscate Lakshmisca patnyau ahoratre parsve Nakshatrani rupam aswinau vyaattam Ishtam manishaanaam Yajur Meaning:— Success and prosperity are thy maid-servants, day and night thy right and left sides, the splendour in stars thy looks, Heaven and Earth thy lips parted (in smiling). If ye desire anything, desire that. श्री और समृद्धि आपकी सहचरी हैं, वे दिन रात आपके दाएँ बाएँ रहती हैं, तारों की कांति आपकी चितवन है, स्वर्ग और पृथ्वी आपके मुस्कराते खुले अधर हैं, यदि आपको कोई अभिलाषा है तो उसकी कामना भर कीजिए... 20/3/22 bulle shah Alif Allah Chambe de booti Murshid mun vich laee Hu Nafi Asbaat da pani millia si har rage har jaee Hu Andar booti mushk machaya jaan phulan te aee Hu Jeevay Murshid mera kamil Bahu Jain aee booti laee Hu Alif. My Spiritual Guide planted the Love of Allah (all praises due) in my heart just like a jasmine plant. Hu With every vein [of mine] being watered by nothing but [the truth of] negation and affirmation [i.e. La ilaaha illa Allah]. ला यानि नहीं, इलाह ईश्वर, इल्ल लेकिन, अल्लाह ईश्वर there is no god but Allah . Hu This plant has caused much turmoil of fragrance within me upon reaching its full bloom. Hu Bahu! Long live my perfect Spiritual Guide who sowed [within me] this plant of Love of Allah Almighty. Hu. nafi asbat first the negation of everything other than God and second part is the affirmation of the Supreme Being. नफ़्स - वजूद, अस्तित्व, काम वासना, सच्चाई क़ल्ब- हृदय, मन सिर्र- रहस्य, क्रिया (जिसमें हल्की आवाज़ में नमाज़ पढ़ते हैं) खाफ़ी- गुप्त, दिया हुआ अख़्फ़ा- बहुत ज़्यादा गुप्त, सर्वाधिक गुप्त अरबी में पहले ला इलाह दूसरे में इल्लिल्लाह लिखा है, २५/३/२२ न्यूयार्क के एक समाचार पत्र में स्वामी रामतीर्थ के लिए लिखा गया- अमेरिका में एक विचित्र भारतीय साधु आया हुआ है, जो किसी धातु को नहीं छूता, अपने साथ भोजन की कोई सामग्री नहीं रखता. जब सैर करने निकलता है तो एक सामान्य कपड़े में कई कई दिन अत्यंत शीत स्थानों में घूमता रहता है. जब व्याख्यान देता है तो दिन में कई बार, और एक बार में तीन तीन घंटा लगातार बोलता रहता है. उसका रूप और छवि बड़ी ही मनोहर है. इन्हें 'लिविंग क्राइस्ट' कहा गया. स्वामी राम कहते थे भारत की जितनी सभाएँ, समाज और सम्प्रदाय हैं, वे सब राम के हैं और राम उन्हीं के माध्यम से कार्य करेगा. गणित के प्रोफ़ेसर रहे स्वामी जी के व्याख्यान हर किसी को पढने-गुनने चाहिए... भाव मानो फूल की कली है और प्रेम उसी का सुगंधित फूल. भाव परिपक्व होकर प्रेम में परिणति प्राप्त करता है. प्रेम उदय होने पर माँ संतान को गोद में ले लेती है. फिर व्यवधान नहीं रह जाता. अब रस भाव का उदय होता है. भावदेह, प्रेमदह और रसदेह यह क्रम है. भाव के पथ से प्रेम के द्वारा रस में नहीं पहुँच पाने से लीलाराज्य में प्रवेश पाने का अधिकार नहीं मिलता. आत्मा का रसास्वादन रसमय देह से होता है. सिद्धदेह से जागतिक व्यापार संपन्न होता है. गोपीनाथ कविराज भावदेह ज्ञानदेह प्राप्त होने पर मिलती है और ज्ञान स्थूल देह में आएगा. यही त्रिजन्म है. पहला स्थूल, दूसरा ज्ञान और तीसरा भाव देह का जन्म. हमने बेपर्दा तुझे माहजबीं देख लिया अब ना कर पर्दा के ओ पर्दानशीं देख लिया हमने देखा तुझे आंखों की सियाह पुतली में सात पर्दों में तुझे पर्दानशीं देख लिया हम नज़र-बाज़ों से तू छुप ना सका जान-ए-जहां तू जहां जाके छुपा हमने वहीं देख लिया तेरे दीदार की थी हमको तमन्ना, सो तुझे लोग देखेंगे वहां, हमने यहीं देख लिया. २६/३/२२ मन = शक्ति ; आत्मा =शक्तिमान मन जब समसूत्र में आत्मा से मिलित होता है ,तब अद्वैतावस्था होती है ---- सामरस्य । उसमें चैतन्य स्फूर्ति रहती है , मन का लय नहीं होता । उस समय मन आत्मा-कार होता है । इच्छा होते ही मन बाहर निकल सकता है , और बाहर होने से उसे कोई रोकने वाला नहीं । मन आत्मा का समकक्ष है ---तुल्य बल नहीं होने से मिलने पर यह अवस्था नहीं हो सकती । समान बल वाला मल्ल /पहलवान जैसे किसी को अभिभूत नहीं कर सकता , ठीक वैसा ही । यही स्वाधीनता या स्वातंत्र्य है । लेकिन मन का बल यदि कम हो और उस समय यदि आत्मा से मिलन हो तो मन अभिभूत हो जाता है । प्रबल से यदि दुर्बल मिलने जाये तो यही दशा होती है । यह चेतनाहीन जड़ अवस्था है । यह निर्वाण या मोक्ष है । सुतरां , निर्वाण को टालना हो , तो मन की सबलता आवश्यक है । इसीलिए शक्ति की उपासना होती है । जिस अनुपात में मन शक्तिमान होगा ,उसी अनुपात में यह आत्मा से समसूत्र में मिल सकेगा । शक्ति की क्रमिक वृद्धि से मिलन की गम्भीरता सम्पन्न होती है । इसीलिए साम्य अवस्था में भी नित्यक्रम है । चेतना ही शक्ति है । आनन्द ही मिलन है । स्वभाव ही आत्मा है । जीव ही मन है । चैतन्य या शक्ति के संचार -मात्र से ही इस साम्य का उदय होता है । वही शांत भाव । इस संचार के नहीं होने से मन बलहीन होता है ----उस अवस्था में आत्मलाभ नहीं होता । 8 , 12 , 1925 3 , 5, 2021 की पोस्ट आत्मा से यथार्थ साम्य एकमात्र महाशक्ति का है ---- दोनों तुल्यबल हैं, समरस । मन महाशक्ति से उद्भूत है । मन महाशक्ति का जितना ही समीपवर्ती होता है ,उतना ही अधिक रस का आस्वादन होता है । महाशक्ति नित्य सर्वरस का आधार है ,माधुर्य की खान । महाशक्ति की ओर जाने से मन का प्रसार होता है --क्रमशः चैतन्य-विकास होता है । महाशक्ति की ओर न जाकर सीधे आत्मा में जाने का मतलब है विषय का त्याग । विषय त्यागते ही मन आत्मा में लीन होता है । शून्य में लय ,जड़त्व । इसीलिए चैतन्य को पकड़ने के बाद ही विषय को छोड़ना चाहिए --तब फिर शून्य में लय नहीं होता । गीता में है "आत्म संस्थ मनम् कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत् "। बिना अवलम्ब के मन नहीं रहता । इसलिए आश्रित भाव -लाभ ही चैतन्य संचार है । महाशक्ति अवश्य ही निराश्रय है , वह स्वयं मन का आश्रय है । इसीलिए उनकी गोद में बैठकर मन आत्मा का रस ग्रहण करता है , स्वच्छंदता पाता है । माँ का आश्रय लिए बिना ज्ञान ,भक्ति --कुछ भी तो नहीं होसकती । कविराज ji 💐💐 इसका मतलब है जिनकी रुलाई छूटती है, वे शक्ति तत्व से वंचित रहते हैं और सीधे शिव तत्व में प्रवेश करते हैं ३०/३/२२ शारीरिक जनक और जननी ही पितर नहीं होते हैं. यह अग्निष्वाता पितर होते हैं. पाँच दिव्य पितर हैं पहला पितर सूर्य और चंद्रमा का जोड़ा है, उष्णता और तरलता का मिलापक. दूसरा पितर सम्वत्सर उत्तरायण और दक्षिणायन से मिलाप पा रहा है, तीसरा पितर मास जो शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष से मिलाप पा रहा है, चौथा पितर दिन रात है, यह प्रकाश और अंधकार से मिलाप पाता है. पाँचवाँ पितर अन्न है जो वीर्य और रज से दम्पित होता है. इनमें हर जोड़े का पहला पिता और दूसरी माता है. पहला प्राण है दूसरा रयि.