Wednesday, January 12, 2022

नाम और रूप बनाम शब्द और अर्थ - एक विमर्श

नाम और रूप शब्द और अर्थ ही हैंदोनों में अनिवार्य पारस्परिक संबंध हैशब्द आयत्त होने पर उसकेअर्थ की प्राप्ति होती है.. इसी प्रकार अर्थ प्राप्त हो जाने पर उसके शब्द का प्रकटीकरण हो जाता हैदोनों में भेदाभेद संबंध होने के कारण एक के अभाव में दूसरा नहीं रह सकता.

शब्दोदय के साथ ही उसके वाच्य अर्थ का आविर्भाव होने लगता है.

वर्णभाव गलित होते ही नादरूपता का उन्मेष होता हैयही उर्ध्वगति है.

क्रिया भाव अथवा शब्द में से किसी एक का परिवर्तन कर देने पर संपूर्ण अस्तित्व का परिवर्तन होजाता है.


चिन्मय गुलाब सर्वप्रथम हृदय में उद्भूत होता हैसूक्ष्माकृति रूप मेंइसका बहिर्जगत मेंमहाकाश मेंआनयन होने सेपंचभूत सम्पृक्त गुलाब पुष्प का आकार गठित होता हैयही है वह स्थूल गुलाब जिसेहम देखते हैंकिंतु चिन्मय गुलाब (गुलाब पुष्प सृष्टि की इच्छावास्तव में शक्तिरूपा हैजगत मेंप्रत्यक्षीभूत पांचभौतिक गुलाब में से पंचभूत एवं सत्वांश खींच लेने पर अवशिष्ट बचता है चिन्मयगुलाबवह इस स्थिति में विविक्त  रहकर चैतन्य समुद्र में विलीन सा प्रतीत होता हैउसे गुलाब कीसंज्ञा से पहचान सकना संभव नहीं रहताब्रह्मसमुद्र में डूबने से यही अवस्था हो जाती हैअनंत कीओर पृष्ठ १२१-१२२ गोपीनाथ कविराज 

जगत की शेष सीमा रंग हैउसके पश्चात वस्तु की सत्ता मिलती हैहम वस्तु को देख नही सकतेरंगही देखते हैंप्रत्येक वस्तु का एक एक वर्ण होता हैवस्तु का आविर्भाव अर्थात् साथ साथ रंग काप्राकट्यवस्तु अथवा रूप की प्रभा ही रंग हैरंग का भेदन करने से ही रूप का प्रतिभासन हो सकेगाजिस प्रकार ईश्वर योगमाया से समावृत रहते हैंउसी प्रकार देवताजीव तथा सभी वस्तु अपनीअपनी वर्णात्मक प्रभा से आच्छन्न हैंयह प्रभा योगमाया अथवा वर्णमय प्रकृति का क्षेत्र हैइसमेंचिदबीज का वर्णन करने पर रूप का आविर्भाव संभव हो जाता है.

स्थूल चक्षु द्वारा दृश्य दर्शन में स्थूल प्रकाश सहायक हैयह आग्नेयवर्ण का प्रकाश हैसूर्य किरणऔर चंद्र किरण आग्नेय किरण हैंस्थूल आँखें बंद करने पर अंधकारादि का दर्शन मन द्वारा होता हैसूक्ष्म प्रकाश विशुद्ध चंद्र का प्रकाश हैचित्ताकाशस्थ वर्ण की अनुभूति इसमें होती हैमन रूपी चक्षुको बंद करने पर बुद्धि अथवा प्रज्ञा का नेत्र कारण जगत को देखता हैइसके दृश्य में अंतःसूर्य काप्रकाश कार्यकारी हैबुद्धि के नेत्र को बंद करने पर बोध के नेत्र खुलते हैंइसके मूल में ब्रह्मज्योतिकार्यकारी हैयह प्रकृतसाक्षी और महती शक्तिरूपा है.


प्रत्येक आलोक में प्रत्येक वस्तु का दर्शन असंभव हैसमजातीय आलोक में समजातीय दृश्य कादर्शन संभव हैजहां ब्रह्मज्योति क्रीड़ा करती हैवहाँ जगत नहीं है


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एक पूरा शब्द भी हम एक क्षण में नहीं बोल पातेउसे कोई जान सकता हैबोल नहीं सकता.


शब्द हो नाम हो सब मन से पैदा होते हैंसारी सृष्टि मन की हैमन ही निर्मित करता है और बनाता है



नाम देते ही वस्तु का जन्म होता हैजब तक हम उस अनाम को नाम  दे तब तक वह समस्त अस्तित्वका स्रोत हैशब्द हमारे ठोस है अपने से इतर या विपरीत को जगह नहीं दे पाते हैंनाम देना खंड खंडप्रक्रिया है और नाम छोड़ देना है अखंड को जाननाजिस चीज़ को भी अब नाम देते हैं वह वस्तु बनजाती हैभाषा में सत्य डालते ही विकिरण या रेडिएशन हो जाता हूँ एक बताने वाला शब्द भी तत्कालदो की सूचना देने लगता है.


एक व्यक्ति शेख फ़रीद के पास गया और उनसे पूछा कि उसे वही सुनाएँ जिसमें असत्य  होफ़रीदने कहा ज़रूर बताऊँगा तुम अपने प्रश्न को इस भाँति बनाकर लाओ उस में शब्द  होतुम शब्दों मेंपूछ रहे तो उसका उत्तर शब्दों में कैसे दिया जा सकता है


शब्द और अर्थ एक  होने पर शाब्दिक माया का जन्म होता हैहर वस्तुभावना अथवा विचार शब्दमें प्रकट हैआध्यात्मिक दुनिया में शब्द अनंतसर्वकालिकसार्वत्रिकअमर्त्य एवं शाश्वत होते हैंवस्तुओं व्यक्तियों या विचार को दिए शब्द आध्यात्मिक अर्थ को धारण नहीं कर पातेवे केवलविकल्पात्मक ज्ञान प्रस्तुत कर पाते हैंजब हम आलू कहते हैं तो आलू एक वस्तु के रूप में जानने परही बोधगम्य हो पाता हैशब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः योगसूत्र /९। मन की तीसरी वृत्तिविकल्प हैयह एक तरह का मतिभ्रम हैजैसे कोई कुछ कल्पना कर ले कि दुनिया समाप्त होने वालीहै। वास्तविकता में ऐसा कुछ भी होता नहीं है बस कुछ मन के भीतर शब्द चलते हैं। ऐसे सभी व्यर्थडरकपोल कल्पना और निराधार शब्द जिनका कोई अर्थ नहीं हैऐसे विचार और ऐसी वृत्ति कोविकल्प कहते हैं। 

गहन ध्यान में शब्द तिरोहित हो जाते हैंतब शब्दों से बनी भाषा के विलीन होने पर संसार भी चलाजाता हैशब्द और संसार परस्पर संबंधी हैंशब्दों के द्वारा अपनी धारणा या कल्पना ही व्यक्त होतीहैध्यान कोई बनी बनाई धारणा या विचार नहीं होता यह तो आत्म साक्षात्कार कराने का माध्यम है

शब्दार्थ प्रत्ययानामितरेतराध्यासात्...योगसूत्र /१७

शब्दवस्तु और विचार एक साथ एक मतिभ्रम की दशा में एक साथ मौजूद रहते हैंजब संयम काअभ्यास किया जाता है तब किसी भी प्राणी की ध्वनि का अर्थज्ञान प्राप्त किया जा सकता है.

नाद से ही सृष्टि का उद्गम हुआ हैविचार भी शब्द और ध्वनि का मिश्रण हैशब्द ध्वनि हैप्रत्येकशब्द और ध्वनि का अर्थ होता हैदुनिया की सारी भाषाएँ अध्यारोपित विचारों का ज्ञान ही हैयहभाषाएँ भ्रमात्मक और सीमित प्रकृति की हैं.

कहते हैं बुद्ध सभी प्राणियों की भाषाओं को समझ लेते थे.


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भारत की वैदिक तांत्रिक तथा अन्य साधनाओं के अन्वेषण से ज्ञात होता है कि ईसाईमुस्लिम बौद्धआदि साधनाओं में भी शब्द ही मूल हैपरम सत्ता ही प्रकाश है प्रकाश एवं विमर्श एक ही हैं अथवाएक होने पर भी दोनों का अनिर्वचनीय वैलक्षण्य हैविमर्श आत्मा की महिमा हैइस विमर्श कानामांतर है अहं भाव.

सृष्टि के पहले नित्यस्वरूप शब्द ही विद्यमान था.यही  प्रज्ञा हैकोई वस्तु स्वभावरहित नहीं है.

सृष्टि अवस्था में इसी शब्द से अर्थ  आविर्भूत होता हैअनादिनिधनं ब्रह्म ही शब्द का परमतत्व हैइसी से अर्थ आविर्भूत होते हैंतदनंतर जगत रूप देश और काल का अनंत वैचित्र्य प्रतिफलित होताहैआचार्य भर्तृहरि ने कहा है..

अनादि निधनं ब्रह्म शब्दतत्वं यदक्षरं.

विवर्तते अर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः.

अद्वैत वेदांत के मत से आत्मा सर्वप्रथम पश्यंती रूप से आविर्भूत होता हैपरावस्था में वाच्य वाचकभाव तनिक भी नहीं रहताकिंतु में भावद्वय की सत्ता रहती है और अभेद भी रहता हैयही अर्थ एवंशब्द हैशब्द वाचक है अर्थ वाच्य हैमध्यमा भूमि में वाचक और वाच्य का अभेद होने पर भी किंचितभेद हो जाता हैइस अवस्था में शब्द से अर्थ पृथक वस्तु नहीं रहता , तथापि अभिन्न भी नहीं रहतायह भेदाभेद अवस्था हैइसमें शब्द ही अर्थरूपेण प्रतीत होने लगता हैशब्दोदय के साथ अर्थ काउदय होने लगता हैसंहार अवस्था में अर्थ का उपशम शब्द में हो जाता हैमध्यमा अवस्था में शब्दएवं अर्थ एक दूसरे के बिना नहीं रह पातेशब्द तथा अर्थ ही नाम एवं रूप हैं.

बैखरी भूमि से शब्द से अर्थ की पृथकता संपन्न हो जाती हैयहाँ अर्थ का आरोपण शब्द में और शब्दका प्रक्षेपण अर्थ में होने लगता हैइसी से भाषाएँ बनी हैंइस आरोपण और प्रक्षेपण से उत्पन्न हुयीविस्मृति के कारण शब्द को अर्थ में और अर्थ को शब्द में लौटाया नहीं जा सकतादोनो में भेद संबंधसुस्पष्ट होने लगता हैजगत के अधिकांश जीव इसी में प्रतिष्ठित रहते हैंउन्हें कृत्रिम उपायों संकेतवस्तुकल्पना और व्यवहार (convention) इत्यादि के द्वारा शब्द और अर्थ का योजन करना पड़ताहैमध्यमा में इस convention की आवश्यकता नहीं रहती क्योंकि वहाँ शब्द और अर्थ कास्वाभाविक सम्बन्ध विलुप्त नहीं रहता.

पराभूमि से बैखरी भूमि में अवतरण ही सृष्टि प्रक्रिया हैइस प्रकार मूल परम शब्द ही जागतिक अर्थग्रहण करता हैवह परम शब्द क्रमशः एक एक भूमि का अतिक्रमण करके प्रकाशित होता हैलौटतेसमय वह विपरीत क्रम अनुसरण के द्वारा जागतिक अर्थ से उर्धवारोहण करते करते मूल शब्द के रूपमें परिणत हो जाता हैयह मूल ही जीव का पाथेय है.

वर्ण आवरण है आत्मा काआत्मा इससे ढँकी हैवर्ण का अर्थ रंग भी होता हैवर्णमाला का अक्षर भीवर्ण होता हैवर्णाश्रम चतुष्ट्य के वर्ण में भी यही वर्ण हैआत्मा के आवरण को चार विभिन्न वर्णों मेंबाँटा गया हैवस्तु सबसे पहले रंग में दिखती हैवही उसका वर्ण हैरूप का प्रथम दर्शन वर्ण या रंगमें होता हैआत्मा अगर शब्द है तो अर्थ उसका वर्ण है


बिंदु क्षुब्ध होने पर सृष्टि में नाद की धारा प्रवाहित होने लगती हैइस प्रसंग में कला तत्व भुवनवर्णपद मंत्र यह छह अध्वाओं का आविर्भाव होता है

अक्षर ब्रह्म शब्दात्मक हाईये शब्द ब्रह्म हैंसभी शक्तियाँ मूल शब्द से पृथक नहींस्वरूप से अभिन्नहोने के कारण इन्हें स्वरूपशक्ति कहते हैंअध्यात्मशास्त्र में इन्हें कला कहा जाता हैपंचदश नित्याआवर्तन में निरंतर परिक्रमण करती रहती हैषोडशी बिंदु रूप में अवस्थान करती है. . पंचदश नित्यात्रिकोण मंडल की तीन भुजाएँ हैंतीनो भुजाएँ समान हैंप्रत्येक भुजा में  नित्या अथवा कलाएँ स्थितहैंपंचदश कलाएँ आवर्तनशीला होने से क्षरणधर्मा हैंषोडशी के आपूरण होने पर यह कलाएँअभिसिंचित होती हैंअधः प्रवाह से सृष्टि की सूचना मिलती हैषोडशी से एक ऊर्ध्व प्रवाह सप्तदशीकी ओर चलता रहता हैयह कलातीत हैषोडशीकला शब्दरूप में अपनी सृष्टि को स्वयं ही देखतीहैसंहारकाल में अर्थ लीन कर सकने पर यह शब्द क्रमशः पंचदशी में विलीन हो जाता है

जो सृष्टि काल के अधीन हैउसमें क्रम हैनित्यसृष्टि कालाधीन नहीं हैअतः अकर्म हैदोनों सृष्टिशब्द से उत्थित होती हैं.

वायु की क्रिया प्रारम्भ होने तक ही नाद की गति रहती है

श्वास और प्रश्वास थमने पर मध्य धाम में गमन करने के समय ध्वनि या वर्ण का उदय होता है.


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शब्द और अर्थ के प्रकृत स्वरूप पर आवरण पड़ जाने से दोनों में पृथकता का आभास मिलने लगताहैशब्द में अर्थ का और अर्थ में शब्द का संधान नहीं मिलतावर्ण बैखरी में प्रकाशित होने लगता हैकंठ से ओंठ तक बैखरी का स्थान हैवायु के ४९ स्वाभाविक कम्पन होते हैंनाद रूपी शब्द ४९ भागोंमें विभक्त हो जाता हैसमष्टि से लेकर ५० और समष्टि के साथ ५१वर्णमाला की यही संख्या हैयेसमस्त वर्ण विषदंतहीन सर्प अथवा जलहीन मेघ के समान नाममात्र में शब्द के मूलरूप से युक्त होतेहैंइन वर्णों का सम्यक् प्रबोधन करके पारस्परिक संगठन करने  इच्छानुरूप पदार्थ की सृष्टि की जासकती है

भेदज्ञान की समाप्ति के अनंतर प्रत्येक वस्तु के साथ व्यक्तिगत अभेद संबंध अनुभूत होने लगता हैअब समस्त विश्व स्व स्वरूपमय प्रतीत होता हैइसे प्रेम की अभिव्यक्ति कहते हैं

अतः चाहे मलपाक हो जाने से गुरुकृपा प्राप्त हो अथवा गुरुकृपा प्राप्ति से मल का परिपाक होज्ञानचक्षु खुलने पर महाज्ञान का उदय हो जाता है.



सबदै मारी सबद जिवाई। ऐसा महमद पीर। ताके भरम  भूलौ काज़ी सो बल नहीं सरीर।।गोरखनाथ। 

जिस छुरी का प्रयोग मुहम्मद करते थेवह सूक्ष्म छुरी शब्द की छुरी थी। मुहम्मद ऐसे पीर थेहेकाज़ियोउनके भ्रम में  भूलो। तुम उनकी नकल नहीं कर सकते। तुम्हारे शरीर मे वह (आत्मिकबलही नहीं हैजो मुहम्मद में था। (क्योंकि गोरख के अनुसार जिन बातों को मुहम्मद आध्यात्मिक दृष्टि सेकहते थेउन्हें उनके अनुयायियों ने भौतिक अर्थ में समझा)


 डॉ पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल द्वारा संपादित गोरखबानी से


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सब प्राणी भाषा या बोली अपनी माँ से सीखते हैंमातृ भाषा या मदर टंग सर्वत्र कही जाती हैपिताभाषा कहीं नहीं कहा जाताइससे शब्द महिमा और उसके स्रोत का पता लगता है


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यह जगत् शब्द और अर्थ रूप है। शब्द और अर्थ को नाम और रूप भी कहा गया है। वेदान्त इस जगत्को नाम रूपात्मक मानता है-

\"अस्ति भाति प्रियं नाम रूपं चेत्यंशपञ्चकम् 

आद्यं त्रयं ब्रह्मरूपं जगद्रूपम् ततोद्वयम् ।।\"

परम सत्ता के अस्ति = सत्भाति = चित् , प्रिय = आनन्दनाम और रूप ये पाँच अंश हैं। इनमें सेप्रथम तीन अंश ब्रह्म का रूप हैशेष दो जगत् का रूप है। ]

परा स्थिति में केवल शब्द या नाद रहता है।

अर्थ उसमें निगूढ़तम स्थिति में रहता है। शनै:-शनैविकास के क्रम से दोनों पृथक् आभासित होनेलगते हैं। अपनी पृथक् स्थिति में शब्द और अर्थ के तीन-तीन प्रकार होते हैं। शब्द के वर्णमन्त्र औरपद तथा अर्थ के कला तत्त्व और भुवन ये प्रकार हैं। इन्हीं को षडध्वा कहा गया है। इन्हें कालअध्वा और देश अध्वा भी कहते हैं।

यह षडध्वा काश्मीरी शैव दर्शन के अनुसार आणवोपाय के अंतर्गत आता है.


आजकल के भाषा वैज्ञानिक भाषा की उत्पत्ति के प्रश्न को भाषाविज्ञान की सीमा में नहीं मानते।


नाम और रूप में पहले कौन आयावस्तुतः दोनों एक हैंभौतिक संसार में रूप या पदार्थ की सत्तापहले दिखती हैनाम उस रूप की अंतर्धारा है और रूप उस नाम प्रतिफलनप्रत्यक्ष जगत में नाम औररूप अलग अलग हो जाते हैं.


अर्थ शब्द की अंतरंग शक्ति का नाम हैशब्द बहिर्भूत होता हैजबकि अर्थ अबहिर्भूत या अपृथकहोता है महर्षि पतंजलि


शब्दऔरअर्थएकहीइकाईके दोरूपहैं।


नाम रूप का प्रकाश है तो रूप नाम का विमर्शदोनों का कभी अभाव नहींअभाव उनके अभेद होने परही है

किसी कमरे में वस्तुएँ हैं या रूप हैंजब उन पर रोशनी प्रक्षेपित की जाती हैवे दिखने लगती हैं

नाम नाद है और रूप बिंदु.


10/1/22


 अंतस्थ वर्ण हैइसका अर्थ है हथियाररचनात्मक विध्वंसकउत्साह का योगशिवयह आकाशबीज हैशब्द आकाश का गुण हैजो कान से सुनते हैंशब्दों से वस्तकृत होकर नाम बने हैं.

जबकि रूप अग्नि तत्व का परिणाम हैयह आँखों से बोधगम्य होता है अग्निबीज है.



शब्द में  ध्वनि का स्रोत इच्छा से जुड़ता हैइच्छा सृष्टि का पहला उन्मेष हैउसके बाद ज्ञान औरक्रिया होती हैयही  ध्वनि शिव में भी अनुस्यूत हैशिवसूत्र में कहा गया है वर्णमाला के सभी वर्णपरमेश्वर के मूर्त रूप हैं.तंत्र शास्त्र कहते हैं मंत्राः वर्णात्मकाः सर्वे सर्वे  वर्ण शिवात्मकाः सभी मंत्र वर्णोंसे बने हैं और सभी वर्ण शिवरूप हैंवर्णमाला का प्रत्येक अलशर एक विशिष्ट शक्ति है और संयुक्तरूप से इन शक्तियों को मातृका कहा जाता हैवर्णों में निहित नाद शक्ति मातृका ही सीमित ज्ञान कामूल हैमातृका शक्ति के कार्य से ही अक्षरों से शब्द बनते हैंइनसे वाक्य और  फिर समूची द्वैतसृष्टिहं ध्वनि जो श्वास के साथ अंदर जाती है शिव है शुद्ध अहं विमर्श हैअंतरात्मा हैसः की ध्वनिजो प्रश्वास के साथ बाहर जाती है वह शक्ति है परमेश्वर की सृजनात्मक शक्तिस्पंदकारिका कहतीहैशक्ति के प्रथम स्पंद प्रथम स्फुरण को सः कहते हैंश्वास और प्रश्वास शिव और शक्ति का नृत्यहैसांसारिक जीवन में शब्द किसी वस्तु की जानकारी देता है इसलिए वह शब्द वस्तु के साथएकरूप होता है

श्वास अन्दर आते समय बारह अंगुल की दूरी तक भीतर आता है और लय हो जाता हैइस लय स्थानको हृदय या अंतः द्वादशांत कहते हैंइसी को शिव द्वादशांत कहते हैंश्वास पुनः उदित होकर बारहअंगुल की दूरी तक बाहर जाता है वहाँ लय होने के स्थान बाह्य द्वादशांत शक्ति द्वादशांत या बाह्यहृदय कहलाता हैहृदय का तात्पर्य कोई शारीरिक अंग नहीं हैश्वास के लय स्थान को हृदय कहतेहैंअंदर और बाहर के लय स्थान वस्तुतः एक ही हैंदेहभाव होने के कारण इनमे द्वैत हैलय होने कावह क्षण सहज कुम्भक का वह क्षण जब हं चला जाता है और सः अभी उदित नही हुआ हैवही सच्चामंत्र हैमंत्र या जप का सच्चा लक्ष्य यह बोध ही हैयह कुम्भक क्षण भर के लिए पा लेना भी बहुत हैसूफ़ी मत में इसे या हू के रूप मे तो तिब्बती बौद्ध मत में हूं सो के रूप में जानते हैंताओ का यिन यांगयही हैयहूदियों का या वे भी यही हैअपान के साथ अंदर आने वाला वर्ण हम् आत्मा का बीज मंत्रहैयह अभ्यास स्वतः हो रहा हैहं और सः के बीच वर्णों का उदय एवं अस्त हो रहा हैहं को हमनेवस्तुओं के साथ जोड़ रखा हैपर जैसे ही हम सः को समझ लेते हैंवैसे ही हमारा मैं उससे जुड़ी हुयीचीज़ों से मुक्त होकर पूर्णतः शुद्ध हो जाता हैइस दशा में नाम और रूपशब्द और अर्थ एक हो जातेहैं.


परमहंस योगानंद कहते हैं मानव के शब्द ब्रह्मवाक्य हैं।सच्चाईदृढ़धारणाविश्वास और अन्तर्ज्ञानसे संतृप्त शब्द अत्यधिक विस्फोटक स्पन्दनात्मक बम की तरह हैं जिनको जब विस्फोट किया जाताहै तो वे कठिनाई की चट्टानों को नष्ट कर देते हैं और मनोवांछित परिवर्तन का सृजन करते हैं।



जब साधक शांभव दशा में होता है यानि पूर्णाहंताशुद्ध अहं स्थितितब वह वाक् राज्य में यात्राकरता हैयहाँ वह परावाक़ नाम की सर्वोच्च अवस्था में होता हैयहाँ से वह बैखरी नामक अंतिम याप्रचलित दशा में आवाजाही कर सकता हैपरा वाक् में कोई ध्वनि की सत्ता नहीं होतीपश्यंती वाक्निर्विकल्प दशा होती हैकुछ देखने और  देखने की समदशा यह शिखरस्थ ज्ञान हैऊपर बैठकरव्यक्ति को दूर का और सब जगह का दिखाई दे जाता हैमध्यमा दशा में व्यक्ति विचारों में जीता हैस्वप्न और सुषुप्ति के दौरान भी व्यक्ति मध्यमा में रहता हैउसके बाद बैखरी दशा में व्यक्ति आता हैबैखरी में ही नाम और रूप पृथक पृथक बंट जाते हैंआणवोपाय का साधक जपादि साधनों से बैखरीका प्रयोग करके शाक्तोपाय में प्रवेश करता हैजिसमें व्यक्ति अपने स्वरूप में रहने लगता है

संगीत के क्षेत्र में डूबे कलाकार शब्द की महिमा समझते हैंउनके लिए flash becomes word होजाता हैराग का अर्थ ही है जो हृदय में रंजित कर देकाश्मीरी संत लल्लेश्वरी ने कहा है 

O lalli!

With right knowledge,

open your ears and hear

how the trees sway to Om Namah Shivaya,

how the wind says Om Namah Shivaya as it blows,

how the water flows with the sound Namah Shivaya.

The entire universe 

is singing the name of Shiva.


यहाँ भगवान के कतिपय नामों का अर्थ जानना  अच्छा होगाक्योंकि यह अर्थ ही उन नामों की ताक़तहैकहानियाँ उन अर्थों का प्रकाशन करने के लिए ही हैंगोविंद का अर्थ है जो गायों को इकट्ठा करेउनकी रक्षा करेयह प्रतीक हैगो का अर्थ प्रकाश किरण भी होता हैहरि वह जो हृदय को मोहितकरेवह भी जो अज्ञान और दुःख को हरेराम का अर्थ है जो आनंद प्रदान करेनारायण का अर्थ हैमनुष्यों का दैवी पथनारायण पथ के लक्ष्य का भी नाम हैकृष्ण का अर्थ है गहरा नीला-कालादूरका दृश्य काला या नीला ही दिखता हैइससे समय और देश के पार होने का अर्थ विदित होता हैशंभो का अर्थ है वह जो प्रसन्नता लाए दुर्गा जिसे विज़िट करना मुश्किल होशिव का अर्थकल्याणकारी विदित ही हैशिव माने कुछ नहींशून्यता की पूर्णता शिव हैशिव में जीव और इच्छाकी ध्वनियाँ शामिल हैंकेशव नाम केशि नामक दैत्य को मारने के कारण बताया जाता हैकेशवहृषिकेश से अलग कहाँहृषिकेश इंद्रियों का स्वामी होने के कारण कहा गयाविट्ठल का अर्थ है वहजो ईंट पर खड़ा रहेकहते हैं भगवान विट्ठल अपने भक्त पुंडलीक के माता पिता की रक्षा के लिए ईंटपर खड़े रहेपाण्डुरंग भगवान विट्ठल को उनके पीलेपन के कारण कहा गया

दक्षिण भारत में वेंकट पहाड़ी का स्वामी होने से भगवान को वेंकटेश कहा गया हैकर्नाटक में अक्कमहादेवी अपने आराध्य को बार बार चन्न मल्लिकार्जुन कहतीं थींचन्न का अर्थ सुंदर होता है मल्लिका जैज़्मिन या चमेली को कहते हैंअर्जुन श्वेत या धवल को क़हते हैंअर्जुन को शिव सेमहत्वपूर्ण हथियार पाने के लिए युद्ध लड़ना पड़ादेवी ने उन सभी बाणों को बदल दिया जो अर्जुन नेचमेली के फूलों में चलाए थेचमेली के फूलों से शिव ढँके हुए थेइससे भगवान शिव का नाममल्लिकार्जुन हुआमनुष्य और भगवान के बीच हुए युद्ध में देवी के हस्तक्षेप से विनाश टल जाता हैअक्क का अर्थ है बड़ी बहन



११//२२


बाइबिल में वर्ड को गॉड से जोड़कर बताया गया है. That word was God. सृष्टि का उन्मेष यानिर्माण शब्द से ही हुआ हैइसे हम साधारणतः सुन नही पातेक्योंकि यह शोरगुल में दबा रहता हैहिंदू इसे मुस्लिम आमीन क्रिस्चियन और यहूदी आमेन कहते हैंएक ध्वनि के ये विभिन्न नाम हैंयह ध्वनि ऊर्जा जब स्थूल हुयी तब सृष्टि का निर्माण हुआजैसे ही हम किसी नाम का उच्चार करतेहैंउससे संबंधित ध्वनि और अर्थ का उदय हो जाता हैशब्द और अर्थ परस्पर संबद्ध हैंयह संपृक्तहैंकालिदास ने वागर्थ की तुलना पार्वती  परमेश्वर से की हैगोस्वामी तुलसीदास में गिरा (वाणीऔर अर्थ को जल और उसकी लहर की भाँति कहा हैजो भिन्न भी हैं और नहीं भी हैंप्रत्येक शब्दध्वनि में उतरने से पूर्व मध्यमा भूमि में हृदय या द्वादशांत में अवस्थित रहता हैपश्यंती दशा को व्यक्तकरती हुयी मानस की चौपायी की अर्धाली दृष्टव्य  है..

गिरा अनयन नयन बिनु बानी।।।

यानि वाणी बिना नेत्र की है और नेत्रों के वाणी नहीं है। दक्षिणामूर्ति स्तोत्र में आया है-


चित्रं  वटतरोर्मूले    वृद्धाः    शिष्या   गुरुर्युवा 

गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यास्तु छिन्नसंशयाः 

                                     (दक्षिणामूर्तिस्तोत्रम् १२)


क्या ही आश्चर्य है ! वटवृक्षके नीचे वृद्ध शिष्य और युवा गुरु चित्रवत विराजमान हैं  गुरुके मौनव्याख्यानसे शिष्योंके सब संशय मिट गये हैं !’ परावाक़ सृष्टि कल्पना में हैपर ईक्षण से पश्यंतीवाक् का आविर्भाव होता हैसूक्ष्म मध्यमा वाक् हिरण्यगर्भ दशा हैयह अवस्था वर्ण से पूर्व कीमातृका स्थिति हैजब शब्द बोले जाने लगते हैंतब उन्हें वर्ण कहा जाता है


विचार जब मुख से निसृत होते हैंतब उसे वैखरी कहा जाता है

यह वैज्ञानिक प्रयोग है कि यदि निश्चित ध्वनि पर किसी शब्द को उतारा जाय तो एक विशिष्ट रूपका निर्माण हो सकता हैयही मंत्रयोग है.


ग्रीक भाषा में पहला अक्षर अल्फ़ा है और अंतिम ओमेगाअक्षर से ही सृष्टि हुयीअक्षर माध्यम हैसृष्टि और सृष्टिकर्ता कानिर्माण एक विचार मात्र हैजो ध्वनि से सम्भव होता हैयह ध्वनि सबप्राणियों का मूल है.संस्कृत का प्रत्येक अक्षर एक बीज या मंत्र  हैयही पुरुष तत्व है जो सबमेंविद्यमान हैप्रकृति ऊर्जा है जो सबमें इंद्रियों और उनके विषयों तथा महाभूतों में लास्यमान हो रही हैअक्षर इसे इसलिए कहा गया क्योंकि यह तत्व कभी क्षरित नहीं होताअक्षर  ब्रह्म है कूटस्थ भीअक्षर हैकूट या निहाई पर सुनार और लुहार औज़ारों और आभूषणों को कूटते हैंनिहाई अपरिवर्त्यरहती हैवस्तुएँ बदलती जाती हैं.


संस्कृत में अक्षर (लेटरको अक्षरवर्णमातृका और लिपि के रूप में जानते हैं

अक्षर मात्र एक लेटर नहीं है पहला और क्ष अंतिम अक्षर है इसके बीच अग्नि बीज  हैजिसकाअर्थ पहुँचना या जाना होता हैअक्ष का अर्थ धुरी होता हैजिससे पूरा चक्र घूमता हैपृथ्वी भी धुरी हीहैजिस पर जीवन चल रहा हैमानव शरीर में यह धुरी रीढ़ कही जाती हैअक्ष का एक और अर्थ हैआँखयह केवल देखने वाली इंद्रिय का नाम नहीं वरन तृतीय नेत्र का नाम है का अर्थ अग्नि हैप्रत्येक शब्द मुख के माध्यम से बाहर आता हैअग्नि का गुण वस्तु को जलाना और चमकाना होताहै

वर्ण का अर्थ अक्षर के साथ साथ रंग और जाति भी होता हैधान और चावल के बीच जो आवरणहोता हैउसी अर्थ का आवरण अक्षर पर वर्ण का चढ़ा होता हैवर्ण के माध्यम से वस्तुएँ दृश्यमानहोती हैंयह सब तरह के वर्ण शब्द के अर्थ पर लागू होता है.हर व्यक्ति और प्राणी में चतुर्वर्ण विद्यमानहैवस्तुएँ रंगीन होती हैं वर्णन शब्द में भी यह वर्ण शामिल है

मातृका वर्ण रूपी होती हैवर्ण रूप में माँवर्णमाला का सिद्धांत मातृकाचक्र में वर्णित हुआ हैचितआनंदइच्छाज्ञान और क्रिया यह पाँच ऊर्जा संस्कृत के १६ स्वरों से व्यक्त होती हैंयह शिव तत्व केअंतर्गत हैंअं स्वर तक शिव अपने स्वभाव में रहते हैंकिंतु विसर्ग से यह सृष्टि प्रतिबिंबित होने लगतीहैउसके दो बिंदु शिव बिंदु और शक्ति बिंदु हैं कुल तीन प्रकार के विसर्ग हैंएक शांभव विसर्गजिसमें चित्तप्रलय हुआ रहता हैजिसमें मन अमन हो जाता हैइसे परा विसर्ग भी कहते हैंयह  सेव्यक्त होता हैयह उच्चतम विसर्ग हैदूसरा शाक्त विसर्ग हैयह परापर विसर्ग कहा गयायह मध्यमविसर्ग है यह अः के माध्यम से व्यक्त होता हैयह चित्तसंबोध की दशा हैजिसमें व्यक्ति एकत्व मेंलीन रहता हैतीसरा और अंतिम विसर्ग आणव विसर्ग हैइसकी स्थिति निम्नतम हैनर विसर्ग है औरयह  से व्यक्त होता हैयह चित्तविश्रांति की अवस्था है वर्ण सुख-दुःखहर्ष-शोक जैसीविपरीतार्थक स्थितियों में प्रयुक्त होने वाला इकलौता वर्ण हैअहा में भी यह है और  हाय-हाय में भीसमूची सृष्टि में इसकी सत्ता हर समय विद्यमान हैशिव की स्तुति में एक श्लोक में अहो शब्द के हीदो परस्पर विरोधी प्रयोग मिलते हैंजिसमें संसार और शिव दोनों को अहो कहा गया है


अहो निसर्ग गंभीरो घोर संसार सागरः 

अहो तत्तरणोपायः परः कोsपि मकेश्वरः

स्तव चिंतामणि ९१


 और  के बीच ही सारे वर्ण स्थित हैं एवं  में अनुस्वार  लगते ही वह अहं बनता है शिव हैऔर  शक्तिअं नर हैशिव और शक्ति के बाद नर हैजब नर शक्ति के माध्यम से शिवमय होता हैतब महा बन जाता है



लिपि ध्वनि की भौतिक अभिव्यक्ति हैपहले ध्वनि फिर रूप आता हैलिपि अक्षर का लिखित रूपहै

मुँह से निकला प्रत्येक शब्द अहंकार से और भावनाओं से या ज्ञान और भक्ति के कारण आता हैजोव्यक्ति अपनी भावनाओं को नियंत्रित करके उन्हें भक्ति में रूपांतरित करने में समर्थ रहता हैवस्तुतःवही समझदार हैभावनाएँ अनुग्रहभयद्वेषक्रोध और आनंद के रूप में व्यक्त होती हैंइनमें अंतिमभावना ही वरेण्य है


यह सृष्टि देवी काम या इच्छा (विलका परिणाम हैइस काम को भौतिक अर्थ में सेक्स  याकामेच्छा से ग्रहण किया जाता हैपर यह काम पाँचों विषयों का पाँचों इंद्रियों से संघट्ट या संभोग कीदशा का नाम हैकाम की पुत्री वाक् हैअक्षर दैवी इच्छा का बोला हुआ रूप हैअथर्ववेद में काम कोसभी देवों से ऊँचा स्थान दिया गया हैइसमें काम की पुत्री को वाकविराट कहा गया है.

किसी वस्तु का स्पंदन और मन की वृत्ति या विचार समान होता हैजब एक विषय या अर्थ  इंद्रिय कोप्रभावित करता हैतब उस क्रिया को मन और उसके परिणाम को वृत्ति कहते हैंशब्द स्पंद में व्यक्तहोते हैंआकाश ध्वनि का स्थूल शरीर हैजो वायु द्वारा गति करती है और कान के माध्यम से ग्रहणहोता है.

ईश्वर प्रत्यय है तो हिरण्यगर्भ शब्द और विराट अर्थ हैकिसी मनुष्यजानवर या प्राणी द्वारा व्यक्तस्फुट या अस्फुट ध्वनि या आवाज़ शब्द हैअर्थ उसका स्थूल शरीर है.

परावाक़ बिंदु हैपश्यंती ईक्षण या सक्रिय विचार की दशा हैशब्द का कारण शरीर परावाक़ बिंदु हैजिससे शब्द का सूक्ष्म शरीर तन्मात्रा एवं मातृका के रूप में उदित होता हैतत्पश्चात् स्थूल शरीर मेंवर्ण की उत्पत्ति होती हैवर्ण से शब्दांश मिलकर पद और पद से मिलकर वाक्य बनते हैंअतः मंत्रशब्द का स्थूल शरीर है

शब्द तन्मात्रा या अपंचीकृत आकाश अपंचीकृत तन्मात्रा हैशब्द अकेले आकाश का गुण नहीं हैबल्कि इसमें वायु और अन्य भूत भी शामिल हैइसलिए शब्द स्थूल सूक्ष्म और कारण शरीर ही नहींहैवरन यह दैवी इच्छा या काम में भी शामिल हैकामेच्छा जब कान और मन में जाती है तब ध्वनिउत्पन्न करती है और जब यह आँख और मन में जाती है तब रंग और रूप उत्पन्न करती हैइसी तरहवायुजल और पृथ्वी के संघात से स्पर्शरस और गंध भी उत्पन्न होते हैंआकाश और वायु अमूर्तमहाभूत हैंशेष तीन महाभूत मूर्त हैंशब्द जब व्यक्त ध्वनि में कान में स्पंदित होते हैं तब नाम बनते हैंतेजस का विभाजन होकर रूप बनता हैअतः अर्थ आँख और मन के स्पंद का परिणाम हैनाम औररूप ब्रह्मांड के भीतर ही हैं.

तुरीया अशब्द दशा है तो सुषुप्ति परशब्दअपरशब्द में भाषा संभव नही

कोई वैदिक शब्द पूर्ण स्वाभाविक नाम नहीं हैपर तंत्र शास्त्र में वर्णित बीज मंत्र स्वाभाविक नामों केनिकट हैंजो संस्कृत के विभिन्न शास्त्रों में बिखरे हुए हैंगौ स्वाभाविक शब्द का एक उदाहरण हैशब्द और अर्थ का संबंध शाश्वत हैकुछ शब्द अर्थ का स्वाभाविक नाम होते हैं इस प्रकार कीस्वाभाविक भाषा तो नही मिलती par कतिपय aise शब्द अवश्य मिलते हैंगौ ऐसा ही शब्द हैशतपथ ब्राह्मण में कहा गया है मूल भाषा एकाक्षरी रही होगीवैदिक भाषा के बारे में दावा कियाजाता है कि उसमें शब्द और अर्थ का शाश्वत संबंध मिलता हैयद्यपि कतिपय शब्दों को छोड़करऐसा प्रमाणित नहीं हो सका है.


शब्द या वाक् वर्ण पद और मंत्र तथा अर्थ कलातत्त्व एवं भुवन में अभिव्यक्त होते हैं.


१२//२२


ज्ञान भक्ति और कर्म के माध्यम से नाम और रूप का सैद्धांतिक दर्शन होता हैपर योग के माध्यम सेवह इंद्रियों में अनुभूत हो जाता हैतब ज्ञान और भक्ति भी उसके लिए हस्तामलकवत हो जाते हैंकर्मफिर उसके लिए नही रह जातावह मात्र प्रकृति में प्रकृति को बरतता है


नाम और रूपशब्द और अर्थ जिस तरह एक हैंकार्य और कारण भी वस्तुतः एक ही हैंप्रकट होने मेंवे अलग-अलग दिखते हैंशिव और शक्ति एक ही हैंएक होने की दशा में शक्ति अनभिव्यक्त रहतीहैशक्ति जब विकसित होती है तो उसके स्तर भिन्न भिन्न होते जाते हैंशक्ति जब ब्रह्म से ईश्वर तत्वमें बिंदु रूप व्यक्त हुयीयह बिंदु कामकला का त्रिकोण हुआशब्द ब्रह्म से शब्द और अर्थ अलगअलग हुएइच्छा मात्र शब्द ब्रह्म हैफिर ज्ञान और क्रिया का आविर्भाव होता हैशब्द और अर्थ कार्यहैंजो मन और पदार्थ के रूप में दृश्यमान हैंयह कारण शरीर हैइसके बाद काल के प्रभाव से सूर्यऔर चंद्र अस्तित्व में आते हैंयह सब कालक्रम में हम लोग देखते हैंपर सृष्टि और लय क्षण मात्र कीक्रिया है


परबिंदु जब दो भागों में विभक्त हुआदाएँ भाग को बिंदुपुरुष या हं कहा गयाबाएँ भाग को विसर्गप्रकृति या सः कहा गयादोनों का योग हंसः हैयह ब्रह्मांड हंस स्वरूप हैबिंदु कार्य है और बीजशक्तिशक्ति में द्वैत हैशक्ति के विस्तार को ही माया जाना गया हैअविद्या में जो माया हैज्ञानदशा में वह शक्ति हैयोग में अद्वैतइन दोनों को एक साथ देखने की दशा द्वैताद्वैत हैशुद्धाद्वैत में सबकुछ अनंत है और वही एक हैशिव और शक्ति सर्वत्र और सबमें हैंइदं में अहं और अहं में इदं हैअहमिदं एक होने पर क्या बचता हैउसे अहं कहें या इदंवह एक ही हैशिव और शक्ति कामैथुनिभूत जगत में यह विलास तिर रहा हैचिदशक्ति विलास यही हैशब्द और अर्थकार्य औरकारण या नाम और रूप को मैथुन रूप ही समझना चाहिए.

नाद शब्द का सूक्ष्म स्तर हैसब प्राणियों में श्वास स्वरूप कुंडलिनी विद्यमान हैनाद और बिंदु सबबीज मंत्रों में हैसामान्यतः ऊपर बिंदु और नीचे नाद होता हैचंद्रबिंदु का यही आशय हैपहले  मेंचंद्र के नीचे बिंदु लगाते थेवैसे भी प्रतिबिंब में दर्शन उल्टा हो जाता हैअनुस्वार चंद्र बिंदु में ही लिखेजाते थेलिखने की सुविधा के चलते अब यह बिंदु मात्र रह गयाबिना अनुस्वार के कोई बीज मंत्रनहीं होताह्रीं में  आकाश का बीज है अग्नि का शिवशक्ति का और अनुस्वार अं नादबिंदु हैअग्नि या रूप के प्रकट होने तक आकाश और वायु तत्व यानि शब्द और स्पर्श का अनुभव नहीं होपाताआकाश जब अग्नि तत्व के सम्पर्क में आता हैतब रूप यानि  का आविर्भाव होता हैशिवऔर शक्ति इसे धारण करते हैं और नाद बिंदु में व्यक्त होता है.


नाद मंत्र शास्त्र के अंतर्गत हैशक्ति का स्तर बिंदु हैजो त्रिबिंदु में व्यक्त होता हैजिसे शब्द ब्रह्मकहा गया हैयही शब्द और अर्थ का स्रोत हैषट्कोण यंत्र में शिव और शक्ति के त्रिकोण मिल रहेहैंयह सृष्टि का प्रतीक है.


शब्द की महिमा दुनिया में सब महापुरुषों ne वर्णित की है.

कबीर ने गया है - 

साधोसब्द साधना कीजै।

जेही सब्द ते प्रकट भए सबसोइ सब्द गहि लीजै।।

सब्द गुरु सब्द सुन सिख भएसब्द सो बिरला बूझै।

सोई सिष्य सोई गुुरु महातमजेही अन्तर गति सूझै।।

सब्दै वेद पुरान कहत हैंसब्दै सब ठहरावै।

सब्दै सुर मुनि संत कहत हैंसब्द भेद नहिं पावै।।

सब्दै सुन सुन भेष धरत हैंसब्दै कहै अनुरागी।

खट-दरसन सब सब्द कहत हैंसब्द कहै वैरागी।।

सब्दै काया जग उतपानीसब्दै केरि पसारा।

कहै कबीर जहं सब्द होत हैंभवन भेद है न्यारा।।

कबीर सबद सरीर मेंबिन गुण बाजै तंत।

बाहर भीतर भरि रह्याताथै छूटि भंरति।।

सब्द सब्द बहु अंतरा सार सब्द चित देय।

जा सब्दै साहब मिलैसोई सब्द गहि लेय।।

सब्द बराबर धन नहींजो कोई जानै बोल

हीरा तो दामों मिलैसब्दहिं मोल  तोल।।

सीतल सब्द उचारिए। अहम आनिए नाहिं।

तेरा प्रीतम तुज्झमेंसत्रु भी तुझ माहिं।।


नानककबीर और अन्य संतों ने सबद संकीर्तन गाया है


संतों ने सत्य को जाना है--कान के माध्यम से। वैज्ञानिकों ने सत्य को जाना है--आंख के माध्यम से।  लाओत्सु को मानने वाले फकीरों का चीन में कहना है कि आंख है पुरूष की प्रतीक और कान है स्त्रीका प्रतीक। कान ग्राहकआंख आक्रामक है। इसलिए तो हमारे पास इस तरह के शब्द हैंजैसेःलुच्चा। लुच्चा का मतलब होता है--किसी पर आंख से हमला।

लुच्चा शब्द आता है--लोचन से। लोचन याने आंख। लुच्चा हम उस आदमी को कहते हैंजो किसीको घूर घूरकर देखे।



काल का भक्षण करने के कारण शक्ति को काली कहा गया हैभक्षण करने के बाद वह काले स्वरूपऔर निराकार अवस्था में उदित होती हैउसकी उपासना निर्भय और इच्छा रहित होकर हो सकती हैश्मशान पर काली पूजा इच्छाओं को जलाने का प्रतीक हैवह दिगंबरी हैमन और वाणी से परेवर्णमाला को वह गले में धारण करती हैबौद्ध डेमचोग तंत्र में हेरुक महान वर्णमाला पहने हैंयह वर्णही नाम और रूप की प्रतिनिधि हैंमन जब विषय या तन्मात्रा ज्ञान करता है तब वह शब्द है और जबपदार्थ ज्ञान करता है करता है तब वह अर्थ है

शब्द ध्वनि और वर्ण में बँटा रहता हैध्वनि दो  वस्तुओं के घात से उत्पन्न होती हैवर्ण मुख और शरीरके विभिन्न अवयवों से उत्पन्न होते हैं . हर ध्वनि का अर्थ हैज्ञात हो या  होएक निश्चित क्रम में रखेअक्षरों से बने वर्णात्मक शब्दों का निश्चित अर्थ हैएक ही वर्ण को भिन्न भिन्न व्यक्तियों अथवा एकही व्यक्ति के के बार बार बोलने पर अलग अलग अर्थ छवियाँ बन जाती हैंभौतिक विज्ञान भी जगतरचना का कारण ध्वनि या विद्युत तरंग को मानता है.

सामान्यतः इस संसार में ध्वनि बाहर से आकाश में किंतु भीतर से कान में प्रतिबिंबित होती हैइसीतरह स्पर्श बाहर से वायु में भीतर से त्वचा मेंरूप बाहर से अग्नि और दर्पण में भीतर से आँख मेंस्वाद बाहर से जल में और भीतर से जिह्वा में एवं गंध बाहर से पृथ्वी मेंपर भीतर से नासिका मेंबिंबायमान हैयह ब्रह्मांड स्वातंत्र्य शक्ति का दर्पण हैइस बिम्ब और प्रतिबिम्ब को सामान्य रूप मेंकार्य कारण सिद्धांत से समझ लिया जाता हैकुछ भी भगवान के मुखड़े से बाहर नहींउसी का दर्पणहै और वही देख रहा हैयह स्वातंत्र्य दर्पण हैस्वातंत्र्य निमित्त कारण हैजो बिंबित हो रहा वहउपादान कारण हैनिमित्त कारण शब्द है और उपादान कारण अर्थ हैस्वातंत्र्य सबका बीज है.

काम या सृष्टि निर्माण की सिसृक्षा शिव और शक्ति की होती हैकला उनके उन्मेष का नाम हैइसलिए इसे  कामकला कहा जाता है.


हंस को योगी ही जानते हैंइसकी चोंच तार या प्रणव (हैदो पंख आगम और निगम हैंदो पैरशिव और शक्ति हैंतीन बिंदु इसके तीन नेत्र हैंयह अविद्या के सरोवर में रहता हैकिंतु जबनिष्प्रपंची हो जाता हैतब उसका पक्षित्व समाप्त हो जाता है और सोहमात्म हो जाता है.



आकाश का गुण शब्द हैआकाश का कोई रंग नहीं होताकाला रंग सभी रंगों का अभाव हैरूप केसाथ रंगों का आविर्भाव होता हैपहले दो रंग हीन महाभूत हैं तो अंतिम तीन भूत रंग संपन्नसभी तत्वपुरुष की मौज के लिए कार्य करते हैं उनका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है


शक्ति-शिव (अः-अंकी पाँच तरह की ऊर्जा उक्त ३६ तत्वों में प्रतिबिंबित हो रही हैयह ऊर्जा स्वरवर्णों में मुखरित होती  हैं क्रिया(   ), ज्ञान( ), इच्छा( ), आनंद ()और चित().  रिरील्रि ल्री (इन्हें लिखा नहीं जा पा रहा हैअनाश्रित वर्ण हैं



पृथ्वी आदि पाँच महाभूत( वर्गीय वर्णों से अभिव्यक्तपाँच तन्मात्रा ( वर्गीय वर्ण)पाँच कर्मेंद्रियाँ( वर्गपाँच ज्ञानेंद्रियां ( वर्गमन (),  अहंकार (), बुद्धि(),  और प्रकृति (तक २४ तत्वअशुद्ध विद्या हैंपुरुष (), माया (के पाँच कंचुक - नियति (काल (), राग(), विद्या(एवंकला (नामक  तत्व शुद्ध-अशुद्ध तो शुद्धविद्या से शिव तत्व तक शुद्धविद्या (अहं अहं इदं इदं), ईश्वर (इदं अहंसदाशिव (अहं इदं), शक्ति (अहं - यह चार वर्ण अपने स्वभाव की ऊष्माके कारण ऊष्मथ वर्ण  कहे जाते हैं शिव और परमशिव मिलकर यह  शुद्ध विद्या मानी जाती हैपरमशिव को अलग करके कश्मीरी शैव दर्शन में पाँच शुद्ध तत्व माने गए हैंपरमशिव तत्वातीत हैंकुल यह ३६ तत्व मान्य हैं प्रकृति में तीन गुण होते हैं पर वे तत्व नहीं हैं.   क्योंकि वे प्रकृति द्वारानिर्मित होते  हैंतत्व निर्माता होते हैंनिर्मित नहींपुरुष तत्व तक हाई वेदान्तियों की समझ सीमित हैकिंतु शैव दर्शन में यहाँ तक कुछ नहीं समझा जातापुरुष में अहं भी हैपुरुष और अहं में अंतर हैपुरुष विषयबंध ग्रस्त हैइसे नाम या शब्द कह सकते हैं और अहंकार वस्तुबंध ग्रस्त हैइसे रूप याअर्थ कह सकते हैंयह पुरुष माया के पाँच कंचुकों से आवृत्त हैनियति तत्व से वह सीमाबद्ध रहता हैकाल से वह समय बद्ध हो जाता हैराग से वह अधूरे से ग्रस्त रहता हैविद्या माया से वह ज्ञान कीसीमा में बद्ध हो जाता हैपाँचवीं और अंतिम माया में कला तत्व हैजिसके कारण उसे कुछ अपनेभीतर रचनात्मक प्रतिभा होने का गुमान बना रहता हैमाया के यह पाँच तत्व पुरुष के अपने अविद्याजन्य स्वभाव में रहते हैंअंतस्थ वर्णों में यह विद्यमान हैंइनके कारण पुरुष अपना मूल स्वभाव नहींजान पाताइसलिए वह प्रकृति से बंधा रहता हैयह  कंचुक या आवरण अनिवार्यतः हटाने होते हैंजो गुरुकृपा से निर्मूल हो जाते हैंतब यह माया शक्ति में रूपांतरित होती हैयही माया शिव कावैभव बन जाता हैअंतःकरण से माया पर्यंत यह तत्व नाम और रूप या शब्द और अर्थ से बंधे रहतेहैं इसके बाद पुरुष शुद्ध विद्या में प्रवेश करता है शुद्ध विद्या बोध प्राप्ति की दशा हैइसमें अर्थशब्द में क्रमशःविलीन होने लगता हैयह अर्थ है यह शब्द यह शुद्धविद्या की दशा हैइसके बाद ईश्वरदशा में अर्थ शब्द में ही हैफिर सदाशिव दशा में शब्द में ही अर्थ हैयह बोध और तब शक्ति औरशिव तत्व में प्रवेश होता हैयह दोनों अंतर्निर्भर होते हैं शक्ति तत्व में पूर्णत्व भाव ( मैं ही यह संसार हैऔर शिव तत्व में शून्यत्व भाव ( कुछ भी नहीं है)छा जा जाता हैउन्मेष और निमेष मात्र (पलकझपकने भर मेंमें यह दोनों भाव घटित होते रहते हैंपरमशिव शिव और शक्ति के बाद तत्वातीत दशाहैइसे तत्वातीत भी नहीं कह सकतेक्योंकि यह सब ३६ तत्वों में भी एक समय में ही विद्यमान भी हैवह वहाँ नहीं भी है और है भीउसे तत्व कहिए कि क्या कहिएकुछ  कहिएसब कहिएक्योंकिवहाँ शब्द और अर्थ दोनों नहीं और दोनों हैं  भीवह अज्ञेय है  कि ज्ञेय हैकि ज्ञेयाज्ञेय अथवाअज्ञेयाज्ञेयभाषा काम नहीं करती है