Wednesday, November 30, 2022

नवंबर २२

हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्। तत्त्वं पूषन्नपातृणु सत्यधर्माय दृष्टये॥ ईशावास्योपनिषद् श्लोक १५।। अर्थात उस परमात्मा का मुख सोने के चमकदार पात्र से ढका हुआ है। परब्रह्म सूर्यमण्डल के मध्य स्थित है, किन्तु उसकी अत्यन्त प्रखर किरणों के तेज से हमारी ये भौतिक आँखेंं उसे नहीं देख पातीं। जो परमात्मा वहां स्थित है, वही मेरे भीतर विद्यमान है। मैं ध्यान द्वारा ही उसे देख पाता हूं। ६/११/२२ यस्याः प्राप्येत पर्यन्त-विशेषः कैर्मनोरथैः । मायामेकनिमेषेण मुष्णंस्तां पातु नः शिवः ।। ७/११/२२ वर्णमाला देश है और गिनती काल। यह सूत्र रूप में बात ध्यान करते समय उतरी। अभी व्याख्या नहीं हो पाएगी। ८/११/२२ जयानुकम्पादिगुणानपेक्षसहजोन्नते । जय भीष्ममहामृत्युघटनापूर्वभैरव ॥१५॥ न प्रक्रियापरं ज्ञानं! न क्रियारहितं ज्ञानं न ज्ञानरहिता क्रिया। गरीयानकर्मिणो योगी स च ज्ञानवतः शिशु! दश अंगुल पर्यंत वेदोक्त पुरुष सूक्त में है तो द्वादशांत आगम में आता है। यही दोनों का प्रस्थानबिंदु तो नहीं! सिद्धिकामस्य तत्सिद्धौ साधनैव हि कारणम् मुक्तिकामस्य नो किंचिन्निषिद्धं विहितं च नो। तंत्रालोक १५/२९१ सकार सृष्टि का सीत्कार है। स्वाहाप्रत्यवमर्शात्स्यात्समंत्रादद्वयं परं! स्वाहा शिव और शक्ति का मिलन है। यजमान का यज्ञ है। येन सर्वमिदं बुद्धं प्रकृतिर्विकृतिश्च या गतिज्यः सर्व भूतानां तं देवा ब्राह्मणम् विदु 9/11/22 Art is amoral; so is life. For me there are no obscene pictures or books; there are only poorly conceived and poorly executed ones. Every human life had its pattern that had to be worked out slowly to its ultimate conclusion. The real artist while he paints does not think of the sale, only of the need to make a beautiful living thing. A canvas that I have covered is worth more than a blank canvas. My pretensions go no further; that is my right to paint, my reason for painting. In order to paint life one must understand not only anatomy, but what people feel and thing about the world they live in. The painter who knows his own craft and nothing else will turn out to be a very superficial artist. There are neither good nor evil; only the existence and action. You cannot be firmly certain about anything. You can only have enough courage and strength to do what you consider to be right. Maybe it turns out that was wrong, but still you would have done this, and it is most important. Being mad is even pleasant. But only a madman understand that. A person may paint or talk about painting but he cannot do both at the same time. १०/११/२२ जीवन एक प्रसार , एक वृद्धि और एक प्रगति है। xxx वास्तव में वृद्धि का तात्पर्य है समय और स्थान में सब तरफ़ फैलना; और प्रगति का तात्पर्य है सब दिशाओं में समान गति; पीछे भी और आगे भी, और नीचे तथा दाएँ बाएँ और ऊपर भी। अतएव चरम वृद्धि है स्थान से परे फैल जाना और चरम प्रगति है समय की सीमा से आगे निकल जाना। समय स्थान की शिलाओं पर अंकित की हुयी ब्रह्मांड की स्मृति है। प्रसार के लिए सब मनुष्यों को समान भोजन मिलता है, पर उनका खाने और पचाने का सामर्थ्य समान नहीं होता, क्योंकि वे एक ही अंडाणु से एक ही समय और स्थान पर नहीं निकले हैं। समय-स्थान में उनके प्रसार में अंतर होने से कोई दो मनुष्य हूबहू एक जैसे नहीं मिलते। पृष्ठ २३५-२३७ किताबे मीरदाद से विवाद से बचो। सत्य स्वयं प्रमाणित है, जिसे तर्क और प्रमाण के सहारे की आवश्यकता होती है उसे देर सबेर तर्क और प्रमाण के सहारे ही गिरा दिया जाता है। वह प्रेम प्रेम नहीं जो प्रेमी को अपने अधीन कर लेता है! वह प्रेम प्रेम नहीं जो रक्त और मांस पर पलता है। वह प्रेम प्रेम नहीं जो स्त्री और पुरुष को शारीरिक बंधन में रखे। आत्मविजेता हर रक्त के साथ अपने रक्त का संबंध महसूस करता है। इसलिए वह किसी के साथ बंधा नहीं होता। हवा में छोड़ा तुम्हारा श्वास निश्चय ही किसी के फेफड़ों में प्रवेश करेगा। मत पूछो कि फेफड़े किसके हैं। केवल इतना ध्यान रखो की तुम्हारा श्वास पवित्र हो। १२/११/२२ किसी भी परिश्रम के लिए पुरस्कार मत माँगो। जो अपने परिश्रम से प्यार करता है, उसका परिश्रम स्वयं पर्याप्त पुरस्कार है। जो तुम्हारे पास आ जाता है वह तुम्हारा है। जो आने में विलम्ब करता हैवह इस योग्य नहीं कि उसकी प्रतीक्षा की जाए। प्रतीक्षा उसे करनव दो। कभी किसी चीज़ की शिकायत न करो। किसी चीज़ की शिकायत करना उसे अपने लिए अभिशप्त बना लेना है। उसे भली प्रकार सहन कर लेना उसे उचित दंड देना है। किंतु उसे समझ लेना एक सच्चा सेवक बना लेना है। तुम उसी को वश में रखते हो, जिससे तुम प्रेम करते हो, जिससे घृणा करते उसके तो वास में होते हो। जो मर रहे हैं उन्हें जीवन का उपदाह दो, जो जी रहे हैं उन्हें मरने का उपदेश दो किंतु जो आत्मविजय के लिए तड़प रहे हैं उन्हें दोनों से मुक्ति का उपदेश दो। अच्छा मार्गदर्शक बनने के लिए आवश्यक है कि स्वयं अच्छा मार्गदर्शन पाया हो। अपने मार्गदर्शक पर विश्वास रखो। मशाल को ऊँचे स्थान पर रखो, उसे देखने के लिए लीगों को बुलाते न फिरो। किसी मनुष्य से घृणा न करो। एक भी मनुष्य से घृणा करने की अपेक्षा प्रत्येक मनुष्य से घृणा पाना कहीं अच्छा है। प्रभु की खोज में लगे हृदय को सभी रास्ते प्रभु की ओर ले जाते हैं। जीवन के सब रूपों के प्रति आदर भाव रखो। ग़रीबी या अमीरी नाम की कोई चीज़ नहीं। बात वस्तुओं के उपयोग करने के कौशल की है। सबसे अधिक असह्य परेशानी है किसी बात को परेशानी समझना। अपनी पसंद का चुनाव कर लो, हर वस्तु का स्वामी बनना या किसी का भी नहीं, बच का कोई मार्ग संभव नहीं। रास्ते का हर रोड़ा एक चेतावनी है, उसे अच्छी तरह पढ़ लेने पर वह प्रकाश स्तंभ बन जाएगा। शब्द जहाज़ हैं जो स्थान के समुद्रों में चलते हैं और अनेक बंदरगाहों पर रुकते हैं। सावधान रहो की तुम उन्मे क्या लादते हो, क्योंकि अपनी यात्रा समाप्त करने के बाद वे अपना माल आख़िर तुम्हारे ही द्वार पर उतारेंगे। शब्द अधिक से अधिक बिजली की कौंध हैं जो क्षितिजों की झलक दिखाती है, ye उन क्षितिजों तक पहुँचने का मार्ग नहीं हैं, स्वयं क्षितिज तो बिल्कुल नहीं। अगर कौंध की दिशा में बढ़ चले तो शब्द कमज़ोर बुद्धि वाले के लिए बलशाली पंख भर हैं। जबतक तुम समय के खोल को बेध नहीं देते और स्थान की सीमा को लांघ नहीं तब तक कोई यह न कहे मैं प्रभु हूँ। बल्कि सब कहें प्रभि ही मैं हैं। समय द्वारा ही समय के विरुद्ध लदो। स्थान को ही स्थान का आहार बनने दो। दोनों में से एक का भी स्वागत करना दोनों का बंद होना तथा नेकी और बदी की अंतहीन हास्यजनक चेष्टाओं का बंधक बने रहना है। एक व्यक्ति स्वर्ण की शुद्धता और सुंदरता को देखने का आनंद लेता है और तृप्त हो जाता है जब की दूसरा स्वर्ण का स्वामी होने का रस लेता है और सदा भूखा रहता है। परमात्मा के सृजन की तुलना में मनुष्य का सृजन ऐसा ही है जैसे किसी महान वास्तुकार द्वारा निर्मित एक भव्य मंदिर या सुंदर दुर्ग की तुलना में एक बच्चे द्वारा बनाया गया ताश के पत्तों का घर। किंतु है तो वह फिर भी सृजन ही। जीवन निरंतर अंडाणु में से निकल रहा और वापस अंडाणु में विलीन हो रहा है। सृष्टि की प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक माँ अंडाणु का खोल टूट नहीं जाता और लघु परमात्मा विराट परमात्मा होकर बाहर नहीं निकल आता। जैसे धरती को वायु लपेटे हुए है, ऐसे ही इस अंडाणु को विकसित परमात्मा लपेटे हुए है। ब्रह्मांड में जो भी पदार्थ और जीव हैं, वे सब उसी लघु परमात्मा को लपेटे हुए समय-स्थान के अंडाणुओं से अधिक और कुछ नहीं, परंतु सबमें लघु परमात्मा प्रसार की भिन्न भिन्न अवस्थाओं में है। अन्याय को अकेला छोड़ दो, वह स्वयं ही अपने आपको मिटा देगा। क्या गधे को हांकने वाला उसकी दुम के पीछे पीछे नहीं चलता? क्या जेलर क़ैदियों से नहीं बंधा होता। एक तुच्छ मच्छर भी कुशल योद्धा को पछाड़ देता है। मनुष्य ने प्रभु के विधान का उल्लंघन करके पाप नहीं किया , बल्कि पाप किया है उस विधान के प्रति अपने अज्ञान पर पर्दा डालकर। द्वैत कोई दंड नहीं है, बल्कि एकत्व की प्रकृति में निहित एक प्रक्रिया है, उसकी दिव्यता के प्रकट होने का एक आवश्यक साधन। विश्वास से रहित ज्ञानेंद्रियाँ अत्यंत अविश्वसनीय मार्गदर्शक हैं। तनाव का अर्थ है आप कुछ और होना चाहते हैं जोकि आप नहीं हैं। १३/११/२२ अपना पेट भरने और विस्तार करने के प्रकृति के ढंग को हम युद्ध नहीं कह सकते। प्रकृति में कौन बलवान है और कौन दुर्बल। केवल प्रकृति हाई बलवान है। अन्य सभी जीव प्रकृति की इच्छा का पालन करते हैं। केवल मृत्यु से मुक्त जीवों को बलवान का दर्जा दिया जा सकता है। प्रकृति से अधिक शक्तिशाली मनुष्य है, क्योंकि वह समृद्ध प्रकृति का अभाव पूर्ति के लिए शोषण करता है। और संतानों के माध्यम से इसलिए विस्तार करता है कि अपने आपको ऐसे विस्तार से ऊपर उठा सके। अज्ञानी हृदय द्वैतपूर्ण होता है, ज्ञानवान हृदय एकतापूर्ण होता है। मनुष्य का मान तो केवल मनुष्य बने रहने में है। मनुष्य जो जीता जागता प्रभु का प्रतिबिंब और प्रतिरूप है। बाक़ी सब मान तो अपमान ही है। युद्ध करो उन सब वस्तुओं से जो तुम्हें और तुम्हारे पड़ोसी को आपस में लड़ाती हैं। ख़ूबी तो है उनके साथ शांतिपूर्वक जीने में जो ज़िंदा हैं। लोगों के होंठों पर प्रसिद्धि अंकित करना वैसा ही है जैसे समुद्र तट की रेत पर नाम अंकित करना। ओंठों पर उसे एक छींक ही उड़ा देगी। मनुष्य अपनी सम्पत्ति से उतना हाई बंधा हुआ है जितना अपने जीवन से। जो बलपूर्वक थोपा जाता है उसे देर सेबर बलपूर्वक हटा भी दिया जाता है। क्या सदा नहीं होता आया कि दुर्बल अपनी दुर्बलता के लिए संगठित हो जाते हैं। दिव्य ज्ञान स्वयं अपनी ढाल है, उसकी शक्तिशाली भुजा प्रेम है। यह किसी को सताता नहीं, यह तो हृदयों पर ओस की तरह गिरता है और जो इसे स्वीकार नहीं करते उन्हें भी पान करने वालों की तरह राहत देता है। क्योंकि इसे अपनी आंतरिक शक्ति पर बहुत गहरा विश्वास है। किसी भी सत्ता का रत्ती भर मूल्य नहीं है। सत्य का बीज प्रत्येक मनुष्य aur वस्तु के अंदर मौजूद है, उसे बोने की नहीं अंकुरित होने के लिए अनुकूल ऋतु तैयार करने की ज़रूरत है। मेरी अनुपम माँ। जिस प्रकार तूने अपना हृदय मेरे सामने फैला रखा है ताकि जो चाहिए ले लूँ, उसी प्रकार मेरा हृदय तेरे सम्मुख प्रस्तुत है कि जो चाहिए ले ले। धरती के हृदय से इस प्रकार की भावना प्रेरित होने पर इस बात का कोई महत्व नहीं रह जाता कि तुम क्या खाते हो। यह सच है की जीवों का मारना निश्चित है फिर भी धिक्कार है उसे जो किसी जीव की मृत्यु का कारण बनता है। प्रभु इच्छा किसी मनुष्य या पशु को मारने का काम नहीं सौंपती, जब तक कि उस मौत के लिए साधन के रूप में उसका उपयोग करना आवश्यक न समझती हो। धरती का पोषण धरती को ही करना है, वह कोई कंजूस गृहिणी नहीं। जो व्यक्ति वस्तुओं के पोर पोर का आनंद लेता है, वह उसके मालिक से अधिक धनी है। बच्चों की तुलना में बूढ़े सहानुभूति के अधिक अधिकारी होते हैं। महत्व शब्द की उस भावना का होता है, जो उसके भीतर गूंजती है, पशु भी उससे प्रभावित होते हैं। अपनी इच्छा शक्ति से तुम बहुत कुछ कर सकते हो, पर उस इच्छा शक्ति का अंत नहीं कर सकते, जो जीवन की इच्छा है, प्रभु की इच्छा है। जीवन या अस्तित्व अपनी इच्छा शक्ति से अस्तित्वहीन नहीं हो सकता न ही अस्तित्वहीन की कोई इच्छा हो सकती है। प्रेम ही प्रभु का विधान है। तुम जीते हो ताकि तुम प्रेम करना सीख लो। तुम प्रेम करते हो ताकि तुम जीना सीख लो। मनुष्य को और कुछ सीखने की आवश्यकता नहीं। और प्रेम करना क्या है, सिवाय इसके कि प्रेमी प्रियतम को सदा के लिए अपने अंदर लीन कर ले ताकि दोनों एक हो जाएँ। मीरदाद। भाग्य प्रभु इच्छा का ही दूसरा नाम है। समय और स्थान के अंदर कोई आकस्मिक घटना नहीं होती। हर पदार्थ में मनुष्य की इच्छा शामिल है और मनुष्य में शामिल है हर पदार्थ की इच्छा। समय स्थान की शिलाओं पर अंकित की हुयी ब्रह्मांड की स्मृति है। तुलना आनंद की चोर है। केवल प्रेम ही मोह से मुक्ति है। तुम जब हर वस्तु से प्रेम करते हो, तुम्हारा किसी भी वस्तु से मोह नहीं रह जाता। प्रेम ही समय और स्थान के अस्तित्व को मिटा पता है। समय का नियम पुनरावृत्ति है। सब वस्तुएँ मनुष्य में समायी हुयी हैं और मनुष्य सब वस्तुओं में। यह ब्रह्मांड केवल एक ही पिंड है। इसके सूक्ष्म से सूक्ष्म कण के साथ सम्पर्क कर लो और तुम्हारा सभी के साथ संपर्क हो जाएगा। यह शरीर समय और स्थान में विद्यमान हर पदार्थ में से लिया जाता है। जो अंश जिसका है उसी में वह जीता है। समय में कोई वस्तु इस योग्य नहीं कि उसके लिए आँसू बहाए जाएँ। तर्क का एकमात्र उपयोग मनुष्य को तर्क से छुटकारा दिलाना और उसको विश्वास की ओर प्रेरित करना है जो दिव्य ज्ञान की ओर ले जाता है। तर्क अपाहिजों के लिए वैसाखी है तेज पैर वालों के लिए एक बोझ है और पंख वालों के लिए तो और भी बड़ा बोझ। तर्क सठिया गया विश्वास है और विश्वास वयस्क हो गया तर्क है। अधिकांश लोग मरने के लिए जीते हैं। भाग्यशाली हैं वे जो जीने के लिए मारते हैं। मनुष्य परिवर्तन से इतना ऊब जाएगा कि उसका पूरा अस्तित्व परिवर्तन से अधिक शक्तिशाली वस्तु के लिए तरसेगा। कभी मंद न पड़ने वाली तीव्रता ke साथ तरसेगा। और निश्चय ही वह उसे अपने अंदर प्राप्त करेगा। समय का पहिया घूमता है पर इसकी धुरी सदा स्थिर है। गोलाई में हो रही गति कभी किसी अंत पर नहीं पहुँच सकती, न वह कभी ख़त्म होकर रुक सकती है। संसार में हो रही प्रत्येक गति गोलाई में हो रही गति है। समय का पहिया स्थान के शून्य में घूमता है। जो वस्तु एक के लिए समय और स्थान के एक बिंदु पर लुप्त होती हैं, वह दूसरे के लिए किसी दूसरे बिंदु पर प्रकट हो जाती हैं। सब ऋतुएँ समय और स्थान के प्रत्येक बिंदु पर एक ही हैं। समय सबसे बड़ा मदारी है और मनुष्य धोखे का सबसे बड़ा शिकार। क्या तुम निरंतर क्षीण होकर ही विकसित नहीं हो रहे हो? kya तुम निरंतर विकसित होकर हि क्षीण नहीं हो रहे हो। धीमे और और वेगवान को समय और स्थान के किसी भी बिंदु पर एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। धीमा ही वेग वान को जन्म देता है। वेगवान धीमे का वाहक है। समय में कुछ भी समाप्त और विसर्जित नहीं होता। कुछ भी आरंभ तथा पूर्ण नहीं होता। समय इंद्रियों के द्वारा रचित एक चक्र है और इंद्रियों के द्वारा ही उसे स्थान के शून्यों में घुमा दिया जाता है। ऋतुओं को प्रकट और विलीन करने वाली शक्ति एक रहती है, सदैव वही रहती है। शक्ति न विकसित होती है न क्षीण। कम खर्ची और परिश्रम ke लिए धन सम्पत्ति परमात्मा का उचित पुरस्कार है। लेनदार का ऋण देनदार के ऋण से अधिक बड़ा और भारी होता है। उधार देने के लिए तुम्हारे पास है क्या? क्या यह संसार एक संयुक्त कोष नहीं। संसार तुम्हें अपना नहीं सकता, क्योंकि वह तुम्हें नहीं जानता। परंतु तुम संसार को अपना सकते हो, क्योंकि तुम संसार को जानते हो। धरती हर मनुष्य और पशु की गंदगी स्वीकार कर लेती है और बदले में उन्हें मीठे फल, सुगंधित फूल, प्रचुर अनाज और घास सब देती है। नाले की गंदगी समुद्र तह में बिछाकर उसे स्वच्छ कर देता है। अपने पड़ोसी की आँखों की ज्योति को सम्भालकर रखो ताकि तुम अधिक स्पष्ट देख सको। अपनी दृष्टि सम्भालकर रखो ताकि तुम्हारा पड़ोसी ठोकर न खा जाए और कहीं तुम्हारे द्वार को ही न रोक ले। मनुष्य प्रभु का शब्द है। प्रभु मनुष्य का शब्द है। धन्य है वह जिसका शब्द मनुष्य है। धन्य है वह जिसका शब्द प्रभु है। जो कोई अपने हृदय में मंदिर को नहीं पा सकता, वह किसी भी मंदिर में अपने हृदय को नहीं पा सकता। शब्द व्यर्थ हैं यदि प्रत्येक अक्षर में हृदय अपनी पूर्ण जागरूकता के साथ उपस्थित न हो। कोई वचन कर्म कोई इच्छा या निश्वास, कोई क्षणिक विचार या अस्थायी सपना, मनुष्य या पशु का कोई श्वास, कोई परछाई, कोई भ्रम, इनमे से किसी एक ke साथ भी तुम अपने हृदय का सुर मिला लो, निश्चय ही वह उसके तारों पर धुन बजाने ke लिए तेजी से दौड़ा आएगा। जहां भूख है वहाँ भोजन है। जहां भोजन है, वहाँ भूख भी अवश्य होगी। भूख की पीड़ा से व्यथित होना तृप्त होने का आनंद लेने की सामर्थ्य रखना है। आवश्यकता में ही आवश्यकता की पूर्ति है। डींग मारती नेकी से ख़बरदार रही। जैसे अपनी शर्मिंदगी का मुँह बैंड रखते हो, वैसे ही अपने सम्मान का मुँह भी बंद रखो। डींग मारता सम्मान मूक कलंक से भी बदतर है, शोर मचाती नेकी गूँगी बदी से बदतर है। कितना कठिन है वह शब्द बोलना जिसे बोलना सचमुच आवश्यक है। बोले गए हज़ार शब्दों में से शायद एक केवल एक ऐसा हो जिसे बोलना सचमुच आवश्यक है। लिखे गए हज़ार शब्दों में से शायद एक, केवल एक ऐसा हो जिसे लिखना सचमुच आवश्यक है। ऐसा मौन हो जिसमें अनस्तित्व अस्तित्व में और अस्तित्व अनस्तित्व में बदल जाए। जब तुम्हारा मैं और मेरा मैं एक हो जाएँगे जैसे प्रभु ka मैं और मेरा मैं एक है, हम शब्दों को अलग कर देंगे और सच्चाई भरे मौन में खुलकर दिल की बात करेंगे। मुख से कही गयी बात अधिक से अधिक एक निष्कपट झूठ है, जबकि मौन कम से कम एक नग्न सत्य है। जिस किसी ने भी मौन की अजेय शांति का अनुभव किया है, उसे न कभी नाराज़ किया जा सकता है, न वह कभी किसी को नाराज़ कर सकता है। प्रेम एक क्रियाशील शक्ति है। जब प्रेम तुम्हारी दृष्टि को निर्मल कर देगा, तब कोई भी वस्तु तुम्हें प्रेम के अयोग्य दिखाई नहीं देगी। प्रेम को उसी सरलता और स्वतंत्रता के साथ स्वीकार करो जिस सरलता और स्वतंत्रता से तुम साँस लेते हो। प्रेम ही प्रेम का पर्याप्त पुरस्कार है जैसे घृणा ही घृणा का पर्याप्त दंड है। इसका लेना ही देना है और देना ही लेना है। आत्म प्रेम के अतिरिक्त कोई प्रेम संभव नहीं। अपने अंदर सबको समा लेने वाले अहं के अतिरिक्त कोई अहं वास्तविक नहीं है। जब तक प्रेम तुम्हें पीड़ा देता है, तुम्हें अपना वास्तविक अहं नहीं मिला है। जब तक तुम एक भी मनुष्य को शत्रु मानते हो, तुम्हारा कोई मित्र नहीं। जब तक तुम्हारे हृदय में घृणा है, तुम प्रेम के आनंद से अपरिचित हो। प्रेम ही प्रभु का विधान है। १४/११/२२ दृश्य में वह सब है जो दिख रहा है या दिख सकता है, अदृश्य में वह जो दिखता नहीं, पर दिख सकता है. दोनों में दिख सकना सामान्य है, पर इस दिख सकने में न दिख पाना भी शामिल है, जिसे कहा नहीं जा सका। १५/११/२२ सब मृतक जीने वालों में जी रहे हैं। यदि तुम बोझ को हल्का रखना चाहते हो तो किसी के विषय में फ़ैसला करने न बैठो। बोझ उतर जाए, इसके लिए शब्द में डूबकर सदा ले लिए उसमें खो जाओ। जीवन अंतर में सिमटना है मृत्यु बाहर बिखरना। जीवन जुड़ना है मृत्यु टूट जाना। मनुष्य सिमटेगा अवश्य पर बिखरकर ही। जुड़ेगा अवश्य, पर टूटकर। प्रभु और मनुष्य अलग अलग नहीं हैं। केवल हैं प्रभु मनुष्य या मनुष्य प्रभु । वह सदा एक है। इस तरह इच्छा करो की तुम स्वयं इच्छा हो। इस तरह सोचो मानो तुम्हारे हर विचार को को आकाश में आग से अंकित होना है ताकि उसे हर प्राणी और पदार्थ देख सके। इस तरह बोलो मानो सर संसार केवल एक ही कान है जो तुम्हारी बात सुनने के लिए उत्सुक है। इस तरह कर्म करो मानो तुम्हारे हर कर्म को palatkar तुम्हारे सिर पर आना है। इस तरह जीयो मानो स्वयं प्रभु को अपना जीवन जीने के लिए तुम्हारी आवश्यकता है। किसी भी वस्तु को ढकने का प्रयत्न न करो। और कुछ नहीं तो उनका आवरण ही उन्हें प्रकट कर देगा। क्या ढक्कन नहीं जानता वर्तन के अंदर क्या है? तुम्हारे अंदर से एक भी ऐसा श्वास नहीं निकलता जो तुम्हारे हृदय के गहरे से गहरे रहस्यों वायु में में बिखेर नहीं देता। यदि स्वयं अंधकार पर से आवरण हटा दिए जाएँ तो वह किसी वस्तु के लिए आवरण कैसे हो सकता है? किसी भी वस्तु का मोल न लगाओ, साधारण वस्तु भी अनमोल होती है। क्या रोटी बिना सूर्य धरती वायु सागर तथा मनुष्य के पसीने और चतुरता के बिना बन सकती है? भूखे के लिए भूख केवल भूख है, परंतु तृप्त के लिए कुछ देने का एक शुभ अवसर। भूखों की खोज करो उनकी भूख तुम्हारी तृप्ति है। यदि तुम मुझे अच्छी तरह जानना चाहते हो तो तुम पहले स्वयं को अच्छी तरह जान लो। जब मैं मनुष्यों के साथ होता हूँ तो परमात्मा हूँ। जब परमात्मा के साथ तो मनुष्य। परमात्मा एक है पर मनुष्य की परछाइयाँ अनेक और भिन्न भिन्न हैं। जब तक मनुष्यों की परछाइयाँ धरती पर पड़ती हैं तब तक किसी मनुष्य का परमात्मा उसकी परछाईं से बड़ा नहीं हो सकता। केवल परछाईं रहित मनुष्य ही पूरी तरह से प्रकाश में है। सेवक स्वामी का स्वामी है और और स्वामी सेवक का सेवक। सेवक को अपना सिर न झुकाने दो। स्वामी को अपना सिर न उठने दो। मस्तक पेट का स्वामी हैपरंतु पेट भी मस्तक का कम स्वामी नहीं है। कोई भी चीज सेवा नहीं कर सकती जब तक सेवा करने में उसकी अपनी सेवा न होती हो। aur कोई भी चीज सेवा नहीं करवा सकती जब तक उस सेवा से सेवा करने वाले की सेवा न होती हो। अपना कार्य करते हुए संसार तुम्हारा भी कार्य करता है। और अपना कार्य करते हुए तुम संसार का कार्य करते हो। शब्द एक है और उस शब्द के अक्षर होते हुए तुम भी वास्तव में एक ही हो। कोई भी अलशर किसी अन्य अलशर से श्रेष्ठ नहीं, न ही किसी अन्य अक्षर से अधिक आवश्यक है। अनेक अक्षर एक ही अक्षर हैं, यहाँ तक कि शब्द भी। तुम चाहो तो mujhe अस्वीकार कर दो परंतु मैं तुम्हें अस्वीकार नहीं कर सकता। मेरे शरीर का मांस तुम्हारे शरीर के मांस से भिन्न नहीं है। बुद्धिमानों के लिए सब कुछ बुद्धिमत्ता का भंडार है। बुद्धिहीनो के लिए बुद्धिमत्ता स्वयं एकि मूर्खता है। मनुष्य एक बादल है जो प्रभु को अपने अंदर लिए हुए है। रिक्त न हुआ तो अपने आपको नहीं पा सकता। कितना आनंद है रिक्त हो जाने में। शब्द सागर है तुम बादल हो। बादल सागर के बिना क्या रह सकता है? मूर्ख है वह बादल जो अपने रूप और अस्तित्व को सदा बनाए रखने के उद्देश्य से आकाश में आधार में टंगे रहने के प्रयास में ही अपना जीवन नष्ट करना चाहता है। यदि वह बादल के रूप में मरकर लुप्त नहीं हो जाता तो अपने अंदर के सागर को नहीं पा सकता जो उसका एकमात्र अस्तित्व है। यदि तुम अपने आपको सदा के लिए शब्द में खो नहीं देते, तो तुम उस शब्द को नहीं समझ सकते जो कि तुम स्वयं हो, जो कि तुम्हारा मैं ही है। कितना आनंद है खो जाने में। यदि मुझमें प्रकाश न होता तो क्या तुम्हारी आँखें मुझे देख पाती? यह मेरा प्रकाश है जो तुम्हारी आँखों में मुझे देखता है। यह तुम्हारा प्रकाश है जो मेरी आँखों में तुम्हें देखता है। मनुष्य को प्रभु से अलग नहीं किया जा सकता aur इसलिए केवल अपने साथी मनुष्यों से और अन्य प्राणियों से भी उसे अलग नहीं किया जा सकता क्योंकि वे भी शब्द से उत्पन्न हुए हैं। प्रभु ke शब्द में सब कुछ शामिल है। प्रभु का शब वह जीवन है जो जन्मा नही, इसीलिए अविनाशी है। क्या तुम केवल प्रभु के जीवन के सहारे जीवित नहीं हो? pahle शब्द का ज्ञान प्राप्त करो जिससे तुम अपने ख़ुद के शब्द को जान सको। जब तुम अपने शब्द को जान लोगे तब अपनी चलनियों को अग्नि की भेंट कर दोगे। प्रभु के शब्द के लिए समय और स्थान का कोई अस्तित्व नहीं है। प्रभु का शब्द एक कुठाली (CRUCIBLE) है जो कुछ वह रचता है उसको पिघलाकर एक कर देता है, न उसमें से किसी को अच्छा मानकर स्वीकार करता है, न ही बुरा मानकर ठुकराता है। उसकी रचना और वह स्वयं एक है। एक अंश को ठुकराना संपूर्ण को ठुकराना है, और संपूर्ण को ठुकराना अपने आपको ठुकराना है। जबकि मनुष्य का शब्द एक चलनी (cribbles) है। रचता है और लड़ाई झगड़े में लगा देता है। शत्रु और मित्र मैं की रचना है। सब कुछ पूरी तरह संतुलित होता है। तुम्हारा शब्द अभी भी पर्दों में छिपा हुआ है। मैं कहते हुए मनुष्य शब्द को दो भागों में चीर देता है। माँ भली प्रकार जानती है कि पोतड़े शिशु नहीं है। परंतु बच्चा यह नहीं जानता। मनुष्य का शब्द जो उसकी चेतना की अभिव्यक्ति है, कभी भी अर्थ में स्पष्ट और निश्चित नहीं होता। मैं कहते हुए मनुष्य शब्द को दो भागों में चीर देता है, एक उसके पोतड़े, दूसरा प्रभु का अमर अस्तित्व। पर अविभाज्य को कोई शक्ति विभाजित नहीं कर सकती। प्रभु को मैं से अधिक बोलने की कोई आवश्यकता नहीं। इसलिए मैं उसका एकमात्र शब्द है। चूँकि किसी शब्द का कोई अर्थ न हो तो वह शब्द शून्य में गूंजती केवल एक प्रतिध्वनि है। यदि इसका अर्थ सदा एक ही न हो तो यह गले का कैंसर और ज़बान पर पड़े छले से अधिक और कुछ नहीं। चेतना, शब्द और दिव्य ज्ञान यह त्रिपुटी पावन है। प्रत्येक शब्द होता है एक वस्तु का प्रतीक, प्रत्येक वस्तु होती है एक संसार का प्रतीक, प्रत्येक संसार होता होता है एक ब्रह्मांड का घटक अंग। यह ब्रह्मांड तुम्हारे मैं की रचना है जोनेक साथ स्रष्टा और सृष्टि दोनो है। जैसा सृष्टा वैसी रचना। सृष्टा केवल अपने आप को ही रचता है- न अधिक न कम। तुम्हारी आँखें बहुत से पर्दों से ढकी हुयी हैं। हर वस्तु जिस पर तुम दृष्टि डालते हो, मात्र एक पर्दा है। पदार्थों से उनके परदे उतार फेंकने के लिए मत कहो। अपने पर्दे उतार फेंको, पदार्थों के पर्दे स्वयं उतर जाएँगे। शब्दों में सबसे तुच्छ और सबसे महान शब्द है मैं। यह सिरजनहार है। शब्द - वे क्या अक्षरों और मात्राओं में बंद किए हुए पदार्थ नहीं हैं? १७/११/२२ जीने के लिए मरना और मरने के लिए जीना जान लेना जान लेना। फिर क्या मरना और क्या जीना। १८/११/२२ सोचना और करना होने से पृथक नहीं। १९/११/२२ do your best and leave the rest. 22/11/22 Shiva lingam is the holy symbol of union of Lord shiva and Shakti. The word is lingam is derived from two sanskrit words Laya(dissolution) and agaman (recreation). Thus the ling symbolizes both the creative and destructive power of the Lord and great sanctity is attached to it by the devotees. २३/११/२२ साथ रहकर भी फासला रखना, खुद को यूं दर्द से जुदा रखना! जिसको पाने की आरज़ू हो तुम्हें, उसको खोने का हौसला रखना! नीरज झा त्रयोदशी क्या है.... सृष्टि के भीतर सृष्टि, स्थिति, संहार और तुरीय- ये चार अवस्थाएँ हैं. इसी प्रकार सृष्टि, स्थिति और संहार - इनमे भी प्रत्येक में ये चारों अवस्थाएँ रहती हैं. इस प्रकार सब मिलाकर बारह शक्ति या देवी के खेल दिखलाई पड़ते हैं. ये बारह शक्तियाँ जिस महाशक्ति से निकलती हैं तथा जिनमें लीन होती हैं उन्ही को त्रयोदशी कहते हैं. वस्तुतः यह त्रयोदशी सबमें अनुस्यूत तुरीय के साथ सम्मिलित भासा के सिवा और कुछ नहीं है. आलेख - 'तांत्रिक पूजा का परम आदर्श' महमहोपाध्याय गोपीनाथ कविराज २४/११/२२ बचने या भूलने के लिए याद रखना ज़रूरी है। २५/११/२२ सत्य एक चुंबक है। सत्य को जी जाएँ, बन जाएँ और निश्चिंत रहें। बस! आध्यात्मिक अनुशासन ही मनुष्य का वास्तविक कार्य है। जब भी बोलिए वक़्त पर बोलिए मुद्दतों सोचिए मुख़्तसर बोलिए २६/११/२२ उतना ही कहो जितना तुमने स्वयं के अनुभवों से जाना हो, उनसे ही कहो जिसने तुम्हें पूछा हो और उतना ही कहो जितना पूछा है। २७/११/२२ किसी का नकार आत्म साक्षात्कार के लिए उचित नहीं। इसी तरह किसी का स्वीकार भी ग्राह्य नहीं। संपूर्ण का नकार या संपूर्ण का स्वीकार ही वरेण्य है। संपूर्ण का नकार उसका स्वीकार है और संपूर्ण का स्वीकार उसका नकार भी है। इस स्थिति में नकार और स्वीकार विरोधी या विपरीतार्थी नहीं हैं, वरन वे परस्पर सहगामी और पूरक हैं। एक साँस का छोर परस्पर विरोधी कैसे हो सकती है। साँस शुरू होती है तभी उसका अंत होता है और अंत होता है तभी उसका प्रारंभ होता है। अंत और प्रारंभ का जब लय होता है तब यह तय नहीं किया ja सकता कि कब अंत हुआ और कब प्रारंभ। यहाँ न काल रहता है, न ही देश भी, क्योंकि लय हुयी साँस के लिए kya देह और क्या देही। वह देह ke बाहर लय हो सकती है देह ke भीतर भी। लय hone par देह का पर्दा नहीं रह जाता। जल वॉटर है, पर जलाना एक क्रिया है जिसका प्रत्यक्ष रूप में जल से कोई संबंध नहीं है। जलाप्लावन से अग्निधर्म उत्पन्न हो जाता है। अग्नि का कार्य है वस्तु का रूप परिवर्तन। जल से नए रूप तब बनते हैं जब उनका अग्नि संस्कार हो जाता है। इसमें कौन किसका विरोधी या विपरीतार्थी है! देश कंट्री का हिंदी अनुवाद है, पर वास्तव में देश स्पेस है। इसकी कोई विभाजक रेखा नहीं है। कंट्री विभाजित भूखंडों का नाम है, देश समूची आकाशी इयत्ता को कहते हैं। दक्षिणपंथी वे हैं जो वामपंथी नहीं हैं। दक्षिणपंथी त्याग को आदर्श मानते हैं, पर देखा जाता है वे त्याग का अभिमान भी रखते हैं। सात्विक क्षेत्र में रहते हैं पर उसके अहंकार से मुक्त नहीं हो पाते। त्याग का अहंकार संग्रह के त्याग से भिन्न नहीं। वामपंथी (कम्युनिस्टों से आशय नहीं) वे हैं जो दक्षिणपंथी नहीं हैं। वामपंथी प्रकृति के रहस्य से परिचित देखे जाते हैं। पर वे प्रकृति की नियामिका शक्ति या शिव तत्व में विश्वास नहीं रखते, इसलिए उन्मादी होने के निकट होते हैं। इस प्रकार परम तत्व से यह दोनों दूर रह जाते हैं। परंतु जो परम तत्व को उपलब्ध हो जाता है वह दक्षिणपंथ और वामपंथ दोनों से ऊपर उठ जाता है। उसे दोनों की सीमाए ज्ञात हो जाती हैं। इस प्रकार के व्यक्ति ही हमारे आदर्श होने चाहिए। दो शरीरों का संभोग काम या सेक्स, दो मनों का संभोग प्रेम तो दो आत्माओं का संभोग आनंद कहलाता है। पृथ्वी को होने की क्रिया घटित होने के कारण भू कहा जाता है। भव से भू बनता है, यही भव अनुभव में है। बिना क्रिया पद के वाक्य भी नहीं बनता। क्रिया पद का होना हर भाषा में अवश्यंभावी है। अगर इस क्रिया पद की ध्वनियों का सूक्ष्म निरीक्षण करेंगे तो पाएँगे कि हर भाषा की क्रिया पद की ध्वनि एक ही है। समुच्छलन्त्यै जगदात्मिकायै , शान्तस्वरूपाय सदाशिवाय । सते भवन्त्यै , भवते च सत्यै , नम: शिवायै च नम: शिवाय ।। २९/११/२२ क्रोध अहंकार का प्रकटीकरण है। भो सिरी पाली में भगवान बुद्ध द्वारा बार बार नासमझी रखने वाले लोगों को दिया गया संबोधन है।

Monday, October 31, 2022

अक्टूबर 2022

२/१०/२२ लश्कर-ए-गांधी को हथियारों की कुछ हाजत नहीं, हां मगर बेइंतिहा सब्र-ओ-कनाअत चाहिए गुरु कहे सो कीजिए करे सो कीजिए नाहि ४/१०/२२ मेधा ऋषि राजा सुरथ और समाधि नामक वैश्य को भगवती की महिमा बताते हुए मधु कैटभ वध का प्रसंग सुनाते हैं। देवी भगवती महिषासुर की सेना और उसका वध करती हैं। फिर भगवती घोषणा करती है- जो मुझे संग्राम में जीत लेगा, मेरा दर्प दूर करेगा, मेरे समान बलवान होगा, वही मेरा भर्त्ता होगा। अतः शुम्भ या निशुम्भ कोई भी आकर मुझे जीतकर पाणिग्रहण कर ले”- “यो मां जयति संग्रामे यो मे दर्प व्यपोहति। यो मे प्रतिबलो लोके स मे भर्त्ता भविष्यति।। इसके बाद भगवती शुंभ निशुंभ के सेनानी धूम्रलोचन, चंड और मुंड, रक्तबीज, निशुंभ एवं शुंभ आदि असुरों का संहार करती हैं। इसका सीधा अर्थ है कि मनुष्य के विकार रूप बड़े - बड़े असुर भी सूर्य, चंद्र और अग्नि नेत्र रूपा भगवती को परास्त नहीं कर सकते। मां के साथ सहचर हुआ जा सकता है बस, शिव बनकर। कथा के अनुसार देवी के वरदान से यह सुरथ (यानि अच्छे रथ पर सवार) क्षत्रिय ही सावर्णि (यानि स (उस) वर्ण के) मनु हुए। नवरात्रोपासना के उपरांत जब दस रथ की सवारी करके अर्थात् दशद्वार से उत्पन्न राम की चेतना मनुष्य में जाग्रत होती है तभी रावण जैसे महा असुर का संहार होता है। मधु का अर्थ राग, कैटभ का अर्थ द्वेष है। रक्तबीज हमारी नकारात्मकता और वासनाएँ है। महिषासुर का अर्थ जड़ता है। शुंभ का अर्थ है स्वयं पर संशय जबकि निशुंभ का अर्थ है सब पर संशय। नवरात्र के नौ दिनों में तीन तीन दिन तीन गुणों के अनुरूप हैं। हमारी चेतना तामस और रजस के बीच बहते हुए अंत के तीन दिनों में सत्व गुण में प्रस्फुटित होती है। सत्व गुण बढ़ने पर ही विजय की प्राप्ति होती है। इनमे से किसी पात्र को इतिहास और जाति में मत खोजिए। यह सब हर मनुष्य के भीतर उपस्थित अंतर्द्वंद्व हैं. वैश्य उदर चेतना तो क्षत्रिय कर्म चेतना को अभिव्यक्त करने वाले वर्ग हैं। आप सबको नवरात्र की हार्दिक शुभकामनाएँ... मंत्राणां मातृका देवी शब्दानां ज्ञानरूपिणी । ज्ञानानां चिन्मयातीता शून्यानां शून्यसाक्षिणी । यस्याः परतरं नास्ति सैषा दुर्गा प्रकीर्तिता ॥ ६/१०/२२ बद्धो हि को यो विषयानुरागी को वा दरिद्रो हि विशालतृष्णः श्रीमांश्च को यस्य समस्ततोषः। विद्या हि का या ब्रह्मगतिप्रदा या  बोधो हि को यस्तु विमुक्तिहेतुः । को लाभ आत्मावगमो हि यो वै जितं जगत्केन मनो हि येन । ११ । विषाद्विषम् किं विषयाः समस्ता  दुःखी सदा को विषयानुरागी।   धन्योस्ति को यो परोपकारी  कः पूजनीयः शिवतत्वनिष्ठः। १३ । संसारमूलं हि किमस्ति चिंता। लघुत्वमूलं च किमर्थितैव गुरुत्वमूलं यदयाचनं च । जातो हि को यस्य पुनर्न जन्म को वा मृतो यस्य पुनर्न मृत्युः । १८ । विद्युच्चलं हि धन यौवनायु १४/१०/२२ हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् |
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम | यजु. १३/४ Hiranyagarbha was the only one at the beginning of the Universe who was the guardian of everything. He/it used to hold the earth and space, let us worship that Deity by offering Havi. १९/१०/२२ यस्मिंसर्वः यतं सर्वः यत्सर्वः सर्वत:च यत | 
ब्रह्म तस्मिनमहाभाग कीन संभाववत: ही || 36 || वह जिसमें सब वस्तुएँ निवास करती हैं, और जिससे सब कुछ उत्पन्न होता है; जो सब में है; और जो कहीं सब में हो, वही हो जिसे तुम सब कह सको, और जिसके अतिरिक्त कोई न हो। एको भावः सर्वभावस्वभावः सर्वे भावा एकभावस्वभावाः । एको भावस्तत्त्वतो येन दृष्टः सर्वे भावास्तत्त्वतस्तेन दृष्टाः ॥ Eko bhāvaḥ, one Being (one Being, that is Śiva, Lord Śiva, Parabhairava) has become sarva bhāva svabhāva, He has become many; many, right from that insect to śānta kala.86 He has become so many. Sarve bhāvā eka bhāva svabhāvā, and all these are actually eka bhāva svabhāvā, actually this is only the drama of One, i.e., Parabhairava, bas. It is only eka bhāva (one Being). All are one. One are many; The One has become many. २१/१०/२२ "तपस्वी, क्यों हो इतने क्लांत? वेदना का यह कैसा वेग? आह! तुम कितने अधिक हताश, बताओ यह कैसा उद्वेग? जिसे तुम समझे हो अभिशाप, जगत की ज्वालाओं का मूल। ईश का वह रहस्य वरदान, कभी मत इसको जाओ भूल। विषमता की पीडा से व्यक्त, हो रहा स्पंदित विश्व महान। यही दुख-सुख विकास का सत्य, यही भूमा का मधुमय दान। (कामायनी) इंद्र - प्रकाश दाता, दैवीय मन अग्नि - प्रकाशित इच्छा, डैवीय इच्छा शक्ति सूर्य सावित्री- सर्जक और विकासक भग सावित्री- आनंद भोक्ता वायु- जीवनी ऊर्जा का नियामक बृहस्पति- आत्मा की शक्ति अश्विन- आनंद के देवता रिभु- अमरत्व के कारीगर विष्णु- सर्व व्यापक प्रधानदेव सोम- आनंद और और अमरत्व के भगवान वरुण- प्रेम की प्रकाशमान शक्ति. आत्मा को घेरे हुए चतुर्दिक सागर, उच्चतम स्वर्ग मित्र- विचारों और कार्यों की एकता का देव सूर्य- प्रकाश का संरक्षक पूषन- विकासक सावित्री- सर्जक आर्यमन- पथ यात्री, डैवीय यज्ञों के द्वारा अमरता के आराधक, प्रकाश में चमकते शिशु, सत्योपासक, अंधकार से संघर्ष करने वाले, मानवता का पथ प्रशस्त करने वाले भग- मनुष्य का दैवीय आनंद गाय- ज्ञान रूप में चेतना, प्रकाश की प्रतीक, उषा काल का प्रकाश (आंतरिक प्रकाश) अश्व- शक्ति रूप में चेतना हिरण्य- उच्चतम प्रकाश, सुनहरा प्रकाश अंगिरस ऋषि- - सत्य के पुत्र उषा- गाय की माँ दस्यु- स्वाभाविक शत्रु Kaviraj ji has given a beautiful meaning of 'Hare Krishna ' Ha - Shiva Ra - Shakti (Tripurasundari) E - Yoni K - Kama Ru - Paramashakti (Ka + Ru = Kamakala) Sa - Moon with 16 Kalas Na - Nivritti or Ananda All combined become Tripurasundari 🙏 २२/१०/२२ धन वह जो धन्य करे। इसकी इकाई का अन्य नाम मुद्रा है, जो मुदित करती है। वित्त भी इसका अपर नाम है, इससे प्रसार का बोध होता है। धन का अर्थ निरंकारी इस तरह करते हैं.. ध= कहते है धरती को, न= कहते है नव को आकाश को। न निवृत्ति या आनंद को कहा जाता है। उनके यहाँ धन निरंकार एक अभिवादन है। धनतेरस के दिन धन से धातु लायी जाती है, धातु जिसे हम धारण करते हैं, धातु पर ही शरीर अवलंबित है। धातु या धारण करने के कारण धनतेरस का दिन आयुर्वेद से जुड़ा है। आयु को भी हम धारित करते हैं, इसका परिज्ञान करना आयुर्वेद है। जन्म और मरण के बीच का कालखंड आयु है। आयु ही जन्म और मरण का बोध कराती है। धनतेरस की आप सबको शुभकामनाएँ। प्रसरद्विन्दुनादाय शुद्धामृतमयात्मने । नमोऽनन्तप्रकाशाय शंकरक्षीरसिन्धवे ॥३॥ prasaradbindunādāya śuddhāmṛtamayātmane / namo’nantaprakāśāya śaṅkarakṣīrasindhave //3// "He is the Light of all Darkness, all Ignorance of Light. All absence of Light and Presence of Light Have come out from that Light. Swami Lakshmanjoo I bow to that Śaṅkara,3 who is just like the ocean of milk, a milk ocean. I bow to that Śaṅkara who is just like a milk ocean, a vast milk ocean, and prasarat bindu nādāya, where there are flows, two-fold flows, of bindu and nāda. Bindu is prakāśa and nāda is [vimarśa].4 Bindu is I-consciousness; nāda is to observe I-consciousness.5 Consciousness is bindu; “I am consciousness, I am God consciousness,” this is nāda. For instance, this prakāśa of sūrya (sun), the prakāśa of the light of the moon, [the prakāśa of] the light of fire, it is bindu, but there is no nāda in it, there is no understanding power of that prakāśa. There is prakāśa in the sun, but [the sun] does not know that, “I am prakāśa.” He is just a [star].6 He does not understand that, “I am filled with this prakāśa.” गुरुग्रंथ साहिब में कहा गया है अव्वल अल्ला नूर उपाया, क़ुदरत के सब वंदे First, God created the Light; then, by His Creative Power, He made all mortal beings. न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावक: ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥

उस (आत्मज्योति)-को न सूर्य प्रकाशित करता है, न चन्द्रमा और न अग्नि। जिसको प्राप्त होकर फिर नहीं लौटते, वह मेरा परम धाम है। All the lights of the world cannot be compared even to a ray of the inner light of the Self. Merge yourself in this light of lights and enjoy the supreme Deepavali. …. भगवान् कृष्ण का एक नाम है 'सत्कृति' भगवान् कृष्ण का एक नाम है 'सत्कृति'। सत्कृति का अर्थ है जो अपने भक्त के निर्याण (शरीर त्यागने के) समय में उसकी सहायता करते हैं। वराह पुराण में भगवान् हरि कहते हैं-- वातादि दोषेण मद्भक्तों मां न च स्मरेत्। अहं स्मरामि मद्भक्तं नयामि परमां गतिम्।। “यदि वातादि दोष के कारण मृत्यु के समय मेरा भक्त मेरा स्मरण नहीं कर पाता तो मैं उसका स्मरण कर उसे परम गति प्राप्त करवाता हूँ।“ 🙏🙏 २४/१०/२२ अगर दिया जल गया तो सब पारदर्शी होकर दिखने लगता है। इस दिए के प्रकाश में देखने वाला दिखता है और दिखने वाला दृश्य भी दिखता है। फिर देखना कुछ शेष नहीं रह जाता है, दृष्टा में दृष्टि एकमेक हो जाती है। इसमें दीपक की मिट्टी, बाती और तेल बदलता रहता है। दीपक की मिट्टी से, तेल से, बाती से रोशनी दिखेगी और बने हुए तेल बाती युक्त दीपक से भी प्रकाश दर्शन होगा। फिर तो उस प्रकाश दर्शन में दीपक की मिट्टी, बाती और तेल कैसे बन रहे हैं, बदल रहे हैं, यह भी दिखेगा। तो हमें अपने प्रकाश को जाग्रत करना है, जिससे हम दृष्टा होने का अपना मूल स्वरूप प्राप्त कर सकें। तमसो मा ज्योतिर्गमय। यः प्रकाशः स सर्वस्य प्रकाशत्वं प्रयच्छति | न च तद्व्यतिरेक्यस्ति विश्वं सद्वावभासते || That Prakāśa offers its luminosity to all. Apart from that Prakāśa, there is nothing in the world. Indeed, whatever is there in the world is the luminosity of the Prakāśh. All the lights of the world cannot be compared even to a ray of the inner light of the Self. Merge yourself in this light of lights and enjoy the supreme Deepavali. …. दीपावली की शुभकामनाएँ। न निर्मिता केन न दृष्टपूर्वा न श्रूयते हेममयी कुरङ्गी । तथाऽपि तृष्णा रघुनन्दनस्य विनाशकाले विपरीतबुद्धिः॥ Shatavdhani | Samhita भावार्थ : सोने की हिरणी न तो किसी ने बनायी, न किसी ने इसे देखा और न यह सुनने में ही आता है कि हिरणी सोने का भी होती है । फिर भी रघुनन्दन की तृष्णा देखिये ! वास्तव में विनाश का समय आने पर बुद्धि विपरीत हो जाती है । २५/१०/२२ It is as if the earth meditated, the atmosphere meditated
It is as if the sky meditated, the water meditated
It is as if the mountains meditated”   Chandogya Upanishad २६/१०/२२ कदा नवरसार्द्रार्द्र संभोगास्वादनोत्सुकं। प्रवर्तेत विहान्यान्यन् मम त्वत्स्पर्शने मनः॥ शिवस्तोत्रावली त्वदेकरक्तस्त्वत्पादपूजामात्र महाधनः। कदा साक्षात्करिष्यामि भवंतमयमुत्सुकः॥ २८/१०/२२ "When in deep sleep he does not know, yet he is knowing, because knowing is inseparable from the Knower, because it is indestructible. But there is, then, no second thing, nothing else different from him that he would know" 🕉 Brihadaranyaka Upanishad ३०/१०/२२ ''When there is complete knowledge and complete absence of knowledge – that is complete knowledge – that is fullness of knowledge. Fullness of knowledge is not fullness of knowledge. Fullness of knowledge is: when you are full and you are not full – both – that is full.'' उक्त कथन ईशोपनिषद के इस मंत्र का विस्तार लगता है... यः विद्यां च अविद्यां च तत् उभयं सह । वेद अविद्यया मृर्त्युं तीर्त्वा विद्यया अमृतम् अश्नुते ॥ जो तत् को इस रूप में जानता है कि वह एक साथ विद्या और अविद्या दोनों है, वह अविद्या से मृत्यु को पार कर विद्या से अमरता का आस्वादन करता है। ३१/१०/२२ किसी अमीर आदमी के परमात्मा के देश में प्रवेश पाने ऊँट का सुई के नाके या छेद में से निकल जाना कहीं आसान है। ईसा मसीह मैं अपने प्यारे भक्तों तीन दुर्लभ उपहार देता हूँ ग़रीबी, अमीरी और निरादर। भागवत में कृष्ण उद्धव से आने वाली विपत्ति का डर हमें खुद उस विपत्ति से कहीं अधिक दुःखी कर देता है। शेक्सपीयर अगर मुझे किसी की निंदा करनी हो तो मैं अपनी माता की ही निंदा करूँगा, ताकि मेरे अच्छे कर्मों का फल यदि किसी को मिलना है तो वह मेरी माँ को ही मिले।शेख़ सादी रत्ती भर अभ्यास मन भर ज्ञान से कहीं अच्छा है।

Saturday, October 22, 2022

सितंबर २०२२

६/९/२२ शिशु गर्भस्थ हो, वह ईश्वरीय अवस्था है। फिर तो क्रमशः तम राज और सत्व गुण में उसका विकास होता है। पुनः गर्भस्थ आनंद में लौटना घर की ओर जाना है। ८/९/२२ सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥ Forsaking all other dharmas (duties), remember Me alone; I will free thee from all sins (accruing from nonperformance of those lesser duties). Do not grieve! A PROSAIC INTERPRETATION OF THIS COUNSEL unequivocally advises the deeply devoted Arjuna, and all true renunciants, to relinquish worldly duties entirely in order to be single-pointedly with God. “O Arjuna, forsake all lesser duties to fulfill the highest duty: find your lost home, your eternal shelter, in Me! Remember, no duty can be performed by you without powers borrowed from Me, for I am the Maker and Sustainer of your life. More important than your engagement with other duties is your engagement with Me; because at any time I can recall you from this earth, canceling all your duties and actions. THE WORD DHARMA, DUTY, comes from the Sanskrit root dhri, “to hold (anything).” The universe exists because it is held together by the will of God manifesting as the immutable cosmic principles of creation. Therefore He is the real Dharma. Without God no creature can exist. The highest dharma or duty of every human being is to find out, by realization, that he is sustained by God. Dharma,therefore, is the cosmic law that runs the mechanism of the universe; and after accomplishing the primary God-uniting yogadharma (religious duties), man should perform secondarily his duties to the cosmic laws of nature. As an air-breathing creature, he should not foolishly drown himself by jumping into the water and trying to breathe there; he should observe rational conduct in all ways, obeying the natural laws of living in an environment where air, sunshine, and proper food are plentiful. Man should perform virtuous dharma, for by obedience to righteous duty he can free himself from the law of cause and effect gov. erning all actions. He should avoid irreligion (adharma) which takes him away from God, and follow religion (Sanatana Dharma), by which he finds Him. Man should observe the religious duties (yoga-dharma) enjoined in the true scriptures of the world. Sri Paramahansa Yogananda, 18/66, God talks with Arjuna, The Bhagavad Gita. ९/८/२२ ŚRIMAD BHAGVATAM 10.14.58 समाश्रिता ये पदपल्लवप्लवं
महत्पदं पुण्ययशो मुरारे: ।
भवाम्बुधिर्वत्सपदं परं पदं
पदं पदं यद् विपदां न तेषाम् ॥ For those who have accepted the boat of the lotus feet of the Lord, who is the shelter of the cosmic manifestation and is famous as Murāri, the enemy of the Mura demon, the ocean of the material world is like the water contained in a calf’s hoof-print. Their goal is paraṁ padam, Vaikuṇṭha, the place where there are no material miseries, not the place where there is danger at every step. कल रात ललितपुर से उरई पहुँचे। घर में बेटी पीयूषा से वार्ता हुयी। १५-२० दिन पहले ही उसने जीवन और जगत के अनेक प्रश्न मुझसे पूछे थे, पर आज स्थिति अलग थी। प्रश्न हम कर रहे थे उत्तर वह दे रही थी। ऐसे प्रश्न जिन्हें जानने समझने में जन्म जन्मांतरों की यात्रा करनी पड़ती है। उनके सारगर्भित उत्तर जानकर मुझे स्पष्ट हुआ कि उस पर गुरुदेव की अहैतुकी कृपा हुयी है। ललितपुर जाने से पहले उसे शारीरिक संचार व्यायाम बताकर गए थे और योगदा की वेब्सायट से पंजीकरण कराते हुए इसे अपने दैनन्दिन जीवन का अंग बनाने के आशय से बताए थे। बाद में उसने फ़ोन से योगदा के पाठों को पढ़ने में रुचि प्रकट की। उसका पाठमाला का रेजिस्ट्रेशन दो वर्ष पूर्व से ही है। उससे अनेक प्रकार के प्रश्नो ke उत्तर पाकर क्रिया लेशन पढ़ने का निर्देश भी कर दिया। अपने जवाबों में बार बार गुरुजी का नाम ले रही थी। कहती हमें गुरुजी मार्ग दिखाते हैं। महावतार बाबाजी के दर्शन हुए हैं। यह सब केवल पढ़ने से उपलब्ध हुआ नहीं जान पड़ता। अगर पढ़ने से भी है तो काम का ही है। काम ऊर्जा यानि लस्ट पर भी उसने क्या अद्भुत बातें की कि आत्मानंद के आगे उसका आनंद कुछ नहीं है।यह तो मात्र शरीर के तल का आनंद है। ईश्वर, माया, अन्य व्यक्तियों से संबंध, क्रोध, मोह, मोक्ष, दूसरों के द्वारा किए अपमान पर उसने सिद्ध महात्माओं की तरह बातें की. पिछले जन्म की बात की कि वह विगत जन्म में बहुत अमीर थी। गुरुदेव उसे अपनी शरण में लें, आप आशीर्वाद बनाए रखें। १०/८/२२ सफलता का अर्थ है अपने दिव्य स्वरूप अर्थात् आत्मा के अंतर्जात गुणों को अभिव्यक्त करना। स्वामी चिदानंद ईश्वर वह आनंद है, जिसे आप प्रत्येक वस्तु में खोज रहे हैं। स्वयं अपनी चेतना का शासक होना यथार्थ राजत्व है। प्रसन्नता इस बात पर अत्यधिक निर्भर करती है कि आप अपनी असफलताओं के पश्चात् कितने अच्छे ढंग से पुनः सामान्य अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं। ईश्वर के लिए किया गया कार्य पूजा है। दीक्ष का अर्थ स्वयं को समर्पित करना है। मुझे इसकी चिंता नहीं है कि ईश्वर हमारे पक्ष में है या नहीं, मेरी सबसे बड़ी चिंता यह है कि क्या हम ईश्वर के पक्ष में हैं, क्योंकि ईश्वर सदा सही होते हैं। अच्छाई और बुराई को पृथक करने वाली रेखा अवस्थाओं, वर्गों अटगी राजनैतिक दलों के बीच से नहीं अपितु मानव हृदय के मध्य से होकर गुजरती है। विनम्रत का अर्थ है स्वयं को निरंतर दूसरों से अधिक श्रेष्ठ सिद्ध करने की आवश्यकता से मुक्ति, किंतु अहंकार एक छोटी- आत्मकेंद्रित, प्रतिस्पर्धात्मक और प्रतिष्ठा पिपासु- परिधि में एक हिंसक भूख है। आत्मसम्मान बाह्य विजय से नहीं, अपितु आंतरिक विजय से उत्पन्न होता है। स्वतं अपनी दुर्बलता के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए विनम्रत सबसे महान गुण होता है। विनम्रता आपको स्मरण कराती है कि आप ब्रह्मांड के केंद्र नहीं अपितु आप एक उससे भी बड़ी व्यवस्था के लिए कार्य कर रहे हैं। संघर्ष के मार्ग का आकार होता आगे बढ़ो- पीछे जाओ- आगे बढ़ो। u के आकार की भाँति। लड़खड़ाने में जीवन का सौंदर्य और अर्थ छिपा रहता है। विनम्रत से अपने आप को समझने की क्षमता उत्पन्न होती है। संभोग को रति क्रिया मात्र मानने से इसके वास्तविक अर्थ की ओर ध्यान नहीं जा पाया है. संभोग सभी इंद्रियों द्वारा सम्यक रूपेण किया गया आस्वाद है, कब्जा या अधिग्रहण नहीं। संभोग में सभी तत्व समन्वित रूप में क्रियाशील होते हैं. दूसरे शब्दों में, आत्मा और परमात्मा के योग का नाम संभोग है। ११/८/२२ सुरति समाँनी निरति मैं,  निरति रही निरधार। सुरति निरति परचा भया,  तब खूले स्यंभ दुवार॥ सुरति- निरति शब्द का अर्थ :-
*सुरति* = सु + रति = सु- सुनने में, रति- लगे हुए । *निरति* = नि + रति = निरखना, देखना; रति = लगे हुए । *१. सुरति* :-
सुरति आत्मा की वह अवस्था है जो कि शब्द (सृष्टि में जो शब्द/रमा हुआ है) को सुनने की अवस्था को ही सुरति कहते हैं । 'सुरति' शब्द आम आदमी के लिये अपरिचित ही है । सत्संग में जब सुरति शब्द का प्रयोग प्रायः होता रहता है तो नये लोग सिर्फ़ मुंह ताकते रह जाते हैं कि आखिर यह किसके विषय में बात हो रही है....? जबकि निरति शब्द अक्सर पढने को मिल जाता है । मनुष्य की अपनी अज्ञानता के कारण उसकी सुरति 7 शून्य नीचे उतर आई है, इसीलिये मनुष्य को यह संसार अजीब और रहस्यमय दिखाई देता है...? अब सबसे पहले एक शून्य की बात करते हैं । प्रथम शून्य- यहां पर कुछ भी नहीं हैं, लेकिन बेहद अजीब बात यह है कि "इसी कुछ भी नहीं से ही है"....! सब कुछ हुआ है या कुछ नहीं ही सब कुछ है (Everything is nothing but nothing to everything)...! सतगुरु कबीर साहेब जी महाराज ने इसी विषय में कहा है कि:-
*"चाह गई चिंता गई,*
*मनुआ बेपरवाह ।*
*जाको कछु न चाहिए,*
*वो ही शहंशाह" ।।* पहले शून्य में थोडी हलचल या थोडा प्रकंपन (vibration) होता है। दुसरे शून्य में यह प्रकंपन (vibration) कुछ अधिक हो जाता है । तीसरे शून्य में कुछ और भी अधिक हो जाता है । चौथे शून्य में यह प्रकंपन (vibration) और भी बढ़ जाता है, फिर पांचवां शुन्य और उसके बाद छटा शून्य । अब सातवें शून्य में यह प्रकंपन (vibration) शब्द रूप में यानी निरंतर होने लगा । इसी तरह के एक विशेष ध्वनि रूपी प्रकंपन (vibration) से (जिसको शास्त्रों में शब्द कहा गया है) पूरी सृष्टि का खेल चल रहा है । इसी से सूर्य, चन्द्रमा, तारे आदि गति करते रहते हैं । इसी प्रकंपन (vibration) से मनुष्य़ का शरीर बालापन, जवानी और बुढ़ापा आदि को प्राप्त होता है । इसी प्रकंपन (vibration) से आज बनी एक मजबूत बिल्डिंग निश्चित समय बाद जर्जर होकर धराशायी हो जाती है । आधुनिक विज्ञान की समस्त क्रियायें इसी प्रकंपन (vibration) पर आश्रित हैं । जैसे मोबायल फ़ोन से बात होना, वायरलेस, इंटरनेट, टी. वी. आदि के सिग्नल । हमारी आपस की बातचीत । यानी हम हाथ भी हिलाते है तो वह भी इसी vibration की वजह से हिल पाता है । इसी को चेतना या करंट भी कह सकते हैं । शुद्ध रूप में यह *र्र्र्र्र्र्र्रर्र्रर्र्रर्र्र र्र्रर्र्रर्र्* इस तरह की धुन होती है । बाद में आदि शक्ति या महामाया द्वारा इसमें *म्म्म्म्म* जोड़ दिया गया । तब यह धुन *र्म्र्म्र्म्र्म र्म्र्म्र्म्र्म* इस तरह हो गई । सरलता से समझने के लिये *रररररर* हो रही धव्नि माया से अलग हो जाती है । लेकिन जब तक *रमरमरम* ऐसी धुनि है तब तक ये माया से संयुक्त हैं । इसीलिये परमपिता परमात्मा (सतपुरुष) को सबसे बडा माना जाता है । यही 'र' और 'म' पहले स्त्री पुरुष हैं । यही असली राम (सतपुरुष) है । संत या योगी इसी राम को पाने की या जानने की लालसा करते हैं । यही आकर्षण यानी कृष्ण या श्रीकृष्ण में भी है । मेरा अनुभव ये कहता है कि यदि आदमी संसार को निसार देखता है या कामवासना, धन, ऐश्वर्य को भोग चुका है और खुद की अपनी वास्तविकता जानना चाहता है तथा उसे सतगुरु के सान्निध्य में ध्यान का थोडा पूर्व अभ्यास है तो सिर्फ़ सात दिन में इस शुन्य को जाना जा सकता है । बस शर्ते यही है कि ये सात दिन उसे एकान्त में और सतगुरु द्वारा बताई गई विधि के अनुसार अभ्यास करना होगा । इस तरह सुरति इस शब्द या अक्षर को जान लेगी और यहां पहुंचकर सुरति निरति हो जायेगी यानी सुनना बन्द करके प्रकृति के रहस्यों या माया को देखने लगेगी...? क्योंकि यहीं से जुडकर आदि शक्ति यानी पहली औरत अपना खेल कर रही है । ये नारी रूपा प्रकृति अक्षर (निरंजन) से निरंतर सम्भोग करती रहती है । ये सब महज ज्ञान की बातें नहीं हैं । सुरति शब्द योग द्वारा इसको आसानी से जाना जा सकता है । *२.निरति :-*
*निरति* = नि + रति = निरखना, देखना; रति = लगे हुए । निरति आत्मा की उस अवस्था को कहते हैं जिसमें वह शब्द स्वरुप/ ज्योति स्वरूप यानि परमपिता परमात्मा को निरखने/ देखने में लीन रहने लग जाए। *सुरति और निरति = "श्रुति और निऋति"।*
परवर्ती हठ-योगियों की परिभाषा में अन्तर्नाद सुनना और उसी में लीन हो जाना। (अर्थात् ससीम का असीम में या व्यक्त का अव्यक्त में समा जाना। रूपाली सक्सेना ११/८/२२ कुछ लोग कहते हैं जीवित व्यक्ति के प्रति श्रद्धा रखें, सुश्रूषा करें, उन्हें तृप्त रखें, फिर मरने के बाद तर्पण करने की आवश्यकता नहीं। पुरखों की सेवा और तृप्ति की बात ग़लत नहीं है। तर्पण और श्राद्ध क्रियाओं में देखा जाता है कि ब्रह्म और अन्य देवताओं की तृप्ति सर्वप्रथम करते हैं, उनके बाद पुरखों को जोड़ते हुए हवि अर्पित की जाती है। यह सीधा प्रमाण है कि हमारी मृत्यु नहीं होती, ब्रह्म में लय होता है बस। कर्मकांड पर किसी की आपत्ति हो सकती है, पर कर्मकांड से बाहर क्या है आख़िर! आप विशेष प्रकार के कर्मकांड से परहेज़ बरतें तो भी... अपने प्रकार का कर्मकांड करेंगे ही, जो आपको अनुकूल लगे। आप अपने स्रोत को याद किए बिना, उससे जुड़े बिना नहीं रह सकते। १३/८/२२ ब नामे ऊ कि ऊ नामे नदारद ब हर नामे कि ख़्वानी सर बरारद। मौलाना रूम १५/८/२२ स्वयं का पिंडदान --- . जब यह दृढ़ अनुभूति हो जाये कि मैं यह भौतिक शरीर नहीं, एक शाश्वत आत्मा हूँ, उसी समय हमारा स्वयं का पिंडदान हो जाता है। मूलाधारस्थ कुंडलिनी -- "पिंड" है। गुरु-प्रदत्त विधि से बार-बार कुंडलिनी महाशक्ति को मूलाधार-चक्र से उठाकर सहस्त्रार में भगवान विष्णु के चरण-कमलों (विष्णुपद) में अर्पित करना यथार्थ "पिंडदान" है। इसे श्रद्धा के साथ करना "श्राद्ध" है। . लेकिन शास्त्रों के आदेशानुसार गृहस्थों का दायित्व है कि परिवार में अपने से बड़े-बूढ़ों की सेवा करे, और पितृ-पक्ष में पूरी श्रद्धा से अपने पित्तरों का श्राद्ध करे। इस विषय पर मनु महाराज और याज्ञवल्क्य ऋषि के शास्त्रों में कथन ही अंतिम प्रमाण हैं। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !! कृपाशंकर मुद्गल १४ सितंबर २०२२ जानें बिनु न होइ परतीती। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती॥
प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई। जिमि खगपति जल कै चिकनाई॥ १७/९/२२ प्रधानता वनस्पति - जल कीड़ों मकोड़ों - वायु तथा अग्नि, उड़ने वाले कीड़ों में अग्नि और वायु, रेंगने वालों में पृथ्वी और अग्नि पशु- पृथ्वी जल अग्नि और वायु मनुष्य- सभी पाँच तत्व होते हैं। १८/९/२२ संसार मे जितने भी धर्म हैं सब के प्रवर्तक एक ही हैं । देश काल तथा अधिकारी भेद के कारण भिन्न भिन्न पथ का भेद परिलक्षित होता है । ईसाई मतानुसार अनन्त स्वर्ग एवं नरकों की स्थिति है । बौद्धगण भी ऐसा ही मानते हैं ।अब भिन्नता का वर्णन करता हूँ । बुद्धदेव जन्मांतर मानते हैं । जिन देशों में बुद्धधर्म का प्रचार हुआ है , वे सब भी जन्मांतर मानते हैं । एतद विपरीत ईसा मसीह ने जहाँ धर्म का प्रचार किया था ,वह देश इस गम्भीर तत्व को ग्रहण करने में समर्थ नहीं था । वहाँ पर तत्व को हृदयंगम करने योग्य जनमानस का उत्कर्ष नही हो सका था । अतः तत्वोपदेश देते समय श्रोता के सामर्थ्य को देखकर उतना ही उपदेश दिया गया ,जितना वहाँ का जनमानस समझ सकता था । अतएव आधारगत भिन्नता के कारण उपदेशगत भिन्नता परिलक्षित होने लगती है । शाश्वत स्वर्ग एवं नरक का सिद्धांत जिसे ईसाई गण स्वीकार करते हैं ,वह बौद्धधर्म का ही सिद्धांत है । महापथ पृष्ठ 70 २०/९/२२ बैखरी, जिसे जिह्वा और होंठों द्वारा बोला जाता है मध्यमा गले में चुपचाप उच्चारण किया जाता है पश्यंती मन ही मन (हृदय में) जाप किया जाता है परा जिसे योगी नाभि से हिपोर उठाकर उत्पन्न करते हैं। सुरत यानि आत्मा की शक्ति निरत अंतर में देखने की शक्ति जब तक निरत अर्थात् आत्मा की देखने की शक्ति जागृत नहीं होती, आत्मा अंतर में ऊपर नहीं चढ़ती। आत्मा की दोनों शक्तियों सुरत और निरत की सहायता के बिना आध्यात्मिक उन्नति सम्भव नहीं। सुनने पर बल देने की अपेक्षा अंतर में देखने शक्ति प्रबल है। निरत सबल होगी तभी शब्द भी साफ़ सुनाई देगा। पहला बंधन शरीर का दूसरा स्त्री का फिर संतान चौथा पोते पोतियों पाँचवाँ पड़पोते पड़पोतियों छठा धन संपत्ति सत्व अहंकार अपनी सदाचारिता के मान का आठवाँ रीति रिवाज और कर्मकांड का होता है २१/९/२२ अंजन माहिं निरंजन भेट्या, तिल मुप भेट्या तेलं । मुरति माहिं अमरति परस्या, भया निरतरि घेलं । गोरखबानी २३/९/२२ सच जानने वाले व्यक्ति के समक्ष झूठ का कार्य व्यापार करने वाले कितने निरीह और बेचारे जान पड़ते हैं। ज्ञानी और प्रेमी के आगे मूर्ख और ईर्ष्यालु व्यक्ति कितने असहाय दिखते हैं। इन सबके प्रति करुणा भाव उदित होना ही साक्षात्कार है, बोध है। Man is the expression of God and God is the reality of man. २४/९/२२ कर लूंगा जमा दौलत ओ ज़र उस के बाद क्या कर लूंगा जमा दौलत-ओ-ज़र उस के बाद क्या ले लूँगा शानदार सा घर उस के बाद क्या (ज़र = धन-दौलत, रुपया-पैसा) मय की तलब जो होगी तो बन जाऊँगा मैं रिन्द कर लूंगा मयकदों का सफ़र उस के बाद क्या (रिन्द = शराबी) होगा जो शौक़ हुस्न से राज़-ओ-नियाज़ का कर लूंगा गेसुओं में सहर उस के बाद क्या (राज़-ओ-नियाज़ = राज़ की बातें, परिचय, मुलाक़ात), (गेसुओं =ज़ुल्फ़ें, बाल), (सहर = सुबह) शे'र-ओ-सुख़न की ख़ूब सजाऊँगा महफ़िलें दुनिया में होगा नाम मगर उस के बाद क्या (शे'र-ओ-सुख़न = काव्य, Poetry) मौज आएगी तो सारे जहाँ की करूँगा सैर वापस वही पुराना नगर उस के बाद क्या इक रोज़ मौत ज़ीस्त का दर खटखटाएगी बुझ जाएगा चराग़-ए-क़मर उस के बाद क्या (ज़ीस्त = जीवन), (चराग़-ए-क़मर = चन्द्रमा का चराग़) उठी थी ख़ाक, ख़ाक से मिल जाएगी वहीं फिर उस के बाद किस को ख़बर उस के बाद क्या -ओम प्रकाश भंडारी "क़मर" जलालाबादी यह कथन भी पूरा नहीं लगता। क्योंकि अगर बोध हो गया तो उसके बाद और उसके पहले आनंद ही शेष रहता है। २७/९/२२ तुलसीदासजी ने लिखा है, 'सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे।। गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी। तव प्रेरित माया उपजाए। सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए।।' काकभुशुण्डिजी ने कहा-हे गरुडज़ी सुनिए! समुद्र ने भयभीत होकर चरण पकड़कर श्रीरामजी से कहा मेरे सब अपराध क्षमा करें। आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इन सबकी करनी स्वभाव से जड़ है। आपकी माया से प्रेरित होकर ये सब उपयोगी बनते हैं।' जब परमात्मा हस्तक्षेप करता है तो हम इनका भरपूर फायदा उठा सकते हैं। सुरत आत्मा को कहते हैं, शब्द धुनात्मक नाम है और योग का अर्थ है जुड़ना। सुरत शब्द योग का अर्थ है आत्मा का शब्द के साथ जुड़ना। आत्मा का शब्द के प्रति सहज आकर्षण है, क्योंकि शब्द आत्मा का स्रोत है। शब्द एक आत्मिक राग है। ब्रह्मांड के छः चक्रों का प्रतिबिंब अंड में है। एंड के छः चक्रों का प्रतिबिंब पिंड में है। हरि रूठे गुरु ठौर है गुरु रूठे नहिं ठौर। कबीर शिवे रुश्ते गुरुस्त्राता गुरौ रुश्टे न कश्चन। ३०/९/२२ यज्ञ/हवन का वास्तविक तत्व ————————————— वैदिक दृष्टि के अनुसार अग्नि ही एक मात्र भोक्ता एवं सोम ही एकमात्र भोग्य है। कर्तृत्वाभिमान विगलित होने पर यह स्पष्ट रूप से देख सकते है कि हम कर्ता और भोक्ता दोनों ही नहीं है। कर्तृत्व और भोक्तृत्व दोनों ही आरोपित होता है। जगत के जो एक मात्र भोक्ता है, वे सभी आधारों में रहते हुए भोग करते रहते है। इन सब आधारों के अभिमानी पुरुष अपने को व्यर्थ में ही भोक्ता समझते है। जगत के इस मूल भोक्ता को वैदिक ऋषियों ने अग्नि के रूप मे वर्णन किया है। इसी प्रकार भोग्य भी मूल रूप से एक ही वस्तु है। उसे सोम के रूप में वर्णन किया गया है। सोम का दूसरा नाम अमृत है। अतएव ये सोम अथवा अमृतकण ही जीव मात्र के लिए भोग का विषय है। सभी इसी का एकमात्र आहरण करते रहते है। इसीलिए इसे आहार या आहार्य कहा जाता है। जीव किसी भी प्रकार की खाद्य वस्तु ग्रहण करे,उसकी सार-सत्ता सोम ही है। सभी प्रकार के खाद्यों में मात्रा-भेद के अनुसार इसी सोम का अंश है। समग्र जगत इसी प्रकार अग्नि एवं सोम इन दो भागों में विभक्त है। ज्ञाता, ज्ञेय / कर्ता, कर्म जिस प्रकार संश्लिष्ट है, उसी प्रकार भोक्ता और भोग भी परस्पर संश्लिष्ट है। शिव और शक्ति के बीच जिस प्रकार नित्य सम्बन्ध स्वीकार किया गया है, ठीक उसी प्रकार भोक्ता-भोग्य के बीच भी नित्य सम्बन्ध विद्यमान है। यही यज्ञ है, यज्ञ वास्तव में नित्य सिद्ध परम भोक्ता के निकट भोग्य पदार्थ का अर्पण करने के अलावा और कुछ नहीं है। अग्नि में सोम की आहुति प्रदान करना यज्ञ का तत्व है। —जय गुरु 🙏💐🌹🌺🌺 (सनातन साधना की गुप्त धारा)

Monday, September 12, 2022

अगस्त २०२२

३/८/२२ आज ध्यान में गुरु परंपरा के सब गुरुओं का स्मरण हुआ। प्रेम और स्नेह की बौछार गुरुदेव ने की। स्वामी श्रीयुक्तेशर जी कठोर अनुशासन में तो लाहिरी बाबा तक पहुँच बनाना मुश्किल लगा। महावतार बाबा जी में सब आप्लावित ही हैं। ४/८/२२ यूँ तो विगत दस माह से अपने वर्तमान कालेज में प्राचार्य पद का दायित्व निभाया जा रहा है, पर अपने गृह जनपद में,आयोग से चयनित होकर नियुक्ति की संस्तुति उच्च शिक्षा निदेशालय से होने के बाद का प्रसंग बदल जाता है। इस अवसर पर आप सबकी प्राप्त शुभकामनाओं से मेरी झोली भर गयी है। ललितपुर के और बाहर के भी मेरे सब सुधी मित्रजन बहुत अपनत्व के साथ ख़ुशी प्रकट किए हैं। आप सबका नेह, आशीष और सहयोग इसी प्रकार बना रहे। आपके सम्मिलित विश्वास को निभा सकूँ, वही मेरी पूँजी होगी। अस्तित्व को और उसका बोध कराने वाली गुरु परंपरा, पूर्वज, माता-पिता, प्रयागराज से भैया-भाभी, पत्नी, पुत्री, भाई बहिन, बाल्यकाल से लेकर अबतक के हितैषी मित्र, संबंधी, कुटुंबी सबके प्रति कृतज्ञता और अनुराग पूर्वक पूरी विनम्रता और सामर्थ्य से यह दायित्व स्वीकार करने के लिए प्रभु मुझे शक्ति दे। ....त्वया हृषीकेश हृदि स्थितोस्मि यथा नियुक्तोस्मि तथा करोमि। भाषा भगवद अनुभूति को पूर्णतः व्यक्त नहीं कर पाती, किंतु यह भी सही है कि हर भाषाई अथवा ग़ैर भाषाई अभिव्यक्ति एवं अनभिव्यक्ति अनंत का गुणगान है। ७/८/२२ Urge is when you are overpowered by your desire. Will is when you just like to do, bas, according to your choice. that is something else. ऐश्वर्यज्ञानवैराग्य-धर्मेभ्योप्युपरि स्थितिं। नाथ प्रार्थयमानानां त्वदृते का परा गतिः।। स्तव चिंतामणि ९३ सायंकाल के ध्यान के पश्चात् नाद श्रवण एक बड़े नगाड़े की ध्वनि की भाँति सुनाई दिया। एक बड़ी सी टंकार होती रही। बाद में बाएँ कान की ओर से प्रकाश पुंज कौंधा. आँख खोलने पर लुप्त हो गया। आँखें बंद रहने और खोलने के बीच यह दृश्य घटित हुआ। ८/८/२२ मानव शरीर में पंच ज्ञानेंद्रियों श्रोत्र, त्वक्, चक्षु, जिह्वा और नासिका का स्थान ऊपर स्थित है। जबकि उनकी क्रमशः पाँच कर्मेंद्रियाँ नीचे वाक् पाणि पादौ चोपस्थ पायू के रूप में अवस्थित रहती हैं। इन ज्ञानेंद्रियों और कर्मेंद्रियों के संघात से क्रमशः पाँच तन्मात्रायें या विषय शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध का उदय होता है। इन विषयों का आश्रय पाँच महाभूतो आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी में है। उक्त तत्व मन, बुद्धि और अहंकार से परिचालित जब होते हैं, तब संसार निर्मित होता है। ११/८/२२ रक्षासूत्र का मंत्र है- येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल:। तेन त्वामनुबध्नामि रक्षेन मा चल मा चल।। इस मंत्र का सामान्यत: अर्थ लिया जाता है कि दानवों के महाबली राजा बलि जिससे बांधे गए थे, उसी से तुम्हें बांधता हूं। हे रक्षे!(रक्षासूत्र) तुम चलायमान न हो, चलायमान न हो। धर्मशास्त्र के विद्वानों के अनुसार इसका अर्थ यह है कि रक्षा सूत्र बांधते समय ब्राह्मण या पुरोहित अपने यजमान को कहता है कि जिस रक्षासूत्र से दानवों के महापराक्रमी राजा बलि धर्म के बंधन में बांधे गए थे अर्थात् धर्म में प्रयुक्त किए गये थे, उसी सूत्र से मैं तुम्हें बांधता हूं, यानी धर्म के लिए प्रतिबद्ध करता हूं। इसके बाद पुरोहित रक्षा सूत्र से कहता है कि हे रक्षे तुम स्थिर रहना, स्थिर रहना। इस प्रकार रक्षा सूत्र का उद्देश्य ब्राह्मणों द्वारा अपने यजमानों को धर्म के लिए प्रेरित एवं प्रयुक्त करना है। यही उद्देश्य भाई बहिन और परिजन का है। १६/८/२२ परमपिता, जगन्माता, सखा, प्रियतम प्रभु! मैं तर्क करूँगा, मैं इच्छाशक्ति का प्रयोग करूँगा, मैं कार्यरत होऊँगा; परन्तु आप मेरे तर्क, इच्छाशक्ति एवं कार्य को उचित दिशा की ओर निर्देशित करें। १९/८/२२ भारत की परंपरा वाचिक ज्ञान लेने देने की रही है। रामकृष्ण परमहंस निरक्षर या बहुत कम पढ़े लिखे थे, पर उनकी कही बातें उपनिषदों की भाँति पढ़ी और सराही जाती हैं। २०/८/२२ ŚB 10.2.26 सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यंसत्यस्य योनिं निहितं च सत्ये । सत्यस्य सत्यमृतसत्यनेत्रंसत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्ना: ॥ २६ ॥ satya-vrataṁ satya-paraṁ tri-satyaṁ satyasya yoniṁ nihitaṁ ca satye satyasya satyam ṛta-satya-netraṁ satyātmakaṁ tvāṁ śaraṇaṁ prapannāḥ Synonyms satya-vratam — the Personality of Godhead, who never deviates from His vow*; satya-param — who is the Absolute Truth (as stated in the beginning of Śrīmad-Bhāgavatam, satyaṁ paraṁ dhīmahi); tri-satyam — He is always present as the Absolute Truth, before the creation of this cosmic manifestation, during its maintenance, and even after its annihilation; satyasya — of all relative truths, which are emanations from the Absolute Truth, Kṛṣṇa; yonim — the cause; nihitam — entered*; ca — and; satye — in the factors that create this material world (namely, the five elements – earth, water, fire, air and ether); satyasya — of all that is accepted as the truth; satyam — the Lord is the original truth; ṛta-satya-netram — He is the origin of whatever truth is pleasing (sunetram); satya-ātmakam — everything pertaining to the Lord is truth (sac-cid-ānanda: His body is truth, His knowledge is truth, and His pleasure is truth); tvām — unto You, O Lord; śaraṇam — offering our full surrender; prapannāḥ — we are completely under Your protection. २१/८/२२ श्रीमद्भागवत 1/5/38 में श्री भगवान को 'मन्त्रमूर्तिममूर्तिकम् ' कहा गया है , इससे प्रतीत होता है कि मंत्र उनकी मूर्ति है तथापि वे अमूर्त हैं । भगवान् के मंत्र या शब्द-ब्रह्ममय रूप का वर्णन भागवत के अन्य स्थलों में स्पष्ट रूप से मिलता है । सिद्धावतार कपिलदेव के पिता प्रजापति कर्दम ऋषि के दीर्घकाल तक तपस्या करने पर प्रसन्न होकर भगवान् उनके सामने शब्द -ब्रह्मात्मक रूप धारण करके आविर्भूत हुए थे । तावत्प्रसन्नो भगवान् पुष्कराक्षः कृते युगे । दर्शयामास तं क्षत्तः शार्ब्द ब्रह्मदधद्वपु : भारतीय संस्कृति और साधना पृष्ठ 503 २३/८/२२ शास्त्रों में लिखा है ; शब्द ब्रह्म में निष्णात होने पर परब्रह्म की उपलब्धि होती है । शब्दातीत परब्रह्म का साक्षात्कार यदि करना हो तो , शब्द का आश्रय लेकर ही शब्दराज्य का भेदन करना होगा । समग्र विश्व शब्द से ही उद्भूत है एवं शब्द में विधृत है । शास्त्र वचनों से ज्ञात होता है कि शब्द ही सृष्टि का मूल है । यदि सृष्टि से बाहर जाना हो, तो शब्द ही एकमात्र अवलंबन है । इसीलिए जप साधना में शब्द का अवलम्बन करके ही शब्दातीत परब्रह्म पद में जाने का उपदेश दिया गया है । जपविज्ञान तांत्रिक वाङ्गमय में शाक्त दृष्टि / पृष्ठ 323 २४/८/२२ संसार में सुखपूर्वक रहने का सूत्र यही है कि हम दूसरों को देते रहें, जो कुछ हमारे पास है उसी में से। कोई इतना दरिद्र नहीं जिसके पास कुछ देने को न हो। इसे दर्शन पक्ष कह सकते हैं। दूसरा पक्ष जीवन का है, जिसमें देने के लिए प्रचलित विधियों का परिज्ञान आवश्यक हो जाता है। अन्यथा जीवन और दर्शन की संगति नहीं रह पाएगी। २५/८/२२ एक दशा जाति विहीनता की होती है, जो पशुओं की है- पश्यति इति पशुः। दूसरी अवस्था किसी जाति में होकर सभी जातियों के होने की है। यह स्थिति मनुष्य की है - मननात् मनुष्यः। तीसरी इन दोनों से पार होने की अवस्था है। २८/५/२२ भारत की पूरी बौद्धिक परंपरा वाचिक रही है। इसलिए इतिहास में हमारे यहाँ किसी घटना का ठीक-ठीक काल निर्धारण करने की कठिनाई आती रहती है। पश्चिमी जगत में ईसवी सन और उससे पूर्व की घटनाओं का कालक्रम बहुत हद तक सटीक रूप में अभिलिखित है। हमारे यहाँ इसकी कोई आवश्यकता ही प्रतीत नहीं हुयी। आज भी नहीं पता भागवतं किसकी रचना है। इसके रचनाकार बोपदेव (महाकवि जयदेव के भाई) पर मतैक्य नहीं। यहाँ देने का भाव रहा, उस पर क़ब्ज़ा करना यहाँ ध्येय रहा ही नहीं। वेद, उपनिषद और पुराण किस ऋषि द्वारा रचित हैं ठीक-ठीक कहा नहीं जा सकता। व्यास तो एक उपाधि का नाम है। जिन धरोहरों के कारण भारत जगतगुरु माना गया, वे सब वाचिक रूप में चली आयी हैं। कितने आक्रमण हुए, पर यह परंपरा अक्षुंण रही। अपनी वाचिक समृद्धि के कारण यह सुरक्षित भी रही। बोलने में बहुत से शब्द और वाक्य निरर्थक हो सकते हैं, पर उनके भीतर जो सत्य अनुस्यूत रहता है, उसका तौल नहीं है। उसमें कौंधता हुआ सत्य प्रकट होता है, वह सत्य लिखित रूप में भी उस तरह व्यंजित नहीं हो पाता। अतएव हमें अपनी वाचिक परंपरा का महत्व समझते हुए उसका सम्मान करना चाहिए। २६/८/२२ ण आत्मा वाची अक्षर है। न उससे आगे श्वास और जल के लिए आया है। र रूप के अर्थ के लिए है, यह अग्नि बीज है। अग्नि तत्व से ही रूप का उद्भव होता है। इस प्रकार नर आत्मा से रूप निर्माण की यात्रा है। नारायण इस नर में निवास करते हैं। आज प्रातः ४ बजे नींद खुली। प्रथम तो आत्मा ने अपने शरीर के स्थान को चिह्नित किया। गाँव में ठहरे हैं। फिर यह नर खुला। २७/८/२२ कर्मों की गति गहन है, समझना दुर्वह है। कल साधना विषयक चर्चा और खुलासा करने के बाद आज सुबह के ध्यान में अत्यंत कठिनाई प्रस्तुत हुयी। छोटी चींटियों का गुच्छ पैरों में ऐसे लिपटा कि बढ़ता ही गया। लघु सत्र के अनंतर ध्यान संपन्न हुआ। ३०/८/२२ प्राचार्य का संदेश परम् सत्य की खोज और उसके साथ जुड़ा गुरु-शिष्य-संबंध प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति की विशेषता रही है। गुरु और शिक्षक में मोटा अंतर है कि शिक्षक से सीखने के बाद किसी से सीखने या जानने की आवश्यकता शेष रह सकती है किंतु गुरु से सीखने या गुरु-कृपा-प्राप्ति के बाद कुछ शेष नहीं रह जाता है। किसी व्यक्ति के जीवन में अनेक शिक्षक होते हैं, गुरु सामान्यतः एक ही होता है। छात्र शब्द संस्कृत छत्र + ण पुल्लिंगी संज्ञा या विशेषण से मिलकर बना है। भारतीय परम्परा में संतान को विद्याध्ययन के लिए गुरु को सौंप दिया जाता था। सेवा के क्रम में यह विद्यार्थी गुरु के सिर पर छत्र या छतरी पकड़ते थे। छतरी पकड़कर पीछे-पीछे चलने वाले विद्यार्थियों को छात्र कहा जाने लगा। छात्र एक दर्पण की तरह है, जिसमें शिक्षक का आत्म एवं राष्ट्र का दर्शन झांकता है। शिक्षक और छात्र का संबंध दूध और पानी के मिश्रण की भांति होता है, जिस प्रकार दूध का मिला पानी दूध ही कहलाता है, उसी तरह चरित्रवान् शिक्षक का छात्र भी चरित्रवान् हो जाता है। शिक्षक का कर्म केवल शिक्षा देना है, पर विद्यार्थी या छात्र का दायित्त्व न केवल सम्मानपूर्वक शिक्षा ग्रहण करना है, अपितु उस शिक्षा और संस्कार को परिवार, समाज और राष्ट्र में अपने आचरण के द्वारा प्रसारित करना भी है। यह दायित्त्व एक शिक्षक का भी होता है, इसलिए एक अच्छा शिक्षक भी सदैव छात्र होता है। किसी विषय-वस्तु को माध्यम बनाकर शिक्षक एवं शिक्षार्थी के बीच विचारों के आदान-प्रदान या परस्पर अन्तर्क्रिया को हम शिक्षण कहते हैं। प्राचीनकाल में शिक्षा को विद्या के नाम से जाना जाता था। विद्या विद् धातु से निष्पन्न शब्द है, जिसका अर्थ है जानना। अतः विद्या का अर्थ ज्ञान से है। ज्ञान मानव का तृतीय नेत्र है, यह नेत्र अज्ञान को दूरकर सत्य का दर्शन करने में सहायक होता है। शिक्षा का शाब्दिक अर्थ भी 'विद्या प्राप्त करना' अर्थात ज्ञानार्जन करना है। जुलाई 1968 में संस्थापित अपने नेहरू महाविद्यालय में बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झाँसी द्वारा संचालित विभिन्न पाठ्यक्रमों में प्रवेश लिया जाता है। वर्तमान में इस महाविद्यालय में 4500 छात्र/छात्राएं अध्ययनरत हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के अन्तर्गत महाविद्यालय में 10 विषयों - हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेज़ी, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, शारीरिक शिक्षा, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, इतिहास एवं गृहविज्ञान- में बी. ए. त्रिवर्षीय पाठ्यक्रम एवं सात विषयों - अर्थशास्त्र, हिंदी, संस्कृत, मनोविज्ञान, इतिहास, समाजशास्त्र एवं गृहविज्ञान में एम. ए., कृषि रसायन एवं मृदा विज्ञान में एम. एस-सी, बी.एस-सी. कृषि चार वर्षीय सेमेस्टर पाठ्यक्रम, राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अन्तर्गत बी.एस-सी (मैथ्स एवं बायो) एवं बी.कॉम त्रिवर्षीय पाठ्यक्रम के शिक्षण के साथ-साथ पांच विषयों - हिन्दी, संस्कृत, मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र एवं इतिहास - में पी-एच. डी. स्तर के शोध अध्ययन की सुविधा उपलब्ध है। ललितपुर से सागर की ओर जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग-44 के दोनों तरफ़ फैले 41 एकड़ क्षेत्रफल में 55 कक्षों, दो छात्रावासों, जिम्नेजियम, अतिथि-गृह एवं विशाल क्रीड़ागन एवं बगीचे में विस्तृत बुंदेलखंड में अपनी विशिष्ट पहचान रखने वाले जनपद के एकमात्र और सर्वाधिक प्राचीन अशासकीय अनुदान प्राप्त महाविद्यालय का प्रांगण सुशोभित हो रहा है। महाविद्यालय के पुस्तकालय में 42 हजार से अधिक पुस्तकें संगृहीत हैं। हम चाहते हैं कि यहाँ छात्रों को गुणवत्तापरक शिक्षा प्राप्त होने के साथ-साथ उनका सर्वांगीण उन्नयन हो। यू.जी.सी. एवं उच्च शिक्षा विभाग के मानकों और नागरिक समाज की आशा-आंकाक्षाओं के अनुरूप प्रबन्ध-समिति के दिशा-निर्देशन में महाविद्यालय अपने सोपान तय करता रहे। आएँ! हम सब इस आशा और विश्वास के साथ कार्य करने का संकल्प लें। सह नौ यशः। सह नौ ब्रह्मवर्चसम्। (तैत्तिरीयोपनिषद तृतीय अनुवाक से) हम दोनों (शिक्षक और छात्र) का यश एक साथ बढ़े। एक ही साथ हमारे ब्रह्मतेज में वृद्धि हो। (प्रोफे० राकेश नारायण द्विवेदी) प्राचार्य ३१/८/२२ पहले भगवान् के हुँकार से ॐकार की उत्पत्ति होती है , अर्थात् निःशब्द से शब्द का आविर्भाव होता है । यह एकाक्षर ॐकार शिशुवेद के नाम से प्रसिद्ध है । यह तीनों वेदों का मूलभूत तथा अनादि अक्षर स्वरूप है । इस स्थान से ' श' व 'म' दोनों अक्षरों की उत्पत्ति होती है । इसकी परवर्ती अवस्था में त्रिकोण प्रकट होता है । त्रिकोण त्रितत्व या तत्वत्रय का नामान्तर है । राम शब्द से राधा और कृष्ण एवं त्रितत्व शब्द से जीव-परम -ब्रह्म , हरे -राम -कृष्ण , परा-रमा -कामबीज , ब्रह्मा-विष्णु-महेश्वर , गुरु शिष्य -भगवान् , कृष्ण- राधा-चन्द्रावली एवं जगन्नाथ-बलराम-सुभद्रा समझना चाहिए । 'हरे- राम- कृष्ण' इन छः अक्षरों से अष्टकोण या अष्ट अक्षर उद्भूत होते हैं । इन आठ अक्षरों से चार तत्व बीजों या नामों को समझना चाहिए । इससे 'हरे - राम- कृष्ण-हरे ' इस अवस्था का उदय होता है । इससे 'हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ' यह षोडश अक्षर उत्पन्न होते हैं । सबके अंत में इन सोलह अक्षरों से फिर 'हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे' एवं 'हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे' ये सोलह नाम बत्तीस अक्षर उत्पन्न होते हैं । श्रीकृष्ण प्रसङ्ग पृष्ठ 140 आज गणेश चतुर्थी - शुक्ल यजुर्वेद 23/19 की इस प्रसिद्ध और बहुप्रयुक्त ऋचा पर मनन करने का दिन है... ॐ गणानांत्वा गणपति ग्वं हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपति ग्वं हवामहे निधीनां त्वा निधिपति ग्वं हवामहे वसो मम । आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम् ॥ हे गणपते ! गणों के मध्य में गणों के पालक! हम तुम्हें आहूत करते हैं। हे प्रियों के मध्य में प्रियों के पालक! हम तुम्हें आहूत करते हैं । हे सुखनिधियों के मध्य में सुख निधियों के पालक! हम तुम्हें आहूत करते हैं । हे वसो! हे प्रजापते! व्यापक होकर संपूर्ण संसार में निवास करने के कारण आप मेरे पालक हों। जिस प्रकार पत्नी अपने पति को जानती है, उसी प्रकार मैं भी आपको जानूँ। मैं आपके निकट से निकटतर होता जाऊँ।। अधर पान करते हुए आपके शरीर के जीवन सत्व का रसास्वादन लूँ तथा आपके आत्मज को प्रकट करूँ। गण पहला श्वास है। जीवन का आरंभ। ग गति सूचक वर्ण है और ण आत्मावाची। आत्मा की जहां से यात्रा प्रारंभ होती है, वह गण हुआ। गण का सांस्कृतिक विकास भारत में अलग अलग क्षेत्रों में अपनी अपनी तरह से हुआ, पर उन सबके मूल me आहम जानि गर्भ धमा त्वमजासि गर्भधम ही है....

Sunday, July 31, 2022

डायरी जुलाई २०२२

२/७/२२ जीव के अग्नि तत्व से जल तत्व में गमन करने की यात्रा का नाम नर है...इसका पति ही नृपति और ईश्वर नरेश है. राजा भी यही है. गाय ज्ञान स्वरूप चेतना की प्रतीक है तो अश्व बलस्वरूप चेतना का. गु और गो वेदों में बहुत बार आता है, जिसका अर्थ चेतना से ही है. 3/7/22 
नि दुरोणे अमृतो मर्त्यानां राजा ससाद विदथानि साधन् । घृतप्रतीक उर्विया व्यद्यौदग्निर्विश्वानि काव्यानि विद्वान् ॥ऋग्वेद ३/१/१८ "The immortal nature of the universe takes its place, In the hearts of mortal humans, And it also blesses them, In all their sacred aspirations. With its spiritual radiance, Reflecting by intense love, And knowing all secrets of wisdom, It shines extensively." श्वास -प्रश्वास में मन रखने से क्या होता है ? मन - प्राण में ऐक्य होता है । प्राण की अंत में स्थिति है ,अपान की भी अंत में स्थिति । अर्थात प्राण और अपान की सन्धि = स्थिति या शून्य । मन जब प्राण के साथ साथ चलेगा तब प्रत्येक श्वास प्रश्वास में उस शून्य को स्पर्श करेगा । साधारणतः श्वास प्रश्वास चुपचाप चलता है ; क्योंकि मन विषय में है, प्राण का चलाचल वह लक्ष्य नहीं करता । किन्तु मन के प्राण का अनुगामी होने से प्राण की क्रिया Consciously होती है । यह निरन्तर होती है । इसलिए self - consciousness निरन्तर जगा रहता है । उस शून्य को स्पर्श करने से मन भी क्रमशः शून्य या निष्क्रिय हो जाता है ,सूक्ष्म या शुद्ध हो जाता है ,मन का आवरण या स्थूलाभिनिवेश कट जाता है ,कर्तृत्व कट जाता है । इस स्थिति में अद्वैत होता है : स्वभाव ही चालक होता है । जो भी होता है ,वह स्वभाव का खेल होता है । स्व संवेदन पृष्ठ 288 4/7/22 "I salute Lord Hanuman, Lord of Breath, Son of the Wind God- who bears five faces and dwells within us in the form of five winds or energies pervading our body, mind and soul. Who reunited Prakriti (Sita) and purusha (Rama) - May He bless me By uniting his vital energy ~ prana~ with the Divine Spirit within." 5/7/22 ॐ गायत्री का चतुर्थपाद गृहस्थों के लिए नहीं है । यहाँ कुछ गुह्य तथ्यों की सूचना दे रहा हूँ । अनुसंधान करते हुए समझने का प्रयत्न करना चाहिए । महासन्यास और महाज्ञान आदि उपासक के निकट समय होने पर आविर्भूत होते हैं । वर्णश्रेष्ठ ब्राह्मण है । आश्रम श्रेष्ठ सन्यास है । किन्तु दोनों ही चरमावस्था में आक्रांत हो जाते हैं --यद्यपि दोनों के चर्मोत्कर्ष सिद्ध होने के बाद । एक गुह्य बात बता रहा हूँ । गायत्री वेदमाता और छंद जननी है । समग्र वेद और छंदों का मूल गायत्री है । वेद में है देवताओं ने मृत्यु से भीत होकर छंदों का आश्रय लिया था । छंदों की प्रसूति एवं शुद्धतम स्वरूप ही गायत्री है । फलतः गायत्री का आश्रय लेते ही दिव्य और द्वितीय जन्म प्राप्त होता है । यह जन्म शुद्ध देह प्राप्ति का नामान्तर है । इसे विद्या जन्म कहते हैं । स्पष्ट है कि गायत्री संस्कार विशिष्ट ब्राह्मण जन्म वस्तुतः वैन्दव देह है । वेदों के अनुसार गायत्री के छंद से ब्राह्मण का देह उत्पन्न होता है ,इसे स्मरण रखना होगा । अर्थात जिस देह का गठन गायत्री छंद से हुआ है तथा जो गायत्री छंद से शोधित हुआ है , वही शब्द ब्रह्म के अनुशीलन के लिए उपयोगी देह है । शब्द ब्रह्म का अनुशीलन ही वेदों का अनुशीलन है -- स्वाध्याय वैदिक कर्म इसके अंतर्गत हैं । कर्मकांड के बाद ज्ञानकाण्ड का अनुशीलन भी वेदों का अनुशीलन है । इतना होने पर तपस्या और ब्रह्मविद्या का चरम विकास सम्पन्न होता है । तब समना भेद होकर विन्दु - राज्य का लंघन होता है । यही है महा सन्यास की अवस्था । इसके बाद परमशुद्ध आत्मस्वरूप में चिन्मात्र रूप में या नित्य चिदानंद स्वरूप में स्थिति अथवा भगवत् भाव में उद्बोध दोनों ही हो सकते हैं । गायत्री / पृष्ठ 147 - 149 सनातन साधना की गुप्त धारा भूमि अंतरिक्ष और द्यौ ये आठ अक्षर हैं - आठ अक्षर वाला ही गायत्री का एक चरण है ! ऋचः यन्जूषि सामानि ये आठ अक्षर हैं- आठ अक्षर वाला ही गायत्री का दूसरा चरण है ! प्राण अपान व्यान ये आठ अक्षर हैं -आठ अक्षर वाला ही गायत्री का तीसरा चरण है ! प्रथम को जानकर भूमि द्यौ व अंतरिक्ष में प्राप्त करने योग्य को ,प्राप्त करता है , द्वितीय को जानकर ऋग्वेद यजुर्वेद सामवेद के ज्ञान के समतुल्य, तृतीय को जान प्राण अपान व्यान से समस्त प्राणियों की अनुकूलता को ,प्राप्त करता है ! चतुर्थ पद तुरीय दर्शत परोरज है ,अर्थात दर्शनीय सबसे परे सूर्यवत है ,गायत्री उसमें ही प्रतिष्ठित है ,वह पद सत्य में प्रतिष्ठित है ,जैसे नेत्र सर्वश्रेष्ठ है -यदि दो पुरुष कहें कि मैंने देखा है ,मैंने सुना है तो देखने वाले का अधिक विश्वास माना जाता है ! वह तुरीय पद का आश्रयभूत सत्य , बल में प्रतिष्ठित है प्राण ही बल है ,वह सत्य , प्राण में प्रतिष्ठित है ,इसी से कहते हैं सत्य की अपेक्षा बल ओजस्वी है ! इस प्रकार वह गायत्री अध्यात्म प्राण में प्रतिष्ठित है ! बृहदारण्यक २अ जैसे मांडूक्य उप में आत्मा के चार पद कहे हैं, ऋग्वेद में त्रिपादस्यामृतंदिवि. कहा गया है, वृहदा उप में उक्तवत कहा ही है, उसी का विस्तार पं गोपीनाथ जी कर रहे हैं. यह अलग नहीं है, न इसमें द्वैत है. यह परम तक पहुँचने के मार्ग का वर्णन हुआ न! एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पुरुषः। पादोઽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतंदिवि।।3।। त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत्पुनः। ततो विष्वङ व्यक्रामत्साशनानशनऽअभि।।4।। चार भागों वाले विराट पुरुष के एक भाग में यह सारा संसार, जड़ और चेतन विविध रूपों में समाहित है। इसके तीन भाग अनंत अंतरिक्ष में समाये हुए हैं।।4।। ७/७/२२ "To speak means to float on the surface; unless the mind remains on the surface, words will not come. So long as one is immersed in the depths, there is not even the possibility to talk; but as soon as one comes up to the surface, speech will issue forth. This is why language cannot always fully express one's feelings and ideas. One can often hear people say: 'I am unable to put into words what I feel'. Does this not show how limited and imperfect human language is? It cannot even convey the little you understand, how much less the enormous amount that lies beyond your ken! Try to learn the science of using and understanding the hidden language of the heart and you will be able to accomplish everything without words." ~ Sri Anandamayi Ma (Her words are from"Sad Vani" #34, page 50) “As we know there have been many invasions upon India to destroy its culture, its language, its religion, its people, all that made India great, but as Sri Aurobindo writes “no adverse situation, not even the time spirit nor the god of death has the power to destroy this country” Dr Sampadananda Misra. शब्द का जन्म प्राण से होता है । प्राण का स्वभाव गति है ।गति ही जीवन है ।इसलिए शब्दों में भी जीवन होता है ।वे जन्म लेते हैं बढ़ते हैं ,वृद्ध होते हैं और मृत भी होते हैं । वे नये शब्द को जन्म देते हैं ।एक शब्द से उत्पन्न दूसरा शब्द अपना स्वभाव भी बदल लेता है कभी पूर्वज से श्रेष्ठ हो जाता है कभी नालायक भी हो जाता है । शब्दों की इस यात्रा और पुनर्जन्म का कारण अन्य जीवों की तरह शब्द की आत्मा है ।अर्थ ही शब्द का आत्मतत्व है । वेद में प्रयुक्त शब्द के कितने पुनर्जन्म हो गये हैं पर हम निरुक्त लिए बैठे हैं , व्याकरण में तद्धित कृदंत सिद्ध कर रहे हैं ।शब्द तो सिद्ध कर लेंगे पर उसकी आत्मा कहाँ से लायेंगे । अर्थ तो व्याकरण देगा नहीं वह तो लोक में निहित है ।व्युत्पत्ति से हम परिभाषा कर सकते हैं व्यवहार कैसे कर सकते हैं । इसी कारण शब्द की यात्रा में व्याकरण और निरुक्त अनुधावन करते हैं ।लोक शब्द को सिद्ध नहीं करता लोकसिद्ध शब्द व्याकरण के विवेचन का आधार बनते हैं । तमाम अर्थ खो चुके शब्द हमारे बीच विद्यमान हैं ।उन्हें हम प्रयुक्त भी करते हैं पर उनमें अपने आदिम अर्थ के मूर्तन की क्षमता नहीं है ।इन्हें शब्दरूढ़ि कहते हैं । ये ठूँठ हैं , विज्ञविनोद हैं ।परिभाषा और व्यवहार में बहुत अंतर है ।भक्त कहने से अब कौन रूप मूर्तित होता है ।मठाधीश किसे कहा जाता है ? लक्ष्मीकान्त पांडेय वेद शास्त्र में वर्णित सोम रस को प्रचलित मदिरा के अर्थ में समझ लिया जाता है. किंतु यह दैवी प्रकाश है, जो सभी अस्तित्वमान वस्तुओं में प्रकाशित है. जब यह उदित होता है, तो अमृत बन जाता है। ८/७/२२ कल रात श्रीमती जी को लेकर डॉक्टर के यहाँ बाइक से जा रहे थे. एक दूधिया दूसरी तरफ़ से मुड़कर मेरी गाड़ी से जा टकराया. उसकी बाइक के पीछे की केन की जाली से हाथ पैर छिल गए. सायलेन्सर से पिंडली जल गयी. गाड़ी का अगला हिस्सा क्षतिग्रस्त हो गया. चलने लायक़ नही लगी. इतने में दो लोग आए उन्होंने अगला हिस्सा खींच कर कुछ चलने लायक़ किया. हम लोग वापस घर आ गए. गिराने वाले मेरे कर्म हुए पर बचाने वाला वही है, और बचने वाला भी वही न! ९/७/२२ हमारी हर सांस एक पुनर्जन्म है --- . दो साँसों के मध्य का संधिक्षण वास्तविक संध्याकाल है, जिसमें की गयी साधना सर्वोत्तम होती है। हर सांस पर परमात्मा का स्मरण रहे, क्योंकि हर सांस तो परमात्मा स्वयं ही ले रहे हैं, न कि हम। प्राणायाम में स्वाभाविक रूप से कुंभक की अवधि बढ़नी चाहिए। साँसों का सन्धिकाल कुम्भक है। जब तक कोई गति है, तब तक ध्वनि है। गति नहीं, ध्वनि नहीं। कुम्भक में साँसों की गति नहीं है। कुम्भक ही मौन की अभिव्यक्ति है। हमारा मौन भगवान की अभिव्यक्ति है, इसलिए अधिक से अधिक समय मौन व्रत का पालन करना चाहिए। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कहते हैं -- "दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम्। मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्॥१०:३८॥" अर्थात् - "मैं दमन करने वालों का दण्ड हूँ, और विजयेच्छुओं की नीति हूँ; मैं गुह्यों में मौन हूँ और ज्ञानवानों का ज्ञान हूँ।" "मौनं चैवास्मि गुह्यानां" अर्थात् "गुप्त रखने योग्य भावों में मैं मौन हूँ"। "हं" (प्रकृति) और "सः" (पुरुष) दोनों में कोई भेद नहीं है। प्रणवाक्षर परमात्मा का वाचक है। कोई अन्य नहीं है, सम्पूर्ण अस्तित्व उनकी ही अभिव्यक्ति है। . भारत में जन्म लेकर भी जिसने परमात्मा की उपासना नहीं की, वह बहुत ही अभागा और इस पृथ्वी पर भार है। परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति भारत में ही हुई है। भारत में जन्म लेना एक सौभाग्य की बात है। ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ ॐ ॐ !! कृपा शंकर ८ जुलाई २०२२ . पुनश्च :-- यह विषय समझने में कठिन है क्योंकि यह एक गुरुमुखी विद्या है जो शिष्य को सामने बैठाकर गुरु द्वारा समझाई जाती है। जो साधक नित्य उपासना करते हैं, वे इसे तुरंत समझ जाएँगे। इससे अधिक सरल भाषा नहीं हो सकती। यह सरलतम भाषा है। विभिन्न धाम और सरकार चमत्कारवाद को बढ़ावा देते हुए दिख रहे हैं. इनमे परस्पर ऊँचा नीचा दिखाने की प्रवृत्ति भी है। मेरा उद्देश्य उनके आस्थावान भक्तों की श्रद्धा को किसी प्रकार चोट पहुँचाना नहीं है. पर कौन घटना हमारे जीवन में कब हुयी या होनी है, इस पर ध्यान देने की अपेक्षा हमें क्या करना है और हम कौन हैं, इस पर सक्रिय होना चाहिए। चमत्कारवाद का भविष्य नहीं होता, इससे लोगों में अंधविश्वास और निराशा फैलती है। ईश्वर के प्रति श्रद्धा चमत्कार दिखाकर नहीं बढ़ानी चाहिए।यह जीवन अपने आप में चमत्कार है। १०/७/२२ अर्थ शब्द या व्याकरण की ओर दौड़ता है। आज पत्नी नहाते समय गायी कृष्णाय नमः हरिहर नमः. दो एक बार ऐसा गाते-गाते उन्होंने स्वतः ठीक किया और हरिहर नमः की जगह हरिहराय नमः बोलने लगी। ध्यातव्य है कि उन्हें संस्कृत नहीं आती। काली माता... काली निराकार परमात्मा की शक्ति, सृजनात्मक शक्ति या ऊर्जा की प्रतीक है। इस शक्ति में सृजन, पालन और संहार सम्मिलित हैं। संहारक गुण नकारात्मक नहीं है। बीज का संहार हुए बिना पौधा नहीं बनता। बाल्यावस्था के बाद ही युवावस्था आती है। काली की चार भुजाएँ हैं। दो दायीं भुजाएँ सृजन शक्ति को और भक्तों को आशीर्वाद देने को दर्शाती हैं। बायीं दो भुजाएँ खड्ग और कटा सिर धारण करती हैं। यह ब्रह्मांड का पालन करने की शक्ति और सृष्टि का नृत्य समाप्त होने पर उसे ब्रह्मा में लीन करने की शक्ति को दर्शाती है। माँ पचास मुंडों की माला धारण करती है। मुंड प्रज्ञा शक्ति और वर्णमाला की ध्वनियों को दर्शाती हैं। इन ध्वनियों से ही संस्कृत भाषा का उद्गम हुआ है। माँ के झूलते हुए केश माया के पर्दे की तरह हैं। माँ का वर्ण काला है- प्रकाशहीन प्रकाश और अंधकारहीन अंधकार के परिमंडल से सृष्टि की उत्पत्ति हुयी है। आदि सृजनात्मक शक्ति होने के कारण माँ का वर्ण काला है। काले वर्ण में सभी रंगों का तिरोभाव हो जाता है। माँ का निर्वस्त्र आकार अनंतता का संकेत करता है।उनकी कटि का कमरबंद मानव के इच्छाजनित पुनर्जन्मों के चक्रों का संकेत है। काली के तीन नेत्र सूर्य, चंद्र और अग्नि को दर्शाते हैं। माँ के स्तन ब्रह्मांडीय ऊर्जा(प्राण) प्रदान करते हैं। ईश्वर की खोज में लगे बच्चों को वे आनंददायक विद्यमानता का स्वाद देती हैं। सफ़ेद चमकदार दांतों से माँ अपनी रकतजिह्वा को काटती हैं। लाल रंग रजोगुण और प्रकृति में क्रियाशीलता का गुण है। सृष्टि के चक्रवत नृत्य में माँ का एक पैर सोए हुए शिव (परमात्मा) की छाती पर ठोकर मारता है। सृष्टि रचना के समय अपेक्षाकृत परमात्मा स्वयं प्रकृति के अधीन हो जाते है, परंतु जिस क्षण प्रकृति (माँ) परमात्मा का स्पर्श करती है, वह उनके वशीभूत हो जाती है। माँ की पूजा प्रायः श्मशान में की जाती है। मृत्यु काली का रूपांतरक स्पर्श है, जो कष्ट, दुःख और चिंता दूर करता है और मुक्ति एवं शांति प्रदान करता है। काली का स्वरूप डरावना है, क्योंकि उनकी शक्ति बुराई से समझौता नहीं करती। काली की मुस्कुराहट दया का सार है। वे हम सबकी जगन्माता हैं। इसीलिए सब प्राणी हमारे बंधु बांधव हैं। काली को उत्तर दक्षिण और पूरब पश्चिम में स्थूल रूप में इतना ही डीकोड किया गया है। प्रॉपगैंडा करने के लिए कोई कुछ कहे। लोग काली को कहाँ क्या प्रसाद चढाते हैं, यह उनकी रूढ़ि है। पर हम उन्हें पुष्प प्रेम के रूप में और कर्म फल के रूप में अर्पित करते हैं। ११/७/२२ नाम मे क्या रखा है, यह 'पश्चिम' की राय है। यहां तो यथा नाम तथा गुण रखे जाने पर बल दिया गया है। पश्चिम और पूर्व का यह अंतर भाषाओं मे भी दिखता है। पश्चिम की भाषाओं के अधिकांश शब्द यू ही यानि अटकलो से रूढ़ होकर प्रचलित हुए, इसका अंग्रेजी जैसी भाषा को यह लाभ हुआ कि वह सब भाषाओं के शब्दों को अपना ली और उसने विश्व मे धाक जमा ली, जबकि भारतीय भाषाओं की अपनी शब्दावली का निर्माण उसके अर्थ, व्युत्पत्ति और प्रकृति को देखकर हुआ। यहां के शब्दों का सिरा किसी धातु से अवश्य जुड़ता है...११ जुलाई २०१८ की फ़ेसबुक पोस्ट १२/७/२२ चेतन पुरुष से आनन्दरूपा प्रकृति के अलग होने के कारण दोनों एक दूसरे को चाहते हैं , नहीं तो पूर्णता नहीं हो सकती , आनन्द नहीं हो सकता । परन्तु अलग होते हुए भी दोंनो में दोनों का आभास रहता है । पुरुष में प्रकृति का आभास नहीं रहने पर वह प्रकृति को चाह नहीं सकता । उसी प्रकार प्रकृति में पुरूष का आभास नहीं रहने पर वह पुरुष के साथ मिल नहीं सकती । अतएव ,सृष्टि में सर्वत्र यह अभाव बोध विद्यमान है । उसी के परिणाम स्वरूप आकर्षण होता है । कविराज ji💐💐 १३/७/२२ गुरु पूर्णिमा ....तस्मै श्री गुरुवे नमः। चित्रं वटतरोर्मूले वृद्धाः शिष्या गुरुर्युवा । गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यास्तु छिन्नसंशयाः ॥ आश्चर्य तो यह है कि वटवृक्षके नीचे शिष्य वृद्ध हैं और गुरु युवा हैं। गुरुका व्याख्यान मौन भाषामें है, किंतु शिष्योंके संशय नष्ट हो गये हैं ॥ ॥ अर्थात शिष्य तो तरह-तरह की शंकाओं में भटकते हुए वृद्ध हो जाता है, तत्व रूप गुरु चिरयुवा हैं। मौन अवस्था में यह सब साफ दिखने लगता है। गुरु और शिक्षक में मोटा अंतर है कि शिक्षक के बाद किसी से सीखने या जानने की आवश्यकता रह सकती है, पर गुरु से सीखने या कृपा पाने के बाद अन्य से सीखने की आवश्यकता नहीं रह जाती। सोइ जानहि जेहि देहु जनाईं। जानत तुम्हहि तुम्हहि होइ जाई। तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः॥ 'योगी कथामृत' का पहला वाक्य है.... परम सत्य की खोज और उसके साथ जुड़ा गुरु-शिष्य संबंध प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति की विशेषता रही है.... प्रत्येक शब्द केवल ध्वनियों का योग नहीं है ।उसमें हमारे मन और बुद्धि का योग रहता है जिससे भाव और विचार बाहर आते हैं ।शब्द अपने मूल अर्थ में बहुत सरल, सौम्य और स्वाभाविक होता है । वक्रता और लाक्षणिकता उसके प्रयोग में होती है । ऐसा कोई शब्द नहीं है जो अपने अभिधार्थ में अश्लील या वर्ज्य हो ।और ऐसा भी नहीं है कि उसमें लाक्षणिकता या व्यंग्य न हो । अर्थभेदकता हर शब्द के प्रयोग, कहन, लहज़े,तान अनुतान में होती है । ऐसे में अगर हम संसदीय या असंसदीय मानक के नाम पर शब्द हत्या करेंगे तो कोश में कोई शब्द नहीं बचेगा । एक शब्द.हटायेंगे तो दूसरा उससे भी अधिक तीखा मिल जायेगा ।असंसदीय शब्द नहीं ,भाव या विचार होते हैं । इसलिए शब्दनिषेध से महत्वपूर्ण है संसदीय विवेक होना । लक्ष्मीकान्त पांडेय १६/७/२२ बच्चा जब माँ के गर्भ से निष्क्रमण करता है एवं जिस समय उसका नालच्छेदन होता है ,उसी समय उसके शरीर में श्वास -प्रश्वास की क्रिया दिखाई पड़ती है । माता के गर्भ में रहते समय गर्भ धारण करने वाली माँ से अलग बच्चे की श्वास - प्रश्वास क्रिया नहीं रहती है । गर्भ में बच्चा माँ से भुक्त भोजन से तुष्ट होता है एवं माँ के श्वास- प्रश्वास से ही उसके शरीर का विकास होता है । किन्तु प्रसव के साथ वैष्णवी माया उसके ऊपर आक्रमण करती है ,और तभी से यह कालराज्य में रहना आरम्भ करता है । बच्चे का जो पहला श्वास लेना है उसका नाम जन्म है एवं उस श्वास का अंतिम भाग ही मृत्यु के नाम से प्रसिद्ध है । जन्म से लेकर मृत्यु तक मध्यवर्ती अवस्था उसका जीवन है । इसलिए मनुष्य का सारा का सारा जीवन श्वास -प्रश्वासमय है । मनुष्य आत्मविस्मृत अवस्था में श्वास-प्रश्वास के अधीन रहता है एवं निरन्तर काल की प्रेरणा से इड़ा और पिंगला नामक बांये और दायें मार्ग से संचरण करता है । यदि मूल में अविद्या का आवरणरूप पर्दा न रहे तो विक्षेप रूप श्वास - प्रश्वास की क्रिया नहीं रहती । वास्तव में श्वास -प्रश्वास काल का ही खेल है एवं जिसे हम लोग जीव कहते हैं वह काल अथवा मृत्यु के ही स्वप्रकाश की केवल महिमा है । योगी लोग कहते हैं ,योगमार्ग के नौ मुख्य विघ्न हैं । ये सब चित्त के विक्षेप रूप हैं । चित्त के विक्षेप के साथ साथ ये विद्यमान रहते हैं । नौ मुख्य विघ्नों के नाम हैं -- व्याधि , स्त्यान या चित्त की अकर्मण्यता , संशय , प्रमाद या समाधि साधन के अनुष्ठान का अभाव , देह और चित्त की अलसता , अविरति या विषयतृष्णा , भ्रांति - ज्ञान या मिथ्या- ज्ञान , समाधि की भूमिका की प्राप्ति होने पर भी उस पर प्रतिष्ठित न हो सकना ,दुःख , इच्छा की पूर्ति न हो ने से चित्त में क्षोभ ,देह में कम्पन तथा श्वास- प्रश्वास ये सब पूर्वोक्त मुख्य विघ्नों के आनुषंगिक सहकारी हैं । इस विवरण से समझ में आ जायेगा कि श्वास - प्रश्वास मूल रोग नहीं है ,रोग का केवल उपसर्ग मात्र है । श्वास - प्रश्वास का का कारण चित्त का विक्षेप है ,एवं विक्षेप का कारण है प्रत्यक चैतन्य की अप्राप्ति अर्थात साक्षात्कार रूप ज्ञान का अभाव । जिस उपाय से प्रत्यग आत्मा का साक्षात्कार होता है उसी के प्रभाव से श्वास - प्रश्वास रूप काल का खेल भी निवृत्त हो जाता है । प्रणव जप एवं प्रणव - एवं प्रणव वाच्य ईश्वर की भावना को योगियों ने आत्मज्ञान की प्राप्ति का मुख्य हेतु माना है । प्रणव जप का रहस्य अवगत होने पर यह समझ में आ सकता है कि अजपा - जप ही श्रेष्ठ जप है एवं अन्य जपों की चरम अवस्था का स्वाभाविक जप है । अजपा रहस्य 3 भारतीय संस्कृति और साधना / पृष्ठ 343 एक अहोरात्र में मनुष्य के स्वाभाविक श्वास -प्रश्वास की संख्या 21600मान लेनी चाहिए । विशेष अवस्था में इसमें कुछ तारतम्य होने पर भी यही साधारण नियम है । ' हम् ' ध्वनि करता हुआ जो श्वास बाहर निकलता है ,उसका नाम प्रश्वास है एवं ' सः ' ध्वनि करता हुआ जो भीतर आता है उसका नाम निःश्वास है । योगियों का कहना है कि जीव निरन्तर श्वास- प्रश्वास के बहाने इस हंस -मंत्र या अजपा गायत्री का जप करता है । जीवमात्र ही जब इसे करता है ,तब मनुष्य भी करता है ,यह कहना फज़ूल है । किन्तु अन्य जीवों से मनुष्य का भेद यह है कि मनुष्य अपने पौरुष द्वारा ऐसी सामर्थ्य अर्जित कर सकता है ,जिससे श्वास प्रश्वास की इस स्वाभाविक गति में विपर्यय हो सके ।अर्थात मनुष्य साधना के बल पर 'हंस ' गति को 'सो s हम् ' गति में परिवर्तित कर सकता है । तब आत्मज्ञान का पथ खुल जाता है एवं इड़ा और पिंगला में संचार करने वाले वायु की वक्रगति सुषुम्ना में सरल-गति के रूप में बदल जाती है । सुषुम्ना ब्रह्ममार्ग है । वायु इड़ा और पिंगला के मार्ग से हटकर जितना ही सुषुम्ना में प्रविष्ट होता है ,उतना ही विकल्प का शमन होता है । निर्विकल्प आत्मज्ञान का बन्द मार्ग धीरे धीरे खुलने लगता है ।सुषुम्ना में प्रवेश किये बिना वायु और मन की ऊर्ध्वगति नहीं हो सकती एवं ऊर्ध्वगति के बिना विकार का त्याग कर चित्त साम्यभाव में नहीं पहुंच सकता । योगी लोग जिसे कुम्भक कहते हैं वह इस ऊर्ध्वगति से क्रमशः सिद्ध होता है । वस्तुतः कुम्भक में गति नहीं रहती है ,यह बात नहीं है । किन्तु उससे वक्रगति की निवृत्ति के साथ अंतर्मुखी सरल गति की सूचना होती है । इस सरल गति से अंत में गतिहीन अवस्था का आभास प्राप्त हो जाता है ।जिसे हम लोग सांसारिक भाषा में प्राण -अपान का व्यापार कहते हैं ,उसी को योगी की भाषा में हंसमन्त्र का उच्चारण समझना चाहिए । इस प्रकार विषम गति के कारण की गवेषणा करने पर ज्ञात हो सकता है कि प्रकृति के भीतर ही इस विषमता का बीज निहित है । प्राण अपान को और अपान प्राण को निरन्तर खींचता है ,किन्तु दोनों की स्वाभाविक गति परस्पर विरुद्ध है । प्राण जिस ओर संचार करता है अपान उसकी विपरीत दिशा में संचरण करता है । यदि वे अन्य निरपेक्ष होते तो ऐसी स्थिति में विरोध की कोई संभावना नहीं रहती । किन्तु यह बात नहीं है । अपान के न रहने से प्राण का काम नहीं चलता ,इसीलिए प्राण विरुद्ध दिशा में बहने वाले अपान को चाहता है और उसको खींचता है ।वैसे ही प्राण के अभाव में अपान का काम भी नहीं चलता है ,इसीलिए अपान प्राण को खींचता है । इससे स्पष्टतः प्रतीत हो सकता है कि यथार्थ साम्यावस्था से दोनों के च्युत होने में ही दोनों में विरुद्ध गति का उदय हुआ है । इसलिए अनजान में प्राण और अपान विरुद्ध संचारी होकर भी अविरुद्ध साम्यावस्था में फिर प्रतिष्ठित होना चाहते हैं । जब तक वह साम्यावस्था प्राप्त न होगी तब तक शांति की संभावना नहीं है । बद्ध जीव इन दो आकर्षणों के मध्य में पड़कर कभी उठता है और कभी गिरता है । बायें और दाहिने मार्ग में संचार करता है ,उससे छुटकारा नहीं पाता । योगी का लक्ष्य इन दोनों विरुद्ध गतियों में समन्वय स्थापित करना है । सब प्रकारों की अध्यात्म - साधनाओं का यही उद्देश्य है । अजपा रहस्य 4 नाम से बड़ी उपाधि क्या है! नाम रूप दुइ ईश उपाधी। किंतु नाम का अर्थ नम्यते इति = झुकने से है। १७/७/२२ योग्यता को मापने की वस्तुनिष्ठ पद्धति तब तक विकसित नहीं हो सकती, जब तक चतुर्दिक उत्तम चरित्र और कर्तव्य परायणता विकसित न हो जाएँ। फिर व्यवस्था को इनमे से चयन करना होगा। पर इसे कैसे व्यवस्थित किया जाए, प्रश्न तो यही है। १९/७/२२ "जिसे तुम समझे हो अभिशाप, जगत की ज्वालाओं का मूल, ईश का वह रहस्य वरदान, कभी मत इसको जाओ भूल। विषमता की पीडा से व्यक्त हो रहा स्पंदित विश्व महान, यही दुख-सुख विकास का सत्य यही 'भूमा' का मधुमय दान |" जयशंकर प्रसाद 20/7/22 शिवशक्ति की विरहावस्था में आत्मा मन से एवं मन प्रकृति या प्राण से सम्बद्ध रहता है । आत्मा अपने बल से द्रष्टा बनकर यदि मन को दृश्य बनाता है ,तो मन भी तटस्थ होकर प्राण का यह खेल देख सकता है । इसलिए मन को श्वास गति के निरीक्षण कार्य में लगाना चाहिए ,एवं स्वयं मन की पृष्ठभूमि में चुपचाप स्थित रहना चाहिए । साधारण रूप से मन श्वास के साथ और प्राण के साथ संचालित होता है । इसी से श्वास चलता है । किन्तु जिस समय मन श्वास के साथ न चलकर उसकी गति का निरीक्षण करता रहता है ,उस समय 'अहम् ' भी उदासीन हो जाता है ,एवं उसके साथ ही श्वास की गति में भी मन्दता आ जाती है । इसकी एक परम अवस्था है ,वह अद्भुत रहस्य है । जिस समय शिव और शक्ति का मिलन होता है ,जिस समय प्राण और अपान का योग होता है ,जिस समय वायु सम्मिलित होता है ,सारा विश्व स्थगित हो जाता है ,काल की गति रुक जाती है ,परम शांति उत्पन्न होती है ; उस समय उस महास्थिति में भी भीतर ही भीतर एक व्यापार चलता है । यह हंस अवस्था से परमहंस अवस्था में पहुंचना है । इसी को आत्म- रमण कहते हैं । यह अपने ही साथ अपना विहार है । दूसरा तो उस समय कोई नहीं है । शिव और शक्ति उस समय मिल जाते हैं । मिलने पर भी उनके भीतर ही भीतर क्रिया रहती है । शिव और शक्ति का यह परस्पर अनुप्रविष्ट स्वरूप है । यह अति गुप्त है । आगम कहते हैं --यह अनुत्तर अक्षर रूपी परमेश्वर अपने अंगभूत और निखिल प्रपन्चलयात्मक विमर्श शक्ति में अनुप्रविष्ट या प्रतिबिंबित होते हैं ,तदुपरांत वह विमर्श शक्ति अपने भीतर स्थित प्रकाशमय प्रतिबिंब में अनुप्रविष्ट होती है । आत्माराम अवस्था का यही पूर्वाभास है । अजपा रहस्य 9 २३/७/२२ किसी परीक्षा में शत प्रतिशत अंक अवार्ड किया जाना भारत की परंपरा से मेल नहीं खाता। पता नहीं कैसे इस पर नियामकों का ध्यान नहीं जा रहा। जीवन्मुक्त महापुरुष भी पौरुष अज्ञान से ग्रसित होता है। बौद्ध ज्ञानी होने के बाद उसे देह छोड़ने पर पूर्ण मुक्ति उपलब्ध होती है। इसके अतिरिक्त यह मेधावी बच्चे ias ips, प्रोफ़ेसर. डॉक्टर, इंजीनिअर ही क्यों बनना चाहते हैं। कोई अपनी धुन का पियानो बजाने वाला, बिरहा या कजरी गाने वाला, फ़ुटवाल खेलने वाला, मुनाफ़ाख़ोरी के बिना व्यापार चलाने वाला, खुशहाल किसान, कुशल शिल्पी इत्यादि भी तो बनना चाहे न! और इन सबसे बढ़कर कोई उत्तम नागरिक और पूर्ण मनुष्य बनने की कामना करे।असफल और सफल होने के द्वंद्व में पड़कर देखने का अनुभव लेना चाहे। क्या सूचना ज्ञान के लिए नहीं होती! नही तो फिर उनका क्या उपयोग। सूचना संग्रहण से ज्ञान पाने की राह कुछ खुलती तो है ही न! किसी लिखे हुए को अंतिम कैसे कहा जा सकता है! वह गंतव्य तक पहुँचने का मार्ग ही हो सकता है। मित्रता में न दैन्यता है, न स्वामित्व और दासत्व ही। किंतु मित्रता में यह सब हैं भी क्योंकि मित्र से कोई दुराव और सामाजिक कंडिशनिंग नही होती। सत्य, प्रेम और करुणा मित्रता में मूर्तमान हो जाते हैं।🙏 २४/७/२२ तस्यैवैषा परा देवी स्वरूपामर्शनोत्सुका ।
पूर्णत्वं सर्वभावेषु यस्या नाल्पं न चाधिकम् ॥ बोधपंचदशिका 5 Tasyaiva parā devī, this collective state of the universe, which is reflected in the mirror of God consciousness; this whole universe which is reflected in the mirror of God consciousness, is His supreme energy. And why he has created this supreme energy in his own nature? Just to recognize his own nature. This whole universe is just the means to recognize Lord Shiva. You can recognize Lord Shiva through the universe. You cannot recognize Lord Shiva by abandoning the universe. So you have to observe and experience God consciousness in the very activity of the world. If you remain cut off from the universe and try to realize God consciousness it will take centuries. If you remain in universal activity and be attentive to realize God consciousness it will be very easy for you to understand. So this outside universe is created just for the sake of realizing his own nature. That is why it is called Shakti. This whole universal state is called Shakti, this is the means to realize one’s own nature.18 BRUCE P: Why should he want to recognize? SWAMIJI: It is svātantrya. Because if he does not recognize it, what is the fun of the universe? The universe is created just to recognize him. JOHN: Just for fun. SWAMIJI: Just for fun, yes . . . it is svātantrya. This is why in Śaivism this is svātantrya vāda [theory of svātantrya] everywhere. If he were only Shiva . . . he was there, he was in his full splendor of God consciousness . . . ERNIE: There is no lack there? SWAMIJI: No, it is full, it is already full. ERNIE: Yes. SWAMIJI: When fullness is overflowed . . . you know what happens afterward? He wants to remain incomplete, he wants to appear as incomplete, just to achieve completion. So this is the svātantrya. This svātantrya has created this whole universe. So in the universe, there is ignorance, and for ignorance, you want to get rid of that ignorance. And there is a way, there is a way, that in the activity of world you will meditate and bas, reach the state of God consciousness. So this is the fun of svātantrya. SWAMIJI: You leave it. You leave it when it is overjoyed [overflowing]. nijaśaktyā vaibhavabharāt aṇḍacatuṣṭya (paramarthasāra)19 When it is overflowed, when it overflows then you want to disconnect it. ERNIE: So that’s his position? SWAMIJI: That is his position . . . disconnected because of too much of it (joy). You want to get disconnected from that state and then connect yourself, (then) it gives pleasure, that is svātantrya. This is why this whole universe is created. Otherwise, there was no reason to create this universe, when God was there already in his own knowledge, completely. To enjoy his own fullness of God consciousness. Fullness of God consciousness he has enjoyed already, he was enjoying already. It was too much. So he wanted to disconnect it . . , for the time being, and realize it again. So it is unmeṣa and nimeṣa. Unmeṣa is flourishing of that God consciousness and nimeṣa is winding that God consciousness, extract and contract. Expansion and (contraction) i.e. unmeṣa and nimeṣa.20 This is svātantrya. So this is the way, how this universe is created. Otherwise, there was no room for this universe to be created. What for . . . if God consciousness was already full? But it was over, over . . . GANJOO: Overflowing. SWAMIJI: . . . overflowing, and then he wanted to do something else. ERNIE: When it was overflowing, Shakti was still . . . ? SWAMIJI: Shakti was in his own nature at that time. When it overflowed too much then he had to separate Shakti from his nature. And then in Shakti also Shiva is existing; and that Shiva was ignorant, and he wanted to have this fullness of his knowledge, as before. This is the way. JOHN: So he contains both of those in himself at the same moment, though. There is not a point where he is separated from the universe and then . . . SWAMIJI: No, at the moment he realizes his nature from ignorance to knowledge, he experiences at that very moment that it was already there. This is the proof, this is the proof of his being already filled with knowledge, in ignorance also. In ignorance also, when this ignorance vanishes from that individual, he experiences and this memory comes in his mind, “that it was already there, it was already there.” (This memory comes) at the time of knowledge at the time of existence of God consciousness. ERNIE: So there was never really any separation at all? SWAMIJI: No, (that) separation seems to be by svātantrya. ______________ 18  “O dear Pārvatī, just like by the light of your torch or candle, or by the rays of sun, all the differentiated points of deśa, or ‘space’ are known, are understood; in the same way Shiva is being understood by Shakti, by his energy. Energy is the means by which you can understand and enter in the state of Lord Shiva.” Swami Lakshmanjoo, Vijñāna Bhairava, Verse 21. In Kashmir Shaivism ‘the showering of grace’ is called ‘Śaktipāta’. There is no such thing as Śivapāta, because for Shiva there is nowhere to go and nothing to realize. Shiva is the realizer! [Editor’s note] 19  “When the glamour of His own energies, cit śakti, ānanda śakti, icchā śakti, jñāna śakti and kṛiyā śakti are overflowing with glamour, he creates this universe. This is the creation because he was overflowing in his way, in his being.” Paramārthasāra, verse 4. Cit śakti, ānanda śakti, icchā śakti, jñāna śakti and kṛiyā śakti, are Shiva’s energies of consciousness, bliss, will, knowledge and action, respectively. These are the five universal energies existing in the state of God consciousness. [Editor’s note] 20  “By whose unmeṣa and nimeṣa, by whose twinkling of eye – unmeṣa is opening of eye, nimeṣa is closing His eyes – you find jagataḥ pralayodayau, the rise and dissolution of one hundred and eighteen worlds. One hundred and eighteen worlds rise when He opens His eyes, and one hundred and eighteen worlds are destroyed when He closes His eyes.” Swami Lakshmanjoo, Spanda Kārika, verse 1. २७/७/२२ प्रेम घृणा का विपरीतार्थी नहीं है। प्रेम करुणा और आनंद का प्रस्थान बिंदु है। प्रोफ़ेसर पदनाम और उसका वेतनमान निर्धारण हुआ। दो एक ऐसे सुखों का भोग भी करना है। पजीवन की कड़ियाँ एक के बाद एक जुड़ती हुयीं सप्रयोजन प्रतीत होने लगी हैं। जितनी इच्छाएँ रही होंगी, वे सब फलीभूत होते हुए दिख रही हैं। गुरुदेव मार्ग पर बढ़ाते रहें🙏🌹🙏 ३०/७/२२ कभी गौर किया होगा कि हम अकस्मात् सारी चीजें भूल जाते हैं। उस क्षण एक अपूर्व आनंद प्राप्त होता है। अगर इसे पकड़े रहे तो यह क्षण ईश्वर से मिला देता है। कुछ न कुछ किए बिना नही रह सकते अतः सत्कर्म करो, यह धर्म है। कुछ जाने बिना नहीं रह सकते अतः अपने आप को जानो, यह ज्ञान है। कुछ माने बिना नहीं रह सकते अतः ईश्वर को मानो, यह भक्ति है। ज्ञान और भक्ति की उपलब्धि पर धर्म स्वतः होने लगेगा। धर्म के रास्ते ज्ञान और भक्ति तक पहुँचने का लक्ष्य प्राप्त होता है। पति का अर्थ अगर मालिक है तो पत्नी का अर्थ हुआ उसे लेकर चलने वाली। 31/7/22 वर्णात्मक शब्द से ध्वन्यात्मक शब्द में प्रवेश न कर सकने पर योगपथ नहीं मिलता। ध्वन्यात्मक शब्द ही नाद है वर्णरूपी शब्द विगलित होकर नादरूपी शब्द की उपलब्धि होती है नाद के बिना बिंदु की उपलब्धि कैसे हो सकती है? जैसे रेखा गतिहीन होने पर बिंदु का रूप धारण करती है, उसी प्रकार नाद भी प्रवाह हीन होकर बिन्दुरुप में परिणत होता है, यह बिंदु ही पूर्व वर्णित आत्म ज्योति है। आत्म स्वरूप का यही अभिव्यंजक है। — जय गुरु 🙏🌹💐🌺 (सनातन साधना की धारा) सायंकाल के ध्यान में महावतार बाबाजी का पीछे का स्वरूप दिखायी दिया, जिसमें उनके बाल कंधे तक शोभायमान हो रहे हैं। इस स्वरूप में पूरा ब्रह्मांड समा गया।

Friday, July 1, 2022

१/६/२२ बिना पूर्ण विश्वास और श्रद्धा के किसी आध्यात्मिक प्रथा में निष्ठा रखना पाखंड है. किसी प्रथा के बाह्य कर्मकांड से चिपके बिना, उसके पीछे विद्यमान सत्य में निष्ठा का होना विवेक है। परंतु आध्यात्मिक प्रथा, सिद्धांत, गुरु, इनमे से किसी के भी प्रति निष्ठा न होना आध्यात्मिक पतन है. ईश्वर और उनके दूत का साथ न छोड़िए, तब आप प्रत्येक वस्तु में उनके हाथ को कार्यरत देखेंगे. योगदा सत्संग पत्रिका. १७ मई आध्यात्मिक दैनंदिनी 2/6/22 स्त्री के गर्भ में आने के बाद शैशव, यौवन और वृद्धावस्था से होते हुए हिरण्यगर्भ में पहुँचने की यात्रा का नाम अध्यात्म है. हिरण्यगर्भ में पहुँचने के बाद वापस नहीं आना एक योगी का लक्ष्य होता है. जिस प्रकार एक शिशु माता के वक्ष से लिपटकर दूध पीते हुए आनंद लेता है, एक आध्यात्मिक या आत्मदर्शी व्यक्ति उसी आनंद से पूरे जीवन रहा करता है. तत त्वं असि! ऋषि उद्दालक और श्वेतकेतु का संवाद: छान्दोग्योपनिषद् की एक कथा है। बात उस समय की है जब धोम्य ऋषि के शिष्य आरुणी उद्दालक का पुत्र श्वेतकेतु गुरुकुल से शिक्षा प्राप्त करके अपने घर आया। एक दिन पिता आरुणी उद्दालक ने श्वेतकेतु से पूछा, “श्वेतकेतु! अभी और वेदाभ्यास करने की इच्छा है या विवाह?” पिता की यह बात सुनकर श्वेतकेतु बड़े गर्व से बोला, “एक बार राजा जनक की सभा को जीत लूँ, उसके बाद जैसा आप उचित समझे।” अपने पुत्र के मुँह से ऐसे अहंकार से युक्त वचन सुनकर ऋषि उद्दालक सहम से गए। वह बिना कुछ कहे वहाँ से उठकर चल दिए। श्वेतकेतु अपनी ही मस्ती में घर से निकल गया। तब श्वेतकेतु की माँ ने ऋषि उद्दालक का चेहरा पढ़ लिया और पूछा, “आप ऐसे सहमे हुए से क्यों हैं?” तब व्यथित होते हुए ऋषि उद्दालक बोले, “श्वेतकेतु की राजा जनक की सभा को जीतने की लालसा ही बता रही है कि उसने वेदों के मर्म को नहीं समझा। वह केवल शाब्दिक शिक्षाओं का बोझा ढोकर आया है। वह जब घर आए तो उसे मेरे पास भेजना।” इतना कहकर ऋषि उद्दालक अपने अध्ययन कक्ष की ओर चल दिए। जब श्वेतकेतु घर आया तो उसकी माँ ने उसे पिता के पास जाने के लिए कहा। पिता के पास जाकर श्वेतकेतु बोला, “तात! आपने मुझे बुलाया?” ऋषि उद्दालक बोले, “हाँ! बैठो! इतना कहकर वह अपना काम करने लगे।” श्वेतकेतु से धैर्य नहीं रखा गया अतः वह बोला, “तात! आपने मुझे क्यों बुलाया?” तब ऋषि उद्दालक बोले, “श्वेतकेतु! मुझे नहीं लगता कि तुमने वेदों का मर्म समझा है! क्या तुम उसे जानते हो, जिसे जानने से, जो सुना न गया हो, वो सुनाई देने लगता है। जिसका चिंतन नहीं किया गया हो, वो चिंतनीय बन जाता है। जो अज्ञात है, वो ज्ञात हो जाता है।” तब श्वेतकेतु बोला, “तात! मेरे महान आचार्यों ने मुझे इसकी शिक्षा नहीं दी। यदि वे जानते होते तो उन्होंने मुझे इसकी शिक्षा अवश्य दी होती। अतः आप ही मुझे इस बारे में बताएँ?” यह सुनकर तथा श्वेतकेतु की जिज्ञासा को जानकर ऋषि उद्दालक श्वेतकेतु को घर से बाहर ले गए। ऋषि आरुणि उद्दालक श्वेतकेतु को लेकर एक पेड़ के नीचे बैठ गए और कुछ मिट्टी उठाते हुए बोले, “श्वेतकेतु! जिस तरह जब तुम मिट्टी को जान लेते हो, तब तुम मिट्टी से बने सभी बर्तनों को जान लेते हो कि वह भी मिट्टी स्वरूप ही है। जब तुम स्वर्ण को जान लेते हो, तब तुम स्वर्ण से बने सभी स्वर्णाभूषणों को जान लेते हो। उसी तरह अब तुम ही बताओ? क्या है वह मूलभूत तत्व, जिसको जान लेने से तुम सबको जान लेते हो, जिससे यह सम्पूर्ण जगत बना है।” जिज्ञासु दृष्टि से श्वेतकेतु बोला, “मैं नहीं जानता! तात।” तब आरुणि उद्दालक बोले, “वह सर्वोच्च सत्य सत् है, अस्तित्व है, चेतना है। इसी चेतना से नाम और रूप के सारे संसार ने जन्म लिया है। जैसे स्वर्ण ही स्वर्णाभूषण है, मिट्टी ही मिट्टी का घड़ा है। वैसे ही चेतना या अस्तित्व ही सबकुछ है। इसलिए तुम वही सत् चेतना हो। तत त्वं असि = तत्वमसि।” तत्वमसि यह एक महावाक्य है जो यह घोषणा करता है कि “तुम वो ही हो, जो तुम खोज रहे हो।” यह साधक और साध्य के एक्य को दर्शाता है। इसी महावाक्य के माध्यम से आचार्य अपने शिष्य को उपदेश करता है, “वह तुम ही हो जो तुम खोज रहे हो!” श्वेतकेतु की ब्रह्म जिज्ञासा को देखकर आचार्य उद्दालक उसे फूलों के एक बगीचे में ले गए और बोले, “यहाँ विभिन्न फूलों से शहद इकठ्ठा कर रही मधुमखियों को देख रहे हो श्वेतकेतु?” श्वेतकेतु, “हाँ! तात।” आचार्य उद्दालक, “छत्ते में मिलने के बाद क्या वो शहद कह सकता है कि मैं उस फूल का हूँ और मैं उस फूल का हूँ?” श्वेतकेतु, “नहीं तात!” आचार्य उद्दालक, “ उसी तरह जब कोई व्यक्ति उस शुद्ध चेतना के साथ एक हो जाता है तो उसकी व्यक्तिगत पहचान खत्म हो जाती है। ठीक उसी तरह जैसे सागर में मिलने के बाद नदियाँ अपना अस्तित्व खो देती हैं। वह चेतना ही है जो सबको जोड़ती है। जिससे तुम, मैं और यह सब चराचर जगत बना है।” तब श्वेतकेतु बोला, “लेकिन तात! एक सत या चेतना से ही विविधता से भरे इस जगत की उत्पत्ति कैसे हुई?” आचार्य उद्दाक बोले, “जाओ! कहीं से बरगद के वृक्ष का फल लेके आओ।” श्वेतकेतु फल लाता है तो आचार्य उद्दालक उसे तोड़ने को कहते हैं और पूछते हैं कि इसमें क्या है? श्वेतकेतु कहता है, “इसमें बहुत सारे छोटे-छोटे बीज हैं।” तब आचार्य उद्दालक बोलते हैं, “इसके किसी एक बीज को तोड़के देखो, उसमें क्या है?” जब श्वेतकेतु ने छोटे से बीज को तोड़के देखा तो बोला, “यह इतना सूक्ष्म है कि इसे देख पाना संभव नहीं! तात।” तब आचार्य उद्दालक बोले, "यह सूक्ष्म बीज, जिसे तुम देख नहीं सकते। इसी से विशालकाय बरगद का वृक्ष अपनी विभिन्न शाखाओं और फूलों को लेकर उत्पन्न होता है। उसी तरह उस शुद्ध चेतन तत्व, (जिसे तुम देख नहीं सकते) से ही विविधता से भरा यह जगत उत्पन्न होता है।” इसके बाद आचार्य उद्दालक ने श्वेतकेतु को एक लोटे जल में नमक घोलकर लाने के लिए कहा और श्वेतकेतु से लोटे की उपरी सतह से जल पीने को कहा और पूछा, “कैसा है?” जल नमकीन था। फिर उसे लोटे के बीच का जल पीने को कहा। वो भी नमकीन था। अंत में उन्होंने उसे पैंदे का जल पीने को कहा। वो भी नमकीन था। तब आचार्य उद्दालक बोले, “जिस तरह दिखाई नहीं देते हुए भी जल की प्रत्येक बूँद में नमक है। उसी तरह दिखाई नहीं देते हुए भी सभी जगह वही चेतना विद्यमान है। वो मुझमें भी है, वही तुम हो। तत त्वं असि।” इस तरह ऋषि उद्दालक ने श्वेतकेतु को दैनिक जीवन के उदहारण लेकर “तत त्वं असि” महावाक्य की नौ बार उद्घोषणा की। जब तक कि श्वेतकेतु इसके अर्थ को हृदयंगम नहीं कर लिया। यह प्रसंग छान्दोग्योपनिषद् के छठवें अध्याय में वर्णित है। आनंदमस्तु! ऊँ तत् सत्। Tathastu प्रणाम! Sakshi Prem 10/6/22 उपनिषदों में ब्रह्म की ज्ञान शक्ति को गायत्री कहा गया है और क्रिया शक्ति को सावित्री। जड़ चेतनमय सृष्टि में ज्ञान और क्रिया दोनो की अनिवार्यता है और ब्रह्म में ही दोनो शक्तियां निहित हैं। व्रतों और त्योहारों में कहीं वेद और उपनिषदों की उक्तियाँ झांकती अवश्य हैं, रूप चाहे जितने बदल गए हों। आज वट सावित्री अमावस्या का दिन है। 10/6/21 फ़ेसबुक पोस्ट जब आप अपने हृदय में ईश्वर को अनुभव करना प्रारम्भ करेंगे, तो आप विश्व सभ्यता के प्रति इतना योगदान करेंगे, जितना किसी राजा अथवा किसी राजनीतिज्ञ ने पहले कभी नहीं किया होगा। गुरुदेव। किसी की कोई चीज पसंद नहीं है तो उसकी अवज्ञा मत करो सोचो ठाकुर ने उसे भी पैदा किया है वही उसे इस संसार मे लाया है । माँ सारदा कहत कठिन समुझत कठिन साधत कठिन बिबेक। होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्यूह अनेक॥ भावार्थ ज्ञान कहने (समझाने) में कठिन, समझने में कठिन और साधने में भी कठिन है। यदि घुणाक्षर न्याय से (संयोगवश) कदाचित यह ज्ञान हो भी जाए, तो फिर (उसे बचाए रखने में) अनेकों विघ्न हैं॥ कोऊ कह सत्य झूठ कह कोऊ जुगल प्रबल कोऊ माने तुलसीदास परिहरै तीनि भ्रम सो आपन पहिचाने। पैग़म्बर मोहम्मद का बड़ा सामाजिक योगदान है कि उन्होंने अपने समय के लड़ने वाले कबीलों को इकट्ठा किया. उन्हें अनुशासित किया. उनकी तपस्या से उन पर क़ुरान आयत्त हुयी. उसकी व्याख्या को लेकर उसी तरह के मतभेद हैं जैसे वेदों के विभिन्न भाष्य हुए हैं. कई व्याख्याये या भाष्य होने से क़ुरान या वेदों का महत्व तो नहीं घट जाएगा. मुश्किल उन लोगों से है जो न क़ुरान समझते हैं और न वेद ही. न समझ पाएँ, पर समझने वालों और उनके आचरण से ही सीख लें. 🙏 संसार की गति एक रेखीय नही होती. अतीत वर्तमान और भविष्य की भाँति भी नहीं और न उसका पूर्वापर क्रम निर्धारित किया जा सकता है. यह सब एक समय में ही घटित हो रहे हैं, किसे आगे और किसे पीछे कहा जा सकता है. इस समय को हम क्षण नाम देते हैं. इस क्षण में ही ईश्वर द्वारा सृष्टि, स्थिति और लय ही नहीं, पिधान और अनुग्रह भी घटित हो रहे हैं. इन सब ईश्वरीय विधानों को पृथक पृथक देखना-समझना ही बोध प्राप्त करना है. १२/६/२२ नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन, एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन। राजा भर्तृहरि ने कहा है- भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद्भयं माने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जराया भयं। शास्त्रे वादिभयं गुणे खलभयं काये कृतांताद्भयं सर्व वस्तु भयान्वितम भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयं।। अर्थात : विषयों के भोग में रोग का भय बना रहता है, कुल में आचार से भ्रष्ट होने का भय, धन-संचय में राजा द्वारा छीन लिये जाने का भय, मान-सम्मान में अपमानित होने का भय, शौर्य-वीरता में शत्रु से हार जाने का भय, शारीरिक सौंदर्य में वृद्धावस्था का भय, शास्त्रों के पांडित्य में प्रतिवादी से पराजित होने का भय, विद्या-विनय-दान-धर्म आदि सद्गुणों में दुष्टों द्वारा निंदा का भय और शरीर धारण के विषय में यम अर्थात मृत्यु का भय बना रहता है। इस प्रकार संसार में मनुष्यों के लिए सारी वस्तुएं ही भय से परिपूर्ण हैं, एकमात्र वैराग्य यानि इन सबसे अपने को समेटने की प्रक्रिया ही अभय प्रदान करने वाला है। परा और अपरा दो विद्याएँ बताई गयी हैं. स्वयं वेद अपरा विद्या हैं, पर उनमें परा विद्या भी मिलती है. सब कुछ बड़ा मिश्रित है. खोजने और पाने की पात्रता विकसित करनी होगी. ईशोपनिषद में विद्या और अविद्या को साथ साथ जानना आवश्यक कहा गया है. मुंडक उपनिषद की स्पष्ट घोषणा है... तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति । अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते ॥ मुंडक उप १/१/५ ॥ 5. Of these, the Apara is the Rig Veda, the Yajur Veda, the Sama Veda, and the Atharva Veda, the siksha, the code of rituals, grammar, nirukta, chhandas and astrology. Then the para is that by which the immortal is known.  अष्टावक्र उवाच । आचक्ष्व शृणु वा तात नानाशास्त्राण्यनेकशः । तथापि न तव स्वास्थ्यं सर्वविस्मरणादृते ॥ १६/१ ॥ aṣṭāvakra uvāca | ācakṣva śṛṇu vā tāta nānāśāstrāṇyanekaśaḥ | tathāpi na tava svāsthyaṃ sarvavismaraṇādṛte || 1 || Ashtavakra: My son, you may recite or listen to countless scriptures, but you will not be established within until you can forget everything. 14/6/22 शक्ति के विद्युतकण जो व्यस्त, विकल बिखरे हैं, हो निरूपाय: समन्वय उसका करें समस्त, विजयिनी मानवता हो जाय। (i) हरि , तुम बहुत अनुग्रह कीनों । साधनधाम विबुध दुर्लभ तन मोहि कृपा करि दीनों । तुलसी 16/6/22 वर्षा ईश्वर का वीर्य हैं. बूँदे गिरते समय और उनकी नमी से ही कितने जीवों का पुनरागमन हो जाता है. औषधियाँ और पादप बनते हैं, वे हमारे लिए अन्न बनते हैं. अंत में हम भी किसी का अन्न बन जाते हैं. १७/६/२२ इंद्र व्यक्तिगत आत्मा को कहते हैं. वही सब देवताओं का अधिपति है. श्री अरबिंदो इंद्र को गिवर ओफ़ लाइट कहते हैं. यह व्यक्तिगत आत्मा जब दृश्य देखने का काम करती है तो उसे इंद्रिय कहते हैं. संस्कृत भाषा में इदं यह को कहते हैं द्र का अर्थ देखने से है, वह जो देखता है इंद्र कहलाता है. इदंद्र का संक्षिप्तीकरण इंद्र रूप में हुआ है. ध्यान में देखे अनदेखे मंदिर और विग्रह दर्शन हो रहे हैं. क्षितिज में चमकते तैरते तारों के बीच पाते हैं. सिर के ऊपरी भाग में तरावट रहती है. शरीर याद कदा स्फुरित होता रहता है. बहुत से अनुभव लिखना चाहते तब भी लिखते समय भूल जाते हैं. फिर अगली बैठकी में उन्हें लिखने का प्रयास करते हैं, पर तब तक नया अनुभव आ जाता है, वह अनुभव तिरोहित ही रहता है. हिमालय के बद्रीनाथ क्षेत्र में शंकर और पार्वती निवास करते थे। एक दिन अचानक एक बालक उनके सम्मुख आया। पार्वती ने उसे उठाकर संभालने की इच्छा प्रकट की, पर शंकर ने रोका कि यह साधारण बालक नही है, अन्यथा इसके माता पिता के पदचिह्न बर्फ पर दिखते। पार्वती नही मानी, बालक की सम्भाल करने लगीं। एक दिन जब पार्वती और शंकर बाहर निकले और घर वापस आये तो बालक ने कुंडी लगा दी और खोली नहीं। मजबूरन शंकर पार्वती को अपना स्थान बदलना पड़ा और केदारनाथ जाकर रहने लगे। हिमालय की यात्रा कुछ पाने के लिए नही की जाती, वरन वहां जाकर संसार के सारे पदार्थ हिमालय के सामने बौने दिखने लगते हैं। यही इस यात्रा का निहितार्थ है। बद्रीनाथ और गंगोत्री के लिए अब मोटर वाहन सुलभ हो गए हैं, पर पहले लोग वहां पैदल जाते थे। बद्रीनाथ की यात्रा में वहां से पच्चीस किमी पूर्व गोविद घाट से अद्भुत दृश्य और शांति प्राप्त होती है। इस क्षेत्र को लोग विश्व के सभी क्षेत्रों से विरल मानते हैं। गोविंद घाट से ही सिखों के पवित्र हेमकुंड सरोवर की यात्रा आरम्भ होती है। आदि जगतगुरु आचार्य शंकर ने हज़ारो वर्ष पहले सुदूर दक्षिण के केरल में जन्म लेकर हिमालय की तीन हज़ार किमी से अधिक की यात्रा तीन बार पूरी की। यही नहीं, उन्होंने पूर्व से पश्चिम की यात्रा भी एक बार पूरी करके देश मे चार पीठें स्थापित की। यह कार्य उन्होंने कोई सम्प्रदाय या धर्म निर्मित करने के लिए नही किया, वरन सनातन धर्म को मौलिकता प्रदान करते हुए पुनर्स्थापित किया। आदि शंकराचार्य द्वारा सर्वप्रथम हिमालय के जोशीमठ (ज्योतिर्मठ) में पीठ स्थापित की गई। दुर्भाग्यवश, यही पीठ आजकल विवादित हो गयी है। इस पीठ पर शारदा पीठ के शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती और वासुदेवानंद सरस्वती के बीच अवर न्यायालय और हाइकोर्ट से होते हुए मुक़दमा सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है। वर्तमान में स्वरूपानंद जी ने कुछ ज़मीन लेकर मन्दिर और अन्य स्थापत्य निर्मित कर लिए, इसी से सटे क्षेत्र पर ऊपर पुराने भवन में वासुदेवानंद जी की पीठ चल रही है। स्वरूपानन्द जी पर आरोप है कि वह बद्रीनाथ क्षेत्र की पीठ हथियाने के लिए अपने को गुरु ब्रह्मानंद सरस्वती की जगह बोधाश्रमजी का शिष्य बताने लगे। ब्रह्मानंद जी के बाद शांतानंद और एक अन्य शंकराचार्य इस पीठ को सुशोभित किये और फिर वासुदेवानंद जी आसीन हुए। स्वरूपानन्द जी ब्रह्मानंद जी के बाद बोधाश्रम जी और फिर स्वयं पीठाचार्य बताते हैं। जो हो, लेकिन इस विवाद से नुकसान पहुच रहा है। यही नहीं आदि शंकराचार्य ने भारत की एकता और अखंडता के लिए बद्रीनाथ मंदिर की पूजा के लिए केरल के नंबूदरी ब्राह्मणों को नियुक्त किया। नंबूदरियो कि सहायता के लिए गढ़वाली ब्राह्मण रहते हैं। उनका दावा है कि इन दोनों शंकराचार्यो का दावा झूठा है यह तो नम्बूदरी ब्राह्मणों की पीठ है। परम्परा में भगवान बद्रीनाथ का स्वरूप जैसा मिलता है, उससे किंचित भिन्न यहां बद्रीनाथ पद्मासन में ध्यान करते हुए बिराजे हैं। हाथ चार ही हैं। दो अलग अलग हाथो में शंख और चक्र पर दो अन्य नीचे के हाथ ध्यान दशा में परस्पर मिले हुए हैं। इस स्वरूप से यह भी स्पष्ट है कि योग और ध्यान अपनी परम्परा में अति प्राचीन विधियां हैं। कहा जाता है भगवान विष्णु ध्यान करते गए और पत्नी लक्ष्मी ने बदरी पेड़ का रूप धारण कर उन्हें छाया प्रदान की, इससे वह बद्रीनाथ हुए। बद्री को बेर के पेड़ के रुप में जनसामान्य जानता है, पर बदरी बेर से भिन्न एक अन्य पेड़ हैं, यद्यपि वह पेड़ भी आजकल यहां मौजूद नहीं हैं। उत्तराखंड के चार धामों की यात्रा का क्रम यमुनोत्री से शुरू होता है। यमुना का उद्गम स्थल यमुनोत्री है। यमुना सूर्य की पुत्री हैं, इनका भाई यम है, पर माता अलग अलग हैं। यम के श्राप या दुःख को बहिन यमुना ने दूर किया था। यमी का उल्लेख वेद में भी है। इसलिए व्यक्ति असामयिक मृत्यु और उसके भय को दूर करने यहां आते हैं। गंगोत्री में व्यक्ति के पूर्वजों को भी मुक्त कर दिया जाता है, जैसा भागीरथ के प्रयासों से उनके पूर्वज राजा सगर के साठ हज़ार पुत्रों का उद्धार करने की कथा सर्वविदित है। गंगा का उद्गम स्थल गोमुख है। ग्लेशियरों से नदियां निकलती हैं। गंगा का ग्लेशियर गाय के मुख की आकृति की भांति है। गौमुख गंगोत्री से पैदल 18 किमी है और सरकार की अनुमति के बिना यहां नही जाया जा सकता है। यमुनोत्री और गंगोत्री के बाद केदारनाथ के दर्शन किये जाते हैं। केदारनाथ के पुजारी कर्नाटक के वीर शैव सम्प्रदाय के आचार्य हैं। केदारनाथ ज्योतिर्लिंग की आकृति भी प्रचलित शिवलिंग से भिन्न है। उत्तराखण्ड के चार धामों में अंत मे बद्रीनाथ की यात्रा सम्पन्न होती है। भगवान की पूजा उपासना में श्रृंगार इतना अधिक कर दिया जाता है कि उनका मूल स्वरूप ढंक जाता है। इससे लोगों को स्वरूपों की विलक्षणता पता नही लग पाती है। ओरछा में भी रामराजा पद्मासन में बिराजे हुए हैं और उनके दरबार मे दुर्गा माता भी विद्यमान हैं...१८ जून २०१९ फ़ेसबुक से * सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका॥ बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे॥3॥ भावार्थ:-शौर्य और धैर्य उस रथ के पहिए हैं। सत्य और शील (सदाचार) उसकी मजबूत ध्वजा और पताका हैं। बल, विवेक, दम (इंद्रियों का वश में होना) और परोपकार- ये चार उसके घोड़े हैं, जो क्षमा, दया और समता रूपी डोरी से रथ में जोड़े हुए हैं॥3॥ * ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना॥ दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा। बर बिग्यान कठिन कोदंडा॥4॥ भावार्थ:- ईश्वर का भजन ही (उस रथ को चलाने वाला) चतुर सारथी है। वैराग्य ढाल है और संतोष तलवार है। दान फरसा है, बुद्धि प्रचण्ड शक्ति है, श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष है॥4॥ * अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना॥ कवच अभेद बिप्र गुर पूजा। एहि सम बिजय उपाय न दूजा॥5॥ भावार्थ:-निर्मल (पापरहित) और अचल (स्थिर) मन तरकस के समान है। शम (मन का वश में होना), (अहिंसादि) यम और (शौचादि) नियम- ये बहुत से बाण हैं। ब्राह्मणों और गुरु का पूजन अभेद्य कवच है। इसके समान विजय का दूसरा उपाय नहीं है॥5॥ * सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें॥6॥ भावार्थ:- हे सखे! ऐसा धर्ममय रथ जिसके हो उसके लिए जीतने को कहीं शत्रु ही नहीं है॥6॥ sufficient precision, thus: — Principle 1. Pure Existence — Sat 2. Pure Consciousness — Chit 3. Pure Bliss — Ananda 4. Knowledge or Truth — Vijnana 5. Mind 6. Life (nervous being) 7. Matter World World of the highest truth of being (Satyaloka) World of infinite Will or con- scious force (Tapoloka) World of creative delight of existence (Janaloka) World of the Vastness (Maharloka) World of light (Swar) Worlds of various becoming (Bhuvar) The material world (Bhur) १९/६/२२ भगवान् कृष्ण का एक नाम है 'सत्कृति' भगवान् कृष्ण का एक नाम है 'सत्कृति'। सत्कृति का अर्थ है जो अपने भक्त के निर्याण (शरीर त्यागने के) समय में उसकी सहायता करते हैं। वराह पुराण में भगवान् हरि कहते हैं-- वातादि दोषेण मद्भक्तों मां न च स्मरेत्। अहं स्मरामि मद्भक्तं नयामि परमां गतिम्।। “यदि वातादि दोष के कारण मृत्यु के समय मेरा भक्त मेरा स्मरण नहीं कर पाता तो मैं उसका स्मरण कर उसे परम गति प्राप्त करवाता हूँ।“ मुकुंदमाला से.. कृष्ण त्वदीय पद पंकज पंजरान्तं अद्यैव मे विशतु मानस राज हंसः | प्राण प्रयाण समये कफ वात पित्तैः कंठावरोधनविधौ स्मरणम् कुतस्ते ।। हे कृष्ण! मेरा चित्तरूपी राजहंस आज ही आपके श्रीचरण रूपी कमल के केशर में जाकर प्रवेश करे, क्योंकि प्राण परित्याग के समय जब कफ, वायु तथा पित्त से कंठ अवरुद्ध हो जाएगा तब आपका स्मरण कैसे कर पाऊँगा. आदि शंकराचार्य कहते हैं बाल्ये दुःखातिरेको मललुलितवपु: स्तन्यपाने पिपासा नो शक्तश्चेन्द्रियेभ्यो भवगुणजनिता जन्तवो मां तुदन्ति । नाना रोगोत्थदुःखाद् रुदन परवशः शंकरं न स्मरामि क्षंतव्यो मे अपराधः शिव शिव शिव भोः श्रीमहादेव शंभो. आज अंतरराष्ट्रीय पितृ दिवस है। जिनके पिता जीवित नहीं हैं, उनका स्मरण तो आज वैसा ही हुआ, जैसा श्राद्ध कर्म में किया जाता है। कई व्यक्ति श्राद्ध को व्यर्थ बता देते हैं। कहीं यह कान घूमकर तो नहीं पकड़ा गया है। ऋग्वेद की एक ऋचा है.. ये अग्निदग्धा ये अनग्निदग्धा मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते । तेभिः स्वराळसुनीतिमेतां यथावशं तन्वं कल्पयस्व ॥ ॥ हमारे जिन पितरोंको अग्निने पावन किया है और जो अग्निद्वारा भस्मसात किये बिना ही स्वयं पितृभूत हैं तथा जो अपनी इच्छाके अनुसार स्वर्गके मध्यमें आनन्दसे निवास करते हैं । उन सभीकी अनुमतिसे, हे स्वराट् अग्ने ! ( पितृलोकमें इस नूतन मृतजीवके ) प्राण धारण करने योग्य ( उसके ) इस शरीरको उसकी इच्छाके अनुसार ही बना दो और उसे दे दो .२० जून २०२१ की फ़ेसबुक पोस्ट भागवत (1.3.28) में कहते हैं-- एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् | इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे || “ ये सब अवतार तो भगवान के अंशावतार अथवा कलावतार हैं, परन्तु भगवान श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान अवतारी ही हैं l २३/६/२२ मौलाना वाहिदुद्दीन की अनूदित पवित्र क़ुरान का विहगावलोकन किया, मौलाना साहब की भूमिका पूरी पढ़ी. इसमें कुछ ऐसा नहीं,क़ुरान में ऐसा कुछ नहीं, जिसे लेकर बखेड़ा खड़ा किया जाता है. ख़ुद मौलाना साहब ने कतिपय शंकाएँ उठाते हुए उनका निवारण इस भूमिका में किया है. गर्दन काटने और मारने की जो बातें क़ुरान में की गयी हैं, वे राज्य के लिए हैं, व्यक्ति के लिए नहीं. व्यक्ति अपना जिहाद शांतिपूर्वक किए गए आचरण से लड़ सकता है. हिंसक कार्यवाही की अनुमति राज्य के लिए ही है. कितनी सुखद अनुभूतियों को शब्दों में वर्णित नहीं कर सकते. बड़ी बड़ी अनुभूतियाँ शास्त्रों और गुरुदेव के ग्रंथों में आयी हैं, पर उनकी उन्हें आज्ञा रही, इसलिए वे आयी, मुझे न ऐसी आज्ञा है, न सामर्थ्य कि उन्हें व्यक्त कर पाएँ. २५/६/२२ कर्तृत्व की मूल कृति-- इच्छा नहीं । इच्छा का उदय पूर्व संस्कार से होता है ---- उस इच्छा की ओर yield करना या नहीं करना , यह कृति है । यही कृतित्व है । देवता कर्ता नहीं हैं ,उनकी देह कर्मदेह नहीं । क्योंकि उन्हें इच्छा होती है और उसी क्षण उसकी पूर्ति होती है । कृति का अवकाश नहीं रहता , प्रवृत्ति- निवृत्ति का अवकाश नहीं रहता , choice नहीं रहता । कर्तृत्व जब नहीं रहता , तब भी इच्छा का उदय होता है ।उस इच्छा का मूल क्या है ? स्वभाव । यह स्वभाव दो प्रकार का है ; ( क )योगमाया और ( ख) माया पूर्वस्थल में इच्छा का उदय होता है , उसकी पूर्ति होती है -- कृति की आवश्यकता नहीं होती । इच्छापूर्ति -- आनन्दावस्था । इच्छा के उदित होने से विलम्ब क्यों नहीं होता ? क्योंकि चिंतामणि राज्य है , पूर्ण राज्य -- विलम्ब का हेतु नहीं । उत्तर में राज्य अभाव और अपूर्णता का है । इसलिए , इच्छा का उदय तो होता है ,लेकिन तुरन्त उसकी पूर्ति नहीं होती । इसीलिए प्राप्ति के लिए कृति होती है । यहाँ कर्तृत्व का आरम्भ है । पूर्ण के राज्य में कर्तृत्व नहीं । अभाव के ही राज्य में कर्तृत्व है । कर्तृत्व के जाने से ही चेष्टा ,क्रिया आदि , moral life है । सब गया ,माया कट गई । तब लीला । यह योगमाया का राज्य है । पौर्णमासी का राज्य । स्व संवेदन / पृष्ठ 283 Date 23/ 1/ 1925 आग पर कागज़ रखने से जलता है । आग जलाती है इसलिए जलता है । दाह कार्य में आग का कर्तृत्व है । अतएव, यह भी वास्तव में स्वाभाविक कार्य नहीं । दाह करना आग का स्वभाव है -- यह महज लौकिक बात है । इस कार्य के मूल में भी इच्छा है । इसलिए ,इच्छा से यह नियमित हो सकता , स्तम्भित हो सकता है । संसार के सभी कार्यों का मूल इच्छा है । इच्छा और स्वभाव में भेद क्या है ? इच्छा की पूर्णता ही स्वभाव या आनन्द है । पूर्ण इच्छा = स्वभाव । स्वभाव का विकार नहीं -- इसीलिए , परमेश्वर की इच्छा या पूर्णइच्छा निर्विकार है । आधार- भेद से वही इच्छा नाना प्रकार से अपूर्ण होती है , सीमाबद्ध होती है , विकृत होती है । हम साधारणतया जिसे इच्छा कहते हैं , उसका उदय और अस्त है , वह जन्य और विकृत है । परमेश्वर की इच्छा नित्य प्रकाशमान है , निर्विकार -- इसीलिए वह स्वभाव है । वह पूर्ण है , इसलिए कोई उसे इच्छा नहीं कहते । वही आनन्द है । वह सदा एकरस है , इसलिए , उसे पूर्णता या स्वभाव कहना ही अच्छा है । आधार के सम्बंध से वही सीमाबद्ध होती है । तब वह इच्छा होती है -- पूर्ण के स्पर्श से आनन्द होती है । स्वभाव या पूर्ण निराधार है । इच्छा या आनन्द को लौकिक अर्थ में प्रयोग करने के लिए विषय - सम्बंध चाहिए , आधार -सम्बंध चाहिए । बिंदु ही मूल आधार है । उसी को ग्रहण करने से इच्छा का स्फुरण होता है , आनन्द का विकास होता है । वही सृष्टि का उन्मेष है । बिंदु का त्याग करने से ही पूर्णता है -- विशुद्ध स्वभाव । वह नित्यानन्द पारमैश्वर्य है -- उसका विकास और लय नहीं । स्व संवेदन पृष्ठ 329 Date 23 , 6 , 1927 आज एक और पुस्तक डाक से प्राप्त हुयी, श्री अरबिंदो की सीक्रेट आँफ वेद, ईबुक के रूप में जब इस पुस्तक को देखा तो मंगाए बिना न रहा गया. कभी-कभी अर्थोन्मेष की अनुभूति परम तक पहुचाने का आभास कराती है. अर्थ का यह प्रसार ही उसे मुद्रा या धन के अर्थ की सार्थकता व्यक्त करती है. धन्य करने के कारण वह धन है, प्रसन्न करने के चलते वह मुद्रा है. शब्द का अर्थ भी हमें यही अहसास कराता है. किसी शब्द के दो अलग अलग अर्थ बाद में विकसित हुए, मूलतः या तत्वतः एक शब्द का एक ही अर्थ है. गो का अर्थ प्रकाश है, गाय का अर्थ विकसित हुआ. अश्व का अर्थ प्राण के एक रूप से है, बाद में इससे घोड़ा का अर्थ विदित हुआ. ब्रह्म से अतीत भूमि में संचित सत्ता ही षोडश कलामय पूर्ण सत्ता है । उसकी पन्द्रह कला एवं सोलहवीं कला का त्रिपादांश ज्ञान राज्य में है । एक कला का पादांश मात्र ( 1/4 ) कार्य करने के लिए मर जगत में अवतीर्ण है । ज्ञान राज्य में अवशिष्ट पन्द्रह कला विश्वगुरु भृगुराम के रूप में स्थित है । बाकी त्रिपादांश ( 3/ 4 ) कला भृगुशक्ति के आधारभूत अचलानन्द या महातपा रूप से अवस्थित हैं । मात्र एक कला के पादांश ( 1/ 4 ) का प्रकाश ( इस मर जगत में ) विशुद्धानंद के रूप से हुआ । इन सब को मिलाकर विशुद्धसत्ता ( षोडशकलायुक्त ) हैं पुकार ( आर्तपुकार ) यदि माँ रूप है । अचलानन्द हैं , अनादि स्वरूप । अचल की क्षुब्ध अवस्था " आदि माँ " , "माँ की पुकार " या भावशक्ति है । आदि शक्ति से जिनका स्फुरण हुआ , वे हैं "कर्मशक्ति या श्यामा शक्ति । " जिनके कारण यह स्फुरण हुआ , वे ज्ञान या उमाशक्ति पद वाच्य हैं । उमा का स्वरूप है " ॐ माँ " अतएव अचल के तीन कोण हैं आदि माँ ( आदि शक्ति ) , श्यामा माँ ( कर्मशक्ति ) एवं उमा माँ ( ज्ञान शक्ति ) वहीं से ' ॐ माँ ' शब्द निर्गत हुआ पूर्व वर्णित एकपाद विशुद्धसत्ता , इस महाशब्द को चतुर्दश भुवन का अतिक्रमण कर , इस मर्त्यलोक में लाई । ज्ञान राज्य में ' ॐ माँ ' ध्वनि निरन्तर उत्थित हो रही है । किन्तु धारक में अभाववश , धृत न होकर वापस लौट जाती है । विशुद्धसत्ता का अवतरण मातृ स्वरूप आसन प्रतिष्ठा पृष्ठ 32 २७/६/२२ सृष्टि से परे उस निर्गुण ब्रह्म या परमपिता को कोई भी तब तक प्राप्त नही कर सकता जब तक वह पहले सृष्टि में व्याप्त कूटस्थ चैतन्य या पुत्र को अपने मे प्रकट न कर दे। गीता में आये मंत्र ॐ तत सत के अर्थ से इसे समझा जा सकता है। कूटस्थ चेतना परमपिता का एकमात्र पुत्र है। इसमें लिंग या जेंडर का प्रश्न नहीं है। वैसे तो सब प्राणी परमपिता की संतानें हैं, पर मनुष्य में ही यह पुत्र प्रकट होने की संभावना पाई जाती है। पितृ ऋण की अदायगी के नाम पर पुत्र पैदा करने की अभिधात्मक व्याख्या अथवा मैं ही ईश्वर का एकमात्र पुत्र हूँ, ऐसी व्याख्या करने से सनातन, ईसाई और अन्य शास्त्रों को सही रूप में नही समझा गया। एक बार गलत व्याख्या को पकड़कर आगे बढ़ते जाने से वह गलत ही बनी रहती है। लेखिका मैत्रेयी पुष्पा की तीन बेटियां हैं, इस पर एक बार उनसे पूछा कि ऐसा करने के पीछे क्या कारण रहा! उन्होंने स्पष्ट कहा पुत्र के लिए समाज का दबाव था। इससे अधिक हम लोग जोखिम नही ले सकते थे। जनसंख्या के बारे में पापुलेशन ट्रेंड वेबसाइट पर दिये ग्राफ कहते हैं कि आने वाले कुछ दशकों में भारत की जनसंख्या की वृद्धि दर और संख्या वर्तमान दर से कम हो जाएगी, पर जनसंख्या को एक तर्कसंगत स्तर पर उससे पहले अगर आज का समाज ले जाये तो उसमे हर्ज क्या है! फ़ेसबुक २३/६/२१ २८/६/२२ गाँठ को संधि भी बोलते हैं. कश्मीर में इसे संध कहा जाता है. यह एक खोज है, अवसर है दो छोरों को जानने का, उन्हें जोड़ने का. सब धर्मों या सम्प्रदायों की एकता संभव नही है. तत्व की उपलब्धि अनुभूति का विषय है. धार्मिक आचार और व्यवहार उस उपलब्धि को प्राप्त करने के साधन हैं. यह उपलब्धि प्रचार नहीं, परिवर्तन नहीं, फिर किस विधि से कोई अन्य जान पाएगा कि उपलब्धि क्या है🙏 भारतीय संस्कृति के सारे अंतर्विरोध द्वयर्थक या बहुअर्थक श्लोकों की अलग अलग व्याख्या के कारण है. वेदों का एक भाष्य आचार्य सायण का है और दूसरा भाष्य अन्य अनेक मनीषियों का. जब तक द्वयर्थी भावों का ग्रहण नहीं हो जाएगा, सार नहीं मिल पाएगा....