Thursday, November 30, 2023

नवंबर २३

१/११/२३ महाभारत के शान्‍ति पर्व में वर्णित है - ‘‘ मैं रुद्र नारायण स्‍वरूप ही हूँ। अखिल विश्‍व का आत्‍मा मैं हूँ और मेरा आत्‍मा रुद्र है। मैं पहले रुद्र की पूजा करता हूँ। आप अर्थात्‌ शरीर को ही नारा कहते हैं। सब प्राणियों का शरीर मेरा ‘अयन' अर्थात्‌ निवास स्‍थान है, इसलिए मुझे ‘नारायण' कहते हैं। सारा विश्‍व मुझमें स्‍थित है, इसी से मुझे ‘वासुदेव' कहते हैं। सारे विश्‍व को मैं व्‍याप लेता हूँ, इस कारण मुझे ‘विष्‍णु' कहते हैं। पृथ्‍वी, स्‍वर्ग एवं अंतरिक्ष सबकी चेतना का अन्‍तर्भाग मैं ही हूँ, इस कारण मुझे ‘दामोदर' कहते हैं। मेरे बाल सूर्य, चन्‍द्र एवं अग्‍नि की किरणें हैं, इस कारण मुझे ‘केशव' कहते हैं। गो अर्थात्‌ पृथ्‍वी को मैं ऊपर ले गया इसी से मुझे ‘गोविन्‍द' कहते हैं। यज्ञ का हविर्भाग मैं हरण करता हूँ, इस कारण मुझे ‘ हरि' कहते हैं। सत्‍वगुणी होने के कारण मुझे ‘सात्‍वत' कहते हैं। लोहे का काला फाल होकर मैं जमीन जोतता हूँ और मेरा रंग काला है, इस कारण मुझे ‘कृष्‍ण' कहते हैं। '' 4/11/23 परमपिता अव्यक्त है, वह काम तत्व है, इच्छा में निवास करता है, परंतु उसे मूर्तमान् होने के लिए माता के गर्भ से आना होगा, इसलिए वैयाकरणों ने पितासूचक शब्दों को पहले स्थान दिया है। पुलिंग सूचक शब्द व्याकरण में पहले गिने गये हैं, स्त्रीलिंग शब्द बाद में। काम तत्व के बाद विष तत्व आता है। विष वह जो व्याप्त हो। काम जब सिर चढ़ जाता है तो वह विष बन जाता है, पर इस विष में जो सदा अवस्थित हो जाए, वह निरंजन हो जाता है, अन्यथा विष रूपी विश्व में ही रहने को विवश रहता है। ५/११/२३ Rashmi Bhardwaj की पोस्ट पर ... एक साधक और उपासक के भीतर क्षमा भाव होना अत्यावश्यक है, अन्यथा अहिंसा की रक्षा नहीं होगी और अहिंसा के बिना सत्य की उपलब्धि नहीं होगी। हाँ! डॉक्टर की गलती अवश्य है, पर उसका निर्णय सभ्य समाज को करना चाहिए। ७/११/२३ रात्रि में लगा एक सर्प अंडरवियर में अंडकोष से सटकर घुस गया। उसकी ठंडक का अहसास हुआ, अब उसके डसने की आशंका होने लगी, अपने को ध्यान में समय की अवस्था में ले जाने लगा। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। फिर सो गया। जाग़ने पर अंडरवियर से ही कागज का गत्ता निकाला, उसमे से सर्प बाहर निकल गया। वास्तव में ऐसा कुछ नहीं था। स्वप्निक अनुभूति , पर ध्यानमय। ध्यानमंगलम्। ८/११/२३ ध्यान अवस्था से पूर्व या उसके दौरान कभी कभी विचारों के प्रवाह के क्रम में हल्की सी घुटन, संत्रास या मानसिक पीड़ा होने लगती है, पर यह स्थिति आँख खोलने पर जाती रहती है और ध्यान जैसा आनंद आँख खुले होने पर मिलता है। अतएव ध्यान में आँख खुली रह सकती है, बंद रह सकती है। ध्यान एक अवस्था है, जिसमें हम काम करते हुए, उससे उपराम होकर किसी भी स्थिति में रह सकते हैं, किंतु होश रहना अपरिहार्य है। जागरण के बिना ध्यान का ज्ञाता और भोक्ता कौन होगा, भुक्ति या दृश्य कैसे निर्मित होगा। यह दृश्य लीला है, अहैतुक आनंद है। १०/११/२३ दुनिया भर के लिए काम ऊर्जा एक टैबू बना हुआ है, यह एक ऐसा कौतुक है, जिसके घेरे में मनुष्य घिरा ही रहता है। इससे बाहर आने के लिए काम शिक्षा पर बल दिया जाता है, वह बस इतनी ही है न कि स्त्री और पुरुष के समागम से संतान का जन्म तय होता है। xx गुणसूत्र से पुत्री और xy से पुत्र निर्धारित होता है, परंतु इन गुणसूत्रों को नियंत्रित या परिवर्तित नहीं किया जा सकता। समागम का डिटेल पढ़ाने की आवश्यकता नहीं है, वह प्रकृति स्वयमेव ज्ञात करा देती है। अपने प्राकृत रूप में यह काम ऊर्जा बड़ी रहस्यपूर्ण है। यह वह राधा है, जिसकी धारा में व्यक्ति को बहना होता है। इस प्रवाह में विष है जिससे विश्व बनता है और वह व्याप्ति भी है, जो ज्ञान का हेतु बनता है। इस रहस्य में विश्व और ब्रह्मचर्य दोनों निहित हैं। विश्व में यह विष व्याप्त हो रहा है और यही विष ब्रह्ममय होकर व्यक्ति को ब्रह्मचारी बनाता है। काम सर्वथा जैविक नहीं है। अगर यह भूख प्यास की भाँति होता तो इसके बिना व्यक्ति के प्राण छूट जाने चाहिए, परंतु ऐसा नहीं देखा जाता। भूख और प्यास के कारण व्यक्ति कालकवलित हो जाते हैं। पश्चिमी जगत ने इसे जैविक मानकर हल्का करने का प्रयत्न किया है, परंतु यह उतना हल्का भी नहीं है, न यह इतना त्याज्य विषय ही है कि इसे गर्हित मान लिया जाये। काम पुरुषार्थ चतुष्ट्य में आता है। इस चातुष्ट्य में काम की व्याप्ति सेक्स जैसी सीमित नहीं है। सेक्स को काम का अनुवाद के रूप में लिया जाता है, पर यह अनुवाद पूरा अर्थ व्यक्त नहीं करता है। हिंदी के कतिपय शब्दों के अनुवाद अंग्रेजी में यथारूप नहीं जा पाते हैं, रस , धर्म, ध्यान इत्यादि ऐसे ही शब्द हैं। काम वह ऊर्जा है, जो व्यक्ति को संचालित करती है, गतिमान रखती है। निर्माण प्रक्रिया का यह प्रथम सोपान है, उद्गम है। हिंदी के ही इच्छा शब्द के माध्यम से इसे अधिक निकट भाव में समझा जा सकता है। शैव ग्रंथों में आता है इच्छा कामं विषं ज्ञानं क्रिया देवी निरंजनम्। यह काम जब अहैतुक हो जाए तब प्रेम का उदय होता है। प्रेम की आत्यंतिक शर्त अहैतुक होना ही है। असल प्रेम के बाद ही आनंद प्राप्त होता है। जिसमें किसी पर कब्ज़ा करने का भाव भी नहीं रह जाता। यहाँ पहुँचने पर सब जैविक मात्र रह जाता है। मात्र दर्शन ही बचता है। दृष्टा और दृश्य उसमें अंतर्लीन हो जाते हैं। अपितु कौन दृष्टा है, कौन दृश्य है और क्या दर्शन है, इसका भेद भी नहीं रहता। धन वही जो हमें धन्य करे। अर्थ वह जो शब्द को प्रकाशित करे। वित्त जो चित्र वितान का प्रसार करे। मुद्रा वह जो चित्त को मुदित करे। धातु व्यक्ति को धारण करने वाला तत्व है। जो समस्वर करे, वह संपदा है। सम में हमें जो स्थापित करे, वह संपत्ति है। श्री, लक्ष्मी आदि भी धन के रूप हैं। अष्ट संपदा कही गई है... १-हमारे मूल का ज्ञान, स्रोत का ज्ञान हो जाना ही आदि लक्ष्मी है। २-धन का सदुपयोग करके उसका सम्मान होता है। यह धनलक्ष्मी है। ३-आप लक्ष्मी और सरस्वती के चित्र देखते हैं तो आप देखेंगे कि लक्ष्मी को ज्यादातर कमल में पानी के उपर रखा है। पानी अस्थिर है यानी लक्ष्मी भी पानी की तरह चंचल है। विद्या की देवी सरस्वती को एक पत्थर पर स्थिर स्थान पर रखा है। विद्या जब आती है तो जीवन में स्थिरता आती है। विद्या का भी हम दुरुपयोग कर सकते हैं। सिर्फ पढ़ना ही किसी का लक्ष्य हो जाए तब भी वह विद्या लक्ष्मी नहीं बनती। पढ़ना है, फिर जो पढ़ा है उसका उपयोग करना है तब वह विद्या लक्ष्मी है। ४-धन तो है मगर कुछ खा नहीं सकते - रोटी, घी, चावल, नमक, चीनी खा नहीं सकते। इसका मतलब धन लक्ष्मी तो है मगर धान्य लक्ष्मी का अभाव है। गांवों में आप देखें खूब धान्य होता है। वे किसी को भी दो-चार दिन तक खाना खिलाने में संकोच नहीं करते। धन भले ही ना हो पर धान्य होता है। ५-जिस मात्रा में धैर्य लक्ष्मी होती है उस मात्रा में प्रगति होती है। चाहे बिजनेस में हो, चाहे नौकरी में हो। धैर्य लक्ष्मी की आवश्यकता होती ही है। ६- जिस संतान से तनाव कम होता है या नहीं होता है वह संतान लक्ष्मी है। ७- कुछ लोगों के पास सब साधन, सुविधाएँ होती हैं, फिर भी किसी भी काम में उनको सफलता नहीं मिलती। सब-कुछ होने के बाद भी किसी भी काम में वो हाथ लगाएं, वह चौपट हो जाता है। काम होगा ही नहीं। यह विजय लक्ष्मी की कमी है। ८- कुछ लोगों के पास सब साधन, सुविधाएँ होती हैं, फिर भी किसी भी काम में उनको सफलता नहीं मिलती। सब-कुछ होने के बाद भी किसी भी काम में वो हाथ लगाएं, वह चौपट हो जाता है। काम होगा ही नहीं। यह विजय लक्ष्मी की कमी है। यह आठ प्रकार के धन सभी एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं प्रत्येक व्यक्ति में यह आठ धन अधिक या कम मात्रा में होते हैं। १२/११/२३ सूर्य, चंद्र और तारे प्रकाश देते हैं, सदा अस्तित्वमान रहते हैं. पर दीपक अनथक प्रकाश देता है और प्रकाश देते हुए वह स्वयं को अर्पित कर देता है. यह जलता हुआ दीपक जीवन का प्रतीक है. जलते हुए दीपक में जैसी अस्थिरता है, उसी की भाँति हमारा जीवन चलता है.  दीपक की बाती इच्छा का प्रतीक है. दीपक की लौ का शीर्ष भाग ज्ञान का तो उसका ऊष्म भाग प्रेम और भक्ति का प्रतीक है. यह ऊष्मा दीपक में तेल या घी के स्नेह से आती है। ज्ञान भाग में ही हमारे गुरुदेव निवास करते हैं. चिंगारी लगाने वाले तो वही हैं। दुष्यंत कुमार कहते हैं.... एक चिनगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तो इस दिए में तेल से भीगी हुयी बाती तो है! सत्याधारस्तपस्तैलं दयावर्ति: क्षमाशिखा । अंधकारे प्रवेष्टव्ये दीपो यत्नेन वार्यताम् ॥ दिए की दीवट सत्य की हो, उसमें तेल तप का हो, उसकी बत्ती दया की हो और लौ क्षमा की हो। दीपक को यत्न पूर्वक वारना है, क्योंकि उसे अंधकार में प्रविष्ट होना है। दिया बारा जाता है, यह बारने की क्रिया विलक्षण है, यह अंग्रेज़ी में बर्न हो गई, बिहार में गाते हैं जगदंबा घर में दियरा बार अईनी हे! बुंदेली ब्रज में गाया जाता है गिरधारी मोरो बारो गिर न परे, इसमें बारो का अर्थ छोटा है, जिससे उसे संभालने का आशय इस पद में है। तिब्बतियों के यहाँ बारदो अनोखा कर्मकांड है। मृत्यु के समय आत्मा का संक्रमण इस विधि से कराया जाता है। बुंदेली में दिया को उजियारना कहते है, यह अधिक समीप का भाव है, उज्ज्वल करने का आशय इससे ग्रहण होता है। जलाने की क्रिया तो नष्ट करने के लिए भी प्रयुक्त होती है, उजियारना नष्ट करना नहीं, वरन् आलोकित होना है। राम-नाम-मनि-दीप धरु, जीह देहरी द्वार। ‘तुलसी’ भीतर बाहिरौ, जौ चाहसि उजियार॥ p दीपपर्व हम सबको आलोकित करे। शुभकामनाएँ🙏🌹 बहिरंतः स्फुरज्ज्योतीरत्न कुंभ प्रदीपवत्। स्वप्रकाशात् यथैवैकं स्वरूपमात्मनस्तथा॥ यो वा ९-१८ Just as a big lamp kept inside a vessel made of precious stones illumines by its light both outside and inside, so also the one Self illumines (everything). श्रीराम-सदृश:शिष्य: वशिष्ठ-सदृशो गुरु:। वाशिष्ठ-सदृशं ज्ञानं न भूत़ो न भविष्यति।। बहिः कृत्रिम-संरम्भो हृदि संरम्भवर्जितः। कर्ता बहिरकर्तांतर्लोके विहर राघव ॥ यो वा ७-१ interpretation1- Dear Raghav! you roam around the world being free from effort inwardly while apparently energetic outside, keeping the strong conviction of non-doership within while behaving outwardly as doer. 2 O Raghava, be outwardly active but inwardly inactive, outwardly a doer but inwardly a non-doer, and thus play your part in the world. अंतः संत्यक्तसर्वाशो वीतरागो विवासनः । बहिः सर्वसमाचारो लोके विहर राघव॥ यो वा ७-२ interpretation 1- Dear Raghav, you roam around in this world performing all types of actions outwordly, being free from all types of hankering, bereft of longing for all worldly objects, and devoid of all desires inwardly. 2- O Raghava, abandon all desires inwardly, be free from attachments and latent impressions, do everything outwardly and thus play your part in the world. योग वासिष्ठ प्रथमा प्रतिमापूजा जपस्तोत्राणि मध्यमा। उत्तमा मानसी पूजा सोsहँ पूजोत्तमोत्तमा॥ उत्तमो ब्रह्मसद्भावो ध्यानभावस्तु मध्यमः। स्तुतिर्जपोsधमो भावो बाह्यपूजाsधमाधमा॥ तत्व निर्णय उत्तमा तत्वचिन्तैव मध्यमं शास्त्रचिन्तनम्। अधमा मंत्रचिंता च तीर्थ-भ्रांत्यधमाधमा॥ मैत्रेयी उपनिषद् १३/११/२३ कर्मफल सिद्धांत भारतीय चिंतन की विश्व को अपूर्व देन है। इसे प्रकारांतर से सभी स्वीकार करते हैं। अगर यह न हो तो जीवन निरुद्देश्य हो जाये, भीतर के कार्यकारण सिद्धांत की आधारभूमि ही तिरोहित हो जाएगी। यह कुछ उदाहरणों में स्पष्ट दिखता है, जब छोटे बच्चे अपनी आयु से अधिक ज्ञान ता कौशल धारणकरते हैं। कुछ उदाहरण अनुभूतियों में भी उतरते हैं। कर्मफल सिद्धांत पर संदेह करना नहीं बनता। संदेह कर भी लें और फिर भी उस पर विश्वास करें तो भी लाभ ही है, क्योंकि यह नैतिकता के लिए बहुत आवश्यक है। बाहरी विधिजन्य नैतिकता उतनी असरकारी नहीं है। १४/११/२३ अनंत रूपी अस्तित्व प्रकट होने के कारण व्यक्ति अलग या विलक्षण होने के सौंदर्य का सदा आकांक्षी बना रहता है। कुछ भी उपलब्ध हो, उसे उसमें या उससे फिर अलग होने का सुख दिखायी देने लगता है। यह अस्तित्व के अनंत होने के कारण है। वह सदा और प्रतिक्षण नये नये रूप में व्यक्त होता रहता है, व्यक्ति इसे लेकर चमत्कृत हो जाता है। व्यक्ति को कुछ तो अवश्य मिलता ही है दुनिया में आकर, वह मिला हुआ कुछ ही बड़ा चमत्कारी है, फिर वह चमत्कारों की भूलभुलैया में खोया रहता है। अगर वह इसमें खो न जाये, बेहोश न बना रहे, जाग्रत दशा में रहे तो आनंद को उपलब्ध हो जाता है। फिर वह स्थायी हो जाता है और उसका हर सुख और हर दुःख उस आनंद में पर्यवसित होने लगता है। १८/११/२३ साक्षी भाव या ऑब्सर्व्ड माइंड अहंकार से रहित होने की दशा है। यह संसार में रहने की सर्वोत्तम दशा है। इससे आगे तथाता अवस्था है, जिसमें व्यक्ति काष्ठवत् या लोष्ठवत् हो जाएगा। सा काष्ठा सा परमगति। उस दशा में रहकर संसार का निर्वाह नहीं हो पाएगा। पर यह अंतिम और प्राप्य दशा है। संसार में जब तक हम हैं, साक्षी दशा में रहें। साक्षी भाव में रहना भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं है। जितनी देर हम अ साक्षी होकर रहते हैं, उतनी देर भगवान से विलग रहते हैं। जितनी देर भगवान से विलग रहेगे, उतने समय अहंकारी होकर रहेंगे। सुविधा और मानसिक स्थिति को देखते हुए अहंकार को महात्माओं ने दो प्रकार से विभाजित किया है। एक अहं से व्यक्ति पर कर्ता भाव आच्छन्न रहता है, दूसरे में व्यक्ति का कर्तृत्व विलीन होकर वह ईश्वर मय हो जाता है। अस अभिमान जाइ जनि भोरे। मैं सेवक रघुपति पति मोरे॥ आगे, जब यह दूसरे प्रकार का अभिमान भी विगलित हो जाये तो फिर अस्तित्व है या नहीं, इसका भी बोध नहीं रहेगा। यह बोध रहित, अव्यक्त और आदिम अवस्था है। यहाँ कल्पना और यथार्थ एक हो जाते हैं। व्यक्त दशा में ही लीला है, करुणा है, शांति, प्रेम और आनंद है। अव्यक्त दशा अगोचर, अनाविल और अनिर्वचनीय है। 22/11/23 प्रकाश भी पीड़ा ही है, क्योंकि वह उसी से होकर आता है। इसीलिये सत्व में भी नहीं रहना। अव्यक्त से निष्पन्न होने वाला तत्व मात्र अग्राह्य है। तत्व से होकर गुजरना अवश्य पड़ता है, अतत्व होने के लिए। होने के लिए भी क्या, वही तो अंतिम गति है तत्व की। एक नशा तारी होता रहता है, लोग कहते हैं यह सीधापन है, इसका कुटिलजन अनुचित लाभ उठाते हैं, उन्हें क्या पता यह आनंद और आह्लाद के उस सरोवर में रहना है, जिसमें हम सराबोर रहकर करुणामय हो जाते हैं। २३/११/२३ अगर कोई इच्छा पूरी होने पर दूसरी इच्छा का उदय नहीं होता तो ऐसी इच्छा स्वीकार्य है। त्रयोदशी क्या है.... सृष्टि के भीतर सृष्टि, स्थिति, संहार और तुरीय- ये चार अवस्थाएँ हैं. इसी प्रकार स्थिति और संहार - इनमे भी प्रत्येक में ये चारों अवस्थाएँ रहती हैं. इस प्रकार सब मिलाकर बारह शक्ति या देवी के खेल दिखलाई पड़ते हैं. ये बारह शक्तियाँ जिस महाशक्ति से निकलती हैं तथा जिनमें लीन होती हैं उन्ही को त्रयोदशी कहते हैं. वस्तुतः यह त्रयोदशी सबमें अनुस्यूत तुरीय के साथ सम्मिलित भासा के सिवा और कुछ नहीं है. आलेख - 'तांत्रिक पूजा का परम आदर्श' महमहोपाध्याय गोपीनाथ कविराज २३/११/२१ की फ़ेसबुक पोस्ट २४/११/२३ गुरुदेव ने कहा है अपने जीवन के उद्यान में प्रतिदिन किसी आध्यात्मिक पुष्प की अपेक्षा न रखें। इसलिए प्रतिदिन दैनंदिनी नहीं लिखी जा पाती है। जिन दिनों में कुछ आशीर्वाद पाया, उनमें से जो लिखना संभव हुआ, वही पुष्प इस दैनंदिनी में आये हैं। यह पुष्प सुबासित हों, यह भी आवश्यक नहीं, पर आप इन्हें देखने के अपने सुख से जुड़कर और उन पर अपनी प्रतिक्रिया देकर सुबास अवश्य भर सकते हैं। दैनंदिनी के किसी किसी दिन एक से अधिक अलग अलग प्रकार की अनुभूतियां आई हैं। भावशबलता के कारण अथवा आगे वे अनुभूतियाँ हम भूल न जाएँ, उस मोह से एक दिन की दैनंदिनी में पृथक पृथक् भाव अनुस्यूत हुए हैं। श्रीमद्भागवतम का सार है दशम स्कंध के पूर्वार्ध के रास पंचध्यायी के वे पाँच अध्याय, जिनमें महारास का वर्णन एक अपूर्व साहित्यिक कौशल और भावोद्रेकी दशा में हुआ है। इस वर्णन की भाषा को समाधि भाषा और संध्या या संधा भाषा कह सकते हैं। समाधि में जाए बिना केवल कला प्रदर्शन के लिए इस प्रकार के भाव और शैली नहीं बन सकती है। संध्या में समय के दो अंतरालों का मिलन होता है। लौकिक संसार और पारलौकिक जगत् के आनंद को समेटे हुए इन अनुभूतियों को कश्मीर में संध कहा जाता है, संध का अर्थ संधि नहीं, जो संध्या में समझा जाता है, अपितु उसका अर्थ है संधान या खोज। यह खोज करते करते व्यक्ति खो जाता है, खोने से पूर्व जानने योग्य विषय जान लिया जाता है, पर उस तत्व को अज्ञेय ही कहना पड़ता है, क्योंकि वह पूरा नहीं जाना जा पाता। अंतरालों में यह खोज हो पाती है, प्राणायाम भी अंतराल में रहकर ही किया जाता है। मध्यम प्रतिपदा बुद्ध दर्शन का सूत्र है। मध्य में रहना, असाध्य वीणा में अज्ञेय दिखाते हैं, जो बुद्ध ने कहा कि हम वीणा के तारों को इतना न खींचें कि वे टूटने लगे। और इतना ढीला भी न छोड़ें कि उनसे स्वर न उत्पन्न हो। बिटवीन द लाइंस का महत्व एक पाठक के लिए सर्वाधिक है, वह अंतराल तुरीयावस्था है, जो सर्वत्र होते हुए भी दिखाई नहीं देती, परंतु असर उसी का सब अवस्थाओं पर रहता है। रास पंचध्यायी में सबसे प्रमुख गोपी गीत है। गोपी गीत भागवतम का सर्वस्व है, इस गोपी गीत में भी बीज शब्द देखना हो तो वह है ध्यानमंगलम्। यहीं से सब कुछ दिखना प्रारंभ होता है। यही हमारे जीवन का ध्येय है। Lord Make Me an Instrument of Thy Peace( प्रभु मुझे अपनी शांति का एक साधन बनायें) सेंट फ़्रांसिस २५/११/२३ संसार अगर निर्वाह करना हो तो उसकी शून्यता का अनुभव करना ही होगा। अन्यथा भटकते रहेंगे। शून्यता का अनुभव करने के बाद उसकी पूर्णता प्रतीत होने लगेगी। उससे पहले अधूरापन लगता रहेगा। उर्ध्वे बिंद्वावृतिर्दीप्ता तत्र पद्मं शशिप्रभम्। शांत्यतीतः शिवस्तत्र तच्छक्त्युत्संगभूषितः॥ तंत्रालोक ८/३२ बिंदु अनंत सूचक है। पंक्ति का अंत सुनिश्चित है। पंक्ति बिंदु में पर्यवसित होती है। बिंदु में सब सम्मिलित है। पंक्ति में मात्र पंक्ति है। पंक्ति में बिंदु उपस्थित अवश्य है, और वह हर क्षण मौजूद है। पंक्ति शक्ति है और बिंदु शिव है। शक्ति गति है, शिव मौन है। संसार पंक्ति है, मौन बिंदु है। संसार शक्ति है और मौन शिव है। २६/११/२३ महाकाली का लौकिक विज्ञान ******************************** महाकाली रूप को भयानक असुर विनाशक माना जाता है। क्यूँ ? काली नाम ध्यान आते लगता है अब तो कोई असुर नहीं बचेगा और काली आती भी हैं और सभी असुरों को मार देती हैं। रक्तबीज जैसे असुरों को भी मार दिया। रक्तबीज अर्थात उसका रक्त जहाँ जहाँ गिरता था था वहाँ वहाँ रक्त से असुर उत्पन्न हो जाते थे। परन्तु काली रूप असुर को भी मारती हैं और रक्त से उत्पन्न होने वाले सभी असुरों को भी मार देती हैं। काली हैं कौन ? काली पार्वती जी की एक अवस्था हैं ,पार्वती ही क्रोध में काली बन जाती हैं। पार्वती कौन हैं ? पार्वती जी एक आध्यात्मिक साधिका हैं ,महादेव को पाने निकली हैं ,सिर्फ पाना ही नहीं उनसे विवाह करना है उन्हें। पहले जब साधना कर रही थीं तब उन्हें चण्ड मुंड परेशान कर रहे थे अर्थात चाह मोह (चाह अंधे = चण्ड ,मोह अंधे = मुण्ड ) परेशान कर रहे थे जिन्हें उन्होंने दुर्गा रूप से मारा अब और असुर परेशान कर रहे हैं ये असुर कोई भौतिक देहधारी असुर नहीं हैं ये आध्यात्मिक असुर हैं। आध्यात्म मन में उत्पन्न होता है अतः ये असुर भी साधिका अर्थात पार्वती जी के मन में उत्पन्न हो रहे हैं। ये असुर कह रहे हैं यह ले आ , वह ले आ इससे साधिका की साधना बाधित हो रही है अतः साधिका काली रूप धरती है और कहती है "का ली " क्या लूँ ,क्या लूँ..... का ली ? क्या लिया जाय ,इस संसार में महादेव के सिवा कुछ भी पाने योग्य नहीं है। जब मन में ऐसा भाव आता है अर्थात काली रूप आता है तो समस्त असुर जो कह रहे थे यह ला वह ला स्वतः ही मर जाते हैं। अतः काली रूप भयानक असुर विनाशक है ,काली भाव समस्त इच्छाओं का नाश कर देती है जिससे धरती पर जीवन ही प्रभावित हो सकता है ,लोग जीने की इच्छा ही छोड़ देंगे यदि उनमे कोई इच्छा ही न हो तो अतः लोग मरने लगेंगे और सृष्टि ही समाप्त होने लगेगी अर्थात महादेव ही मरने लगेंगे तभी महादेव को उनके पाओं के नीचे दिखाते हैं जिससे उन्हें अनुभव होता है नहीं नहीं सभी इच्छाओं को नहीं मारना है ,यदि सभी इच्छाओं को मार दिया (अर्थात सभी असुरों को मार दिया ) तो महादेव ही संकट में आ जायेंगे अतः उन्हें अपराध बोध होता है और जीभ बाहर निकल आती है। अतः काली का पांव महादेव पर दिखाते हैं तब वो शान्त होती हैं। तो काली रूप लगभग सभी इच्छाओं का नाश है इससे मन में उत्पन्न होने वाले सभी असुर मरने लगते हैं। असुर जो मन को परेशान करते हैं यह ले आ यह बड़ा अच्छा है ,वह ले आ वह बड़ा अच्छा है और काली कहती हैं का ली ? क्या लिया जाय। जब मन में भाव उत्पन्न किया कि कुछ भी लेने योग्य नहीं तब ये मन के असुर स्वतः ही मर गए। परन्तु सबको न मारो ,जीवन ही नष्ट हो जायेगा ,जीने का उद्देश्य ही मिट जायेगा। यह संसार कुछ न कुछ पाने की इच्छा से ही बना हुआ है ,यदि कुछ भी पाने की इच्छा रोक दोगे तो संसार ही समाप्त हो जायेगा। महादेव काली के पैर के नीचे आ जायेंगे । अचानक काली को बोध होता है समस्त इच्छाएं छोड़ने पर तो महादेव (अर्थात उनकी सृष्टि ) ही संकट में आ जायेंगे अतः पश्चाताप में जीभ बाहर निकल आयी। समस्त इच्छाओं को न मारो ,कुछ आवश्यक इच्छाओं को जीवित रहने दो। यदि धरती के सारे लोग नंगे रहने लगें तो करोड़ों लोग जो कपडे के धंधे से जुड़े हैं भूंख से मर जायेंगे। अतः कपड़े की इच्छा को नियंत्रित करो ,अत्यधिक महंगे कपड़े के पीछे न भागो पर कपडे पहनने की इच्छा को न मिटाओ। हमारी परस्पर इच्छाओं से इस संसार में रोजगार उतपन्न हो रहा है जिससे हम सब जी रहे हैं हाँ ऐसा न हो कि इतनी इच्छाएं पाल लो कि वो इच्छाएँ महादेव की साधना ही न करने दें। काली का अर्थ है सभी इच्छाओं को मारना जिससे सभी प्रकार के रोजगार नष्ट हो सकते हैं अतः उनकी कमर पर कटे हाथों की माला है।रोजगार नष्ट होना अर्थात हाथ काट देना। इच्छाओं को मिटाओ नहीं नियंत्रित करो ,साधना भी बाधित न हो संसार भी चलता रहे। गले में नर मुंड की माला है अर्थात इस रूप के कारण लोग मरने लगे, जब सभी लोग सभी इच्छाएँ मिटा देंगे तो रोजगार नहीं रहेंगे ,रोजगार नहीं रहे अर्थात हाथ काट गये ,लोग मरने लगे अतः गले में नर मुंड की माला। चरणों में महादेव का आ जाना यह भी दर्शाता है, कि मन के सभी असुर न मारो , महादेव तमोगुणी सृष्टि का निरूपण भी करते हैं ,तमोगुण में ही असुर जन्म लेते हैं। सबको न मिटाओ। अष्टावक्र वैदिक विज्ञान संशोधन मन की गति और उसकी वक्रता ध्यान के दौरान स्पष्ट देखी जाती है। आँखें बंद हैं, पर मन चलता जा रहा है, नहीं रुक रहा, सरपट भाग रहा, फिर आँख खोली तो मन में चल रहे दृश्य स्वप्नवत् तिरोहित और अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित। जी हाँ! जो काम आँख बंद करने पर प्रायः होता है, वह आँख खुले होने पर भी होता है। आँख खुले होने पर संसार का आकर्षण प्रत्यक्ष हुआ रहता है, उसमे विचलन बढ़ा रहता है, पर यही विचलन आँख बंद करने पर भी होता रहता है, ध्यान में तब वह विचलन आँख खोलने पर जाता रहता है। ध्यान करने के बाद संसार में रहने पर स्वरूप में प्रतिष्ठित रहने की स्थिति जब तब याद आती रहती है। किसी कठिनाई में तो अक्सर। आपका क्रोध और लिप्सा न्यूनतम हो जाता है। 27/11/23 उत्तर से दक्षिण तक कार्तिक परंपरा के कतिपय सूत्र... दक्षिण भारत में प्रत्येक माह को मासिक कार्तिगाई का व्रत रखा जाता है और दीप जलाकर भगवान कार्तिकेय और शिव को प्रसन्न किया जाता है। कार्तिकेय को मरुगन भी कहते हैं। हिंदी क्षेत्र में ये गणेश के बड़े भाई स्वामी कार्तिक नाम से जाने जाते हैं। कार्तिक दीपम को कार्तिकेय के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है।इस पर्व को ब्रह्मोत्सव के नाम से भी जाना जाता है। जब ब्रह्मा और विष्णु के बीच श्रेष्ठता को लेकर विवाद हुआ तो शिवने ज्योति स्तंभ रूप में प्रकट होकर दोनों से इसके प्रारंभ और अंत को खोजने को कहा था। कार्तिगाई दीपम पर भगवान शिव के इसी ज्योति स्वरूप का पूजन किया जाता है। हर माह जब भी कृतिका नक्षत्र आता है तब यह पर्व मनाया जाता है। कृतिका नक्षत्र के नाम पर ही इसका नाम कार्तिगेय रखा गया है। कार्तिकाई तिपम तमिल लोगों द्वारा मनाए जाने वाले सबसे पुराने त्योहारों में से एक है। शिव ने अपनी तीसरी आंख से कार्तिकेय (मुरुगन) को बनाया , या उनके छह प्राथमिक चेहरे (तत्पुरुषम- छुपी हुई कृपा का चेहरा, अघोरम- विनाश का मुख, सद्योजातम- सृष्टि का चेहरा, वामदेवम- संरक्षण/उपचार/विघटन/कायाकल्प का चेहरा, ईशानम्- द फेस ऑफ रिवीलिंग ग्रेस और अधोमुखम- द फेस ऑफ़ कंसीलिंग। ऐसा माना जाता है कि ये छह चेहरे छह बच्चों में बदल गए, और उनमें से प्रत्येक को छह कार्तिक अप्सराओं (शिव, संभूति, प्रीति, सन्नति, अनसूया, और क्षमा) द्वारा पाला गया, इन्हें दुला, नितातनी, अभ्रयंती, वर्षयंती मेघयंती, और चिपुनिका के नाम से भी जाना गया है। बाद में यह अप्सराएँ उनकी मां पार्वती में विलीन हो गईं । इन छह अप्सराओं को कार्तिक नक्षत्र बनाने वाले छह सितारों के समूह का प्रतिनिधित्व करने वाला माना जाता है । जैसा कि छह अप्सराओं ने बच्चे के पालन-पोषण में मदद की थी, कहा जाता है कि शिव ने छह अप्सराओं को अमरता प्रदान की। इन छह सितारों की की गई कोई भी पूजा स्वयं मुरुगन की पूजा के बराबर मानी जाती है, और इसलिए ये शैवों के लिए पवित्र हैं। कार्तिक पूर्णिमा से ठीक पहले के पाँच दिन भीष्म पंचक कहे जाते हैं। कार्तिक नहान करने वाली स्त्रियाँ और बहनें इन पाँच दिनों में और कठिन व्रत करती हैं। किरकिचियाँ उक्त अप्सराओं और मुरूगन या कार्तिकेय के छः रूप हैं। कश्मीर शैवों में षड्कंचुक होते हैं, जो अंतस्थ वर्णों य र ल एवं व मातृका वर्णों से व्यक्त होते हैं। यह कंचुक कतकारियों की किरमिचियाँ ही हैं। इस प्रकार कतक्यारियों के यहाँ तमिल और समूचे दक्षिण भारत की ढाई हज़ार वर्ष पुरानी परंपरा से लेकर धुर उत्तर में स्थित कश्मीर की परंपरा मिलती है। कार्तिक माह की यह समृद्ध परंपरा की सूत्रबद्धता चतुर्दिक भारत में विद्यमान है। कार्तिक शुक्ल एकादशी तुलसी शालग्राम विवाह का दिन है। कुशध्वज की पुत्री तुलसी हरि की परम भक्त थी, उनका विवाह जलंधर नाम के दैत्यगुणी राजा से हुआ, जो जल में निवास करने वाले समस्त जलचर प्राणियों पर अपना आधिपत्य जमाता था, इसे लेकर देवता परेशान हुए। वे जलंधर को युद्ध में उसकी हरिभक्त पत्नी के तप के कारण शंकर के साथ मिलकर भी नहीं हरा पाये तो भगवान विष्णु के पास गए। विष्णु ने जलंधर का छलरूप धारण कर तुलसी के सतीत्व को स्खलित करने की कोशिश की और तब जलंधर को पराजित किया जा सका। पर तुलसी ने विष्णु को शाप दिया कि इस छल के कारण तुम पत्थर हो जाओगे। तब से विष्णु शालग्राम के रूप में पूजे गए हैं। नेपाल की गंडकी नदी में उनका वास होगा। विष्णु ने तुलसी को पौधे के रूप में बन जाने का प्रतिशाप दे दिया, पर यह वरदान भी दिया कि इस पत्र के बिना हमें (हरि को) नैवेद्य स्वीकार नहीं होगा। बैकुंठ में तुलसी सदा विष्णु के साथ रहती हैं। कार्तिक पूर्णिमा सिख धर्म के लिए भी बहुत महत्व का दिन है। इस दिन सिखों के प्रथम गुरु गुरुनानक का जन्म हुआ। सिख यानि शिष्य, यह शिष्य का धर्म है, जो अपने गुरुग्रंथ और उसकी बानियों से चलता है। यह दिन देव दीपावली या छोटी दिवाली के रूप में भी मान्य है। १९९९ में सद्गुरू ने इसी दिन दुनिया को ध्यानलिंग अर्पित किया। कार्तिक पूर्णिमा के दिन, पहाड़ी पर (तमिलनाडु के तिरुवन्नामलाई या अरुणाचलम शिखर, जिस पर रमण महर्षि रहे हैं और श्रीलंका के कोणेश्वरम मंदिरों में) एक विशाल अग्नि दीपक जलाया जाता है, जो आसपास कई किलोमीटर तक दिखाई देता है। अग्नि (दीपम) को महादीपम कहा जाता है। बहिरंतः स्फुरज्ज्योतीरत्न कुंभ प्रदीपवत्। स्वप्रकाशात् यथैवैकं स्वरूपमात्मनस्तथा॥ Just as a big lamp kept inside a vessel made of precious stones illumines by its light both outside and inside, so also the one Self illumines (everything). यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् । स्पंद कारिका में कहा गया है: यस्मात्सर्वमयो जीवः सर्वभावसमुद्भवात्।
तत्संवेदनरूपेण तादात्म्यप्रतिपत्तितः॥३॥
तस्माच्छब्दार्थचिन्तासु न सावस्था न या शिवः।
भोक्तैव भोग्यभावेन सदा सर्वत्र संस्थितः॥४॥Because (yasmāt) the individual soul (jīvaḥ) is identical (mayaḥ) with all (sarva) since all entities arise (sarva-bhāva-samudbhavāt) (from him, and) inasmuch as he has the feeling or perception (pratipattitaḥ) of identity (tādātmya) (with those entities) due to the knowledge (saṁvedanarūpeṇa) of them all (tad), therefore (tasmāt), there is no (na) state (sā avasthā) that (yā) is not (na) Śiva (śivaḥ), (whether) in word (śabda), object (artha) (or) thought --cintā-- (cintāsu). The experient (bhoktā) himself (eva), always (sadā) (and) everywhere (sarvatra), remains (saṁsthitaḥ) in the form (bhāvena) of the experienced (bhogya)||3-4|| (jaideva) - Since the limited individual Self is identical with the whole universe, inasmuch as all entities arise from him, and because of the knowledge of all subjects, he has the feeling of identity with them all, hence whether in the word, object or thought, there is no state which is not Siva. It is the experient himself who, always and everywhere, abides in the form of the experienced i.e. it is the Divine Himself who is the essential Experient, and it is He who abides in the form of the universe as His field of experience. यदुक्तं श्रीविज्ञानभैरवे यत्र यत्र मनो याति बाह्ये वाभ्यन्तरे प्रिये।
तत्र तत्र शिवावस्था व्यापकत्वात्क्व यास्यति॥ (११६) Chanakya Neeti - Chapter 13 - Shlok 13 देहाभिमाने गलितं ज्ञानेन परमात्मनि । यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधयः ॥ जो आत्म स्वरुप का बोध होने से खुद को शरीर नहीं मानता, वह हरदम समाधि में ही रहता है भले ही उसका शरीर कही भी चला जाए. ग्राह्य-ग्राहक-सम्बन्धे ........सामान्ये सर्वदेहिनाम्। योगिन:सावधानत्वं ........ यत् तदर्चनमात्मन:।। .. -योगवासिष्ठ आशय यह है कि ग्राह्य(ग्रहण करने योग्य-शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध गुणों)का ग्राहक(ग्रहण करने वाली --कर्ण,त्वचा, नेत्र,जिह्वा और नासिका इन्द्रियों)से जो सम्बन्ध है-वह सभी जीवों में एक सा होता है। परमाणुओं का मूल स्थान जैसे सूर्य है , वैसे ही अणुओं का मूल स्थान वही चन्द्र है । परमाणु योगनिद्रा में पतित होकर अणुओं के संसर्ग से अपने उज्जवल भाव और आत्मबोध को आच्छन्न कर लेता है । वास्तव में चित् - रूप इस भूमि में आकर जड़ के वेष्टन से घिरकर सुप्तवत और आत्मविस्मृत हो जाता है । जीवभाव का उदय वस्तुतः यहीं होता है । बहुत से लोग जिसे कारणदेह कहते हैं , चैतन्य के साथ उसका योग यहीं होता है । इसके बाद योगनिद्रा से परमाणु मातृगर्भ में प्रवेश करता है । जीवत्व जा आवेष्टन उसके साथ ही रहता है । इस प्रकार जीव काया सम्पन्न नहीं हो सकने से परमाणु के लिए मातृगर्भ में प्रविष्ट होना कठिन है । मातृगर्भ में मनोमय आवरण से वेष्टित होकर प्राण का अंश अणु सम्बद्ध रूप में प्रविष्ट होता है और वहाँ माता पिता के देहांश द्वारा अर्थात रज - वीर्य से पुष्ट होकर क्रमशः परिणत अवस्था में गर्भ से बाहर होता है । खण्डमाता मोहमाया स्वरूप है । जीव योगनिद्रा से मोहमाया में आश्रय लेता है और मातृगर्भ से प्रसव के बाद बाहरी जगत में आता है यह कालरात्रि का राज्य है । साधक और योगी पृष्ठ 8 इस प्रकार , यह देखने में आता है कि प्रत्येक मनुष्य का विश्लेषण करने से उसमें कई पृथक पृथक अंशों का पता चलता है -- परमाणु , मन , अणु और काया । अणु एवं काया से काल का घनिष्ठ संबंध है । अणु स्वरूपतः एक होने पर भी कार्यतः विभिन्न प्रकार का है । जिस अणु को जीव अपने साथ लाता है और जो प्रत्येक जीव में जीवत्व का सम्पादक है , उसकी संख्या उननचास 49 है । वायु उननचास हैं , इसीलिए अणु भी उननचास हैं । इन अणुओं की समष्टि जीव के जीवत्व -सम्पादक अंतरतम कोष - रूप में विद्यमान रहती हैं । साधक और योगी // पृष्ठ 8 शाक्तों के अनुसार - यं वायु बीज पाप पुरुष का शोषण रं अग्नि बीज पाप पुरुष का दहन वं जल बीज रेचन या प्लावन लं पृथ्वी बीज- जिसमें पाप पुरुष भस्मीभूत किया जाता है। फिर महदादि क्रम से दिव्य देह का निर्माण होता है। २८/११/२३ The universe does not speak any language, it speaks frequency. शान्तितुल्यं तपो नास्ति ,तोषान्न परमं सुखम् । नास्ति तृष्णापरो व्याधि: ,न च धर्मो दया पर: ।। -विदुर नीति शान्ति के समान कोई तप नहीं है । संतोष के समान कोई सुख नहीं है । तृष्णा के समान कोई व्याधि नहीं है । दया के समान कोई धर्म नहीं है । २९/११/२३ "Think of God all the time. You must not let your life run in the ordinary way; do something that nobody else has done, something that will dazzle the world. Show that God's creative principle works in you. Making others happy, through kindness of speech and sincerity of right advice, is a sign of true greatness."--- Paramhansa Yogananda-- ब्रह्मचर्य है सदा संभोगी होना। शिव शक्ति साहचर्य जैसे। प्रत्यक्ष में भी निर्माण और ध्वंस साथ साथ चलता हुआ दिखता है पोर पोर में, कण कण में। जो मनुष्य के प्रजनन अंगों तक सीमित रहकर ब्रह्मचर्य समझता है, वह एकांगी दृष्टि का शिकार है। अन्यथा तो बारिश भी ईश्वर के वीर्य की भाँति लगती है, जिसका पृथ्वी के गर्भ में निश्चेषन होता है और हम सब जीवन पाते हैं। कुमार ही मूल है। कुमार का अर्थ खेलना है, या 'कू' का अर्थ माया की स्थिति हो सकता है जो अंतर की भावना लाता है और मारी का अर्थ वह हो सकता है जो नष्ट कर देता है, अर्थात, जो माया की शक्ति को फैलने नहीं देता है। कुमारी (कुंवारी) वह है जो हमेशा भोक्ता की स्थिति में रहती है, भोक्ता को कभी भी दूसरों द्वारा आनंद नहीं मिलता है। कुंवारापन एक रहस्य है। रहस्य का उत्तर खोजना होता है उसमे रहकर, कोई बताएगा तो सीधे उतरेगा नहीं। कुंवारापन या ब्रह्मचर्य एक समस्या नहीं, जिसका समाधान हो, यह एक रहस्य है, जिसे जीकर उपलब्ध हुआ जाता है। इसका अर्थ किसी व्यभिचारी वृत्ति से न लगाया जाए। व्यभिचार तो मन की यायावरी है, इससे जितने जल्दी बाहर आ जाएँ, उतना अच्छा। कामवासना बड़ी ही निर्दयी है!* *जो मरे को भी मारती है* 🔥 कृशः काणः खञ्जः श्रवणरहितः पुच्छविकलो व्रणी पूयक्लिन्नः कृमिकुलशतैरावृततनुः॥ क्षुधाक्षामो जीर्णः पिठरककपालार्पितगलः शुनीमन्वेति श्वा! हतमपि च हन्त्येव मदनः॥ _~ ऋषि भर्तृहरि, श्रृंगार शतकम (63)_ काना, लंगड़ा, कनकटा और दुमकटा कुत्ता, जिसके शरीर में अनेक घाव हो रहे हैं, दुर्गन्ध का ठिकाना नहीं है, घावों में हजारों कीड़े पड़े हैं, जो भूख से व्याकुल हो रहा है और जिसके गले में ज़ंजीर पड़ी हुई है, वासना में अँधा होकर कुतिया के पीछे-पीछे दौड़ता है। धर्म का सार दान है और दान का मूल है प्रेम। प्रेम का अर्थ है निरहंकार। दान का अर्थ है जीवन को बाँटो। दान का कोई अनिवार्य संबंध धन से नहीं है। दान का संबंध जीवन की एक शैली से है। जीवन को सिकोड़ो मत, फैलाओ। जीवन की प्याली से दूसरे की प्याली में जितना रस बाहर, बहने दो।कृपण न हो।हंसी दे सकें, हंसी दो। नाच दे सको नाच दो। आलिंगन दे सकते हो, आलिंगन दो। किसी का हाथ हाथ में लेकर बैठ सकते हो और उसे राहत मिलेगी तो राहत दो। किसी के दुःख में रोओ, दो आंसू गिराओ। किसी की ख़ुशी में नाचो, मगन हो जाओ। यह सब दान है। दान की अनंत संभावनाएँ हैं। उक्त रीति से किए गये दान में ज़बरदस्ती नहीं होती। ऐसे किया गया दान हमें प्रफुल्लित करता है। ३०/११/२३ कंदुक क्रीड़ा का खेल आज ध्यान के बाद उतरा। हम गेंद हैं, विश्व भी एक गेंद है। विश्व की आकृति भी कंदुकवत् ही है। इस कंदुक से भगवान और उनके सखा खेल रहे हैं। किंतु वे इसकी रक्षा भी कर रहे हैं। गेंद अगर कालियनाग के राज्य में पहुँच गई है तो भी वहाँ से निकाल लाते हैं। यह गेंद खेलने के लिए बनी है। परवाह क्या कि यह कहाँ गिरती है, जहां वह गिरेगी, गोपों पर अनुग्रह और उनके आग्रह से वह निकाल लाएँगे। फ़िक्र क्या करनी! बस खेलते जाएँ, खिलते जाएँ। खिलना यानि खेल का उपकरण बनना है। तभी पुष्प आएँगे, प्रेम का उदय होगा। शांति छाएगी, करुणा बरसेगी, आनंदमग्न होंगे। 🙏मंत्र' का अर्थ होता है मन को एक तंत्र में बांधना। यदि अनावश्यक और अत्यधिक विचार उत्पन्न हो रहे हैं और जिनके कारण चिंता पैदा हो रही है, तो मंत्र सबसे कारगर औषधि है। हम जिस भी ईष्ट की पूजा, प्रार्थना या ध्यान करते हैं उसी के नाम का मंत्र जपा करें।।🙏 डॉ इंदुशेखर उपाध्याय