Tuesday, October 17, 2017

आचार्य शिवपूजन सहाय और उनका ‘देहाती दुनिया’

आचार्य शिवपूजन सहाय और उनका ‘देहाती दुनिया’
डाॅ राकेश नारायण द्विवेदी
9 अगस्त 1893 को ग्राम उनवांस थाना इटरही जिला शाहाबाद (बिहार) में आचार्य शिवपूजन सहाय का जन्म हुआ, जहां उनके पूर्वज उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिला से आए थे। शिवपूजन जी के पिता मुंशी ईश्वरी दयाल धार्मिक प्रकृति के व्यक्ति थे। वे उर्दू और फारसी भाषाओं के ज्ञाता थे। मुंशी जी डुमरांव राज में नौकरी करते थे। शिवपूजन जी की मां भी सात्विक महिला थीं। मध्यवर्गीय परिवार की क्षमता रखने वाले आचार्य शिवपूजन सहाय के तीन विवाह 1908, 1909 एवं 1926 में हुए। उनकी तीसरी पत्नी 1940 तक जीवित रहीं।
शिवपूजन जी ने उर्दू और फारसी भाषाएं गांव के मदरसे से सीखीं। इन भाषाओं के अतिरिक्त उन्होंने अंगे्रजी भाषा कायस्थ जुबली अकादमी आरा से सीखी और यहीं से उन्हांेने 1912 में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की। इससे आगे की शिक्षा पाने से वह वंचित रहे, पर इसकी कमी उन्होंने स्वाध्याय से पूरी की। शिवपूजन जी सनातनी संस्कार के व्यक्ति थे। राम और रामायण के प्रति इनकी अगाध श्रद्धा थी। आरा के अपने एक रिश्तेदार और ब्रज भाषा के कवि ईश्वरी प्रसाद शर्मा की प्रेरणा एवं हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकारों सूर्यकांत त्रिपाठी निराला एवं जयशंकर प्रसाद के प्रोत्साहन से वह कविता एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में आए। शिवपूजन जी संेट कोलंबस कालेज हजारीबाग के बेल्जियम निवासी शिक्षक एवं रामायण के अधिकारी विद्वान कामिल बुल्के के अभिन्न मित्र थे। उन्होंने कहीं लिखा है कि परलोक में जाकर जिससे मिलकर उन्हें अनिर्वचनीय खुशी होगी, वह शिवपूजन सहाय हैं।
बालगंगाधर तिलक की प्रसिद्ध पुस्तक गीता रहस्य एवं गांधीवादी साहित्य का शिवपूजन जी के व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव था। गीता के कर्मयोग एवं महात्मा गांधी के राजनीतिक दर्शन में उनका प्रगाढ़ विश्वास था। गोस्वामी तुलसीदास के रामचरितमानस पर उनका बाइबिल के अनुयायियों की भांति धार्मिक श्रद्धा थी। विक्टर ह्यूगो के लेखन से भी वह प्रभावित थे। विक्टर की कृति हंचबैक आफ नौट्र डेम का हिंदी अनुवाद उन्होंने किय।
शिवपूजन सहाय ने 1921 एवं 1947 के राष्ट्रीय आंदोलन मेें महती भूमिका निभाई। उन्होंने कांग्रेस के राष्ट्रवादी कार्यक्रमों का समर्थन किया एवं अपनी लेखनी से लोगों में आत्मविश्वास का संचार किया।  सामाजिक मुद्दों के प्रति वे उदारवादी थे। उन्होंने स्त्रियों की पीड़ा को समझा। वह स्त्री शिक्षा एवं युवावस्था की विधवाओं का पुनर्विवाह करने के पक्षधर थे। यद्यपि उन्होंने भारत में पश्चिमी शिक्षा की आवश्यकता को खारिज किया। इसके स्थान पर वे भारत के वैदिक एवं पौराणिक इतिहास की राष्ट्रवादी शिक्षा देना आवश्यक मानते थे। वे हृदय से गांधीवादी थे। उन्होंने गांधी के असहयोग आंदोलन का समर्थन किया। उन्होंने देशभक्ति, स्वतंत्रता एवं उदारता के गुणों से संपृक्त लेखन किया और 1920 में विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया।
मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद शिवपूजन जी वाराणसी सिविल न्यायालय में लिपिक हुए। बाद में वह आरा के टाउन स्कूल में हिंदी शिक्षक हो गए। 1920-21 में उन्होंने आरा नेशनल स्कूल में अपनी सेवाएं दीं। 1939 से 1949 के बीच वह राजेंद्र कालेज छपरा में हिंदी के प्रवक्ता पद पर कार्यरत रहे। इसी बीच उन्होंने 1941 में उन्होंने बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के 17वें अधिवेशन की अध्यक्षता की और बाद में 1944 में अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन की भी अध्यक्षता की। वह 1950 से 1959 तक बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के निदेशक रहे। शिवपूजन जी अपनी साहित्यिक उपलब्धियों के लिए कई बार सम्मानित किए गए। 1954 में बिहार राष्ट्रभाषा परिषद से 1000/-रु का पुरस्कार मिला। साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में 1960 में उन्हें पद्म भूषण जैसा प्रख्यात नागरिक पुरस्कार प्रदान किया गया। 1961 में उन्हें पटना नगर निगम द्वारा नागरिक सम्मान दिया गया तथा अगले वर्ष भागलपुर विश्वविद्यालय द्वारा डी लिट् की मानद उपाधि से सम्मानित किया गया। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद द्वारा आचार्य शिवपूजन सहाय  के सृजनात्मक अवदान को एकत्रित करते हुए चार खंडों में ‘शिवपूजन रचनावली’ प्रकाशित कराई गई।
शिवपूजन जी शिव जी के नाम से लोकप्रिय थे। सादा जीवन उच्च विचार के प्रतिमूर्ति शिवपूजन जी पुरातन एवं नूतन परंपराओं के गुणग्राहक थे। उन्होंने सदा ज़रूरतमंदों की सहायता की। ब्रिटिश नीतियों के विरोधी होने के बावजूद वे किसी से घृणा नहीं करते थे। द्विवेदी युग के वे प्रमुख साहित्यकार थे। उन्होंने थियेटर आंदोलन को सहारा दिया। साहित्यिक स्मारकों और संग्रहालयांे  की योजना बनाई और अनेक अभिनंदन ग्रंथों का संपादन करके इस परंपरा को प्रारंभ किया। उनके द्वारा संपादित आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ के बारे में आचार्य नंददुलारे बाजपेयी ने लिखा है- ऐसा अभिनंदन ग्रंथ हिंदी में दूसरा नहीं है। शिवपूजन जी सजग पत्रकार और सहृदय साहित्यकार थे। इनका निधन पटना में 21 जनवरी 1963 को हुआ।
भारत में साहित्यिक पत्रकारिता के शलाका पुरुष शिवपूजन सहाय ने हिंदी की कई महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं का संपादन एवं प्रकाशन किया। 1921 में आरा से मारवाड़ी सुधार, 1923 के बाद मौजी, गोलमाल, आदर्श, उपन्यास-तरंग, मतवाला मंडल कोलकाता के तत्वावधान में समन्वय, लखनऊ से माधुरी, सुलतानगंज से गंगा, वाराणसी से जागरण (1932), 1934 में लहरियासराय से बालक के अतिरिक्त उन्होंने 1950-62 तक पटना से हिमालय एवं साहित्य पत्रिकाओं का संपादन किया। शिवपूजन जी राष्ट्रवादी एवं सुधारवादी लेखक थे। ब्रिटिश शासन के आलोचक शिवपूजन जी ने दहेजप्रथा, पर्दा प्रथा जैसी सामाजिक बुराइयों का विरोध किया। बाल साहित्य का सृजन उन्होंने बालक पत्रिका एवं बालोद्यान पुस्तक के रूप में किया।
शिवपूजन जी ने हिंदी की विभिन्न गद्य विधाओं में विपुल साहित्य सृजन किया। उन्होंने लगभग चार सौ लघु कहानियां, 67 जीवनियां तथा 150 से अधिक साहित्यिक लेख लिखे, 1926 में देहाती दुनिया जैसा प्रसिद्ध उपन्यास के अलावा जीवनियां एवं संस्मरण व रेखाचित्र भी उन्होंने लिखे।
शिवपूजन जी की ‘मेरा जीवन’ आत्मकथा 1985 में आई। स्मृति शेष नाम से संस्मरणात्मक निबंध 1994 में, हिंदी भाषा और साहित्य नामक निबंधात्मक आलेख 1994 में ही तथा जीवन दर्पण डायरी विधा में 1998 में प्रकाशित हुए। उक्त के अतिरिक्त उनके कुछ प्रमुख प्रकाशन हैं- बिहार की विभूति, वे दिन वे लोग, भीष्म, अर्जुन, कुंवर सिंह, ग्राम सुधार, दो घड़ी, मां के सपूत, अन्नपूर्णा के मंदिर में, महिला महत्व, बालोद्यान, आदर्श परिचय आदि। शिवपूजन जी का संपूर्ण कृतित्व दस खंडों में डाॅ मंगलमूर्ति द्वारा संपादित शिवपूजन सहाय साहित्य समग्र 2011 में प्रकाशित हुआ है। शिवपूजन जी ने भोजपुरी में भी कहानियां लिखी हैं। कुंदन ंिसंह केसर बाई नाम से उनकी ऐसी कहानी इंटरनेट के गद्यकोश में प्रकाशित है। शिवपूजन जी की रचनाओं में गांव केंद्रीय तत्व रहा है। उनके संस्मरणात्मक निबंध हों या कथा साहित्य; उनमें हमें ग्रामीण संस्कृति की वास्तविकता और यथार्थ का अंकन मिलता है। गांवों से लेखक का विशेष लगाव है, वैसे ही जैसे कोई विशाल वृक्ष अपनी मजबूत जड़ों के कारण पल्लवित होता रहता है, शिवपूजन सहाय भी अपने मूल से जुडे़ रहने के कारण महनीय हुए।
देहाती दुनिया उपन्यास की गणना कालक्रम की दृष्टि से प्रथम आंचलिक उपन्यास के रूप में की जाती है। इसी से इसे प्रयोगात्मक चरित्र प्रधान उपन्यास कहा गया है। व्यंग्य तत्व की अप्रधानता के कारण कालक्रम में पहले लिखे जाने एवं आंचलिकता के बावजूद इसे हिंदी का प्रथम आंचलिक उपन्यास स्वीकार नहीं किया जा सका। इस उपन्यास की पहली पांडुलिपि लखनऊ के हिंदू मुस्लिम दंगे में नष्ट हो गई थी। इसका शिवपूजन सहाय को बहुत कष्ट था। उन्होंने पुनः यह उपन्यास लिखकर प्रकाशित कराया, किंतु फिर भी शिवपूजन जी को संतोष नहीं हुआ। वह कहा करते थे- ‘पहले की लिखी हुई चीज कुछ और ही थी’
शिवपूजन जी के विषय में हिंदी के जाने-माने साहित्यकार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा था ‘आचार्य शिवपूजन सहाय अत्यंत निष्ठावान, सहृदय और निरंतर कर्म करते रहने में विश्वास करने वाले महान साहित्यकार थे। कठिन परिस्थितियों में भी उन्होंने ऊंचे आदर्शों और साहित्यकार के गौरवपूर्ण आत्माभिमान को कभी नहीं झुकने दिया। उनकी साहित्य सेवाएं बहुमूल्य थीं। वे नम्रता, शालीनता और कर्मठता के मूर्तिमान रूप थे।’  शिवपूजन जी को जानना अपनी धरोहर को जानना है।
शिवपूजन जी के साहित्यिक गुरु ईश्वरी प्रसाद शर्मा थे, पर वे अपने आराध्य गुरु आचार्य द्विवेदी को मानते थे। शिवपूजन जी का गद्य ‘ठेठ हिंदी का ठाठ’ की परंपरा का है। शुरू में उन्होंने आलंकारिक भाषा में लिखा, पर बाद में वह हिंदी उर्दू की मिश्रित शब्दावली में लिखने लगे।
देहाती दुनिया में शिवपूजन जी घोषित करते हैं- मैं ऐसे ठेठ देहात का रहने वाला हूं, जहां इस युग की नई सभ्यता का बहुत ही धुंधला प्रकाश पहुंचा है। वहां केवल दो ही चीजें प्रत्यक्ष देखने में आती हैं- अज्ञानता का घोर अंधकार और दरिद्रता का तांडव नृत्य। वहीं पर मैंने जो कुछ स्वयं देखा सुना है, उसे यथाशक्ति ज्यों का त्यों उसमें अंकित कर दिया है। 
इस उपन्यास में ग्रामीण जीवन की रीति-नीति, मानव व्यवहार, सामाजिक संबंध, बोली-बानी, व्यंग्य-विनोद, राग-द्वेष, दमन-शोषण, गीत-गान, कथाएं, मुहावरे आदि तत्वों को बुना गया है। उपन्यास के शीर्षक का देहाती नाम शिवपूजन जी ने सोद्देश्य रखा। देहातियों को गंवारू और अशिष्ट समझा जाता रहा। शिवपूजन जी मानो इस मान्यता को चुनौती दे रहे हैं कि यह एक ऐसी दुनिया है जो अज्ञानता और दरिद्रता से भरी हुई हो, पर इसकी जीवनी शक्ति और जिजीविषा का कौन कायल नहीं होगा्
रामसहर गांव की इस कथा में साधारण जनजीवन का इतिवृत दिया गया है। उपन्यास शिवपूजन जी स्वयं ही कहते हैं- इसका एक शब्द भी उनकी कल्पना की उपज नहीं है। जैसा देखा वैसा लिखा। भाषा का प्रवाह भी ठेठ देहातियों जैसा ही उपन्यास में मिलता है।
उपन्यास में गांव के चबूतरे पर गांव का जीवन और विमर्श चलता है। गांव में गांव के ही लोग दुकानदार है और वहीं के लोग खरीदार। उपन्यास की कथा में आर्थिक साम्राज्यवाद और उपभोक्तावाद ग्रामीण जनजीवन की मानो हंसी उड़ाता है। उपन्यास में सुविन्यस्त कथा नहीं मिलती। इसमें टुकड़ा-टुकड़ा कथा है। कहीं प्रतिरोध है तो कहीं सहिष्णुता। घटनाओं से अधिक मुहावरे ही कथा को आगे बढ़ाते हैं।
उपन्यास में रामटहल सिंह और उसकी रखेल बुधिया का एक प्रसंग है, जिसमें रामटहल की ब्याहता पत्नी महादेई से बुधिया का झगड़ा होता है। ब्याहता के घर में होने के बाद भी बुधिया ठाठ से रामटहल के घर में रहती है। बुुुुुुुधिया के यहां रामटहल से तीन बेटियों का जन्म होता है। बाद में वह मनबहल सिंह के साथ चली गई। यहां भी बुधिया का मोहभंग हुआ और वह सोहावन के घर चली गई। इस बीच बुधिया और रामटहल की बड़ी बेटी सुगिया का एक बूढ़े व्यक्ति के साथ अनमेल विवाह हो जाता है। तमाम विसंगतियों के बाद भी गांव के जीवन का रस अकुंठ बना रहता है। यहां के अशिक्षितों का लोक व्यवहार पढ़े लिखों पर भारी पडता है।
सुगिया का अपने बूढ़े पति गुदरी के प्रति विक्षुब्ध क्रोध देखें- ‘प्रेत के ऐसा मुंह लाता है मेरा मुंह चूमने। जी में तो आता है झाड़ू लेकर मुंह में मार दूं।’ पर गुदरी को जब एक खतरे में सुगिया पाती है तो वह उसकी चिंता करने लगती है। दारोगा की बुरी नजर सुगिया पर रहती है। यह सब देखकर सुगिया अपने को अभागिन कहती है। समालोचक परमानंद श्रीवास्तव ने अपनी पुस्तक ‘उपन्यास का पुनर्जन्म’ में इस उपन्यास और उसकी भाषा को गांव देहात की सीधी-सादी ढीली-ढाली कथा के बीच सुगठित कल्पना समृद्ध बिंबधर्मी गद्य कहा है।
राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित पेपर बैक संस्करण के 182 पृष्ठों के इस छोटे से उपन्यास में ग्रामीण जनजीवन के अनेक प्रसंग हैं, जिनमें ढोंग, पाखंड, कौतुक, किस्सागोई, अपनी तरह के निर्मित पौराणिक कथानक, सामंती क्रूरता, स्त्री द्वारा स्त्री का शोषण, व्यंग्य विनोद, अधूरापन, असंबद्धता, बिखराव, प्रगीतात्मकता, गहरे आंतरिक द्वंद्व, गहरी जिज्ञासा, कलात्मकता का अतिक्रमण आदि जीवंत हुए हैं।
उपन्यास में जिस तरह का पाखंड या लोकरीति वर्णित है, उसका उद्घाटन और अवगाहन एक सुलझे दिमाग की मांग करता है। अनमेल विवाह के एक प्रसंग में कहा गया है- ‘हाय रे राम! ताड़ बराबर कनिया का वर यही है। इसको तो वह अपने लहंगे में छिपा लेगी। यह उसका दूध पिएगा कि मांग भरेगा। धिया का अभाग है कि इस उमर में वर भी मिला तो ऐसा कि हाथ से धोती भी न पहिर सके।’ ग्रामीण जनजीवन में वर्जित बातें भी अकुंठ भाव से कह दी जाती हैं जिन्हेें अभिजात वर्ग कहने में संकोच करता है, उपन्यास में इस तत्व का सफल निर्वाह हुआ है।
-245 शब्दार्णव, नया पटेल नगर, कोंच रोड, उरई (जालौन) मो 9236114604