Tuesday, October 31, 2023

अक्टूबर २३

१/१०/२३ यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।

योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः।।6.19।। जैसे स्पन्दनरहित वायुके स्थानमें स्थित दीपककी लौ चेष्टारहित हो जाती है, योगका अभ्यास करते हुए यतचित्तवाले योगीके चित्तकी वैसी ही उपमा कही गयी है।। परमार्थसार दर्पण बिंबे यद्वन् नगरग्रामादि चित्रमविभागि। भाति विभागेनैव च परस्परं दर्पणं च॥१२ विमलतम परम भैरव- बोधात् तद्वद् विभागशून्यमपि। अन्योन्यं च ततोऽपि च विभक्तमाभाति जगदेतत्॥ १३ One sloka-in this, there are two Slokas-one sloka is the example, and the other sloka is the actual state of Parabhairava, how the actual state of Parabhairava is existing. And, for this, he gives an example. Darpana bimbe yadvat. Take an outside mirror, keep the mirror in your room here, darpana bimbe, and see-but keep well-cleaned mirror-nagaragramadi citram avibhagi, nagar-gram, whatever is reflected in it, you see everything is reflected in the mirror, which is only two feet by two feet-two feet length and two feet height, bas,only this much-and inthis [mirror, will feel the reflection of this house, the reflection of that house, the reflection of those trees, big trees, the reflection of everything, whatever you . . . it is reflected on this. Citram me [that the various reflections are] not put in one ball there [in the mirror], because the dimension of this mirror is only two feet howo feet. [The actual objects that are reflected] can't come in two feet by two feet. It seems separate; bhâti vibhagenaiva ca, and it seems separate. Nacaya etat dharmanasya prasyato yujyate. You can't [understand even] after investigation what has happened to this, hiw these trees seem to exist away from the [surface] of the mirror, back [i.e., behind the mirror]. But, after investigating what it he back, there is nothing, There is nothing. Only distance seen, distance is observed. And, at the same time, there is also no weight in this [reflection]. For instance, a big tree trunk been] reflected in this mirror. If the weight of the m i r r o r was one kilo, after the reflection of this tree of a hundred kilos, it does not create .. . JONATHAN: Extra weight. SWAMIJI: .. . extra weight. [The mirror remains] the same weight. [Otherwise] you couldn't move [the mirrorl; then you couldn't move it [laughter]. Dharmano'pi achalasyat, he has said Abhinavagupta has said, that dharmano 'pi achalasyat, you could not move it! In weight also, [the mirror remains] the same weight. It is only one kilo. So this is the glamour of reflection. [The reflections] are separate from each other and separate from the mirror also what[ever] is reflected in this. This is an example. Now, the main thing which is to be understood: In the same way, vimalatama-parama-bhairava- bodhätt a t u a d vibhāga-sünyam-api /1 3 a [repeated] In the same way, that which is absolutely most pure, the purest element, i.e., Parabhairava (Parabhairava is the purest element of the supreme mirror), and in that supreme mirror, which is the purest element of Bhairava, in that Bhairava, vibhaktamajagad eat, [all of] this from Siva to prthur (earth), all of this universe, you perceive that universe absolutely separate from Bhairava, from that mirror, from Parabhairava. It [seems] absolutely separate from Parabhairava. And not only that. It is separate from each other; prthur (earth) is separated from jala (water),jala is separated from agni (fire), agni is separated from vayu(wind), vayu is separate, akasa (ether) is separate,the antahkaranas (mind, intellect, and ego) are separate, sabda (sound), sparsa (touch), rüpa (form), rasa (taste), and gandha (smell) a r e separate; prakrti, prthur, jala, and maya, sud- dhavidya, isvara, and sadâsiva are all separate. Vibhaktamäb- hati, in the same way, this whole universe shines in the mirror of Parabhairava. "Just as in a clear mirror, varied images of city, village etc. appear as different from one another and from the mirror though they are non-different from the mirror, even so the world, though non-different from the purest consciousness of Parama Siva, appears as different both in respect of its varied obiects and that Universal Consciousness.' जिस प्रकार दर्पण में प्रतिबिम्बित प्रतिबिम्ब दर्पण से किसी भी प्रकार भिन्न नहीं होते, बल्कि दर्पण और एक-दूसरे से भिन्न दिखाई देते हैं, उसी प्रकार ये आभास पराशिव या सार्वभौमिक चेतना से भिन्न नहीं होते हुए भी भिन्न प्रतीत होते हैं। अथवा इस प्रकार सार्वभौम चेतना के दर्पण में प्रतिबिम्बित संपूर्ण विश्व ऐसा प्रतीत होते हुए भी उससे भिन्न नहीं है। उक्त विवेचन के बाद अब बृहदारण्यक उपनिषद के इस श्लोक ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ का अर्थ ग्रहण हो पाएगा। २/१०/२३ महात्मा गांधी सदा सत्य बोले, उस पर चले और उसी के कारण एक दिन उनकी हत्या भी हुई। गांधी के सत्य से कोई सहमत या असहमत हो, पर उन्होंने जिसे सत्य समझा, उस पर वे आजीवन चलते रहे। उनका सत्य किसी के आड़े नहीं आता था। सत्य किसी के आड़े आता भी नहीं, कोई सत्य के आड़े खूब आ जाए। यह भी सही है कि आड़े खूब कोई आ जाए, अंततः सत्य ही भासमान होता है। भारत के राष्ट्रीय पर्व के रूप में गांधी जयंती उनकी ७५ वर्ष पूर्व हुई मृत्यु के बाद भी मनाई जा रही है। गांधी ने अहिंसा को परमधर्म स्वीकार किया, वास्तव में अहिंसा ही सत्य की रक्षक और प्रकाशक होती है। लोग ईश्वर को सत्य कहते हैं, उन्होंने सत्य को ही ईश्वर समझा। उन्होंने स्वच्छता का संदेश दिया, इसे भी उन्होंने मन, वचन और कर्म से करके दिखाया। सत्याग्रह का मारक अस्त्र प्रदान किया। स्वावलंबन का मार्ग दिखाया। यह सब ऐसे दाय हैं, जो कभी फीके नहीं पड़ेंगे। जयंती पर उन्हें नमन🌹🌹 “Truth resides in every human heart, and one has to search for it there and to be guided by truth as one sees it. But no one has a right to coerce others to act according to his own view of truth.” — Mahatma Gandhi परं परस्थं गहनाद् अनादिम् एकं निविष्टं बहुधा गुहासु। सर्वालयं सर्व चराचकस्थं त्वामेव शंभुं शरणं प्रपद्ये॥ ४/१०/२३ आख़िर लोक का भी कोई पाथेय होता है, श्रीविद्या उस पाथेय की प्राप्ति के लिए सहायक है। नाम कुछ भी लें, श्री विद्या, आत्मविद्या, ब्रह्मविद्या; लोकालोकगमन के लिए ही हैं, लोक और इन विद्याओं में कोई परस्पर विरोध नहीं, अपितु एक संगति ही है। ध्यानमंगलम् viharanam cha te dhyaana Mangalam Your intimate pastimes with us (viharanam), and Your loving talks with us in solitary places fills our hearts with pain. viharanam means ‘a special kind of theft.’ The Sanskrit verb hå means ‘to steal.’ According to this specific definition, viharanam refer to stealing the heart. In this connection viharanam also denotes ‘to walk with friends’ and ‘to walk with a lady.’ In this instance, Krishna casually walks along with His friends, and His walking like this is only to show His desire to meet with them. He ambles along, nonchalantly resting one hand on the shoulder of a friend and twirling a lotus in the other. In this way, He intentionally pulls at their hearts. Seeing this, they lose awareness of everything else and thus become mad with love. Dyaana is ‘Meditation’.  The Gopis’ remembrance is not like a yogi’s meditation. When they remember Krishna, they forget everything else. Whatever they are doing, whether it is walking, talking or cooking, they are always immersed in sahaja-samädhi, a natural, deep absorption in Sri Krishna. The word sahajäyate means ‘to come naturally, from birth.’ Their full absorption in anything related to Krishna comes automatically and naturally. They never come out of samädhi; they simply go deeper and deeper into it. Their samädhi deepens when they see Krishna, and it further deepens as they remember Him when He is out of sight. विराट पुरुष हजारों साल पहले भारत की मेधा ने विराट-पुरुष की संकल्पना की थी >.. जो सहस्रशीर्ष है , सहस्रनेत्र है , सहस्रबाहु है , सहस्रपाद है ।उसमें कोटि-कोटि युगों का अन्तर्भाव है ।विभिन्न जाति, वर्ग, वर्ण , धर्म आदि उसके हाथ-पैर, नाक-कान -आंख ,पेट इत्यादि अंग-प्रत्यंग हैं परन्तु वे सभी अंग अविच्छिन्न हैं और एक-दूसरे के लिये हैं । वे सब के लिये सब हैं ।इस >सब < के बीच जो नाम-रूप का भेद और असमानता है, वह दृश्यमान है, तात्विक नहीं ।उसकी एकात्मसत्ता ही सर्वजन सत्ता है , जिसे हम लोक कहते हैं । व्यक्ति, वर्ग, राज्य आदि आज हैं किन्तु लोक कल भी था , आज भी है और कल भी रहेगा ॥ वह निरन्तरता है । ६/१०/२३ पितृदेवो भव! परमहंस योगानंद द्वारा लिखित विश्व-प्रसिद्ध पुस्तक *“योगी कथामृत”,* मूल अंग्रेजी पुस्तक Autobiography of a Yogi का हिन्दी अनुवाद है। इसमें परमहंस योगानन्द कहते हैं कि *मेरे गुरुदेव परमसमाधि लेने के बाद एक दिन रक्त- मांस के (दिव्य) शरीर में मेरे सामने प्रकट हुए।उन्हें देखकर मैं हर्षोन्मत्त हो उठा।उनके पूछने पर गुरुदेव ने कहा कि मैंने महाव्योम परमाणुओं से ठीक उसी प्रकार के नये शरीर की सृष्टि की है। तुम्हारी दृष्टि में यह रक्त- मांस का भौतिक शरीर है, यद्यपि मेरी दृष्टि में सूक्ष्म है।* उन्होंने आगे कहा कि जिस प्रकार कर्मभोग में सहायता करने के लिए महापुरुषों को पृथ्वी पर भेजा जाता है, उसी प्रकार मुझे एक सूक्ष्म जगत् में त्राता के रूप में कार्य करने के लिए ईश्वर से आदेश मिला है।उस जगत् का नाम हिरण्यलोक है। *पृथ्वी पर मनुष्य भौतिक इन्द्रियानुभूतियों से युक्त रहता है।सूक्ष्म पुरुष चैतन्य भावनाओं और प्राणकणिकाओं (Lifetrons) से निर्मित शरीर लेकर कार्य करता है।* उस जगत् के निवासी एक ग्रह से दूसरे ग्रह की यात्रा के लिए सूक्ष्म वाहनों या आलोक पुंज का उपयोग करते हैं। ये साधन विद्युत या तेजसक्रिय (रेडियोधर्मी) शक्तियों से भी अधिक द्रुतगति वाले हैं। परमहंस योगानंद के गुरु स्वामी युक्तेश्वर गिरी महावतार बाबा के प्रत्यक्ष शिष्य लाहिड़ी महाशय के शिष्य थे, जिन्होंने प्रत्यक्षदर्शी गुरु के रूप में विभिन्न लोकों का विस्तार से वर्णन किया है। इससे यह प्रमाणित होता है कि *सूक्ष्म शरीरधारी जीव अनेक लोकों में गमन करता है।उसके उर्ध्वगमन के अनेक माध्यम हैं। किसी मनुष्य को स्वयं ही अपने जीवन में स्थूल से होकर सूक्ष्म और कारण जगत् की यात्रा कर लेनी चाहिए। कोई अगर ऐसा नहीं कर पाता तो उसे अपनी संतति से ऐसी उम्मीद नहीं रखनी चाहिए कि वे यह यात्रा कराएंगे। किंतु संतति को अपने पितरों के प्रति श्रद्धा भाव अवश्य रखना चाहिए। पितर किसी भी रूप में मौजूद हो सकते हैं। इसलिए श्रद्धा के उदय से व्यक्ति अंतर्यामी होकर परम् विस्तार को उपलब्ध हो जाता है। श्रद्धा और विश्वास के बिना अंतःकरण में मौजूद ईश्वर का दर्शन नहीं किया जा सकता। संतति यदि आत्मदर्शन कर ले तो उसके पितर अपनी संतति के लिए दोष नहीं दे सकेंगे, क्योंकि पितर संतति के आत्म के बाहर नहीं हैं। असल बात आत्मदर्शन की है। इसके बिना कोई चारा नहीं। पितरों की वासना बिना उन्हें भोगे क्षीण कैसे हो और संतति यदि वासना और भोग के मूल में सन्निविष्ट हो जाये तो पितरों की वासना पूरी कैसे हो! यह एक यक्ष प्रश्न है। इस दृष्टि से पूरे जगत् की दो ही कोटियाँ हैं- एक पितरों की और दूसरी उसकी संतति की। एक वसन की और दूसरी निर्वसन की। पितृदेवो भव! ८/१०/२३ विराट शब्द भंडार को ज्ञान समझने की भूल न करें। यदि एक एक श्लोक को धीरे धीरे समझकर आत्मसात किया जाए तो धर्मशास्त्र अंतरानुभूति की इच्छा को प्रेरित करने की दृष्टि से लाभकर होते हैं, अन्यथा अनवरत बौद्धिक अध्ययन से मिथ्याभिमान, झूठा संतोष और अपरिपक्व ज्ञान से अधिक कुछ और प्राप्त नहीं होता। स्वामी श्री युक्तेश्वर गिरि जी। पीड़ा के माध्यम से प्रकाश का उदय होता है, इसीलिए संतजन पीड़ा को गर्हित और वर्जित नहीं, अपितु आवश्यक मानते हैं। कुंती ने कृष्ण से सदा दुःख पाने की बात कही, जिससे वे कृष्ण को कभी न भूलें। सुख में जो प्रकाश उदय हो सकता है, उसे हम प्रायः भूल जाते हैं। जिनके भीतर सुखावस्था के दौरान प्रकाश फैला रहता है, वे उस सुख को भी दुःखरूप ही ग्रहण करते रहते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि हम सुविधाओं को त्याज्य कहकर एक निर्वासित जीवन बिताने लगें। हमें बस सुख के पीछे के दुःख को विस्मृत नहीं करना है। फिर सुख में हम पाथेय को याद करते रहेंगे। जर्मनी के दार्शनिक कांट का अपने नौकर को निर्देश था कि रात दस से चार के बीच नहीं उठाना, भूकंप आये तो भी। एक रात साढ़े ग्यारह बजे तार आया कि उन्हें कुलपति नियुक्त किया गया है, नौकर फूला न समाया, उसने सोचा भूकंप के लिए न जगाने के लिए कहा था, उसने इमैनुअल कांट को उसी समय जगा दिया। कांट को यह नागवार गुजरा, उन्होंने उसे चाँटा मारा और फिर सो गए। सुबह नौकर से कहे, और फिर नियुक्ति प्राधिकारी को लिखे कि ऐसी चीज के प्रति सतर्क रहो, जो तुम्हें भ्रमित कर दे। जिसने केवल नियुक्ति मात्र से रात की नींद भंग कर दी हो, उस काम में कितना उद्वेलन न होगा। उन्होंने कुलपति पद लेने से अस्वीकार कर दिया। ९/१०/२३ श्राद्ध पक्ष चल रहे हैं ऐसे में श्राद्ध को लेकर अजीब अजीब बातें सुनने को मिलती हैं कोई इसे अंधविश्वास बोलता है तो कोई श्रद्धा, कोई कौओं को पूर्वज बोलता है तो कोई पूर्वजों को छोड़ जीवित माता पिता पर ध्यान देने को कहता है, तर्क कोई भी हों फिर वे भले पक्ष में दिए जाएं या विपक्ष में परन्तु इनसब में असली बात कहीं छूट ही जाती है। अगर आप चाहो तो अपने जिंदा पड़ोसी को भी श्राद्ध जैसी किसी प्रक्रिया से लाभ पहुंचा सकते हो पर हम ऐसा नहीं करते, यह किसी खाते पीते व्यक्ति को ग्लूकोज की इंट्रा वेनस ड्रिप लगाने जैसा होगा जिसकी उसे जरूरत नहीं है, पर ऐसा किया जरूर जा सकता है, क्योंकि उस इनसान के पास पहले से एक शरीर है और शरीर मे होना भर काफी है कर्मों को खत्म करते रहने के लिए, वह इनसान अनेक अनुभव सुख दुख रोग आदि भोग कर अपने कर्म स्मृति अनुभवों को खत्म करता रहेगा और साथ ही साथ कुछ कर्म इकट्ठे भी करेगा पर चूंकी अभी वह सक्षम है तो हम किसी की जीवन प्रक्रिया के साथ कोई छेड़खानी नहीं करते हैं। चूंकि एक जीवित व्यक्ति के पास एक शरीर होता है तो ऐसे में उसके पास मौका है कि वह खुद को अशांति से मुक्त कर ले परन्तु शरीर छूट जाने के बाद बात इतनी आसान नहीं रह जाती, आपके अंदर चित्त परिवर्तन कर सकने की क्षमता शरीर छोड़ने के साथ ही नष्ट हो जाती है, ऐसे में जो भी आप अनुभव कर रहे हो उसे आप बस भोग सकते हो परन्तु अपनी इच्छा से उसमें कोई परिवर्तन आप नहीं कर सकते ऐसे में अगर अशांति अधिक हो तो अगला शरीर मिलना मुश्किल हो जाता है औऱ ऐसे में दिवंगत की प्रवर्ति नुकसान पहुचाने की रही हो तब उस ऊर्जा का नकारात्मक प्रभाव पहले उस ऊर्जा से जुड़े व्यक्तियों पर ही होगा। अगर कोई व्यक्ति ध्यान करता है तो यह प्रयोग करके देखा जा सकता है कि किसी दिन चित्त अशांत हो तो शांत बैठ कर अपने गुरु या मित्र से ऊर्जा ग्रहण करने पर मिनिटों में मनःस्तिथि में परिवर्तन कर सकता है, अशांति और अवसाद का सीधा सा मतलब है कि प्राण ऊर्जा प्रचुर मात्रा में उपलब्ध नहीं है बस पितरों के लिए भी यही सिद्धांत काम करता है और इस एनर्जी ट्रांसमिशन का माध्यम बनती हैं कुछ सामग्रियां और प्रक्रियाएं, एक जीवित व्यक्ति चाहे तो कुछ प्रक्रियाओं द्वारा अशांत जीव को प्राण ऊर्जा प्रेषित कर सकता है जिससे उस जीव के कुछ कर्म जल जाएंगे और वह पहले से थोड़ी बेहतर स्तिथि में होगा, बाकी कर्मानुसार जो यात्रा उसे करनी है वह तो करनी ही पड़ेगी, यह ऐसा है कि आपका कोई रिश्तेदार जनरल का टिकट लेकर ट्रेन में बैठ गया है तो आप उसके लिए खाने पीने का इंतजाम कर दो जिससे उसे असुविधा कम से कम हो। यानी श्राद्ध द्वारा वह भोजन किसी तक नही पहुचता और न ही किसी दिवंगत के पसन्द का भोजन बनाने से कुछ होने वाला है असली बात है प्राण ऊर्जा की कि उसे आप कितनी अच्छी तरह से प्रेषित कर सकते हो, यदि आप कोई शक्तिशाली साधना रोज कर रहे हो तब आपके बिना कुछ करे ही आपके अशांत पितरों को इस ऊर्जा का भाग मिल जाता है। यह सब विज्ञान के नियमों की तरह ही काम करता है बस फर्क इतना है कि आप इसे बाहरी रूप से गणितीय सिद्धांतों के द्वारा सार्वजनिक रूप सिद्ध नहीं कर सकते क्योंकि सब लोगों की ग्रहणशीलता वैसी नहीं होती। आपके सम्पर्क में आने वाली हर वस्तु आपकी विशिष्ट ऊर्जा से युक्त हो जाती है जैसे कपड़े, वस्तुएं आदि, लोग अभिचार आदि ऊर्जा के दुरुपयोग ऐसे ही करते हैं, तो ऐसे में आप जिस कुल में पैदा हुए हो तो उस कुल की ऊर्जा से आपका अस्तित्व प्रभावित रहता ही है बस ऐसे में ध्यान यह रखना है कि ऊर्जा और कर्मों की इस साझेदारी का ऋण आपके ऊपर न चढ़े । जहां तक कौओं की बात है तो किसी के पितर कौए बन कर नहीं आते, जिन्हें उस कष्टकारी अवस्था से मुक्ति के लिए बाहरी सहायता चाहिए वे इतने समर्थ नहीं होते कि कुछ बन कर आ सकें, पितरों की ऊर्जा से युक्त अन्न को कौओं और गायों को खिलाने का उद्देश्य कुछ अलग होता है, ये दोनों ही जीव अति नकारात्मक ऊर्जा से युक्त भोजन नहीं करते, अगर आपने इन्हें वह अन्न खिलाना चाहा और इन्होंने वह नहीं खाया तो इसका अर्थ है कि पितर बहुत अधिक अशांति में हैं तो ऐसे में आपको उन्हें ऊर्जा प्रेषित करने हेतु अतिरिक्त श्रम करना पड़ेगा। लोग बोलते हैं कि जिन देशों या समुदायों में श्राद्ध नहीं होते तो उनके यहां क्या पितृ दोष नहीं होते फिर हम क्यों ये सब करें ? तो बात यह है कि जब अस्पताल आदि नहीं थे स्वास्थ्य सुविधाएं कम थीं जीवन तब भी चलता था, नजर के चश्मों के आविष्कार से पहले भी लोगों को दृष्टि दोष होता था तो वे बस इसे झेलते थे, तो बस बात इतनी है कि आपके पास एक सुविधा है अब ये आपके ऊपर है कि आप इसका उपयोग करो या न करो, बाहर देशों में खासकर यूरोप में भयंकर नकारात्मक जगहें आज भी हैं, लोग उनसे प्रभावित भी होते हैं पर जीवन चलता रहता है, लोग अशांत बने रहते हैं पैसे कमाते हैं और जैसे तैसे जीवन काट लेते हैं उनमें से कुछ अतिरिक्त विकल्पों को भी चुनते हैं, बस इतनी सी बात है। तो श्राद्ध का अर्थ बस पूर्वजों को याद करना और उनके प्रति अपनी श्रद्धा भर व्यक्त करना नहीं है, सही से की जाए तो यह अनेआप में एक सम्पूर्ण प्रक्रिया है जीवन के उस पार के आयाम को सहायता पहुचाने की, और पितर केवल पितृ लोक में फस कर ही नही रहते उनमें से अधिकांश पुनर्जन्म ले लेते हैं और कुछ उच्च लोकों में भी पहुंचते हैं जो वास्तव में उल्टे आपके लिए सहायक हो सकते हैं बाकी जो अक्षम हैं उनकी सहायता तो एक सभ्य समाज के तौर पर हमें अवश्य करनी चाहिए। केवल भौतिक शरीर और विचारों को स्वयं मान लेना यानी जीवन के एक बड़े भाग से अनिभिज्ञ रह आधा अधूरा जीवन जीना, दरसल हम अपने अस्तित्व अपने वजूद के एक महत्वपूर्ण भाग को बहुत बुरी तरह से भुला बैठे हैं इसलिए हमें श्राद्ध या पूजापाठ या तो केवल परम्परा भर लगती है या फिर अंधविश्वास, हम अपने बाकी क्रिया कलाप जैसे काम पर जाना, पार्टी करना, इलाज करवाना आदि को परम्परा या अंधविश्वास नहीं मानते क्योंकि ये चीजें हमारे अपने अनुभव में हमारे शरीर और मन के द्वारा आसानी से आजाती हैं, पर हम शरीर और मन से परे भी बहुत कुछ हैं, हमारी हालात ऐसी है जैसे कोई अंधा प्रकाश के आस्तित्व को विश्वास या अंधविश्वास में वर्गीकृत कर दे, यहां यह दोनों ही विकल्प गलत होंगे, यह न तो श्रद्धा है और न ही अंधविश्वास, हम अपने अस्तित्व के ऊर्जा आयाम के प्रति अंधे हो चुके हैं और इसीलिए हमें जीवंत अनुभव को छोड़ मान्यताओं की बैसाखियों की आवश्यकता महसूस होती है। ~ अनिरुद्ध ११/१०/२३ राम नाम की खूँटी गाड़ी सूरज ताना तंता। चढ़ते उतरते दम की ख़बर ले फिर नहीं आना बनता॥ Meaning - Erect the loom of Ram's name, The sun its fibers & threads, Be aware of your breath which is arising and passing, You won't be coming back again. अलिफल्ला चंबे दी बूटी मेरे मुर्शिद मन बिच लाई हू। नफ़ी अस्बात द पानी मिल्या हर रगे हरजाई हू। अंदर बूटी मुश्क मचाया जान फुलन ते आई हू। जीवे मुर्शिद कामिल बाहू जे बूटी मन लाई हू। "माला जपूँ ना कर जपूँ ,मुख से कहूँ ना राम राम हमारा हमें जपे है , हम पायो विश्राम ।" -कबीर साहब हद हद करते सब गए बेहद गयो न कोई अरे अनहद के मैदान में रहा कबीरा सोये हद हद जपे सो औलिये, बेहद जपे सो पीर हद अनहद दोनों जपे सो वाको नाम फ़कीर १३/१०/२३ अर्थ के तल पर कोई अभिव्यक्ति शब्द को खोलती हुई सर्वथा निर्दोष और निरापद नहीं हो सकती। उसमें कई अर्थ व्यंजित होंगे। इसमें सही और ग़लत जैसा निर्णय नहीं निकल पाता। पर कोई योगी जब कुछ व्यक्त करता है तो वह दर्पण की भाँति होता है, जिस्में अपना आत्म दिख जाता है। अपना आत्म देखने की ही हर किसी को आवश्यकता है। यही ओशो के कथन का आशय है, जिसमें वे ऑटोबायोग्राफी ऑफ़ ए योगी के बारे में अपना मंतव्य व्यक्त कर रहे हैं कि योगी की आत्मकथा हो ही नहीं सकती, क्योंकि वह तो समग्र होता है, उसे व्यक्त किया ही नहीं जा सकता। १४/१०/२३ पितृपक्ष अनुपस्थित की उपस्थिति है। अस्तित्व के बाद का काव्यात्मक नैरन्तर्य । एक डोर जो टूटती नहीं, एक धारा जो अजस्र है। जो नहीं रहे, वे रहते हैं। वे प्रतीक्षा करते हैं। वे आते हैं। देह नहीं रहती । सम्बन्ध रहते हैं। कर्त्तव्य रहते हैं। अपेक्षाएँ रहती हैं। जीवन के बाद एक लोकोत्तर जीवन रहता है। प्यास रहती है। जल रहता है। आशुतोष दुबे https://cinemanthan.com/2013/10/14/tumekgorakhdhandha/ १५/१०/२३ ईसा मसीह यहूदी थे और यहूदियों ने ही उन्हें कठोरतम यातनाएँ देकर सलीब पर लटकाकर मार दिया। यहूदियों और ईसाइयों का यही झगड़ा है। ईसा मसीह को मारने के पाप से यहूदी तभी मुक्त होंगे, जब ईसा मसीह के संदेश को वे धारण करेंगे। किंतु जब अरबों या इस्लाम से उनका झगड़ा होता है तो यहूदी और ईसाई एक हो जाते हैं। यही कारण है कि अत्यंत सीमित संख्या में होने के बाद भी इज़राइल के यहूदियों के साथ समूची ईसाई दुनिया खड़ी रहती है। इसके पीछे ईसाइयों की एक और धारणा है कि ईसा का जन्म एक बार और यरूशलम में ही होगा, जिससे पूरी ईसाईयत स्वर्ग में पहुँच जाएगी। यहूदी, ईसाई और इस्लाम तीनों एक ही देवदूत इब्राहिम से निकले अलग अलग संप्रदाय हैं। इन्हें सामी धर्म कहा गया है। इब्राहिम के पुत्र इस्माइल या इशाक के पैर से आबे जमज़म का झरना फूटा, जो इस्लाम के अनुयायियों के लिए गंगाजल के समान है। इब्राहिम के बाद अलग अलग कबीलों में बंटे समाज को पहले ईसा मसीह ने और फिर पैग़म्बर मोहम्मद ने इकट्ठा किया। ईदुलज़ुहा इन तीनों धर्मों में अपनी अपनी तरह से मनायी जाती है। फ़िलिस्तीन की जगह इन तीनों धर्मों के लिए भगवान की जन्मभूमि के समान महत्व रखती है, इसलिए इज़राइल और फ़िलिस्तीन का संघर्ष कभी समाप्त होता नहीं दिखता, जिसका जब ज़ोर होगा, वह वहाँ कब्ज़ा करना चाहेगा। यही अब तक वहाँ के इतिहास में होता आया है। किंतु इस ज़मीन के क़ब्ज़े से स्वर्ग पहुँचने की मान्यता खोखली है। ईसाई लोग इस झगड़े से थोड़ा दूर रहते हैं, इसलिए वे अपना उत्थान करते आये हैं। आज वे दुनिया में सर्वाधिक हैं और सबसे अधिक शक्ति धारण करते हैं। यहूदी ईसाइयों के पूर्वज हैं। वे भारत में छठी शताब्दी ईसा पूर्व में सबसे पहले और फिर ७० ईसवी से आकर यहाँ रह रहे हैं। भारत को वसुधैव कुटुंबकम् का नेता और विश्व गुरु यूँ ही नहीं कहा गया है। यहूदियों को सबसे पहले मिस्र से मोसेस के समय से निर्वासित किया गया है। यहूदियों का अस्तित्व बना रहना आवश्यक है, किंतु इसका अर्थ यह नहीं कि दूसरे संप्रदाय की क़ीमत पर ऐसा करना पड़े। यरूशलम की उस भूमि पर सात परिक्रमा का बड़ा महत्व है, यह सात की संख्या सनातन धर्म में विशेष स्थान रखती है। यह सांकेतिक और रहस्यात्मक संख्या और तौर तरीक़े हैं, इन्हें मात्र उस ज़मीन में ही देखने से बचना चाहिए। सभी संप्रदायों का जब योग होगा, तब वास्तव में धर्म का उदय होगा। यह धर्म सनातन है। मेधा ऋषि राजा सुरथ और समाधि नामक वैश्य को भगवती की महिमा बताते हुए मधु कैटभ वध का प्रसंग सुनाते हैं। देवी भगवती महिषासुर की सेना और उसका वध करती हैं। फिर भगवती घोषणा करती है- जो मुझे संग्राम में जीत लेगा, मेरा दर्प दूर करेगा, मेरे समान बलवान होगा, वही मेरा भर्त्ता होगा। अतः शुम्भ या निशुम्भ कोई भी आकर मुझे जीतकर पाणिग्रहण कर ले”- “यो मां जयति संग्रामे यो मे दर्प व्यपोहति। यो मे प्रतिबलो लोके स मे भर्त्ता भविष्यति।। इसके बाद भगवती शुंभ निशुंभ के सेनानी धूम्रलोचन, चंड और मुंड, रक्तबीज, निशुंभ एवं शुंभ आदि असुरों का संहार करती हैं। इसका सीधा अर्थ है कि मनुष्य के विकार रूप बड़े - बड़े असुर भी सूर्य, चंद्र और अग्नि नेत्र रूपा भगवती को परास्त नहीं कर सकते। मां के साथ सहचर हुआ जा सकता है बस, शिव बनकर। कथा के अनुसार देवी के वरदान से यह सुरथ (यानि अच्छे रथ पर सवार) क्षत्रिय ही सावर्णि (यानि स (उस) वर्ण के) मनु हुए। नवरात्रोपासना के उपरांत जब दस रथ की सवारी करके अर्थात् दशद्वार से उत्पन्न राम की चेतना मनुष्य में जाग्रत होती है तभी रावण जैसे महा असुर का संहार होता है। इनमे से किसी पात्र को इतिहास और जाति में मत खोजिए। यह सब हर मनुष्य के भीतर उपस्थित अंतर्द्वंद्व हैं. वैश्य उदर चेतना तो क्षत्रिय कर्म चेतना को अभिव्यक्त करने वाले वर्ग हैं। मंत्राणां मातृका देवी शब्दानां ज्ञानरूपिणी । ज्ञानानां चिन्मयातीता शून्यानां शून्यसाक्षिणी । यस्याः परतरं नास्ति सैषा दुर्गा प्रकीर्तिता ॥ आप सबको नवरात्र की हार्दिक शुभकामनाएँ... १७/१०/२३ संकल्प कामनाओंका कारण है और कामना संकल्पोंका कार्य है। संकल्प और कामना--ये दोनों कर्मके बीज हैं। संकल्प और कामना न रहनेपर कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात् कर्म बाँधनेवाले नहीं होते। विषयोंका बार-बार चिन्तन होनेसे, उनकी बार-बार याद आनेसे उन विषयोंमें 'ये विषय अच्छे हैं, काममें आनेवाले हैं, जीवनमें उपयोगी हैं और सुख देनेवाले हैं'--ऐसी सम्यग्बुद्धिका होना 'संकल्प' है और 'ये विषय-पदार्थ हमारे लिये अच्छे नहीं हैं, हानिकारक हैं'--ऐसी बुद्धिका होना 'विकल्प' है। ऐसे संकल्प और विकल्प बुद्धिमें होते रहते हैं। जब विकल्प मिटकर केवल एक संकल्प रह जाता है, तब 'ये विषय-पदार्थ हमें मिलने चाहिये, ये हमारे होने चाहिये'--इस तरह अन्तःकरणमें उनको प्राप्त करनेकी जो इच्छा पैदा हो जाती है, उसका नाम 'काम' (कामना) है। कर्मयोगसे सिद्ध हुए महापुरुषमें संकल्प और कामना--दोनों ही नहीं रहते अर्थात् उसमें न तो कामनाओंका कारण संकल्प रहता है और न संकल्पोंका कार्य कामना ही रहती है। अतः उसके द्वारा जो भी कर्म होते हैं, वे सब संकल्प और कामनासे रहित होते हैं। त्यागी शोभा जगतमें करता है सब कोय।
हरिया गृहस्थी संतका भेदी बिरला होय।। नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट। लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट।। हनुमानजी ने कहा- आपका नाम रात-दिन पहरा देने वाला है, आपका ध्यान ही किवाड़ है। नेत्रों को अपने चरणों में लगाए रहती हैं यही ताला लगा है, फिर प्राण जाएं तो किस मार्ग से? शब्दात्मिका सुविमलर्ग्यजुषाम् निधान- मुद्गीथरम्यपदपाठवतां च साम्नाम् । देवि त्रयी भगवती भवभावनाय वार्ता च सर्वजगतां परमार्तिहन्त्री ॥ शब्दात्मिका = शब्दों की आत्मा सुविमलर्ग्यजुषाम् सुविमल ऋग् यजुषाम् = अत्यंत निर्मल ऋग्वेद और यजुर्वेद निधानम् = निधि, खजाना उद्गीथ रम्यपद पाठवतां = उद्गीथ के मनोहर पदों के पाठों च = और साम्नाम् = सामवेद देवि = देवी त्रयी = त्रयी (तीनों वेद ) भगवती = भगवती हैं भवभावनाय = संसार के पालन के लिए वार्ता = वार्ता (खेती और आजीविका ) च = और सर्वजगतां = सारे संसार की परम आर्तिहन्त्री= पीड़ाओं को हरने वाली हे देवी आप अत्यंत निर्मल ऋग्वेद और यजुर्वेद के शब्दों की आत्मा उद्गीथ के मनोहर पदों के पाठों और सामवेद का खज़ाना ,संसार के पालन के लिए वार्ता (खेती और आजीविका ), सारे संसार की पीड़ाओं को हरने वाली त्रयी (तीनों वेद ), भगवती हैं । १८/१०/२३ Ana Means -> In Breathe Apana Means -> Out Breathe Sati Means -> Be with it as one. In the begining, before the world was created, was HE, who is the WORD. HE was near to GOD and in everything equal to god. From the begining he was with GOD. Through HIM everything was created; nothing was created without HIM. In all created things he was the life, and for the people HE was the light. The light shines in the darkness, and the darkness has not been able to extinguish is. (Gosple of John, 1,1-5 ) "In the beginning PTAH spoke words, und the world was created.....Thus Ptah was satisfied after he had made all things and all divine words. " (Antique nubian stone-board with hyroglyphs.) (Prajapati vai idam agre asit tasya vak dvitiya asit vak vai param brahma ) or : "In the begining was Prajapati. With HIM was VAK (the WORD), and VAK was verily the highest Brahman."(Rig Veda) Ann.: In Hinduism the Sabda or pranava is the highest origin of the Mantras. शब्द साउंड को कह सकते हैं। अव्यक्त से साउंड या स्वर निकला, उससे फिर वर्ण बना, अक्षर हुआ, फिर पद और आगे वाक्य। शब्द भाषा नहीं है, भाषाएं अलग अलग हैं, क्योंकि उस अनंत रूप शब्द को हम समग्र में ग्रहण नहीं कर पाते हैं, पर भाषाओं के मूल में शब्द ही हैं। शब्द सृष्टि का मूल है। शब्द प्रकाश है, जिसके आलोक में छवियां तिरती हैं। इन छवियों को हम अर्थ कहेंगे। शब्द और उनके अर्थ अलग अलग दिखने का कारण है मूल शब्द, जो अनंत रूप व्यक्त हो रहा है। कोई सिरा पकड़ें, मूल तक जा सकते हैं। है सिरा पूर्ण है, जिसमे वह पूर्व उपस्थित है और पूर्ण ही व्यक्त हो रहा है। अनंत का हर अंश पूर्ण है, उसके किसी अंश में विरोध नहीं है। बस उनमें विरोधाभास होता है। अनंत के अंश व्यक्त ही क्यों होते हैं, क्या वे खंड खंड होने को अभिशप्त हैं, नहीं। वह परम तत्व अनंत में व्यक्त होकर लीला विनोद कर रहा है, इस लीला का सहभागी होकर हमें उसी लीला स्वभाव से रहना है। दुर्गा सप्तशती का आध्यात्मिक विज्ञान *************************** श्री दुर्गा सप्तशती के सात सौ मन्त्र ब्रह्म की शक्ति चण्डी के मंदिर की सात सौ सीढियाँ है, जिन्हें पारकर साधक मंदिर में पहुँचता है। मार्कण्डेय पुराणोक्त 700 श्लोकी श्री दुर्गा सप्तशती मुख्यतः 3 चरित्रों में विभाजित है- 1. प्रथम चरित्र ( मधु-कैटभ-वध) 2. मध्यम चरित्र ( महिषासुर वध) 3. उत्तम चरित्र (शुम्भ-निशुम्भ-वध) ये तीनो चरित 3 प्रकार के कर्म संस्कारो या वासनाओं - 1.सञ्चित 2.प्रारब्ध 3.भविष्यत् अथवा तीन गुणों - 1.सत्व 2.रज 3. तम अथवा तीन ग्रंथियों - 1.ब्रह्म ग्रन्थि 2. विष्णु ग्रन्थि 3. रूद्र ग्रन्थि के प्रति न केवल हमारा ध्यान आकर्षित करते है अपितु एक सुंदर कथा के माध्यम से इनके मूल में हमारा प्रवेश भी करा देते है और जैसे ही मनुष्य उक्त तीनो के मूल में पहुँचता है, वैसे ही वह ब्रह्म की शक्ति भगवती चण्डिका के मन्दिर अर्थात सान्निध्य में पहुँच जाता है। सप्तशती के 700 श्लोक रुपी सीढियाँ ब्रह्म की शक्ति भगवती चण्डिका के पास पहुँचने के माध्यम है। श्री दुर्गा सप्तशती के तीनों चरितो के विनियोग से ही इस विषय का स्पष्ट आभास होता है। प्रथम चरित (मधु कैटभ वध) के ऋषि ब्रह्मा है। जिस मन्त्र के जो प्रथम द्रष्टा होते है, वे ही उस मन्त्र के ऋषि होते है। इस प्रकार "मधु कैटभ वध" रुपी प्रथम चरित के मन्त्रो के प्रथम द्रष्टा श्री ब्रह्मा है। "मधु-कैटभ-वध" अथवा "सतो गुण" का प्रलय विराट मन में ही संघटित होता है। मन के ही द्वारा सृष्टि होती है। विराट मन ब्रह्मा है और यही विराट मन अर्थात सृष्टि कर्ता ब्रह्मा प्रथम चरित के प्रथम दर्शक है। कथा में भी ऐसा वर्णित है कि ब्रह्मा ही मधु कैटभ वध के प्रथम कारण है।"महाकाली" देवता है। प्रलयंकारी तामसी शक्ति के अंक में ही सत्त्वादि गुणों का अवसान होता है। "गायत्री"- छंद है। प्राण का प्रवाह अथवा स्पंदन ही छंद कहलाता है। "प्रथम चरित" में प्रविष्ट साधक का प्राण स्पंदन ठीक वेद- माता गायत्री के समान होता है, इसीलिए इसका छंद गायत्री है। नन्दा या ह्लादिनी इसकी शक्ति है- यह विष्णु की शक्ति है जिसके द्वारा विष्णु ने "मधु कैटभ का वध" किया था। रक्त दन्तिका अर्थात परा-प्रकृति का रक्त- वर्णात्मक रजो- गुणात्मक चित्त ही इसका बीज है। रजो गुण की क्रियाशीलता द्वारा ही सतो गुण का लय होता है। अग्नि या तेजस तत्व में ही सभी भावो का लय होता है, अतः अग्नि ही इसका तत्व है। अग्नि या तेजस से ऋक या वाक् का आविर्भाव होता है। अतः ऋग्वेद इसका स्वरुप है। महाकाली प्रीत्यर्थे अर्थात प्रलयंकारी तामसी मूर्ति में साधक की प्रीति या आसक्ति के लिए ही प्रथम चरित का पाठ रूप कार्य अथवा विनियोग है। क्रमशः ..... दुर्गा सप्तशती का आध्यात्मिक विज्ञान - २ ※※※※※※※※※※※※※※※※※※※※ गतांक से आगे... मध्यम चरित ( महिषासुर-वध) के ऋषि विष्णु है। जिस समष्टि प्राण के कारण यह विराट ब्रह्माण्ड स्थित है, वे ही विष्णु है। रजो गुण का बहिर्मुख विक्षेप रूप "महिषासुर" इसी महाप्राण के अंक में विलय को प्राप्त होता है, अतः विष्णु ही मध्यम चरितके द्रष्टा या ऋषि है। "महालक्ष्मी" देवता है। लक्ष्मी प्राण शक्ति का दूसरा नाम है। जब तक देह में प्राण शक्ति विराजित रहती है, तभी तक हम सबके नामो के आगे लक्ष्मी का दूसरा पर्याय श्री शब्द प्रयुक्त होता है। व्यष्टि प्राण शक्ति का नाम लक्ष्मी है एवं समष्टि प्राण शक्ति का नाम महालक्ष्मी है। यह ब्रह्म की शक्ति भगवती चण्डिका की रजो-गुणात्मिका महती शक्ति है। इन्ही के द्वारा विषयासक्ति रूप विक्षेप नियंत्रित अथवा निहत होता है।इसलिए "महालक्ष्मी" ही मध्यम चरित की देवता है। उष्णिक इसका छंद है। इस चरित में प्रविष्ट साधक का प्राण प्रवाह उष्णिक नामक छन्द के समान स्पन्द युक्त होता है। शाकंभरी मध्यम चरित की शक्ति है। शाकम्भरी के संबंध में श्री दुर्गा सप्तशती में माँ स्वयं कहती है -- ततो$हमखिलं लोकमात्म-देह-समुद्भावै:। भरिष्यामि सुरा: शकीरावृषटे: प्राण धारकै:।। शाकम्भरीति विख्यातिं, तदा यास्याम्यहं भुवि । अर्थात जगत में एक ऐसा समय आयेगा जब अनावृष्टि से अर्थात ब्रह्म रस धारा के अभाव में जीव गण अतिशय दुखित और संतप्त हो पड़ेंगे, जब स्थूल जगत आत्म रस को खोज नहीं पायेगा, आत्मा को जगदातीत कह कर पूर्ण रूप से बहिर्मुखी हो जाएगा, तब मेरा आविर्भाव शाकंभरी मूर्ति में होगा। यह विश्व ही हमारा देह है, इसे जीव गण को समझा दूंगी । विश्व का प्रत्येक पदार्थ प्राणमय है, एक मात्र चैतन्य वस्तु ही इस विश्व का उपादान है, यह उस समय जीव गण सहज ही अनुभव करने लगेंगे। एक मात्र सर्व व्यापी चैतन्य शक्ति को खोज कर ही तब मनुष्य स्वयं को पुष्ट कर सकेंगे। शाकंभरी मूर्ति के अवतरण का यही रहस्यार्थ है। मध्यम चरित का बीज दुर्गा है। इस संबंध में भी "श्री दुर्गा सप्तशती" में स्वयं भगवती उक्त श्लोक के बाद कहती है - तत्रैव च वदिष्यामि, दुर्गमाख्यं महा$सुरम् । दुर्गा देवीति विख्यातं, तन्मे नाम भविष्यति ।। अर्थात शाकंभरी मूर्ति से ही दुर्गम नामक असुर का वध कर मैं दुर्गा देवी नाम से विख्यात होऊँगी। जो संपूर्ण दुर्गति का हरण करती है, वे ही दुर्गा है। इस प्रकार दुर्गति हरण ही मध्यम चरित का बीज या मूल कारण है। वायु तत्व अर्थात प्राणशक्ति जब आत्म प्रकाश करती है तब वायु रूप में उसकी अभिव्यक्ति होती है और वायु तत्व की अनुभूति होने पर ही यजुर्वेद रूप यज्ञ मय शब्द राशि का प्रादुर्भाव होता है। इसीलिए वायु देवता के मन्त्र से ही यजुर्वेद का आरंभ होता है। संक्षेप में महालक्ष्मी की प्रीति अर्थात महाप्राण मयी माँ के प्रति महती प्रीति प्राप्त करने का उद्देश्य ही मध्यम चरित का विनियोग है। दुर्गा सप्तशती का वैदिक विज्ञान *************************************** ब्रह्म सत्-चित् और आनन्द रूप से त्रिभाव द्वारा माना जाता है | जिस प्रकार कारण ब्रहम में तीन भाव हैं उसी प्रकार कार्य ब्रह्म भी त्रिभावात्मक है | इसीलिये वेद और वेदसम्मत शास्त्रों की भाषा भी त्रिभावात्मक ही होती है | इसी परम्परा के अनुसार देवासुर संग्राम के भी तीन स्वरूप हैं | जो दुर्गा सप्तशती के तीन चरित्रों में वर्णित किये गए हैं | देवलोक में ये ही तीनों रूप क्रमशः प्रकट होते हैं | पहला मधुकैटभ के वध के समय, दूसरा महिषासुर वध के समय और तीसरा शुम्भ निशुम्भ के वध के समय | वह अरूपिणी, वाणी मन और बुद्धि से अगोचरा सर्वव्यापक ब्रह्म शक्ति भक्तों के कल्याण के लिये अलौकिक दिव्य रूप में प्रकट हुआ करती है | ब्रह्मा में ब्राह्मी शक्ति, विष्णु में वैष्णवी शक्ति और शिव में शैवी शक्ति जो कुछ भी है वह सब उसी महाशक्ति का अंश है | त्रिगुणमयी महाशक्ति के तीनों गुण ही अपने अपने अधिकार के अनुसार पूर्ण शक्ति विशिष्ट हैं | अध्यात्म स्वरूप में प्रत्येक पिण्ड में क्लिष्ट और अक्लिष्ट वृत्तियों का संघर्ष, अधिदैव स्वरूप में देवासुर संग्राम और अधिभौतिक स्वरूप में मृत्युलोक में विविध सामाजिक संघर्ष तथा राजनीतिक युद्ध – सप्तशती गीता इन्हीं समस्त दार्शनिक रहस्यों से भरी पड़ी है | यह इस कलियुग में मानवपिण्ड में निरन्तर चल रहे इसी देवासुर संग्राम में दैवत्व को विजय दिलाने के लिये वेदमन्त्रों से भी अधिक शक्तिशाली है | दुर्गा सप्तशती उपासना काण्ड का प्रधान प्रवर्तक उपनिषद ग्रन्थ है | इसका सीधा सम्बन्ध मार्कंडेय पुराण से है | सप्तशती में अष्टम मनु सूर्यपुत्र सावर्णि की उत्पत्ति की कथा है | यह कथा कोई लौकिक इतिहास नहीं है | पुराण वर्णित कथाएँ तीन शैलियों में होती हैं | एक वे विषय जो समाधि से जाने जा सकते हैं – जैसे आत्मा, जीव, प्रकृति आदि | इनका वर्णन समाधि भाषा में होता है | दूसरे, इन्हीं समाधिगम्य अध्यात्म तथा अधिदैव रहस्यों को जब लौकिक रीति से आलंकारिक रूप में कहा जाता है तो लौकिक भाषा का प्रयोग होता है | मध्यम अधिकारियों के लिये यही शैली होती है | तीसरी शैली में वे गाथाएँ प्रस्तुत की जाती हैं जो पुराणों की होती हैं | ये गाथाएँ परकीया भाषा में प्रस्तुत की जाती हैं | दुर्गा सप्तशती में तीनों ही शैलियों का प्रयोग है | जो प्रकरण राजा सुरथ और समाधि वैश्य के लिये परकीय भाषा में कहा गया है उसी प्रकरण को देवताओं की स्तुतियों में समाधि भाषा में और माहात्म्य के रूप में लौकिक भाषा में व्यक्त किया गया है | राजा सुरथ और समाधि वैश्य को ऋषि ने परकीय भाषा में देवी के तीनों चरित्र सुनाए | क्योंकि वे दोनों समाधि भाषा के अधिकारी नहीं थे | तदुपरान्त लौकिक भाषा में उनका अधिदैवत् स्वरूप समझाया | और तब समाधि भाषा में मोक्ष का मार्ग प्रदर्शित किया : ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा, बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति || तया विसृज्यते विश्वं जगदेतच्चराचरम्, सैषा प्रसन्ना वरदा नृणाम् भवति मुक्तये || सा विद्या परमा मुक्तेर्हेतुभूता सनातनी, संसारबन्धहेतुश्च सैव सर्वेश्वरेश्वरी || प्रथम चरित्र में भगवान् विष्णु योगनिद्रा से जागकर मधुकैटभ का वध करते हैं | भगवान् विष्णु की यह अनन्त शैया महाकाश की द्योतक है | इस चरित्र में ब्रह्ममयी की तामसी शक्ति का वर्णन है | इसमें तमोमयी शक्ति के कारण युद्धक्रिया सतोगुणमय विष्णु के द्वारा सम्पन्न हुई | सत्व गुण ज्ञानस्वरूप आत्मा का बोधक है | इसी सत्वगुण के अधिष्ठाता हैं भगवान् विष्णु | ब्राह्मी सृष्टि में रजोगुण का प्राधान्य रहता है और सतोगुण गौण रहता है | यही भगवान् विष्णु का निद्रामग्न होना है | जगत् की सृष्टि करने के लिये ब्रह्मा को समाधियुक्त होना पड़ता है | जिस प्रकार सर्जन में विघ्न भी आते हैं उसी प्रकार इस समाधि भाव के भी दो शत्रु हैं – एक है नाद और दूसरा नादरस | नाद एक ऐसा शत्रु है जो अपने आकर्षण से तमोगुण में पहुँचा देता है | यही नाद मधु है | समाधिभाव के दूसरे शत्रु नादरस के प्रभाव से साधक बहिर्मुख होकर लक्ष्य से भटक जाता है | जिसका परिणाम यह होता है कि साधक निर्विकल्पक समाधि – अर्थात् वह अवस्था जिसमें ज्ञाता और ज्ञेय में भेद नहीं रहता – को त्याग देता है और सविकल्पक अवस्था को प्राप्त हो जाता है | यही नादरस है कैटभ | क्योंकि मधु और कैटभ दोनों का सम्बन्ध नाद से है इसीलिये इन्हें “विष्णुकर्णमलोद्भूत” कहा गया है | मधु कैटभ वध के समय नव आयुधों का वर्णन शक्ति की पूर्णता का परिचायक है | यह है महाशक्ति का नित्यस्थित अध्यात्मस्वरूप | यह प्रथम चरित्र सृष्टि के तमोमय रूप का प्रकाशक होने के कारण ही प्रथम चरित्र की देवता महाकाली हैं | क्योंकि तम में क्रिया नही होती | अतः वहाँ मधु कैटभ वध की क्रिया भगवान् विष्णु के द्वारा सम्पादित हुई | क्योंकि तामसिक महाशक्ति की साक्षात् विभूति निद्रा है, जो समस्त स्थावर जंगमादि सृष्टि से लेकर ब्रह्मादि त्रिमूर्ति तक को अपने वश में करती है | दूसरे चरित्र में सतोगुण का पुंजीभूत दिव्य तेज ही तमोगुण के विनाश का साधन बनता है | महिषासुर वध के लिये विष्णु एवं शिव समुद्यत हुए | उनके मुखमण्डल से महान तेज निकलने लगा : “ततोऽपिकोपपूर्णस्य चक्रिणो वद्नत्ततः, निश्चक्राम महत्तेजो ब्रह्मणः शंकरस्य च |” और वह तेज था कैसा “अतीव तेजसः कूटम् ज्वलन्तमिव पर्वतम् |” तत्पश्चात् अरूपिणी और मन बुद्धि से अगोचर साक्षात् ब्रह्मरूपा जगत् के कल्याण के लिये आविर्भूत हुईं | यह है शक्ति का अधिदैव स्वरूप | यों पाप और पुण्य की मीमांसा कोई सरल कार्य नहीं है | जैव दृष्टि से चाहे जो कार्य पाप समझा जाए, किन्तु मंगलमयी जगदम्बा की इच्छा से जो कार्य होता है वह सबी जीव के कल्याणार्थ ही होता है | इसका प्रत्यक्ष प्रमाण देवासुर संग्राम है | युद्ध प्रकृति की स्वाभाविक क्रिया है | यह देवासुर संग्राम प्राकृतिक शृंखला के लिये इस चरित्र का आधिभौतिक स्वरूप है | सर्वशक्तिमयी के द्वारा क्षणमात्र में उनके भ्रूभंग मात्र से असुरों का नाश सम्भव था | लेकिन असुर भी यदि शक्ति उपासना करें तो उसका फल तो उन्हें मिलेगा ही | अतः महिषासुर को भी उसके ताप के प्रभाव के कारण स्वर्ग लोक में पहुँचाना आवश्यक था | इसीलिये उसको साधारण मृत्यु – दृष्टिपात मात्र से भस्म करना – न देकर रण में मृत्यु दी जिससे कि वह शस्त्र से पवित्र होकर उच्च लोक को प्राप्त हो | शत्रु के विषय में भी ऐसी बुद्धि सर्वशक्तिमयी की ही हो सकती है | युद्ध के मैदान में भी उसके चित्त में दया और निष्ठुरता दोनों साथ साथ विद्यमान हैं | इस दूसरे चरित्र में महासरस्वती, महाकाली और महालक्ष्मी की रजःप्रधान महिमा का वर्णन है | इस चरित्र में महाशक्ति के रजोगुणमय विलास का वर्णन है | महिषासुर का वध ब्रह्मशक्ति के रजोगुणमय ऐश्वर्य से किया | इसीलिये इस चरित्र की देवता रजोगुणयुक्त महालक्ष्मी हैं | इस चरित्र में तमोगुण को परास्त करने के लिये शुद्ध सत्व में रज का सम्बन्ध स्थापित किया गया है | पशुओं में महिष तमोगुण की प्रतिकृति है | तमोबहुल रज ऐसा भयंकर होता है कि उसे परास्त करने के लिये ब्रह्मशक्ति को रजोमयी ऐश्वर्य की सहायता लेनी पड़ी | तमोगुण रूपी महिषासुर को रजोगुण रूपी सिंह ने भगवती का वाहन बनकर (उसी सिंह पर शुद्ध सत्वमयी चिन्मयरूपधारिणी ब्रह्मशक्ति विराजमान थीं) अपने अधीन कर लिया | तृतीय चरित्र में रौद्री शक्ति का आविर्भाव कौशिकी और कालिका के रूप में हुआ | वस्तुतः सत् चित् और आनन्द इन तीनों में सत् से अस्ति, चित् से भाति, और आनन्द से प्रिय वैभव के द्वारा ही विश्व प्रपंच का विकास होता है | इस चरित्र में भगवती का लीलाक्षेत्र हिमालय और गंगातट है | सद्भाव ही हिमालय है और चित् स्वरूप का ज्ञान गंगाप्रवाह है | कौशिकी और कालिका पराविद्या और पराशक्ति हैं | शुम्भ निशुम्भ राग और द्वेष हैं | राग और द्वेष जनित अविद्या का विलय केवल पराशक्ति की पराविद्या के प्रभाव से ही होता है | इसीलिये शुम्भ और निशुम्भ रूपी राग और द्वेष महादेवी में विलय हो जाते हैं | राग द्वेष और धर्मनिवेशजनित वासना जल एवम् अस्वाभाविक संस्कारों का नाश हो जाने पर भी अविद्या और अस्मिता तो रह ही जाती है | यह अविद्या और अस्मिता शुम्भ और निशुम्भ का आध्यात्मस्वरूप है | देवी के इस तीसरे चरित्र का मुख्य उद्देश्य अस्मिता का नाश ही है | अस्मिता का बल इतना अधिक होता है कि जब ज्ञानी व्यक्ति आत्मज्ञान प्राप्त करने लगता है तो सबसे पहले उसे यही भान होता है कि मैं ही ब्रह्म हूँ | उस समय विद्या के प्रभाव से “मैं” इस अस्मिता के लोकातीत भाव तक को नष्ट करना पड़ता है | तभी स्वस्वरूप का उदय हो पाता है | निशुम्भ के भीतर से दूसरे पुरुष का निकलना और देवी का उसे रोकना या इसी भाव का प्रकाशक है | निशुम्भ के साथ उस पुरुष तक को मार डालने से अस्मिता का नाश होता है | और तभी देवी के निशुम्भ वध की क्रिया सुसिद्ध होती है | यही शुम्भ निशुम्भ वध का गूढ़ रहस्य है | वास्तव में यह युद्ध विद्या और अविद्या का युद्ध है | इस तीसरे चरित्र में क्योंकि देवी की सत्वप्रधान लीला का वर्णन है | इसलिए इस चरित्र की देवता सत्वगुणयुक्त महासरस्वती बताई गई हैं | इस चरित्र के सत्वप्रधान होने के कारण ही इसमें भगवती की निर्लिप्तता के साथ साथ क्रियाशीलता भी अलौकिक रूप में प्रकट होती है | सूक्ष्म जगत् और स्थूल जगत् दोनों ही में ब्रह्मरूपिणी ब्रह्मशक्ति जगत् और भक्त के कल्याणार्थ अपने नैमित्तिक रूप में आविर्भूत होती है | राजा सुरथ और समाधि वैश्य के हेतु भक्त कल्याणार्थ आविर्भाव हुआ | तीनों चरित्रों में वर्णित आविर्भाव स्थूल और सूक्ष्म जगत् के निमित्त से हुआ | वह भगवती ज्ञानी भक्तों के लिये ब्रह्मस्वरूपा, उपासकों के लिये ईश्वरीरूपा, और निष्काम यज्ञनिष्ठ भक्तों के लिये विराट्स्वरूपा है : त्वं सच्चिदानन्दमये स्वकीये ब्रह्मस्वरूपे निजविज्ञभक्तान् | तथेशरूपे विधाप्य मातरुपासकान् दर्शनामात्म्भक्तान् || निष्कामयज्ञावलिनिष्ठसाधकान् विराट्स्वरूपे च विधाप्य दर्शनम् | श्रुतेर्महावाक्यमिदं मनोहरं करोष्यहो तत्वमसीति सार्थकम् || शक्ति और शक्तिमान में अभेद होता है | सृष्टि में शक्तिमान से शक्ति का ही आदर और विशेषता होती है | किसी किसी उपासना प्रणाली में शक्तिमान को प्रधान रखकर उसकी शक्ति के अवलम्बन में उपासना की जाती है | जैसे वेद और शास्त्रोक्त निर्गुण और सगुण उपासना | इस उपासना पद्धति में आत्मज्ञान बना रहता है | कहीं कहीं शक्ति को प्रधान मानकर शक्तिमान का अनुमान करते हुए उपासना प्रणाली बनाई गई है | यह अपेक्षाकृत आत्मज्ञानरहित उपासना प्रणाली है | इसमें आत्मज्ञान का विकास न रहने के कारण साधक केवल भगवान् की मनोमुग्धकारी शक्तियों के अवलम्बन से मन बुद्धि से अगोचर परमात्मा के सान्निध्य का प्रयत्न करता है | लेकिन भगवान् की मातृ भाव से उपासना करने की अनन्त वैचित्र्यपूर्ण शक्ति उपासना की जो प्रणाली है वह इन दोनों ही प्रणालियों से विलक्षण है | इसमें शक्ति और शक्तिमान का अभेद लक्ष्य सदा रखा गया है | एक और जहाँ शक्तिरूप में उपास्य और उपासक का सम्बन्ध स्थापित किया जाता है, वहीं दूसरी ओर शक्तिमान से शक्तिभाव को प्राप्त हुए भक्त को ब्रह्ममय करके मुक्त करने का प्रयास होता है | यही शक्ति उपासना की इस तीसरी शैली का मधुर और गम्भीर रहस्य है | विशेषतः भक्ति और उपासना की महाशक्ति का आश्रय लेने से किसी को भी निराश होने की सम्भावना नहीं रहती | युद्ध तो प्रकृति का नियम है | लेकिन यह देवासुर संग्राम मात्र देवताओं का या आत्मोन्मुखी और इन्द्रियोन्मुखी वृत्तियों का युद्ध ही नहीं था, वरन् यह देवताओं का उपासना यज्ञ भी था | और जगत् कल्याण की बुद्धि से यही महायज्ञ भी था | और इस सबके मर्म में एक महान सन्देश था | वह यह कि यदि दैवी शक्ति और आसुरी शक्ति दोनों अपनी अपनी जगह कार्य करें, दोनों का सामंजस्य रहे, एक दूसरे का अधिकार न छीनने पाए, तभी चौदह भुवनों में धर्म की स्थापना हो सकती है | और बल, ऐश्वर्य, बुद्धि और विद्या आदि प्रकाशित रहकर सुख और शान्ति विराजमान रह सकती है | भारतीय मनीषियों ने शक्ति में माता और जाया तथा दुहिता का समुज्ज्वल रूप स्थापित कर व्यक्ति और समाज को सन्मार्ग की ओर प्रेरित किया है | शक्ति, सौन्दर्य और शील का पुंजीभूत विग्रह उस जगज्जननी दुर्गा को कोटिशः नमन् | अष्टावक्र वैदिक विज्ञान संशोधन २०/१०/२३ क्या खोया क्या पाया, हम उसके हमसाया। सदा अतः हर्षाया। कुछ न जाया माया। क्या खोया क्या पाया। जीना और होना। होना और जीना। यही तो हम हैं ना!🙏 यह जानना ही तो सुख है कि जीवन दुःख है। जानने के बाद न सुख है, दुःख है। प्यारीजू! आप ये अनुभूतियाँ पहले पाती हैं, फिर फैलाती हैं, बहुत सुंदर। महामुद्रा तिरोहिता की पोस्ट पर 🙏🙏 २१/१०/२३ 💥A rare conversation between *Ramkrishna Paramahansa* & *Swami Vivekananda* 🔶 *1. Swami Vivekanand*:- I can’t find free time. Life has become hectic. *Ramkrishna Paramahansa*:- Activity gets you busy. But productivity gets you free. *2. Swami Vivekanand:-* Why has life become complicated now? *Ramkrishna Paramahansa:-* Stop analyzing life... It makes it complicated. Just live it. *3. Swami Vivekanand*:- Why are we then constantly unhappy? *Ramkrishna Paramahansa:*- Worrying has become your habit. That’s why you are not happy. *4. Swami Vivekanand:-* Why do good people always suffer? *Ramkrishna Paramahansa*:- Diamond cannot be polished without friction. Gold cannot be purified without fire. Good people go through trials, but don’t suffer. With that experience their life becomes better, not bitter. *5. Swami Vivekanand:*- You mean to say such experience is useful? *Ramkrishna Paramahansa*:- Yes. In every term, Experience is a hard teacher. She gives the test first and the lessons later. *6. Swami Vivekanand:-* Because of so many problems, we don’t know where we are heading… *Ramkrishna Paramahansa:-* If you look outside you will not know where you are heading. Look inside. Eyes provide sight. Heart provides the way. *7. Swami Vivekanand:-* Does failure hurt more than moving in the right direction? *Ramkrishna Paramahansa:*- Success is a measure as decided by others. Satisfaction is a measure as decided by you. *8. Swami Vivekanand:*- In tough times, how do you stay motivated? *Ramkrishna Paramahansa:*- Always look at how far you have come rather than how far you have to go. Always count your blessing, not what you are missing. *9. Swami Vivekanand:-* What surprises you about people? *Ramkrishna Paramahansa:*- When they suffer they ask, "why me?" When they prosper, they never ask "Why me?" *10. Swami Vivekanand:-* How can I get the best out of life? *Ramkrishna Paramahansa*:- Face your past without regret. Handle your present with confidence. Prepare for the future without fear. *11. Swami Vivekanand:*- One last question. Sometimes I feel my prayers are not answered. *Ramkrishna Paramahansa:*- There are no unanswered prayers. Keep the faith and drop the fear. Life is a mystery to solve, not a problem to resolve. Trust me. Life is wonderful if you know how to live. २१/१०/२३ देहोत्सर्ग ही बलि नहीं है। देह तो बलि चढ़ाने का स्थूल रूप है। दूसरे शब्दों में, बलि देह चढ़ा कर ही नहीं दी जाती। अतः देह उत्सर्ग केवल हाड़मांस के शरीर को प्राणविहीन कर देने भर का नाम नहीं है। बलि पूजा पर्व का समय चल रहा है। वास्तविक अर्थों में बलि करना यही है... मुक्तिबोध बहुत गहरे तल के कवि हैं, द्रष्टा हैं। उनकी एक कविता है - एक भूतपूर्व विद्रोही का आत्म-कथन, उसका अंश नीचे द्रष्टव्य है। यही एक आशा है कि मिट्टी के अंधेरे उन इतिहास-स्तरों में तब हमारा भी चिह्न रह जाएगा। नाम नहीं, कीर्ति नहीं, केवल अवशेष, पृथ्वी के खोदे हुए गड्ढों में रहस्यमय पुरुषों के पंजर और ज़ंग-खाई नोकों के अस्त्र!! xxx लेकिन, दबी धुकधुकियों, सोचो तो कि अपनी ही आँखों के सामने ख़ूब हम खेत रहे! ख़ूब काम आए हम!! आँखों के भीतर की आँखों में डूब-डूब फैल गए हम लोग!! आत्म-विस्तार यह बेकार नहीं जाएगा। ज़मीन में गड़े हुए देहों की ख़ाक से शरीर की मिट्टी से, धूल से। खिलेंगे गुलाबी फूल। सही है कि हम पहचाने नहीं जाएँगे। दुनिया में नाम कमाने के लिए कभी कोई फूल नहीं खिलता है ह्रदयानुभव-राग अरुण गुलाबी फूल, प्रकृति के गन्ध-कोष काश, हम बन सकें!- मुक्तिबोध 22/10/23 जिस भाषा में मूल रूप से जो कथन व्यक्त हुआ, उसी भाषा में वह अच्छी तरह ग्रहण होता है। आजकल माई के गीत गाए सुनाए जा रहे हैं, वे अगर बुंदेली में हों, या क्षेत्रीय भाषा में हों, उसी की लय और वाद्य संगीत हो तो अधिक प्रभाव पैदा करते हैं। यही स्थिति विवाह और अन्य अवसरों पर गाए जाने वाले गीतों की है, हमे पंजाबी या फिल्म के गीतों को क्या उधार लेना! वस्तुतः फिल्म जगत में बोलियों से ही गीत संगीत उठाए जाते हैं, बस उन्हें वे अपने ढंग से संयोजित और परिष्कृत करते हैं। बुंदेलखंड में जवारे बोए जाते हैं, उनके गीत सुनना भी एक अलग अनुभव से गुजरना है। अनेक पर्वों के अपने अपने गीत हैं, उनके तरीके हैं, उन्हें स्वाभाविक रूप में चलते रहने देना अच्छा है। उनमें रमना रुचिकर लगता है। तुलनात्मक रूप से नगरीय संस्कृति अनुकरण पर आधारित होती है, वह अधिक से अधिक परिष्कार किया करते हैं। ग्रामीण संस्कृति के पास अनुकरण करने के लिए अवकाश कम रहता है, इसलिए अनगढ़ ही सही, पर उनके माध्यम से नया सृजन होता आया है। यह नवता ही परिष्कृत होकर आगे जायेगी, अनुकरण छूट जायेगा। २३/१०/२३ ऊर्जा का रूपान्तरण चेतना में जब होता है, तब सभी चेतना संपन्न व्यक्ति एक धरातल पर आ जाते हैं। तभी ऐक्य की बात सही हो पाती है। उससे पहले खंड खंड एकतायें हैं, जिनमे मात्र क्षणिक सुख है, आनंद चेतनगत एकता के बाद ही संभव है। 🙏🙏 २४/१०/२३ ज्ञान एवं कर्म की दस इंद्रियां हैं और उनके दस देवता हैं- कान के देव दिशा, चक्षु के सूर्य, नासिका के अश्विनी कुमार, रसना के वरुण, त्वचा के वायु, वाणी के अग्नि, हस्त के इंद्र, चरण के उपेंद्र (विष्णु), उपस्थ के प्रजापति, निवृत्ति इंद्रिय के मृत्यु। यह दस देवताओं का योग करने और दसों इंद्रियों का निग्रह करने के कारण भगवान को हृषिकेश कहा जाता है। दसों इंद्रियों का निरोध करने के कारण दशहरा पर्व हुआ। इस अवसर पर राम चेतना का उदय और रावण वृत्तियों का शमन होता है। दशहरा पर्व नव रात्र साधना के पश्चात् आता है, अर्थात् नव द्वारों से पार कर दशम द्वार तक पहुँचा जा सकता है। दशम द्वार में प्रविष्ट होने ही बाद ही बीस दिन बाद दीप ज्योति प्रकाशित होती है यानि दीपावली आती है। आप सबको दशहरा पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ🌹🙏 योग वासिष्ठ भारतीय वांगमय की अद्भुत रचना है। आध्यात्म जगत् के जितने पुरस्कर्ता हुए हैं, यह रचना उन सबमें समादृत है। कहते हैं इसे वाल्मीकि ने लिखा, आठ वर्ष के राम के प्रश्नों के उत्तर देने के फलस्वरूप महर्षि वशिष्ठ द्वारा मूल रूप से इसकी रचना हुयी है। महर्षि वशिष्ठ की इस रचना का संकलन महर्षि वाल्मीकि द्वारा किया गया। इसे महारामायण कहा गया है। रामायण में जो बात प्रबंध गाथा के माध्यम से समझायी गई है, उसे इसमें छोटी छोटी कथाओं के माध्यम से दिया गया है। भगवान राम और सीता की कथा इसमें नहीं है, परंतु दो पंक्तियों में निबद्ध गूढ़ ज्ञान को सरलता से प्रस्तुत किया गया है। इसमें कोई योग संबंधी आसन और प्राणायाम की विधियाँ नहीं हैं, फिर भी इसे योग कहा गया। इस रामायण का जन सामान्य में वाल्मीकीय या तुलसी रामायण की भाँति प्रचार प्रसार न हो सका। पर यही रामायण हिंदी गद्य की जनक बनी। रामप्रसाद निरंजनी ने पटियाला की देसो रानी को सुनाने के बाद भाषा योग वासिष्ठ नाम से १७४१ में इसे प्रकाशित कराया। यह हिंदी की पहली गद्य रचना है। एक और रामप्रसाद बंगाल में हुए, अद्भुत गीतकार, उनके रचे गीत वहाँ के लोक में लोकगीतों और भजनों की तरह गाये जाते हैं। वहाँ के अन्य संत रामप्रसाद जी को उल्लिखित करते हुए माता के गीत गाते हैं। फोर्ट विलियम कालेज की स्थापना सन् १८०० से पूर्व और लल्लू जी लाल की प्रसिद्ध रचना प्रेमसागर से पूर्व भाषा योग वासिष्ठ लिखा गया। योग वासिष्ठ संस्कृत में ३० हज़ार श्लोकों में निबद्ध बहुत बड़ी रचना है। यह रामायण से भी बड़ी रचना है। मूल महाभारत (जय) में भी २४ हज़ार श्लोक ही थे। अब महाभारत में एक लाख श्लोक हो गए हैं। देश की उत्तर से लेकर दक्षिण तक की अन्य भाषाओं और दुनिया के देशों तक यह योग वासिष्ठ प्रसारित हुई, पर हिंदी समाज में यह उतनी नहीं जानी जा पायी। योग वासिष्ठ की ही तरह अष्टावक्र गीता को भी हिंदी पट्टी समाज में उतना स्थान नहीं मिल पाया है। दोनों ग्रंथ पाठक को समृद्ध करते हैं। २६/१०/२३ और गहरी और गहरी उतरी हो बाबुशा। द्रष्टा या साक्षी भी कहाँ रहेगा! दृश्य या हुब्ब ही जब हो रहा हो। दृश्य में ही जब द्रष्टा सिमट गया हो। यह तथाता है, सा काष्ठा सा परमगति। तुम्हारी गति प्रणम्य है, स्तुत्य है🌹🙏❤️ २७/१०/२३ बाह्य कर्मकांड अज्ञान का विनाश नहीं कर सकता, क्योंकि ये दोनों परस्पर विरोधी नहीं हैं। शंकराचार्य अपरोक्षानुभूति में लिखते हैं `केवल अनुभूत ज्ञान ही अज्ञान को नष्ट करता है...प्रश्न विचार के अतिरिक्त किसी और उपाय से ज्ञान नहीं मिलता। मैं कौन हूं? यह सृष्टि कैसे उत्पन्न हुई? इसका सृष्टा कौन है? इसका भौतिक कारण क्या है? इस प्रकार के प्रश्नों से यहां तात्पर्य है। बुद्धि के पास इन प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं है, इसीलिए ऋषियों ने ऐसे आध्यात्मिक प्रश्न विचार के लिए योग को विकसित किया। भगवद्गीता में जिस यज्ञ की महिमा का वर्णन किया गया है, वह यज्ञ क्रियायोग ही है। एकमेव अद्वितीय ईश्वर को समर्पित अद्वैत के हवन में योगी अपनी समस्त मानवीय इच्छा वासनाओं की आहुति डाल देता है, यही वस्तुतः सच्चा यज्ञ है जिसमें ईश प्रेम की ज्वाला में सारी गत वर्तमान इच्छा वासनाऐं जलकर राख हो जाती हैं। “ ‘‘परम ज्वाला’’ सभी मानवीय पागलपनों की आहुति स्वीकार कर लेती है और मनुष्य मलरहित होकर शुद्ध हो जाता है। लाक्षणिक तौर पर कहा जाय तो उसकी अस्थियों से वासनाओं का सारा मांस अलग हो जाता है, उसके कर्मों का अस्थिपंजर ज्ञानसूर्य की निर्जीवाणुकारी किरणों में सूखकर साफ हो जाता है और अंतत: पूर्ण शुद्ध-स्वच्छ बनकर वह मानव एवं भगवान की दृष्टि में निरापद बन जाता है।” क्रियायोग विज्ञान, अध्याय २६ योगी कथामृत यदेवेह तदमुत्र यदमुत्र तदन्विह । मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति ॥ What is here, the same is there and what is there, the same is here. He goes from death to death who sees any difference here. 
  'जो परब्रह्म यहां (है), वही वहां (परलोक में भी है)। जो वहां (है), वही यहां (इस लोक में) भी है। वह मनुष्य मृत्यु से मृत्यु को (अर्थात बारंबार जन्म-मरण को) प्राप्त होता है, जो इस जगत में (उस परमात्मा को) अनेक की भांति देखता है। हम इस जगत को अनेक की भांति देखते हैं। वृक्ष, पत्थर अलग, आप अलग, मैं अलग, पड़ोसी अलग; सब अलग; सब टूटे हुए, खंड-खंड। हमारी हालत ऐसी है जैसे रात चांद निकले और जमीन पर हजारों डबरे हैं, झीलें हैं, पानी के सरोवर हैं, और सब में चांद दिखाई पड़ता है। एक ही चांद होता है आकाश में, लेकिन सब पानी में हजारों-लाखों प्रतिबिंब बनते हैं, और हम एक-एक प्रतिबिंब को गिनते फिरें, और सोचें कि कितने चांद हैं! और नजर न उठाएं उस एक की तरफ, जिसके सब प्रतिबिंब हैं। इस जगत में जितना भी अस्तित्व है, जितने रूप हैं, वे एक के ही प्रतिबिंब हैं। आपके भीतर, एक सरोवर की भांति आपकी चेतना में, उस एक की ही छाया बनी है। यह सूत्र कहता है, जो यहां अनेक की भांति देखता है, वह भटकता है जन्म-मरण में। जो यहां भी एक की भांति देख लेता है उसे, वह तत्क्षण मुक्त हो जाता है। एक को पहचान लेना परम ज्ञान है। अनेक को देखते रहना अज्ञान है। पूजा वह, जो पवित्रता या प्यूरिटी उत्पन्न करे। प्रसाद का अर्थ है, जिसे प्रभु के सम्मुख रखा जाए। प्र का अर्थ है पार होना। पु स्वच्छ या पवित्र करने के आशय में आता है, पुष्प में पुस है, यानि जो पवित्रता को पोषण दे। पुण्य में भी पवित्रता ही झांक रही है। पुत्र यानि जो पवित्रता का रक्षण करता है। सभी पूर्णिमा और उनका प्रयोजन आश्विन पूर्णिमा - शरद पूर्णिमा, कोजागरी लक्ष्मी पूजा, टेसू पूनै, वाल्मीकि जयंती, कुमार पूर्णिमा, मीराबाई जयंती कार्तिक पूर्णिमा - देव दिवाली, पुष्कर मेला, गुरुनानक जयंती मार्गशीर्ष पूर्णिमा - अन्नपूर्णा जंयती, दत्त जयन्ती पौष पूर्णिमा स्नानदान और सूर्य को अर्घ्य माघ पूर्णिमा - रविदास जयंती, ललिता जयंती, मासी मागम, श्री भैरव जयंती फाल्गुन पूर्णिमा - होली / चैतन्य महाप्रभु जयंती / गौर पूर्णिमा, वसंत पूर्णिमा चैत्र पूर्णिमा - श्री हनुमान जन्मोत्सव वैशाख पूर्णिमा - बुद्ध पूर्णिमा ज्येष्ठ पूर्णिमा भगवान विष्णु चंद्र और बरगद के पेड़ की पूजा का दिन आषाढ़ पूर्णिमा - गुरू पूर्णिमा, व्यास पूर्णिमा श्रावण पूर्णिमा - रक्षाबन्धन, नारली पूर्णिमा भाद्रपद पूर्णिमा पितृ पक्ष आरंभ पाप का अर्थ होता है, जो आपके मार्ग को अवरुध्द कर दे, आपके जीवन की प्रगति रोक दे। मनुष्य पाँच तत्वों से बना है, भूत प्रेत चार तत्वों से बने होते हैं, इनमें पृथ्वी तत्व नहीं होता है। देवताओं का शरीर तीन और दो तत्वों से बना होता है। परमात्मा सिर्फ आकाश तत्व से बना होता है। परमात्मा को आकाश तत्व में निबद्ध मानते हैं, पर वह देखने की अभीप्सा के कारण है। वह आकाश से बाहर भी है। अदृश्य, उस आकाश के अन्यान्य नाम दिये जाते हैं, चिदाकाश, अन्तराकाश आदि। २९/१०/२३ what is love? love is the absence of judgement.. dalai lama आचार्य प्रशांत और सद्गुरू जग्गी वासुदेव द्वारा मंत्र पर... प्रशांत जी मंत्र के अर्थ को जानने पर बल देते हैं और सद्गुरू मंत्र के अर्थ को जानना आवश्यक नहीं कहते हैं। दोनों सही हैं। कोई ग़लत नहीं। मंत्र का अर्थ जानना प्रारंभिक प्रक्रिया है, फिर उस मंत्र में प्रविष्ट होने के बाद उसके अर्थ में बाहर भीतर कुछ बचता नहीं। शब्द एक है, अर्थ अनेक। आप अर्थ के सहारे शब्द तक पहुँचें या शब्द सत्ता में प्रवेश कर जाएँ, अपनी अपनी सामर्थ्य और गुरु कृपा है। ३०/१०/२३ कर्मकांड निष्णात आचार्यों के पास बहुमूल्य धरोहर है, उन्हें इसका पता हो, न हो। नौकरी की उपाधियाँ तभी महत्वपूर्ण हैं, जब उनसे आत्म का आलोचन होता हो। नौकरी तो इस उद्देश्य से की जा रही है कि ऊपर से कितना कमा लिया जाता है, ऐसे लोग स्वयं और समाज दोनों के लिए सिरदर्द हैं। जब तक व्यक्तित्व का रूपांतरण नहीं होता, कुछ उपयोगी नहीं रहेगा। संसार जैसा सब सरकता ही रहेगा। गौ और गंगा गाय और एक नदी में आरोपित किए गए, क्या भाषा के प्रभाव से। चाहे जिस प्रभाव से ऐसा हुआ हो, पर योग के बल से यह समझ आता है कि गं का अर्थ चलने से है, सदा गंतव्यमुखी चलने का नाम चिति है। यह चिति या जिसे दूसरे शब्दों में चेतना कहते हैं, मनुष्य को मनुष्य बनाती है। इसके प्रतीक ही गंगा, गो, गया और गायत्री हैं। इन्हें भौतिक प्रतीकों में तभी जान सकते हैं, जब वे अनुभव में उतर गए हों। अनुभव में उतार लेना ही ज्ञान की परिणति है, उसका सुफल है। तभी व्यक्ति भक्ति को प्राप्त होगा और तभी वह कर्मयोगी बन पाएगा।