Friday, July 1, 2022

१/६/२२ बिना पूर्ण विश्वास और श्रद्धा के किसी आध्यात्मिक प्रथा में निष्ठा रखना पाखंड है. किसी प्रथा के बाह्य कर्मकांड से चिपके बिना, उसके पीछे विद्यमान सत्य में निष्ठा का होना विवेक है। परंतु आध्यात्मिक प्रथा, सिद्धांत, गुरु, इनमे से किसी के भी प्रति निष्ठा न होना आध्यात्मिक पतन है. ईश्वर और उनके दूत का साथ न छोड़िए, तब आप प्रत्येक वस्तु में उनके हाथ को कार्यरत देखेंगे. योगदा सत्संग पत्रिका. १७ मई आध्यात्मिक दैनंदिनी 2/6/22 स्त्री के गर्भ में आने के बाद शैशव, यौवन और वृद्धावस्था से होते हुए हिरण्यगर्भ में पहुँचने की यात्रा का नाम अध्यात्म है. हिरण्यगर्भ में पहुँचने के बाद वापस नहीं आना एक योगी का लक्ष्य होता है. जिस प्रकार एक शिशु माता के वक्ष से लिपटकर दूध पीते हुए आनंद लेता है, एक आध्यात्मिक या आत्मदर्शी व्यक्ति उसी आनंद से पूरे जीवन रहा करता है. तत त्वं असि! ऋषि उद्दालक और श्वेतकेतु का संवाद: छान्दोग्योपनिषद् की एक कथा है। बात उस समय की है जब धोम्य ऋषि के शिष्य आरुणी उद्दालक का पुत्र श्वेतकेतु गुरुकुल से शिक्षा प्राप्त करके अपने घर आया। एक दिन पिता आरुणी उद्दालक ने श्वेतकेतु से पूछा, “श्वेतकेतु! अभी और वेदाभ्यास करने की इच्छा है या विवाह?” पिता की यह बात सुनकर श्वेतकेतु बड़े गर्व से बोला, “एक बार राजा जनक की सभा को जीत लूँ, उसके बाद जैसा आप उचित समझे।” अपने पुत्र के मुँह से ऐसे अहंकार से युक्त वचन सुनकर ऋषि उद्दालक सहम से गए। वह बिना कुछ कहे वहाँ से उठकर चल दिए। श्वेतकेतु अपनी ही मस्ती में घर से निकल गया। तब श्वेतकेतु की माँ ने ऋषि उद्दालक का चेहरा पढ़ लिया और पूछा, “आप ऐसे सहमे हुए से क्यों हैं?” तब व्यथित होते हुए ऋषि उद्दालक बोले, “श्वेतकेतु की राजा जनक की सभा को जीतने की लालसा ही बता रही है कि उसने वेदों के मर्म को नहीं समझा। वह केवल शाब्दिक शिक्षाओं का बोझा ढोकर आया है। वह जब घर आए तो उसे मेरे पास भेजना।” इतना कहकर ऋषि उद्दालक अपने अध्ययन कक्ष की ओर चल दिए। जब श्वेतकेतु घर आया तो उसकी माँ ने उसे पिता के पास जाने के लिए कहा। पिता के पास जाकर श्वेतकेतु बोला, “तात! आपने मुझे बुलाया?” ऋषि उद्दालक बोले, “हाँ! बैठो! इतना कहकर वह अपना काम करने लगे।” श्वेतकेतु से धैर्य नहीं रखा गया अतः वह बोला, “तात! आपने मुझे क्यों बुलाया?” तब ऋषि उद्दालक बोले, “श्वेतकेतु! मुझे नहीं लगता कि तुमने वेदों का मर्म समझा है! क्या तुम उसे जानते हो, जिसे जानने से, जो सुना न गया हो, वो सुनाई देने लगता है। जिसका चिंतन नहीं किया गया हो, वो चिंतनीय बन जाता है। जो अज्ञात है, वो ज्ञात हो जाता है।” तब श्वेतकेतु बोला, “तात! मेरे महान आचार्यों ने मुझे इसकी शिक्षा नहीं दी। यदि वे जानते होते तो उन्होंने मुझे इसकी शिक्षा अवश्य दी होती। अतः आप ही मुझे इस बारे में बताएँ?” यह सुनकर तथा श्वेतकेतु की जिज्ञासा को जानकर ऋषि उद्दालक श्वेतकेतु को घर से बाहर ले गए। ऋषि आरुणि उद्दालक श्वेतकेतु को लेकर एक पेड़ के नीचे बैठ गए और कुछ मिट्टी उठाते हुए बोले, “श्वेतकेतु! जिस तरह जब तुम मिट्टी को जान लेते हो, तब तुम मिट्टी से बने सभी बर्तनों को जान लेते हो कि वह भी मिट्टी स्वरूप ही है। जब तुम स्वर्ण को जान लेते हो, तब तुम स्वर्ण से बने सभी स्वर्णाभूषणों को जान लेते हो। उसी तरह अब तुम ही बताओ? क्या है वह मूलभूत तत्व, जिसको जान लेने से तुम सबको जान लेते हो, जिससे यह सम्पूर्ण जगत बना है।” जिज्ञासु दृष्टि से श्वेतकेतु बोला, “मैं नहीं जानता! तात।” तब आरुणि उद्दालक बोले, “वह सर्वोच्च सत्य सत् है, अस्तित्व है, चेतना है। इसी चेतना से नाम और रूप के सारे संसार ने जन्म लिया है। जैसे स्वर्ण ही स्वर्णाभूषण है, मिट्टी ही मिट्टी का घड़ा है। वैसे ही चेतना या अस्तित्व ही सबकुछ है। इसलिए तुम वही सत् चेतना हो। तत त्वं असि = तत्वमसि।” तत्वमसि यह एक महावाक्य है जो यह घोषणा करता है कि “तुम वो ही हो, जो तुम खोज रहे हो।” यह साधक और साध्य के एक्य को दर्शाता है। इसी महावाक्य के माध्यम से आचार्य अपने शिष्य को उपदेश करता है, “वह तुम ही हो जो तुम खोज रहे हो!” श्वेतकेतु की ब्रह्म जिज्ञासा को देखकर आचार्य उद्दालक उसे फूलों के एक बगीचे में ले गए और बोले, “यहाँ विभिन्न फूलों से शहद इकठ्ठा कर रही मधुमखियों को देख रहे हो श्वेतकेतु?” श्वेतकेतु, “हाँ! तात।” आचार्य उद्दालक, “छत्ते में मिलने के बाद क्या वो शहद कह सकता है कि मैं उस फूल का हूँ और मैं उस फूल का हूँ?” श्वेतकेतु, “नहीं तात!” आचार्य उद्दालक, “ उसी तरह जब कोई व्यक्ति उस शुद्ध चेतना के साथ एक हो जाता है तो उसकी व्यक्तिगत पहचान खत्म हो जाती है। ठीक उसी तरह जैसे सागर में मिलने के बाद नदियाँ अपना अस्तित्व खो देती हैं। वह चेतना ही है जो सबको जोड़ती है। जिससे तुम, मैं और यह सब चराचर जगत बना है।” तब श्वेतकेतु बोला, “लेकिन तात! एक सत या चेतना से ही विविधता से भरे इस जगत की उत्पत्ति कैसे हुई?” आचार्य उद्दाक बोले, “जाओ! कहीं से बरगद के वृक्ष का फल लेके आओ।” श्वेतकेतु फल लाता है तो आचार्य उद्दालक उसे तोड़ने को कहते हैं और पूछते हैं कि इसमें क्या है? श्वेतकेतु कहता है, “इसमें बहुत सारे छोटे-छोटे बीज हैं।” तब आचार्य उद्दालक बोलते हैं, “इसके किसी एक बीज को तोड़के देखो, उसमें क्या है?” जब श्वेतकेतु ने छोटे से बीज को तोड़के देखा तो बोला, “यह इतना सूक्ष्म है कि इसे देख पाना संभव नहीं! तात।” तब आचार्य उद्दालक बोले, "यह सूक्ष्म बीज, जिसे तुम देख नहीं सकते। इसी से विशालकाय बरगद का वृक्ष अपनी विभिन्न शाखाओं और फूलों को लेकर उत्पन्न होता है। उसी तरह उस शुद्ध चेतन तत्व, (जिसे तुम देख नहीं सकते) से ही विविधता से भरा यह जगत उत्पन्न होता है।” इसके बाद आचार्य उद्दालक ने श्वेतकेतु को एक लोटे जल में नमक घोलकर लाने के लिए कहा और श्वेतकेतु से लोटे की उपरी सतह से जल पीने को कहा और पूछा, “कैसा है?” जल नमकीन था। फिर उसे लोटे के बीच का जल पीने को कहा। वो भी नमकीन था। अंत में उन्होंने उसे पैंदे का जल पीने को कहा। वो भी नमकीन था। तब आचार्य उद्दालक बोले, “जिस तरह दिखाई नहीं देते हुए भी जल की प्रत्येक बूँद में नमक है। उसी तरह दिखाई नहीं देते हुए भी सभी जगह वही चेतना विद्यमान है। वो मुझमें भी है, वही तुम हो। तत त्वं असि।” इस तरह ऋषि उद्दालक ने श्वेतकेतु को दैनिक जीवन के उदहारण लेकर “तत त्वं असि” महावाक्य की नौ बार उद्घोषणा की। जब तक कि श्वेतकेतु इसके अर्थ को हृदयंगम नहीं कर लिया। यह प्रसंग छान्दोग्योपनिषद् के छठवें अध्याय में वर्णित है। आनंदमस्तु! ऊँ तत् सत्। Tathastu प्रणाम! Sakshi Prem 10/6/22 उपनिषदों में ब्रह्म की ज्ञान शक्ति को गायत्री कहा गया है और क्रिया शक्ति को सावित्री। जड़ चेतनमय सृष्टि में ज्ञान और क्रिया दोनो की अनिवार्यता है और ब्रह्म में ही दोनो शक्तियां निहित हैं। व्रतों और त्योहारों में कहीं वेद और उपनिषदों की उक्तियाँ झांकती अवश्य हैं, रूप चाहे जितने बदल गए हों। आज वट सावित्री अमावस्या का दिन है। 10/6/21 फ़ेसबुक पोस्ट जब आप अपने हृदय में ईश्वर को अनुभव करना प्रारम्भ करेंगे, तो आप विश्व सभ्यता के प्रति इतना योगदान करेंगे, जितना किसी राजा अथवा किसी राजनीतिज्ञ ने पहले कभी नहीं किया होगा। गुरुदेव। किसी की कोई चीज पसंद नहीं है तो उसकी अवज्ञा मत करो सोचो ठाकुर ने उसे भी पैदा किया है वही उसे इस संसार मे लाया है । माँ सारदा कहत कठिन समुझत कठिन साधत कठिन बिबेक। होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्यूह अनेक॥ भावार्थ ज्ञान कहने (समझाने) में कठिन, समझने में कठिन और साधने में भी कठिन है। यदि घुणाक्षर न्याय से (संयोगवश) कदाचित यह ज्ञान हो भी जाए, तो फिर (उसे बचाए रखने में) अनेकों विघ्न हैं॥ कोऊ कह सत्य झूठ कह कोऊ जुगल प्रबल कोऊ माने तुलसीदास परिहरै तीनि भ्रम सो आपन पहिचाने। पैग़म्बर मोहम्मद का बड़ा सामाजिक योगदान है कि उन्होंने अपने समय के लड़ने वाले कबीलों को इकट्ठा किया. उन्हें अनुशासित किया. उनकी तपस्या से उन पर क़ुरान आयत्त हुयी. उसकी व्याख्या को लेकर उसी तरह के मतभेद हैं जैसे वेदों के विभिन्न भाष्य हुए हैं. कई व्याख्याये या भाष्य होने से क़ुरान या वेदों का महत्व तो नहीं घट जाएगा. मुश्किल उन लोगों से है जो न क़ुरान समझते हैं और न वेद ही. न समझ पाएँ, पर समझने वालों और उनके आचरण से ही सीख लें. 🙏 संसार की गति एक रेखीय नही होती. अतीत वर्तमान और भविष्य की भाँति भी नहीं और न उसका पूर्वापर क्रम निर्धारित किया जा सकता है. यह सब एक समय में ही घटित हो रहे हैं, किसे आगे और किसे पीछे कहा जा सकता है. इस समय को हम क्षण नाम देते हैं. इस क्षण में ही ईश्वर द्वारा सृष्टि, स्थिति और लय ही नहीं, पिधान और अनुग्रह भी घटित हो रहे हैं. इन सब ईश्वरीय विधानों को पृथक पृथक देखना-समझना ही बोध प्राप्त करना है. १२/६/२२ नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन, एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन। राजा भर्तृहरि ने कहा है- भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद्भयं माने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जराया भयं। शास्त्रे वादिभयं गुणे खलभयं काये कृतांताद्भयं सर्व वस्तु भयान्वितम भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयं।। अर्थात : विषयों के भोग में रोग का भय बना रहता है, कुल में आचार से भ्रष्ट होने का भय, धन-संचय में राजा द्वारा छीन लिये जाने का भय, मान-सम्मान में अपमानित होने का भय, शौर्य-वीरता में शत्रु से हार जाने का भय, शारीरिक सौंदर्य में वृद्धावस्था का भय, शास्त्रों के पांडित्य में प्रतिवादी से पराजित होने का भय, विद्या-विनय-दान-धर्म आदि सद्गुणों में दुष्टों द्वारा निंदा का भय और शरीर धारण के विषय में यम अर्थात मृत्यु का भय बना रहता है। इस प्रकार संसार में मनुष्यों के लिए सारी वस्तुएं ही भय से परिपूर्ण हैं, एकमात्र वैराग्य यानि इन सबसे अपने को समेटने की प्रक्रिया ही अभय प्रदान करने वाला है। परा और अपरा दो विद्याएँ बताई गयी हैं. स्वयं वेद अपरा विद्या हैं, पर उनमें परा विद्या भी मिलती है. सब कुछ बड़ा मिश्रित है. खोजने और पाने की पात्रता विकसित करनी होगी. ईशोपनिषद में विद्या और अविद्या को साथ साथ जानना आवश्यक कहा गया है. मुंडक उपनिषद की स्पष्ट घोषणा है... तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति । अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते ॥ मुंडक उप १/१/५ ॥ 5. Of these, the Apara is the Rig Veda, the Yajur Veda, the Sama Veda, and the Atharva Veda, the siksha, the code of rituals, grammar, nirukta, chhandas and astrology. Then the para is that by which the immortal is known.  अष्टावक्र उवाच । आचक्ष्व शृणु वा तात नानाशास्त्राण्यनेकशः । तथापि न तव स्वास्थ्यं सर्वविस्मरणादृते ॥ १६/१ ॥ aṣṭāvakra uvāca | ācakṣva śṛṇu vā tāta nānāśāstrāṇyanekaśaḥ | tathāpi na tava svāsthyaṃ sarvavismaraṇādṛte || 1 || Ashtavakra: My son, you may recite or listen to countless scriptures, but you will not be established within until you can forget everything. 14/6/22 शक्ति के विद्युतकण जो व्यस्त, विकल बिखरे हैं, हो निरूपाय: समन्वय उसका करें समस्त, विजयिनी मानवता हो जाय। (i) हरि , तुम बहुत अनुग्रह कीनों । साधनधाम विबुध दुर्लभ तन मोहि कृपा करि दीनों । तुलसी 16/6/22 वर्षा ईश्वर का वीर्य हैं. बूँदे गिरते समय और उनकी नमी से ही कितने जीवों का पुनरागमन हो जाता है. औषधियाँ और पादप बनते हैं, वे हमारे लिए अन्न बनते हैं. अंत में हम भी किसी का अन्न बन जाते हैं. १७/६/२२ इंद्र व्यक्तिगत आत्मा को कहते हैं. वही सब देवताओं का अधिपति है. श्री अरबिंदो इंद्र को गिवर ओफ़ लाइट कहते हैं. यह व्यक्तिगत आत्मा जब दृश्य देखने का काम करती है तो उसे इंद्रिय कहते हैं. संस्कृत भाषा में इदं यह को कहते हैं द्र का अर्थ देखने से है, वह जो देखता है इंद्र कहलाता है. इदंद्र का संक्षिप्तीकरण इंद्र रूप में हुआ है. ध्यान में देखे अनदेखे मंदिर और विग्रह दर्शन हो रहे हैं. क्षितिज में चमकते तैरते तारों के बीच पाते हैं. सिर के ऊपरी भाग में तरावट रहती है. शरीर याद कदा स्फुरित होता रहता है. बहुत से अनुभव लिखना चाहते तब भी लिखते समय भूल जाते हैं. फिर अगली बैठकी में उन्हें लिखने का प्रयास करते हैं, पर तब तक नया अनुभव आ जाता है, वह अनुभव तिरोहित ही रहता है. हिमालय के बद्रीनाथ क्षेत्र में शंकर और पार्वती निवास करते थे। एक दिन अचानक एक बालक उनके सम्मुख आया। पार्वती ने उसे उठाकर संभालने की इच्छा प्रकट की, पर शंकर ने रोका कि यह साधारण बालक नही है, अन्यथा इसके माता पिता के पदचिह्न बर्फ पर दिखते। पार्वती नही मानी, बालक की सम्भाल करने लगीं। एक दिन जब पार्वती और शंकर बाहर निकले और घर वापस आये तो बालक ने कुंडी लगा दी और खोली नहीं। मजबूरन शंकर पार्वती को अपना स्थान बदलना पड़ा और केदारनाथ जाकर रहने लगे। हिमालय की यात्रा कुछ पाने के लिए नही की जाती, वरन वहां जाकर संसार के सारे पदार्थ हिमालय के सामने बौने दिखने लगते हैं। यही इस यात्रा का निहितार्थ है। बद्रीनाथ और गंगोत्री के लिए अब मोटर वाहन सुलभ हो गए हैं, पर पहले लोग वहां पैदल जाते थे। बद्रीनाथ की यात्रा में वहां से पच्चीस किमी पूर्व गोविद घाट से अद्भुत दृश्य और शांति प्राप्त होती है। इस क्षेत्र को लोग विश्व के सभी क्षेत्रों से विरल मानते हैं। गोविंद घाट से ही सिखों के पवित्र हेमकुंड सरोवर की यात्रा आरम्भ होती है। आदि जगतगुरु आचार्य शंकर ने हज़ारो वर्ष पहले सुदूर दक्षिण के केरल में जन्म लेकर हिमालय की तीन हज़ार किमी से अधिक की यात्रा तीन बार पूरी की। यही नहीं, उन्होंने पूर्व से पश्चिम की यात्रा भी एक बार पूरी करके देश मे चार पीठें स्थापित की। यह कार्य उन्होंने कोई सम्प्रदाय या धर्म निर्मित करने के लिए नही किया, वरन सनातन धर्म को मौलिकता प्रदान करते हुए पुनर्स्थापित किया। आदि शंकराचार्य द्वारा सर्वप्रथम हिमालय के जोशीमठ (ज्योतिर्मठ) में पीठ स्थापित की गई। दुर्भाग्यवश, यही पीठ आजकल विवादित हो गयी है। इस पीठ पर शारदा पीठ के शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती और वासुदेवानंद सरस्वती के बीच अवर न्यायालय और हाइकोर्ट से होते हुए मुक़दमा सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है। वर्तमान में स्वरूपानंद जी ने कुछ ज़मीन लेकर मन्दिर और अन्य स्थापत्य निर्मित कर लिए, इसी से सटे क्षेत्र पर ऊपर पुराने भवन में वासुदेवानंद जी की पीठ चल रही है। स्वरूपानन्द जी पर आरोप है कि वह बद्रीनाथ क्षेत्र की पीठ हथियाने के लिए अपने को गुरु ब्रह्मानंद सरस्वती की जगह बोधाश्रमजी का शिष्य बताने लगे। ब्रह्मानंद जी के बाद शांतानंद और एक अन्य शंकराचार्य इस पीठ को सुशोभित किये और फिर वासुदेवानंद जी आसीन हुए। स्वरूपानन्द जी ब्रह्मानंद जी के बाद बोधाश्रम जी और फिर स्वयं पीठाचार्य बताते हैं। जो हो, लेकिन इस विवाद से नुकसान पहुच रहा है। यही नहीं आदि शंकराचार्य ने भारत की एकता और अखंडता के लिए बद्रीनाथ मंदिर की पूजा के लिए केरल के नंबूदरी ब्राह्मणों को नियुक्त किया। नंबूदरियो कि सहायता के लिए गढ़वाली ब्राह्मण रहते हैं। उनका दावा है कि इन दोनों शंकराचार्यो का दावा झूठा है यह तो नम्बूदरी ब्राह्मणों की पीठ है। परम्परा में भगवान बद्रीनाथ का स्वरूप जैसा मिलता है, उससे किंचित भिन्न यहां बद्रीनाथ पद्मासन में ध्यान करते हुए बिराजे हैं। हाथ चार ही हैं। दो अलग अलग हाथो में शंख और चक्र पर दो अन्य नीचे के हाथ ध्यान दशा में परस्पर मिले हुए हैं। इस स्वरूप से यह भी स्पष्ट है कि योग और ध्यान अपनी परम्परा में अति प्राचीन विधियां हैं। कहा जाता है भगवान विष्णु ध्यान करते गए और पत्नी लक्ष्मी ने बदरी पेड़ का रूप धारण कर उन्हें छाया प्रदान की, इससे वह बद्रीनाथ हुए। बद्री को बेर के पेड़ के रुप में जनसामान्य जानता है, पर बदरी बेर से भिन्न एक अन्य पेड़ हैं, यद्यपि वह पेड़ भी आजकल यहां मौजूद नहीं हैं। उत्तराखंड के चार धामों की यात्रा का क्रम यमुनोत्री से शुरू होता है। यमुना का उद्गम स्थल यमुनोत्री है। यमुना सूर्य की पुत्री हैं, इनका भाई यम है, पर माता अलग अलग हैं। यम के श्राप या दुःख को बहिन यमुना ने दूर किया था। यमी का उल्लेख वेद में भी है। इसलिए व्यक्ति असामयिक मृत्यु और उसके भय को दूर करने यहां आते हैं। गंगोत्री में व्यक्ति के पूर्वजों को भी मुक्त कर दिया जाता है, जैसा भागीरथ के प्रयासों से उनके पूर्वज राजा सगर के साठ हज़ार पुत्रों का उद्धार करने की कथा सर्वविदित है। गंगा का उद्गम स्थल गोमुख है। ग्लेशियरों से नदियां निकलती हैं। गंगा का ग्लेशियर गाय के मुख की आकृति की भांति है। गौमुख गंगोत्री से पैदल 18 किमी है और सरकार की अनुमति के बिना यहां नही जाया जा सकता है। यमुनोत्री और गंगोत्री के बाद केदारनाथ के दर्शन किये जाते हैं। केदारनाथ के पुजारी कर्नाटक के वीर शैव सम्प्रदाय के आचार्य हैं। केदारनाथ ज्योतिर्लिंग की आकृति भी प्रचलित शिवलिंग से भिन्न है। उत्तराखण्ड के चार धामों में अंत मे बद्रीनाथ की यात्रा सम्पन्न होती है। भगवान की पूजा उपासना में श्रृंगार इतना अधिक कर दिया जाता है कि उनका मूल स्वरूप ढंक जाता है। इससे लोगों को स्वरूपों की विलक्षणता पता नही लग पाती है। ओरछा में भी रामराजा पद्मासन में बिराजे हुए हैं और उनके दरबार मे दुर्गा माता भी विद्यमान हैं...१८ जून २०१९ फ़ेसबुक से * सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका॥ बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे॥3॥ भावार्थ:-शौर्य और धैर्य उस रथ के पहिए हैं। सत्य और शील (सदाचार) उसकी मजबूत ध्वजा और पताका हैं। बल, विवेक, दम (इंद्रियों का वश में होना) और परोपकार- ये चार उसके घोड़े हैं, जो क्षमा, दया और समता रूपी डोरी से रथ में जोड़े हुए हैं॥3॥ * ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना॥ दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा। बर बिग्यान कठिन कोदंडा॥4॥ भावार्थ:- ईश्वर का भजन ही (उस रथ को चलाने वाला) चतुर सारथी है। वैराग्य ढाल है और संतोष तलवार है। दान फरसा है, बुद्धि प्रचण्ड शक्ति है, श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष है॥4॥ * अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना॥ कवच अभेद बिप्र गुर पूजा। एहि सम बिजय उपाय न दूजा॥5॥ भावार्थ:-निर्मल (पापरहित) और अचल (स्थिर) मन तरकस के समान है। शम (मन का वश में होना), (अहिंसादि) यम और (शौचादि) नियम- ये बहुत से बाण हैं। ब्राह्मणों और गुरु का पूजन अभेद्य कवच है। इसके समान विजय का दूसरा उपाय नहीं है॥5॥ * सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें॥6॥ भावार्थ:- हे सखे! ऐसा धर्ममय रथ जिसके हो उसके लिए जीतने को कहीं शत्रु ही नहीं है॥6॥ sufficient precision, thus: — Principle 1. Pure Existence — Sat 2. Pure Consciousness — Chit 3. Pure Bliss — Ananda 4. Knowledge or Truth — Vijnana 5. Mind 6. Life (nervous being) 7. Matter World World of the highest truth of being (Satyaloka) World of infinite Will or con- scious force (Tapoloka) World of creative delight of existence (Janaloka) World of the Vastness (Maharloka) World of light (Swar) Worlds of various becoming (Bhuvar) The material world (Bhur) १९/६/२२ भगवान् कृष्ण का एक नाम है 'सत्कृति' भगवान् कृष्ण का एक नाम है 'सत्कृति'। सत्कृति का अर्थ है जो अपने भक्त के निर्याण (शरीर त्यागने के) समय में उसकी सहायता करते हैं। वराह पुराण में भगवान् हरि कहते हैं-- वातादि दोषेण मद्भक्तों मां न च स्मरेत्। अहं स्मरामि मद्भक्तं नयामि परमां गतिम्।। “यदि वातादि दोष के कारण मृत्यु के समय मेरा भक्त मेरा स्मरण नहीं कर पाता तो मैं उसका स्मरण कर उसे परम गति प्राप्त करवाता हूँ।“ मुकुंदमाला से.. कृष्ण त्वदीय पद पंकज पंजरान्तं अद्यैव मे विशतु मानस राज हंसः | प्राण प्रयाण समये कफ वात पित्तैः कंठावरोधनविधौ स्मरणम् कुतस्ते ।। हे कृष्ण! मेरा चित्तरूपी राजहंस आज ही आपके श्रीचरण रूपी कमल के केशर में जाकर प्रवेश करे, क्योंकि प्राण परित्याग के समय जब कफ, वायु तथा पित्त से कंठ अवरुद्ध हो जाएगा तब आपका स्मरण कैसे कर पाऊँगा. आदि शंकराचार्य कहते हैं बाल्ये दुःखातिरेको मललुलितवपु: स्तन्यपाने पिपासा नो शक्तश्चेन्द्रियेभ्यो भवगुणजनिता जन्तवो मां तुदन्ति । नाना रोगोत्थदुःखाद् रुदन परवशः शंकरं न स्मरामि क्षंतव्यो मे अपराधः शिव शिव शिव भोः श्रीमहादेव शंभो. आज अंतरराष्ट्रीय पितृ दिवस है। जिनके पिता जीवित नहीं हैं, उनका स्मरण तो आज वैसा ही हुआ, जैसा श्राद्ध कर्म में किया जाता है। कई व्यक्ति श्राद्ध को व्यर्थ बता देते हैं। कहीं यह कान घूमकर तो नहीं पकड़ा गया है। ऋग्वेद की एक ऋचा है.. ये अग्निदग्धा ये अनग्निदग्धा मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते । तेभिः स्वराळसुनीतिमेतां यथावशं तन्वं कल्पयस्व ॥ ॥ हमारे जिन पितरोंको अग्निने पावन किया है और जो अग्निद्वारा भस्मसात किये बिना ही स्वयं पितृभूत हैं तथा जो अपनी इच्छाके अनुसार स्वर्गके मध्यमें आनन्दसे निवास करते हैं । उन सभीकी अनुमतिसे, हे स्वराट् अग्ने ! ( पितृलोकमें इस नूतन मृतजीवके ) प्राण धारण करने योग्य ( उसके ) इस शरीरको उसकी इच्छाके अनुसार ही बना दो और उसे दे दो .२० जून २०२१ की फ़ेसबुक पोस्ट भागवत (1.3.28) में कहते हैं-- एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् | इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे || “ ये सब अवतार तो भगवान के अंशावतार अथवा कलावतार हैं, परन्तु भगवान श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान अवतारी ही हैं l २३/६/२२ मौलाना वाहिदुद्दीन की अनूदित पवित्र क़ुरान का विहगावलोकन किया, मौलाना साहब की भूमिका पूरी पढ़ी. इसमें कुछ ऐसा नहीं,क़ुरान में ऐसा कुछ नहीं, जिसे लेकर बखेड़ा खड़ा किया जाता है. ख़ुद मौलाना साहब ने कतिपय शंकाएँ उठाते हुए उनका निवारण इस भूमिका में किया है. गर्दन काटने और मारने की जो बातें क़ुरान में की गयी हैं, वे राज्य के लिए हैं, व्यक्ति के लिए नहीं. व्यक्ति अपना जिहाद शांतिपूर्वक किए गए आचरण से लड़ सकता है. हिंसक कार्यवाही की अनुमति राज्य के लिए ही है. कितनी सुखद अनुभूतियों को शब्दों में वर्णित नहीं कर सकते. बड़ी बड़ी अनुभूतियाँ शास्त्रों और गुरुदेव के ग्रंथों में आयी हैं, पर उनकी उन्हें आज्ञा रही, इसलिए वे आयी, मुझे न ऐसी आज्ञा है, न सामर्थ्य कि उन्हें व्यक्त कर पाएँ. २५/६/२२ कर्तृत्व की मूल कृति-- इच्छा नहीं । इच्छा का उदय पूर्व संस्कार से होता है ---- उस इच्छा की ओर yield करना या नहीं करना , यह कृति है । यही कृतित्व है । देवता कर्ता नहीं हैं ,उनकी देह कर्मदेह नहीं । क्योंकि उन्हें इच्छा होती है और उसी क्षण उसकी पूर्ति होती है । कृति का अवकाश नहीं रहता , प्रवृत्ति- निवृत्ति का अवकाश नहीं रहता , choice नहीं रहता । कर्तृत्व जब नहीं रहता , तब भी इच्छा का उदय होता है ।उस इच्छा का मूल क्या है ? स्वभाव । यह स्वभाव दो प्रकार का है ; ( क )योगमाया और ( ख) माया पूर्वस्थल में इच्छा का उदय होता है , उसकी पूर्ति होती है -- कृति की आवश्यकता नहीं होती । इच्छापूर्ति -- आनन्दावस्था । इच्छा के उदित होने से विलम्ब क्यों नहीं होता ? क्योंकि चिंतामणि राज्य है , पूर्ण राज्य -- विलम्ब का हेतु नहीं । उत्तर में राज्य अभाव और अपूर्णता का है । इसलिए , इच्छा का उदय तो होता है ,लेकिन तुरन्त उसकी पूर्ति नहीं होती । इसीलिए प्राप्ति के लिए कृति होती है । यहाँ कर्तृत्व का आरम्भ है । पूर्ण के राज्य में कर्तृत्व नहीं । अभाव के ही राज्य में कर्तृत्व है । कर्तृत्व के जाने से ही चेष्टा ,क्रिया आदि , moral life है । सब गया ,माया कट गई । तब लीला । यह योगमाया का राज्य है । पौर्णमासी का राज्य । स्व संवेदन / पृष्ठ 283 Date 23/ 1/ 1925 आग पर कागज़ रखने से जलता है । आग जलाती है इसलिए जलता है । दाह कार्य में आग का कर्तृत्व है । अतएव, यह भी वास्तव में स्वाभाविक कार्य नहीं । दाह करना आग का स्वभाव है -- यह महज लौकिक बात है । इस कार्य के मूल में भी इच्छा है । इसलिए ,इच्छा से यह नियमित हो सकता , स्तम्भित हो सकता है । संसार के सभी कार्यों का मूल इच्छा है । इच्छा और स्वभाव में भेद क्या है ? इच्छा की पूर्णता ही स्वभाव या आनन्द है । पूर्ण इच्छा = स्वभाव । स्वभाव का विकार नहीं -- इसीलिए , परमेश्वर की इच्छा या पूर्णइच्छा निर्विकार है । आधार- भेद से वही इच्छा नाना प्रकार से अपूर्ण होती है , सीमाबद्ध होती है , विकृत होती है । हम साधारणतया जिसे इच्छा कहते हैं , उसका उदय और अस्त है , वह जन्य और विकृत है । परमेश्वर की इच्छा नित्य प्रकाशमान है , निर्विकार -- इसीलिए वह स्वभाव है । वह पूर्ण है , इसलिए कोई उसे इच्छा नहीं कहते । वही आनन्द है । वह सदा एकरस है , इसलिए , उसे पूर्णता या स्वभाव कहना ही अच्छा है । आधार के सम्बंध से वही सीमाबद्ध होती है । तब वह इच्छा होती है -- पूर्ण के स्पर्श से आनन्द होती है । स्वभाव या पूर्ण निराधार है । इच्छा या आनन्द को लौकिक अर्थ में प्रयोग करने के लिए विषय - सम्बंध चाहिए , आधार -सम्बंध चाहिए । बिंदु ही मूल आधार है । उसी को ग्रहण करने से इच्छा का स्फुरण होता है , आनन्द का विकास होता है । वही सृष्टि का उन्मेष है । बिंदु का त्याग करने से ही पूर्णता है -- विशुद्ध स्वभाव । वह नित्यानन्द पारमैश्वर्य है -- उसका विकास और लय नहीं । स्व संवेदन पृष्ठ 329 Date 23 , 6 , 1927 आज एक और पुस्तक डाक से प्राप्त हुयी, श्री अरबिंदो की सीक्रेट आँफ वेद, ईबुक के रूप में जब इस पुस्तक को देखा तो मंगाए बिना न रहा गया. कभी-कभी अर्थोन्मेष की अनुभूति परम तक पहुचाने का आभास कराती है. अर्थ का यह प्रसार ही उसे मुद्रा या धन के अर्थ की सार्थकता व्यक्त करती है. धन्य करने के कारण वह धन है, प्रसन्न करने के चलते वह मुद्रा है. शब्द का अर्थ भी हमें यही अहसास कराता है. किसी शब्द के दो अलग अलग अर्थ बाद में विकसित हुए, मूलतः या तत्वतः एक शब्द का एक ही अर्थ है. गो का अर्थ प्रकाश है, गाय का अर्थ विकसित हुआ. अश्व का अर्थ प्राण के एक रूप से है, बाद में इससे घोड़ा का अर्थ विदित हुआ. ब्रह्म से अतीत भूमि में संचित सत्ता ही षोडश कलामय पूर्ण सत्ता है । उसकी पन्द्रह कला एवं सोलहवीं कला का त्रिपादांश ज्ञान राज्य में है । एक कला का पादांश मात्र ( 1/4 ) कार्य करने के लिए मर जगत में अवतीर्ण है । ज्ञान राज्य में अवशिष्ट पन्द्रह कला विश्वगुरु भृगुराम के रूप में स्थित है । बाकी त्रिपादांश ( 3/ 4 ) कला भृगुशक्ति के आधारभूत अचलानन्द या महातपा रूप से अवस्थित हैं । मात्र एक कला के पादांश ( 1/ 4 ) का प्रकाश ( इस मर जगत में ) विशुद्धानंद के रूप से हुआ । इन सब को मिलाकर विशुद्धसत्ता ( षोडशकलायुक्त ) हैं पुकार ( आर्तपुकार ) यदि माँ रूप है । अचलानन्द हैं , अनादि स्वरूप । अचल की क्षुब्ध अवस्था " आदि माँ " , "माँ की पुकार " या भावशक्ति है । आदि शक्ति से जिनका स्फुरण हुआ , वे हैं "कर्मशक्ति या श्यामा शक्ति । " जिनके कारण यह स्फुरण हुआ , वे ज्ञान या उमाशक्ति पद वाच्य हैं । उमा का स्वरूप है " ॐ माँ " अतएव अचल के तीन कोण हैं आदि माँ ( आदि शक्ति ) , श्यामा माँ ( कर्मशक्ति ) एवं उमा माँ ( ज्ञान शक्ति ) वहीं से ' ॐ माँ ' शब्द निर्गत हुआ पूर्व वर्णित एकपाद विशुद्धसत्ता , इस महाशब्द को चतुर्दश भुवन का अतिक्रमण कर , इस मर्त्यलोक में लाई । ज्ञान राज्य में ' ॐ माँ ' ध्वनि निरन्तर उत्थित हो रही है । किन्तु धारक में अभाववश , धृत न होकर वापस लौट जाती है । विशुद्धसत्ता का अवतरण मातृ स्वरूप आसन प्रतिष्ठा पृष्ठ 32 २७/६/२२ सृष्टि से परे उस निर्गुण ब्रह्म या परमपिता को कोई भी तब तक प्राप्त नही कर सकता जब तक वह पहले सृष्टि में व्याप्त कूटस्थ चैतन्य या पुत्र को अपने मे प्रकट न कर दे। गीता में आये मंत्र ॐ तत सत के अर्थ से इसे समझा जा सकता है। कूटस्थ चेतना परमपिता का एकमात्र पुत्र है। इसमें लिंग या जेंडर का प्रश्न नहीं है। वैसे तो सब प्राणी परमपिता की संतानें हैं, पर मनुष्य में ही यह पुत्र प्रकट होने की संभावना पाई जाती है। पितृ ऋण की अदायगी के नाम पर पुत्र पैदा करने की अभिधात्मक व्याख्या अथवा मैं ही ईश्वर का एकमात्र पुत्र हूँ, ऐसी व्याख्या करने से सनातन, ईसाई और अन्य शास्त्रों को सही रूप में नही समझा गया। एक बार गलत व्याख्या को पकड़कर आगे बढ़ते जाने से वह गलत ही बनी रहती है। लेखिका मैत्रेयी पुष्पा की तीन बेटियां हैं, इस पर एक बार उनसे पूछा कि ऐसा करने के पीछे क्या कारण रहा! उन्होंने स्पष्ट कहा पुत्र के लिए समाज का दबाव था। इससे अधिक हम लोग जोखिम नही ले सकते थे। जनसंख्या के बारे में पापुलेशन ट्रेंड वेबसाइट पर दिये ग्राफ कहते हैं कि आने वाले कुछ दशकों में भारत की जनसंख्या की वृद्धि दर और संख्या वर्तमान दर से कम हो जाएगी, पर जनसंख्या को एक तर्कसंगत स्तर पर उससे पहले अगर आज का समाज ले जाये तो उसमे हर्ज क्या है! फ़ेसबुक २३/६/२१ २८/६/२२ गाँठ को संधि भी बोलते हैं. कश्मीर में इसे संध कहा जाता है. यह एक खोज है, अवसर है दो छोरों को जानने का, उन्हें जोड़ने का. सब धर्मों या सम्प्रदायों की एकता संभव नही है. तत्व की उपलब्धि अनुभूति का विषय है. धार्मिक आचार और व्यवहार उस उपलब्धि को प्राप्त करने के साधन हैं. यह उपलब्धि प्रचार नहीं, परिवर्तन नहीं, फिर किस विधि से कोई अन्य जान पाएगा कि उपलब्धि क्या है🙏 भारतीय संस्कृति के सारे अंतर्विरोध द्वयर्थक या बहुअर्थक श्लोकों की अलग अलग व्याख्या के कारण है. वेदों का एक भाष्य आचार्य सायण का है और दूसरा भाष्य अन्य अनेक मनीषियों का. जब तक द्वयर्थी भावों का ग्रहण नहीं हो जाएगा, सार नहीं मिल पाएगा....