Saturday, February 13, 2021

दस दिन हिमालय के संग संग

दस दिन हिमालय के संग संग
      चुप रहने के दौरान एक दिन अचानक भगवान बद्रीनाथ के दर्शन की इच्छा हुई। वहाँ जाने के लिए विचार-प्रकिया चल पड़ी। घर में बात की तो धर्मपत्नी ने वहाँ की दुर्गमता और मौसम की अनिश्चितता के भय से और पुत्री की जिम्मेदारी के कारण हिमालय यात्रा जाने मे अनिच्छा प्रकट की। पुत्री को यह यात्राएँ धार्मिक रीति की लगती हैं, इसलिए उसकी इच्छा पूर्व विदित ही थी। तथापि मुझे जाने की स्वीकृति इन लोगों की तरफ से मिल गई। 
तत्काल श्रेणी में कानपुर से हरिद्वार जाने के लिए मैंने आई आर सी टी सी की वेवसाइट पर आरक्षण कराने हेतु प्रयास किया, पर दो मिनट के लिए मेरे अकाउट को रोककर एजेंट सारी सीट बुक करा लेते हैं, इसलिए अगले दिन भी प्रयास करने पर टिकट आरक्षित नहीं हो सकी। विवश होकर उरई के एक एजेंट को टिकट कराने के लिए कहा उन्होने हरिद्वार तक संगम लिंक एक्सप्रेस में अगले दिन का टिकट करा दिया। 6 जून को सायं 6 बजे बस से कानपुर के लिए प्रस्थान कर गए। रेलगाड़ी के निर्धारित समय से कुछ विलंब से हमारी बस कानपुर पहुँची, किंतु रेलगाड़ी धीरे-धीरे तीन धंटे की देरी से कानपुर आई। हरिद्वार पहुँचते-पहुँचते रेलगाड़ी ने निर्धारित समय से सात घंटे का विलंब कर दिया। 
रेलगाड़ी के आरक्षण के बाद मैंने हरिद्वार से बद्रीनाथ जाने के लिए इंटरनेट पर साधन देखे। निजी संचालकों से संपर्क किया, पर उन पर भरोसा नहीं जमा, मेरे अकेले होने के कारण उन्होंने भी रुचि नहीं दर्शाई। यह देखते हुए गढ़वाल मंडल विकास निगम की साइट पर पहुंचे, वहां देखा कि बद्रीनाथ अकेले नहीं, बल्कि केदारनाथ और बद्रीनाथ का संयुक्त टूर जाता है, पर वह भी 8 जून को उपलब्ध नहीं था। 8 जून को उनका टूर नंबर 4 ऋषिकेश, उत्तराखण्ड के चारों धाम यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ तथा बद्रीनाथ जाने वाला था। इसमें तीन सीटे खाली थी। रूपए 23520/- जमा कराके एक सीट आरक्षित कर ली। इनोवा कार से यात्रा के लिए कम से कम चार सीटें आरक्षित होती हैं। सायं 7.30 बजे 7 जून 2019 को हरिद्वार से एक टेम्पो में सवार होकर ऋषिकेश के लिए चले। टेम्पो चालक ने एक सौ रूपए मागें थे। उसने रास्ते में एक दूसरे टेम्पो में बिठाया और एक सौ रूपए का नोट देने पर बीस रूपए वापस कर दिए। दूसरे टेम्पो में कुछ स्थानीय महिलाऐं सवार थी। वे हंसने लगीं, पूछने पर उन्होंने बताया किराया तो चालीस रुपए ही है। 
रात दस बजे गढ़वाल मंडल विकास निगम के ऋषिकेश स्थित भारत भूमि रेस्ट हाउस पहुंचे उन्होने तत्काल एक कमरा दे दिया, वहां भोजन किया। गढ़वाल मंडल विकास निगम (जी एम वी एन) उत्तराखण्ड सरकार का प्रतिष्ठान है। गढ़वाल में जगह-जगह महत्वपूर्ण स्थानों पर निगम के आधुनिक सुविधा युक्त सुंदर रेस्ट हाउस और होटल बने हैं। इन्ही में भोजन सुविधा भी उपलब्ध हैं। आरक्षित टिकट में निगम की तरफ से यात्रा के अतिरिक्त आवास व्यवस्था सम्मिलित है। भोजन का खर्चा यात्री को स्वयं वहन करना होता हैं। निगम की यह व्यवस्था यात्रियों के लिए सुविधाजनक हैं, यहां सुरक्षित, सुंदर और सुरुचिपूर्ण आवास और अपने खर्चे पर भोजन मिलता हैं। 
8 जून को प्रातः 7.30 बजे ऋषिकेश से हमारी बस यमुनोत्री जाने के लिए रवाना हुई। बस में तेलंगाना, राजस्थान, गुजरात, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, दिल्ली और बिहार राज्य के कुल चौबीस यात्री थे। इनमें गढ़वाल निवासी एक दंपत्ति मुंबई से आए थे। ऋषिकेश से देहरादून के रास्ते डाम्टा, बड़कोट होते हुए दिन भर की यात्रा के बाद सायं 6 बजे फूलचट्टी नामक स्थान पर निगम के रेस्ट हाउस पहुंचे। फूलचट्टी से प्रातः हम लोगों को बस द्वारा जानकी चट्टी पहुंचना था। वहां से पैदल यमुनोत्री 6 किमी है। यमुनोत्री सुबह 10.30 बजे पहुंच गए। यमुनोत्री चार धाम यात्रा का आरभिक स्थल हैं। यम और यमुना सूर्य और संज्ञा के जुडवां पुत्र एवं पुत्री है। संज्ञा जब सूर्य के ताप को सहन नहीं कर सकी तो उन्होनें छाया के नाम से एक क्लोन तैयार कर लिया। एक दिन यम ने छाया को लात मार दी। इस पर गुस्से में छाया ने यम को शाप दे दिया कि तेरी टांग सड़कर गिर जाए। जब यमुना धरती पर आई तो उसने अपने तपस्यारत भाई के इस कष्ट को दूर किया। यम इससे बहुत प्रसन्न हुआ और वरदान दिया कि यमुनोत्री में जो स्नान करेगा उसे दर्दनाक और अकाल मृत्यु से छुटकारा मिलेगा और मोक्ष की प्राप्ति होगी। 
हरिद्वार से यमुनोत्री 233 किमी0 है यमुनोत्री 12972 फुट (3291 मी0) की ऊँचाई पर स्थित हैं। यमुनोत्री के मुख्य ग्लेशियर को मंदिर के समीप से ही देखा जा सकता हैं। दर्शनार्थी उस ग्लेशियर पर चढ़ जाते हैं, जिसके नीचे से यमुना का जल निकलना शुरू होता है। यमुनोत्री के बगल में ही 89 सेटीग्रेड गर्म जल का सूर्य कुंड हैं। यमुनोत्री जाने के लिए घोड़े-खच्चर, पालकी और पोनी खूब मिलते हैं। खच्चरों की लीद पहाड़ों के झरनों से बह रहे जल से मिलकर सड़ांध या बदबू पैदा करती हैं। इसकी सफाई होती है पर इसमें अभी बहुत सुधार किये जाने की आवश्यकता है। एक टोकरी में यात्री को बिठाकर नेपाली युवक लादकर ले जाते हैं पालकी में चार व्यक्ति लगकर श्रद्धालुओं को ले जाते है। घोड़ों-खच्चरों की सुविधा से यह यात्रा सुगम हो जाती है। अधिकांश यात्री पैदल ही यहां जाते है। खच्चरों से यात्री गिरकर घायल भी होते हैं, पर इसकी फिक्र श्रद्धालु नहीं करते। यमुनोत्री में श्रद्धालु अपनी साड़ी और अन्य पहने हुए कपडें छोड़कर आ जाते हैं, जिससे वहां का सौदर्य तो विकृत होता ही हैं नदी का प्रवाह भी बाधित होता है। सरकार या व्यवस्थापकों को वह कपड़े निकालने में धन खर्च करना पड़ता हैं। यमुनोत्री से उसी दिन वापस आकर हम लोग फूलचट्टी में रात्रि विश्राम किए। यमुनोत्री के दर्शन और स्नान करने के उपरांत अब हम गंगोत्री जाने के लिए वापस बड़कोट के रास्ते धरासू, डुंडा उत्तरकाशी होते हुए हर्षिल में दिन भर की यात्रा करने के बाद रात्रि में 9 बजे पहुंचे। यहां करीब तीन धंटे हम लोग जाम में भी फंसे रहे। हर्षिल गंगोत्री से 25 किमी0 पहले एक सुरम्य स्थान हैं। यहां भी भागीरथी के किनारे निगम का सुन्दर होटल हैं। गंगोत्री से लेकर देवप्रयाग तक गंगा का नाम भागीरथी हैं राजा भगीरथ के तप से गंगा पृथ्वी पर आई हैं, इसलिए इसका सुयश भगीरथ को देने के लिए यह यहां भागीरथी कही जाती हैं। उत्तरकाशी से आगे मनेरी बांध हैं, जिससे बिजली भी बनाई जाती हैं और थल सेना का बड़ा केन्द्र हैं। यहां से चीन की सीमा निकट हैं, अतः सेना का अपना हैलीपैड भी यहां हैं। हर्षिल से प्रातः 6 बजे हम लोग निकले। निकलते ही कई ऊँचे- ऊँचे ग्लेशियरों का दर्शन हुआ। प्रकृति के समक्ष समर्पण मनुष्य का स्वभाव है, यह उसकी परिणति भी हैं। उत्तराखण्ड के पवित्र पहाड़ और नदियां प्रकृति के उच्चतर उदाहरण हैं। यहां श्रद्धालु और पर्यटक सब तरह के यात्री आते हैं। जो पर्यटक केवल मौज मस्ती और गर्मी से बचने के लिए यहां आते हैं। वे भी यहां के पोर-पोर में स्थापित आध्यात्मिक चेतना को अनुभव कर सकते हैं। ऊँचे पहाड़ों की यात्रा मनुष्य की चेतना को समस्वर करने के उद्देश्य से धार्मिक रीति नीति में जोड़ी गई। पहाड़ और नदियों से जुड़ी कहानियों को कोई गलत माने, पर भारत की चेतना में इन्हें बड़े गहरे आत्मसात् किया गया हैं, यह भारत की बड़ी विशेषता है। प्रकृति के रोमांच तो दुनिया भर में बिखरे पड़े हैं, लेकिन भारत की प्रकृति विशिष्ट है और भारत की मनीषा इन्हें स्वयं से अभिन्न रूप में जोड़ती हैं। हिन्दू, सिख, बौद्ध और जैन धर्मों के श्रद्धा केन्द्र उत्तराखण्ड में दर्शनीय हैं। 
ऊँचें पहाड़ों और हिमालय की दुर्गम यात्रा यहां के लोग सहजता से संपन्न कराते हैं। हिमालय भी पहाड़ ही हैं, बस यह सदा हिमावृत रहते हैं, और थोड़े और ऊँचें हैं इसलिए इन्हे हिमालय कहा गया हैं। 
मैदानी क्षेत्रों के राजमार्गों पर सौ किमी0 चलने पर भी हमें कोई न कोई दुर्घटना दिख जाएगी, पर यहां के सर्पिल घुमाव में पहाड़-दर-पहाड़ हजारों किमी0 संकरी सड़कों पर भी हमें कोई दुर्घटना नहीं दिखी। यह अवश्य है कि गर्मी के मौसम से भीड़-भाड़ बढ़ने से यहां वाहनों के लबे जाम लग जाते हैं, जो घंटों में खुल पाते हैं, पर यहां के ड्राइवर बड़े घैर्य, समझदारी और सहयोग से आने-जाने वाले वाहनों को पास कराते हैं। अगर अपने वाहनों को आगे पीछे करने की जरूरत हुई तो यह खुशी-खुशी कर लेते हैं। यहां के वाहन चालकों को कोई जल्दी नहीं होती और जाम में फंसे होने के कारण हुई देरी पर कोई क्षोभ भी नहीं। बरसात के मौसम में पहाड़ों पर भूस्खलन होता रहता हैं, पर यहां उसके प्रति भी एक तरह की सहजता है पर्यटन यहां के लोगों की आय का मुख्य साधन हैं। चार-पांच महीने में अर्जित आय से वर्ष भर का गुजारा होता हैं। 
उत्तराखण्ड में दुनिया की प्रचीनतम नगरी कहीं गई काशी हैं तो कई पवित्र नदियों के संगम प्रयाग भी हैं। यहां उत्तरकाशी में भगवान विश्वनाथ का मंदिर हैं। उत्तरकाशी का पुराना नाम बाड़ाहाट हैं। उत्तरकाशी वस्णा और अस्सी नदियों के मध्य में स्थित हैं। एक तरफ असी और भागीरथी का संगम हैं तो दूसरी सीमा पर वरूणा और भागीरथी का संगम हैं। उत्तरकाशी को सौम्यकाशी भी कहा गया। स्कंद पुराण में इयमुत्तर काशी हि प्राणिनां मुक्तिदायिनी कहा गया। यहां के विश्वनाथ मंदिर के सामने शक्ति स्तंभ लेख पर अंकित विवरण के अनुसार यह शहर 6-7 वीं शाताब्दी में मध्य हिमालय के प्रसिद्ध ब्रह्मपुर राज्य की राजधानी रहा हैं। यह विवरण ह्वेनसांग द्वारा दिया गया हैं। 
उत्तराखण्ड में समस्त तीर्थाें और पवित्र नदियों का संगम हुआ है। यहां प्रमुख रूप से पांच प्रयाग मिलते हैं। प्रयाग का अर्थ हैं दो नदियों का मिलन स्थल। बद्रीनाथ और जोशीमठ के बीच अलकनंदा और धौलीगंगा नदियों का संगम विष्णुप्रयाग कहा जाता हैं। पांच प्रयागों मे से यह हिमालय से उतरते समय पहला संगम हैं। इसके बाद नंद प्रयाग, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग तथा देवप्रयाग संगम मिलते हैं। नंदप्रयाग यदुवंशियों का राज्य रहा हैं। कर्णप्रयाग में अलकनंदा में पिंडर नदी मिलती है। अलकनंदा बद्रीनाथ के ऊपर से निकलती हैं और जब तक यह ऋषिकेश के पास देवप्रयाग में भगीरथी से नहीं मिलती, इस नदी में पांच पदियों के संगम हो जाते हैं। रुद्रप्रयाग में अलकनंदा और मंदाकिनी नंदियों का संगम होाता हैं। मंदाकिनी नदी केदारनाथ के पास से निकली हैं। पांचवां प्रयाग, देवप्रयाग हैं, यहां भागीरथी और अलकनंदा का संगम हुआ हैं। इसमें सरस्वती नदी का भी संगम हुआ। सरस्वती नदी बद्रीनाथ से आगे माणा गांव के पास निकली हैं जहां एक भीम शिला हैं। कहते हैं भीम ने इस शिला के द्वारा सरस्वती नदी पर पुल बना दिया और रास्ते पांडव सी स्वर्गारोपण किए। गंगा को मंदाकिनी भी कहा गया है। केदार क्षेत्र से निकली मंदाकिनी रुद्रप्रयाग में भागीरथी से मिलकर गंगा बन जाती है। हिमालय क्षेत्र में अनेक नदियां झरने और बर्फीले सोते मिलकर गंगा को समृद्ध करते जाते हैं। 
भागीरथी गोमुख और गंगोत्री से निकल कर देवप्रयाग में अलकनंदा से मिल जाती हैं भागीरथी और अलकनंदा दोनों नदियों का रंग मटमैला हैं, किन्तु मंदाकिनी नीलवर्णा हैं। देवप्रयाग में भागीरथी और अलकनंदा के संगम के बाद यह गंगा कही जाने लगती हैं। वस्तुतः राजा भगीरथ के कठिन तप के बाद गंगा जी स्वर्ग से जब उतरी तो पश्चात्वर्ती लोक मानस ने भागीरथी को श्रेय देने के आशय से देवप्रयाग तक इसे भागीरथी नाम दिया। गंगा को जह्नु ऋषि से जुड़ा होने से जाह्नवी भी कहा गया हैं। 
यमुनोत्री से निकली यमुना का रंग श्यामल हैं। यमुना की जलधारा उत्तराखण्ड के बाद पंजाब, हरियाणा और दिल्ली से होते हुए उत्तरप्रदेश के बड़े भूभाग से प्रवाहित होते हुए प्रयागराज में गंगा से मिलती हैं। 
उत्तराखण्ड में उत्तरकाशी ही नहीं, गुप्तकाशी भी हैं। केदारनाथ से निकली मंदाकिनी नदी के किनारे के एक ओर गुप्तकाशी है तो इसके दूसरे किनारे पर उरवी मठ हैं जहां के ओकारेश्वर मंदिर में बाबा केदार की पूजा की जाती हैं। केदारनाथ के कपाट बंद हो जाते हैं तब बाबा, केदार इस मंदिर में आकर विराजते हैं तो बद्रीनाथ की कपाट बंदी में बद्रीनारायण जोशीमठ के नरसिंह मंदिर में आकर  रहने लगते हैं। 
गुप्तकाशी से आगे फाटा होते हुए सोनप्रयाग पहुंचते हैं। सोन प्रयाग से आगे पांच किमी0 गौरीकुंड तक उत्तराखण्ड शासन से अनुबंधित चार पहिया वाहन यात्रियों को लेकर आते-जाते हैं। गौरीकुड से केदारनाथ 16 किमी0 का रास्ता पैदल अथवा खच्चर/पालकी से तय किया जाता हैं। गौरीकुंड में मंदाकिनी के किनारे एक तप्त कुंड हैं। गर्म जल के कुंड यमुनोत्री और बद्रीनाथ में भी हैं। सोनप्रयाग के नाम में प्रयाग जुड़ने से प्रतीत होता हैं कि यहां भी नदियों का संगम होगा, पर वर्तमान में मंदाकिनी ही यहां प्रवाहित होती हैं। 2013 में जब केदारनाथ में बाढ़ प्रलय हुई थी तब से वहां यात्रियों की संख्या एक निश्चित दबाव से अधिक न हो, इसके लिए शासन ने सोनप्रयाग में एक यात्री पंजीकरण/सुविधा केन्द्र खोल दिया हैं। यहां पंजीकरण करने के बाद ही यात्री को खच्चर/पालकी का पंजीकरण हो पाएगा। उत्तराखण्ड यात्रा का एप भी प्ले स्टोर से डाउनलोड करके केदारनाथ सहित सभी धामों की यात्रा का पंजीकरण किया जा सकता हैं। 
केदारनाथ क्षेत्र में 2013 की बाढ़ में एक बड़ी चट्टान बहकर मुख्य मंदिर के एक छोर पर टिक गई थी, जिससे मंरि को क्षति नहीं पहुंची यद्यपि मंदिर के आस पास के सारे होटल, धर्मशालाएं, बाजार इत्यादि बहकर समाप्त हो गए। तब से सरकार यहां निजी संचालकों को निर्माण कार्य कराने पर रोक लगाए हैं। आदि शंकराचार्य की समाधि भी उस बाढ़ में बह गई। केदारनाथ  मंदिर के मुख्य पुजारी ने बताया अब भगवत्वाद शंकराचार्य की समाधि का निर्माण कार्य प्रारंभ हो रहा हैं। केदारनाथ मंदिर के पुजारी कर्नाटक के वीरलिंग शैव संप्रदाय के आचार्य होते हैं। 
उत्तराखण्ड में विभिन्न पौराणिक नदियों के पांच प्रयाग हैं तो पांच बद्री और पांच केदार भी यहां हैं। हर बद्री और हर केदार की अपनी विशेषता है। प्रमुख या वर्तमान बद्रीनाथ मंदिर/क्षेत्र नर और नारायण पर्वत के मध्य में हैं। बद्रीनाथ मंदिर के पीछे नर और नारायण पर्वत के बीच हिमाच्छादित नीलकंठ पर्वत शिखर की शोभा दर्शनीय हैं। यहां नारद और सूर्यकुंड भी हैं, जिनमे गर्म जल उपलब्ध रहता है।
विशाल बदरी बद्रीनाथ से भिन्न स्थान हैं। योगध्यान बदरी पांडुकेश्वर में पांडु ने जिनका ध्यान किया हैं, वह कहलाए हैं। जोशीमठ और बद्रीनाथ के बीच में यह स्थान हैं। भविष्य बद्री जोशीमठ से 17 किमी0 दूर है। कहते हैं जब नर और नारायण पर्वत भविष्य में मिलकर एक हो जाएँगें और बद्रीनाथ के दर्शन लुप्त हो जाएंगें तब भविष्य बद्री पर आकर बद्रीनाथ के दर्शन सुलभ होंगे। यहां पत्थर पर बद्रीनाथ का आकार निरंतर बड़ा होता जा रहा हैं। आदि बद्री कर्णप्रयाग से 16 किमी0 दूर रानीखेत के रास्ते पर हैं। काले पत्थर की भगवान विष्णु की मूर्ति यहां हैं। वृद्ध बदरी जोशीमठ से 7 किमी0 दूर अनीमठ में हैं। यहां आदि जगतगुरु शंकराचार्य ने भगवान विष्णु की उपासना बद्रीनाथ जाने से पहले की थी। कहा जाता है कि भगवान विष्णु एक वृद्ध के रूप में यहां गणेश जी के याथ खेला करते थे।
महाभारत युद्ध में अपने भाइयों को मारने के बाद प्रायश्चित करने के आशय से पांडव भगवान शिव की आराधना काशी में रहकर करने लगे, पर भगवान शिव ने उन्हें दर्शन नहीं दिया और तब पांडव गुप्तकाशी में जाकर तपस्या करने लगें। भगवान शिव तब केदार क्षेत्र में जाकर रहने लगे। पांडवों ने शिव तपस्या जारी रखी। 
शिव एक भैंसे के रूप में वेष बदलकर छिप गए, पांडवों ने शिव की इस रूप में पहचान कर ली, शिव धरती में समा गए, लेकिन उनकी कूबड़ दिखती रही, इसी स्वरूप की पूजा केदारनाथ मंदिर में की जाती हैं। यहां शिव को घी का लेप किया जाता है। 
मान्यता है कि शिव की भुजाएं तुंगनाथ के शिव मंदिर में हैं, चेहरा रूद्रनाथ में नाभि मद महेश्वर मंदिर में तो जटा और सिर का भाग कल्पेश्वर मंदिर में मौजूद हैं। इन्ही पांच अलग-अलग पवित्र स्थानों को पंचकेदार कहा जाता हैं।
रुद्रनाथ में ही वैतरणी नदी बहती हैं कहा जाता हैं दिवंगत आत्माएं मुक्ति के लिए इस नदी को पार करके ही सूक्ष्म और कारण विश्व में जाती हैं। रुद्रनाथ गोपेश्वर से 23 किमी0 हैं, जिसमें पहले पांच किमी0 मोटर वाहन से और शेष 18 किमी0 पैदल जाना पड़ता हैं। पैकेज्ड टूर में पांचों बद्री और पांचों केदार नहीं ले जाया जाता हैं। यद्यपि पांच प्रयागों से होते हुए यह यात्रा संपन्न होती हैं। 
जोशीमठ से आगे गोविंद घाट से 15 किमी0 दूर पैदल/खच्चर के रास्ते हेमकुंड पहुंचा जा सकता हैं। यहां सिखों के दसवें गुरु गोविंद सिंह ने ध्यान किया था। सात बर्फीली चोटियों के नीचे हेमकुंड सरोवर और गुरूद्वारा बना हुआ हैं। गुरुद्वारा के समीप लक्ष्मण जी का मंदिर भी यहां हैं। इस पवित्र सरोवर को 1930 में एक सिख हवलदार सोलन सिंह ने खोजा था।