Thursday, May 13, 2021

गायत्री मंत्र स्वरूप और महत्व

गायत्री : स्वरूप और महत्व
राकेश नारायण द्विवेदी

बृहदारण्यक उपनिषद के पांचवें कांड में गायत्री स्वरूप का विस्तृत विवेचन मिलता है। गायत्री के चार पाद हैं। एक द्यौ (स्वर्ग), भूमि और अंतरिक्ष से मिलकर, दूसरा वेदत्रयी से तो तीसरा प्राण, अपान और व्यान से मिलकर बनता है। चौथा पैर सूर्य का है, यह दिखाई देता भी है और नहीं भी दिखता। शरीर मे सूर्य आंख का अधिष्ठातृ देवता है। सूर्य आंख पर ही विश्राम करता है। भू सिर को भुवः हाथों को और स्व पैरों को कहा जाता है। 
गया की रक्षा करने के कारण गायत्री नाम हुआ। गया प्राण को कहा गया है।  बृहदारण्यक उपनिषद में कहा गया है। प्राणा वै गयाः,  तत्प्राणांस्तवे, तद्यद्गयांस्तवे, तस्माङ्गायत्री नाम।  गया के इस अर्थ से  गया शहर और बोधगया में बुद्ध को प्राप्त बोधि का भी क्या कोई सम्बन्ध है! क्या गो जिसका अर्थ इंद्रियां होता है, गोस्वामी से तो उसका अर्थ प्रकट ही है, गोकुल और गाय से भी क्या कोई अर्थ संगति बनती है!
ऋग्वेद में गायत्री के दो अलग-अलग मंत्र मिलते हैं। एक 3/62/2 में बहुप्रचलित गायत्री मंत्र मिलता है-

 तत्स॑वि॒तुर्वरे॑ण्यं॒ भर्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि। धियो॒ यो नः॑ प्रचो॒दया॑त्॥

हे मनुष्यो ! सब हम लोग (यः) जो (नः) हम लोगों की (धियः) बुद्धियों को (प्रचोदयात्) उत्तम गुण-कर्म और स्वभावों में प्रेरित करै उस (सवितुः) सम्पूर्ण संसार के उत्पन्न करनेवाले और सम्पूर्ण ऐश्वर्य्य से युक्त स्वामी और (देवस्य) सम्पूर्ण ऐश्वर्य के दाता प्रकाशमान सबके प्रकाश करनेवाले सर्वत्र व्यापक अन्तर्यामी के (तत्) उस (वरेण्यम्) सबसे उत्तम प्राप्त होने योग्य (भर्गः) पापरूप दुःखों के मूल को नष्ट करनेवाले प्रभाव को (धीमहि) धारण करैं।

दूसरा मंत्र ऋग्वेद 5/82/1 में दिया गया है- 

तत्स॑वि॒तुर्वृ॑णीमहे व॒यं दे॒वस्य॒ भोज॑नम्। श्रेष्ठं॑ सर्व॒धात॑मं॒ तुरं॒ भग॑स्य धीमहि ॥

हे मनुष्यो ! (वयम्) हम लोग (भगस्य) सम्पूर्ण ऐश्वर्य्य से युक्त (सवितुः) अन्तर्य्यामी (देवस्य) सम्पूर्ण के प्रकाशक जगदीश्वर का जो (श्रेष्ठम्) अतिशय उत्तम और (भोजनम्) पालन वा भोजन करने योग्य (सर्वधातमम्) सब को अत्यन्त धारण करनेवाले (तुरम्) अविद्या आदि दोषों के नाश करनेवाले सामर्थ्य को (वृणीमहे) स्वीकार करते और (धीमहि) धारण करते हैं (तत्) उसको तुम लोग स्वीकार करो। 
इन दोनों मंत्रो के अर्थ यहाँ स्वामी दयानन्द सरस्वती कृत दिये हुए हैं। इन अर्थों में गायत्री का रहस्य प्रकट नही होता है। 
पूज्यपाद स्वामी जी महाराज दतिया की पुस्तक वैदिक उपदेश में गायत्री मंत्र मूल तो नहीं मिलता है, पर उसका हिंदी अर्थ जो दिया है, वह ऋग्वेद 5/82/1 की व्याख्या प्रतीत होती है, उन्होंने लिखा है सभी वस्तुएं हम सबको प्राप्त हों तथा हे मनुष्यो सब लोग उस अमूल्य ब्रह्मलोक परमात्मा के परम प्रकाश को प्राप्त करो। 
गायत्री का रहस्य खुलता है छान्दोग्य उपनिषद में। जिसमे ऋग्वेद 5/82/1 का मंत्र इस प्रकार दिया गया है। अथ खल्वेतयर्चा पच्छ आचामति तत्सवितुर्वृणीमह इत्याचामति वयं देवस्य भोजनमित्याचामति श्रेष्ठं सर्वधातममित्याचामति तुरं भगस्य धीमहीति सर्वं पिबति निर्णिज्य कंसं चमसं वा पश्चादग्नेः संविशति चर्मणि वा स्थण्डिले वा वाचंयमोऽप्रसाहः स यदि स्त्रियं पश्येत्समृद्धं कर्मेति विद्यात् ॥ 5/2/7॥

. Then, while saying this Ṛk mantra foot by foot, he eats some of what is in the homa pot. He says, ‘We pray for that food of the shining deity,’ and then eats a little of what is in the homa pot. Saying, ‘We eat the food of that deity,’ he eats a little of what is in the homa pot. Saying, ‘It is the best and the support of all,’ he eats a little of what is in the homa pot. Saying, ‘We quickly meditate on Bhaga,’ he eats the rest and washes the vessel or spoon. Then, with his speech and mind under control, he lies down behind the fire, either on the skin of an animal or directly on the sacrificial ground. If he sees a woman in his dream, he knows that the rite has been successful [and that he will succeed in whatever he does].
छान्दोग्य उपनिषद के साथ बृहदारण्यक उपनिषद का पांचवां कांड देखना चाहिए। इसमे गायत्री मंत्र का स्वरूप स्पष्ट हुआ है। गायत्री की उपासना का संकेत  छान्दोग्य उपनिषद में किया गया है। ऋग्वेद के पांचवे मंडल का ही मंत्र आदि शंकराचार्य पर बनी डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म में बोला जाता है। किसी समय देखी इस फ़िल्म में सुने उस मंत्र पर ध्यान तो जाता है, पर बहुप्रचलित गायत्री मंत्र के बरक्स उसका पूरा महत्व नहीं मिलता, जिससे वह जिज्ञासा वही अधूरी रह जाती है। बृहदारण्यक उपनिषद के इस कांड को पढ़ने पर गायत्री मंत्र और उसकी उपासना का रहस्य खुल जाता है। गायत्री प्राण शक्ति है, इसीलिए इसे सूर्य उपासना के तौर पर भी लिया जाता है। उपनिषदों में आये अर्थ के बाद भी उपासना पूरी तरह नहीं खुलती, यह तो गुरुदेव की कृपा के फलस्वरूप ही साधक को प्राप्त होती है। लेकिन गायत्री उपासना पर इतना बल क्यो दिया गया है, यह सुस्पष्ट हो गया है।