Monday, September 12, 2022

अगस्त २०२२

३/८/२२ आज ध्यान में गुरु परंपरा के सब गुरुओं का स्मरण हुआ। प्रेम और स्नेह की बौछार गुरुदेव ने की। स्वामी श्रीयुक्तेशर जी कठोर अनुशासन में तो लाहिरी बाबा तक पहुँच बनाना मुश्किल लगा। महावतार बाबा जी में सब आप्लावित ही हैं। ४/८/२२ यूँ तो विगत दस माह से अपने वर्तमान कालेज में प्राचार्य पद का दायित्व निभाया जा रहा है, पर अपने गृह जनपद में,आयोग से चयनित होकर नियुक्ति की संस्तुति उच्च शिक्षा निदेशालय से होने के बाद का प्रसंग बदल जाता है। इस अवसर पर आप सबकी प्राप्त शुभकामनाओं से मेरी झोली भर गयी है। ललितपुर के और बाहर के भी मेरे सब सुधी मित्रजन बहुत अपनत्व के साथ ख़ुशी प्रकट किए हैं। आप सबका नेह, आशीष और सहयोग इसी प्रकार बना रहे। आपके सम्मिलित विश्वास को निभा सकूँ, वही मेरी पूँजी होगी। अस्तित्व को और उसका बोध कराने वाली गुरु परंपरा, पूर्वज, माता-पिता, प्रयागराज से भैया-भाभी, पत्नी, पुत्री, भाई बहिन, बाल्यकाल से लेकर अबतक के हितैषी मित्र, संबंधी, कुटुंबी सबके प्रति कृतज्ञता और अनुराग पूर्वक पूरी विनम्रता और सामर्थ्य से यह दायित्व स्वीकार करने के लिए प्रभु मुझे शक्ति दे। ....त्वया हृषीकेश हृदि स्थितोस्मि यथा नियुक्तोस्मि तथा करोमि। भाषा भगवद अनुभूति को पूर्णतः व्यक्त नहीं कर पाती, किंतु यह भी सही है कि हर भाषाई अथवा ग़ैर भाषाई अभिव्यक्ति एवं अनभिव्यक्ति अनंत का गुणगान है। ७/८/२२ Urge is when you are overpowered by your desire. Will is when you just like to do, bas, according to your choice. that is something else. ऐश्वर्यज्ञानवैराग्य-धर्मेभ्योप्युपरि स्थितिं। नाथ प्रार्थयमानानां त्वदृते का परा गतिः।। स्तव चिंतामणि ९३ सायंकाल के ध्यान के पश्चात् नाद श्रवण एक बड़े नगाड़े की ध्वनि की भाँति सुनाई दिया। एक बड़ी सी टंकार होती रही। बाद में बाएँ कान की ओर से प्रकाश पुंज कौंधा. आँख खोलने पर लुप्त हो गया। आँखें बंद रहने और खोलने के बीच यह दृश्य घटित हुआ। ८/८/२२ मानव शरीर में पंच ज्ञानेंद्रियों श्रोत्र, त्वक्, चक्षु, जिह्वा और नासिका का स्थान ऊपर स्थित है। जबकि उनकी क्रमशः पाँच कर्मेंद्रियाँ नीचे वाक् पाणि पादौ चोपस्थ पायू के रूप में अवस्थित रहती हैं। इन ज्ञानेंद्रियों और कर्मेंद्रियों के संघात से क्रमशः पाँच तन्मात्रायें या विषय शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध का उदय होता है। इन विषयों का आश्रय पाँच महाभूतो आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी में है। उक्त तत्व मन, बुद्धि और अहंकार से परिचालित जब होते हैं, तब संसार निर्मित होता है। ११/८/२२ रक्षासूत्र का मंत्र है- येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल:। तेन त्वामनुबध्नामि रक्षेन मा चल मा चल।। इस मंत्र का सामान्यत: अर्थ लिया जाता है कि दानवों के महाबली राजा बलि जिससे बांधे गए थे, उसी से तुम्हें बांधता हूं। हे रक्षे!(रक्षासूत्र) तुम चलायमान न हो, चलायमान न हो। धर्मशास्त्र के विद्वानों के अनुसार इसका अर्थ यह है कि रक्षा सूत्र बांधते समय ब्राह्मण या पुरोहित अपने यजमान को कहता है कि जिस रक्षासूत्र से दानवों के महापराक्रमी राजा बलि धर्म के बंधन में बांधे गए थे अर्थात् धर्म में प्रयुक्त किए गये थे, उसी सूत्र से मैं तुम्हें बांधता हूं, यानी धर्म के लिए प्रतिबद्ध करता हूं। इसके बाद पुरोहित रक्षा सूत्र से कहता है कि हे रक्षे तुम स्थिर रहना, स्थिर रहना। इस प्रकार रक्षा सूत्र का उद्देश्य ब्राह्मणों द्वारा अपने यजमानों को धर्म के लिए प्रेरित एवं प्रयुक्त करना है। यही उद्देश्य भाई बहिन और परिजन का है। १६/८/२२ परमपिता, जगन्माता, सखा, प्रियतम प्रभु! मैं तर्क करूँगा, मैं इच्छाशक्ति का प्रयोग करूँगा, मैं कार्यरत होऊँगा; परन्तु आप मेरे तर्क, इच्छाशक्ति एवं कार्य को उचित दिशा की ओर निर्देशित करें। १९/८/२२ भारत की परंपरा वाचिक ज्ञान लेने देने की रही है। रामकृष्ण परमहंस निरक्षर या बहुत कम पढ़े लिखे थे, पर उनकी कही बातें उपनिषदों की भाँति पढ़ी और सराही जाती हैं। २०/८/२२ ŚB 10.2.26 सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यंसत्यस्य योनिं निहितं च सत्ये । सत्यस्य सत्यमृतसत्यनेत्रंसत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्ना: ॥ २६ ॥ satya-vrataṁ satya-paraṁ tri-satyaṁ satyasya yoniṁ nihitaṁ ca satye satyasya satyam ṛta-satya-netraṁ satyātmakaṁ tvāṁ śaraṇaṁ prapannāḥ Synonyms satya-vratam — the Personality of Godhead, who never deviates from His vow*; satya-param — who is the Absolute Truth (as stated in the beginning of Śrīmad-Bhāgavatam, satyaṁ paraṁ dhīmahi); tri-satyam — He is always present as the Absolute Truth, before the creation of this cosmic manifestation, during its maintenance, and even after its annihilation; satyasya — of all relative truths, which are emanations from the Absolute Truth, Kṛṣṇa; yonim — the cause; nihitam — entered*; ca — and; satye — in the factors that create this material world (namely, the five elements – earth, water, fire, air and ether); satyasya — of all that is accepted as the truth; satyam — the Lord is the original truth; ṛta-satya-netram — He is the origin of whatever truth is pleasing (sunetram); satya-ātmakam — everything pertaining to the Lord is truth (sac-cid-ānanda: His body is truth, His knowledge is truth, and His pleasure is truth); tvām — unto You, O Lord; śaraṇam — offering our full surrender; prapannāḥ — we are completely under Your protection. २१/८/२२ श्रीमद्भागवत 1/5/38 में श्री भगवान को 'मन्त्रमूर्तिममूर्तिकम् ' कहा गया है , इससे प्रतीत होता है कि मंत्र उनकी मूर्ति है तथापि वे अमूर्त हैं । भगवान् के मंत्र या शब्द-ब्रह्ममय रूप का वर्णन भागवत के अन्य स्थलों में स्पष्ट रूप से मिलता है । सिद्धावतार कपिलदेव के पिता प्रजापति कर्दम ऋषि के दीर्घकाल तक तपस्या करने पर प्रसन्न होकर भगवान् उनके सामने शब्द -ब्रह्मात्मक रूप धारण करके आविर्भूत हुए थे । तावत्प्रसन्नो भगवान् पुष्कराक्षः कृते युगे । दर्शयामास तं क्षत्तः शार्ब्द ब्रह्मदधद्वपु : भारतीय संस्कृति और साधना पृष्ठ 503 २३/८/२२ शास्त्रों में लिखा है ; शब्द ब्रह्म में निष्णात होने पर परब्रह्म की उपलब्धि होती है । शब्दातीत परब्रह्म का साक्षात्कार यदि करना हो तो , शब्द का आश्रय लेकर ही शब्दराज्य का भेदन करना होगा । समग्र विश्व शब्द से ही उद्भूत है एवं शब्द में विधृत है । शास्त्र वचनों से ज्ञात होता है कि शब्द ही सृष्टि का मूल है । यदि सृष्टि से बाहर जाना हो, तो शब्द ही एकमात्र अवलंबन है । इसीलिए जप साधना में शब्द का अवलम्बन करके ही शब्दातीत परब्रह्म पद में जाने का उपदेश दिया गया है । जपविज्ञान तांत्रिक वाङ्गमय में शाक्त दृष्टि / पृष्ठ 323 २४/८/२२ संसार में सुखपूर्वक रहने का सूत्र यही है कि हम दूसरों को देते रहें, जो कुछ हमारे पास है उसी में से। कोई इतना दरिद्र नहीं जिसके पास कुछ देने को न हो। इसे दर्शन पक्ष कह सकते हैं। दूसरा पक्ष जीवन का है, जिसमें देने के लिए प्रचलित विधियों का परिज्ञान आवश्यक हो जाता है। अन्यथा जीवन और दर्शन की संगति नहीं रह पाएगी। २५/८/२२ एक दशा जाति विहीनता की होती है, जो पशुओं की है- पश्यति इति पशुः। दूसरी अवस्था किसी जाति में होकर सभी जातियों के होने की है। यह स्थिति मनुष्य की है - मननात् मनुष्यः। तीसरी इन दोनों से पार होने की अवस्था है। २८/५/२२ भारत की पूरी बौद्धिक परंपरा वाचिक रही है। इसलिए इतिहास में हमारे यहाँ किसी घटना का ठीक-ठीक काल निर्धारण करने की कठिनाई आती रहती है। पश्चिमी जगत में ईसवी सन और उससे पूर्व की घटनाओं का कालक्रम बहुत हद तक सटीक रूप में अभिलिखित है। हमारे यहाँ इसकी कोई आवश्यकता ही प्रतीत नहीं हुयी। आज भी नहीं पता भागवतं किसकी रचना है। इसके रचनाकार बोपदेव (महाकवि जयदेव के भाई) पर मतैक्य नहीं। यहाँ देने का भाव रहा, उस पर क़ब्ज़ा करना यहाँ ध्येय रहा ही नहीं। वेद, उपनिषद और पुराण किस ऋषि द्वारा रचित हैं ठीक-ठीक कहा नहीं जा सकता। व्यास तो एक उपाधि का नाम है। जिन धरोहरों के कारण भारत जगतगुरु माना गया, वे सब वाचिक रूप में चली आयी हैं। कितने आक्रमण हुए, पर यह परंपरा अक्षुंण रही। अपनी वाचिक समृद्धि के कारण यह सुरक्षित भी रही। बोलने में बहुत से शब्द और वाक्य निरर्थक हो सकते हैं, पर उनके भीतर जो सत्य अनुस्यूत रहता है, उसका तौल नहीं है। उसमें कौंधता हुआ सत्य प्रकट होता है, वह सत्य लिखित रूप में भी उस तरह व्यंजित नहीं हो पाता। अतएव हमें अपनी वाचिक परंपरा का महत्व समझते हुए उसका सम्मान करना चाहिए। २६/८/२२ ण आत्मा वाची अक्षर है। न उससे आगे श्वास और जल के लिए आया है। र रूप के अर्थ के लिए है, यह अग्नि बीज है। अग्नि तत्व से ही रूप का उद्भव होता है। इस प्रकार नर आत्मा से रूप निर्माण की यात्रा है। नारायण इस नर में निवास करते हैं। आज प्रातः ४ बजे नींद खुली। प्रथम तो आत्मा ने अपने शरीर के स्थान को चिह्नित किया। गाँव में ठहरे हैं। फिर यह नर खुला। २७/८/२२ कर्मों की गति गहन है, समझना दुर्वह है। कल साधना विषयक चर्चा और खुलासा करने के बाद आज सुबह के ध्यान में अत्यंत कठिनाई प्रस्तुत हुयी। छोटी चींटियों का गुच्छ पैरों में ऐसे लिपटा कि बढ़ता ही गया। लघु सत्र के अनंतर ध्यान संपन्न हुआ। ३०/८/२२ प्राचार्य का संदेश परम् सत्य की खोज और उसके साथ जुड़ा गुरु-शिष्य-संबंध प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति की विशेषता रही है। गुरु और शिक्षक में मोटा अंतर है कि शिक्षक से सीखने के बाद किसी से सीखने या जानने की आवश्यकता शेष रह सकती है किंतु गुरु से सीखने या गुरु-कृपा-प्राप्ति के बाद कुछ शेष नहीं रह जाता है। किसी व्यक्ति के जीवन में अनेक शिक्षक होते हैं, गुरु सामान्यतः एक ही होता है। छात्र शब्द संस्कृत छत्र + ण पुल्लिंगी संज्ञा या विशेषण से मिलकर बना है। भारतीय परम्परा में संतान को विद्याध्ययन के लिए गुरु को सौंप दिया जाता था। सेवा के क्रम में यह विद्यार्थी गुरु के सिर पर छत्र या छतरी पकड़ते थे। छतरी पकड़कर पीछे-पीछे चलने वाले विद्यार्थियों को छात्र कहा जाने लगा। छात्र एक दर्पण की तरह है, जिसमें शिक्षक का आत्म एवं राष्ट्र का दर्शन झांकता है। शिक्षक और छात्र का संबंध दूध और पानी के मिश्रण की भांति होता है, जिस प्रकार दूध का मिला पानी दूध ही कहलाता है, उसी तरह चरित्रवान् शिक्षक का छात्र भी चरित्रवान् हो जाता है। शिक्षक का कर्म केवल शिक्षा देना है, पर विद्यार्थी या छात्र का दायित्त्व न केवल सम्मानपूर्वक शिक्षा ग्रहण करना है, अपितु उस शिक्षा और संस्कार को परिवार, समाज और राष्ट्र में अपने आचरण के द्वारा प्रसारित करना भी है। यह दायित्त्व एक शिक्षक का भी होता है, इसलिए एक अच्छा शिक्षक भी सदैव छात्र होता है। किसी विषय-वस्तु को माध्यम बनाकर शिक्षक एवं शिक्षार्थी के बीच विचारों के आदान-प्रदान या परस्पर अन्तर्क्रिया को हम शिक्षण कहते हैं। प्राचीनकाल में शिक्षा को विद्या के नाम से जाना जाता था। विद्या विद् धातु से निष्पन्न शब्द है, जिसका अर्थ है जानना। अतः विद्या का अर्थ ज्ञान से है। ज्ञान मानव का तृतीय नेत्र है, यह नेत्र अज्ञान को दूरकर सत्य का दर्शन करने में सहायक होता है। शिक्षा का शाब्दिक अर्थ भी 'विद्या प्राप्त करना' अर्थात ज्ञानार्जन करना है। जुलाई 1968 में संस्थापित अपने नेहरू महाविद्यालय में बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झाँसी द्वारा संचालित विभिन्न पाठ्यक्रमों में प्रवेश लिया जाता है। वर्तमान में इस महाविद्यालय में 4500 छात्र/छात्राएं अध्ययनरत हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के अन्तर्गत महाविद्यालय में 10 विषयों - हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेज़ी, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, शारीरिक शिक्षा, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, इतिहास एवं गृहविज्ञान- में बी. ए. त्रिवर्षीय पाठ्यक्रम एवं सात विषयों - अर्थशास्त्र, हिंदी, संस्कृत, मनोविज्ञान, इतिहास, समाजशास्त्र एवं गृहविज्ञान में एम. ए., कृषि रसायन एवं मृदा विज्ञान में एम. एस-सी, बी.एस-सी. कृषि चार वर्षीय सेमेस्टर पाठ्यक्रम, राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अन्तर्गत बी.एस-सी (मैथ्स एवं बायो) एवं बी.कॉम त्रिवर्षीय पाठ्यक्रम के शिक्षण के साथ-साथ पांच विषयों - हिन्दी, संस्कृत, मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र एवं इतिहास - में पी-एच. डी. स्तर के शोध अध्ययन की सुविधा उपलब्ध है। ललितपुर से सागर की ओर जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग-44 के दोनों तरफ़ फैले 41 एकड़ क्षेत्रफल में 55 कक्षों, दो छात्रावासों, जिम्नेजियम, अतिथि-गृह एवं विशाल क्रीड़ागन एवं बगीचे में विस्तृत बुंदेलखंड में अपनी विशिष्ट पहचान रखने वाले जनपद के एकमात्र और सर्वाधिक प्राचीन अशासकीय अनुदान प्राप्त महाविद्यालय का प्रांगण सुशोभित हो रहा है। महाविद्यालय के पुस्तकालय में 42 हजार से अधिक पुस्तकें संगृहीत हैं। हम चाहते हैं कि यहाँ छात्रों को गुणवत्तापरक शिक्षा प्राप्त होने के साथ-साथ उनका सर्वांगीण उन्नयन हो। यू.जी.सी. एवं उच्च शिक्षा विभाग के मानकों और नागरिक समाज की आशा-आंकाक्षाओं के अनुरूप प्रबन्ध-समिति के दिशा-निर्देशन में महाविद्यालय अपने सोपान तय करता रहे। आएँ! हम सब इस आशा और विश्वास के साथ कार्य करने का संकल्प लें। सह नौ यशः। सह नौ ब्रह्मवर्चसम्। (तैत्तिरीयोपनिषद तृतीय अनुवाक से) हम दोनों (शिक्षक और छात्र) का यश एक साथ बढ़े। एक ही साथ हमारे ब्रह्मतेज में वृद्धि हो। (प्रोफे० राकेश नारायण द्विवेदी) प्राचार्य ३१/८/२२ पहले भगवान् के हुँकार से ॐकार की उत्पत्ति होती है , अर्थात् निःशब्द से शब्द का आविर्भाव होता है । यह एकाक्षर ॐकार शिशुवेद के नाम से प्रसिद्ध है । यह तीनों वेदों का मूलभूत तथा अनादि अक्षर स्वरूप है । इस स्थान से ' श' व 'म' दोनों अक्षरों की उत्पत्ति होती है । इसकी परवर्ती अवस्था में त्रिकोण प्रकट होता है । त्रिकोण त्रितत्व या तत्वत्रय का नामान्तर है । राम शब्द से राधा और कृष्ण एवं त्रितत्व शब्द से जीव-परम -ब्रह्म , हरे -राम -कृष्ण , परा-रमा -कामबीज , ब्रह्मा-विष्णु-महेश्वर , गुरु शिष्य -भगवान् , कृष्ण- राधा-चन्द्रावली एवं जगन्नाथ-बलराम-सुभद्रा समझना चाहिए । 'हरे- राम- कृष्ण' इन छः अक्षरों से अष्टकोण या अष्ट अक्षर उद्भूत होते हैं । इन आठ अक्षरों से चार तत्व बीजों या नामों को समझना चाहिए । इससे 'हरे - राम- कृष्ण-हरे ' इस अवस्था का उदय होता है । इससे 'हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ' यह षोडश अक्षर उत्पन्न होते हैं । सबके अंत में इन सोलह अक्षरों से फिर 'हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे' एवं 'हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे' ये सोलह नाम बत्तीस अक्षर उत्पन्न होते हैं । श्रीकृष्ण प्रसङ्ग पृष्ठ 140 आज गणेश चतुर्थी - शुक्ल यजुर्वेद 23/19 की इस प्रसिद्ध और बहुप्रयुक्त ऋचा पर मनन करने का दिन है... ॐ गणानांत्वा गणपति ग्वं हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपति ग्वं हवामहे निधीनां त्वा निधिपति ग्वं हवामहे वसो मम । आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम् ॥ हे गणपते ! गणों के मध्य में गणों के पालक! हम तुम्हें आहूत करते हैं। हे प्रियों के मध्य में प्रियों के पालक! हम तुम्हें आहूत करते हैं । हे सुखनिधियों के मध्य में सुख निधियों के पालक! हम तुम्हें आहूत करते हैं । हे वसो! हे प्रजापते! व्यापक होकर संपूर्ण संसार में निवास करने के कारण आप मेरे पालक हों। जिस प्रकार पत्नी अपने पति को जानती है, उसी प्रकार मैं भी आपको जानूँ। मैं आपके निकट से निकटतर होता जाऊँ।। अधर पान करते हुए आपके शरीर के जीवन सत्व का रसास्वादन लूँ तथा आपके आत्मज को प्रकट करूँ। गण पहला श्वास है। जीवन का आरंभ। ग गति सूचक वर्ण है और ण आत्मावाची। आत्मा की जहां से यात्रा प्रारंभ होती है, वह गण हुआ। गण का सांस्कृतिक विकास भारत में अलग अलग क्षेत्रों में अपनी अपनी तरह से हुआ, पर उन सबके मूल me आहम जानि गर्भ धमा त्वमजासि गर्भधम ही है....