Monday, July 31, 2023

जुलाई २३

३/७/२३ प्रातः जागने के बाद बैठे ध्यान में गुरु पादुका दर्शन हुए। घुटनों के ऊपर का दर्शन तो नहीं हुआ, पर गुरु जी पेंट और जुटे पहने हुए अपने दास पर इस प्रकार जो अनुग्रह किए, वह प्रत्यक्ष दिखाता है कि गुरुदेव हमारे पास ही हैं, सर्वदा उनकी कृपादृष्टि बनी रहे। जय गुरु❤️🌹🙏 गुरुपूर्णिमा दो दिन पूर्ण महावतार बाबा जी ध्यान के बीच पधारे थे। बाबा जी के प्रकाश पुंज में समा जाऊँ। गुरुदेव से प्रार्थना। गुरु पूर्णिमा... वेद व्यास का संबंध इस पूर्णिमा से है। व्यास जी ने वेदों को अलग अलग चार भागों में संहिताबद्ध किया है। प्रतिवर्ष आषाढ़ माह की पूर्णिमा को परंपरा से और वेद व्यास के कृपापूर्ण कृतित्व के कारण गुरु पूर्णिमा पर्व के रूप में मनाया जाता है। पूर्णिमा एक विशेष समय होता है। चंद्रमा और समुद्र की हलचल इस दिन अधिक होती है, चंद्रमा का पुत्र ही मन है। चंद्रमा मनसो जातः। मन का आलोड़न विलोडन पूर्णिमा के दिन रात में अधिक होता है। मन की गति को विनियमित न कर पाने के कारण सबसे अधिक पाग़ल इसी दिन होते हैं। वर्तमान में गुरु और शिक्षक एक नहीं हैं। यद्यपि भारत की शिक्षा प्रणाली में पूर्व में गुरु और शिक्षक प्रायः भिन्न नहीं होते थे। गुरु और शिष्य का संबंध दिव्य होता है। वह शाश्वत संबंधों में चलते है, जब तक वे मुक्त नहीं होंगे उनका संबंध बना रहेगा। जबकि माता-पिता और संतान का संबंध प्रारब्ध कर्मों पर आश्रित होता है। कर्म भोग के उपरांत उनका संबंध होने की आवश्यकता नहीं रह जाती। गुरु तत्व है, वह मार्ग है, जो मनुष्य में अंतर्निहित है। गुरु मिलन ईश्वर से तीव्र इच्छा का उदय होने पर होता है। समर्थ गुरु यानि जो स्वयं भागवत है, भगवत्प्राप्त हैं, वह शिष्य को उसके गंतव्य पर इसी जन्म में पहुँचा देते हैं। अपने गुरु की तुलना किसी अन्य के गुरु से करने की आवश्यकता नहीं है। अपने गुरु का आदेश मानते जाएँ, उनके दिए नाम या पद्धति को कभी न भूलें, उसी में शिष्य का कल्याण है। अन्य गुरुजन या श्रद्धेय जन के प्रति आदर और ग्रहणशीलता का भाव रखना उत्तम है। गुरु का शरीर में होना या न होना विचारणीय नहीं। गुरु शरीर और मन से पार एक असीम सत्ता है। वे अपने शिष्य के पास अशरीर होकर भी सदा कृपालु रहते हैं। गुरुदेव के माध्यम से प्राप्त बोध के उपरांत ही व्यक्ति का जीवन सार्थक होता है। चित्रं वटतरोर्मूले वृद्धाः शिष्या गुरुर्युवा । गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यास्तु छिन्नसंशयाः ॥ १२ ॥ आश्चर्य यह है कि वटवृक्षके नीचे शिष्य वृद्ध हैं और गुरु युवा हैं। गुरुका व्याख्यान मौन भाषामें है, किंतु शिष्योंके संशय नष्ट हो गये हैं ॥ १२ ॥ ॥श्रीदक्षिणामूर्तिस्तोत्रं॥ 4/7/23 फ़क़ीर बालक नूर का सज़दा किए शरीर क्या रोज़ा क्या बंदगी क्या मस्जिद क्या मंदिर! सुख की करें न चाहना दुःख में नहीं दिलग़ीर फ़ना करें सब फंद तो उनका नाम फ़क़ीर। प्रेमानंद जी महाराज के बीएमडब्ल्यू में चलने पर एक पोस्ट पर.. सूर्य पर थूकने का प्रयास नहीं करना चाहिए, स्वयं के ऊपर ही गिरता है। पता नहीं आपका क्या उद्देश्य है इसके पीछे। संतों का कहा हुआ करना चाहिए, किए हुए को कोई कदाचित् ही जान पाता है। 5/7/23 हिंदी भाषा में नहीं के साथ है भी संयुक्त होता है। अन्य भारतीय भाषाओं में भी यह हो, पर यह भाषा की बड़ी विचित्र व्यवस्था है। यानि नहीं कुछ भी नहीं, स्वीकार भाव की ही सत्ता है। ६/७/२३ समाज में किसी मुद्दे पर अपना निर्णयात्मक विचार देना बहुत आसान और लोकप्रिय तरीक़ा है। परंतु सतह पर आये किसी सामाजिक मुद्दे की परतों को देखना और समझना अधिक आवश्यक है। ज्योति गौतम और उसके पति को लेकर लोग स्वाभाविक रूप से अपने मंतव्य दे रहे हैं। समाज की कोई घटना जब घटित होती है तो उसमे पूरे समाज का अक्स दिख जाता है। प्रशासनिक नौकरियों का महिमामन्डन करना, किसी चकाचौध को पाने की इच्छा होना, इसके मूल में है। उस महिला को विवाहेतर संबंध से बचना चाहिए था, पर उस पुरुष ने भी अपने घर की लड़ाई को सार्वजनिक करके अपने बच्चों का अहित किया है। पुरुष को तो उस महिला को आगे बढ़ते देखकर प्रसन्न होना चाहिए था, अगर नहीं चल पा रहा था तो चुपचाप बाहर आ जाना चाहिए था। इस तरह सनसनी फैला कर किसी को समाज का नायक बनना ठीक नहीं। हर केस अलग होता है, इससे यह निष्कर्ष निकालना ठीक नहीं कि पत्नी को पढ़ाना उचित नहीं। पढ़ाने के पीछे कोई बड़ी नौक़री पाना भर उसका उद्देश्य न समझा जाये। मनुष्य बनना शिक्षा का उद्देश्य हो। मनुष्य बनने पर एक महिला एसडीएम का पति सफ़ाईकर्मी भी रह सकता था और एक सफ़ाईकर्मी अपनी एसडीएम पत्नी से अलग रहकर भी उससे प्रेम कर सकता था। यह विवाह/प्रेम का वास्तविक स्वरूप है। 8/7/23 *आज का विचार* *स्वतन्त्रता* *July 4* *श्री ज्ञानमाता का जन्म दिवस* दूसरों की सेवा ही मुक्ति का मार्ग है। ध्यान तथा ईश्वर के साथ समस्वरता ही सुख का मार्ग है।…अपने अहं की दीवारें गिरा दें; स्वार्थ का त्याग कर दें; स्वयं को देहबोध से मुक्त कर लें; अपने अस्तित्व को भुला दें; जन्म-जन्मांतरों के इस कारागार से निकल जायें; अपने हृदय को सबमें विलीन कर दें, सम्पूर्ण सृष्टि के साथ एक हो जायें। — *श्री श्री परमहंस योगानन्द*, *योगदा सत्संग पाठ* चाह में च का अर्थ और है। यह और और ही चाह है। अंग्रेज़ी विल का अर्थ संकल्पयुक्त चाह भी है और भविष्य भी। इसके सिवा और संसार में क्या है। संसार का एक शब्द मराठी में बड़ा प्यारा है इसे वहाँ नाना कहते हैं। 9/7/23 गुरुदेव की कृपा से पूरी दुनिया बदली हुई दिखने लगी है। न किसी से शिकायत, न दुःख या कष्ट, न राग ही; न विराग ही। इस तरह की दुनिया में कोई न पराया है, न कुछ आश्चर्यजनक। सब चीजें जैसे शीशे की तरह पारदर्शी हो गई हैं। अब कोई कहानी नहीं बची है, जिससे कुछ समझना पड़े। अब मात्र तथ्य शेष है कि हम उसमे हैं और वह हममें। संसार में रहते हुए वह हममें है और इससे पार रहने पर हम उसमें हैं। ध्यान भीतर, प्रेम बाहर। कोई सज्जन आचार्य प्रशांत से एक बातचीत में कह रहे थे कि हिंदू धर्म की सबसे बड़ी समस्या है कि उसका एक ढाँचा निर्धारित नहीं है। जाति और वर्ण को मानने वाला हिन्दू है और इन्हें न मानने वाला भी हिन्दू है। कोई क्रूर मनुष्य भी इसमें धार्मिक बनकर रह सकता है। यानि इसकी व्यापकता ही इसकी समस्या है। यह बात सही है कि हमें नीतिवान और विवेकवान् होना ही होगा, पर वास्तव में व्यापकता और उदारता हिंदू धर्म की विशेषता है। हिंदू धर्म की उदारमूलक वृत्ति के कारण किसी व्यक्ति में एक समय जो दुर्गुण होते हैं, वे अगले समय में निर्मूल भी हो जाते हैं या इसकी प्रबल संभावना उसके भीतर मौजूद रहती है। मूल रूप में हिंदू धर्म सर्वथा नीतिमूलक है। वह व्यक्ति को गुणी, उदार और सर्वमांगल्यकारी बनाता है। हिंदू धर्म की किसी अन्य धर्म से कोई असंगति नहीं बनती न उसका किसी और से संघर्ष बनता है। जो कुछ इसके दुर्गुणों की बात की जाती है, उनके मूल में संदर्भ से काटकर की गई बातें हैं। इन महोदय को ब्रह्मसूत्र, उपनिषदों और गीता के माध्यम से हिंदू धर्म को समझना चाहिए। यह मनुष्य की आत्यंतिक खोजें हैं। इनसे अधिक कुछ है नहीं और न इससे कुछ बाहर बचता है। उस अनंत को व्यक्त करने के ढंग अनंत हैं, वह अलग-अलग ढंग से व्यक्त किया जाता है। हर ढंग नया है, अनोखा है, पर वह अनंत है, यह सनातन या हिंदू धर्म ने सबसे पहले सिद्ध किया हुआ है और इसे दुनिया स्वीकार करती है। भारत की मनीषा ने समग्र रूप में तत्व की पकड़ कर ली है/थी। - [ ] हिंदू धर्म के अनुयायियों को पारलौकिक जुड़ाव के बाद या जुड़े रहते हुए लौकिक समृद्धि की और ध्यान देना होगा। पश्चिमी दुनिया के देशों ने छोटी-छोटी चीजों के ऊपर शोध और उनका विश्लेषण करते हुए उन्हें भौतिक समृद्धि के अनुकूल बना लिया है। वे अनुसंधान कर रहे हैं और समूची मानव जाति की सुविधा के लिए उन्हें सौंप रहे हैं। यह उनकी बड़ी उपलब्धि है। भारत जिस दिन यह दशा प्राप्त कर लेगा, उसकी सामाजिक समस्याओं का संभव सीमा तक समाधान हो जाएगा। - [ ] इसका रास्ता ईमानदारी और परिश्रम के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। १०/७/२३ यदि हिन्दू धर्म उदारता लिए हुए है तो जैन बौध ,शिक्ख धर्म का उदय भारत में ही क्यों हुआ।जो कि हिंदू धर्मका मूल ,ईश्वर की कल्पना भी नही करते । अरविंद नायक महरौनी! आलोचना करने के लिए यह बातें कहीं जाती हैं। यह स्वाभाविक है, इन धर्मों या संप्रदायों की अच्छाइयां क्या सनातन में नहीं हैं! विकासशीलता के कारण नए संप्रदाय बनते है, संप्रदाय बनते बदलते रहते हैं, वे सब भी धर्म के उत्स तक पहुंचना चाहते हैं और पहुंचते हैं। सनातन का मूल ईश्वर की कल्पना नहीं; वरन उस तत्व का साक्षात कर लेना है, जिसे कुछ लोग ईश्वर कहते हैं. उस तत्व का साक्षात ही वास्तव में धर्म है। प्रचलित स्वरूप में ईश्वर तो सांख्य दर्शन और आर्य समाजियों के यहां भी नहीं हैं, पर वे सब हिंदू हैं। अनेकानेक संप्रदायों और परम्पराओं का उदय और अस्त होता जाता है, पर क्या कारण है कि मूल धारा अक्षुण्ण बनी रहती है. उस धारा का वर्णन जब तत्वविद करते हैं तो भाषाओं, क्षेत्रों और संप्रदायों की सीमा टूट जाती है। बिना दुभाषिए के किसी महनीय कृति के अनुवाद की भांति सब साफ हो आता है। 12/7/23 कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय | भक्ति करे कोइ सूरमा, जाति वरन कुल खोय || 18/7/23 बुंदेलखंड विश्वविद्यालय झाँसी में पीएचडी के एक वाइवा (मौखिकी) में महत्वपूर्ण प्रश्न उठा कि वसुधैव कुटुंबकम् और वैश्वीकरण में क्या मूल अंतर है! वसुधैव कुटुंबकम् में सब प्राणियों के हित की बात है, तो वैश्वीकरण एक बाज़ार आधारित, मुनाफ़ा केंद्रित व्यवस्था है। बाज़ार समाज संचालन का आधार है, बाज़ार दैनन्दिन जीवन प्रक्रिया को गतिमान रखता है, किंतु मनुष्य की यात्रा यहाँ पूरी नहीं होती। अगर ऐसा होता तो मनुष्य जब पूरी तरह सुख सुविधा संपृक्त हो जाता है, फिर उसे कुछ और पाने की इच्छा क्यों बनी रहती है। वैश्वीकरण का तो लोकतंत्र से भी साम्य नहीं बनता, पर वसुधा कुटुंब ही है, इस प्रत्यय में सबका समाहार हो जाता है। 19/7/23 These three instructions, plus meditation, contain the only rule of life that any disciple needs: detachment; realization of God as the Giver; and unruffled patience. As long as we fail in any one of these three, we still have a serious spiritual defect to overcome. ~ Sri Gyanamata, "God Alone: The Life and Letters of a Saint" तर्क और प्रतितर्क संतर्क तक पहुँचने के मार्ग हैं। वे स्वयं पाथेय नहीं हैं। बहस में उलझे लोग तर्क और उसके प्रतिपक्ष में रचे तर्क में जाते हैं। असल बात है कि वे क्या इससे वे उसके निष्कर्ष तक पहुँचते हैं या नहीं। किसी व्यक्ति को निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए तर्क से या उसके प्रतितर्क से भीतर और अतल गहराइयों में उतर कर जाना होता है। उथले तो बहलाव और प्रदर्शन मात्र है। अतल गहराई में जाने पर दोनों के सिरे एकमेक हो जाते हैं। २०/७/२३ "If you meditate for a few minutes every day and live in harmony, you will always live in heaven, and will carry your own portable paradise within you wherever you go." - Paramahansa Yogananda २९/७/२३ 'बहुत सम्हल के फ़क़ीरों पे तब्सिरा करना ये लोग पानी भी सूखी नदी से लेते हैं' तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना। अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः।। ३०/७/२३ महामृत्युंजय मंत्र निम्नलिखित है । जो कि यजुर्वेद के तीसरे अध्याय का साठवां मन्त्र है—— ओ३म् त्र्यम्बकम् यजामहे सुगन्धिम् पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् । त्र्यम्बकम् यजामहे सुगन्धिम् पतिवेदनम् । उर्वारुकमिव बन्धनादितो मुक्षीय मामुत: । त्र्य॑म्बकं यजामहे सु॒गन्धिं॑ पुष्टि॒वर्ध॑नम् । उ॒र्वा॒रु॒कमि॑व॒ बन्ध॑नान्मृ॒त्योर्मु॑क्षीय॒ मामृता॑त् ॥
(त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीयमामृतात्॥) (ऋक्, ७/५९/१२, वाज. ३/६०, तैत्तिरीय सं, १/८/६/२, मैत्रायणी सं, १/१०/४, २०, काण्व सं, ९/७, ३६१४, शतपथ ब्राह्मण, २/६/२/१२, १४, तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/६/१०/५) तीन अम्बक वाले (सूर्य, चन्द्र, अग्नि नेत्र वाले, या जिसकी अम्बिका स्त्री हैं) की पूजा करते हैं, जो सुगन्ध या दिव्य गन्ध युक्त है तथा पुष्टि साधनों की वृद्धि करता है। जैसे ककड़ी का फल पकने पर स्वयं टूट जाता है, उसी प्रकार मृत्यु द्वारा शरीर से मुक्त हो जायेंगे, पर अमृत से हमारा सम्बन्ध नहीं छूटता। शरीर से आत्मा निकल कर परमात्मा से मिलती है, उसी प्रकार कन्या विवाह के पश्चात पिता के घर से निकल कर पति के घर जाती है। परमात्मा को ही पति कहा जाता है। कन्या विवाह सम्बन्धित मन्त्र वाजसनेयि संहिता मन्त्र के अगले भाग में है।
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पतिवेदनम्। उर्वारुकमिव बन्धनादितो मुक्षीयमामुतः (वाज, ३/६०-भाग २)
(कुमारियों के अर्थ में) पति की प्राप्ति करानेवाला, सुगन्धयुक्त, त्रिनेत्र की हम पूजा करती हैं। ककड़ी का फल जैसे अपने डण्ठल से छूट जाता है, उसी प्रकार हम कुमारियां माता, पिता, भाई आदि मातृगृह के बन्धुजनों से, उस कुल से, उस घर से दूर जायेंगी। किन्तु त्र्यम्बक के प्रसाद से हम पति से दूर न जांय, अर्थात् पति गोत्र में ही बनी रहें। २. इस अर्थ के निर्गुण गीत यजुर्वेद के इन दोनों मन्त्रों के समान अर्थ वाले हजारों निर्गुण गीत हैं, जिनमें मनुष्य को पत्नी, ब्रह्म को पति कहा गया है तथा शरीर से आत्मा निकलने को कन्या के ससुराल जाने जैसा कहा है। माया के बन्धन को ननद कहा गया है। इसे संस्कृत में ननान्दृ कहते हैं, अर्थात् जो प्रसन्न नहीं हो। पति अपनी बहन के अतिरिक्त पत्नी से भी प्रेम करने लगता है जिससे ननद का अधिकार कुछ न्यून हो जाता है। इस भाव का एक प्रसिद्ध निर्गुण गीत साहिर लुधियानवी ने लिखा तथा मन्ना डे ने गाया था।
लागा चुनरी में दाग, छुपाऊँ कैसे,
चुनरी में दाग, छुपाऊँ कैसे, घर जाऊँ कैसे
लागा चुनरी में दाग…
हो गई मैली मोरी चुनरिया
कोरे बदन सी कोरी चुनरिया
जाके बाबुल से नज़रें मिलाऊँ कैसे, घर जाऊँ कैसे
लागा चुनरी में दाग…
भूल गई सब बचन बिदा के
खो गई मैं ससुराल में आके
जाके बाबुल से नज़रे मिलाऊँ कैसे, घर जाऊँ कैसे
लागा चुनरी में दाग…
कोरी चुनरिया आत्मा मोरी
मैल है माया जाल
वो दुनिया मोरे बाबुल का घर
ये दुनिया ससुराल
जाके बाबुल से नज़रे मिलाऊँ कैसे, घर जाऊँ कैसे
लागा चुनरी में दाग…
कबीर से आरम्भ कर महेन्द्र मिश्र तक के इस अर्थ के बहुत से भोजपुरी गीत हैं।
इसी आशय का महेन्द्र मिश्र का प्रसिद्ध गीत है-
खेलइत रहलीं हम सुपुली मउनियाँ
ए ननदिया मोरी है, आई गइलें डोलिया कहाँर।
बाबा मोरा रहितें रामा, भइया मोरा रहितें
ए ननदिया मोरी हे, फेरि दीहतें डोलिया कहाँर।
काँच-काँच बाँसवा के डोलिया बनवलें,
ए नदिया मोरी है लागी गइलें चारि गो कहाँर।
नाहीं मोरा लूर ढंग एको न रहनवाँ
न ननदिया मोरी लेई के चलेलें ससुरार।
कहत महेन्दर मोरा लागे नाही मनवाँ
ए ननदिया मोरी हे छूटि गइलें बाबा के दुआर। अमीर ख़ुसरो के गीत यहीं से अनुकृत हैं। लोकपरंपरा में बाबुल संबंधी यह गीत खूब गए जाते हैं। ३१/७/२३ शरीरांत दशा के लिए बड़े प्यारे शब्द हैं। कुछ है नित्यलीलालीन, निधन, मृत्यु, स्वर्गवास इत्यादि। लीला समझे बिना उसमे लीन नहीं हुआ जा सकता। निधन से आशय निकलता है कि जीवन धन्यता है, ऐसा भी नहीं कि जीवन न होना धन्यता नहीं, पर उसका भोक्ता तो जीव ही है। मृत्यु में चार अक्षर विद्यमान है । म सीमा का द्योतक है, आर गति का त पहुँचने का तो या यात्रा का। चारों का समवेत स्वर यात्रा या गति ही उभरता है। स्पष्ट है कि मृत्यु में जीव की गतिविहीनता का भाव है। स्वर्ग तो एक कामना है, इसलिए मनुष्यों ने मृत्यु की अवस्था को स्वर्गवास नाम दे दिया। दूसरे, स्वर में गति करने का नाम स्वर्ग है। वर्णमाला में स्वर मूल ध्वनियाँ हैं, उनके बिना व्यंजन ध्वनियों का अस्तित्व नहीं। व्यंजन यदि शक्ति हैं तो स्वर शिव हैं। शक्ति के बिना शिव नहीं और शिव शक्ति का लक्ष्य है। शक्ति शिव में लीन रहती है और शिव शक्ति के माध्यम से प्रकट होते हैं।