Wednesday, November 30, 2022

नवंबर २२

हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्। तत्त्वं पूषन्नपातृणु सत्यधर्माय दृष्टये॥ ईशावास्योपनिषद् श्लोक १५।। अर्थात उस परमात्मा का मुख सोने के चमकदार पात्र से ढका हुआ है। परब्रह्म सूर्यमण्डल के मध्य स्थित है, किन्तु उसकी अत्यन्त प्रखर किरणों के तेज से हमारी ये भौतिक आँखेंं उसे नहीं देख पातीं। जो परमात्मा वहां स्थित है, वही मेरे भीतर विद्यमान है। मैं ध्यान द्वारा ही उसे देख पाता हूं। ६/११/२२ यस्याः प्राप्येत पर्यन्त-विशेषः कैर्मनोरथैः । मायामेकनिमेषेण मुष्णंस्तां पातु नः शिवः ।। ७/११/२२ वर्णमाला देश है और गिनती काल। यह सूत्र रूप में बात ध्यान करते समय उतरी। अभी व्याख्या नहीं हो पाएगी। ८/११/२२ जयानुकम्पादिगुणानपेक्षसहजोन्नते । जय भीष्ममहामृत्युघटनापूर्वभैरव ॥१५॥ न प्रक्रियापरं ज्ञानं! न क्रियारहितं ज्ञानं न ज्ञानरहिता क्रिया। गरीयानकर्मिणो योगी स च ज्ञानवतः शिशु! दश अंगुल पर्यंत वेदोक्त पुरुष सूक्त में है तो द्वादशांत आगम में आता है। यही दोनों का प्रस्थानबिंदु तो नहीं! सिद्धिकामस्य तत्सिद्धौ साधनैव हि कारणम् मुक्तिकामस्य नो किंचिन्निषिद्धं विहितं च नो। तंत्रालोक १५/२९१ सकार सृष्टि का सीत्कार है। स्वाहाप्रत्यवमर्शात्स्यात्समंत्रादद्वयं परं! स्वाहा शिव और शक्ति का मिलन है। यजमान का यज्ञ है। येन सर्वमिदं बुद्धं प्रकृतिर्विकृतिश्च या गतिज्यः सर्व भूतानां तं देवा ब्राह्मणम् विदु 9/11/22 Art is amoral; so is life. For me there are no obscene pictures or books; there are only poorly conceived and poorly executed ones. Every human life had its pattern that had to be worked out slowly to its ultimate conclusion. The real artist while he paints does not think of the sale, only of the need to make a beautiful living thing. A canvas that I have covered is worth more than a blank canvas. My pretensions go no further; that is my right to paint, my reason for painting. In order to paint life one must understand not only anatomy, but what people feel and thing about the world they live in. The painter who knows his own craft and nothing else will turn out to be a very superficial artist. There are neither good nor evil; only the existence and action. You cannot be firmly certain about anything. You can only have enough courage and strength to do what you consider to be right. Maybe it turns out that was wrong, but still you would have done this, and it is most important. Being mad is even pleasant. But only a madman understand that. A person may paint or talk about painting but he cannot do both at the same time. १०/११/२२ जीवन एक प्रसार , एक वृद्धि और एक प्रगति है। xxx वास्तव में वृद्धि का तात्पर्य है समय और स्थान में सब तरफ़ फैलना; और प्रगति का तात्पर्य है सब दिशाओं में समान गति; पीछे भी और आगे भी, और नीचे तथा दाएँ बाएँ और ऊपर भी। अतएव चरम वृद्धि है स्थान से परे फैल जाना और चरम प्रगति है समय की सीमा से आगे निकल जाना। समय स्थान की शिलाओं पर अंकित की हुयी ब्रह्मांड की स्मृति है। प्रसार के लिए सब मनुष्यों को समान भोजन मिलता है, पर उनका खाने और पचाने का सामर्थ्य समान नहीं होता, क्योंकि वे एक ही अंडाणु से एक ही समय और स्थान पर नहीं निकले हैं। समय-स्थान में उनके प्रसार में अंतर होने से कोई दो मनुष्य हूबहू एक जैसे नहीं मिलते। पृष्ठ २३५-२३७ किताबे मीरदाद से विवाद से बचो। सत्य स्वयं प्रमाणित है, जिसे तर्क और प्रमाण के सहारे की आवश्यकता होती है उसे देर सबेर तर्क और प्रमाण के सहारे ही गिरा दिया जाता है। वह प्रेम प्रेम नहीं जो प्रेमी को अपने अधीन कर लेता है! वह प्रेम प्रेम नहीं जो रक्त और मांस पर पलता है। वह प्रेम प्रेम नहीं जो स्त्री और पुरुष को शारीरिक बंधन में रखे। आत्मविजेता हर रक्त के साथ अपने रक्त का संबंध महसूस करता है। इसलिए वह किसी के साथ बंधा नहीं होता। हवा में छोड़ा तुम्हारा श्वास निश्चय ही किसी के फेफड़ों में प्रवेश करेगा। मत पूछो कि फेफड़े किसके हैं। केवल इतना ध्यान रखो की तुम्हारा श्वास पवित्र हो। १२/११/२२ किसी भी परिश्रम के लिए पुरस्कार मत माँगो। जो अपने परिश्रम से प्यार करता है, उसका परिश्रम स्वयं पर्याप्त पुरस्कार है। जो तुम्हारे पास आ जाता है वह तुम्हारा है। जो आने में विलम्ब करता हैवह इस योग्य नहीं कि उसकी प्रतीक्षा की जाए। प्रतीक्षा उसे करनव दो। कभी किसी चीज़ की शिकायत न करो। किसी चीज़ की शिकायत करना उसे अपने लिए अभिशप्त बना लेना है। उसे भली प्रकार सहन कर लेना उसे उचित दंड देना है। किंतु उसे समझ लेना एक सच्चा सेवक बना लेना है। तुम उसी को वश में रखते हो, जिससे तुम प्रेम करते हो, जिससे घृणा करते उसके तो वास में होते हो। जो मर रहे हैं उन्हें जीवन का उपदाह दो, जो जी रहे हैं उन्हें मरने का उपदेश दो किंतु जो आत्मविजय के लिए तड़प रहे हैं उन्हें दोनों से मुक्ति का उपदेश दो। अच्छा मार्गदर्शक बनने के लिए आवश्यक है कि स्वयं अच्छा मार्गदर्शन पाया हो। अपने मार्गदर्शक पर विश्वास रखो। मशाल को ऊँचे स्थान पर रखो, उसे देखने के लिए लीगों को बुलाते न फिरो। किसी मनुष्य से घृणा न करो। एक भी मनुष्य से घृणा करने की अपेक्षा प्रत्येक मनुष्य से घृणा पाना कहीं अच्छा है। प्रभु की खोज में लगे हृदय को सभी रास्ते प्रभु की ओर ले जाते हैं। जीवन के सब रूपों के प्रति आदर भाव रखो। ग़रीबी या अमीरी नाम की कोई चीज़ नहीं। बात वस्तुओं के उपयोग करने के कौशल की है। सबसे अधिक असह्य परेशानी है किसी बात को परेशानी समझना। अपनी पसंद का चुनाव कर लो, हर वस्तु का स्वामी बनना या किसी का भी नहीं, बच का कोई मार्ग संभव नहीं। रास्ते का हर रोड़ा एक चेतावनी है, उसे अच्छी तरह पढ़ लेने पर वह प्रकाश स्तंभ बन जाएगा। शब्द जहाज़ हैं जो स्थान के समुद्रों में चलते हैं और अनेक बंदरगाहों पर रुकते हैं। सावधान रहो की तुम उन्मे क्या लादते हो, क्योंकि अपनी यात्रा समाप्त करने के बाद वे अपना माल आख़िर तुम्हारे ही द्वार पर उतारेंगे। शब्द अधिक से अधिक बिजली की कौंध हैं जो क्षितिजों की झलक दिखाती है, ye उन क्षितिजों तक पहुँचने का मार्ग नहीं हैं, स्वयं क्षितिज तो बिल्कुल नहीं। अगर कौंध की दिशा में बढ़ चले तो शब्द कमज़ोर बुद्धि वाले के लिए बलशाली पंख भर हैं। जबतक तुम समय के खोल को बेध नहीं देते और स्थान की सीमा को लांघ नहीं तब तक कोई यह न कहे मैं प्रभु हूँ। बल्कि सब कहें प्रभि ही मैं हैं। समय द्वारा ही समय के विरुद्ध लदो। स्थान को ही स्थान का आहार बनने दो। दोनों में से एक का भी स्वागत करना दोनों का बंद होना तथा नेकी और बदी की अंतहीन हास्यजनक चेष्टाओं का बंधक बने रहना है। एक व्यक्ति स्वर्ण की शुद्धता और सुंदरता को देखने का आनंद लेता है और तृप्त हो जाता है जब की दूसरा स्वर्ण का स्वामी होने का रस लेता है और सदा भूखा रहता है। परमात्मा के सृजन की तुलना में मनुष्य का सृजन ऐसा ही है जैसे किसी महान वास्तुकार द्वारा निर्मित एक भव्य मंदिर या सुंदर दुर्ग की तुलना में एक बच्चे द्वारा बनाया गया ताश के पत्तों का घर। किंतु है तो वह फिर भी सृजन ही। जीवन निरंतर अंडाणु में से निकल रहा और वापस अंडाणु में विलीन हो रहा है। सृष्टि की प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक माँ अंडाणु का खोल टूट नहीं जाता और लघु परमात्मा विराट परमात्मा होकर बाहर नहीं निकल आता। जैसे धरती को वायु लपेटे हुए है, ऐसे ही इस अंडाणु को विकसित परमात्मा लपेटे हुए है। ब्रह्मांड में जो भी पदार्थ और जीव हैं, वे सब उसी लघु परमात्मा को लपेटे हुए समय-स्थान के अंडाणुओं से अधिक और कुछ नहीं, परंतु सबमें लघु परमात्मा प्रसार की भिन्न भिन्न अवस्थाओं में है। अन्याय को अकेला छोड़ दो, वह स्वयं ही अपने आपको मिटा देगा। क्या गधे को हांकने वाला उसकी दुम के पीछे पीछे नहीं चलता? क्या जेलर क़ैदियों से नहीं बंधा होता। एक तुच्छ मच्छर भी कुशल योद्धा को पछाड़ देता है। मनुष्य ने प्रभु के विधान का उल्लंघन करके पाप नहीं किया , बल्कि पाप किया है उस विधान के प्रति अपने अज्ञान पर पर्दा डालकर। द्वैत कोई दंड नहीं है, बल्कि एकत्व की प्रकृति में निहित एक प्रक्रिया है, उसकी दिव्यता के प्रकट होने का एक आवश्यक साधन। विश्वास से रहित ज्ञानेंद्रियाँ अत्यंत अविश्वसनीय मार्गदर्शक हैं। तनाव का अर्थ है आप कुछ और होना चाहते हैं जोकि आप नहीं हैं। १३/११/२२ अपना पेट भरने और विस्तार करने के प्रकृति के ढंग को हम युद्ध नहीं कह सकते। प्रकृति में कौन बलवान है और कौन दुर्बल। केवल प्रकृति हाई बलवान है। अन्य सभी जीव प्रकृति की इच्छा का पालन करते हैं। केवल मृत्यु से मुक्त जीवों को बलवान का दर्जा दिया जा सकता है। प्रकृति से अधिक शक्तिशाली मनुष्य है, क्योंकि वह समृद्ध प्रकृति का अभाव पूर्ति के लिए शोषण करता है। और संतानों के माध्यम से इसलिए विस्तार करता है कि अपने आपको ऐसे विस्तार से ऊपर उठा सके। अज्ञानी हृदय द्वैतपूर्ण होता है, ज्ञानवान हृदय एकतापूर्ण होता है। मनुष्य का मान तो केवल मनुष्य बने रहने में है। मनुष्य जो जीता जागता प्रभु का प्रतिबिंब और प्रतिरूप है। बाक़ी सब मान तो अपमान ही है। युद्ध करो उन सब वस्तुओं से जो तुम्हें और तुम्हारे पड़ोसी को आपस में लड़ाती हैं। ख़ूबी तो है उनके साथ शांतिपूर्वक जीने में जो ज़िंदा हैं। लोगों के होंठों पर प्रसिद्धि अंकित करना वैसा ही है जैसे समुद्र तट की रेत पर नाम अंकित करना। ओंठों पर उसे एक छींक ही उड़ा देगी। मनुष्य अपनी सम्पत्ति से उतना हाई बंधा हुआ है जितना अपने जीवन से। जो बलपूर्वक थोपा जाता है उसे देर सेबर बलपूर्वक हटा भी दिया जाता है। क्या सदा नहीं होता आया कि दुर्बल अपनी दुर्बलता के लिए संगठित हो जाते हैं। दिव्य ज्ञान स्वयं अपनी ढाल है, उसकी शक्तिशाली भुजा प्रेम है। यह किसी को सताता नहीं, यह तो हृदयों पर ओस की तरह गिरता है और जो इसे स्वीकार नहीं करते उन्हें भी पान करने वालों की तरह राहत देता है। क्योंकि इसे अपनी आंतरिक शक्ति पर बहुत गहरा विश्वास है। किसी भी सत्ता का रत्ती भर मूल्य नहीं है। सत्य का बीज प्रत्येक मनुष्य aur वस्तु के अंदर मौजूद है, उसे बोने की नहीं अंकुरित होने के लिए अनुकूल ऋतु तैयार करने की ज़रूरत है। मेरी अनुपम माँ। जिस प्रकार तूने अपना हृदय मेरे सामने फैला रखा है ताकि जो चाहिए ले लूँ, उसी प्रकार मेरा हृदय तेरे सम्मुख प्रस्तुत है कि जो चाहिए ले ले। धरती के हृदय से इस प्रकार की भावना प्रेरित होने पर इस बात का कोई महत्व नहीं रह जाता कि तुम क्या खाते हो। यह सच है की जीवों का मारना निश्चित है फिर भी धिक्कार है उसे जो किसी जीव की मृत्यु का कारण बनता है। प्रभु इच्छा किसी मनुष्य या पशु को मारने का काम नहीं सौंपती, जब तक कि उस मौत के लिए साधन के रूप में उसका उपयोग करना आवश्यक न समझती हो। धरती का पोषण धरती को ही करना है, वह कोई कंजूस गृहिणी नहीं। जो व्यक्ति वस्तुओं के पोर पोर का आनंद लेता है, वह उसके मालिक से अधिक धनी है। बच्चों की तुलना में बूढ़े सहानुभूति के अधिक अधिकारी होते हैं। महत्व शब्द की उस भावना का होता है, जो उसके भीतर गूंजती है, पशु भी उससे प्रभावित होते हैं। अपनी इच्छा शक्ति से तुम बहुत कुछ कर सकते हो, पर उस इच्छा शक्ति का अंत नहीं कर सकते, जो जीवन की इच्छा है, प्रभु की इच्छा है। जीवन या अस्तित्व अपनी इच्छा शक्ति से अस्तित्वहीन नहीं हो सकता न ही अस्तित्वहीन की कोई इच्छा हो सकती है। प्रेम ही प्रभु का विधान है। तुम जीते हो ताकि तुम प्रेम करना सीख लो। तुम प्रेम करते हो ताकि तुम जीना सीख लो। मनुष्य को और कुछ सीखने की आवश्यकता नहीं। और प्रेम करना क्या है, सिवाय इसके कि प्रेमी प्रियतम को सदा के लिए अपने अंदर लीन कर ले ताकि दोनों एक हो जाएँ। मीरदाद। भाग्य प्रभु इच्छा का ही दूसरा नाम है। समय और स्थान के अंदर कोई आकस्मिक घटना नहीं होती। हर पदार्थ में मनुष्य की इच्छा शामिल है और मनुष्य में शामिल है हर पदार्थ की इच्छा। समय स्थान की शिलाओं पर अंकित की हुयी ब्रह्मांड की स्मृति है। तुलना आनंद की चोर है। केवल प्रेम ही मोह से मुक्ति है। तुम जब हर वस्तु से प्रेम करते हो, तुम्हारा किसी भी वस्तु से मोह नहीं रह जाता। प्रेम ही समय और स्थान के अस्तित्व को मिटा पता है। समय का नियम पुनरावृत्ति है। सब वस्तुएँ मनुष्य में समायी हुयी हैं और मनुष्य सब वस्तुओं में। यह ब्रह्मांड केवल एक ही पिंड है। इसके सूक्ष्म से सूक्ष्म कण के साथ सम्पर्क कर लो और तुम्हारा सभी के साथ संपर्क हो जाएगा। यह शरीर समय और स्थान में विद्यमान हर पदार्थ में से लिया जाता है। जो अंश जिसका है उसी में वह जीता है। समय में कोई वस्तु इस योग्य नहीं कि उसके लिए आँसू बहाए जाएँ। तर्क का एकमात्र उपयोग मनुष्य को तर्क से छुटकारा दिलाना और उसको विश्वास की ओर प्रेरित करना है जो दिव्य ज्ञान की ओर ले जाता है। तर्क अपाहिजों के लिए वैसाखी है तेज पैर वालों के लिए एक बोझ है और पंख वालों के लिए तो और भी बड़ा बोझ। तर्क सठिया गया विश्वास है और विश्वास वयस्क हो गया तर्क है। अधिकांश लोग मरने के लिए जीते हैं। भाग्यशाली हैं वे जो जीने के लिए मारते हैं। मनुष्य परिवर्तन से इतना ऊब जाएगा कि उसका पूरा अस्तित्व परिवर्तन से अधिक शक्तिशाली वस्तु के लिए तरसेगा। कभी मंद न पड़ने वाली तीव्रता ke साथ तरसेगा। और निश्चय ही वह उसे अपने अंदर प्राप्त करेगा। समय का पहिया घूमता है पर इसकी धुरी सदा स्थिर है। गोलाई में हो रही गति कभी किसी अंत पर नहीं पहुँच सकती, न वह कभी ख़त्म होकर रुक सकती है। संसार में हो रही प्रत्येक गति गोलाई में हो रही गति है। समय का पहिया स्थान के शून्य में घूमता है। जो वस्तु एक के लिए समय और स्थान के एक बिंदु पर लुप्त होती हैं, वह दूसरे के लिए किसी दूसरे बिंदु पर प्रकट हो जाती हैं। सब ऋतुएँ समय और स्थान के प्रत्येक बिंदु पर एक ही हैं। समय सबसे बड़ा मदारी है और मनुष्य धोखे का सबसे बड़ा शिकार। क्या तुम निरंतर क्षीण होकर ही विकसित नहीं हो रहे हो? kya तुम निरंतर विकसित होकर हि क्षीण नहीं हो रहे हो। धीमे और और वेगवान को समय और स्थान के किसी भी बिंदु पर एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। धीमा ही वेग वान को जन्म देता है। वेगवान धीमे का वाहक है। समय में कुछ भी समाप्त और विसर्जित नहीं होता। कुछ भी आरंभ तथा पूर्ण नहीं होता। समय इंद्रियों के द्वारा रचित एक चक्र है और इंद्रियों के द्वारा ही उसे स्थान के शून्यों में घुमा दिया जाता है। ऋतुओं को प्रकट और विलीन करने वाली शक्ति एक रहती है, सदैव वही रहती है। शक्ति न विकसित होती है न क्षीण। कम खर्ची और परिश्रम ke लिए धन सम्पत्ति परमात्मा का उचित पुरस्कार है। लेनदार का ऋण देनदार के ऋण से अधिक बड़ा और भारी होता है। उधार देने के लिए तुम्हारे पास है क्या? क्या यह संसार एक संयुक्त कोष नहीं। संसार तुम्हें अपना नहीं सकता, क्योंकि वह तुम्हें नहीं जानता। परंतु तुम संसार को अपना सकते हो, क्योंकि तुम संसार को जानते हो। धरती हर मनुष्य और पशु की गंदगी स्वीकार कर लेती है और बदले में उन्हें मीठे फल, सुगंधित फूल, प्रचुर अनाज और घास सब देती है। नाले की गंदगी समुद्र तह में बिछाकर उसे स्वच्छ कर देता है। अपने पड़ोसी की आँखों की ज्योति को सम्भालकर रखो ताकि तुम अधिक स्पष्ट देख सको। अपनी दृष्टि सम्भालकर रखो ताकि तुम्हारा पड़ोसी ठोकर न खा जाए और कहीं तुम्हारे द्वार को ही न रोक ले। मनुष्य प्रभु का शब्द है। प्रभु मनुष्य का शब्द है। धन्य है वह जिसका शब्द मनुष्य है। धन्य है वह जिसका शब्द प्रभु है। जो कोई अपने हृदय में मंदिर को नहीं पा सकता, वह किसी भी मंदिर में अपने हृदय को नहीं पा सकता। शब्द व्यर्थ हैं यदि प्रत्येक अक्षर में हृदय अपनी पूर्ण जागरूकता के साथ उपस्थित न हो। कोई वचन कर्म कोई इच्छा या निश्वास, कोई क्षणिक विचार या अस्थायी सपना, मनुष्य या पशु का कोई श्वास, कोई परछाई, कोई भ्रम, इनमे से किसी एक ke साथ भी तुम अपने हृदय का सुर मिला लो, निश्चय ही वह उसके तारों पर धुन बजाने ke लिए तेजी से दौड़ा आएगा। जहां भूख है वहाँ भोजन है। जहां भोजन है, वहाँ भूख भी अवश्य होगी। भूख की पीड़ा से व्यथित होना तृप्त होने का आनंद लेने की सामर्थ्य रखना है। आवश्यकता में ही आवश्यकता की पूर्ति है। डींग मारती नेकी से ख़बरदार रही। जैसे अपनी शर्मिंदगी का मुँह बैंड रखते हो, वैसे ही अपने सम्मान का मुँह भी बंद रखो। डींग मारता सम्मान मूक कलंक से भी बदतर है, शोर मचाती नेकी गूँगी बदी से बदतर है। कितना कठिन है वह शब्द बोलना जिसे बोलना सचमुच आवश्यक है। बोले गए हज़ार शब्दों में से शायद एक केवल एक ऐसा हो जिसे बोलना सचमुच आवश्यक है। लिखे गए हज़ार शब्दों में से शायद एक, केवल एक ऐसा हो जिसे लिखना सचमुच आवश्यक है। ऐसा मौन हो जिसमें अनस्तित्व अस्तित्व में और अस्तित्व अनस्तित्व में बदल जाए। जब तुम्हारा मैं और मेरा मैं एक हो जाएँगे जैसे प्रभु ka मैं और मेरा मैं एक है, हम शब्दों को अलग कर देंगे और सच्चाई भरे मौन में खुलकर दिल की बात करेंगे। मुख से कही गयी बात अधिक से अधिक एक निष्कपट झूठ है, जबकि मौन कम से कम एक नग्न सत्य है। जिस किसी ने भी मौन की अजेय शांति का अनुभव किया है, उसे न कभी नाराज़ किया जा सकता है, न वह कभी किसी को नाराज़ कर सकता है। प्रेम एक क्रियाशील शक्ति है। जब प्रेम तुम्हारी दृष्टि को निर्मल कर देगा, तब कोई भी वस्तु तुम्हें प्रेम के अयोग्य दिखाई नहीं देगी। प्रेम को उसी सरलता और स्वतंत्रता के साथ स्वीकार करो जिस सरलता और स्वतंत्रता से तुम साँस लेते हो। प्रेम ही प्रेम का पर्याप्त पुरस्कार है जैसे घृणा ही घृणा का पर्याप्त दंड है। इसका लेना ही देना है और देना ही लेना है। आत्म प्रेम के अतिरिक्त कोई प्रेम संभव नहीं। अपने अंदर सबको समा लेने वाले अहं के अतिरिक्त कोई अहं वास्तविक नहीं है। जब तक प्रेम तुम्हें पीड़ा देता है, तुम्हें अपना वास्तविक अहं नहीं मिला है। जब तक तुम एक भी मनुष्य को शत्रु मानते हो, तुम्हारा कोई मित्र नहीं। जब तक तुम्हारे हृदय में घृणा है, तुम प्रेम के आनंद से अपरिचित हो। प्रेम ही प्रभु का विधान है। १४/११/२२ दृश्य में वह सब है जो दिख रहा है या दिख सकता है, अदृश्य में वह जो दिखता नहीं, पर दिख सकता है. दोनों में दिख सकना सामान्य है, पर इस दिख सकने में न दिख पाना भी शामिल है, जिसे कहा नहीं जा सका। १५/११/२२ सब मृतक जीने वालों में जी रहे हैं। यदि तुम बोझ को हल्का रखना चाहते हो तो किसी के विषय में फ़ैसला करने न बैठो। बोझ उतर जाए, इसके लिए शब्द में डूबकर सदा ले लिए उसमें खो जाओ। जीवन अंतर में सिमटना है मृत्यु बाहर बिखरना। जीवन जुड़ना है मृत्यु टूट जाना। मनुष्य सिमटेगा अवश्य पर बिखरकर ही। जुड़ेगा अवश्य, पर टूटकर। प्रभु और मनुष्य अलग अलग नहीं हैं। केवल हैं प्रभु मनुष्य या मनुष्य प्रभु । वह सदा एक है। इस तरह इच्छा करो की तुम स्वयं इच्छा हो। इस तरह सोचो मानो तुम्हारे हर विचार को को आकाश में आग से अंकित होना है ताकि उसे हर प्राणी और पदार्थ देख सके। इस तरह बोलो मानो सर संसार केवल एक ही कान है जो तुम्हारी बात सुनने के लिए उत्सुक है। इस तरह कर्म करो मानो तुम्हारे हर कर्म को palatkar तुम्हारे सिर पर आना है। इस तरह जीयो मानो स्वयं प्रभु को अपना जीवन जीने के लिए तुम्हारी आवश्यकता है। किसी भी वस्तु को ढकने का प्रयत्न न करो। और कुछ नहीं तो उनका आवरण ही उन्हें प्रकट कर देगा। क्या ढक्कन नहीं जानता वर्तन के अंदर क्या है? तुम्हारे अंदर से एक भी ऐसा श्वास नहीं निकलता जो तुम्हारे हृदय के गहरे से गहरे रहस्यों वायु में में बिखेर नहीं देता। यदि स्वयं अंधकार पर से आवरण हटा दिए जाएँ तो वह किसी वस्तु के लिए आवरण कैसे हो सकता है? किसी भी वस्तु का मोल न लगाओ, साधारण वस्तु भी अनमोल होती है। क्या रोटी बिना सूर्य धरती वायु सागर तथा मनुष्य के पसीने और चतुरता के बिना बन सकती है? भूखे के लिए भूख केवल भूख है, परंतु तृप्त के लिए कुछ देने का एक शुभ अवसर। भूखों की खोज करो उनकी भूख तुम्हारी तृप्ति है। यदि तुम मुझे अच्छी तरह जानना चाहते हो तो तुम पहले स्वयं को अच्छी तरह जान लो। जब मैं मनुष्यों के साथ होता हूँ तो परमात्मा हूँ। जब परमात्मा के साथ तो मनुष्य। परमात्मा एक है पर मनुष्य की परछाइयाँ अनेक और भिन्न भिन्न हैं। जब तक मनुष्यों की परछाइयाँ धरती पर पड़ती हैं तब तक किसी मनुष्य का परमात्मा उसकी परछाईं से बड़ा नहीं हो सकता। केवल परछाईं रहित मनुष्य ही पूरी तरह से प्रकाश में है। सेवक स्वामी का स्वामी है और और स्वामी सेवक का सेवक। सेवक को अपना सिर न झुकाने दो। स्वामी को अपना सिर न उठने दो। मस्तक पेट का स्वामी हैपरंतु पेट भी मस्तक का कम स्वामी नहीं है। कोई भी चीज सेवा नहीं कर सकती जब तक सेवा करने में उसकी अपनी सेवा न होती हो। aur कोई भी चीज सेवा नहीं करवा सकती जब तक उस सेवा से सेवा करने वाले की सेवा न होती हो। अपना कार्य करते हुए संसार तुम्हारा भी कार्य करता है। और अपना कार्य करते हुए तुम संसार का कार्य करते हो। शब्द एक है और उस शब्द के अक्षर होते हुए तुम भी वास्तव में एक ही हो। कोई भी अलशर किसी अन्य अलशर से श्रेष्ठ नहीं, न ही किसी अन्य अक्षर से अधिक आवश्यक है। अनेक अक्षर एक ही अक्षर हैं, यहाँ तक कि शब्द भी। तुम चाहो तो mujhe अस्वीकार कर दो परंतु मैं तुम्हें अस्वीकार नहीं कर सकता। मेरे शरीर का मांस तुम्हारे शरीर के मांस से भिन्न नहीं है। बुद्धिमानों के लिए सब कुछ बुद्धिमत्ता का भंडार है। बुद्धिहीनो के लिए बुद्धिमत्ता स्वयं एकि मूर्खता है। मनुष्य एक बादल है जो प्रभु को अपने अंदर लिए हुए है। रिक्त न हुआ तो अपने आपको नहीं पा सकता। कितना आनंद है रिक्त हो जाने में। शब्द सागर है तुम बादल हो। बादल सागर के बिना क्या रह सकता है? मूर्ख है वह बादल जो अपने रूप और अस्तित्व को सदा बनाए रखने के उद्देश्य से आकाश में आधार में टंगे रहने के प्रयास में ही अपना जीवन नष्ट करना चाहता है। यदि वह बादल के रूप में मरकर लुप्त नहीं हो जाता तो अपने अंदर के सागर को नहीं पा सकता जो उसका एकमात्र अस्तित्व है। यदि तुम अपने आपको सदा के लिए शब्द में खो नहीं देते, तो तुम उस शब्द को नहीं समझ सकते जो कि तुम स्वयं हो, जो कि तुम्हारा मैं ही है। कितना आनंद है खो जाने में। यदि मुझमें प्रकाश न होता तो क्या तुम्हारी आँखें मुझे देख पाती? यह मेरा प्रकाश है जो तुम्हारी आँखों में मुझे देखता है। यह तुम्हारा प्रकाश है जो मेरी आँखों में तुम्हें देखता है। मनुष्य को प्रभु से अलग नहीं किया जा सकता aur इसलिए केवल अपने साथी मनुष्यों से और अन्य प्राणियों से भी उसे अलग नहीं किया जा सकता क्योंकि वे भी शब्द से उत्पन्न हुए हैं। प्रभु ke शब्द में सब कुछ शामिल है। प्रभु का शब वह जीवन है जो जन्मा नही, इसीलिए अविनाशी है। क्या तुम केवल प्रभु के जीवन के सहारे जीवित नहीं हो? pahle शब्द का ज्ञान प्राप्त करो जिससे तुम अपने ख़ुद के शब्द को जान सको। जब तुम अपने शब्द को जान लोगे तब अपनी चलनियों को अग्नि की भेंट कर दोगे। प्रभु के शब्द के लिए समय और स्थान का कोई अस्तित्व नहीं है। प्रभु का शब्द एक कुठाली (CRUCIBLE) है जो कुछ वह रचता है उसको पिघलाकर एक कर देता है, न उसमें से किसी को अच्छा मानकर स्वीकार करता है, न ही बुरा मानकर ठुकराता है। उसकी रचना और वह स्वयं एक है। एक अंश को ठुकराना संपूर्ण को ठुकराना है, और संपूर्ण को ठुकराना अपने आपको ठुकराना है। जबकि मनुष्य का शब्द एक चलनी (cribbles) है। रचता है और लड़ाई झगड़े में लगा देता है। शत्रु और मित्र मैं की रचना है। सब कुछ पूरी तरह संतुलित होता है। तुम्हारा शब्द अभी भी पर्दों में छिपा हुआ है। मैं कहते हुए मनुष्य शब्द को दो भागों में चीर देता है। माँ भली प्रकार जानती है कि पोतड़े शिशु नहीं है। परंतु बच्चा यह नहीं जानता। मनुष्य का शब्द जो उसकी चेतना की अभिव्यक्ति है, कभी भी अर्थ में स्पष्ट और निश्चित नहीं होता। मैं कहते हुए मनुष्य शब्द को दो भागों में चीर देता है, एक उसके पोतड़े, दूसरा प्रभु का अमर अस्तित्व। पर अविभाज्य को कोई शक्ति विभाजित नहीं कर सकती। प्रभु को मैं से अधिक बोलने की कोई आवश्यकता नहीं। इसलिए मैं उसका एकमात्र शब्द है। चूँकि किसी शब्द का कोई अर्थ न हो तो वह शब्द शून्य में गूंजती केवल एक प्रतिध्वनि है। यदि इसका अर्थ सदा एक ही न हो तो यह गले का कैंसर और ज़बान पर पड़े छले से अधिक और कुछ नहीं। चेतना, शब्द और दिव्य ज्ञान यह त्रिपुटी पावन है। प्रत्येक शब्द होता है एक वस्तु का प्रतीक, प्रत्येक वस्तु होती है एक संसार का प्रतीक, प्रत्येक संसार होता होता है एक ब्रह्मांड का घटक अंग। यह ब्रह्मांड तुम्हारे मैं की रचना है जोनेक साथ स्रष्टा और सृष्टि दोनो है। जैसा सृष्टा वैसी रचना। सृष्टा केवल अपने आप को ही रचता है- न अधिक न कम। तुम्हारी आँखें बहुत से पर्दों से ढकी हुयी हैं। हर वस्तु जिस पर तुम दृष्टि डालते हो, मात्र एक पर्दा है। पदार्थों से उनके परदे उतार फेंकने के लिए मत कहो। अपने पर्दे उतार फेंको, पदार्थों के पर्दे स्वयं उतर जाएँगे। शब्दों में सबसे तुच्छ और सबसे महान शब्द है मैं। यह सिरजनहार है। शब्द - वे क्या अक्षरों और मात्राओं में बंद किए हुए पदार्थ नहीं हैं? १७/११/२२ जीने के लिए मरना और मरने के लिए जीना जान लेना जान लेना। फिर क्या मरना और क्या जीना। १८/११/२२ सोचना और करना होने से पृथक नहीं। १९/११/२२ do your best and leave the rest. 22/11/22 Shiva lingam is the holy symbol of union of Lord shiva and Shakti. The word is lingam is derived from two sanskrit words Laya(dissolution) and agaman (recreation). Thus the ling symbolizes both the creative and destructive power of the Lord and great sanctity is attached to it by the devotees. २३/११/२२ साथ रहकर भी फासला रखना, खुद को यूं दर्द से जुदा रखना! जिसको पाने की आरज़ू हो तुम्हें, उसको खोने का हौसला रखना! नीरज झा त्रयोदशी क्या है.... सृष्टि के भीतर सृष्टि, स्थिति, संहार और तुरीय- ये चार अवस्थाएँ हैं. इसी प्रकार सृष्टि, स्थिति और संहार - इनमे भी प्रत्येक में ये चारों अवस्थाएँ रहती हैं. इस प्रकार सब मिलाकर बारह शक्ति या देवी के खेल दिखलाई पड़ते हैं. ये बारह शक्तियाँ जिस महाशक्ति से निकलती हैं तथा जिनमें लीन होती हैं उन्ही को त्रयोदशी कहते हैं. वस्तुतः यह त्रयोदशी सबमें अनुस्यूत तुरीय के साथ सम्मिलित भासा के सिवा और कुछ नहीं है. आलेख - 'तांत्रिक पूजा का परम आदर्श' महमहोपाध्याय गोपीनाथ कविराज २४/११/२२ बचने या भूलने के लिए याद रखना ज़रूरी है। २५/११/२२ सत्य एक चुंबक है। सत्य को जी जाएँ, बन जाएँ और निश्चिंत रहें। बस! आध्यात्मिक अनुशासन ही मनुष्य का वास्तविक कार्य है। जब भी बोलिए वक़्त पर बोलिए मुद्दतों सोचिए मुख़्तसर बोलिए २६/११/२२ उतना ही कहो जितना तुमने स्वयं के अनुभवों से जाना हो, उनसे ही कहो जिसने तुम्हें पूछा हो और उतना ही कहो जितना पूछा है। २७/११/२२ किसी का नकार आत्म साक्षात्कार के लिए उचित नहीं। इसी तरह किसी का स्वीकार भी ग्राह्य नहीं। संपूर्ण का नकार या संपूर्ण का स्वीकार ही वरेण्य है। संपूर्ण का नकार उसका स्वीकार है और संपूर्ण का स्वीकार उसका नकार भी है। इस स्थिति में नकार और स्वीकार विरोधी या विपरीतार्थी नहीं हैं, वरन वे परस्पर सहगामी और पूरक हैं। एक साँस का छोर परस्पर विरोधी कैसे हो सकती है। साँस शुरू होती है तभी उसका अंत होता है और अंत होता है तभी उसका प्रारंभ होता है। अंत और प्रारंभ का जब लय होता है तब यह तय नहीं किया ja सकता कि कब अंत हुआ और कब प्रारंभ। यहाँ न काल रहता है, न ही देश भी, क्योंकि लय हुयी साँस के लिए kya देह और क्या देही। वह देह ke बाहर लय हो सकती है देह ke भीतर भी। लय hone par देह का पर्दा नहीं रह जाता। जल वॉटर है, पर जलाना एक क्रिया है जिसका प्रत्यक्ष रूप में जल से कोई संबंध नहीं है। जलाप्लावन से अग्निधर्म उत्पन्न हो जाता है। अग्नि का कार्य है वस्तु का रूप परिवर्तन। जल से नए रूप तब बनते हैं जब उनका अग्नि संस्कार हो जाता है। इसमें कौन किसका विरोधी या विपरीतार्थी है! देश कंट्री का हिंदी अनुवाद है, पर वास्तव में देश स्पेस है। इसकी कोई विभाजक रेखा नहीं है। कंट्री विभाजित भूखंडों का नाम है, देश समूची आकाशी इयत्ता को कहते हैं। दक्षिणपंथी वे हैं जो वामपंथी नहीं हैं। दक्षिणपंथी त्याग को आदर्श मानते हैं, पर देखा जाता है वे त्याग का अभिमान भी रखते हैं। सात्विक क्षेत्र में रहते हैं पर उसके अहंकार से मुक्त नहीं हो पाते। त्याग का अहंकार संग्रह के त्याग से भिन्न नहीं। वामपंथी (कम्युनिस्टों से आशय नहीं) वे हैं जो दक्षिणपंथी नहीं हैं। वामपंथी प्रकृति के रहस्य से परिचित देखे जाते हैं। पर वे प्रकृति की नियामिका शक्ति या शिव तत्व में विश्वास नहीं रखते, इसलिए उन्मादी होने के निकट होते हैं। इस प्रकार परम तत्व से यह दोनों दूर रह जाते हैं। परंतु जो परम तत्व को उपलब्ध हो जाता है वह दक्षिणपंथ और वामपंथ दोनों से ऊपर उठ जाता है। उसे दोनों की सीमाए ज्ञात हो जाती हैं। इस प्रकार के व्यक्ति ही हमारे आदर्श होने चाहिए। दो शरीरों का संभोग काम या सेक्स, दो मनों का संभोग प्रेम तो दो आत्माओं का संभोग आनंद कहलाता है। पृथ्वी को होने की क्रिया घटित होने के कारण भू कहा जाता है। भव से भू बनता है, यही भव अनुभव में है। बिना क्रिया पद के वाक्य भी नहीं बनता। क्रिया पद का होना हर भाषा में अवश्यंभावी है। अगर इस क्रिया पद की ध्वनियों का सूक्ष्म निरीक्षण करेंगे तो पाएँगे कि हर भाषा की क्रिया पद की ध्वनि एक ही है। समुच्छलन्त्यै जगदात्मिकायै , शान्तस्वरूपाय सदाशिवाय । सते भवन्त्यै , भवते च सत्यै , नम: शिवायै च नम: शिवाय ।। २९/११/२२ क्रोध अहंकार का प्रकटीकरण है। भो सिरी पाली में भगवान बुद्ध द्वारा बार बार नासमझी रखने वाले लोगों को दिया गया संबोधन है।