Wednesday, March 1, 2023

फ़रवरी २०२३

When there is desire, you are residing in rājoguṇa. When there is detachment – altogether detachment – then you are residing in sāttvaguṇa. When there is desire, you are in rājoguṇa, and that binds you too. When there is complete knowledge and complete absence of knowledge – that is complete knowledge – that is fullness of knowledge. Fullness of knowledge is not fullness of knowledge. Fullness of knowledge is: when you are full and you are not full – both – that is full. ६/२/२३ शास्त्रों में सोम(होम) रस लौकिक अर्थ में एक बलवर्धक पेय माना गया है, परंतु इसका एक पारलौकिक अर्थ भी देखने को मिलता है। साधना की ऊंची अवस्था में व्यक्ति के भीतर एक प्रकार का रस उत्पन्न होता है जिसको केवल ज्ञानीजन ही जान सकते हैं। सोमं मन्यते पपिवान् यत् संविषन्त्योषधिम्। सोमं यं ब्रह्माणो विदुर्न तस्याश्नाति कश्चन।। (ऋग्वेद-10-85-3) जाति का अर्थ है अपने को जानना। अपना गुण और स्वभाव व्यक्ति जाने बिना नहीं रहता। जाति कोई हेयर्थक शब्द नहीं है। दुनिया का कौन सा देश बिना जातीय पहचान के है! जन्मगत जाति से जो परंपरागत कौशल अपने यहाँ चलते आए हैं, वे क्या सही नहीं थे। कौशल विकास से भी वह हुनर विकसित नहीं हो पा रहे हैं। अपने को जानने में किसी को छोटा या बड़ा, ऊँचा या नीचा यह भेद अग्राह्य हैं, अनावश्यक हैं। यह ऊँच-नीच कैसे विकसित हुई, इसके लिए कोई एक जाति ज़िम्मेदार कैसे हो सकती है! जब तक पूरी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था इतने बड़े परिवर्तन में संलग्न नहीं होगी, यह विकृति घटित नहीं हो सकती। अपनी बुराई को दूसरे के मत्थे मढ़कर अथवा पलायन करके उसे दूर नहीं किया जा सकता। भगवान ने जातियों में भेद नहीं माना, यह बात किसने बतायी और पूर्व में भेदभाव होता रहा, यह बात भी किसने बतायी। उस भेदभाव को दूर करने में भी औपचारिक/संवैधानिक पहल किसने प्रारंभ की। थोड़ा विचार करें। स्वस्थ लोकतंत्र में किसी जाति का अवमूल्यन नहीं किया जाना चाहिए.... It is all right to enjoy life; the secret of happiness is not to become attached to anything. Enjoy the smell of the flower, but see God in it. I have kept the consciousness of the senses only that in using them I may always perceive and think of God. "Mine eyes were made to behold Thy beauty everywhere. My ears were made to hear Thine omnipresent voice." That is Yoga, union with God. It is not necessary to go to the forest to find Him. Worldly habits will hold us fast wherever we may be until we free ourselves from them. The yogi learns to find God in the cave of his heart. Wherever he goes, he carries with him the blissful consciousness of God's presence. -Sri Sri Paramahansa Yogananda, "Man's Eternal Quest". ७/२/२३ दी का अर्थ है बुद्धि या प्रकाश, क्षा का अर्थ है दूर क्षितिज या अंत। दीक्षा का अर्थ हुआ बुद्धि का संक्रमण, क्रिया या ज्ञान द्वारा गुरु अपने शिष्य को बोध कराता है, उसे दीक्षा कहते हैं। दीक्षा बोधांतरण है, जबकि इसका युग्म शब्द शिक्षा का अर्थ अनुशासन का अंतरण है। शिक्षा प्राप्त करने के लिए अनुशासन आवश्यक है तो वास्तविक अर्थ में दीक्षा प्राप्त करने के लिए ध्यान अनिवार्य है। और कोई सटीक उपाय नहीं है। गुरु दीक्षा देते हैं, तो शिक्षक शिक्षा। अनुशासन की पूर्णता शिक्षा है और बुद्धि की पूर्णता दीक्षा। व्यक्ति के जीवन में शांति, प्रेम और आनंद की व्याप्ति दीक्षोपरांत ही संभव है। गुरु के पास रहकर सीखी गई शिक्षा के समापन को दीक्षा कहा जाता है। गुरु द्वारा शिष्य को जब पूरी तरह शिक्षा दी जा चुकी होती है तब दीक्षांत होता है। दीक्षांत समारोह दीक्षा प्रदान करने का एक अवसर है। ८/२/२३ गर्भ में नाभिनालबद्ध व्यक्ति को सांसारिक आनंद मिलना प्रारंभ हो जाता है, यहाँ पर व्यक्ति परमात्मा के आनंद में भी सराबोर रहता है। किंतु जन्म और विकास की यात्रा में वह सांसारिक ही हो जाता है। गर्भावस्था व्यक्ति की माँ है, किंतु गर्भ के बाहर उसकी माँ पंचभूतात्म जगत् है, जिनका रस वह पाँच तन्मात्राओं- शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध- के माध्यम से ग्रहण करता है। हमें हिमालय दर्शन करना है, उसे फतह नहीं। आखिर क्या कारण है कि दुनिया के सबसे ऊंचे पर्वत शिखर एवरेस्ट पर बहुत से पर्वतारोही होकर आए हैं, पर कैलास शिखर पर आज तक कोई जाकर लौटा हो, ज्ञात नहीं। कैलास पर्वत हिंदुओं के लिए ही पवित्र नहीं है, तिब्बतियों के लामा वहाँ अष्टपथ में 'गुम्मा' बनाकर रहते हैं, जैनियों के लिए भी यह स्थान श्रद्धा का केंद्र है। कैलास दर्शन के श्रद्धालुओं की इच्छा तो उसके शिखर पर जाकर दर्शन करने की नही सुनाई देती। उसकी परिक्रमा या दर्शन करके ही वे धन्य हो जाते हैं। गांवों में कहा जाता था कि पहले जब भागवत कथा होती थी तो कथा मंडप में लगे हरे बांस की सात गांठे सातों दिनों में खुल जाती थीं। यह सात गांठें कुछ और नहीं वरन सात ऊर्जा केंद्र हैं। भागवत की रसमयी कथा में पिरोए सत्यं परं धीमहि का साक्षात्कार सातवें दिन तक हो जाता है। हिमालय की यात्रा का भी यही निहितार्थ है। हिमालय की चोटियां गो और गोचर में नहीं आती, जहां माया का विस्तार रहता है। उसकी महिमा लोकोत्तर है। केदारनाथ में मैंने देखा कि दक्षिण के एक लुंगी पहने श्रद्धालु ने अपने घर पर मोबाइल पर चिल्लाकर बताया कि वह केदारनाथ पहुच गया या जो भी.. तो उसकी आँखों मे परम् तृप्ति के आंसू थे और वह हर्षित होकर बल्लियों उछल रहा था, यह भगवद्दर्शन है। ऐसा कोई दर्शन अभी तक संसार मे नही हुआ है जो सभी प्रापंचिक रहस्यों को समझा देने में समग्रतः समर्थ हो। न ऐसा भविष्य में होने का निश्चय ही है। ज्ञात से ज्ञात तक की यात्रा नॉलेज है, पर ज्ञात से अज्ञात की यात्रा लर्निग है। दर्शन परम् तत्व के बारे में इतना ही जान पाए हैं कि वह अज्ञेय है। दर्शन अधूरे हों तो भी उनमें ग्रहणीय सत्य अंतर्निहित हैं। हिमालय में आई त्रासदी से भगवान सबको जल्द उबारे, यह प्रार्थना है। हिमालय देवभूमि है, उस भूमि पर निवास करने वाले देवपुत्र ही हैं। ८ फ़रवरी २०२१ की फ़ेसबुक पोस्ट १०/२/२३ यदि हम अपनी संस्थाओं में आध्यात्मिक प्रशिक्षण को छोड़ दें, तो हमें अपने संपूर्ण ऐतिहासिक विकास के प्रति झूठा होना पड़ेगा। धर्मनिरपेक्ष होने का मतलब धार्मिक रूप से अनपढ़ होना नहीं है। यह गहरा आध्यात्मिक होना है न कि संकीर्ण रूप से धार्मिक होना। विश्वविद्यालय शिक्षा रिपोर्ट में डॉक्टर राधाकृष्णन ११/२/२३ नाद पर जब आघात होता है, तब अक्षर बनता है। अवधूता! युगन युगन हम योगी आय ना जाय मिटै ना कबहूं सबद अनाहत भोगी। सबरे ठौर जमात हमारी सब ही ठौर पर मेला। हम सब में सब है हम माहीं हम है बहुरि अकेला। हम ही सिद्ध समाधि हमी ही हम मौनी हम बोले। रूप सरूप अरूप दिखा के हम ही हम तो खेलें। कहे कबीर सुनो भाई साधो नहीं न कोई इच्छा अपनी मढ़ी में आप मैं डोलूं खेलूं सहज स्वेच्छा। १५/२/२३ महाभारत हो सकता है किसी युद्ध को देखकर प्रेरित होकर लिखा गया हो, पर वह व्यक्ति की आंतरिक वृत्तियों की द्वंद्व कथा है। व्यक्ति के भीतर ही वे विरोधी वृत्तियां मौजूद रहती हैं, उनसे संघर्ष और विजय की कथा है महाभारत। भाइयों/बहनों या परिवारों के बीच संघर्ष होता है, पर अगर बात उतनी ही होती तो यह महाकाव्य ही न बन पाता, वह एक घटनाक्रम या इतिहास बनकर रह जाता। वह कालजयी महाकाव्य है क्योंकि वह प्रत्येक व्यक्ति को उसके अंतर्मन में ले जाने की कथा है। युधिष्ठिर, अर्जुन, दुर्योधन इत्यादि जितने पात्र हैं, उन सबके प्रतीकार्थ हैं, वे व्यक्ति के अंदर ही हैं। १५ फ़रवरी २०२१ की फ़ेसबुक पोस्ट यस्योन्मेषनिमेषाभ्यां जगतः प्रलयोदयौ । तं शक्तिचक्रविभवप्रभवं शङ्करं स्तुमः ॥ शिवो गुरु: शिवो देव: शिवो बन्धु: शरीरिणाम् । शिव आत्मा शिवो जीव: शिवादन्यन्न किञ्चन ॥ जब आप इस संसार से विदा होंगे, तो सांसारिक समृद्धि पीछे छूट जाएगी; परन्तु प्रत्येक भलाई का कार्य जो आपने किया है, वह आपके साथ जाएगा। धनी लोग जो कृपणता से जीते हैं और स्वार्थी लोग जो कभी भी दूसरों की सहायता नहीं करते, वे अपने अगले जीवन में धन-सम्पदा आकर्षित नहीं करते हैं। परन्तु जो दान देते हैं और बाँटते हैं, चाहे उनके पास अधिक या कम हो, वे समृद्धि को प्राप्त करेंगे। यह परमात्मा का नियम है। 16/2/23 तत् तद् इन्द्रिय मुखेन सन्ततं युष्मद अर्चन रसायनासवम् सव्र्वभावचषकेशु पूरिते— स्वापिवन्नपि भवेयम उन्मदः ” यह एक अद्भुद अवस्था है। यह जो भोग है यही श्रीभगवान की अर्चना है। प्रत्येक इन्द्रिय के द्वारा ही उनकी पूजा, रसायन रूप आसव आदि भाव रूपी चषक या पात्र में पूर्ण रूप से भर देने पर नशा जैसा भाव उदय होता है, यह भी वही है। आखों से रूप देखना, अर्थात आंखों द्वारा रूप नामक भाव में या चषक में पूजा–रस पान करना या फिर तन्मय हो जाना। कानों से शब्द सुनना भी यही है। यह भोग ही उपासना है। यह जाग्रत अवस्था में होता है, स्वप्न में भी होता है, सुषुप्ति में होता है, जब जिस रूप में रहा जाए, सभी समय उनकी पूजा होती है। यह दुर्बलों का काम नहीं है, यही वीरभाव है। भगवान शंकराचार्य ने कहा है — "यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम् ” — यह वही अवस्था है। 18/2/23 साधना की विधि गुरु द्वारा जानी जाती है ! ग्रन्थों में किसी भी साधना की विधि को बताने से अनाचार की ही वृद्धि होती है ,क्योंकि साधना की विधि ग्रन्थों में पढ़कर साधक ठीक ठीक नहीं जान सकता ! वह तो गुरु द्वारा ही जानी जाती है ,यही कारण है कि मैंने अपने ग्रन्थों में साधना की विधियाँ नहीं बतलाईं भगवद्गीता में श्री कृष्ण ने कहा है --'' अपाने जुह्यति प्राणं प्राणापानसमानयोः '' अर्थात अपान वायु में प्राण और प्राण वायु में अपान का हवन करना चाहिए ,यह क्रिया बिना बिना गुरु के कोई समझ सकता है ? जबकि गीता तो बहुत लोग पढ़ते हैं । गोपीनाथ कविराज जी💐💐 हमारा प्रत्येक कर्म यज्ञ है । हमारा जो खाना पीना है ,वह भी प्राणाग्निहोत्र यज्ञ है । सब ही यज्ञ है ,सब ही पूजा है । आत्मा ही परमात्मा है , परमात्मा ही आत्मा है । तभी जिसमें परमात्मा का सन्तर्पण होता है ,वही परमात्मा का तृप्तिसाधक है ,और उसकी जिससे तृप्ति होती है , वही है आत्मतृप्ति का उपकरण । दोनों में जो कल्पित विरोध तथा भेद परिलक्षित होता है ,वह है अविद्या मूलक । जैसे स्वयं कुछ भोगार्थ ग्रहण करने पर वह बंधन का कारण होता है । किन्तु स्वयं ग्रहण न करके वह परमात्मा को समर्पित कर दिया जाय ,तथा वह उनकी दृष्टि से पवित्र होकर साधक द्वारा गृहीत हो ,हमारे पास प्रसाद रूप से प्राप्त हो ,तब उससे बंधन तो होता ही नहीं ,प्रत्युत वह बंधन मुक्ति का कारण हो जाता है । यही है कर्मगत कौशल । इसप्रकार मनुष्य कर्म स्तर से ज्ञान स्तर पर स्वयं उन्नीत होता है । इस ज्ञान स्तर में कुछ समय संचरण करते - करते स्पष्ट ज्ञात होता है कि अचेतन गुण स्वयं संचारित होकर कर्म नहीं कर सकते । प्रकृति द्वारा ही सब कर्म निष्पन्न होते हैं । साधना का प्रारूप साधनपथ पृष्ठ 137 आज योगदा सत्संग मंडली में शिवाभिषेक में गोमुखी शृंगी से अभिषेक किया। गो का अर्थ इंद्रिय भी है। इंद्रियां रूपी गौमुख से रुद्राष्टाध्यायी पाठ के बीच तैलधार अभिषेक से स्पष्ट हुआ कि संसार जो इंद्रियों में बसा हुआ है, वह निरन्तर प्रवाहित होकर शंकर में लीन हो रहा है। अतः हमारे मन शिव संकल्प संयुक्त हों। यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति । दूरंगमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।। (शुक्लयजुर्वेद, ३४, १) जो मानव मन व्यक्ति के जाग्रत अवस्था में दूर तक चला जाता है और वही सुप्तावस्था में वैसे ही लौट आता है, जो दूर तक जाने की सामर्थ्य रखता है और सभी ज्योतिर्मयों की भी ज्योति है, वैसा मेरा मन शान्त, शुभ तथा कल्याणप्रद विचारों का होवे ।🙏 मनः कृतं कृतं लोके न शरीरं कृतं कृतं । जग में मन द्वारा किया हुआ ही कृत कर्म है, न कि शरीर द्वारा किया हुआ । 21/2/23 घोर अहंकार, लोलुपता और ईर्ष्या में डूबा समाज कितना उत्थान कर सकता है, उतना ही, जितना उससे वह बाहर आ पाए...यह वृत्तियाँ ही हमारी असल चुनौतियाँ हैं... 21/2/22 की फ़ेसबुक पोस्ट मातृभाषा आंखों के समान है और दूसरी भाषाएँ चश्मे की तरह। आंख जितनी सही होगी, चश्मा उतना अच्छा काम करेगा..#अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस 24/2/23 'तुममें सत्य के प्रति जितनी आस्था है,उससे अधिक भय और संकोच है.....भय और संकोच तुम्हें सत्य का पक्ष नहीं लेने देंगे….. सत्य बड़ा महसूल चाहता है।' -पं.हजारीप्रसाद मार्गे मार्गे निर्मलं ब्रह्मवृन्दं वृन्दे वृन्दे तत्त्वचिन्तानुवाद:। वादे वादे जायते तत्वबोध: बोधे बोधे भासते चन्द्रचूड:॥ पूर्वाम्नाय गोवर्धन मठ, पुरी, उड़ीसा ।। शंकरभारती विजयते।।। *५* क्रमशः......... हमारे ठाकुर( श्रीरामकृष्ण परमहंस ) कहते हैं ..."भाई गुड़ खा लिया किसी गूंगे ने अब कोई स्वाद पूछे कि कैसे लगा ? वह क्या करेगा ? आनंद से विह्वल होकर नृत्य करेगा... खुशी के मारे रोएगा...या उस स्रोत को खोजने दौड़ पड़ेगा जहाँ से एक बार यह स्वाद प्राप्त किया..." बस हमारी उपनिषदें भी इसी तथ्य को ही उद्घाटित करती हैं। जिसने उस ब्रह्म का साक्षात्कार किया वह वर्णन कैसे करे? " विज्ञातारमरे केन विजानीयात् " बृहदारण्यकोपनिषद् ( २.४.१४) याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी से सरलता में कहा - "अरे जिसके द्वारा सब विश्व जाना जाता है उस जानने वाले को कैसे जाना जाय?" वह आत्मा जिसके द्वारा ज्ञान प्राप्त होता है उसके विषय में कैसे जाने ....सब कुछ देखने वाली आँखों को कैसे देखें? सृष्टि के प्रारंभ से इसी प्रश्न के इर्द गिर्द 'विश्वमेधा' चिंतन का तान बाना बुन रही है..... ~~विज्ञातारमरे केन विजानीयात्~~ और सभी मौन...... जिन्हें ब्रह्म साक्षात्कार हो गया उसकी स्थिति के बारे में अवश्य कहा गया... "ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति" मुण्डकोपनिषद् (३.२.९) जो ब्रह्म को जान लेता है वह ब्रह्म ही हो जाता है। "तदेतद् ब्रह्मापूर्वमनपरमनन्तरमबाह्यम् अयमात्मा ब्रह्म सर्वानुभूः" बृहदारण्यक (२.५.१९) अर्थात् ब्रह्म के पहले कोई नहीं ...बाद भी कोई नहीं.. मध्य भी कोई नहीं.... न भीतर न बाहर कुछ... यह आत्मा ही ब्रह्म है ,दृष्टा , मन्ता, श्रोता, बोद्धा ,जानने वाला और बताने वाला है ...... तब कौन किसे क्या बताए? याने कि - वही गूँगे का गुड़ ..... जो खाए वही जाने.....