Tuesday, October 27, 2015

कबीलाई समाज में मातृसत्ता

कबीलाई समाज में मातृसत्ता
डॉ राकेश नारायण द्विवेदी

स्त्री के समर्थन में हमारे यहां इस लोक को संपुट की तरह व्यवहृत किया जाता है
 ‘‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रभंते तत्र देवता।
 यत्रैतास्तु न पूज्यंते सर्वास्तत्राऽफला क्रिया।।’’
अर्थात् जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं और जहां ऐसा नहीं होता, वहां किए गए सारे कार्य निफल हो जाते हैं। मनुस्मृति का यह पद वस्तुतः देा के कबीलाई या आदिम संस्कृति के मनुयों को देखकर रचा गया होगा। आदिम संस्कृति आदिवासियों या गिरिजनों की संस्कृति है जो कबीले के रूप में रहते रहे, जिन्हें जनजातीय समाज भी कहा जाता है। इस आदिवासी संस्कृति में स्त्री दुर्दाा उस रूप में नहीं पाई जाती, जिस रूप में यह ोा समाज में विद्यमान है।
भारतीय वाङमय में पाए जाने वाले अनेक उदाहरण यह साफ करते है कि ाुरूआत के मानव समाज में जब ग्राम-नगरों आदि का गठन नहीं हुआ था मानव समूह कबीलों में रह रहे थे तब उनमें मातृसत्ता का पूर्ण प्रभाव था।
आज भी हम देखते हैं कि प्रत्येक गांव में कम से कम एक मातृदेवी की पूजा प्रचलित है। अक्सर ऐसी देवी का कोई ख़ास नाम नहीं होता, इन देवियों के निराले नाम देखकर ऐसा लगता है कि इनका संबंध छोटे-मोटे जनजातीय समूह से रहा है जो अब या तो निःोा है या सामान्य देहाती आबादी मेंे इस कदर घुलमिल गया है कि उसका कोई चिन्ह ोा नहीं है। इन देवियों की पुरातनता इस बात से प्रमाणित होती है कि इनमें से किसी के कोई पुरुा संगी या पति नहीं है। ये देवियां हैं तो माताएं (मात्देवियां) किंतु अविवाहित हैं। जिस समाज में इनका उद्भव था, उसकी दृटि में किसी पिता का होना आवयक नहीं था। आगे चलकर इनका ब्याह किसी पुरुा देवता से होने लगा। मातृदेवियों की पूजा पद्धतियां उस ज़माने की हैं, जब घर बनाने का चलन नहीं था और जब गांव चलते-फिरते हुआ करते थे। प्रस्तुत पंक्तियों के लेखक ने अपनी पुस्तक ‘स्थान-नाम समय के साक्षी’ में स्थान-नामों के उत्स पर विचार करते समय यह रेखांकित किया है कि आदिवासी लोकमाताओं के नाम पर ही प्रारंभ में स्थानों का नामकरण किया गया।
कबीलाई या आदिवासी समाज में दो ऐसी परंपराएं हजारों र्वाों से चली आ रही हैं, जिन्हें विव में आज के उत्तरोत्तर आधुनिकतावादी समाजों में प्रचलित देखकर अचरज होता है कि यह तो हमारे आदिवासियों में प्रारंभ से ही विद्यमान है। भारत की सभ्यता और संस्कृति को निर्मित और विकसित करने में आदिवासियों का प्रस्थानिक योगदान है। डॉ सुनीति कुमार चाटुर्ज्या मानते थे कि ‘निााद लोगों ने भारत की ग्रामीण सभ्यता की नींव डाली थी। आदिवासियों ने साहित्य-संगीत के ाुद्ध स्वरूप को प्रस्तुत कर आदिमानव के उर्त्का को बहुरूपों में प्रस्तुत किया।
प्राचीन भारत में मातृसत्ता की विद्यमानता इन आदिवासियों के यहां जिन रूपों में पाई जाती है, उसके चिन्हों को हम आदिवासियों की इन दो परंपराओं में देख सकते हैं-
1-भगोरिया- यह पर्व होली के समानांतर होता है, जो भील आदिवासियों में सामुदायिक रूप से मनाया जाता है। युवा-युवतियों के लिए यह पर्व चयन और चुनौती तथा नई फसल की दृटि से उमंग और उल्लास का प्रतीक है। भीलों के आराध्य भगोरदेव के नाम पर संभवतः इसे भगोरिया कहा गया अथवा यह भगोर-गोती भीलों द्वारा आरंभ किए जाने के कारण अथवा भीलों पर ौव प्रभाव (भग अर्थात् ािव एवं गौर अर्थात् पार्वती) के कारण प्रचलित हुआ है।
इस पर्व में चंद्रमुखी प्रेमिका या बलिठ युवक अपने भाग्य की संपन्नता का परीक्षण करते हैं। स्वकीय सौंदर्य और पराक्रम को निखारकर अपने आमोद-प्रमोद को अधिक वाचाल बनाते हैं, जाति-कुल की मर्यादा को जीवित रखते हैं एवं प्रेम-स्नेह जनित भावनाओं को मूर्त रूप देकर सुखद अनुभूतियों को उल्लसित करते रहते हैं। सांसारिक सुखों में डूबकर एक समय वे ऊबकर विरति की देहरी का र्स्पा करने लगते हैं। यही सुख साम्राज्य की चरम परिणति है, जिसे ‘मोक्ष’ कहा गया है। वन-प्रांतर में दैनिक जीवन-यापन करते हुए युवक-युवती पारस्परिक परिचय के माध्यम से कुल आदि का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। वे गंधर्व विवाह की गहरी रेखाएं अंकित कर मनोनुकूल जीवनसाथी का चयन कर लेते हैं। स्वयंवर का यह मनोहारी रूप बड़ा रोचक और स्मरणीय होता है।
इस तरह पर्व के माध्यम से हम जान सकते हैं कि आदिवासियों का जीवन-र्दान एक खुली हुई क़िताब के समान है, जिसमें न किसी प्रकार का दुराव है और न किसी भांति की दुप्रवृत्ति अंकुरण की गुंजाइा। आदिवासी वैवाहिक जीवन की सफलता का यह एक रहस्य भी है कि इसमें पारस्परिक प्रेम (रति) की पूर्णता रहती है, स्त्री को कामवस्तु नहीं समझा जाता, एक-दूसरे की चिर-पहचान कभी आन बनती है तो कभी सम्मान की सिंदूर-सुामा परिवार-समाज की धरोहर बनती है।
होली के ठीक पहले आदिवासी क्षेत्रों में भगोरिया के मेले लगते हैं। भगोरिया की कल्पना मात्र से आदिवासियों का आदिमन स्वतः नाच उठता है। मेले में युवक द्वारा युवती को गुलाल लगाया जाता है और युवती द्वारा पान खाना स्वीकार किया जाता है। स्वयंवर प्रथा का यह प्रारंभिक चरण है, जिसे स्वयंवर में परिणत होने का सूचक माना जाता हैं। एक-दूसरे को चुनने के बाद यह युग्म घर नहीं लौटते, बल्कि कहीं भाग जाते हैं। कुछ दिन स्वच्छंद घूमने के बाद ये जोड़े जब अपने घर लौटते हैं तो कुछ प्रथाओं की पूर्ति करने के बाद इसे विवाह की मान्यता प्रदान कर दी जाती है। विवाह संपन्न होने पर दावत दी जाती है।
समय परिवर्तन के साथ इस पर्व का रूवरूप बदल गया है। एक समय युवक इस पर्व के माध्यम से अपनी जीवन सहचरी को सुगमता से प्राप्त कर लेता था, किंतु अब वधू-मूल्य इतना बढ़ गया है कि धनाभाव से संत्रस्त आदिवासी नौजवान हजारों रुपए की धनरााि को जुटाने में अपनी जवानी के ओज को यों ही खो देते हैं। पलसूद स्थान का भगोरिया सर्वश्रेठ माना गया है। ध्यातव्य है कि आज ोा समाज में दहेज प्रथा इसके विपरीत रूप में प्रचलित है।
2- गोतुलः- गोतुल सांस्कृतिक दृटिकोण से अत्यंत महत्वपूर्ण संस्था है। इस संस्था से पता चलता है कि आदिवासी अपने युवक-युवतियों की प्रगति के लिए कितने सजग हैं। प्रायः समस्त आदिवासियों में ‘गोतुल’ नामक संस्था की स्थापना का प्रचलन है। बोली की विविधता के कारण विभिन्न आदिवासी समाजों में इस संस्था के भिन्न-भिन्न नाम हैं। मुड़िया (मुरिया) इसे ‘घोटुल’ कहते हैं तो भुइयां समाज में यह ‘धंगर बस्सा’ नाम से पुकारी जाती है। मुंडा एवं हो इसे ‘गतिओरा’ कहकर संबोधित करते हैं। उरांव आदिवासियों में यह संस्था ‘धुमकुरिया’ कही जाती है। इसी प्रकार असम के नागा लोग इसे ‘याकिचुकी’ कहा करते हैं। उत्तर-प्रदेा के वनवासी-समाज ने इस उपयोगी संस्था को ‘रंग-बंग’ नाम से अभिहित किया है। इस संबंध में यह जानना आवयक है कि यह संस्था पूर्णरूपेण अविवाहित कुमारों एवं कुमारियों के लिए ही है। विवाहितों का यहां प्रवेा निािद्ध है। रात में कुमार-कुमारी इस मोहक-गृह में रहकर जीवनोपयोगी कई बातों को सीखते हैं। उन्हें इस गृह में सामाजिक एवं धार्मिक तथ्यों से अवगत कराया जाता है।
कहा जाता है कि यह ‘घोटुल’ आदिवासियों के लिंगो देवता का वरदान है। ‘घोटुल’ डिंडामहल अर्थात् अविवाहितों का राजप्रासाद है।
साधारणतः ‘गोतुल’ गांव के पास हरे-भरे जंगल में बनाए जाते हैं, इन्हें कुमार-कुमारियां बड़े चाव से बनाते हैं। दीवारों पर कई देवी-देवताओं की आकृतियां विविध रंगों में चित्रित की जाती हैं। युवा-गृह में एक बड़ा लंबा कमरा होता है, जो घास-फूस से छाया जाता है। इसमें प्रवेा के लिए एक छोटा सा दरवाजा बनाया जाता है। संध्या होते ही गांव के कुमार एवं कुमारियां इस गृह में जाते हैं और इसकी सफाई करने में लग जाते है। कतिपय आदिवासी जातियों में कुूमारों के लिए पृथक् और कुमारियों के लिए अलग ‘गोतुल’ होते हैं, लेकिन ऐसे भी कई रंगबंग (घोटुल) हैं, जिनमें अविवाहित युवक-युवतियां साथ रहते हैं। यहां नृत्य-गानादि की ािक्षा भी दी जाती है और यौन विायक प्रािक्षण भी इन ‘गोतुलों’ में उपलब्ध होता है। मद्यपान और भोजन के बाद ाीतकाल में युवागृह के प्रांगण में अलाव जलाए जाते हैं, जिनके पास बैठकर कहानियां सुनाकर मनोविनोद किया जाता है। कामाास्त्र की ािक्षा इन गृहों में अनुभवी प्रौढ़-प्रौढ़ाएं ही देती हैं। अपनी इच्छानुसार युवक युवतियों को चुनते हैं और फिर विधिवत् इनका विवाह संपादित किया जाता है। कहा जाता है कि ‘गोतुल’ में गर्भाधान वर्जित है, लेकिन प्रेम स्वातंत्र्य के कारण यहां कभी-कभी चारित्रिक पतन भी हो जाता है।
वरिठ सहायक प्रोफेसर, हिंदी गांधी महाविद्यालय, उरई (जालौन)-285001 मोबाइल 9236114604

सोनी सिंह का कहानी संग्रह 'क्लियोपेट्रा' और स्त्री प्रश्न

युवा लेखिका सोनी सिंह का कहानी संग्रह 'क्लियोपेट्रा' सामयिक प्रकाशन से वर्ष २०१४ में आया है। १७६ पृष्ठ के इस संग्रह में आठ कहानियां हैं।  कहानियों को बहुत ही बोल्ड और बेबाक अंदाज में लिखा गया है। इन कहानियों में स्त्री अपनी देह स्वतंत्रता को हासिल करती है किंतु पुरुष सत्ता की दुरभिसंधियां कैसे उसकी उपलब्धियों का दिवाला निकालती है, इसका सुंदर चित्रण हुआ है।
संग्रह की कहानी चक्रव्यूह में दो बहनें अपने अपने क्षेत्र में शीर्ष स्थान पर अपनी योग्यता से बढती हैं किंतु अंत में दोनों को किस तरह निराशा के गर्त में जाना पडता है। इस कहानी से दो बडी महत्वपूर्ण उद्भावनायें प्रकट होती हैं एक तो यह कि पुरुष सत्ता किस तरह उसे आगे जाने से रोकती है, पराभूत करने में मजा लेती है और सदा अपने अधीन रखना चाहती है, दूसरी व्यंजना यह कि अति महत्वाकांक्षा किस तरह हताशा, कुंठा और अवसाद का कारण बनती है।
'खेल' कहानी में स्त्री और पुरुष का पोर्नोग्राफिक विवरण होते हुये भी वह उत्तेजना और सनसनी नहीं दिखाई गयी है, जैसी इस प्रकार के साहित्य या विजुअल्स में पाई जाती है। वर्जित प्रसंगों को कितनी सहजता से सोनी सिंह कथ्य में बुनती हैं, बिना उन शब्दों का प्रयोग किये, कि सारा दृश्य उपस्थित हो जाता है। सारी कहानी स्त्री पुरुष की मैथुन प्रक्रिया में घूमती है किंतु अंत यहां भी स्त्री की अतृप्ति में होता है।
'देहगाथा' वास्तव में योनिकथा है, जिसका यही नाम लेखिका ने रखा था, जिसे बोल्डनेस और बेबाकी के लिये प्रसिद्ध राजेन्द्र यादव चाहते हुये भी इस नाम के साथ हंस में नहीं छाप सके, क्योंकि लेखिका इसी शीर्षक से कहानी छपवाना चाहती थीं। संग्रह में भी यह देहगाथा के नाम से प्रकाशित है, पर है यह योनि की त्रासद गाथा ही, योनि को केन्द्र में रखकर लेखिका ने स्त्री जाति की अंतर्वेदना को प्रस्तुत किया है।  पुस्तक के कवर पर पीछे योनि चित्र भी दिया हुआ है, चित्र में योनि पर बूंद कमल के ऊपर लगा जाला प्रतीकार्थ में स्त्री की त्रासदियों को व्यक्त करता है। सोनीसिंह ने संग्रह की अन्य कहानियां भी ऐसे प्रतीकों के सहारे लिखी हैं। वह अपने एक अन्य लेख में दास कैपिटल की तरह योनि कैपिटल लिखे जाने के पक्ष में हैं, क्योंकि इसे कुछ शुद्धतावादियों ने नासूर बना दिया है।
'गाडफादर का फेमिनिस्ट फार्म' कहानी में स्त्रियों को महत्वाकांक्षी उडान भरने के लिये कैसे छला जाता है। स्त्री लेखिकाओं और उनके आकाओं पर यह कहानी अच्छा तंज कसती है।
अन्य कहानियों में लिव इन रिलेशनशिप के पहलुओं के वर्णन और स्त्री की उन्मुक्तता है, सोनी सिंह अपनी आकांक्षा सिद्धि में देह को एक उपकरण बनाने वाली स्त्रियों को वीरांगनायें कहती हैं उन्हें इसमें कुछ गलत नहीं लगता, क्योंकि लेखिका की नजर में स्त्री का व्यक्तित्व जब तक योनि में कैद रहेगा, उसे आजाद होने के लिये संघर्ष ही करना पडेगा। इस बात को उन्होंने 'क्लियोपेट्रा' कहानी, जो संग्रह की प्रतिनिधि कहानी भी है, में भली भांति व्यक्त किया है। क्लियोपेट्रा, जो इजिप्ट की यौन स्वतंत्रता की प्रतिमूर्ति है, इसके बल पर वह वहां की रानी बन जाती है, इसी के समानांतर भारत की सांवरी का चरित्र लेखिका ने गढा है। सांवरी भी यौन स्वतंत्रता के सहारे धनबल से समृद्ध हो जाती है अब वह चुनाव लडने की तैयारी करती है। कहानी में यहां तक तो स्त्रियां आगे जाती हैं, पर इससे आगे जब बढने लगती हैं तो क्लियोपेट्रा द्वारा स्वतंत्र दरबार लगाने पर वहां के राजा द्वारा जहरीले सर्पों से डसवाकर मरवा दिया जाता है, पुस्तक के आवरण पर सर्पों के बीच क्लियोपेट्रा सुशोभित है। वहीं सांवरी को उसके पति द्वारा ही गुंडों को सुपारी देकर मरवा देते हैं, क्योंकि वह अब राजनीतिक इच्छाशक्ति रखने लगी थी।
स्त्री विमर्श में सबसे अधिक जो विवाद का बिंदु है, उसी पर लेखिका की यह कहानियां केंद्रित हैं। इस विमर्श में यह प्रश्न अभी भी विचारणीय बना हुआ है कि सामाजिक तानाबाना और जो अपने देश की विवाह संस्था है, उसका क्या होगा! क्या यह भी एक तरह का भ्रष्टाचार नहीं, जिसमें देह को उपकरण बनाकर स्त्रियां अपनी महत्वाकांक्षा पूरी कर रही हैं। कौन कितनी ज्यादा बोल्ड, बहस भी इसे करार देते हैं। इस पर मुझे यही कहना समीचीन लगता है कि स्त्रियां स्वयं समाज के आधे और महत्वपूर्ण वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं, उन्होंने भी राष्ट्र और समाज के उन्नयन की दृष्टि से प्रतिमान बनाये होंगे, उन्हें भी उन्ही जिम्मेदारियों का अहसास होगा, जिनका 'ठेका' पुरुष सत्ता उठाती आई है। फिर इसे हम उस प्रतिक्रिया के रूप में भी ले सकते हैं, जिसमें तमाम मर्द उपदेश देते हैं ये करो वो करो न करो। रात में न निकलो, ऐसे कपडे न पहनो, लडकों से गलती हो जाती है, मेरी कोई होती तो गोली मार देता आदि आदि और दम यह कि हम 'मर्द' हैं तो उसकी प्रतिक्रिया स्त्री समाज से इस तरह आती है तो अचरज क्यों हो!  लेखिका स्त्रीपुरुष के अंतरंगतम प्रसंगों के प्रचंड आवेगों को जो शिल्प देती हैं, वह किसी के लिये आसान नहीं है और इस कृति का इस रूप में स्वागत होना चाहिये। जिस तरह हम पुरुष पर विश्वास करते आये हैं, स्त्रियों पर भी करके देखें, जो निराशा और कमी अब तक देखी गयी, शायद अब वह न रहे, मैं नाउम्मीद नहीं हूं।
डा राकेश नारायण द्विवेदी
वरिष्ठ सहायक प्रोफेसर, हिंदी
गांधी महाविद्यालय, उरई (जालौन)
मोबाइल 9236114604

मातृभाषा राजभाषा और राष्ट्रभाषा

मातृभाषा राजभाषा और राष्ट्रभाषा
भारतेंदु हरिश्चंद ने कओ है - निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति कौ मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय कौ सूल ।।
इतै निज भाषा कौ अर्थ मातृभाषा सें है, जौन भाषा जनम के समय से ही बालक सुनत और सीखत हैं, उ भाषा खों मातृभाषा कओ जात है। जा भाषा में जो मिठास और अपनत्व होत है बौ धरतीभर में दुरलभ है । रबींद्रनाथ टैगोर ने मताई के दूद के समान ही मां की बोली खों मानो है। ई तरा से जो आदमी जी बोली के आंचल जनमत है और अपनों कामकाज करत है बा बोली उ के लाने मातृभाषा कई जात है। हमाई मातृभाषा बुंदेली है । बंुदेलखंड भारत को जिउ मानो जात और उ जिउ की जा बोली बुंदेली है।
बोली और भाषा में मुक्ख अंतर उ की ब्यापकता को होत है। बोली को छेत्र सीमित होत जबकि भाषा को छेत्र ब्यापक । बोली को ब्याकरण होबौ जरूरी नइयां लेकिन भाषा को ब्याकरण होबो जरूरी मानो जात है। बोली और भाषा में जे अंतर कैबे सुनबे भरके लानें हैं, काए सें के ब्रज एक बोली है लेकिन उ के संगे हम भाषा लगाउत है । जा बोली में समृद्ध साहित्य रचो गओ है जा सें जा बोली सम्मान पाकें भाषा कई जान लगी। दूसरें, खड.ीबोली जो हमाई सरकार के कामकाज के माध्यम की भाषा है। भारत की राजभाषा जेई है, जीखों बोली कही जात है लेकिन है जा भाषा।
भारत की राजभाषा ऑफिशियल लेंग्वेज संबिधान के अनुच्छेद 343 की उपधारा 1 के अनुसार हिंदी, लिपि देवनागरी और अंकन कौ सरूप अंतरराश्टीय है, जी देश कौ सरकारी कामकाज जौन भाषामें करो जात उएै राजभाषा कई जात है। जबअपने देश  में 14 सितंबर 1949 के दिन हिंदी खों राजभाषा के रूप में मंजूर करो गओ तब पं0 नेहरू जैसे कछू लोगन ने कई कै अबे सरकारी कामकाज निपटाबे के लानें शब्दनके मायने पारिभाषिक शब्दावली को बिकास होबे मेंसमय लगै सो 15 सालके लाने अंगरेजी खों सह राजभाषा बना दओ जाबे। ई तरा हिंदी के संगे अंगरेजी खों  संगलगेठी राजभाषा बना दओ गओ। जबकि अपने देश में जबसे संस्कृत कमजोर होत गई प्राकृत अपभ्रंश सौरसेनी आदि नाव सें भाषा बदलत रई। अपनी बोलचाल की भाषाउ बुंदेली पूरे देश में छाई रई। कछू प्रांत अपवाद हैं। आज दुरभाग्य सें ब्यावहारिक स्थिति जा बन गई है कि सबरौ कामकाज अंगरेजी में निपटाओ जान लगो और हिंदी केवल अनुवाद की भाषा बन कें रे गई। 15 साल के लाने बनी सहराजभाषा अंग्रेजी खों आंगे बनाए रखबे या हटाए रखबे के लाने 1965 में प्रस्तावआओ, ई पै कई राज्यन नें आपत्ति जताई,भौतई मंथन भओ, तबइ पं0 नेहरू ने निष्कर्ष दओ के जब तकदेश कौ एक राज्य  भी हिंदी खों एकमात्र राजभाषा बनाए रखबे में आपति करै, तब तक हिंदी खों अकेली राजभाषा   नई बनाओ जैहै और जा स्थिति ऐसी बन गई कि देश के 29 राज्य जब तक एक साथ हिंदी खों अकेले राजभाषा बनाबे के लाने सहमत नइ हुइएं तबलों हिंदी खों दोयम दरजा दओ जात रैए। नागालैंड जैसे राज्यन में तो बाकायदा अंगरेजियइ खों राजभाषा बना रखो
राश्टभाषा नैशनल लैंग्वेज किसी समूचे राश्ट में बोली और ब्यवहार में जी भाषा खों प्रयोग करो जात उए राश्टभाषा कओ जात है । अपने देश में कैउकन भाषाएं जुदेजुदे अंचलन में प्रयोग में लाई जात                                                                        

'कई चाँद थे सरे आसमां' की समीक्षा

थाइलैंड और उसका जनजीवन

थाइलैंड और उसका जनजीवन

डा राकेश नारायण द्विवेदी

15 से 21 अक्टूबर 2013 को संपन्न मेरी थाइलैंड यात्रा न केवल पहली विदेश यात्रा थी, वरन् यह पहली बार की हवाई यात्रा भी थी । मात्र साढ़े चार घंटे की हवाई यात्रा से दक्षिण पूर्व एशिया के इस सुंदर और संपन्न देश में पहुंचा जा सकता है । दुनिया के कुछ देशों में जाने के लिये अग्रिम वीज़ा लेने की आवश्यकता नहीं है, थाइलैंड भी उनमें से है । यहां पासपोर्ट धारक सीधे पहुंचकर वीज़ा आन अराइवल की सुविधा ले सकते हैं । इसमें भी अगर पंक्ति में खड़े होने की असुविधा से बचना है तो दो सौ बाट अतिरिक्त देकर अलग काउंटर से वीज़ा बनवा सकते हैं । एक हज़ार बाट यहां की वर्तमान वीज़ा फीस है । बाट थाइलैंड की मुद्रा का नाम है, जिसकी दर वर्तमान में दो रुपये में एक बाट की है । अमेरिकन डालर से बाट खरीदे जाते हैं । जिस तरह वर्तमान में अंग्रेजी अंतरराष्ट्रीय भाषा है, उसी तरह अमेरिकन डालर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा है । लगभग तिरसठ रुपये में एक डालर खरीदा गया । नियमानुसार थाइलैंड वीज़ा प्राप्त करने के लिये न्यूनतम पांच सौ डालर या एक हजार पाच सौ बाट अपने साथ रखने आवश्यक होते हैं । जब मुझे यह मेरे टूर निर्देशक और विश्व हिंदी मंच के अध्यक्ष डा प्रणव शर्मा ने बताया तो मेरी प्रतिक्रिया थी कि कदाचित् फोकटिया लोगों की आवश्यकता ऐसे देशों को नहीं है ।

गो इंडिगो के जिस विमान से यात्रा हुयी, उसमें तीन तीन कुर्सियां होती हैं, जो भारतीय रेल के कुर्सीयान का स्मरण कराती हैं । रेलों में एयर होस्टेज की तरह नवयुवतियों की सेवायें उपलब्ध नहीं होतीं, पर विमानों में ये निशुल्क पेयजल देती हैं । शुल्क भुगतान करने पर खानपान की सुविधा भी प्राप्त होती है । विमान में लघुशंका करने के बाद फ्लश चलाने पर पानी नहीं निकलता, वरन् सोख्ता करके कमोड की सफाई होती है । कमोड में पानी से गुदा प्रक्षालन की सुविधा नहीं थी, पानी की खाली बोतल होस्टेज से लेकर काम चलाना पड़ता है । पता नहीं कैसे कुछ व्यक्ति बिना पानी प्रक्षालन किये हुये, टिसू पेपरों से पोंछकर ही काम चला लेते हैं । यह स्थिति बैंकाक के होटल रायल पैलेस में भी रही, जिसमें हम लोग तीन दिन ठहरे । बिहार के एक सज्जन को अत्यधिक परेशानी हुयी, उन्होंने कहा, हम तो पेपर पढ़ते है, उससे यह काम नहीं किया जा सकता ।

थाइलैंड के लोग शांत प्रकृति एवं अपने काम से काम रखने वाले होते हैं । धीरे से अपनी बात रखते हैं । चीखने चिल्लाने से दूर रहते हैं । गौर वर्णी, नाटा क़द, चौड़ा माथा, उन्नत उरोज और पुष्ट जंघाओं वाली थाई युवतियों की आंखें कुछ धंसी हुयी होती है, इसीलिये वे अपनी आंखों पर प्राय: आइलिड लगाती हैं । यहां की महिलायें छोटे किंतु निजी अंगों को ढंके हुये वस्त्र पहनती हैं । साड़ी यहां भारतीय स्त्रियां ही पहने हुये मिलेंगी ।  पुरुषों का पहनावा भारतीय पुरुषों से भिन्न नहीं है । ४४अक्षरों वाली थाई यहां की मुख्य भाषा है ।  थाई सर्वाहारी होते हैं । पृथ्वी का हर जीव जंतु इनका खाद्य है । जीवित सफेद झींगा बड़े चाव से ऐसे खाते हैं, जैसे भारत में लाई चना खाये जाते हैं , शाकाहार में इनका विश्वास अल्प ही है । आम तौर पर थाई शाम को सात बजे तक अपना डिनर कर लेते हैं । समय और अनुशासन के धनी थाई खूब मेहनती होते हैं । स्त्रियां अधिक काम करती हुयीं देखी गयीं । हवाई अड्डे पर एक युवती का यही काम था कि आगंतुकों को कोई कठिनाई न होने पाये, वह जा जाकर लोगों को गाइड कररही थी । थाई अपने काम के प्रति बेहद निष्ठावान होते हैं । टूर और ट्रेवल्स को बढ़ाने पर इनका विशेष ज़ोर रहता है । जिस काम के लिये यह धनराशि लेते हैं, उसे संतुष्टिपूर्ण ढंग से संपन्न करते हैं ।  थाइलैंड में आधे से अधिक जन बौद्ध धर्मावलंबी हैं, धर्म का समाज से गहरा नाता होता है । जिस तरह बौद्ध धर्म में बाह्याचारों का स्थान नहीं, उसी प्रकार यहां का समाज कोई क्या कर रहा है, उसे रोकना टोकना ज़रूरी नहीं मानता । पारंपरिक रूप में थाइलैंड की सभ्यता भारत की प्राचीन सभ्यता से भिन्न नहीं है । इस देश का पुराना नाम सियाम है । इसकी रुचियां और संस्कार भारतीयों से भिन्न नहीं है । यहां किंग राम का ही शासन है । हमेशा राम का ही शासन रहता है । इस अर्थ में यहां रामराज्य ही रहता है । नवें राम इस समय यहां के शासनाध्यक्ष हैं । आगे इनकी इकलौती पुत्री इस ज़िम्मेदारी को निभायेंगी । राजकुमारी संस्कृत में उच्च शिक्षित हैं । इनकी शिक्षा दिल्ली से ही पूरी हुयी है । थाइलैंड में अयुध्या है, सीता के नाम पर अनेक स्थान नाम हैं । हवाई अड्डे पर समुद्र मंथन की अप्रतिम शिल्पकारी देखते ही बनती है और यह देखकर लगता ही नहीं कि हम भारत में नहीं हैं । संस्कृत के कई शब्द ध्वनिगत अंतर के साथ थाइलैंड में सुने जाते हैं । स्वागत के लिये स्त्रियों द्वारा कहा जाने वाला "सवातिका" स्वस्तिक से मिलता जुलता है ।

पर्यटन केंद्र कैसे विकसित किये जायें, यह थाइलैंड से अच्छी तरह जाना जा सकता है । इन्होंने बैंकाक शहर के मध्य प्रवाहित हो रही नदी में क्रूज (पानी के जहाज) चला रखे हैं, जिनकी दो मंजिलों पर बैठकर चलते हुये जबाज में लोग डिनर करते हैं, गानों पर जमकर थिरकते हैं । गीत गाने वाली थाई बालायें भारत पाकिस्तान के सद्भाव में जिंदाबाद के नारे लगवातीं हैं । जिस देश के पर्यटक अधिक होते हैं, उस देश के गाने अधिक गाती हैं । भारत के पर्यटक ही अधिक संख्या में देखे जाते हैं । भारत के लोग भी पाकिस्तानियों के आगे नाच गाकर देश भक्ति और सद्भाव का विरल नज़ारा पेश करते हैं । यद्यपि भारत और पाकिस्तान के स्त्री पुरुषों में तनाव की छाया भी झांकती रहती है कि कहीं कोई अवांछित न हो जाये । फोटो खींचकर बेचना यहां हर पर्यटन जगह पर प्रचलित है । वह चाहे पटाया बीच और कोरल आइलैंड पर ग्लाइडिंग करते हुये हो, क्रूज पर सुंदरी के साथ, सफारी वर्ल्ड में सील एवं डाल्फिन मछलियों तथा चिम्पाजियों द्वारा चुंबन करते हुये हो या चाहे स्टंट करते हुये जांबाजों के साथ हो । आइ पैड, मोबाइल और कैमरा के बढ़ते प्रचलन के बीच भी ये लोग अपने फोटो बेच ही लेते हैं, क्योंकि फोटो पेश करने का इनका तरीक़ा आकर्षक होता है । तस्तरी पर, फोल्डर बनाकर, पटाया और बैंकाक की सुंदर प्राकृतिक पृष्ठभूमि में किसी पर्यटक का जब ये फोटो िबना उसकी जानकारी के उसके सामने प्रस्तुत करते हैं तो पर्यटक सहज ही १००-२०० बाट अपनी जेब से निकाल कर दे देते हैं।

थाइलैंड को प्रायः लोग मौज मस्ती के लिये जानते हैं, पर यह जानकर सुखद आश्चर्य होता है कि यहां बिना हार्न के ही सारे वाहन दौड़ते हैं । हफ्ते भर के प्रवास में मैंने हार्न नहीं सुना । यदि कोई हार्न बजाता है तो बताया गया कि पुलिस उसे एक इमरजेंसी मानती है । किसी खतरे के बिना यहां हार्न नहीं बजाया जाता और यह यहां के लोगों में सहज अभ्यास में सम्मिलित हो गया है । कोई व्यक्ति गुटखा, पान मसाला चबाते हुये यहां नहीं दिखा । कहीं सार्वजनिक स्थान पर थूकना भी यहां विरल ही है । थाइलैंड के सफारी वर्ल्ड में जंगली जीव जंतु, पशु पक्षी पूर्ण सुरक्षित और हमारे इतने क़रीब हैं कि रोमांच होता है । वाहन सेंसर लगे जालीदार दरवाज़ों को स्वतः खोलकर और बंदकरते हुये प्रवेश एवं निकास करते हैं । वाहन में बैठकर सड़क किनारे बने मचानों पर चीतों, भालुओं और शेरों की मस्ती को देखकर मन भयमिश्रित पुलकायमान हो जाता है । बिना तनाव के हम इन वन्य पशुओं का दीदार बिना जाली के यहां करते हैं । इन पशुओं को भरपूर तृप्तिदायक भोजन मिलता हो, जिससे ये अपने सामने से निकलते पर्यटकों पर हमला नहीं करते । दर्जनों की संख्या में एक साथ ऐसे हिंस्र पशु किसी चिड़ियाघर में अन्यत्र दिखाई नहीं पड़े ।

थाइलैंड के लोगों में सेक्स बेचने की प्रवृत्ति देखी जाती है । यहां स्त्री पुरुषों के नग्न शो भी होते हैं, कामक्रीड़ा करते हुये शो देखना वीभत्सकारी लग सकता है । मुझे लगता है इसे देखने का एक बार आकर्षण होता ही होगा ।  सेक्स वर्करों की नंबर प्लेट लगाकर नुमाइश होती है, जिनमें से कामातुर पर्यटक चयन कर घंटे भर के ही चार पांच हजार रुपये सहर्ष खर्च कर देते हैं । सेक्स वर्कर सम्मान की जिंदगी जीती हैं । सेक्स जैसे बंद विषय को जानने की दृष्टि से ऐसे शो वयस्क भूमिका का निर्वाह करते हैं । सामाजिक ताने बाने और धर्म की भूमिका इसमें प्रमुख मानी जा सकती है । कहने को तो यहां कहा जाता है, "गुड बायज गो टु टेंपल, बट बेड बायज कम टु पताया", पर साथ ही पर्यटकों को इसके लिये प्रोत्साहित भी किया जाता है । इसके पक्ष में अनेक तर्क दिये जाते हैं कि भारत में काम को ठेंगे पर और सेक्स को दिमाग में रखा जाता है, किंतु इस देश में काम को दिमाग में और सेक्स को समुचित स्थान पर रखा जाता है । भारतीय संस्कार कभी कभी इस देश को चकलाघरी देश के रूप में निरूपित करने की ओर उन्मुख करते हैं । मसाज केंद्रों की यहां भरमार है, आम तौर पर थाइलैंड की महिलायें फुट मसाज, ड्राइ मसाज, आइल मसाज, एरोमाथेरेपी केंद्रों पर परिश्रमपूर्वक मसाज करती हैं । इनके श्रम और समर्पण को देखकर यह कहना ही पड़ता है कि आगंतुक की संतुष्टि इनका सर्वोपरि ध्येय होता है ।
शब्दार्णव, 245 ए, नया पटेल नगर,
​    निकट टाटा टावर, कोंच रोड, उरई (जालौन) उ0प्र0
                                 ई मेलrakeshndwivedi@gmail.com


डा राकेश नारायण िद्ववेदी

भारतीय परंपरा और स्त्री चेतना - परिवेश 19वीं शताब्दी, परिप्रेक्ष्य ‘कई चांद थे सरे आसमां’

भारतीय परंपरा और स्त्री चेतना - परिवेश 19वीं शताब्दी, परिप्रेक्ष्य ‘कई चांद थे सरे आसमां’
डॉ राकेश नारायण द्विवेदी
स्त्री चेतना समकालीन हिंदी लेखन की केंद्रीय विषय-वस्तु है। जबकि इस विषय पर प्रचुरता से लिखा जा रहा है, तब इसमें पिष्टपेषण न हो और नए संदर्भों में बात की जाए, ऐसी रचनाओं पर पाठकों की दृष्टि गड़ना स्वाभाविक है। यहां बात एक ऐसी ही रचना की हो रही है, जिसका प्रथम संस्करण 2010 में हिंदी में पेंगुइन बुक्स इंडिया द्वारा प्रकाशित हुआ है। उपन्यास के रूप में यह रचना शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी द्वारा उर्दू में की गई, जो नरेश ‘नदीम’ द्वारा हिंदी में रूपांतरित होकर आई है। शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी ने मूलतः यह विशालकाय उपन्यास उर्दू में लिखा, जिसे अंग्रेजी में भी उन्होंने ही ‘द मिरर आफ ब्यूटी’ के नाम से पुनर्सृजित किया। फ़ारुक़ीजी भारतीय डाक विभाग से अवकाश प्राप्त अधिकारी हैं। 15 जनवरी 1935 को जन्मे शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी को उर्दू साहित्य का टी एस इलियट कहा जाता है। वे उर्दू के शीर्षस्थ आलोचक हैं। आज़मगढ़ के मूल निवासी फ़ारुक़ीजी इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में एम ए हैं। उन्होंने उर्दू की ‘शबख़ून’ मासिक पत्रिका का 40 वर्षों तक संपादन किया। उन्हें 1986 में उर्दू आलोचना के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल चुका है। वह पेंसिलवेनिया विश्वविद्यालय के दक्षिण एशिया क्षेत्रीय अध्ययन केंद्र में अंशकालिक प्रोफेसर रहे। मीर तक़ी ‘मीर’ के बारे में आपकी चार भागों में uuप्रकाशित पुस्तक ‘शेर-ए-शोर-अंगेज़’ को 1996 में उपमहाद्वीप के सबसे बड़े साहित्यिक पुरस्कार ‘सरस्वती’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। पद्मश्री फ़ारुक़ीजी को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से डी लिट् की मानद उपाधि प्राप्त हुई। यही नहीं आपको पाकिस्तान का तीसरा सबसे बड़ा पुरस्कार ‘सितारा-ए-इम्तियाज़’ भी प्राप्त हुआ।
        फ़ारुक़ीजी का हिंदी रूपांतरित उपन्यास ‘कई चांद थे सरे आसमां’ 748 पृष्ठों में प्रकाशित हुआ है। इस उपन्यास में उन्होंने भारतीय परंपरा की विविध विशेषताआंे को विवरण शैली में लिपिबद्ध किया है। उन्होंने 18वीं-19वीं शताब्दी के भारत में संगीत, चित्रकारी, शिल्पकारी, बुनकरी, भाषा-विज्ञान एवं साहित्य की विविधवर्णी प्रचलित परंपराओं को सामने लाती हुई ग़ालिब, जौक़, दाग़ जैसे नामचीन शायरों की शायरी से सजी कथा को विस्तार से अपने उपन्यास में रखा है। इस उपन्यास में एक जगह फ़ारुक़ीजी लिखते हैं कि आज के लोग बहुत कुछ भूलते जा रहे हैं, कदाचित् इसीलिए वह विस्तार से वर्णन करते हुए उपन्यास में उपस्थित हुए हैं। इस कथा में तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक चेतना का सुंदर संगुंफन हुआ है, किंतु कथा में वर्णनाधिक्य के कारण कहीं-कहीं पुनरावृŸिा हो गई है। जब वह उर्दू के ललित गद्य में हिंदी बोलियों का समाहार करते हुए लिखते हैं तो पाठक कथा के साथ-साथ नायाब गद्य से रूबरू होता हुआ चलता है। उपन्यास में आए हिंदी-उर्दू के प्रचलित मुहावरे और प्रसंगवश आए कुछ शब्दों की व्युत्पŸिा करते हुए उपन्यास की कथा बुनी गई है। उपन्यास में 50 वर्षों की कथा का क्षेत्र राजपूताना से लोकर कश्मीर, लाहौर, फ़र्रुख़ाबाद एवं दिल्ली तक फैला हुआ है। कथा का समय मुग़ल काल के पतन और ईस्ट इंडिया कंपनी के मज़बूत होने के संक्रमण काल तक फैला हुआ है। यह कथा केवल काल्पनिकता की उड़ान नहीं भरती, वरन् यह समसामयिक विमर्शों में से एक स्त्रीवादी लेखन में छाए हुए स्त्री प्रश्नों को लेकर ऐतिहासिक पात्रों के माध्यम से पाठक के सम्मुख उपस्थित होती है। उपन्यास की कथा नायिका प्रधान है। कथा नायिका वज़ीर ख़ानम विलक्षण सौंदर्य की धनी एवं सुरुचि साहित्य संपन्न है। उपन्यास की यह प्रधान पात्र वस्तुतः प्रसिद्ध उर्दू शायर दाग़ देहलवी की मां थी। वज़ीर के पूर्वज किशनगढ़ राजपूताना में रहते थे, जहां से उसके पूर्वजों में से मियां मख्सूसुल्ला बडगाम कश्मीर चले गए थे। मियां मख्सूसुल्लाह मुसलमान थे या हिंदू, कथाकार के लिए यह कहना मुश्किल था। मियां के दो पौत्र दाऊद और याक़ूब फ़र्रुख़ाबाद और दिल्ली आकर बस गए और जेवर बनाने का काम करने लगे लेकिन ये भाई मराठा फ़ौज के साथ लड़ाई में कहीं खो गए। इनका एक बेटा यूसुफ बचा रहा, जिसका विवाह अक़बरी बाई की बेटी असग़री से हुआ। मुग़लों का सूर्य अवसान पर था और दिल्ली में ईस्ट इंडिया कंपनी अपने पैर पसार चुकी थी, तब 1811 ई में तीसरी और सबसे छोटी बेटी के रूप में इन्हीं मुहम्मद यूसुफ नाम के सुनार के यहां वज़ीर ख़ानम का जन्म हुआ। कथाकार इस उपन्यास को किसी कथा से अधिक इतिहासकार की भांति कथा का आरंभ करता है। फ़ारुक़ीजी लिखते हैं ‘पर्दानशीन मुसलमान लड़की जो बज़ाहिर कहीं कस्बन (गणिका) या पेशेवर नचनी न थी, किस तरह और क्यों एक अंग्रेज के अधिकार तक पहुंची, इसके बारे किसी लिखित परंपरा या किसी चश्मदीद गवाह के बयान की बुनियाद पर तैयार किया हुआ ब्योरा नहीं मिलता।’  वज़ीर ख़ानम अपने जीवन में अपनी इच्छा और शर्तों से विवाह अथवा बिना विवाह किए हुए वर्तमान में चल रहे लिवइनरिलेशनशिप की तरह चार पुरुषों के साथ रही और चारों असमय कालकवलित हो गए। सर्वप्रथम वह एक अंग्रेज अधिकारी मार्स्टन ब्लेक के साथ रही, जिससे उसके दो बच्चे हुए। ‘ज़्यादा संभावना यह है कि मार्स्टन ब्लेक उनकी ज़िंदगी में पहला मर्द था और उससे वज़ीर ख़ानम की मुलाक़ात देहली में हुई।’ वज़ीर के पिता और बड़ी बहिन स्वतंत्र विचारों के कारण उससे रुष्ट रहते, पर वह ब्लेक के साथ जयपुर में बिना विवाह किए रहकर दो बच्चों की मां बनी। वहां महाराजा की हत्या के संदेह में भीड़ ने ब्लेक को मार दिया। बच्चों को ब्लेक की बहिन ने वज़ीर को नहीं दिया। वज़ीर जयपुर से दिल्ली आ गई। उसका दूसरा साहचर्य उर्दू के प्रतिष्ठित साहित्यकार मिर्ज़ा ग़ालिब के निकट संबंधी नवाब शमसुद्दीन अहमद खां से हुआ। वज़ीर नवाब के साथ विवाह करते हुए रही। उपन्यासकार ने जगह-जगह कथा में पात्रों द्वारा और कथा-वर्णन में संगीत की विविध राग-रागिनियों का नामोल्लेख करते हुए शे‘र और पद उद्धृत किए हैं। वह बड़ी बारीक़ी और विस्तार से वर्णनपरक कथा बुनते हुए कहता है ‘तालीम को समझना उसे ईजाद करने से कुछ ही कम बारीक़ी मांगता है।’  फ़ारुक़ीजी शिक्षा को बहुआयामी बनाने पर ज़ोर देते हैं, वे कहते हैं ‘तालीमनवीस को शायर, मुसव्विर, नर्तक, गायक सब कुछ होना चाहिए।’ शिक्षा के विविध स्वरूप हैं, किसी भी क्षेत्र में कोई महत्वपूर्ण योगदान कर सकता है। वह एक पात्र से कहलवाते हैं ‘क्या तुम जानते हो कि जो सुन नहीं सकता, वह ज़्यादा अच्छा देख सकता है? लेकिन जो सुन नहीं सकता वह बोल नहीं सकता? और जो बोल नहीं सकता वह गा नहीं सकता, लेकिन वह नाच सकता है?’
        उपन्यास में आशा-निराशा, प्रगतिशीलता और नारी संवेदना का प्रभावशाली अंकन ललित गद्य में किया गया है। उपन्यास में दृष्टव्य है कि ऊंचे दर्जे़ की कारीगरी विविध क्षेत्रों में उस समय देश में होती थी और उन सबका समाज में सम्मान था। आशावाद का एक उदाहरण दृष्टव्य है ‘ज़िंदगी के समंदर की लहरें हर जगह मोती बिखेरती हैं और इन आबदार मोतियों को मुट्ठियों को बटोर लेने वाले हुनरमंद नक़्क़ाश भी हर जगह हैं।’ निराशा - ‘शायरी जितनी मीठी और सजिल, ज़िंदगी उतनी ही कड़वी और कठिन है।’ उपन्यास में हिंदू और मुस्लिम संस्कृति का पार्थक्य नहीं है। सर्वत्र हिंदुस्तानी संस्कृति में पात्र रचे-बसे हैं। मुस्लिमों के साफ-सुथरे रहन-सहन से हिंदू तो हिंदुओं के देवी-देवताओं का प्रभाव मुस्लिमों पर हुआ दिखाया गया है। उपन्यास मेें फ़र्रुख़ाबाद के मुसलमान रस्मों और आदतों में हिंदुओं के बहुत क़रीब थे। हबीबा के एक भाई को सीतला मां अपनी गोद में चिरनिद्रा में सुला लेती है। उपन्यास में चित्रित प्रगतिशीलता याक़ूब के इस कथन में दृष्टव्य है ‘इन लड़कियों पर तुम्हारा कोई हक़ नहीं। ये बालिग़ हैं और अपनी मर्ज़ी की मालिक। तुम इन्हें अपनी हवस का शिकार बनाकर कोठे पर बेचना चाहते हो तो यह हम न होने देंगे।’  दिल्ली में अपनी सबसे बड़ी बहिन द्वारा विवाह करने की बात पर वज़ीर कहती है ‘...बच्चे पैदा करें, शौहर और सास की जूतियां खाएं, चूल्हे-चक्की में जल-पिसकर वक़्त से पहले बूढ़ी हो जाएं।’  वज़ीर की बाज़ी कहती है ‘जबसे दुनिया बनी है औरतें इन्हीं कामों में लगाईं गईं हैं। एक शरीफ़ाना राह है, एक कमीनों की राह है।’ वज़ीर जवाब देती है ‘बस भी करो ये शरीफ़ों, कमीनों की बातें। मर्द कुछ भी करते फिरें, उन्हें कोई कुछ भी न कहे और हम औरतें ज़रा ऊंचे सुर मंे भी बोल दे ंतो ख़ैला छŸाीसी कहलाएं।’ बाज़ी द्वारा महिलाओं का शर्म, हया, ममता, क़ुर्बानी देने का वास्ता देने पर वज़ीर कहती है ‘मेरी सूरत अच्छी है, मेरा ज़हन तेज है, मेरे हाथ-पांव सही हैं। मैं किसी मर्द से कम हूं? जिस अल्लाह ने मुझमें ये सब बातें जमा कीं, उसको कब गवारा होगा कि मैं अपनी काबिलियत से कुछ काम न लूं, बस चुपचाप मर्दों की हवस पर भेंट चढ़ा दी जाऊं?’
        स्त्री और पुरुष के शाश्वत संबंधों को लेकर हुई बातचीत में उपन्यासकार कई प्रश्नों को उठाता है और उनके उŸारों को खोजने का प्रयास करता है। पुरुष के लिए स्त्री इज़्ज़त है और स्त्री के लिए पुरुष वारिस, लेकिन वारिस बनाने के लिए विवाह कहां आवश्यक है। इन शाश्वत सामाजिक प्रश्नों की कथाकार ने उपेक्षा नहीं की है। वज़ीर और उसकी बाज़ी में हुए वार्तालाप में आखि़रकार चिढ़ते हुए वज़ीर अपना निर्णय देती है ‘मुझे जो मर्द चाहेगा उसे चखूंगी; पसंद आएगा तो रखूंगी नहीं तो निकाल बाहर करूंगी।  इसके बाद वह ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी मार्स्टन ब्लेक के साथ रहने लगती है। वज़ीर के एक अंग्रेज के साथ के अनुभवांे का वर्णन इस प्रसंग में हुआ है। पुरुषों के बारे में आमधारणा होती है कि उन्हें अपनी इच्छा सर्वोपरि होती है, किंतु किसी स्त्री की इच्छा और सुविधा का ध्यान रखने में अंग्रेज हिंदुस्तानियों से कहीं आगे हैं। ब्लेक के साथ रहकर वज़ीर में खुलापन आ जाता है, वह ब्लेक के साथ एक ही थाली में भोजन करती है। हिंदुस्तानी पुरुष जहां स्त्री से माफी मांगने में अपना अनादर मानते हैं, वहीं जब ब्लेक वज़ीर से अम सारे रे (आइ एम सारी) कहता तो वज़ीर को बहुत भला लगता। कथाकार ने इसी प्रसंग में कई शब्दों का अंग्रेज उच्चारण दिया है।
        वज़ीर अपने बच्चांे की शिक्षा पर विशेष ध्यान देते हुए अपनी शर्तों पर ब्लेक का घर छोड़ देती है। जयपुर से दिल्ली आकर वह सन् 1830 में विलियम फ्रेजर के यहां एक कवि सम्मेलन में जाती है। वहां देखकर फ्रेजर वज़ीर पर आसक्त हो जाता है, किंतु वज़ीर उसके लिए उदासीन है, जिससे फ्रेजर नाराज़ हो जाता है किंतु वज़ीर को इसकी परवाह नहीं। वह कहती है ‘वो अंखमुंदी और होंगी जो दो वक़्त की रोटी पर आबरू बेच देती हैं।’ इसी कवि सम्मेलन में मौजूद मिर्ज़ा ग़ालिब के रिश्तेदार नवाब अहमद खां से वज़ीर विवाह कर लेती है। वज़ीर और नवाब का शायराना संवाद चलता रहता है। नज़ाकत और नफ़ासत भरे वातावरण में दोनों की ज़िंदगी बसर हो रही होती है। मुग़लकालीन स्त्री की स्वतंत्रता और आत्मसम्मान का जो ध्यान इस कथा में देखा गया, वह विरल है। वज़ीर सोचती है ‘मुझे जो मर्द चाहेगा कोई ज़रूरी नहीं कि मैं भी उसे चाहूं। उपन्यास में जगह-जगह सुने हुए किंतु अबूझे से शब्दों के अर्थ उपन्यासकार ने खोले हैं जैसे लनक्लॉट अंग्रेजी के लॉंग क्लाथ का भाषारूप है।
        हिंदुस्तानी और अंग्रेजी परंपरा के अंतर को उपन्यास में रेखांकित किया गया है। अंग्रेज नज़रें झुकाकर बात करने वालों को दग़ाबाज़ या बेईमान समझते हैं, वहीं हिंदी तहज़ीब में बड़ों से, अजनबियों से, क़रीबी अज़ीज़ों से आंख मिलाकर बात करने को असभ्य कहा जाता है। अंग्रेज पुरुष-स्त्री जहां कभी-कभी स्नानागार में एक साथ स्नान कर लेते हैं लेकिन हिंदुस्तानी परंपरा में यह ऐब है। अंग्रेज अपने नौकरों का कभी शुक्रिया अदा नहीं करते, जबकि हिंदुस्तानियों में पुराने नौकरों का शुक्रिया; बल्कि उनके पूरे सम्मान की रस्म हुआ करती थी। नवाब शम्सुद्दीन और वज़ीर के हमबिस्तरी प्रसंग में कथाकार ने हिंदुस्तानियों और अंग्रेजों के तौर-तरीक़ों को अलग-अलग दिखाया है। फ़ारुक़ीजी कामक्रिया के अंग-प्रत्यंगों का बिना सनसनी पैदा किए ऐसा बारीक़ वर्णन करते हैं कि पाठक के सामने समूचा दृश्य चित्र उपस्थित हो उठता है। दर्शक कैमरे से निकले फोटो और वीडियो के दृश्यों को तो ओझल कर सकता है, पर इन वर्णनों को पढ़ने में पाठक तनिक भी बेख्याल नहीं होता। नवाब साहब से वज़ीर के दैहिक संबंध बनाने के बाद ही साथ रहने संबंधी भविष्य की योजनाएं तय होती हैं। वज़ीर ख़ानम से नवाब साहब का एक पुत्र 25 मई 1831 को पैदा हुआ, जिसे नवाब मिर्ज़ा नाम दिया गया और जो बाद में वास्तविक रूप में दाग़ देहलवी के नाम से प्रसिद्ध शायर हुए।
        विलियम फ्रेजर वज़ीर पर बुरी निगाह रखता, वह उसे बाज़ारू औरत समझता था। इससे नाराज़ होकर नवाब ने उसका क़त्ल करा दिया। इस अपराध में नवाब को फांसी दे दी जाती है।
        स्त्री जीवन की विडंबना और विवशता तथा पारंपरिक छबि के बरक्स कथाकार ने वज़ीर के रूप में उसकी मज़बूती, स्वनिर्णय और आत्मनिर्भरता में चित्रित किया है। खालिस अरबी-फारसी के शेरों का अर्थ उपन्यास में जगह-जगह दिया गया है, फिर भी अनेक शब्दों का अर्थ पाठक को खोजना पड़ता है। इसका आशय है कि पाठक को हिंदुस्तानी शब्दों से सामान्यतः परिचित होना ही चाहिए। भाषा की रवानगी उपन्यास से जाती न रहे, शायद अनुवादक नरेश ‘नदीम’ ने इसीलिए मूल गद्य से छेड़खानी उचित न समझी हो।
        विलियम फ्रेजर की हत्या होने के प्रसंग में फ़ारुक़ीजी बंदूकों का वर्णन करने लगते हैं। बंदूकों की कील और पुर्जों का वर्णन वे ऐसे करते हैं जैसे कोई आयुध निर्माणी कार्यशाला से होकर आए हों। संक्षिप्ताक्षरों का विस्तार करते हैं यथा डीबीबीएल का पूरा रूप है डबल बैरल्ड ब्रीच लोडिंग। हिंदी में जिसे दोनाली, क़राबीन या रिफल या दोगाड़ा कहते थे। बेधरमी इसे अंग्रेजो द्वारा भारत लाए जाने के कारण कहा गया। ‘भरमारू’ बंदूक में बारूद और गोली नाली की राह से भरी जाती थी। क़राबीन फ्रांसीसी बंदूक थी, जिसे अंग्रेजी और फ्रेंच में कारबाइन कहा जाता है। इन हथियारों को चलाने और उनकी मारक क्षमता सहित अन्य गुण-दोषों का वर्णन कथाकार ने इस प्रसंग में किया है। जिस क़रीमखां से नवाब शमसुद्दीन ने विलियम फ्रेजर की हत्या करवाई, उसे अंग्रेजों ने थर्ड डिग्री दी, फिर भी क़रीमखां ने शमसुद्दीन का नाम नहीं लिया। यद्यपि अंग्रेजों की अदालत ने 26 वर्षीय शमसुद्दीन अहमद को फांसी की सज़ा दे दी।
        वज़ीर ख़ानम एक बार फिर विधवा हो गई। वह सोचती है यह दुनिया पुरुष की दासी और स्त्री की शत्रु है। यह ऐसा भंवरजाल है जिससे निकल पाना असंभव है। इस निराशा के बीच उसकी मंझली बाज़ी उम्दा ख़ानम उसको शिया समुदाय के आग़ा मिर्ज़ा तुराब अली के साथ रखना चाहती है। इस प्रसंग में उम्दा का वज़ीर के साथ जो संवाद चलता है, वह स्त्री चेतना को मज़बूत तर्काें के साथ पाठक के सामने लाता है। वज़ीर, मंझली बाज़ी, जहांगीरा बेगम और आग़ा साहब की इच्छा और शर्तों से नहीं, अपितु वह किस मिज़ाज के हैं और नवाब मिर्ज़ा के लाड़-प्यार में कमी तो न रखेंगे की आशंकाओं को दूर कर लेना चाहती है। आग़ा शिया हैं और वज़ीर सुन्नी। वज़ीर आग़ा से होने वाली संतान को अपने रंग-ढंग से पालने की शर्त लगाती है। वज़ीर का मानना है कि दुनिया में प्यार स्त्री के लिए ही है। पुरुष चाहे जाने से अधिक उसके अहसास की दीवाने हैं। प्रेम की कसौटी स्त्री द्वारा पुरुष में चाहे जाने का अहसास पैदा करना है। उम्दा द्वारा स्त्री को पुरुष के शरीर की चादर, सर के ऊपर की छत और बुढ़ापे का सहारा बताने पर वज़ीर कहती है ‘अब तक मुझे मर्दों से कौन सा सहारा मिला है कि अब मिल जाएगा।’ वज़ीर अपनी बहिन, पति और रिश्तेदारों की सलाह और इच्छा से नहीं, वरन् अपने पुत्र की सुविधा और भविष्य का ध्यान रखती है, पर पुत्र की भी हिम्मत नहीं कि वज़ीर के आगामी जीवन का वह निर्णय करे, वह अपनी मां को उसके जीवन के बारे में कोई निर्णय देने में अपने को समर्थ नहीं पाता। इस तरह की राय मां से व्यक्त करने में ही एक प्रसिद्ध शायर दाग़ देहलवी चकरा जाते हैं। वज़ीर कहती है मेरी जगह यदि तुम्हारे पिता होते तो तुम क्या उन्हें सलाह देते? तुम यह निर्णय कैसे निकाल सकते हो कि मेरी समस्या का समाधान करना तुम्हारा कर्तव्य है? वज़ीर किसी दलील की मोहताज नहीं होती। अंतिम निर्णय वज़ीर का ही होता है। वज़ीर अपना पुनर्विवाह आग़ा से अपनी शर्तों पर करती है, जिससे 1843 में एक पुत्र का जन्म हुआ। इसके बाद आग़ा मिर्ज़ा तुराब अली सोनपुर में ठगों द्वारा मार दिए जाते हैं। ठगों में हिंदू मुस्लिम दोनों शामिल थे और सभी एक विशेष बोली ‘रमासी’ का प्रयोग करते। वे जय देवीमाई के भक्त थे। वज़ीर जब आग़ा के निधन के बाद तीसरी बार वैधव्य को प्राप्त हुई, तब कथित शरीफ घरानों की बेटियों के हिसाब से उसके विवाह की आयु निकल चुकी थी।
        वज़ीर जानती है कि वह बदनाम है, लेकिन उसने अपनी स्वतंत्रता से कोई समझौता नहीं किया। वह अपने भाग्य को कोसती है कि मुझे ऊपर वाले ने क्या बच्चे पैदा करके और उनसे बिछुड़ने के लिए ही भेजा है। वह अपने शायर बेटे से कहती है ‘मर्द जात समझती है कि सारी दुनिया के भेद और तमाम दिलों के छुपे कोने उस पर ज़ाहिर हैं, या अगर नहीं भी हैं तो न सही लेकिन वह सबके लिए फैसला करने का हक़दार है। मर्द ख़्याल करता है कि औरतें उसी ढंग और मिज़ाज की होती हैं जैसा उसने अपने दिल में, अपनी बेहतर अक्ल और समझ के बल पर गुमान कर रखा है...।’  वज़ीर का पुत्र नवाब मिर्ज़ा शरीअत का हवाला देकर कहता है कि मर्द औरत से बरतर (श्रेष्ठ) है। वज़ीर पुरज़ोर मुख़ालफत करती हुई कहती है ‘आपकी क़िताबों के लेखक सब मर्द, आपके क़ाजी, मुफ़्ती-बुज़ुर्ग भी कौन, सबके सब मर्द! मैं शरई हैसियत नहीं जानती, लेकिन मुझे बाबा फ़रीद साहब की बात याद है कि जब जंगल में शेर सामने आता है तो कोई यह नहीं पूछता कि शेर है या शेरनी। आखि़र हज़रत राबिया बसरी भी तो औरत थीं।’  उपन्यास की पूरी कथा इस प्रश्न का उŸार खोजने में बुनी गई है कि पुरुष क्या है और स्त्री क्या है। उपन्यासकार चाहता है कि स्त्रियां मजबूरी से बाहर निकलें और स्वतंत्र होकर अपने फैसले लेकर समृद्ध और सशक्त बनें। दुनिया की वास्तविकता से कथाकार बाख़बर है कि ‘दुनिया सŸाा वालों के आगे खु़द-ब-ख़ुद झुकती है और कमज़ोरों, ख़ासकर वह औरतों को वह कभी माफ नहीं करती।’  वज़ीर भले ही बदनाम हो कि जिसने चार पैसे दिखाए उसी की हो रहीं किंतु उसका दरवाज़ा किसी के लिए खुला नहीं होता, वह एक बार ऐसा कहते हुए नवाब जियाउद्दीन अहमद को झिड़क देती है।
        वज़ीर की चौथी शादी की बात मिर्ज़ा फ़तहुल मुल्क बहादुर से चलती है तो वज़ीर डरती है कि बार-बार चार दिन की खुशी के बाद मुद्दतों रोना पड़ता है, किंतु फिर वह सोचती है कि कभी के दिन बड़े तो कभी की रात बड़ी। इस बीच नवाब मिर्ज़ा (दाग़ देहलवी) भी उम्तुल फ़ातिमा से आंखें चार कर लेते हैं। वज़ीर की शर्तों के अनुसार फ़तहुल मुल्क बहादुर उर्फ़ फ़खरू बहादुर वज़ीर के बेटों नवाब मिर्ज़ा और मोहम्मद आग़ा को अपने साथ रखने को तैयार हो जाते हैं। ज्योतिषी विवाह की तिथि तय करते हैं और जनवरी 1845 को दोनों का विवाह हो जाता है। उपन्यास में कथाकार ने स्त्री और उसके अंतर्मन को गहराई में जाकर झांका है, स्त्री संवेदना का कदाचित् कोई कोना अछूता न रहा जहां कथाकार ने दस्तक न दी हो। मिर्ज़ा के साथ हमबिस्तर होने पर वज़ीर सोचती है कि मर्द को सिर्फ अपनी गरज़ से काम है। मतलब पूरा होने के बाद वह इस बात से बेताल्लुक़ हो जाता था कि मेरा शरीके-बिस्तर किस हाल में है। अक्टूबर 1845 को वज़ीर ने एक बेटे खु़र्शीद मिर्ज़ा को जन्म दिया, किंतु जुलाई 1856 में वज़ीर ख़ानम के इस चौथे पति की भी स्वास्थ्य बिगड़ने से मृत्यु हो गई। वज़ीर को क़िला छोड़ना पड़ता है। क़िले से निकलते समय वज़ीर कहती है ‘हक़ क्या चीज है साहिबे-आलम? सारी ज़िंदगी मैं हक़ की तलाश में रही हूं। वह पहाड़ों की किसी खोह में मिलता हो तो मिलता हो, वरना आसमान तले तो देखा नहीं गया।’ यह पंक्ति इस उपन्यास की फलश्रुति मानी जा सकती है।
        उपन्यास के आभार भाग में फ़ारुक़ीजी ने इच्छा व्यक्त की है कि इस उपन्यास को 18वी-19वीं सदी की हिंद-इस्लामी तहज़ीब और इंसान के साहित्यिक सांस्कृतिक सरोकारों का चित्रण समझकर पढ़ा जाए, किंतु उपन्यास के आवरण पृष्ठ पर ब्रियाना ब्लास्को द्वारा बनाए चित्र में एक सुंदर स्त्री शोभायमान है, जिससे इसकी केंद्रीय विषय-वस्तु स्वतःस्पष्ट हो जाती है। उपन्यास का शीर्षक शायर अहमद मुश्ताक़ के इस शेर के एक मिसरे पर रखा गया है-
कई चांद थे सरे-आसमां कि चमक-चमक के पलट गए
न लहू मेरे ही जिगर में था न तुम्हारी ज़ुल्फ सियाह थी।
        उपन्यास के अंत में उर्दू-फ़ारसी और अंग्रेजी के उन दुर्लभ ग्रंथों की सूची भी दी गई है, जिनसे उपन्यासकार ने सहायता ली है। फ़ारुक़ीजी ने विभिन्न शब्दकोशों का उल्लेख करते हुए उनके बीच के अंतर को रेखांकित किया है। आमतौर पर उपन्यासों में ग्रंथ-सूची नहीं दी जाती है, पर कथा की विश्वसनीयता और प्रामाणिकता के लिए फ़ारुक़ीजी ने ऐसा करना उचित समझा होगा। प्रसिद्ध प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस उपन्यास में हुई कुछ मामूली वर्तनी त्रुटियां अगले संस्करण में सुधार दी जाएंगी। सात सौ अड़तालीस पृष्ठों में फैले इस महाकाव्यात्मक उपन्यास को बहत्तर शीर्षकों में बांटा गया है। हर शीर्षक अपनी कहानी कहता है किंतु शीर्षक स्वतःपूर्ण नहीं होता और यह किसी कहानी के लिए उचित भी नहीं। उपन्यास के आवरण पृष्ठ के दोनों ओर प्रसिद्ध साहित्यकारों की टिप्पणियां प्रकाशित हैं। इसे कोई विक्रय प्रोत्साहन के लिए भी कहे, पर इससे पाठक के मन में उपन्यास को जानने की उत्कंठा हो जाती है। ओरहान पामुक ने इसे ‘अद्भुद उपन्यास’ कहा तो मोहम्मद हनीफ इसे भारतीय उपन्यासों का कोहिनूर कहते हैं। असलम फर्रूखी कहते हैं यह इक्कीसवीं सदी की ही नहीं, उर्दू फिक्शन की बेहतरीन क़िताब है, वहीं इंतिज़ार हुसैन देहली की मिटती हुई बादशाहत के साए में फलने-फूलने वाली इस तहज़ीब का मंज़रनामा ग़ालिब, ज़ौक, दाग़, घनश्यामलाल आसी, इमामबख़्श सहबाई, हकीम अहसनुल्लाह ख़ां के साथ-साथ बहादुरशाह ज़फ़र, मलिका ज़ीनतमहल और नवाब शमसुद्दीन अहमद ख़ां जैसे बहुत से वास्तविक किरदारों से भी जगमगा रहा है। इस उपन्यास को उस सदी की हिंद-इस्लामी तहज़ीब में कौमी एकजुटता, जिं़दगी, मुहब्बत और फ़न की तलाश की दास्तान कहें तो सही होगा। आलोचक और कवि अशोेेक वाजपेयी ने कहा है कि अठारहवीं-उन्नीसवीं सदियों में जीवन, समाज, साहित्य, कलाओं आदि के क्षेत्रों में व्यापक रचनात्मकता, बहुत कुछ को बचाने की इच्छा और जतन, अनेक नवाचार, समाज के कई वर्गों के बीच संवाद आदि सब बहुत सक्रिय थे। उन्होंने अपनी टिप्पणी में उपन्यास में छायी स्त्री कथा को सुंदरता से व्याख्यायित किया है और ‘सुंदर अंततः बच नहीं पाता, वह बराबर वेध्य है। उसकी भंगुरता मानो उसके होने की अनिवार्य परिणति है।’ वाजपेयीजी ने इस उपन्यास को सुंदरता की विफलता की गाथा कहा है।  इंडिया टुडे हिंदी में वरिष्ठ पद पर कार्यरत पत्रकार मनीषा पांडेय ने इस उपन्यास की प्रशंसा करते हुए लिखा है ‘हिंदी में जाने कितने बरसों बाद एक ऐसी क़िताब आई जो पन्ना दर पन्ना आपको चकित करती है। यह क़िताब इतिहास के गलियारों में ले जाती है, भाषा के चमत्कार से चकित करती है, रुलाती है, अवसाद में डुबो देती है और मुहब्बत के सबसे बीहड़ बियावानों में अकेला भटकने के लिए छोड़ देती है। इस भटकन का सुख वहीं जानते हैं जो क़िताबों के संग-संग भटके हैं।’  वहीं वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने इस कृति पर अपनी टिप्पणी दी कि जब कोई विद्वान रचनात्मक कृति रचता है तो अपने समय के ज्ञान को कथानक में कैसे ढालता है। हिंदी में ऐसी क्षमता हजारी प्रसाद द्विवेदी में थी।
        अंत में कहा जा सकता है कि कोई बड़ा रचनाकार अपने समय के टुकड़ा-टुकड़ा विमर्शों का समाहार और अतिक्रमण अपनी विराट कृति के सम्यक् कथानक में कैसे संभव कर दिखाता है, यह उपन्यास इसका विरल उदाहरण है जिसमें वर्तमान में प्रचलित विमर्शों पर समय और उसका अवदान भारी पड़ गया है।
                                        शब्दार्णव, नया पटेल नगर, कोंच रोड, उरई (जालौन)
                             

‘अकाल और उसके बाद’ का पुनर्पाठ

‘अकाल और उसके बाद’ का पुनर्पाठ

डॉ राकेश नारायण द्विवेदी

हिंदी की पाठ्य-पुुुुुुुस्तकों में नागार्जुन की कविताएं विद्यार्थी काल से ही मुझे आकर्षित करती रही हैं। पाठ्य-पुस्तक में सारे अध्याय प्रथम पाठ में ही विद्यार्थी को हृदयंगम हो जाएं, ऐसा बहुधा नहीं होता; किंतु नागार्जुन की रचना से पाठक जुड़े बिना नहीं नह पाता। नागार्जुन की कविता सहज बोधगम्य और आम आदमी की कविता होती है। वह जनकवि हैं, जनता के कवि को कोई वैभवशाली साम्राज्य भी प्रलोभन, प्रभाव या दबाव में नहीं ला सकता। पंक्ति हीं नहीं, हाशिए और उससे इतर समाज के अंतिम व्यक्ति की चिंता जनकवि द्वारा होती है। जनकवि जनता की आवाज़ होता है, फिर भी वह ऐसा होने का कोई गु़मान नहीं करता। जनकवि का प्रभाव जन-जन तक होता है। नागार्जुन भी ऐसे ही जनकवि थे, इसीलिए नामवर सिंह ने कहा है कि ‘‘तुलसीदास के बाद नागार्जुन अकेले ऐसे कवि हैं, जिनकी कविता की पहुंच किसानों की चौपालों से लेकर काव्यरसिकों की गोष्ठी तक है।’’1
नागार्जुन दरभंगा एवं पटना से दिल्ली और देश-विदेश के हिस्सों में भ्रमण करते रहे, उनकी अतिसाधारण वेश-भूषा उन्हें सच्चा जनकवि दिखाती थी। उन्हें कहीं ठहरने के लिए सुख-सुविधाओं की चाह नहीं रही। दिल्ली में जहां वे निवास करते रहे, वहां कोई भी जाकर उनसे मिलता और बिल्कुल अपनेपन से बतियाता। वह खिलखिलाकर हंसते और बालसुलभ, किंतु साफगोई से ठोस बात करते। दिल्ली की पिछड़ी बस्ती करावलनगर की तंग गली के सामान्य से घर में एक मेहमान के रूप में वह जीवन के अंतिम वर्षों में प्रवास करते रहे। उस घर में उनसे मिलने की इच्छा से सन् 1996 में दो बार गया। बिना बिस्तर की खटिया पर हाथ में लिए लेंस के सहारे वह रात-रात भर पढ़ते रहते, उन्हें अनिद्रा की समस्या भी रही, जीवन में अभावों और परेशानियों से वे जूझते रहे, किंतु उनके हाव-भाव में कभी निराशा दिखाई नहीं दी।
दिसंबर 2007 में गोवा विश्वविद्यालय में एक रिफ्रेशर कोर्स में अपने बड़े भाई प्रोफेसर रमेश कुंतल मेघ सहित पधारे हिंदी समालोचक शिवकुमार मिश्र ने नागार्जुन की इस कविता को खोला था, और तब मुझे पहली बार लगा कि आसान सी लगने वाली कविताओं को यदि खोला न गया तो वह आसान ही लगती रहेंगी, उनके मर्म से हम परिचित नहीं हो पाएंगे। नागार्जुन पर शिवकुमारजी इतना तन्मय होकर बोलते कि हम सभी प्रतिभागी सुनकर मंत्रमुग्ध हो जाते। क्यों न हों, नागार्जुन जैसे अतिसाधारण से दिखने वाले असाधारण जनकवि की रचनाओं का खुलासा शिवकुमार मिश्र जैसा जनवादी आलोचक ही कर सकता था। शिवकुमार जी के नाम के आगे परिचय कराते समय कोई विशेषण लगाने, यहां तक कि श्री और जी लगाने पर भी वे बिफर जाते। नागार्जुन पर शिवकुमारजी के व्याख्यान पर ही इस आलेख का प्रतिपाद्य अवलंबित है।
नागार्जुन कविता के एक-एक शब्द तथा एक-एक पंक्ति के साथ घंटों संघर्ष करते, जूझते देखे जाते। दण्डी ने जिसे ‘शब्दपाक’ कहा है, नागार्जुन की शब्द साधना कुछ वैसी ही है, और सही अभिव्यक्ति का संतोष भी उनके चेहरे पर उसी प्रकार झलकता रहा। यह कोरी शिल्प सजगता नहीं, अपनी सारगर्भी वस्तु के लिए अनुकूल अभिव्यक्ति पाने की कोशिश है।
कविता के अंतर्गत कैसे शब्द आएं, उसके बिंब और प्रतीक किस प्रकार नियोजित हों, ये सारी बातें उन्हें परेशान करती हैं, और वे उनके हल ढूंढ़ते हुए अक्सर देखे जाते रहे हैं। कविता में जो ऊपर से एक सरलता और सादगी दिखाई पड़ती है, वह बहुधा लोगों के मन में यह भ्रम पैदा करती है, गोया बडी आसानी से हाथ आ जाने वाली चीज हो जबकि सचाई यह है कि नागार्जुन की ऊपर से सरल और सपाट दिखाई पड़ने वाली रचनाएं ही अपनी व्यंजना में, और अपने रचाव में, सबसे अधिक सक्षम और तकलीफदेह है। उनकी कविता के बिबों और छंदों की ताजगी और वैविध्य प्रयत्नज नहीं, वरन् नागार्जुन ने उसे अपने साधनामय रचनाकार जीवन के क्रम में क्रमशः अर्जित किया है, और उसे अपनी कविता में सहज बनाकर प्रस्तुत किया है। नामवर जी कहते हैं कि तुलसीदास और निराला के बाद कविता में हिंदी भाषा की विविधता और समृद्धि का सर्जनात्मक संयोग नागार्जुन में ही दिखाई पड़ता है।2
सन् 1952 में रचित ‘अकाल और उसके बाद’ उनकी बहुचर्चित कविता को ही देखा जाए, जो इतनी ही है-
कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उसके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।

दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआं उठा आंगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आंखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पांखें कई दिनों के बाद।3

यह कविता ऊपर से देखने में बड़ी सरल लगती है, किंतु वस्तुतः न तो वह सरल है, और न ही सपाट। सारी कविता अपनी आठ पंक्तियों में चित्रों के माध्यम से अकाल और उसके बाद की स्थिति की व्यंजना करती है, और चित्र भी रोजमर्रा के जाने-पहचाने हैं, किंतु वे उन्हीं लोगों को हस्तगत हो सकते हैं, जिन्होंने जिं़दगी को उनके मुख्य प्रवाह में देखा और जिया है, जो अपनी सारी संवेदनात्मक निष्ठा के साथ उस प्रकार की जीवन स्थितियों से जुड़े हैं जिनका कि उसमें चित्रण है। कविता भर में कहीं अकाल शब्द नहीं आया है, गोकि सारी व्यंजना का संबंध अकाल और उसके बाद से है। एक-एक शब्द यथास्थान जुड़ा है, उसमें फेरबदल नहीं किया जा सकता।
      चूल्हे के रोने और चक्की के उदास होने में भी अर्थ है और चक्की को रोते या चूल्हे को उदास होते नहीं दिखाया जा सकता। कुतिया कानी ही क्यों है, और कुत्ता क्यांे न आकर कुतिया ही क्यों नागार्जुन की दृष्टि में आई है, छिपकलियों के भीत पर इधर-उधर चक्कर लगाने को गश्त क्यों कहा गया है, कौओं के पांखें खुजलाने, घर भर की आंखों में चमक के आने, और आंगन के ऊपर महज धुआं उठने का मतलब क्या है, कविता की व्याख्या इन सारी बातों के स्पष्टीकरण की अपेक्षा रखती है, और नागार्जुन जब उसे स्पष्ट करते हैं तब कविता का मर्म स्पष्ट होता है, और मानना पड़ता है कि जिसके बारे में लापरवाही की बात की जाती है, वह वस्तुतः अपने एक-एक शब्द के प्रति कितना सजग है।
यह कविता सरल नहीं है, शिवकुमार जी कहते हैं उसी प्रकार जिस प्रकार पाल-एलुअर की ‘अकाल संस्कृति’ पर लिखी गई यह कविता कि
‘‘दुर्भिक्ष ने जिसे संस्कार दिए हों
ऐसा बच्चा हमेशा यही जवाब देता है
क्या तुम आ रहे हो
जी मैं खा रहा हूं
क्या तुम सो रहे हो
जी मैं खा रहा हूं।
बड़ी कठोर साधना के बाद किसी को उपलब्ध हो पाती है यह सहजता। यह अर्जित की गई सहजता है, जो बड़ी कठिन होती है। कविता क्या है, इसकी पूरी समझ रखने वालों को, और उसके औज़ारों पर पूरा अधिकार रखने वालों को ही यह सरलता और सहजता नसीब होती है।4

जब शिवकुमारजी ने कविता को इस प्रकार खोला तो उसका पुनर्पाठ करते हुए यह भी ख्याल आता है कि इसमें पूर्णविराम दो बार ही प्रयुक्त हुए हैं, पहली बार तब जब अकाल की करालता कही जा रही है और दूसरी बार तब जब अकाल के बाद कुछ जीवनेच्छाएं जागने लगती हैं। पूरी कविता आशा और निराशा के सुप्त द्वं्रद्व की अभिव्यंजना करती है। अकाल में मनुष्य के अलावा अन्य प्राणियों की क्या दुर्गति होती है। कविता में प्रयुक्त कानी कुतिया, छिपकलियां, चूल्हा, चक्की, चूहे, कौआ जैसे अति साधारण जीव-जंतु, पशु-पक्षी और घरेलू वस्तुओं के शब्दचित्रों के सहारे अकाल की भयावहता पाठक के सम्मुख स्वाभाविक रूप में स्पष्ट हो जाती है। कविता के पूर्वार्ध की प्रत्येक पंक्ति कें प्रारंभ में आए ‘‘कई दिनों’’ पद-बंध व्यंजित करते हैं कि यों ही हमारे देश में व्यक्ति के समक्ष अनेक परेशानियां घिरी हुईं हैं, और ऊपर से यह अकाल। उत्तरार्ध की पंक्तियों में यही पद-बंध प्रत्येक पंक्ति के अंत में विन्यस्त हैं, जो व्यंजित करते हैं कि अकाल मिश्रित समस्याओं का दुष्प्रभाव कई दिनों तक रहने वाला है। नागार्जुन ने अपनी कविताओं में पदबंधों का पुनरुक्ति प्रयोग किया है, जिससे उनमें अनुभूति की तीव्रता आ गई है। ऐसे पदबंधों से विषय की मार्मिकता बढ़ गई है, ‘बहुत दिनों के बाद’ कविता में हर टेक मंे यह पदबंध प्रारंभ अधैर अंत में प्रयुक्त हुआ है, ‘चंदू मैंने सपना देखा’ कविता में यह पदबंध पूरी कविता के प्रारंभ में चलता है। ‘तीनों बंदर बापू के’ कविता में यह टेक छंद के अंत में चलकर कविता को लयबद्ध ही नहीं, वरन् अर्थछबियां भरती है।


                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                             
संदर्भ-
1- नागार्जुन प्रतिनिधि रचनाएं, संपादक नामवरसिंह, भूमिका से, राजकमल पेपरबैक्स, तुतीय संस्करण 1988, पांचवी आवृत्ति 2001
2- वही, भूमिका से
3- वही, पृष्ठ 98
4- दर्शन, साहित्य और समाज, शिवकुमार मिश्र, पृष्ठ 151, वाणी प्रकाशन, 2000

शब्दार्णव, नया पटेल नगर, कोंच रोड, उरई (जालौन)
मोबाइल 9236114604

राही के उपन्यासों में चित्रित साझा संस्कृति

राही के उपन्यासों में चित्रित साझा संस्कृति

डा राकेश नारायण द्विवेदी

भारतीय संस्कृति की विचारमुद्रा सहिष्णुता और सद्भाव को महत्व देते हुए कट्टरता या घृणा को अस्वीकारने की रही है । धर्म, संप्रदाय आदि के नाम पर किसी मानवता विरोधी कृत्य को भारतीय मनीषियों ने समर्थन नहीं दिया है ।

डॉ राही मासूम रज़ा की दृष्टि धर्म के उपर्युक्त प्रगतिशील स्वरूप को मान्यता देने वाली रही है । उनके सभी उपन्यास इस चेतना से ओत-प्रोत हैं । कुछ समय पूर्व गांव की संस्कृति में त्योहार और उत्सव भिन्न संप्रदाय के लोगों को निकट लाने और भाईचारे के निमित्त थे । ‘आधा गॉंव’ में मोहर्रम मात्र मुसलमानों का पर्व नहीं है । मोहर्रम के ताजिया के साथ अहीरों का लट्ठबंद गिरोह चलता था, जो उलतियां गिराकर रास्ता बनाया करता था । एक विधवा ब्राह्मणी की उलती को बिना गिराए बड़ा ताजिया आगे बढ़ जाता है, तो वह आने वाली मुसीबत के भय से कॉंप उठती है ‘‘जरूर कोई मुसीबत आने वाली है; नही ंतो भला ऐसा हो सकता था कि बड़ा ताजिया उसकी उलती गिराए बिना चला जाता ।’’

हिन्दुओं के अनेक देवी-देवता मुसलमानों में भी प्रचलित हो गए थे । ‘टोपी शुक्ला’ में इफ्फन की दादी नमाज़-रोज़े की पाबंद थी । जब इकलौते बेटे को चेचक तो वे चारपाई के पास एक टांग पर खड़ी होकर हिन्दू स्त्रियों के से विश्वास से कहती हैं ‘‘माता मेरे बच्चे को माफ कर दो ।’’ राही के उपन्यासों में मुसलमानों के पीर-फकीर हिन्दुओं के श्रद्धास्पद थे तो इमाम साहब से हिन्दू स्त्रियां भी मनौती मानती थीं । ‘ओस की बूॅंद’ में वजीर हसन कुएं से बड़ी कठिनाई से शंख निकालकर सुबह की नमाज़ अता करने के बाद आदरपूर्वक शंख बजाता है ।

लेकिन भारत में एक ओर असांप्रदायिक आस्तिकता का यह भाव है तो दूसरी तरफ सांप्रदायिक कट्टरता का भयावह विष भी फैला हुआ है । यहां कट्टर लोगों के अपने-अपने भगवान या खु़दा निश्चित हो गए । ऐसे लोगों के कारण धर्म और धार्मिक पर्व मेल-जोल के बजाय द्वेष और हिंसा के आलंबन बन गए । इसीलिए ‘ओस की बूॅंद’ में बीवी के कटरेे में बने मंदिर में उसका शंख फेंक दिए जाने से उपजे सांप्रदायिक दंगे को मुसलमान अपने पूर्वजों को वास्ता देते हैं तो दूसरी तरफ वज़ीर हसन के लंगोटिया यार दीनदयाल को भी अपने मित्र और वतन से बढ़कर धर्म दिखाई देने लगता है ।

सांप्रदायिकता की मनोवृत्ति मानवीय मूल्य एवं धर्मनिरपेक्षता के विपरीत पड़ती है । सांप्रदायिक शक्तियां अपने निहित स्वार्थों के लिए जन-साधारण के आपसी सद्भाव, मेल-जोल एवं सहकार भाव को दांव पर लगा देती हैं । ‘आधा गॉंव’ में मुस्लिम सांप्रदायिकता हिन्दुओं की ‘‘सिंसियारिटी को मशकूक" मानती है । हिन्दू सांप्रदायिकता के पास सबसे बड़ा उदाहरण औरंगज़ेब का है, जिसने बहुत से मंदिरों को ढहा दिया था । जिसके लिए राही ने सवाल पूछा है कि यदि एक औरंगज़ेब गुनहगार तो क्या सारी मुस्लिम बिरादरी इसके लिए दोषी है? ‘आधा गॉंव’ का निरक्षर छिकुरिया इस सब पर विश्वास नहीं कर पाता क्योंकि गंगौली में तो मुसलमान जमींदार न केवल दशहरे का चंदा देते थे, बल्कि मठ के बाबा को भी जमींदारों ने कुछ बीघों की माफ़ी दे रखी थी । वह मास्टर साहब की बात नही मानता । रहा औरंगज़ब, वह जरूर कोई बदमाश होगा ।

इस समस्या को राही के उपन्यासों में कुछ इस तरह उभारा गया है कि यदि ग़लती कोलकाता के मुसलमानों ने की है तो उसका दण्ड गंगौली या अन्य जगहों के मुसलमानों को क्यों? या पूर्वजों ने गुनाह किए हैं तो आज के मुसलमान को उनकी सजा़ क्यों दी जाए? जिन मुसलमान बच्चियों ने छुटपन में उनकी गोद में पेशाब किया है, उनके साथ ज़िना (व्यभिचार) क्यों और कैसे की जाए? उन मुल्ला जी को कोई कैसे मारे, जो नमाज़ पढ़कर मस्जिद से निकलते हैं तो हिन्दू-मुसलमान सभी को फूंकते हैं । धर्म के आधार पर परस्पर लड़ने की बात राही जी के सदाशयी पात्र नहीं जानते । ‘आधा गॉंव’ का छिकुरिया उस समूचे जनसाधारण का प्रतिनिधि है; जो धर्म एवं संप्रदाय की दीवारों को जानता है । वह जानता है कि कुछ तथाकथित पढ़े-लिखे लोग कोंच-कोंच कर लोगों को एक-दूसरेे से घृणा करने के लिए तैयार करते हैं । व्यक्तियों के माध्यम से यह दो तरह के मूल्यों का जबर्दस्त संघर्ष है । एक ओर मास्टर साहब, फारुक (आधा गॉंव)आदि प्रतिक्रियावादी व्यक्ति हैं जो क़ौम का वास्ता देकर स्वजातीय बंधुओं को उकसाते हैं तो दूसरी ओर सर्वपंथ समादर, राष्ट्र शक्ति और परस्पर आत्मीयता जैसे मानव मूल्यों के संवाहक छिकुरिया, फुन्नन मियां, तन्नू (आधा गॉंव) वजीर हसन, वहशत अंसारी (ओस की बूॅंद) आदि भारतीयता के प्रतिनिधि चरित्र हैं जो आदमी-आदमी को लड़ाने वाले हर षडयंत्र के घोर विरोधी हैं ।

राही जी की दृष्टि में भारतीय संस्कृति के कई अनावृत पहलुओं की ओर गई है । उन्होंने अपने साहित्य केशोध का विषय भी इसी प्रकार का रखा था । जिसमें मुसलमानों में प्रचलित कहानियों में भारतीय संस्कृति का वर्णन आया है । स्वाभाविक है कि उनके उपन्यासों में इसकी प्रतिध्वनि दिखाई देगी । दो ध्रुवांतों पर खड़ी मानी जाने वाली संस्कृति की एकता एवं समन्वय को राही के खोजपूर्ण उदाहरणों द्वारा प्रोत्साहन मिलना चाहिए । ‘असन्तोष के दिन’ के उस मर्सिये की वह पंक्ति उद्धरणीय हैै, जिसमें गाया जाता है ‘‘फूल वह जो महेसर चढ़े’’ । राही ने अपने औपन्यासिक पात्रों की धार्मिक एकता पर यह कहते हुए बल दिया है कि यहां के मुसलमानों के पूर्वज हिन्दू ही थे । ज़र्रीक़लम सैयद अली अहमद जौनपुरी (असन्तोष के दिन) नाम से मुसलमान थे । इनके पुरखे मराठे और धर्म कट्टर हिन्दू था । वजीर हसन (ओस की बूॅंद) के पुरखों ने भी इस्लाम स्वीकार किया था ।

उपन्यासकार अपने पात्रों के माध्यम से उनके समन्वय एवं एकता को अनेक घटनाओं एवं स्थितियों द्वारा प्रस्तुत करता है । ‘आधा गॉंव में पड़ोस के गॉंव के एक जमींदार ठाकुर जैपाल सिंह अतिवादी हिन्दुओं से बफ़ाती चा नामक कुंजड़े मुस्लिम को एक हमले में बचाते हैं । वह गॉंव की समस्त मुस्लिम प्रजा को संरक्षण प्रदान करते हैं जैपाल सिंह हिन्दुओं की उत्तेजित भीड़ को ललकारते हुए कहते हैं ‘‘बड़ बहादुर हव्वा लाग । अउर हिन्दू मरियादा के ढेर ख्याल बाए तुहरे लोगन के, कलकत्ते-लौहउर जाए के चाही ।’’  इसी प्रकार सैयदा (असन्तोष के दिन) हिन्दुओं को गाली देती है, पर अपने हिन्दू नौकर राममोहन से अपने परिवार को उसकी झोपड़ पट्टी से उठा लाने को कहती है । वह अपने हिन्दू मित्र गोपीनाथ की भी मौत पर रोती है ।  

राही जी ने उज्ज्वल चरित्रों के पात्रों को उभारने के लिए अपने उपन्यासों में कुछ पात्रों को धार्मिक ढकोसलापन, अलगाववाद, ऊॅंच-नीच के भेद-भाव को मानने वाले, झूठ-फ़रेव और चोरी इत्यादि अधार्मिक-अनुचित प्रवृत्तियों से भी संपृक्त किया है राही के पात्रों की धार्मिक  चेतना में बाह्याचारों की अतिशय व्याप्ति है । इनका मूल अज्ञान और अशिक्षा में है । धर्म के नाम का ढकोसलापन अधिक है । धार्मिक मठ-मंदिर बाह्याचार, व्यभिचार, जादू-टोने और जड़ता के अड्डे बन चुके हैं । राही के पात्र एक ओर अपनी कुलीनता और रक्त शुद्धता का आडंबर रचते हैं तो दूसरी ओर ‘क़लमी औलादें’ पैदा करते नहीं थकते । विवाह में रंडी नचवाने वालों पर ताने कसते हैं और घर हरामज़ादी संतानों से भरते रहते हैं । शिया और सैयद होने का घमण्ड करते हैं और मुसलमानों में ही सुन्नियों को हेय मानते हैं । ज़रा सी बात पर आपस में फौजदारी करते हैं; कचहरी में झूठे मुक़दमेे बनाते हैं । धर्म के नाम पर साल में ढाई माह तक हंसना भी गुनाह मानते हैं, परंतु अनुसूचित जाति के एक निर्दोष व्यक्ति कोमिला को झूठे मुकदमें में फंसाकर फांसी की सज़ा दिलाते हैं ।

शियाओं की उपर्युक्त धार्मिक कट्टरता का परिहास और विडंबनाजनक स्थिति पर डॉ इन्दु प्रकाश पाण्डेय लिखते हैं वे ‘एक ओर तो तेरह सौ साल पहले हुए क़त्ल का विरोध करते हैं और दूसरी ओर केवल अपनी दक्षिण पट्टी के ताजिए की शोहरत के लिए एक ब्राह्मण विधवा के जवान पुत्र का कानूनन क़त्ल करवाते हैं । चमार औरत को घर में पत्नी के रूप में रखते हैं, बच्चे पैदा करते हैं; परंतु उसके हाथ का बनाया खाना तक नहीं खाते । इस प्रकार कथावाचक ने बड़ी निर्ममता से अपने समाज की झूठी एवं खोखली धार्मिकता का पर्दाफाश करते हुए उसके अंधविश्वास अशिक्षा एवं अज्ञान को विस्तार से चित्रित किया है ।’

‘आधा गॉंव’ में सर्वत्र शियाओं का सर्वप्रमुख एवं दुनिया का एकमात्र शोकपर्व मोहर्रम के छाए रहने पर आलोचक सुरेन्द्रनाथ तिवारी कहते हैं ‘‘आधा गॉंव’ पढ़ने के बाद याद रहता है मोहर्रम; जो कामू के ‘प्लेग’ की तरह व्याप्त है ।’ श्री तिवारी ने इस उपन्यास में मोहर्रम की कथा की प्रमुखता देखते हुए मोहर्रम को उपन्यास का नायक माना है । आधा गॉंव की कुछ इसी प्रकार की कमियों की ओर डॉ इन्दु प्रकाश पाण्डेय ने संकेत किया है । उन्होंने लिखा है ‘इस मोहर्रम की भीड़ में कथावाचक ने लगभग 100 पात्र गंगौली की दक्षिण और उत्तर पट्टी में एकत्र कर दिए हैं, जो या तो साधारण नित्य-प्रति की घरेलू समस्याओं में व्यस्त हैं या मोहर्रम की बैठकों में मातम कर रहे होते हैं । कुछ पात्र तो केवल नाममात्र हैं, जिनके अस्तित्व का कोई भी रूप प्रकट नहीं होता है और कुछ जो मोटी रेखाओं में व्यक्त भी हुए हैं, वे कुछ विशिष्ट उद्देश्यों की पूर्ति करके भीड़ में खो जाते हैं ं याहं तक कि प्रारंभिक कथा का वाचाल एवं उत्साही कथावाचक मासूम भी ग़ायब हो जाता है । लगभग एक ही प्रकार के विचार वाले पात्रों की भीड़ में से ‘नौहा’ के स्वरों में रोने-सिसकने की आर्द्रता तो बहती दिखाई देती है लेकिन स्वतंत्र पात्रों के रूप में भीड़ से ऊपर उठने वाले पात्रों की संख्या स्वल्प ही है ।’ यहां कहना होगा कि आंचलिक वर्णनों में पात्रों की ऐसी भीड़ का होना स्वाभाविक हो जाता है । फिर, उपन्यासों मेें कुछ पात्रों का तृृण-पत्रवत् अस्तित्व भी रहा करता है, जो उपन्यास में कथा का मात्र उपकरण बने होते हैं । मोहर्रम वर्णन की अतिशयता के उत्तर में यही कहा जा सकता है कि राही को धार्मिकता के बाह्याडंबरों और ढकोसलों को दिखाना था जिससे उन्हें शिया मुसलमानों के इस सर्वोच्च पर्व को माध्यम बनाया । इससे उनका विद्रोही और बेबाक तेवर मुखरित हुआ कि उन्होंने अपने ही समाज और धर्म और उसके लोगों के अतिचारों का बड़ी निर्ममता से पोस्टमार्टम किया ।

राही की धार्मिक सजगता एवं तेवर मे ढली सर्वधर्म ग्राह्यता उनके घनिष्ठ मित्र डॉ धर्मवीर भारती द्वारा दिए गए इस प्रसंग में देखी जा सकती है । जब राही से ‘दुनिया का सबसे ज्यादा आदरणीय महाकाव्य’ महाभारत के बारेे में यह पूछा गया कि उन्हें मुसलमान होने के बावजूद महाभारत लिखना कैसा लग रहा है । उनका उत्तर था कि जैसे मुसलमान होने की वजह से हिन्दुस्तानी विरासत पर मेरा कोई हक़ ही न रह गया हो । जैसे कि मैं भी कोई मंदिर गिराकर उसकी जगह पर बनाई हुई कोई मस्जिद हूं । इन बातों से मुझे दुख पहुंचा है ।

राही जी की सजग एवं प्रगतिशील धार्मिक चेतना के फलस्वरूप ‘आधा गॉंव’ में पाकिस्तान निर्माण के प्रस्ताव को गंगौली के कुछ शिया मुसलमान पात्रों द्वारा विरोध किया जाता है । राही के अनुसार शियाओं के पूर्वज इमाम हुसैन ने स्वयं हिन्दुस्तान जाने की इच्छा प्रकट की थी । हुसैन के सच्चे अनुयायी होने के नाते धार्मिक दृष्टि से भी शिया मुसलमान पात्र हिन्दुस्तान विरोधी कोई प्रस्ताव स्वीकृत नहीं कर सकते । हिन्दुस्तान का पक्ष लेती हुई सितारा शियाओं की ओर से कहती है ‘‘और यह मुआ जिन्ना कैसा षिया है कि हिन्दुस्तान के खिलाफ है ।’’ ‘आधा गॉंव’ के ऐसे कथ्य को दृष्टिगत रखते हुए डॉ जगदीश नारायण श्रीवास्तव ने राही जी की इस बहुचर्चित कृति को यशपाल के ‘झूठा सच’ के बाद हिन्दुस्तान के सांप्रदायिक विभाजन की कांटेदार खेती को बेबाक ढंग से रखता हुआ माना है ।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि राही जी धर्म के बाह्य आडंबरों तथा उनसे उत्पन्न सामाजिक कुरीतियों तथा ऊॅच-नीच के प्रबल विरोधी थे । राही ने विभिन्न सामाजिक वर्गों की सांस्कृतिक रुचि तथा धार्मिक चेतनागत दृष्टिकोण के अंतर को पहचान कर साहित्य में अपने पात्रों का परिकल्पन किया है ।
राही काल और इतिहास संबंधी लौकिक धारणा के अनुसार ही ऐतिहासिक समय की महत्ता को शाश्वत काल की सत्ता के समक्ष खड़ा कर देते हैं । ‘आधा गॉंव’ के प्रथम अध्याय में ही राही ग़ाज़ीपुर शहर के परिचय में एक रूपक देते हुए कहते हैं ‘‘गंगा इस नगर के सिर पर और गालों पर हाथ फेरती रहती है, जैसे कोई मां अपने बीमार बच्चे को प्यार कर रही हो, परंतु जब इस प्यार की कोई प्रतिक्रिया नहीं होती, तो गंगा बिलख-बिलखकर रोने लगती है और यह नगर उसके आंसुओं में डूब जाता है । लोग कहते हैं कि बाढ़ आ गई । मुसलमान अज़ान देने लगते हैं । हिन्दू गंगा पर चढ़ावे चढ़ाने लगते हैं कि रूठी हुई गंगा मैया मान जाय । अपने प्यार की इस हतक पर गंगा झल्ला जाती है और क़िले की दीवार से अपना सिर टकराने लगती है और उसके उजले-सफ़ेद बाल उलझकर दूर-दूर तक फैल जाते हैं । हम उन्हें झाग कहते हैं । गंगा जब यह देखती है कि उसके दुख को कोई नही समझता, तो वह अपने आंसू पोंछ डालती है; तब हम यह कहते हैं कि पानी उतर गया । मुसलमान कहते हैं कि अज़ान का वार कभी ख़ाली नहीं जाता, हिंदू कहते हैं कि गंगा ने उनकी भेंट स्वीकार कर ली । और कोई यह नहीं कहता कि मां के आंसुओं ने ज़मीन को और भी उपजाऊ बना दिया है......   यह षहर इतिहास से बेखबर है । इसे इतनी फुरसत नहीं मिलती कि कभी बरगद की ठंडी छांव में बैठकर अपने इतिहास के विषय में सोचे।’’ इसमें लेखक काल के शाश्वत पक्ष को रामायण से आगे तक फैलाकर दिखाता है, जिसकी पृष्ठभूमि में इतिहास केवल कुछ संदर्भ बदल देता है । इतिहास की शाश्वत प्रतीक गंगा से राही अपने लगाव को अपनी लगभग प्रत्येक कृति में उद्घोषित करते हैं । वे कहते हैं

‘‘मेरा फ़न तो नीला पड़ गया यारो
मैं नीला पड़ गया यारो
मुझे ले जाके गंगा की गोदी में सुला देना ।’’

‘‘लेकिन मेरी नस-नस में गंगा का पानी दौड़ रहा है ।’’

​राही इतिहास पर दृष्टि डालते हुए अपने गॉंव गंगौली के नाम-विश्लेषण को इन षब्दों में व्यक्त करते हैं ‘‘मसऊद ग़ाज़ी के एक लड़के, नूरुद्दीन शहीद ने (यह शहीद कैसे और क्यों हुए, यह मुझे नहीं मालूम और शायद किसी को नहीं मालूम) दो नदियॉं पार करके, ग़ाज़ीपुर से कोई बारह-चौदह मील दूर , गंगौली को फ़तह किया । कहते हैं कि इस गॉंव के राजा का नाम गंग था और उसी के नाम पर इस गॉंव का नाम गंगौली पड़ा । लेकिन इस सैयद-ख़ानदान के पॉंव जमने के बाद भी इस गॉंव का नाम नूरपुर या नूरुद्दीन नगर नहीं हुआ’’  

​इससे स्पष्ट है कि राही उन ऐतिहासिक घटनाओं को महत्व नहीं देना चाहते, जिन्होंने बाह्य स्थितियों में कुछ परिवर्तन किए हैं, परंतु वे उस जीवन को उभारना चाहते हैं, जो इन ऊपरी परिस्थितियों के बदल जाने पर भी परंपरा, सभ्यता, गीता और कु़रान की तरह निस्सीम और अनंत हो और जो गंगा और मोहर्रम की तरह निरंतर प्रवहमान हो । राही जी बड़े परिश्रम से समय के इस प्राकृतिक प्रवाह को प्रस्तुत करना चाहते हैं, जिसे इतिहास की कोई भी घटना अपने सॉंचे में नहीं बांध सकती । जीवन मोहर्रम के आंसुओं की तरह अबाध गति से बहता चला जाता है ‘‘रोना त हम शीयन की तक़दीर है ।’’ समय के प्रति यह धारणा मात्र शियाओं की ही विशेषता नहीं है, बल्कि यह भारत की लोकमान्य विशेषता है, जो क्रूरतम ऐतिहासिक स्थिति को भाग्य का खेल मानकर संतोष कर लेती है ।

​राही ने अपने उपन्यासों में दिखाया है कि शिया मुसलमान तो प्रारंभ से ही (13 सदियों से) अपने भाग्य की विडंबना पर रोते चले आ रहे हैं । निस्सहाय एवं निरीह और भाग्य पर समर्पित शिया आज भी कर्बला के हत्याकाण्ड और इमाम हुसैन और हसन के निधन पर साल में ढाई माह तक शोक मनाते हैं, रोते हैं और निराशा में छाती कूटते-कूटते बेहोश होने में जीवन की सार्थकता खोजते हैं । यह मोहर्रम; जो इनके जीवन का शाश्वत काल हो गया है; किसी भी अन्य घटना के द्वारा मिटाया नहीं जा सकता और न शिया मुसलमानों में वह इच्छाशक्ति रह गई है, जिससे वे इसे बदल सकें । वे अपरिवर्तनशील प्रारब्ध के शाश्वत प्रवाह में बह रहे हैं, जिसकी दिशा का उन्हें ज्ञान नहीं । यह प्रारब्ध उनकी संपूर्ण व्यवस्था है, जिसके वे एक अनिवार्य अवयव हैं । इस प्रकार राही जी ने बड़ी कुषलता से षिया पात्रों की परिकल्पना से उनकी ऐतिहासिक चेतना के माध्यम से उनके दृष्टिकोण और जीवन-दर्शन को रूपायित किया है ।

​राही अपने उपन्यासों में इतिहास से संदर्भ लेकर अपने पात्रों द्वारा यत्र-तत्र टिप्पणियां करते हैं, किन्तु किसी ऐतिहासिक सूचना को प्रत्यक्ष एवं आरोपित करते हुए राही अपने उपन्यासों में नही ंदिखाई देते । उनके उपन्यासों में ऐतिहासिक घटनाएं उसमें छोटी-मोटी उठने-बैठने वाली लहरों के समान हैं, जो मात्र जीवन के स्पंदन को प्रकट करती हैं । ‘टोपी शुक्ला’ का एक पात्र कहता है ‘‘पता है, अकबर के खिलाफ महाराणा प्रताप के साथ कितने मुसलमान थे?’’ इसी उपन्यास में टोपी कहता है ‘‘मैं हिंदू हूं....क्या यह शेरवानी मुसलमान है? यह तो कनिष्क के साथ आई थी । यह पाज़ामा भी कनिष्क ही का है ।’’ टोपी जायसी को भी हिन्दू मानता है क्योंकि उन्होंने हिन्दुओं की ही कहानियां लिखीं । ग़ालिब और मीर को भी वह हिन्दू मानता है, क्योंकि ग़ालिब बुतों की पूजा करते थे और मीर तिलक लगाते थे ।

​ऐतिहासिकता से संदर्भ लेते हुए भयावह सच्चाई को सम्मुख रखने के लिए राही वर्तमान से उसको संबद्ध कर देते हैं ‘‘यह टोपी गाथाकाल ही है । यह टुच्चा युग है । छोटे लोग जन्म ले रहे हैं, सौंदर्य पर रंग-रंग की कीचड़ है । न तो वीरों की गाथा का समय है और न श्रृंगार रस बांटने का । कोई युग कलयुग नहीं होता । परंतु टोपी युग अवश्य प्रारंभ हो गया है ।’’ छुआ-छूत जैसी सामाजिक समस्या पर राही पौराणिक संदर्भ ग्रहण करते हुए टोपी से कहलवाते हैं ‘‘श्री राम तो भीलनी के जूठे बेर खा लें और आप मुझे अपने पास बैठने भी न दें कि मुसलमान हूं ।’’

​स्वार्थी व्यक्तियों द्वारा पौराणिक संदर्भों की की जाने वाली अनुचित और छद्म व्याख्या की समस्या राही ‘आधा गॉंव’ में उठाते हैं । उपन्यास में कोई स्वामी जी इसी प्रकार के पौराणिक संदर्भों को देकर हिन्दुओं की भावनाएं भड़काने के काम में संलग्न हैं । स्वामी जी उपन्यास में कहते है। ‘‘तब भगवान श्रीकृष्ण ने कहा, हे अर्जुन ! हूं तो मैं हूं और मेरे सिवाय कोई और नहीं है । आज वह मुरली मनोहर भारत के हर हिन्दू को ललकार रहा है कि उसे तथा गंगा और यमुना के पवित्र तट से इन म्लेच्छ मुसलमानों को हटा दो ।’’ इसी प्रकार के अनुचित एवं मिथ्या ऐतिहासिक-पौराणिक संदर्भों को देकर ‘ओस की बूॅंद’ में एक मौलवी घ्ृणा फैलाने में लगे हैं । वह ‘बिरदाराने-इस्लाम’ की दुहाई देकर मुसलमानों की भावनाएं भुनाना चाहते हैं । कुछ कट्टरवादी मुसलमान पात्रों द्वारा अपने अवैध और घृणित कृत्यों को वैध ठहराने के लिए बिना समझे पौराणिक संदर्भों का आलंबन लिया जाता है । ‘आधा गॉंव’ का कट्टर प्रवृत्ति का मुसलमान पात्र समीउद्दीन खां पाण्डवों की ओर संकेत करता हुआ कहता है ‘‘लेकिन पांच भाइयों में एक बीवी से हमारा काम अब भी नहीं चल सकता, यह भी कोई कमर हुई? उनसे अच्छे तो हमीं हैं । चार भाइयों में कुल मिलाकर सात बीवियां हैं ।’’
​राही ने अपने उपन्यासों के कुछ सद् पात्रों द्वारा पौराणिक आदर्शों को ग्राह्य भी बनाया है । वे ‘आधा गॉंव’ में अपने सच्चे भारतीय मुसलमानों को ‘राम की खड़ाउॅंओं को क़दमे रसूल बनाकर चूमने वाले’ कहते हैं ।

​पौराणिक एवं ऐतिहासिक पात्रों के उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि राही जी ने भारतीय संस्कृति के धवल स्वरूप को प्रस्तुत करने के लिए इतिहास और पुराणों का आश्रय अपने पात्रों की परिकल्पना में लिया । उन्होंने प्रागैतिहासिक काल से लेकर अंग्रेज युग तक के इतिहास और पुराणों के सामाजिक-सांस्कृतिक और ऐतिहासिक घटनाक्रमों को अपने उपन्यासों की वर्ण्य-वस्तु में स्थान दिया और प्राचीन भारत की स्वर्णिम झांकी प्रस्तुत करके भारतीय संस्कृति के निखरे हुए रूप को उभारा ।
एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी
गांधी महाविद्यालय, उरई
मो 9236114604

मां बोली कौ पड़बो लिखबो

मां बोली कौ पड़बो लिखबो

डॉ राकेश नारायण द्विवेदी  

भाषाएं कैउ तरा की हैं, इनमें कैउ तो लुप्तइ हो गइं। मातृृभाषा उए कइ जात है, जीमें कोनउ व्यक्ति जनम लेकें अपने मात-पिता उर आसपास के लोगन सें स्वाभाविक रूप में सीककें ब्योहार करत है। भाषा उर बोली में अंतर होत है। हम कैउ बेर बोली उर भाषा में कछू अंतर नइं समजत। बोली एक सीमित छेत्र में बोली जात, ईकौ ब्याकरण होबौ अनिवार्य नइं होत, साहित्य भी होबौ सीमितइ होत, जबकि भाषा कौ छेत्र ब्यापक होत, ई कौ ब्याकरण होत उर कौनउं भाषा में कछु-न-कछू साहित्य रचो जात है। अकसर कौनउं बोलियइ भाषा बनत है। कभउं-कभउं तो ऐसौ सोउ भव कै कौनउं भाषा बोली बन गई, जैसें ब्रजभाषा एक बोली बन गई, जबकि एक समय ई बोली में रचे गए साहित्य उर छेत्र की ब्यापकता के कारण इए भाषा कओ जान लगो। बोली सें भाषा बनबे कौ उदाहरण खड़ी बोली है, जा बोली मेरठ के आसपास बोली जात रइ, लेकिन ईके परिनिष्ठित रूप खों आज हिंदी कओ जात है।  भाषा के आधार पर हमाई मातृभाषा जेई हिंदी आए, लेकिन ई हिंदी के कैउ बोली रूप हैं। पश्चिमी हिंदी, पूर्वी हिंदी, पहाड़ी हिंदी, बिहारी हिंदी उर राजस्थानी हिंदी। पश्चिमी हिंदी की पाच बोलियां हैं- खड़ी बोली, ब्रज, बुंदेली, कन्नौजी उर बांगरू या हरियाणवी। अवधी, बघेली उर छत्तीसगड़ी पूर्वी हिंदी की बोलियां आएं। बिहारी हिंदी की तीन बोलियां- मैथिली, मगही उर भोजपुरी हैं। कुमाउंनी उर गड़वाली जे दो पहाड़ी हिंदी हैं तो राजस्थानी हिंदी के अंतर्गत मेवाती, मारवाड़ी उर जयपुरी या ढूंढ़ाणी आउत हैं। इन सब बोलियन कं उनके नामन के अनुरूप अलग-अलग छेत्र. हैं। हिंदी की जे बोलियां शौरसेनी अपभ्रंश, मागधी अपभ्रंश और अर्धमागधी अपभ्रंश से विकसित भइ्र। हिंदी भाषा कौ विकास बैदिक संस्कृत, लौकिक संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश उर पुरानी हिंदी के माध्यम सें होत आऔ है।  कौनउं भाषा कौ अनगड़ रूप ऊके समाज में प्रचलित होत है। भाषा खों समाजइ अरजित करत। लोगन के जीवन-संघर्ष उर ऊके घात-प्रतिघातन सें भाषा उर ऊके शब्दन के रूप बदलत हैं। भाषाशास्त्री कौनउं भाषा कौ ब्याकरण बनाउत, जैसें पाणिनी ने लौकिक संस्कृत कौ ब्याकरण बनाऔ। हिंदी के भाषा विज्ञानी भी कैउ विद्वान भए हैं जैसें भोलानाथ तिवारी, हरदेव बाहरी, उदयनारायण तिवारी आदि। कामताप्रसाद गुरू न हिंदी कौ ब्याकरण लिखो उर कैउ और विद्वानन नें जेउ काम करो। कौनउं भाषा कौ उत्थान उर प्रचार-प्रसार ऊ भाषा में रचे गए साहित्य सें होत। जा आधार पै कओ जा सकत है कै हिंदी साहित्य में आजकाल खूबइ लिखो पडो जा रओ। हिंदी भाषा अपनी सामासिक संस्कृति के लाने जानी जात, जीमें कैउ संस्कृतियन के रचाव-बसाव खों धारण करबे की छमता है। जा छमता हिंदी दिखात भी जा रई। जब कोउ बंगाली, तमिल, मराठी, अंग्रेजी या अन्य भाषा को आदमी टूटी-फूटी हिंदी में अपनी अभिब्यक्ति करत है तो हिंदी बारो उए स्वीकार कर लेत। उर्दू कौ नुक्ता छोड़ दओ जाए तो उए सोउ हिंदी वारे खूब अपनाउत। जेइ नइं अंग्रेजी भाषा के लाने हिंदी वारे घृणा सें नइं बल्कि ब्यापारिक भाषा के रूप में देखत हैं के जासें दुनिया भर में हिंदी उर हिंदवासी अपनो बजार-ब्यापार कर सकबे में सकछम होबें। हिंदी के बड़े बोलउवा-लिखउवा वर्ग खों देख कें कैउ समाचार-चैनल अंगरेजी सें हिंदी में या अंगरेजी के अलावा हिंदी में आबे पै मजबूर भए। हिंदी कौ बजार भौतइ बड़ौ है, ई में जासें भौत संभावना हैं। बास्तव में हिंदी कौ झगड़ा भारत की भाषन से नोइं है। जौ झगड़ा अंगरेजी सें जाके लाने है कै रोजगार उर सरकार के कामकाज की भाषा अंगरेजी बन गइ उर हिंदी दोयम दरजे की भाषा बना दइ गइ। जबकि संविधान के अनुच्छेद 343 (1) में लिखो कै संघ की राजभाषा हिंदी उर, लिपि देवनागरी हुए और अंकन कौ सरूप अंतरराष्ट्रीय हुए। बास्तविकता जा है कै सरकार कौ सब कामकाज अंगरेजी में चलत, चिट्ठी-पतरी सें लैकें सबरे काम। जेइ नइं अपने देस में अंगरेजी मानसिकता के लोग सोउ हैं जो अंगरेजी नइं जानबे वारन खों उपेकछा से निहारत। जा मानसिकता कौ बिरोध हम सबं डट कें करत हैं। लेकिन संगै-संगै हम सब अंगरेजी भाषा खों भी जानत जा रए। कौनउं समजदार आदमी खों कौनउं भाषा सें ईर्षा नइं होत काए सें के आखि़र ज्ञान-विज्ञान की खिड़की भाषइ के माध्यम सें खुलत। हमें जब दुनिया के ज्ञान-विज्ञान खों अपने लोगन तक पौंचाने है तौ ऊ भाषा खों तौ जाननइ परै। जा सोउ सई बात है कै हिंदी में साहित्य तौ खूब रचो जा रओ, लेकिन ज्ञान-विज्ञान अबै भी ंिहंदी में पर्याप्त मात्रा में नइं मिल पाउत या जो मिलत है तो बौ अदूरौ-अदकचरौ है। भौतिकी, रसायन, जीव-जंतु-बनस्पति, राजनीति, भूगोल, समाज, शिक्षा, बाणिज्य, कृषि, अर्थ जैसे कैउ विज्ञान, बाणिज्य उर मानविकी के विषयन पै हिंदी में अच्छी किताबन कौ अभाव है।  जा तौ भई मातृभाषा की बात। मां बोली बा है जीमें कौनउं आदमी कौ जनम भओ उर ऊनें ऊखों जनमइ सें सीको-बरतो। जा बोली और कौनउं नइं अपनी नौनी उर बांकी बुदेलइ है। ऊपर इत्ती बातें जी बोली में भइं, उनें जनवा पड़कें तुरतइ समज लेए के जा बंुंदेली बोली है। जनम लैकें बचपन सें जेइ बोली में अपन बड़े भए उर इलाबाद व आगरा विश्वविद्यालय में उच्च शिक्छा हासिल करबे उर दिल्ली की नौकरी के बारा साल छोड़ कें देखबें तौ अबै तक जेई बोली छेत्र में अपनो समय बीतत जा रओ। जा बात की हमें खुशी है। बोलबे-सुनबे के स्तर पे तो बुंदेली के सबइ लोग जा बोली जानत हैं, सो हम भी जानत रए लेकिन परवार के परवेश उर संस्कारन के कारण बचपनइ सें जा बोली कौ लिखबौ-पड़बौ हम अपने पूज्य पिताजी श्री बाबूलाल द्विवेदी के माध्यम सें जानत रए। दाऊ संस्कृत, हिंदी के संगै-संगै बुंदेलियउ में लिखत-पड़त रए। उनकी बुदेली काव्य रचना ‘भइया अपने गांव में’ 2011 में प्रकाशित भइ तौ 2014 में बुंदेली में गीत गोबिंद कौ अनुबाद ई बुक के रूप में प्रकाशित हो गव। बे अबै भी साहित्य साधना में संलीन हैं। हालांकि हमने खुद अगर अपनी उच्च शिक्छा बुंदेलखंड में हासिल करी होती तौ जा स्तर पै बुंदेली पड़बे-जानबे खों मिलती लेकिन जब हमें जेइ आंचल में बुंदेली पड़ाबे कौ अवसर मिलो तौ हम अपने ज्ञान, इच्छा उर किरिया की एकात्मकता खों सारथक करबे के लाने प्रयासरत हैं।  बुंदेली बोली जित्ती बोलबे-सुनबे में नौनी-नीकी लगत, उत्ती आसानी लिपि के स्तर पै ऊके लिखबे-पड़बे पै नइं हो पाउत। स्वाभाविक है कै जो जी भाषा में लिखबे-पड़बे के आदी रए, बौ ओई में गति बना पाउत। बुंदेली के ब्याकरण की एकरूपता न होबे सें और मुश्किल होत कै कौन शब्द खों कैसें लिखबें। जौ लेख लिखबे में ई के लाने हमने जौ सुगम रस्ता अपनाओ कै जी बोली रूप में हम बोलत-सीकत रए, ओइए अपनाओ जाबै। हम देख रए कै बुंदेली कौ रूप जालौन छेत्र में अलग है, तौ राठ में अलग। जेई बुंदेली कौ रूप झांसी, टीकमगड़, छतरपुर ललितपुर में बदल जात तौ आंगें सागर, दमोह तरफ और तरा सें हो जात। कई भी जात है-  कोस-कोस पै बदले पानी पांच कोस पै बानी।  बुंदेली लिखबे के लाने हमेें कैउ बेर बरतनी सुदार कनने परो तोउ जा नइं कइ जा सकत कै जौ बिलकुलइ बुंदेली रूप है। बुंदेली लिखबे के लाने हिंदी ओइ तरा संें सहायक है जैसें हिंदी लिखबे के लाने संस्कृत मदद करत है।  बुंदेली में कबिताएं खूब रची गइं उर रचियउ जा रइं। भौत अच्छे-अच्छे बुंदेली कबि अपने इतै भए हैं, जिनमें कैउ विद्वान अबै तक लिखत जा रए; इनमें जगनिक, ईसुरी, गंगाधर व्यास, ख्यालीराम, संतोष बुंदेला, दुर्गेश दीक्षित, रतिभान तिवारी ‘कंज’, अवध किशोर श्रीवास्तव ‘अवधेश’, शिवानंद मिश्र ‘बुंदेला’ आदि हैं। इनकी रचनान में बुंदेली मानस की राष्ट्रीय सोच उर संवेदना चित्रित भई है। अवधेशजी बुंदेली में रचना करने वाले साहित्यकार खों धनराशि देकर सम्मानित करत हैं। ‘भइया अपने गांव में’ खों भी जौ पुरस्कार मिल चुको है। कौनउं भाषा-बोली कौ प्रारंभिक ब्यक्त रूप प्रायः कबितइ होत है उर जौ सोउ देखो जात के कौनउं लिखबे बारो सुरू में कबितइ में लिखत। बास्तव में कौनउं भाषा कौ माधुर्य तौ ऊके बोलबे-सुनबे में मिलत है उर जा तरा सें बोलबे कौ माधुर्य लिखबे में नइं उतर सकत है। काए सें कै श्रवणंेद्रिय सें पैलें बात हिए में उतरत जेइ सें संगीत कौ प्रभाव जनमानस पै बड़ौ जल्दी पड़त है। बुंदेली के ईसुरी तौ प्रसिद्ध गायक हते, जिनकी फागें बुंदेलखंड कौ आम आदमी गा-गाकें आज गांव-गलियन उर घरन-घरन अपनों दुख-दर्द दूर करत उर अपनी उमंगन कौ इजहार करत हैं।  संस्कृत विद्वानन ने कई है ‘‘गद्यं कवीनाम् निकषं वदंति’’ ई कौ बिस्तार करकें आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कई कै ‘‘गद्य यदि कवियों की कसौटी है तो निबंध गद्य की कसौटी’’ याने गद्य लिखबौ चुनौतीपूर्ण है। हमनें कभउं सोचियइ न हती कै अपनी मां बोली में लिखबे कौ हमें अवसर मिलै, लेकिन बुंदेली की सब तरा की बिधान खौं आंगें बड़ाबे के लाने अपने छेत्र में अच्छी-अच्छी सरकारी उर गैर सरकारी संस्थन के काम चल रए, बुंदेली दरसन, बुंदेली बसंत उर अथाई की बातें जैसी बुंदेली की निकल रईं नियमित पत्रिकाएं ई भाषा उर साहित्य के उत्थान में अपनी कोर कसर नइं छोड़ रइं। इनके संपादक अपनी निष्काम कर्मठता उर समर्पण भाव रखकें बुंदेली लिखबे-पड़बे की छमता रखबे वारन सें या बुंदेलखंड प्रेमियन सें कछू-न-कछू लिखवाइ लेत हैं। लिखबे वारे वैसें चाए आलस करते रैएं, पै जब इनके आग्रह-निर्देश प्राप्त होत तो लिखबे बिना रओ नइं जात उर फिर अपनी बोल कौ करजा सोउ उतारबो चाही। सो हमाओ तौ जेउ निवेदन रैए कै हमाए सब बुंदेली भइया-बैनें जितै जो काम कर रए, ऊके संगै-संगै अपनी भावना उर अपने काम के अनुभव भी अपनी बोली-बानी में ब्यक्त करबें, जीसें बुंदेली भाषा उर साहित्य कौ भंडार तौ बड़ैइ, कामकाज के छेत्र उर उनकी समस्या-उपयोगिता दूसरे लोगन खों प्राप्त होत रैए।  बुंदेली भाषा में जादा संें जादा लिखबे-पड़बे से भाषा केवल सुरक्छितइ नइं रैए, बलकि ईकी ख्याति भी जा सें बड़ैए। काए सें कै जैसी गुरूदेव टैगोर ने कइ कै मां की बोली उर मां कौ दूद समान होत है, सो जैसो करजा आदमी पै मात-पिता कौ, मातृभूम कौ, गुरु कौ उर परवेश कौ होत वैसउ करजा मां के दूद कौ सोउ होत। भइया बैन हरन खों ई करजा खों भी अवश्य उतारो चइए। जा के अलावा, पड़े लिखे लोग केवल अपनइ उदर भरण में लगे रैएं तो उदर भरबें खों मोहताज रैबे वारे भइया लोगन की सुद को लैएं। उनकी का समस्याएं हैं, उने कैसें निबटाओ जाए चइए, इनके लाने अपन कौनउं अंसन में सहयोगी बनैं, जौ दायित्व अपनौ नइयां का?         -शब्दार्णव, नया पटेल नगर, कोंच रोड, उरई(जालौन) मोबाइल 9236114604 ईमेल rakeshndwivedi@gmail.com

स्थान नामकरण

स्थान नामकरण
हमारे देश में स्थान-नामों की रूप-रचना स्वाभाविक रूप से अनेक विविधताओं को धारण करती है। उत्तर प्रदेश का ललितपुर जनपद भी इसका अपवाद नहीं है। विभिन्न समाजों और उनके रहन-सहन की विविधता को हम शब्द या पद की रचना-प्रक्रिया देखकर समझ सकते हैं। स्थान-नाम व्यक्ति वाचक संज्ञाएं हैं, जो उस स्थान का सामान्यतः बोध कराती हैं, किंतु स्थान-नामों से उस स्थान का बोध भर नहीं होता, अपितु तत्संबंधी इतिहास और संस्कृति का दिग्दर्शन भी उसके माध्यम से हो जाता है। इसी कारण स्थान-नाम व्यक्ति नामों से भिन्न हैं, क्योंकि व्यक्ति-नामों में मात्र उस व्यक्ति के अस्तित्व का बोध होता है, जिस व्यक्ति का वह अभिधान है। यह बोध भी नाम के शाब्दिक अर्थ में नहीं, बल्कि उसकी अनन्य परिचिति अर्थात पहचान के रूप में ही होता है। गोस्वामी तुलसीदास ने ईश-नाम-महिमा में रूप को नाम के अधीन कहा है। हथेली पर भी रखा रूप बिना नाम के नहीं पहचाना जा सकता है -
देखिअहिं रूप नाम आधीना। रूप ज्ञान नहिं नाम बिहीना।
रूप बिसेस नाम बिन जाने। करतलगत न परहिं पहचाने।।1
व्यक्ति-नामों के अर्थगत विरोधाभास को हास्यकवि काका ‘हाथरसी’ ने कई उदाहरणों से पद्यबद्ध किया है -
नाम रूप के भेद पर कभी किया है गौर
नाम मिला कुछ और तो शक्ल अक्ल कुछ और।
शक्ल अक्ल कुछ और नैनसुख देखे काने
बाबू सुंदरलाल बने हैं ऐंचकताने।
कहं काकाकवि दयाराम जी मारें मच्छर
विद्याधर को भैंस बराबर काला अक्षर।
मंुशी चंदालाल का तारकोल सा रूप
श्यामलाल का रंग है जैसे खिलती धूप।
जैसे खिलती धूप सजे बुशशर्ट पेंट में
ज्ञानचन्द्र छः बार फेल हो गये टेंथ में।
सेठ अशर्फीलाल के घर में टूटी खाट
सेठ छदामीलाल के मील चल रहे आठ।
मील चल रहे आठ मिटे न करम के लेखे
धनीराम  जी प्रायः हमने निर्धन देखे।
कहं काकाकवि दूल्हेराम मर गए कुंवारे
बिन प्रीतम तड़पें हमारे प्रीतम सिंह बिचारे।2
किंतु व्यक्ति नामों से स्थान-नामों की प्रकृति भिन्न है। व्यक्ति-नाम व्यक्ति के निधन के साथ समाप्त हो जाते हैं, स्थान-नाम ऐसे समाप्त नहीं होते। स्थान-नामों के नामकरण में पूरे निवसित समूह की भागीदारी रहती है और उसमंे संबंधित क्षेत्र की धार्मिक, नैतिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, ऐतिहासिक, भौगोलिक, दार्शनिक, जैविक परिस्थितियों और प्रवृŸिायों का द्योतन होता है। इसीलिये ‘प्रत्येक नाम अपनी सामाजिक संस्कृति का मूक आख्यान होता है।’3 विश्व इतिहास बताता है कि कई सभ्यताएं काल के महोदर में समाहित हो गयीं, परन्तु उन प्राचीन समुदायों की भाषाएं आज भी स्थान-नामों में किसी न किसी रूप में सुरक्षित हैं।4
स्थान-नामों की रूप रचना में पदों, अर्थों और ध्वनियों का योगदान होता है। स्थान-नाम देश-काल के अनुसार परिवर्तित होते हुए भाषा के अत्यंत संवेदनशील शब्द हैं। ‘नाम’ और ‘शब्द’ भिन्न-भिन्न संज्ञाएं हैं। ‘नाम’ संकेतार्थक होते हैं तो ‘शब्द’ अपने गुणों को धारण किए रहते हैं। ‘नाम’ के अर्थ को हम ‘नामवैज्ञानिक’ तथा ‘शब्द’ के अर्थ को ‘शाब्दिक’ कह सकते हैं। ‘नाम’ का स्थानांतरण किसी अन्य भाषा में यथावत् (स्वनिमों के कारण उच्चारणगत भिन्नता लिए हुए) होता है तो ‘शब्द’ का स्थानांतरण किसी दूसरी भाषा में अनुवाद द्वारा किया जाता है।
स्थान-नामों को रूप-रचना के आधार पर प्रमुखतः तीन वर्गो में विभक्त किया जा सकता है - (1) एकपदीय स्थान-नाम
(2) द्विपदीय स्थान-नाम तथा
(3) बहुपदीय स्थान-नाम।
ललितपुर जनपद में एकपदीय स्थान-नाम 274 तथा द्विपदीय स्थान-नाम 404 हैं। यहां बहुपदीय स्थान-नामों की संख्या 66 ही है।
ललितपुर जिले के स्थान-नामों में प्रयुक्त शाब्दिक संरचना को सर्वप्रथम उद्घाटित करना आवश्यक है। शब्द में ध्वनि और अर्थ का संबंध सन्निहित होता है। शब्द का मूल तत्व अर्थ को स्पष्ट करता है और परिवर्तित होने के बाद भी अपनी सŸाा को स्थित रखता है। प्रयत्नलाघव तथा अन्य कारणों से शब्दों में प्रत्ययों का योग हो जाता है। किसी शब्द के मूल तत्व के साथ कई प्रत्यय जुड़ते-बदलते रहते हैं। स्थान-नामों के साथ भी यह देखा गया है -
महिष (भैंस) - मूलतत्व
ग्राम- भैंसाई (ललितपुर) - यौगिक शब्द, आई प्रत्यय युक्त
नामों की व्यापकता ने नाम अध्ययन को इतना बहुआयामी बना दिया है कि उसका एकांतिक अध्ययन संभव नहीं है (या त्रुटिपूर्ण है)। व्याकरण की दृष्टि से भाषागत शब्दों का स्थाननामिक अर्थ सुलझाने के लिए उपसर्ग, प्रत्यय तथा विभेदक शब्दों का अध्ययन आवश्यक होता है, किंतु इस अध्ययन को अधिक त्रुटि रहित करने के लिए भूगोल, इतिहास, राजनीति, नृतत्वशास्त्र इत्यादि विषयों का सहारा लेना पड़ता है।
ललितपुर जनपद के स्थान-नामों को अतिभाषिक क्षेत्र में जाकर देखते हैं तो पता लगता है कि यहां के स्थान-नाम मातृदेवियों के आधार पर अधिक रखे गए हैं।
लोकमाताओं पर आधारित स्थान नाम- ललितपुर जनपद के बहुत से स्थान आदिवासियों  द्वारा बसाए गए थे। इनके नाम लोकमाताओं के नाम पर रखे गए। प्रथम अध्याय में ललितपुर जनपद के परिचय से हमने जाना कि यह क्षेत्र कभी गोंड़ तथा सहरिया आदिवासियों के अधीन रहा है। आदिवासियों का अपने जीवन-संघर्ष में जिन बीमारियों से सामना हुआ, उन बीमारियों को मानवीकृत करके उनकी उपासना से तत्संबंधी बीमारी दूर करने की पद्धति अपनाई गई। प्रकृति के जिस उपादान को आदिवासियों ने देखा-भाला, प्रायः उसी पर देवी-देवता का भी नामकरण कर दिया। लोकदेवताओं के नाम किसी अनजानी अनदेखी बीमारी के निवारण के लिए, किसी विष-व्याधि के शमन के लिए, पारिवारिक उपद्रवों के निवारण के लिए, किसी अचानक उपजी व्याधि के निराकरण के लिए तथा किसी स्थान, काल या दिशादि के महत्व को स्वीकार करने के कारण रखे गए। इन देवी-देवताओं को स्मरण करने का तरीक़ा उनके नाम पर ही स्थान का नामकरण करने से अच्छा और क्या हो सकता था, अस्तु। सभ्यता-विकास के क्रम में प्रकृति-आदिवासी-जीवन संघर्ष-देवी देवता- स्थान नाम, कुछ इस क्रम में स्थानों का नामकरण ललितपुर जनपद में किया गया। जिले में ‘डग डग देवी पग पग देव’ की कहावत है। अतः इसमें संदेह का कोई  कारण नहीं है कि लोकदेवताओं और प्रकृति के ऊपर स्थानों के नाम इस जनपद में रखे गये। मातृदेवियों के नाम पर स्थानों का नाम रखने के पीछे यह धारणा थी कि ऐसा करने से देवी खुश हो जाएगी, रोग-शोक कम होगा, फसलें बेहतर होंगी और आमतौर पर कल्याण की वृद्धि होगी, किंतु अब ऐसी लोकमान्यताओं के धरातलीय साक्ष्य विद्यमान नहीं रहे।
ललितपुर जनपद के पठारी क्षेत्र और उसकी तलहटी में सहरियों, भीलों, गोंड़ों, राजगोंड़ों जैसे आदिवासी समूह कथित रूप से पांडवों के पूर्व से निवास करते आए हैं। सहरिया आदिवासी उŸार प्रदेश में सर्वाधिक ललितपुुर जिले में हैं। इस जनजाति के अनेक देवी-देवता हैं। ठाकुरदेव बच्चों और बूढ़ों की रक्षा करने वाले ग्राम देवता है। इनकी स्थापना गांव से बाहर किसी पेड़ के नीचे की जाती है। जिले के ‘दा’ प्रत्ययांत स्थान-नाम देववाची हैं। भैरांेदेव स्त्री को संतति देने वाले देवता हैं। महरौनी तहसील का ‘भैरा’ गांव इसी लोकदेवता का स्मरण कराता प्रतीत होता है। सहरियों के नाहरदेव पालतू पशुओं की रक्षा करते हैं। मूलतः यह बाघ या शेर की पूजा है5 यथा नाराहट (महरौनी)। नाराहट नाम श्री भगवत नारायण शर्मा पूर्व प्राचार्य नेहरू महाविद्यालय ललितपुर के अनुसार जंगल से शेर एवं अन्य वन्य पशुओं  की आहट सुनने के कारण रखा गया किंतु यह स्थान-नाम की भाषा वैज्ञानिक व्याख्या ही है।
कैलामाता कार्यसिद्धि की देवी हैं। जिले के कैलगुवां तथा कैलोनी (महरौनी) जैसे स्थान-नामों में इसी लोकमाता का पुण्य स्मरण झांकता है। अगरिया जनजाति के नाम पर जिले की महरौनी तहसील में अगौड़ी, अगौरी, अगरा इत्यादि ग्राम प्राप्त हैं। भुरतिया जनजाति के नाम पर रहा होगा गांव भरतिया (महरौनी) है। पठारी जनजाति पुजारी वर्ग की है। यह लोग मुख्य रूप से तुर्किन की पूजा करते हैं। ललितपुर तहसील के गांव पठारी, पठरा, पठागोरी महरौनी तहसील का पथराई पठारी जनजाति से संबद्ध प्रतीत हैं। पथराई जैसे नाम पथ की देवी से भी संबंधित हो सकते हैं।
पनिका जनजाति के बारे में कहावत है -
पानी से पनिका भए, बूंदन रचे शरीर। आगे-आगे पनिका भए पाछे दास कबीर।।
ललितपुर से सटा हुआ गांव पनारी इनकी याद कराता है।
जैसा कहा गया है आदिवासी अपने जीवन में भय, बीमारियों से डर और दैवी आपदाओं से बचने के लिए कई मनगढ़ंत देवी-देवताओं की उपासना करते हैं। जरा सा भय हुआ नहीं कि आदिवासी उसकी देव की तरह पूजा करने लगता है। इन लोगों कां जब चेचक की व्याधि का पता नहीं था तो इन्हांेने इसे शरीर में उठी गर्मी के बुलबुले माना और देह में शीतलता के संचार के लिए शीतला माता जैसी देवी की कल्पना और प्रतिष्ठा कर दी। बीमारियों का यह देहीकरण 7वीं-8वीं शताब्दी में शुरू हुआ।6
शीतला को रोढ़ि भी कहा गया है। जिले का रोड़ा (ललितपुर) गांव रोढ़ि माता का पुण्य स्मरण है। रोड़ी माता (घूरे की माता) से भी यह संबंधित हो सकता है। मान्यता है कि इसकी पूजा से कृषिवृद्धि एवं खुशहाली आती है। भाटी राजपूतों की देवी रुंडी माता हैं। रोंड़ा रुंडी के अधिक निकट हैं। इस गांव में ठाकुर परिवारों का निवास भी अच्छी संख्या में है।
गांव के बाहर किसी स्थान को यक्ष-यक्षिणी की पूजा का प्रतीक बनाया गया। जिले का जाखलौन (ललितपुर) तथा जखौरा (तालबेहट) यक्ष तथा यक्षिणी पूजा पर आधारित स्थान-नाम हैं। जाखमाता यक्षिणी से संबंधित है। यक्ष-यक्षिणियों की पूजा-परंपरा के विषय में डॉ वासुदेवशरण अग्रवाल का कहना है कि भारतीय कला और धर्म मंे संभवतः यक्षों के समान प्राचीन लोकव्यापी और लोकप्रिय कोई दूसरी परंपरा नहीं है। यक्ष आज भी समाज में बीरों या यकसों के नाम से पूजित हो रहे हैं। जिले के प्रत्येक गांव में भी बीर नाम से यक्ष के चौरा विद्यमान हैं। कहावत है गांव-गांव कौ ठाकुर गांव-गांव को बीर।7 कहीं-कहीं ऐसी मान्यता है कि जो औरतें बच्चा जनते समय अथवा डूबकर मर जाती हैं, वे ऐसी प्रेतात्मा (यक्षी और डाकिनी) या पिशाची बन जाती हैं और उन्हें इस नाम से पूजा जाता है।8 ‘प्राचीन भारतीय परंपरा और इतिहास’ (डॉ रांगेय राघव) के अनुसार दक्षपुत्री सखा के दो पुत्र थे- यक्ष और रक्ष। यक्षों को काला शरीर और लाल नेत्र वाला कहा गया है। इन्हंे कुबेर का रक्षक माना जाता है। वनस्पति के स्वामी यक्ष देवों से नीचे तथा भूतों से ऊंचे हैं। इन्हें महायोधा, व्यापारियों के रक्षक तथा इच्छा रूपधर माना जाता है।
साढ़ूमल (महरौनी) गांव बगड़ावतों में से प्रमुख भोज की गूजर स्त्री साड़ूमाता के नाम पर अनुकृत प्रतीत होता है। साड़ूमाता से ही देवनारायण नामक लोकदेवता का जन्म हुआ। बुंदेलखंड की रिछावर देवी के नाम पर ललितपुर तहसील के गांव रीछपुरा और रिछा बसे हैं। यह देवी मनोकामना पूर्ण करने वाली मानी गई हैं। जिले के प्रत्येक गांव में खेड़ापति हनुमानजी के मंदिर होते हैं। खेड़ा अर्थात् गांव का उन्हें स्वामी बनाया गया है। गांव मनुष्यों द्वारा समूह में बसाई गई बस्तियों की प्राचीनतम  इकाई है। इस प्रकार हनुमान को खेड़ापति की पदवी देकर सार्वभौमिक लोकदेवता बना दिया है। वे गांव की सीमा के रक्षक समझे गए हैं। हनुमान के नाम पर जिले में स्वतंत्र स्थान-नाम भी मिलते हैं यथा - हनूपुरा (तालबेहट)।
धर्म-दर्शन के ग्रंथों में सात तन्मात्राएं विहित हैं, जो प्रवृŸिायों को निर्धारित एवं नियंत्रित करती हैं। लोक में सात माता इन्हीं को कहा गया है। जिले का सतवांसा (महरौनी) गांव में सात माता की ध्वनि झांकती दिखाई पड़ती है। यह संत निवास तथा सात लोगों के आवाससूचक अर्थ से भी झंकृत है। ममतामयी मातृदेवी पार्वती को गणगौर भी कहा गया है। इनका प्रतीक स्थान-नाम जिले में गनगौरा (ललितपुर) है। वर्षा की देवी काजल माता (इंद्र की पुत्री) की पूजा काकड़ (गांव की सीमा) की पूजा करने के बाद की जाती है। जिले के ककड़ारी (तालबेहट एवं महरौनी) गांव काकड़ से अनुमित किए जा सकते हैं। काकड़ को ध्रुवदेवी भी कहते हैं। वर्षा देवी वराई माता भी कही गयी। भील समुदाय बलि और दारू धार से वराई माता की पूजा करता है। बिरारी (ललितपुर) गांव इस माता का स्मरण कराता है। इस देवी के थानक के निकट मामादेव का थानक भी होता है। मामदा (ललितपुर) मामादेव का गांव है। मामादेव और वराई माता की एक साथ तथा एक समान पूजा होती है।
भैंसासरी माता की पूजा वस्तुतः दुर्गा के महिषासुरमर्दिनी रूप की पूजा है। यह तंत्र-मंत्र की देवी भी कही गयी हैं। जिले के गांव भैंसाई (ललितपुर) तथा भैंसनवारा कलां तथा भैंसनवारा खुर्द (तालबेहट) के नाम इसी लोकमाता के नाम पर रखे गए हैं। मोतीझिरा बुखार के बिगडे़ रूप, जिसे आजकल टायफायड कहा जाता है, के देवता हैं। मोतीखेरा (तालबेहट) गांव इसी लोकदेवता का स्मरण कराता है। नागदेव (सर्प) पूजा के लिए वर्ष में एक दिन नागपंचमी विहित है। इस पूजा को याद करते हुए जिले में नगदा (तालबेहट), नगवांस (तालबेहट) तथा नगारा (महरौनी) गांव बसे हैं।
पशुओं और गांव की रक्षा के लिए बैमाता की प्रतिष्ठा है। इसी के प्रतीक स्थान-नाम विहामहावत (ललितपुर) इत्यादि हैं। ‘ब’ै गीत में विधाता की शक्ति एक कुम्हारिन के रूप में दिखायी देती है। गांवों में ‘परजापत’ कहे गए कुम्हारों के यहां इसकी पूजा होती है। खों-खों मइया (खांसी माता), बराई माता (खाज-खुजली माता)9 के सूचक स्थान नाम क्रमशः खोंखरा (ललितपुर) तथा बिरारी (ललितपुर) हैं, जिनकी सीमाएं परस्पर सटी हुई हैं।
विवाह के रतजगे का लोकगीत सतगठा है, जिसमें पितर-पूर्वज देवी-देवताओं का उल्लेख है। जिले का सतगता (ललितपुर) गांव इस लोकगीत का मधुर स्मरण है। सतगता शक्तावतों की सतियों का स्थल भी संभव हो सकता है। भील आदिवासियों में प्रचलित झूमर नृत्य जिले के झूमरनाथ (तालबेहट) स्थान से साम्य रखता है। यह करमा नृत्य का एक भेद है। सात अप्सराओं को सती आसरा कहा गया। इसके नाम पर जिले के असउपुरा (तालबेहट) तथा गैर आबाद ग्राम असौरा (महरौनी) हैं।
प्रसिद्ध गणितज्ञ एवं समाज विज्ञानी डॉ डी डी कोसंबी ने अपनी पुस्तक ‘मिथक और यथार्थ’ में भारत की सांस्कृतिक संरचना का अध्ययन किया है। इस पुस्तक में एक स्वतंत्र अध्याय मातृदेवी पूजास्थलों के अध्ययन पर है, जिसके अनुसार मातृदेवियां असंख्य हैं। इनमें से बहुतों का उल्लेख वर्गबद्ध या समूहबद्ध रूप से हुआ है, खास नाम से नहीं। उनमें प्रमुखतम हैं- मावलाया, जो अप्सराएं (जलदेवियां) हैं और जिनका उल्लेख सदैव बहुवचन में ही होता है। सातवाहन अधिकार क्षेत्र में मामालहार और मामले का उल्लेख है। मातृदेवी पूजा प्रचलन के कारण क्षेत्र का नाम मावल पड़ गया। यह नाम दो हजार वर्ष से भी पहले से ज्ञात है। गढ़ी हुई मूर्तियों जैसी उनकी कोई प्रतिमाएं नहीं हैं। उनके प्रतीक हैं सिंदूर लगे बहुतेरे अनगढ़ छोटे-छोटेे पत्थर, या तालाब के किनारों पर, या चट्टान पर, या पानी के समीप किसी पेड़ पर लगे लाल निशान।10 ललितपुर जनपद का गांव मावलैन (तालबेहट) इन्हीं मातृदेवियों का प्रतीक अभिधान है।
डॉ कोसंबी ने लिखा है ये देवियां हैं तो माताएं (मातृदेवियां) किंतु अविवाहित हैं। जिस समाज में इनका उद्भव था, उसकी दृष्टि में किसी पिता का होना आवश्यक नहीं था। अतः यह स्पष्ट है कि उस समय का समाज मातृसत्तात्मक था। आगे चलकर इनका विवाह किसी पुरुष देवता से होने लगा। विशेष बात यह है कि इन मातृदेवियों की पूजा आज भी महिलाओं द्वारा ही की जाती है, भले ही पुरोहितगण पुरुष हों। गांवों में रक्तबलियां देने का रिवाज रहा किंतु जहां-कहीं ऐसी पूजा ब्राह्मणीकृत हो गयी अर्थात् तत्संबद्ध देवी का एकात्म्य किसी पौराणिक देवी से कर दिया गया, वहां बलि पशु को देवी के सामने नहीं काटा जाता, देवी को उसका दर्शन भर करा देते हैं और तब उसे कुछ दूर ले जाकर काटते हैं। यद्यपि अब इस पद्धति का भी अधिकांश जगहों पर ब्राह्मणीकरण हो गया है।11
इल-इला पौराणिक उपाख्यान से पता चलता है कि नवरात्र के दौरान महाराष्ट्र के आदियुगीन वननिकुंजों में मूलतः पुरुषों का प्रवेश बिल्कुल निषिद्ध था, क्योंकि जो पुरुष प्रवेश करता उसे स्त्री में बदल दिया जाता। अब स्थिति उलट गई है। पुरोहिताई के प्रवेश से अब नवरात्रों में महिलाओं का प्रवेश निषिद्ध हो गया है।12 जनपद के चोंरसिल (ललितपुर) तथा भोंरसिल (ललितपुर) स्थान-नाम इल-इला नामक उपाख्यान का स्मरण हैं।
मातृदेवियों की पूजा प्रारंभ में पूजा के पाषाण के उपर कोई छाया या छत न रखकर तथा खुला आसमान रखकर की जाती थी। मान्यता थी कि उसके उपर छत डाल देने से पथभ्रष्ट पुजारी पर भारी विपत्ति आ पड़ती है, लेकिन गांववाले जब पर्याप्त धनी हो जाते तब प्रायः देवी को मनाकर इसके लिए राजी कर लेते। अतः डॉ कोसंबी के अनुसार यह पूजा पद्धतियां उस ज़माने की हैं जब घर बनाने का चलन नहीं था और जब गांव चलते-फिरते हुआ करते थे।13 इससे एक प्रबल संभावना बनती है कि इन पूजा प्रतीकों के नाम पर ही स्थानों के नाम रखे गए।
बस्तियां बसने के समय गांव के लोग भूस्वामित्व नहीं रखते थे। गांव बनने के समय भरपूर लौह उपकरण ईजाद नहीं हुए थे। ज़मीन हल से जोती नहीं जाती थी। अतः कितों (नियत प्लाट) में ज़मीन नहीं बंटी थी। वैसे भी जंगली लोगों के लिए ज़मीन अमलदार(अस्थाई अधिकार) होती है, संपत्ति नहीं। गांवों में स्थानीय देवताओं, आत्माओं तथा भूत-प्रेतों को तुष्ट करने की प्रथा थी। हर आदमी को सात या नौ दिन के लिए गांव की आवासीय सीमा से बाहर जाकर रहना पड़ता था और इस अरसे में बस्ती बिल्कुल वीरान हो जाती थी। इस प्रकार तब गांव चलती-फिरती बस्तियां हुआ करती थीं।
यमाई देवी यदि प्रसन्न नहीं है तो दुःस्वप्न देकर सोना हराम कर देती है। अतः गांव वाले उसे मुर्गा या आम तौर पर नारियल चढ़ाते हैं। इसके बावजूद गांवों मे इस देवी का कोई मंदिर नहीं मिलता। ललितपुर जनपद का जमौरा (महरौनी) तथा जमौरामाफी (तालबेहट) इस मातृदेवी का स्मरण है।
आदिवासी लोकमाताओं की एक कहानी है कि बाघा भील की कन्या बुधली अपने समय की सबसे सुंदर और साहसी कन्या थी। उसकी सुंदरता और वीरता का बखान पूरे अरावली पठार पर होता था। उसका मुख्य हथियार ‘दाव’ या ‘डाव’ था।14 जिले के दावनी (ललितपुर) तथा दांवर (ललितपुर) गांव इस हथियार से अनुकृत प्रतीत होते हैं। महिषासुरमर्दिनी का मुख्य हथियार भी यही खड्ग (दाव) है। बुंदेलखंड का वर्तमान हंसिया या दांती दाव ही है। पाणिनिकालीन भारतवर्ष के अनुसार उदीच्य देश में दाव को दात्र तथा प्राच्य देश में दाति कहा जाता था।15
लोकमाताओं से संबंधित एक कथा के अनुसार भीलनायक संभा एक वीर योद्धा था। किसी युद्ध में मर जाने पर वह आकरा भैरव बन गया। उसकी स्थापना माता के स्थान सेे नीचे तल में की गई। संभा अपने जीवन काल में खोह माता का दर्शन करता। रविवार को बकरे की बलि करता। दारू की धार रोज लगाता। दारुतला (महरौनी) गांव इसी का प्रतीक स्मरण कराता है। देवदारू, पीतदारू नाम के वृक्ष भी होते हैैं, किंतु ललितपुर के पठारी भूभाग तथा शुष्क जलवायु में यह वृक्ष नहीं पाए जाते हैं। संभा को जब भाव आता तो वह उत्पात मचाता हुआ माता के देवरे की तरफ भागता। महरौनी तहसील के ही देवरा तथा देवरी नामक स्थानों पर वह माथा टेकता। वह बड़ी-बड़ी सांकलें लेकर अपने बदन पर मारता, जिससे उसे सांकलिया भैरव कहा गया। स्वयं माता ने बाद में उसे सांकरिया अर्थात् शांत भैरव बनाया, तब से उसने अपना स्थान क़ायम किया। शांत भैरव के नाम से ललितपुर तहसील के सांकरवार कलां एवं सांकरवार खुर्द गांव अनुकृत प्रतीत होते हैं। भैंसाई (महिषासुरमर्दिनी) माता का स्थान स्वयं संभा ने बनवाया। माता का देवरा उसके पूर्वजों का बनाया हुआ था। पहले यह मूर्ति पठार की शिला पर रखी थी। संभा नायक ने उसे पक्का चबूतरा बनवाकर स्थापित करवाया।16 ललितपुर तहसील का चौंतराघाट गांव इसी माता के चबूतरे की याद में बसाया गया। माता के खप्परों (छप्पर) को जहां झुलाया जाता, वे स्थान वर्तमान में महरौनी तहसील के छपरट, छपरौनी, छापछौल कहे गये।
महरौनी तहसील के अमौदा, अमौरा गांव माता अंबा की याद में बसाए गए स्थान हैं। इन स्थान-नामों में मुख्य शब्द अंब है जो आम की अनुकृति प्रतीत होने लगा। महरौनी तहसील के स्थान बारई, बारयो, बारचौन, बारौन इत्यादि वराह पूजा के कारण बसे। विष्णु के वर्तमान पूजित रूपों से पूर्व जिले में वराह की पूजा की जाती रही। जिले के अनेक स्थानों से वराह के कई रूपों की मूर्तियां प्राप्त हुई हैं।
तालबेहट तहसील का भंवरकली स्थान भ्रामरी (भंवर) माता के नाम पर बसा है। भ्रामरी माता पुराण देवी के रूप में लोकमान्य हैं। दुर्गासप्तशती के 11वें अध्याय में भ्रामरी देवी को असुरमर्दिनी और लोकहितकारिणी माता के अवतार रूप में उल्लिखित किया गया है। जनजातियों की गेय गाथाओं में भी भ्रामरी या भॅंवर माता का उल्लेख मिलता है। जिले के भोंरसिल (ललितपुर), भोंरट (महरौनी) इत्यादि स्थान-नाम भी भंवरमाता की आस्था को जीवित रखे हुए हैं।
गोरा (ललितपुर) गांव लोकजीवन में गौरी माता को लाड़-दुलारवश पूजने की याद में बसा स्थान है। आदिवासी समुदाय की यह आस्था देवी है। जिस प्रकार पुराण देवी महिषासुरमर्दिनी लोक में भैंसासरी या भैंसाई माता है, उसी प्रकार हमारी जगमाता पुराणों में पार्वती, गौरी या गिरिजा हैं और लोकमाता के रूप में वह गौरी।
भैंसाई माता के जगह-जगह स्थान हुआ करते थे। घाटा नामक स्थान पर इस माता का निवास होने के कारण जिले का घटवार (ललितपुर) गांव बसा है। सड़कोरा (महरौनी) स्थान साड़ा माता के आधार पर बसा है। साड़ा माता का मंदिर हाड़ा जागीरदारों द्वारा बनवाया गया। हाड़ा राजपूतों को महिषासुरमर्दिनी का इष्ट था। इस प्रकार साड़ा माता भी भैंसाई माता का अन्य स्वरूप है। यों भी लोकमाताएं अतिनिकट का संबंध रखती हैं। इनमें कोई छोटी या बड़ी नहीं हैं। अपने मूल रूप में यह लोककल्याणकारी समझी गईं। पीपरी माता के नाम पर ललितपुर तहसील के पिपरई, पिपरौनियां, पिपरिया; तालबेहट तहसील के पिपरा, पिपरई तथा महरौनी तहसील के पिपरट, पिपरिया इत्यादि गॉंव बसे हैं। पीपल का वृक्ष पवित्र माना गया है। वैज्ञानिक दृष्टि से भी यह महत्वपूर्ण वृक्ष है क्योंकि इससे मनुष्यों हेतु आवश्यक ऑक्सीजन गैस सर्वाधिक निःसृत होती है। लोकमाता पीपरी सुहाग-पूत की रखवाली करती हैं। रोग-शोक सभी दूर करती हैं। पीपरी माता व नौ वीरांगनाओं ने अपने प्राण देकर शरणागतों तथा अपने राजपरिवार की प्राणरक्षा में प्राण न्यौछावर कर दिये थे।17
तालबेहट तहसील का हिंगौरा गांव हिंगलाज माता के स्मरण में बसा है। हिंगलाज माता का मूल स्थान अफगानिस्तान के कोटड़ी में है। वहां आज भी इसकी पूजा एक अफगान परिवार करता है। यह मुसलमान परिवार चोगला-चारणों का मूल बताया जाता है, जिसने अपना धर्म-परिवर्तन कर लिया था। वहीं से किसी समय ‘जोत’ (ज्योति) लाकर भारत के अन्य भागों में हिंगलाज माता के देवरे और मंदिर स्थापित किए गए। एक विरद के अनुसार हिंगलाज माता को आदिशक्ति का प्रथम  अवतार माना गया है। अफगान में हिंगलाज माता की पूजा कन्या ही कर सकती है। पूजा करने वाले परिवार का मुखिया कोटड़ी का पीर कहलाता है।18 ऊमर (गूलर) की माता के नाम पर ऊमरी (महरौनी) तथा भादवा माता के कारण भदौरा (महरौनी), भदौना (तालबेहट) स्थान बसे हैं। भादवा की माता बीजासन माता का रूप मानी गई हैं। लोकमान्यता में ‘बीजासन’ को दुर्गा का बीसवां रूप माना गया है।
तारवली माता या खेतरमाता को ओकड़ी या होकड़ी माता के नाम से भी जाना जाता है। यह माता शंखोद्धार तीर्थ पर स्थित देवी थी। भील समुदाय इस माता को विशेष रूप से पूजता रहा है। तरावली (महरौनी) गांव इसी माता का स्मरण है। मोड़ शिखर निर्माण की एक अभियांत्रिक युक्ति है। मोड़ शिल्प के कारण जिले के स्थान मुड़ारी (ललितपुर) तथा मुड़िया (महरौनी) स्थापित हुए। मनगुवां (ललितपुर) गांव आदिवासी समूह मीणा के नाम पर बसा संभव है। महरौनी तहसील के पड़वां एवं धवारी ग्राम एक-दूसरे के निकट बसे हैं। धवारी ग्राम के श्रीराम मिश्रा के अनुसार पड़वां कृष्ण की सेना का पड़ाव था तो धवारी में ध्वजा गाड़कर युद्धस्थल बनाया गया, जिससे यह ध्वजाई अब धवारी हो गया। ध्वजाई में पुतली माता की पुतरिया है जो एक शिला पर बनी है। इस पुतरिया के सिर पर पांच नाग फन फुलाए खड़े हैं। पुतरिया के सिर पर कलगी या साफा लगा है। इसके मध्य भाग में एक अन्य मूर्ति है जो अपनी जंघा पर किसी को बिठाए हुए है। नीचे एक खड़ी हुई मूर्ति आगे को पैर बढ़ाती हुई धनुष लिए है। अब यहां एक मड़िया बना दी गई है। मान्यता है कि इस मूर्ति के दर्शन से बालकों का सूखा रोग ठीक हो जाता है। इसके पास बसे ग्राम का नाम बीर पशु चरागाह रहने के कारण पड़ा। इसके निकट के ग्राम सुनवाहा बाणासुर-पुत्री उषा का महल शोणितपुर था। बाणासुर के नाम पर बसा गांव बानपुर यहां से तीन किमी दूरी पर स्थित है।
स्थान-नामिक प्राचीनता- प्राचीन युग में चरागाह में पशु स्वच्छंद चरते थे। उनके लिए चारे की उपलब्धि के अनुसार नई-नई गोष्ठ बना दी जाती थीं। छोड़ी हुई पहली भूमि को गोष्ठीन कहा जाता था। ललितपुर जनपद का गोठरा (महरौनी) इसी कारण बसा है। वर्तमान में गोष्ठी का अर्थपरिवर्तित होकर विचार-विमर्श करने के लिए आयोजित सभा के अर्थ में किया जा रहा है। पशुओं को खाने के लिए भुस और कडंकर या कुट्टी दी जाती थी, उसे खाने वाले कडंकरीय (हिंदी में डंगर) कहे जाते थे।19 जिले के डोंगरा नामक स्थान इसी डंगर के आधार पर बसे प्रतीत हैं। डॉ कामिनी ने इन्हें जंगलवाची डांग से संबंधित बताया है।
कंथा जिसके आधार पर कैथोरा (ललितपुर) गांव स्थापित होना संभव है। मूलतः शक भाषा के इस शब्द का अर्थ नगर होता है। देश में कुछ स्थानों पर यह शब्द परपद के रूप में स्थान नामों से संयुक्त है। इकौना (महरौनी) इक्षुवण (गन्ने का वन) का भाषा परिवर्तन है। सिरसी (तालबेहट) शिरीषवन के कारण बसा। सिंधु प्रांत या सिंध नद के निचले कांठे का पुराना नाम सौवीर जनपद था। इसकी राजधानी रोरुव थी। ललितपुर जनपद का रारा (तालबेहट) गांव इससे अनुकृत प्रतीत है। सौवीर जनपद का सीधा संबंध इस जनपद से विदित नहीं है किंतु रारा से मिलते-जुलते अभिधान प्रदेश के अन्य जिलों रूरा (महोबा), रूरा (कानपुर), रूरा-अड्डू (जालौन) में भी मिलते हैं। भोंड़ी (महरौनी) गांव का संबंध भृगुकच्छ से संभव है। ब्राह्मणक जनपद की तरह शौद्रायण लोग भी सिकन्दर से लड़े थे। शौद्रायण का यूनानी रूप सोडराई होता है। ललितपुर तहसील का सूडर गांव का संबंध इसी से प्रतीत है। भौगोलिक स्थिति के अनुसार ललितपुर जनपद भारत के मध्य में है। पूर्वोत्तर के राज्यों को छोड़कर देश के चारों कोनों के रास्तों का यदि मध्य बिंदु तलाशना हो तो ललितपुर जनपद का भूभाग इसमें आएगा। भारत का वर्तमान राष्ट्रीय राजमार्गों का चतुर्भुज भी इसी के आसपास बनता है। अतः यहां संस्कृति में हुए चतुर्दिक परिवर्तनों का प्रभाव दृष्टिगोचर होना स्वाभाविक है।
सक्तू (महरौनी) का संबंध सत्तू खाद्य से है। पाणिनि ने साल्व जनपद की नस्ल के बैलों को साल्वक कहा है। उŸारी राजस्थान के बीकानेर से अलवर तक फैले हुए बड़े भूभाग का नाम साल्व था। मेड़ता और जोधपुर इलाक़ा भी इसी के अंतर्गत था। इस प्रदेश के नागौरी बैल आज तक प्रसिद्ध हैं।20 राजस्थान से बैलों को लाकर लोग विपणन करते रहे हैं। महरौनी तहसील के सौल्दा स्थान इसी कारण बस गया संभव है। तोर (ललितपुर) नयी जोत वाली ज़मीन के लिए कहा जाता है। खिरिया उवारी (महरौनी) निस्तार के योग्य भूमि का बोध कराने वाला स्थान-नाम है।
खैरा (तालबेहट) शब्द उक्षतर शब्द से निष्पन्न हुआ है। वर्तमान में खदिर से इसका अर्थ जोड़ा जाता है, किंतु ‘पाणिनिकालीन भारतवर्ष’ में जिस बछड़े को शकट (बैलगाड़ी) आदि में जोतने के लिए बधिया करते थे, वह पूरा जवान होने पर उक्षा और अधेड़ अवस्था का होने पर उक्षतर कहा जाता था। उक्षतर से हिंदी का खैरा शब्द बना है (उक्षतर-उक्खयर-उखइर-खइरअ-खैरा)21
जिस बछड़े के दूध के दांत न टूटे हों उसे उदंत कहा जाता था। तालबेहट तहसील का उदगुवां स्थान इससे संबंधित संभव है, किंतु ‘पाणिनिकालीन भारतवर्ष’ में कुओं की सफाई करने वाले लोग उदगाह या उदकगाह कहलाते थे। उदगुवां का भाषा-परिवर्तन इसके निकट भी है।
खेड़ा शब्द खेट से निष्पन्न हुआ है। ‘पाणिनिकालीन भारतवर्ष’ के अनुसार  मध्य देश से लेकर पश्चिम में गुजरात तक यह परपद प्रयुक्त होता है। पाणिनि के अनुसार कुत्सित नगर खेट कहलाते थे। खाईखेरा (ललितपुर) तथा पूर्वपद तथा परपद के रूप में खिरिया स्थान-नाम जिले में दो दर्जन से अधिक हैं। पाह (महरौनी) गांव का नाम कृषि-कार्य की एक विधि के कारण पड़ा। ‘पाय’ खेती की वह विधि है, जिसमें ज़मीन किसी दूसरे गांव में हो और जोतने वाला समीप के ही गांव में रहता हो। इसका तत्सम रूप ‘पाही’ है। ऐसी खेती करने वाले किसान को ‘पाहिया’ कहा जाता है। चीमना (ललितपुर) गांव बौद्ध पृष्ठभूमि के चीवर का संकेत करता है। यह वस्त्र बौद्ध भिक्षुओं को पहनाते हैं। गृहस्थ या ब्रह्मचारी के वस्त्रों के लिए चीवर नहीं चलता था।
जिजरवारा (तालबेहट) स्थान-नाम का संबंध गालव ऋषि से प्रतीत होता है। शैशिरि शाखा में गालव को शौनक का और शाकटायन को शौशिरि का शिष्य कहा गया है। कठवर (तालबेहट) जिजरवारा के निकटस्थ बसा ग्राम है। पाणिनि ने कठों का स्वतंत्र उल्लेख किया है। कठ लोग गांव-गांव में फैल गए थे (ग्रामे-ग्रामे च काठकं कालापकं न प्रेच्यते, भाष्य 4/3/101)। मेगस्थनीज ने पंजाब में कंबिस्थोलोइ लोगों का उल्लेख किया है, जिनके देश में इरावती नदी बहती थी। ज्ञात होता है कि कपिष्ठलों का प्रदेश इरावती के आसपास के भूभाग में कठों के समीप ही था। कठों ने वहीं पर अपने प्रदेश में जाते हुए सिकंदर का मार्ग रोका था।22 इन कठों के नाम पर संपूर्ण बंन्देलखंड में अनेक स्थान-नाम प्राप्त होते हैं।
ु कठों के अतिरिक्त जनपद ललितपुर सहित भारतवर्ष के अनेक भागों में मर, भर, जर संस्कृति का उल्लेख मिलता है, किंतु ‘पाणिनिकालीन भारतवर्ष’ में इनका उल्लेख नहीं है। भर हिन्दुओं की एक अस्पृश्य जाति मानी जाती थी। यह जाति उŸार प्रदेश के पूर्वी जिलों में रहती थी।23 भारशिव नाग राजा थे। वे शिव की उपासना करते थे। जिले के भारौनी (महरौनी) इत्यादि स्थान-नाम इस जाति का संकेत करते हैं। ‘बुंदेली-भाषी क्षेत्र के स्थान-अभिधानों का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन’(डॉ कामिनी)के अनुसार पुराण प्रसिद्ध मुर दैत्य एवं गहोई वैश्य जाति का एक आंकना ‘मर’ है। मर जाति का संकेत करते स्थान-नाम मर्रोली (महरौनी) तथा जर जाति से संबंधित जरया (महरौनी) तथा जरावली (महरौनी) इत्यादि हैं। जर जाति से संबंधित ललितपुर जनपद के इन गांवों में तीन-चौथाई से अधिक लोधी जाति के व्यक्ति निवास करते हैं। डॉ कामिनी ने बुन्देलखण्ड के स्थान-अभिधानों के रूप में मौजूद ऐतिहासिक जर जाति के अवशेषों को लोधियों के जरिया वर्ग से संबंधित बताया है। मग ईरान निवासी सूर्यपूजक थे, जो कृष्ण के पुत्र शांब द्वारा चन्द्रभागा तट पर सूर्य मन्दिर की प्रतिष्ठा के लिए बुलाए गए थे। बुद्ध इन शकद्वीपी ब्राह्मणों को अच्छा नहीं मानते। बुन्देलखण्ड  से होते हुए मग दक्षिण की ओर गए हैं। ललितपुर तहसील का मगरवारा इस जाति का संकेत करता है। कुरु चंद्रवंश में उत्पन्न परम धार्मिक तथा महाप्रतापी थे। ‘प्राचीन भारतीय परंपरा और इतिहास’ (डॉ रांगेय राघव) के अनुसार कुरु के पिता ने जिस प्रदेश में तप किया उसका नाम कुरुजांगल और कुरुक्षेत्र होने का उल्लेख है। कुरुक्षेत्र के अंतर्गत दृषद्वती, सरस्वती और आपया नदियों के उल्लेख हैं। कुरुओं के शैव होने के प्रमाण भी मिलते हैं। जिले की महरौनी तहसील के कुरौरा, कुर्रट इत्यादि गांव कुरु नामकरण के आधार हैं। राजपूताने की ओर बसने वाली मेवजाति का संबंध भी इस भूभाग से रहा है। महोली (ललितपुर) उच्चरित रूप मेवली मेव जाति पर आधारित है। तुगलक काल में इन्हें आतंककारी और लुटेरा बताया गया है। इन्हें पहली बार शिवाजी ने संगठित कर औरंगज़ेब के विरुद्ध उतारा था। यह अंग्रेजों की रसद लूट लेते थे और दुस्साहस तथा चतुराई के लिए प्रसिद्ध थे। लार्ड वेलेजली ने इन्हें समाप्त करने का बीड़ा उठाया था।
स्थान नामों का उद्गम एवं विकास- समाजशास्त्र के एक सिद्धांत के अनुसार व्यवसायी बनिया और पुरोहित ब्राह्मण कभी पृथक से गांव नहीं बसाते। वे पूर्व से बसे हुए गांव में बसना उचित तथा सुरक्षित मानते हैं। अतः जिले में ब्राह्मण तथा बनियों के नाम पर जो गांव विद्यमान हैं, वे भी प्राचीन युग में किसी अन्य द्वारा बसाए गए होंगे। प्राचीन काल में व्यक्ति इधर से उधर खाने की खोज में चलता-फिरता रहता था। खेती करने की कला सीखने के बाद व्यक्ति ने अपने काम की जगह के पास रहना प्रारंभ किया। कभी-कभी वह खेतों में रहकर ही अपना यापन करता। देश के अनेेक प्रदेशों के स्थान-नामों का अध्ययन करने वाली विदुषी डॉ मालती महाजन के अनुसार स्थान-नामों में लगने वाले वट, वाटक, वाड़ा इत्यादि प्रत्यय खेतों में रहने वाले लोगों के अर्थ को द्योतित करते हैं।24 ललितपुर जनपद के स्थान-नामों के प्रत्यय वा, वाहा, वाह तथा बेहट इत्यादि प्रत्यय इसी सादृश्य के हैं। यह प्रत्यय संस्कृत के वत् से विकसित हैं, जिसका अर्थ है सदृश या समान। डॉ मालती महाजन के अनुसार देश के सभी अंचलों में जब व्यक्ति अपनी बस्तियां बसाने लगे तब इन्हें ‘पाल’ कहा गया। पाल शब्द गांववाची है, जो संस्कृत ‘पद्र’ से विकसित हुआ है। पाल से पाली, पालिका इत्यादि प्रत्यय अथवा स्वतंत्र अभिधान विकसित हुए। भाषा विज्ञानी डॉ कैलाश चंद्र भाटिया के मत से संस्कृत पद्र से हिन्दी के ‘ओंद’, ‘औंदा’, ‘औंधा’ इत्यादि प्रत्यय निष्पन्न हुए। इसका प्राकृत रूप ‘पद्द’ मिलता है। डॉ महाजन के अनुसार पाल के बाद लोगों की बस्तियों को वट, वाटक, वाड़ा कहा गया। इसके बाद खेट, खेटक फिर ग्राम या पुर तथा नगर कहे गए।
पुर या नगर बसने तक व्यक्ति अधिक स्थिर और सुरक्षित हो गया था। अब वह अपने गॉंव की आकृति, दूसरे गॉंव से उसकी दूरी, वातावरण, परिवेश  इत्यादि के प्रति जागरूक हो गया था। इसीलिए वह अपने निवसित स्थान के समीप पानी की स्थिति को आवश्यक मानकर चलने लगा था।
ग्राम पहले समूह में बसते थे। ग्राम का व्युत्पत्तिपरक अर्थ ही समूह है। पहले ग्राम अकृत्रिम रूप से अथवा बिना नियोजना के अस्तित्व में आए। कौटिल्य के समय तक ग्राम सप्रयोजन निविष्ट होने लगे। सूत्रकृतांगदीपिका में ग्राम की निरुक्तिपरक व्याख्या देते हुए उसके लक्षण दिए गए हैं, जिसके अनुसार -
1. साधुओं द्वारा भिक्षार्थ भ्रमण करते हुए गुणों का ग्रसन करना अथवा
2. अट्ठारह प्रकार के करों को सहन करना अथवा
3. कंटकों अथवा वाटकों से आवृत्त जनों का निवास होना।
कृषि के उत्तरोत्तर विकास के कारण कौटिल्य ने राष्ट्र विकास के लिए ग्राम-निवेश कर की संस्तुति की है। नगर शब्द का उल्लेख बाद में मिलता है। संपूर्ण रूप से वैदिक काल में नगर का जीवन बहुत विकसित रहा होना कदाचित् ही संभव है। हॉपकिंस के अनुसार ‘महाकाव्य’ में नगर, ग्राम और घोष का उल्लेख मिलता है। वैदिक साहित्य ग्राम से कदाचित् ही आगे जाता है, यद्यपि इसमें संदेह नहीं कि इसके बाद के काल में कुछ परिवर्तन हुए होंगे।25
नामः स्वरूप निर्वचन- नामों की प्रकृति बड़ी विचित्र होती है। यों चिर परिचित शब्दों द्वारा ही नामों की निर्मिति होती है। इसी से पूर्व में नाम और शब्द को एक ही माना गया और नामों के पृथक् अध्ययन की ओर विद्वानों का ध्यान नहीं गया। विलियम शेक्सपियर की उक्ति ‘नाम में क्या रखा है’ कदाचित् नाम और शब्द का भेद न समझने के कारण अथवा विनोद में कही गई। नाम स्वगुणार्थक कम और संकेतार्थक अधिक होते हैं। इसका तात्पर्य है नाम-शब्द का भाषिक व्यवस्था से बाहर व्यक्तियों, वस्तुओं, स्थानों, गुणों, प्रक्रियाओं एवं क्रियाकलापों के मध्य संबंध। इसके संपादन के लिए नामों का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है, जो कुछ अंशों में वस्तु और व्यवहार में अतिभाषिक वास्तविकता से प्रारंभ होता है।26 यह अतिभाषिकीय अध्ययन अर्थतात्विक अध्ययन से भिन्न है क्योंकि अर्थविज्ञान शब्द से प्रारंभ होकर वस्तु का अन्वेषण करता है, किंतु नाम विज्ञान और अर्थविज्ञान क्रमशः वक्ता एवं श्रोता की भांति अंतर्संबंधित हैं। वक्ता के विभिन्न अर्थ वाले शब्द भंडार को सुनकर श्रोता उसमें से उपयुक्त अर्थ का चयन करता है।
स्थान-नामों की उत्पत्ति में अनेक राजनीतिक, सामाजिक एवं वैयक्तिक कारण होते हैं। उदाहरण के लिए पंचाल क्षत्रिय जिस भूप्रदेश में पहले-पहल बसे, उस प्रदेश का नाम पांचाल पड़ गया। इनके कारण यहां की भूमि का भी नाम पंचाल हुआ। इस प्रकार जन और भूमि को सूचित करने वाला शब्द मनुष्य की भाषा का अंग बन गया। व्याकरण शास्त्र को बस इसमें रुचि है कि ‘पंचाल जन का निवास स्थान’ इस नए अर्थ को किस प्रत्यय की शक्ति से स्थानवाची पंचाल शब्द प्रकट करता है। बिहार निवासी बिहारी कहलाता है। इस ‘ई’ प्रत्यय में उस निवासी की भूमि, रहन-सहन बल्कि उसकी पूरी नागरिकता पर प्रकाश पड़ता है।27
नाम की व्युत्पŸिा हलायुधकोश के अनुसार है- ‘म्नायते अभ्यस्यते यत् तत्’ अर्थात् जिसे बार-बार दुहराया जाय (म्ना = अभ्यास करना)1। डॉ शिवनारायण खन्ना का उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान लखनऊ से प्रकाशित ग्रंथ ‘उपनाम: एक अध्ययन’ के पृष्ठ-1 में यह परिभाषा ‘शब्द कल्पदु्रम’ द्वितीय कांड पृ0 861 से उद्धृत है। वामन शिवराम आप्टे के संस्कृत-हिंदी कोश में भी नाम की इसी प्रकार की परिभाषा दी गई है - ‘म्नायते अभ्यस्यते नम्यते अभिधीयते अर्थोऽनेन वा’ अर्थात जिससे किसी को पुकारा जाय या अर्थ ग्रहण किया जाय।2
नाम की परिभाषा एनसाईक्लोपीडिया ब्रिटेनिका के अनुसार है कि नाम वह शब्द अथवा लघु शब्द समूह है, जो किसी समूह, एक विशेष और समूचे अस्तित्व अथवा सत्ता की ओर संकेत करता है। यह आवश्यक नहीं कि वह उसके गुण विशेष को भी इंगित करे।3
नाम कल्पित और यादृच्छिक होते हैं, फिर भी यह समाज के लिय अनिवार्य है। उसके बिना मानव समाज का न तो संगठन ही संभव है, न कोई अन्य कार्य ही चल सकता है।4
डॉ विद्याभूषण विभु, डॉ लक्ष्मीनारायण शर्मा सहित पाश्चात्य भाषा शास्त्री ए. गार्डिनर जैसे विद्वानों के एक वर्ग का मानना है कि नाम और शब्द एक ही हैं। शब्द ही नाम हैं, किंतु विद्वानों के दूसरे वर्ग का मानना है कि यह ठीक है कि नामों की निर्मिति हमारे चिर परिचित शब्दों से होती है, परंतु यह भी ज्ञातव्य है कि शब्द जब एक बार नाम के रूप में प्रयुक्त होते हैं तब वे ‘शब्द’ नहीं रह जाते। इन विद्वानों की मान्यता है कि नाम संकेतार्थक होते हैं, जबकि शब्द स्वगुणार्थक माने जाते हैं। प्रत्येक शब्द का शाब्दिक अर्थ अनिवार्यतः होता है और तभी वह अपने ‘स्वगुणार्थ’ का निर्वाह कर पाता है। किसी शब्द के अर्थहीन होने पर वह अपनी भाषा से बहिष्कृत हो जाता है। जबकि नामों की प्रकृति इससे भिन्न होती है। नामकर्ता मनुष्य एक विशाल परिमाण में शाब्दिक सामग्री का प्रयोग यथावत् अथवा कुछ भिन्न रूप में करता है। अतः सभी नाम शब्द-रूप में प्रारम्भ होते हैं। नामों का एक ध्वनि प्रक्रियात्मक रूप होता है। उनमें रूप प्रक्रियात्मक संश्लेषण के साथ-साथ शाब्दिक अर्थ भी संयुक्त रहता है। इस प्रकार नाम वैज्ञानिक अर्थ किसी नाम में संयुक्त हो जाता है।5 उदाहरणार्थ ‘ललितपुर’ नाम की उत्पŸिा गोंड़ राजा सम्ुमेर शाह की पत्नी ललिताकुंवर के नाम से हुई है, जबकि कुछ लोग सुम्मेर सिंह की पुत्री के नाम पर ललितपुर का नामकरण मानते हैं, किंतु शाब्दिक अर्थ में ललित का अर्थ सुंदर और पुर का अर्थ नगर या बस्ती होता है। इसके अतिरिक्त महाराज अशोक ने लगभग 250 वर्ष ईसा पूर्व नेपाल की तराई में एक ललितपाटन नामक नगर बसाया था। इस नगर को भी वर्तमान में ललितपुर कहा जाता है।6 यहां स्पष्ट होता है कि दोनों ‘ललितपुर’ स्थानों का नाम वैज्ञानिक अर्थ अलग-अलग है, इन नामों के साथ वहां की भाषा, इतिहास, भूगोल और अन्य विषयों का बिंब श्रोता के मन में अंकित हो जाता है, जबकि ‘ललितपुर’ का शाब्दिक अर्थ (सुंदर नगर) एक ही है।
वस्तुतः कभी-कभी नाम अध्ययन में उसका शाब्दिक अर्थ अप्रासंगिक हो जाता है। नामों का अपना नाम वैज्ञानिक अर्थ होता है और वह उसकी शाब्दिक व्युत्पŸिा के साथ-साथ ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक तथा प्राकृतिक आधारों से निर्मित होता है। ‘नाम’ का अनुवाद दूसरी भाषाओं में स्वीकार्य नहीं है, जबकि शब्द के अनुवाद सर्वत्र प्रचलित है। ‘नाम’ और ‘शब्द’ को एक मानने का कारण यह रहा कि इन दोनों के मूल रूप का अध्ययन व्युत्पŸिा के माध्यम से किया जाता रहा है, किंतु ‘नाम’ का व्युत्पŸिामूलक अध्ययन नाम विज्ञानी का प्रारंभिक सोपान है। जैसा कि डॉ वासुदेव शरण अग्रवाल ने कहा है ‘स्थान नामों’ की उत्पŸिा में अनेक राजनैतिक, सामाजिक और वैयक्तिक कारण होते हैं।7 ‘स्थल नाम विज्ञान’ में स्थान-नामों का अध्ययन प्रस्तुत किया जाता है, जो एक साथ भाषा-भूगोल, व्युत्पŸिा शास्त्र तथा कोश विज्ञान को स्पर्श करता है, क्योंकि इसके द्वारा जहां एक ओर देशीय संस्कृति, क्षेत्रीय भाषिक विशेषताएं और बोली भूगोल के अनुसार विवरण स्पष्ट होता है वहां दूसरी ओर शब्दों की व्युत्पŸिायों के माध्यम से वस्तुतः उस भाषा का कालक्रमानुसार विस्तृत ज्ञान प्राप्त होता है।8 पाणिनि के अनुसार नगरों और ग्रामों के नाम निम्नलिखित चार कारणों से बनते हैं। इन्हें चातुरर्थिक नाम कहा गया है।
1- तदस्मिन्नस्तीति देशे तन्नाम्नि (4/2/67) अर्थात अमुक वस्तु जिस स्थान में होती है, उस वस्तु के नाम से उस स्थान का नाम पड़ जाता है, जैसे-औदुम्बर आदि।
2- तेन निवृŸाम् (4/2/68) अर्थात् उसने यह स्थान बसाया। बसाने वाले के नाम से शहर या गांव का नाम रखना एक स्वाभाविक और पुरानी प्रथा है, जैसे कौशांबी आदि।
3- तस्य निवासः (4/2/69) अर्थात् रहने वालों से स्थान का नाम, जैसे शिवि जाति के क्षत्रियों का निवास स्थान ‘शैव’ हुआ।
4- अदूरभवश्च (4/2/70) अर्थात् जो स्थान किसी दूसरे स्थान के निकट बसा होता है, वह भी उसके नाम से पुकारा जाता है। आम, पीपल, बरगद आदि वृक्षों के समीप बसे हुए हजारों स्थान-नाम इसी नियम के अनुसार बने हैं।9
व्युत्पŸिा - व्यक्ति नामों के विपरीत स्थान-नामों के नामकरण में यादृच्छिकता नहीं अपनाई जाती है। व्यक्ति-नाम भौतिक रूप में व्यक्ति की मृत्यु के साथ समाप्त हो जाते हैं, पर स्थान-नाम शताब्दियों तक, जब तक वह स्थान उजड़ न जाये, प्रचलित रहते हैं। स्थान-नामों के सूचक कुछ पदों का विवेचन अधोलिखितरूपेण है -
1- ग्राम - ग्राम का व्युत्पŸिागत अर्थ ‘समूह’ है। घरों के समूह को ग्राम कहा गया। सर्वप्रथम ग्राम अकृत्रिम रूप से  अस्तित्व में आए होंगे, परंतु कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में ‘राष्ट्र’ के विकास के लिए ग्राम-निवेश की संस्तुति की है। इसी समय से कृषि के उŸारोŸार विकास के कारण ग्रामों से ‘कर’ लिया जाने लगा होगा। ‘सूत्रकृतांगदीपिका’ में ग्राम के तीन प्रकार के लक्षण दिए गए हैं -
(क) साधुओं को भिक्षा प्राप्त होना और उनके गुणों को ग्राम वासियों द्वारा ग्रहण करना।
(ख) ग्रामों पर अठारह प्रकार के करों का लगाया जाना।
(ग) कांटो और बाड़ियों से घेरकर लोगों द्वारा निवास बनाना।10
2- नगर - नगर शब्द की व्युत्पŸिा के संबंध में अनेक मत मिलते हैं। आगम ग्रंथों की टीका के अनुसार ‘नगर’ का प्रारंभिक रूप ‘नकर’ (करविहीन) था। ‘नाम करा संति’ अथवा ‘नैतेषु करोऽस्तीति नकराणि’11 परंतु भाष्यकार पतंजलि के मत से ‘नगर’ शब्द ‘नग’ में ‘र‘ प्रत्यय जोड़कर बना है, जिसका अर्थ ‘नग (वृक्ष) वाला’ होता है। इस व्युत्पत्ति के अतिरिक्त अपने भाष्य में अन्यत्र उन्होंने ‘नगर’ को वनस्पति युक्त कहा है।12
3- पुर - द्विजेंद्रनाथ शुक्ल (भारतीय वास्तुकला) के अनुसार ‘पुर’ नगर का पर्यायवाची है। अतः नगर की सभी विशेषताएं ‘पुर’ के लिए भी लागू होती है, जैसे बानपुर (महरौनी)
4- पद्र - डॉ कैलाश चंद्र भाटिया के अनुसार ओद/ओंदा/औंधा इत्यादि प्रत्यययुक्त स्थान-नाम संस्कृत ‘पद्र’ के विकसित रूप हैं, जैसे- ललितपुर जिले का कचनोंदा (कचनार$पद्र) - विरोंदा (बेर $ पद्र)। ‘पद्र’ पद (चलना) धातु से निष्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है गांव, किसी गांव का प्रवेश मार्ग, एक जनपद विशेष13 डॉ व्यूलर के अनुसार यह आधुनिक ‘पाद्र’ अर्थात् ‘पशुओं के चरने का स्थान’ है तो एच.ए. विल्सन ने इसे ‘पादर’ मानते हुए इसका अर्थ ‘सार्वजनिक भूमि, गांव के पास सटी बिना जोती हुई भूमि’ किया है। इसीलिए पद्रांत स्थान-नामों की व्युत्पŸिा प्रायः वनस्पति नाम अथवा जीवजंतु नाम से हुई है। अतः इस प्रत्यय का अर्थ गतिशील गांवों से ही है।
5- वाटिका (-वाटक, -वाट, -वाहा, -वारा इत्यादि) - ‘वाटिका’ ‘वट’ धातु से व्युत्पन्न हुआ है। इसका अर्थ है घेरा, अहाता, घिरा हुआ भूमिखंड। संस्कृत से लेकर पालि साहित्य तक ‘वाटिका’ का अर्थ था एक अस्थाई आवेष्टित ‘स्थान’ यथा उद्यान, वृक्षारोपण अथवा सीमावर्ती वृक्षों से युक्त ग्राम का आवेष्टन। ललितपुर जनपद का ‘हंसनवारा’ (हंस$वाटिका)  आदि इसी प्रकार के स्थान-नाम है।
6- पाटक (-पट्टिका,-पट्ट, -वाड़ा, -परा) - पाटक तथा उससे विकसित पद ‘पद’ (विभक्त करना) धातु से विकसित हुए हैं। अतः पाटक का अर्थ हुआ ‘ग्राम का अर्ध भाग या ग्राम का एक भाग।‘ ललितपुर जिले में यह पद पूर्वपद के रूप में प्रयुक्त हुआ मिलता है - पटसेमरा, पटौवा, पटौरा (ललितपुर)।
7- खेट - हिंदी आदि भाषाओं का ‘खेड़ा’ इसी से निकला है। मध्य देश से लेकर पश्चिम में गुजरात तक यह शब्द परपद के रूप में प्रयुक्त होता है। पाणिनि के अनुसार कुत्सित नगर खेट कहे जाते थे।14 हलायुध कोश 792 में कहा गया है कि कृषि द्वारा शस्यादि भक्ष्योपयोगी वस्तुओं के उपार्जन से जीविका निर्वाह करने वाले ग्राम ‘खेट’ कहलाते हैं। मोनियर विलियम्स ने ‘खेट’ का अर्थ ‘ग्राम’ (कृषकों का निवास), छोटा नगर अथवा पुर का अर्ध भाग किया है। कल्पसूत्र टीका के अनुसार मिट्टी की दीवारों से आवेष्टित नगर को ‘खेट’ कहा जाता है। अर्थशास्त्रकार ने भी ‘खेट’ की यही परिभाषा की है।15 ललितपुर जनपद के खिरिया, खेरा, खेड़ा इत्यादि पदांत स्थान नाम इसी श्रेणी के हैं। डॉ कैलाश चंद्र भाटिया ने करा/खरा (खरी) इत्यादि पदों को भी खेटझखेड़ाझखेराझखराझकरा क्रम में विकसित माना है।16वस्तुतः यह शब्द संस्कृत के ‘क्षेत्र’ से विकसित होकर गांव के अर्थ में रूढ़ हो गए हैं।
भाषा विज्ञान ;स्पदहनपेजपबेद्ध की शाखा शब्दविज्ञान ;म्जलउवसवहलद्धहै, जिसकी उपशाखा नाम- विज्ञान ;वदवउंेजपबे अथवा वदवउंजवसवहलद्धकही गई है। इसी नामविज्ञान की एक शाखा स्थान-नामविज्ञान ;ज्वचवदलउल अथवा ज्वचवदवउंेजपबेद्ध कही जाती है तो एक अन्य शाखा व्यक्ति-नामविज्ञान कहलाती;।दजीतवचवदवउंेजपबेद्ध है।
यहां हमारे विवेचन का विषय स्थान-नाम हैं, जिसके अध्ययन को स्थान-नामविज्ञान ;ज्वचवदलउलद्ध कहा गया है। डॉ वासुदेव शरण अग्रवाल ने ‘पाणिनि कालीन भारतवर्ष’ में स्थान-नामों की रचना के जिन उपर्युक्त हेतुओं को विवेचित किया है, वे आज भी सम्ंूर्ण देश में विद्यमान हैं। स्थान-नामों का अर्थतात्विक विवेचन करने के लिए अर्थ परिवर्तन के आधारों का विश्लेषण किया जाना आवश्यक होगा। इसके लिए पहले हमें स्थान-नामों के अर्थतात्विक विकास को समझना उपयुक्त होगा। ललितपुर जिले के स्थान-नाम अर्थतत्व के धरातल पर समग्रता से एकता की ओर उन्मुख हुए हैं, जैसे-
1- समग्र -
खिरिया (महरौनी)
बम्हौरी (तालबेहट)
पुरा (तालबेहट)
खैरा (तालबेहट)
पठा (महरौनी)
2- एक या विषिश्ट -
खिरिया मिश्र (महरौनी तथा ललितपुर)
बम्हौरी सर (तालबेहट)
पुराधंधकुवा (महरौनी)
खैरा डांग (तालबेहट)
पठा गोरी (ललितपुर)
प्रथम वर्ग में अंकित स्थान-नामों में अर्थगत समग्रता है। इनमें क्रमशः खिरिया का अर्थ क्षेत्र, बम्हौरी का बह्मा और विष्णु, पुरा का अर्थ एक प्राचीन बस्ती, खैरा का अर्थ खदिर, किंतु एक अन्य अर्थ के अनुसार जिस बछडे़ को शकट (बैलगाड़ी) आदि में जोतने के लिये बधिया करते थे, वह पूरा जवान होने पर उक्षा और अधेड़ अवस्था का होने पर उक्षतर कहा जाता था। उक्षतर से हिन्दी ‘खैरा’ शब्द (उक्षतरझउक्खयरझउखइरझखइरअझखैरा)17 क्रम में बना है एवं पठा का अर्थ ‘प्रस्तर’ समग्र रूप में बोधगम्य है, किंतु द्वितीय वर्ग में इन स्थान-नामों के साथ विभेदक संयुक्त हो गए, जिससे उनका समग्र अर्थ विशिष्ट अर्थतत्व में परिवर्तित हो गया।
प्रारंभिक दशा में 4-6 घरों की बस्ती के लिए ‘खिरिया’ पद पर्याप्त था, पर ब्राह्मण जाति के आस्पद विशेष व्यक्ति की यश-पिपासा अथवा अलग पहचान देने के कारण ‘खिरिया’ पद के साथ विभेदक ‘मिश्र’ को संयुक्त कर दिया गया और स्थान-नाम के रूप में ‘खिरिया मिश्र’ अस्तित्व में आ गया। प्रथम वर्ग से द्वितीय वर्ग में अर्थतत्व सूक्ष्म हो गया। इसी प्रकार सरोवर, कामधंधा, जंगल और किसी युवती के कारण क्रमशः बम्हौरी, पुरा धंधकुआ (इस गांव में गौरा पत्थर की खानें हैं) खैरा डांग और पठा गोरी स्थानों का नामकरण हुआ। ललितपुर जिले के कुछ स्थान-नाम ऐसे भी हैं, जिनकी रचना में स्थान बोधक पद पुर, गढ़, स्थल, वाला अथवा अवली  नहीं हैं। इनमें स्थान बोधक पद घिसते-घिसते लुप्त हो गए हैं और इनकी जगह कुछ विशिष्ट शब्द स्थाननामवत् प्रचलन में आ गए हैं जैसे - रारा (तालबेहट) जिला ललितपुर। ऐसे मिलते-जुलते नाम बुंदेलखंड के अन्य जिलों में भी देखे जाते हैं जैसे - रूरीकलां (महोबा)18 रूरा अड्डू (जालौन)
जिला ललितपुर में स्थान बोधक पद घिसते-घिसते लुप्त हो जाने वाले कुछ अन्य स्थान-नाम भी  हैं -
भोटा (महरौनी) पाह (महरौनी) भोंता (ललितपुर)
जिले के कुछ स्थान-नामों की रूप रचना प्रत्यय के योग-मात्र से हुई है, यथा -
(क) व्यक्ति बोधक -
बानौनी (महरौनी)
पड़वां (महरौनी)
(ख) पदार्थ बोधक -
निवारी (महरौनी)
गेंदौरा (तालबेहट)
(ग) जलाषय बोधक -
झरर (तालबेहट)
अंडेला (ललितपुर) अरण्य डबरा से
(घ) गुण बोधक -
सतगता (ललितपुर) सद्गति से
(ड.) भूमिदषा बोधक -
पठरा (ललितपुर)
टौरिया (महरौनी)
गिरार (महरौनी) गिरि अरण्य से
पठारी (ललितपुर)
पठा (महरौनी)
(च) वृक्ष बोधक -
कैथोरा (ललितपुर)
ऊमरी (महरौनी)
अमौरा (महरौनी)
चिरौला (महरौनी)
बिरारी (ललितपुर)
सेमरा (महरौनी)
(छ) जाति बोधक -
सोंरई (महरौनी)
चढ़रा (महरौनी)
कुर्रट (महरौनी)
बमनौरा (ललितपुर)
(ज) वनस्पति बोधक -
बूटी (महरौनी)
कपासी (ललितपुर)
खैरी (महरौनी)
(झ) पषु बोधक -
भैंसाई (ललितपुर)
रिछा (ललितपुर)
(´) पक्षी बोधक -
सुकाड़ी (महरौनी)
चकोरा (महरौनी)
(ट) अवस्था बोधक -
जरया (महरौनी)
बूढ़ी (महरौनी)
(ठ) विपन्नता बोधक -
भैरा (महरौनी)
पीड़ार (महरौनी)
(ड़) चंद्रमा संबंधी -
चांदरो (तालबेहट)
चंदेरा (ललितपुर)
उपर्युक्त स्थानों-नामों में प्रयुक्त शब्द उनके दिए गए शीर्षकों से संबंधित विभिन्न अर्थों का द्योतन करते हैं। यह क्रमशः व्यक्तियों (बाणासुर, पांडव), पदार्थ (नीमफल, गेंद), जलाशय (झरना, अरण्य डबरा), भूमिदशा (पठार, छोटी पहाड़ी, गिरि), वृक्ष (कपित्थ, गूलर, आम, चिरौल, बेर, सेमल), जाति (सहरिया, चढ़ार, कोरी, ब्राह्मण), वनस्पति (गूगल, औषधीय पादप, कपास, खदिर), पशु (भैंस, रीछ), पक्षी (तोता, चकोर), अवस्था (जरावस्था, वृद्धावस्था), विपन्नता (बर्बाद होना, पीड़ा) तथा चंद्रमा से संबंधित हैं।
स्थान-नामों में प्रयुक्त शब्दों का परिवर्तन होता रहता है। यह परिवर्तन रूप ध्वनिगत तथा अर्थगत दो प्रकार का होता है। रूप ध्वनिगत परिवर्तन को भाषा विज्ञान में शब्दों का विकास कहा जाता है। जनपद के स्थान-नामों में यह इस प्रकार हुआ है, उदाहरणार्थ -
चमार से चमरउवा (ललितपुर)
ब्राह्मण से बमनौरा (ललितपुर)
जामुन से जमुनिया (महरौनी)
कुम्हड़ा से कुम्हैड़ी (महरौनी)
मच्छर से मछरका (महरौनी)
बनिया से बनयाना (महरौनी)
कंकड़ से ककरेला (तालबेहट)
उपर्युक्त स्थान-नामों में शब्द रूप के साथ-साथ ध्वनि रूप में भी परिवर्तन दृष्टव्य है।
दूसरे प्रकार का शब्द परिवर्तन अर्थ के स्तर पर होता है। स्थान-नामों के अध्ययन में यह परिवर्तन बहुत महत्वपूर्ण है। यह परिवर्तन नाम और शब्द का पृथक्करण करता है। इसका सविस्तार वर्णन अध्याय दो में स्थान-नामों का रूप रचना की दृष्टि से अध्ययन करते समय किया जा चुका है। किसी नाम का शब्द अपनी सीमा तक ही अर्थ द्योतन कराने में समर्थ होता है, जबकि शाब्दिक अर्थ से कहीं अधिक व्यापकता स्थान-नाम में सम्मिलित रहती है।  उदाहरण के लिए ‘कठ’ शब्द को लें, जिसका अर्थ है - पुल्लिंग - एक बाजा, काठ, कठोर (केवल समास में) विशेषण- काठ का बना, घटिया, निकृष्ट19 किंतु ‘कठ’ स्थान-नाम के अर्थ में भारशिवों (कठ, मर, जर, भर) के वर्ग में से एक है।20 कठ जाति का पश्चिमी पंजाब में एक गणराज्य भी था। पाणिनि (अष्टाध्यायी 2, 4, 20) ने कठ जाति के लोगों को कंठ या कंथ नाम से पुकारा। 327 ईसा पूर्व में स्वस्थ, संुदर और निपुण योद्धा कठ लोगों की तलवारों और तीरों से सिकंदर महान की सेना को पूर्व की ओर आगे बढ़ने की अपेक्षा पश्चिम की ओर पलायन करने पर मजबूर होना पड़ा था।21 ललितपुर जिले के भारशिव सूचक कुछ स्थान-नाम इस प्रकार हैं -
कठवर (तालबेहट)
मर्रोली (महरौनी)
जरावली (महरौनी)
भारौनी (महरौनी)
शब्द और नाम के अर्थ को पृथक अथवा शाब्दिक अर्थ में ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं धार्मिक अर्थों को समाहित करते हुए ललितपुर जिले के कुछ अन्य स्थान-नाम हैं -
(क) सर्प पूजक षिल्पी -
कुरु - कुरौरा (महरौनी)
पुरु - पुरा (ललितपुर)
मय - मैलवारा (ललितपुर)
(ख) ईरान निवासी सूर्य पूजक -
नाग - नगारा (महरौनी)
भोगनाग - भागनगर (महरौनी)
यक्ष - जखौरा (तालबेहट)
मग - मगरपुर (ललितपुर)
(ग) मौर्य वंष -
मैरती (ललितपुर)
(घ) मेव (तुगलक कालीन एक आतंकवादी जाति)
महोली (ललितपुर)
(ड़) वाकाटक तथा गोंड़
बहरावट (ललितपुर)
तालबेहट (तालबेहट)
बालाबेहट (ललितपुर)
खिरिया बेहटा (तालबेहट)
(च) उच्छकल्प
छिल्ला (महरौनी तथा ललितपुर)
‘सांस्कृतिक भूगोल कोश’ (श्याम सुंदर भट्ट) में वर्णित उच्छवृŸिा से भी इसका तारतम्य हो सकता है। खेतों से अनाज के ढेर हटा लेने के बाद कुछ दाने छूट जाते हैं। प्राचीन काल में कुछ तपस्वी ब्राह्मण इन दानों को एकत्रित कर अपनी आजीविका चलाते थे। इस वृŸिा को उन दिनों अपमानजनक नहीं माना जाता था।
(छ) खड़परिका
खड़ोवरा (ललितपुर)
(ज) प्रतिहार
पहारी (महरौनी)
(झ) पाताली
पाली (ललितपुर)
(´) कल्चुरि
कलौथरा (तालबेहट)
(ट) सेंगर
सिंगरवारा (महरौनी)22
इसी तरह ‘पिपरिहा’ का शाब्दिक अर्थ पीपल से संबंधित है, किंतु यह राजपूतों की एक शाखा या अल्ल भी हो सकती है।23 ललितपुर जनपद में ऐसे स्थान-नाम हैं -
पिपरई (ललितपुर), पिपरौनियां (ललितपुर), पिपरिया वंशा, पिपरिया डोंगरा, पिपरिया पाली तथा पिपरिया जागीर (ललितपुर)
शिरीष वृक्ष भूरी छाल वाला ऊंचा पेड़ होता है। इसकी और इमली की पŸिायां एक जैसी होती हैं। मार्च-अप्रैल में यह फूलता है। शिरीष में मृदु, सफेद, सुंदर और सुगंधित फूल लगते हैं। आयुर्वेद में इसे चरपरा, शीतल और कसैला माना गया है। यह त्रिदोष नाशक तथा खुजली, बवासीर, कोढ़ और पसीना में उपयोगी है।24 वहीं एक अन्य दृष्टि से देखें तो महाभारत के सभा पर्व (32, 6) के अनुसार नकुल ने अपनी पश्चिम दिशा की दिग्विजय में ‘शैरीषक’ नगर को जीता था।25 सिरसी (तालबेहट) तथा सिरसी खेड़ा (ललितपुर) उपर्युक्त में किसी से संबंधित हो सकते हैं। गुरयाना (महरौनी) गुरु द्रोणाचार्य से संबंधित अथवा अनुकृत हो सकता है।
खिरिया छतारा (ललितपुर) - महाभारत के आदि पर्व (165, 21) में वर्णित ‘अहिछत्र’26 कंधारी कलां (तालबेहट)  - गांधारी27, कुलुवा (ललितपुर) - कल्हणकृत राजतरंगिणी (3, 452) में ‘कुलूत’ राज्य की वर्णित प्राकृतिक शोभा28, कोकटा (ललितपुर)-ऋग्वेद (3, 53, 14) यास्क कृत निरुक्त (6, 32), वायु पुराण (108, 73) एवं वृहत् धर्म पुराण (26, 47) जैसे गं्रथों में वर्णित असभ्य, अनार्य और अनादरणीय जनों का निवास क्षेत्र ‘कीकट’29 से संबंधित अथवा अनुकृत हो सकते हैं। ललितपुर जनपद के निम्नलिखित कुछ अन्य स्थान-नामों में अर्थ परिवर्तन इस प्रकार हुए हैं -
ऐरा (ललितपुर) - ‘एरका’ - महाभारत में वर्णित कथा के अनुसार श्री कृष्ण के पुत्र सांब ने अपने पेट पर वस्त्रों को लपेट कर सप्तर्षियों का मजाक किया था। इससे सांब के पेट से मूसल निकला। यदुकुल के राजकुमारों को पता था कि यही मूसल उनके विनाश का कारण बनेगा। अतः उन्होंने इस मूसल का चूरा बना दिया और उसे समुद्र में बहा दिया। कालांतर में वही चूरा ‘एरका’ नामक घास बन गया। इसी घास की तीखी नोकों से यदुकुल विनाश को प्राप्त हुआ।30 ऐरा बुंदेली बोली में सिंचाई करने की भूतकालिक क्रिया भी है।
सौल्दा (महरौनी) - उत्तरी राजस्थान के बीकानेर से अलवर तक फैले हुए बड़े भूभाग का नाम ‘साल्व’ था। मेड़ता और जोधपुर इलाका भी उसी के अंतर्गत था। इस प्रदेश के नागौरी बैल प्रसिद्व रहे हैं। संभवतः यहां के बैलों का ललितपुर के इस स्थान पर विपणन होता रहा होगा, अतः साल्व प्रदेश से अनुकृत होने के कारण इस स्थान का नाम सौल्दा (साल्व $ स्थल) पड़ा है।31
उशा कुंड-बानपुर के पास जमड़ार नदी में (तहसील महरौनी) - पुराण प्रसिद्व बाणासुर की पुत्री उषा एवं अनिरुद्व की प्रणय गाथा श्रीमद्भागवत (10, 62) में सविस्तार वर्णित है। उषा कुंड का अभिज्ञान इस शिवभक्त बाणासुर की पुत्री उषा से माना गया है। केदारनाथ (उŸाराखंड) के समीप उखीमठ क़स्बे से तथा भरतपुर (राजस्थान) में स्थित उखा मन्दिर से भी ‘उषा’ का संबंध स्थापित किया जाता है।32
चंदावली (महरौनी), चांदरो, चंद्रापुर (तालबेहट), चांदौरा, चंदेरा, चांदपुर (ललितपुर) - चंद्रमा पृथ्वी का उपग्रह है। ज्योतिष के अनुसार चंद्र कर्क राशि का स्वामी है। वहीं चंद्र जल तत्व का देवता है। आयुर्वेद में इसकी प्रवृŸिा कफ की है। वायव्य दिशा, स्त्रीलिंग, सत्वगुण, लवण रस, स्थूल आकार, मोतीमणि, सौम्य स्वभाव, छाती और गले की पीड़ाकारक, समदृष्टि चंद्रमा की विशेषताएं होती हैं। स्थान-नाम के अर्थ परिवर्तन संबंधी एक अन्य व्याख्या के अनुसार शोण नदी का उद्गम-स्थल चंद्र पर्वत माना गया है। शिशु पुराण में नर्मदा नदी को सोमोद्भवा कहा गया है। चंद्र पर्वत अमरकंटक (विन्ध्याचल) का ही दूसरा नाम है।33 अतः चंद्र संबंधी स्थान-नाम इस पर्वत के नाम पर रखे गए हो सकते हैं।
डोंगरा कलां (ललितपुर) - महाभारत (सभा पर्व 52, 13 तथा 27, 18) के वर्णन क्रम में दार्व जनपद का उल्लेख दो घटनाओं के संदर्भ में आया है। एक घटना में अर्जुन दार्व जनपद को अपनी विजय यात्रा के क्रम में पराजित करता है। दूसरी घटना में युधिष्ठिर के राज्याभिषेक के अवसर पर दार्व के नृपति द्वारा उपहार भेंट करना वर्णित है। एक अन्य मत के अनुसार डुग्गर जाति के लोगों का मूल स्थान जम्मू कश्मीर है और डुग्गर जाति ही प्राचीन दार्व जाति थी। डुग्गर जाति आज डोगरा जाति के नाम से जम्मू में निवास करती है। कुछ अन्य विद्वान भारत की उŸार-पश्चिमी सीमा पर स्वात नदी में मिलने वाली पंजकोर नामक सहायक नदी की घाटी को दार्व जनपद का आदि स्थान स्वीकारते हैं। यहां एक कस्बा दीर ;क्पतद्ध के नाम से जाना भी जाता है।34 पांडवों का संबंध जिला ललितपुर के सुदूर वन प्रांतर से भी बताया जाता है। इसलिये डोंगरा स्थान-नामों का तादात्म्य ‘दार्व’ से देखा जा सकता है।
धसान नदी - धसान का पुरातन नाम दशार्ण था। दशार्ण नाम से एक जनपद भी रहा है जो महाभारत के सभा पर्व (29, 4-5) में वर्णित है। यह जनपद भीमसेन द्वारा पदाक्रांत किया गया था। पद्म पुराण में (स्वर्ग खण्ड, अध्याय 6, श्लोक 36) यह जनपद मेकल के साथ गिनाया गया है। ब्रह्मपुराण के अध्याय 6 में इसका नाम मेकल, उत्कल, भोज एवं किष्किंधा के क्रम में रखा गया है। बौद्ध जातकों तथा कौटिल्य के अर्थशास्त्र (भाग-2) में भी दशार्ण का वर्णन आया है। कालिदास के मेघदूत (पूर्व मेघ 24-28) में यहां के प्राकृतिक सौंदर्य का सजीव वर्णन किया गया है। टॉलमी ने दशार्ण का नाम ‘दोसारा’ (भूगोल 8, 1, 77) कहा है।
दशार्ण का अर्थ है, दस नदियों अथवा दस दुर्गांे वाला प्रदेश। धसान की सहायक नदियों द्वारा यह प्रदेश सिंचित है। जमड़ार धसान की एक प्रमुख सहायक नदी हैै। इसी नदी में उषा कुंड बानपुर के पास स्थित है। वायु पुराण (पूर्वार्ध अध्याय 45, श्लोक 99-101) में ऋक्ष पर्वत से निकलने वाली नदियों (यथा-शोण, महान, नर्मदा, मंदाकिनी, दशार्ण तमसा इत्यादि) में भी इसका नाम आता है।35 पं0 हरिविष्णु अवस्थी ने दशार्ण (धसान) नदी को बुंदेलखंड की संस्कृतिवाहिनी कहा है।36 अवस्थी जी ने प्रो0 बलभद्र तिवारी की पुस्तक ‘बुंदेली समाज और संस्कृति’ के आधार पर प्रहलाद की दस ऋणों से मुक्ति होने कारण इस प्रदेश को दशार्ण और यहां बहने वाली नदी को दशार्ण बताया  गया है। यह कथा गर्ग संहिता में आई है।
बछरई (महरौनी) बछलापुर (ललितपुर) - चांदपुर ग्राम, जो देवगढ़ तथा दूधई (ललितपुर) मे मध्य में स्थित है, से एक स्तंभलेख उपलब्ध हुआ, जो किसी अज्ञात पुरुष का लेख है, यह महाप्रतिहारान्वय बच्छगोत्रीय है।37इसी आधार पर इन स्थानों का नामकरण हुआ है।
चौंतराघाट (ललितपुर) - चंदेलों का राज्यकाल उनकी विजयों तथा वीरता के लिए ही प्रसिद्ध नहीं है। स्थापत्य तथा ललित कलाओं की भी इस युग में पर्याप्त उन्नति हुई है। अनेक तालाब, मंदिर, बैठक तथा चबूतरों का निर्माण इस युग में हुआ।38 चंदेल शासक मदनवर्मन (1128-1164 ई0) के नाम पर स्थापित मदनपुर (महरौनी) ग्राम उनकी यशगाथा का बखान करता है। ललितपुर जनपद के चंदेलकालीन पुरातात्विक साक्ष्य देवगढ़ चांदपुर, दूधई, सीरोन खुर्द (ललितपुर) तथा बानपुर (महरौनी) में दृष्टव्य भी हैं।
बमनौरा (ललितपुर) - महाभारत (सभा पर्व 51, 5) में एक ब्राह्मण जनपद का उल्लेख आया है। ग्रीक लेखक एरियन ने इसे ब्रह्मनोई ;ठतंीउंदवपद्धनाम से सम्बोधित किया है।39
ललितपुर जिले में कुछ स्थान-नाम ऐसे भी हैं जो किसी अन्य नगर अथवा स्थान के नाम पर अनुकृत किए गए हें। ऐसे स्थानों का नामकरण संबंधित नगर के व्यक्तियों के स्थान-नाम पर हुआ संभव है -
भोपालपुरा (तालबेहट) - भोपाल से
झांसीपुरा - ललितपुर - झांसी से
मथरा (तालबेहट) - मथुरा से
विरधा (ललितपुर) - वर्धा से
विघाखेत (ललितपुर) - विघा महावत (ललितपुर) - पुराणों में पर्वतीय क्षेत्र के 53 उप विभागों (क्षेत्रों) का वर्णन हुआ है। इन उपविभागों में से एक का नाम ‘विहा’ है।40जिले के विघा नाम के स्थान इस पर्वतीय क्षेत्र से अनुकृत संभव हैं।
जिजरवारा (तालबेहट) - रामायण (4, 40) में वानरों द्वारा सीता जी की खोज में पूर्व दिशा की ओर की गई यात्राओं का वर्णन है। इसके अनुसार वानरों ने यवद्वीप (जावा) के बाद शिशिर पर्वत को पार किया। विष्णु पुराण (2, 2, 27-त्रिकूटः शिशिरश्चैव पतंगो रुचकस्तथा) में इस पर्वत की स्थिति मेरु पर्वत (आधुनिक पामीर) के दक्षिण में बताई गयी है।  विष्णु पुराण के (2, 4, 5) एक वर्णन के अनुसार राजा मेघा तिथि के पुत्र शिशिर के नाम पर प्लक्ष द्वीप के एक भूभाग का नाम प्रसिद्व हुआ। इसे शिशिर वर्ष भी कहते हैं।41 एक ऋतु विशेष ‘शिशिर वसंतौ पुनरायातः’ (आद्य शंकराचार्य कृत चर्पटपंजरिका स्तोत्र से) का नाम भी शिशिर है।
ललितपुर जिले के स्थान-नामों के संदर्भ में उपर्युक्त विवेचन अर्थतत्व को उसके शाब्दिक अर्थ से परे अर्थों को उद्घाटित करता है। अर्थतत्व में अंतर्भुक्त विभिन्न प्रवृŸिायों के विश्लेषण के लिए ललितपुर जनपद के स्थान-नामों को उनमें प्रयुक्त शब्दों के आधार पर निम्नलिखित कोटियों में विभक्त किया जा सकता है -
1- ऐतिहासिक
2- राजनीतिक
3- सामाजिक
4- सांस्कृतिक
5- धार्मिक
6- प्राकृतिक
1- ऐतिहासिक आधार - ललितपुर जनपद के स्थान-नामों में वैदिक युग की ध्वनियों से लेकर गांधी और अंबेडकर युग तक की शब्दावली प्रयुक्त हुई है। यहां के स्थान-नामों में पौराणिक प्रत्यय एवं परपद प्रयुक्त हुए हैं। जिले के स्थान-नाम यहां की ऐतिहासिक परंपरा से अनुप्राणित हैं। यहां के स्थान-नामों में ऐतिहासिक साक्ष्यों के अंश अभी भी विद्यमान है। ऐसे कुछ स्थान-नाम अधोलिखित प्रकार से हैं -
(क) वैदिक षब्दावली - गोठरा (महरौनी)- गायों के खड़ा होने का स्थान42
धवा (महरौनी)- एक वृक्ष
दशरारा (तालबेहट)- दाशराज्ञ
(ख) पौराणिक परपद -
सारसेंड़(तालबेहट) - सारस $ अरण्य
नगवांस(तालबेहट) - नागपाश
(घ) पवित्र एवं औशधीय तृणादिक
दावनी (ललितपुर) दर्भ43
बूटी (महरौनी)
गूगर (तालबेहट)
(ड.) जलाषय -
धौरीसागर (महरौनी)
तालगांव (ललितपुर)
बम्हौरी सर (तालबेहट)
झिलगुवां (ललितपुर)
(च) यक्ष एवं यमवाची -
जखौरा (तालबेहट)
जमौरा (महरौनी)
(छ) मातृदेवी -
मातृदेवियां असंख्य हैं। जिले के प्रत्येक गांव में कम-से-कम एक मातृदेवी की पूजा प्रचलित है। अक्सर ऐसी देवी का कोई खास नाम नहीं होता; वह सिर्फ आई अर्थात् माता कहलाती है। इन देवियों की पुरातनता इसी से सिद्ध होती है कि इनमें से किसी के कोई पुरुष संगी या पति नहीं है। इन देवियों के निराले नाम देखकर ऐसा लगता है कि इनका संबंध ऐसे किसी छोटे-मोटे जनजातीय समूह से रहा है जो अब या तो निःशेष हैं या सामान्य देहाती करबादी(बेचैनी) में इस क़दर घुलमिल गया है कि उसका कोई चिन्ह शेष नहीं रहा। ललितपुर जिले के अधिसंख्य स्थान-नाम इन्हीं मातृदेवियों के नामों पर आधारित हैं। कबीलाई लोग किसी विपदा के आने पर हर छोटी-मोटी वस्तु पर मातृदेवी का नाम रखकर पूजते थे। उनका विश्वास था कि हमारी इससे रक्षा होगी।
इन मातृदेवियों की पूजा पद्धतियों का आदिम उद्भव और स्वरूप इस हिदायत से साबित होता है कि पूजा के पाषाण के अंदर कोई आच्छादन नहीं, खुला आसमान होना चाहिए। उसके ऊपर छत डाल देने से भारी विपŸिा आ पड़ती है लेकिन गांववाले जब पर्याप्त धनी हो जाते, तब प्रायः देवी को मनाकर इसके लिए राजी कर लेते हैं। यह पूजा पद्धतियां उस समय की है जब घर बसाने का चलन नहीं था और गांव चलते-फिरते हुआ करते थे।
ये देवियां हैं तो माताएं (मातृदेवियां) किंतु अविवाहित हैं। जिस समाज में इनका उद्भव था, उसकी दृष्टि में किसी पिता का होता आवश्यक नहीं था। आगे चलकर उनका विवाह किसी पुरुष देवता से होने लगा।
चौमासा त्रैमासिक (सं0 डॉ0 कपिल तिवारी) जुलाई अक्टूबर, 2008 में डॉ0 महेंद्र भानावत के आलेख ‘भारतीय देववादः उद्भव और विकास’ में दिया गया है कि बहुत पहले जब लोगोें को चेचक की व्याधि का पता नहीं था, तब लोगों ने इसे शरीर में उठी गर्मी के बुलबुले माना और देह में शीतलता के संचार के लिए शीतला माता जैसी देवी (इसी को रोढ़ि माता भी कहा गया है) की कल्पना और प्रतिष्ठा की। इस मान्यता का विकास 7वीं से 9वीं शताब्दी तक माना जा सकता है, क्योंकि इसी काल में मार्कंडेय पुराण और स्कंद पुराण की रचना हुई, जिनमें शीतला माता का स्मरण किया गया है।
ललितपुर जनपद में पांडवों के अज्ञातवास बिताने के पूर्व तक गोंड़ों का राज्य था। गोंड़ अपने जीवन में भय, बीमारियों से डर और दैवी आपदाओं से बचने के लिए कई मनगढंत देवी-देवताओं की उपासना करते हैं। जरा सा भय हुआ कि गोंड उसे देव की तरह पूजने लगता है। गोंड जनजाति देश की सबसे बड़ी जनजाति है। इन्होंने अपना धन जमीन में दबा रखा था जो ललितपुर जनपद और उसके आस-पास के निवासियों को मिलता रहा है। धनगोल (तालबेहट) ‘गोंड़ांे का धन‘ स्थान-नाम इसकी पुष्टि करता है। जनजातियों का एक प्रकार भीलों का है। इनका झूमर नृत्य गोंड़ों के करमा नृत्य का ही एक रूप है। ललितपुर जिले की तालबेहट तहसील में ‘झूमर नाथ’ नामक स्थान पर यह नृत्य किया जाता रहा होगा। वर्तमान में इस स्थान पर भगवान शंकर की पूजा-उपासना की जाती है। मातृदेवियों पर इस जिले में कुछ इस प्रकार स्थान-नाम मिलते हैं-
मावलैन (तालबेहट) - मावला माता
भावनी (तालबेहट) - भवानी
जाखलौन (ललितपुर) - जाखमाता
व्युत्पŸिा की दृष्टि से जिले के जाखलौन तथा जखौरा नाम यक्षी और डाकिनी से संबंधित है। कहीं-कहीं ऐसी मान्यता है कि जो औरतें बच्चा जनते समय अथवा डूबकर मर जाती हैं वे ऐसी प्रेतात्मा या पिशाची बन जाती हैं और उन्हें इस नाम से पूजा जाता है।44
(ज) पौराणिक -
बानपुर (महरौनी) - बाणासुर
बानौनी (महरौनी) - बाणासुर
कोटरा (तालबेहट) - बाणासुर की मां
(झ) बुद्धकाल -
बुदनी (महरौनी)
पाली (ललितपुर)45
वर्ष 2003 में शारदा पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली से प्रकाशित डॉ मालती महाजन की पुस्तक ‘उड़ीसा: फ्रॉम प्लेस नेम इन इंस्क्रिप्शंस’ (260 वीसी- 1200 ए डी) के पृष्ठ 22 में दिए गए विवरण के अनुसर ‘पाली’ शब्द ‘पाल’ के निष्पन्न हुआ है। डॉ महाजन ने मोनियर मोनियर विलियम्स के संस्कृत इंग्लिश कोश के हवाले से बताया है कि पहले घुमंतू लोगों द्वारा छोटी बस्ती बसाने के लिए ‘पाल’ कहा जाता था। ‘पाली’ पाल का ही विकसित रूप है। आगे ‘पालिका’ इत्यादि शब्द भी इसी से बने हैं।
(´) भारषिवों से संबंधित -
भारौनी (महरौनी)
कठवर (तालबेहट)
मर्रोली (महरौनी)
जरावली (महरौनी)
(ट) मौर्य कालीन
मैरती कलां (ललितपुर)
(ठ) हर्श कालीन
हर्षपुर (तालबेहट)
(ड) रामायण कालीन -
हनूपुरा (तालबेहट)
भरतपुरा (ललितपुर)
रघुनाथपुरा, रामनगर (ललितपुर)
(ढ) महाभारत कालीन -
कोरवास (महरौनी)
कनपुरा (महरौनी)
कंधारी कलां (तालबेहट)
पड़वां (महरौनी)
पड़रिया (महरौनी)
(ण) मुस्लिम कालीन -
दौलता (तालबेहट)
जमालपुर (तालबेहट)
तुरका (तालबेहट)
(त) स्वतंत्रता संघर्श कालीन
फौजपुरा (ललितपुर)
बख्तर (ललितपुर)
सजा (ललितपुर)
रनगांव (महरौनी)
(थ) स्वातंत्र्योŸार कालीन -
गांधी नगर - ललितपुर
नेहरू नगर - ललितपुर
इंदिरा कालोनी - महरौनी
इतिहास के साथ-साथ ललितपुर जिले के भौगोलिक परिवेश को उद्घाटित करते हुए कुछ स्थान-नाम इस प्रकार हैं -
(क) पठार वाची - पठा (महरौनी)
पहाड़ी खुर्द (महरौनी)
ककरेला (तालबेहट)
टौरिया (महरौनी)
(ख) भूमिदषा वाची -
पथराई (महरौनी)
कारी टोरन (महरौनी)
घुवरा (तालबेहट) - गौरा पत्थर
ककरुवा (महरौनी)
2- राजनीतिक आधार -
राजनीतिक घटनाक्रम ही आगे चलकर इतिहास बनता है। दतिया (मध्य प्रदेश), धामौनी (सागर-म0प्र0) और झांसी में बुंदेलखंड की तत्कालीन राजधानी ओरछा के शासक वीरसिंह जू देव ने क़िलों का निर्माण कराया। महाश्वेता देवी के उपन्यास ‘झांसी की रानी’ के अनुसार जूदेव ने उस समय कहा था- ‘धामौनी गढ़ में फौज रहेगी, दतिया का किला बहुत मनोहर और रमणीय होगा तथा झांसी का क़िला होगा सिंह और हाथी के साथ मुठभेड़ करने के लिए’। जनश्रुति यह है कि वृद्धावस्था होने पर वे दतिया से झांसी की तरफ क़िला नहीं देख सके। बोले ‘आंख में पूरी झांई-सी भर रही है।’ इसी आधार पर इस स्थान का नाम झांसी हो गया।46 इससे पूर्व झांसी का नाम बलवंतनगर था। झांसी रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म 1 पर एक स्तंभ पर ओरछा के क़िले से झांसी क़िले को देखना लिखा है। परिवर्तन के दोनों बिंदुओं को इतिहास कहा जाता है। ललितपुर जनपद के अधोलिखित स्थान-नाम राजनीति की प्राचीन परंपरा से लेकर आधुनिक परिवर्तनों तक को रूपायित करते हैं -
(क) गौड़ काल -
बालावेहट (ललितपुर)
बेहटा (तालबेहट)
(ख) पांडव काल -
बंडवा (महरौनी)
पड़ोरिया (ललितपुर)
(ग) बुद्ध काल -
बुदनी (महरौनी)
बुधेड़ी (तालबेहट)
(घ) गुप्तकाल -
देवगढ़ (ललितपुर)
(ड.) चंदेल एवं बुंदेल काल -
चंदेलकाल- मदनपुर (महरौनी)  दूधई (ललितपुर)
बुंदेलकाल- कुंवरपुरा (महरौनी) पंचमपुर (ललितपुर)
(च) स्वातंत्र्य संघर्श काल -
सुभाषपुरा - ललितपुर
सिंदवाहा (महरौनी)
(छ) स्वातंत्र्योŸार काल -
गांधी नगर - ललितपुर
(ज) मुस्लिम षासकों से संबंधित -
शाहपुरा (तालबेहट)
(झ) उपाधि एवं पदों से संबंधित -
राज - राजपुर (तालबेहट)
रानी - राइन (ललितपुर)
महाराज - महाराजपुर (महरौनी)
कुंवर - कुंवरपुरा (तालबेहट)
जागीर - पिपरिया जागीर (ललितपुर)
(´) आदर्ष राजनेताओं से संबंधित -
छत्रसालपुरा - ललितपुर
आजादपुरा - ललितपुर
सुभाषपुरा - ललितपुर
गांधी नगर - ललितपुर
राजनेताओं के नाम पर यह स्थान-नाम स्वाभाविक रूप से ललितपुर नगर में ही प्रचलित हैं और यह अपेक्षाकृत बाद में घटनाओं के कालक्रमानुरूप रखे गए हैं। ऐतिहासिक घटनाओं का समाज पर पड़े प्रभाव को यह स्थान-नाम प्रतिबिंबित करते हैं। इस प्रकार उपर्युक्त राजनीतिक स्थान-नाम राजनीतिक घटनाओं, व्यक्तियों का व्यक्तित्व एवं कालक्रम प्रस्तुत करते हैं।
3- सामाजिक आधार -
ललितपुर जिले का समाज विविधता में एकता का जीवंत उदाहरण है। यहां हिंदू, मुसलमान, सिख और ईसाई समुदाय के व्यक्ति भाई चारे के साथ रहते आए हैं। व्यक्तियों से ली गई जानकारी एवं अपनी स्मरण शक्ति के आधार पर यह कहा जा सकता है कि यहां 1984 ई मंे इंदिरा गांधी की हत्या होने के बाद के सिख दंगों में हुई छुट-पुट लूट-पाट के अतिरिक्त कोई दंगा अथवा सांप्रदायिक उन्माद नहीं फैला है। हिंदू संप्रदाय अधिसंख्य है, यह विभिन्न जातियों में वर्गीकृत है। मुस्लिमों में भी उनके सामाजिक ढांचे के अनुसार जातियां वर्गीकृत हैं। सबके जीविकोपार्जन के साधन पृथक-पृथक हैं। अधिकांश व्यक्ति कृषि पर अवलंबित हैं। धार्मिक मान्यताएं भी सबकी भिन्न-भिन्न हैं, जन-जीवन श्रमजीवी है। मूल रूप में व्यक्ति स्वार्थी है, पर समूह के सम्मुख वह प्रतिष्ठा अर्जनार्थ परमार्थी होने का पाखंड रचता है।

(क) वर्ण एवं जाति - जिले के परपद तथा विभेदक संयुक्त स्थान-नामों में निम्न जातियों की पहुंच नहीं हो पाई है, यद्यपि यहां पिछड़ी जातियों से संबंधित विभेदक प्रयुक्त हुए हैं, किंतु दलित जातियों से संबंधित स्वतंत्र स्थान-नाम भी यहां पाए गए हैं, यथा-
ब्राह्मण - टीकरा तिवारी (ललितपुर)
तिबरयाना - तालबेहट
रावतयाना - ललितपुर
पंडियाना - पाली (ललितपुर)
पंडों का पुरा - महरौनी
चौबयाना - ललितपुर
सुकलगुवां (महरौनी)
खिरिया मिश्र (महरौनी तथा ललितपुर)
बमनगुवां (तालबेहट)
बमनौरा (ललितपुर)
वैश्य - बनयाना (महरौनी)
सरफयाना - तालबेहट
मलैयापुरा - महरौनी
चौधरीपुरा - महरौनी
ठाकुर - खिरिया भारंजू (महरौनी)
खिरिया लटकनजू (महरौनी)
शूद्र - सूडर (ललितपुर)47
कुम्हार      -  कुमरौला (ललितपुर)
धोबी - धोवन खेरी (ललितपुर)
कोरी - कुर्रट (महरौनी)
कुरयाना - पाली (ललितपुर)
चढ़ार - चढ़रा (महरौनी)
सहरिया - सोंरई (महरौनी)
भील - भैलोनी लोध (तालबेहट)48
चमार - चमरयाना -ललितपुर
चमरउवा (ललितपुर)
मुसलमान - कसाई मंडी - ललितपुर
शेख का कुंआपुरा - महरौनी
काछी - कछियाकुंआपुरा - महरौनी
लुहार - लुहरयाना - महरौनी
कायस्थ - कायस्थपुरा - महरौनी
सिख - सरदारपुरा - ललितपुर
नट - नटयाना - पाली (ललितपुर)
लोधी - लिधौरा (महरौनी तथा ललितपुर)
यादव - कुआं घोसी (महरौनी)
(ख) पारिवारिक तथा सामाजिक संबंध -
जीजी - जिजयावन (ललितपुर)
देवर - देवरा (महरौनी)
साढ़ू - साढू़मल (महरौनी)
(ग) व्यावसायिक वर्ग से संबंधित -
रंडी - रनगांव (महरौनी)
वैद्य - बैदपुर (महरौनी)
मोगिया - मौगान (महरौनी)
(घ) अस्त्र-षस्त्र से संबंधित -
कवच - बख्तर (ललितपुर)
तुवन मंदिर - ललितपुर49
सेना - फौजपुरा (ललितपुर)
छायन (महरौनी)
(ङ) प्रसिद्ध स्थान तथा नगरों पर आधारित -
जलंधर (महरौनी)
रामपुर (तालबेहट)
रायपुर (तालबेहट)
मऊ (तालबेहट) - ‘मही’ का ध्वनि परिवर्तन हो सकता है।
वर्मा बिहार (तालबेहट)
(च) दैनंदिन वस्तुओं पर आधारित -
सांकली (ललितपुर) - श्रंृखला, दरवाजों पर लगाई जाने वाली सांकल
सांकरवार खुर्द तथा कलां (ललितपुर) - श्रृंखला
(छ) आभूशणों पर आधारित -
बेंदोरा (तालबेहट)
दांवर (ललितपुर)
दावनी (ललितपुर)50
(ज) सामाजिक दषाओं पर आधारित -
भैरा (महरौनी)
प्यासा (महरौनी)
पीड़ार (महरौनी)
गुंदरापुर (महरौनी)
ठाठखेड़ा (तालबेहट)
दौलतपुर (महरौनी)
कंगीरपुरा (महरौनी) - ग़रीब (बुंदेली शब्द कोश- डॉ कैलाश बिहारी द्विवेदी)
बीर (महरौनी)
(झ) खान-पान पर आधारित -
सक्तू (महरौनी) - सत्तू
बारचौन (महरौनी) - बेरचूर्ण
डॉ कामिनी के अनुसार ग्राम-नाम अनुमानाश्रित नहीं चलते। ग्राम-नामों में कोई न कोई अंश प्रमाण के लिए सदैव रहता है। सुकैटा (दतिया), असाटी (टीकमगढ़), बिल्हाटी (झांसी) तथा असनेट (भिंड) क्रमशः शुक, अश्व, बिल्व तथा अश्व-अन्न (रावत-घोड़े का दाना) से संबंधित हाटें (बाजार) थी।51 इसी तरह ललितपुर जिले का सुकाड़ी (महरौनी) ग्राम ‘शुक अरण्य’ से संबंधित हो सकता है।
4 - सांस्कृतिक आधार -
ललितपुर जनपद सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध एवं प्रभावकारी है। यहां की लोककलाएं, गीत-संगीत और नृत्य विशिष्ट है। ललितपुर जनपद का राई नृत्य विश्व में विरल है। सांस्कृतिक दृष्टि से भी यहां के स्थान-नामों में सुरुचि-संपन्नता प्राप्त होती है।
डॉ कैलाश चंद्र भाटिया के अनुसार ‘भाषा सामाजिक उपादान है, अतएव स्थल-नामविज्ञान का सीधा संबंध समाज शास्त्र से है। विजय की स्थिति में सांस्कृतिक शब्द स्थिर रहते हैं, मुख्यतः स्थान-नाम, जैसे अमेरिकी स्थान-नाम विस्कोन्सिन, मिशीगन, शिकागो आदि। विजेता परंपरा-प्रचलित स्थान-नामों को बदलता चलता है, जैसे भारत वर्ष में स्थान-स्थान पर अवस्थित सिकंदराबाद, औरंगाबाद आदि। उŸारी हालैंड में स्कैंडनैवी स्थान-नामों की भरमार है।52 यहां एक बात और ध्यातव्य है कि विजेता शासक मात्र नगरों अथवा शासित स्थान का अपने नाम पर नामकरण करता है। छोटे-छोटे ग्राम या स्थान उसकी सांस्कृतिक विजय यात्रा से अछूते रहते हैं। अतएव ऐसे स्थान-नामों के अध्ययन से संस्कृति की प्राचीनता को अविकल एवं अविच्छिन्न रूप में समझा जा सकता है। साथ ही आक्रमणकारियों के प्रभाव को उनके द्वारा छोडे़ गए सांस्कृतिक अवशेषों के आधार पर चिन्हित किया जा सकता है। इस प्रकार स्थान-नामों मंे संस्कृति का अत्यंत प्रामाणिक क्रम सुरक्षित रहता है।
डा0 वासुदेव शरण अग्रवाल की मान्यता है कि स्थान-नामों में प्रत्यय, शब्दों का अर्थ सुलझाने के लिए उपयोगी होते हैं। पाणिनि ने अपने समय की भाषा के लिए यह काम बड़ी बारीकी से किया। उनसे पूर्व और उनके पश्चात् व्यक्ति-नाम और स्थान-नामों के पारस्परिक संबंध का इतना ब्यौरेवार अध्ययन नहीं हुआ।53 डॉ कैलाश चंद्र भाटिया ने भी कहा है ‘स्थान-नामों के अधिकांश रचनात्मक तत्व- पूर्वपद और परपद- भौगोलिक तत्वों से ही संबद्व होते हैं।54 ललितपुर जनपद के स्थान-नामों में हुइ सांस्कृतिक अभिव्यक्ति इस प्रकार है -
(क) सद्गुणों से संबंधित
सतगता (ललितपुर) - सद्गति
उŸामधाना (ललितपुर)
कल्यानपुरा (ललितपुर तथा तालबेहट)
(ख) लोकनृत्य से संबंधित -
नाचनी (ललितपुर)
नट राई (तालबेेहट) राई नृत्य
(ग) विषेश प्रथा से संबंधित -
तेरई (तालबेहट) - तेरहवीं
(घ) ऋशियों, महापुरुशों से संबंधित -
नड़ारी (महरौनी)55
कुसमाड़ (महरौनी) - कूष्मांड एक मंत्रकार ऋषि56
भौंड़ी (महरौनी) - भृगु
कुंवरपुरा (तालबेहट) - हरदौल
छत्रसालपुरा (ललितपुर) - छत्रसाल
(ड.) गुरूकुल से संबंधित -
गुरसौरा (ललितपुर) - गुरु की सराय
गुरयाना (महरौनी) - गुरु स्थान
(च) संगीत से संबंधित -
टोड़ी (तालबेहट)57
(छ) त्योहारों से संबंधित -
गनगौरा (ललितपुर)
5- धार्मिक आधार -
ललितपुर जनपद का जनजीवन धर्म से अनुप्राणित है। आमजन अपने जीवन की असफलता का त्राण ईश्वर और धर्म में पाता है। कदाचित् उसे संतोष करने के लिए इससे बढ़कर कोई भरोसा भी नहीं है। ललितपुर नगर के मध्य में तुवन मंदिर है, जहां अंग्रेजों की तोपें रखीं जाती थी। इसीलिये यह ‘तोपन-टीला’ हुआ और भाषाई विकास क्रम में तुवन हो गया। विभिन्न धर्मो पर आधारित ललितपुर जनपद के स्थान-नाम इस प्रकार हैं -
(क) इस्लाम धर्म पर आधारित -
अजान (महरौनी)
(ख) बौद्ध धर्म पर आधारित -
बुधेड़ी (तालबेहट)
बुदनी (महरौनी)
(ग) हिंदू धर्म पर आधारित -
गणेश - बिनेकाटोरन (ललितपुर)
राम - रघुनाथपुरा (ललितपुर)
भवानी - भावनी (तालबेहट)
शिव - महेशपुरा, शिवपुरा (ललितपुर)
लक्ष्मण - लखनपुरा (ललितपुर)
मातृदेवी - मावलैन (तालबेहट) - सप्तमातृकाएं
  दूधई (ललितपुर) - दूदा की माता
  भदौरा (महरौनी) - भादवा माता
  बरेजा (महरौनी) - पान माता
  भैंसाई (ललितपुर) - भैंसासरी माता
  माताटीला (तालबेहट)
  रिछा (ललितपुर) - रिछाई माता
  गनगौरा (ललितपुर) - गनगौर माता
  बिहामहावत (ललितपुर) - बैमाता
  असउपुरा (तालबेहट) - आसावरी माता
  भंवरकली (तालबेहट) - भंवर माता
  खोंखरा (ललितपुर)- खों-खों (खांसी)माता
  ऊमरी (महरौनी) - ऊमर की माता
ज्योतिर्लिंग - बैजनाथ (महरौनी)
देवता - सुरउवा (ललितपुर)
लक्ष्मी - लक्ष्मीपुरा - ललितपुर
देवताओं का निवास - देवगढ़ (ललितपुर)
स्थान देवता- थनवारा (ललितपुर)
ब्रह्या और विष्णु - बम्हौरी (तीनों तहसीलों में)
राधा - राधापुर (तालबेहट)
देव - देवरान (तालबेहट)
कृष्ण - किसलवांस (ललितपुर)
(घ) जैन धर्म पर आधारित -
महावीरपुरा (ललितपुर)
बनयाना (ललितपुर)
(ड़) सिख धर्म पर आधारित -
सैपुरा खालसा (ललितपुर)
6- प्राकृतिक आधार -
किसी स्थान के नामकरण में भूगोल का पग-पग पर सहारा लिया जाता है। ‘महावन’ नाम घोषित करता है कि वहां कभी सघन वन रहा होगा। देहरादून का ‘कासरौं’ नाम से पता चला कि ‘कांस’ नामक घास का सघन वन वहां होता था। ‘गोल्डकोस्ट’ स्वर्णभूमि की ओर संकेत करता है। शिवालिक पर्वत शृंखला की घाटी (द्रोण-दून) में स्थित होने के कारण देहरादून का विकास हुआ।58
स्थान-नामों की सहायता से किए गए अध्ययन द्वारा भौगोलिक सीमा विस्तार का परिचय उपलब्ध होता है।59 प्राकृतिक घात-प्रतिघातों से भूमि दशा परिवर्तित होती रही। इन परिवर्तनों को कुछ अंशों में स्थान-नाम सुरक्षित किए हुए हैं। प्रकृति के विविध रूपों - पर्वतों, वनों, नदियों - और नगरों के अवशेषों को क्रमानुसार विवेचित करने में स्थान-नाम सहायक हैं।
मनुष्य प्रकृति पर आदि काल से ही अवलंबित है। उसके सौंदर्य को देखकर मनुष्य आह्लादित होता है। पठार, पहाड़ियां, टीले-टौरियां, पशु-पक्षी, फूल-फलों की विविधता इस जनपद में मौजूद है, जो मनुष्य को स्वाभाविक रूप से आकर्षित करती है। प्रकृति के कुछ प्रमुख रूप इस जनपद में इस प्रकार हैं-
(क) वृक्ष -
अकोसा, अचार, अजान, अमलतास, अमोला, अमारा, अरजुन, अर्रू, असना, सेजा, आम, आंवला, एरवां, इमली, कांकर, कठबेर, कंजी, करघई, कसई, काला, सिरस, सलई, कैंथ, खरहरा, खैर, गुलमोहर, गूलर, चिलबिल, जामुन, तेंदू, तुन, धुआर, याज या धुर्रा, नीम, पलाश या ढाक, पिचार या चिंरौंजी, पीपल, बबूल, बरगद, महुआ, बहेड़ा, यूकेलिप्टस, शीशम, सागौन, सेंडलवुड, हल्दू।60
(ख) जंगली जानवर -
बंदर, लंगूर, शेर, गुलदार या बघेरा, जंगली बिल्ली, भालू, लकड़बग्घा, गीदड़ या सियार, जंगली कुत्ता, भेड़िया, लोमड़ी, चिकारा, कस्तूरी, चौसिंघा, नीलगाय, मृग या काला हिरन, चीतले, सांभर, जंगली सुअर, गिलहरी, साही और खरगोश।61
(ग) पालतू जानवर -
गाय, भैंस, बैल, बकरा-बकरी, भेड़, घोड़ा-घोड़ी, पड़ा (भैंसा), कुत्ता, बिल्ली प्रमुख हैं।
(घ) रेंगने वाले जंतु -
कछुआ, गोह, अजगर, धामन, नाग, करैत, रसेल, वाइपर प्रमुख हैं।
(ड.) मछलियां -
मछलियों के बहुत से प्रकार यहां पाए जाते हैं - करोंच, चेलवा, टेंगरा, दरियाई टेंगर, नैन, वाम, महासीर, मोह, मंगूर, रोहू, सिंधी, सिंधरी, सिलोंद, सौर इत्यादि।62
(च) औशधीय पादप -
अनेक औषधीय पादप यहां की टौरियों और जंगलों में पाए जाते हैं -
ब्राह्मी, शंकाहुली, छौंकर, अपामार्ग (अद्दाझारौ), रतनजोत (जैट्रोफा), सफेद मूसली, अश्व गंधा इत्यादि।
प्रकृति के उपर्युक्त रूपों तथा अन्य प्राकृतिक उपादानों पर आधारित ललितपुर जिले के स्थान-नाम इस प्रकार हैं -
(क) फल-फूलों से संबंधित -
बेर  - बिरारी (ललितपुर), विरौरा (ललितपुर)
महुआ का फल - गुलेंदा (तालबेहट)
सिंघाड़ा - सिंगरवारा (महरौनी)
नीमफल - निवारी (महरौनी)
खजूर - खजुरिया (ललितपुर)
(ख) पेड़-पौधों से संबंधित -
आम - अमउखेड़ा (ललितपुर)
  अमौरा (महरौनी)
  अमौदा (महरौनी)
इमली - इमलिया (महरौनी)
बरगद - बरतला (महरौनी)
  बारौद (ललितपुर)
  बरखेरा (ललितपुर)
  बरौदा स्वामी (ललितपुर)
  बर खिरिया (ललितपुर)
  बरोदी नकीव (ललितपुर)
  बटवाहा (तालबेहट)
  बरौदिया (महरौनी)
खैर (खदिर) - खैराई (महरौनी)
  खैरी (महरौनी)
  खैरपुरा (महरौनी)
  खैरा (तालबेहट)
  खैरी डांग (तालबेहट)
  खैरा डांग (तालबेहट)
कैथ (कपित्थ) - कैथोरा (ललितपुर)
गूलर (ऊमर) - ऊमरी (महरौनी)
चिरौल - चिरौला (महरौनी)
नीम - नीम गांव (महरौनी)
सेमल - सेमरा .. (महरौनी)
  सेमर खेड़ा (महरौनी)
  सेमरा भाग नगर (महरौनी)
  सेमरा (ललितपुर)
अनार - अनौरा (ललितपुर)
महुआ - महुआ खेड़ा (महरौनी)
महोली - महोली (ललितपुर)63
तेंदू - तिंदरा (तालबेहट)
जामुन - जामुनधाना कलां एवं खुर्द (ललितपुर)
  जमुनिया कलां एवं खुर्द (महरौनी)
गुरार या सिर्स - सिरसी खेड़ा (ललितपुर)
नीबू - बिजौरी (ललितपुर)
पीपल - पिपरिया (महरौनी)
  पिपरट (महरौनी)
  पिपरई (ललितपुर)
  पिपरौनिया (ललितपुर)
  पिपरिया (ललितपुर)
अंडी - अंडेला (ललितपुर)
कंद - कंधारी कलां (तालबेहट)
दर्भ - दावनी (ललितपुर)
पान - बरेजा (महरौनी)
तिल - तिलहरी (ललितपुर)
करौंदा - करौंदा (महरौनी)
ककड़ी - ककड़ारी (महरौनी तथा तालबेहट)
कुम्हड़ा - कुम्हैड़ी (महरौनी)
कपास - कपासी (ललितपुर)
मिर्च - मिर्चवारा (ललितपुर तथा महरौनी)
बाजरा - बजर्रा (ललितपुर)
बल्लरी - बलरगुवां (तालबेहट)
गूगल - गूगर (तालबेहट)
  गुगरवारा (महरौनी)
शंकाहुली - सांकली (ललितपुर)
अजान - अजान (ललितपुर)
जड़ - जरुवा (महरौनी)
सेवन - सिवनी कलां (ललितपुर)
(सी) वनी (सीमा पर स्थित) से भी विकसित हो सकता है।64
(ग) जल स्त्रोतों से संबंधित -
तालगांव (ललितपुर)
तलैयापुरा (ललितपुर)
कुआंतला (ललितपुर)
तालाबपुरा (ललितपुर)
बरतला (महरौनी)
तलऊ (महरौनी)
दारुतला (महरौनी)
झरर (तालबेहट)
झिलगुवां (ललितपुर)
तालबेहट (तालबेहट)
धौरी सागर (महरौनी)
कुआगांव (महरौनी)
बम्हौरी सर (तालबेहट)
गंगासागर (महरौनी)
कुआ घोसी (महरौनी)
(घ) पषु-पक्षियों से संबंधित -
भैंसर्रा (महरौनी) भैंस
रीछपुरा (ललितपुर) रीछ
गदयाना (तालबेहट) गधा
सेरवास कलां (तालबेहट) शेर का निवास
मादोन (ललितपुर) शेर का घर
बंदरेला (तालबेहट) बंदर
चितरा (ललितपुर) चीतल
सूडर (ललितपुर) सुअर
बघौरा (तालबेहट) बाघ
रिछा (ललितपुर) रीछ
तिंदरा (तालबेहट) तेंदुआ
बिलाटा (महरौनी) नर बिल्ली
बिल्ला (महरौनी) नर बिल्ली
चकोरा (महरौनी) चकोर
सुकाड़ी (महरौनी) तोता
गिदवाहा (महरौनी) गिद्ध
हंसरा (महरौनी) हंस
सारसेंड़ (तालबेहट) सारस
टेटा (तालबेहट) टेंटा65
कलरव (ललितपुर) पक्षियों का शोरगुल
घुवरा (तालबेहट) उल्लू
कोकटा (ललितपुर) चकवा
(ड.) जीव-जंतुओं से संबंधित -
धमना (तालबेहट) सर्प विशेष
मकरीपुर (महरौनी) मकड़ी
मगरपुर (महरौनी) मगरमच्छ
मछरका (महरौनी) मच्छर
मिदरवाहा (महरौनी) मेंढक
नगवांस (तालबेहट) नाग
भौंरसिल (ललितपुर) भ्रमर
गेवरा गुंदेरा (तालबेहट) विषखोपड़ा
(च) उपग्रह संबंधी -
इस श्रेणी में चंद्रमा से संबंधित छः स्थान-नाम जिले की तीनों तहसीलों में प्राप्त हुए हैं।
(छ) वन संबंधी -
झांकर (महरौनी) झाड़ - झंखाड़
झरावटा (महरौनी) झुरमुट
झरकौन (ललितपुर)
वनगुवां (महरौनी तथा तालबेहट)
इस श्रेणी में डांग (जंगल) विभेदक पांच स्थान-नाम जिले की तालबेहट तहसील में मिलते हैं।
(ज) अन्न संबंधी -
मसौरा खुर्द तथा कलां (ललितपुर) - मसूर
इस प्रकार स्थान-नामों के अर्थतात्विक अध्ययन से हमें तत्संबंधी इतिहास, समाज, संस्कृति, भूगोल, भाषा, अर्थ और राजनीति का परिज्ञान प्राप्त होता है।