Tuesday, October 27, 2015

मां बोली कौ पड़बो लिखबो

मां बोली कौ पड़बो लिखबो

डॉ राकेश नारायण द्विवेदी  

भाषाएं कैउ तरा की हैं, इनमें कैउ तो लुप्तइ हो गइं। मातृृभाषा उए कइ जात है, जीमें कोनउ व्यक्ति जनम लेकें अपने मात-पिता उर आसपास के लोगन सें स्वाभाविक रूप में सीककें ब्योहार करत है। भाषा उर बोली में अंतर होत है। हम कैउ बेर बोली उर भाषा में कछू अंतर नइं समजत। बोली एक सीमित छेत्र में बोली जात, ईकौ ब्याकरण होबौ अनिवार्य नइं होत, साहित्य भी होबौ सीमितइ होत, जबकि भाषा कौ छेत्र ब्यापक होत, ई कौ ब्याकरण होत उर कौनउं भाषा में कछु-न-कछू साहित्य रचो जात है। अकसर कौनउं बोलियइ भाषा बनत है। कभउं-कभउं तो ऐसौ सोउ भव कै कौनउं भाषा बोली बन गई, जैसें ब्रजभाषा एक बोली बन गई, जबकि एक समय ई बोली में रचे गए साहित्य उर छेत्र की ब्यापकता के कारण इए भाषा कओ जान लगो। बोली सें भाषा बनबे कौ उदाहरण खड़ी बोली है, जा बोली मेरठ के आसपास बोली जात रइ, लेकिन ईके परिनिष्ठित रूप खों आज हिंदी कओ जात है।  भाषा के आधार पर हमाई मातृभाषा जेई हिंदी आए, लेकिन ई हिंदी के कैउ बोली रूप हैं। पश्चिमी हिंदी, पूर्वी हिंदी, पहाड़ी हिंदी, बिहारी हिंदी उर राजस्थानी हिंदी। पश्चिमी हिंदी की पाच बोलियां हैं- खड़ी बोली, ब्रज, बुंदेली, कन्नौजी उर बांगरू या हरियाणवी। अवधी, बघेली उर छत्तीसगड़ी पूर्वी हिंदी की बोलियां आएं। बिहारी हिंदी की तीन बोलियां- मैथिली, मगही उर भोजपुरी हैं। कुमाउंनी उर गड़वाली जे दो पहाड़ी हिंदी हैं तो राजस्थानी हिंदी के अंतर्गत मेवाती, मारवाड़ी उर जयपुरी या ढूंढ़ाणी आउत हैं। इन सब बोलियन कं उनके नामन के अनुरूप अलग-अलग छेत्र. हैं। हिंदी की जे बोलियां शौरसेनी अपभ्रंश, मागधी अपभ्रंश और अर्धमागधी अपभ्रंश से विकसित भइ्र। हिंदी भाषा कौ विकास बैदिक संस्कृत, लौकिक संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश उर पुरानी हिंदी के माध्यम सें होत आऔ है।  कौनउं भाषा कौ अनगड़ रूप ऊके समाज में प्रचलित होत है। भाषा खों समाजइ अरजित करत। लोगन के जीवन-संघर्ष उर ऊके घात-प्रतिघातन सें भाषा उर ऊके शब्दन के रूप बदलत हैं। भाषाशास्त्री कौनउं भाषा कौ ब्याकरण बनाउत, जैसें पाणिनी ने लौकिक संस्कृत कौ ब्याकरण बनाऔ। हिंदी के भाषा विज्ञानी भी कैउ विद्वान भए हैं जैसें भोलानाथ तिवारी, हरदेव बाहरी, उदयनारायण तिवारी आदि। कामताप्रसाद गुरू न हिंदी कौ ब्याकरण लिखो उर कैउ और विद्वानन नें जेउ काम करो। कौनउं भाषा कौ उत्थान उर प्रचार-प्रसार ऊ भाषा में रचे गए साहित्य सें होत। जा आधार पै कओ जा सकत है कै हिंदी साहित्य में आजकाल खूबइ लिखो पडो जा रओ। हिंदी भाषा अपनी सामासिक संस्कृति के लाने जानी जात, जीमें कैउ संस्कृतियन के रचाव-बसाव खों धारण करबे की छमता है। जा छमता हिंदी दिखात भी जा रई। जब कोउ बंगाली, तमिल, मराठी, अंग्रेजी या अन्य भाषा को आदमी टूटी-फूटी हिंदी में अपनी अभिब्यक्ति करत है तो हिंदी बारो उए स्वीकार कर लेत। उर्दू कौ नुक्ता छोड़ दओ जाए तो उए सोउ हिंदी वारे खूब अपनाउत। जेइ नइं अंग्रेजी भाषा के लाने हिंदी वारे घृणा सें नइं बल्कि ब्यापारिक भाषा के रूप में देखत हैं के जासें दुनिया भर में हिंदी उर हिंदवासी अपनो बजार-ब्यापार कर सकबे में सकछम होबें। हिंदी के बड़े बोलउवा-लिखउवा वर्ग खों देख कें कैउ समाचार-चैनल अंगरेजी सें हिंदी में या अंगरेजी के अलावा हिंदी में आबे पै मजबूर भए। हिंदी कौ बजार भौतइ बड़ौ है, ई में जासें भौत संभावना हैं। बास्तव में हिंदी कौ झगड़ा भारत की भाषन से नोइं है। जौ झगड़ा अंगरेजी सें जाके लाने है कै रोजगार उर सरकार के कामकाज की भाषा अंगरेजी बन गइ उर हिंदी दोयम दरजे की भाषा बना दइ गइ। जबकि संविधान के अनुच्छेद 343 (1) में लिखो कै संघ की राजभाषा हिंदी उर, लिपि देवनागरी हुए और अंकन कौ सरूप अंतरराष्ट्रीय हुए। बास्तविकता जा है कै सरकार कौ सब कामकाज अंगरेजी में चलत, चिट्ठी-पतरी सें लैकें सबरे काम। जेइ नइं अपने देस में अंगरेजी मानसिकता के लोग सोउ हैं जो अंगरेजी नइं जानबे वारन खों उपेकछा से निहारत। जा मानसिकता कौ बिरोध हम सबं डट कें करत हैं। लेकिन संगै-संगै हम सब अंगरेजी भाषा खों भी जानत जा रए। कौनउं समजदार आदमी खों कौनउं भाषा सें ईर्षा नइं होत काए सें के आखि़र ज्ञान-विज्ञान की खिड़की भाषइ के माध्यम सें खुलत। हमें जब दुनिया के ज्ञान-विज्ञान खों अपने लोगन तक पौंचाने है तौ ऊ भाषा खों तौ जाननइ परै। जा सोउ सई बात है कै हिंदी में साहित्य तौ खूब रचो जा रओ, लेकिन ज्ञान-विज्ञान अबै भी ंिहंदी में पर्याप्त मात्रा में नइं मिल पाउत या जो मिलत है तो बौ अदूरौ-अदकचरौ है। भौतिकी, रसायन, जीव-जंतु-बनस्पति, राजनीति, भूगोल, समाज, शिक्षा, बाणिज्य, कृषि, अर्थ जैसे कैउ विज्ञान, बाणिज्य उर मानविकी के विषयन पै हिंदी में अच्छी किताबन कौ अभाव है।  जा तौ भई मातृभाषा की बात। मां बोली बा है जीमें कौनउं आदमी कौ जनम भओ उर ऊनें ऊखों जनमइ सें सीको-बरतो। जा बोली और कौनउं नइं अपनी नौनी उर बांकी बुदेलइ है। ऊपर इत्ती बातें जी बोली में भइं, उनें जनवा पड़कें तुरतइ समज लेए के जा बंुंदेली बोली है। जनम लैकें बचपन सें जेइ बोली में अपन बड़े भए उर इलाबाद व आगरा विश्वविद्यालय में उच्च शिक्छा हासिल करबे उर दिल्ली की नौकरी के बारा साल छोड़ कें देखबें तौ अबै तक जेई बोली छेत्र में अपनो समय बीतत जा रओ। जा बात की हमें खुशी है। बोलबे-सुनबे के स्तर पे तो बुंदेली के सबइ लोग जा बोली जानत हैं, सो हम भी जानत रए लेकिन परवार के परवेश उर संस्कारन के कारण बचपनइ सें जा बोली कौ लिखबौ-पड़बौ हम अपने पूज्य पिताजी श्री बाबूलाल द्विवेदी के माध्यम सें जानत रए। दाऊ संस्कृत, हिंदी के संगै-संगै बुंदेलियउ में लिखत-पड़त रए। उनकी बुदेली काव्य रचना ‘भइया अपने गांव में’ 2011 में प्रकाशित भइ तौ 2014 में बुंदेली में गीत गोबिंद कौ अनुबाद ई बुक के रूप में प्रकाशित हो गव। बे अबै भी साहित्य साधना में संलीन हैं। हालांकि हमने खुद अगर अपनी उच्च शिक्छा बुंदेलखंड में हासिल करी होती तौ जा स्तर पै बुंदेली पड़बे-जानबे खों मिलती लेकिन जब हमें जेइ आंचल में बुंदेली पड़ाबे कौ अवसर मिलो तौ हम अपने ज्ञान, इच्छा उर किरिया की एकात्मकता खों सारथक करबे के लाने प्रयासरत हैं।  बुंदेली बोली जित्ती बोलबे-सुनबे में नौनी-नीकी लगत, उत्ती आसानी लिपि के स्तर पै ऊके लिखबे-पड़बे पै नइं हो पाउत। स्वाभाविक है कै जो जी भाषा में लिखबे-पड़बे के आदी रए, बौ ओई में गति बना पाउत। बुंदेली के ब्याकरण की एकरूपता न होबे सें और मुश्किल होत कै कौन शब्द खों कैसें लिखबें। जौ लेख लिखबे में ई के लाने हमने जौ सुगम रस्ता अपनाओ कै जी बोली रूप में हम बोलत-सीकत रए, ओइए अपनाओ जाबै। हम देख रए कै बुंदेली कौ रूप जालौन छेत्र में अलग है, तौ राठ में अलग। जेई बुंदेली कौ रूप झांसी, टीकमगड़, छतरपुर ललितपुर में बदल जात तौ आंगें सागर, दमोह तरफ और तरा सें हो जात। कई भी जात है-  कोस-कोस पै बदले पानी पांच कोस पै बानी।  बुंदेली लिखबे के लाने हमेें कैउ बेर बरतनी सुदार कनने परो तोउ जा नइं कइ जा सकत कै जौ बिलकुलइ बुंदेली रूप है। बुंदेली लिखबे के लाने हिंदी ओइ तरा संें सहायक है जैसें हिंदी लिखबे के लाने संस्कृत मदद करत है।  बुंदेली में कबिताएं खूब रची गइं उर रचियउ जा रइं। भौत अच्छे-अच्छे बुंदेली कबि अपने इतै भए हैं, जिनमें कैउ विद्वान अबै तक लिखत जा रए; इनमें जगनिक, ईसुरी, गंगाधर व्यास, ख्यालीराम, संतोष बुंदेला, दुर्गेश दीक्षित, रतिभान तिवारी ‘कंज’, अवध किशोर श्रीवास्तव ‘अवधेश’, शिवानंद मिश्र ‘बुंदेला’ आदि हैं। इनकी रचनान में बुंदेली मानस की राष्ट्रीय सोच उर संवेदना चित्रित भई है। अवधेशजी बुंदेली में रचना करने वाले साहित्यकार खों धनराशि देकर सम्मानित करत हैं। ‘भइया अपने गांव में’ खों भी जौ पुरस्कार मिल चुको है। कौनउं भाषा-बोली कौ प्रारंभिक ब्यक्त रूप प्रायः कबितइ होत है उर जौ सोउ देखो जात के कौनउं लिखबे बारो सुरू में कबितइ में लिखत। बास्तव में कौनउं भाषा कौ माधुर्य तौ ऊके बोलबे-सुनबे में मिलत है उर जा तरा सें बोलबे कौ माधुर्य लिखबे में नइं उतर सकत है। काए सें कै श्रवणंेद्रिय सें पैलें बात हिए में उतरत जेइ सें संगीत कौ प्रभाव जनमानस पै बड़ौ जल्दी पड़त है। बुंदेली के ईसुरी तौ प्रसिद्ध गायक हते, जिनकी फागें बुंदेलखंड कौ आम आदमी गा-गाकें आज गांव-गलियन उर घरन-घरन अपनों दुख-दर्द दूर करत उर अपनी उमंगन कौ इजहार करत हैं।  संस्कृत विद्वानन ने कई है ‘‘गद्यं कवीनाम् निकषं वदंति’’ ई कौ बिस्तार करकें आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कई कै ‘‘गद्य यदि कवियों की कसौटी है तो निबंध गद्य की कसौटी’’ याने गद्य लिखबौ चुनौतीपूर्ण है। हमनें कभउं सोचियइ न हती कै अपनी मां बोली में लिखबे कौ हमें अवसर मिलै, लेकिन बुंदेली की सब तरा की बिधान खौं आंगें बड़ाबे के लाने अपने छेत्र में अच्छी-अच्छी सरकारी उर गैर सरकारी संस्थन के काम चल रए, बुंदेली दरसन, बुंदेली बसंत उर अथाई की बातें जैसी बुंदेली की निकल रईं नियमित पत्रिकाएं ई भाषा उर साहित्य के उत्थान में अपनी कोर कसर नइं छोड़ रइं। इनके संपादक अपनी निष्काम कर्मठता उर समर्पण भाव रखकें बुंदेली लिखबे-पड़बे की छमता रखबे वारन सें या बुंदेलखंड प्रेमियन सें कछू-न-कछू लिखवाइ लेत हैं। लिखबे वारे वैसें चाए आलस करते रैएं, पै जब इनके आग्रह-निर्देश प्राप्त होत तो लिखबे बिना रओ नइं जात उर फिर अपनी बोल कौ करजा सोउ उतारबो चाही। सो हमाओ तौ जेउ निवेदन रैए कै हमाए सब बुंदेली भइया-बैनें जितै जो काम कर रए, ऊके संगै-संगै अपनी भावना उर अपने काम के अनुभव भी अपनी बोली-बानी में ब्यक्त करबें, जीसें बुंदेली भाषा उर साहित्य कौ भंडार तौ बड़ैइ, कामकाज के छेत्र उर उनकी समस्या-उपयोगिता दूसरे लोगन खों प्राप्त होत रैए।  बुंदेली भाषा में जादा संें जादा लिखबे-पड़बे से भाषा केवल सुरक्छितइ नइं रैए, बलकि ईकी ख्याति भी जा सें बड़ैए। काए सें कै जैसी गुरूदेव टैगोर ने कइ कै मां की बोली उर मां कौ दूद समान होत है, सो जैसो करजा आदमी पै मात-पिता कौ, मातृभूम कौ, गुरु कौ उर परवेश कौ होत वैसउ करजा मां के दूद कौ सोउ होत। भइया बैन हरन खों ई करजा खों भी अवश्य उतारो चइए। जा के अलावा, पड़े लिखे लोग केवल अपनइ उदर भरण में लगे रैएं तो उदर भरबें खों मोहताज रैबे वारे भइया लोगन की सुद को लैएं। उनकी का समस्याएं हैं, उने कैसें निबटाओ जाए चइए, इनके लाने अपन कौनउं अंसन में सहयोगी बनैं, जौ दायित्व अपनौ नइयां का?         -शब्दार्णव, नया पटेल नगर, कोंच रोड, उरई(जालौन) मोबाइल 9236114604 ईमेल rakeshndwivedi@gmail.com

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