Tuesday, October 27, 2015

स्थान नामकरण

स्थान नामकरण
हमारे देश में स्थान-नामों की रूप-रचना स्वाभाविक रूप से अनेक विविधताओं को धारण करती है। उत्तर प्रदेश का ललितपुर जनपद भी इसका अपवाद नहीं है। विभिन्न समाजों और उनके रहन-सहन की विविधता को हम शब्द या पद की रचना-प्रक्रिया देखकर समझ सकते हैं। स्थान-नाम व्यक्ति वाचक संज्ञाएं हैं, जो उस स्थान का सामान्यतः बोध कराती हैं, किंतु स्थान-नामों से उस स्थान का बोध भर नहीं होता, अपितु तत्संबंधी इतिहास और संस्कृति का दिग्दर्शन भी उसके माध्यम से हो जाता है। इसी कारण स्थान-नाम व्यक्ति नामों से भिन्न हैं, क्योंकि व्यक्ति-नामों में मात्र उस व्यक्ति के अस्तित्व का बोध होता है, जिस व्यक्ति का वह अभिधान है। यह बोध भी नाम के शाब्दिक अर्थ में नहीं, बल्कि उसकी अनन्य परिचिति अर्थात पहचान के रूप में ही होता है। गोस्वामी तुलसीदास ने ईश-नाम-महिमा में रूप को नाम के अधीन कहा है। हथेली पर भी रखा रूप बिना नाम के नहीं पहचाना जा सकता है -
देखिअहिं रूप नाम आधीना। रूप ज्ञान नहिं नाम बिहीना।
रूप बिसेस नाम बिन जाने। करतलगत न परहिं पहचाने।।1
व्यक्ति-नामों के अर्थगत विरोधाभास को हास्यकवि काका ‘हाथरसी’ ने कई उदाहरणों से पद्यबद्ध किया है -
नाम रूप के भेद पर कभी किया है गौर
नाम मिला कुछ और तो शक्ल अक्ल कुछ और।
शक्ल अक्ल कुछ और नैनसुख देखे काने
बाबू सुंदरलाल बने हैं ऐंचकताने।
कहं काकाकवि दयाराम जी मारें मच्छर
विद्याधर को भैंस बराबर काला अक्षर।
मंुशी चंदालाल का तारकोल सा रूप
श्यामलाल का रंग है जैसे खिलती धूप।
जैसे खिलती धूप सजे बुशशर्ट पेंट में
ज्ञानचन्द्र छः बार फेल हो गये टेंथ में।
सेठ अशर्फीलाल के घर में टूटी खाट
सेठ छदामीलाल के मील चल रहे आठ।
मील चल रहे आठ मिटे न करम के लेखे
धनीराम  जी प्रायः हमने निर्धन देखे।
कहं काकाकवि दूल्हेराम मर गए कुंवारे
बिन प्रीतम तड़पें हमारे प्रीतम सिंह बिचारे।2
किंतु व्यक्ति नामों से स्थान-नामों की प्रकृति भिन्न है। व्यक्ति-नाम व्यक्ति के निधन के साथ समाप्त हो जाते हैं, स्थान-नाम ऐसे समाप्त नहीं होते। स्थान-नामों के नामकरण में पूरे निवसित समूह की भागीदारी रहती है और उसमंे संबंधित क्षेत्र की धार्मिक, नैतिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, ऐतिहासिक, भौगोलिक, दार्शनिक, जैविक परिस्थितियों और प्रवृŸिायों का द्योतन होता है। इसीलिये ‘प्रत्येक नाम अपनी सामाजिक संस्कृति का मूक आख्यान होता है।’3 विश्व इतिहास बताता है कि कई सभ्यताएं काल के महोदर में समाहित हो गयीं, परन्तु उन प्राचीन समुदायों की भाषाएं आज भी स्थान-नामों में किसी न किसी रूप में सुरक्षित हैं।4
स्थान-नामों की रूप रचना में पदों, अर्थों और ध्वनियों का योगदान होता है। स्थान-नाम देश-काल के अनुसार परिवर्तित होते हुए भाषा के अत्यंत संवेदनशील शब्द हैं। ‘नाम’ और ‘शब्द’ भिन्न-भिन्न संज्ञाएं हैं। ‘नाम’ संकेतार्थक होते हैं तो ‘शब्द’ अपने गुणों को धारण किए रहते हैं। ‘नाम’ के अर्थ को हम ‘नामवैज्ञानिक’ तथा ‘शब्द’ के अर्थ को ‘शाब्दिक’ कह सकते हैं। ‘नाम’ का स्थानांतरण किसी अन्य भाषा में यथावत् (स्वनिमों के कारण उच्चारणगत भिन्नता लिए हुए) होता है तो ‘शब्द’ का स्थानांतरण किसी दूसरी भाषा में अनुवाद द्वारा किया जाता है।
स्थान-नामों को रूप-रचना के आधार पर प्रमुखतः तीन वर्गो में विभक्त किया जा सकता है - (1) एकपदीय स्थान-नाम
(2) द्विपदीय स्थान-नाम तथा
(3) बहुपदीय स्थान-नाम।
ललितपुर जनपद में एकपदीय स्थान-नाम 274 तथा द्विपदीय स्थान-नाम 404 हैं। यहां बहुपदीय स्थान-नामों की संख्या 66 ही है।
ललितपुर जिले के स्थान-नामों में प्रयुक्त शाब्दिक संरचना को सर्वप्रथम उद्घाटित करना आवश्यक है। शब्द में ध्वनि और अर्थ का संबंध सन्निहित होता है। शब्द का मूल तत्व अर्थ को स्पष्ट करता है और परिवर्तित होने के बाद भी अपनी सŸाा को स्थित रखता है। प्रयत्नलाघव तथा अन्य कारणों से शब्दों में प्रत्ययों का योग हो जाता है। किसी शब्द के मूल तत्व के साथ कई प्रत्यय जुड़ते-बदलते रहते हैं। स्थान-नामों के साथ भी यह देखा गया है -
महिष (भैंस) - मूलतत्व
ग्राम- भैंसाई (ललितपुर) - यौगिक शब्द, आई प्रत्यय युक्त
नामों की व्यापकता ने नाम अध्ययन को इतना बहुआयामी बना दिया है कि उसका एकांतिक अध्ययन संभव नहीं है (या त्रुटिपूर्ण है)। व्याकरण की दृष्टि से भाषागत शब्दों का स्थाननामिक अर्थ सुलझाने के लिए उपसर्ग, प्रत्यय तथा विभेदक शब्दों का अध्ययन आवश्यक होता है, किंतु इस अध्ययन को अधिक त्रुटि रहित करने के लिए भूगोल, इतिहास, राजनीति, नृतत्वशास्त्र इत्यादि विषयों का सहारा लेना पड़ता है।
ललितपुर जनपद के स्थान-नामों को अतिभाषिक क्षेत्र में जाकर देखते हैं तो पता लगता है कि यहां के स्थान-नाम मातृदेवियों के आधार पर अधिक रखे गए हैं।
लोकमाताओं पर आधारित स्थान नाम- ललितपुर जनपद के बहुत से स्थान आदिवासियों  द्वारा बसाए गए थे। इनके नाम लोकमाताओं के नाम पर रखे गए। प्रथम अध्याय में ललितपुर जनपद के परिचय से हमने जाना कि यह क्षेत्र कभी गोंड़ तथा सहरिया आदिवासियों के अधीन रहा है। आदिवासियों का अपने जीवन-संघर्ष में जिन बीमारियों से सामना हुआ, उन बीमारियों को मानवीकृत करके उनकी उपासना से तत्संबंधी बीमारी दूर करने की पद्धति अपनाई गई। प्रकृति के जिस उपादान को आदिवासियों ने देखा-भाला, प्रायः उसी पर देवी-देवता का भी नामकरण कर दिया। लोकदेवताओं के नाम किसी अनजानी अनदेखी बीमारी के निवारण के लिए, किसी विष-व्याधि के शमन के लिए, पारिवारिक उपद्रवों के निवारण के लिए, किसी अचानक उपजी व्याधि के निराकरण के लिए तथा किसी स्थान, काल या दिशादि के महत्व को स्वीकार करने के कारण रखे गए। इन देवी-देवताओं को स्मरण करने का तरीक़ा उनके नाम पर ही स्थान का नामकरण करने से अच्छा और क्या हो सकता था, अस्तु। सभ्यता-विकास के क्रम में प्रकृति-आदिवासी-जीवन संघर्ष-देवी देवता- स्थान नाम, कुछ इस क्रम में स्थानों का नामकरण ललितपुर जनपद में किया गया। जिले में ‘डग डग देवी पग पग देव’ की कहावत है। अतः इसमें संदेह का कोई  कारण नहीं है कि लोकदेवताओं और प्रकृति के ऊपर स्थानों के नाम इस जनपद में रखे गये। मातृदेवियों के नाम पर स्थानों का नाम रखने के पीछे यह धारणा थी कि ऐसा करने से देवी खुश हो जाएगी, रोग-शोक कम होगा, फसलें बेहतर होंगी और आमतौर पर कल्याण की वृद्धि होगी, किंतु अब ऐसी लोकमान्यताओं के धरातलीय साक्ष्य विद्यमान नहीं रहे।
ललितपुर जनपद के पठारी क्षेत्र और उसकी तलहटी में सहरियों, भीलों, गोंड़ों, राजगोंड़ों जैसे आदिवासी समूह कथित रूप से पांडवों के पूर्व से निवास करते आए हैं। सहरिया आदिवासी उŸार प्रदेश में सर्वाधिक ललितपुुर जिले में हैं। इस जनजाति के अनेक देवी-देवता हैं। ठाकुरदेव बच्चों और बूढ़ों की रक्षा करने वाले ग्राम देवता है। इनकी स्थापना गांव से बाहर किसी पेड़ के नीचे की जाती है। जिले के ‘दा’ प्रत्ययांत स्थान-नाम देववाची हैं। भैरांेदेव स्त्री को संतति देने वाले देवता हैं। महरौनी तहसील का ‘भैरा’ गांव इसी लोकदेवता का स्मरण कराता प्रतीत होता है। सहरियों के नाहरदेव पालतू पशुओं की रक्षा करते हैं। मूलतः यह बाघ या शेर की पूजा है5 यथा नाराहट (महरौनी)। नाराहट नाम श्री भगवत नारायण शर्मा पूर्व प्राचार्य नेहरू महाविद्यालय ललितपुर के अनुसार जंगल से शेर एवं अन्य वन्य पशुओं  की आहट सुनने के कारण रखा गया किंतु यह स्थान-नाम की भाषा वैज्ञानिक व्याख्या ही है।
कैलामाता कार्यसिद्धि की देवी हैं। जिले के कैलगुवां तथा कैलोनी (महरौनी) जैसे स्थान-नामों में इसी लोकमाता का पुण्य स्मरण झांकता है। अगरिया जनजाति के नाम पर जिले की महरौनी तहसील में अगौड़ी, अगौरी, अगरा इत्यादि ग्राम प्राप्त हैं। भुरतिया जनजाति के नाम पर रहा होगा गांव भरतिया (महरौनी) है। पठारी जनजाति पुजारी वर्ग की है। यह लोग मुख्य रूप से तुर्किन की पूजा करते हैं। ललितपुर तहसील के गांव पठारी, पठरा, पठागोरी महरौनी तहसील का पथराई पठारी जनजाति से संबद्ध प्रतीत हैं। पथराई जैसे नाम पथ की देवी से भी संबंधित हो सकते हैं।
पनिका जनजाति के बारे में कहावत है -
पानी से पनिका भए, बूंदन रचे शरीर। आगे-आगे पनिका भए पाछे दास कबीर।।
ललितपुर से सटा हुआ गांव पनारी इनकी याद कराता है।
जैसा कहा गया है आदिवासी अपने जीवन में भय, बीमारियों से डर और दैवी आपदाओं से बचने के लिए कई मनगढ़ंत देवी-देवताओं की उपासना करते हैं। जरा सा भय हुआ नहीं कि आदिवासी उसकी देव की तरह पूजा करने लगता है। इन लोगों कां जब चेचक की व्याधि का पता नहीं था तो इन्हांेने इसे शरीर में उठी गर्मी के बुलबुले माना और देह में शीतलता के संचार के लिए शीतला माता जैसी देवी की कल्पना और प्रतिष्ठा कर दी। बीमारियों का यह देहीकरण 7वीं-8वीं शताब्दी में शुरू हुआ।6
शीतला को रोढ़ि भी कहा गया है। जिले का रोड़ा (ललितपुर) गांव रोढ़ि माता का पुण्य स्मरण है। रोड़ी माता (घूरे की माता) से भी यह संबंधित हो सकता है। मान्यता है कि इसकी पूजा से कृषिवृद्धि एवं खुशहाली आती है। भाटी राजपूतों की देवी रुंडी माता हैं। रोंड़ा रुंडी के अधिक निकट हैं। इस गांव में ठाकुर परिवारों का निवास भी अच्छी संख्या में है।
गांव के बाहर किसी स्थान को यक्ष-यक्षिणी की पूजा का प्रतीक बनाया गया। जिले का जाखलौन (ललितपुर) तथा जखौरा (तालबेहट) यक्ष तथा यक्षिणी पूजा पर आधारित स्थान-नाम हैं। जाखमाता यक्षिणी से संबंधित है। यक्ष-यक्षिणियों की पूजा-परंपरा के विषय में डॉ वासुदेवशरण अग्रवाल का कहना है कि भारतीय कला और धर्म मंे संभवतः यक्षों के समान प्राचीन लोकव्यापी और लोकप्रिय कोई दूसरी परंपरा नहीं है। यक्ष आज भी समाज में बीरों या यकसों के नाम से पूजित हो रहे हैं। जिले के प्रत्येक गांव में भी बीर नाम से यक्ष के चौरा विद्यमान हैं। कहावत है गांव-गांव कौ ठाकुर गांव-गांव को बीर।7 कहीं-कहीं ऐसी मान्यता है कि जो औरतें बच्चा जनते समय अथवा डूबकर मर जाती हैं, वे ऐसी प्रेतात्मा (यक्षी और डाकिनी) या पिशाची बन जाती हैं और उन्हें इस नाम से पूजा जाता है।8 ‘प्राचीन भारतीय परंपरा और इतिहास’ (डॉ रांगेय राघव) के अनुसार दक्षपुत्री सखा के दो पुत्र थे- यक्ष और रक्ष। यक्षों को काला शरीर और लाल नेत्र वाला कहा गया है। इन्हंे कुबेर का रक्षक माना जाता है। वनस्पति के स्वामी यक्ष देवों से नीचे तथा भूतों से ऊंचे हैं। इन्हें महायोधा, व्यापारियों के रक्षक तथा इच्छा रूपधर माना जाता है।
साढ़ूमल (महरौनी) गांव बगड़ावतों में से प्रमुख भोज की गूजर स्त्री साड़ूमाता के नाम पर अनुकृत प्रतीत होता है। साड़ूमाता से ही देवनारायण नामक लोकदेवता का जन्म हुआ। बुंदेलखंड की रिछावर देवी के नाम पर ललितपुर तहसील के गांव रीछपुरा और रिछा बसे हैं। यह देवी मनोकामना पूर्ण करने वाली मानी गई हैं। जिले के प्रत्येक गांव में खेड़ापति हनुमानजी के मंदिर होते हैं। खेड़ा अर्थात् गांव का उन्हें स्वामी बनाया गया है। गांव मनुष्यों द्वारा समूह में बसाई गई बस्तियों की प्राचीनतम  इकाई है। इस प्रकार हनुमान को खेड़ापति की पदवी देकर सार्वभौमिक लोकदेवता बना दिया है। वे गांव की सीमा के रक्षक समझे गए हैं। हनुमान के नाम पर जिले में स्वतंत्र स्थान-नाम भी मिलते हैं यथा - हनूपुरा (तालबेहट)।
धर्म-दर्शन के ग्रंथों में सात तन्मात्राएं विहित हैं, जो प्रवृŸिायों को निर्धारित एवं नियंत्रित करती हैं। लोक में सात माता इन्हीं को कहा गया है। जिले का सतवांसा (महरौनी) गांव में सात माता की ध्वनि झांकती दिखाई पड़ती है। यह संत निवास तथा सात लोगों के आवाससूचक अर्थ से भी झंकृत है। ममतामयी मातृदेवी पार्वती को गणगौर भी कहा गया है। इनका प्रतीक स्थान-नाम जिले में गनगौरा (ललितपुर) है। वर्षा की देवी काजल माता (इंद्र की पुत्री) की पूजा काकड़ (गांव की सीमा) की पूजा करने के बाद की जाती है। जिले के ककड़ारी (तालबेहट एवं महरौनी) गांव काकड़ से अनुमित किए जा सकते हैं। काकड़ को ध्रुवदेवी भी कहते हैं। वर्षा देवी वराई माता भी कही गयी। भील समुदाय बलि और दारू धार से वराई माता की पूजा करता है। बिरारी (ललितपुर) गांव इस माता का स्मरण कराता है। इस देवी के थानक के निकट मामादेव का थानक भी होता है। मामदा (ललितपुर) मामादेव का गांव है। मामादेव और वराई माता की एक साथ तथा एक समान पूजा होती है।
भैंसासरी माता की पूजा वस्तुतः दुर्गा के महिषासुरमर्दिनी रूप की पूजा है। यह तंत्र-मंत्र की देवी भी कही गयी हैं। जिले के गांव भैंसाई (ललितपुर) तथा भैंसनवारा कलां तथा भैंसनवारा खुर्द (तालबेहट) के नाम इसी लोकमाता के नाम पर रखे गए हैं। मोतीझिरा बुखार के बिगडे़ रूप, जिसे आजकल टायफायड कहा जाता है, के देवता हैं। मोतीखेरा (तालबेहट) गांव इसी लोकदेवता का स्मरण कराता है। नागदेव (सर्प) पूजा के लिए वर्ष में एक दिन नागपंचमी विहित है। इस पूजा को याद करते हुए जिले में नगदा (तालबेहट), नगवांस (तालबेहट) तथा नगारा (महरौनी) गांव बसे हैं।
पशुओं और गांव की रक्षा के लिए बैमाता की प्रतिष्ठा है। इसी के प्रतीक स्थान-नाम विहामहावत (ललितपुर) इत्यादि हैं। ‘ब’ै गीत में विधाता की शक्ति एक कुम्हारिन के रूप में दिखायी देती है। गांवों में ‘परजापत’ कहे गए कुम्हारों के यहां इसकी पूजा होती है। खों-खों मइया (खांसी माता), बराई माता (खाज-खुजली माता)9 के सूचक स्थान नाम क्रमशः खोंखरा (ललितपुर) तथा बिरारी (ललितपुर) हैं, जिनकी सीमाएं परस्पर सटी हुई हैं।
विवाह के रतजगे का लोकगीत सतगठा है, जिसमें पितर-पूर्वज देवी-देवताओं का उल्लेख है। जिले का सतगता (ललितपुर) गांव इस लोकगीत का मधुर स्मरण है। सतगता शक्तावतों की सतियों का स्थल भी संभव हो सकता है। भील आदिवासियों में प्रचलित झूमर नृत्य जिले के झूमरनाथ (तालबेहट) स्थान से साम्य रखता है। यह करमा नृत्य का एक भेद है। सात अप्सराओं को सती आसरा कहा गया। इसके नाम पर जिले के असउपुरा (तालबेहट) तथा गैर आबाद ग्राम असौरा (महरौनी) हैं।
प्रसिद्ध गणितज्ञ एवं समाज विज्ञानी डॉ डी डी कोसंबी ने अपनी पुस्तक ‘मिथक और यथार्थ’ में भारत की सांस्कृतिक संरचना का अध्ययन किया है। इस पुस्तक में एक स्वतंत्र अध्याय मातृदेवी पूजास्थलों के अध्ययन पर है, जिसके अनुसार मातृदेवियां असंख्य हैं। इनमें से बहुतों का उल्लेख वर्गबद्ध या समूहबद्ध रूप से हुआ है, खास नाम से नहीं। उनमें प्रमुखतम हैं- मावलाया, जो अप्सराएं (जलदेवियां) हैं और जिनका उल्लेख सदैव बहुवचन में ही होता है। सातवाहन अधिकार क्षेत्र में मामालहार और मामले का उल्लेख है। मातृदेवी पूजा प्रचलन के कारण क्षेत्र का नाम मावल पड़ गया। यह नाम दो हजार वर्ष से भी पहले से ज्ञात है। गढ़ी हुई मूर्तियों जैसी उनकी कोई प्रतिमाएं नहीं हैं। उनके प्रतीक हैं सिंदूर लगे बहुतेरे अनगढ़ छोटे-छोटेे पत्थर, या तालाब के किनारों पर, या चट्टान पर, या पानी के समीप किसी पेड़ पर लगे लाल निशान।10 ललितपुर जनपद का गांव मावलैन (तालबेहट) इन्हीं मातृदेवियों का प्रतीक अभिधान है।
डॉ कोसंबी ने लिखा है ये देवियां हैं तो माताएं (मातृदेवियां) किंतु अविवाहित हैं। जिस समाज में इनका उद्भव था, उसकी दृष्टि में किसी पिता का होना आवश्यक नहीं था। अतः यह स्पष्ट है कि उस समय का समाज मातृसत्तात्मक था। आगे चलकर इनका विवाह किसी पुरुष देवता से होने लगा। विशेष बात यह है कि इन मातृदेवियों की पूजा आज भी महिलाओं द्वारा ही की जाती है, भले ही पुरोहितगण पुरुष हों। गांवों में रक्तबलियां देने का रिवाज रहा किंतु जहां-कहीं ऐसी पूजा ब्राह्मणीकृत हो गयी अर्थात् तत्संबद्ध देवी का एकात्म्य किसी पौराणिक देवी से कर दिया गया, वहां बलि पशु को देवी के सामने नहीं काटा जाता, देवी को उसका दर्शन भर करा देते हैं और तब उसे कुछ दूर ले जाकर काटते हैं। यद्यपि अब इस पद्धति का भी अधिकांश जगहों पर ब्राह्मणीकरण हो गया है।11
इल-इला पौराणिक उपाख्यान से पता चलता है कि नवरात्र के दौरान महाराष्ट्र के आदियुगीन वननिकुंजों में मूलतः पुरुषों का प्रवेश बिल्कुल निषिद्ध था, क्योंकि जो पुरुष प्रवेश करता उसे स्त्री में बदल दिया जाता। अब स्थिति उलट गई है। पुरोहिताई के प्रवेश से अब नवरात्रों में महिलाओं का प्रवेश निषिद्ध हो गया है।12 जनपद के चोंरसिल (ललितपुर) तथा भोंरसिल (ललितपुर) स्थान-नाम इल-इला नामक उपाख्यान का स्मरण हैं।
मातृदेवियों की पूजा प्रारंभ में पूजा के पाषाण के उपर कोई छाया या छत न रखकर तथा खुला आसमान रखकर की जाती थी। मान्यता थी कि उसके उपर छत डाल देने से पथभ्रष्ट पुजारी पर भारी विपत्ति आ पड़ती है, लेकिन गांववाले जब पर्याप्त धनी हो जाते तब प्रायः देवी को मनाकर इसके लिए राजी कर लेते। अतः डॉ कोसंबी के अनुसार यह पूजा पद्धतियां उस ज़माने की हैं जब घर बनाने का चलन नहीं था और जब गांव चलते-फिरते हुआ करते थे।13 इससे एक प्रबल संभावना बनती है कि इन पूजा प्रतीकों के नाम पर ही स्थानों के नाम रखे गए।
बस्तियां बसने के समय गांव के लोग भूस्वामित्व नहीं रखते थे। गांव बनने के समय भरपूर लौह उपकरण ईजाद नहीं हुए थे। ज़मीन हल से जोती नहीं जाती थी। अतः कितों (नियत प्लाट) में ज़मीन नहीं बंटी थी। वैसे भी जंगली लोगों के लिए ज़मीन अमलदार(अस्थाई अधिकार) होती है, संपत्ति नहीं। गांवों में स्थानीय देवताओं, आत्माओं तथा भूत-प्रेतों को तुष्ट करने की प्रथा थी। हर आदमी को सात या नौ दिन के लिए गांव की आवासीय सीमा से बाहर जाकर रहना पड़ता था और इस अरसे में बस्ती बिल्कुल वीरान हो जाती थी। इस प्रकार तब गांव चलती-फिरती बस्तियां हुआ करती थीं।
यमाई देवी यदि प्रसन्न नहीं है तो दुःस्वप्न देकर सोना हराम कर देती है। अतः गांव वाले उसे मुर्गा या आम तौर पर नारियल चढ़ाते हैं। इसके बावजूद गांवों मे इस देवी का कोई मंदिर नहीं मिलता। ललितपुर जनपद का जमौरा (महरौनी) तथा जमौरामाफी (तालबेहट) इस मातृदेवी का स्मरण है।
आदिवासी लोकमाताओं की एक कहानी है कि बाघा भील की कन्या बुधली अपने समय की सबसे सुंदर और साहसी कन्या थी। उसकी सुंदरता और वीरता का बखान पूरे अरावली पठार पर होता था। उसका मुख्य हथियार ‘दाव’ या ‘डाव’ था।14 जिले के दावनी (ललितपुर) तथा दांवर (ललितपुर) गांव इस हथियार से अनुकृत प्रतीत होते हैं। महिषासुरमर्दिनी का मुख्य हथियार भी यही खड्ग (दाव) है। बुंदेलखंड का वर्तमान हंसिया या दांती दाव ही है। पाणिनिकालीन भारतवर्ष के अनुसार उदीच्य देश में दाव को दात्र तथा प्राच्य देश में दाति कहा जाता था।15
लोकमाताओं से संबंधित एक कथा के अनुसार भीलनायक संभा एक वीर योद्धा था। किसी युद्ध में मर जाने पर वह आकरा भैरव बन गया। उसकी स्थापना माता के स्थान सेे नीचे तल में की गई। संभा अपने जीवन काल में खोह माता का दर्शन करता। रविवार को बकरे की बलि करता। दारू की धार रोज लगाता। दारुतला (महरौनी) गांव इसी का प्रतीक स्मरण कराता है। देवदारू, पीतदारू नाम के वृक्ष भी होते हैैं, किंतु ललितपुर के पठारी भूभाग तथा शुष्क जलवायु में यह वृक्ष नहीं पाए जाते हैं। संभा को जब भाव आता तो वह उत्पात मचाता हुआ माता के देवरे की तरफ भागता। महरौनी तहसील के ही देवरा तथा देवरी नामक स्थानों पर वह माथा टेकता। वह बड़ी-बड़ी सांकलें लेकर अपने बदन पर मारता, जिससे उसे सांकलिया भैरव कहा गया। स्वयं माता ने बाद में उसे सांकरिया अर्थात् शांत भैरव बनाया, तब से उसने अपना स्थान क़ायम किया। शांत भैरव के नाम से ललितपुर तहसील के सांकरवार कलां एवं सांकरवार खुर्द गांव अनुकृत प्रतीत होते हैं। भैंसाई (महिषासुरमर्दिनी) माता का स्थान स्वयं संभा ने बनवाया। माता का देवरा उसके पूर्वजों का बनाया हुआ था। पहले यह मूर्ति पठार की शिला पर रखी थी। संभा नायक ने उसे पक्का चबूतरा बनवाकर स्थापित करवाया।16 ललितपुर तहसील का चौंतराघाट गांव इसी माता के चबूतरे की याद में बसाया गया। माता के खप्परों (छप्पर) को जहां झुलाया जाता, वे स्थान वर्तमान में महरौनी तहसील के छपरट, छपरौनी, छापछौल कहे गये।
महरौनी तहसील के अमौदा, अमौरा गांव माता अंबा की याद में बसाए गए स्थान हैं। इन स्थान-नामों में मुख्य शब्द अंब है जो आम की अनुकृति प्रतीत होने लगा। महरौनी तहसील के स्थान बारई, बारयो, बारचौन, बारौन इत्यादि वराह पूजा के कारण बसे। विष्णु के वर्तमान पूजित रूपों से पूर्व जिले में वराह की पूजा की जाती रही। जिले के अनेक स्थानों से वराह के कई रूपों की मूर्तियां प्राप्त हुई हैं।
तालबेहट तहसील का भंवरकली स्थान भ्रामरी (भंवर) माता के नाम पर बसा है। भ्रामरी माता पुराण देवी के रूप में लोकमान्य हैं। दुर्गासप्तशती के 11वें अध्याय में भ्रामरी देवी को असुरमर्दिनी और लोकहितकारिणी माता के अवतार रूप में उल्लिखित किया गया है। जनजातियों की गेय गाथाओं में भी भ्रामरी या भॅंवर माता का उल्लेख मिलता है। जिले के भोंरसिल (ललितपुर), भोंरट (महरौनी) इत्यादि स्थान-नाम भी भंवरमाता की आस्था को जीवित रखे हुए हैं।
गोरा (ललितपुर) गांव लोकजीवन में गौरी माता को लाड़-दुलारवश पूजने की याद में बसा स्थान है। आदिवासी समुदाय की यह आस्था देवी है। जिस प्रकार पुराण देवी महिषासुरमर्दिनी लोक में भैंसासरी या भैंसाई माता है, उसी प्रकार हमारी जगमाता पुराणों में पार्वती, गौरी या गिरिजा हैं और लोकमाता के रूप में वह गौरी।
भैंसाई माता के जगह-जगह स्थान हुआ करते थे। घाटा नामक स्थान पर इस माता का निवास होने के कारण जिले का घटवार (ललितपुर) गांव बसा है। सड़कोरा (महरौनी) स्थान साड़ा माता के आधार पर बसा है। साड़ा माता का मंदिर हाड़ा जागीरदारों द्वारा बनवाया गया। हाड़ा राजपूतों को महिषासुरमर्दिनी का इष्ट था। इस प्रकार साड़ा माता भी भैंसाई माता का अन्य स्वरूप है। यों भी लोकमाताएं अतिनिकट का संबंध रखती हैं। इनमें कोई छोटी या बड़ी नहीं हैं। अपने मूल रूप में यह लोककल्याणकारी समझी गईं। पीपरी माता के नाम पर ललितपुर तहसील के पिपरई, पिपरौनियां, पिपरिया; तालबेहट तहसील के पिपरा, पिपरई तथा महरौनी तहसील के पिपरट, पिपरिया इत्यादि गॉंव बसे हैं। पीपल का वृक्ष पवित्र माना गया है। वैज्ञानिक दृष्टि से भी यह महत्वपूर्ण वृक्ष है क्योंकि इससे मनुष्यों हेतु आवश्यक ऑक्सीजन गैस सर्वाधिक निःसृत होती है। लोकमाता पीपरी सुहाग-पूत की रखवाली करती हैं। रोग-शोक सभी दूर करती हैं। पीपरी माता व नौ वीरांगनाओं ने अपने प्राण देकर शरणागतों तथा अपने राजपरिवार की प्राणरक्षा में प्राण न्यौछावर कर दिये थे।17
तालबेहट तहसील का हिंगौरा गांव हिंगलाज माता के स्मरण में बसा है। हिंगलाज माता का मूल स्थान अफगानिस्तान के कोटड़ी में है। वहां आज भी इसकी पूजा एक अफगान परिवार करता है। यह मुसलमान परिवार चोगला-चारणों का मूल बताया जाता है, जिसने अपना धर्म-परिवर्तन कर लिया था। वहीं से किसी समय ‘जोत’ (ज्योति) लाकर भारत के अन्य भागों में हिंगलाज माता के देवरे और मंदिर स्थापित किए गए। एक विरद के अनुसार हिंगलाज माता को आदिशक्ति का प्रथम  अवतार माना गया है। अफगान में हिंगलाज माता की पूजा कन्या ही कर सकती है। पूजा करने वाले परिवार का मुखिया कोटड़ी का पीर कहलाता है।18 ऊमर (गूलर) की माता के नाम पर ऊमरी (महरौनी) तथा भादवा माता के कारण भदौरा (महरौनी), भदौना (तालबेहट) स्थान बसे हैं। भादवा की माता बीजासन माता का रूप मानी गई हैं। लोकमान्यता में ‘बीजासन’ को दुर्गा का बीसवां रूप माना गया है।
तारवली माता या खेतरमाता को ओकड़ी या होकड़ी माता के नाम से भी जाना जाता है। यह माता शंखोद्धार तीर्थ पर स्थित देवी थी। भील समुदाय इस माता को विशेष रूप से पूजता रहा है। तरावली (महरौनी) गांव इसी माता का स्मरण है। मोड़ शिखर निर्माण की एक अभियांत्रिक युक्ति है। मोड़ शिल्प के कारण जिले के स्थान मुड़ारी (ललितपुर) तथा मुड़िया (महरौनी) स्थापित हुए। मनगुवां (ललितपुर) गांव आदिवासी समूह मीणा के नाम पर बसा संभव है। महरौनी तहसील के पड़वां एवं धवारी ग्राम एक-दूसरे के निकट बसे हैं। धवारी ग्राम के श्रीराम मिश्रा के अनुसार पड़वां कृष्ण की सेना का पड़ाव था तो धवारी में ध्वजा गाड़कर युद्धस्थल बनाया गया, जिससे यह ध्वजाई अब धवारी हो गया। ध्वजाई में पुतली माता की पुतरिया है जो एक शिला पर बनी है। इस पुतरिया के सिर पर पांच नाग फन फुलाए खड़े हैं। पुतरिया के सिर पर कलगी या साफा लगा है। इसके मध्य भाग में एक अन्य मूर्ति है जो अपनी जंघा पर किसी को बिठाए हुए है। नीचे एक खड़ी हुई मूर्ति आगे को पैर बढ़ाती हुई धनुष लिए है। अब यहां एक मड़िया बना दी गई है। मान्यता है कि इस मूर्ति के दर्शन से बालकों का सूखा रोग ठीक हो जाता है। इसके पास बसे ग्राम का नाम बीर पशु चरागाह रहने के कारण पड़ा। इसके निकट के ग्राम सुनवाहा बाणासुर-पुत्री उषा का महल शोणितपुर था। बाणासुर के नाम पर बसा गांव बानपुर यहां से तीन किमी दूरी पर स्थित है।
स्थान-नामिक प्राचीनता- प्राचीन युग में चरागाह में पशु स्वच्छंद चरते थे। उनके लिए चारे की उपलब्धि के अनुसार नई-नई गोष्ठ बना दी जाती थीं। छोड़ी हुई पहली भूमि को गोष्ठीन कहा जाता था। ललितपुर जनपद का गोठरा (महरौनी) इसी कारण बसा है। वर्तमान में गोष्ठी का अर्थपरिवर्तित होकर विचार-विमर्श करने के लिए आयोजित सभा के अर्थ में किया जा रहा है। पशुओं को खाने के लिए भुस और कडंकर या कुट्टी दी जाती थी, उसे खाने वाले कडंकरीय (हिंदी में डंगर) कहे जाते थे।19 जिले के डोंगरा नामक स्थान इसी डंगर के आधार पर बसे प्रतीत हैं। डॉ कामिनी ने इन्हें जंगलवाची डांग से संबंधित बताया है।
कंथा जिसके आधार पर कैथोरा (ललितपुर) गांव स्थापित होना संभव है। मूलतः शक भाषा के इस शब्द का अर्थ नगर होता है। देश में कुछ स्थानों पर यह शब्द परपद के रूप में स्थान नामों से संयुक्त है। इकौना (महरौनी) इक्षुवण (गन्ने का वन) का भाषा परिवर्तन है। सिरसी (तालबेहट) शिरीषवन के कारण बसा। सिंधु प्रांत या सिंध नद के निचले कांठे का पुराना नाम सौवीर जनपद था। इसकी राजधानी रोरुव थी। ललितपुर जनपद का रारा (तालबेहट) गांव इससे अनुकृत प्रतीत है। सौवीर जनपद का सीधा संबंध इस जनपद से विदित नहीं है किंतु रारा से मिलते-जुलते अभिधान प्रदेश के अन्य जिलों रूरा (महोबा), रूरा (कानपुर), रूरा-अड्डू (जालौन) में भी मिलते हैं। भोंड़ी (महरौनी) गांव का संबंध भृगुकच्छ से संभव है। ब्राह्मणक जनपद की तरह शौद्रायण लोग भी सिकन्दर से लड़े थे। शौद्रायण का यूनानी रूप सोडराई होता है। ललितपुर तहसील का सूडर गांव का संबंध इसी से प्रतीत है। भौगोलिक स्थिति के अनुसार ललितपुर जनपद भारत के मध्य में है। पूर्वोत्तर के राज्यों को छोड़कर देश के चारों कोनों के रास्तों का यदि मध्य बिंदु तलाशना हो तो ललितपुर जनपद का भूभाग इसमें आएगा। भारत का वर्तमान राष्ट्रीय राजमार्गों का चतुर्भुज भी इसी के आसपास बनता है। अतः यहां संस्कृति में हुए चतुर्दिक परिवर्तनों का प्रभाव दृष्टिगोचर होना स्वाभाविक है।
सक्तू (महरौनी) का संबंध सत्तू खाद्य से है। पाणिनि ने साल्व जनपद की नस्ल के बैलों को साल्वक कहा है। उŸारी राजस्थान के बीकानेर से अलवर तक फैले हुए बड़े भूभाग का नाम साल्व था। मेड़ता और जोधपुर इलाक़ा भी इसी के अंतर्गत था। इस प्रदेश के नागौरी बैल आज तक प्रसिद्ध हैं।20 राजस्थान से बैलों को लाकर लोग विपणन करते रहे हैं। महरौनी तहसील के सौल्दा स्थान इसी कारण बस गया संभव है। तोर (ललितपुर) नयी जोत वाली ज़मीन के लिए कहा जाता है। खिरिया उवारी (महरौनी) निस्तार के योग्य भूमि का बोध कराने वाला स्थान-नाम है।
खैरा (तालबेहट) शब्द उक्षतर शब्द से निष्पन्न हुआ है। वर्तमान में खदिर से इसका अर्थ जोड़ा जाता है, किंतु ‘पाणिनिकालीन भारतवर्ष’ में जिस बछड़े को शकट (बैलगाड़ी) आदि में जोतने के लिए बधिया करते थे, वह पूरा जवान होने पर उक्षा और अधेड़ अवस्था का होने पर उक्षतर कहा जाता था। उक्षतर से हिंदी का खैरा शब्द बना है (उक्षतर-उक्खयर-उखइर-खइरअ-खैरा)21
जिस बछड़े के दूध के दांत न टूटे हों उसे उदंत कहा जाता था। तालबेहट तहसील का उदगुवां स्थान इससे संबंधित संभव है, किंतु ‘पाणिनिकालीन भारतवर्ष’ में कुओं की सफाई करने वाले लोग उदगाह या उदकगाह कहलाते थे। उदगुवां का भाषा-परिवर्तन इसके निकट भी है।
खेड़ा शब्द खेट से निष्पन्न हुआ है। ‘पाणिनिकालीन भारतवर्ष’ के अनुसार  मध्य देश से लेकर पश्चिम में गुजरात तक यह परपद प्रयुक्त होता है। पाणिनि के अनुसार कुत्सित नगर खेट कहलाते थे। खाईखेरा (ललितपुर) तथा पूर्वपद तथा परपद के रूप में खिरिया स्थान-नाम जिले में दो दर्जन से अधिक हैं। पाह (महरौनी) गांव का नाम कृषि-कार्य की एक विधि के कारण पड़ा। ‘पाय’ खेती की वह विधि है, जिसमें ज़मीन किसी दूसरे गांव में हो और जोतने वाला समीप के ही गांव में रहता हो। इसका तत्सम रूप ‘पाही’ है। ऐसी खेती करने वाले किसान को ‘पाहिया’ कहा जाता है। चीमना (ललितपुर) गांव बौद्ध पृष्ठभूमि के चीवर का संकेत करता है। यह वस्त्र बौद्ध भिक्षुओं को पहनाते हैं। गृहस्थ या ब्रह्मचारी के वस्त्रों के लिए चीवर नहीं चलता था।
जिजरवारा (तालबेहट) स्थान-नाम का संबंध गालव ऋषि से प्रतीत होता है। शैशिरि शाखा में गालव को शौनक का और शाकटायन को शौशिरि का शिष्य कहा गया है। कठवर (तालबेहट) जिजरवारा के निकटस्थ बसा ग्राम है। पाणिनि ने कठों का स्वतंत्र उल्लेख किया है। कठ लोग गांव-गांव में फैल गए थे (ग्रामे-ग्रामे च काठकं कालापकं न प्रेच्यते, भाष्य 4/3/101)। मेगस्थनीज ने पंजाब में कंबिस्थोलोइ लोगों का उल्लेख किया है, जिनके देश में इरावती नदी बहती थी। ज्ञात होता है कि कपिष्ठलों का प्रदेश इरावती के आसपास के भूभाग में कठों के समीप ही था। कठों ने वहीं पर अपने प्रदेश में जाते हुए सिकंदर का मार्ग रोका था।22 इन कठों के नाम पर संपूर्ण बंन्देलखंड में अनेक स्थान-नाम प्राप्त होते हैं।
ु कठों के अतिरिक्त जनपद ललितपुर सहित भारतवर्ष के अनेक भागों में मर, भर, जर संस्कृति का उल्लेख मिलता है, किंतु ‘पाणिनिकालीन भारतवर्ष’ में इनका उल्लेख नहीं है। भर हिन्दुओं की एक अस्पृश्य जाति मानी जाती थी। यह जाति उŸार प्रदेश के पूर्वी जिलों में रहती थी।23 भारशिव नाग राजा थे। वे शिव की उपासना करते थे। जिले के भारौनी (महरौनी) इत्यादि स्थान-नाम इस जाति का संकेत करते हैं। ‘बुंदेली-भाषी क्षेत्र के स्थान-अभिधानों का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन’(डॉ कामिनी)के अनुसार पुराण प्रसिद्ध मुर दैत्य एवं गहोई वैश्य जाति का एक आंकना ‘मर’ है। मर जाति का संकेत करते स्थान-नाम मर्रोली (महरौनी) तथा जर जाति से संबंधित जरया (महरौनी) तथा जरावली (महरौनी) इत्यादि हैं। जर जाति से संबंधित ललितपुर जनपद के इन गांवों में तीन-चौथाई से अधिक लोधी जाति के व्यक्ति निवास करते हैं। डॉ कामिनी ने बुन्देलखण्ड के स्थान-अभिधानों के रूप में मौजूद ऐतिहासिक जर जाति के अवशेषों को लोधियों के जरिया वर्ग से संबंधित बताया है। मग ईरान निवासी सूर्यपूजक थे, जो कृष्ण के पुत्र शांब द्वारा चन्द्रभागा तट पर सूर्य मन्दिर की प्रतिष्ठा के लिए बुलाए गए थे। बुद्ध इन शकद्वीपी ब्राह्मणों को अच्छा नहीं मानते। बुन्देलखण्ड  से होते हुए मग दक्षिण की ओर गए हैं। ललितपुर तहसील का मगरवारा इस जाति का संकेत करता है। कुरु चंद्रवंश में उत्पन्न परम धार्मिक तथा महाप्रतापी थे। ‘प्राचीन भारतीय परंपरा और इतिहास’ (डॉ रांगेय राघव) के अनुसार कुरु के पिता ने जिस प्रदेश में तप किया उसका नाम कुरुजांगल और कुरुक्षेत्र होने का उल्लेख है। कुरुक्षेत्र के अंतर्गत दृषद्वती, सरस्वती और आपया नदियों के उल्लेख हैं। कुरुओं के शैव होने के प्रमाण भी मिलते हैं। जिले की महरौनी तहसील के कुरौरा, कुर्रट इत्यादि गांव कुरु नामकरण के आधार हैं। राजपूताने की ओर बसने वाली मेवजाति का संबंध भी इस भूभाग से रहा है। महोली (ललितपुर) उच्चरित रूप मेवली मेव जाति पर आधारित है। तुगलक काल में इन्हें आतंककारी और लुटेरा बताया गया है। इन्हें पहली बार शिवाजी ने संगठित कर औरंगज़ेब के विरुद्ध उतारा था। यह अंग्रेजों की रसद लूट लेते थे और दुस्साहस तथा चतुराई के लिए प्रसिद्ध थे। लार्ड वेलेजली ने इन्हें समाप्त करने का बीड़ा उठाया था।
स्थान नामों का उद्गम एवं विकास- समाजशास्त्र के एक सिद्धांत के अनुसार व्यवसायी बनिया और पुरोहित ब्राह्मण कभी पृथक से गांव नहीं बसाते। वे पूर्व से बसे हुए गांव में बसना उचित तथा सुरक्षित मानते हैं। अतः जिले में ब्राह्मण तथा बनियों के नाम पर जो गांव विद्यमान हैं, वे भी प्राचीन युग में किसी अन्य द्वारा बसाए गए होंगे। प्राचीन काल में व्यक्ति इधर से उधर खाने की खोज में चलता-फिरता रहता था। खेती करने की कला सीखने के बाद व्यक्ति ने अपने काम की जगह के पास रहना प्रारंभ किया। कभी-कभी वह खेतों में रहकर ही अपना यापन करता। देश के अनेेक प्रदेशों के स्थान-नामों का अध्ययन करने वाली विदुषी डॉ मालती महाजन के अनुसार स्थान-नामों में लगने वाले वट, वाटक, वाड़ा इत्यादि प्रत्यय खेतों में रहने वाले लोगों के अर्थ को द्योतित करते हैं।24 ललितपुर जनपद के स्थान-नामों के प्रत्यय वा, वाहा, वाह तथा बेहट इत्यादि प्रत्यय इसी सादृश्य के हैं। यह प्रत्यय संस्कृत के वत् से विकसित हैं, जिसका अर्थ है सदृश या समान। डॉ मालती महाजन के अनुसार देश के सभी अंचलों में जब व्यक्ति अपनी बस्तियां बसाने लगे तब इन्हें ‘पाल’ कहा गया। पाल शब्द गांववाची है, जो संस्कृत ‘पद्र’ से विकसित हुआ है। पाल से पाली, पालिका इत्यादि प्रत्यय अथवा स्वतंत्र अभिधान विकसित हुए। भाषा विज्ञानी डॉ कैलाश चंद्र भाटिया के मत से संस्कृत पद्र से हिन्दी के ‘ओंद’, ‘औंदा’, ‘औंधा’ इत्यादि प्रत्यय निष्पन्न हुए। इसका प्राकृत रूप ‘पद्द’ मिलता है। डॉ महाजन के अनुसार पाल के बाद लोगों की बस्तियों को वट, वाटक, वाड़ा कहा गया। इसके बाद खेट, खेटक फिर ग्राम या पुर तथा नगर कहे गए।
पुर या नगर बसने तक व्यक्ति अधिक स्थिर और सुरक्षित हो गया था। अब वह अपने गॉंव की आकृति, दूसरे गॉंव से उसकी दूरी, वातावरण, परिवेश  इत्यादि के प्रति जागरूक हो गया था। इसीलिए वह अपने निवसित स्थान के समीप पानी की स्थिति को आवश्यक मानकर चलने लगा था।
ग्राम पहले समूह में बसते थे। ग्राम का व्युत्पत्तिपरक अर्थ ही समूह है। पहले ग्राम अकृत्रिम रूप से अथवा बिना नियोजना के अस्तित्व में आए। कौटिल्य के समय तक ग्राम सप्रयोजन निविष्ट होने लगे। सूत्रकृतांगदीपिका में ग्राम की निरुक्तिपरक व्याख्या देते हुए उसके लक्षण दिए गए हैं, जिसके अनुसार -
1. साधुओं द्वारा भिक्षार्थ भ्रमण करते हुए गुणों का ग्रसन करना अथवा
2. अट्ठारह प्रकार के करों को सहन करना अथवा
3. कंटकों अथवा वाटकों से आवृत्त जनों का निवास होना।
कृषि के उत्तरोत्तर विकास के कारण कौटिल्य ने राष्ट्र विकास के लिए ग्राम-निवेश कर की संस्तुति की है। नगर शब्द का उल्लेख बाद में मिलता है। संपूर्ण रूप से वैदिक काल में नगर का जीवन बहुत विकसित रहा होना कदाचित् ही संभव है। हॉपकिंस के अनुसार ‘महाकाव्य’ में नगर, ग्राम और घोष का उल्लेख मिलता है। वैदिक साहित्य ग्राम से कदाचित् ही आगे जाता है, यद्यपि इसमें संदेह नहीं कि इसके बाद के काल में कुछ परिवर्तन हुए होंगे।25
नामः स्वरूप निर्वचन- नामों की प्रकृति बड़ी विचित्र होती है। यों चिर परिचित शब्दों द्वारा ही नामों की निर्मिति होती है। इसी से पूर्व में नाम और शब्द को एक ही माना गया और नामों के पृथक् अध्ययन की ओर विद्वानों का ध्यान नहीं गया। विलियम शेक्सपियर की उक्ति ‘नाम में क्या रखा है’ कदाचित् नाम और शब्द का भेद न समझने के कारण अथवा विनोद में कही गई। नाम स्वगुणार्थक कम और संकेतार्थक अधिक होते हैं। इसका तात्पर्य है नाम-शब्द का भाषिक व्यवस्था से बाहर व्यक्तियों, वस्तुओं, स्थानों, गुणों, प्रक्रियाओं एवं क्रियाकलापों के मध्य संबंध। इसके संपादन के लिए नामों का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है, जो कुछ अंशों में वस्तु और व्यवहार में अतिभाषिक वास्तविकता से प्रारंभ होता है।26 यह अतिभाषिकीय अध्ययन अर्थतात्विक अध्ययन से भिन्न है क्योंकि अर्थविज्ञान शब्द से प्रारंभ होकर वस्तु का अन्वेषण करता है, किंतु नाम विज्ञान और अर्थविज्ञान क्रमशः वक्ता एवं श्रोता की भांति अंतर्संबंधित हैं। वक्ता के विभिन्न अर्थ वाले शब्द भंडार को सुनकर श्रोता उसमें से उपयुक्त अर्थ का चयन करता है।
स्थान-नामों की उत्पत्ति में अनेक राजनीतिक, सामाजिक एवं वैयक्तिक कारण होते हैं। उदाहरण के लिए पंचाल क्षत्रिय जिस भूप्रदेश में पहले-पहल बसे, उस प्रदेश का नाम पांचाल पड़ गया। इनके कारण यहां की भूमि का भी नाम पंचाल हुआ। इस प्रकार जन और भूमि को सूचित करने वाला शब्द मनुष्य की भाषा का अंग बन गया। व्याकरण शास्त्र को बस इसमें रुचि है कि ‘पंचाल जन का निवास स्थान’ इस नए अर्थ को किस प्रत्यय की शक्ति से स्थानवाची पंचाल शब्द प्रकट करता है। बिहार निवासी बिहारी कहलाता है। इस ‘ई’ प्रत्यय में उस निवासी की भूमि, रहन-सहन बल्कि उसकी पूरी नागरिकता पर प्रकाश पड़ता है।27
नाम की व्युत्पŸिा हलायुधकोश के अनुसार है- ‘म्नायते अभ्यस्यते यत् तत्’ अर्थात् जिसे बार-बार दुहराया जाय (म्ना = अभ्यास करना)1। डॉ शिवनारायण खन्ना का उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान लखनऊ से प्रकाशित ग्रंथ ‘उपनाम: एक अध्ययन’ के पृष्ठ-1 में यह परिभाषा ‘शब्द कल्पदु्रम’ द्वितीय कांड पृ0 861 से उद्धृत है। वामन शिवराम आप्टे के संस्कृत-हिंदी कोश में भी नाम की इसी प्रकार की परिभाषा दी गई है - ‘म्नायते अभ्यस्यते नम्यते अभिधीयते अर्थोऽनेन वा’ अर्थात जिससे किसी को पुकारा जाय या अर्थ ग्रहण किया जाय।2
नाम की परिभाषा एनसाईक्लोपीडिया ब्रिटेनिका के अनुसार है कि नाम वह शब्द अथवा लघु शब्द समूह है, जो किसी समूह, एक विशेष और समूचे अस्तित्व अथवा सत्ता की ओर संकेत करता है। यह आवश्यक नहीं कि वह उसके गुण विशेष को भी इंगित करे।3
नाम कल्पित और यादृच्छिक होते हैं, फिर भी यह समाज के लिय अनिवार्य है। उसके बिना मानव समाज का न तो संगठन ही संभव है, न कोई अन्य कार्य ही चल सकता है।4
डॉ विद्याभूषण विभु, डॉ लक्ष्मीनारायण शर्मा सहित पाश्चात्य भाषा शास्त्री ए. गार्डिनर जैसे विद्वानों के एक वर्ग का मानना है कि नाम और शब्द एक ही हैं। शब्द ही नाम हैं, किंतु विद्वानों के दूसरे वर्ग का मानना है कि यह ठीक है कि नामों की निर्मिति हमारे चिर परिचित शब्दों से होती है, परंतु यह भी ज्ञातव्य है कि शब्द जब एक बार नाम के रूप में प्रयुक्त होते हैं तब वे ‘शब्द’ नहीं रह जाते। इन विद्वानों की मान्यता है कि नाम संकेतार्थक होते हैं, जबकि शब्द स्वगुणार्थक माने जाते हैं। प्रत्येक शब्द का शाब्दिक अर्थ अनिवार्यतः होता है और तभी वह अपने ‘स्वगुणार्थ’ का निर्वाह कर पाता है। किसी शब्द के अर्थहीन होने पर वह अपनी भाषा से बहिष्कृत हो जाता है। जबकि नामों की प्रकृति इससे भिन्न होती है। नामकर्ता मनुष्य एक विशाल परिमाण में शाब्दिक सामग्री का प्रयोग यथावत् अथवा कुछ भिन्न रूप में करता है। अतः सभी नाम शब्द-रूप में प्रारम्भ होते हैं। नामों का एक ध्वनि प्रक्रियात्मक रूप होता है। उनमें रूप प्रक्रियात्मक संश्लेषण के साथ-साथ शाब्दिक अर्थ भी संयुक्त रहता है। इस प्रकार नाम वैज्ञानिक अर्थ किसी नाम में संयुक्त हो जाता है।5 उदाहरणार्थ ‘ललितपुर’ नाम की उत्पŸिा गोंड़ राजा सम्ुमेर शाह की पत्नी ललिताकुंवर के नाम से हुई है, जबकि कुछ लोग सुम्मेर सिंह की पुत्री के नाम पर ललितपुर का नामकरण मानते हैं, किंतु शाब्दिक अर्थ में ललित का अर्थ सुंदर और पुर का अर्थ नगर या बस्ती होता है। इसके अतिरिक्त महाराज अशोक ने लगभग 250 वर्ष ईसा पूर्व नेपाल की तराई में एक ललितपाटन नामक नगर बसाया था। इस नगर को भी वर्तमान में ललितपुर कहा जाता है।6 यहां स्पष्ट होता है कि दोनों ‘ललितपुर’ स्थानों का नाम वैज्ञानिक अर्थ अलग-अलग है, इन नामों के साथ वहां की भाषा, इतिहास, भूगोल और अन्य विषयों का बिंब श्रोता के मन में अंकित हो जाता है, जबकि ‘ललितपुर’ का शाब्दिक अर्थ (सुंदर नगर) एक ही है।
वस्तुतः कभी-कभी नाम अध्ययन में उसका शाब्दिक अर्थ अप्रासंगिक हो जाता है। नामों का अपना नाम वैज्ञानिक अर्थ होता है और वह उसकी शाब्दिक व्युत्पŸिा के साथ-साथ ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक तथा प्राकृतिक आधारों से निर्मित होता है। ‘नाम’ का अनुवाद दूसरी भाषाओं में स्वीकार्य नहीं है, जबकि शब्द के अनुवाद सर्वत्र प्रचलित है। ‘नाम’ और ‘शब्द’ को एक मानने का कारण यह रहा कि इन दोनों के मूल रूप का अध्ययन व्युत्पŸिा के माध्यम से किया जाता रहा है, किंतु ‘नाम’ का व्युत्पŸिामूलक अध्ययन नाम विज्ञानी का प्रारंभिक सोपान है। जैसा कि डॉ वासुदेव शरण अग्रवाल ने कहा है ‘स्थान नामों’ की उत्पŸिा में अनेक राजनैतिक, सामाजिक और वैयक्तिक कारण होते हैं।7 ‘स्थल नाम विज्ञान’ में स्थान-नामों का अध्ययन प्रस्तुत किया जाता है, जो एक साथ भाषा-भूगोल, व्युत्पŸिा शास्त्र तथा कोश विज्ञान को स्पर्श करता है, क्योंकि इसके द्वारा जहां एक ओर देशीय संस्कृति, क्षेत्रीय भाषिक विशेषताएं और बोली भूगोल के अनुसार विवरण स्पष्ट होता है वहां दूसरी ओर शब्दों की व्युत्पŸिायों के माध्यम से वस्तुतः उस भाषा का कालक्रमानुसार विस्तृत ज्ञान प्राप्त होता है।8 पाणिनि के अनुसार नगरों और ग्रामों के नाम निम्नलिखित चार कारणों से बनते हैं। इन्हें चातुरर्थिक नाम कहा गया है।
1- तदस्मिन्नस्तीति देशे तन्नाम्नि (4/2/67) अर्थात अमुक वस्तु जिस स्थान में होती है, उस वस्तु के नाम से उस स्थान का नाम पड़ जाता है, जैसे-औदुम्बर आदि।
2- तेन निवृŸाम् (4/2/68) अर्थात् उसने यह स्थान बसाया। बसाने वाले के नाम से शहर या गांव का नाम रखना एक स्वाभाविक और पुरानी प्रथा है, जैसे कौशांबी आदि।
3- तस्य निवासः (4/2/69) अर्थात् रहने वालों से स्थान का नाम, जैसे शिवि जाति के क्षत्रियों का निवास स्थान ‘शैव’ हुआ।
4- अदूरभवश्च (4/2/70) अर्थात् जो स्थान किसी दूसरे स्थान के निकट बसा होता है, वह भी उसके नाम से पुकारा जाता है। आम, पीपल, बरगद आदि वृक्षों के समीप बसे हुए हजारों स्थान-नाम इसी नियम के अनुसार बने हैं।9
व्युत्पŸिा - व्यक्ति नामों के विपरीत स्थान-नामों के नामकरण में यादृच्छिकता नहीं अपनाई जाती है। व्यक्ति-नाम भौतिक रूप में व्यक्ति की मृत्यु के साथ समाप्त हो जाते हैं, पर स्थान-नाम शताब्दियों तक, जब तक वह स्थान उजड़ न जाये, प्रचलित रहते हैं। स्थान-नामों के सूचक कुछ पदों का विवेचन अधोलिखितरूपेण है -
1- ग्राम - ग्राम का व्युत्पŸिागत अर्थ ‘समूह’ है। घरों के समूह को ग्राम कहा गया। सर्वप्रथम ग्राम अकृत्रिम रूप से  अस्तित्व में आए होंगे, परंतु कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में ‘राष्ट्र’ के विकास के लिए ग्राम-निवेश की संस्तुति की है। इसी समय से कृषि के उŸारोŸार विकास के कारण ग्रामों से ‘कर’ लिया जाने लगा होगा। ‘सूत्रकृतांगदीपिका’ में ग्राम के तीन प्रकार के लक्षण दिए गए हैं -
(क) साधुओं को भिक्षा प्राप्त होना और उनके गुणों को ग्राम वासियों द्वारा ग्रहण करना।
(ख) ग्रामों पर अठारह प्रकार के करों का लगाया जाना।
(ग) कांटो और बाड़ियों से घेरकर लोगों द्वारा निवास बनाना।10
2- नगर - नगर शब्द की व्युत्पŸिा के संबंध में अनेक मत मिलते हैं। आगम ग्रंथों की टीका के अनुसार ‘नगर’ का प्रारंभिक रूप ‘नकर’ (करविहीन) था। ‘नाम करा संति’ अथवा ‘नैतेषु करोऽस्तीति नकराणि’11 परंतु भाष्यकार पतंजलि के मत से ‘नगर’ शब्द ‘नग’ में ‘र‘ प्रत्यय जोड़कर बना है, जिसका अर्थ ‘नग (वृक्ष) वाला’ होता है। इस व्युत्पत्ति के अतिरिक्त अपने भाष्य में अन्यत्र उन्होंने ‘नगर’ को वनस्पति युक्त कहा है।12
3- पुर - द्विजेंद्रनाथ शुक्ल (भारतीय वास्तुकला) के अनुसार ‘पुर’ नगर का पर्यायवाची है। अतः नगर की सभी विशेषताएं ‘पुर’ के लिए भी लागू होती है, जैसे बानपुर (महरौनी)
4- पद्र - डॉ कैलाश चंद्र भाटिया के अनुसार ओद/ओंदा/औंधा इत्यादि प्रत्यययुक्त स्थान-नाम संस्कृत ‘पद्र’ के विकसित रूप हैं, जैसे- ललितपुर जिले का कचनोंदा (कचनार$पद्र) - विरोंदा (बेर $ पद्र)। ‘पद्र’ पद (चलना) धातु से निष्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है गांव, किसी गांव का प्रवेश मार्ग, एक जनपद विशेष13 डॉ व्यूलर के अनुसार यह आधुनिक ‘पाद्र’ अर्थात् ‘पशुओं के चरने का स्थान’ है तो एच.ए. विल्सन ने इसे ‘पादर’ मानते हुए इसका अर्थ ‘सार्वजनिक भूमि, गांव के पास सटी बिना जोती हुई भूमि’ किया है। इसीलिए पद्रांत स्थान-नामों की व्युत्पŸिा प्रायः वनस्पति नाम अथवा जीवजंतु नाम से हुई है। अतः इस प्रत्यय का अर्थ गतिशील गांवों से ही है।
5- वाटिका (-वाटक, -वाट, -वाहा, -वारा इत्यादि) - ‘वाटिका’ ‘वट’ धातु से व्युत्पन्न हुआ है। इसका अर्थ है घेरा, अहाता, घिरा हुआ भूमिखंड। संस्कृत से लेकर पालि साहित्य तक ‘वाटिका’ का अर्थ था एक अस्थाई आवेष्टित ‘स्थान’ यथा उद्यान, वृक्षारोपण अथवा सीमावर्ती वृक्षों से युक्त ग्राम का आवेष्टन। ललितपुर जनपद का ‘हंसनवारा’ (हंस$वाटिका)  आदि इसी प्रकार के स्थान-नाम है।
6- पाटक (-पट्टिका,-पट्ट, -वाड़ा, -परा) - पाटक तथा उससे विकसित पद ‘पद’ (विभक्त करना) धातु से विकसित हुए हैं। अतः पाटक का अर्थ हुआ ‘ग्राम का अर्ध भाग या ग्राम का एक भाग।‘ ललितपुर जिले में यह पद पूर्वपद के रूप में प्रयुक्त हुआ मिलता है - पटसेमरा, पटौवा, पटौरा (ललितपुर)।
7- खेट - हिंदी आदि भाषाओं का ‘खेड़ा’ इसी से निकला है। मध्य देश से लेकर पश्चिम में गुजरात तक यह शब्द परपद के रूप में प्रयुक्त होता है। पाणिनि के अनुसार कुत्सित नगर खेट कहे जाते थे।14 हलायुध कोश 792 में कहा गया है कि कृषि द्वारा शस्यादि भक्ष्योपयोगी वस्तुओं के उपार्जन से जीविका निर्वाह करने वाले ग्राम ‘खेट’ कहलाते हैं। मोनियर विलियम्स ने ‘खेट’ का अर्थ ‘ग्राम’ (कृषकों का निवास), छोटा नगर अथवा पुर का अर्ध भाग किया है। कल्पसूत्र टीका के अनुसार मिट्टी की दीवारों से आवेष्टित नगर को ‘खेट’ कहा जाता है। अर्थशास्त्रकार ने भी ‘खेट’ की यही परिभाषा की है।15 ललितपुर जनपद के खिरिया, खेरा, खेड़ा इत्यादि पदांत स्थान नाम इसी श्रेणी के हैं। डॉ कैलाश चंद्र भाटिया ने करा/खरा (खरी) इत्यादि पदों को भी खेटझखेड़ाझखेराझखराझकरा क्रम में विकसित माना है।16वस्तुतः यह शब्द संस्कृत के ‘क्षेत्र’ से विकसित होकर गांव के अर्थ में रूढ़ हो गए हैं।
भाषा विज्ञान ;स्पदहनपेजपबेद्ध की शाखा शब्दविज्ञान ;म्जलउवसवहलद्धहै, जिसकी उपशाखा नाम- विज्ञान ;वदवउंेजपबे अथवा वदवउंजवसवहलद्धकही गई है। इसी नामविज्ञान की एक शाखा स्थान-नामविज्ञान ;ज्वचवदलउल अथवा ज्वचवदवउंेजपबेद्ध कही जाती है तो एक अन्य शाखा व्यक्ति-नामविज्ञान कहलाती;।दजीतवचवदवउंेजपबेद्ध है।
यहां हमारे विवेचन का विषय स्थान-नाम हैं, जिसके अध्ययन को स्थान-नामविज्ञान ;ज्वचवदलउलद्ध कहा गया है। डॉ वासुदेव शरण अग्रवाल ने ‘पाणिनि कालीन भारतवर्ष’ में स्थान-नामों की रचना के जिन उपर्युक्त हेतुओं को विवेचित किया है, वे आज भी सम्ंूर्ण देश में विद्यमान हैं। स्थान-नामों का अर्थतात्विक विवेचन करने के लिए अर्थ परिवर्तन के आधारों का विश्लेषण किया जाना आवश्यक होगा। इसके लिए पहले हमें स्थान-नामों के अर्थतात्विक विकास को समझना उपयुक्त होगा। ललितपुर जिले के स्थान-नाम अर्थतत्व के धरातल पर समग्रता से एकता की ओर उन्मुख हुए हैं, जैसे-
1- समग्र -
खिरिया (महरौनी)
बम्हौरी (तालबेहट)
पुरा (तालबेहट)
खैरा (तालबेहट)
पठा (महरौनी)
2- एक या विषिश्ट -
खिरिया मिश्र (महरौनी तथा ललितपुर)
बम्हौरी सर (तालबेहट)
पुराधंधकुवा (महरौनी)
खैरा डांग (तालबेहट)
पठा गोरी (ललितपुर)
प्रथम वर्ग में अंकित स्थान-नामों में अर्थगत समग्रता है। इनमें क्रमशः खिरिया का अर्थ क्षेत्र, बम्हौरी का बह्मा और विष्णु, पुरा का अर्थ एक प्राचीन बस्ती, खैरा का अर्थ खदिर, किंतु एक अन्य अर्थ के अनुसार जिस बछडे़ को शकट (बैलगाड़ी) आदि में जोतने के लिये बधिया करते थे, वह पूरा जवान होने पर उक्षा और अधेड़ अवस्था का होने पर उक्षतर कहा जाता था। उक्षतर से हिन्दी ‘खैरा’ शब्द (उक्षतरझउक्खयरझउखइरझखइरअझखैरा)17 क्रम में बना है एवं पठा का अर्थ ‘प्रस्तर’ समग्र रूप में बोधगम्य है, किंतु द्वितीय वर्ग में इन स्थान-नामों के साथ विभेदक संयुक्त हो गए, जिससे उनका समग्र अर्थ विशिष्ट अर्थतत्व में परिवर्तित हो गया।
प्रारंभिक दशा में 4-6 घरों की बस्ती के लिए ‘खिरिया’ पद पर्याप्त था, पर ब्राह्मण जाति के आस्पद विशेष व्यक्ति की यश-पिपासा अथवा अलग पहचान देने के कारण ‘खिरिया’ पद के साथ विभेदक ‘मिश्र’ को संयुक्त कर दिया गया और स्थान-नाम के रूप में ‘खिरिया मिश्र’ अस्तित्व में आ गया। प्रथम वर्ग से द्वितीय वर्ग में अर्थतत्व सूक्ष्म हो गया। इसी प्रकार सरोवर, कामधंधा, जंगल और किसी युवती के कारण क्रमशः बम्हौरी, पुरा धंधकुआ (इस गांव में गौरा पत्थर की खानें हैं) खैरा डांग और पठा गोरी स्थानों का नामकरण हुआ। ललितपुर जिले के कुछ स्थान-नाम ऐसे भी हैं, जिनकी रचना में स्थान बोधक पद पुर, गढ़, स्थल, वाला अथवा अवली  नहीं हैं। इनमें स्थान बोधक पद घिसते-घिसते लुप्त हो गए हैं और इनकी जगह कुछ विशिष्ट शब्द स्थाननामवत् प्रचलन में आ गए हैं जैसे - रारा (तालबेहट) जिला ललितपुर। ऐसे मिलते-जुलते नाम बुंदेलखंड के अन्य जिलों में भी देखे जाते हैं जैसे - रूरीकलां (महोबा)18 रूरा अड्डू (जालौन)
जिला ललितपुर में स्थान बोधक पद घिसते-घिसते लुप्त हो जाने वाले कुछ अन्य स्थान-नाम भी  हैं -
भोटा (महरौनी) पाह (महरौनी) भोंता (ललितपुर)
जिले के कुछ स्थान-नामों की रूप रचना प्रत्यय के योग-मात्र से हुई है, यथा -
(क) व्यक्ति बोधक -
बानौनी (महरौनी)
पड़वां (महरौनी)
(ख) पदार्थ बोधक -
निवारी (महरौनी)
गेंदौरा (तालबेहट)
(ग) जलाषय बोधक -
झरर (तालबेहट)
अंडेला (ललितपुर) अरण्य डबरा से
(घ) गुण बोधक -
सतगता (ललितपुर) सद्गति से
(ड.) भूमिदषा बोधक -
पठरा (ललितपुर)
टौरिया (महरौनी)
गिरार (महरौनी) गिरि अरण्य से
पठारी (ललितपुर)
पठा (महरौनी)
(च) वृक्ष बोधक -
कैथोरा (ललितपुर)
ऊमरी (महरौनी)
अमौरा (महरौनी)
चिरौला (महरौनी)
बिरारी (ललितपुर)
सेमरा (महरौनी)
(छ) जाति बोधक -
सोंरई (महरौनी)
चढ़रा (महरौनी)
कुर्रट (महरौनी)
बमनौरा (ललितपुर)
(ज) वनस्पति बोधक -
बूटी (महरौनी)
कपासी (ललितपुर)
खैरी (महरौनी)
(झ) पषु बोधक -
भैंसाई (ललितपुर)
रिछा (ललितपुर)
(´) पक्षी बोधक -
सुकाड़ी (महरौनी)
चकोरा (महरौनी)
(ट) अवस्था बोधक -
जरया (महरौनी)
बूढ़ी (महरौनी)
(ठ) विपन्नता बोधक -
भैरा (महरौनी)
पीड़ार (महरौनी)
(ड़) चंद्रमा संबंधी -
चांदरो (तालबेहट)
चंदेरा (ललितपुर)
उपर्युक्त स्थानों-नामों में प्रयुक्त शब्द उनके दिए गए शीर्षकों से संबंधित विभिन्न अर्थों का द्योतन करते हैं। यह क्रमशः व्यक्तियों (बाणासुर, पांडव), पदार्थ (नीमफल, गेंद), जलाशय (झरना, अरण्य डबरा), भूमिदशा (पठार, छोटी पहाड़ी, गिरि), वृक्ष (कपित्थ, गूलर, आम, चिरौल, बेर, सेमल), जाति (सहरिया, चढ़ार, कोरी, ब्राह्मण), वनस्पति (गूगल, औषधीय पादप, कपास, खदिर), पशु (भैंस, रीछ), पक्षी (तोता, चकोर), अवस्था (जरावस्था, वृद्धावस्था), विपन्नता (बर्बाद होना, पीड़ा) तथा चंद्रमा से संबंधित हैं।
स्थान-नामों में प्रयुक्त शब्दों का परिवर्तन होता रहता है। यह परिवर्तन रूप ध्वनिगत तथा अर्थगत दो प्रकार का होता है। रूप ध्वनिगत परिवर्तन को भाषा विज्ञान में शब्दों का विकास कहा जाता है। जनपद के स्थान-नामों में यह इस प्रकार हुआ है, उदाहरणार्थ -
चमार से चमरउवा (ललितपुर)
ब्राह्मण से बमनौरा (ललितपुर)
जामुन से जमुनिया (महरौनी)
कुम्हड़ा से कुम्हैड़ी (महरौनी)
मच्छर से मछरका (महरौनी)
बनिया से बनयाना (महरौनी)
कंकड़ से ककरेला (तालबेहट)
उपर्युक्त स्थान-नामों में शब्द रूप के साथ-साथ ध्वनि रूप में भी परिवर्तन दृष्टव्य है।
दूसरे प्रकार का शब्द परिवर्तन अर्थ के स्तर पर होता है। स्थान-नामों के अध्ययन में यह परिवर्तन बहुत महत्वपूर्ण है। यह परिवर्तन नाम और शब्द का पृथक्करण करता है। इसका सविस्तार वर्णन अध्याय दो में स्थान-नामों का रूप रचना की दृष्टि से अध्ययन करते समय किया जा चुका है। किसी नाम का शब्द अपनी सीमा तक ही अर्थ द्योतन कराने में समर्थ होता है, जबकि शाब्दिक अर्थ से कहीं अधिक व्यापकता स्थान-नाम में सम्मिलित रहती है।  उदाहरण के लिए ‘कठ’ शब्द को लें, जिसका अर्थ है - पुल्लिंग - एक बाजा, काठ, कठोर (केवल समास में) विशेषण- काठ का बना, घटिया, निकृष्ट19 किंतु ‘कठ’ स्थान-नाम के अर्थ में भारशिवों (कठ, मर, जर, भर) के वर्ग में से एक है।20 कठ जाति का पश्चिमी पंजाब में एक गणराज्य भी था। पाणिनि (अष्टाध्यायी 2, 4, 20) ने कठ जाति के लोगों को कंठ या कंथ नाम से पुकारा। 327 ईसा पूर्व में स्वस्थ, संुदर और निपुण योद्धा कठ लोगों की तलवारों और तीरों से सिकंदर महान की सेना को पूर्व की ओर आगे बढ़ने की अपेक्षा पश्चिम की ओर पलायन करने पर मजबूर होना पड़ा था।21 ललितपुर जिले के भारशिव सूचक कुछ स्थान-नाम इस प्रकार हैं -
कठवर (तालबेहट)
मर्रोली (महरौनी)
जरावली (महरौनी)
भारौनी (महरौनी)
शब्द और नाम के अर्थ को पृथक अथवा शाब्दिक अर्थ में ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं धार्मिक अर्थों को समाहित करते हुए ललितपुर जिले के कुछ अन्य स्थान-नाम हैं -
(क) सर्प पूजक षिल्पी -
कुरु - कुरौरा (महरौनी)
पुरु - पुरा (ललितपुर)
मय - मैलवारा (ललितपुर)
(ख) ईरान निवासी सूर्य पूजक -
नाग - नगारा (महरौनी)
भोगनाग - भागनगर (महरौनी)
यक्ष - जखौरा (तालबेहट)
मग - मगरपुर (ललितपुर)
(ग) मौर्य वंष -
मैरती (ललितपुर)
(घ) मेव (तुगलक कालीन एक आतंकवादी जाति)
महोली (ललितपुर)
(ड़) वाकाटक तथा गोंड़
बहरावट (ललितपुर)
तालबेहट (तालबेहट)
बालाबेहट (ललितपुर)
खिरिया बेहटा (तालबेहट)
(च) उच्छकल्प
छिल्ला (महरौनी तथा ललितपुर)
‘सांस्कृतिक भूगोल कोश’ (श्याम सुंदर भट्ट) में वर्णित उच्छवृŸिा से भी इसका तारतम्य हो सकता है। खेतों से अनाज के ढेर हटा लेने के बाद कुछ दाने छूट जाते हैं। प्राचीन काल में कुछ तपस्वी ब्राह्मण इन दानों को एकत्रित कर अपनी आजीविका चलाते थे। इस वृŸिा को उन दिनों अपमानजनक नहीं माना जाता था।
(छ) खड़परिका
खड़ोवरा (ललितपुर)
(ज) प्रतिहार
पहारी (महरौनी)
(झ) पाताली
पाली (ललितपुर)
(´) कल्चुरि
कलौथरा (तालबेहट)
(ट) सेंगर
सिंगरवारा (महरौनी)22
इसी तरह ‘पिपरिहा’ का शाब्दिक अर्थ पीपल से संबंधित है, किंतु यह राजपूतों की एक शाखा या अल्ल भी हो सकती है।23 ललितपुर जनपद में ऐसे स्थान-नाम हैं -
पिपरई (ललितपुर), पिपरौनियां (ललितपुर), पिपरिया वंशा, पिपरिया डोंगरा, पिपरिया पाली तथा पिपरिया जागीर (ललितपुर)
शिरीष वृक्ष भूरी छाल वाला ऊंचा पेड़ होता है। इसकी और इमली की पŸिायां एक जैसी होती हैं। मार्च-अप्रैल में यह फूलता है। शिरीष में मृदु, सफेद, सुंदर और सुगंधित फूल लगते हैं। आयुर्वेद में इसे चरपरा, शीतल और कसैला माना गया है। यह त्रिदोष नाशक तथा खुजली, बवासीर, कोढ़ और पसीना में उपयोगी है।24 वहीं एक अन्य दृष्टि से देखें तो महाभारत के सभा पर्व (32, 6) के अनुसार नकुल ने अपनी पश्चिम दिशा की दिग्विजय में ‘शैरीषक’ नगर को जीता था।25 सिरसी (तालबेहट) तथा सिरसी खेड़ा (ललितपुर) उपर्युक्त में किसी से संबंधित हो सकते हैं। गुरयाना (महरौनी) गुरु द्रोणाचार्य से संबंधित अथवा अनुकृत हो सकता है।
खिरिया छतारा (ललितपुर) - महाभारत के आदि पर्व (165, 21) में वर्णित ‘अहिछत्र’26 कंधारी कलां (तालबेहट)  - गांधारी27, कुलुवा (ललितपुर) - कल्हणकृत राजतरंगिणी (3, 452) में ‘कुलूत’ राज्य की वर्णित प्राकृतिक शोभा28, कोकटा (ललितपुर)-ऋग्वेद (3, 53, 14) यास्क कृत निरुक्त (6, 32), वायु पुराण (108, 73) एवं वृहत् धर्म पुराण (26, 47) जैसे गं्रथों में वर्णित असभ्य, अनार्य और अनादरणीय जनों का निवास क्षेत्र ‘कीकट’29 से संबंधित अथवा अनुकृत हो सकते हैं। ललितपुर जनपद के निम्नलिखित कुछ अन्य स्थान-नामों में अर्थ परिवर्तन इस प्रकार हुए हैं -
ऐरा (ललितपुर) - ‘एरका’ - महाभारत में वर्णित कथा के अनुसार श्री कृष्ण के पुत्र सांब ने अपने पेट पर वस्त्रों को लपेट कर सप्तर्षियों का मजाक किया था। इससे सांब के पेट से मूसल निकला। यदुकुल के राजकुमारों को पता था कि यही मूसल उनके विनाश का कारण बनेगा। अतः उन्होंने इस मूसल का चूरा बना दिया और उसे समुद्र में बहा दिया। कालांतर में वही चूरा ‘एरका’ नामक घास बन गया। इसी घास की तीखी नोकों से यदुकुल विनाश को प्राप्त हुआ।30 ऐरा बुंदेली बोली में सिंचाई करने की भूतकालिक क्रिया भी है।
सौल्दा (महरौनी) - उत्तरी राजस्थान के बीकानेर से अलवर तक फैले हुए बड़े भूभाग का नाम ‘साल्व’ था। मेड़ता और जोधपुर इलाका भी उसी के अंतर्गत था। इस प्रदेश के नागौरी बैल प्रसिद्व रहे हैं। संभवतः यहां के बैलों का ललितपुर के इस स्थान पर विपणन होता रहा होगा, अतः साल्व प्रदेश से अनुकृत होने के कारण इस स्थान का नाम सौल्दा (साल्व $ स्थल) पड़ा है।31
उशा कुंड-बानपुर के पास जमड़ार नदी में (तहसील महरौनी) - पुराण प्रसिद्व बाणासुर की पुत्री उषा एवं अनिरुद्व की प्रणय गाथा श्रीमद्भागवत (10, 62) में सविस्तार वर्णित है। उषा कुंड का अभिज्ञान इस शिवभक्त बाणासुर की पुत्री उषा से माना गया है। केदारनाथ (उŸाराखंड) के समीप उखीमठ क़स्बे से तथा भरतपुर (राजस्थान) में स्थित उखा मन्दिर से भी ‘उषा’ का संबंध स्थापित किया जाता है।32
चंदावली (महरौनी), चांदरो, चंद्रापुर (तालबेहट), चांदौरा, चंदेरा, चांदपुर (ललितपुर) - चंद्रमा पृथ्वी का उपग्रह है। ज्योतिष के अनुसार चंद्र कर्क राशि का स्वामी है। वहीं चंद्र जल तत्व का देवता है। आयुर्वेद में इसकी प्रवृŸिा कफ की है। वायव्य दिशा, स्त्रीलिंग, सत्वगुण, लवण रस, स्थूल आकार, मोतीमणि, सौम्य स्वभाव, छाती और गले की पीड़ाकारक, समदृष्टि चंद्रमा की विशेषताएं होती हैं। स्थान-नाम के अर्थ परिवर्तन संबंधी एक अन्य व्याख्या के अनुसार शोण नदी का उद्गम-स्थल चंद्र पर्वत माना गया है। शिशु पुराण में नर्मदा नदी को सोमोद्भवा कहा गया है। चंद्र पर्वत अमरकंटक (विन्ध्याचल) का ही दूसरा नाम है।33 अतः चंद्र संबंधी स्थान-नाम इस पर्वत के नाम पर रखे गए हो सकते हैं।
डोंगरा कलां (ललितपुर) - महाभारत (सभा पर्व 52, 13 तथा 27, 18) के वर्णन क्रम में दार्व जनपद का उल्लेख दो घटनाओं के संदर्भ में आया है। एक घटना में अर्जुन दार्व जनपद को अपनी विजय यात्रा के क्रम में पराजित करता है। दूसरी घटना में युधिष्ठिर के राज्याभिषेक के अवसर पर दार्व के नृपति द्वारा उपहार भेंट करना वर्णित है। एक अन्य मत के अनुसार डुग्गर जाति के लोगों का मूल स्थान जम्मू कश्मीर है और डुग्गर जाति ही प्राचीन दार्व जाति थी। डुग्गर जाति आज डोगरा जाति के नाम से जम्मू में निवास करती है। कुछ अन्य विद्वान भारत की उŸार-पश्चिमी सीमा पर स्वात नदी में मिलने वाली पंजकोर नामक सहायक नदी की घाटी को दार्व जनपद का आदि स्थान स्वीकारते हैं। यहां एक कस्बा दीर ;क्पतद्ध के नाम से जाना भी जाता है।34 पांडवों का संबंध जिला ललितपुर के सुदूर वन प्रांतर से भी बताया जाता है। इसलिये डोंगरा स्थान-नामों का तादात्म्य ‘दार्व’ से देखा जा सकता है।
धसान नदी - धसान का पुरातन नाम दशार्ण था। दशार्ण नाम से एक जनपद भी रहा है जो महाभारत के सभा पर्व (29, 4-5) में वर्णित है। यह जनपद भीमसेन द्वारा पदाक्रांत किया गया था। पद्म पुराण में (स्वर्ग खण्ड, अध्याय 6, श्लोक 36) यह जनपद मेकल के साथ गिनाया गया है। ब्रह्मपुराण के अध्याय 6 में इसका नाम मेकल, उत्कल, भोज एवं किष्किंधा के क्रम में रखा गया है। बौद्ध जातकों तथा कौटिल्य के अर्थशास्त्र (भाग-2) में भी दशार्ण का वर्णन आया है। कालिदास के मेघदूत (पूर्व मेघ 24-28) में यहां के प्राकृतिक सौंदर्य का सजीव वर्णन किया गया है। टॉलमी ने दशार्ण का नाम ‘दोसारा’ (भूगोल 8, 1, 77) कहा है।
दशार्ण का अर्थ है, दस नदियों अथवा दस दुर्गांे वाला प्रदेश। धसान की सहायक नदियों द्वारा यह प्रदेश सिंचित है। जमड़ार धसान की एक प्रमुख सहायक नदी हैै। इसी नदी में उषा कुंड बानपुर के पास स्थित है। वायु पुराण (पूर्वार्ध अध्याय 45, श्लोक 99-101) में ऋक्ष पर्वत से निकलने वाली नदियों (यथा-शोण, महान, नर्मदा, मंदाकिनी, दशार्ण तमसा इत्यादि) में भी इसका नाम आता है।35 पं0 हरिविष्णु अवस्थी ने दशार्ण (धसान) नदी को बुंदेलखंड की संस्कृतिवाहिनी कहा है।36 अवस्थी जी ने प्रो0 बलभद्र तिवारी की पुस्तक ‘बुंदेली समाज और संस्कृति’ के आधार पर प्रहलाद की दस ऋणों से मुक्ति होने कारण इस प्रदेश को दशार्ण और यहां बहने वाली नदी को दशार्ण बताया  गया है। यह कथा गर्ग संहिता में आई है।
बछरई (महरौनी) बछलापुर (ललितपुर) - चांदपुर ग्राम, जो देवगढ़ तथा दूधई (ललितपुर) मे मध्य में स्थित है, से एक स्तंभलेख उपलब्ध हुआ, जो किसी अज्ञात पुरुष का लेख है, यह महाप्रतिहारान्वय बच्छगोत्रीय है।37इसी आधार पर इन स्थानों का नामकरण हुआ है।
चौंतराघाट (ललितपुर) - चंदेलों का राज्यकाल उनकी विजयों तथा वीरता के लिए ही प्रसिद्ध नहीं है। स्थापत्य तथा ललित कलाओं की भी इस युग में पर्याप्त उन्नति हुई है। अनेक तालाब, मंदिर, बैठक तथा चबूतरों का निर्माण इस युग में हुआ।38 चंदेल शासक मदनवर्मन (1128-1164 ई0) के नाम पर स्थापित मदनपुर (महरौनी) ग्राम उनकी यशगाथा का बखान करता है। ललितपुर जनपद के चंदेलकालीन पुरातात्विक साक्ष्य देवगढ़ चांदपुर, दूधई, सीरोन खुर्द (ललितपुर) तथा बानपुर (महरौनी) में दृष्टव्य भी हैं।
बमनौरा (ललितपुर) - महाभारत (सभा पर्व 51, 5) में एक ब्राह्मण जनपद का उल्लेख आया है। ग्रीक लेखक एरियन ने इसे ब्रह्मनोई ;ठतंीउंदवपद्धनाम से सम्बोधित किया है।39
ललितपुर जिले में कुछ स्थान-नाम ऐसे भी हैं जो किसी अन्य नगर अथवा स्थान के नाम पर अनुकृत किए गए हें। ऐसे स्थानों का नामकरण संबंधित नगर के व्यक्तियों के स्थान-नाम पर हुआ संभव है -
भोपालपुरा (तालबेहट) - भोपाल से
झांसीपुरा - ललितपुर - झांसी से
मथरा (तालबेहट) - मथुरा से
विरधा (ललितपुर) - वर्धा से
विघाखेत (ललितपुर) - विघा महावत (ललितपुर) - पुराणों में पर्वतीय क्षेत्र के 53 उप विभागों (क्षेत्रों) का वर्णन हुआ है। इन उपविभागों में से एक का नाम ‘विहा’ है।40जिले के विघा नाम के स्थान इस पर्वतीय क्षेत्र से अनुकृत संभव हैं।
जिजरवारा (तालबेहट) - रामायण (4, 40) में वानरों द्वारा सीता जी की खोज में पूर्व दिशा की ओर की गई यात्राओं का वर्णन है। इसके अनुसार वानरों ने यवद्वीप (जावा) के बाद शिशिर पर्वत को पार किया। विष्णु पुराण (2, 2, 27-त्रिकूटः शिशिरश्चैव पतंगो रुचकस्तथा) में इस पर्वत की स्थिति मेरु पर्वत (आधुनिक पामीर) के दक्षिण में बताई गयी है।  विष्णु पुराण के (2, 4, 5) एक वर्णन के अनुसार राजा मेघा तिथि के पुत्र शिशिर के नाम पर प्लक्ष द्वीप के एक भूभाग का नाम प्रसिद्व हुआ। इसे शिशिर वर्ष भी कहते हैं।41 एक ऋतु विशेष ‘शिशिर वसंतौ पुनरायातः’ (आद्य शंकराचार्य कृत चर्पटपंजरिका स्तोत्र से) का नाम भी शिशिर है।
ललितपुर जिले के स्थान-नामों के संदर्भ में उपर्युक्त विवेचन अर्थतत्व को उसके शाब्दिक अर्थ से परे अर्थों को उद्घाटित करता है। अर्थतत्व में अंतर्भुक्त विभिन्न प्रवृŸिायों के विश्लेषण के लिए ललितपुर जनपद के स्थान-नामों को उनमें प्रयुक्त शब्दों के आधार पर निम्नलिखित कोटियों में विभक्त किया जा सकता है -
1- ऐतिहासिक
2- राजनीतिक
3- सामाजिक
4- सांस्कृतिक
5- धार्मिक
6- प्राकृतिक
1- ऐतिहासिक आधार - ललितपुर जनपद के स्थान-नामों में वैदिक युग की ध्वनियों से लेकर गांधी और अंबेडकर युग तक की शब्दावली प्रयुक्त हुई है। यहां के स्थान-नामों में पौराणिक प्रत्यय एवं परपद प्रयुक्त हुए हैं। जिले के स्थान-नाम यहां की ऐतिहासिक परंपरा से अनुप्राणित हैं। यहां के स्थान-नामों में ऐतिहासिक साक्ष्यों के अंश अभी भी विद्यमान है। ऐसे कुछ स्थान-नाम अधोलिखित प्रकार से हैं -
(क) वैदिक षब्दावली - गोठरा (महरौनी)- गायों के खड़ा होने का स्थान42
धवा (महरौनी)- एक वृक्ष
दशरारा (तालबेहट)- दाशराज्ञ
(ख) पौराणिक परपद -
सारसेंड़(तालबेहट) - सारस $ अरण्य
नगवांस(तालबेहट) - नागपाश
(घ) पवित्र एवं औशधीय तृणादिक
दावनी (ललितपुर) दर्भ43
बूटी (महरौनी)
गूगर (तालबेहट)
(ड.) जलाषय -
धौरीसागर (महरौनी)
तालगांव (ललितपुर)
बम्हौरी सर (तालबेहट)
झिलगुवां (ललितपुर)
(च) यक्ष एवं यमवाची -
जखौरा (तालबेहट)
जमौरा (महरौनी)
(छ) मातृदेवी -
मातृदेवियां असंख्य हैं। जिले के प्रत्येक गांव में कम-से-कम एक मातृदेवी की पूजा प्रचलित है। अक्सर ऐसी देवी का कोई खास नाम नहीं होता; वह सिर्फ आई अर्थात् माता कहलाती है। इन देवियों की पुरातनता इसी से सिद्ध होती है कि इनमें से किसी के कोई पुरुष संगी या पति नहीं है। इन देवियों के निराले नाम देखकर ऐसा लगता है कि इनका संबंध ऐसे किसी छोटे-मोटे जनजातीय समूह से रहा है जो अब या तो निःशेष हैं या सामान्य देहाती करबादी(बेचैनी) में इस क़दर घुलमिल गया है कि उसका कोई चिन्ह शेष नहीं रहा। ललितपुर जिले के अधिसंख्य स्थान-नाम इन्हीं मातृदेवियों के नामों पर आधारित हैं। कबीलाई लोग किसी विपदा के आने पर हर छोटी-मोटी वस्तु पर मातृदेवी का नाम रखकर पूजते थे। उनका विश्वास था कि हमारी इससे रक्षा होगी।
इन मातृदेवियों की पूजा पद्धतियों का आदिम उद्भव और स्वरूप इस हिदायत से साबित होता है कि पूजा के पाषाण के अंदर कोई आच्छादन नहीं, खुला आसमान होना चाहिए। उसके ऊपर छत डाल देने से भारी विपŸिा आ पड़ती है लेकिन गांववाले जब पर्याप्त धनी हो जाते, तब प्रायः देवी को मनाकर इसके लिए राजी कर लेते हैं। यह पूजा पद्धतियां उस समय की है जब घर बसाने का चलन नहीं था और गांव चलते-फिरते हुआ करते थे।
ये देवियां हैं तो माताएं (मातृदेवियां) किंतु अविवाहित हैं। जिस समाज में इनका उद्भव था, उसकी दृष्टि में किसी पिता का होता आवश्यक नहीं था। आगे चलकर उनका विवाह किसी पुरुष देवता से होने लगा।
चौमासा त्रैमासिक (सं0 डॉ0 कपिल तिवारी) जुलाई अक्टूबर, 2008 में डॉ0 महेंद्र भानावत के आलेख ‘भारतीय देववादः उद्भव और विकास’ में दिया गया है कि बहुत पहले जब लोगोें को चेचक की व्याधि का पता नहीं था, तब लोगों ने इसे शरीर में उठी गर्मी के बुलबुले माना और देह में शीतलता के संचार के लिए शीतला माता जैसी देवी (इसी को रोढ़ि माता भी कहा गया है) की कल्पना और प्रतिष्ठा की। इस मान्यता का विकास 7वीं से 9वीं शताब्दी तक माना जा सकता है, क्योंकि इसी काल में मार्कंडेय पुराण और स्कंद पुराण की रचना हुई, जिनमें शीतला माता का स्मरण किया गया है।
ललितपुर जनपद में पांडवों के अज्ञातवास बिताने के पूर्व तक गोंड़ों का राज्य था। गोंड़ अपने जीवन में भय, बीमारियों से डर और दैवी आपदाओं से बचने के लिए कई मनगढंत देवी-देवताओं की उपासना करते हैं। जरा सा भय हुआ कि गोंड उसे देव की तरह पूजने लगता है। गोंड जनजाति देश की सबसे बड़ी जनजाति है। इन्होंने अपना धन जमीन में दबा रखा था जो ललितपुर जनपद और उसके आस-पास के निवासियों को मिलता रहा है। धनगोल (तालबेहट) ‘गोंड़ांे का धन‘ स्थान-नाम इसकी पुष्टि करता है। जनजातियों का एक प्रकार भीलों का है। इनका झूमर नृत्य गोंड़ों के करमा नृत्य का ही एक रूप है। ललितपुर जिले की तालबेहट तहसील में ‘झूमर नाथ’ नामक स्थान पर यह नृत्य किया जाता रहा होगा। वर्तमान में इस स्थान पर भगवान शंकर की पूजा-उपासना की जाती है। मातृदेवियों पर इस जिले में कुछ इस प्रकार स्थान-नाम मिलते हैं-
मावलैन (तालबेहट) - मावला माता
भावनी (तालबेहट) - भवानी
जाखलौन (ललितपुर) - जाखमाता
व्युत्पŸिा की दृष्टि से जिले के जाखलौन तथा जखौरा नाम यक्षी और डाकिनी से संबंधित है। कहीं-कहीं ऐसी मान्यता है कि जो औरतें बच्चा जनते समय अथवा डूबकर मर जाती हैं वे ऐसी प्रेतात्मा या पिशाची बन जाती हैं और उन्हें इस नाम से पूजा जाता है।44
(ज) पौराणिक -
बानपुर (महरौनी) - बाणासुर
बानौनी (महरौनी) - बाणासुर
कोटरा (तालबेहट) - बाणासुर की मां
(झ) बुद्धकाल -
बुदनी (महरौनी)
पाली (ललितपुर)45
वर्ष 2003 में शारदा पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली से प्रकाशित डॉ मालती महाजन की पुस्तक ‘उड़ीसा: फ्रॉम प्लेस नेम इन इंस्क्रिप्शंस’ (260 वीसी- 1200 ए डी) के पृष्ठ 22 में दिए गए विवरण के अनुसर ‘पाली’ शब्द ‘पाल’ के निष्पन्न हुआ है। डॉ महाजन ने मोनियर मोनियर विलियम्स के संस्कृत इंग्लिश कोश के हवाले से बताया है कि पहले घुमंतू लोगों द्वारा छोटी बस्ती बसाने के लिए ‘पाल’ कहा जाता था। ‘पाली’ पाल का ही विकसित रूप है। आगे ‘पालिका’ इत्यादि शब्द भी इसी से बने हैं।
(´) भारषिवों से संबंधित -
भारौनी (महरौनी)
कठवर (तालबेहट)
मर्रोली (महरौनी)
जरावली (महरौनी)
(ट) मौर्य कालीन
मैरती कलां (ललितपुर)
(ठ) हर्श कालीन
हर्षपुर (तालबेहट)
(ड) रामायण कालीन -
हनूपुरा (तालबेहट)
भरतपुरा (ललितपुर)
रघुनाथपुरा, रामनगर (ललितपुर)
(ढ) महाभारत कालीन -
कोरवास (महरौनी)
कनपुरा (महरौनी)
कंधारी कलां (तालबेहट)
पड़वां (महरौनी)
पड़रिया (महरौनी)
(ण) मुस्लिम कालीन -
दौलता (तालबेहट)
जमालपुर (तालबेहट)
तुरका (तालबेहट)
(त) स्वतंत्रता संघर्श कालीन
फौजपुरा (ललितपुर)
बख्तर (ललितपुर)
सजा (ललितपुर)
रनगांव (महरौनी)
(थ) स्वातंत्र्योŸार कालीन -
गांधी नगर - ललितपुर
नेहरू नगर - ललितपुर
इंदिरा कालोनी - महरौनी
इतिहास के साथ-साथ ललितपुर जिले के भौगोलिक परिवेश को उद्घाटित करते हुए कुछ स्थान-नाम इस प्रकार हैं -
(क) पठार वाची - पठा (महरौनी)
पहाड़ी खुर्द (महरौनी)
ककरेला (तालबेहट)
टौरिया (महरौनी)
(ख) भूमिदषा वाची -
पथराई (महरौनी)
कारी टोरन (महरौनी)
घुवरा (तालबेहट) - गौरा पत्थर
ककरुवा (महरौनी)
2- राजनीतिक आधार -
राजनीतिक घटनाक्रम ही आगे चलकर इतिहास बनता है। दतिया (मध्य प्रदेश), धामौनी (सागर-म0प्र0) और झांसी में बुंदेलखंड की तत्कालीन राजधानी ओरछा के शासक वीरसिंह जू देव ने क़िलों का निर्माण कराया। महाश्वेता देवी के उपन्यास ‘झांसी की रानी’ के अनुसार जूदेव ने उस समय कहा था- ‘धामौनी गढ़ में फौज रहेगी, दतिया का किला बहुत मनोहर और रमणीय होगा तथा झांसी का क़िला होगा सिंह और हाथी के साथ मुठभेड़ करने के लिए’। जनश्रुति यह है कि वृद्धावस्था होने पर वे दतिया से झांसी की तरफ क़िला नहीं देख सके। बोले ‘आंख में पूरी झांई-सी भर रही है।’ इसी आधार पर इस स्थान का नाम झांसी हो गया।46 इससे पूर्व झांसी का नाम बलवंतनगर था। झांसी रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म 1 पर एक स्तंभ पर ओरछा के क़िले से झांसी क़िले को देखना लिखा है। परिवर्तन के दोनों बिंदुओं को इतिहास कहा जाता है। ललितपुर जनपद के अधोलिखित स्थान-नाम राजनीति की प्राचीन परंपरा से लेकर आधुनिक परिवर्तनों तक को रूपायित करते हैं -
(क) गौड़ काल -
बालावेहट (ललितपुर)
बेहटा (तालबेहट)
(ख) पांडव काल -
बंडवा (महरौनी)
पड़ोरिया (ललितपुर)
(ग) बुद्ध काल -
बुदनी (महरौनी)
बुधेड़ी (तालबेहट)
(घ) गुप्तकाल -
देवगढ़ (ललितपुर)
(ड.) चंदेल एवं बुंदेल काल -
चंदेलकाल- मदनपुर (महरौनी)  दूधई (ललितपुर)
बुंदेलकाल- कुंवरपुरा (महरौनी) पंचमपुर (ललितपुर)
(च) स्वातंत्र्य संघर्श काल -
सुभाषपुरा - ललितपुर
सिंदवाहा (महरौनी)
(छ) स्वातंत्र्योŸार काल -
गांधी नगर - ललितपुर
(ज) मुस्लिम षासकों से संबंधित -
शाहपुरा (तालबेहट)
(झ) उपाधि एवं पदों से संबंधित -
राज - राजपुर (तालबेहट)
रानी - राइन (ललितपुर)
महाराज - महाराजपुर (महरौनी)
कुंवर - कुंवरपुरा (तालबेहट)
जागीर - पिपरिया जागीर (ललितपुर)
(´) आदर्ष राजनेताओं से संबंधित -
छत्रसालपुरा - ललितपुर
आजादपुरा - ललितपुर
सुभाषपुरा - ललितपुर
गांधी नगर - ललितपुर
राजनेताओं के नाम पर यह स्थान-नाम स्वाभाविक रूप से ललितपुर नगर में ही प्रचलित हैं और यह अपेक्षाकृत बाद में घटनाओं के कालक्रमानुरूप रखे गए हैं। ऐतिहासिक घटनाओं का समाज पर पड़े प्रभाव को यह स्थान-नाम प्रतिबिंबित करते हैं। इस प्रकार उपर्युक्त राजनीतिक स्थान-नाम राजनीतिक घटनाओं, व्यक्तियों का व्यक्तित्व एवं कालक्रम प्रस्तुत करते हैं।
3- सामाजिक आधार -
ललितपुर जिले का समाज विविधता में एकता का जीवंत उदाहरण है। यहां हिंदू, मुसलमान, सिख और ईसाई समुदाय के व्यक्ति भाई चारे के साथ रहते आए हैं। व्यक्तियों से ली गई जानकारी एवं अपनी स्मरण शक्ति के आधार पर यह कहा जा सकता है कि यहां 1984 ई मंे इंदिरा गांधी की हत्या होने के बाद के सिख दंगों में हुई छुट-पुट लूट-पाट के अतिरिक्त कोई दंगा अथवा सांप्रदायिक उन्माद नहीं फैला है। हिंदू संप्रदाय अधिसंख्य है, यह विभिन्न जातियों में वर्गीकृत है। मुस्लिमों में भी उनके सामाजिक ढांचे के अनुसार जातियां वर्गीकृत हैं। सबके जीविकोपार्जन के साधन पृथक-पृथक हैं। अधिकांश व्यक्ति कृषि पर अवलंबित हैं। धार्मिक मान्यताएं भी सबकी भिन्न-भिन्न हैं, जन-जीवन श्रमजीवी है। मूल रूप में व्यक्ति स्वार्थी है, पर समूह के सम्मुख वह प्रतिष्ठा अर्जनार्थ परमार्थी होने का पाखंड रचता है।

(क) वर्ण एवं जाति - जिले के परपद तथा विभेदक संयुक्त स्थान-नामों में निम्न जातियों की पहुंच नहीं हो पाई है, यद्यपि यहां पिछड़ी जातियों से संबंधित विभेदक प्रयुक्त हुए हैं, किंतु दलित जातियों से संबंधित स्वतंत्र स्थान-नाम भी यहां पाए गए हैं, यथा-
ब्राह्मण - टीकरा तिवारी (ललितपुर)
तिबरयाना - तालबेहट
रावतयाना - ललितपुर
पंडियाना - पाली (ललितपुर)
पंडों का पुरा - महरौनी
चौबयाना - ललितपुर
सुकलगुवां (महरौनी)
खिरिया मिश्र (महरौनी तथा ललितपुर)
बमनगुवां (तालबेहट)
बमनौरा (ललितपुर)
वैश्य - बनयाना (महरौनी)
सरफयाना - तालबेहट
मलैयापुरा - महरौनी
चौधरीपुरा - महरौनी
ठाकुर - खिरिया भारंजू (महरौनी)
खिरिया लटकनजू (महरौनी)
शूद्र - सूडर (ललितपुर)47
कुम्हार      -  कुमरौला (ललितपुर)
धोबी - धोवन खेरी (ललितपुर)
कोरी - कुर्रट (महरौनी)
कुरयाना - पाली (ललितपुर)
चढ़ार - चढ़रा (महरौनी)
सहरिया - सोंरई (महरौनी)
भील - भैलोनी लोध (तालबेहट)48
चमार - चमरयाना -ललितपुर
चमरउवा (ललितपुर)
मुसलमान - कसाई मंडी - ललितपुर
शेख का कुंआपुरा - महरौनी
काछी - कछियाकुंआपुरा - महरौनी
लुहार - लुहरयाना - महरौनी
कायस्थ - कायस्थपुरा - महरौनी
सिख - सरदारपुरा - ललितपुर
नट - नटयाना - पाली (ललितपुर)
लोधी - लिधौरा (महरौनी तथा ललितपुर)
यादव - कुआं घोसी (महरौनी)
(ख) पारिवारिक तथा सामाजिक संबंध -
जीजी - जिजयावन (ललितपुर)
देवर - देवरा (महरौनी)
साढ़ू - साढू़मल (महरौनी)
(ग) व्यावसायिक वर्ग से संबंधित -
रंडी - रनगांव (महरौनी)
वैद्य - बैदपुर (महरौनी)
मोगिया - मौगान (महरौनी)
(घ) अस्त्र-षस्त्र से संबंधित -
कवच - बख्तर (ललितपुर)
तुवन मंदिर - ललितपुर49
सेना - फौजपुरा (ललितपुर)
छायन (महरौनी)
(ङ) प्रसिद्ध स्थान तथा नगरों पर आधारित -
जलंधर (महरौनी)
रामपुर (तालबेहट)
रायपुर (तालबेहट)
मऊ (तालबेहट) - ‘मही’ का ध्वनि परिवर्तन हो सकता है।
वर्मा बिहार (तालबेहट)
(च) दैनंदिन वस्तुओं पर आधारित -
सांकली (ललितपुर) - श्रंृखला, दरवाजों पर लगाई जाने वाली सांकल
सांकरवार खुर्द तथा कलां (ललितपुर) - श्रृंखला
(छ) आभूशणों पर आधारित -
बेंदोरा (तालबेहट)
दांवर (ललितपुर)
दावनी (ललितपुर)50
(ज) सामाजिक दषाओं पर आधारित -
भैरा (महरौनी)
प्यासा (महरौनी)
पीड़ार (महरौनी)
गुंदरापुर (महरौनी)
ठाठखेड़ा (तालबेहट)
दौलतपुर (महरौनी)
कंगीरपुरा (महरौनी) - ग़रीब (बुंदेली शब्द कोश- डॉ कैलाश बिहारी द्विवेदी)
बीर (महरौनी)
(झ) खान-पान पर आधारित -
सक्तू (महरौनी) - सत्तू
बारचौन (महरौनी) - बेरचूर्ण
डॉ कामिनी के अनुसार ग्राम-नाम अनुमानाश्रित नहीं चलते। ग्राम-नामों में कोई न कोई अंश प्रमाण के लिए सदैव रहता है। सुकैटा (दतिया), असाटी (टीकमगढ़), बिल्हाटी (झांसी) तथा असनेट (भिंड) क्रमशः शुक, अश्व, बिल्व तथा अश्व-अन्न (रावत-घोड़े का दाना) से संबंधित हाटें (बाजार) थी।51 इसी तरह ललितपुर जिले का सुकाड़ी (महरौनी) ग्राम ‘शुक अरण्य’ से संबंधित हो सकता है।
4 - सांस्कृतिक आधार -
ललितपुर जनपद सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध एवं प्रभावकारी है। यहां की लोककलाएं, गीत-संगीत और नृत्य विशिष्ट है। ललितपुर जनपद का राई नृत्य विश्व में विरल है। सांस्कृतिक दृष्टि से भी यहां के स्थान-नामों में सुरुचि-संपन्नता प्राप्त होती है।
डॉ कैलाश चंद्र भाटिया के अनुसार ‘भाषा सामाजिक उपादान है, अतएव स्थल-नामविज्ञान का सीधा संबंध समाज शास्त्र से है। विजय की स्थिति में सांस्कृतिक शब्द स्थिर रहते हैं, मुख्यतः स्थान-नाम, जैसे अमेरिकी स्थान-नाम विस्कोन्सिन, मिशीगन, शिकागो आदि। विजेता परंपरा-प्रचलित स्थान-नामों को बदलता चलता है, जैसे भारत वर्ष में स्थान-स्थान पर अवस्थित सिकंदराबाद, औरंगाबाद आदि। उŸारी हालैंड में स्कैंडनैवी स्थान-नामों की भरमार है।52 यहां एक बात और ध्यातव्य है कि विजेता शासक मात्र नगरों अथवा शासित स्थान का अपने नाम पर नामकरण करता है। छोटे-छोटे ग्राम या स्थान उसकी सांस्कृतिक विजय यात्रा से अछूते रहते हैं। अतएव ऐसे स्थान-नामों के अध्ययन से संस्कृति की प्राचीनता को अविकल एवं अविच्छिन्न रूप में समझा जा सकता है। साथ ही आक्रमणकारियों के प्रभाव को उनके द्वारा छोडे़ गए सांस्कृतिक अवशेषों के आधार पर चिन्हित किया जा सकता है। इस प्रकार स्थान-नामों मंे संस्कृति का अत्यंत प्रामाणिक क्रम सुरक्षित रहता है।
डा0 वासुदेव शरण अग्रवाल की मान्यता है कि स्थान-नामों में प्रत्यय, शब्दों का अर्थ सुलझाने के लिए उपयोगी होते हैं। पाणिनि ने अपने समय की भाषा के लिए यह काम बड़ी बारीकी से किया। उनसे पूर्व और उनके पश्चात् व्यक्ति-नाम और स्थान-नामों के पारस्परिक संबंध का इतना ब्यौरेवार अध्ययन नहीं हुआ।53 डॉ कैलाश चंद्र भाटिया ने भी कहा है ‘स्थान-नामों के अधिकांश रचनात्मक तत्व- पूर्वपद और परपद- भौगोलिक तत्वों से ही संबद्व होते हैं।54 ललितपुर जनपद के स्थान-नामों में हुइ सांस्कृतिक अभिव्यक्ति इस प्रकार है -
(क) सद्गुणों से संबंधित
सतगता (ललितपुर) - सद्गति
उŸामधाना (ललितपुर)
कल्यानपुरा (ललितपुर तथा तालबेहट)
(ख) लोकनृत्य से संबंधित -
नाचनी (ललितपुर)
नट राई (तालबेेहट) राई नृत्य
(ग) विषेश प्रथा से संबंधित -
तेरई (तालबेहट) - तेरहवीं
(घ) ऋशियों, महापुरुशों से संबंधित -
नड़ारी (महरौनी)55
कुसमाड़ (महरौनी) - कूष्मांड एक मंत्रकार ऋषि56
भौंड़ी (महरौनी) - भृगु
कुंवरपुरा (तालबेहट) - हरदौल
छत्रसालपुरा (ललितपुर) - छत्रसाल
(ड.) गुरूकुल से संबंधित -
गुरसौरा (ललितपुर) - गुरु की सराय
गुरयाना (महरौनी) - गुरु स्थान
(च) संगीत से संबंधित -
टोड़ी (तालबेहट)57
(छ) त्योहारों से संबंधित -
गनगौरा (ललितपुर)
5- धार्मिक आधार -
ललितपुर जनपद का जनजीवन धर्म से अनुप्राणित है। आमजन अपने जीवन की असफलता का त्राण ईश्वर और धर्म में पाता है। कदाचित् उसे संतोष करने के लिए इससे बढ़कर कोई भरोसा भी नहीं है। ललितपुर नगर के मध्य में तुवन मंदिर है, जहां अंग्रेजों की तोपें रखीं जाती थी। इसीलिये यह ‘तोपन-टीला’ हुआ और भाषाई विकास क्रम में तुवन हो गया। विभिन्न धर्मो पर आधारित ललितपुर जनपद के स्थान-नाम इस प्रकार हैं -
(क) इस्लाम धर्म पर आधारित -
अजान (महरौनी)
(ख) बौद्ध धर्म पर आधारित -
बुधेड़ी (तालबेहट)
बुदनी (महरौनी)
(ग) हिंदू धर्म पर आधारित -
गणेश - बिनेकाटोरन (ललितपुर)
राम - रघुनाथपुरा (ललितपुर)
भवानी - भावनी (तालबेहट)
शिव - महेशपुरा, शिवपुरा (ललितपुर)
लक्ष्मण - लखनपुरा (ललितपुर)
मातृदेवी - मावलैन (तालबेहट) - सप्तमातृकाएं
  दूधई (ललितपुर) - दूदा की माता
  भदौरा (महरौनी) - भादवा माता
  बरेजा (महरौनी) - पान माता
  भैंसाई (ललितपुर) - भैंसासरी माता
  माताटीला (तालबेहट)
  रिछा (ललितपुर) - रिछाई माता
  गनगौरा (ललितपुर) - गनगौर माता
  बिहामहावत (ललितपुर) - बैमाता
  असउपुरा (तालबेहट) - आसावरी माता
  भंवरकली (तालबेहट) - भंवर माता
  खोंखरा (ललितपुर)- खों-खों (खांसी)माता
  ऊमरी (महरौनी) - ऊमर की माता
ज्योतिर्लिंग - बैजनाथ (महरौनी)
देवता - सुरउवा (ललितपुर)
लक्ष्मी - लक्ष्मीपुरा - ललितपुर
देवताओं का निवास - देवगढ़ (ललितपुर)
स्थान देवता- थनवारा (ललितपुर)
ब्रह्या और विष्णु - बम्हौरी (तीनों तहसीलों में)
राधा - राधापुर (तालबेहट)
देव - देवरान (तालबेहट)
कृष्ण - किसलवांस (ललितपुर)
(घ) जैन धर्म पर आधारित -
महावीरपुरा (ललितपुर)
बनयाना (ललितपुर)
(ड़) सिख धर्म पर आधारित -
सैपुरा खालसा (ललितपुर)
6- प्राकृतिक आधार -
किसी स्थान के नामकरण में भूगोल का पग-पग पर सहारा लिया जाता है। ‘महावन’ नाम घोषित करता है कि वहां कभी सघन वन रहा होगा। देहरादून का ‘कासरौं’ नाम से पता चला कि ‘कांस’ नामक घास का सघन वन वहां होता था। ‘गोल्डकोस्ट’ स्वर्णभूमि की ओर संकेत करता है। शिवालिक पर्वत शृंखला की घाटी (द्रोण-दून) में स्थित होने के कारण देहरादून का विकास हुआ।58
स्थान-नामों की सहायता से किए गए अध्ययन द्वारा भौगोलिक सीमा विस्तार का परिचय उपलब्ध होता है।59 प्राकृतिक घात-प्रतिघातों से भूमि दशा परिवर्तित होती रही। इन परिवर्तनों को कुछ अंशों में स्थान-नाम सुरक्षित किए हुए हैं। प्रकृति के विविध रूपों - पर्वतों, वनों, नदियों - और नगरों के अवशेषों को क्रमानुसार विवेचित करने में स्थान-नाम सहायक हैं।
मनुष्य प्रकृति पर आदि काल से ही अवलंबित है। उसके सौंदर्य को देखकर मनुष्य आह्लादित होता है। पठार, पहाड़ियां, टीले-टौरियां, पशु-पक्षी, फूल-फलों की विविधता इस जनपद में मौजूद है, जो मनुष्य को स्वाभाविक रूप से आकर्षित करती है। प्रकृति के कुछ प्रमुख रूप इस जनपद में इस प्रकार हैं-
(क) वृक्ष -
अकोसा, अचार, अजान, अमलतास, अमोला, अमारा, अरजुन, अर्रू, असना, सेजा, आम, आंवला, एरवां, इमली, कांकर, कठबेर, कंजी, करघई, कसई, काला, सिरस, सलई, कैंथ, खरहरा, खैर, गुलमोहर, गूलर, चिलबिल, जामुन, तेंदू, तुन, धुआर, याज या धुर्रा, नीम, पलाश या ढाक, पिचार या चिंरौंजी, पीपल, बबूल, बरगद, महुआ, बहेड़ा, यूकेलिप्टस, शीशम, सागौन, सेंडलवुड, हल्दू।60
(ख) जंगली जानवर -
बंदर, लंगूर, शेर, गुलदार या बघेरा, जंगली बिल्ली, भालू, लकड़बग्घा, गीदड़ या सियार, जंगली कुत्ता, भेड़िया, लोमड़ी, चिकारा, कस्तूरी, चौसिंघा, नीलगाय, मृग या काला हिरन, चीतले, सांभर, जंगली सुअर, गिलहरी, साही और खरगोश।61
(ग) पालतू जानवर -
गाय, भैंस, बैल, बकरा-बकरी, भेड़, घोड़ा-घोड़ी, पड़ा (भैंसा), कुत्ता, बिल्ली प्रमुख हैं।
(घ) रेंगने वाले जंतु -
कछुआ, गोह, अजगर, धामन, नाग, करैत, रसेल, वाइपर प्रमुख हैं।
(ड.) मछलियां -
मछलियों के बहुत से प्रकार यहां पाए जाते हैं - करोंच, चेलवा, टेंगरा, दरियाई टेंगर, नैन, वाम, महासीर, मोह, मंगूर, रोहू, सिंधी, सिंधरी, सिलोंद, सौर इत्यादि।62
(च) औशधीय पादप -
अनेक औषधीय पादप यहां की टौरियों और जंगलों में पाए जाते हैं -
ब्राह्मी, शंकाहुली, छौंकर, अपामार्ग (अद्दाझारौ), रतनजोत (जैट्रोफा), सफेद मूसली, अश्व गंधा इत्यादि।
प्रकृति के उपर्युक्त रूपों तथा अन्य प्राकृतिक उपादानों पर आधारित ललितपुर जिले के स्थान-नाम इस प्रकार हैं -
(क) फल-फूलों से संबंधित -
बेर  - बिरारी (ललितपुर), विरौरा (ललितपुर)
महुआ का फल - गुलेंदा (तालबेहट)
सिंघाड़ा - सिंगरवारा (महरौनी)
नीमफल - निवारी (महरौनी)
खजूर - खजुरिया (ललितपुर)
(ख) पेड़-पौधों से संबंधित -
आम - अमउखेड़ा (ललितपुर)
  अमौरा (महरौनी)
  अमौदा (महरौनी)
इमली - इमलिया (महरौनी)
बरगद - बरतला (महरौनी)
  बारौद (ललितपुर)
  बरखेरा (ललितपुर)
  बरौदा स्वामी (ललितपुर)
  बर खिरिया (ललितपुर)
  बरोदी नकीव (ललितपुर)
  बटवाहा (तालबेहट)
  बरौदिया (महरौनी)
खैर (खदिर) - खैराई (महरौनी)
  खैरी (महरौनी)
  खैरपुरा (महरौनी)
  खैरा (तालबेहट)
  खैरी डांग (तालबेहट)
  खैरा डांग (तालबेहट)
कैथ (कपित्थ) - कैथोरा (ललितपुर)
गूलर (ऊमर) - ऊमरी (महरौनी)
चिरौल - चिरौला (महरौनी)
नीम - नीम गांव (महरौनी)
सेमल - सेमरा .. (महरौनी)
  सेमर खेड़ा (महरौनी)
  सेमरा भाग नगर (महरौनी)
  सेमरा (ललितपुर)
अनार - अनौरा (ललितपुर)
महुआ - महुआ खेड़ा (महरौनी)
महोली - महोली (ललितपुर)63
तेंदू - तिंदरा (तालबेहट)
जामुन - जामुनधाना कलां एवं खुर्द (ललितपुर)
  जमुनिया कलां एवं खुर्द (महरौनी)
गुरार या सिर्स - सिरसी खेड़ा (ललितपुर)
नीबू - बिजौरी (ललितपुर)
पीपल - पिपरिया (महरौनी)
  पिपरट (महरौनी)
  पिपरई (ललितपुर)
  पिपरौनिया (ललितपुर)
  पिपरिया (ललितपुर)
अंडी - अंडेला (ललितपुर)
कंद - कंधारी कलां (तालबेहट)
दर्भ - दावनी (ललितपुर)
पान - बरेजा (महरौनी)
तिल - तिलहरी (ललितपुर)
करौंदा - करौंदा (महरौनी)
ककड़ी - ककड़ारी (महरौनी तथा तालबेहट)
कुम्हड़ा - कुम्हैड़ी (महरौनी)
कपास - कपासी (ललितपुर)
मिर्च - मिर्चवारा (ललितपुर तथा महरौनी)
बाजरा - बजर्रा (ललितपुर)
बल्लरी - बलरगुवां (तालबेहट)
गूगल - गूगर (तालबेहट)
  गुगरवारा (महरौनी)
शंकाहुली - सांकली (ललितपुर)
अजान - अजान (ललितपुर)
जड़ - जरुवा (महरौनी)
सेवन - सिवनी कलां (ललितपुर)
(सी) वनी (सीमा पर स्थित) से भी विकसित हो सकता है।64
(ग) जल स्त्रोतों से संबंधित -
तालगांव (ललितपुर)
तलैयापुरा (ललितपुर)
कुआंतला (ललितपुर)
तालाबपुरा (ललितपुर)
बरतला (महरौनी)
तलऊ (महरौनी)
दारुतला (महरौनी)
झरर (तालबेहट)
झिलगुवां (ललितपुर)
तालबेहट (तालबेहट)
धौरी सागर (महरौनी)
कुआगांव (महरौनी)
बम्हौरी सर (तालबेहट)
गंगासागर (महरौनी)
कुआ घोसी (महरौनी)
(घ) पषु-पक्षियों से संबंधित -
भैंसर्रा (महरौनी) भैंस
रीछपुरा (ललितपुर) रीछ
गदयाना (तालबेहट) गधा
सेरवास कलां (तालबेहट) शेर का निवास
मादोन (ललितपुर) शेर का घर
बंदरेला (तालबेहट) बंदर
चितरा (ललितपुर) चीतल
सूडर (ललितपुर) सुअर
बघौरा (तालबेहट) बाघ
रिछा (ललितपुर) रीछ
तिंदरा (तालबेहट) तेंदुआ
बिलाटा (महरौनी) नर बिल्ली
बिल्ला (महरौनी) नर बिल्ली
चकोरा (महरौनी) चकोर
सुकाड़ी (महरौनी) तोता
गिदवाहा (महरौनी) गिद्ध
हंसरा (महरौनी) हंस
सारसेंड़ (तालबेहट) सारस
टेटा (तालबेहट) टेंटा65
कलरव (ललितपुर) पक्षियों का शोरगुल
घुवरा (तालबेहट) उल्लू
कोकटा (ललितपुर) चकवा
(ड.) जीव-जंतुओं से संबंधित -
धमना (तालबेहट) सर्प विशेष
मकरीपुर (महरौनी) मकड़ी
मगरपुर (महरौनी) मगरमच्छ
मछरका (महरौनी) मच्छर
मिदरवाहा (महरौनी) मेंढक
नगवांस (तालबेहट) नाग
भौंरसिल (ललितपुर) भ्रमर
गेवरा गुंदेरा (तालबेहट) विषखोपड़ा
(च) उपग्रह संबंधी -
इस श्रेणी में चंद्रमा से संबंधित छः स्थान-नाम जिले की तीनों तहसीलों में प्राप्त हुए हैं।
(छ) वन संबंधी -
झांकर (महरौनी) झाड़ - झंखाड़
झरावटा (महरौनी) झुरमुट
झरकौन (ललितपुर)
वनगुवां (महरौनी तथा तालबेहट)
इस श्रेणी में डांग (जंगल) विभेदक पांच स्थान-नाम जिले की तालबेहट तहसील में मिलते हैं।
(ज) अन्न संबंधी -
मसौरा खुर्द तथा कलां (ललितपुर) - मसूर
इस प्रकार स्थान-नामों के अर्थतात्विक अध्ययन से हमें तत्संबंधी इतिहास, समाज, संस्कृति, भूगोल, भाषा, अर्थ और राजनीति का परिज्ञान प्राप्त होता है।

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