Tuesday, October 27, 2015

‘अकाल और उसके बाद’ का पुनर्पाठ

‘अकाल और उसके बाद’ का पुनर्पाठ

डॉ राकेश नारायण द्विवेदी

हिंदी की पाठ्य-पुुुुुुुस्तकों में नागार्जुन की कविताएं विद्यार्थी काल से ही मुझे आकर्षित करती रही हैं। पाठ्य-पुस्तक में सारे अध्याय प्रथम पाठ में ही विद्यार्थी को हृदयंगम हो जाएं, ऐसा बहुधा नहीं होता; किंतु नागार्जुन की रचना से पाठक जुड़े बिना नहीं नह पाता। नागार्जुन की कविता सहज बोधगम्य और आम आदमी की कविता होती है। वह जनकवि हैं, जनता के कवि को कोई वैभवशाली साम्राज्य भी प्रलोभन, प्रभाव या दबाव में नहीं ला सकता। पंक्ति हीं नहीं, हाशिए और उससे इतर समाज के अंतिम व्यक्ति की चिंता जनकवि द्वारा होती है। जनकवि जनता की आवाज़ होता है, फिर भी वह ऐसा होने का कोई गु़मान नहीं करता। जनकवि का प्रभाव जन-जन तक होता है। नागार्जुन भी ऐसे ही जनकवि थे, इसीलिए नामवर सिंह ने कहा है कि ‘‘तुलसीदास के बाद नागार्जुन अकेले ऐसे कवि हैं, जिनकी कविता की पहुंच किसानों की चौपालों से लेकर काव्यरसिकों की गोष्ठी तक है।’’1
नागार्जुन दरभंगा एवं पटना से दिल्ली और देश-विदेश के हिस्सों में भ्रमण करते रहे, उनकी अतिसाधारण वेश-भूषा उन्हें सच्चा जनकवि दिखाती थी। उन्हें कहीं ठहरने के लिए सुख-सुविधाओं की चाह नहीं रही। दिल्ली में जहां वे निवास करते रहे, वहां कोई भी जाकर उनसे मिलता और बिल्कुल अपनेपन से बतियाता। वह खिलखिलाकर हंसते और बालसुलभ, किंतु साफगोई से ठोस बात करते। दिल्ली की पिछड़ी बस्ती करावलनगर की तंग गली के सामान्य से घर में एक मेहमान के रूप में वह जीवन के अंतिम वर्षों में प्रवास करते रहे। उस घर में उनसे मिलने की इच्छा से सन् 1996 में दो बार गया। बिना बिस्तर की खटिया पर हाथ में लिए लेंस के सहारे वह रात-रात भर पढ़ते रहते, उन्हें अनिद्रा की समस्या भी रही, जीवन में अभावों और परेशानियों से वे जूझते रहे, किंतु उनके हाव-भाव में कभी निराशा दिखाई नहीं दी।
दिसंबर 2007 में गोवा विश्वविद्यालय में एक रिफ्रेशर कोर्स में अपने बड़े भाई प्रोफेसर रमेश कुंतल मेघ सहित पधारे हिंदी समालोचक शिवकुमार मिश्र ने नागार्जुन की इस कविता को खोला था, और तब मुझे पहली बार लगा कि आसान सी लगने वाली कविताओं को यदि खोला न गया तो वह आसान ही लगती रहेंगी, उनके मर्म से हम परिचित नहीं हो पाएंगे। नागार्जुन पर शिवकुमारजी इतना तन्मय होकर बोलते कि हम सभी प्रतिभागी सुनकर मंत्रमुग्ध हो जाते। क्यों न हों, नागार्जुन जैसे अतिसाधारण से दिखने वाले असाधारण जनकवि की रचनाओं का खुलासा शिवकुमार मिश्र जैसा जनवादी आलोचक ही कर सकता था। शिवकुमार जी के नाम के आगे परिचय कराते समय कोई विशेषण लगाने, यहां तक कि श्री और जी लगाने पर भी वे बिफर जाते। नागार्जुन पर शिवकुमारजी के व्याख्यान पर ही इस आलेख का प्रतिपाद्य अवलंबित है।
नागार्जुन कविता के एक-एक शब्द तथा एक-एक पंक्ति के साथ घंटों संघर्ष करते, जूझते देखे जाते। दण्डी ने जिसे ‘शब्दपाक’ कहा है, नागार्जुन की शब्द साधना कुछ वैसी ही है, और सही अभिव्यक्ति का संतोष भी उनके चेहरे पर उसी प्रकार झलकता रहा। यह कोरी शिल्प सजगता नहीं, अपनी सारगर्भी वस्तु के लिए अनुकूल अभिव्यक्ति पाने की कोशिश है।
कविता के अंतर्गत कैसे शब्द आएं, उसके बिंब और प्रतीक किस प्रकार नियोजित हों, ये सारी बातें उन्हें परेशान करती हैं, और वे उनके हल ढूंढ़ते हुए अक्सर देखे जाते रहे हैं। कविता में जो ऊपर से एक सरलता और सादगी दिखाई पड़ती है, वह बहुधा लोगों के मन में यह भ्रम पैदा करती है, गोया बडी आसानी से हाथ आ जाने वाली चीज हो जबकि सचाई यह है कि नागार्जुन की ऊपर से सरल और सपाट दिखाई पड़ने वाली रचनाएं ही अपनी व्यंजना में, और अपने रचाव में, सबसे अधिक सक्षम और तकलीफदेह है। उनकी कविता के बिबों और छंदों की ताजगी और वैविध्य प्रयत्नज नहीं, वरन् नागार्जुन ने उसे अपने साधनामय रचनाकार जीवन के क्रम में क्रमशः अर्जित किया है, और उसे अपनी कविता में सहज बनाकर प्रस्तुत किया है। नामवर जी कहते हैं कि तुलसीदास और निराला के बाद कविता में हिंदी भाषा की विविधता और समृद्धि का सर्जनात्मक संयोग नागार्जुन में ही दिखाई पड़ता है।2
सन् 1952 में रचित ‘अकाल और उसके बाद’ उनकी बहुचर्चित कविता को ही देखा जाए, जो इतनी ही है-
कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उसके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।

दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआं उठा आंगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आंखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पांखें कई दिनों के बाद।3

यह कविता ऊपर से देखने में बड़ी सरल लगती है, किंतु वस्तुतः न तो वह सरल है, और न ही सपाट। सारी कविता अपनी आठ पंक्तियों में चित्रों के माध्यम से अकाल और उसके बाद की स्थिति की व्यंजना करती है, और चित्र भी रोजमर्रा के जाने-पहचाने हैं, किंतु वे उन्हीं लोगों को हस्तगत हो सकते हैं, जिन्होंने जिं़दगी को उनके मुख्य प्रवाह में देखा और जिया है, जो अपनी सारी संवेदनात्मक निष्ठा के साथ उस प्रकार की जीवन स्थितियों से जुड़े हैं जिनका कि उसमें चित्रण है। कविता भर में कहीं अकाल शब्द नहीं आया है, गोकि सारी व्यंजना का संबंध अकाल और उसके बाद से है। एक-एक शब्द यथास्थान जुड़ा है, उसमें फेरबदल नहीं किया जा सकता।
      चूल्हे के रोने और चक्की के उदास होने में भी अर्थ है और चक्की को रोते या चूल्हे को उदास होते नहीं दिखाया जा सकता। कुतिया कानी ही क्यों है, और कुत्ता क्यांे न आकर कुतिया ही क्यों नागार्जुन की दृष्टि में आई है, छिपकलियों के भीत पर इधर-उधर चक्कर लगाने को गश्त क्यों कहा गया है, कौओं के पांखें खुजलाने, घर भर की आंखों में चमक के आने, और आंगन के ऊपर महज धुआं उठने का मतलब क्या है, कविता की व्याख्या इन सारी बातों के स्पष्टीकरण की अपेक्षा रखती है, और नागार्जुन जब उसे स्पष्ट करते हैं तब कविता का मर्म स्पष्ट होता है, और मानना पड़ता है कि जिसके बारे में लापरवाही की बात की जाती है, वह वस्तुतः अपने एक-एक शब्द के प्रति कितना सजग है।
यह कविता सरल नहीं है, शिवकुमार जी कहते हैं उसी प्रकार जिस प्रकार पाल-एलुअर की ‘अकाल संस्कृति’ पर लिखी गई यह कविता कि
‘‘दुर्भिक्ष ने जिसे संस्कार दिए हों
ऐसा बच्चा हमेशा यही जवाब देता है
क्या तुम आ रहे हो
जी मैं खा रहा हूं
क्या तुम सो रहे हो
जी मैं खा रहा हूं।
बड़ी कठोर साधना के बाद किसी को उपलब्ध हो पाती है यह सहजता। यह अर्जित की गई सहजता है, जो बड़ी कठिन होती है। कविता क्या है, इसकी पूरी समझ रखने वालों को, और उसके औज़ारों पर पूरा अधिकार रखने वालों को ही यह सरलता और सहजता नसीब होती है।4

जब शिवकुमारजी ने कविता को इस प्रकार खोला तो उसका पुनर्पाठ करते हुए यह भी ख्याल आता है कि इसमें पूर्णविराम दो बार ही प्रयुक्त हुए हैं, पहली बार तब जब अकाल की करालता कही जा रही है और दूसरी बार तब जब अकाल के बाद कुछ जीवनेच्छाएं जागने लगती हैं। पूरी कविता आशा और निराशा के सुप्त द्वं्रद्व की अभिव्यंजना करती है। अकाल में मनुष्य के अलावा अन्य प्राणियों की क्या दुर्गति होती है। कविता में प्रयुक्त कानी कुतिया, छिपकलियां, चूल्हा, चक्की, चूहे, कौआ जैसे अति साधारण जीव-जंतु, पशु-पक्षी और घरेलू वस्तुओं के शब्दचित्रों के सहारे अकाल की भयावहता पाठक के सम्मुख स्वाभाविक रूप में स्पष्ट हो जाती है। कविता के पूर्वार्ध की प्रत्येक पंक्ति कें प्रारंभ में आए ‘‘कई दिनों’’ पद-बंध व्यंजित करते हैं कि यों ही हमारे देश में व्यक्ति के समक्ष अनेक परेशानियां घिरी हुईं हैं, और ऊपर से यह अकाल। उत्तरार्ध की पंक्तियों में यही पद-बंध प्रत्येक पंक्ति के अंत में विन्यस्त हैं, जो व्यंजित करते हैं कि अकाल मिश्रित समस्याओं का दुष्प्रभाव कई दिनों तक रहने वाला है। नागार्जुन ने अपनी कविताओं में पदबंधों का पुनरुक्ति प्रयोग किया है, जिससे उनमें अनुभूति की तीव्रता आ गई है। ऐसे पदबंधों से विषय की मार्मिकता बढ़ गई है, ‘बहुत दिनों के बाद’ कविता में हर टेक मंे यह पदबंध प्रारंभ अधैर अंत में प्रयुक्त हुआ है, ‘चंदू मैंने सपना देखा’ कविता में यह पदबंध पूरी कविता के प्रारंभ में चलता है। ‘तीनों बंदर बापू के’ कविता में यह टेक छंद के अंत में चलकर कविता को लयबद्ध ही नहीं, वरन् अर्थछबियां भरती है।


                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                             
संदर्भ-
1- नागार्जुन प्रतिनिधि रचनाएं, संपादक नामवरसिंह, भूमिका से, राजकमल पेपरबैक्स, तुतीय संस्करण 1988, पांचवी आवृत्ति 2001
2- वही, भूमिका से
3- वही, पृष्ठ 98
4- दर्शन, साहित्य और समाज, शिवकुमार मिश्र, पृष्ठ 151, वाणी प्रकाशन, 2000

शब्दार्णव, नया पटेल नगर, कोंच रोड, उरई (जालौन)
मोबाइल 9236114604

2 comments:

  1. यहाँ कौए की प्रतिकात्मकता को स्पष्ट करना चाहिए।

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