Tuesday, October 27, 2015

हिंदी और उसकी बोलियों का अंतर्संबंध

हिंदी और उसकी बोलियों का अंतर्संबंध
डा राकेश नारायण द्विवेदी
2001 की जनगणना के अनुसार हिंदी प्रदेश में हिंदी की 48 मातृभाषाएं बोली जाती हैं। इसमें दस हजार से कम प्रयोक्ताओं की बोलियों को शामिल नहीं किया गया है। यह मातृभाषाएं उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा एवं दिल्ली में तो हैं ही; अंडमान तथा निकोबार एवं अरुणाचल जैसे दूरस्थित क्षेत्र में भी बोली जाती हैं।
पाश्चात्य भाषाशास्त्री जार्ज ग्रियर्सन ने 1927 में भारतीय भाषा सर्वेक्षण में हिंदी प्रदेश में दो बोली समूहों - पश्चिमी हिंदी एवं पूर्वी हिंदी- को ही हिंदी की भाषाएं माना है किंतु डा सुनीति कुमार चटर्जी ने पहाड़ी हिंदी को छोड़कर चारों बोली समूहों को हिंदी के अंतर्गत स्वीकार किया है। बाद में डा धीरेंद्र वर्मा ने पहाड़ी हिंदी की भाषिक विशेषताओं को देखते हुए इसे भी हिंदी में ही माना। डा धीरेंद्र वर्मा का वर्गीकरण हिंदी भाषा विज्ञान में सर्वमान्य है, जिसके अनुसार हिंदी भाषी प्रदेश हिंदी की विभिन्न सत्तरह बोलियों से मिलकर बना है। ये सत्तरह बोलियां हिंदी के पांच बोली समूह - पश्चिमी हिंदी, पूर्वी हिंदी, राजस्थानी हिंदी, बिहारी हिंदी तथा पहाड़ी हिंदी - के अंतर्गत सम्मिलित है। पश्चिमी हिंदी में कौरवी या खड़ी बोली, ब्रज, बुंदेली, बांगरू या हरियाणवी तथा कन्नौजी बोलियां आती हैं तो पूर्वी हिंदी में अवधी, बघेली तथा छत्तीसगढ़ी बोलियां सम्मिलित हैं। वहीं राजस्थानी हिंदी में मेवाती, मारवाड़ी, जयपुरी तथा मालवी; बिहारी हिंदी में भोजपुरी, मगही तथा मैथिली एवं पहाड़ी हिंदी में कुमाउंनी तथा गढ़वाली बोलियां शामिल हैं। इन प्रमुख बोलियों के अतिरिक्त नाम भेद से प्रचलित अन्य बोलियां भी हिंदी भाषा की अंग हैं। जो स्थान हिंदी साहित्येतिहास लेखन में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का है, वही स्थान हिंदी भाषा विज्ञान में डा धीरेंद्र वर्मा का है।
अभी 2011 की जनगणना के भाषा संबंधी आंकड़े जारी नहीं हुए हैं। अत: 2001 की जनगणना को आधार बनाना होगा, जिसके अनुसार भारत की कुल जनसंख्या के 41.03 प्रतिशत व्यक्ति हिंदी भाषा का प्रयोग करते हैं। इसमें मैथिली भाषा सम्मिलित नहीं है। मैथिली भाषी व्यक्तियों की संख्या 1.18 प्रतिशत है। मैथिली हिंदी की ही बोली है जो बिहारी हिंदी के अंतर्गत आती है। मागधी अपभ्रंश से यह विकसित हुई, जिससे भोजपुरी और मगही बोलियों का भी उद्गम हुआ है। हिंदी और उर्दू में भी मुख्यत: लिपि का ही अंतर है। इन दोनों भाषाओं में इतनी अधिक भाषिक समानताएं हैं कि बहुधा लोग समझ ही नहीं पाते कि वे उर्दू शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं। अत: यदि हम  उर्दू भाषी जनसंख्या- जो 5,15,36,111 व्यक्तियों के साथ 5.01 प्रतिशत है- को मिला दें तो इस प्रकार कुल 47.22 प्रतिशत जनसंख्या की भाषा हिंदी ही है। हिंदी भाषा भाषियों में सर्वाधिक दस बोली प्रयोक्ता व्यकितयों की संख्या इस प्रकार है-
1- भोजपुरी 3,30,99,497
2- राजस्थानी 1,83,55,613
3- मगही 1,39,78,565
4- छत्तीसगढ़ी 1,32,60,186
5- हरियाणवी 79,97,192
6- मारवाड़ी 79,36,183
7- मालवी 55,65,167
8- मेवाड़ी 50,91,797
9- खोट्टा/खोरठा 47,25,927
10- बुंदेली 30,72,147
यह सूची 48 की संख्या तक जाती है, जिसमें अवधी, खड़ी बोली और ब्रज जैसी साहित्यिक गरिमा प्राप्त बोलियों का भी नाम है, पर इसके प्रयोक्ता अपेक्षाकृत कम रह गए हैं। मातृभाषा में हिंदी के नाम से ही 25,79,19,635 व्यक्ति अंकित हैं। जाहिर है विभिन्न बोलियों के लोगों की भाषा भी हिंदी ही दी गई है। यही नहीं, इसमें मातृभाषा हिंदी के अन्य प्रयोक्ता 1,47,77,266 अलग से हैं। बोलियों की प्रचुरता और वैविध्य को देखते हुए इनका सर्वेक्षण कार्य अलग से किए जाने की आवश्यकता है। अलबत्ता, जनगणना विभाग के इन आंकड़ों से एक मोटा अनुमान लग जाता है। हिंदी की उन्हीं 48 मातृभाषाओं को जनगणना विभाग ने जारी किया, जिनके प्रयोक्ताओं की संख्या दस हजार से अधिक है।
यदि हम संपूर्ण प्रयोक्ताओं की संख्या की दृष्टि से बात करें, जिसमें मातृभाषा वक्ता (first language speakers) तथा द्वितीय भाषा वक्ता (second language speakers) दोनों को मिला दें तो हिंदी भाषियों की संख्या एक हजार मिलियन (सौ करोड़) होती है। मातृभाषा को अब मदर टंग पद की अस्पष्टता के कारण first language speakers कहा जा रहा है। इससे उन बेतुके प्रश्नों से भी बचना संभव हो गया कि अगर मां और पिता अलग-अलग बोलियों के हुए तो उसकी मातृभाषा क्या होगी! the language register to the world's language and speach communities में इसी कारण हिंदी भाषियों की संख्या 960 मिलियन मानी गई है। केंद्रीय हिंदी निदेशालय के तत्कालीन निदेशक प्रो महावीर सरन जैन द्वारा इसी आशय की जो रिपोर्ट यूनेस्को भेजी गई थी। इसके परिणामस्वरूप; भारतकोश पर दी गई जानकारी के अनुसार यह स्वीकृत हो गया है कि संसार की भाषाओं में चीनी भाषा के बाद हिंदी का दूसरा स्थान है। मंदारिन चीनी भाषाओं में सर्वप्रमुख है। यह विश्व की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। 1,36,50,53,177 से ज्यादा लोग इस भाषा का उपयोग क‍रते हैं। चीन में जो स्थिति मंदारिन की है, वही स्थिति भारत में हिंदी की है। जिस प्रकार प्रचलित कहावत- कोस-कोस पर बदले पानी पांच कोस पर बानी- के अनुसार हिंदी भाषा क्षेत्र में विविध क्षेत्रीय भाषिक रूप बोले जाते हैं, वैसे ही मंदारिन भाषा क्षेत्र में विविध क्षेत्रीय भाषिक रूप बोले जाते हैं। हिंदी क्षेत्र की विविध बोलियों के एक छोर से दूसरे छोर के लोगों की पारस्परिक बोधगम्यता का प्रतिशत कम अवश्य है; किंतु है, पर मंदारिन भाषा के दो चरम छोरों पर बोले जाने वाले क्षेत्रीय भाषिक रूपों के बोलने वालों के बीच पारस्परिक बोधगम्यता बिल्कुल नहीं है। प्रो महावीर सरन जैन द्वारा दिए गए उदाहरण के अनुसार मंदारिन के एक छोर पर बोली जाने वाली हार्बिन और दूसरे छोर और दूसरे छोर पर बोली जाने वाली शिआनीज़ के वक्ता एक दूसरे से संवाद स्थापित नहीं कर पाते। वे आपस में मंदारिन के मानक भाषा रूप के माध्यम से ही बातचीत कर पाते हैं। मंदारिन के इन क्षेत्रीय रूपों को लेकर वहां कोई विवाद नहीं है। पाश्चात्य भाषावैज्ञानिक मंदारिन को लेकर कभी कोई विवाद पैदा भी नहीं कर पाते। सच्चाई यह भी है कि वहां राष्ट्रीय भावना के रूप में भाषा को लिया जाता है।
अपने यहां तो; एक जगह जहां सारी प्रमुख भारतीय भाषाओं के विद्वान एकत्रित थे मैंने सुना कि जब अपना देश धर्मनिरपेक्ष है और उसका कोई एक राजकीय या राष्ट्रीय धर्म नहीं है तो एक भाषा का होना क्यों आवश्यक है। संविधान की आठवीं अनुसूची में दर्ज बाईस भाषाएं समान रूप में यहां की भाषाएं हैं। उनसे मैंने निवेदन किया कि हमारा काम धर्म के बिना चल सकता है पर भाषा के बिना हम गूंगे हो जाएंगे। जब हम मातृभाषाओं को बढ़ाने के बारे में सोच रहे हैं तो साथ ही देश की राजभाषा मुख्यत: हिंदी को व्यावहारिक स्तर पर बनाने के बारे में भी अग्रगामी होना होगा। अन्यथा बहुत सी भारतीय भाषाएं कालकवलित हो जाएंगी। इस प्रकार के रुझान आलेख में दी गई तालिका में गोचरित हो रहे हैं। पता नहीं कैसे, वहां के कुछ लोगों को लगा कि मैं हिंदी को थोपने की बात कर रहा और उन्होंने जब मुझे कहा कि याद रखिए बांग्लादेश इसीलिए बना और इसे सुनकर मेरा अंतर्मन कांप उठा कि भाषा का प्रश्न अपने देश में किस तरह उलझा दिया गया है। उनका यह आरोप मुझे सही भी लगा कि हिंदी क्षेत्र के लोग  एकभाषिक होते हैं, वे हिंदी के अतिरिक्त कोई भारतीय भाषा नहीं सीखते, जबकि हिंदीतर क्षेत्र के लोग द्विभाषी (दो भारतीय भाषाएं जानने वाले) ही नहीं त्रिभाषी (तीन भारतीय भाषाएं जानने वाले) भी होते हैं। यद्यपि यह आरोप उन्हीं के द्वारा लगाए गए एक अन्य आरोप के साथ विरोधाभासी हो जाता है, जब वह कहते हैं कि हिंदी कोई भाषा नहीं, वह तो अनेक बोलियों का समुच्चय है। उनके अनुसार हिंदी अलग है और मातृभाषा अलग तथा दोनों में इतना अंतर है कि एक दूसरे की बात समझ ही नहीं पाते। विरोधाभास ये कि फिर हिंदी खा व्यक्ति एकभाषी कैसे रहा, वह अपनी बोली के अलावा हिंदी भी जान रहा होता है।  इन विद्वानों को हिंदी पट्टी के वे लोग बड़े प्रिय होते हैं जो कहते कि हमें हमारी मातृभाषा (बोली) में पढ़ने को मिले, हिंदी में न पढ़ना पड़े।
मंदारिन के दो विभिन्न क्षेत्रीय रूपों की पारस्परिक बोधगम्यता के उपर्युक्त उदाहरण से हमारे ऐसे प्रश्न उठाने वाले लोगों को सीख लेनी चाहिए। कुछ लोग पहाड़ी और राजस्थानी एवं हिंदी की अन्य बोलियों के नमूने रखते हुए कहते हैं क्या कोई भोजपुरी या अन्य हिंदी भाषी व्यक्ति इन्हैं समझ सकता है, किंतु क्या हम नहीं देखते कि हिंदी के एक बोली रूप को दूर के हिंदी के ही दूसरे वक्ता किसी न किसी मात्रा में समझ लेते हैं। हमें यह देखना होगा कि प्रत्येक बोली के विशिष्ट संज्ञा और क्रिया रूप होते हैं, उन्हें समझना पड़ोस के वक्ताओं को भी दुष्कर होता है। हिंदी जिस खड़ी बोली का मानक रूप है, उसका यह नमूना यहां रखने से और स्पष्ट हो जाएगा:-
कोई बादसा था। साब उसके दो राण्याँ थीं। वो एक रोज़ अपनी रान्नी से केने लगा मेरे समान ओर कोइ बादसा है बी? तो बड़ी बोल्ले के राजा तुम समान ओर कोन होगा। छोटी से पुच्छा तो किह्या कि एक बिजाण सहर हे उसके किल्ले में जितनी तुम्हारी सारी हैसियत है उतनी एक ईंट लगी है। ओ इसने मेरी कुच बात नई रक्खी इसको तग्मार्ती (निर्वासित) करना चाइए। उस्कू तग्मार्ती कर दिया। ओर बड़ी कू सब राज का मालक कर दिया।
उक्त उदाहरण में तग्मार्ती क्रिया का बोध आसान नहीं है।
यहां उल्लेखनीय है कि प्रयोग का क्षेत्र विस्तृत होने से किसी भाषा या बोली में स्थानीय तत्वों का समावेश होना स्वाभाविक है। चीनी बोलने वाले हिंदी से अधिक हैं, किंतु उसका प्रयोग क्षेत्र हिंदी से सीमित है। वहीं अंगरेजी भाषा का प्रयोग क्षेत्र हिंदी से भी अधिक है, किंतु उसके बोलने वाले हिंदी से अधिक नहीं हैं। पिछले पचास सालों में हिंदी भाषी व्यक्ति 26 करोड़ से बढ़कर 42 करोड़ हो गए जबकि अंगरेजी बोलने वाले 33 करोड़ से 49 करोड़ हुए। इस प्रकार हिंदी की वृद्धि दर अधिक है। भारत में अधिकांश व्यक्ति तीन भाषाएं जानते हैं। 1500 से अधिक  मातृभाषाएं भारत में बोली जाती हैं। दस हजार से अधिक व्यक्तियों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं की संख्या 122 है। हिंदी को प्रथम भाषा मानने वाले 42 करोड़ व्यक्ति हैं, वहीं दूसरी या तीसरी भाषा के रूप में हिंदी जानने वाले व्यक्तियों की संख्या 13 करोड़ है। अंगरेजी के दावों में 2.26 लाख लोगों की मातृभाषा अंगरेजी है, वहीं 8.60 करोड़ लोगों की दूसरी भाषा और 3.12 करोड़ लोगों की तीसरी भाषा अंगरेजी बताई गई है। इनका जोड़ लगाकर ये दावेदार अंगरेजी को दूसरे स्थान पर बिठा देते हैं। दूसरी भाषा के रूप में भारतीय राज्यों की स्थिति अगर देखें तो तमिलनाडु में अंगरेजी 14 प्रतिशत तथा हिंदी 1.5 प्रतिशत प्रचलित है किंतु दक्षिण की ही अन्य भाषाओं में अंगरेजी से हिंदी बहुत पीछे नहीं है। केरल में 24.35 प्रतिशत व्यक्ति अंगरेजी जानते हैं तो हिंदी 19.07 प्रतिशत। आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में हिंदी से अधिक तीन प्रतिशत व्यक्ति ही अंगरेजी जानते हैं। वहीं पश्चिम बंगाल में 2.40 प्रतिशत अंगरेजी आगे है तो ओड़िशा में हिंदी और अंगरेजी की लगभग समान स्थिति है। असम में हिंदी जानने वाले अंगरेजी से अधिक है। यह रुझान पिछले तीस सालों का है। इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि हिंदीतर भाषा क्षेत्रों में जहां अंगरेजी हिंदी से अधिक प्रचलन में है, वहां इन तीस वर्षों में उन्ही की मातृभाषाओं की प्रचलन दर में गिरावट अधिक है। जनगणना विभाग की वेबसाइट पर दिनांक 25 अक्टूबर 2015 को जाने पर स्टेटमेंट पांच से पता लगा कि 1971 से 2001 तक के चार जनगणना वर्षों में हिंदी भाषियों की संख्या दर निरंतर बढ़ी है। अाठवीं अनुसूची की भाषाओं के प्रयोक्ताओं की तुलनात्मक तालिका देश की कुल जनसंख्या के प्रतिशत में द्रष्टव्य है:-
जनसंख्या          1971    1981     1991       2001 
भारत                97.14   89.23    97.05     96.56         
1  हिंदी             36.99   38.74    39.29      41.03
2  बंगाली            8.17     7.71      8.30        8.11  
3 तेलुगु               8.16     7.61      7.87        7.19
4  मराठी             7.62     7.43      7.45        6.99
5  तमिल                6.88      **          6.32        5.91
6  उर्दू                  5.22     5.25       5.18        5.01
7  गुजराती           4.72     4.97       4.85        4.48
8  कन्नड़             3.96      3.86       3.91       3.69
9  मलयालम        4.00      3.86       3.62       3.21
10 उड़िया            3.62      3.46       3.35       3.21
11 पंजाबी            2.57      2.95       2.79      2.83
12 असमी            1.63        **          1.56      1.28
13 मैथिली             1.12       1.13      0.93      1.18
14 संथाली           0.69       0.65      0.62       0.63
15 कश्मीरी          0.46       0.48        #          0.54
16 नेपाली            0.26       0.20      0.25       0.28
17 सिंधी              0.31       0.31      0.25       0.25
18 कोंकणी          0.28       0.24      0.21       0.24
19 डोंगरी             0.24       0.23        #          0.22
20 मणिपुरी          0.14        0.14      0.15       0.14
21 बोडो               0.10          **         0.15       0.13
22 संस्कृत             N            N         0.01         N
अंत में हमें कहना है कि हिंदी और उसकी बोलियों से मिलकर जो हिंदी की स्थिति बनती है, वह आशा का संचार करती है; लेकिन जब बात हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के परिप्रेक्ष्य में की जाये तो चाहिए कि हिंदी अपने बड़प्पन का परिचय दे और अन्य भारतीय भाषाओं के कालजयी साहित्य को अपने यहां लाए। जबकि हम जब अंगरेजी के सापेक्ष हिंदी को देखते हैं तो लगता है कि अभी ज्ञान-विज्ञान की भाषा बनने के लिए हिंदी को लंबी यात्रा तय करनी है।

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