Tuesday, October 27, 2015

गैर हिंदी राज्यों में हिंदी

गैर हिंदी राज्यों में हिंदी
राकेश नारायण द्विवेदी
गैर हिंदी राज्यों में हिंदी की स्वीकार्यता बलात् नहीं, वरन् हर्षात् स्थापित हो, इससे पूर्व हिंदी को हिंदी भाषी भारतीय राज्यों द्वारा प्राथमिक भाषा के रूप में मान्यता प्रदान की जानी चाहिये। हिंदी भाषा भाषियों को यह भी ध्यान रखना होगा कि संपूर्ण देश में हिंदी को सभी भाषाओं के ऊपर रखने का आशय यह कदापि नहीं कि उसने दूसरी भारतीय भाषाओं पर अपनी श्रेष्ठता स्थापित कर ली है। हिंदी भाषी व्यक्ति को कम से कम एक अन्य भारतीय भाषा का ज्ञान प्राप्त करना ज़रूरी है। और नहीं तो संस्कृत का ही सामान्य ज्ञान एक हिंदी पाठक अवश्य ग्रहण करे, क्योंकि संस्कृत भाषा में वह रागात्मक एकता विद्यमान है, जिसमें सभी भारतीय भाषाओं की आत्मा का समुचित समाहार मिलता है। हमें  अंग्रेजी को देशनिकाला देने की आवश्यकता नहीं है। वस्तुतः कोई भाषा अपने साथ ज्ञान-विज्ञान एवं संस्कृति की एक समुन्नत परंपरा लिए हुए होती है, फिर अंग्रेजी तो आजकल विश्व में एक संपर्क भाषा के रूप में प्रचलित हो चुकी है। यद्यपि अभी भी ज्ञान-विज्ञान की दृष्टि से जर्मनी, स्पैनिश आदि यूरोपीय भाषाएं बहुत से देशों में समादृत हैं। हमें अपने लिए ज्ञान के गवाक्ष बंद नहीं करने चाहिए, यह भाषाएं भी आधुनिक ज्ञान और विज्ञान की दृष्टि से क्षमतासंपन्न हो चुकी हैं। हमें अंग्रेजी में महारत नहीं तो कामकाजी ज्ञान हासिल करके ‘‘निजभाषा’’ की उन्नति एवं गौरव के लिए जुटना चाहिए। कोई हिंदी भाषी व्यक्ति मात्र हिंदी भाषा की जानकारी रखे, वह भारतीय भाषा या संस्कृत का ज्ञान न रखे और न सामान्य अंग्रेजी ही जाने और फिर वह हिंदी को राष्ट्रभाषा, राजभाषा, भारत की संपर्क भाषा और विश्व भाषाओं में अग्रणी स्थान पर सर्वमान्य रूप में देखना चाहे तो यह भारत की विविधता में संभव नहीं। 
सर्वप्रथम हिंदी भाषी व्यक्ति का ही कर्तव्य बनता है  कि वह विश्व की अग्रणी भाषाओं में हिंदी की प्रतिष्ठा गैर  हिंदी राज्यों में सौमनस्य  स्वीकार्यता प्राप्त करे। हिंदी भाषा भाषी व्यक्ति एक तरह के पाखंड का शिकार होने लगता है, जब वह हिंदी को भारत की एकता और अखंडता के लिए देश के जन-जन को जोड़ने वाली भाषा के रूप में तो मानता है, पर इससे आगे हिंदी को ज्ञान-विज्ञान की भाषा बनाने के लिए अपेक्षित भाषायी समृद्धि की दृष्टि से इसके अधिकाधिक प्रयोग में पीछे रहता है। यही नहीं, साहित्य में रुचि लेने में तो हिंदीजन भारत की ही भाषाओं के व्यक्तियों से पीछे है। साहित्य में जैसी रुचि बंगाली, मराठी, मलयालम, तमिल और यहां तक कि असमी जैसी छोटी भाषाओं के व्यक्तियों में पाई जाती है, वैसी रुचि हिंदी पट्टी राज्यों में क्यों नहीं दिखाई देती। भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों का सम्मान आनुपातिक रूप में हिंदी साहित्यकार से कहीं अधिक है। हिंदी का पाठक उतना पठनशील नहीं, जितने अन्य भारतीय भाषा भाषी व्यक्ति होते हैं। हिंदी पुस्तकों के अधिकतम पांच सौ के संस्करण छपते हैं, इनमें से भी अनबिके रह जाते हैं। हिंदी की कमियों को हिंदी का जनमानस ही दूर करेगा। हिंदी केवल जनसंख्या के बल पर देश की प्रमुख भाषा नहीं है, अपितु इसकी समृद्ध साहित्यिक परंपरा एवं पाचक प्रवृत्ति के कारण हिंदी जन-गण-मन से जुड़ती है। हिंदी वह भाषा है, जिसमें लोकतंत्र मुखर होता है, वह सबकी बात कहने-सुनने वाली भाषा है, जन-जन की मुखरित अभिलाषा है। वह गुजरात के गांधी की भाषा है तो बंगाल के सुभाष की भाषा है,  वह मराठी तिलक और गोखले की भाषा है तो वह सुदूर दक्षिण में रामेश्वरम के जन-मन की भाषा है। वह षडयंत्री राजनीति से विरहित मन की आकांक्षा है। वह मजदूर मन की व्यथा है तो पूंजीपति की कामकाजी सभ्यता का निमित्त भी। किसान का संघर्ष हो या व्यापारी का घात-संघात, इसकी रगड़ से हिंदी चमकदार बनती है। हिंदी में उर्दू ज़ुबान के लफ़्ज मिलते हैं तो उसमें लोच आती है और वह हिंदुस्तानी कही जाने लगती है तो तत्समी हिंदी किस तरह संस्कृत परंपरा का स्मरण कराती है, वहीं खांटी ग्राम वासियों के मुंह से निःसृत हिंदी भदेस रूप में कितनी मिठास घोलती है। हिंदी की संपर्क शक्ति के कारण इस भाषा के माध्यम से देश का स्वाधीनता आंदोलन चला। आम जन की भाषा होने के कारण देश की राष्ट्रभाषा के रूप में स्वाधीनता आंदोलन के पुरोधाओं द्वारा यह स्वीकृत हुई। हिंदी राजभाषा के रूप में 14 सितंबर 1949 को स्वीकृत हुई, पर पंद्रह वर्षों के लिए अंग्रेजी को सहराजभाषा बना दिया गया, यह घटना हिंदी के लिए अभिशाप सिद्ध हुई, क्योंकि पंद्रह वर्षों की यह निर्वासन अवधि बीते; इससे पूर्व ही सन् 1963 में यह प्रावधान कर दिया गया कि जब तक देश के सभी राज्य हिंदी को एकमात्र राजभाषा स्वीकार नहीं कर लेते, हिंदी को राजभाषा नहीं बनाया जाएगा। इस तरह अंग्रेजी के माध्यम से सरकारी कामकाज चलाने की यह व्यवस्था अनंत काल तक के लिए हो गई, क्योंकि 29 प्रदेशों के इस विविध भाषी देश में डेढ़ हजार से अधिक बोलियां हैं, सबके अपने राजनीतिक स्वार्थ है, वे भला कैसे और कब हिंदी को एकमात्र राजभाषा स्वीकार करेंगे। कुछ राज्यों ने तो अंग्रेजी को ही प्रथम राजभाषा बना रखा है। तुर्की और जापान जैसे देशों में जब यह बात आई कि उनके देशों की भाषाओं में कामकाज संपन्न होने में कठिनाई होगी तो वहां की तत्कालीन सत्ताओं ने कहा कि जो कठिनाई होगी, उसे दूर किया जाएगा, काम स्वभाषा में ही होना चाहिए और ऐसा ही हुआ, अपने देश में भी यही होना चाहिए था। भाषा की कठिनाईयां उसे प्रयोग करने से ही दूर हो सकती हैं। अब भी यदि कोई समाधान हिंदी को एकमात्र राजभाषा बनाने के लिए सत्ता केंद्रों द्वारा किए जाएं तो यह कार्य दुष्कर तो है, पर असंभव कदापि नहीं है। हिंदीतर भाषा भाषियों के रोजगार और उन भाषाओं की अस्मिता को पूर्ण संरक्षण देते हुए सर्वसम्मति बनाई जा सकती है। हिंदीतर भारतीय भाषाओं के राजनेताओं को भी देश की प्रतिष्ठा के लिए भाषा की राजनीति छोड़ देनी चाहिए। उनके हितों का संरक्षण कैसे हो, वे इसकी रूपरेखा निर्माण करें तो देश की प्रतिष्ठा भाषा के माध्यम से अवश्यमेव बढ़ सकती है। आखिर इसी देश से ही हम सब हैं, यदि देश की प्रतिष्ठा बढ़ेगी तो हमारा ही मान बढ़ेगा। 

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